________________
६०
सर्वदर्शनसंग्रहे
की सत्ता का कारण ज्ञान ही है। कारण कार्य के पूर्व होता है, इसलिए ज्ञान अर्थ के पहले रहना चाहिए । ज्ञान से ग्रहण करते-करते तो अर्थ नष्ट हो जाता है तो कैसे बाह्यार्थ ज्ञानग्राह्य होंगे ? ) दूसरा विकल्प भी सम्भव नहीं ( बिना उत्पन्न हुए कोई पदार्थ ज्ञानग्राह्य हो ही नहीं सकता ), क्योंकि बिना उत्पन्न हुए किसी वस्तु की सत्ता ही नहीं होगी ( और इस दशा में हमारा सिद्धान्त - बाह्यार्थशून्यत्ववाद - खरा ही उतरता है ) ।
I
फिर भी यदि यह मानते हो कि भूतकालिक पदार्थ ही ज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं, क्योंकि उसे ( ज्ञान को ) उत्पन्न करते हैं तो यह भी मूर्खो की-सी बात हो जायगी । ( अभिप्राय यह है कि ज्ञानकाल में अर्थ भले ही विद्यमान न हो, किन्तु ज्ञानोत्पादन के सम्बन्ध में तो ज्ञानग्राह्य हो सकता है । ) कारण यह है कि ऐसा मानने पर वस्तुओं के वर्तमान काल में प्रतीति का विरोध हो जायगा । ( यदि भूतकाल में ही पदार्थ ज्ञान-ग्राह्य होते हैं तो वर्तमान में उनकी प्रतीति कैसे सम्भव है ? ) दूसरी आपत्ति यह है कि इन्द्रियाँ भी [ चूंकि ज्ञान का साधन हैं, इसलिए वे ] ज्ञान उत्पन्न करके ग्राह्य बन जायेंगी ( अर्थ यह है कि जब ज्ञान के उत्पादन सम्बन्ध से ही कोई वस्तु ग्राह्य होती हैं, तब तो इन्द्रिय आदि जो अप्रत्यक्ष हैं, इनका भी ग्रहण होने लगेगा । इससे विशृंखलता आ जायगी ) ।
किं च, ग्राह्यः किं परमाणुरूपोऽर्थोऽवयविरूपो वा । न चरमः कृत्स्नैकदेशविकल्पादिना तन्निराकरणात् । न प्रथमः अतीन्द्रियत्वात् । षट्केन युगपद्योगस्य बाधकत्वाच्च । यथोक्तम्
१३. षटकेन युगपद्योगात्परमाणोः षडंशता । तेषामप्येकदेशत्वे पिण्डः स्यादणुमात्रकः ॥ इति ॥
[ हम फिर पूछते हैं कि ] यह ग्राह्य अर्थ परमाणु ( Atom ) के रूप में है या अंगप्रत्यंग से युक्त कोई शरीरी है ? दूसरा ( शरीरधारी का ) विकल्प हो नहीं सकता, क्योंकि 'पूरे में ग्राह्य है या एक भाग में इस प्रकार के विकल्पादि लगाकर उसका निराकर कर सकते हैं । ( अवयवी के रूप में घटादि कृत्स्न या पूर्णरूप में ज्ञान ग्राह्य है कि उसका एक भाग ज्ञान-ग्राह्य होता है ? पहला विकल्प सम्भव नहीं, क्योंकि पूर्णरूप का इन्द्रिय से सम्बन्ध हो नहीं सकता । दूसरा विकल्प भी असम्भव है, क्योंकि एक भाग को हम घट नहीं कह सकते तो फिर अवयवी घटादि ज्ञानग्राह्य कैसे होगा ? ) पहला विकल्प ( परमाणु के रूप में ग्रा होना ) भी कठिन है, क्योंकि परमाणु का ग्रहण इन्द्रियों से होता ही नहीं । दूसरे, छह ( दिशाओं ) के साथ उसके एक साथ योग होने में बाधा पहुँचती है । (छह दिशाएं हैंपूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर और नीचे । परमाणु चूंकि निरवयव है, इसलिए इन छहों के साथ परमाणु का एक साथ ( युगपत् ) सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि होता है तो परमाणु अवयवहीन कैसे होगा ? यही षट्क परमाणु के अवयवहीन होने में बाधक है । )