________________
५४
सर्वदर्शनसंग्रहे
( १७. शून्य की भावना-माध्यमिक-सम्प्रदाय ) एवं शून्यं शून्यमित्यपि भावनीयम् । स्वप्ने जागरणे च न मया दृष्टमिदं रजतादीति विशिष्टनिषेधस्योपलम्भात् । यदि दृष्टं सत्तदा तिद्विशिष्टस्य दर्शनस्येदन्ताया अधिष्ठानस्य च तस्मिन्नध्यस्तस्य रजतत्वादेस्तत्संबन्धस्य च समवायादेः सत्त्वं स्यात् । न चैतदिष्टं कस्यचिद्वादिनः । न चार्धजरतीयमुचितम् । न हि कुक्कुटया एको भागः पाकायापरो भागः प्रसवाय कल्प्यतामिति कल्प्यते। ___ उसी प्रकार यह भावना भी करनी चाहिए कि सब कुछ शून्य है। स्वप्न में या जागरण की दशा में भी मैंने यह रजतादि ( चाँदी आदि ) नहीं देखा-इस तरह एक विशेष प्रकार के निषेध की प्राप्ति होती है। जो कुछ दिखलाई पड़े वह यदि सत् हो तो उससे सम्बद्ध दर्शन की इस रूप में उसके ( इदंता के ) आधार की ( जैसे शुक्ति की ), उस पर आरोपित रजतत्व आदि की तथा उन दोनों ( रजत और शुक्ति) के समवाय (नित्य सम्बन्ध जैसे गन्ध और पृथिवी में ) आदि सम्बन्ध की भी सत्ता हो जायगी । लेकिन यह किसी भी वादी (विपक्षी, शास्त्रार्थी ) को अभीष्ट नहीं है। लेकिन अर्धजरतीय-सत्ता ( आधा में एक, आधा में दूसरी ) ठीक नहीं है। मुर्गी का एक भाग पचाने के लिए है, दसरा भाग अण्डे देने के लिए छोड़ दें'--ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
विशेष-शून्य की भावना नागार्जुन ने उठाई है जिन्होंने शून्यवाद या माध्यमिक सम्प्रदाय की स्थापना की है । यद्यपि प्रज्ञापारमिता, रत्नकरण्ड आदि प्राचीन सत्रों में भी शून्य का विचार है किन्तु उसे सिद्धान्त का रूप देकर सप्रमाण विवेचन करने का सारा श्रेय नागार्जुन को ही है। उन्होंने अपनी माध्यमिक-कारिका में शून्यवाद का पाण्डित्यपूर्वक विश्लेषण किया है ( समय २०० ई० ) । इसके अन्य आचार्य हैं-आर्यदेव ( नागार्जुनशिष्य २०० ई०, कृतियाँ-चतुःशतक, चित्तविशुद्धिप्रकरण आदि ), बुद्धपालित ( मा० का० की व्याख्या, ५वीं शताब्दी ), भावविवेक ( संस्कृत में इनके ग्रन्थ अप्राप्य, मा० का० व्याख्या, मध्यमार्थसंग्रह, करमणि ), चन्द्रकीति ( षष्ठशती, माध्यमिकावतार, प्रसन्नपदा = मा० का० व्याख्या, चतुःशतक टीका ), शान्तिदेव ( नालन्दा के जयदेव के शिष्य, बोधिचर्यावतार, ७वीं शती ), शान्तरक्षित ( नालन्दा के प्रधान, तिब्बतयात्रा करके वहाँ सम्मे विहार की ७४९ ई० स्थापना, तत्वसंग्रह )।
इसकी स्थापना-सीपी ( शुक्ति ) में चाँदी के भ्रम से कोई उसके पास गया किन्तु चाँदी नहीं देख सका । अब एक निषेध की प्राप्ति हो गई-मैंने स्वप्न या जागरण में चाँदी नहीं देखी । यहाँ पर 'नहीं' ( नत्र ) का सम्बन्ध कारक आदि से मिली हुई क्रिया के साथ है। इसलिए यहाँ पर त्रिविधात्मक निषेध प्राप्त हुआ--दर्शन क्रिया का, उसके कर्ता देखनेवाले का, उसके कर्म दृश्य वस्तु का। यही नहीं, दूसरे रूप में धर्मी, धर्म और उनके सम्बन्ध