________________
बौद्ध दर्शनम्
६९
अपने कारण - पूर्वक्षणवाले घट - का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार विषय ज्ञान - ग्राह्य बनता है, किन्तु वह अनुमेय हो जाता है । ]
१
इसलिए [ इस विषय में ] प्रश्न और उत्तर का संग्रह किया गया है— 'यदि प्रश्न हो कि भिन्नकाल वाली वस्तु का ग्रहण कैसे होगा, [ तो उत्तर है कि घटादि ] पदार्थ के ज्ञानाकार को अर्पित करने में समर्थ हेतु को ही लोग ग्राह्य समझते हैं ।' ( घट के ज्ञान में अपने आकार के समान आकार उत्पन्न करने की जो शक्ति है, वही हेतु है, जिसे हम ग्रहण करते हैं । )
तथा च यथा पुष्ट्या भोजनमनुमीयते, यथा च भाषया देशः, यथा वा सम्भ्रमेण स्नेहः, तथा ज्ञानाकारेण ज्ञेयमनुमेयम् । तदुक्तम्
२२. अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् ।
तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ इति ॥
तब, जिस तरह पोषणा ( भरा हुआ शरीर ) देखकर भोजन का अनुमान होता है, भाषा से देश का, अथवा आदर से प्रेम का- - उसी तरह ज्ञानाकार से ज्ञेय पदार्थ का अनुमान करना चाहिए | वह कहा भी है- 'इस ज्ञान को [ ज्ञाता ] जो अर्थ के साथ मिलाता है, वह उस ज्ञान से अर्थाकार ( अपने आकार के समान आकार ) को हटाकर नहीं [ मिलाता, बल्कि संयुक्त करके ही ] । इसलिए ज्ञान ( संविद ) का मेयरूप ( या विषय के रूप में ) होना ही विषय के ज्ञान ( प्रमेय = विषय, अधिगति = ज्ञान ) का प्रमाण है ( विषयों का ज्ञान इसलिए होता है कि बुद्धि विषयों के आकार के समान ही आकार ग्रहण करती है ) ।
( २४. आलय - विज्ञान और प्रवृत्ति - विज्ञान )
न हि वित्तिसत्तैव तद्वेदना युक्ता । तस्याः सर्वत्राविशेषात् । तां तु सारूप्यमाविशत् सरूपयितुं घटयेदिति च । तथा बाह्यार्थसद्भावे प्रयोग:ये यस्मिन्सत्यपि कादाचित्कास्ते सर्वे तदतिरिक्तसापेक्षाः । यथा - अविवक्षति अजिगमिषति मयि वचनगमनप्रतिभासा विवक्षु-जिगमिषु पुरुषान्तरसन्तानसापेक्षाः । तथा च विवादाध्यासिताः प्रवृत्तिप्रत्ययाः सत्यप्यालयविज्ञाने कदाचिदेव नीलाद्युल्लेखिन ।। इति ॥
यह नहीं कह सकते कि ज्ञान की सता ही उन ( विषयों ) का ज्ञान है क्योंकि [ ऐसा करने पर ] ज्ञान (वित्त ) सर्वत्र एक-सा हो जायगा [ चूँकि ज्ञान की सर्वत्र सत्ता है
१ - पर्यनुयोग = प्रश्न, परिहार = उत्तर ।
२ - स० द० सं० की कुछ प्रतियों में यहाँ पर पाठ है— अर्धेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्धरूपताम् । 'अर्थ' के स्थान में 'अर्ध' का कुछ लिप्यन्तर सम्भव है । गफ ने इसी का अनुवाद किया है, किन्तु संगति नहीं बैठती ।