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बौद्ध दर्शनम्
प्रतिभासस्य भ्रान्तत्वेऽभेदप्रतिभासस्य प्रामाण्यं तत्प्रामाण्ये च भेदप्रतिभासस्य भ्रान्तत्वमिति परस्पराश्रयप्रसंगाच्च । अविसंवादान्नीलतादिकमेव संविदाना बाह्यमेवोपाददते, जगत्युपेक्षन्ते चान्तरमिति व्यवस्थादर्शनाच्च ।
आपका यह कहना ठीक नहीं क्योंकि जब बाहरी वस्तुओं की सत्ता ही नहीं ( -विज्ञानवादियों के मत में ) तो उसकी व्युत्पत्ति ( 'बहिः' शब्द का अर्थज्ञान ) भी तो नहीं होगा ? और ऐसी दशा में 'बाह्य पदार्थ के समान ( प्रतीत होता है )' यह उपमान की उक्ति भी व्यर्थ हो जायगी । ( उपमान वही हो सकता है जिसकी सत्ता हो, जिससे कुछ अर्थ निकले, किन्तु आप लोग बाह्यार्थ को मानते नहीं और ऊपर से कहते हैं कि आन्तर बुद्धि 'बाह्यार्थ के समान' प्रतीत होती है । यह कैसे ? ) कोई भी चेतनाशील व्यक्ति नहीं कहता कि वसुमित्र वन्ध्यापुत्र की तरह लगता है । दूसरी आपत्ति यह भी है कि [ विषय और विज्ञान के बीच ] भेद की प्रतीति को भ्रान्त मानकर अभेद ( ऐक्य ) की प्रतीति को प्रामाणिक मानना तथा ऐक्य की प्रतीति को प्रामाणिक मानकर भेद की प्रतीति को भ्रान्त मानना -- इससे अन्योन्याश्रयदोष का प्रसंग हो जायगा । [ आशय यह है कि विज्ञानवादी ज्ञाता और ज्ञेय में भेद की प्रतीति को मानते हैं भ्रान्त, और इसे ही साधन बनाकर सिद्ध करते हैं कि ज्ञाता और ज्ञेय में कोई भेद नहीं है । अब जो यहां साध्य था वही साधन बन जाता है । वह भी किसका ? उसे ही सिद्ध करने का जिसके द्वारा वह स्वयं हुआ है । इसे पाश्चात्य तर्कशास्त्र में Petitio principle कहते हैं। अभेद की प्रतीति को साधन मानकर भेद की प्रतीति को भ्रान्त सिद्ध करेंगे । इस प्रकार तार्किक वृत्त में फँसे । ]
[ हम देखते हैं कि ] कुछ लोग किसी के साथ बिना कुछ भी विरोध ( विसंवाद ) किये ही नीलादि पदार्थों को ज्ञान का विषय मानकर, बाह्य पदार्थ को ही केवल ग्रहण करते हैं, संसार में आन्तर की तो उपेक्षा ही कर देते हैं- ऐसी व्यवस्था देखी जाती है । [ बाह्यार्थ को सिद्ध करते हुए सौत्रान्तिकों का कहना है कि नैयायिकादि विद्वान् तो लौकिक दृष्टिकोण से अन्तर पदार्थ को स्वीकार नहीं करते किन्तु बाह्यार्थ की सत्ता तो मानते ही हैं-हम भी उनसे यहाँ पर सहमत हैं । बाह्यार्थ के विषय में तो किसी का कोई विरोध ही नहीं है । केवल ये लोग ही विरोध खड़ा करते हैं । स्मरणीय है कि सौत्रान्तिक और वैभापिक आन्तर बाह्य दोनों को मानते हैं, माध्यमिक दोनों में किसी को नहीं मानते, विज्ञानवादी केवल आन्तर को मानते हैं, नेयायिकादि बाह्य को ही केवल मानते हैं । ]
( २२. बाह्यार्थ की सत्ता - निष्कर्ष )
एवं चायमभेदसाधको हेतुर्गोमयपायसी यन्यायवत् आभासतां भजेत् अतो बहिर्वदिति वदता बाह्यं ग्राह्यमेवेति भावनीयमिति भवदीय एव बाणो भवन्तं प्रहरेत् ।