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प्रस्तावनां
शूरसेन - मथुरा का समीपवर्ती प्रदेश शूरसेन देश कहलाता था । गोकुल, वृन्दावन और अग्रवण (आगरा) इसी प्रदेश में हैं ।
विदेह - द्वारवंग (दरभंगा) के समीपवर्ती प्रदेश को विदेह कहते थे। मिथिला या जनकपुरी इसी देश में है ।
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सिन्धु-- यह देश अब भी सिन्ध नाम से प्रसिद्ध है, और करांची उसकी राजधानी है ।
गान्धार (कन्दहार) — इसका आधुनिक नाम अफगानिस्तान है । यह सिन्धु नदी और काश्मीर के पश्चिम में है । यहाँ की प्राचीन राजधानियां पुरुषपुर (पेशावर) और पुष्करावर्त (हस्तनगर ) थीं ।
यवन - यह यूनान (ग्रीक) का पुराना नाम है ।'
चेदि - मालवा की आधुनिक 'चन्देरी' नगरी का समीपवर्ती प्रदेश चेदि देश कहलाता था । अब यह ग्वालियर राज्य में है ।
पल्लव -- दक्षिण में कांची के समीपवर्ती प्रदेश को पल्लव देश कहते थे । यहाँ इतिहास प्रसिद्ध पल्लवबंशी राजाओं का राज्य रहा है ।
काम्बोस — इसका आधुनिक नाम बलोचिस्तान है ।
आरट्ट —-पंजाब के एक प्रदेश का नाम आरट्ट था । तुरुष्क— इसका आधुनिक नाम तुर्किस्तान है । शक (शकस्थान) — इसका आधुनिक नाम बेक्ट्रिया है ।
सौवीर - सिन्ध देश का एक भाग सौवीर देश कहलाता था ।
केकय – पंजाब प्रान्त की वितस्ता (झेलम) और चन्द्रभागा ( चनाव) नदियों का अन्तरालवती प्रदेश पहले केकय नाम से प्रसिद्ध था । गिरिव्रज, जिसका कि आजकल जलालपुर नाम है, इसकी राजधानी थी । आदिपुराण पर टिप्पण और टीकाएं
आदिपुराण जैनागम के प्रथमानुयोग ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है । यह समुद्र के समान गम्भीर है । अतः इसके ऊपर जिनसेन के परवर्ती आचार्यों द्वारा टिप्पण और टीकाओं का लिखा जाना स्वाभाविक है । सम्पादन करते समय मुझे ब्यादिपुराण के टिप्पण की ३ तथा संस्कृत टीका की १ प्रति प्राप्त हुई । सम्पादनसामग्री में 'ट', 'क' और 'ख' नामवाली जिन प्रतियों का परिचय दिया गया है वे टिप्पणवाली प्रतियाँ हैं और 'द' सांकेतिक नामवाली प्रति संस्कृत टीका की प्रति है । 'ट' और 'क' प्रतियो की लिपि कर्णाटक लिपि है । 'ट' प्रांत में "श्रीमते सकलशानसाम्राज्यपदमीयुषे । धर्मचक्रभूते भत्र नमः संसारभीमुषे ।" इस आद्यश्लोक पर विस्तृत टिप्पणी दी हुई है जिसमें उक्त श्लोक के अनेक अर्थ किये गये हैं । 'क' प्रति में आद्यश्लोक का 'ट' प्रति- जैसा विस्तार नहीं है । 'ख' प्रति नागरी लिपि में लिखी हुई है । इस प्रति के अन्त में लिपि का जो सं० १२२४ ० कु० ७ दिया हुआ है उससे यह बहुत प्राचीन जान पड़ती है । मंगल श्लोक के विस्तृत व्याख्यान को छोड़कर बाकी टिप्पण 'ट' प्रति के टिप्पण से प्रायः मिलते-जुलते हैं । आदिपुराण के इस संस्करण में जो टिप्पण दिया गया है उसमें आद्यश्लोक का टिप्पण 'ट' प्रति से लिया गया है और बाकी टिप्पण 'क' प्रति से। 'क' 'ख' प्रति के टिप्पण 'ट' प्रति के टिप्पण से प्राचीन हैं। आद्यश्लोक के टिप्पण में (पृष्ठ ५ ) "पंचमुक्त्यै स्वयं ये, आचारानावरन्तः परमकरणमाचारयन्ते मुमुक्षून् । लोकाप्रगण्यशरण्यान् गणधरवृषभान् इत्याशाधरैनिरूपणात्"वाक्यों द्वारा पं० आशाधरजी के प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रन्थ का श्लोकांश उद्धृत किया गया है। इससे यह सिद्ध है कि उक्त टिप्पण पं० आशाधरजी के बाद की रचना है। इन तीनों प्रतियों के आदि-अन्त में कहीं भी टिप्पणकर्ता के नाम का उल्लेख नहीं मिला, अतः यह कहने में असमर्थ हूँ कि यह टिप्पण किसके हैं और कितने प्राचीन हैं ।
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