Book Title: Shatprabhutadi Sangraha
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सदृशं पवित्रमित मिह विद्यते भंडार इन्दौर साह न हि ज्ञानेन माणिकचन्द दिगम्बर जैनग्रन्थमाला। षट्प्राभृतादिसंग्रहः da Education international For Leersonal use Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन-ग्रन्थमालायाः सप्तदशो ग्रन्थः। - - श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः षट्प्राभृतादिसंग्रहः । पं० पन्नालाल सोनीत्यनेन सम्पादितः संशोधितश्च प्रकाशिका श्रीमाणिकचन्द्र-दिगम्बर-जैन-ग्रन्थमाला-सामातः। माघ, वीरनिर्वाणाब्दः २४४७ । विक्रमांकः १९७७ । प्रथमावृत्तिः । मूल्यं ३) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by M. N. Kulkarni at his Karnatak Printing Press, No. 134 Thakurd war, Bombay and Published by Nathuram Promi, Secretary, Manikchand Jain Granth Mala, Hirabag, Bombay, No. 4. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण-सूची। दर्शनप्राभृतं .... चारित्रप्राभृतं .... सूत्रप्राभृतं बोधप्राभृतं भावप्राभृतं मोक्षप्राभृतं लिंगप्राभृतं शीलप्राभृतं रयणसारः .... द्वादशानुप्रेक्षा... ३०-५५ ५६-७० ७१-१२७ .... १२८-३०३ ३०४-३७९ ३८०-३८४ .... ३८५-३९२ .... ३९३-४२४ ... ४२५-४२५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका । इस संग्रहमें भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के षट्प्राभृत ( दर्शन, चारित्र, सूत्र, बोध, भाव और मोक्ष प्राभूत), लिंगप्राभूत, शीलप्राभूत, रयणसार, और बारह अणुवेक्खा ये पाँच ग्रन्थ प्रकाशित किये जाते हैं। समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार ये चार ग्रन्थ पहले कई स्थानोंसे प्रकाशित हो चुके हैं । अभी तक कुन्दकुन्द स्वामीके बनाये हुए ये नौ ही ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। इनमेंसे षट्प्राभूत सटीक प्रकाशित किया जाता है और शेष ४ संस्कृतच्छायासहित। इन पिछले ग्रन्थोंकी कोई टीका अभीतक देखने सुनने में नहीं आई। भगवत्कुन्दकुन्द । दिगम्बर जैन-सम्प्रदायमें आचार्य कुन्दकुन्द सबसे प्रसिद्ध और सबसे अधिक पूज्य आचार्य गिने जाते हैं। पिछले अधिकांश आचार्योंने आपको उन्हीं के अन्वय या आम्नायका बतलाया है। उनकी रचना जैनसाहित्य भरमें अपनी तुलना नहीं रखती। अबसे लगभग ६ वर्ष पहले हम उनके सम्बन्धमें एक विस्तृत लेख प्रकाशित कर चुके हैं। वे द्रविड़ देशके 'कोण्डकुण्ड' नामक स्थानके रहनेवाले थे और इस कारण 'कोण्डकुण्ड ' नामसे प्रसिद्ध थे। 'कोण्डकुण्ड 'का ही श्रुतिमधुर संस्कृतरूप 'कुन्दकुन्द' हो गया है। 'एलाचार्य के नामसे भी ये प्रसिद्ध थे। तामिल भाषाके सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'कुरल' के विषयमें महाराजा कालेज विजयानगरमके इतिहासाध्यापक श्रीयुत एम. ए. रामस्वामी आयंगरने लिखा है कि " जैनियोंके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलाचार्य ' नामक जैनाचार्यकी रचना है और तामिल काव्य 'नीलकेशी'के टीकाकार समय दिवाकर नामक जैनमुनि कुरलको * देखो जैनहितैषी भाग १०, अंक ६-७ । al Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" अपना पूज्य ग्रन्थ बतलाते हैं * इससे आश्चर्य नहीं कि कुरलके रचयिता भगत्कुन्दकुन्द ही हों । कहते हैं एलाचार्यने इसे रचकर अपने एक शिष्यको इस लिए दे दिया था कि वह मदुराके कविसंघ में जाकर पेश करे । नन्दिसंघकी गुर्वावली में लिखा है कि भगवत्कुन्दकुन्दको वि० संवत् ४९ में आचार्यपद मिला और १०१ में उनका स्वर्गवास हुआ। तामिलदेश के विद्वाair कुरलकाव्यका रचना - काल भी ईसाकी पहली शताब्दि निश्चित किया है । यदि सचमुच ही वह इन्हीं एलाचार्यका बनाया हुआ है, तो पहावलीके समय के साथ उसका रचनाकाल मिल जाता है । हमने अपने पूर्वोल्लिखित लेखमें भगवत्कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी तीसरी शताब्दि निश्चित किया था । उसके बाद जैन सिद्धान्त - प्रकाशिनी संस्थाद्वारा प्रकाशित समयप्राभृत' की भूमिकामें दक्षिण के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो० के० बी० पाठकका यह मत प्रकाशित हुआ है कि कुन्दकुन्दाचार्य वि० संवत् ५८५ के लगभग हुए हैं। अपने मतकी पुष्टिमें उन्होंने लिखा है कि जिस समय राष्ट्रकूट वंशीय राजा तृतीय गोविन्द राज्य करता था उस समय, शक संवत् ७२४ का लिखा हुआ एक ताम्रपत्र मिला है । उसमें निम्नलिखित पद्य दिये हुए हैं: ――――― कोण्डकोन्दान्वयोदारो गणोऽभूद्भुवनस्तुतः । तदैतद्विषयविख्यातं शाल्मलीग्राममावसन् ॥ आसीद (?) तोरणाचार्यस्तपः फलपरिग्रहः । तत्रोपशम संभूतभावनापास्तकल्मषः ॥ पण्डितः पुष्पनन्दीति बभूव भुवि विश्रुतः । अंतेवासी मुनेस्तस्य सकलश्चन्द्रमा इव ॥ प्रतिदिवसभवद्वृद्धिर्निरस्तदोषो व्यपेतहृदयमलः । परिभूतचन्द्रविम्बस्तच्छिष्योऽभूत्प्रभाचन्द्रः ॥ < उक्त तृतीय गोविन्द महाराजके ही समयका शक संवत् ७१९ का एक और ताम्रपत्र मिला है, जिसमें नीचे लिखे पद्य हैं: * देखो जैनहितैषी भाग १५ अंक १-२ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसीद (1) तोरणाचार्यः कोण्डकुंदान्वयोद्भवः । स चैतद्विषये श्रीमान् शाल्मलीग्राममाश्रितः ॥ निराकृततमोऽरातिः स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजोद्योतितक्षौणिश्चण्डार्चिरिव यो बभौ ॥ तस्याभूत्पुष्पनंदी तु शिष्यो विद्वान् गणाग्रणीः । तच्छिष्यश्च प्रभाचंद्रस्तस्येयं वसतिः कृता ॥ इन दोनों लेखोंका अभिप्राय यह है कि कोण्डकोन्दान्वयके तोरणाचार्य नामके मुनि इस देशमें शाल्मली नामक ग्राममें आकर रहे। उनके शिष्य पुष्पनंदि और पुष्पनन्दिके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए। पाठक महोदयका कथन है कि पिछला ताम्रपत्र जब शक संवत् ७१९ का है तो प्रभाचन्द्रके दादा-गुरु तोरणाचार्य शक संवत् ६०० के लगभग रहे होंगे और तोरणाचार्य कुन्दकुन्दान्वयमें हुए ह-अतएव कुन्दकुन्दका समय उनसे १५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक संवत् ४५० लगभग मान लेने में कोई हानि नहीं है। चालुक्यवंशी कीर्तिवर्म महाराजने बादामी नगरमें शक संवत् ५०० में प्राचीन कदम्बवंशका नाश किया था और इसलिए इससे लगभग ५० वर्ष पूर्व कदम्बवंशी महाराज शिवमृगेशवर्म राज्य करते थे ऐसा निश्चित होता है। पंचास्तिकायके कनड़ी-टीकाकार बालचन्द्र और संस्कृत-टीकाकार जयसेनाचार्यने लिखा है कि यह ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्दने शिवकुमार महाराजके प्रतिबोधके लिए रचा था और ये शिवकुमार शिवमृगेशवर्म ही जान पड़ते हैं। अतएव भगवकुन्दकुन्दका समय शक संवत् ४५० (वि० ५८५) ही सिद्ध होता है। परन्तु हमारी समझमें भगवत्कुन्दकुन्द इतने पीछेके आचार्य नहीं हैं। जब तक शिवकुमार और शिवमृगेशवर्मा के एक होनेके एक दो पुष्ट प्रमाण न दिये जावें तब तक इस समयको ठीक मान लेनेकी इच्छा नहीं होती। तोरणाचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें थे, अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि वे उनके १५० वर्ष बाद ही हुए होंगे। तीनसौ चारसौ वर्ष या इससे भी अधिक पहले हो सकते हैं। __इस भूमिकाका कंपोज हो चुकने पर हमें मालम हुआ कि पंचास्तिकायके अंग्रेजी टीकाकार प्रो० ए. चक्रवर्ती नायनार एम० ए०, एल० टी०, ने भगवत्कुन्दकुन्दके समयके सम्बन्धमें एक विस्तृत लेख लिखा है। उसमें उन्होंने Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० पाठकके मतका विरोध करते हुए यह सिद्ध किया है कि शिवकुमार महाराज कदम्बवंशी शिवमृगेशवर्मा नहीं, किन्तु पल्लववंशी शिवस्कन्दवी होने चाहिए। स्कन्द, कुमार और कार्तिकेय षडाननके नामान्तर हैं । अतएव शिवस्कन्द और शिवकुमार दोनों निस्सन्देह एक हो सकते हैं। पल्लववंशी राजा ओंकी राजधानी काञ्चीपुर या वर्तमान् कांजीवरम् थी। विद्या और कलाओंके लिए यह स्थान बहुत ही प्रसिद्ध था। दूरदूरके विद्वान् और कवि यहाँके दरबार में आते थे। धार्मिक वादविवाद भी वहाँ होते थे। पल्लव राजा जैनी या जैनधर्मके आश्रयदाता थे. इसके भी प्रमाण मिलते हैं। उनकी दरबारी भाषा भी शायद प्राकृत थी। 'मायिडावोली' नामका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ उसी समयका बना हुआ है और प्राकृतमें है। आचार्य कुन्दकुन्द द्रविडदेशके थे। इसके अनेक प्रमाण हैं, अतएव उनका शिष्य शिवकुमार यही शिवस्कन्दवमा होगा और उसका अवस्थितिकाल विक्रमकी प्रथम शताब्दि है।। श्रीश्रुतसागरसूरि । षट्प्राभृत या षट्पाहुड़के टीकाकार आचार्य श्रुतसागर बहुश्रुत विद्वान् थे। इस टीकासे और यशस्तिलक-चन्द्रिकाटीकासे मालूम होता है कि वे कलिकालसर्वज्ञ, कलिकाल गौतमस्वामी, उभयभाषाकविचक्रवर्ती आदि महती पदवियोंसे अलंकृत थे ! उन्होंने 'नवनवति' (९९) महावादियोंको पराजित किया था ! वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आचार्य और विद्यानन्दि भट्टारकके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी-पद्मनन्दि--देवेन्द्रकीर्ति-विद्यानन्दि । परन्तु विद्यानन्दि भट्टारकके पट्टपर जान पड़ता है उनकी स्थापना नहीं हुई थी। क्यों कि विद्यानन्दिके बादकी गुरुपरम्परा इस प्रकार मिलती है--विद्यानन्दि-मल्लिभूषण-लक्ष्मीचन्द्र । स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीके ग्रन्थभण्डार में पं. आशाधरके महाभिषेक नामक ग्रन्थकी टीका है। उसके अन्त में इस प्रकार लिखा है: " श्रीविद्यानंदिगुरोर्बुद्धिगुरोः पादपंकजभ्रमरः । श्रीश्रुतसागर इति देशव्रती तिलकष्टीकते स्मेदं ॥ इति ब्रह्मश्रीश्रुतसागरकृता महाभिषेकटीका समाप्ता ॥ श्रीरस्तु लेखकपाठकयोः ॥ शुभं भवतु ॥ श्री ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् १५८२ वर्षे चैत्रमासे शुक्लपक्षे पंचम्यां तिथौ रवी श्रीआदिजिनचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीदेवेन्द्रकीर्ति देवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीविद्यानंदिदेवास्तपट्टे भट्टार कश्रीमलिभूषणदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रदेवास्तेषां शिष्यवरब्रह्मश्रीज्ञानसागरपठनाथ ॥ आर्या श्रीविमलश्री चेली भट्टारक श्रीलक्ष्मीचन्द्रदीक्षिता विनयत्रिया स्वयं लिखित्वा प्रदत्तं महाभिषेकभाष्यं ॥ शुभं भवतु ॥ कल्याणं भूयात् ॥ श्रीरस्तु ॥" इससे मालूम होता है कि विद्यानंदिके पट्टपर मल्लिषेणकी और उनके पट्टपर लक्ष्मीचन्द्रकी स्थापना हुई थी। यशस्तिलकटीकामें श्रुतसागरने मल्लिभूषणको अपना गुरुभ्राता लिखा है । इससे भी मालूम होता है कि विद्यानंदिके उत्तराधिकारी मल्लिभूषण ही हुए होंगे। यशस्तिलकचन्द्रिका टीकाके तीसरे आश्वासके अन्तमें लिखा है " इतिश्रीपद्मनंदिदेवेंद्रकीर्तिविद्यानंदिमल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारकश्रीमल्लिभूषणगुरुपरमाभीष्टगुरुभ्रात्रा गुर्जरदेशसिंहासनभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रकाभिमतेन मालवदेशभधारकश्रीसिंहनंदिप्रार्थनया यतिश्रीसिद्धान्तसागरव्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहामहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्कव्याकरणछंदोऽलंकारसिद्धांतसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना प्राकृतव्याकरणाद्यनेकशास्त्रचञ्चुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचितायां यशस्तिलचंद्रिकाभिधानायां यशोधरमहाराजचरितचम्पुमहाकाव्यटीकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मी विनोदवर्णनं नाम तृतीयाश्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता।" इससे मालूम होता है कि उस समय गुर्जर देशके पट्टपर भट्टारक लक्ष्मीचंद्र स्थित थे और मल्लिभूषणका शायद स्वर्गवास हो चुका था। लक्ष्मीचंद्रके बाद भी श्रीश्रुतसागरके पट्टाधिकारी होनेका कोई उल्लेख नहीं मिलता । जान पड़ता है वे कभी सिंहासनासीन हुए ही नहीं। ये पद्मनंदि, विद्यानंदि आदि सब गुजरातके ही भट्टारक हुए हैं । परन्तु यह मालूम न हो सका कि गुजरातकी किस स्थानकी गद्दीको इन्होंने सुशोभित किया था । ईडर, सूरत, सोजित्रा आदि कई स्थानोंमें भट्टारकोंके पट्ट रहे हैं । यशस्तिलककी रचनाके समय मालवेके पट्टपर सिंहनंदि भट्टारक थे। इन्हींकी प्रेरणासे श्रुतसागरसूरिने नित्यमहोद्योत या महाभिषेककी भी टीका लिखी थी। ___ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतसागरसूरिके भी अनेक शिष्य रहे होंगे । इसी ग्रन्थमालाके तत्त्वानुशासनादिसंग्रहमें इनके एक श्रीचन्द्र नामक शिष्यकी रची हुई वैराग्यमणिमाला प्रकाशित हुई है। आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण, आदि अनेक ग्रन्थोंके कती ब्रह्मचारी नेमिदत्तने भी-जो मल्लिभूषणके शिष्य थे-श्रुतसागरको गुरुभावनासे स्मरण किया है * । नेमिदत्तने भी मल्लिभूषणकी वही गुरुपरम्परा दी है, जो श्रुतसागरके ग्रन्थोंमें मिलती है। उन्होंने सिंहनन्दिका भी उल्लेख किया है । श्रुतसागरका अभी तक टीकाग्रंथों के अतिरिक्त कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। उनके बनाये हुए ग्रन्थोंका परिचय आगे दिया जाता है: १ यशस्तिलकचन्द्रिका। यह निर्णयसागर प्रेसकी 'काव्यमाला 'में प्रकाशित हो चुकी है। यह टीका अपूर्ण है-५ वें आश्वासके कुछ अंशकी और छठे आश्वासकी टीका नहीं है । जान पड़ता है, यही उनकी अन्तिम रचना है । यह टीका अनेक स्थानों के ग्रन्थभण्डारोंमें मिलती है, परन्तु सर्वत्र ही अपूर्ण है। २ महाभिषेकटीका। सुप्रसिद्ध पंडित आशाधरजीके बनाये हुए नित्यमहोद्योत या महाभिषक नामक ग्रन्थकी यह टीका है। इसका अन्तिम अंश ऊपर उद्धृत किया जा चुका है। उससे मालूम होता है कि उस समय श्रुतसागर देशव्रती या ब्रह्मचारी थे, सूरि या आचार्य नहीं हुए थे। ३ तत्वार्थटीका। यह श्रुतसागरी टीकाके नामसे प्रसिद्ध है । इस लेखके लिखते समय हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी । परन्तु यह दुष्प्राप्य नहीं हैइसका भाषानुवाद भी हो चुका है।। ४ तत्त्वत्रयप्रकाशिका । आचार्य शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवके अन्तर्गत जो गद्यभाग है, यह उसीकी टीका है । इसकी एक प्रति स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रंथसंग्रहमें मौजूद है। उसकी प्रशस्ति देखिए: * जीयान्मे सूरिवर्यो व्रतनिचयलसत्पुण्ययुक्तः श्रुताब्धिः ॥ ४ तेषां पादपयोज युग्मकृपया.......... इत्यादि ।। -आराधनाकथाकोशप्रशस्तिः । * ग्रन्थ नं.३। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आचार्यैरिह शुद्धतत्वमतिभिः श्रीसिंहनंद्याह्वयैः, संप्राय॑ श्रुतसागरं [रां] कृ [कि ] तवरं भाष्यं शुभंकारितं । गद्यानां गुणवत्प्रियं विनयतो ज्ञानार्णवस्यांतरे, विद्यानंदिगुरुप्रसादजनितं देयादमेयं सुखम् ॥ इतिश्रीज्ञानार्णवस्य ( ? ) स्थितगद्यटीका तत्त्वत्रयप्रकाशिना [ का ] समाप्तः [प्ता] ॥ शुभमस्तु ॥" ५जिनसहस्रनाम टीका। यह पं० आशाधरकृत जिनसहस्रनामकी विस्तृत टीका है । इसकी भी एक प्रति सेठजीके ग्रंथसंग्रह में मौजूद है । शब्दबोध और व्युत्पत्तिबोधके अभिलाषियों के लिए बड़े कामकी चीज है । इसकी भी प्रशस्ति देखिए:" श्रीपद्मनदिपरमात्मपरः पवित्रो, देवेंद्रकीर्तिरथ साधुजनाभिवंद्यः । विद्यादिनंदिवरसूरिरनल्पबोधः, श्रीमल्लिभूषण इतोस्तु च मंगलं मे ॥२॥ अदः पट्टे भट्टादिकमतघटाघट्टनपटुः, घटद्धर्मध्यानः स्फुटपरमभट्टारकपदः । प्रभापुंजः संयद्विजितवरवीरस्मरनरः, सुधीलक्ष्मीचन्द्रश्चरणचतुरोऽसौ विजयते ॥ ३ ॥ आतं वनं सुविदुषां हृदयांबुजानां, आनन्दनं मुनिजनस्य विमुक्तिहेतोः सट्टीकनं विविधशास्त्रविचारचारचेतश्चमत्कृतिकृतं श्रुतसागरेण । ४ ॥ श्रुतसागरकृतिवरवचनामृतपानमंत्रयर्विहितं । जन्मजरामरणहरं निरंतरं तैः शिवं लब्धं ॥ ५ ॥ अस्ति स्वस्ति समस्तसंघतिलकं श्रीमूलसंघोऽनघं, वृत्तं यत्र मुमुक्षुवर्गशिवदं संसेवितं साधुभिः। विद्यानंदिगुरुस्त्विहास्तिगुणवद्गच्छे गिरः सांप्रतं, तच्छिष्यः श्रुतसागरेण रचिता टीका चिरं नंदतु ॥ ६ ॥ इति सूरिश्रीश्रुतसागरविरचितायां जिननामसहस्रटीकायामंतकृच्छत विवरणो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ श्रीविद्यानंदिगुरुभ्यो नमः।" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६प्राकृतव्याकरण। यह ग्रन्थ हमें अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। यशस्तिलकटीकामें एक जगह उन्होंने अपने लिए यह विशेषण भी दिया है-“प्राकृतव्याकरणाद्यनेकशास्त्ररचनाचबुना।" इससे और षट्पाहुइटीकामें जो जगह जगह प्राकृत व्याकरणके सूत्र दिये हैं उनसे भी मालूम होता है कि इनक बनाया हुआ कोई प्राकृत व्याकरण अवश्य है। इस ग्रन्थका पता लगाने की बहुत आवश्यकता है। । इनके सिवाय तर्कदीपक, विक्रमप्रबन्ध, श्रुतस्कन्धावतार, आशाधरकृत पूजाप्रबन्धकी टीका, बृहत्कथाकोश आदि और भी कई ग्रन्थ इनके बनाये हुए कहे जाते हैं। । इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपने समयका उल्लेख नहीं किया है; परन्तु यह प्रायः निश्चित है कि ये विक्रमकी १६ वीं शताब्दिमें हुए हैं । क्यों कि १-ऊपर जिस महाभिषेकटीकाकी प्रतिका उल्लेख किया गया है वह वि० सं० १५८२ की लिखी हुई है और वह भट्टारक मल्लिभूषणके उत्तराधिकारी लक्ष्मीचंद्रके शिष्य ब्रह्मचारी ज्ञानसागरके पढ़ने के लिए दान की गई है और इन लक्ष्मीचन्द्रका उल्लेख श्रुतसागरने स्वयं अपनी टीकाओंमें कई जगह किया है । २-आराधनाकथाकोशके कर्ता ब्र० नेमिदत्त वि० १५७५ के लगभग हुए हैं और वे श्रुतसागरके गुरुभ्राता मल्लिषेणके शिष्य थे। ३-स्वर्गीय बाबादुलीचन्दजीकी सं० १९५४ की बनाई हुई हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची में श्रुतसागरका समय वि० संवत् १५५० लिखा हुआ है। ४--षदप्राभृतटीकामें जगह जगह लोंकागच्छपर तीव्र आक्रमण किये गये हैं और श्वेताम्बरसम्प्रदायमेंसे यह मूर्तिपूजाका विरोधी पन्थ वि० संवत् १५०८ के लगभग स्थापित हुआ है । अतएव श्रुतसागरका समय इसकी स्थापनासे अधिक नहीं तो ४०-५० वर्ष पीछे अवश्य मानना चाहिए। ग्रन्थ-सम्पादन । इस संग्रहका सम्पादन और संशोधन पण्डित पन्नालालजी सोनीने नीचे लिखी प्रतियोंसे किया है । जिन जिन सज्जनोंने इस कार्य के लिए ग्रन्थ भेजनेक कृपा की है, उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट किये बिना हमसे नहीं रहा जाता Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ क - षट्पाहुड़की यह सटीक प्रति जो प्रायः शुद्ध है जयपुर के लश्करीमन्दिके भण्डारसे पं० इन्द्रलालजी शास्त्रीके द्वारा प्राप्त हुई थी । यह प्रायः शुद्ध है । ख - यह सटीक प्रति पूनेके ' डा० भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिर ' से आप्त हुई थी । यह प्रायः अशुद्ध है । ग- यह षट्पाहुड़का मूल पाठ मात्र है और बम्बई के तेरहपंथी मन्दिरके एक चीन गुटके में लिखा हुआ है । घ- यह प्रति सेठ विनोदीराम बालचन्दजीके फर्मके मालिक सेठ लालचदजी सेठीकी कृपा से प्राप्त हुई थी । इसमें मूलके सिवाय बहुत ही संक्षिप्त संस्कृतटीका किसी अज्ञातनामा विद्वानकी की हुई है । यह वि० सं० १६१० की लिखी हुई है | लिंगप्राभृत और शीलप्राभृतका संशोधन श्रीमान् पं० धन्नालालजी कालीवालकी एक ही प्रतिपरसे किया गया है । प्रयत्न करनेपर भी इन प्राभृकी दूसरी प्रतियाँ नहीं मिल सकीं । रयणसारका संशोधन जैनेन्द्र प्रेसके अध्यक्ष पं० कलापा भरमापा निटवे द्वारा प्रकाशित मराठी अनुवादयुक्त प्रतिसे और बम्बईके तेरहपंथी मन्दिरकी एक हस्तलिखित प्रतिसे किया गया है । इसकी छाया नई तैयार की गई है । बारह अणुबेक्खा जैनग्रन्थरत्नाकर - कार्यालयकी भाषाटीकासहित मुद्रि प्रतिपरसे छपाई गई है । सम्पादक महाशयने ग्रंथसंशोधन करने में शक्तिभर परिश्रम किया है । इ र भी यदि अशुद्धियाँ रह गई हों तो उनके लिए क्षमाप्रार्थना है । बम्बई | माघ सुदी ९ सं० १९७७ वि० । } निवेदक--- नाथूराम प्रेमी, मंत्री | Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AND DoGION नमः सिद्धेभ्यः। श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितं षट्प्राभृतम् । श्रीमच्छ्रुतसागरसूरिविरचितया टीकया सहितम् । दृग्वृत्तसूत्रबोधाख्यं भावमोक्षसमात्यं । षट्प्राभृतमिति प्राहुः कुन्दकुन्दगुरूदितें ॥१॥ अथ श्रीविद्यानन्दिभट्टारकपदाभरणभूतश्रीमलिभूषणभट्टारकाणामादेशादध्येषणावशाबहुशःप्रार्थनावशात्कलिकालसर्वज्ञविरुदावलीविराजमानाः श्रीमद्धर्मोपदेशकुशला निजात्मस्वरूपप्राप्तिं पंचपरमेष्ठिचरणान् प्रार्थयन्तः सर्वजगदुपकारिण उत्तमक्षमाप्रधानतपोरत्नसंभूषितहृदयस्थला भव्यजनजनकतुल्याः श्रीश्रुतसागरसूरयः श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितषट्प्राभूतग्रन्थं टीकयन्तः स्वरुचिविरचितसदृष्टयः सम्यग्दर्शनप्राभूतस्यादौ परापरगुरुप्रवाहमङ्गलप्रसिद्धिप्रार्थनपरा नान्दीसूत्रस्य विवरणमाहुः-- काऊण मुकारं जिणवरवसहस्स वडमाणस्स । दसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ॥१॥ कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्धमानस्य । दर्शनमार्ग वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन । १ णमोकारं. ग. । णमोयारं. घ. । २ उसहस्स. ग. । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्याभूते ___ अष्टपदा नान्दी। वोच्छामि वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः कर्ता, अहं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः । कं, कर्मतापन्नं दंसणमग्गं सम्यग्दर्शनस्वरूपं । कथं वक्ष्यामि, जहाकम्मं यथाक्रममनुक्रमेण । केन कृत्वा, समासेण संक्षेपेण । किं कृत्वा, पूर्व वड्ढमाणस्स णमुक्कारं काऊण वर्द्धमानस्य प्रियकारिणीवल्लभश्रीसिद्धार्थमहाराजनन्दनस्यातिमतीर्थकरपरमदेवस्य भरतक्षेत्रस्थविदेहदेशसम्बन्धिश्रीकुण्डपुरपत्तनोत्पन्नस्य सुवर्णवर्णशरीरस्य किंचिदधिकद्वासप्ततिवर्षपरमायुषः सप्तहस्तोन्नतशरीरस्य निर्भयत्वरंजितसंगमनामधेयदेवकृतस्तवनस्य वीरवर्द्धमानमहावीरमहतिमहावीरसन्मतिनामपंचकप्रसिद्धस्य । नमुक्कारं नमोऽस्त्विति वचनेन मनसा कायेन वचसा साष्टाङ्गं प्रणामं । काऊण कृत्वा । कथंभूतस्य वर्धमानस्य, जिणवरवसहस्स जिनवराणां श्रीगौतमादिगणवरदेवादीनां मध्ये वृषभस्य श्रेष्ठस्य । इत्यनेन विशेषणेन प्रथमतीर्थकरश्रीमदादिनाथाढीनामपि सर्वतीर्थकरसमुदायस्यापि नमस्कारः कृतो भवतीति वेदितव्यं । दसणमूलो धम्मो उवइहो जिणवरेहिं सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणोणे वंदिव्वो ॥२॥ दर्शनमूलो धर्मः उपदिष्टो जिनवरैः शिष्याणाम् । तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः ।। दंसणमूलो धम्मो दर्शनं सम्यक्त्वं मूलमधिष्टानमाधारं प्रासादस्य गर्तापूरवत् वृक्षस्य पातालगतजटावत् प्रतिष्ठा यस्य धर्मस्य स दर्शनमूल एवं गुणविशिष्टी धर्मो दयालक्षणः । जिणवरहिं तीर्थकर परमदेवेरपरकेवलिभिश्च । उवइहो उपदिष्टः प्रतिपादितः । कपामुपादेष्टः, सिस्साणं शिष्याणां गणधर चक्रधरवज्रधरादीनां भव्यवरपुण्डरीकाणा । तं सोऊण सकण्णे तं धर्म श्रुत्वाऽऽकर्ण्य ग्वकर्णे नजश्रवण आमशब्दग्रहे । १ सोदूण. ग. ! २ न. क.।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । दसणहीणो न वंदिव्वो दर्शनहीनः सम्यक्त्वरहितो न वन्दितव्यो नैव वन्दनीयो न माननीयः । तस्यान्नदानादिकमपि न देयं । उक्तं च . मिथ्याग्भ्यो ददद्दानं दाता मिथ्यात्ववर्धकः । ___ अथ कोऽसौ दर्शनहीन इति चेत् तीर्थकरपरमदेवप्रतिमां न मानयन्ति न पुष्पादिना पूजयन्ति । किमिति न पूजयन्ति ? मिथ्यादृष्टयः किलैवं वदन्ति तीर्थकरपरमदेवः किं देवान् पूजयति ? तथा वयमपि न पूजयामः । पंचमकाले किल मुनयो न वर्तन्ते तदयुक्तं । उक्तं चभर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पृहाः । स्पृष्टाः कैरपि नो नभोविभुतया विश्वस्य विश्रान्तये सन्त्य द्यापि चिरंतनान्तिकचराः सन्तः कियन्तोऽप्यमी ॥१॥ मिथ्यादृष्टयः किल वदन्ति व्रतैः किं प्रयोजनं, आत्मैव पोषणीयः, तस्य दुःखं न दातव्यं, मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं, मयूरपिच्छेन आभेटनं छोतिर्भवति तदसत्यं । उक्तं च भगवत्याराधनाग्रन्थे रजसेदाणमगहणं मद्दवसुकुमालदालहुत्तं च।। जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥१॥ शासनदेवता न पूजनीयाः, आत्मैव देवो वर्तते, अपरः कोऽपि देवो नास्ति, वीरादनन्तरं किल केवलिनोऽष्ट जाता न तु त्रयः, महापुराणादिकं किल विकथा इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्वते ते मिथ्या. दृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। यदि जिनसूत्रमुलंघते तदाऽऽ स्तिकैयुक्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भिःगूथलिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः, तत्र पापं नास्ति । १ उक्तं चोत्तरपुराणस्य वर्धमानपुराणे-( अग्रे) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेदंसणभट्ठा भहा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभहा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥ ३ ॥ दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् । सिद्धयन्ति चरित्रभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिद्धयन्ति ॥ दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टाः सम्यग्दर्शनात्पतिताः पतिता उच्यन्ते । दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणं-सम्यग्दर्शनात्पतितस्य सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो न भवति किन्तुं सम्यग्दर्शनात्पतिताः नरकादिगतिषु परितो दीर्घकालं पर्यटन्ति । सिज्झंति चरियभहा सिद्धयन्ति आत्मोपलब्धिमनुभवन्ति प्राप्नुवन्ति, के, ते चरियभट्ठा-चारित्रात्पतिता यतिश्रावकलक्षणब्रह्मचर्यप्रत्याख्यानाभ्यां स्खलिताः, सामग्री प्राप्य श्रेणिकमहाराजादिवत् स्तोकेन कालेन मोक्षं प्राप्नुवन्ति । दंसणभहा न सिझंति सम्यग्दर्शनात्पतिता न सिद्धयन्ति मोक्षं न प्राप्नुवन्ति भव्यसेनादिवत् वशिष्ठा दिवच्च संसारे निमजन्ति इति ज्ञात्वा श्रुतकीर्तिश्रेयांसादिप्रमाणपुरुषैरुपप्रवर्तित दानपूजादिसत्कर्म न निषेधनीयं, आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थः। सम्मत्तरयणभट्टा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥ ४॥ सोऽपि पापः स्वयं क्रोधादरुणीभूतवीक्षणः । उद्यमी पिंडमाहर्तुं प्रस्फुरद्दशनच्छदः ॥ १॥ सोढुं तदक्षमः कश्चिदसुरः शुद्धदृक् तथा। हनिष्यति तमन्यायं शक्तः सन् सहते न हि ॥ २ ॥ सोऽपि रत्नप्रभां गत्वा सागरोपमजीवितः । चिरं चतुर्मुखो दुःखं लोभादनुभविष्यति ॥ ३ ॥ धर्मनिर्मूलविध्वंसं सहन्ते न प्रभावकाः । नास्ति सावद्यलेशेन विना धर्मप्रभावना ॥ ४ ॥ धर्मध्वंसे सतां ध्वंसस्तस्माद्धर्मद्रुहोऽधमान् । निवारयन्ति ये सन्तो रक्षितं तैः सतां जगत् ॥५॥ न. क. । २. ध. ग। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM दर्शनप्राभूतं । सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधनाविरहिता भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥ सम्मत्तरयणभट्टा सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः सम्यक्त्वमेव रत्नं सर्वेभ्यो भावेभ्य उत्तमं वस्तु त्रैलोक्यपस्त्यसमुद्योतकत्वात् तस्माद्भष्टाः परिच्युता दानपूजादिकनिषेधकाः । जाणंता बहुविहाई सत्थाई जानन्तोऽपि बहुविधानि शास्त्राणि तर्कव्याकरणछन्दोलङ्कारसाहित्यसिद्धान्तादीन् ग्रन्थान् जानाना अपि । आराहणाविरहिया जिनवचनमाननलक्षणामाराधनामकुर्वाणा लौंकाः पातकिनः । भमंति तत्थेव तत्थेव तत्रैव तत्रैव नरकादिष्वेव दुर्गतिषु भ्राम्यन्ति न कदाचिदपि मोक्षं लभन्ते इत्यर्थः। सम्मत्तविरहिया णं सुट्ट वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥५॥ सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्ठु अपि उग्रं तपः चरन्तः णं । न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिमिः ॥ सम्मत्तविरहिया णं सम्यक्त्वविरहिताः सम्यक्त्वात् ये विरहिताः पतिताः। णं वाक्यालङ्कारे । सुद वि उग्गं तवं कुणंता णं सुष्ठु अपि अतीवापि उग्रं तपः कुर्वन्तोऽपि मासोपवासादिकं तपोविशेषमाचरन्तोऽपि । णमिति वाक्यालंकारे । न लहंति बोहिलाहं ते पुरुषा बोधिलाभं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणोपलक्षिता या बोधिस्तस्या लाभ न लभन्ते । कियत्कालपर्यन्तं बोधिलाभं न लभन्त इत्याह-अवि वाससहस्सकोडीहिं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः वर्षसहस्रकोटिभिरपि अनन्तकालमपि गमयित्वा ते मुक्तिं न गच्छन्तीत्यर्थः । इति ज्ञात्वा दानपूजादिकं व्यवहारधर्म निश्चयधर्मे प्रधानभूतं न वर्जनीयामिति भावार्थः । १ न. क. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटमाभतेसम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवडमाण जे सव्वे । कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेणं ॥ ६ ॥ सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमाना ये सर्वे । कलिकलुषपापरहिता वरज्ञानिनो भवन्ति अचिरेण ॥ सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड़माण सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमानाः । जे सव्वे ये सर्वे भव्यजीवाः । सम्यक्त्वेन जिनवचनरुचिरूपेण, ज्ञानेन पठनपाठनादिना, दर्शनेन सत्तावलोकनमात्रेण, बलेन निजवीर्यानिगृहनरूपेण, वीर्येणात्मशक्त्या ये पुरुषा वर्धमाना वर्तमाना वा वट्टमाणपाठेन ते पुरुषाः। वरणाणी होंति केवलज्ञानिनो भवन्ति वरशब्देन तीर्थकरत्वं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कदा, अइरेण अचिरेण स्तोककालेन तृतीये भवे मोक्षं यान्तीत्यर्थः । ते पुरुषाः कथंभूताः, कलिकलुसपावरहिया कलिसु कर्मसु यानि कलुषाणि दुष्टानि पापानि मोहनीयज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयान्तरायलक्षणानि दुरितानि तै रहिता क्षयं नीतघातिकर्माण इत्यर्थः। अथवा कलौ पंचमकाले कलुषाः कश्मलिनः शौचधर्मरहिताः वर्णान् लोपयित्वा यत्र तत्र भिक्षाग्राहिणः मांसभक्षिगृहेष्वपि प्रासुकमन्नादिकं गृह्णन्तः कलिकलुषास्ते च ते पापाः पापमूर्तयः श्वेताम्बराभासाः लोकायकापरनामानो लौंका म्लेच्छश्मशानास्पदेष्वपि भोजनादिकं कुर्वाणास्तद्धर्मरहिताः कलिकलुषपापरहिताः । श्रीमूलसंघे परमदिगम्बरा मोक्षं प्राप्नुवन्ति लौंकास्तु नरकादौ पतन्ति देवगुरुशास्त्रपूजादिविलोपकत्वादित्यर्थः । सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पट्टए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स ॥ ७॥ १ अचिरेण. ग. । २ हिययम्मि ग. घ. । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभतं । सम्यक्त्वसलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ॥ सम्मत्तसलिलपवहो सम्यक्त्वसलिलप्रवाहः सम्यक्त्वमेव सलिलं निर्मलशीतलसुगन्धसुस्वादुपानीयं संसारसन्तापनिवारकत्वात् पापमलकलंकप्रक्षालकत्वाच्च सम्यक्त्वसलिलं तस्य प्रवहः प्रवाहः पूरः। णिच्चं हियए पवट्टए जस्स नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य जलपूरवद्वहतीत्यर्थः । कम्मं वालुयवरणं हिंसादिपंचपातकपापं वालुकापाली । बंधुचिय बद्धमपि । नासए तस्स नश्यति तस्य । सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बन्धं न याति कौरघटस्थितं रज इव न बन्धं याति । परदेवनमस्कारोऽपि पापमायाति । उक्तं च---- एकवारं नमस्कारे परदेवे कृते सति । परदारेषु लक्षेषु तस्मात्पापं चतुर्गुणं ॥१॥ जे देसणेसु भहा णाणे भहा चरित्तमहा य । एदे भहविभहा सेसं पि जगं विणासंति ॥८॥ ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञाने भ्रष्टाः चरित्रभ्रष्टाश्च । एते भ्रष्टविभ्रष्टाः शेषमपि जनं विनाशयन्ति ॥ जे दंसणेसु भहा ये पुरुषा दर्शनेषु सम्यक्त्वेषु द्विविधत्रिविधदशविधेषु भ्रष्टाः पतिताः अथवा दर्शने सुष्ठु भ्रष्टाः । तथा णाणे भट्ठा अष्टविधाचारज्ञानादपि भ्रष्टाः । चरित्तमहा य त्रयोदशप्रकाराचारित्राभ्रष्टाः । एदे भविभहा एते भ्रष्टा विशेषेण भ्रष्टास्त्रिभ्रष्टत्वात् । सेसं पि जणं विणासंति शेषमपि जनमभ्रष्टमपि लोकं विणासन्तिविनाशयन्ति भ्रष्टं विकुर्वन्ति । जो को विधम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी। तस्स य दोस कहन्ता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥९॥ १ जे के वि. घ. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेयः कोपि धर्मशीलः संयमतपोनियमयोगगुणधारी । तस्य च दोषान् कथयन्तः भमा भनत्वं ददति ॥ जो को वि धम्मसीलो यः कोऽपि धर्मशीलो धर्मे आत्मस्वरूपे उत्तमक्षमादिदशलक्षणे च धर्मे, पंचप्रकारे त्रयोदशप्रकारे चारित्रे च प्राणिनां रक्षणलक्षणे वा धर्मे शीलमभ्यासः समाधिरभ्यासो यस्य स धर्मशीलः । उक्तं च धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। चारित्तं खलु धम्मो जीवाणं रक्खणो धम्मो ॥ १॥ संजमतवणियमजोयगुणधारी तथा यः कोऽपि संयमतपोनियमयोगगुणधारी वर्तते। संयमश्च षडिन्द्रियषट्प्रकारप्राणिप्राणरक्षणलक्षणः। तपश्च द्वादशप्रकारं । नियमश्च नियतकालव्रतधारणं । उक्तं च नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारात् । नियमः परिमितकालो यावजीवं यमो भ्रियते ॥१॥ योगश्च वर्षादिकालस्थितिः। अथवाऽऽत्मध्यानं योग उच्यते। उक्तंच वीरनन्दिशिष्येण पद्मनन्दिना साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनं । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः। ॥१॥ गुणाश्चतुरशीतिलक्षसंख्याः । के ते चतुरशांतिलक्षगुणा इति चेदुच्यन्ते---- हिंसाऽनृतस्तेयमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभजुगुप्साभयारतिरतित्यागा इतित्रयोदश दोषाः । मनोवचनकायदुष्टत्वमिति षोडश । मिथ्यात्वं प्रमादः पिशुनत्वं अज्ञानं इन्द्रियाणामनिग्रह एतैः पंचभिर्मेलिता एकविंशतिर्दोषा भवन्ति तेषां त्यागा एकविंशतिर्गुणा भवन्ति । १ धर्मो वस्तुस्वभावः क्षमादिभावश्च दशविधो धर्मः । चारित्रं खलु धर्मः जीवानां रक्षणं धर्मः ॥॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारानाचारत्यागैश्चतुर्भिर्गुणिताश्चतुरशीतिर्गुणा भवन्ति ते पृथिव्यादिशतजीवसमासर्गुणिताश्चतुरशीतिशतानि गुणा भवन्ति ते दशशीलविराधनैर्गुणिताश्चतुरशीतिसहस्राणि गुणा भवन्ति । कास्ताः शीलविराधनाः स्त्रीसंसर्गः १ सरसाहारः २ सुगन्धसंस्कारः ३ कोमलशयनासनं ४ शरीरमण्डनं ५ गीतवादित्रश्रवणं ६ अर्थग्रहणं ७ कुशीलसंसर्गः ८ राजसेवा ९ रात्रिसंचरणं १० इतिदशशीलविराधनाः । ते आकम्पितादिदशालोचनादोषत्यागैर्दशभिर्गुणिताः चत्वारिंशत्सहस्राधिकाष्टलक्षाणि गुणा भवन्ति । उत्तमक्षमादिदशधर्मैर्गुणिताश्चतुरशीतिलक्षाणि गुणा भवन्ति । अथातिक्रमादयश्चत्वारः के ? अतिक्रमस्तावद्विशिष्टमतित्यागः । व्यतिक्रमः शीलवृत्तिलंघनं । अतिचारो विषयेषु प्रवर्तनं । अनाचारो विषयेष्वत्यासक्तिः । के ते दशालोचनादोषाः ? तदर्थनिरूपिका गाथेयं-- आकंपिअ अणुमाणिअ जं दिह्र बादरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउलयं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥१॥ अस्या अयमर्थः-आकम्पितं आकम्पो भयमुत्पद्यते मा बहुदण्ड दासीदाचार्यः १ अणुमाणियं अनुमानं इत्येतावत्पापं कृतं भविष्यति निर्धारो नास्ति २ जं दिलु यत्केनचिदृष्टं तत्प्रकाशयति ३ वायरं स्थूलं पापं प्रकाशयति ४ सुहुमं अल्पं पापं कथयति न महापापं प्रकाशयति ५ छण्णं प्रच्छन्नं आचार्याने कथयति न प्रकटं ६ । सद्दाउलयं संघादिकृतकोलाहले सति कथयति पापं ७ बहुजणं बहुः संघो मिलति तदा पापं प्रकाशयति ८ अव्वत्तं अव्यक्तं प्रकाशयति स्फुटं न कथयति ९ तरसेवी यत्पापं प्रकाशितं तदेव पुनरपि करोति १० इति दशालोचनदोषाः । दशकायसंयमाः के ? पंचेन्द्रियनिर्जयः पंचप्राणरक्षा इति दश । एतान् संयमतपोनियमयोगगुणान् धरतीत्येवमवश्यं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० annaminnnnnnnnnnnnnnnnnnn षट्प्राभतेसंग्रमतपोनियमयोगगुणधारी। तस्स य दोस कहंता तस्य च दोषान् कथयन्तः केचित्पापिष्ठाः । भग्गा भग्गत्तणं दिति स्वयं भग्नाश्चारित्रात्पतिता भ्रष्टा अन्येषामपि भ्रष्टत्वमारोपयन्ति ते निन्दनीया इत्यर्थः । जह मूलम्मि विणहे दुमस्स परिवार णत्थि परिवडी । तह जिणदंसणभहा मूलविणहा ण सिझंति ॥१०॥ यथा मूले विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः। तथा जिनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टा न सिद्धयन्ति ॥ जह मूलम्मि विणहे दुमस्स परिवार णत्थि परिवडी यथा मूले पातालगताधारे विनष्टे विनाशं प्राप्ते द्रुमस्य वृक्षस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः शाखापत्रपुष्प फलादेवृद्धिर्नास्ति वृद्धिर्न भवति । परिवार इत्यत्र षष्ठीलुकू "लुक्चेति" वचनात् । दृष्टान्तं दत्वा दार्टान्तं ददाति । तह जिणदंसणभट्टा तथा तेन द्रुममूलप्रकारेण जिनदर्शनभ्रष्टा आहेतमतात्पतिताः । मूलविणहा श्रीमूलसंघात्प्रच्युताः । न सिद्धयन्ति-न मोक्षं प्राप्नुवन्ति जन्मशतसहस्रेष्वपि संसारे परिभ्रमन्तीति भावार्थः । जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ । तह जिणदंसण मूलो णिदिहो मोक्खमग्गस्स ॥ ११॥ यथा मूलात् स्कन्धः शाखापरिवारो बहुगुणो भवति । तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य ॥ जह मूलाओ यथा मूलात् वृक्षस्य मूलात्कारणात् । स्कन्धः शाखावधिः प्रकाण्डः । बहुगुणो होइ प्रचुरगुणो वृद्धयाद्यतिशयवान् भवति । तथा साहापरिवार शाखापरिवारश्च लतास्वरूपी कटप्रश्च बहुगुणो भवति पत्रपुष्पफलादिमान् भवति । दृष्टान्तो गतः । इदानी दार्टान्त १ बहुगुणा हुँति. ग. घ.। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभतं । माह-तह जिणदंसण मूलो निद्दिडो मोक्खमग्गस्स तथा तेनैव वृक्षमूलप्रकारेणैव मोक्षमार्गस्य मूलं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणस्य मोक्षमार्गस्य मूलं कारणं, जिणदंसणं-जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं श्रीगौतमस्वामिना कथितं । श्रीमूलसंघो मोक्षमार्गस्य मूलं कथितं न तु जैनाभासादिकं । किं तजैनाभासं ? उक्तं च गोपुच्छिकः श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः । निष्पिच्छश्चति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥१॥ ते जैनाभासा आहारदानादिकेऽपि योग्या न भवन्ति कथं मोक्षस्य योग्या भवन्ति । गोपुच्छिकानां मतं यथा, उक्तं च इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरियत्तं । कक्कसकेसगहणं छठं च गुणव्वदं नाम ॥ १ ॥ श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृह्णन्ति प्रासुकं मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोपः कृतः । तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पनास्ते त्वतीव पापिष्ठाः देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति, मण्डलवत्सर्वत्र भांडप्रक्षालनोदकं पिबन्ति इत्यादि बहुदोषवन्तः। द्राविडा:-सावा प्रासुकं च न मन्यन्ते उद्भभोजनं निराकुर्वन्ति । यापनीयास्तु वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षच कथयन्ति । निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्तं च ढाढसीगाथासु स्त्रीणां पुनर्दीक्षा क्षुल्लकलोकस्य वीरचर्यात्वं । कर्कशकेशग्रहणं षष्ठं च गुणवतं नाम ॥ १॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ षट्प्राभतेपिच्छ ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायन्वो ॥१॥ तथा च सितपटमतं-- सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ॥१॥ जैमिनिकपिलकणचरचार्वाकशाक्यमतानि तु प्रमेयकमलमार्तण्डादिशास्त्रात् ज्ञातव्यानि । जे दसणेसु भहा पाए ण पंडंति दसणधराणं । ते होंति लल्लमुआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ॥१२॥ ये दर्शनेषु भ्रष्टा पादे न पतन्ति दर्शनधराणाम् । ते भवन्ति लल्लमूकाः बोधिः पुनर्दुर्लभा तेषाम् ॥ जे दंसणेसु भट्टा ये पुरुषा दर्शनेषु भ्रष्टा निसर्गजाधिगमजलक्षणाद् द्विविधात्सम्यग्दर्शनात् औपशमिकवेदकक्षायिकलक्षणात्रिविधात्सम्यक्त्वरत्नात् प्रच्युताः । आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् ।। विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढे च ॥१॥ इत्यार्याकथितदशविधसम्यक्त्वरत्नात्पपिताः। अस्या आर्याया अयमर्थः" सूक्ष्म जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासम्यक्त्वमित्याहुन न्यथावादिनो जिनाः" एवं जिनसर्वज्ञवीतरागवचनमेव प्रमाणं क्रियते तदाज्ञासम्यक्त्वं कथ्यते । १। निम्रन्थलक्षणो मोक्षमार्गों न वस्त्रादिवेष्टितः पुमान् कदा१पिच्छे न हि सम्यक्त्वं करगृहीते मयरचमरडंबरे । आत्मा तारयत्यात्मानं तस्मादात्मा ध्यातव्यः ॥ १ ॥ २ स्वेताम्बरश्चाशाम्बरश्च बुद्धश्च तथा चान्यश्च । समभावभावितात्मा लमेत मोक्षं न सन्देहः ॥ २ ॥ ३ पाएहिं. घ. । ४ पाडंति. ग. । ५ होति. घ. । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । चिदपि मोक्षं प्राप्स्यति, एवं विधो मनोभिप्रायो निर्ग्रन्थलक्षणमोक्षमार्गे रुचिर्मार्गसम्यक्त्वं द्वितीयमुच्यते ।२। त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराणसमाकर्णनेन बोधिसमाधिप्रदानकारणेन यदुत्पन्नं श्रद्धानं तदुपदेशनामकं सम्यदर्शनं भण्यते । ३ । मुनीनामाचारसूत्रं मूलाचारशास्त्रं श्रुत्वा यदुत्पद्यते तत्सूत्रसम्यक्त्वं कथ्यते । ४ । उपलब्धिवशादुरभिनिवेशविधंसानिरुपमोपशमाभ्यन्तकारणाद्विज्ञातदुर्व्याख्येयजीवादिपदार्थबीजभूतशास्त्राद्यदुत्पद्यते तद्वीजसम्यक्त्वं प्ररूप्यते । ५। तत्वार्थसूत्रादिसिद्धान्तनिरूपितजीवादिद्रव्यानुयोगद्वारेण पदार्थान् संक्षेपेण ज्ञात्वा रुचिं चकार यः स संक्षेपसम्यक्त्वः पुमानुच्यते । ६ । द्वादशाङ्गश्रवणेन यजायते तद्विस्तारसम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते । ७ । अंगबाह्यश्रुतोक्तात् कुतश्चिदर्थादङ्गबाह्यश्रुतं विनापि यत्प्रभवति तत्सम्यक्त्वमर्थसम्यक्त्वं निगद्यते । ८। अंगान्यङ्गबाह्यानि च शास्त्राण्यधीत्य यदुत्पद्यते सम्यक्त्वं तदवगाढमुच्यते । ९ । यत्केवलज्ञानेनार्थानवलोक्य सदृष्टिर्भवति तस्य परमावगाढसम्यक्त्वं कथ्यते । १० । तथा चोक्तं गुणभद्रेण गणिना आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव __त्यक्त ग्रन्थप्रपंचं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता या संज्ञानागमाब्धिप्रसूतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः॥१॥ आकण्याचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्रदृष्टिदुरधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः । कैश्चिजातोपलब्धेरसमशमवशाद्वीजदृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणैव बुध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः॥२॥ याश्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्ताराष्टिं संजातात्कुितश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः। दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढति रूढा ॥३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभते. ईदृशदर्शनेषु भ्रष्टास्त्यक्तमयूरपिच्छकमण्डलुपरमागमपुस्तकाः सन्तो गृहस्थवेषधारिणः संयमधराणां संयमिनां सदृष्टीनां । पाए न पडंति पादे चरणयुगले न पतन्ति नैव नमोऽस्त्विति कुर्वन्ति अभिमानित्वान्मुशलवत्तिष्ठन्ति । ते किं भवन्ति ? ते होंति लल्लमुआ ते भवन्ति लल्ला अस्फुटवाचो मूका वक्तुं श्रोतुमशिक्षिताः । बोही पुण दुल्लहा तेसिं बोधिः खलु रत्नत्रयप्राप्तिः पुनर्जन्मशतसहस्रेष्वपि दुर्लभा कष्टेनापि लब्धुमशक्या तेसिं-तेषां जैनाभासतदाभासानां च मिथ्यादृष्टीनामिति शेषः । जे पि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवभयेण । तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणमोअमाणाणं ॥१३॥ येपि पतन्ति च तेषां जानन्तो लज्जागौरवभयेन । तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्यमानानाम् ॥ जे पि पडंति च तेसिं ये सम्यग्दर्शनादभ्रष्टा अपि पुरुषा तेसिंतेषां परित्यक्तजिनमुद्राणां मयूरपिच्छशौचोपकरणज्ञानोपकरणरहितानां पादे कायधरयुगले पतन्ति नमस्कारं कुर्वन्ति पूर्वमुद्राधरा इति । जाणता विदन्तोऽपि जिनमुद्राविराधका एते इत्यवगच्छन्तोऽपि । लज्जागारवभएण लज्जया त्रपया, गारवेण रसर्द्धिसातगण, भयेनायं राजमान्योऽस्माकं कमप्युपद्रवं कारयिष्यतीत्यादिभीत्या च । तेसि पि णत्थि बोही तेषामपि बोधिर्नास्ति ते रत्नत्रयं प्रपालयन्तोऽपि रत्नत्रयाद्भ्रष्टा इति ज्ञातव्या इति भावः । कथंभूतानां तेषां, पावं अणुमोयमाणाणं जिनदर्शनभ्रंशाद्यदुत्पन्नं पापं पातकं तदनुमन्यमानानामिति शेषः । उक्तं च समन्तभद्रेण गणिना भयाशास्नेहलोभाच कुदेवागमलिंगिनां । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः॥१॥ दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई ॥१४॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । द्विविधमपि ग्रन्थत्यागं त्रिष्वपि योगेषु संयमः तिष्ठति । ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ॥ दुविहं पि गंथचायं द्विविधोऽपि ग्रन्थत्यागः । तीसु वि जोएस त्रिष्वपि योगेषु मनवचनकायशुद्धिषु । संजमो ठादि संयमश्चारित्रं तिष्ठति भवति । णाणम्मि करणसुद्धे सम्यग्ज्ञाने कृतकारितानुमोदनिर्मले सति । उभसणे उद्भभोजने च सति । दंसणं होदि सम्यक्त्वं भवति मुनीनामिति शेषः । अथ कोऽसौ द्विविधो ग्रन्थ इत्याह- बाह्याभ्यन्तरभेद इति । तत्र बाह्यः परिग्रहः कथ्यते क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं । कुधं भांडं हिरण्यं च सुवर्णे च बहिर्दश ॥ १ ॥ क्षेत्रं सस्याधिकरणं । वास्तु गृहं । धनं द्रम्मादि । धान्यं गोधूमादि । द्विपदं दासीदासादि । चतुष्पदं गोमहिषीवेगसरगजाश्वादि । कुप्यं कर्पासचन्दनकुंकुमादि । भांडं तैलघृतादिभृतं पात्रं । हिरण्यं ताम्ररूप्यादि । घटिताघटितं सुवर्ण श्रीनिकेतनं हाटकं कनकमिति यावत् । अभ्यन्तरप्रन्यश्चतुर्दशभेद:-- मिथ्यात्ववेद हास्यादिषट्कषायचतुष्टयं । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ १ ॥ सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी । उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियादि ॥ १५ ॥ १५ सम्यक्त्वतो ज्ञानं ज्ञानतः सर्वभावोपलब्धिः । उपलब्धपदार्थेः पुनः श्रेयोऽश्रेयो विजानाति ॥ सम्मत्तादो णाणं सम्यक्त्वाज्ज्ञानं भवति यस्य सम्यक्त्वं नास्ति स पुमानज्ञान एवेत्यर्थः । णाणादो सव्वभावउवलद्धि ज्ञानात्सर्वपदा १ यानं शय्यासनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्दश । इति पाठान्तरम् । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते र्थानामुपलब्धिः जीवादितत्वानां जीवस्य परिज्ञानं भवति । उवलद्धपयत्थे पुण उपलब्धपदार्थे पुनः उपलब्धश्चासौ पदार्थ: उपलब्धपदार्थस्तस्मिन्नुपलब्धपदार्थे सति । किं भवति, सेयासेयं वियाणेदि श्रेयः पुण्यं विशिष्टतीर्थकरनामकर्म, अश्रेयः पापं चतुर्गतिपरिभ्रमणकारणं विशेषेण जानीते । उक्तं च १६ न सम्यक्त्वसमं किंचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृतां ॥ १ ॥ सेयासेयविदण्डू उद्भुददुस्सील सीलवंतो वि । सीलफलेणन्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥ १६ ॥ श्रेयोऽश्रेयोवेत्ता उद्धृतदुश्शीलः शीलवानपि । शीलफलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम् ॥ सेयासेयविद श्रेयसः पुण्यस्य, अश्रेयसः पापस्य विदण्डू - वेत्ता पुमान् । उद्भुददुस्सील उन्मूलितदुःशीलो भवति । सीलवंतो वि शीलवान् पुमान् । सीलफलेण शीलफलेन कृत्वा । अन्भुदयं लहइ अभ्युदयं सांसारिकं सुखं प्राप्नोति । तत्तो पुण णिव्वाणं लहइ ततः पुनर्निर्वाण लभते मोक्षं प्राप्नोति । 9 जिणवयणमोसह मिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ १७ ॥ जिनवचनमौषधिमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् । जरामरणव्याधिहरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥ जिणवयणमोसहमिणं जिनवचनमौषधमिदं इदं पूर्वोक्तलक्षणं जिनवचनं सर्वज्ञवीतरागभाषितं हेतुहेतुमद्भावसहितं औषधं वर्तते । कथं १ भूदं ग Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । भूतं जिनवचनं औषधं, विषयसुखविरेचन-विषयाणां पंचेन्द्रियार्थानां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां सम्बन्धित्वेन यत्सुखं विषयसुखं तस्य विरेचनं दूरीकरणं । अमिदभूदं अमृतभूतं अविद्यमानं मृतं मरणं यत्र यस्माद्वा भव्यानां तदमृतभूतं अमृतोपमं । अतएव जरमरणवाहिहरणं जरामरणव्याधिहरणं विनाशकं । खयकरणं सव्वदुक्खाणं क्षयकरणं मूलादुन्मूलकं सर्वदुःखानां शारीरमानसागन्तुदुःखानां विध्वंसकमित्यर्थः । एकं जिणस्स रूवं बीयं उकिटसावयाणं तु । अवरहियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदंसणं णत्थि ॥१८॥ एकं जिनस्य रूपं द्वितीयं उत्कृष्टश्रावकानां तु। अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुनः लिङ्गदर्शनं नास्ति ॥ एक्कं जिणस्स रूवं एकमद्वितीयं जिनस्य रूपं नग्नरूपं । बीयं द्वितीयं उत्कृष्टश्रावकाणां तु । उक्तं च आद्यास्तु षड् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः। शेषौ द्वावुत्तमायुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥१॥ तेन " सणवयसामाइयपोसहसचित्तरायभत्ते य” इति गाथार्द्धकथिताः श्रावकाः षड्जघन्याः कथ्यन्ते । “ बंभारंभपरिग्गह" इति गाथापादोक्तास्त्रयः श्रावका मध्यमा उच्यन्ते । शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने “ अणुमणमुद्दिट्ठदेसविरदो य" अनुमतादुद्दिष्टाद्विरतो देशविरतश्च कथ्यते उत्कृष्टः श्रावकः उच्यते इति । अवरहियाण तइयं अवरस्थितानां आर्यिकाणां तइयं ( तृतीयं )। चउत्थं पुण लिंगदसणं णत्थि अपरस्थितानामार्यिकाणां तृतीयं दर्शनं चतुर्थ पुन षट्० २ ___ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेलिंगदर्शनं नास्ति । त्रीण्येव जिनशासने लिंगदर्शनानि प्रोक्तानि न न्यूनानि नाप्यधिकानीति शेषः । छद्दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिदिहा । सदहइ ताण रूवं सो सद्दिडी मुणेयव्वो ॥ १९॥ षड् द्रव्याणि नव पदार्थाः पञ्चास्तिकायाः सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि । श्रद्दधाति तेषां रूपं स सद्दृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ छद्दव्व षड्व्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशाः षड् द्रव्याणि भवन्ति । वर्तमानकाले द्रवन्तीति द्रव्याणि भविष्यति काले द्रोष्यन्ति अतीतकालेऽदुद्रुवन्निति द्रव्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशनामानि । नव पयत्था नव पदार्थाः जीवाजीवपुण्यपापास्त्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षनामानः । पंचत्थी पंचास्तिकाया जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशनामानः पंचास्तिकाया उच्यन्ते । सत्त तच्च णिद्दिठा सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि कथितानि जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षनामानि । सद्दहइ ताण एवं श्रद्दधाति तेषां रूपं स्वरूपं । सो सदिट्ठी मुणेयन्वो स पुमान् सदृष्टिरिति मन्तव्यो ज्ञातव्यः । तेषु द्रव्यादिषु जीवः सचेतनः । पुद्गलो धर्मोऽधर्मः काल आकाशश्च पंचाचेतनाः । षड्विधोऽपि पुद्गलो मूर्तः । इतरे पंचामूर्ताः । जीवपुद्गलयोर्गतेः कारणं धर्मः । सर्वेषां स्थितेः कारणमधर्मः । सर्वेषामाधारमाकाशः । वर्तनालक्षणः कालः रत्नानां राशिवत् भिन्नपरमाणुकः ।धर्माधर्माकाशा अखंडप्रदेशाः । कालपुद्गलयोर्जीवानां च प्रदेशेषु खण्डत्वं, न त्वेकजीवस्य प्रदेशानां खण्डत्वं । धर्माधर्मकालाकाशाश्चत्वारो गमनागमनरहिताः । गमनागमने जीवपुद्गलानामन्यत्र सिद्धजीवेभ्यः । धर्माधर्मैकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशाः । संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेश आकोश: । पुद्गलोऽनन्तप्रदेशश्च । सर्वाणि द्रव्या १ तस्स. ग. । २ अत्राकाशस्थाने पुद्गलेन पुद्गलस्थाने चाकाशेन भवितव्यं । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभतं । ण्येकतो मिलितान्यपि निजनिजगुणान्न जहति । एवं तत्वास्तिकायपदार्थानामपि स्वरूपं ज्ञातव्यं । जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥ २० ॥ जीवादीनां श्रद्दधानं सम्यक्त्वं जिनवरैः निर्दिष्टम् । व्यवहारात् निश्चयतः आत्मा भवति सम्यक्त्वम् ॥ जीवादीनां श्रद्धानं रुचिः सम्यक्त्वमिति जिनवरैः प्रणीतं तत्तु सम्यग्दर्शनं व्यवहाराज्ज्ञातव्यं । णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं निश्चयतो निश्चयनयादात्मैव भवति सम्यक्त्वं रुचिसामान्यत्वादित्यर्थः । एवं जिणपण्णतं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ - एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन । सारं गुणरत्नेषु सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण । जिणपण्णत्तं जिनैः प्रणीतं जिनैः कथितं । दसणरयणं दर्शनरत्नं सम्यक्त्वमाणिक्यं । धरेह भावेण धरत यूयं भावेन वीतरागसर्वज्ञस्य भक्त्या । उक्तं च एकापि समर्थयं जिनभक्तिर्दुर्गतिं निवारयितुं । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१॥ कथंभूतं दर्शनरत्नं, सारं उत्कृष्टं । केषु सारं, गुणरयणत्तय गुणेषु उत्तमक्षमादिषु तथा रत्नत्रये सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु । उक्तं च दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते। दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥१॥ पुनरपि कथंभूतं दर्शनरत्नं, सोवाणं सोपानं पादारोपणस्थानं । कतिसंख्योपेतं, पढम प्रथमं अद्वितीयं । कस्य, मोक्खस्स मोक्षस्य परमनिर्वाणस्य । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० षट्प्राभृते जं सकइ तं कीरह जं च ण सक्केई तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ २२ ॥ यत् शक्नोति तत् क्रियते यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानं । केवलिजिनैः भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥ जं सकइ तं कीरह यच्छक्नोति तत्क्रियते विधीयते । जं चण सक्केइ यच्च न शक्नुयात् यत्कर्तुं न शक्नोति । तं च सद्दहणं तस्य श्रद्धानं तस्य ज्ञानाचारादे रोचनं कर्त्तव्यं । केवलिजिणेहिं भणियं केवलज्ञानिभिर्जिनैर्भणितं प्रतिपादितं । केवलज्ञानं विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वन्ति । अन्यमुनीनामुपदेशस्त्वनुत्रादरूपो ज्ञातव्यः । अथवा केवलिभिः समवशरणमण्डित केवलज्ञानसंयुक्ततीर्थकरपरमदेवैभणितं जिनैरनगारकेवलिभिर्भणितं । किं भणितं ? सद्दहमाणस्स सम्मत्तं श्रदधानस्य पुरुषस्य रोचमानस्य जीवस्य सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं भवति । दंसणणाणचरिते तव विणये णिच्चकालपसत्था | एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ॥ २३ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकालप्रस्वस्थाः । एते तु वन्दनीया ये गुणवादी गुणधराणाम् ॥ दंसणणाणचरिते दर्शनज्ञानचारित्रे दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्रं समाहारो द्वन्द्वः तस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रे एतत्रितये । तथा तवविणए तपोविनये च चतुर्विधाराधनायामित्यर्थः । णिच्च कालपसत्था नित्यका प्रस्वस्था नित्यमेव प्रकर्षेण स्वस्था एकलोलीभावं प्राप्ताः । दे दु वंदनीया एते पुरुषा महामुनयो बन्दनीया नमस्कर्तव्याः । एते १ तस्स होइ सद्दहणं. ग. । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । के ? जे गुणवादी गुणधराणं ये मुनयः स्वयं सम्यग्दर्शनादीनामाराधका अपरेषां गुणधराणामाराधनाराधकानां । ये मुनयो गुणवादिनो गुणवर्णनशीला न मत्सरिणस्ते वन्दनीया नमस्करणीया इत्यर्थः । सहजुप्पण्णं रूवं दहुं जो मण्णए ण मच्छरिओ । सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो ॥ २४ ॥ सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्वा यो मन्यते न मत्सरी । स संयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिर्भवति एषः ॥ सहजुप्पण्णं रूवं सहजोत्पन्नं स्वभावोत्पन्नं रूपं नग्नं रूपं । दहुं दृष्ट्वा विलोक्य । जो मण्णए ण मच्छरिओ यः पुमान् न मन्यते नग्नत्वेऽरुचि करोति नग्नत्वे किं प्रयोजनं पशवः किं नग्ना न भवन्तीति ब्रूते । मच्छरिओ परेषां शुभकर्मणि द्वेषी । सो संजम पडिवण्णो स पुमान् संयमप्रतिपन्नो दीक्षां प्राप्तोऽपि । मिच्छाइट्ठि हवइ एसो मिथ्यादृष्टिर्भवत्येषः । अपवादवेषं धरन्नपि मिध्यादृष्टिर्ज्ञातव्य इत्यर्थः । कोऽपवादवेषः ? कलौ किल 'लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्ट्रोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृत: संयमिनां इत्यपवादवेषः । तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैराग्यवान् लिंगशुद्धिरहितः उत्पन्नमेहनपुटदोषः लज्जावान् वा शीताद्यसंहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽप्यपवाद लिंग: प्रोच्यते । उत्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञातव्यं । सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः । विशेषोक्तो विधिरपवाद इति परिभाषणात् । अमराण वंदियाणं रूवं दहूण सीलसहियाणं । । जे गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति ||२५|| - अमराणां वन्दितानां रूपं दृष्ट्वा शीलसहितानाम् । ये गर्वं कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविवर्जिता भवन्ति ॥ २१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते __ अमराण वंदियाणं अमराणां भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिकल्पातीतदेवानां वन्दितानां तीर्थकरपरमदेवानां । रूवं दहण रूपं वेषं दृष्ट्वा विलोक्य । कथंभूतानां, सीलसहियाणं व्रतरक्षासहितानां । जे गारवं करंति य ये पुरुषा जैनाभासास्तथान्ये च गर्व कुर्वन्ति चकारात्सेवां न कुर्वन्ति । सम्मत्तविवज्जिया होंति सम्यक्त्वरत्नरहिता भवन्ति, मिथ्यादृष्टयो भवन्ति, सम्यक्त्वरत्नच्युता भवन्ति, महापातकिनो भवन्ति, दीर्घकालं संसारमध्ये पर्यटन्ति । उक्तं च ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे ॥१॥ अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि सो ण वंदिज्ज । दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ॥२६॥ ___ असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्येत । द्वावपि भवतः समानौ एकोऽपि न संयतो भवति ॥ अस्संजदं ण वंदे असंयतं गृहस्थवेषधारिणं संयमं पालयन्तमपि न वन्देत । वच्छविहीणो वि सो ण वंदिज्ज वस्त्रविहीनोऽपि नग्नोपि स संयमरहितो न वन्द्येत न नमस्क्रियेत । दुण्णि वि होंति समाणा द्वितयेऽपि समाना संयमरहिता भवन्ति । एगो वि ण संजदो होदि ( एकोऽपि संयतो न भवति )। गृहस्थः संयम प्रतिपालयन्नप्यसंयमी ज्ञातव्यः इति भावः। ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणोण हु सवणो णेय सावओ होइ॥२७॥ नापि देहो वन्द्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः । कं वन्दे गुणहीनं न हि श्रवणो नैव श्रावको भवति ॥ १ण सावओ होइ. ग. घ. । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । २३. ण वि देहो दिज्जइ नापि देहो वन्द्यते । ण वि य कुलो नापि च कुलं पितृपक्षो वन्द्यते । ण वि य जाइसंजुत्तोन च जातिसंयुक्तो मातृपक्षशुद्धः पुमान् वन्द्यते । को वंदमि गुणहीणो कं वन्दे गुणहीनं अपि तु गुणहीनं न कमपि वन्दे । न ह सवणो णेव हु सावओ होइ गुणहीनः पुमान् न श्रवणो दिगम्बरो भवति नैव श्रावको भवति देशव्रती च न भवति । गुणवानेव मुनिन्दनीय इति भावः । वंदामि तवसमेण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च । सिद्धिगमणं च तेर्सि सम्मत्तेण सुद्धभावेण ॥ २८॥ वन्दे तपःसमापन्नान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्यं च । सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन ॥ वंदामि तवसमण्णा वन्देऽहं श्री कुन्दकुन्दाचार्य: । कानू, मुनीनित्युपस्कारः । कथंभूतान् मुनीन् तवसमण्णा तपः समापन्नान् । तथा तेसिं तेषां मुनीनां । सीलं च पूर्वोक्तमष्टादशसहस्रसंख्यं शीलं च वन्दे । गुणं च पूर्वोक्तचतुरशीतिलक्षसंख्यं गुणं चाहं वन्दे । तथा तेषां मुनीनां पूर्वोक्तं नवविधं ब्रह्मचर्यं च वन्दे । तथा तेषां मुनीनां सिद्धिगमणं च आत्मोपलब्धिलक्षणं सिद्धिगमनं मुक्तिप्राप्तिं वन्दे । केन कृत्वा वन्दे, सम्मत्तेण सम्यक्त्वेन श्रद्धया रुचिरूपेण सम्यग्दर्शनेन वन्दे । न केवलं सम्मत्तेण वन्दे किन्तु सुद्धभावेण निर्मलपरिणामेन अकुटिलतया निर्मायत्वेनेति तात्पर्य । चउसचिमरसहिओ चउतीसहि अइस एहिं संजुत्तो । अणुचरबहुत हिओ कम्मक्खयकारणनिमित्ते ॥ २९ ॥ १ तवसउण्णा. घ. । तवसमाणं. ग. । २ अणवर इति घः पाठः तस्यार्थो निरन्तरमिति कृतः । क. ख. ग. पुस्तके तु उक्त एव पाठः Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ षट्प्राभृते चतुःषष्ठिचमरसहितः चतुस्त्रिंशद्भिरतिशयैः संयुक्तः । अनुचरबहुसत्वहितः कर्म्मक्षयकारणनिमित्ते ॥ चउसद्विचमरसहिओ चतुःषष्टिचामरसहितस्तीर्थकर परमदेवो भवति तं वन्दे इति विषमव्याख्या ज्ञातव्या । चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो चतुस्त्रिंशदतिशयैः संयुक्तस्तीर्थकरपरमदेवो भवति तं वन्दे | अणुचरबहुसत्तहिओ अनुचरबहुसत्त्वहितः स्वामिना सह ये पृष्ठतो गच्छन्ति तेऽनुचराः सेवकाः तथा बहुसत्त्वा अपरेऽपि जीवास्तेभ्यो हितः स्वर्गमोक्षदायक इत्यर्थः । कम्मक्खयकारणनिमित्ते कर्मणां क्षयकारणं शुक्लध्यानं तस्य निमित्ते प्राप्त्यर्थे तं वन्दे इति क्रियाकारकसम्बन्धः । अथ कानि तानि कर्मक्षयकारणानि शुक्लध्यानहेतव इति प्रश्ने गाथामिमां चकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य:-- णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण । चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ||३०|| ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन । चतुर्णामपि समायोगे मोक्षो जिनशासने दृष्टः ॥ .. णाणेण ज्ञानेन । दंसणेण य दर्शनेन च । तवेण तपसा । चरिएण चरितेन चारित्रेण । संजमगुणेण एतच्चतुष्टयं संयमगुण उच्यते । चउहिं पि समाजोगे चतुर्णामपि समायोगे सति एकत्र सामग्र्यां सत्यां | मोक्खो जिणसासणे दिहो मोक्षो जिनशासने दृष्टः कथितः । समस्तेन मोक्षो भवति न तु व्यस्तेन । उक्तं च वीरनन्दिशिष्येण पद्मनन्दिना वनशिखिनि मृतोऽन्धः संचरन् वाढमंह्नि द्वितयविकलमूर्तिर्वीक्षमाणोऽपि खंजः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । अपि सनयनपादोऽश्रद्दधानश्च तस्माद् हगवगमचरित्रैः संयुतैरेव सिद्धिः ॥ १ ॥ गाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं । सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥ ३१ ॥ ज्ञानं नरस्य सारं सारमपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वतः चरणं चरणतो भवति निर्वाणम् ॥ 1 गाणं णरस्स सारो ज्ञानं नरस्य जीवस्य सारः । सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं सम्यग्ज्ञानादपि जीवस्य सम्यक्त्वं सारतरं भवति । कस्मात् ? समत्ताओ चरण सम्यक्त्वाच्चरणं चारित्रं भवति यस्मात्, सम्यक्त्वं विना चारित्रं प्रतिपालयन्नपि पुमानचारित्रो भवति । चरणाओ होइ णिव्वाणं चरणाच्चारित्रान्निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवति । तेन सर्वेभ्यो दर्शनमुत्कृष्टमिति ज्ञातव्यं । पाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण । चो पि समाजोगे सिद्धा जीवां ण संदेहो ॥ ३२ ॥ ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः ॥ पाणम्मि ज्ञाने सति । दंसणम्मि य दर्शने सति । तवेण तपसा कृत्वा । चरिएण चरितेन चारित्रेण कृत्वा । सम्मसहिएण सम्यक्त्वसहितेन । ज्ञानं तपश्चारित्रं च व्यर्थं सम्यक्त्वं विना । तेन चतुर्णा समायोगे मेलापके सति सिद्धा जीवा ण संदेहो जीवाः सिद्धा मुक्ति गता अत्र सन्देहो नास्ति । तथा चोक्तं हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पंगुकः ॥ १ ॥ १ चउपि ग. घ. । २ देवा घ. तीर्थकराः । २५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ nnnnnnnnnnnnnn षट्प्राभृतेतथा चाहता: ज्ञानं पंगौ क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृवयं । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणं ॥१॥ कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं । सम्मइंसणरयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए ॥३३॥ कल्याणपरम्परया लभन्ते जीवा विशुद्धसम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शनरत्नं अय॑ते सुरासुरे लोके ॥ कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं कल्याणानां गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणानां परम्परया श्रेण्या सह जीवा: भव्यप्राणिनो विशुद्धसम्यक्त्वं निरतिचारसम्यक्त्वं प्राप्नुवन्ति । यदैव जीवः सद्दष्टिर्भवति तदैव तीर्थकरपरमदेवो भवतीति भावः । सम्मइंसणरयणं सम्यग्दर्शनरत्नं । अग्घेदि सुरासुरे लोए अय॑ते पूज्यते बहुमूल्यं भवति देवदानवभुवने । एतद्रत्नमूल्यं कोऽपि कर्तुं न शक्नोति । करोति चेन्मूल्यं तदा सद्यः कुष्ठी मुखे भवेत् । दण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण । लद्धण य सम्मत्तं अक्खयसुक्खं च मोक्खं च ॥ ३४ ॥ दृष्ट्वा च मनुजत्वं सहित तथा उत्तमेन गोत्रेण । लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च ॥ दट्टण य दृष्ट्वा च ज्ञात्वा। किं, मणुयत्तं मनुजत्वं मनुष्यजन्म अनेकदृष्टान्तैदुर्लभं विचार्य महासमुद्रे कराच्च्युतरत्नमिव । सहि तह उत्तमेण गोत्तेण उत्तमेन गोत्रेण कुलेन सहितं संयुक्तं । लद्धण य सम्मत्तं सम्यक्त्वं च लब्ध्वा । अक्खयसुक्खं च मोक्खं च एतत्समिय प्राप्य अक्षयसौख्यं निजशुद्धबुद्धपरमात्मश्रद्धानज्ञानानुचरणस्वभावोत्थं १ अक्खयसोक्खं लहदि मोक्खं च. घ. । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्रभृतं । परमानन्दलक्षणं सुखं भवति न केवलमक्षयसुखं भवति मोक्षं च द्रव्यकर्मनोकर्मभावकर्मरहितं ऊर्ध्वगमनलक्षणं परमनिर्वाणं च चकास्ति । विहरदि जाव जिीणदो सहसहसुलक्खणेहिं संजुत्तो। चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥३५।। _ विहरति यावजिनेन्द्रः सहस्राष्टसुलक्षणैः संयुक्तः। चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता ॥ विहरदि जाव जिणिंदो विहरति पर्यटति आर्यखण्डे यावत्सम्बोधनं करोति जिनेन्द्रस्तीर्थकरपरमदेवः । स कथंभूतः, सहसुलक्खणेहिं संजुत्तो अष्टाधिकसहस्रलक्षणैः संयुक्तः । चउतीसअइसयजुदो चतुस्त्रिंशदतिशययुतः । सा पडिमा थावरा भणिया सा प्रतिमा प्रतियातना प्रतिबिम्ब प्रतिकृतिः स्थावरा भाणता इह मध्य-. लोके स्थितत्वात् स्थावरप्रतिमेत्युच्यते । मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये जिनप्रतिमा जंगमा कथ्यते । व्यवहारेण तु चन्दनकनकमहामणिस्फटिकादिघटिता प्रतिमा स्थावरा । समवशरणमण्डिता जंगमा जिनप्रतिमा प्रतिपाद्यते । अथ कानि तानि जिनलक्षणानि अष्टाधिकसहत्रसंख्यानीति चेदुच्यन्ते-श्रीवृक्षः । करचरणेषु शंखः । अम्भोज । स्वस्तिकः । अंकुशः । तोरणं । चामरं । श्वेतातपत्रं । सिंहासनं । ध्वजः । मत्स्यौ । कुम्भौ । कच्छपः । चक्रं । समुद्रः। सरोवरं । विमानं । भवनं । गजः । नरनायौँ । सिंहः । बाणधनुषी । मेरुः । इंद्रः । पर्वतः । नदी । पुरं । गोपुरं । चंद्रः । सूर्यः । जात्यश्वः । व्यजनं । वेणु । वीणा । मृदंगः । पुष्पमाले द्वे । पट्टकूलं । हट्टः । कुण्डलादिषोडशाभरणानि । फलिनमुद्यानं । सुपक्ककलमक्षेत्रं । रत्नद्वीपः । वज्रं । मही । लक्ष्मीः । सरस्वती । सुरभी । वृषभः। चूडारत्नं । महानिधिः । कल्पवल्ली । हिरण्यं । जम्बूवृक्षः । गरुडः । नक्षत्राणि । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ षट्प्राभूते तारकाः । राजसदनं । ग्रहाः । सिद्धार्थपादपः। अष्टप्रातिहार्याणि । अष्टमंगलानि । एवमादीनि अष्टोत्तरशतं लक्षणानि । तिलकमसकादीनि नवशतव्यञ्जनानि तान्यपिलक्षणशब्देनोच्यन्ते । अथ के ते चतुस्त्रिशदतिंशयाः ? निःस्वेदता । निर्मलता। क्षीरगौररुधिरता । समचतुरस्रसंस्थानं । वज्रवृषभनाराचसंहननं । सुरूपता । सुगन्धता । सुलक्षणता। अनन्तवीर्य । प्रियहितवादित्वं । इत्येते दशातिशया जन्मन आरभ्य भवन्ति । तथा घातिकर्मक्षयजा दशातिशयाः सन्ति, ते के ? गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षता । गगनगमनं । प्राणिवधाभावः । भुक्तेरभावः । उपसर्गाभावः । चतुर्मुखत्वं । सर्वविद्याप्रभुत्वं । प्रतिबिम्बरहितत्वं । लोचनपश्मनिःस्पन्दः । नखकेशानामवृद्धिः । इति घातिकर्मक्षयजा दशातिशयाः । देवोपनीताश्चतुर्दशातिशयाः। तथा हि । सर्वार्धमागधीका भाषा। कोऽयमर्थः ? अर्द्ध भगवद्भाषया मगधदेशभाषात्मकं । अर्द्ध च सर्वभाषात्मक। कथमेवं देवोपनीतत्वमिति चेत् ? मगधदेवसन्निधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते॥१॥ मैत्री च सर्वजनताविषया सर्वे जनसमूहाः मागधप्रीतिंकरदेवातिशयवशात् मागधभाषया भाषन्ते परस्परं मित्रतया च वर्तन्ते इति द्वावतिशयौ ॥ २ ॥ सर्वर्तनां फलस्तबकाः । सर्वर्तनां पल्लवाः । सर्वर्तनां पुष्पाणि तादीनां भवन्ति ॥ ३ ॥ आदर्शसदृशी रत्नमयी भूमिर्भवति ॥ ४ ॥ वायुः पृष्ठत आगच्छति ॥ ५ ॥ सर्वलोकस्य परमानन्दो भवति ॥ ६ ॥ अग्रेऽग्रे योजनमेकं सुगन्धगन्धावहा भूमिभागं प्रमार्जन्ति धूलीकंटकखटकीटकर्करपाषाणादिकं च दूरीकुर्वन्ति ॥ ७ ॥ तद्भूम्युपरि मेघकुमारा गन्धोदकं वर्षन्ति ॥ ८॥ सुवर्णपत्रपद्मरागमणिकेसरविराजितं योजनमेकं कमलं तादृशचतुर्दशकमलवोष्टितं स्वामिनः पादाधो भवति तादृशानि पद्मानि सप्ताग्रे भवन्ति सप्त पृष्ठतश्च भवन्ति ॥९॥ अष्टादश Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभृतं । २९ धान्यानि भूमौ निष्पद्यन्ते || १०||दिश आकाशश्च रजोधूमिका दिग्दाहादिरहिता भवन्ति ॥ ११ ॥ ज्योतिर्देवा व्यन्तरदेवा भवनवासिनश्च देवाः सौधर्मेन्द्राज्ञया सर्वेषां देवादीनां समाह्वानं कुर्वन्ति ॥ १२ ॥ अग्रेऽग्रे धर्मचक्रं गगने गच्छति चक्रवर्तिचक्रवत् ॥ १३ ॥ चतुर्दशोतिशयोऽष्टमङ्गलानि ॥१४॥ भृंगार : - सुवर्णालुका | तालो - मंजीरः । कलश:- कनककुम्भः । ध्वज:पताका। सुप्रीतिका विचित्रचित्रमयी पूजाद्रव्यस्थापनाह स्तम्भाधार कुम्भी । श्वेतच्छत्रं । दर्पणः । चामरं च । एतानि प्रत्येकमष्टोत्तरशतसंख्यानि । एवं चतुर्दशातिशया देवोपनीताः । अष्टप्रातिहार्याणि च भवन्ति - अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां ॥१॥ वारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण विहिवलेण स्सं । वोसचतदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥ ३६ ॥ द्वादशविधतपोयुक्ताः कर्म क्षपयित्वा विधिबलेन स्वीयं । व्युत्सत्यदेहा निवार्णमनुत्तरं प्राप्ताः ॥ वारसविहतवजुत्ता द्वादशविधतपोयुक्ता मुनयः । कम्मं खविऊण कर्माष्टविधं क्षपयित्वा । विहिवलेण चारित्रबलेन । स्सं आत्मीयं । वोसचत्तदेहा पद्मासनकायोत्सर्गलक्षणद्विविधव्युत्सर्गेण व्यक्तशरीरा मुनयः । णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता निर्वाणं मोक्षमनुत्तरं सर्ववर्गेभ्य उत्तमं प्राप्ता गताः सिद्धा इत्यर्थः । सम्यक्त्वमाहात्म्यं सर्वमेतज्ज्ञातव्यमिति सिद्धं । इति श्रीपद्मनः कुन्दकुन्दाचार्यवक्र श्रीवाचार्यैलाचार्य गृद्धपिच्छाचार्य नामपंचकविराजितेन सीमन्धरस्वामिज्ञानसम्बोधितभव्यजनेन श्रीजि - नचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकाल गौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन महारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जन समाजसम्मानित नोभय भाषाकविचक्रवर्तिना श्रीवि. द्यानन्दि गुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता दर्शनप्राभृतटीक समाप्ता Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । सर्वार्थसिद्धिप्रदमर्हदीशं, विद्यादिनन्दं वृषसस्यकन्दं । मन्दोऽपि नत्वा विवृणोमि भक्तया, चारित्रसारं शृणुतार्यमुख्याः ॥ १ ॥ सव्वण्हू सव्वदेसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी । वन्दित्तु तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ॥ १ ॥ गाणं दंसण सम्मं चारितं सोहि कारणं तेसिं । मुक्खाराहणहेउं चारितं पाहुडं वोच्छे ॥ २ ॥ सर्वज्ञान सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः । वन्दित्वा त्रिजगद्वन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ॥ ज्ञानं दर्शनं सम्यक् चरित्रं शुद्धिकारणं तेषाम् । मोक्षाराधन हेतुं चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ॥ " जुगलं । सव्वण्हू सर्वज्ञान् । वंदित्तु वन्दित्वा । चारितं पाहुडं वोच्छे चारित्रं नाम प्राभृतं चारित्रप्राभृतं चारित्रसारं नाम ग्रन्थं वक्ष्ये । कः कर्ता, अहं कुन्दकुन्दाचार्यः । कथंभूतान् सर्वज्ञान् सव्वदंसी सर्वदर्शिनो लोकालोकावलोकनशीलान् । अपरं किं विशिष्टान् सर्वज्ञान्, णिम्मोहा निर्मोहान् मोहनीय कर्मरहितान् । भूयोऽपि किं रूपान्, वीराय वीतरागान् वीतः क्षयं गतो रागो येषां ते वीतरागास्तान्, अज क्षेपणे इति तावद्धातुः " अजेर्वीः" इति सूत्रेण वीरादेशः, निष्ठाक्तप्रत्यये वीत इति निष्पद्यते । वीयराय इत्यत्र शस्लोपः । भूयोऽपि किं विशेषणाञ्चितान्, परमेट्ठी परमेष्ठिनः कोऽर्थः परमे इन्द्रचन्द्रनरेन्द्रपूजिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठीति व्युत्पत्तेः समवशरणसम्पत्प्रमण्डितानि - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । त्यर्थः : । अपरं कथंभूतान् सर्वज्ञानू, तिजगवंदा त्रिजगद्वन्दितान् त्रिभुवनस्थितभव्यजनपूजितानित्यर्थः । पुनरपि कथंभूतान्, अरहंता अरिर्मोह:, रकारेण रजो लभ्यते तत्तु ज्ञानावरणदर्शनावरणकर्मद्वयं लभ्यते तथा तेनैव प्रकारेण रहस्यमन्तरायः कथ्यते तेन घातिकर्मचतुष्टयहननादिन्द्रादिकृतामनन्यसंभविनीमर्हणां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तानर्हतः । तथा भव्वजीवेहिं भव्य जीवैर्वन्द्या इति सम्बन्धः । गाणं देसण सम्मं चारितं सोहि कारणं तेसिं तेषां सर्वज्ञानां घातिसंघातघातनलक्षणाया शुद्धेः कारणं हेतुर्ज्ञानं दर्शनं सम्यक्चारित्रं च कारणं । सम्मं इति शब्द एकत्र गृहीतोऽपि त्रिभिर्योज्यः तेनायमर्थः सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं सम्यक्चारित्रं च सर्वेषामपि कर्मणां क्षयकारणं मूलादुन्मूलनस्य हेतुरिति भावः । तेन मुक्खाराहणहेउं तेन कारणेन मोक्षाराधनहेतुं कारणं । किं ? चारित्तं चारित्रं । पाहुडं प्राभृतं सारभूतं शास्त्रमहं वक्ष्य इति क्रियाकारकसम्बन्धः । युगलं । एतद्गाथाद्वयं युगलं युग्मं वर्तते । एए तिणि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया । तिन्हं पि सोहत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं ॥ ३ ॥ एते त्रयोपि भावा भवन्ति जीवस्य अक्षया अमेयाः । त्रयाणामपि शोधनार्थ जिनभणितं द्विविधं चारित्रम् ॥ एए तिणि वि भावा एते त्रयोऽपि भावा ज्ञानदर्शनचारित्रपदार्थास्त्रयः परिणामाः । हवंति जीवस्स जीवस्यात्मनः सम्बन्धिनो भवन्ति न तु पुद्गलस्येति भावः । कथं भूतास्त्रयोऽपि भावा: अक्खयामेया अक्षया अविनश्वराः, अमेया अमर्यादीभूता अनंतानन्ता इत्यर्थः । ज्ञानस्य तावदानन्त्यं भवत्येव लोकालोकव्यापकत्वात् । सम्यक्त्वचारित्रयोः कथमनन्तत्वं नियतात्मप्रदेशस्थितत्वादिति चेन्न तयोरपि तत्सहचारित्वात्, यावन्मात्रं ज्ञानं तावन्मात्रं सम्यग्दर्शनं सम्यक्चारित्रं च तेषामेकी भाव ३१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxmom ३२ षट्पाभूतेनिश्चयात् । तिण्हं पि सोहणत्थे त्रयाणामपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां शोधनार्थे शोधननिमित्तं । जिणभणियं दुविह चारित्तं जिनैर्भणितं प्रतिपादितं द्विविधं चारित्रं दर्शनाचारचारित्राचारलक्षणं, तद्वक्ष्यति । जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥४॥ यद् जानाति तद् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापनात् भवति चारित्रं ॥ जं जाणइ तं गाणं यजानाति तज्ज्ञानं । जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं यत्पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । " कृत्ययुटोऽन्यत्रापि च" इतिवचनात्कर्तरि युट्प्रत्ययः । णाणस्स दंसणस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् समायोगाच्चारित्रं भवति । जिणणाणदिद्विसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं । विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥५॥ जिनज्ञानदृष्टिशुद्धं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् । द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि ॥... जिणणाणदिहिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं जिनस्य सर्वज्ञवीतरागस्य सम्बन्धि यज्ज्ञानं दृष्टिदर्शनं च ताभ्यां शुद्धं पंचविंशतिदोषरहितं प्रथमं तावदेकं सम्यक्त्वचरणचारित्रं दर्शनाचारचारित्रं भवति । विदियं संजमचरणं द्वितीयं संयमचरणं चारित्राचारलक्षणं चारित्रं भवति । जिणणाणसदेसियं तं पि जिनस्य सम्बन्धि यत्सम्यग्ज्ञानं तेन सन्देशितं सम्यनिरूपितं तदपि चारित्रं भवति । उक्तं च मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशतिः॥१॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । ३३ एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाई । परिहरि सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ॥६॥ एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् । परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन ॥ एवं चिय णाऊण य एवं चैव ज्ञात्वा च । सव्वे मिच्छत्तदोस संकाई सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् । परिहरि परिहर हे जीव ! त्वं परित्यज । कथंभूतान् , सम्मत्तमला सम्यक्त्वमलान् पूर्वोक्तश्लोककथितान् पंचविंशतिदोषान् । कथंभूतान् , जिणभणिया सर्वज्ञमणितान् श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिपादितान् । तिविहजोएण मनोवचनकायलक्षणकर्मयोगेन कृत्वा । किं तन्मूढत्रयं ? लोकमूढं, पाखण्डिमूढं, देवतामूढं चेति । तत्र लोकमूढं---- सूर्या? ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः। सन्ध्यासेवाग्निसत्कारो देहगेहार्चनाविधिः ॥१॥ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मूत्रस्य निषेवणं । रत्नवाहनभूवक्षशस्त्रशैलादिसेवनं ॥२॥ आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनों। गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥३॥ वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवता मूढमुच्यते ॥४॥ सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनां। पाषण्डिनां पुरस्कारो शेयं पाषण्डिमोहनं ॥५॥ अष्टौ मदाः के ते?... ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥१॥ षडनायतनानि कानि तानि?--- षटू. ३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेकुदेवगुरुशास्त्राणां तद्भक्तानां गृहे गतिः । षडायतनमित्येवं वदन्ति विदितागमाः ॥१॥ प्रभाचन्द्रस्त्वेवं वदति-मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि त्रीणि त्रयश्च तद्वन्तः पुरुषाः षडनायतनानि । अथवा असर्वज्ञः १ असर्वज्ञायतनं २ असर्वज्ञज्ञानं ३ असर्वज्ञज्ञानसमवेतपुरुषः ४ असर्वज्ञानुष्ठानं ५ असर्वज्ञज्ञानानुष्ठानसमवेतपुरुषश्चेति ६ । शंकादयोऽष्ट यथा-शंका १ कांक्षा २ विचिकित्सा ३ मूढदृष्टि ४ अनुपगृहनं ५ अस्थितीकरणं ६ अवात्सल्यं ७ अप्रभावना चेति ८ अष्टौ शंकादयः । णिस्संकिय णिक्कंखिय णिविदिगिंछा अमूढदिट्टी य । उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अहे ॥७॥ निःशंकितं निःकांक्षितं निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च । उपगूहनं स्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ ॥ णिस्संकिय इत्यादि। निःशंकितं निर्भयत्वं परदर्शने जैनाभासे चामुक्तिमाननत्वं, अञ्जनचोरवजिनवचनमाननं च । णिकंखिय निष्काक्षितं सम्यक्त्वत्रतादिफलेन राज्यदेवत्वेहभवसुखेष्टजनमेलापकत्वादिनिदानस्याकरणं । सीतानन्तमतिसुतारादिवद्व्तदाय च । णिव्विदिगिंछा निर्विचिकित्सा रत्नत्रयपवित्रपात्रजनशरीरमलादिदर्शनेन शूकाया अकरणं उद्दायनमहाराजवत् । अमूढदिही य अमूढदृष्टिश्च जिनवचनेऽशिथिलत्वं रेवतीमहादेवीवत् । उवगृहण उपगूहनं जिनधर्मस्थबालाशक्तजनदोषझंपनं जिनेन्द्रभक्तश्रेष्ठिवत् । ठिदिकरणं स्थितीकरणं सम्यक्त्वव्रतादेर्धेश्यजैनस्य तत्र स्थापनं पुष्पदन्तविप्रस्य वारिषेणवत् । वच्छल्ल वात्सल्यं धर्मस्थजनोपसर्गनिवारणं अकम्पनादेर्विष्णुकुमारमुनिवत् । पहावणा य प्रभावना च जिनधर्मोद्योतनं परधर्मप्रभावविध्वंसनं च वज्रकुमारविद्याधरमुनिवत् । ते अह ते सम्यक्त्वगुणा अष्ट भवन्ति । १ पहावणा अह. ग. घ. । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय । जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ८ ॥ तञ्चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय । यच्चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ॥ तं चेव गुणविसुद्धं तच्चैव सम्यक्त्वं गुणविशुद्धं निःशंकितादिभिरष्टगुणैर्विशुद्धं निर्मलं । जिणसम्मत्तं जिनसम्यक्त्वं जगत्पतिश्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागस्य सम्बन्धिनी श्रद्धा रुद्रादिश्रद्धानरहितं जिनसम्यक्त्त्वमुच्यते । रुद्रादिसम्यक्त्वं किं ? तदुक्तं अग्निवत्सर्वभक्ष्योऽपि भवभक्तिपरायणः। भुक्तिं जीवन्नवाप्नोति मुक्तिं तु लभते मृतः ॥१॥ भवभक्तिपरायणो रुद्रभक्तिपरायणः । सुमुक्खठाणाय सुमोक्षस्थानाय तीर्थकरपरमदेवो भूत्वा सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षस्थानं प्राप्नोति सुमोक्षस्थानं तस्मै सुमोक्षस्थानाय परमनिर्वाणप्राप्त्यर्थमित्यर्थः । जं चरइ णाणजुत्तं यच्चरति यत्प्रतिपालयति यतिः णाणजुत्तं-ज्ञानयुक्तं सम्यक्त्वं ज्ञानसहितं सम्यक्त्वं । अथवा क्रियाविशेषणमिदं । तेनायमर्थः ज्ञानयुक्त यथा भवत्येवं चरति। पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं द्वयोर्दर्शनाचारचारित्राचारयोर्मध्ये सम्यक्त्त्वाचारचारित्रं पढम-प्रथमं भवति । सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा । णाणी अमूढदिही अचिरे पावंति निव्वाणं ॥ ९॥ सम्यक्त्वचरणशुद्धाः संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः । ज्ञानिनः अमूढदृष्टयः अचिरं प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥ १ अस्मादग्रे ग. घ. मुद्रित पुस्तके च इदं गाथासूत्रं वर्तते-- सम्मत्तचरणभट्ठा संजमचरणं चरंति जइ वि गरा। अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिवाणं ॥१॥ इति । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ षट्प्राभृतेसम्मत्तचरणसुद्धा सम्यक्त्वचरणे सम्यक्त्वचारित्रे ये सूरयः शुद्धाः सम्यक्त्वदोषरहिताः सम्यक्त्वगुणसहिताश्च भवन्ति । संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः चारित्राचारे च सुप्रसिद्धाः सुष्टु अतिशयेन प्रकर्षेण सिद्धं चारित्रं येषां ते सुप्रसिद्धाः सर्वलोकविदिता वा सम्यक्त्वपूर्वकचारित्रप्रतिपालका इत्यर्थः । णाणी अमूढदिही ज्ञानिनोऽमूढदृष्टयश्च । अचिरे पावंति निव्वाणं अचिरे स्तोककाले निर्वाणं प्राप्नुवन्ति । अत्र चारित्रस्य मुख्यत्वेऽपि सम्यक्त्वज्ञानयोरपि सामग्र्यमुक्तमिति भावः । वच्छल्लं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए। मम्गगुणसंसणाए अवगृहण रक्खणाए य ॥