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सर्वदर्शनसंग्रहे
'मति' है । [ घटादि के प्रत्यक्ष होने के पूर्व जो मननात्मक ज्ञान प्राप्त होता है, वही मति है । चक्षु आदि इन्द्रियों की सहायता के बिना स्मरण के रूप में, जो वस्तु का चिन्तन करते हैं, उससे यह ज्ञान भिन्न है । उदाहरण से समझें- जिस तरह नाटक देखने के समय पर्दा हटने के थोड़ी देर पहले — 'कौन पात्र आवेगा' इस तरह की मानसिक वृत्ति के साथ दर्शक लोग पर्दे पर दृष्टि डाले रहते हैं । ठीक उसी तरह का यह ज्ञान है। बिना सोचे ही अकस्मात् किसी वस्तु के देखने में भी मति-ज्ञान ही है। बच्चे छह महीने तक अपनी दृष्टि स्थिर नहीं कर पाते, इसलिए उन्हें मति-ज्ञान नहीं होता । दृष्टि की स्थिरता हो मति - ज्ञान का अनुमापक है । ]
( २ ) श्रुत ( Scriptural or verbal knowledge ) - ज्ञान के आवरण का क्षय या उपशम हो जाने पर, मति-ज्ञान से उत्पन्न, स्पष्ट ज्ञान को 'श्रुत' कहते हैं । इसे ही नैयायिक लोग 'निर्विकल्पक' कहते हैं । इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण स्वयं प्रत्यक्ष होने पर भी यह अतीन्द्रिय है = इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय नहीं
]
( ३ ) अवधि ( Definite knowledge ) - जो ज्ञान सम्यक् दर्शन आदि गुणों से उत्पन्न क्षय या उपशम का कारण हो तथा विषयों ( Objects ) को व्याप्त करनेवाला हो वह 'अवधि' है । [ जिससे विषयों को मर्यादित कर दिया जाय कि यह वस्तु ऐसी है, वह ऐसी - - यही अवधिज्ञान है। निर्वचन ऐसा होगा - अब समन्तात् द्रव्यादिभिः परिमितत्वेन धीयते प्रिय विषयोऽनेन । अथवा अवधीयते = द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिच्छिद्यते विषयोऽनेन । अवधिज्ञान से विषयों का द्रव्य, स्थान, काल आदि जानते हैं । यही सविकल्पक ज्ञान है । देवता लोग इसी ज्ञान के कारण नीचे सातवें नरक तक देख पाते हैं, लेकिन ऊपर अपने विमान के दण्ड तक ही देख सकते हैं, इसलिए एक और अर्थ इसका --अधस्तात् वहुतर विपयग्रहणात् अवधि: ( अभ्यंकर ) । ]
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( ४ ) मनः पर्याय ( Extraordinary perception ) - ज्ञान के आवरण के रूप में जो ईर्ष्या आदि विघ्न ( अन्तराय ) हैं, उनका क्षय या उपशम हो जाने पर दूसरे व्यक्तियों के मन की बात को स्पष्ट रूप से व्याप्त करनेवाले ज्ञान को 'मनःपर्याय' कहते हैं । [ दूसरे व्यक्तियों के मन की बात को जानने के लिए ईर्ष्यादि मनोगत आवरण का घटना आवश्यक है । वह सम्यक् दर्शन से हटता है। इस प्रकार, मनः = मनोगत अर्थ का, पर्याय पर्ययण = दूसरे के मन में सर्वतः (रि) गमन होता है । प्रत्यक्ष से दूसरे लोग जानते हैं । ]
इसे अलौकिक
( 2 ) केवल ( Pure knowledge ) — जिसके लिए तपस्वी लोग विशेष प्रकार की तपस्याएँ करते हैं तथा जो अन्य किसी प्रकार के भी ज्ञान से पृथक् ( असंसृष्ट Umailoyed ) है, वही 'केवल -ज्ञान' है । ( सम्यक् चरित्र के द्वारा ज्ञान के सभी आवरणों का सर्वथा विनाश हो जाने पर ही मोक्ष देनेवाला यह ज्ञान उत्पन्न होता है ।