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है। इसी समय उत्तर भारत में सामाजिक परिवर्तन भी हुआ, जिसे उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। वैदिक काल का इतिहास शुद्ध इतिहास नहीं कहा जा सकता। उसके लिए पुरातात्त्विक प्रमाण भी उपलब्ध नहीं होते। साधारणतः इतिहासकार चरागाहयुगीन जीवन (Nomadic or pastoral life) को पन्द्रह से दसवीं शताब्दी ई.पू. में रखते हैं। संस्कृत भी प्राकृत मिश्रित लौकिक भाषा से साहित्यिक भाषा के रूप में इसी समय स्थापित हुई। कृषि का विकास भी इसी काल में अधिक हुआ। लेखन-कला , लौहकला
और नागरीकरण के विस्तार के लिए भी यही समय इतिहास में स्मरणीय है। वेद ब्राह्मणिक, आरण्यक, उपनिषद् साहित्य भी इसी समय अस्तित्व में आये। ब्राह्मणिक दर्शन का विकास उपनिषदिक दर्शन में हुआ। यह समूचा दर्शन पश्चिम भारत में फलताफूलता रहा। उसकी दृष्टि में पूर्व भारतीय प्रदेश अशुद्ध माना जाता था। सामाजिक और आर्थिक पक्ष भी वैदिक काल में अविकसित था। उसी का प्रतिबिम्बन वैदिक साहित्य और दर्शन में भी हुआ जहाँ पौरोहित्य, हिंसक यज्ञ और कठोर जातिवाद दिखाई देता है।... पर इसी समानान्तर श्रम को महत्त्व देने वाली मानवतावादी दर्शन और चिन्तन को प्रधान मानने वाली श्रमण संस्कृति पल्लवित होती रही।
इन परम्पराओं में प्राप्त ऋषभदेव तथा उनके श्रमण दर्शन से सम्बद्ध उल्लेखों को भी हम कैसे नज़रअन्दाज़ कर सकते हैं? ऐसी स्थिति में उन उल्लेखों को किसी कालखण्ड में नियोजित करना भी सरल नहीं है। परिणामतः तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पूर्व का इतिहास परम्परागत इतिहास है और परम्परा भी इतिहास का एक अंग बनकर हमारे सामने खड़ी हुई है। संभव है, वर्तमान इतिहास की परिभाषा उस परम्पराको कभी स्वीकार कर ले। इसलिए इतिहास और परम्परा एवं पुरातत्त्व को हमें एकसाथ लेकर चलना होगा और अपनी सीमा और विवेक के दर्पण में उन्हें देखना होगा। इस देखने में मतभेद होना स्वाभाविक है। दृष्टिभेद होना स्वाभाविक है। दृष्टिभेद और विचारभेद वस्तुतः विकास की ही प्रक्रिया है। अतः हम इन तीनों पर विचार करते हुए ही आगे बढ़ेंगे। इस कालखण्ड का इतिहास अन्धकाराच्छन्न है और उसे समय की सीमा में बाँधना भी अन्धकार में लाठी चलाने जैसा ही होगा। तब साक्ष्याधारित अनुभव ही एक सक्षम प्रमाण कहा जा सकता है, जो साहित्यिक स्रोतों पर आधारित है।
प्रवृत्ति-निवृत्ति परम्परा का सम्मिश्रित रूप
श्रमण जैन परम्परा ने ब्राह्मण परम्परा में प्रचलित हिंसक यज्ञ और जातिवाद के विरोध में नहीं, बल्कि मानवतावाद के पोषण में अहिंसा, अपरिग्रह और कर्मवाद सिद्धान्त को प्रस्थापित किया और पूर्व प्रचलित सिद्धान्तों की मीमांसा अपने नये सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत की। ब्राह्मण और श्रमण परम्पराओं के सिद्धान्तों का प्रचलन
श्रमण जैन संस्कृति और पुरातत्त्व :: 71
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