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जाति नहीं देखी जाती । गुण ही कल्याण करने वाले हैं इसलिए शूद्र से उत्पन्न हुआ मनुष्य भी यदि गुणवान् है तो ब्राह्मण है।"
शुक्रनीति में भी इस आशय का एक श्लोक और आया है :
"मनुष्य, जाति से न ब्राह्मण हो सकता है न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र और न म्लेच्छ। किन्तु गुण और कर्म से ही ये भेद होते है।"
भगवद्गीता में भी यही उल्लेख है कि "मैंने गुण और कर्म के विभाग से चातुर्वर्ण्य की सृष्टि की है।"3
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिसमें वर्णव्यवस्था को अत्यन्त महत्त्व मिला उस वैदिक संस्कृति में वेद, ब्राह्मण और महाभारत-युग तक गुण और कर्म की अपेक्षा ही वर्णव्यवस्था अंगीकृत की गयी है। परन्तु ज्यों ही स्मृति-युग आया और काल के प्रभाव से लोगों के आत्मिक गुणों में न्यूनता, सद्वृत्त-सदाचार का ह्रास तथा अहंकार आदि दुर्गणों की प्रवृत्ति होती गयी त्यों-त्यों गुणकर्मानुसारिणी वर्णव्यवस्था पर परदा पड़ता गया। अब वर्णव्यवस्था का आधार गुणकर्म न रहकर जाति हो गया। अब नारा लगाया जाने लगा जन्म से ही देवताओं का देवता है।" इस गुणकर्मवाद और जातिवाद का एक सन्धिकाल भी रहा है जिसमें गुण और कर्म के साथ योनि अथवा जाति का भी प्रवेश हो गया। जैसा कि कहा गया है:
"जो मनुष्य जाति, कुल, वृत्त-स्वाध्याय और श्रुत से युक्त होता है वही द्विज कहलाता है ।"५ "विद्या, योनि और कर्म ये तीनों ब्राह्मणत्व के करने वाले हैं।"६ "जन्म, शारीरिक वैशिष्ट्य, विद्या, आचार, श्रुत और यथोक्त धर्म से ब्राह्मणत्व किया जाता है।"
१. "सत्यं शौचं बया शौचं शौचमिनियनिग्रहः । सर्वभूते दयाशौचं तपःशौचं च पंचमम् ॥ पंचलक्षणसंपन्न ईदृशो यो भवेत् द्विजः । तमहं ब्राह्मणं बयां शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर ॥ नकुलेन न जात्या वा क्रियाभिर्वाह्मणो भवेत् । चाण्डालोऽपि हि वृत्तस्थो ब्राह्मणः स युधिष्ठिर ॥ एकवर्णमिदं विश्वं पूर्वमासीद् युधिष्ठिर । कर्मक्रियाविशेषेण चातुर्वण्यं प्रतिष्ठितस् ॥ शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूवादप्यवरो भवेत् ॥ पंचेन्द्रियार्णवं घोरं यदि शूबोऽपि तीर्णवान् । तस्मै दानं प्रदातव्यमप्रमेयं युधिष्ठिर ॥ न जातियते राजन् गुणाः कल्याणकारकाः । तस्माच्छूद्रप्रसूतोऽपि ब्राह्मणो गुणवान्नरः"
-महाभारत २. "न जात्या ब्राह्मणश्चात्र क्षत्रियो वैश्य एव वा । न शूद्रो न च वै म्लेच्छो भेदिता गुणकर्मभिः॥"
-शुक्रनीति ३. "चातुर्वयं मया सृष्टं गुणकर्मबिभागशः।"-भ० गी० ४॥१३॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्रानां च परंतप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवर्गुणैः॥"-भ० गी० १८॥४१॥ ४. "बाह्मणः संभवेनैव देवानामपि दैवतम् ।"-मनु० ११३८४॥ ५. "जात्या कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन च । धर्मेण च यथोक्तेन ब्राह्मणत्वं विधीयते ॥"
-अग्नि पु० ६. "विद्या योनिःकर्म बेति त्रयं ब्राह्मण्यकारकम् ।" पिंगलसूत्रव्याख्यायां स्मृतिवाक्यम् । ७. "जन्मशारीरविद्याभिराचारेण श्रुतेन च । धर्मेण च यथोक्तेन ब्राह्मणत्वं विधीयते ॥"
-परशरमाधवीय ६,१६