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प्रस्तावना
लोग बिना बोये अपने-आप उत्पन्न अनाज से आजीविका करते थे। उन्हीं नाभिराज के भगवान् ऋषभदेव उत्पन्न हुए। आप प्रथम तीर्थंकर थे । आपके समय में वह बिना बोये उत्पन्न होनेवाला धान्य भी नष्ट हो गया । लोग क्षुधा से आतुर होकर इतस्ततः भ्रमण करने लगे। कुछ लोग अपनी दु:खगाथा सुनाने के लिए नाभिराज के पास पहुंचे। वे सब लोगों को भगवान् ऋषभदेव के पास ले गये । भगवान् ऋषभदेव ने उस समय विदेहक्षेत्र की व्वयस्था का स्मरण कर यहाँ के लोगों को भी वही व्यवस्था बतलायी और यह कहते हुए लोगों को समझाया कि देखो अब तक तो यहाँ भोगभूमि थी, कल्पवृक्षों से आप लोगों को भोगोपभोग की सामग्री मिलती रही पर अब कर्मभूमि प्रारम्भ हो रही है-यह कर्म करने का युग है, कर्म-कार्य किये बिना इस समय कोई जीवित नहीं रह सकता । असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कर्म हैं। इन कर्मों के करने से आप लोग अपनी आजीविका चलायें । ये तरह-तरह के धान्य-अनाज अब तक बिना बोये उत्पन्न होते रहे परन्तु अब आगे से बिना बोये उत्पन्न न होंगे। आप लोगों को कृषि-खेतीकर्म से धान्य पैदा करने होंगे । इन गाय, भैस आदि पशुओं से दूध निकालकर उसका सेवन जीवनोपयोगी होगा। अब तक सबका जीवन व्यक्तिगत जीवन था पर अब सामाजिक जीवन के बिना कार्य नहीं चल सकेगा। सामाजिक संघटन से ही आप लोग कर्मभूमि में सुख और शान्ति से जीवित रह सकेंगे। आप लोगों में जो बलवान् हैं वे शस्त्र धारण कर निर्बलों की रक्षा का कार्य करें, कुछ लोग उपयोगी वस्तुओं का संग्रह कर यथा समय लोगों को प्रदान करें अर्थात् व्यापार करें, कुछ लोग लिपि-विद्या के द्वारा अपना काम चलायें, कुछ लोग लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली हल, शकट आदि वस्तुओं का निर्माण करें, और कुछ लोग नृत्य-गीतादि आह्लादकारी विद्याओं के द्वारा अपनी आजीविका करें। लोगों को भगवान् के द्वारा बतलाये हुए षट्कर्म पसन्द आये । वे उनके अनुसार अपनी-अपनी बाजीविका करने लगे। भोमभूमि के समय लोग एक सदृश योग्यता के धारक होते थे अतः किसी को किसी अन्य के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती थी परन्तु अब विसदृश शक्ति के धारक लोग उत्पन्न होने लगे। कोई निर्बल, कोई सबल, कोई अधिक परिश्रमी, कोई कम परिश्रमी, कोई अधिक बुद्धिमान् और कोई कम बुद्धिमान् । उद्दण्ड सबलों से निर्बलों की रक्षा करने की आवश्यकता महसूस होने लगी। शिल्पवृत्ति से तैयार हुए माल को लोगों तक पहुँचाने की आवश्यकता जान पड़ने लगी । खेती तथा शिल्प आदि कार्यों के लिए पारस्परिक जनसहयोग की आवश्यकता प्रतीत हुई तब भगवान ऋषभदेव ने, जो कि वास्तविक ब्रह्मा थे, अपनी भुजाओं में शस्त्र धारण कर लोगों को शिक्षा दी कि आततायियों से निर्बल मानवों की रक्षा करना .बलवान मनुष्य का कर्तव्य है। कितने ही लोगों ने यह कार्य स्वीकार किया। ऋषभदेव भगवान् ने ऐसे लोगों का नाम क्षत्रिय रखा । अपनी जंघाओं से चलकर लोगों को शिक्षा दी कि सुविधा के लिए सृष्टि को एसे मनुष्यों की आवश्यकता है जो तैयार हुई वस्तुमों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाकर
। बहुत-से लोगों ने यह कार्य करना स्वीकृत किया । भगवान् ने ऐसे लोगों को वैश्य संज्ञा दी। इसके बाद उन्होंने बतलाया कि यह कर्मयुग है और कर्म बिना सहयोग के हो नहीं सकता अतः पारस्परिक सहयोग करने वालों की आवश्यकता है। बहुत-से लोगों ने इस सेवावृत्ति को अपनाया। भादि ब्रह्मा ने उन्हे शूद्र संज्ञा दी । इस तरह कर्मभूमि रूप सृष्टि के प्रारम्भ में आदिब्रह्मा ने क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध वर्ण स्थापित किय । आगे चलकर भरत चक्रवर्ती के मन में यह बात आयी कि मैंने दिग्विजय के द्वारा बहुत-साधन इकट्ठा किया है। अन्य लोग भी अपनी शक्ति के अनुसार यथाशक्य धन एकत्रित करते हैं। आखिर उसका त्याग कहाँ किया जाये? उसका पात्र किसे बनाया जाये? इसी के साथ उन्हें ऐसे लोगों की भी आवश्यकता अनुभव में आयी कि यदि कुछ लोग बुद्धिजीवी हों तो उनके द्वारा अन्य त्रिवर्गों को सदा बौद्धिक सामग्री मिलती रहेगी। इसी विचार के अनुसार उन्होंने समस्त लोगों को अपने घर आमन्त्रित किया और मार्ग में हरी घास उगवा दी। 'हरी घास में भी जीव होते हैं, हमारे चलने पर उन जीवों को बाधा पहुँचेगी' इस बात का विचार किये बिना ही बहुत-से लोग भरत महाराज के महल में भीतर चले गये परन्तु कुछ लोग ऐसे भी रहे जो हरित घास वाले मार्ग से भीतर नहीं गये, बाहर ही खड़े रहे। भरत महाराज ने जब भीतर