________________
प्रस्तावना
६५
महानुभावों का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ। उनकी उदारता के बिना यह महान् ग्रन्थ जनता के समक्ष आना कठिन कार्य था। दूरवर्ती होने से प्रूफ देखने का कार्य मैं स्वयं नहीं कर सका हूँ। इसके समग्र प्रूफ पं० महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने देखे हैं। मेरे विचार से उन्होंने अपना दायित्व पूरी तरह निभाया है। कुछ अशुद्धियाँ अवश्य रह गयी हैं पर पाठकगण अध्ययन करते समय मूल और अनुवाद का मिलान कर उन्हें ठीक कर लेंगे, ऐसी आशा है।
महापुराण का दूसरा संस्करण हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। महापुराण पहले संस्करण में भी संस्कृत मूल, हिन्दी अनुवाद, महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना और परिशिष्ट आदि के साथ अलंकृत होकर सर्वप्रथम प्रकाश में आया था, इस द्वितीय संस्करण में कुछ अतिरिक्त सुधार-संशोधन और परिवर्तन-परिवर्धन किये गये हैं। पहले संस्करण के मूल और अनुवाद में जो त्रुटियां रह गयी थीं वे इस संस्करण में सुधार दी गयी हैं । प्रथम संस्करण प्रकाशित होने पर भूमिका के 'आदिपुराण और वर्ण-व्यवस्था' शीर्षक प्रकरण पर कुछ अनुकूलप्रतिकूल चर्चाएं उठी थीं उन्हें दृष्टिगत रखते हुए उस प्रकरण में भी आवश्यक परिवर्तन कर दिये गये हैं।
प्रस्तुत संस्करण में कुछ अतिरिक्त सामग्री भी जोड़ी गयी है। प्रस्तावना के उपरान्त आदिपुराण की सूक्तियाँ दी गयी हैं। और ग्रन्थ के अन्त में एक नया परिशिष्ट शब्दानुक्रमणिका के नाम से जोड़ा गया है। इसके अन्तर्गत आदिपुराण में आये भौगोलिक, पारिभाषिक तथा व्यक्तिवाचक शब्दों की सूचियाँ दी गयी हैं। इस प्रकार के परिशिष्टों की कितनी महती उपयोगिता है, वह अध्येताओं से छिपी नहीं है।
इस सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत संस्करण को स्वाध्याय प्रेमिओं, श्रद्धालु जनता तथा शोधार्थी विद्यार्थी एवं विद्वानों सभी के लिए उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया गया है।
हमारे मित्र श्री रतनलाल जी कटारिया केकड़ी एक अध्ययनशील विद्वान हैं। बारीकी से किसी चीज का अध्ययन करना उनकी प्रकृति है। पत्र लिखने पर उन्होंने पूर्वभाग में रही कमियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया, इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
अन्त में इस नम्र प्रार्थना के साथ प्रस्तावना समाप्त करता हूँ कि महापुराण समुद्र के समान गंभीर है । इसके अनुवाद, संशोधन और सम्पादन में त्रुटियों का रह जाना सहज संभव है ।अतः विद्वज्जन मुझे अल्पज्ञ जानकर क्षमा करेंगे।
"महत्यस्मिन् पुराणान्धौ शाखाराततरंगके । स्खलितं यत्प्रमादान्मे तदधाः क्षन्तुमर्हथ ॥"
-पन्नालाल जैन
वर्णीभवन, सागर