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बौद्ध दर्शनम्
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इनका अभिधर्म चीन में आज भी अपना मस्तक उठाये हुए है । ये ग्रन्थ सात हैं( १ ) आर्य कात्यायनीपुत्र रचित ज्ञान - प्रस्थान ( १८३ ई० पू० ), ( २ ) महाकौ ठल ( यज्ञोमित्र के अनुसार ) यां शारिपुत्र ( चीनी अनुवादों के अनुसार ) रचित संगीति पर्याय, (३) वसुमित्र का प्रकरणवाद ( १८३ ई० पू० ), ( ४ ) देवशर्मा का विज्ञानकाय, (५) पूर्ण या वसुमित्र लिखित धातुकाय, ( ६ ) शारिपुत्र या मौद्गल्यायन रचित धर्मस्कन्ध तथा ( ७ ) मौद्गल्यायन रचित प्रज्ञप्तिशास्त्र । ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानप्रस्थान पर चतुर्थ संगीति में विभाषा टीका लिखी गयी । इसमें वसुमित्र और अश्वघोष का बड़ा हाथ था । इसकी भी तीन टीकाएँ हुई, जिनमें 'महाविभाषा' सबसे बड़ी है । हुएनसांग ने इसका अनुवाद चार वर्षों में ( ६५६ - ५९ ई० ) पूरा किया। अनुवाद चार हजार पृष्ठों में है ।
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इस सम्प्रदाय के अन्य आचार्य हैं - वसुबन्धु ( चौथी शताब्दी ), कृतियाँ - परमार्थसप्तति, तर्कशास्त्र, वादविधि और अभिधर्मकोश, अभिधर्मकोश की टीका -सम्पत्ति विपुल है, वसुबन्धु के कार्य सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय में भी हुए हैं), संघभद्र ( विशुद्ध वैभाषिक, अभिधर्मसमयवसुबन्धु के विरोधी, कृतियाँ - अभिधर्म न्यायानुसार या कोशकरका, दीपिका, हुएनसांग द्वारा दोनों का अनुवाद, पृ० १७५१ और ७४९ ) । इसके अलावे अन्य आचार्य भी हैं, जिनके चीनी अनुवादों में नाम बचे हैं ।
एषा हि तेषां परिभाषा समुन्मिषति । विज्ञेयानुमेयत्ववादे प्रात्यक्षिकस्य कस्यचिदप्यर्थस्याभावेन, व्याप्तिसंवेदनस्थानाभावेन अनुमानप्रवृत्त्यनुपपत्तिः सकललोकानुभवविरोधश्च ।
ततश्चार्थो द्विविधः - ग्राह्येोऽध्यवसेयश्च । तत्र ग्रहणं निर्विकल्पकरूपं प्रमाणम् । कल्पनापोढत्वात् । अध्यवसायः सविकल्पकरूपोऽप्रमाणम् । कल्पनाज्ञानत्वात्
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उनकी पारिभाषिक शब्दावली इस प्रकार निकलती है - 'विज्ञेय' ( बाह्य पदार्थों ) को अनुमान का विषय जो लोग मानते हैं ( = सौत्रान्तिक) वे प्रत्यक्षत: किसी भी अर्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । फल यह होता है कि व्याप्ति के ज्ञान के स्थान की भी सत्ता नहीं रहेगी, फिर [ व्याप्तिज्ञान के अभाव में ] अनुमानकी ही प्रवृत्ति नहीं होगी । ( आशय यह है - 'जहां धूम है वहाँ अग्नि है' इस व्याप्ति का ज्ञान कैसे होता है ? हम रसोईघर का उदाहरण देंगे, जहां धूम और अग्नि की व्याप्ति प्रत्यक्षज्ञान से प्राप्त होती है । इसलिए रसोईघर को व्याप्ति के संवेदन का स्थान कहेंगे । जब सौत्रान्तिक लोग किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्षज्ञान नहीं मानते तो रसोईघर भी नहीं बच सकेगा । इसलिए उनके यहाँ प्रत्यक्ष के अभाव में व्याप्तिज्ञान का कोई उपाय नहीं । जिस अनुमान से क्या व्याप्तिज्ञान के अभाव में वह ठहर सकेगा ? इसलिए
वे
विषयों का ज्ञान करते हैं, बाह्यार्थ को प्रत्यक्षगम्य