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प्रस्तावना
इनमें से प्रथम श्लोक का भाव पहले लिखा जा चुका है। द्वितीय श्लोक का भाव यह है कि गाय, घोडा आदि में जैसा जातिकृत भेद पाया जाता है वैसा मनुष्यों में नहीं पाया जाता, क्योंकि उन सबकी आकृति एक है।
__ आदिपुराण के यही श्लोक सन्धिसंहिता तथा धर्मसंग्रह-श्रावकाचार आदि ग्रन्थों में कहीं ज्यों-के-त्यों और कहीं कुछ परिवर्तन के साथ उद्धृत किये गये हैं।
इनके सिवाय अमितगत्याचार्य का भी अभिप्राय देखिए जो उन्होंने अपनी धर्मपरीक्षा में व्यक्त किया है :
"जो सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान, संयम से रहित हैं ऐसे प्राणियों को किसी उच्च जाति में जन्म लेने मात्र से धर्म नहीं प्राप्त हो जाता।"
"जातियों में जो यह ब्राह्मणादि की भेदकल्पना है वह आचार मात्र से है। वस्तुत: कोई ब्राह्मणादि जाति नियत नहीं है।"
"संयम, नियम, शील, तप, दान, दम और दया जिसमें विद्यमान हैं इसकी श्रेष्ठ जाति है।"
"नीच जातियों में उत्पन्न होने पर भी सदाचारी व्यक्ति स्वर्ग गये और शील तथा संयम को नष्ट करने वाले कुलीन मनुष्य भी नरक गये।"
"चूंकि गुणों से उत्तम जाति बनती है और गुणों के नाश से नष्ट हो जाती है अतः विद्वानों को गुणों में ही आदर करना चाहिए।" श्री कुन्दकुन्द स्वामी के दर्शनपाहुड की यह एक गाथा देखिए उसमें वे क्या लिखते हैं :
"ण वि देहो बंदिज्जहण विय कुलो ण विय जाईसंयुत्तो।
को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावयो होइ ॥२७॥" "न तो देह की वन्दना की जाती है, न कुल की और न जातिसम्पन्न मनुष्य की। गुणहीन कोई भी वन्दना करने योग्य नहीं है चाहे श्रमण हो चाहे श्रावक ।" भगवान् वृषभदेव ने ब्राह्मण वर्ण क्यों नहीं सजा?
यह एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि भगवान् वृषभदेव ने क्षत्रिय आदि वर्गों की स्थापना की, परन्तु ब्राह्मणवर्ण की स्थापना क्यों नहीं की। उसका उत्तर ऐसा मालूम होता है कि भोगभूमिज मनुष्य प्रकृति से भद्र और शान्त रहते हैं । ब्राह्मण वर्ण की जो प्रकृति है वह उस समय के मनुष्यों में स्वभाव से ही थी । अतः उस प्रकृति वाले मनुष्यों का वर्ग स्थापित करने की उन्हें आवश्यकता महसूस नहीं हुई। हाँ, कुछ लोग उन भद्र प्रकृतिक मानवों को त्रास आदि पहुँचाने लगे थे इसलिए क्षत्रिय वर्ण की स्थापना की, अर्थार्जन के बिना किसी का काम नहीं चलता इसलिए वैश्य स्थापित किये और सबके सहयोग के लिए शूद्रों का संघटन किया।
१. "न जातिमात्री धर्मो लभ्यते देहधारिभिः । सत्यशोचतपःशीलध्यानस्वाध्यायजितः॥ माचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् ।नजाति ब्राह्मणाधास्ति नियता कापि तात्विको। संयमो नियतः शीलं तपो दानं दमो दया। विद्यन्ते तात्विको यस्यां सा जातिमहती सताम् ।। शीलवन्तो गताः स्वर्गे नीचजातिभवा अपि । कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः ॥ गुणः संपद्यते जातिगुणध्वंसविपद्यते । यतस्ततो बुधःकार्यों गुणेष्ववादरः परः॥"
-धर्मपरीक्षा, परि० १७