________________
बौद्ध-दर्शनम्
नाम विज्ञानवाद है। अपेक्षाकृत इस मत का प्रचार देश-विदेश में अधिक हुआ तथा इसी सम्प्रदाय ने नैयायिकों से लड़कर बौद्ध-न्याय को जन्म दिया । बौद्ध-न्याय का अर्थ है योगाचार--सम्प्रदाय के ग्रन्थ । लंकावतार-सूत्र इस सम्प्रदाय का बहुत प्रामाणिक ग्रंथ है, जो मूल संस्कृत में दस परिच्छेदों में है।
इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हैं-मैत्रेयनाथ ( मूल संस्कृत में कई ग्रंथ अप्राप्य, केवल 'अभिसमयालंकारिका' ८ परिच्छेदों में प्राप्त ), आर्य असंग (मैत्रेयशिष्य, ४थी शती, कृतियाँ-महायानसंपरिग्रह, योगाचारभूमिशास्त्र, महायान-सूत्रालंकार ), वसुबन्धु (असंग के छोटे भाई, पहले वैभाषिक बाद में भाई के सम्पर्क से विज्ञानवादी, कृ०-सद्धर्मपुंडरीक टीका, महापरिनिर्वाण-सूत्र टीका, वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिता टीका, विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिविशिका और त्रिशिका दो संस्करण), स्थिरमति ( वसुबन्धु के शिष्य, उनके सभी ग्रंथों पर टोकाएं और भाष्य), दिङ्नाग (कांची के ब्राह्मण, वसुबन्धु के शिष्य, ५वीं शती, तान्त्रिक, शास्त्रार्थी, कृतियाँ-प्रमाण-समुच्चय तथा उसकी वृत्ति, आलम्बन-परीक्षा, हेतुचक्रनिर्णय, त्रिकालपरीक्षा, न्यायप्रदेश केवल यही ग्रन्थ संस्कृत में पूरा प्राप्त । घोर नैयायिक, गौतम और वात्स्यायन का खंडन, उद्योतकर द्वारा न्यायवार्तिक में स्वयं खंडित, बौद्ध-न्याय के प्रतिष्ठापक), शंकरस्वामी (दिङ नाग के शिय), धर्मपाल (नालन्दा विहार के कुलपति, शीलभद्र के गुरु, बौद्ध ग्रन्थों की टीकाएं), धर्मकीति [कुमारिल के समकालिक, इत्सिग द्वारा उल्लेख, धर्मपाल के शिष्य, ६२५ ई०, प्रचंड तार्किक, कृतियाँ-प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, हेतुबिन्दु, वादन्याय, सन्तानान्तरसिद्धि ] ।
( १९. बाह्य पदार्थ का खण्डन ) बानं ग्राह्यं नोपपद्यत एव । विकल्पानुपपत्तेः । अर्थो ज्ञानग्राह्यो भवन्नुत्पन्नो भवति अनुत्पन्नो वा? न पूर्वः, उत्पन्नस्य स्थित्यभावात् । नापरः, अनुत्पन्नस्यासत्त्वात् । अथ मन्येथाः--'अतीत एवार्थो ज्ञानग्राह्यस्तज्जनकत्वादिति' तदपि बालभाषितम् । वर्तमानतावभासविरोधात् । इन्द्रियादेरपि ज्ञानजनकत्वेन ग्राह्यत्वप्रसंगाच्च ।
[ माध्यमिकों की तरह यह तो हम मानते ही हैं कि ] बाह्य ग्राह्य (प्रत्यक्षीकरणीय, सत्य ) के रूप में सिद्ध नहीं ही होता (= बाह्य पदार्थ को असत् तो हम भी मानते हैं )। कारण यह है कि इसके विषय में दिये गये दोनों विकल्प असिद्ध हो जाते हैं। वे हैं[ घटादि ] पदार्थ ज्ञान के द्वारा ग्राह्य है, [ तो हम पूछते हैं कि ] वह उत्पन्न होने के बाद ज्ञान-ग्राह्य होता है या बिना उत्पन्न हुए ही ? उत्पन्न होने के बाद वह ज्ञान-ग्राह्य हो नहीं सकता ( शब्दशः-पहला विकल्प ठीक नहीं), क्योंकि उत्पन्न पदार्थ की स्थिति नहीं हो सकती ( कोई भी वस्तु उत्पन्न होने पर एक क्षण ही ठहर सकती है, दूसरे क्षण में उसका विनाश हो जाता है । उत्पत्तिदाले क्षण में तो ज्ञान द्वारा वह ग्राह्य नहीं है, क्योंकि पदार्थ