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सर्वदर्शनसंग्रहेमानना परम आवश्यक है। ) दूसरे, समूचे संसार के अनुभव के भी [ वह सिद्धान्त ] विरोध में है ( सभी लोग वस्तुओं को देखकर जानते हैं न कि अनुमान करके )।
इसके बाद अर्थ दो प्रकार के होते हैं-ग्राह्य ( Sensible ) तथा अध्यवसेय ( ज्ञेय Knowable )। [ इन्द्रियों के साथ वस्तुओं का संयोग होते ही जब निर्विकल्पक ( Non-discriminative ) ज्ञान होता है कि यह कोई चीज है, तो इस ज्ञान का विषय देवदत्तादि पदार्थ ग्राह्य कहलाते हैं। ग्राह्य = निर्विकल्पक ज्ञान जिसका हो वैसी वस्तु । बाद में जब जाति, गुण आदि विशेषों का प्रत्यक्षीकरण होता है तब 'यह ब्राह्मण है, श्याम हैं' इत्यादि सविकल्पक ज्ञान के विषय को अध्यवसेव कहते हैं। अध्यवसेय = सविकल्पक ज्ञान का विषय । ] ____ तब उनमें निर्विकल्पक के रूप में जो ग्रहण ( ग्राह्य का ज्ञान = निर्विकल्पक ज्ञान ) होता है वही प्रमाण है क्योंकि उसमें कल्पना बिल्कुल नहीं रहती ( अपोढ = रहित )। सविकल्पक के रूप में जो अध्यवसाय होता है वह अप्रमाण है क्योंकि उसमें [ वस्तु का ज्ञान नहीं, ] कल्पना का ज्ञान होता है। [ हम जानते हैं कि ज्ञान के विशेष हैं-जाति (Class ), गुण ( Quality ), क्रिया ( Action ) और द्रव्य ( Name ) । वस्तुतः सीपी रहने पर भी 'यह चाँदी है' इस प्रकार का ज्ञान चूंकि कल्पित-रजतत्व से युक्त है अतः प्रमाण नहीं है। उसी प्रकार ज्ञान के ये चारों विशेष कल्पित अर्थात् कल्पनाप्रसत हैं इसलिए प्रमाण नहीं होते । बौद्ध लोग मानते हैं कि कल्पना से ही कोई वस्तु असत्य सिद्ध होती है। जाति तो वस्तुनिष्ठ है नहीं, उसे तो अपोह से जानते हैं जैसे-घट जाति = घट भिन्न-भिन्न या घटेतर भिन्न। यह भी काल्पनिक ही है । संज्ञाएं जो वस्तुओं को दी जाती हैं पुरुष ही देते हैं अतः वे भी कल्पना पर ही आधारित हैं। गुण और क्रिया को अपने आश्रय से बराबर सम्बन्ध है ही नहीं-ये भी वस्तुनिष्ठ न होकर कल्पित हैं। सविकल्पक ज्ञान में मानसिक-दशा का प्रक्षेप वस्तु पर होता है अतः अध्यवसेय ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । जर्मन दार्शनिक काँट ( Kant ) ने भी दृश्यजगत् ( Phenomenon ) और सत्य-जगत् ( Noumena ) का अन्तर दिखलाते हुए कहा था कि मूल सत्य को हम नहीं जान सकते क्योंकि जब ज्ञान करने जाते हैं तब वस्तु पर बुद्धि का आरोपण हो जाता है
१. निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान का बड़ा सुन्दर निदर्शन शिशुपालवध की इन पंक्तियों (११२-३ ) में हुआ है जहाँ नारद को आकाश से उतरते देखकर जनता में प्रतिक्रियाएं होती हैंनिर्विकल्पक-तं तिरश्चीनमनूरुसारथेः प्रसिद्धमूर्ध्वज्वलनं हविभुजः ।
पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनैः ॥ २ ॥ सविकल्पक-चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् ।
विभुविभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥ ३ ॥