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प्रस्तावना
युग में पुरुषार्थसाधिनी सामाजिक व्यवस्था में इन सबका उपयोग नहीं हो रहा है और न ही हो सकता है। पुरुषार्थसाधिनी सामाजिक व्यवस्था के साथ यदि साक्षात् सम्बन्ध है तो वृत्ति रूप जाति का ही है । व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार वृत्तिरूप जाति को स्वीकृत करता है। यह प्रकृति कदाचित पिता-पुत्र की एक सदश होती है, और कदाचित् विसदृश भी। पिता सात्त्विक प्रकृति वाला है, पर उसका पुत्र राजस प्रकृति का धारक हो सकता है । पिता ब्राह्मण है, पर उसका पुत्र कुलक्रमागत अध्ययन-अध्यापन को पसन्द न कर सैनिक बन जाना पसन्द करता है । पिता वैश्य है, पर उसका पुत्र अध्ययन-अध्यापन की वृत्ति पसन्द कर सकता है । पिता क्षत्रिय है, पर उसका पुत्र दूसरे की नौकरी कर सकता है। मनुष्य विभिन्न प्रकृतियों के होते हैं और उन विभिन्न प्रकृतियों के अनुसार स्वीकृत की हुई वृत्तियाँ विविध प्रकार की होती हैं। इन सबका जो सामान्य चतुर्वर्गीकरण है वही चतुर्वर्ण है । यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि एक-एक वर्ण अनेक जाति-उपजातियों का सामान्य संकलन है । वर्ण सामान्य संकलन है और जाति उसका विशेष संकलन । विशेष में परिवर्तन जल्दीजल्दी हो सकता है पर सामान्य के परिवर्तन में कुछ समय लगता है । मातृवंश को जाति कहते हैं । यह जो जाति की एक परिभाषा है उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है।
वर्ण और कुल
परिवार के किसी प्रतिष्ठित पुरुष को आधार मानकर कुल या वंश का व्यवहार चल पड़ता है । जैसे कि रघु का आधार मानकर रघुवंश, यदु का आधार मानकर यदुवंश, अर्ककीर्ति को आधार मानकर अर्क-सूर्य वंश, कुरु को आधार मानकर कुरुवंश, हरि को आधार मानकर हरिवंश.आदि का व्यवहार चल पड़ा है। उसी वंशपरम्परा में आगे चलकर यदि कोई अन्य प्रभावशाली व्यक्ति हो जाता है तो उसका वंश चल पड़ता है, पुराना वंश अन्तहित हो जाता है । एक वंश से अनेक उपवंश उत्पन्न होते जाते हैं, यह वंश का व्यवहार प्रत्येक वर्ण में होता है, सिर्फ क्षत्रिय वर्ण में ही होता हो सो बात नहीं । यह दूसरी बात है कि पुराणादि कथाग्रन्थों में उन्हीं की कथाएं मिलती हैं, परन्तु यह भी तो ध्यान रखना चाहिए कि पुराणादि में विशिष्ट पुरुषों की ही कथाएँ संदब्ध की जाती हैं, सबकी नहीं। यह यौनवंश का उल्लेख हवा । इसके सिवाय विद्यावंश का भी उल्लेख मिलता है जो गुरुशिष्य-परम्परा पर अवलम्बित है। इसके भी बहुत भेदोपभेद हैं । इस प्रकार वर्ष और वंश सामान्य और विशेषरूप हैं । लौकिक गोत्र वंश या कुल का ही भेद है। वर्ण और गोत्र
जैनधर्म में एक गोत्र नाम का कर्म माना गया है जिसके उदय से यह जीव उच्च-नीच कुल में उत्पन्न होता है । उच्च गोत्र के उदय से उच्च कुल में और नीच गोत्र के उदय से नीच कुल में उत्पन्न होता है । देवों के हमेशा उच्च गोत्र का तथा नारकियों और तिर्यञ्चों के नीच गोत्र का ही उदय रहता है । मनुष्यों में भी भोगभूमिज मनुष्य के सदा उच्च गोत्र का ही उदय रहता है, परन्तु कर्मभूमिज मनुष्यों के दोनों गोत्रों का उदय पाया जाता है, किन्हीं के उच्च गोत्र का और किन्हीं के नीच गोत्र का । अपनी प्रशंसा, दूसरे के विद्यमान गुणों का अपलाप तथा अहंकार वृत्ति से नीच गोत्र का और इससे विपरीत परिणति के द्वारा उच्च मोत्र का बन्ध होता है। गोत्र की परिभाषा गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस प्रकार लिखी है:
"संताणकमेणागव जीवायरजस्त गोदनिदि सम्मा। उच्छणीचंबर उच्वंणीचं हवेमो।"
अर्थात् सन्तानक्रम से चले आये जीव के आचरण की गोत्र संशा है। इस जीव का जो उच्च-नीच भाचरण है वही उच्च-नीच गोत्र है। विचार करने पर ऐसा विदित होता है कि यह लक्षण सिर्फ कर्मभूमिज मनुष्यों को लक्ष्य कर ही लिखा गया है, क्योंकि गोत्र का उदय जिस प्रकार मनुष्यों के है उसी प्रकार नारकियों