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सर्वदर्शनसंग्रहे
इसलिए घटज्ञान ( तद्वेदना ) और पटज्ञान में अन्तर नहीं होगा । अतः वित्ति की सत्ता और विषय-वेदना दोनों भिन्न हैं ] । लेकिन सारूप्य ( विषयों की समानाकारता ) ही ( उस वित्ति या ज्ञान ) में प्रविष्ट होकर [ उस ज्ञान को ] सरूप ( विषय के आकार के समान आकारयुक्त ) करने के लिए [ विषय के साथ ] संयुक्त करता है । ( यदि दोनों एक होते तो सरूप बनाने की अपेक्षा ही नहीं होती । )
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बाह्यार्थ की सत्ता के लिए एक प्रयोग ( Formal argument ) यह है - जो ( कार्य, जैसे अंकुर ) जिस ( कारण, जैसे बीज ) के रहने पर भी कभी - कभी उत्पन्न होते हैं ( कभी होते हैं, कभी नहीं, जैसे – कोठी में रखे बीज अंकुर नहीं उत्पन्न करते ), वे सभी ( कार्य ) उस (विशिष्ट कारण ) के अतिरिक्त अन्य कारणों ( जैसे – मिट्टी, जल, वायु ) के साथ सम्बद्ध हैं । उदाहरण के लिए, जब मैं बोलना या जाना नहीं चाहता हूँ ( कभी बोलता हूँ, कभी नहीं, कभी जाता हूँ, कभी नहीं ) तब वचन या गमन की जो भी प्रतीतियाँ ( प्रतिभास ) होंगी वे दूसरे पुरुषों के समूह के ( पुरुष ) बोलने और जानने के अभिलाषी रहते होंगे ।
विषय में ( सापेक्ष ) हैं जो
प्रत्यय ( क्रियाशीलता की
उसी प्रकार, प्रस्तुत प्रसंग के अन्तर्गत आये हुए प्रवृत्ति के प्रतीतियाँ = प्रवृत्तिविज्ञान ), आलय - विज्ञान आत्मा, ज्ञाता ) के रहने पर भी, कभी-कभी ही नीलादि पदार्थों के रूप में व्यक्त होते हैं । [आशय यह है कि नीलादि के रूप में व्यक्त होने वाले ( बाह्य पदार्थ ) घट, पट आदि के विषय में 'अयं घट' 'अयं पटः' आदि प्रवृत्तियों (विषयों ) की प्रतीति होती है । ये ही प्रवृत्तिप्रत्यय या प्रवृत्तिविज्ञान कहलाते हैं । इसका ज्ञाता 'अहम्' के रूप में व्यक्त आलयविज्ञान है । आलयविज्ञान के साथ ये कभी-कभी रहते हैं ( कादाचित्क हैं, बीजांकुर के समान ) । इसलिए आलयविज्ञान के अतिरिक्त बाह्य पदार्थों की सिद्धि होती है । ]
विशेष - आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान वस्तुतः विज्ञानवादियों के सिद्धान्त हैं । इनका प्रयोग सौत्रान्तिक लोग उन्हीं के सिद्धान्त का खण्डन करने लिए करते हैं । योगाचार लोग अद्वैतवादी हैं, शुद्ध विज्ञान ( Consciousness ), प्रत्यय ( Idea ) चैतन्य या चित्त ( Mental phenomenon ) को ही एकमात्र सत्ता मानते । यद्यपि बुद्धि एकरूपा ही है परन्तु अनादि वासना के कारण प्रतीत होनेवाले इसके विभिन्न स्वरूपों को कौन रोक सकता है ? ग्राह्य ग्राहक-ग्रहण, वेद्य-वेदक-वेदन की त्रितयी अविच्छन्न है । विज्ञानवादी बौद्ध अवस्था के भेद से चित्त ( विज्ञान, के दो भेद करते हैं-आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान । आलयविज्ञान, धर्मों के बीजों का स्थान है । ये धर्म बीज के रूप में यहाँ समवेत रहते हैं और विज्ञान के रूप में बाहर निकलकर जगत् के व्यवहार का निर्वाह करते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान का 'उपचेतन -मन' ( Subconscious mind ) प्रायः वैसा ही है । लंकावतार सूत्र ( २।९९-१०० ) में आलय विज्ञान को समुद्र के समान कहा है। जिस