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सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रत्यय ( ज्ञान ideas ) से भिन्न नहीं हैं ( प्रत्युत आप लोग ज्ञान और विषयों को अभिन्न समझते हैं)।
यदि आप लोग उत्तर में कहें कि-नीलादि आकार, ज्ञान के अपने रूप में होने पर भी भ्रान्ति के कारण, भेद से बाह्य पदार्थ-जैसा प्रतीत होता है और यही कारण है कि उसमें 'अहम्' द्वारा अभिव्यक्ति नहीं होती, जैसा कि कहा भी है-"ज्ञान के आन्तर ( भीतरी ) परिच्छेद ( विषयों का प्रकाश करनेवाले भाग ) से पृथक् जो बाह्यवत् ( विषयों के रूप में) दिखलाई पड़नेवाला भाग है, भेद-रहित ज्ञान में जो प्रतीति होती है-वह मिथ्याज्ञान ( उपप्लव) ही है।" और भी-'जो आन्तरिक रूप से जानने योग्य तत्त्व है वह बाह्य-जेसा प्रतीत होता है।' .
विशेष-सौत्रान्तिकों ने एक गम्भीर आशंका योगाचारों के समक्ष रखी कि बुद्धि का बोध 'अहम्' से होता है बाह्य-पदार्थों का ‘इदम्' से। यदि सभी पदार्थ बुद्धि के रूप ही हैं तो उन सबों का बोध 'अहम्' द्वारा क्यों नहीं होता-अहं घटः, अहं भूमिः, अहं नील:, क्यों नहीं कहते ? उत्तर में विज्ञानवादी फिर पुराना राग अलापने लगते हैं-मिथ्याज्ञान और अध्यास । उसी अनादि वासना से 'विज्ञान' भ्रम द्वारा बाह्य 'विषय'-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः है नहीं । दार्शनिक-भाषा में यों कहें कि अभेद पर भेद का अध्यास (Projection) मिथ्याज्ञान ( Ihusion ) द्वारा होता है । इसीलिए भ्रमवश ही बाह्य वस्तुओं पर 'अहम्' का आरोपण नहीं करते । जैसे शंख पर पीलापन का आरोपण होता है। यद्यपि शंख पीला नहीं परन्तु पिनादि के दोष से ( विशेपतया पाण्डुरोग होने पर ) शंख के उजलापन को छिपाकर ( आवरण ) पीलापन की प्रतीति होती है। उसी तरह 'अहम् का अर्थवाली ज्ञानस्वरूप आत्मा ( या वृद्धि ) के आन्तरत्व को छिपाकरबाह्यत्व अवभासित होता है, पीलापन के अमाध्य होने पर भी शंख का स्वरूप भासित होता है, तथैव ज्ञेयाव.। के असाध्य होने के बाद भी ज्ञान प्रतीत होता ही है। कारण यह है 'मैं घट को जानता हैं' ऐसी प्रतीति जो होती है।
मौत्रानिक लोग बाहरी पदार्थों को शन्य नहीं मानते, उन्हें अनुमेय मानते हैं । नील, पीतादि विचित्र पदार्थ वृद्धि के आकार के हैं और आन्तर ज्ञान से उनका अनुमान होता है। सर्वसिद्धान्तमंग्रह म कहा गया है.--
नीलपीताभिश्चित्रबुद्धयाकारैरिहान्तरैः ।
सौत्रानिकमते नित्यं बाह्यार्थस्त्वनुमीयते ।। ज्ञान और विषय को लोक का व्यवहार भी मानता है । ज्ञान का विषय दूसरा ही है, फल दुसरा ( ज्ञानस्य विपयो ह्यन्यत्फलमन्यदुदाहृतम् । काव्यप्रकाश, २)। विज्ञानवादियों के ऊपर दिये गये उत्तर का खण्डन अब ये सौत्रान्तिक लोग करेंगे।
तदयुक्तम् । बाह्यार्थाभावे तद्व्युत्पत्तिरहिततया बहिर्वदित्युपमानोक्तरयुक्तः । न हि वसुमित्रो वन्ध्यापुत्रवदवभासत इति प्रेक्षावानाचक्षीत । भेद