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सर्वदर्शनसंग्रहे
१०. अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽज्ञैः प्रतीयते । प्रकल्प्येत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ॥
(८) 'दूसरे तात्पर्यवाले अर्थवाद वाक्यों से भी उसकी सत्ता नहीं सिद्ध होती । चूँकि पहले किसी ने नहीं कहा इसलिए इसका अनुवाद ( पुनः कथन ) भी नहीं हो सकता ।' ( अनुवाद किसी निश्चित उक्ति को कहते हैं जो पुन: कही गयी हो । 'अनुवादोऽवधारिते ।' ) ( ९ ) 'सर्वज्ञ' ( जैनियों का ईश्वर ) सादि -आदि से युक्त है, वह अनादि आगम का विषय नहीं हो सकता । [ वेद अनादि है, उसमें सादि सर्वज्ञ का वर्णन मिलना असम्भव है; दूसरी ओर यदि आगम ( वेद ) को सादि मान लें तो वह कृत्रिम (Artificial, human-made ) हो जायगा और असत्य विषयों का प्रतिपादन करने लगेगा | ] तो कृत्रिम तथा असत्य विषयों के द्वारा उस ( सर्वज्ञ ) का प्रतिपादन कैसे हो सकता है ?
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(१०) 'अब यदि इस ( सर्वज्ञ मुनि ) के वचन से ही सर्वज्ञ का ज्ञान ( प्रतीति ) लोग ( मूर्ख लोग ) करें तो उन दोनों की ही सिद्धि कैसे हो सकती है, क्योंकि वे एकदूसरे पर आश्रित हैं ? ( इसलिए अन्योन्याश्रय - दोष उत्पन्न हो जायगा इसकी व्याख्या आगे की जा रही है 1 )
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११. सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता । कथं तदुभयं सिध्येत्सिद्धमूलान्तरादृते ॥ १२. असर्वज्ञप्रणीतात्तु वचनान्मूलवजितात् ।
सर्वज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यात्कि न जानते ? ॥ १३. सर्वज्ञसदृशं कश्विद्यदि पश्येम सम्प्रति ।
उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम् १४. उपदेशोऽपि बुद्धस्य धर्माधर्मादिगोचरः ।
अन्यथा नोपपद्येत सार्वज्ञ्यं यदि नाभवत् ॥ १५. एवमर्थापत्तिरपि प्रमाणं नात्र युज्यते ।
उपदेशस्य सत्यत्वं यतो नाध्यक्षमीक्ष्यते ।। इत्यादि ||
( ११ ) [ आप कहते हैं कि ] सर्वज्ञ के द्वारा कहे जाने के कारण वाक्य सत्य हैं और इसी से उनका अस्तित्व सिद्ध होता है, [ तो उत्तर है कि ] दोनों ( सर्वज्ञ और उनके वाक्य ) की सिद्धि ही कैसे होगी जबकि सिद्ध किया हुआ मूल ही नहीं है । ( ही जब सत्ता नहीं तो उनके वाक्य कहाँ से सिद्ध होंगे ? )
( १२ ) ' सर्वज्ञ से भिन्न किसी व्यक्ति के द्वारा कहे गये, मूलहीन वचन से, यदि सर्वज्ञ का ज्ञान लोग करते हैं तो अपने ही वाक्य से क्यों नहीं जान लेते ? ( सामान्य जैनलेखकों की बात पर विश्वास करके सर्वज्ञ को जानने से अच्छा है अपने ही मन से कपोलकल्पना करके उन्हें जानना । )
: सर्वज्ञ की
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