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सर्वदर्शनसंग्रहेसम्यग्दर्शनम् ।' तथा च तत्त्वार्थसूत्र-तत्त्वार्थ ( थे ) श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति। ____ 'तीन रत्न' शब्द से समझे जानेवाले सुप्रसिद्ध सम्यक् दर्शन आदि तीनों का निरूपण 'परमागमसार' (नामक ग्रन्थ ) में हुआ है जो ( ग्रन्थ ) अर्हतों के प्रवचनों ( Teachings ) के संग्रह के रूप में है-'सम्यक् दर्शन ( Right faith ), सम्यक् ज्ञान ( Right knowledge ) और सम्यक् चारित्र ( Right conduct ) मोक्ष के मार्ग हैं ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का प्रथम सूत्र; रचयिता-उमास्वाति, काल-५० ई० )।'
योगदेव ने इसका विवरण भी दिया है-जिस रूप में जीव आदि पदार्थों की व्यवस्था [ संसार में ] है अर्हत् ने उसी रूप में उनके तात्विक अर्थ का प्रतिपादन किया है, उन ( उक्तियों) में श्रद्धा रखना, जिसका दूसरा नाम 'विरुद्ध सिद्धान्तों में आस्था ( अभिनिवेश ) नहीं रखना' है, ही सम्यक दर्शन कहलाता है।' उसी तरह तत्वार्थसूत्र में भी कहा गया है-'तत्त्वार्थ में श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन कहलाता है।'
विशेष-जैन-दर्शन का सम्पूर्ण आचारशास्त्र ( Ethics ) इन तीन रत्नों पर ही अवलम्बित है । तीनों एक साथ मिलकर मोक्ष के मार्ग का निर्माण करते हैं। इसके लिए दण्डचक्रादिन्याय है। जैसे दण्ड, चक्र, सूत्र, मृत्तिका आदि सब मिलकर घट का निर्माण करते हैं न कि पृथक्-पृथक्, उसी प्रकार ये सब मिलकर ही मोक्ष मार्ग बनाते हैं । तृणारणिमणिन्याय मे ये काम नहीं करते । तृण अग्नि का कारण है, उसी प्रकार अरणि, उसी प्रकार मणि । नीनों भिन्न हैं । तीनों रत्नों का मिलना ही कारण नहीं है ( कारणतावच्छेदकं तु न मिलिनत्वम् ), किन्तु नीनों में प्रत्येक की वृत्ति ( Action ) कारण का निर्माण करती है।
ऊपर परमागमसार और उसके टीकाकार योगदेव का नाम दिया गया है। आज दोनों ही अज्ञात हैं। हाँ, उद्धरणों की प्राप्ति उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र ग्रन्थ में होती है। ___अन्यदपि१.. रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते ।
जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ॥ इति ॥
परोपदेशनिरपेक्षमात्मस्वरूपं निसर्गः। व्याख्यानादिरूपपरोपदेशजनितं ज्ञानमधिगमः।
दूसरे स्थान में भी ( कहा है )-'जिनदेव के द्वारा कहे गये तत्त्वों में रुचि होना सम्यक् श्रद्धान (= दर्शन ) कहलाता है । वह या तो निसर्ग ( स्वभाव ) से ही उत्पन्न होता १ विस्तरेणापदि टानामर्थानां नन्वसिद्धये ।
ममामेनाभिधानं यन्मंग्रहं न विदर्वधाः ।।