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आदिपुराण
तिर्यञ्चों और देवों के भी है, तथापि इन सबके सन्तति का क्रम नहीं चलता। यदि सन्तान का अर्थ सन्तति न लेकर परम्परा या आम्नाय लिया जाये और ऐसा अर्थ किया जाये कि परम्परा या अम्नाय से प्राप्त जीव का जो आचरण अर्थात् प्रवृत्ति है वह गोत्र कहलाता है, तो गोत्रकर्म की उक्त परिभाषा व्यापक हो सकती है, क्योंकि देवों और नारकियों के भी पुरातन देव और नारकियों की परम्परा सिद्ध है। .
गोत्र सर्वत्र है, परन्तु वर्ण का व्यवहार केवल कर्मभूमि में है। इसलिए दोनों का परस्पर सदा सम्बन्ध रहता है यह मानना उचित नहीं प्रतीत होता। निर्ग्रन्थ साधु होने पर कर्मभूमि में भी वर्ण का व्यवहार छुट जाता है, पर गोत्र का उदय विद्यमान रहा आता है। कितने ही लोग सहसा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को उच्च गोत्री और शूद्र को नीच गोत्री कह देते हैं । परन्तु इस युग में जब कि सभी वर्गों में वृत्ति-सम्मिश्रण हो रहा है तब क्या कोई विद्वान दृढ़ता के साथ यह कहने को तैयार है कि अमक वर्ग अमक वर्ण है। कहीं-कहीं ब्राह्मणों में एक-दो नहीं, पचासों पीढ़ियों से मांस-मछली खाने की प्रवृत्ति चल रही है उन्हें ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के कारण उच्च गोत्री माना जाये और बुन्देलखण्ड की जिन बढ़ई, लुहार, सुनार, नाई आदि जातियों में पचासों पीढ़ियों से मास-मदिरा का सेवन न किया गया हो उन्हें शूद्र वर्ण में उत्पन्न होने से नीचगोत्री कहा जाये, यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं दिखती। जिन लोगों में स्त्री का करा-धरा होता हो वे शूद्र हैं, नीच हैं और जिनमें यह बात नहीं वे त्रिवर्ण द्विज हैं, उच्च है यह बात भी आज जमती नहीं है क्योंकि स्पष्ट नहीं तो गुप्तरूप से यह करे-धरे की प्रवृत्ति त्रिवर्गों, द्विजों में भी हजारों वर्ष पहले से चली आ रही है।
वर्णव्यवस्था अनादि या सादि ?
वर्णव्यवस्था विदेह क्षेत्र की अपेक्षा अनादि है, परन्तु भरतक्षेत्र की अपेक्षा सादि है। जब यहां भोगभूमि की रचना थी तब वर्णव्यवस्था नहीं थी। सब एक सदृश आयु तथा बुद्धि-विभववाले होते थे। जैनेतर कर्मपुराण में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि कृतयुग में वर्णविभाग नहीं था । वहाँ के लोगों में ऊँच-नीच का व्यवहार नहीं था, सब समान थे, सबकी तुल्य आयु थी, सुख-सन्तोष आदि सब में समान था, सभी प्रजा आनन्द से रहती थी, भोगयुक्त थी। तदनन्तर क्रम से प्रजा में राग और लोभ प्रकट होने लगे, सदाचार नष्ट होने लगा तथा कोई बलवान् और कोई निर्बल होने लगे, इससे मर्यादा नष्ट होने लगी तब उसकी रक्षा के लिए भगवान् अज अर्थात् ब्रह्मा ने ब्राह्मणों के हित के लिए क्षत्रियों को सजा, वर्णाश्रम की व्यवस्था की और पशुहिंसा से विवजित यज्ञ को प्रवृत्ति की। उन्होंने यह सब काम त्रेता युग के प्रारम्भ में किया।
जैनधर्म की भी यही मान्यता है कि पहले, दूसरे और कुछ कम तीसरे काल के अन्त तक लोग एक सदश बुद्धि, बल आदि के धारक होते थे अतः उस समय वर्णाश्रम-व्यवस्था की आवश्यकता नहीं थी परन्तु तीसरे काल के अन्तिम भाग से लोगों में विषमता होने लगी, अतः भगवान् आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने क्षत्रियादि वर्गों की व्यवस्था की।
१. "कृतं त्वमिथुनोत्पत्तिर्वृत्तिः साक्षादलोलुपा । प्रजास्तुप्ताः सदा सर्वाः सर्वानन्दाश्च भोगिनः॥
अधमोतमत्वं नास्त्यासां निविशेषाः पुरंजयः । तुल्यमायुः सुखं रूपं तासु तस्मिन् कृते युगे । सतः प्रादुरभूतासां रागो लोभश्च सर्वशः । अवश्यं भावितार्थेन त्रेतायुगवशेन वै॥ सदाचारे विनष्ठे तु बलात्कालबलेन च । मर्यादायाः प्रतिष्टार्थ ज्ञात्वैतभगवानजः॥ ससर्ज क्षत्रियान ब्रह्मा ब्राह्मणानां हिताय वै। वर्णाश्रमव्यवस्थां च त्रेतायां कृतवान् प्रभुः ॥ मजप्रवर्तनं चैव पशुहिंसाविजितम् ।"
~कू० पु०, वि० ० २६