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प्रस्तावना
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सादि-अनादि की इस स्पष्ट व्यवस्था को न लेकर कितने ही विद्वान् भरतक्षेत्र में भी वर्णव्यवस्था को अनादि सिद्ध करते हैं और उसमें युक्ति देते हैं कि भोगभूमि के समय लोगों के अन्तस्तल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण दबे हुए रहते हैं। किन्तु उनका यह युक्तिवाद गले नहीं उतरता। भोगभूमिज मनुष्यों के जब उच्च गोत्र का ही उदय रहता है, तब उनके शूद्र वर्ण को अन्तहित करने वाला नीच गोत्र का भी उदय क्या शास्त्रसम्मत है ? फिर ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि तो इसी हुण्डावसर्पिणी काल में बतायी गयी है। उसके पहले कभी भी यहाँ ब्राह्मण वर्ण नहीं था। विदेहक्षेत्र में भी नहीं है। फिर उसकी अव्यक्त सत्ता भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में कहाँ से आ गयी? वर्ण और अस्पृश्यता
प्राचीन वैदिक साहित्य में जहाँ चतुवर्ण की चर्चा आयी है वहाँ अन्त्यजनों का अर्थात् अस्पृश्य शूद्रों का नाम तक नहीं लिया गया है। इससे पता चलता है कि प्राचीन भारत में स्पृश्यास्पृश्य का विकल्प नहीं था। स्मृतियों तथा पुराणों में इनके उल्लेख मिलते हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि यह विकल्प स्मृतिकाल में उठा है और पुराणकाल में उसे पोषण प्राप्त हुआ है । शूद्र दो प्रकार के होते हैं, ग्राह्यान्न और अग्राह्यान्न अथवा स्पश्य और अस्पृश्य । ये भेद सर्वप्रथम मनुस्मति में देखने को मिलते हैं। उस समय लोक में इनका विभाग हो गया होगा।
आदिपुराण (१६।१८६) में जिनसेन स्वामी ने भी यह लिखा है कि शूद्र दो प्रकार के होते हैंस्पृश्य और अस्पृश्य । कारू, रजक आदि स्पृश्य तथा चाण्डाल आदि अस्पृश्य शूद्र हैं। आदिपुराण के उल्लेखानुसार यदि इस चीज को साक्षात् भगवान् ऋषभदेव के जीवन के साथ सम्बद्ध करते हैं तो इसका प्राचीन भारतीय साहित्य में किसी-न-किसी रूप में उल्लेख अवश्य मिलना चाहिए। पर कहीं इन भेदों की चर्चा भी नहीं है । तथा भगवान् ऋषभदेव ने स्वयं किसी से कहा हो कि तुम क्षत्रिय हो, तुम वैश्य हो, तुम स्पृश्य हो, और तुम अस्पृश्य शूद्र । अब तक तुम हमारे दर्शन कर सकते थे-हमारे सामने आ सकते थे, पर आज से अस्पृश्य हो जाने के नाते यह कुछ नहीं कर सकते—यह कहने का साहस नहीं होता। भगवान् ऋषभदेव के समय जितनी वृत्तिरूप जातियां होंगी उनसे सहस्रगुणी आज हैं। अपनी-अपनी योग्यता और परिस्थिति से वशीभूत होकर लोग विभिन्न प्रकार की आजीविकाएँ करने लगते हैं और आगे चलकर उस कार्य के करने वालों का एक समुदाय बन जाता है जो जाति कहलाने लगता है। अब तक इस प्रकार की अनेकों जातियाँ बन चुकी हैं और आगे चलकर बनती रहेंगी। योग्यता और साधनों के अभाव में कितने ही मनुष्यों ने निम्न कार्य स्वीकार कर लिया। परिस्थिति से विवश हुआ प्राणी क्या नहीं करता? धीरे-धीरे योग्यता और साधनों के मद में फूले हुए मानव उन्हें अपने से हीन समझने लगे। उनके प्रति घृणा का भाव उनके हृदयों में उत्पन्न होने लगा और वे अस्पृश्य तथा स्पृश्य भेदों में बांट दिये गये। जिनसे मनुष्य का कुछ अधिक स्वार्थ या सम्पर्क रहा वे स्पृश्य बने रहे और जिनसे मनुष्य का अधिक स्वार्थ या सम्पर्क न रहा वे अस्पृश्य हो गये ।
मनुष्य का जातिकृत अपमान हो इसे जैनधर्म की आत्मा स्वीकृत नहीं करती। जैन शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि चारों गतियों में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है। फलस्वरूप आज जिसे अस्पृश्य कहा जा रहा है वह भी सम्यग्दर्शन का अधिकारी है । यदि अनन्त संसार को शान्त करने वाला सम्यग्दर्शन हाथ लग जाने पर भी उसकी अस्पृश्यता न गयी तो आश्चर्य ही समझना चाहिए। अनुवाद और आभारप्रदर्शन
हमारे स्नेही मित्र मूलचन्द किसनदास जी कापडिया सूरत ने कई बार प्रेरणा की कि इस समय आदिपुराण मिल नहीं रहा है, लोगों की मांग अधिक आती है इसलिए यदि आप इसका संक्षिप्त अनुवाद कर दें तो मैं उसे अपने कार्यालय से प्रकाशित कर दूं।