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आहतमानम्
१०५ विशेष-मीमांसक लोग शब्द-प्रमाण के अन्तर्गत वेदों का ग्रहण करते हैं जो नित्य और अपौरुषेय हैं। वेद के विषयों के इनके अनुसार पांच भेद हैं :-(१) विधिअज्ञात ज्ञापक वाक्य जो प्रेरणा प्रदान करे जैसे 'स्वर्गकामो यजेत'। इसके भी चार भेद हैं-कर्म के स्वरूपमात्र को बतलानेवाली उत्पत्ति-विधि, अंग और प्रधान अनुष्ठान का सम्बन्ध बतानेवाली विनियोग-विधि, कर्म से उत्पन्न फल का स्वामित्व बतलानेवाली अधिकार-विधि तथा प्रयोग की शोघ्रता का बोधक प्रयोग-विधि । विधि पर मीमांसा-दर्शन बहुत जोर देता है और विध्यर्थ के निर्णय के लिए श्रुति लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान तथा समाख्या नामक छह प्रमाण भी स्वीकृत हैं। (२) मन्त्र-अनुष्ठान के अर्थों का स्मरण दिलानेवाले वाक्य । ( ३) नामधेय-यज्ञों के नाम । ( ४ ) निषेध-अनुचित कार्यों से हटानेवाले वाक्य । (५) अर्थवाद–लक्षणा के द्वारा स्तुति या निन्दापरक वाक्यों का कपन, जैसे-'अग्निहिमस्य भेषजम्' यहाँ अग्नि को हिमनाशक कहा गया है; अग्नि औषधि नहीं है । इसके भी तीन भेद हैं-गुणवाद, अनुवाद, भूतार्थवाद । कहा गया है
विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते।
भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः ॥ इसके विशेष विवेचन के लिए अर्थसंग्रह, मीमांसान्यायप्रकाश या मीमांसा-परिभाषा देखें। सायण ने अपने ऋग्वेदभाष्य की भूमिका में भी विधि और अर्थवाद का सुन्दर विवेचन किया है। वहां ब्राह्मण-भाग के दो भेद हैं-विधि और अर्थवाद । दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । अर्थवाद वाक्यों से किसी विधि की ओर प्रवृत्ति होती है।
मीमांसकों के दो भेद हैं-भाट्ट-मत (कुमारिल भट्ट का सम्प्रदाय ) तथा गुरुमत (प्रभाकर गुरु का सम्प्रदाय )। दोनों विद्वानों ने मीसांसा-सूत्रों पर लिखे गये शबर-भाष्य की टीकाएं कीं । अन्य भेदों के अलावे दोनों में एक यह भी भेद है कि कुमारिल छह प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ( अभाव ) जब कि प्रभाकर अभाव को प्रमाण नहीं मानते । ज्ञात होता है कि कुमारिल के ही अनुसार प्रमाणों को लेकर 'अभाव' को विवादग्रस्त जानकर इसे छोड़ दिया गया है और पाँच प्रमाणों से भी काम चला लिया गया है । स्याद्वादरत्नाकर और प्रमेयकमलमार्तण्ड में अन्तिम श्लोक का पाठ यों है
न च मंत्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते । इसके बाद मीमांसकों के अनुसार शब्दादि प्रमाणों से अर्हत् की असिद्धि दिखलाई जायगी।
८. न चान्यार्थप्रधानस्तस्तदस्तित्वं विधीयते ।
न चानुवदितुं शक्यः पूर्वमन्यरबोधितः ॥ ९. अनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् ।
कृत्रिमेण स्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ? ॥