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पक्ष और विपक्ष के रूप में प्रारम्भ से ही रहा है और इन दोनों सिद्धान्तों के आधार पर यथा-समय सम्प्रदायों और दर्शनों की भी स्थापना होती रही है और इन सभी सम्प्रदायों में अन्तर सम्बन्ध भी बनते-बिगड़ते रहे हैं। ब्राह्मण-सम्प्रदाय के सामने श्रमण-सम्प्रदाय और उसकी प्रवज्या, भिक्षा या आहार पद्धति, गण-कुल-संघ-व्यवस्था, विचार-दर्शन समाज-दर्शन आदि तात्त्विक बिन्दुओं पर जब हम विचार करते हैं, तो स्पष्ट रूप में हमारे सामने दो विचारधाराएँ दिखायी पड़ती हैं ब्राह्मण-विचारधारा और श्रमण-विचारधारा । ये दोनों विचारधाराएँ पृथक्-पृथक् होने के बावजूद परस्पर परिपूरक हैं और एक ही व्यक्ति-संस्कृति से जुड़ी हुई लगती हैं। इसीलिए उनमें निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप दोनों परम्पराएँ अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार तरतमता के रूप से सम्बद्ध हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव ने निवृत्ति को मूल में रखकर प्रवृत्ति पर विचार किया
और ब्राह्मणिक महर्षियों ने प्रवृत्ति को मूल मानकर निवृत्ति को गौण कर दिया। प्रवृत्तिनिवृत्ति की हीनाधिकता में ही भक्ति-तत्त्व का विकास हुआ है। एक समय ऐसा भी आया, जब दोनों परम्पराएँ मिश्रित-सी दिखाई देने लगीं। अतः उन्हें एक-दूसरे का विरोधी कहने की अपेक्षा पूरक कहना अधिक-युक्ति-संगत लगता है।
इस सन्दर्भ में जैनधर्म की ऐतिहासिक परम्परा पर यदि हम विचार करें तो यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि जैनतीर्थ परम्परा का प्रारम्भ उत्तर भारत में गंगा नदी की घाटी में हुआ। अयोध्या इसका केन्द्रस्थल रहा और छठी शती ई. पू. वह मगध और वैशाली क्षेत्र में पहुँचा और वहीं से वह एक ओर पश्चिम की ओर बढ़ा और दूसरी ओर बढ़ता हुआ श्रीलंका तक पहुँचा। सभी तीर्थंकरों की जन्मभूमि और कर्मभूमि होने का गौरव भारत के मध्य क्षेत्र को मिला है, विशेष रूप से मध्य-गंगा मैदान और बिहार को। यहाँ के जनपदों का इतिहास भले ही छठी शताब्दी ई.पू. से प्रारम्भ होता है, पर पुरातात्त्विक प्रमाणों से यहाँ मानव का अस्तित्व लगभग दस हजार वर्ष ई.पू. मिलता है। यह समय वस्तुतः और-भी पीछे जाना चाहिए। इसलिए पौराणिक परम्परा को एकदम झुठलाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि उसे अर्ध-ऐतिहासिक कहा जाता
क्या सिन्धु-हड़प्पा संस्कृति जैन संस्कृति थी?
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अतीत के मूल्यांकन का कार्य हाथ में लिया जिसका प्रारम्भ कौसाम्बी से होता है। उन्होंने ऐतिहासिक कालों को उत्पादन के साधनों और सम्बन्धों के अनुसार विभाजित करने की आवश्यकता पर बल दिया। मार्क्सवादी का लक्ष्य है इतिहास से विवेक अर्जित करना और वर्तमान को बदलना, न कि वर्तमान की जरूरत से इतिहास को बदलना। यह उनका भाववादी इतिहास था। इसमें उन्होंने वर्ण-जाति व्यवस्था की बात कहकर क्षत्रिय प्रधान आर्य
72 :: जैनधर्म परिचय
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