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बौख-पर्शनम् का निर्णय नहीं होता। इसलिए वे ( पदार्थ ) अनिर्वचनीय तथा स्वभावहीन दिखलाये गये हैं।' और भी—'यह वस्तु बलात् उत्पत्र हुई है, यह विद्वान् लोग बोलते हैं। जैसे-जैसे पदार्थों का चिन्तन होता है वैसे-वैसे ही वे नष्ट हो जाते हैं ।' अभिप्राय यह है कि पदार्थ को किसी भी पक्ष ( कोटि ) में रहने की व्यवस्था नहीं दी जा सकती।
दृष्टार्थव्यवहारश्च स्वप्नव्यवहारवत्संवृत्या संगच्छते । अत एवोक्तम्१२. परिवाट-कामुक-शुनामेकस्यां प्रमदातनौ।
__ कुणपः कामिनी भक्ष्य इति तिस्रो विकल्पनाः ॥ इति ।
तदेवं भावनाचतुष्टयवशान्निखिलवासनानिवृत्तौ परनिर्वाणं शून्यरूपं सेत्स्यतीति वयं कृतार्थाः, नास्माकमुपदेश्यं किंचिदस्तीति ।
देखी जानेवाली वस्तुओं का व्यवहार स्वप्न-व्यवहार के समान अविद्या ( या कल्पना) से चलता है । ( सबों को शून्य मानने के बाद दृश्यमान जगत् स्वप्न-व्यवहारवत् कल्पना है । ठीक इसी प्रकार शंकर को अनिवर्चनीय ब्रह्म मान लेने पर संसार की व्याख्या के लिए माया-शक्ति और व्यावहारिक-सत्ता माननी पड़ती है)। इसलिए कहा है-'एक स्त्रीशरीर में संन्यासी, कामी और कुत्ते की तीन विभिन्न कल्पनाएँ होती हैं कि यह अस्थिपंजर है, कामिनी या खाने की चीज है।' ( इसी तरह संसार में लोगों के विकल्प हैं )।
तो इसी प्रकार चारों भावनाओं (क्षणिक, दुःख, स्वलक्षण, शून्य ) के वश, सारी वासनाओं के निवृत्त हो जाने पर, शून्य के रूप में परम ( अन्तिम ) निर्वाण (मोक्ष) मिल जायगा-इस तरह हमारा काम समाप्त हो गया, अब हमें किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं । [ उपर्युक्त उक्तियाँ आचार्यों की हैं जो स्वयं निर्वाण पाकर ( हीनयानी होकर ) निवृत्त हो गये । अब शिष्यों के मुक्त होने की भी विधि बतलाई जायगी।]
शिष्यस्तावद्योगश्चाचारश्चेति द्वयं करणीयम् तत्राप्राप्तस्यार्थस्य प्राप्तये पर्यनुयोगो योगः । गुरुक्तस्यार्थस्याङ्गीकरणमाचारः । गुरूक्तस्याङ्गीकरणादुत्तमाः, पर्यनुयोगस्याकरणादधमाश्च । अतस्तेषां माध्यमिका इति प्रसिद्धिः ॥
अब शिष्यों को दो काम करना है-योग और आचार । उनमें अप्राप्त ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रश्न करना योग कहलाता है। गुरु की कही हुई बातों को स्वीकार करना आचार कहलाता है । गुरु की कही बातों को अंगीकृत करनेवाले ये ( बौद्ध ) उत्तम हैं । दूसरी ओर, ये प्रश्न नहीं करने के कारण अधम भी हैं, इसलिए इनकी माध्यमिक के रूप में विशेष ख्याति है।
विशेष-माधवाचार्य माध्यमिक नाम पड़ने का एक विचित्र कारण देते हैं। चूंकि ये उत्तम और अधम दोनों हैं इसलिए माध्यमिक ( बीचवाला एक तीसरा सम्प्रदाय ) कहलाते । हैं किन्तु वस्तुस्थिति दूसरी है। ऐतिहासिक दृष्टि से बुद्ध के मध्यम-मार्ग ( भोग और