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सर्वदर्शनसंग्रहे
तेजोधातू रूपमौष्ण्यं च । वायुधातुः स्पर्शनं चलनं च । आकाशधातुरवकाशं शब्दं च । ऋतुधातुर्यथायोगं पृथिव्यादिकम् ।
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उदाहरण के लिए बीज - हेतुवाला अंकुर छह धातुओं ( मूल कारणों ) के समवाय (मेल) से उत्पन्न होता है ( न तो कार्य ही चेतन है और न कारण, यह भी नहीं कि कोई दूसरी चेतनशक्ति इनकी सहायता कर रही है । इसलिए फल निकलता है कि अंकुरादि कार्य केवल कारणों के मेल से ही बनते हैं ) ।
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इनमें पृथिवी धातु ( The element of carth ) अंकुर में कठोरता और गन्ध उत्पन्न करता है । जल-धातु चिकनाहट और रस ( स्वाद ) उत्पन्न करता है । तेज ( अग्नि ) धातु रूप और उष्णता वायुधातु स्पर्श और गति देता है, आकाश-धातु शब्द और स्थान की पूर्ति करता है। ऋतु-धातु योग्यता ( या आवश्यकता ) के अनुसार पृथिवी आदि तत्त्वों को प्रदान करता है । ( जिस ऋतु में पदार्थ होता है उसकी विशेषताए लिये हुए रहता है । उसके अनुसार पृथिवी आदि तत्त्वों में न्यूनाधिकता पर प्रभाव पड़ता है ) ।
( २८. क. हेतूपनिबन्धन समुदाय का स्वरूप )
हेतूप निबन्धनस्य च संग्राहकं सूत्रम् -- उत्पादाद्वा तथागतानामनुत्पादाद्वा स्थितंवैषां धर्माणां धर्मता धर्मस्थितिता धर्मनियामकता च प्रतीत्यसमुत्पादानुलोमता ।' तथागतानां बुद्धानां मते धर्माणां कार्यकारणरूपाणां या धर्मता कार्यकारणभावरूपा, एषा उत्पादादनुत्पादाद्वा स्थिता । यस्मिन्सति यदुत्पद्यते, यस्मिन्नसति यन्नोत्पद्यते तत्तस्य कारणस्य कार्यम् - - इति । 'धर्मता' इत्यस्य विवरणं धर्मस्थितितेत्यादि । धर्मस्य कार्यस्य कारणानतिक्रमेण स्थितिः । स्वार्थिकः तल् प्रत्ययः, धर्मस्य कारणस्य कार्यं प्रति नियामकता । हेतूपनिबन्धन समुदाय का वर्णन करनेवाला सूत्र यह है - ' तथागतों के मत से इन धर्मो ( कार्यकारण ) की धर्मता ( कार्य-कारण होना) उत्पत्ति ( अन्वय) तथा अनुत्पत्ति ( व्यतिरेक ) से सिद्ध ही हो जाती है; इसमें धर्म ( कार्य ) की स्थिति, धर्म ( कारण ) की नियन्त्रणशक्ति तथा प्रतीत्य-समुत्पाद ( कारण पाकर कार्य होना ) की अनुकूलता भी है । '
[ इसका यह अर्थ है - 1 तथागतों अर्थात् बुद्धों ( निर्वाणप्राप्त लोगों ) के मत से कार्यकारण के रूप में जो धर्म हैं उनकी धर्मता प्रकृति Nature ) कार्य-कारण के भाव के रूप में है । यह उत्पाद ( अन्वय - विधि ) और अनुत्पाद ( व्यतिरेक - विधि सिद्ध हो गई है । जिसके रहने पर जिसकी उत्पत्ति होती है ( उत्पाद ) और जिसके न रहने पर जो उत्पन्न नहीं होता ( अनुत्पाद ) वह उस कारण का कार्य है । 'धर्मता' शब्द की 'धर्मस्थितिता' इत्यादि शब्दों के द्वारा व्याख्या की गई है । ( धर्मस्थितिता = ) धर्म अर्थात् कार्य का कारण का उल्लङ्घन न करके स्थित रहना । 'स्थितिता' में तल ( ता ) प्रत्यय उसी अर्थ