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आर्हत-दर्शनम्
धर्मो - सामर्थ्य और असामर्थ्य - की स्थिति एक साथ होने लगेगी । [ उदाहरण के लिएकोठी में रखा और जमीन में बोया बीज यदि एक ही है तो उसमें अंकुर उत्पन्न करने की सामर्थ्य है कि नहीं ? यदि है तो कोठी का बीज अंकुरोत्पादन कर सकता है । सहकारी भावों को बौद्ध दर्शन की विवेचना में काटा जा चुका है ( दे० पृ० ३७ और आगे । । यदि बीजों में अंकुरोत्पादन की सामर्थ्य नहीं है तो भूमि में बोये बीजों से भी अंकुर नहीं निकलेंगे । ऐसा भी नहीं कह सकते कि सामर्थ्य भी है, असामर्थ्य भी । दोनों परस्पर विरोधी हैं । अतः अन्त में आप क्षणिकवाद को ही स्वीकार करेंगे । ]
बौद्धों का यह तर्क भी ठीक नहीं है । स्यादवाद के सिद्धान्त को धारण करनेवाले ( जैन ) लोग अनेकान्तता ( अनिश्चय ) के सिद्धान्त को मानते हैं, इसलिए कोई भी विरोध उनके लिए असिद्ध हैं । [ जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक परामर्श के पहले उसे सीमित और सापेक्ष बनाने के लिए 'स्थात' = 'शायद' - अव्यय का जोड़ना आवश्यक है । अभी हम घट की सत्ता का अनुभव करते हैं, किन्तु हमारी यह अनुभूति काल और देश पर अवलम्बित है, त्रैकालिक सत्य यह सत्ता नहीं है और न ही सार्वदेशिक | यह सापेक्ष सत्ता है, जिसके विषय में निश्चित रूप से हमारा ज्ञान नहीं हो सकता -- अधिक-से-अधिक हम 'स्यादस्ति' ( शायद या किसी तरह है ) कह सकते हैं । इसलिए जैन-दर्शन में प्रत्येक परामर्श के पूर्व 'स्यात्' लगाते हैं । इसी सिद्धान्त को स्याद्वाद कहते हैं । इसका दूसरा नाम अनेकान्तवाद है, क्योकि किसी ज्ञान का निश्चय या एकान्त इसमें नहीं हो सकता । इसके अनुसार दो विरुद्ध पदार्थों - जैसे सामर्थ्य + असामर्थ्य, अस्ति + नास्ति में कभी भी विरोध नहीं हो सकता, क्योंकि घट का अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही इसके आधार पर सिद्ध हो सकता है । बौद्धों का यह कहना कि असामर्थ्य और सामर्थ्य एक ही स्थान में नहीं रह सकते, जैन- दर्शन के लिए आसान है, दोनों साथ-साथ भी हो सकते हैं । क्षणिकत्व सिद्ध करने की यह युक्ति भी खण्डित हो गयी । अब दूसरी युक्ति लें । ]
air लोग यह जो कहते हैं कि इसकी सिद्धि के लिए कपास इत्यादि दृष्टान्त देते हैं, वह केवल कहने भर को है, कोई युक्ति तो उसमें नहीं देते । [ केवल दृष्टान्त देने से अनुमान की सिद्धि नहीं होती । रसोईघर में धूम और अग्नि देखने पर भी शंका हो सकती है कि धूमवान् पदार्थ में अग्नि का होना क्या जरूरी है ? इस अवस्था में हमें दोनों के बीच कार्य-कारण-भाव के रूप में युक्ति देनी पड़ेगी । तभी शंका हट सकती है, तभी पर्वत में धूम देखकर अग्नि का अनुमान कर सकते हैं, यों ही नहीं । कपास में भी क्या कोई युक्ति है ? इस दृष्टान्त में भी वे लोग निरन्वय = सम्बन्धहीन नाश ही चाहते हैं, ] वहाँ भी नाश को निरन्वय रूप से हम लोग अंगीकार नहीं कर सकते ।
विशेष - बौद्ध किसी वस्तु के नाश को सम्बन्धहीन मानते हैं, क्योकि क्षण में वस्तु नष्ट होती जाती है, किसी से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं है । लेकिन वस्तुस्थिति इसके