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आदिपुराण
भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना से प्रो० वेल्हणकर द्वारा सम्पादित 'जिनरत्नकोश' नामक जो पुस्तक अंगरेजी में प्रकाशित हुई है उसमें आदिपुराण की चार टीकाओं का उल्लेख है। (१) ललितकीर्ति की टीका, जिसका सम्पादन-सामग्री शीर्षक प्रकरण के अन्तर्गत 'द' प्रति के रूप में परिचय दिया गया है। इसके विषय में आगे कुछ और भी स्पष्ट लिखा जायेगा। (२) दूसरा टिप्पण प्रभाचन्द्र का है । (३) तीसरा
ह्मचारी का और (४) चौथा हरिषेण का है। इनके अतिरिक्त एक मंगला टीका का भी उल्लेख है।
ये टीका और टिप्पण कहाँ है तथा 'ट', 'क' और 'ख' प्रतियों के टिप्पण इनमें से कौन-कौन हैं इसका स्पष्ट उल्लेख तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि उक्त सब प्रतियों का निरीक्षण-परीक्षण नहीं कर लिया जाये । प्राचीन शास्त्रभाण्डारों के अध्यक्षों से उक्त प्रतियों के परिचय भेजने की मैं प्रबल प्रेरणा करता हूँ।
टिप्पण की उक्त स्वतन्त्र प्रतियों के सिवाय अन्य मूल प्रतियों के आजू-बाजू में भी कितने ही पदों के टिप्पण लिखे मिले हैं जिनका कि उल्लेख मैंने 'प', 'अ' और 'इ' प्रति के परिचय में किया है। इन टिप्पणों में कहीं समानता है और कहीं असमानता भी।
'द' नामवाली जो संस्कृत टीका की प्रति है उसके अन्त में अवश्य ही टीकाकार ने अपनी प्रशस्ति दी है जिससे विदित होता है कि उसके कर्ता श्री ललितकीर्ति भट्टारक हैं। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
"भट्टारक ललितकीति काष्ठासंघ स्थित माथुरगच्छ और पुष्करगण के विद्वान् तथा भट्टारक जगत्कोति के शिष्य थे । इन्होंने आदिपुराण और उत्तरपुराण-पूरे महापुराण पर टिप्पण लिखा है । पहला टिप्पण महापुराण के ४२ पर्वो का है जिसे उन्होंने सं. १८७४ के मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा रविवार के दिन समाप्त किया था और दूसरा टिप्पण ४३ वें पर्व तक का है जिसे उन्होंने १८८६ में समाप्त किया है। इसके सिवाय उत्तरपुराण का टिप्पण सं० १८८८ में पूर्ण किया है।" ..
आदिपुराण की प्राचीन हिन्दी टीका पं० दौलतरामजी कृत है जो मुद्रित हो चुकी है। यह टीका श्लोकों के क्रमांक देकर लिखी गयी है। इसमें मूल श्लोक न देकर उनके अंक ही दिये हैं। स्वर्गीय पं० कललप्पा भरमप्पा 'निटवे' द्वारा इसकी एक मराठी टीका भी हई थी-जो जैनेन्द्र प्रेस कोल्हापुर से प्रकाशित हुई थी। इसमें संस्कृत श्लोक देकर उनके नीचे मराठी अनुवाद छापा गया था। इनके सिवाय एक हिन्दी टीका श्री पं० लालारामजी शास्त्री द्वारा लिखी गयी है जो कि ऊपर सामूहिक मूल श्लोक देकर नीचे श्लोक क्रमांकानुसार हिन्दी अनुवादसहित मुद्रित हुई थी। यह संस्करण मूलसहित होने के कारण जनता को अधिक पसन्द आया था। अब दुष्प्राप्य है। आदिपुराण और वर्णव्यवस्था वर्णोत्पत्ति
जैनधर्म की मान्यता है कि सृष्टि अपने रूप में अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगी। इसमें अवान्तर विशेषताएँ होती रहती हैं, जो बहुत सारी प्राकृतिक होती हैं और बहुत कुछ पुरुषप्रयत्नजन्य भी। जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी के रूप में काल का परिवर्तन होता रहा है। इनके प्रत्येक के सुषमा आदि छह-छह भेद होते हैं। यह अवसर्पिणी काल है। जब इसका पहला भाग यहाँ बीत रहा था तब उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था थी, जब दूसरा काल आया तब मध्यम भोगभूमि आयी और जब तीसरा काल आया तब जघन्य भोगभूमि हुई। तीसरे काल का जब पल्य के आठवें भाग प्रमाण काल बाकी रह तब क्रम से १४ मनुओं-कुलकरों की उत्पत्ति हुई। उन्होंने उस समय अपने विशिष्ट वैदुष्य से जनता की कितनी ही बातें सिखलायीं। चौदहवें कुलकर नाभिराज थे। उनके समय तक कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे, और