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सर्वदर्शनसंग्रहे
उत्तर में आप यह नहीं कह सकते कि आकार को समर्पण करनेवाले उस (पर्वतादि) में ही दूरत्वादि गुण हैं और इसीलिए ऐसा व्यवहार होता है ( अर्थात् चूंकि पर्वत दूरत्व से विशिष्ट है इसलिए ज्ञान के द्वारा उस आकार में ग्रहण होने पर दूरत्व अनुमान से ही उस व्यवहार का संचालन होता है। यह बौद्धों का उत्तर है, जो ठीक नहीं ) क्योंकि दर्पण आदि में ऐसी बातें नहीं पायी जातीं। ( दर्पण में दूर की वस्तुओं का आकार दूर पर ग्रहण नहीं होता, सभी वस्तुओं का आकार अल्प ही होता है जितना दर्पण में आ सके । इसलिए साकार ज्ञानवाद में किसी प्रकार दूरत्वादि का अनुमान नहीं हो सकता । )
कि चार्थादुपजायमानं ज्ञानं यथा तस्य नोलाकारतामनुकरोति तथा यदि जडतामपि, तहि अर्थवत्तदपि जडं स्यात् । तथा च वृद्धिमिष्टवतो मूलमपि ते नष्टं स्यादिति महत्कष्टमापन्नम् । ___ अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया ज्ञानं जडतां नानुकरोति-इति ब्रूषं, हन्त, तहि तस्या ग्रहणं न स्यादित्येकमनुसंधिसतोऽपरं प्रच्यवत इति न्यायापातः ।
इसके अलावे भो [ दोष होगा कि ] वस्तुओं से उत्पन्न ज्ञान जिस प्रकार उस वस्तु ( उदाहरण के लिए नील या घट को लें) के आकार को ग्रहण करता है, उसी प्रकार यदि [ पदार्थ के ] जड़त्व को भी ग्रहण कर ले तब तो अर्थ ( वस्तु) की ही तरह वह ( ज्ञान ) भी जड़ ही हो जायगा ( और ऐसी दशा में ज्ञान के स्वरूप की ही हानि हो जायगी । जड़ का अर्थ है प्रकाशरूप न होना। ज्ञान का अर्थ है स्वप्रकाशक और परप्रकाशक होना । यदि ज्ञान जड़ हो जाय तब तो घट का आकार प्रकाशित करना तो दूर रहा, अपने स्वरूप का भी प्रकाशन उससे न हो सकेगा ] । इस प्रकार, जहाँ आप वृद्धि को चाह कर रहे थे, आपका मूल भी नष्ट हो गया-इस तरह बड़ा भारी कष्ट आ गया। ( कोई व्याज की इच्छा से दूसरे को द्रव्य दे, किन्तु ब्याज तो दूर, मल भी नष्ट हो जायगा । चौबे गये छब्बे होने-दूबे बनकर आये । )
अब यदि इस दोष से बचने की कामना से कहें की ज्ञान जड़ता का ग्रहण नहीं करता, तब और मजा है ! उस ( जड़ता ) का ग्रहण नहीं होगा और वैसी दशा हो जायगी कि एक वस्तु का अनुसंधान करते-करते दूसरी वस्तु भी भूल जाय । ( घटादि का ज्ञान क्या होगा, घट जड़ है-यही ज्ञान नहीं होगा।)
ननु मा भूज्जडताया ग्रहणम् । कि नश्छिन्नम् ? तवग्रहणेऽपि नीलाकारग्रहणे तयोर्भेदोऽनेकान्तो वा भवेत् । नीलाकारग्रहणे चागृहीता जडता कथं तस्य स्वरूपं स्यात् ? अपरथा गृहीतस्य स्तम्भस्यागृहीतं त्रैलोक्यमपि रूपं भवेत् । तदेतत् प्रमेयजातं प्रभाचन्द्रप्रभृतिभिरहन्मतानुसारिभिः प्रमेयकमलमार्तण्डादौ प्रबन्धे प्रपञ्चितमिति ग्रन्थभूयस्त्वभयानोपन्यस्तम् ।