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सर्वदर्शनर्स ग्रहे
विपरीत है, नाश जब होता है तो सान्वय ही । घड़ा होने पर टुकड़े रहेंगे, कपड़ा नष्ट होने पर राख बचेगी और यहाँ तक कि गर्म लोहे पर पड़ा हुआ जल भी नष्ट होने पर समुद्र में चला जाता है । पदार्थ नित्य है, नष्ट होने पर भी किसी-न-किसी रूप में रहेगा ही ।
ठीक इसी प्रकार कपास के बीजावयवों में भी, जो कार्य से सम्बद्ध होने योग्य हैं, लाह के रस का सेवन होता है। उन्हीं के अवयवों में फल निकलने तक सम्बन्ध होते-होते लाली आ जाती है । परम्परा से तो कुछ होगा ही नहीं । संस्कार ( लाक्षारसावसेक ) कहीं और जगह हो तथा उसका फल ( लाली ) कहीं और जगह- यह कैसे हो सकता है ? कारणबाली आत्मा में ( एक ही सन्तान और परम्परा में ) कर्म हो और कार्यात्मा में उसके फल का उपभोग - बौद्धों का यह सिद्धान्त सिद्ध नहीं हो सकता ।
न च संतानिव्यतिरेकेण संतानः प्रमाणपदवीमुपारोढुमर्हति । तदुक्तम्-
३. सजातीयाः क्रमोत्पन्नाः प्रत्यासन्नाः परस्परम् ।
व्यक्तयस्तासु संतानः स चैक इति गीयते ॥ इति ॥ न च कार्यकारणभावनियमोऽतिप्रसङ्ग भङ्क्तमर्हति । तथा ह्युपाध्यायबुद्धधनुभूतस्य शिष्यबुद्धिः स्मरेत्तदुपचितकर्मफलमनुभवेद्वा ॥
दूसरे, सन्तान या परम्परा तब तक प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती, जब तक इसे परम्परा मिलानेवाली वस्तु ( सन्तानी सन्तानों को संयुक्त करनेवाला ) न हो । बौद्धों का कहना है कि एक ही परम्परा में उत्पन्न पूर्वक्षण की वस्तु कर्मकर्त्ता है और उत्तरक्षण की वस्तु फलभोक्ता, अर्थात् एक ही परम्परा या सन्तान ( Series ) का काम करनेवाली और फल भोगनेवाली, दोनों ही हैं — लेकिन उन क्षणों में परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? उनका सन्तानों या संयोजक कहाँ है ? ये कोई फूल की माला तो नहीं कि तागे से परस्पर मिले हों ! इसलिए सन्तानी के बिना सन्तान को सिद्ध करना टेढ़ी खीर है । ]
ऐसा ही कहा भी है- 'व्यक्ति ( पृथक्-पृथक्वस्तुएँ Particular things ) यदि एक ही जाति या प्रकार के हों, क्रमशः ( एक के बाद दूसरा ) उत्पन्न हुए हों और आपस में यदि मिले हुए हों तो उन वस्तुओं को एक हीं सन्तान ( परम्परा Series ) मानी जाती है ।
आप लोग अतिप्रसंग को रोकने के लिए कार्य-कारण-भाव को नियामक के रूप में उपस्थित करते हैं (दे० परि० २ ), लेकन इससे अतिप्रसंग रुक नहीं सकता । ऐसा होने पर अध्यापक की बुद्धि में अनुभूत वस्तु का स्मरण शिष्य की बुद्धि के द्वारा हो सकता है अथवा उनके द्वारा उपार्जित कर्मों के फल का अनुभव भी शिष्य की बुद्धि कर लेगी । [ आशय यह है कि उपाध्याय की बुधि - सन्तान में बहुत-सी क्षणिक बुद्धियाँ हैं । शिष्य को समझाते समय जो उपाध्याय की क्षणिक बुद्धि है, उसके साथ दो बुधियां उत्पन्न