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सर्वदर्शनसंग्रहे
नीलतद्वियोः ।
१५. सहोपलम्भनियमादभेदो मेदश्च भ्रान्तिविज्ञानंदृश्येतेन्दाविवाद्वये ॥ इति ॥ १६. अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव
लभ्यते ॥ इति च ॥
(स० सि० सं०, पृ० १२ )
[ इस प्रकार विषय और विज्ञान में अभेद दिखलाकर, भेद होने पर आपत्ति दिखलाते हैं कि यदि विषय और विज्ञान में ] भेद माना जाय तो इस समय ज्ञान के साथ वस्तु का कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा, क्योंकि [ सम्बन्ध ] का नियम बतलाने वाला कोई तादात्म्य ही नहीं रहेगा । [ आशय यह है कि 'जब ज्ञान है तो विषय के साथ है' इस प्रकार ज्ञान के साथ अर्थ का नियत सम्बन्ध है । किन्तु उसका मूल है तादात्म्य क्योंकि ज्ञान और सविषय – ये दोनों समानार्थक हैं । यह तादात्म्यसम्बन्ध नहीं रह सकता यदि ज्ञान और विषय को पृथक् मानें । इस प्रकार सम्बन्ध का नियम असिद्ध हो जायगा । ] ( इतना होने पर भी यदि भेदपक्ष में अर्थ का निमित्त ज्ञान को स्वीकार करें, तब तो विषय से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानोत्पत्ति ही सम्बन्ध बतला सकेगी । इसलिए फिर उत्तर देते हैं -) दूसरे; तदुत्पत्ति ( कार्यकारणभाव ) भी सम्बन्ध का नियमन नहीं कर सकती ( ऐसी बात नहीं कि घटरूपी कार्य के साथ कुम्भकार, चक्र, दण्डादि कारणों का सम्बन्ध नित्य है । निष्कर्ष यह है कि तादात्म्य या तदुत्पत्ति किसी से भी विषय और विज्ञान में भेद सिद्ध करना कठिन है ) ।
यह जो ग्राह्य और ग्राहक की धारणाओं ( संवित्ति
चेतना Consciousness )
के
पृथक् होने की प्रतीति होती है वह एक चन्द्रमा में दो ( चन्द्र ) होने की प्रतीति की तरह भ्रम है । यहाँ भी भ्रम का निमित्त कारण भेद की वासना ( जन्मजात संस्कार ) है, जिसका आदि नहीं और न जिसका प्रवाह ही कभी टूटता है । जैसा कि कहा गया है'एक साथ प्राप्त होने का [ इन दोनों में ] नियम है, इसलिए नील ( क्षणिक पदार्थ ) और उसके ज्ञान में कोई भेद नहीं । भेद तो भ्रान्त ज्ञान के कारण, एक चन्द्र में [ दो चन्द्र के ] भ्रम की तरह दृष्टिगोचर होता है ।" ( नील और उसका ज्ञान क्रमशः विषय और विज्ञान है, ये दोनों साथ देखे जाते हैं । एक के न रहने पर दूसरा रहेगा - ऐसा हो नहीं सकता । जो जिसके साथ नियमतः उपलब्ध होता है, वह उससे अभिन्न है । जैसे घट मिट्टी से अभिन्न है उसी तरह यहाँ समझें ) ।"
१. तुलनीय - सहोपलम्भनियमादभेदो
नीलतद्धियोः । अन्यच्चेत्संविदो नीलं न तद्भासेत संविदि ॥ भासते चेत्कुतः सर्वं न भासेकसंविदि । नियामकं न सम्बन्धं पश्यामो नीलतद्धियोः ॥
( विवरणप्रमेयसंग्रह, पृ० ७५ ) ।