________________
मासिधाण
न आने का कारण पूछा सब उन्होंने बतलाया कि हमारे बाने से हरित घास के जीवों को बाधा पहुंचती है इसलिए हम लोग नहीं आये। महाराज भरत ने उन सबकी दयावृत्ति को मान्यता देकर उन्हें दूसरे प्रासुक मार्ग से अन्दर बुलाया और उन सबकी प्रशंसा तथा सम्मान कर उन्हें ब्राह्मण संज्ञा दी तथा उनका अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन आदि कार्य निश्चित किया। इस घटना का वर्णन जिनसेनाचार्य ने अपने इसी आदिपुराण के पर्व १६, पद्य २४३-२४६ में किया है। जन्मना कर्मणा वा
यह वर्णव्यवस्था जन्म से है या कम से, इस विषय में आजकल दो प्रकार की विचारधाराएं प्रवाहित हो रही हैं। कुछ लोगों का ऐसा ध्यान है कि वर्णव्यवस्था जन्म से ही है अर्थात् जो जिस वर्ण में उत्पन्न हो गया वह चाहे जो अनुकूल प्रतिकूल कर्म करे उस भव में उसी वर्ण में रहेगा, मरणोत्तर काल में ही उसका वर्ण-परिवर्तन हो सकेगा । और कुछ लोग ऐसा ध्यान रखते हैं कि वर्णव्यवस्था गुण और कर्म के अधीन है। षट् कर्मों को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही चतुर्वर्ण की स्थापना हुई थी, अतः जिसके जैसे अनुकूल प्रतिकूल कर्म होंगे उसका वैसा ही वर्ण होगा।
ऐतिहासिक दृष्टि से जब इन दोनों धाराओं पर विचार करते हैं तो कर्मणा वर्णव्यवस्था की बात अधिक प्राचीन सिद्ध होती है । क्योंकि ब्राह्मणों तथा महाभारत आदि में जहाँ भी इसकी चर्चा की गयी है वहाँ कर्म की अपेक्षा ही वर्णव्यवस्था मानी गयी है। उदाहरण के लिए कुछ उल्लेख देखिए :
महाभारत में भारद्वाज भृगु महर्षि से प्रश्न करते हैं कि यदि सित अर्थात् सत्त्वगुण, लोहित अर्थात् रजोगुण, पीत अर्थात् रजस्तमोव्यामिश्र और कृष्ण अर्थात् तमोगुण इन चार बों के वर्ण से वर्ण-भेद माना जाता है तो सभी वर्गों में वर्णसंकर दिखाई देता है। काम, क्रोध, भय, लोभ, शोक, चिन्ता, सुधा, श्रम मादि हम सभी के होते हैं फिर वर्णभेद क्यों होता है ? हम सभी का शरीर पसीना, मूत्र, पुरीष, कफ और रुधिर को झराता है फिर वर्णभेद कैसा? जंगम और स्थावर जीवों की असंख्यात जातियां हैं उन विविध वर्ण वाली जातियों के वर्ण का निश्चय कैसे किया बाये?
उत्तर में भृगु महर्षि कहते हैं:
वस्तुतः वर्गों में कोई विशेषता नहीं है । सबसे पहले ब्रह्मा ने इस संसार को ब्राह्मण वर्ण ही सृजा था परन्तु अपने-अपने कमों से वह विविध वर्णभेद को प्राप्त हो गया। जिन्हें कामभोग प्रिय है, स्वभाव से तीक्ष्ण, क्रोधी तथा प्रियसाहस है, स्वधर्म-सत्त्वगुण प्रधान धर्म का त्याग करने वाले हैं और रक्तांग अर्थात् रजोगुणप्रधान हैं वे क्षत्रियत्व को प्राप्त हुए। जो गो बादि से आजीविका करते हैं, पीत अर्थात् रजस्तमोष्यामिश्रगुण
धारक हैं, खेती आदि करते हैं और स्वधर्मका पालन नहीं करते हैं वे द्विज वैश्यपने को प्राप्त हो गये । इनके सिवाय जिन्हें हिंसा, मूठ आदि प्रिय है, लुब्ध हैं, समस्त कार्य कर अपनी आजीविका करते हैं, कृष्ण अर्थात तमोगुणप्रधान हैं, और शौच-पवित्रता से परिभ्रष्ट है वे शूधपने को प्राप्त हो गये। इस प्रकार इन कार्यों से पथक-पृथकुपने को प्राप्त हुए द्विज वर्णान्तर को प्राप्त हो गये। धर्म तथा यज्ञक्रिया का इन सभी के लिए निषेध नहीं है।'
१. भारद्वाज उवाच "चातुर्वर्णस्य वर्णेन यदि वर्णो विभिद्यते । सर्वेषां खलु वर्गानां दृश्यते वर्णसंकरः ॥६॥ कामः क्रोधः भयं लोभः शोकश्चिन्ता क्षुधा श्रमः। सर्वेषां नः प्रभवति कस्माद वर्णो विभिद्यते ॥७॥ स्वेदमूत्रपुरीषाणि श्लेष्मा पित्तं सशोणितम् । तनुः क्षरति सर्वेषां कस्माद् वर्णो विभिद्यते ॥६॥ जङ्गमानाममण्येयाः स्थावराणां च जातयः । तेषां विविधवर्णानां तो वर्णविनिश्चयः ॥६॥" ,