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आदिपुराण
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"तप, श्रुत और जाति ये तीन ब्राह्मणपन के कारण हैं।"१
परन्तु धीरे-धीरे गुण और कर्म दूर होकर एक योनि अर्थात् जाति ही वर्णव्यवस्था का कारण रह गया। आज का ब्राह्मण मांस मछली खाये, मदिरापान करे, द्यूतक्रीड़ा, वेश्यासेवन आदि कितने ही दुराचार क्यों न करे परन्तु वह ब्राह्मण ही बना रहता है, वह अन्यवर्णीय लोगों से अपने चरण पुजाता हुआ गर्व का अनुभव करता है । क्षत्रिय चोरी, डकैती, नरहत्या आदि कितने ही कुकर्म क्यों न करे परन्तु 'ठाकुर साहब के सिवाय यदि किसीने कुछ बोल दिया तो उसकी भौंह टेढ़ी हो जाती है । यही हाल वैश्य का है । आज का शूद्र कितने ही सदाचार से क्यों न रहे परन्तु वह जब देखो तब घृणा का पात्र ही समझा जाता है, उसके स्पर्श से लोग डरते हैं, उसकी छाया से दूर भागते हैं। आज केवल जातिवाद पर अवलम्बित वर्णव्यवस्था ने मनुष्यों के हृदय घृणा, ईर्ष्या और अहंकार आदि दुर्गुणों से भर दिये हैं। धर्म के नाम पर अहंकार, ईर्ष्या और घणा आदि दुर्गुणों की अभिवृद्धि की जाती है।
जैनधर्म और वर्ण-व्यवस्था
जैन सिद्धान्त के अनुसार विदेहक्षेत्र में शाश्वती कर्मभूमि रहती है, वहाँ क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये तीन वर्ण रहते हैं और आजीविका के लिए उक्त तीन वर्ण आवश्यक भी हैं । जैनधर्म ब्राह्मणवर्ण को आजीविका का साधन नहीं मानता । विदेहक्षेत्र में तो ब्राह्मणवर्ण है ही नहीं । भरतक्षेत्र में अवश्य ही भरत चक्रवर्ती ने उसकी स्थापना की थी परन्तु उस प्रकरण को आद्योपान्त देखने से यह निश्चय होता है कि भरत महाराज ने व्रती जीवों को ही ब्राह्मण कहा है। उन्होंने अपने महल पर आमन्त्रित मानवों में से ही दयालु मानवों को ब्राह्मण नाम दिया था तथा व्रतादिक का विशिष्ट उपदेश दिया था। और व्रती होने के चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत दिया था। कहने का सारांश यह है कि जिस प्रकार बौद्धधर्म में वर्ण-व्यवस्था का सर्वथा प्रतिषेध है, ऐसा जैनधर्म में नहीं है। परन्तु इतना निश्चित है कि जैनधर्म स्मृतियुग में प्रचारित केवल जातिवाद पर अवलम्बित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता।
आदिपुराण में जो उल्लेख है वह केवल वृत्ति-आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही किया गया है । जिनसेनाचार्य ने उसमें स्पष्ट लिखा है :
"मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेवाहिता वाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥४५॥ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्याय्याच्छूद्रान्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥४६॥"
-आ० पु०, पर्व ३८
अर्थात् जातिनामक कर्म अथवा पंचेन्द्रिय जाति का अवान्तर भेद मनुष्य जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली मनुष्य जाति एक ही है। सिर्फ आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो जाती है । व्रतसंस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और नीचवृत्ति-सेवावृत्ति से शूद्र कहलाते हैं।
यही श्लोक जिनसेनाचार्य के साक्षात् शिष्य गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में निम्न प्रकार परिवर्तित तथा परिवधित किये हैं :
"मनष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा। वृत्तिभेदाहिताभेदाच्चातुविध्यमिहाश्नते ॥ नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥"
१. "तपः श्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् ।"--आदिपुराण