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सर्वदर्शनसंग्रहे
है । जलधर यद्यपि क्षण क्षण बदलता है पर यहाँ का समय ), न कि बौद्धों का क्षण । क्षण निमेष से सकता । जब दृष्टान्त ही ठीक नहीं तो अनुभव अनुमान सिद्ध नहीं हो सकता ] ।
दूसरा विकल्प ( दूसरे प्रमाण से इसे सिद्ध करना ) भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसी प्रकार से क्षणिकत्व की सिद्धि सर्वत्र हो जायगी तो फिर सत्ता को [ क्षणिक मानने के लिए ] कोई भी अनुमान करना व्यर्थ हो जायगा । [ यदि प्रत्यक्ष से ही यह सिद्ध है कि सत्ता क्षणिक है तो घट, पट इत्यादि को क्षणिक सिद्ध करने के लिए अनुमान की क्या आवश्यकता है ? यदि बुद्ध के उपदेश या शब्द- प्रमाण से ही यह सिद्ध है तो भी घट, पट आदि सिद्ध हो जायँगे । फिर क्षणिकत्व की सत्ता सिद्ध करने के लिए अनुमान क्यों ? ] उत्पन्न करनेवाले ( अर्थ क्रियाकारी ) को सत् सत् मानना पड़ेगा उत्पन्न होते हैं ।
फिर भी यदि आप कहें कि कुछ कार्य कहते हैं तो झूठ-मूठ के साँप काटने को भी कार्य ( जैसे भय, शंकाजनित मृत्यु आदि ) सत्ता वह है जिसमें उत्पत्ति, विनाश ( व्यय ) और स्थिति
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क्षण का अर्थ है निमेष ( पलक गिरने भी छोटा है अतः कोई उसे आंक नहीं कैसे होगा ? इसलिए अनुमान से उक्त
क्योंकि इससे भी तो कुछ अतः यह कहा गया है कि ( ध्रौव्य ) हो [ यह जैनों
है ] ।
विशेष - - ऊपर के पहले विवेचन में आम के बीज, कपास आदि दृष्टान्त देकर सत्ता को क्षणिक और सन्तानयुक्त सिद्ध करने की चेष्टा की गयी थी । वहाँ बीजादि कारण हैं और फल-फूल कार्य, जिनमें परम्परा से मधुरता या लाली का संक्रमण एक- दूसरे तक होता है । लेकिन वास्तव में यह बात नहीं है । मधुरता या लाली नहीं चली जाती है । जाते हैं तो मधुर या लाल बीज के अंश । उन्हीं का संक्रमण होता है । कारण वह है, जो कार्य से सीधा लगाव रखें ( कार्यान्वयि कारणम् ) । जैसा कार्य, वैसा कारण । अंकुरारादि कार्यों से सम्बद्ध बीज का अंश ही कारणस्वरूप है, पूरा बीज कारण नहीं । यह तो लाक्षणिक प्रयोग है कि बीज अंकुर का कारण है । तो जो बीजांश मधुर रस में संस्कृत हैं, लाक्षा-रस से सींचे हुए हैं वे ही कार्य से सम्बद्ध होने पर मधुर या लाल दिखलाई देंगे । अतः अन्यत्र उत्पन्न संस्कार का फल अन्यत्र होगा - इस विषय में कोई दृष्टान्त नहीं मिलता है ।
( ४. क्षणिकवाद के खण्डन की दूसरी विधि )
अथोच्यते - सामर्थ्यासामर्थ्यलक्षण विरुद्धधर्माध्यासात्तत्सिद्धिरिति, तदसाधु । स्याद्वादिनामनेकान्ततावादस्येष्टतया विरोधासिद्धेः । यदुक्तं कार्पासादिदृष्टान्त इति, तदुक्तिमात्रम् । युक्तेरनुक्तेः । तत्रापि निरन्वयनाशस्यानङ्गीकाराच्च ।
इसके उत्तर में बौद्ध लोग यह कह सकते हैं कि क्षणिकवाद की सिद्धि इस तथ्य से हो सकती है कि [ ऐसा न मानकर सत्ता को स्थायी मानने से ] एक ही पदार्थ में दो विरुद्ध