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सर्वसनसंपहे
organ ) । उनमें 'ज्ञान' (= साकार चित्त) शब्द से समझे जाने वाले नीलादि की प्रतीति का, जिसे चित्त भी कहते हैं, नील ( पदार्थ) से, आलम्बन के कारण ही नील-रूप बनता है। समनन्तर के कारण ही पूर्वक्षण के ज्ञान से आकार-ग्रहण की शक्ति आती है। सहकारी के कारण ही प्रकाश से स्पष्टता होती है ( किसी एक का स्पष्टीकरण होता है)। अधिपति के कारण आँख द्वारा विषय के ग्रहण का नियन्त्रण होता है।
विशेष--साकार चित्त को ही ज्ञान कहते हैं और बोधरूपता का अर्थ है उसके स्वरूप ( आकार ) को ग्रहण करने की शक्ति । जिस प्रकार पूर्वक्षण के घट से उसी के आकार में उत्तर-क्षण में घट उत्पन्न होता है, उसी तरह पूर्वक्षण में वर्तमान, आकार को ग्रहण करने में समर्थ ज्ञान से उत्तर-क्षण में तदाकार ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान की यह परम्परा ( सन्तान ) बराबर चलती रहती है।
आकार भी दो तरह का है-अहम् का आकार, इदम् का आकार । अहमाकार पर्वक्षण के ज्ञान से उत्पन्न होता है, दूसरे कारण की अपेक्षा इसमें नहीं है । यह अनादि है, सब समय रहता है और एक रूपवाला है। यही आलयविज्ञान है। यह घट है। इस प्रकार के प्रवृत्तिविज्ञान में भी अहमाकार है ही, क्योंकि आलयविज्ञान से ही प्रवृत्तिविज्ञान जन्म लेता है। दूसरा इदमाकार कभी-कभी होता है ( कादाचित्क), इसलिए दूसरे कारणों ( आलम्बनादि ) की अपेक्षा रहती है, इसका आदि भी होता है और इसके विविध रूप हैं । ज्ञान में अपने आकार के सदृश आकार डालने वाले शब्दादि अनेक प्रकार के विषय अपने-अपने आकार के प्रवृत्तिविज्ञान को उत्पन्न करते हैं । यहीं चार कारणों की अपेक्षा होती है।
विषय के आधार को आलम्बन कहते हैं, जिस पर आश्रित होकर प्रवृत्तिविज्ञान उत्पन्न होता है। उत्तरक्षण के ज्ञान को आकार-ग्रहण की शक्ति देते हुए पूर्वक्षण का ज्ञान समनन्तर कहलाता है। ज्ञान को स्पष्ट करने वाला प्रकाश ( Light ) सहकारी है। मन से वस्तु का संयोग होना भी सहकारी ही है। इन्द्रिय को अधिपति कहते हैं। यही सबों पर नियन्त्रण रखता है। इसलिए ज्ञान में यह अपने अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत ही आकार प्रदान करता है । चक्षु-इन्द्रिय ज्ञान के उत्पादन में रूप का आकार ही दे सकती है। रसना रस के आकार को तथा मन जो अन्तःकरण की इन्द्रिय है, उसका अवदान सुखादि आन्तरिक विषयों तक ही सीमित है। इस प्रकार ये चारों कारण मिलकर प्रवृत्तिविज्ञान में, 'इदम्' के आकार वाले, कभी-कभी होने वाले ज्ञान को जन्म देते हैं ।
उदितस्य ज्ञानस्य रसादिसाधारण्ये प्राप्ते नियामकं चक्षुरधिपतिर्भवितुमर्हति । लोके नियामकस्याधिपतित्वोपलम्भात् । एवं चित्तचैत्तात्मकानां सुखादीनां चत्वारि कारणानि द्रष्टव्यानि ॥
रस आदि विषयों को भी समान रूप से ग्रहण करने के कारण उत्पन्न ज्ञान का नियन्त्रण करनेवाली चक्षु-इन्द्रिय अधिपति होने के योग्य है ( क्योंकि एक विशिष्ट प्रकार के