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सर्वदर्शनसंग्रह
२१. सर्वथावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते।
कोतितं तदहिंसादिवतभेदेन पञ्चधा ॥
अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः ॥ संसार के ( प्रवर्तन के कारणस्वरूप ) कर्मों के नष्ट ( उच्छित्ति = उत् + /छिद्+ क्तिन् ) हो जाने पर, उद्यत ( =पाप नाश के लिए ), श्रद्धावान् ( = प्रथम रत्न से युक्त) तथा ज्ञानवान् ( = द्वितीय रत्न से युक्त) पुरुष का पाप में ले जानेवाली क्रियाओं से निवृत्त ( पृथक् ) हो जाना ही सम्यक् चरित्र ( Right conduct ) है । अर्हत ने इसका वर्णन विस्तारपूर्वक किया है-'पाप के साथ सम्बन्ध का सब प्रकार से त्याग करना चारित्र है । अहिंसा आदि व्रतों के भेद से वह पाँच प्रकार का है। वे हैं-अहिंसा, सनत ( सत्य ), अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।' २२. न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् ।
चराणां स्थावराणां च तदहिसावतं मतम् ॥ २३. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतं व्रतमुच्यते।
तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ २४. अनादानमदत्तस्यास्तेयवतमुदीरितम् ।।
बाह्याः प्राणाः नृणामर्थो हरता तं हता हि ते ॥ २५. दिव्यौदरिककामानां कृतानुमतकारितैः ।
मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ॥ २६. सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यानः स्यादपरिग्रहः ।
यदसत्स्वपि जायेत मूर्च्छया चित्तविप्लवः ।। अहिंसावत-प्रमाद ( असावधानी या पागलपन ) से भी जब चरों ( मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ) और स्थावरों ( लता, वृक्ष आदि ) के प्राणों का विनाश ( व्यपरोपण = पृथक् करना ) नहीं किया जाता है—वही अहिंसा-व्रत है ॥ २२ ॥ सत्यवत-प्रिय ( सुनने में सुखद ), पथ्य ( अन्त में सुखद ) तथा तथ्य ( यथार्थ, सत्य ) वाणी को नृत व्रत कहते हैं । वह वाणी सच्ची होकर भी सच्ची नहीं है जो प्रिय नहीं ( सुनने में सुखद नहीं ) या हितकर नहीं ( परिणाम से सुखद नहीं ) है ॥ २३ ॥ अस्तेयव्रत-बिना दिये हए किसी वस्तु को न लेना अस्तेय व्रत है। धन मनुष्यों के बाहरी प्राण हैं उनके हरण से तो प्राणों का हरण होता है ॥ २४ ॥ ब्रह्मचर्यवत-दिव्य ( आगामी जीवन में भोग्य ) और औदरिक ( इसी शरीर में भोग्य ) कामनाओं का कृत ( स्वयं किये गये ), अनुमत ( अनुमोदित ) तथा कारित ( दूसरों से कराये गये ) तीनों विधियों से ( मन, वचन तथा कर्म से ), त्याग देना 'ब्रह्म' ( ब्रह्मचर्य ) है जो अठारह तरह का है ॥२५॥