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सर्वदर्शनसंग्रहे
गमवाय सम्बन्ध रखते हैं। दोनों अवस्थाएं दुषित की जायंगी। प्रथम का उदाहरण है ( कल्पित )-पृथिवी का समवाय सम्बन्ध गन्ध से है और द्रव्य भी है । लेकिन इसे दूषित करेंगे। दूसरे का उदाहरण है-पट अपने से भिन्न तन्तुओं से समवाय सम्बन्ध रखता है नथा द्रव्य भी है।
( क ) पहले विकल्प को रखने से आकाशादि ( द्रव्यों) में भी इसकी प्रसक्ति ( Inclusion) हो जायेगी, क्योंकि वह ( आकाश ) भी गुण ( = शब्द ) आदि में समवाय रूप में सम्बद्ध है तथा द्रव्य भी है। [ आकाश में शब्द-गुण तथा द्रव्यत्व-जाति, जो उसी के रूप हैं, समवाय रूप से सम्बद्ध हैं इसलिए आकाश को भी तो पहली प्रतिज्ञा के अनुसार अवयवयुक्त मानना पड़ेगा । स्मरणीय है कि ये सारे विकल्प 'सावयवत्व' के ही हैं । आकाश वास्तव में सावयव किसी के मत से नहीं है । तर्कसंग्रहकार कहते हैं-'शब्दगुणकमाकाशम् । नच्चेकं विभू नित्यं च ।' इसलिए पहला विकल्प नेयायिकों के अपने सिद्धान्त का ही खण्डन करेगा।]
(ख ) दूसरा विकल्प लेने पर (कि द्रव्य अपने से भिन्न किसी से समवाय सम्बन्ध रखता है ) साध्य ( The proposition to be proved ) से कोई अन्तर ही नहीं रहेगा ( यह भी उतना ही क्लिप्ट हो जायगा जितना साध्य है ) क्योंकि अपने 'अन्य' ( अपने से भिन्न ) शब्द का प्रयोग किया है, उसके अर्थ में आनेवाले जो समवाय कारण के रूप में अवयव हैं ( जैसे पट के अतिरिक्त इसका समवायिकारण तन्तु हैं जो पट के अवयव भी हैं ), उन्हीं में समवाय सम्बन्ध की सिद्धि करनी होगी। [ पट के अवयव और ममवायिकारण तन्तु तो हैं, पर इन्हें 'पट से भिन्न' मानना कैसे होगा ? इसलिए दूसरे स्थान में ( अन्यत्र ) समवेत द्रव्य के रूप में सावयवत्व मानना हमारे साध्य-'सावयवत्वं कार्यम्'- की तरह ही सिद्धि की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार चतुर्थ विकल्प-समवेतद्रव्यत्वं सावयवत्वम्– भी खण्डित हो गया, वह चाहे 'स्वस्मिन् समवेतद्रव्यत्वम्' या 'अन्यत्र......' हो । ]
नापि पञ्चमः । आत्मादिनानकान्त्यात् । तस्य सावयवबुद्धिविषयत्वेऽपि कार्यत्वाभावात् । न च निरवयवत्वेऽप्यस्य सावयवार्थसम्बन्धेन सावयवबुद्धिविषयत्वमौपचारिकमित्येष्टव्यम् । निरवयवत्वे व्यापित्वविरोधात्परमाणुवत् ।
हमने यह सब कुछ आपकी [ शब्दावली का प्रयोग करके ] ही कहा है, नहीं तो वास्तव में [ हम जैनों के यहाँ ] समवाय ( Inherent relation ) है ही नहीं, क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है [ जो 'समवाय' को सिद्ध करे ] । ( वेदान्तियों की ही तरह जैन लोग भी समवाय को स्वीकार नहीं करते।)
(५) पाँचवाँ विकल्प [ अवयवों के विचार से युक्त बुद्धि का विषय होना ही 'सावयव' है ] भी ठीक नहीं क्योंकि यह ( लक्षण) आत्मा आदि पदार्थों को भी व्याप्त कर