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आचिपुरान
महाभारतादि जैनेतर ग्रन्थों में जो यह उल्लेख मिलता है कि सबसे पहले ब्रह्मा ने ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया उसका भी यही अभिप्राय मालूम होता है । मूलत: मनुष्य ब्राह्मण प्रकृति के थे, परन्तु कालक्रम से उनमें विकार उत्पन्न होने के कारण क्षत्रियादि विभाग हए । अन्य अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी के युगों में मनुष्य अपनी प्रकृति की अवहेलना नहीं करते, इसलिए यहाँ अन्य कालों में साह्मण वर्ण की स्थापना नहीं होती। विदेह क्षेत्र में भी ब्राह्मण वर्ण की स्थापना न होने का यही कारण है। यह हुण्डावसपिणी काल है जो कि अनेकों उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी युगों के बीत जाने के बाद आया है। इसमें खासकर ऐसे मनुष्यों का उत्पाद होता है जो प्रकृत्या अभद्रतर होते जाते हैं। समय बीता, भरत चक्रवर्ती हुए। उन्होंने राज्य-शासन संभाला, लोगों में उत्तरोत्तर अभद्रता बढ़ती गयी। मनुओं के समय में राजनैतिक दण्डविधान की सिर्फ तीन धाराएं थीं, 'हा,' 'मा' और 'धिक' । किसी ने अपराध किया उसके दण्ड में शासक ने 'हा' खेद है यह कह दिया, बस, इतने से ही अपराधी सचेत हो जाता था। समय बीता, लोग कुछ अभद्र हुए तब 'हा' के बाद 'मा' अर्थात् खेद है अब ऐसा न करना, यही दण्ड निश्चित किया गया। फिर समय बीता, लोग और अभद्र हुए, तब 'हा' 'मा' 'धिखेद है अब ऐसा न करना, और मना करने पर भी नहीं मानते इसलिए तुम्हें धिक्कार हो, ये तीन दण्ड प्रचलित हुए। 'धिक्' उस समय की मानो फांसी की सजा थी। कितने भद्र परिणाम वाले लोग उस समय होते थे और आज ? अतीत और वर्तमान की तुलना करने पर अवनि-अन्तरिक्ष का अन्तर मालूम होता है।
वर्ण और जाति
वर्ण के विषय में ऊपर पर्याप्त विचार किया जा चुका है। यहां जाति के विषय में भी कुछ चर्चा कर लेनी आवश्यक है। जैनागम में जाति के जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि पांच भेद वणित हैं वे सामान्य की अपेक्षा हैं। उनके सिवाय एकेन्द्रियादि प्रत्येक जाति के असंख्यात अवान्तर विशेष होते हैं। यहाँ हम उन सबका वर्णन अनावश्यक समझ कर केवल मनुष्यजातियों पर ही विचार करते हैं।
मनुष्यजातियाँ निम्न भेदों में विभाजित हैं :
१. वृत्तिरूप जाति-यह वृत्ति अर्थात् व्यवसाय या पेशे से सम्बन्ध रखती है । जैसे बढ़ई, लुहार, सुनार, कुम्हार, तेली आदि।
२. वंश-गोत्र आदिरूप जाति-यह अपने किसी प्रभावशाली विशिष्ट पुरुष से सन्तानक्रम की अपेक्षा रखती है। जैसे गर्ग, श्रोत्रिय, राठौर, चौहान, खण्डेलवाल, अग्रवाल, रघुवंश, सूर्यवंश बादि ।
३. राष्ट्रीयरूप जाति-यह राष्ट्र की अपेक्षा से उत्पन्न है। जैसे भारतीय, युरोपियन, अमेरिकन, चंदेरिया, नरसिंहपुरिया, देवगढ़िया आदि ।
४. साम्प्रदायिक जाति-यह अपने धर्म या सम्प्रदाय-विशेष से सम्बन्ध रखती है। जैसे जैन, बौद्ध, सिक्ख, हिन्दू, मुसलमान आदि ।
जैन ग्रन्थों तथा यजुर्वेद और तैत्तिरीय ब्राह्मणों में जिन जातियों का उल्लेख है वे सभी इन्हीं जातियों में अहित हो जाती हैं। इन विविध जातियों का आविर्भाव तत्तत्कारणों से हआ अवश्य है, परन्त आजके
१. "असृजद् ब्राह्मणानेव पूर्व ब्रह्मा प्रजापतीन् । आत्मतेजोऽभिनिवृत्तान भास्कराग्निसमप्रमान् ॥ ततः सत्यं च धर्म च तपो ब्रह्म व शाश्वतम् । आचारं चैव शौचं स्वय विवषे प्रभुः॥"
-महाभारत, अध्याय १५८ "प्रजापतिर्यज्ञमसृजत, यज्ञ सृष्टमनु ब्रह्मक्षत्र असृज्येताम् ....." -ऐ० ब्रा०, अ० ३४ खं० १ "ब्रह्म वा इदमन आसीत एकमेव"...."-श० ब्रा० १४.४.२