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बोड-वर्शनम्
५५ का भी निषेध हो जाता है । धर्मों सीपी है, उसका धर्म (इदं रजतम् में इदन्ता का आधार) रजतत्व है, दोनों के निषेध से रजतत्व के समान ही शुक्ति आदि ( दोनों के सम्बन्ध आदि ) का भी निषेध हो जाता है जिससे शून्यवाद में सहायता मिलती है।
दूसरे दार्शनिक जैसे नैयायिक आदि पूरे का निषेध नहीं करते, कहीं विशेषण का निषेध होता है, कहीं क्रिया का । 'अन्धकार में मैंने घड़ा नहीं देखा'-इसमें केवल दर्शनक्रिया का निषेध है, न कि द्रष्टा या अंधकार या घड़े का । 'पैरों से जाता है, रथ से नहीं जाता'-इसमें प्रधानभूत गमनक्रिया का भी निषेध नहीं है । विधि और प्रतिषेध विशेषण पर ही लगते हैं यदि विशेष्य की बाधा हों. इसलिए केवल रथ का ही निषेध है । शून्यवादियों को यह ठीक नहीं जंचता । आधा निषेध और आधा विधि--यह क्या तमाशा है ? विधान हो तो सबों का, निषेध हो तो सबों का, लेकिन विरोधी लोग तो मानेंगे ही नहीं। - अर्धजरतीय-न्याय ( आधा बूढ़ा, आधा जवान ) हो नहीं सकता। शून्यवाद में सबों का निषेध होता है।
तस्मादध्यस्ताधिष्ठान-तत्सम्बन्ध-दर्शन-दृष्टणां मध्य एकस्यानेकस्य वा असत्त्वे निषेधविषयत्वेन सर्वस्यासत्त्वं बलादापतेदिति भगवतोपदिष्टे 'माध्यमिकाः' तावदुत्तमप्रज्ञा इत्थमचीकथन-भिक्षुपादप्रसारणन्यायेन, क्षणभङ्गाद्यभिधानमुखेन, स्थायित्वानुकूलवेदनीयत्वानुगतत्व-सर्वसत्यत्वभ्रमव्यावर्तनेन सर्वशून्यतायामेव पर्यवसानम् । अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मकचतुष्कोटिविनिर्मुक्तं शून्यमेव । ___ इसलिए, ( १ ) आरोपित वस्तु ( रजतत्व ) के अधिष्ठान ( आधार, जैसे सीपी ), ( २ ) उनके सम्बन्ध, ( ३ ) दर्शन-क्रिया और ( ४ ) द्रष्टा-इनके बीच एक के या अनेक के असत् होने से, निषेध का विषय होकर सबों की अ-सत्ता बलात् ( जबर्दस्ती ) आ जाती है । इस प्रकार भगवान बुद्ध के उपदेश देने पर उत्तम बुद्धिवाले माध्यमिकों ने ऐसा कहाभिक्षुओं के पैर फैलाने की तरह ( मन्थर गति से), क्षणभंग इत्यादि शब्दों के कहने से तथा स्थायित्व ( स्थिर होना ), अनुकूल वेदना होना, उपस्थित होना (सामान्य ), सब सत्य होना-इन भ्रमों को हटाने [ बुद्ध के वचनों का ] यही अभिप्राय है कि सब कुछ शून्य । इसलिए तत्त्व ( दर्शन का मूल पदार्थ ) शून्य ही है जो इन चार कोटियों से नितान्त मुक्त हैं-(१) सत्, ( २ ) असत्, ( ३ ) उभयात्मक, (४) अनुभयात्मक । [ अभिप्राय यह है कि शून्य उसे कहते हैं जो सत् भी नहीं हो, न असत् हो, न सदसत् हो, न सदसत् से भिन्न ही हो । शून्य एक अनिर्वचनीय तत्त्व है जिसका केवल ज्ञान ही है।
विशेष-माध्यमिकों का अनिर्वचनीय शून्य-तत्त्व अद्वैतवेदान्तियों के अद्वैततत्त्व से मिलता है। विवेकचूडामणि में माया के विषय में लिखा गया है
सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो। साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो महाद्भुताऽनिर्वचनीयरूपा ।