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बौद्ध-दर्शनम्
७९ का बोधक है ( .:. निरर्थक है )। धर्मनियामकता = धर्म अर्थात् कारण का कार्य के प्रति नियामक होना । ( इसलिए धर्मता का अर्थ है ‘कार्य का कारण के बिना न रहना' और 'कारण का कार्य पर नियन्त्रण रखना' ।)
नन्वयं कार्यकारणभावश्चेतनमन्तरेण न संभवतीत्यत उक्तम्--प्रतीत्येति । कारणे सति तत्प्रतीत्य प्राप्य समुत्पादेऽनुलोमता = अनुसारिता या, सेव धर्मतोत्पादादनुत्पादाद्वा धर्माणां स्थिता। न चात्र कश्निच्चेतनोऽधिष्ठातोपलभ्यत--इति सूत्रार्थः ॥
यहाँ पर कोई पूछ सकता है कि कार्य-कारण का सम्बन्ध किसी चेतन सत्ता के [ हस्तक्षेप किये ] बिना संभव नहीं है, इसलिए [ उनकी शंका के निराकरण के लिए ] कहा है—प्रतीत्यसमुत्पाद की अनुकूलता। कारण के रहने पर उसे पाकर ( प्रतीत्य ) उत्पत्ति ( समुत्पादक ) होने पर अनुलोम होना अर्थात् अनुसरण ( पीछे-पीछे रहना )यही धर्मता ( कार्यकारण भाव ) उत्पत्तिनियम और अनुत्पत्ति नियम से धर्मों के विषय में सिद्ध होती है ( कार्यकारण का सम्बन्ध सिद्ध होता है )। इसमें कोई भी चेतन अधिष्ठाता ( सम्बन्ध जोड़नेवाला ) नहीं मिलता—यही सूत्र का अर्थ है।
विशेष-चेतन के खण्डन में बौद्धों का विशेष लक्ष्य नैयायिकों पर है, क्योंकि वे ही ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिए ऐसे अनुमान का आश्रय लेते हैं--पृथ्वी अंकुरादि सकतक है क्योंकि ये कार्य हैं घटवत् । वौद्धों का सिद्धान्त है कि न तो बीज को अपने कारणत्व का ज्ञान है और न अंकुर को ही अपने कार्यत्व का। कारण तो अपने कार्य के आगे सदा रहता है। चेतन कहाँ है ? जिनमें कार्यकारण भाव है उनमें चैतन्य नहीं पाते और जिन ईश्वरादि में चैतन्य है वे कार्य करते नहीं दिखलाई पड़ते।
प्रतीत्यसमुत्पादस्य हेतूपनिबन्धनो यथा-बीजादकुरः, अङ्कुरात्काण्ड, काण्डान्नालः, नालाद् गर्भ, ततः शूकं, ततः पुष्पं, ततः फलम् । न चात्र बाह्य समुदाये कारणं बीजादि कार्यमङकुरादि वा चेतयते-'अहमङकुरं निवर्तयामि, अहं बीजेन निर्वतितः' इति । एवमाध्यात्मिकेष्वपि कारणद्वयमवगन्तव्यम् । 'पुरः स्थिते प्रमेयाब्धौ ग्रन्थविस्तरभीरुभिः' इति न्यायेनोपरम्यते।
प्रतीत्यसमुत्पाद का हेतूपनिबन्धन कारण इस प्रकार होता है--बीज से अंकुर, अंकुर से ग्रन्थि, ग्रन्थि से डंठल, डंठल से कली, कली से ढूंड, उससे फूल और तब फल ( इस
१-माध्यमिक-वृत्ति ( पृ० ९)-अस्मिन् सति इदं भवति, अस्योत्पादादयमुत्पद्यत इति इदं-प्रत्ययार्थः प्रतीत्यसमुत्पादार्थः ।
( हेतुप्रत्ययसापेक्षो भावानामुत्पादः प्रतीत्यसमुत्पापादार्थः । )