________________
५५
इसी महाभारत का एक उदाहरण और देखिए :
भारद्वाज भृगु महर्षि से पूछते हैं कि हे वक्तृश्रेष्ठ, हे ब्राह्मण ऋषे, कहिए कि यह पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किस कारण से होता है ?
उत्तर में भृगु महर्षि कहते हैं :
"जो जातकर्म आदि संस्कारों से संस्कृत है, पवित्र है, वेदाध्ययन से सम्पन्न है, इज्या आदि षट्कर्मों में अवस्थित है, शौचाचार में स्थित है, यज्ञावशिष्ट वस्तु को खाने वाला है, गुरुओं को प्रिय है, निरन्तर व्रत धारण करता है, और सत्य में तत्पर रहता है वह ब्राह्मण कहलाता है । सत्य, दान, अदोह, अक्रूरता, लज्जा, दया भोर तप जिसमें दिखाई दे वह ब्राह्मण है। जो क्षत्रिय कर्म का सेवन करता है, वेदाध्ययन से संगत है, दानादान में जिसकी प्रीति है वह क्षत्रिय कहलाता है । व्यापार तथा पशुरक्षा जिसके कार्य हैं, जो खेती आदि में प्रेम रखता है, पवित्र रहता है और वेदाध्ययन से सम्पन्न है वह वैश्य कहलाता है । खाच-अखाच सभी में चिसकी प्रीति है, जो सबका काम करता है, अपवित्र रहता है, वेदाध्ययन से रहित है और आचारवर्जित है वह शूद्र माना जाता है। इन श्लोकों की संस्कृत टीका में स्पष्ट किया गया है कि त्रिवर्ण में धर्म ही वर्णविभाग का कारण है, जाति नहीं।'
इसी प्रकार वह्निपुराण का एक प्रकरण देखिए, जिसमें स्पष्ट लिखा है:
"हे राजन्, द्विजत्व का कारण न जाति है, न कुल है, न स्वाध्याय है, न शास्त्रज्ञान है, किन्तु वृत्तसदाचार ही उसका कारण है । वृत्तहीन दुरात्मा मानव का कुछ क्या कर देगा? क्या सुगन्धित फूलों में कीड़े
→युरुवाच "न विशेषोऽस्ति वर्गानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥१०॥ कामभोगप्रियास्तीवणाः क्रोधनाः प्रियसाहसाः। त्यक्तस्वधर्मा रक्ताङ्गास्ते विजाः क्षत्रतां गताः ॥११॥ गोम्यो वृत्ति समास्याय पीताः कृष्यपजीविनः । स्वधर्मान्नानुतिष्ठन्ति ते द्विजाः वैश्यतां गताः ॥१२॥ हिसान्तप्रिया लुब्धाः सर्वकर्मोपजीविनः । कृष्णाःशौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजाः शूद्रतां गताः॥१३॥ इत्येतैः कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गताः । धर्मो यज्ञक्रियास्तेषां नित्यं न प्रतिषिद्ध्यते ॥१४॥"
-म० भा०, शा०प०, अ. १८८
१. "भारद्वाज उवाच ब्राह्मणः केन भवति मत्रियो वा द्विजोत्तमः । वैश्यः शूवश्व विप्रर्षे तब्रूहि वदतां वर ॥१॥ भृगुरुवाच जातकर्मादिभिर्यस्तु संस्कार संस्कृतः शुचिः । वेदाध्ययनसंपन्नः बसु कर्मस्ववस्थितः ॥२॥ शौचाचारस्थितः सम्यगविषसाशी गुरुप्रियः। नित्यवती सत्यपरः स वै ब्राह्मण उन्धते ॥३॥ सत्यं वाममचारोह आनुशंस्यं त्रपा धूमा। तपश्च दृश्यते यत्र सबाह्मण इति स्मृतः ॥४॥ क्षत्र सेबते कर्म वेदाध्ययनसंगतः । दानावानरतिर्यस्तु सवै क्षत्रिय उच्यते ॥५॥ बणिज्या पशरक्षाकृष्यादानरतिः शुचिः। वेदाध्ययनसंपन्नः स वैश्य इति संशितः॥६॥ सर्वभक्षारतिनित्यं सर्वकर्मकरोऽशुचिः । त्यसबेवस्त्वनाबारः सबै शूद्र इति स्मृतः ॥७॥ (दिने-णिके धर्म एव वनविभागे कारणम् न जातिरित्यर्थः) सं० टी."
-म. भा०, शा०प०म० १८६