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आर्हत-वर्शनम्
इसे तत्त्वज्ञान भी कहते हैं । अन्य किसी भी ज्ञान से पृथक् होने के कारण इसे 'केवल ' कहते हैं । )
विशेष- इन पाँचों भेदों में प्रथम को परोक्ष और दूसरों को यहां प्रत्यक्ष कहते हैं, पर जैन लेखकों ने एकस्वर से मति और श्रुत — दोनों को ही परोक्ष माना है ।' जब प्रत्यक्ष का वर्गीकरण इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में होता है, तब अवधि, मन:पर्याय और केवल को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष में रखते हैं तथा किसी भी इन्द्रिय से समुत्पन्न ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष में आता है ।
तत्राद्यं परोक्षं, प्रत्यक्षमन्यत् । तदुक्तम्
२०. विज्ञानं त्वपराभासि प्रमाणं बाधवजितम्
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा ज्ञेयं विनिश्वयात् ॥ इति ॥ अन्तर्गणिकभेदस्तु सविस्तरः तत्रैवागमेऽवगन्तव्यः ।
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उन [ पाँचों भेदों ] में पहला परीक्ष है, दूसरा प्रत्यक्ष है । यही कहा भी है- 'विज्ञान अपना तथा दूसरों का प्रकाशक [ दीप के समान | है, किसी भी बाधा से मुक्त होने पर यह प्रमाण माना जाता है । ज्ञेय ( Knowable ) वस्तुओं का विनिश्चय [ चूंकि दो प्रकार से होता है, इसलिए विज्ञान भी ] दो तरह का है— प्रत्यक्ष और परोक्ष ।' किन्तु इन सबों का विस्तारपूर्वक अवान्तर ( अन्तर्गणिक ) भेद वही आगमों से ही समझना चाहिए ।
विशेष- मतिज्ञान के चार भेद हैं - अवग्रह ( Perception ) ईहा ( Specula tion ), अवाय ( Perceptual judgement ) तथा साधारण ( Retention ) । वास्तव में ये व्यावहारिक प्रत्यक्ष की चार अवस्थाएं हैं। 'यह पुरुष हैं' यह ज्ञान अवग्रह है । उसके बाद 'यह दक्षिण का है कि उत्तर का' इस संशय के होने पर 'यह दक्षिण का ही है' यह ज्ञान ईहा है । यह केवल सम्भव है, निश्चय नहीं । फिर भाषा आदि के आधार पर 'दक्षिण का है' यह ज्ञान अवाय है । उसी विषय का संस्कार से उत्पन्न फिर से ज्ञान होना धारणा है, जिससे उस विषय का स्मरण होता है । डा० नथमल टॉटिया ने अपने प्रबन्ध ( Thesis ) Studies in Jaina Philosophy के द्वितीय अध्याय ( Epistemclogy of the Aganmas, P. 27-80 ) में इन भेदों - उपभेदों का बहुत ही प्रामाणिक वर्णन किया है | विशेष ज्ञान के लिए वह स्थल द्रष्टव्य है ।
( १६. सम्यक् चारित्र और पाँच महाव्रत ) संसरणकर्मोच्छित्तावुद्यतस्य श्रद्दधानस्य ज्ञानवतः पापगमनकारणक्रियानिवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् । तदेतत्सप्रपञ्श्वमुक्तमर्हता
1. Vide. Studies in Jaina Philosophy. P. 30. - The Jaina thinkers are unanimous in ascribing the status (of Parcksa indirect knowledge ) to the mati ( sensuous cognition ) and the Srutni - nana ( scriptural knowledge ).