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जिसका उल्लेख अवेस्ता में मिलता है (Vendidad. Fargard 1:1 ) । ये आर्य सप्तसिन्धु प्रदेश में रहते थे, जो पश्चिम में सिन्धु और पूर्व में सरस्वती (घग्गर) के बीच पड़ता है । इसे वे भक्तिशात् देवनिर्मित प्रदेश कहते थे । उत्तरकाल में यह आर्य संस्कृति हड़प्पन संस्कृति के नाम से विख्यात हुई, जो हक प्रदेश (सरस्वती नदी का पाकिस्तानवर्ती निम्न वेसिन भाग) में फैली, और फिर वहाँ से राजस्थान की ओर बढ़ी। यह सरस्वती नदी बाद में सिन्धु नदी में मिल गयी और अन्य नदियाँ (चिन्नव, रवि, झेलम, सतलज और व्यास) गंगा में समाहित हो गयीं । सरस्वती वेसिन में हुए उत्खनन से इस तथ्य का पता चलता है कि हककाल (लगभग 5000 ई.पू.) की अपेक्षा उत्तर हड़प्पन काल
सिन्धु घाटी में आर्यों का निवास रहा होगा, जहाँ विकसित संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। उत्तर हड़प्पन संस्कृति के प्रमाण हड्प्पा की खुदाई में उपलब्ध होते हैं। मोहेनजोदड़ो में भी यह आर्य संस्कृति फैली हुई थी। यह आर्य संस्कृति मूल रूप से भारतीय संस्कृति थी, जैन और वैदिक दोनों संस्कृतियाँ पल्लवित होती रही हों । इन्हीं प्रदेशों में जैन संस्कृति से सम्बद्ध दिगम्बर मुद्रा में कायोत्सर्गिक भव्य जैन मूर्ति उपलब्ध हुई हैं बहुत सम्भव है कि इस समय में जो कदाचित् तीर्थंकर ऋषभेदव की रही हों । दास, दस्यु, पण आदि जातियों का यहाँ निवास था। आर्येतर जातियों के रूप में ऋग्वेद में उल्लिखित ये जातियाँ वस्तुतः ऋषभदेव की अनुयायिनी थीं ।
आद्य परम्परा और पृष्ठभूमि
इतिहास एक लिखित दस्तावेज है और परम्परा अलिखित कहानी वाला तथ्य, जो पीढ़ी से जुड़ा रहता है । लिखित इतिहास का प्रारम्भ लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से हुआ, पर अलिखित परम्परा का एक लम्बा इतिहास है, जो श्रुति - परम्परा से चला आया है । जब कोई परम्परा लिपिबद्ध होने लगती है, तो उसके आधार का संकेत कर दिया जाता है। पुरानी कथाओं और अनुश्रुतियों के आधार पर जैसे वेद और पुराण ग्रन्थ लिखे गये। उसी तरह चौदह पूर्वों के आधार पर जैन परम्परा का निर्माण हुआ है। इन परम्पराओं की पुष्टि इतिहास करे यह आवश्यक नहीं, पर इतिहास की संरचना में परम्परा को भुलाया नहीं जा सकता। साम्प्रदायिकता की पुट भले ही इतिहास और परम्परा को धूमिल कर देती है, पर विवेक और तथ्य के प्रकाश में वह धूमिलता नष्ट हो जाती है । परम्परा के साथ धर्म और संस्कृति के तत्त्व भी जुड़े रहते हैं और उनके बीच हुए संघर्षों का प्रारूप भी उनमें छिपा रहता है। ऐसी स्थिति में बड़ी सावधानी के साथ निष्पक्षपता-पूर्वक परम्परा को इतिहास का अंग बनाया जा सकता है। इसकी परिधि में जैन जीवन को केन्द्र में रखते हुए धर्म, दर्शन और कला तीनों समाहित हो जाते हैं। इन सभी तत्त्वों को मिलाकर हम उसे 'संस्कृति' कह सकते हैं।
जैनधर्म का यथार्थ इतिहास और संस्कृति बौद्धधर्म के उदय के पूर्व से प्रारम्भ होती
70 :: जैनधर्म परिचय
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