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भारिपुराण
__ मैं आदिपुराण और उत्तरपुराण की संक्षिप्त कथा 'चौबीसी पुराण' के नाम से लिख चुका था और जिनवाणी-प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता से उसका प्रकाशन भी हो चुका था, अत: संक्षिप्त अनुवाद करने की मेरी रुचि नहीं हुई। फलतःमैंने उत्तर दिया कि मैं संक्षिप्त अनुवाद नहीं करना चाहता। हाँ, श्लोक का नम्बर देते हुए मूलानुगामी अनुवाद यदि आप चाहते हैं तो मैं कर दे सकता हूँ।
कापड़ियाजी की दृष्टि में समग्र ग्रन्थ का परिमाण नहीं आया इसलिए उन्होंने प्रकाशित करने का दृढ़ विचार किये बिना ही मुझे अनुवाद शुरू करने का अन्तिम पत्र दे दिया। ग्रीष्मावकाश का समय था, अतः मैंने अनुवाद करना शुरू कर दिया । तीन वर्ष के ग्रीष्मावकाशों-छह माहों में जब अनुवाद का कार्य पूरा हो चुका तब मैंने उन्हें सूचना दी और पूछा कि इसे आप प्रेस में कब देना चाहते हैं। आदिपुराण का परिमाण बारह हजार अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण है सो इतना मूल और इतने श्लोकों का हिन्दी अनुवाद दोनों ही मिलकर बृहदाकार हो गये अत: कापड़ियाजी उसके प्रकाशन से कुछ पीछे हटने लगे । महंगाई का समय और नियन्त्रण होने से इच्छानुसार कागज प्राप्त करने में कठिनाई ये दोनों कारण कापड़ियाजी के पीछे हटने में मुख्य थे।
इसी समय सागर में मध्य प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन होने वाला था जिसकी 'दर्शनपरिषद्' की व्यवस्था का भार मुझ पर अवलम्बित था। जैन दर्शन पर भाषण देने के लिए मैं जैन विद्वानों को आमन्त्रित करना सोच ही रहा था कि उसी समय नवउद्घाटित 'जैन ऐज्युकेशन बोर्ड की बैठक बुलाने का भी विचार लोगों का स्थिर हो गया। बोर्ड की समिति में अनेक विद्वान् सदस्य हैं । मैंने सदस्यों को सप्रेम आमन्त्रित किया जिसमें पं० वंशीधरजी इन्दौर, पं० राजकुमारजी मथुरा, पं० महेन्द्रकुमारजी बनारस बादि अनेक विद्वान् पधार गये। साहित्य सम्मेलन और जैन एज्युकेशन बोर्ड दोनों के कार्य सानन्द सम्पन्न हुए । उसके कुछ ही माह पहले बनारस में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना हुई थी। पं० महेन्द्रकुमारजी मूर्ति देवी जैन ग्रन्थमाला के सम्पादक और नियामक हैं अतः मैंने सागर में ज्ञानपीठ की ओर से आदिपुराण प्रकाशित करने की चर्चा पं. महेन्द्रकुमारजी से की और उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ ज्ञानपीठ से उसे प्रकाशित करना स्वीकृत कर लिया। साथ ही ताडपत्रीय तथा अन्य हस्तलिखित प्रतियां एकत्रित कर उनसे पाठान्तर लेने की सुविधा कर दी। इतना ही नहीं, ताडपत्रीय कर्नाटक लिपि को नागरी लिपि में बाँचना तथा नागरी लिपि में उसका रूपान्तर करने आदि की व्यवस्था भी कर दी। एक बार पाठान्तर लेने के लिए मैं ग्रीष्मावकाश में २५ दिन के लगभग बनारस रहा तब आपने ज्ञानपीठ की ओर से सुविधा दी थी। दूसरे वर्ष में बनारस नहीं पहुँच सका अतः आपने पं० देवकुमारजी न्यायतीर्थ को बनारस से सागर भेज दिया जिससे हमें कर्नाटक लिपि के पाठ सुनने में पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। पं० गुलाबचन्द्र 'दण्डी' व्याकरणाचार्य, एम० ए० से बनारस में पाठभेद लेने में पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ था। इस प्रकार ५-६ वर्षों के परिश्रम के बाद आदिपुराण का वर्तमान रूप सम्पन्न हो सका है। ललितकीति कृत संस्कृत टीका तथा पं० दौलतरामजी और पं० लालाराम जी की हिन्दी टीकाओं से मुझे सहायता प्राप्त हुई । इसलिए इन सब महानुभावों का मैं आभार मानता हूँ। प्रस्तावना लेखन में मैंने जिन महानुभावों का साहाय्य प्राप्त किया है यद्यपि मैं तत्तत्प्रकरणों में उनका उल्लेख करता आया हूँ तथापि यहाँ पुन: उनका अनुग्रह प्रकट करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। आदरणीय वयोवृद्ध विद्वान् श्री नाथूरामजी प्रेमी का तो मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने कि अस्वस्थ अवस्था में भी मेरी इस सम्पूर्ण प्रस्तावना को देखकर योग्य सुझाव दिये । जिनसेन और गुणभद्रविषयक जिस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन इसमें किया गया है यह सब उन्हीं की कृपा का फल है। अपने सहपाठी मित्र पं० परमानन्दजी को भी मैं धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता जिन्होंने कि दि० जैन पुराणों की सूची तथा आदिपुराण में जिनसेनाचार्यद्वारा स्मृत भाचार्यों का परिचय भेजकर मुझे सहायता पहुँचायी। मैं पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री बनारस का भी अन्यन्त आभारी है कि जिन्होंने भूमिका अवलोकन कर उचित सुझाव दिये हैं।
इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ बनारस की ओर से हो रहा है अत: उसके संरक्षक और संचालक