१०॥ एएहि लक्खणेहिं य लक्खिज्जइ अज्जवेहिं भावेहिं । जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ॥ ११ ॥ वात्सल्यं विनयेन च अनुकम्पया सुदानदक्षया। मार्गगुणसंशनया उपगूहनं रक्षणेन च ॥ एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः। जीव आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन ॥ एएहिं लक्खणेहिं य एतैर्लक्षणैः । जिनसम्यक्त्वं । आराहतो आराधयन् । जीवो लक्खिज्जइ जीव आत्मा लक्ष्यते ज्ञायते । न केवलमेतैर्भावैरपि तु अज्जवेहिं भावेहिं आवै वैश्वाकुटिलपरिणामैश्चोपलक्ष्यते। केन कृत्वा लक्ष्यते ? अमोहेण अमोहेनानझानतया ज्ञानेन विचक्षणतया । विचक्षणं विना सम्यक्त्वाराधकं पुरुष कोऽपि न जानाति सम्यक्त्वपरिणामस्यातिसूक्ष्मत्वात् । अथवा अमोहेण अमोघेन सफलजन्मना पुरुषेण । एतैः कैरित्याह-वच्छल्लं एक तावद्वात्सल्यं धर्मिष्ठजनेषु स्नेहलत्वं सद्यः प्रसूतगौरिव वत्से वत्सलत्वेन Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । सद्दृष्टिर्विचक्षणैर्ज्ञायते । विणएण य विनयेन च विनयगुणेन गुरुजनेष्व 1 भ्युत्थानसम्मुखगमनकरयोटनपादवन्दनादिभिर्गुणैः सद्दृष्टिर्विचक्षणैर्ज्ञायते । अणुकंपाए अनुकम्पया दुखितं जनं दृष्ट्वा कारुण्यपरिणामोऽनुकम्पा तया सद्दृष्टिर्विचक्षणैर्ज्ञायते । कथंभूतयानुकम्पया, सुदाणदच्छाए शोभनदानदक्षया दुःखितजनयोग्यदानविशिष्टया । मग्गगुणसंसणा मार्गगुणशंसनया निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्गः सग्रन्थो वस्त्रादिवेष्टितः कोऽपि मोक्षं न गच्छति इति मोक्षमार्गस्तवनेन सदृष्टिर्विचक्षणैर्ज्ञायते । अवग्रहण उपगूहनं बालाशक्तजनजनितदोषाच्छादनेन सद्द्द्टिर्विचक्षणैर्ज्ञायते । रक्खणाए य मार्गाद्श्यज्जनस्थितीकरणेन सहटिर्विचक्षणैर्ज्ञायते इति क्रियाकारकसम्बन्धः । उच्छाहभावणासंपसंस सेवा कुदंसणे सद्धा । अण्णाण मोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ॥ १२ ॥ उत्साहभावनासंप्रशंसासेवाः कुदर्शने श्रद्धां । अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्त्वम् ॥ ३७ उच्छाहभावणासंपसंससेवा मिध्यादृष्टिकथिताचारे योऽसावु - त्साह उद्यमस्तं, संपसंस - सम्यङ्मनसा वचसा च प्रशंसनं स्तुतिवचनं, सेवा-मिथ्यादृष्टेः करादिना स्पर्शनं । कुदंसणे सद्धा मिथ्यादर्शने श्रद्धां रुचि । अण्णाणमोहमग्गे न विद्यते ज्ञानं येषां तेऽज्ञानास्तेषां मोघो निष्फलो मोहो वा संशयादिरूपो योऽसौ मार्गः संसारदुःखकारी धर्मस्तस्मिन्नज्ञानमोहमार्गे श्रद्धां रुचि कुर्वन् । जहदि जिणसम्मं जिसम्यक्त्वं जहाति मुंचति । उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा । ण जहदि जिणसम्मत्तं कुव्र्वतो णाणमग्गेण ॥ १३ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ षट्प्राभूतेउत्साहभावनासंप्रशंसासेवाः सुदर्शने श्रद्धां। न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण ॥ उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा न जहदि जिणसम्मत्तं उत्साह-उद्यमस्तं कुर्वन्निति सम्बन्धः । भावणा-शरीरात्कर्मणश्चात्मा पृथग्वर्तते इति भेदभावना तां । सपसंस-सम्यक्प्रकारेण मनोवचनकायकर्मभिः प्रशंसामर्हदादीनां स्तुतिं कुर्वन् । तथा सेवां स्नपनपूजनस्तवनजपमादिगुर्वादिपादसंवाहनादिकं च कुर्वन् । मुदंसणे-सम्यग्दर्शने रत्नत्रयलक्षणमोक्षमार्गे तत्वार्थे च श्रद्धां रुचिं कुर्वन् जिनसम्यक्त्वं न जहाति न त्यजति । उत्साहादिकं केन कृत्वा कुर्वन् , णाणमग्गेण ज्ञानमार्गेण सम्यग्ज्ञानद्वारेण । अण्णाणं मिच्छत्तं वजहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते । अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥ १४ ॥ अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे । अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मेऽहिंसायाम् ॥ अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते अज्ञानं वर्जय दूरीकुरु, कस्मिन् सति णाणे-ज्ञाने सम्यग्ज्ञाने सति, अज्ञानस्य ज्ञान प्रत्यनीकं ततः । मिथ्यात्वं वर्जय, कस्मिन् सति सम्यक्त्वे सति मिथ्यात्वस्य सम्यग्दर्शनं प्रतिबन्धकं यतः । अह अथानन्तरं । मोहं परिहर परित्यज । कथंभूतं मोहं, सारंभं सेवाकृषिवाणिज्याद्यारम्भसहितं कस्मिन् सति, धर्मे सति चारित्रे सति । तथाऽऽरंभं परिहर कस्यां सत्यां, अहिंसाए अहिंसायां सत्यां पंचमहाव्रतानि रात्रिभोजनवर्जनषष्ठानि सर्वाण्यप्यहिंसानिमित्तं कथितानि यतः। पव्वज्ज संगचाए पयह सुतवे सुसंजमे भावे । होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ॥ १५ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ॥ 66 , पव्वज्ज संगचाए पयट्ट हे जीव ! त्वं प्रव्रज्यायां प्रवर्तस्व कस्मिन् सति, संगचाए - संगस्य वस्त्रादिपरिग्रहस्य त्यागे सति । तथा हे आत्मन् ! त्वं सुतवे पयट्ट सुतपसि प्रवर्तस्व । कस्मिन् सति, सुसंजमे भावे शोभनसंयमपरिणामे सति । असंयमिनो मासोपवासादियुक्तस्यापि सुतपोऽसद्भावात् । तथा होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे पुत्रकलत्रमित्रधनादिव्यामोहवर्जिते पुरुषे, यस्तु पुत्रादिमोहसहितो भवति तस्य विशिष्टं धर्म्यध्यानं शुक्लध्यानलेशोऽपि न भवति यतः । तथा वीतरागत्वे सति सुविशुद्ध ध्यानं भवतीति तात्पर्य । उक्तं च योगीन्द्रदेवनाम्ना भट्टारकेण जंसु हरिणच्छी हियवडइ तासु न बंभु विचारि । एक्का केम समंति बढ ! बे खंडा पडियारि ॥ १ ॥ मूढस्य नालियबढौ " इति प्राकृतव्याकरणसूत्रं । मिच्छादंसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं । बज्झति मूढजीवा मिच्छेत्ताबुद्धिउद्ण ॥ १६ ॥ मिथ्यादर्शनमार्गे मलिनेऽज्ञानमोहदोषाभ्याम् । बध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्धगुदयेन ॥ ३९ १ यस्य हरिणाक्षी हृदये तस्य नैव ब्रह्म विचारय । एकस्मिन् कथं समायातौ वढ ! द्वौ खड्गौ प्रतिद्वारे ॥ १ ॥ २ अत्र पुस्तके सम्मत्ताबुद्धिउदण इति पाठः किं तु टीकायां मिच्छत्ताबुद्धिउदएण इति पाठः । ग. घ. पुस्तकेऽपि सम्मत्ताबुद्धिउदएण इति पाठः । घ. पुस्तके त्वस्यायं अर्थः प्रकाशितः जीवाः सम्यक्त्वबुद्धयुदयात् सम्यक्त्वम ( क्त्वा) तिप्रकटनात् अज्ञानमोहादिदोषैः मलिनं कृष्णं मिथ्यात्वदर्शनं मार्गं त्यजन्ति मुञ्चन्तीति । क.पुस्तके तु टीकोक्त एव मूलः पाठः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेमिच्छादसणमग्गे मलिणे मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने पापरूपे सति । कैः कृत्वा, अण्णाणमोहदोसेहिं अज्ञानं पंचमिथ्यात्वलक्षणं, मोहः पंचजैनाभासलक्षणः, अज्ञानं च मोहश्चाज्ञानमोहौ तावेव दोषौ ताभ्यामज्ञानमोहदोषाभ्यां बध्यन्ते पापैः वेष्टयन्ते । के ते, मूढजीवा अज्ञानिनः । केन कृत्वा, मिच्छत्ताबुद्धिउदएण मिथ्यात्वस्याबुद्धेश्चाज्ञानस्योदयेन प्रादुर्भावेन । सम्मईसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सद्दहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे ॥ १७॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान् दोषान् ॥ सम्मइंसण पस्सदि सम्यग्दर्शनेन सत्तावलोकनरूपेण विशेषमकृत्वा निराकाररूपेण पश्यति विलोकते । जाणदि णाणेण जानाति ज्ञानेन विशेषरूपेण साकाररूपेण ज्ञानेनात्मा जानाति । कान् पश्यति कान् जानाति, दव्वपज्जाया द्रव्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशांस्तथा पर्यायांश्च जीवस्य नरनारकादयः क्रोधमानमायालोभमोहस्नेहपुण्यपापादयश्च पर्यायास्तान् पश्यति जानाति च । तथा पुद्गलस्य व्यणुकत्र्यणुकचतुरणुकपंचाणुकादिमहास्कन्धत्रैलोक्यपर्यन्ताः पर्यायास्तान् पश्यति जानाति च । धर्मस्य येन रूपेण जीवपुद्गलौ गतिं कुरुतस्तद्रूपाः पर्यायाः । तथाऽधर्मस्य पर्यायाः स्थितिरूपा, जीवादीनां ज्ञातव्याः। कालस्य समयावलिप्रभृतयः पर्यायाः । उक्तं च आवलि असंखसमया संखेजावलिहिं होइ उस्सासो। सत्तुस्सासा थोओ सत्तत्थोओ लवो भणिओ॥१॥ १ आवलिरसंखसमया संख्येयावलिभिर्भवति उच्छ्वासः ॥ सप्तोच्छासाः स्तोकः सप्तस्तोको लवो भणितः ॥१॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । अहत्तीसद्धलवा नाली दो नालिया मुहुत्तं तु । समऊणं तं भिण्णं अंतमुहुत्तं अणयविहं ॥२॥ एकेन समयेन न्यूनो मुहूर्तो भिन्नमुहूर्तः कथ्यते। अन्तर्मुहूर्तस्त्वनेकप्रकारः । के तेऽनेकप्रकारा अन्तर्मुहूर्तस्येत्याह-आवल्युपरि एकः समयोऽधिको यदा भवति तदा जघन्योन्तर्मुहूर्तो भवति । एवमावल्युपरि द्वयादयः समयाश्चढन्ति ते सर्वेऽप्यन्तर्मुहूर्ता भवन्ति यावत्समयोनो मूहूर्तः । एवमहोरात्रपक्षमासयनवर्षपूर्वपल्योपमसागरोपमावसर्पिण्युत्सर्पिण्यादयः कालस्य पर्याया ज्ञातव्याः । आकाशस्य तु पर्याया घटाकाश: पटाकाश: स्तम्भाकाश इत्यादयः । सम्मेण य सद्दहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति रोचते न केवलं श्रद्धत्ते परिहरदि य-परिहरति च कान् , चरित्तजे दोसे-चारित्रजान् दोषानिति सम्बन्धः। एए तिणि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स । नियगुणमाराहतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ॥१८॥ एते त्रयोपि भावा भवन्ति जीवस्य मोहरहितस्य । निजगुणं आराधयन् अचिरेणापि कर्म परिहरति ॥ एए तिणि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स एते त्रयोऽपि भावाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणाः परिणामा भवन्ति जीवस्यात्मनः । कथंभूतस्य जीवस्य, मोहरहितस्य चारित्रमोहापंचविंशतिभेदादहितस्य वर्जितस्य । नियगुणमाराहंतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ निजगुणं शुद्धबुद्धकस्वभावमात्मगुणं ज्ञानध्यानस्वरूपमाराधयन्नचिरेण स्तोककालेन कर्म परिहरति सिद्धो भवति । संखिज्जमसंखिज्जगुणं च सासारिमेरुमित्ता णं। सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ १९ ॥ १ अष्टत्रिंशाधलवा नाली व नालिके मुहूर्त तु। समयोनः स भिन्नः अन्तर्मुहूर्तोऽनेकविधः ॥ २ ॥ - - - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ षट्प्राभृतेसंख्येयामसंख्येयगुणां सर्षपमेरुमात्रां पं । सम्यक्त्वमनुचरन्तः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः ॥ संखिज्ज संख्येयगुणां निर्जरां सम्यक्त्वं प्रतिपालयन्तो धीरा योगीश्वराः प्राप्नुवन्तीति । असंखिज्जगुणं असंख्येयगुणां निर्जरां । अणुचरंता चारित्रं पालयन्तो धीरा योगीश्वराः । करंति-कुर्वन्ति । तदनन्तरं दुक्खक्खयं करंति सर्वकर्मक्षयादनन्तर मोक्षं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कथंभूतां संख्येयगुणामसंख्येयगुणां च निर्जरां, सासारिमेरुमित्ता णं सर्षपमेरुमात्रां । सम्यक्त्वनिर्जरायाः सकाशात् चारित्रनिर्जरा बहुतरेति भावः । णं इति वाक्यालंकारे । दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे निराया। सायारं सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु निरायारं ॥ २० ॥ द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारम् । सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते निरागारम् ॥ दुविहं संजमचरणं द्विविधं संयमचरणं द्विप्रकारश्चरित्राचारः । कौ तौ द्वौ प्रकारौ, सायारं तह हवे निरायारं सागारं तथ भवेन्निरागारं । सागारं कुत्र भवति, सायारं सग्गंथे. सागारं चारित सग्रन्थे गृहस्थे भवति । तर्हि निरागारं चारित्रं कस्मिन् भवति, परिग्गहा रहिय खलु निरायारं परिग्रहाद्रहिते निम्रन्थे निरम्बरे निरागारं चारित्रं वेदितव्यमित्यर्थः । सायारं-अथ सागारं चारित्राचारं निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्याःदंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बंभारंभ परिग्गह अणुमण उदिह देसविरदो य ॥२१॥ दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचित्तं रात्रिभुक्तिश्च । ब्रह्मचर्य आरंम्भः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्टः देशविरतश्च ॥ ___ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभतं । ___ अष्टौ मूलगुणाः । ते के, वटफलानामभक्षणं १ पिप्पलफलवर्जनं २ "प्लक्षो जटी पर्कटी स्यात्" तत्फलनिवारणं ३ उदुंबरो जघने फलामलयुः गूलर इति देश्यात् तत्फलनिषेधः ४ कठंजर कठ्बर अंजीर इति देश्यात् तत्फलानामभक्षणं मद्य ६ मांस ७ मधु ८निषेध इत्यष्टौ मूलगुणाः । अथवा मद्यपलमधुनिशाशनपंचफलीविरतिपंचकातनुती । जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः॥१॥ सप्तव्यसनवर्जनं । उक्तं च--- मद्यमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गानाः। महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥१॥ सम्यक्त्वप्रतिपालनं परशास्त्राणामश्रवणमिति विशुद्धमतिः । मूलकनालिकापद्मिनीकन्दलशुनकन्दतुंबकफलकुशुंभशाककलिंगफलसूरणकन्दत्यागश्च । अरणीपुष्पं वरणपुष्पं सौभाञ्जनकुसुमं करीरपुष्पं कांचनारपुष्पमिति पंचपुष्पत्यागः । लवणतैलघृतधृतफलसन्धानकमुहूर्तद्वयोपरिनवनीतमांसादिसेविभाण्डभाजनवर्जनं । चर्मस्थितजलस्नेहहिंगुपरिहारः। अस्थिसुराचर्ममांसरक्तपूयमलमूत्रमृताङ्गिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाचाण्डालादिदर्शनात्तच्छब्दश्रवणाच्च भोजनं त्यजेत् । सुललितपुष्पितस्वादचलितमन्नं त्यजेत् । षोडशप्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत् । द्विदलान्नमिश्रं दधि तक्रं स्वादितं सम्यक्त्वमपि मलिनयेत् । ताम्बूलौषधजलं रात्रौ त्यजेत् । एष सर्वोऽपि दर्शनप्रतिमाचारः । वय द्वादशवतानि, अहिंसा स्थूलवधाद्विरमणं, सत्यं स्थूलसत्यवचनं, स्थूलमचौर्य, ब्रह्मचर्य स्वदारसन्तोषः परदारनिवृत्तिः कस्यचित्सर्वस्त्रीनिवृत्तिः, परिग्रहपरिमाणवतं, दिग्विदिक्परिमाणविरतिः, अनर्थदण्डपरिहारः, भोगोपभोगपरिमाणमिति गुणवतत्रयं, सामायिकं, १ क. पुस्तके तु धृतशब्दो नास्ति । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते प्रोषधोपवासः, अतिथिसंविभागः, सल्लेखनामरणं चेति शिक्षाव्रतचतुष्टयं । सामाइय त्रिकालसामायिकं । पोसह पर्वोपवासः, । सचित्त सचित्तस्याभक्षण | रायभत्ते य रात्रिभोजन परिहारो दिवाब्रह्मचर्य, । बंभ सर्वथा ब्रह्मचर्ये । आरंभ सेवाकृषिवाणिज्यादिपरिहारः । परिग्गह वस्त्रमात्रपरिग्रहस्वीकारः सुवर्णादिवर्जनं । अणुमण विवाहादिकर्मानुपदेशः । उद्दि उद्दिष्टाहारपरिहारः । देसविरदो य एवं सागारचारित्रं । ४४ पंचेवणुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिणि । सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं ||२२|| पचैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि । शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारम् ॥ पंचेवणुव्वयाई पंचैवाणुव्रतानि भवन्ति । गुणव्वयाई हवंति तह तिष्णि गुणव्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि । सिक्खावय चत्तारि शिक्षाव्रतानि चत्वारि भवन्ति । संजमचरणं च सायारं संयमचरणं च सागारं भवति । एतानि द्वादशव्रतानि पूर्वमेवसूचितानि । धूले तसकाय हे धूले मोसे तितिक्खधूले य । परिहारो परपिम्मे परिग्गहारंभपरिमाणं ॥ २३ ॥ स्थूले सकायवधे स्थूलायां मृषायां तितिक्षास्थूले च । परिहारः परप्रेम्लि परिग्रहारम्भपरिमाणम् ॥ धुले तसकायवहे स्थूले सकायवधे । परिहार इति शब्दश्चतुर्षु सम्बध्यते । धूले मोसे स्थूलमृषावादे परिहारः । तितिक्खधूले यतितिक्षास्थूले चौर्यस्थूले परिहारः । परिहारो परपिम्मे परिहारः क्रियते कस्मिन् परप्रेमिल परदारे । परिग्गहारंभपरिमाणं परिग्रहाणां सुवर्णादीनामारंभाणां सेवाकृषिवाणिज्यादीनां परिमाणं क्रियते । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । ४५ दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेवगुणव्वया तिणि ॥२४॥ दिग्विदिग्मानं प्रथम-अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम् । भोगोपभोगपरिमाणं-इदमेव गुणव्रतानि त्रीणि ॥ दिसिविदिसिमाण पढमं दिग्विदिङ्मानं परिमाणं प्रथमं गुणवतं ज्ञातव्यं । अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयं गुणवतं भवति । भोगोपभोगपरिमा भोगोपभोगपरिमाणं तृतीयं गुणव्रतं भवति । भोजनादिकं भोगः । वस्त्रस्त्रीप्रमुखमुपभोग इत्यर्थः। इयमेव गुणव्वया तिणि इदमेवाचरणं त्रीणि गुणव्रतानि भवन्ति । सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥२५॥ सामायिकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधो भणितः। तृतीयमतिथिपूज्यं चतुर्थ सल्लेखना अन्ते ॥ समाइयं च पढमं सामायिकं च प्रथमं शिक्षाव्रतं । चैत्यपंचगुरुभक्तिसमाधिभक्तिलक्षणं दिनं प्रति एकवारं द्विवारं त्रिवार वा व्रतप्रति मायां सामायिकं भवति । यत्तु सामायिकप्रतिमायां सामायिकं प्रोक्तं तत्रीन् वारान् निश्चयेन करणीयमिति ज्ञातव्यं । विदियं च तहेव पोसहं भणियं द्वितीयं च तथैव प्रोषधोपवासं शिक्षाव्रतं भणितं प्रतिपादितं अष्टम्यां चतुर्दश्यां च । तदपि त्रिविधं, चतुर्विधाहारपरिवर्जनमुत्कृष्ट, जलसहितं मध्यमं, आचाम्लं जघन्यं प्रोषधोपवासं भवति यथाशक्ति कर्तव्यं । तइयं च अतिहिपुज्जं तृतीयं चातिथिपूज्यं, न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः । अथवा संयमलाभार्थमतति गच्छति उदंडचर्या करोतीत्यतिथिर्यतिः स पूज्यो नवगुणसप्तगुणसमन्वितेन श्रावकेण यस्मिन् शिक्षाव्रते तदतिथिपूज्यं । चउत्थ सल्लेह Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते ~~..NAYAVARANAAR णा अंते चतुर्थ शिक्षाव्रतमन्ते मरणकाले सल्लेखना कायकषायतनूकरणमिति तात्पर्य । एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं ।। सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिकलं वोच्छे ॥ २६ ॥ एवं श्रावकधर्म संयमचरणं उपदेशितं सकलं । शुद्धं संयमचरणं यतिधर्म निष्कलं वक्ष्ये ॥ एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं एवममुना प्रकारेण श्रावकधर्मलक्षणं संयमचरणं चारित्राचारः, उपदेशितं भवन्तः कुर्वन्त्विति प्रतिपादितं, सकलं समग्रं परिपूर्ण, किंचिद्विशेषरूपं तु न प्रतिपादितमित्यर्थः । उक्तं च-- बिल्वालाबुफले च त्रिभुवनविजयी शिलीध्रकं न सेवते । आ पंचदशतिथिभ्यः पयोऽपि वत्सोद्भवात्समारभ्य ॥१॥ तथा च-- दृतिप्रायेषु पानीयं स्नेहं च कुतपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चावतोचिताः॥१॥ त्रिभुवनविजयीति भंगा तदुपलक्षणं सूक्ष्मकणत्वचाहिफेनादीनां । शिलीध्रकं गोमयच्छत्रं केतकीपुष्पदण्डिका च। चर्मतुलादिधृतं गुडादिकं नादेयं । अभ्युक्षणाचमनादिकं च विशेषशास्त्रोक्तं ज्ञातव्यं । सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे शुद्धं परिपूर्णविशुद्धिसहितं यतिधर्म निष्कलं निष्कलंकं वक्ष्ये कथयिष्यामि । इति वचनाच्छावकधर्मस्य यतिधर्मस्य च तारतम्येनोत्कृष्टता सूचिता भवतीति ज्ञातव्यम् । पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविसकिरियासु । पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं निरायारं ॥ २७ ॥ पञ्चेन्द्रियसंवरणं पञ्चव्रताः पञ्चविंशतिक्रियासु । पञ्चसमितयः तिस्रो गुप्तयः संयमचरणं निरागारम् ॥ ___ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । ४७ पंचिंदियसंवरणं पंचानामिन्द्रियाणां संवरणं कूर्मवत्संकोचनं । पंचवया पंचव्रताः । व्रतशब्दस्य पुन्नपुंसकत्वमुक्तमस्ति तेनात्र पुंस्त्वं सूचितं । तांस्तु विवरिष्यति । पंचविंसकिरियासु पंचविंशतो क्रियासु सतीषु । ते पंचव्रता भवन्तीति भावः। पंचसमिदि पंचसमितयो भवन्ति । तयगुत्ती तिस्रो गुप्तयः । संजमचरणं निरायारं निरागारमनगार चारित्राचारो भवतीति द्वारगाथा वेदितव्या । अमणुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य । ण करेइ रायदोसे पंचिंदियसंवरो भणिओ ॥२८॥ अमनोज्ञे च मनोज्ञे सजीवद्रव्ये अजीवद्रव्ये च । __न करोति रागद्वेषौ पंचेन्द्रियसंवरो भणितः॥ अमणुण्णे य अमनोज्ञे चासुन्दरे च । मणुण्णे मनोज्ञे मनोहरे। सजीवदव्वे इष्टवनितादौ । अजीवदव्वे य अजीवद्रव्ये चाचेतनद्रव्ये अशनवसनकनककाचादिके । ण करेदि रायदोसे न करोति रागद्वेषौ । मनोज्ञे रागं न करोति। अमनोज्ञे द्वेषं न करोति । पंचिंदियसंवरो भणिओ पंचेन्द्रियसंवरो भणितः प्रतिपादितः।। अथ पंचवया इत्येतत्पदविवरणार्थमाहहिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य । तुरियं अबंभविरई पंचम संगम्मि विरई य ॥ २९ ॥ हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिरदत्तविरतिश्च । तुरीयमब्रम्हविरतिः पञ्चमं संगे विरतिश्च ॥ हिंसाविरइ अहिंसा हिंसाविरतिरहिंसा प्राणातिपातविरतिर्भवति । असच्चविरई असत्यविरतिद्धितीयं महाव्रतं भवति । अदत्तविरई य अदत्तविरतिश्चादत्ताद्विरतिरदत्तविरतिस्तृतीयं महावतं भवति । तुरियं अबंभविरई अब्रह्मविरतिमैथुनाद्विरमणं तुरियं-चतुर्थ महाव्रतं ज्ञातव्यं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पट्प्राभूते "चतुरो यदीयौ च लोपश्चेति" सूत्रसाधुत्वात् । पंचम संगम्मि विरई य पंचमं महाव्रतं भवति । का संगे परिग्रहे विरतिश्च परिग्राहद्विरमणमित्यर्थः । सार्हति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं | जं च महल्लाणि तदो महल्लया इत्तहे याई || ३० ॥ साधयन्ति यन्महान्तः आचरितं यद्महत्पूर्वैः । यच्च महान्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि । साहंति जं महल्ला साधयन्ति यद्यस्मात्कारणात्प्रतिपालयन्ति । के ते, महल्ला - महान्तो गुरूणामपि गुरवः पुरुषाः । आइरियं जं महलपुव्वेहिं आचरितमादृतं वा यद्यस्मात्कारणात् महलपुव्वेहि-महद्भिः गुरुभिः पूर्वैः चिरन्तनाचार्यैः वृषभादिभिर्महावीरपर्यन्तैः वृषभसेनगौतमान्तगणधरैश्व जम्बूस्वामिपर्यन्तैश्च । जं च महल्लाणि यच्च यस्मात्कार - णात् महल्लाणि-स्वयं महान्ति गुरुतराणि । तदो महल्लया इत्तहे ततस्तस्मात्कारणात् इत्तहे- एतस्माद्धेतोः तानि महाव्रतानीत्युच्यन्ते । 1 वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमदी सुदाणणिक्खेवो । अवलोय भोयणाए हिंसाए भावणा होंति ।। ३१ ॥ वचोगुप्तिः मनोगुप्तिः ईयीसमितिः सुदाननिक्षेपः । अवलोक्यभोजनेन अहिंसाया भावना भवन्ति ॥ वयगुत्ती वचोगुप्तिरेका । मणगुत्ती मनोगुप्तिर्द्वितीया भावना । इरियासमिदी ईर्यासमितिस्तृतीया भावना | सुदाणणिक्खेवो आदाननिक्षेपः पुस्तककमण्डल्वादिकमुपकरणं पूर्व विलोक्य मृदुना मयूरपिच्छेन प्रतिलिख्य गृह्यते म्रियते च सुदाननिक्षेप उच्यते । अवलोयभोयणाए अवलोक्य पुनः पुनः दृष्ट्वा भोजनं क्रियतेऽवलोक्य भोजनं तेनावलोक्यभोजनेन । प्राकृते लिंगभेदः नपुंसकस्य स्त्रीत्वं । एता अहिंसामहाव्रतस्य पंचभावना भवन्तीति वेदितव्यं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ चारित्रप्राभृतं । कोहभयहासलोहामोहा विवरीयभावणा चेव । विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होति ॥ ३२ ॥ क्रोधभयहास्यलोभमोहा विपरीतभावनाः चव । द्वितीयस्य भावना इमाः पंचैव च तथा भवन्ति ॥ कोहभयहासलोहामोहा क्रोधश्च भयं च हासश्च लोभश्च मोहश्च क्रोधभयहासलोभमोहाः । विवरीयभावणा चेव विपरीतभावनाश्चैव । एतेषां पंचानां विपरीतभावना: अक्रोधनः, अभयः, अहासः, अलोभः, अमोहश्चेति । उक्तं च गौतमेन भगवता अंकोहणो अलोहो य भयहस्सविवजिदो। अणुवीचीभासकुसलो विदियं वदमस्सिदो॥१॥ अत्रामोहशब्देनानुवीचीभाषाकुशल इति लभ्यते । वीची वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते साऽनुवीचीभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचीभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमनुलंध्य भाषणीयमित्यर्थः । उक्तं च उमास्वामिभट्टारकेण-- “क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पंच" विदियस्स भावणाए द्वितीयस्य महाव्रतस्य भावनाः । ए इमाः पंचभावनाः । होति भवन्ति । सुण्णायारनिवासो विमोचितावास जं परोधं च । एसणसुद्धिसउत्तं साहम्सीसंविसंवादो ॥ ३३॥ शून्यागारनिवासो विमोचितावासः यत् परोधं च । एषणाशुद्धिसहितं सधर्मसमविसंवादः ॥ सुण्णायारनिवासो शून्यागारेषु गिरिगुहातरुकोटरादिषु निवासः क्रियते तथा सति अचौर्यव्रतभावना प्रथमा भवति । विमोचितावास १ अक्रोधनोऽलोभश्च भयहास्यविवर्जितः । __ अनुवीचीभाषा कुशलो द्वितीयं व्रतमाश्रितः ॥ १ ॥ षद. ४ ___ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० षट्प्राभूते-- उद्वसप्रामादिषु विमोचितावासेषु धाट्यादिभिरुद्वसेषु कृतेषु निवासः क्रियतेऽचौर्यव्रतस्य भावना द्वितीया भवति । जं परोधं च परेषामुपरोधो न क्रियते भाटकाद्यधिकं स्वामिना दत्वा स्वयं न निरुध्यतेऽचौर्यव्रतभावना तृतीया भवति परोपरोधस्याकरणमित्यर्थः । एसणसुद्धिसउत्तं एषणाशुद्धिसंयुक्तं सहितं, आगमानुसारेण भैक्ष्यशुद्धिरचौर्यव्रतभावना चतुर्थी भवति । साहम्मीसंविसंवादो सधर्माणं संमुखो भूत्वा सम्यक्प्रकारेण विसंवादो विगतसंवादो विवादो न क्रियतेऽचौर्यव्रतभावना पंचमी भवति । महिलालोयणपुव्वरइसरणसंसत्तवसहिविकहाहि । पुहियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ॥३४॥ महिलालोकनपूर्वरतिस्मरणसंसक्तवसतिविकथामिः । पुष्टरसैः विरतः भावनाः पञ्चापि तुर्ये ॥ महिलालोयण महिलाया आलोकनं स्त्रीमनोहराङ्गनिरीक्षणं तस्माद्विरतः पराङ्मुखः । पुव्वरइसरण पूर्वरतस्मरणं पूर्व या स्त्रीभिः क्रीडाकृता तस्याः स्मरणं चिन्तनं तस्माद्विरतः । संसत्तवसहि स्त्रीणां समीपतरे या वसतिनिवासस्तस्माद्विरत: निजशरीरसंस्काररहित इत्यर्थः । विकहाहि विकथाया विरतः स्त्रीरागकथाविवर्जित इत्यर्थः । पुहिरसेहिं विरओ पु ( पौ ) ष्टिकरसस्य सेवारहित: वृष्यरसस्यानास्वादक इत्यर्थः यस्मिन् रसे सेविते वृषवत् शंडवत्कामी भवति स रसो वृष्यः कथ्यते वाजीकरणरसं न सेवते । भावण पंचावि तुरियम्मि एताः पंचापि भावनास्तुरीये चतुर्थे ब्रह्मचर्यव्रते भवन्ति । अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु । रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होति ॥ ३५ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु । रागद्वेषादीनां परिहारो भावना भवन्ति ॥ अपरिग्गह समणुण्णेसु अपरिग्रहवते, अत्र लुप्तविभक्तिकं पदं। समगुण्णेसु-समनोज्ञेषु मनोज्ञसहितेषु अमनोज्ञेषु चेति शेषः।सद्दपरिसरसरूवगंधेसु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु पंचेन्द्रियविषयेषु । रायबोसाईणं रागद्वेषादीनां रागस्य द्वेषस्य च । आदिशब्दात्पादपूरणमेव । मनोज्ञेषु विषयेषु रागो न क्रियतेऽमनोज्ञेषु विषयेषु द्वेषो न क्रियते । इति रागद्वेषपरिहारः पंचप्रकारः पंचभावना भवन्तीति ज्ञातव्यं । इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो । संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ ॥३६॥ ईर्या भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः । संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पञ्च समितीः ॥ इर्यासमितिः चतुर्हस्तवीक्षितमार्गगमनं । भाषासमितिः आगमानुसारेण वचनं । एषणासमितिः चर्मणाऽस्पृष्टस्योद्गमोत्पादादिदोषरहितस्य भोजनस्य पुनः पुनः शोधितस्य प्रासुकस्य भोजनस्य ग्रहणं या समितिर्भवति सा तृतीया समितिः । आदाण चेव आदानं चैव यत्पुस्तककमण्डलुप्रभतिकं गृह्यते तत्पूर्व निरीक्ष्यते पश्चान्मृदुना मयूरपिच्छेन प्रतिलिख्यते पश्चागृह्यते चतुर्थी समितिर्भवति । णिक्खेवो यत्किचिद्वस्तु पुस्तककमण्डलुमुख्यं क्वचिन्निक्षिप्यते मुच्यते ध्रियते तन्निक्षेपस्थानं दृष्ट्वा तथैव प्रतिलिख्य च ध्रियते मयूरपिच्छस्यासन्निधाने मृदुवस्त्रेण कदाचित्तथा क्रियते निक्षेपणा नाम्नी पंचमी समितिर्भवति। संजमसोहिनिमित्ते एतत्समितिपंचकं संयमस्य महाव्रतपंचकस्य शोधिनिमित्तं भवति। यो मयूरपिच्छवर्जितः साधुः स मासोपवासादिकं कुर्वन्नपि न शुद्धयतीति श्रीकुन्दकुन्दभगवदभिप्रायः ।खंति जिणापंच समिदीओ खंति Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पद्माभृते ख्यान्ति प्रकथयन्ति के, जिणा - तीर्थकर परमदेवाः सामान्यकेवलिनः श्रुतकेवलिनश्चेति भावः । किं ख्यान्ति, पंचसमिदीओ-पंच समितीरिति तात्पर्यार्थः । विस्तरस्तु वट्टकेरलवीरनन्द्यादिविरचिताचारप्रन्थेषु ज्ञातव्यः । भव्वजणचोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । गाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेह || ३७ ॥ भव्यजन बोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि || भव्वजणवोहणत्थं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयप्राप्तियोग्या ये ते भव्यजनास्तेषां बोधनार्थं सम्बोधननिमित्तं । जिणमग्गे जिनस्य श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञस्य मार्गे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणोपलक्षिते मोक्षमार्गे । जिणवरेहिं जह भणियं श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञैर्यथा भणितं प्रतिपादितं । किं तद्भणितं, णाणं णाणसरूवं ज्ञानं व्यवहारनयेन सम्यग्ज्ञानं तथा ज्ञानस्य स्वरूपं स्वभावः । उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना ज्ञानस्य स्वरूपंअन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ १ ॥ safaधं ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं च निश्चयनयेन । अप्पाणं तं वियाणेह आत्मानं तज्ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं च हे भव्य ! त्वं विजानीहि सम्यग्विचारयेति क्रियाकारकसम्बन्धः । जीवाजीव विहत्ती जो जागइ सो हवेइ सण्णाणी । रायादिदोसर हिओ जिणसासणे मोक्खमग्गुत्ति ॥ ३८ ॥ जीवाजीविभक्ति यो जानाति स भवेत् सज्ज्ञानः । रागादिदोषरहितो जिनशासने मोक्षमार्ग इति ॥ जीवाजीव विहत्ती जीवस्यात्मद्रव्यस्य, अजीवस्य पुद्गलधर्माधर्म कालाकाशलक्षणस्य पंचभेदस्य विभक्तिं विभंजनं विहचनमिति देश्यात् । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । ५३ जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी यो जानाति स भवेत् सज्ज्ञानः । रायादिदोसरहिओ स ज्ञानी कथंभूतः, रागादिदोषरहितः रागद्वेषमोहादिदोषरहितः । जिणसासणे मोक्खमग्गुत्ति जिनशासने मोक्षमार्ग इति । दसणणाणचरित्तं तिण्णि वि जाणेह परमसद्धाए । जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ॥ ३९ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रं त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया। यज्ञात्वा योगिनो अचिरेण लभन्ते निर्वाणम् ॥ दंसणणाणचरित्तं दर्शनज्ञानचारित्रं । तिणि वि जाणेह परमसद्धाए त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया प्रकृष्टरुच्या। जं जाणिऊण जोई यद्दर्शनज्ञानचारित्रं ज्ञात्वा योगिनः । अइरेण लहंति णिव्वाणं अचिरेण स्तोककालेन लभन्ते प्राप्नुवन्ति किं तनिर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमिति । पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता । होति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥ ४०॥ प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ।। पाऊण णाणसलिलं प्राप्य ज्ञानसलिलं लब्ध्वा सम्यग्ज्ञानपानीयं । णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता निर्मलो निरतिचारः, सुविशुद्धो रागद्वेषमोहादिहितः, भावो निजात्मपरिणामस्तेन संयुक्ताः सहिताः पुरुषाः । होति सिवालयवासी भवन्ति शिवालयवासिनः सर्वकर्मक्षयलक्षणनिर्वाणपदनिवासिनो भवन्ति । तिहुवणचूडामणी सिद्धा त्रिभुवनचूडामणयस्त्रैलोक्यशिरोरत्नानि ते पुरुषाः सिद्धा भवन्ति-आत्मोपलब्धिवन्तो भवन्ति । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेणाणगुणेहि विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय जाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ॥४१॥ ज्ञानगुणैविहीना न लभन्ते ते स्विष्टं लाभम्।। इति ज्ञात्वा गुणदोषौ तत् सद्ज्ञानं विजानीहि ॥ णाणगुणेहि विहीणा ज्ञानमेव गुणो जीवस्योपकारकः पदार्थस्तेन विहीना रहिताः । ण लहंते ते सुइच्छयं लाहं न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति ( ते ) सुष्ठु इष्टं लाभं मोक्षं । उक्तं च गाणविहीणहं मोक्खपउ जीव म कासु वि जोइ। बहुयई सलिलविरोलियई करु चोप्पडउ न होइ ॥१॥ इय गाउं गुणदोसं इति पूर्वोक्तप्रकारेण गुणं दोषं च ज्ञात्वा ज्ञानस्य गुणं, अज्ञानस्य दोषं विज्ञाय । तं सण्णाणं वियाणेहि तत्तस्मात्कारणात् , सत्समीचीनं, ज्ञानं विजानीहीति तात्पर्यार्थः । चारित्तसमारूढो अप्पासु परंण ईहए णाणी । पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥४२॥ चारित्रसमारूढ आत्मनः परं न ईहते ज्ञानी। प्राप्नोति अचिरेण सुखं अनुपमं जानीहि निश्चयतः ॥ चारित्तसमारूढो चारित्रसमारूढश्चारित्रं प्रतिपालयन् पुमान् । अप्पासु परं ण ईहए णाणी आत्मनः सकाशात्पां इष्ट स्रग्वनितादिकं न ईहते न वाञ्छति कोऽसौ, ज्ञानी ज्ञानवान् पुमान् । उक्तं च स (श) मसुखशीलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः। स्थलमपि दहति झषाणां किमंग ! पुनरडामगाराः ॥१॥ पावइ अइरेण सुहं प्राप्नोत्यचिरेण स्तोककालेन सुखमनन्तसौख्यं । अणोवमं जाण णिच्छयदो कथंभूतं सुखं, अनुपममुपमारहितं जानीहि हे भव्य ! त्वं णिच्छयदो-निश्चयतः निःसन्देहानिश्चयनयाद्वा । एवं संखेवेण य भणियं णाणेण वीयराएण । सम्मत्तसंजमासयदुहं पि उदेसियं चरणं ॥४३॥ ___ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण । सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम् ॥ एवं संखेवेण य एवममुना प्रकारेण संक्षेपेण च । भणियं णाणेण वीयराण भणितं प्रतिपादितं णाणेण ज्ञानेन ज्ञानरूपेण ज्ञानस्वभावेन केवलज्ञानिना सर्वज्ञेन वीतरागेण रागद्वेषमोहादिभिरष्टादशदोषरहितेन । किं भणितं, सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि सम्यक्त्वसंयमाश्रययोर्द्वयोरपि दर्शनाचारचारित्राचारयोर्द्वयोरपि । उद्देसियं चरणं उद्देशित मुद्देशमात्रं संक्षेपेण चारित्रं प्रतिपादितं । विस्तरेण तु वट्टकेरलादौ ज्ञातव्यं । भावेह भावसुद्धं फुड रइयं चरणपाहुडं चेव । लहु चउगइ चहऊणं अचिरेणऽपुणब्भवा होह || ४४|| भावयत भावशुद्धं स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव । लघु चतुर्गतीः त्यक्त्वा अचिरेणाऽपुनर्भवा भवत ॥ भावेह भावसुद्धं भावयत भावनाविषयी कुरुत यूयं हे भव्याः । । फुड रइयं चरणपाहुडं चेव स्फुटं प्रकटार्थ रचितं चरण प्राभृतं चारित्रसारं । चेवशब्दाद्दर्शनाचरणं चोद्देशितं । लहु चउगइ चइऊणं लघु शीघ्रं चतुर्गतीस्त्यक्त्वा नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतीश्चतस्रः परिहाय । अचिरेणsपुण्णब्भवा होह अचिरेण स्तोककालेन - इतस्तृतीये भवेऽपुनर्भवाः सिद्धाः भवत यूयं । सिद्धिगतिं पंचमीं गतिं प्राप्नुत यूयमिति भद्रम् | - इति श्रीपद्म नन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्र प्रीवाचार्यैलाचार्यद्धपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन सीमन्धरस्वामिज्ञानसम्बोधितभव्यजीवेन श्रीजिनचंद्रसूरिभट्टारक पट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृते ग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना - श्रीमल्लि भूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानि तेनोभयभाषाकवि चक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता चरणामृत टीका समाप्ता । ५५. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । 40अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं । सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं ॥१॥ अर्हद्भाषितार्थ गणधरदेवैर्ग्रथितं सम्यक् । सूत्रार्थमार्गणार्थ श्रमणाः साधयन्ति परमार्थम् ॥ अरहंतभासियत्थं अर्हद्भिस्तीर्थकरपरमदेवैर्भाषितोऽर्थः सूत्रं भवति। गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं गणधरदेवैश्चतुभिर्जानैः सम्पूर्णैरष्टमहासिद्धिसहितैस्तीर्थकरयुवराजैः गंथियं-पदै रचितं, सम्म-सम्यक् पूर्वापरविरोधरहितं शास्त्रं सूत्रं भवति । सुत्तत्थमग्गणत्थं सूत्रार्थमार्गणं सूत्रार्थविचारः सोऽर्थः प्रयोजनं यस्मिन् सूत्रे तत्सूत्रार्थमार्गणार्थ । तेन शुक्लध्यानद्वयं भवति । तेन सवणा साहंति परमत्थं सूत्रार्थेन श्रवणाः सदृष्टयो दिगम्बराः परमार्थ मोक्षं साधयन्ति-आत्मवशे कुर्वन्ति तेन कारणेन सूत्रं मोक्षहेतुरिति भावार्थः । सुत्तम्मि जं सुदिह आइरियपरंपरेण मग्गेण । णाऊण दुविहसुत्तं वट्टइ सिवमंग्ग जो भव्वो ॥२॥ सूत्रे यत् सुदृष्टं आचार्यपरम्परेण मार्गेण ।। ज्ञात्वा द्विविधसूत्रं वर्तते शिवमार्गे यो भव्यः॥ सुत्तम्मि जं सुदिहं सूत्रे यत् सुष्टु अतिशयेनाबाधिततया वा दृष्टं प्रतिपादितं । आइरियपरंपरेण मग्गेण आचार्याणां परंपरा श्रेणियंत्र मार्गे स आचार्य परम्परः आचार्यप्रवाहयुक्तो मार्गस्तेन मार्गेण । कोऽसौ मार्ग इति चेदुच्यते-श्रीमहावीरादनन्तरं श्रीगौतमः सुधर्मो १ मग्गि. ग. घ. । मग्गे. क. । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । जम्बूश्चेति त्रयः केवलिनः । विष्णुः नन्दिमित्रः अपराजितः गोवर्धनः भद्रबाहुश्चेति पंच श्रुतकेवलिनः । तदनन्तरं, विशाखः प्रौष्ठिलः क्षत्रियः जयसः नागसेन: सिद्धार्थः धृतिषेण: विजयः बुद्धिलः गंगदेवः धर्मसेनः इत्येकादश दशपूर्विणः । नक्षत्र: जयपालः पाण्डुः ध्रुवसेनः कंसाश्चेति पंचैकादशाङ्गधराः । सुभद्रः यशोभद्रः भद्रबाहुः लोहाचार्यः एते चत्वार एकाङ्गधारिणः । जिनसेनश्च । अर्हद्वलि: माघनन्दी धरसेनः पुष्पदन्तः भूतबलिः जिनचंद्रः कुन्दकुन्दाचार्यः उमास्वामी समन्तभद्रस्वामी शिवकोटिः शिवायनः पूज्यपादः एलाचार्यः वीरसेनः जिनसेनः नेमिचंद्रः रामसेनश्चेति प्रथमानपूर्वभागज्ञाः। अकलंकः अनन्तंविद्यानन्दी माणिक्यनन्दी प्रभाचन्द्रः रामचन्द्रः एते सुतार्किकाः । वासवचन्द्रः गुणभद्र एतौ नग्नौ अन्ते वीराङ्गजश्च । णाऊण दुविहसुत्तं ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं अर्थतः शब्दतश्च द्विविधं सूत्रं । वट्टइ सिवमग्गे जो भव्वो वर्तते शिवमार्गे मोक्षमार्गे यो मुनिः स भव्यो रत्नत्रययोग्यो भवति मोक्षं प्राप्नोतीति भावः । सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ॥ ३॥ सूत्रं हि जानानः भवस्य भवनाशनं च स करोति । सूची यथा असूत्रा नश्यति सूत्रेण सह नापि ॥ सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स सूत्रं शास्त्रानुक्रमं हि निश्चयेन जानानो जानन् कस्य सूत्रं, भवस्स-भवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य । भवणासणं च सो कुणदि भवस्य संसारस्य नाशनं विनाशं स पुमान् करोति विदधाति तीर्थकरो भूत्वाऽऽत्मानं प्रकटयति मुक्तो भवतीत्यर्थः । अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन दृढयति-मूई जहा असुत्ता णासदि सूची लोहसूचिका वस्त्रदरकारिका असूत्रा दवरकरहिता नश्यति न लभ्यते । सुत्ते Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ षट्प्राभूते सहा णो वि सूत्रेण सह वर्तमाना सूत्रेण दोरेण सहिता णो विनापि नश्यति हस्ते चटति । पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासह सो गओ वि संसारे । सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि ॥ ४ ॥ पुरुषोपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोपि संसारे । स्वचेतनाप्रत्यक्षेण नाशयति तं सोऽदृश्यमानोपि ॥ पुरिसो वि जो ससुत्तो पुरुषोऽपि जीवोऽपि यः ससूत्रो जिनसूत्रसहितः । ण विणासह सो गओ वि संसारे न विनश्यति स पुमान् गतोऽपि नष्टोऽपि संसारे पतितोऽपि पुनरुज्जीवति मुक्तो भवति । सच्चेयणपच्चक्खं आत्मानुभवप्रत्यक्षेण । णासदि तं सो अदिस्समाणो विणादि - नश्यति, अन्तरिनर्थो प्रयोग:, तेनायमर्थः नाशयति तं संसारं स आसन्नभव्यजीवः । कथंभूतः, अदिस्समाणो वि-अदृश्यमानोऽपि चतुर्विधसंघमध्येऽप्रकटोऽप्यप्रसिद्धोऽपि । सूत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सहिही ॥ ५ ॥ सूत्रार्थ जिनभणितं जीवाजीवा दिबहुविधमर्थम् । हेयायं च तथा यो जानाति स हि सद्दृष्टिः ॥ सुत्तत्थं जिणभणियं सूत्रस्यार्थ जिनेन भणितं प्रतिपादितं । जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं जीवाजीवादिकं बहुविधमर्थं कर्मतापन्नं वस्तु | हेयाहेयं च तहा हैयं पुद्गलादिकं पंचप्रकारं, अहेयमादेयं निजात्मानं, तथा तेनैव षड्वस्तुप्रकारेण । जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी यः पुमान् जानाति वेत्ति स पुमान् हु - स्फुटं सद्दृष्टिः सम्यग्दृष्टिर्भवति । जं सूतं जिणउत्तं ववहारो तह य जाण परमत्थो । तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं ॥ ६ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । यत् सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथा च जानीहि परमार्थम् । तत् ज्ञात्वा योगी लभते सुखं क्षिपते मलपुजम् ।। जं सुत्तं जिणउत्तं यत्सूत्रं जिनोक्तं । ववहारो तह य जाणपरमत्थो तत्सूत्रं व्यवहारं जानीहि तथा परमार्थ निश्चयरूपं च जानीहि हे भव्य ! त्वं वेत्थ । तं जाणिऊण जोई तत्सूत्रं व्यवहारनिश्चयरूपं ज्ञात्वा योगी ध्यानी पुमान् । लहइ सुहं खवइ मलपुंजं लभते सुखं निजामोत्थं परमानन्दलक्षणं क्षिपते निर्मूलकाषं कषते मलस्य पापस्य पुजं राशिं त्रिषष्ठिप्रकृतिसमूहं । घातिसंघातघातनं कृत्वा केवलज्ञानमुत्पादयतीति भावः । यथा वंशावष्टम्भं कृत्वाऽभ्यासवशेन रज्जूपरि चलति पश्चादत्यभ्यासवशेन वंशं त्यक्त्वा निराधारतया रज्जूपरि गच्छति तथा व्यवहारावष्टम्भेन निश्चयनयमलम्बते । तदनन्तरं व्यवहारमपि त्यक्त्वा निश्चयमेवावलंबते इति भावः ।। मूत्तत्थपयविणहो मिच्छादिही हु सो मुणेयव्यो। खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचलेस्स ॥ ७॥ सूत्रार्थपदविनष्टो मिथ्यादृष्टिः हि स ज्ञातव्यः । खेलेऽपि न कर्तव्यं पाणिपात्रे सचेलस्य ॥ सुत्तत्थपयविणट्ठो सूत्रार्थपदविनष्टः पुमान् । मिच्छादिट्टी हु सो मुणेयव्यो मिथ्यादृष्टिरिति हु-स्फुटं स पुमान् मुनितव्यो ज्ञातव्यः। खेडे पि खेलेऽपि क्रीडायामपि न कर्तव्यं पाणिपात्रेण भोजनं न विधातव्यं । कस्य, सचेलस्य गृहस्थस्य । हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी । तह वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो॥८॥ हरिहरतुल्योपि नरः स्वर्ग गच्छति एति भवकोटीः । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते हरिहरतुल्लो वि णरो हरिश्च नारायणो हरश्च रुद्रस्ताभ्यां तुल्यः समानः ऋद्धिमानित्यर्थः । नरः प्राणी मनुष्यः । सग्गं गच्छेड़ एइ भवकोडी दानपूजोपवासादिकं कृत्वा स्वर्ग देवलोकं गच्छति पश्चाद्भवान्तराणां कोटीरसंख्यानि भवान्तराणि अनन्तानि वा भवान्तराणि प्राप्नोति दुःखीभवति संसारी स्यात् । तह विण पावइ सिद्धिं तथापि भवकोटीपर्यटनप्रकारेणापि न प्राप्नोति सिद्धिं मोक्षं न लभते । किं तर्हि भवतीत्याह - संसारत्थो पुणो भणिदो संसारस्थः संसारी पुनर्भणितः सिद्धान्ते प्रतिपादितः । जिनसूत्राभावान्मिथ्यादृष्टिः सन् संसारदुःखं सहते सुखी न भवतीति भावः । ६० उक्किसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो य । जो विहरड़ सच्छंदं पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ॥ ९ ॥ उत्कृष्टसिंहचरितः बहुपरिकर्म्मा च गुरुभारश्च । यो विहरति स्वच्छन्दं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ॥ उक्किसीहचरियं उत्कृष्टं सर्वयतिभ्योऽधिकं सिंहवन्निर्भयत्वेन चरितं चारित्रं यस्य स पुमानुत्कृष्टसिंहचरितः । प्राकृतत्वादत्र नपुंसकत्वं । अथवा विहरतीति क्रियाविशेषणत्वाद्वितीयैकवचनं, नपुंसकत्वं च । बहुपरिकम्मो य गरुयभारो य बहुपरिकर्मा चानेकतपोविधानमण्डितशरीरसंस्कारश्च मुनिर्गुरुतरभारथ राजादिभयनिवारकः शिष्याणां पठनपाठनसमर्थो यात्राप्रतिष्ठा दीक्षादानायुर्वेदज्योतिष्कशास्त्रनिर्णयकारकः षडावश्यककर्मकर्मटो धर्मोपदेशनसमर्थः सर्वेषां यतीनां च नैश्चिन्त्यकारको गुरुभार उच्यते, ईदृग्विधोऽपि गच्छनायको यतिः । जो विहरइ सच्छंद यो यतिः स्वच्छन्दं विहरति - जिनसूत्रं न प्रमाणयति । पावं गच्छेदि होड़ मिच्छत्तं स मुनिः पापं गच्छति प्राप्नोति - मिध्यात्वं तस्य भवतीति तात्पर्यार्थः । L Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । निच्चेलपाणिपत्तं उवहं परमणिवरिंदेहि | एक्को विमोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ॥ १० ॥ निश्चलपाणिपात्रं उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रैः । एकोपि मोक्षमार्गः शेषाश्च अमार्गाः सर्वे ॥ निच्चेलपाणिपत्तं निश्चलस्य मुनेः पाणिपात्रं करयो: पुढे भोजनमुक्तं । उवहं परमजिणवरिंदेहि उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रैस्तीर्थकरपरमदेवैः । एक्को हि मोक्खमग्गो एक एव मोक्षमार्गे निर्ग्रन्थलक्षणः । सेसा य अमग्गया सव्वे शेषा मृगचर्मवल्कलकर्पास पट्टकूलरोमवस्त्रगोणीतृणप्रावरणादि, सर्वे रक्तवस्त्रादि पीताम्बरादयश्च विश्वे, अमार्गाः संसार पर्यटनहेतुत्वान्मोक्षमार्गा न भवन्तीति भव्यजनैर्ज्ञातव्यं । ६१ जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि । सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणु से लोए ।। ११ ॥ यः संयमेषु सहितः आरम्भपरिग्रहेषु विरतः अपि । स भवति वन्दनीयः ससुरासुरमानुषे लोके ॥ जो संजमेसु सहिओ यो मुनिर्न तु गृहस्थः संयमेषु सहितः इन्द्रि - यप्राणसंयमवान् भवति | आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि आरम्भाः सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखाः, परिग्रहाः क्षेत्रवास्त्वादयस्तेषु विरतो विरक्तो भवति । अपिशब्दः समुच्चये वर्तते । तेन ब्रह्मचर्यादयो गृह्यन्ते तस्माद्ब्रह्राचर्यधरो यतिरिति वचनात् । सो होड़ वंदणीओ स मुनिर्वन्दनीयो भवति । क्क वन्दनीयो भवति, ससुरासुरमाणुसे लोए लोके त्रिभुवने वन्दनीयो भवति । कथंभूते लोके, ससुरासुरमानुषे देवदानवमानवसहिते । जेवावीसपरीसह सहंति स तीसएहि संजुत्ता । ते होंति वंदनीया कम्मक्खयनिज्जरासाहू || १२ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहन्ते शक्तिशतैः संयुक्ताः । ते भवन्ति वन्दनीयाः कर्म्मक्षयनिर्जरासाधवः॥ जवावीसपरीसह सहति ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहन्ते । सत्तीसएहिं संजुत्ता शक्तीनां शतैः संयुक्ताः । ते होंति वंदणीया ते भवन्ति वन्दनीया नमोऽस्तु शब्दयोग्याः । कम्मक्खयनिज्जरासाहू कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ये कर्मक्षये निर्जरायां च साधवः कुशला भवन्ति योग्या भवन्तीति भावः । ६२ अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता | चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥ १३ ॥ अवशेषा ये लिङ्गिनः दर्शनज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । चेलेन च परिग्रहीताः ते भणिता इच्छाकारयोग्याः ॥ अवसेसा जे लिंगी अवशेषा ये लिंगिनः क्षुल्लकगुरवः । दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता दर्शनज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । चेलेण य परिगहिया वस्त्रैकधराः सकोपीनाश्च वस्त्रमपि सीवितं न भवति किं तर्हि खण्डवस्त्रं धरन्ति ते वस्त्रपरिगृहीताः । ते भणिया इच्छणिज्जाय ते भणिता इच्छाकारयोग्या नमस्कारयोग्याः | : इच्छायारमहत्थं सुत्तठिओ जो हु छेडए कम्मं । ठाणे द्वियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होइ ॥ १४ ॥ इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थितः यः स्फुटं त्यजति कर्म । स्थाने स्थितसम्यक्त्वः परलोकसुखकरो भवति ॥ इच्छायारमहत्थं इच्छाशब्देन नम उच्यते कारशब्दस्तु अधःस्थः क्रियते तेन नमस्कार इति भवति । क्षुल्लकानां वन्दनं । सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्मं सुत्तट्ठिओ - सूत्रस्थितः समयं जानन् यः पुमान् कर्म त्यजति गृहस्थकर्म न करोति वैयावृत्यं विना स्वयं रन्धनादिकं न Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । करोति । ठाणे हियसम्मत्तं एकादशस्वपि स्थानेषु सम्यक्त्वपूर्वको भवति । परलोयसुहंकरो होइ स्वर्गसौख्यं साधयति षोडशसु स्वर्गेध्वन्यतमस्वर्गे उत्पद्यते ततश्च्युत्वा निम्रन्थो भूत्वा मोक्षं गच्छति । अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेदि निरवसेसाई । तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥१५॥ अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषान् । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ॥ अह पुण अप्पा णिच्छदि अथ अथवा पुनरात्मानं नेच्छति आत्मभावनां न करोति । धम्माई करेइ निरवसेसाई धर्मान् करोति निरवशेषान् दानपूजातपःशीलादिकानि निरवशेषाणि समस्तानि पुण्यानि करोति । तह वि ण पावदि सिद्धिं तथापि पुण्यकर्मप्रकारेणापि सिद्धिं मुक्तिं न प्राप्नोति । संसारत्थो पुणो भणिदो संसारस्थः पुनर्भणितः संसारी भवतीति सिद्धान्ते प्रतिपादितं । उक्तं च देवसेनेन भगवता अंइकुणउ तवं पालेउ संजमं पढउ सयलसत्थाई । जाम ण झावई अप्पा ताम ण मोक्खं जिणो भणई ॥१॥ एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ॥१६॥ एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन ।' येन च लभेध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ एएण कारणेण य एतेन प्रत्यक्षीभूतेन कारणेन हेतुना । चकार उक्तसमुच्चयार्थः, बहिस्तत्वभूतपंचपरमेष्ठिकारणसूचनार्थ इत्यर्थः । तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण तमात्मानं शुद्धबुद्धकस्वभाव १ अतिकरोतु तपः पालयतु संयमं पठतु सकलशास्त्राणि । यावन्न ध्यायति आत्मानं तावन्न मोक्षं जिनो भणति ॥ १ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्याभूते मात्मतत्वं श्रद्धत्त यूयं रोचत यूयं, त्रिविधेन मनोवचनकायप्रकारेण । जेण य लहेह मोक्खं येन चात्मतत्वेन लभेध्वं मोक्षं सर्वकर्मक्षयलक्षणं परमनिर्वाणं प्राप्नुत यूयं । अत्रापि चकार उक्तसमुच्चयार्थः तेन स्वर्गसौख्यं यथासंभवं सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं पूर्व लब्ध्वा पश्चान्मोक्षं लभेवं । तं जाणिज्जह पयत्तेण तमात्मानं न केवलं श्रद्धत्त अपि तु जानीत विदांकुरुत चेति कथं, प्रयत्नेन सावधानतया सर्वतात्पर्येणेत्यर्थः । वालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि ॥ १७ ॥ बालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् । भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने ॥ वालग्गकोडिमत्तं बालस्य रोम्णोऽग्रकोटिमात्रं अग्राममात्रं अतीवाल्पमपि । परिगहगहणं ण होइ साहूणं परिग्रहस्य ग्रहणं स्वीकारो न भवति साधूनां निरम्बरयतीनां । भुजेइ पाणिपत्ते भुञ्जीत भोजनं कुर्वीत कुर्यात्पाणिपात्रे निजकरपुटे । दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि श्रावकेण दत्तं न त्वतिना दत्तं भुंजीत, प्रासुकभोजनं किल सर्वत्र गृह्यते इति जैनाभासा ब्रुवन्ति तदनेन विशेषव्याख्यानेन प्नत्युक्तं भवतीति भावितव्यं । इक्कठाणम्मि-उद्भो भूत्वा एकवारं भुंजीतेति, यो बहुवारं भुंक्ते स वन्दनीयो न भवतीति भावार्थः। जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं न गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥ १८ ॥ यथाजातरूपसदृशः तिलतुषमात्रं न गृह्णाति हस्तयोः । यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनः याति निगोदम् ॥ जहजाइरूवस रिसो यथाजातरूपः सर्वज्ञवीतरागस्तस्य रूपस. दृशो नग्नशरीरः । तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु तिल ___ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ सूत्रप्राभतं । स्य पितृप्रियकणस्य तुषस्त्वङ्मानं न गृह्णाति हस्तयोरित्युत्सर्गव्याख्यानं प्रमाणमेव किन्तु क्वचित्कालानुसारेण सूरिद्रव्यमुपाहरेत् । गच्छपुस्तकवृद्धयर्थमयाचितमथाल्पकं इतीन्द्रनन्दिभगवतोक्तं त्वपवादव्याख्यानं । तत्रापि स्वहस्तेन न स्पृश्यं किन्तु श्रावकादिहस्तेन स्थापनीयं । जइ लेइ अप्पबयं यदि लाति गृह्णात्यल्पं बहुकं वा निजोदरपोषणबुद्धया च । तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ततः पुनर्याति निगोदं प्रशंसनीयगतिं न गच्छतीत्यर्थः । जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो ॥१९॥ यस्य परिग्रहग्रहणं अल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य । स गर्हणीयः जिनवचने परिग्रहरहितो निरागारः ॥ जस्स परिग्गहगहणं यस्य मुनेः श्वेताम्बरादेः परिग्रहग्रहणं शासने भवति । अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स अल्पं अर्द्धफालिकादिकं बहुयं च-चतुर्विंशत्यावरणादिकं भवति लिंगस्य कपटकपटसितपटादेर्वेषे । सो गरहिउ जिणवयणे तल्लिगं स वेषो निन्दितोऽप्रशंसनीयो भवति, क, जिणवयणे-श्रीवर्धमानगौतमादिप्रतिपादितसिद्धान्तशास्त्रे । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण गुरुणा त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्वाशयप्रणामामहितः। लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्वलधामहितः ॥१॥ अत्र प्रन्थिकसत्वाः सितपटाः प्रभाचन्द्रेण क्रियाकलापटीकायां व्याख्याताः, सितपटाभासास्तु लोकायतिका अतीव निन्द्या अशौचव्यवहारोच्छिष्टान्नभोजित्वात् । परिगहरहिओ निरायारो परिग्रहरहितो हि मुनिर्निरागारोऽनगारो यतिर्भवति यस्मात्कारणादिति शेषः Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ षट्प्राभूते wwwmmmmm पंचमहव्वयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ । णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ॥२०॥ पञ्चमहाव्रतयुक्तः तिसृभिः गुप्तिभिः यः स संयतः भवति । निर्ग्रन्थमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयः च ॥ पंचमहव्वयजुत्तो पंचमहाव्रतैर्युक्तः प्राणातिपातानृतादत्तसुरतपरिग्रहरहितः पुमान् पंचमहाव्रतयुक्त उच्यते । यस्तु स्तोकमपि परिग्रहीतं करोति सोऽणुव्रतः सागारोऽव्रतो वा कथ्यते । तेन वस्त्रादौ परिग्रहे सति तत्र यूकालिक्षादयस्त्रीन्द्रिया जीवा उत्पद्यन्ते, यदि ततोऽपनीयान्यत्र क्षिप्यन्ते ततो नियन्ते कथं प्राणातिपातकरहितो निरागारो भवति, अलमतिविस्तरेण परिग्रहवान् महाव्रती न भवति । तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होदि तिसृभिर्गुप्तिभिर्युक्तो यो मुनिः स संयतः संयमवान् भवति । णिग्गंथमोक्खमग्गो निम्रन्थमोक्षमार्ग यो मन्यते । सो होदि हु वंदणिज्जो स भवति हु-स्फुटं वन्दनीयः । यः सग्रन्थमोक्षमार्ग मन्यते स मिथ्यादृष्टि नाभासश्चावंदनीयो भवतीति भावार्थः । दुइयं च वुत्त लिङ्ग उकिटं अवरसावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीभासण मोणेण ॥ २१ ॥ द्वितीयं चोक्तं लिङ्गं उत्कृष्टं अवरश्रावकाणां च । भिक्षा भ्रमति पात्रः समितिभाषेण मौनेन । दुइयं च वुत्त लिंगं द्वितीयं चोक्तं लिंगं वेषः। उक्किडं अवरसावयाणं च उत्कृष्टं लिंग अवरश्रावकाणां चागृहस्थश्रावकाणां । सोऽ वरश्रावकः भिक्खं भमेइ पत्तो भिक्षांभ्रमति पात्रसहितः करभोजी वा । समिदिभासेण मोणेण ईर्यासमितिसहित: मौनवांश्च, उत्कृष्टश्रावको दशमैकादशप्रतिमाः प्राप्तः । उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना १ पुस्तकद्वयेऽपि ईगेव पाठः । अस्य स्थाने सोमदेवनेति युक्तं भाति । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । आद्यास्तु षड्जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः। शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥१॥ एकादशके स्थाने ह्यत्कृष्टः श्रावको भवेद्विविधः । वस्त्रैकधरः प्रथमः कौपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥२॥ कौपीनोऽसौ रात्रिप्रतिमायोगं करोति नियमेन । लोचं पिच्छं धृत्वा भुक्ते ह्युपविश्य पाणिपुटे ॥३॥ वीरचर्या च सूर्यप्रतिमात्रैकाल्ययोगनियमश्च । सिद्धान्तरहस्यादिष्वध्ययनं नास्ति देशविरतानां ॥४॥ लिंगं इच्छीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि । अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ ॥ २२॥ ___ लिङ्गं स्त्रीणां भवति भुक्ते पिण्डं स्वेककाले । -- आर्यापि एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भुंक्ते ॥ लिंगं इत्थीण हवदि तृतीयं लिंग वेषः स्त्रीणां भवति । भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि भुक्ते पिण्डमाहारं सुष्ठु निश्चलतया एककाले दिवसमध्ये एकवारं । अज्जिय वि एक्कवत्था आर्यापि एकवस्त्रा भवति । अपिशब्दात् क्षुलिकापि संव्यानवस्त्रेण सहिता भवति । वत्थावरणेण भुंजेइ भोजनकाले एकशाटकं धृत्वा भुक्ते संव्यानं उपरितनवस्त्रमुत्तार्य भोजनं कुर्यादित्यर्थः । ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ नापि सिध्यति वस्त्रधरो जिनशासने यद्यपि भवति तीर्थकरः। नग्नो विमोक्षमार्गः शेषाः उन्मार्गकाः सर्वे ॥ ण वि सिज्झइ वत्थधरो नापि सिद्ध्यति नैव सिद्धिमात्मोपलब्धिलक्षणां मुक्तिं लभते वस्त्रधरो मुनिः । जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो जिनशासने श्रीवर्धमानस्वामिनो मते यद्यपि भवति तीर्थ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेकरः तीर्थकरपरमदेवोऽपि यदि भवति । गर्भावतारादिपंचकल्याणवानपि सिद्धो न भवति, आस्तां तावदन्योऽनगारकेवल्यादिकः । णग्गो विमोक्खमग्गो नग्नो वस्त्राभरणरहितो विमोक्षमार्गः ज्ञातव्यः । सेसा उम्मग्गया सव्वे शेषाः सितपटादीनां मार्गाः सर्वेऽपि उन्मार्गकाः कुत्सिता मिथ्यारूपा मार्गा ज्ञेया जानीया विद्वद्भिरित्यर्थः । लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिओ सुहमो काओ तासं कह होइ पव्वज्जा ॥२४॥ लिङ्गे च स्त्रीणां स्तनान्तरे नाभिकक्षादेशेषु । भणितः सूक्ष्मः कायः तासां कथं भवति प्रव्रज्या ॥ लिंगम्मि य इत्थीणं लिंगे योनिमध्ये स्त्रीणां योषितां । थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु स्तनान्तरे द्वयोः स्तनयोर्मध्ये वक्षःप्रदेशे, नाभिकक्षादेशेषु, नाभौ तुन्दिकायां, कक्षादेशयोर्बाव्होः मूलयोर्द्वयोः स्थानयोः । भणिओ सुहमो काओ भणित आगमे प्रतिपादितः कोऽसौ भणित: सूक्ष्मः कायः सूक्ष्मजीवशरीरं लोचनाद्यगोचरः सूक्ष्मपंचेन्द्रियपर्यन्तो जीववर्गः । तासिं कह होइ पव्वज्जा तासां स्त्रीणां कथं भवति प्रव्रज्या दीक्षा-अपि तु न भवति । यदि प्रव्रज्या न भवति तर्हि कथं पंचमहाव्रतानि दीयन्ते ? सत्यमेतत् सजातिज्ञापनार्थ महाव्रतानि उपचर्यन्ते स्थापनान्यासः क्रियते इत्यर्थः। तथा चोक्तं शुभचन्द्रेण महाकविना मैथुनाचरणे मूढ ! म्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिंगसंघट्टपीडिताः ॥ १॥ . कियन्तो जन्तवो म्रियन्त इति चेत् घाते घातेऽसंख्येयाः कोटय इति । “घाए घाए असंखेज्जा" इति वचनात् । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतं । जड़ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता । घोरं चरिय चरितं इत्थीसु ण पावया भणिया ॥ २५ ॥ यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता । घोरं चरित्वा चरित्रं स्त्रीषु न प्रव्रज्या भणिता ॥ जइ दंसणेण सुद्धा यदि दर्शनेन सम्यक्त्वरत्नेन शुद्धा निर्मला भवति । उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता तदा मार्गेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणेन सापि स्त्री च संयुक्ता भवति पंचमगुणस्थानं प्राप्नोति, स्त्रीलिंगं छित्वा स्वर्गाग्रे देवो भवति, ततश्युत्वा मनुष्यभवमुत्तमं प्राप्य मोक्षं लभते । उक्तं च सम्यग्दर्शनसंशुद्धमपि मातङ्गदेहजं । देवा देव विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसं ॥ १ ॥ स्वर्गेऽपि गता पुनः स्त्रीलिंगं न लभते । तदप्युक्तं समन्तभद्रेण महा कविना सम्यग्दर्शनशुद्धा नारक तिर्यङनपुंसक स्त्रीत्वानि । दुष्कुल विकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥ १ ॥ घोरं चरिय चरितं घोरं कातरजनभीतिजनकं चरित्रं चरित्वा षोडशसु स्वर्गेष्वन्यतमं स्वर्गं यान्ति अहमिन्द्रत्वमपि स्त्रीभवे न लभन्ते कथं मोक्षं स्त्रीभवे प्राप्नुवन्ति । तेन कारणेन इत्थीसु ण पावया भणिया स्त्रीषु न प्रव्रज्या निर्वाणयोग्या दीक्षा भणिता । इत्यनया गाथया सितपटानां मतं स्त्रीमुक्तिप्राप्तिलक्षणं प्रत्युक्तं भवति । मरुदेवी - ब्राह्मी - सुन्दरीयशस्वती-सुनन्दा- सुलोचना - सीता - रात्रि मति - चन्दना - अनन्तमति- द्रौपदीत्यादिकाः स्त्रियः स्वर्गे गता न तु मोक्षमिति । ६९ चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा सिं इत्थीसु णऽसंकया झाणं ||२६|| चित्ताशोधिः न तेसां शिथलो भावः तथा स्वभावेन । विद्यन्ते मासाः तासां स्त्रीषु न अशंकया ध्यानम् ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेचित्तासोहि ण तेसिं चित्तस्य मनसः आ समन्ताच्छोधिनिर्मलता न विद्यते तासां स्त्रीणां । ढिल्लं भावं तहा सहावेण शिथिलो भावः परिणामस्तथा स्वभावेन प्रकृत्यैव, कस्मिंश्चिदूव्रतादावतिदाढ्यं न वर्तते। विज्जदि मासा तेसिं विद्यन्ते मासा-मासे मासे रुधिरत्रावस्तासां स्त्रीणां । इत्थीसु णऽसंकया झाणं स्त्रीषु न वर्तते किं तत्, अशंकया निर्भयतया ध्यानमेकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणमिति भावः । “लुक्च" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेणाकारलोपः । गाहेण अप्पगाहा समुदसलिले सचेलअत्थेण । इच्छा जाहु नियत्ता ताह नियत्ताई सव्वदुःखाई ॥२७॥ ग्राह्येण अल्पग्राहाः समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन । इच्छा येभ्यो निवृत्ता तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि ॥ गाहेण अप्पगाहा ग्राह्येण आहारादिना ये मुनयोऽल्पग्राहाः स्तोकं गृह्णन्ति । समुद्दसलिले सचेलअत्थेण यथा समुद्रसलिले प्रचुरजलाशये सत्यपि स्वचेलप्रक्षालनार्थमल्पमेव जलं गृह्यते किं क्रियतेऽधिकजलग्रहणेन । इच्छा जाहु नियत्ता इच्छा तृष्णा लोभलक्षण। येभ्यो मुनिभ्यो निवृत्ता गता । ताह नियत्ताई सव्वदुःखाई तेषां निवृत्तानि नष्टानि सर्वदुःखानि शारीरमानसागन्तूनि कष्टानि नष्टान्येव समीपतरसिद्धिसुखसंभवादिति भावः । इति श्रीपमनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचायलाचार्यगृद्धपि. च्छाचार्यनामपंचकविराजितेन श्रीसीमन्धरस्वामिज्ञानसंबोधितभव्यजनेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतप्रन्थे सर्वमुनिमण्डलमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचित्ता सूत्रप्राभृतटीका समाप्ता। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । बहुसत्थअत्थजाणे संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे । वंदित्ता आयरिए कसायमलवज्जिदे सुद्धे ॥१॥ सयलजणवोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । वुच्छामि समासेण य छक्कायहियंकरं सुणसु ॥२॥ बहुशास्त्रार्थज्ञायकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । वन्दित्वाऽऽचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान् ॥ सकलजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । वक्ष्यामि समासेन च षटकायहितंकरं शृणु ॥ . वुच्छामि वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः कर्ता अहं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः । किं तत्कर्मतापन्नं, छक्कायहियंकरं षट्कायाहितंकरं पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायहितकारकं शास्त्रं बोधप्राभूताभिधानं शास्त्रं । केन कृत्वा वक्ष्यामि, समासेण संक्षेपेण । सुणसु शृणु त्वं हे भव्य ! "विध्यादिषु त्रयाणामे कत्र दुसुमुश्च" इत्येनेन प्राकृतव्याकरणसूत्रेण हिस्थाने सुरादेशः बहुवचने तु पंचम्याः सुणह इत्येवं भवति मध्यमस्य । कथंभूतं बोधप्राभतं, जिणमग्गे जिणवरोहिं जह भणियं जिनमार्गे जिनशास्त्रे जिनवरैः केवलिभिर्यथा येन प्रकारेणाऽऽयतनादिभिर्भणितं प्रतिपादितं । किमर्थं जिनैर्भणितं, सयलजणबोहणत्थं सर्वभयजीवसम्बोधननिमित्तं। किं कृत्वा पूर्व वुच्छामि, वंदित्ता आयरिए पन्दित्वाऽऽचार्यान् तृतीयपरमेष्ठिपदस्थान् गुरुन् । कथंभूतानाचार्यान, बहुसत्थअत्थजाणे अनेकशास्त्रार्थज्ञायकान्। पुनः कथंभूतानाचार्यान् . संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे संयमश्च चारित्रं, सम्यक्त्वं च सम्यग्दर्शनं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ षट्प्राभृते शुद्धं निरतिचारं, तपश्चरणं च द्वादशविधं तपो येषां ते संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणास्तान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । भूयोऽपि कथं भूतानाचार्यान्, कसायमलवज्जिदे क्रोधमानमायालो भलक्षणचतुष्कपायमलवर्जितान् कषायोत्पन्नपापरहितानित्यर्थः । अपरं कथंभूतानाचार्यान्, सुद्धे शुद्धान् षट्त्रिंशद्गुणप्रतिपालनेन निर्मलान् निष्पापान् । के ते षट्त्रिंशद्गुणा इत्याह आचारवान् श्रुतांधारः प्रायश्चित्तासनादिदः ( १ ) । आयापायकथी दोषाभाषकोऽश्रावकोऽपि च ॥ १ ॥ सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च । दिगम्बरोऽप्यनुद्दिष्टंभोजी शय्योंशनीति च ॥ २ ॥ आरोगभुक् क्रियायुक्तो व्रतवन् ज्येष्ठद्गुणः । प्रतिक्रेमी च षण्मासंयोगी च तदुद्विनिषैकः ॥ ३ ॥ द्विःपेंट तपास्तथा षट् चावश्यकौनि गुणा गुरोः । आयदणं चेदिहरं जिणपडिमा दंसणं च जिणबिंबं । भणियं सुवीयरायं जिण मुद्दा णाणमादत्थं || ३ | अरहंतेण सुदिहं जं देवं तित्थमिह य अरहंतं । पावज्ज गुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो ॥ ४ ॥ आयतनं चैत्यगृहं जिन प्रतिमा दर्शनं च जिनबिम्बम् । भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमत्मस्थम् ॥ अर्हता सुदृष्टं यो देवः तीर्थमिह च अर्हन् । nest प्रव्रज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्या यथाक्रमशः ॥ आयदणं आयतनं ज्ञातव्यं । चेदिहरं चैत्यगृहं द्वितीयं ज्ञातव्यं । जिणपडिमा जिनप्रतिमा तृतीयोऽधिकारो बोधप्राभृते ज्ञातव्यः । दंसणं च दर्शनं च चतुर्थोऽधिकारो बोधकरो मन्तव्यः । जिणबिंबं जिन १ ब इति ख. पुस्तके | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । ७३ बिम्ब पंचमोऽधिकारो बोधजनको विज्ञेयः । कथंभूतं जिनबिम्ब, भणियं सुवीयरायं भणितमागमे प्रतिपादितं मुष्ठु अतिशयेन वीतरागं न तु लक्ष्मीनारायणवद्रागसहितं । जिणमुद्दा जिनमुद्रा बोधकरी पष्ठोऽधिकारो वेदितव्यः । णाणमादत्थं ज्ञानमात्मस्थं सप्तमो नियोगो बोधप्राभूतस्य बोद्धव्यः । अरहंतेण सुदि जं देवं अर्हता सर्वज्ञवीतरागेण सुदृष्टमबाधं प्रतिपादितं जं देवं यो देवः, प्राकृते लिंगभेदत्वादत्र देवशब्दस्य नपुंसकत्वं सोऽयं देवाधिकारो बोधजनकोऽष्टमोऽवगन्तव्यः । तित्थमिह य तीर्थमिह च नवमोऽधिकारस्तीर्थमिह बोधप्राभतेऽवेतव्यः । अरहंतं अर्हत्स्वरूपनिरूपकोऽधिकारो दशमः प्रत्येतव्यः । पावज्ज गुणविसुद्धा प्रव्रज्या एकादशोऽधिकारो बोधप्राभूतस्य स्मर्तव्यः। कथंभूता प्रव्रज्या, गुणविशुद्धा गुणैरुज्वला । इय णायव्वा जहाकमसो इति ज्ञातव्या यथाक्रमशः । एते एकादशाधिकारा बोधप्राभतस्य चिन्तनीयाः । गाथाद्वयेन द्वारं बोधप्राभूतस्य कृतं । इदानीं तद्विवरणं कुर्वान्त श्रीमन्तो गृद्धपिच्छाचार्यास्तत्रायतनं निरूपयन्ति मणवयणकायदव्वा आसत्ता जस्स इंदिया विसया । आयदणं जिणमग्गे णिद्दिदं संजयं रूवं ॥ ५॥ मनोवचनकायद्रव्याणि आसक्ता यस्य ऐन्द्रिया विषयाः । आयतनं जिनमार्गे निर्दिष्टं सांयतं रूपम् ॥ मणवयणकायदव्वा मनोवचनकायद्व्याणि हृदयमध्येऽष्टदलकमलाकारं मानसद्रव्यं यस्य मनो भवति । उर:प्रभूत्यष्टस्थानाश्रितं यस्य वचनं वचनशक्तिकं वाग्द्रव्यं भवति । अष्टावङ्गानि अनेकोपाङ्गानि यस्य मुनेः कायद्रव्यं भवति । आसत्ता जस्स इंदिया विसया । आसक्ताः सम्बन्धमायाता यस्य मुनेः एन्द्रिया विषयाः, इन्द्रियेषु स्पर्श ___ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ षट्प्राभूतेनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणेषु हृषीकेषु भवा एन्द्रियाः ते च ते विषयाः स्पर्शरसगन्धरूपशब्दलक्षणा यथासंभवं शक्तिरूपा व्यक्तिरूपाश्च भवन्ति। आयदणं जिणमग्गे आयतनं जिनमार्गे । णिदिदं संजय रूवं निर्दिष्टमागमे प्रतिपादितं सांयतं रूपं संयमिनः सचेतनं शरीरं । मय राय दोस मोहो कोहो लोहो य जस्स आयत्ता । पंचमहव्वयधारा आयदणं महरिसी भणियं ॥ ६॥ मदो रागो द्वेषो मोहः क्रोधो लोभश्च यस्य आयत्ताः । पञ्चमहाव्रतधरा आयतनं महर्षयो भणिताः ॥ मय राय दोस मोहो मदोऽष्टविधः । उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः। अष्टावाश्रित्यमानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ १॥ रागः प्रीतिलक्षणः । दोषोऽप्रीतिस्वभावः । मोहः कलत्रपुत्रमित्रादिस्नेहः। कोहो लोहो य जस्स आयत्ता क्रोधो रोषस्वभावः, लोभो मूर्छा परिग्रहग्रहणस्वभावः । चकारात्परवंचनप्रकृतिर्माया । एते पदार्था यस्य महर्षेः त्रिविधमुनिसमूहस्याऽऽयत्ताः निग्रहपरिग्रहनाथवन्तो भवन्ति । पंचमहव्वयधारा पंचमहाव्रतधरा अहिंसासत्याचौर्यब्रह्मचर्याकिंचन्यानि रात्रिभोजनवर्जनषष्ठानि प्रतिपालयन्तः । आयदणं महरिसी भणियं आयतनं महर्षयो भणिताः। एतेऽभिगमनयोग्या भवन्ति दर्शनस्पर्शनवन्दनाश्चि भवन्ति । अन्ये विलिंगिनो जटिनः पाशुपता एकदण्डत्रिदण्डधरा मिथ्यादृष्टिमुण्डिनः शिखिनः पंचचूलाः भस्मोद्धलना नग्नाण्डकाः चरकनामानो दिगम्बरसंज्ञकाः हंसपरमहंसाभिधानाः पशुयाज्ञिकाः दीक्षिता अध्वर्यवः उद्गातारो होतार आथर्वणाः व्यासाः स्मार्ता जैना Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभतं । भासाश्च नाभिगम्या न दर्शनीया नाभिवादनीयाश्च भवन्ति । अथ के. ते जैनाभासाः पूर्वमप्युक्ताः-- गोपुच्छिकः श्वेतवासो द्राविडो यापनीयकः। निष्पिच्छश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥१॥ एते मयूरपिच्छधरा अपि न वन्दनीयाः संशयमिथ्यादृष्टित्वात् । तथा च बौद्धमते आयतमलक्षणं पंचेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पंच मानसं । धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च ॥१॥ धर्मायतनं शरीरमिति । सिद्धं जस्स सदत्थं विसुद्धझाणस्स णाणजुत्तस्स । सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवरवसहस्स मुणिदत्थं ॥७॥ सिद्धं यस्य सदर्थं विशुद्धध्यानस्य ज्ञानयुक्तस्य । सिद्धायतनं सिद्धं मुनिवरवृषभस्य ज्ञातार्थाः ॥ सिद्धं जस्स सदत्थं सिद्ध लब्धिमायातं यस्य मुनिवरवृषभस्य । किं सिद्धं,सदत्थं-निजात्मस्वरूपं । कथंभूतस्य, विसुद्धझाणस्स णाणजुत्तस्स विशुद्धध्यानस्य आर्तरौद्रध्यानद्वयरहितस्य धर्म्यशुक्लध्यानद्वयसहितस्य गणधरकेवलिनो मुण्डकेवलिनस्तीर्थकरपरमदेव केवलिनो वा । कथंभूतस्यैतत्रयस्य, ज्ञानयुक्तस्य सकलविमल केवलज्ञानयुक्तस्य । सिद्धायदणं सिद्धं सिद्धायतनं सिद्धं सिद्धायतनं प्रतिपादितं । कस्य, मुणिवरवसहस्स मुनिवरवृषभस्य मुनिवराणां मध्ये वृषभस्य श्रेष्ठस्य । कथंभूतमायतनं, मुणिदत्थं मुनिता यथावद्विज्ञाता अर्थाः षड्व्व्याणि पंचास्तिकायाः सप्ततत्वानि नवपदार्थाः । जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशा इति षड्द्रव्याणि । कालरहितानि षड्व्याणि पंचास्तिकाया भवन्ति । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेजीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वानि । सप्त तान्येव पुण्यपापद्वयसहितानि नवपदार्था वेदितव्याः । आयदणं-इत्यायतनस्वरूपं समाप्तम् । १ । अथेदानी चैत्यस्वरूपं निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्याः बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेझ्याई अण्णं च । पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ॥ ८॥ बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यच्च । पञ्चमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यगृहम् ॥ बुद्धं जं बोहंतो बुद्धं कर्ममलकलंकरहितकेवलज्ञानमयं, जं-यत्, बोहंतो-बोधयन् । अप्पाणं चेइयाई अण्णं च आत्मानं शुद्धबुद्धैकस्वभावं निजजीवस्वरूपं बोधयन्नयं आत्मा चैत्यगृहं भवति । हे जीव ! तं-त्वं चैत्यगृहं जानीहि न केवलं आत्मानं बोधयन्तं आत्मानं चैत्यगृहं जानीहि किन्तु चेइयाई-चैत्यानि कर्मतापन्नानि भव्यजीववृन्दानि बोधयन्तमात्मानं चैत्यगृह निश्चयचैत्यालयं हे जीव ! त्वं जानीहि निश्चयं कुरु, न केवलमात्मानं चैत्यगृहं जानीहि किन्तु अण्णं च-व्यवहारनयेन निश्चयचैत्यालयप्राप्तिकारणभूतेनान्यच्च दृषदिष्टकाकाष्ठादिरचितं श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं हे आत्मन् ! हे जीव ! त्वं जानीहि । कथंभूतं चैत्यगृहं, पंचमहव्वयसुद्धं पंचभिर्महाव्रतैः कृत्वा शुद्धं समूलकाषं कषितकर्ममलकलंकसमूहं । अपरं कथंभूतं चैत्यगृहं, णाणमय केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां निर्वृत्तं निष्पन्नमित्यर्थः । यवहारचैत्यगृहं तु स्थापनान्यासेन पंचमहाव्रतशुद्धं स्थापनान्यासबलेन केवलज्ञानदर्शनमयमित्यर्थः स तु व्यवहारनयो मुख्यो निश्चयनयस्तु गौण इति ज्ञातव्यं । ये तु लोकायतिकादिमतानुसारिणो दुरात्मानः श्वेतपटाभासा निश्चयचैत्यमस्पृशन्तोऽपि व्यवहारचैत्यगृहं न मानयन्ति ते ___ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । उभयतोऽपि भ्रष्टाः सर्वत्र भोजनभिक्षाग्राहका जिनधर्मविराधकाः पूर्वाचार्योपदिष्टजिनपूजादिकममानयन्तो न जाने का निन्दितां गति गमिष्यन्ति । चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयंतस्स । चेइहरं जिणमग्गे छकायहियंकरं भणियं ॥९॥ चैत्यं बन्धं मोक्षं दुःखं सुखं च अर्पयतः।। ___ चैत्यगृहं जिनमार्गे षट्कायहितंकरं भणितम् ॥ चेड्य बंधं मोक्खं चैत्यं चैत्यगृहं बन्धं अष्टकर्मबन्धं करोति। पापकर्मोपार्जनं कारयति । पुनश्च किं करोति, मोक्षं सर्वकर्मक्षय लक्षणं मोक्षं च करोति । दुक्खं सुक्खं च अप्पयंतस्स चैत्यं चैत्यगृहं दुःखं शारीरमानसागन्तुलक्षणं दुःखमसातं बन्धफलं करोति । सुक्खं च-सुखं च मोक्षफलं परमानन्दलक्षणं करोति । कस्यैतद्वयं करोति, अप्पयंतस्सअर्पयतः पुरुषस्य । यः चैत्यगृहस्य दुष्टं करोति तस्य पापबन्ध उत्पद्यते, यश्चैत्यगृहस्य सुष्ठु करोति शोभनं विदधाति तस्य पुण्यमुत्पद्यते, तदाधारेण मोक्षो भवति, तत्फलेन यथासंख्यं दुःखं सुखं च भवतीति भावनीयं । चेइहरं जिणमग्गे चैत्यगृहं जिनमार्गे श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागशासने वर्तते एव को मिथ्यादृष्टिः पापीयांस्तल्लोपयति । यश्चैत्यं चैत्यगृहं न च मानयति स महापातकी भवति । अत एवं चोक्तं गौतमेन भगवता याघन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये। तावन्ति सततं भक्त्या त्रिःपरीत्य नमाम्यहं ॥१॥ छक्कायहियंकरं भणियं चैत्यगृहं षट्कायानां हितङ्करं स्वर्गमोक्षकारकं भणितं जिनागमे प्रतिपादितं । चैत्यगृहार्थ या मृत्तिका खन्यते सा काययोगेनोपकारं चैत्यगहस्य कृत्वा शभमपार्जयति तेन त पार. ___ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ षट्प्राभते म्पर्येण स्वर्गमोक्षं लभते । यजलं चैत्यगृहस्थ कार्यमायाति तद्वत्तदपि शुभभाग्भवति । यत्तेजोऽग्निः चैत्यगृहनिमित्तं प्रज्वाल्यते तदपि तद्वच्छुभं लभते । यो वायुश्चैत्यगृहनिमित्तं बर्हिःसंधुक्षणाद्यर्थ विरा. ध्यते धूपाङ्गारहविःपाकार्थ चोत्क्षेपनिक्षेपणं प्राप्यते सोऽपि तद्वच्छुभं प्राप्नोति । यो वनस्पतिः पुष्पादिकश्चैत्यगृहपूजाद्यर्थ लूयते सोऽपि काययोगेन पुण्यमुपार्जयति तस्यापि शुभं भवति । उक्तं च फुलं पुकारइ वाडियहि कहियां जिणहं चडेसि । धम्मी को वि न आवियउ कंपिय धरणि पडेसि ॥१॥ अन्यच्चकेणय वाडी वाइया केणय वीणिय फुल्ल । केणय जिणह चडाविया ए तिणि वि समतुल्ल ॥२॥ चेइयहरं-चैत्यगृहाधिकारः समाप्त इत्यर्थः । २ । सपराजंगमदेहा दंसणणाणेण शुद्धचरणाणं । निग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥१०॥ स्वपराजङ्गमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे इदृशी प्रतिमा ॥ .. सपराजंगमदेहा स्वकीया अर्हच्छासनसम्बन्धिनी । परा परकीयशासनसम्बन्धिनी प्रतिमा भवति । स्वकीयशासनस्य या प्रतिमा सा उपादेया ज्ञातव्या । या परकीया प्रतिमा सा हेया न वन्दनीया । १ तास्थ्यात्ताच्छब्द्यमिति न्यायेन तत्रस्था जीवा ज्ञातव्याः पंचस्वपि कायेषु शुभोपार्जकाः पृथिव्यादीनां केवलानां जडत्वात्तदसंभवात् । २ फुल्ल पुकारयाते माली कथं जिनस्य चढसि । ? धर्मी कोऽपि नाऽऽयातः कम्पायत्वा धरणौ णतष्यसि ॥१॥ ३ केन च वाटिका उपिता केन च चित'नि पुष्पाणि । केन च जिनस्य चाढापितानि एतं त्रयोऽपि समतुल्याः ॥२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभृतं । अथवा सपरा-स्वकीयशासनेऽपि या प्रतिमा परा उत्कृष्टा भवति सा बन्दनीया न तु अनुकृष्टा। का उत्कृष्टा का वाऽनुत्कृष्टा इति चेदुच्यन्ते या पंचजैनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चार्चनीया च । या तु जैनाभासरहितैः साक्षादाहतसंधैः प्रतिष्ठिता चक्षुःस्तनादिषु विकाररहिता नन्दिसंघ-सेनसंघ-देवसंघसिंहसंधे समुपन्यस्ता सा वन्दनीया । तथा चोक्तं इन्द्रनन्दिना भट्टारकेण चतुःसंघसंहिताया जैनं बिम्बं प्रतिष्ठितं । नमेनापरसंघाया यतो न्यासविपर्ययः ॥१॥ चतुःसंध्यां नरो यस्तु विदध्याद्भेदभावनां । स सम्यग्दर्शनातीतः संसारे संसरत्यरं ॥२॥ न्यासविपर्ययस्तु गुरुवचनादेवावगन्तव्यः । तथा चोक्तं श्रीवीरनन्दिशिष्यैः श्रीपद्मनन्दिभिराचार्यै: बिम्बादलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्तया ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृति च । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता वक्तुं परस्य किमु कारयितुं द्वयस्य ॥१॥ ये तु प्रतिमायां वस्त्राभरणादि कुर्वन्ति प्रतिष्ठावेलायां दधिसक्तमुखे बध्नन्ति तन्मतनिरासार्थ श्रीगौतमेन महामुनिना पृथ्वीवृत्तमुक्तं-- निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदया निरम्बरमनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषतः। निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमा निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात् ॥१॥ इक्कहि फुल्लाह माटिदेइ जु सुरनररिद्धडी। पही करइ कुसाटिवा भोलिम जिणवरतणी ॥१॥ ___ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेएक्कहिं फुल्लहिं फुल्लसउ वीए फुल्ल सहासु। जिम्ब जिम्ब जिणवर पुजियइ तिम्ब तिम्ब दुरियहं नासु ॥२॥ तथा चोक्तं समन्तभद्रस्वामिना मुनिवरेण आर्याद्वयं-- देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणं । कामदुहि. कामदाहिनि परिचिनुयादाहतो नित्यं ॥१॥ अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥ २॥ अजंगमदेहा-सुवर्णमरकतमणिघटिता, स्फटिकमणिघटिता, इन्द्रनीलमणिनिर्मिता, पद्मरागमणिरचिता, विद्रुमकल्पिता, चन्दनकाष्ठानुष्ठिता वा अजंगमा प्रतिमा कथ्यते । ईदृशी प्रतिमा केषां भवति, दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं दर्शनेन ज्ञानेन निर्मलचारित्राणां तीर्थकरपरमदेवानां । कथंभूता प्रतिमा, निग्गंथवीयराया निम्रन्था वस्त्राभरणजटामुकुटायुधरहिता, वीतरागा रागरहितभावेऽवतारिता । जिणमग्गे एरिसा पडिमा जिनमार्गे सर्वज्ञवीतरागमते ईदृशी प्रतिमा भवति । जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । सा होइ वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥ ११ ॥ यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्वसम्यक्त्वम् । सा भवति वन्दनीया निर्ग्रन्था सांयता प्रतिमा ॥ जं चरदि सुद्धचरणं यो मुनिश्चरति प्रतिपालपति । किं, शुद्धचरणं निरतिचारचारित्रं । जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं जिनश्रुतं जानाति स्वयोग्यं वस्तु पश्यति च । शुद्धं पंचविंशतिदोषरहितं यस्य सूरेः सम्यक्त्वं भवति । सा होइ वंदणीया सा भवति वन्दनीया नमस्करणीया । निग्गंथा संजदा पडिया निर्ग्रन्था चतुर्विंशतिपरिग्रहरहिता Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । ८१ संयतानां मुनीनां दिगम्बराणां प्रतिमा आकार:, जंगमा प्रतिमा मुनयो भवन्तीत्यर्थः । दंसणअनंतणाणं अनंतवीरिय अनंतसुक्खा य । सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मबंधेहिं ॥ १२ ॥ दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तवीर्या अनन्तसुखाः च । शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टबन्धैः ॥ दंसणअणतणाणं दर्शनमनन्तं केवलदर्शनं सत्तावलोकनमात्रलक्षणं । काकाक्षिगीलकन्यायेनानन्तशब्द उभयत्राभिसम्बध्यते तेनानन्तज्ञानं वस्तुयथावत्स्वरूपग्राहकं केवलज्ञानं लोकालोकव्यापकं द्वयं । तद्योगाद्दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तदर्शनमनन्तज्ञानं च सिद्धा भवन्ति । उक्तं चाशाधरेण महाकविना— सत्तालोचनमात्रमित्यपि निराकारं मतं दर्शनं साकारं च विशेषगोचरमिति ज्ञानं प्रवादीच्छया । ते नेत्रे क्रमवर्तिनी सरजसां प्रादेशिके सर्वतः स्फूर्जन्ती युगपत्पुनर्विरजसां युष्माकमङ्गातिगाः ॥ १ ॥ तथा च नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तिना चोक्तं दंसणबुवं जाणं छदुमत्थाणं ण दोणि उवओगा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥ १ ॥ अनंतवीरिय अनंतसुक्खा य अनन्तवीर्याश्च सिद्धा भवन्ति लोकालोकस्वरूपावलोकने ज्ञातृत्वे च या शक्तिस्तदनन्तवीर्य ज्ञातव्यं । अनन्तसौख्याश्च सिद्धा भवन्ति सर्ववस्तुस्वरूपपरिज्ञाने सति तेषां सुखमुत्पद्यते । तथा चोक्तं नेमिचंद्रेण त्रिलोकसारग्रन्थे वैमानिकाधिकारपर्यन्ते- षद. ६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ षट्प्राभते एयं सत्थं सव्वं सत्थं वा सम्ममेत्थ जाणंता । तिन्वं तुस्संति णरा किं ण समत्थत्थतञ्चण्हा ॥ १ ॥ चक्कि कुरुफणिसुरेदेसहमिंदे जं सुहं तिकालभवं । तत्तो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥२॥ सासयसुक्ख अदेहा शाश्वतसुखा अविनश्वरसुखाः, अदेहा देहरहिता ज्ञानमयमूर्तय इत्यर्थः । मुक्का कम्मबंधेहिं मुक्ताः कर्माष्टबन्धनैः । निरुवममचलमखोहा निम्मिवियाजंगमेण रूवेण । सिद्धाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥ निरुपमा अचला अक्षोभा निर्मापिता अजङ्गमेन रूपेण । सिद्धस्थाने स्थिता व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः ।। निरुवममचलमखोहा निरुपमा उपमारहिताः । ईदृशः पुमान् कोऽपि नास्ति येन सिद्धा उपमीयन्ते । अचलाः स्वस्थानादासुरीकोटितमं भागमपि न परतो गच्छन्ति । अखोहा-अक्षोभा न क्षोभं प्राप्नुवन्ति । उक्तं च समन्तभद्रेणोत्सर्पिणीकाले आगामिनि भविष्यत्तीर्थकरपरमदेवेन-- काले कलाशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात्रैलोक्यसंभ्रान्तिकरणपटुः ॥१॥ निम्मवियाजंगमेण रूवेण स्थिररूपेण निर्मापिता: संसारान्त्यक्षणेन निष्पादिता एकसमयेन त्रैलोक्यशिखरं प्राप्ता धर्मास्तिकायाभा १ एक शास्त्रं सर्वं शास्त्रं वा सम्यगत्र जानन्तः । तीनं तुष्यन्ति नराः किं न समस्तार्थतत्वज्ञाः ॥१॥ चक्रिरुफणिसुरेन्द्रेषु अहमिन्द्रे यत्सुखं त्रिकालभवं । ततोऽनन्त ,णित सिद्धानां क्षणसुखं भवति ॥ २ ॥ २ सषपाग्रभागतमं । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ बोधप्राभृतं । वात्परतो न गच्छन्ति, अजंगमेन रूपेण स्थिररूपेण तिष्ठन्ति निश्चय स्थिरप्रतिमाभिधानाः । सिद्धहाणम्मि ठिया सिद्धानां मुक्तात्मनां स्थाने त्रिभुवनाने तनुवातवलये स्थिताः-मुक्तिशिलामीषदूनगव्यूतिमधो मुक्त्वा आकाशे निराधाराः स्थिताः । वोसरपडिमा धुवा सिद्धा व्युत्सर्गप्रतिमाः कायोत्सर्गेण पद्मासनेन वा स्थिता ध्रुवाः शाश्वताः सिद्धाः प्रतिमा भवन्ति । तेऽपि वन्दनीया भवन्ति । पडिमा-प्रतिमाधिकारस्तृतीयः समाप्तः । ३ । अथेदानी गाथाद्वयेन दर्शनाधिकारं कथयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्या:दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संयमं सुधम्मं च । निग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ॥ १४ ॥ दर्शयति मोक्षमार्ग सम्यक्त्वं संयमं सुधर्म च । निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥ दंसेइ मोक्खमग्गं दर्शयति प्रकटयति मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं यत्तदर्शनं । “कृत्ययुटोऽन्यत्रापीति"वचनात्कर्तरि युट्प्रत्ययः। कोऽसौ मोक्षमार्गो यं दर्शनं कर्तृतया दर्शयति, सम्मत्तं सम्यक्त्वं तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं । तथा संयम चारित्रं पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिलक्षणं दर्शयति । सुधर्म चानशनादि द्वादशविधं तपश्च दर्शयति । कथंभूतं दर्शनं, निग्गंथं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितं । भूयोऽपि कथंभूतं दर्शनं, णाणमयं सम्यग्ज्ञानेन निवृतं । जिणमो दंसणं भणियं जिनमार्गे सर्वज्ञवीतरागप्रतिपादिते मार्ग दर्शनं सम्यक्त्वरूपं भाणतं यतिश्रावकाधारं प्रतिपादित, अविरतसदृष्टयाधारभूतं च । जह फुलु गंधमयं भवदि हु खीरं स घियमयं चावि । तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ॥ १५ ॥ ___ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेयथा पुष्पं गन्धमयं भवति स्फुटं क्षीरं तद्धृतमयं चापि । तथा दर्शनं हि सम्यग्ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥ जह फुल्लं गंधमयं यथा पुष्पं गन्धमयं भवति । भवदि हु खीरं स घियमयं चावि भवति हु-स्फुटं क्षीरं दुग्धं, स-तत् घृतमयं घृतयुक्तं चापि । अपिशब्दादन्येऽपि कनकपाषाणकाष्ठाग्निप्रभृतयो दृष्टान्ता ज्ञातव्याः । तह दंसणं हि सम्मं तथा दर्शनं सम्यक्त्व हि निश्चयेन सम्यग्ज्ञानमयं भवति । स्वत्थं यतिश्रावकासंयतसदृष्टिमूर्तिस्थित दर्शनं ज्ञातव्यमित्यर्थः । दंसणं-दर्शनाधिकार एकादशाधिकारेषु बोधप्राभते चतुर्थः समाप्तः ।४। अथेदानी जिनबिंबस्वरूपं निरूपयन्ति श्रीगृपिच्छाचार्या भगवन्तःजिणबिंब णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च । जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥१६॥ जिनबिम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च । यद् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे । जिणबिंब णाणमयं जिनस्य बिम्बमाकारो ज्ञानमयं मतिज्ञानश्रुतज्ञानयथासंभवावधिज्ञानयथासंभवमनःपर्ययज्ञानमयं भवति तृतीयः परमेष्ठी आचार्यसंज्ञको जिनबिम्बं ज्ञातव्य इत्यथः । संजमसुद्धं सुवीयरायं च तदुक्तलक्षणं जिनबिम्बं कथंभूतं भवतीत्याह-संयमशुद्धं संयमेन निरतिचारचारित्रेण शुद्धं निर्मलं, सुष्ठु-अतिशयेन वीतरागं वीतः क्षयं गतो रागः प्रीतिलक्षणो यस्मादिति वीतरागं । अज क्षेपणे इति धातोः प्रयोगात् । “ अजेर्वीः " इति वचनादजेर्धातोर्वीरादेशः। चकारात्तद्गुणाधिकारोपणा निषेधिका च जिनबिम्बं भवति । जं देइ दिक्खसिक्खा यज्जिनाबिम्बमाचार्यः ददाति दीक्षां व्रतारोपणलक्षणां, शिक्षां च द्वादशानुप्रेक्षालक्षणां ददाते। कम्मक्खयकारणे सुद्धा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ बोधप्राभृतं । कर्मक्षयकारणे शुद्धां निर्मलां । जीवन्मुक्तजिनवदाचार्यों माननीय इति भावार्थः । उक्तं च सोमदेवेन सूरिणा-- ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरःसरः । सूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः ॥ १॥ तस्स य करह पणामं सव्वं पुजं च विणय वच्छलं । जस्य य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो ॥ १७ ॥ तस्य च कुरुत प्रणाम सर्वां पूजां विनयं वात्सल्यं । यस्य च दशेनं ज्ञानं, अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥ तस्स य करह पणामं तस्य च जिनबिम्बस्य जिनबिंबमूर्तेराचायस्य प्रणामं नमस्कारं पंचाङ्गमष्टाङ्गं वा कुरुत यूयं हे भव्यजीवाः !, चकारादुपाध्यायस्य सर्वसाधोश्च प्रणामं कुरुत तयोरपि जिनबिम्बस्वरूपत्वात् । सव्वं पुजं च विणय वच्छल्लं सर्वां पूजामष्टविधमर्चनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनयं हस्तयोटनं पादपतनं सन्मुखगमनं च कुरुत, वात्सल्यं भोजनं पानं पादमर्दनं शुद्धतैलादिनाङ्गाभ्यञ्जनं तत्प्रक्षालनं चेत्यादिकं कर्म सर्व तीर्थंकरनामकर्मोपार्जनहेतुभूतं वैयावृत्त्यं कुरुत यूयं । उक्तं च समन्तभद्रेण महामुनिना-- व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनां ॥ १ ॥ तथा चकारात्पाषाणादिघटितस्य जिनबिम्बस्य पंचामृतैः स्नपनं, अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयं । वंदनां भक्तिं च कुरुत। यदि तथाभूतं जिनबिम्ब न मानयिष्यथ गृहस्था अपि सन्तस्तदा कुंभीपाकादिनरकादौ पतिष्यथ यूयं । तथा चोक्तं सोमदेवेन स्वामिना ---- 'अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च । यो भुंजीत गृहस्थः सन् स भुंजीत परं तमः ॥१॥ ___ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ पटप्राभूते ___ परं तम इति कोऽर्थः कुंभीनरकः, सप्तमे नरके पंच बिलानि तेषां नामानि यथा-रौरवमहारौरवासिपत्रकूटशाल्मलीकुंभीपाका इति । सप्तमनरके यानि चतुर्दिक्षु चत्वारि बिलानि वर्तन्ते तान्यर्धरज्जुप्रमाणानि सन्ति तेषां मध्ये यत्कुंभीपाकसंज्ञकं पंचमं बिलमस्ति तदेकयोजनलक्षप्रमाणं वर्तते, पंचभिरपि रज्जुरेका भूमी रुद्धा वर्तते । जस्स य दंसण णाणं यस्य पूर्वोक्तलक्षणस्य जिनबिंबस्य दर्शनं ज्ञानं च वर्तते । अत्थि धुवं चेयणाभावो अस्ति विद्यते ध्रुवं निश्चयेन चेतनाभाव आत्मस्वरूपं स्थापनान्यासेनापीति तात्पर्यम् । तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥ १८ ॥ तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् । अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च ॥ तववयगुणेहिं सुद्धो तपोभिर्द्वादशभेदैः, व्रतैरहिंसासत्यास्तेयबझापरिग्रहै: पंचभिः, गुणैः पूर्वोक्तलक्षणेश्चतुरशीतिलक्षैः शुद्धो निष्कलङ्कः। जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं जानाति सम्यग्ज्ञानवान् , पश्यति स्वरूपं वेत्ति कस्य शुद्धसम्यक्त्त्वस्य पंचविंशतिमलरहितस्य । अरहंतमुद्द एसा श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागस्य मुद्रा आकार एषा धर्माचार्यलक्षणा पाषाणघटितबिंबस्वरूपा यंत्रमंत्राराधनगम्या च जिनबिम्बं भवति । दायारी दिक्खसिक्खा य कथंभूता मुद्रा, दात्री दायका कासां, दीक्षाशिक्षाणां । चकाराद्यात्राप्रतिष्टादिकर्मणां च प्रवर्तिका । जिणबिंब-इति श्रीबोधप्राभते जिनबिम्बाधिकारः पंचमः समाप्तः॥५॥ अथेदानीमेकया गाथया जिनमुद्रां निरूपयन्ति श्रीमदेलाचार्याः दढसंजममुद्दाए इंदियमुद्दा कसायदढमुद्दा । मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया ॥ १९ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ बोधप्राभृतं । दृढसंयममुदया इन्द्रियमुद्रा कषायदृढमुद्रा। मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥ दढसंजममुद्दाए दृढया वज्रघटितप्रायया संयममुद्रया षड्जीवनिकायरक्षणलक्षणया षडिन्द्रियसंकोचस्वरूपया च मुद्रया वेषेण जिनमुद्रा भवति । इंदियमुद्दा कसायदढमुद्दा इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणां द्रव्यन्द्रियाणां यत्र मुद्रणं कूर्मवत्करचरणसंकोचनमिन्द्रियमुद्रोच्यते सा जिनमुद्रा भवति । कसायदढमुद्दा-कषायाणां दृढं गाढं मुद्रणं कषायदृढमुद्रा । मुद्दा इह णाणाए मुद्रा इह जिनशासने ज्ञानेन भवति, अर्हनिशं पठनपाठनादिना जिनमुद्रा भवति। जिणमुद्दा एरिसा भणिया जिनमुद्रेदशी भणिता । मुनीनामाकारो जिनमुद्रा। ब्रह्मचारिणामाकारश्चक्रवर्तिमुद्रा ते उभये अपि माननीया ( ये )। यदि कश्चिदुरभिनिवेशेन तां न मानयति स पुमान् जिनमुद्राद्रोही विशिष्टैदण्डनीय इति भावार्थः। शिरःकूर्चश्मश्रुलोचो मयूरपिच्छधरः कमण्डलुकरोऽध:केशरक्षणं इति जिनमुद्रा. सा मान्यते । तदुक्तमिन्द्रनन्दिना प्रतिष्ठाचार्येण मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निर्मुद्रो नैव मान्यते । राजमुद्राधरोऽत्यन्तहीनवच्छास्त्रनिर्णयः ॥ १ ॥ जिणमुद्दा-इति श्रीबोधप्राभते जिनमुद्राधिकारः षष्ठः समाप्तः।६। अथेदानी ज्ञानाधिकारः प्रारभ्यते-- संजमसंजुत्तस्स य सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्यं ॥ २० ॥ संयमसंयुक्तस्य च सुध्यानयोगस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते ~ - ~ संजमसंजुत्तस्स य संयमेनेन्द्रियजयप्राणरक्षणलक्षणेन संयुक्तस्य संहितस्य । सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स सुष्टु ध्यानयोगस्य आर्तरौद्रध्यानद्वयरहितस्य ध्यानस्य धर्म्यध्यानशुक्लध्यानद्वयस्य योगेन संयोगेन सहितस्य, एवं विशेषणद्वयविशिष्टस्य मोक्षमार्गस्य सम्बन्धित्वेन । णाणेण लहदि लक्खं ज्ञानेन करणभूतेन लभते, किं कर्मतापन्नं लक्ष्यं निजात्मस्वरूपं । तम्हा णाणं च गायव्वं तस्मात्कारणाज्ज्ञानं च ज्ञातव्यं, न केवलमायतनादिषट्कं ज्ञातव्यं किन्तु ज्ञानं च ज्ञातव्यं । चशब्दः परस्परसमुच्चयार्थः । जह ण वि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो। तह ण वि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ॥२१॥ यथा नापि लक्षयति स्फुटं लक्ष्यं रहितः काण्डस्य वेध्यकविहीनः । तथा नापि लक्षयति लक्ष्यं अज्ञानी मोक्षमार्गस्य ॥ जह ण वि लहदि हु लक्खं यथा येन प्रकारेण नापि नैव लभते, हु-स्फुटं, लक्ष्यं वेध्यं । कोऽसौ वेध्यं न लभते, रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो रहितोऽभ्यासरहितः, काण्डस्य बाणस्य, वेध्यकविहीनोऽनभ्यस्तवेध्यव्यधनः पुमान् । तह ण वि लक्खदि लक्खं तथा तेन प्रकारेण नापि लक्षयति जानाति लक्ष्यं परमात्मानं । अण्णाणी मोक्खमग्गस्स अज्ञानी ज्ञानरहितः पुमान् मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणस्य लक्ष्यं निजात्मस्वरूपं न लक्षयति । णाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥ २२ ॥ ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोऽपि विनयसंयुक्तः । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्षयन् मोक्षमार्गस्य ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । vvvvvwvon __णाणं पुरिसस्स हवदि ज्ञानं श्रुतज्ञानं पुरुषस्यासनभव्यजीवस्य भवति सन्तिष्ठते । लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो लभते प्राप्नोति ज्ञानं सुपुरुषोऽप्यासन्नभव्यजीवः । अपिशब्दाब्राह्मी-सुन्दरी-रात्रिमतिचन्दनादिवत् एकादशाङ्गानि लभन्ते, मृगलोचना अपि स्त्रीलिंगं छित्वा स्वर्गसुखं भुक्त्वा राजकुलादिषू-पद्य मोक्षं तृतीयेऽपि भवे लभन्ते । पुरुषास्तु सकलं श्रुतं लब्ध्वा तद्भवेऽपि मोक्षं यान्ति । ईदृशं ज्ञानं कः प्राप्नोति ? विणयसंजुत्तो-विनयसंयुक्तो गुरुचरणरेणुरंजितभालस्थल इति भावार्थः । णाणेण लहदि लक्खं ज्ञानेन श्रुतज्ञानेन लभते लक्ष्य निजात्मस्वरूपं । लक्खंतो मोक्खमग्गस्स लक्षयन् ध्यायन् लक्ष्य लभते, कस्य लक्ष्यं-मोक्षमार्गस्य रत्नत्रयस्य । मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण वाणा सुअस्थि रयणत्तं । परमत्थबद्धलक्खो ण वि चुकदि मोक्खमग्गस्स ॥२३॥ मतिधनुर्यस्य स्थिरं श्रुतगुणो वाणाः सुसन्ति रत्नत्रयम् । परमार्थबद्धलक्ष्यः नापि स्खलति मोक्षमार्गस्य ॥ __मइधणुहं जस्स थिरं मतिर्मतिज्ञानं यस्य मुनेर्धनुश्चापं स्थिर निश्चलं । सुदगुण श्रुतज्ञानं गुणः प्रत्यंचा । वाणा सुअस्थि रयणतं बाणा: शराः सुष्टु अतिशयवन्तः सन्ति विद्यन्ते, किं ? रत्नत्रयं भेदाभेदलक्षणं रत्नत्रयं । परमत्थबद्धलक्खो परमार्थे निजात्मस्वरूपे बद्धलक्ष्यः निश्चलीकृतात्मस्वरूपो मुनिः । ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स न स्खलति मोक्षमार्गस्य लक्ष्ये इति सम्बन्धः । तथा चोक्तं श्रीवीरनन्दिशिष्येण पद्मनन्दिनाचार्येण--- प्रेरिताः श्रुतगुणेन शेमु कार्मुकेण शरवगादयः । बाह्य वेध्यविषये कृतश्रमाश्चिद्रणे प्रहतकर्मशत्रवः ॥१॥ तथा च सोमदेवस्वामिनापि श्रुतज्ञानस्य गुणस्तुतिकृता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते अत्यल्पायतिरक्षजा मतिरियं बोधोऽवधिः सावधिः। साश्चर्यः क्वचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनःपर्ययः ॥ दुष्प्रापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिःकथागोचरं । माहात्म्यं निखिलार्थगे तु सुलभे किं वर्णयामः श्रुतेः ॥ १ ॥ गाणं - इति श्री बोधप्राभृते ज्ञानाधिकारः सप्तमः समाप्तः । ७ । अथेदानीं गाथाद्वयेन देवस्वरूपं निरूपयन्ति श्री कुन्दकुन्दचार्या: ९० सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेह णाणं च । सो देह जस्स अस्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ||२४|| स देवो योऽथं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च । स ददाति यस्य अस्ति तु अर्थः धर्मश्च प्रव्रज्या ॥ सो देवो जो अत्थं स देवो योऽर्थ धनं निधिरत्नादिकं ददाति । धम्मं कामं सुदेह णाणं च धर्म चारित्रलक्षणं दयालक्षणं वस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादिदशभेदं सुददाति सुष्ठु अतिशयेन ददाति । कामं अर्धमण्डलिक मण्डलिक महामण्डलिकबलदेव वासुदेवचक्रवतन्द्रवरणेन्द्रभोगं तीर्थकर भोगं च यो ददाति स देवः । सुष्ठु ददाति ज्ञानं च केवलं ज्योतिः ददाति । सो देह जस्स अस्थि दु स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः । अत्थो धम्मो य पव्वज्जा यस्यार्थो वर्तते सोऽर्थ ददाति, यस्य धर्मो वर्तते स धर्मे ददाति, यस्य प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति, यस्य सर्वे सुखं वर्तते स सर्वसौख्यं ददाति । उक्तं च गुणभद्रेण गणिना- सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तात् स च तच्च बोधनियतं सोऽध्यागमात्स श्रुतेः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यतयुक्तया सविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥ १ ॥ स्तं धम्मो दयाविसुद्ध पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ॥ २५ ॥ धर्मोदय विशुद्धः प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता । देवो व्यपगतमोहः उदयकरो भव्यजीवानाम् ॥ धम्मो दयावसुद्ध धर्मो दयया विशुद्धो निर्मलः, यो दयां कु-र्वन्नपि चर्मजलं पिवति, अजिनतैलमास्वादयति, कुंतुपघृतं भुंक्त, भूतनाशनमत्ति तस्य पुंसो धर्मो विशुद्धो न भवति स यतिर्वेषधार्यपि म्लेच्छो ज्ञातव्यः । पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता भवति यो दण्डं करे करोति कम्बलमुपदधाति शंखकरनारीस्पृष्टमन्नमश्नाति स कथ प्रव्रज्यावान् भवति । देवो ववगयमोहो देवो व्यपगतमोहः, यो देवोऽर्धाङ्गे वनितां दधाति, यो देवो हृदयस्थले लक्ष्मीमुपवेशयति, यो देवो दंडं धरति, यो देवो वेश्यां चोपभुंक्ते, वसिष्टपिता भवति स कथं देवः । उदयकरो भव्वजीवाणं भव्यजीवानामुदयकरः उत्कृष्टतीर्थंकर नामशुभदायकः स देवो ज्ञातव्यः । देवं - इति श्रोबोधप्राभृते देवाधिकारोऽष्टमः समाप्तः । ८ । अथेदानीं गाथाद्वयेन तीर्थं निरूपयन्ति श्रीपद्मनन्दिदेवा: ९१ वयसम्मत्तविद्धे पंचिदियसंजदे णिरावेक्खे | हाउ मुणी तिथे दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ||२६|| व्रतसम्यक्त्व विशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपेक्षे । स्नातु मुनिः तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ mom षट्प्राभूतेवयसम्मत्तविसुद्धे व्रतैरहिंसासत्यास्तयब्रह्मापरिग्रहलक्षणैः पंचभिमहाव्रतैः, सम्यक्त्वेन च पंचविंशतिमलरहितेन तत्वार्थश्रद्धानलक्षणेन, विशुद्धे विशेषेण निर्मले चर्मजलाद्यास्वादनरहिततयाऽकश्मले तीर्थे । पंचिंदियसंजदे णिरावेक्खे पंचेन्द्रियसंयते पंचेन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानि संयतानि बद्धानि स्पर्शरसगन्धरूपशब्दलक्षणपंचविषयरहितानि यस्मिस्तीर्थे तत्तथोक्तस्तस्मिन् पंचेन्द्रियसंयते । पुनः कथंभूते तीर्थे, निरपेक्ष बाह्यवस्त्वपेक्षारहिते आकांक्षारहिते मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयविवर्जिते । हाएउ मुणी तित्थे स्नातु स्नानं करोतु-अष्टकर्ममलकलङ्कप्रक्षालनं करोतु-केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयसंयुक्तो भवतु, कोऽसौ मुनिः प्रत्यक्षपरोक्षज्ञानसंयुक्तो महात्मा महानुभावो जीवः, तीर्थे शुद्धबुद्धैकस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसारसमुद्रतारणसमर्थे तीर्थ स्नातु विशुद्धो भवतु। केन कृत्वा स्नातु, दिक्खासिक्खासुण्हाणेण दीक्षा पंचमहाव्रतपंचसमितिपंचेन्द्रियरोधलोचषडावश्यकक्रियादयोऽष्टाविंशतिमूलगुणा उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्मोऽष्टादशशीलसहस्राणि चतुरशीतिलक्षगुणास्त्रयोदशविधं चारित्रं द्वादशविधं तपश्चेति सकलसम्पूर्ण दीक्षा भवति, स्त्रीप्रसंगवर्जनं द्वादशानुप्रेक्षाचिन्तनं शिक्षा जिननाथस्य, सुस्नानेन कर्मकिट्टिकरण किट्टिनिर्लोपनलक्षणेन स्नानेन स्नातु । जं निम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं गाणं । तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ॥२७॥ यनिर्मलं सुधर्म सम्यक्त्वं संयमः तपः ज्ञानं । तत्तीर्थ जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ॥ जं निम्मलं सुधम्मं यन्निर्मलं निरतिचारं सुधर्म सुष्ठु शोभन चारित्रं तत्तीर्थ ज्ञातव्यं । सम्मत्तं संजमं तवं णाणं सम्यक्त्वं तत्वार्थ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभतं । ९३ श्रद्धानलक्षणं तीर्थ भवति । संयम इन्द्रियाणां मनसश्च संकोचनं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायस्थावरजीवरक्षणमविराधनं । द्वीन्द्रियादिपंचे. न्द्रियत्रसजीवदयाकरणं कचित्प्रमाददोषेण विराधनायां शास्त्रोक्तप्रायश्चित्तकरणं संयम उच्यते सोऽपि संसारसमुद्रतारकत्वात्तीर्थ भवति । तप इच्छानिरोधलक्षणं द्वादशविधं तत्वार्थमोक्षशास्त्रनवमाध्याये विस्तरेण निरूपितत्वाज्ज्ञातव्यं । ज्ञानं च तीर्थ भवति । तं तित्थं जिणमग्गे तजगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ ऊर्जयन्तशत्रुञ्जयलाटदेशपावागिरि-आभीरदेशतुंगीगिरिनासिक्यनगरसमीपवर्तिगजध्वजगजपंथसिद्धकूटतारापुरकैलासाष्टापद चम्पापुरीपावापुरवाणारसीनगरक्षेत्रहस्तिनागपत्तनसम्मेदपर्वतसह्याचलमेदगिरिहिमाचलऋषिोगेरिअयो. ध्याकौशाम्बीविपुलगिरिवैभागिरिरूप्यगिरिसुवर्णागरिरत्नगिरिशौर्यपुरचूलाचलनर्मदातटद्रोणागिरिकुन्थुगिरिकोहि कशिलागिरिजम्बूकवनचलनानदीतटतीर्थकरपंचकल्याणस्थानानि चेत्यादिमार्गे यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि ये न वन्दन्ते ते मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । तीर्थभ्रमणं विनाऽनन्ते संसारे भ्रमिष्यन्ति-अनुमोदनाच्च तं तरन्ति । उक्तं च पूज्यपादेन भगवता इक्षोर्विकाररसपृक्तगुणेन लोके पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यद्वत् । तद्वच्च पुण्यपुरुषैरुषितानि नित्यं जाताने नि जगतामिह पावनानि ॥१॥ जिनमार्गबाह्यं यत्तीर्थ जलस्थानादिकं तन्न माननीयं तत्किं ? गंगायमु. नांसरयूनर्मदातापीमागधीगोमतीकवितीरवस्यागंभीराकालतोयाकौशिकी. कालमहीतोग्वाऽरुणानिभुरालोहित्यसमुद्रकन्धुकाशोणनदबीजामेखलोदुम्बरीपनसात-साप्रभृशाशुक्तिमतीपंपासरःछत्रवतीचित्रवतीमाल्यवर्तीवेणु Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ षट्प्राभूतेमतीविशालानालिकासिन्धुपारानिष्कुन्दरीबहुवज्रारम्यासिकतनीन्यूहासमतोयाकंजाकपीवतीनिविन्ध्याजम्बूमतीवसुमत्यस्विगामिनीशर्करावतीसिप्राकृतमालापरिजापनसाऽवन्तिकामाहस्तिपानीकागंधुनीव्याघ्रीचर्मन्वतीशतभागानंदाकरभवेगिनीक्षुल्लतापीरेवासप्तपाराकौशिकीपूर्वदशनद्यः । उक्तं च ब्राह्मणमते प्रागुदीच्यौ विभजते हंसः क्षीरोदकं यथा। विदुषां शब्दसिद्धयर्थं सा नः पातु शरावती ॥१॥ अथ दक्षिणे-तैला-इक्षुमती नक्ररवा चंगा स्वसना वैतरणी माषवती महिन्द्रा शुष्कनदी सप्तगोदावरं गोदावरी मानससरः सुप्रयोगा कृष्णवर्णा सन्नीरा प्रवेणी कुब्जा धैर्या चूर्णी वेला शूकरिका अम्बर्णा । __ अथ पश्चिमे देशे-भैमरथी दारुवैणा नीरा मूला बाणा केता स्वाकरीरी प्रहरा मुररा मदना गोदावरी तापी लांगला खातिका कावेरी तुंगभद्रा साभ्रवती महीसागरा सरस्वतीत्यादयो नद्यो न तीर्थ भवन्ति पापहेतुत्वात् तन्मतेऽपि विरुद्धत्वात् । गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते । स्नात्वा कनखले तीर्थे संभवेन्न पुनर्भवे ॥१॥ किमत्रविरोध: ? दुष्टमन्तर्गतं चित्तं तीर्थस्नानान शुद्धयति । शतशोऽपि जलै/तं सुराभाण्डमिवाशुचि ॥१॥ तित्थं-इति श्रीबोधप्राभृते तीर्थाधिकारो नवमः समाप्तः । ९ । अथेदानी चतुर्दशभिर्गाथाभिरहत्स्वरूपमहाधिकार प्रारभन्ते श्रीकुन्दकुन्दाचार्या:-- Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया । चउणागदि संपदिमं भावा भावंति अरहंतं ॥ २८ ॥ नाम्नि स्थापनायां हि च संद्रव्ये भावे च स्वगुणपर्यायाः। च्यवनमागतिः संपदिमं भावाः भावयन्ति अर्हन्तम् ॥ णामे नामन्यासे सति । ठवणे स्थापनान्यासे सति । हि स्फुटं । चकारः पादपूरणार्थः । संदव्वे समीचीने द्रव्यन्यासे सति । भावे य भावन्यासे च सति । सगुणपज्जाया स्वगुणा अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखसंज्ञाः अर्हन्तो भवन्तीत्युपस्कारः । स्वपर्यायाः दिव्यपरमौदारिकशरीराष्टमहाप्रातिहार्यसमवशरणलक्षणाः पर्याया अर्हन्तो भवन्तीत्युपस्कर्तव्यः । चठण स्वर्गानरकाद्वा च्यवनं। आगदि भरतादिक्षेत्रेध्वागमनं । संपत् गर्भावतारात्पूर्वमेव षण्मासान् रत्नसुवर्णपुष्पगन्धोदकवर्षणं मातुरङ्गणे भवति, अवतीर्णे सति नवमासपर्यन्तं सुवर्णरत्नवृष्टिं मातुरङ्गणे सौधर्मेन्द्रादेशात्कुवेर: करोति कनकमयपत्तनं भवति। एतत्सर्व महापुराणात्सम्पद्विवरणमर्हतो ज्ञातव्यं । इमं अर्हन्तं । भावा भव्यजीवा आसन्नतरभव्यवरपुण्डरीकाः । भावंति भावयन्ति निजहृदयकमले निश्चलं धरन्ति । कं, अरहतं श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागं । तथा चोक्तं-- णामंजिणा जिणणामा ठवणजिणा तह य ताह पडिमाओ। दव्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ दसण अणंतणाणे मोक्खो णदृढकम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होइ ॥ २९ ॥ दर्शने अनन्तज्ञाने मोक्षो नष्टाष्टकर्मबन्धेन । निरुपमगुणमारूढः अर्हन् ईदृशो भवति ॥ १ नामजिना जिननामानि स्थापनाजिनाः तथा च तेषां प्रतिमाः । द्रव्यजिनाः जिनजीवाः भावजिनाः समवशरणस्थाः ॥१॥ ___ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ षट्प्राभते दसण अणतणाणे अनन्तदर्शने सत्तावलोकनमात्रलक्षणे सति तथा अनन्तज्ञाने विशेषगोचरसाकारे सति मोक्षो भवतीति तावद्वेदितव्यं । केन कृत्वा, णटकम्मबंधेण नष्टाष्टकर्मबन्धेन । ननु" मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलं " इत्युमास्वामिवचनात् चत्वार्येव कर्माण्यहतो नष्टानि कथं नष्टाष्टकर्मबन्धेनेत्युच्यते ? साधूक्तं भवता यथा सैन्यनायके पतिते सति जीवत्यपि शत्रुवृन्दे तन्मृतवत्प्रतिभासते विकृतिकारकत्वभावाभावत्तथा सर्वेषां कर्मणां मुख्यभूते मोहनीयकर्मणि नष्टे सति वेदनीयायुर्नामगोत्रकर्मचतुष्टये सत्यपि भगवतो विविधफलोदयाभावादघातीन्यपि कर्माणि नष्टानीत्युच्यते । णिरुवमगुणमारूढो निरुपमं गुणमनन्तचतुष्टयलक्षणमारूढोऽहनष्टकर्मरहित उच्यते । अरहंतो एरिसो होइ अर्हन्नीदृशो भवाति मुक्त एवोपचर्यत इति भावार्थः । जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥ ३० ॥ ___ जराव्याधिजन्ममरणं चतुर्गतिगमनं च पुण्य पापं च । हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयः अर्हन् ॥ . जर जरां हत्वा । वाहि व्याधि हत्वा, एतेन पदेन यन्महावीरस्वामिनः पाण्मासिकमतीमारं गेगं केवलज्ञानिनः कथयन्ति तन्मतं निरस्तं भवति । जम्म जन्म गर्भवासं हत्वा, इदमपि पदमेतत्सूचयति यद्देवनन्दाया ब्राह्मण्या उदराद्वीरं निष्काश्य क्षत्रियाया उदरे प्रवेशितवानिन्द्रस्तदप्ययुक्तं गतिदाता इन्द्र एवेति जीवस्य कर्माधानत्वं वृथा भवतीति दोषसद्भावात् । तथा मरणं हत्वा । चउगइगमणं च चतुर्गतिगमनं च हत्वा । पुण्णपावं च पुण्यं पापं च हत्वा । हतूण दोसकम्मे हत्वा विनाश्य दोषानष्टादशदोषान् । के ते ? Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... बोधप्राभतं । क्षुत्पिपासाजरातकजन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥१॥ चकाराच्चिन्तारतिनिद्राविषादस्वेदखेदविस्मया गृह्यन्ते। कम्मे-घातिकर्माणि । हंतूण-हत्वा । हुउ णाणमयं च अरहंतो भूतः संजात: कीदृशः णाणमयं-ज्ञानमयः केवलज्ञानवान्, अर्हन् इन्द्रादिकृतामहणां पूजामनन्यसंभविनीमहतीत्यर्हन् सर्वज्ञः वीतरागः । गुणठाणमग्गणेहि य पज्जत्तीपाणजीवठाणेहि । ठावण पंचविहेहिं पणयव्या अरुहपुरिसस्स ॥ ३१ ॥ गुणस्थानमार्गणाभिश्च पर्याप्तिप्राणजीवस्थानैः । स्थापना पञ्चविधैः प्रणेतव्या अर्हत्पुरुषस्य ॥ गुणठाणमग्गणेहि य गुणस्थानेनार्हन् प्रणतव्यो योजनीयः। कानि तानि गुणस्थानानि ? तन्निर्देशो गाथाद्वयेन क्रियते--- मिच्छा सासण मिस्सो अविरिय सम्मो य देसविरओ य। विरया पमत्त इयरो अयुव अणियट्टि सुहमो य ॥१॥ उवसंतखीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य । चउदस गुणठाणागि य कमेण सिद्धा य णायया ॥२॥ मार्गणाश्चतुर्दश निक्ष्यति । पज्जत्ती षड्भिः पर्याप्तिभिरर्हन् प्रणेतव्यः। ता अपि निर्देक्ष्यति । पाणजीवठाणेहि प्राणैर्दशभिरर्हन् प्रणेतव्यः। तानपि निर्देक्ष्यति । जीवस्थानानि चतुर्दशसु गुणस्थानेषु जीवा १ जाणमओ इति पाठान्तरं । २ मिथ्यात्वं सासादनं मिश्रं अविरतसम्यक्त्वं देशविरतश्च । विरतः प्रमत्त इतरोऽपूर्वोऽनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥ १॥ उपशान्तक्षीणमोहः सयोगकेवलिजिनोऽयोगी च । चतुदशगुणस्थानानि च क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्याः ॥ २॥ षट्र.७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ~~vvvvvvvmshivvvvv षट्प्राभृतेये सन्ति तानि जीवस्थानानि । तानि गुणस्थाननिर्देशेन ज्ञातव्यानि । ठावण पंचविहेहिं एवं गुणस्थानमार्गणापर्याप्तिप्राणजीवस्थानस्थापमापंचविधैः स्थापना योटनापंचप्रकारैः। पणयव्वा अरुहपुरिसस्स प्रणेतव्या योटनीया अर्हत्पुरुषस्य अर्हज्जीवस्येति । तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो। चउतीसअइसयगुणा होति हु तस्सहपडिहारा ॥३२॥ त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिको भवति अर्हन् । चतुस्त्रिंशदतिशयगुणा भवन्ति हु तस्य प्रातिहार्याणि ॥ तेरहमे गुणठाणे त्रयोदशे गुणस्थाने। सजोइकेवलिय होइ अरहंतो सयोगकेवलिको भवत्यर्हन् । चउतीसअइसयगुणा चतुस्त्रिंशदतिशयगुणाः । होति हु तस्सदृपडिहारा भवन्ति हु-स्फुटं तस्याहत्परमेश्वरस्याष्टप्रातिहार्याणि । के ते चतुस्त्रिंशदतिशया इति चेदुच्यन्तेनित्यं निःस्वेदत्वं । निर्मलता मलमत्ररहितता. तत्पितस्तन्मातुश्च मलमूत्रं न भवति । उक्तं च तिर्थयरा तप्पयरा हलहरचक्की य अद्धचक्की य। देवा य भूयभूमा आहारो अस्थि णत्थि नीहारो॥१॥ तथा तीर्थकराणां श्मश्रुणी कूर्चश्च न भवति. शिरसि कुन्तलास्तु भवन्ति । तथा चोक्तं देवा वि य नेरइया हलेहरचक्की य तह य तित्थयरा । सव्वे केसव रामा कामा निक्कुंचिया होति ॥१॥ १ पूर्वमप्युक्ता अष्टाविंशतितमे पृष्टे अत्र पुनरप्युच्यन्ते । २ तीर्थकराः तस्पितरः हलधरचक्रिणश्वार्धचक्रिगश्च । देवाश्च भोगभूमाश्च ( एतेषां ) आहारोऽस्ति नैव नीहारः ॥ १ ॥ ३ देवा अपि च नारका हलधरचक्रिणश्च तथा च तीर्थकराः । ___ सर्वे केशवा रामाः कामा निकुंचिता भवन्ति ॥ १ ॥ ४ भोयभुयचक्की इनि ख. पुस्तके पाठः । ___ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभतं । क्षीरगौररुधिरमांसत्वं । समचतुरस्रसंस्थानं । वर्षभनाराचसंहननं । सुरूपता । सुगन्धता। सुलक्षणत्वं । अनन्तवीर्य । प्रियहितवादित्वं चेति दशातिशया जन्मतोऽपि स्वामिनः शरीरस्य । गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षता । गगनगमनं । अप्राणिवधः। कवलाहारो न भवति भोजनं नास्ति । उपसर्गो न भवति, केवलिनामुपसर्ग भुक्तिं च ये कथयन्ति ते प्रत्युक्ता भवन्ति । चतुर्मुखत्वं । सर्वविद्यानां परमेश्वरत्वं । अच्छायत्वं-दर्पणे मुखप्रतिबिंबं न भवति शरीरच्छाया च न भवति । चक्षुषि मेषोन्भेषो न भवति। नखानां केशानां च वृद्धिन भवति, एते दशातिशया घातिकर्मक्षयजा भवन्ति । सर्वार्धमागधीया भाषा भवति, कोऽर्थः अर्ध भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं, अर्ध च सर्वभाषात्मकं, कथमेवं देवोपनीतत्वं तदतिशयस्येति चेत् ? मगधदेवसन्निधाने तथापरिणतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते । सर्वजनता विषया मैत्री भवति सर्वे हि जनसमूहा मागधप्रीतिंकरदेवातिशयवशान्मागधभाषया भाषन्तेऽन्योन्यं मित्रतया च वर्तन्ते इति द्वातिशयो । सर्वप्नां फलग्लुंछौः प्रवालाः पुष्पाणि च भूमौ तरवो भवन्ति । आदर्शतलसदृशी भूमिमनोहरा रत्नमयी भवति । वायुः पृष्टत आगच्छति शीतो मन्दः सुरभिश्च । सर्वलोकानां परमानन्दो भवति । एकं योजनमग्रेऽग्रे वायवो भूमि सम्मार्जयन्ति स्वयं सुगन्धमिश्रा धूलिकण्टकतृणकीटकान् कर्करान् पाषाणांश्च प्रमार्जन्ति । स्तनित. कुमारा गन्धोदकं वर्षन्ति । पादाधोऽम्बुजमेकं, अग्रतः सप्तकमलानि, पृष्ठतश्च सप्तपद्मानि योजनैकप्रमाणानि प्रत्येकं सहस्रपत्राणि पद्मरागमणिकेसराणि अर्धयोजनकानि भवन्ति । सर्वसस्यनिष्पत्तियुता भूमि १ गुच्छा इति पाठान्तरं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभते भवति ! शरत्कालसरोवरसदृशमाकाशं निर्मलं भवति । दिशः सर्वा अपि तिमिरकां धूम्रतां त्यजन्ति तमो मुञ्चन्ति शलभा अपि दिशो ना. च्छादयन्ति धूलिर्नोड्डीयते । ज्योतिष्कान् व्यन्तरान् कल्पवासिदेवान् भवनवासिन आह्वयन्ति महापूजार्थ त्वरितमागच्छन्तु भवन्त इति । अरसहस्रं रत्नमयं रवितेजस्तिरस्कारकं धर्मचक्रं अग्रेडने गगने निराधारं गच्छति । अष्ट मंगलानि भवन्ति, तानि कानि ? छत्र-ध्वज-दर्पणकलश-चामर-भंगार-ताल-सुप्रतीक इत्यष्ट मंगलानि चतुर्दशोऽतिशयः। एते चतुर्दशातिशया देवोपनीता भवन्ति । तथाष्टप्रातिहार्याणि भवन्ति, कानि तानीत्याह ?-- अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥ गइ इंदियं च काए जोए वेए कसाय णाणे य । संजम दंसण लेसा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे॥३३॥ गतौ इन्द्रिये च काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने च। संयमे दर्शने लेश्यायां भव्यत्वे सम्यक्त्वे संज्ञिनि आहारे ॥ गइ नारकतिर्यमनुष्यदेवगतीनां मध्येऽर्हतो मनुष्युगतिः। इंदियं स्पर्शन सनघ्राणचक्षुःश्रोत्रपंचेन्द्रियजातीनां मध्येऽर्हन् पंचेन्द्रियजातिः । पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसकायानां मध्येऽर्हन् त्रसकायः । जोए सत्यमनोयोगासत्यमनोयोगोभयमनोयोगानुभयमनोयोगानामर्हतः सत्यानुभयमनोयोगौ, सत्यवचनयोगासत्यवचनयोगोभयवचनयोगानुभयवचनयोगानां मध्येऽर्हतः सत्यानुभयवचनयोगौ, औदारिककाययोगौदारिकमिश्रकाययोगवैक्रियिककाययोगवैक्रियिकमिश्रकाययोगाहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगकार्मणकाययोगानां मध्येऽर्हतः सप्त (त्रि) योगाः, सत्यमनोयोगोऽनुभयमनोयोगः सत्यवचनयोगोऽनुभयवचनयोग औदारिककाययोग Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । १०१ औदारिकमिश्रकाययोगः कार्मणकाययोगश्चेति सप्तयोगाः। वेए स्त्रीपुंन्नपुंसकवेदत्रयमध्येऽर्हतः कोऽपि वेदो नास्ति । कसाय पंचविंशतिकषायाणां मध्येऽर्हतः कोऽपि कषायो नास्ति । णाणे य पंचज्ञानानां मध्येऽर्हतः केवलज्ञानमेकं । संजम सप्तानां संयमानां मध्येऽर्हतः संयम एक एव यथाख्यातचारित्रं । दंसण चतुर्णी दर्शनानां मध्ये दर्शनमेकमेव केवलदर्शनं । लेसा षण्णां लेश्यानां मध्येऽर्हतो लेश्या एकैत्र शुक्ललेश्या । भविया भव्यद्वयमध्येऽर्हन् भव्य एव । सम्मत्त षण्णां सम्यक्त्वानामर्हतः सम्यक्त्वमेकमेव क्षायिकसम्यक्त्वं । संज्ञिद्वयमध्येऽर्हन् संज्ञी ह्येक एव । आहारे आहारकद्वयमध्येऽर्हत आहारकानाहरकद्वयं । आहारो य सरीसे तेह इंदियआणपाणभासा य । पज्जत्तिगुणसमिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरुहो ॥ ३४॥ आहारः च शरीरं तथा इन्द्रियानप्राणभाषाश्च । पर्याप्तिगुणसमृद्धः उत्तमदेवो भवति अर्हन् ॥ आहारो य सरीरो आहारः समयं समयं प्रत्यनन्ता: परमाणवोऽनन्यजनसाधारणाः शरीरस्थितिहेतवः पुण्यरूपाः शरीरे सम्बन्धं यान्ति नोकर्मरूपा अहर्त आहार उच्यते न वितरमनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति तस्मानिद्राग्लानिरुत्पद्यते कथं भगवानर्हन् देवता कथ्यते । कवलाहारं भुञ्जानो मनुष्य एव । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण भगवतामानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ ! परमोऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥१॥ क्षुद्वेदनायां कवलाहारं भुंजानो भगवान् कथमनन्तसौख्यवानुच्यते वेदनायां सुखच्छेदत्वादित्यादि प्रमेयकमलमार्तण्डादिषु कवलाहारस्य १ इंदियमण इति पाठान्तरं । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ षट्प्राभते निषिद्धत्वात् , स्त्रीमुक्तेरपि । शरीरपर्याप्तिः । तह इंदियआणपाणभासा य तथा इन्द्रियपर्याप्तिः, आनप्राणपर्याप्तिः कोऽर्थः उच्छासनिःश्वासपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, चकारान्मनःपर्याप्तिः, एवं कायवाङ्मनसां सत्तायां सत्यामपि भगवतः कर्मबन्धो नास्ति जीवन्मुक्तत्वात्तस्य । तथा चोक्तंकायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया। नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर! तावकमचिन्त्यमाहितम् ॥१॥ पज्जत्तिगुणसमिद्धो षट्पर्याप्तिगुणसमृद्धः संयुक्तः । उत्तमदेवो हवइ अरुहो उत्तमदेवो भवत्यर्हन् न तु हरिहरहिरण्यगर्भादय उत्तमदेवा भवन्ति तेषां दोषसद्भावात् । उक्तं च द्रुहिणाधोक्षजेशानशाक्यसूरपुरःसराः। यदि रागाद्यधिष्ठानं कथं तत्राप्तता भवेत् ॥ १ ॥ रागादिदोषसंभूतिज्ञेयाऽमीषु तदागमात् । असतः परदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ॥ २॥ अजस्तिलोत्तमाचित्तः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः। अर्धनारीश्वरः शंभुस्तथाप्येषु किलाप्तता ॥३॥ पंच वि इंदियपाणा मणवयकाएण तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दहपाणा ॥ ३५॥ पश्चापि इन्द्रियप्राणा मनोवचःकायैः त्रयो बलप्राणाः । आनप्राणप्राणाः आयुकप्राणेन भवन्ति दशप्राणाः ॥ पंच वि इंदियपाणा इन्द्रियप्राणाः पंच भवन्ति । मणवचिकाएण तिणि बलपाणा मनोवचःकायैर्बलप्राणास्त्रयो भवन्ति । आणप्पागप्पाणा आनप्राणप्राणा उच्छासनिःश्वासलक्षण एकः प्राणः । आउ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । १०३ गपाणेण होंति दहपाणा आयुकप्राणेन कृत्वा दशप्राणा भवन्ति । यथा आयुः शब्दः सान्तो नपुंसकलिंगे वर्तते तथा आयु इत्युकारान्तोऽ पि नपुंसके वर्तते । एवं दशप्राणा भवन्तीति ज्ञातव्यं । मणुयभवे पंचिंदिय जीवट्टासु होइ चउदसमे । एदे गुणगणत्तो गुणमारूढो हवइ अरुहो || ३६॥ मनुजभत्रे पंचेन्द्रियो जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे । एतद्गुणगणयुक्तो गुणमारूढो भवति अर्हन् ॥ मणुयभवे पंचिंदिय मनुजभवेऽर्हन् कथ्यते पंचेन्द्रियो ऽर्हन्नुच्यते । जीवाणेसु होइ चउदसमे जीवस्थानेषु मध्ये चतुर्दशे स्थानेऽर्हन् भवति अयोगकेवल्यप्यर्हन् भवतीति भावः । एदे गुणगणजुत्तो एतगुणगणयुक्तः । गुणमारूढो हवइ अरुहो गुणस्थानमा रूढोऽर्हन भवति गुणस्थानात्परतः सिद्ध उच्यते इति भावः । जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवेज्जियं विमलं । सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगंछा य दोसो य ॥ ३७॥ जराव्याधिदुः खरहितः अहारनीहारवर्जितः विमलः । सिंहाणः खेलः स्वेदः नास्ति दुर्गन्धश्च दोषश्च ॥ जरवाहिदुक्खरहियं जरारहितो व्याधिरहितः शारीरमानसागन्तुदुःख र हितोऽर्हन् भवति, प्राकृते लिंगभेदत्वात् जरवाहिदुक्खर हियं इति नपुंसकलिंगनिर्देशो ज्ञातव्यः एवमुत्तरत्रापि । आहारणिहारवज्जियं आहारनिहारवर्जितः कचलाहाररहितोऽईन् भवति नीहाररहितो बहिर्भूमिबाधारहितः । अनेन वाक्येन श्वेतपटमतं निराकृतं । विमलं शरीरे मलमर्हतो न भवति । सिंहाण खेल सेओ सिंहाणः नासायां १ विवज्जियं मूलगाथा पाठः Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते १०४ मलो न भवति, खेला निष्ठीवनमर्हति नास्ति, स्वेदश्च शरीरे प्रस्वेदोऽईति न वर्तते । णत्थि दुगंछा य दोसो य अन्यदपि जुगुप्साहेतुभूतं किमपि पिटकादिक ( कं) अर्हति न वर्तते । दोषश्च वातपित्तश्लेष्माणोऽर्हति न वर्त्तन्ते । दसपाणा पज्जत्ती असहस्सा य लक्खणा भणिया। गोखीरसंखधवलं मंसं रुहिरं च सव्वंगे ॥ ३८ ॥ दशप्राणाः पर्याप्तयः अटसहस्राणि च लक्षणानि भणितानि । गोक्षीरशंखधवलं मांसं रुधिरं च सर्वाङ्गे ॥ दसपाणा पज्जत्ती दशप्राणाः पूर्वोक्तलक्षणा अर्हति भवन्ति, पट्पर्याप्तयश्चार्हति भवन्ति । अदृसहस्सा य लक्खणा भणिया अष्टा. धिकं सहस्रमेकं लक्षणानां भणितं। तत्र नवशतानि तिलमसकादीनि व्यञ्जनानि भवन्ति, अष्टाधिकं शतं लक्षणानां भवति । तथा चोक्तं-- प्रसिद्धाष्टसहस्रद्धलक्षणं त्वां गिरां पतिम् । नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ॥१॥ तेषां लक्षणानां मध्ये कानिचिदुच्यन्ते । तथा हि। श्रीवृक्षः, शंखः, अब्जं, स्वस्तिकः, अंकुशः, तोरणं, चामरं, श्वेतच्छत्रं, सिंहासनं, ध्वजः, झषौ, कुंभौ, कूर्मः, चक्रं, समुद्रः, सरोवरं, विमानं, भवनं, नागः, नरनार्यो, सिंहः, बाणः, धनुः, मेरुः, इन्द्रः, गंगा, पुरं, गोपुरं, चन्द्रसूर्यो, जात्यश्वः, व्यजनं, वेणु, वीणा, मृदंगः, सृजौ, पट्टांशुकं, आपणः, कुंडलादीनि विचित्राभरणानि, उद्यानं फलिनं, सुपक्ककलमक्षेत्रं, रत्नद्वीपः, वज्र, मही, लक्ष्मीः , सरस्वती, सुरभिः, सौरभेयः, चूडारत्नं, महानिधिः, कल्पवली, हिरण्यं, जंबूवृक्षः, गरुडः, नक्षत्राणि, तारकाः, सौधः, ग्रहाः, सिद्धार्थपादपाः, प्रातिहार्याणि, मंगलानि, एवमादीनि अष्टो Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । १०५ त्तरं शतं लक्षणानि । गोखीरसंखधवलं गोक्षीरवच्छंखवद्धवलमुज्वलं । मंसं रुहिरं च सव्वंगे मांसं गोक्षीरवद्धवलं रुधिरं गोक्षीरवद्धवलं सर्वाङ्गे सर्वस्मिन् शरीरे। एरिसगुणेहिं सव्वं अइसयवंत सुपरिमलामोयं । ओरालियं च कायं णायव्वं अरुहपुरिसस्स ॥ ३९ ॥ ईदृशगुणैः सर्वः अतिशयवान् सुपरिमलामोदः । __ आदारित्रश्च कायः ज्ञातव्यः अर्हत्पुरुषस्य ॥ एरिसगुणेहिं सव्वं ईदृशगुणैः संयुक्तः सर्वः कायोऽर्हत्पुरुषस्य ज्ञातव्यः इति सम्बन्धः । अइसयवंतं सुपरिमलामोयं अतिशयवान् सुष्ठु अतिशयेन परिमलेन विमर्दोत्थगन्धेन कर्पूरादिना सदृश: आमोदो गन्धविशेषो यत्र काये स सुपरिमलामोदः । ओरालियं च कायं परमौदारिक: कायः शरीरमर्हत्पुरुषस्य भवति स्थिरः स्थूलरूपश्चक्षुर्गम्य औदारिक उच्यते । णायव्वं अरुहपुरिसस्स ज्ञातव्यो वेदितव्यः कायोऽहत्पुरुषस्य श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागस्य शरीरं ज्ञातव्यमित्यर्थः । मयरायदोसरहिओ कसायमलवज्जिओ य सुविसुद्धो। चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयव्वो ॥४०॥ मदरागदोषरहितः कषायमलवर्जितश्च सुविशुद्धः । चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्यः ॥ . मयरायदोसरहिओ मदरहितो रागरहितो दोषरहितः । कसायमलवज्जिओ य सुविसुद्धो कषायाः क्रोधमानमायालोभाः, मला हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकलक्षणा नोकषायास्तैर्वर्जितो रहितः, सुविशुद्धः शान्तमूर्तिः । चित्तपरिणामरहिदो मनोव्यापाररहितः । केवलभावे मुणेयव्यो क्षायिकभावे मुनितव्यो ज्ञातव्यो ऽर्हन्निति । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते सम्मदंसणि पस्सइ जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मत्तगुणविसुद्धो भावो अरुहस्स णायव्यो ।। ४१॥ सम्यद्गर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपयायान् । सम्यक्त्वगुणविशुद्धः भावः अर्हतः ज्ञातव्यः ॥ सम्मदंसणि पस्सइ सम्यग्दर्शनेन पश्यति सम्यनिस्तुषतया दर्शनेन सत्तारूपलक्षणेन पश्यति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति । जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया जानाति ज्ञानेन केवलज्ञानन विशेषगोचरेण साकाररूपेण सम्यग्जानाति द्रव्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशलक्षणानि । सम्मत्तगुणविसुद्धो सम्यक्त्वगुणेन क्षायिकसम्यक्त्वेन विशुद्धो निर्मलः । भावो अरुहस्स णायव्यो भावः स्वरूपं अर्हतः सर्वज्ञस्य ज्ञातव्यो वेदितव्यः । अरहंत--इति श्रीबोधामृतेऽर्हदधिकारो दशमः समाप्तः ।१०। अथेदानी प्रव्रज्यास्वरूपं निरूपयन्ति श्रीकुन्दुकुन्दाचार्याः सप्तदशगाथाभिरिति-- सुण्णहरे तरुहितु उज्जाणे तह मसाणवासे वा । गिरिगुहगिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ॥४२॥ शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा इमशानवासे वा । गिरिगुहागिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसतौ वा ॥ सुण्णहरे तरुहिहे शून्यगृहे निवासः कर्तव्यः प्रव्रज्यावतेत्युपस्कारः । तरुहितु-वृक्षमूले स्थातव्यं । उज्जाणे उद्याने कृत्रिमवने स्थातव्यं । तह मसाणवासे वा तथा श्मशानवासे वा पितृवनस्थाने स्थातव्यं । गिरि गुहगिरिसिहरे वा गिरगुह-गिरेगुहायां स्थातव्यं, गिरिशिखरे वा पर्वतोपरि स्थातव्यं । भीमवणे अहव वसिते वा भीमवने भयानकायाम Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । १०७ टव्यां स्थातव्यं । अथवा वसिते वा-ग्रामनगरादौ वा स्थातव्यं, नगरे पंचरात्रे स्थातव्यं, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यं । सवसा सत्तं तित्थं वच चइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिंणभवणं अह वेज्जं जिणमग्गे जिणवरा विति ॥४३॥ स्ववशाः सत्वं तीर्थ वचश्चैत्यालयः च उक्तः।। जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति ॥ सवसा सत्तं तित्थं एते प्रदेशा: स्ववशा: पराधीनत्वरहिताः स्वाध्यायध्यानयोग्याः । तत्र स्थित्वा किं कर्तव्यमित्याह-सत्तं-छिद्यमाने भिद्यमानेऽपि शतखण्डं क्रियमाणेऽपि निजशरीरे सत्वमखंडितव्रतत्वं निश्चलचारित्रब्रह्मचर्यत्वं रक्षणीयमिति सत्वं साहसः वेध्यं भवति, तथा तीर्थ द्वादशाङ्गं ऊर्जयन्तादिर्वा वेध्यं ध्यानीयं ध्यातव्यं ज्ञातव्यं । वच चइदालत्तयं च बुत्तेहिं वचश्चैत्यालयश्च परमागमशब्दागमयुक्त्यागमपुस्तकं च वेध्यं ध्यातव्यं भवति । तथा चोक्तं-- वारहअंगंगिजा दंसणतिलया चरित्तवच्छहरा । चउदसपुवाहरणा ठावेदव्या य सुअदेवी ॥१॥ उक्तैर्जिनवचनप्रमाणतया। जिणभवणं अह वेज्जं जिनभवनं जिनचैत्यालयः, अथ मंगलभूतं सर्वभव्यजीवमंगलकरं कृत्रिममकृत्रिमं च वेध्यं ध्यातव्यं । तथा चोक्तं नेमिचन्द्रेण चामुण्डरायराजमल्लदेवगुरुणा त्रिलोकसारग्रन्थे भवणवतरजोइसविमाणणरतिरियलोयजिणभवणे । सव्वामरिंदनरव इसंपूजियवंदिए वंदे ॥१॥ सर्वाकृत्रिमचैत्यालयसंख्यापरिज्ञानार्थ श्रीपूज्यदेवैरार्या चक्रे१ भवनव्यन्तरज्योतिर्विमाननरतियग्लोकजिनभवनानि । सर्वामरेन्द्र नरपतिसंपूजितवन्दितानि वन्दे ॥ १ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ षट्प्राभृते नवनवचतुःशतानि च सप्त च नवतिः सहस्रगुणिता षट् च । पंचाशत्पंचवियत्प्रहताः पुनरत्र कोट्योऽष्टौ प्रोक्ताः ॥ १ ॥ अकृत्रिमचत्यालयानां संख्या यथा -- एकाशीत्यधिक चत्वारि शतानि सप्तनवतिसहस्राणि षट्पंचाशल्लक्षाणि अष्टौ कोटयो भवंति । एकैकचैत्यालयेऽष्टाधिकं शतं प्रतिमानां भवति । तासां संख्या यथा- वकोडिसया पणवीसा लक्खा छप्पण्ण सहससगवीसा । चउसैय तह अडयाला जिणपडिम अकिट्टिमं वंदे ॥ १ ॥ नवशतकोटयः पंचविशतिकोटयश्च पैट्पंचाशल्लक्षाः सप्तविंशतिसहस्राचत्वारि शतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि भवन्ति । ज्योतिषां व्यन्तराणां च चैत्यालयानां संख्या नास्ति । जिणमग्गे जिणवरा विंति जिनमार्गे जिनशासने जिनवरा विदन्ति जानन्ति । सत्वं, तीर्थ, शास्त्र, पुस्तकं, जिनभवनं, प्रतिमाश्च एतत्सर्वं वेध्यं मुनीनां श्रात्रकाणां च सम्यदृष्टीनां वेध्यं ध्यानावलम्बनीयं वस्त्वर्हन्तः कथयन्ति । तद्ये न मानयन्ति ते मिथ्यादृष्टो भवन्तीति भावार्थः । पंचमहव्वयजुत्ता पंचिदियसंजया निरावेक्खा | सज्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छंति ॥ ४४ ॥ पञ्च महाव्रतयुक्ताः पंचेन्द्रियसंयता निरापेक्षा । स्वाध्यायध्यानयुक्ता मुनिवरवृषभा नीच्छन्ति ॥ पंचमहव्वयजुत्ता पंचमहाव्रतयुक्ताः पूर्वोक्तपंचमहाव्रतयुक्ताः सर्वजीवदयाप्रतिपालका ऋषयः सत्यवचसोऽचौर्यव्रतधारिणः ब्रह्मचर्यव्रतो २ नवकोटिशतानि पंचविंशतिं लक्षाः षट्पंचाशतः सहस्राणि सप्तविंशानि | चतुःशतानि तथाऽष्टचत्वारिंशतः जिनप्रतिमाः अकृत्रिमा: वन्दे ॥ २ ॥ ३ तेवण्ण. ४ णवसय ५ त्रिपंचाश० ६ नवशत० इत्येवं रूपेण पाठेन भवितव्यं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभतं । १०९ पेता निष्परिग्रहा अश्रवणप्रायोग्यपरिग्रहपरित्यक्ता रजनिभोजनवर्जिन एतद्वेध्यं वस्तु निश्चयेनेच्छन्ति मानयन्ति जिनवचनप्रमाणकारित्वात् । पंचिंदियसंजया निरावेक्खा पंचेंद्रियाणि संयतानि बद्धानि निजविषयेषु प्रवर्तितुं व्यावृत्तानि निषिद्धानि यैस्ते पंचेन्द्रियसंयताः । निरपेक्षाः प्रत्युपकारवाञ्छारहिता भव्यजीवसम्बोधनपरा एतद्वेध्यं नीच्छन्ति । सज्झायझाणजुत्ता स्वाध्यायध्यानयुक्ताः । स्वाध्यायः पंचप्रकारः, वाचना-शिष्याणां व्युत्पत्तिनिमित्तं शास्त्रार्थकथनं, पृच्छनाअनुयोगकरणं, अनुप्रेक्षा-पठितस्य व्याकृतस्य च शास्त्रस्य पुनश्चेतसि चिन्तनं, आम्नाय:-शुद्धपठनं, धर्मोपदेशः-महापुराणादिशास्त्रस्य मुनीनां श्रावकादीनामग्रतो व्याख्यानविधानं । ध्यान-आर्तध्यानरौद्रध्यानद्वयं परिहृत्य धर्मध्यानशुक्लध्यानद्वये प्रवर्तनं विधिनिषेधरूपं । मुगिवरवसहा णिइच्छंति मुनिवरवृषभाः सर्वपापण्डिभ्योऽधिकश्रेष्ठाः सर्वलोकप्रशंसनीयाः परमार्थयतयः दिगम्बरा नि-अतिशयेनेच्छन्ति वेध्यं वाञ्छन्ति पुनःपुनरभ्यासं कुर्वन्ति । गिहगंथमोहमुक्का वावीसपरीसहाजि अकसाया। पावारंभविमुक्का पयजा एरिसा भणिया ॥ ४५ ॥ गृहग्रन्थमोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहजिदकषाया। पापारम्भविमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ गिहगंथमोहमुक्का गृहस्य निवासस्य, ग्रन्थस्य परिग्रहस्य बाह्यस्य दशप्रकारस्य मोहेन मुक्ता ममेदं भावरहिता प्रव्रज्या दीक्षा भवति । के ते दश बाह्यपरिग्रहा: ? क्षेत्रं सस्याधिकरणं । वास्तु गृ । हिरण्यं रूप्यद्रम्मादि । सुवर्ण कांचनं । धनं गोमहिध्यादि । धान्यं ब्रीह्यादि । दासी कर्मकरी । दार: नपुंसकवर्गः कर्मकरः । कुप्यं क्षौमकासकौशेयच Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० षट्प्राभूते न्दनागुर्वादि । चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहरहिताः । के ते चतुर्दशाभ्यन्तरप T रिग्रहाः : मिथ्यात्ववेदौ हास्यादिषट् कषायचतुष्टयं । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ १ ॥ वावीसपरीसहाजि अकसाया द्वाविंशतिपरीपहजित्प्रव्रज्या भवति के ते द्वाविंशतिपरीषहाः ? क्षुधाजयः, पिपासा - तृषाजयः, शीतजयः, उष्णजयः, दंशमशकसर्वोपघातसहनं, नग्नत्वसहनं, अरतिजयः, स्त्रीपरोषहजयः, चर्या - गमनं तस्य जयः, निषद्या उपवेशनं तस्य जयः, शय्यासहनं, ओक्रोशजयः अनिष्टवचनसहनं, वधसहनं, याचनसहनं न किमपि याचते, अलाभसहनमन्तरायसहनं, रोगसहनं, तृणस्पर्शसहनं, मलसहनं लोचसहनं च, सत्कारपुरस्कारः पूजाया अकरणस्य सन्मानाग्रासनादानस्य च सहनं सत्कारपुरस्कारजयः, प्रज्ञापरीषहजयो ज्ञानमदनिरासः अज्ञानोऽयमिति वचनसहनमज्ञानपरीषहजयः, अदर्शनपरीषहजयो लब्ध्यभावसहनं । तथा चोक्तमुमास्वामिना - क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशक नाग्न्यारतिस्त्रीचर्या " निषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानि ॥ अकसाया- कषायरहिता प्रव्रज्या भवति । पावारंभविमुक्का पापारम्भविमुक्ता सेवाकृषिवाणिज्यादि पापारंभस्तस्माद्विमुक्ता । इत्यनेन किमुक्तं भवति यद्दाविडसंघा जैनाभासा वदन्ति तत्प्रत्युक्तं- बीऐसु णत्थि जीवो उब्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि । सावअं ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकपियं अहं ॥ १ ॥ १ बीजेषु नास्ति जीवः उद्भाशनं नास्ति प्रासुकं नास्ति । सावद्यं न हि मन्यते न गणयति गृहकल्पितं आर्तं ॥ १ ॥ कच्छं क्षेत्रं वसतिं वाणिज्यं कारयित्वा जीवन् । स्नान् शीतलनीरे पापं प्रचुरं समर्जयति ॥ २ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिजं कारिऊण जीवंतो । तो सीलनीरे पावं पउरं समज्जेदि ॥ २ ॥ पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रव्रज्या दीक्षा ईदृशी भणिता । घणघण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताइ । कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ४६ ॥ धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि । कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ घणघण्णवत्थदाणं धनं गवादि, धान्यं गोधूमादि, वस्त्रं पट्टाम्बरादि एतेषां दानं विश्राणनं मुनयो न कुर्वन्ति । हिरण्णसयणासणाइ छताइ हिरण्यं रूप्यघटितं नाणकं सुवर्णघटितं नाणकं ताम्ररूप्यमिश्रघटितं नाणकं केवलताम्रारिघटितं नाणकं हिरण्यमुच्यते तद्दानं मुनयो न कुर्वन्ति । शयनं अष्टशल्या खट्वा पल्यङ्कः तद्दानं मुनयो न कुर्वन्ति । आसनं पीठं आदिशब्दात् पट्टलं, छत्रमातपत्रं आदिशब्दाद्ध्वजाचामरादिकं मुनयो न ददति । कुद्दाणविरहरहिया कुत्सितदानस्य विशेषेण रस्त्यागस्तेन रहिता । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रत्रज्या दीक्षेदृशी भणिता श्री गौतमस्वामिना वीरेण तीर्थकृता प्रतिपादिता । इत्यनेन येऽनन्त सरस्वती नरसिंहभारती वासुदेव सरस्वतीप्रभृतयः सांन्यासिका अपि सन्तः कुत्सितानि दानानि ददति तन्मतं निराकृतमिति भावः । १११ सत्तू मित्ते व समा पसाणंदाअलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ४७ ॥ शत्रुमित्रे च समा प्रशंसानिन्दाऽलब्धिलब्धिसमा । तृणकनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ सत्तू मित्ते व समा रात्रौ वैरिणि, मित्रे सुहृदि समा रागद्वेषरहिता । पसंसर्णिदाअलद्धिलद्धिसमा प्रशंसायां गुणस्तुतौ, निन्दायामवर्णवादे, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पट्प्राभृते लब्धौ निरन्तरायभोजने, अलब्धौ भोजनाद्यन्तराये च समा सदृशी प्रव्रज्या भवति । तणकणए समभावा तृणे, कनके सुवर्णे च, समभावा अनादरादररहिता । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रत्रज्या ईदृशी भणिता चिरन्तनाचार्यैः प्रतिपादिता । उत्तममज्झिमगेहे दारिदे ईसरे निरावेक्खा | सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ४८ ॥ उत्तममध्यम गेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा । सर्वत्र गृहीतपिण्डा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ उत्तममज्झिमगेहे उत्तमगृहे उत्तङ्गतोरणादिसहिते राजसदनादौ, मध्यमगेहे नीचैर्गृहे तृणपर्णादिनिर्मिते, निरपेक्षा उच्चैर्गृहं भिक्षार्थ गच्छामि नीचैर्गृहं अहं न व्रजामि न प्रविशामीत्यपेक्षारहिता प्रव्रज्या भवति । दारिद्दे ईसरे निरावेक्खा दरिद्रस्य निर्धनस्य गृहं न प्रविशामि, ईश्वरस्य धनवतो गृहे प्रविशाम्यहं निवेशे इत्यपेक्षारहिता प्रवज्या भवति । सव्वत्थ गिहिदपिंडा सर्वत्र योग्यगृहे गृहीतपिण्डा स्वीकृताहारा प्रवज्या ईदृशी भवति । किं तदयोग्यं गृहं यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याह गायकस्य तलारस्य, नीचकर्मोपजीविनः । मालिकस्य विलिंगस्य वेश्यायास्तैलिकस्य च ॥ १ ॥ अस्यायमर्थः-गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते । तलारस्य कोटपालस्य, नीचकर्मोपजीविनः चर्मजलशकटादेर्वाहकादेः श्रावकस्यापि गृहे न भुज्यते । मालिकस्य पुष्पोपजीविनः, विलिंगस्य भरटस्य, वेश्याया गणिकायाः, तैलिकस्य घांचिकस्य । दीनस्य सूतिकायाश्च छिपकस्य विशेषतः । मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्च न ॥ २ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । ११३ दीनस्य श्रावकोऽपि सन् यो दीनं भाषते । सूतिकाया या बालकानां जननं कारयति । अन्यत्सुगमं । शोलिको मालि र श्चैव कुंभकारस्तिलंतुदः । नापितश्चेति विज्ञेया पंचते पंचकारवः ॥३॥ रजकस्तक्षक श्चैव अयःवर्णकारकः। दृषत्कारादयश्चेति का वो बहवः स्मृताः॥४॥ क्रियते भोजनं गेहे यतिना मोक्तुमिच्छुना। एवमादिकमप्यन्यञ्चिन्तनीयं स्वचेतसा ॥५॥ वरं स्वहस्तेन कृतः पाको नान्यत्र दुदृशां। मन्दिरे भोजनं यस्मात्स सावद्यसंगमः ॥६॥ णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिदोसा । णिम्मम णिरहंकारा पव्यज्जा एरिसा भणिया ॥४९॥ निर्ग्रन्था निस्सना निर्मानाशा रागा निर्दोषा। निर्ममा निरहंकार। प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ णिग्गंथा परिग्रहरहिता,अथवा नि-आतशयवद्भिः ग्रन्थैः शास्त्रैः सहिता निग्रन्था। णिस्संगा स्त्रीप्रमुखसंगरहिता, अथवा निश्चितैः शोभनैः अङ्गादेशाङ्गैः संयुक्ता निस्संगा, अथवा निश्चितरङ्गष्टभिः शरीरैरुपाङ्गैश्च सहिता। प्राशेन ज्ञातलोकव्यवहृतिमतिना तेन मोहोज्झितेन प्राग्विज्ञातः सुदेशो द्वजनृपतिवणिग्वर्णवण्याङ्गापूर्णः । भूभृल्लोकाविरुद्धः स्वजनपरिजनोन्मोचितो वीतमोह श्चित्रापस्माररोगाद्यगत इति च ज्ञातिसंकीर्तन द्यैः॥१॥ इति वीरनन्दिभिरक्तत्वात । अथ कान तान्यष्टावङ्गानीति चेत् ? - नलेया बाहू य तहा णियंबट्टी उरं च सीसं च । अटेव दु अंगाई सेस उवगाई देहसव ॥१॥ १ कोलिको. ख । २ नि. टा। ३ आचामा द्वितीय ठे। ४ नलको बाहू च तथा नितम्बपृष्टी उरश्च शीर्ष च । अष्टैव तु अंगानि शेषानि उपाङ्गानि देहस्य ॥१॥ षद. ८ ___ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ षट्प्राभूतेकुरूपिणो हीनाधिकाङ्गस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रव्रज्या न भवति । णिम्माणासा निर्माना अष्टमदरहिता, निराशा आशारहिता। उक्तं च आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमं । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥१॥ अथवाआशा दासीकृता येन तेन दासीकृतं जगत् । आशाया यो भवेद्दासः स दासः सर्वदेहिनाम् ॥ १ ॥ निरश्वा अश्वरहिता तदुपलक्षणं गजवृषादीनां । अराय रागरहिता, अथवा प्रव्रज्यायां राजभिः सह स्नेहादिकं न कर्तव्यं, तदुपलक्षणं मंत्र्यादीनां प्रत्यक्षनरकपातवद्वयाख्यातत्वात् , केचिच्च जिनधर्मप्रभावनार्थ मुनीनां सुस्थित्यर्थं च तन्निषेधं न कुर्वन्ति म्लेच्छादिपीडानिराकरणहेतुत्वात् । णिदोसा अप्रीतिलक्षणद्वेषरहिता, अथवा वातपित्तश्लेष्मादिदोषरहितस्य प्रव्रज्या भवतीति निर्दोषा। णिम्मम निर्ममा ममति शब्दोऽव्ययः निर्गतं ममेति यस्यां प्रव्रज्यायां सा निर्ममा, अथवा मश्च मा च ममे निर्गते ममे द्वे यस्याः सा निर्ममा मद्यमांसमधुमकारत्रयरहिता लक्ष्मीस्वीकाररहिता चेत्यर्थः । तथा चोक्तं-- अकिंचनोग्हमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः। योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥१॥ णिरहंकारा अहङ्काररहिता कर्मोदयप्रधाना सुखं वा दुःखं वा जीवस्य कर्मोदयेन भवति मयेदं कृतमित्यहङ्कारो न कर्त्तव्यमित्यर्थः । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण तार्किकशिरोमणिना-- अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा। अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः संहत्यकार्येष्विति साध्ववादि ॥१॥ १ य आशायाः टी. । २ नि. टी. । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arun-anvr.x.vvv बोधप्राभृतं । ११५ संहत्यकार्येष्विति कोऽर्थः ? सुखादिकार्योत्पादकेषु मंत्रतंत्रादिसहकारिकारणेषु मिलित्वा । अथवा णिरहंकारा-णिरह-निरघं निष्पापं सर्वसावद्ययोगरहितत्वं यथा भवत्त्येवंकारा, कस्य ? शुद्धबुद्धकस्वभावस्य निजात्मस्वरूपस्य । आरात्समीपतो वर्तते कारा, चिच्चमत्कारलक्षणज्ञायकैकस्व भावटंकोत्कीर्णनिजात्मनि तल्लीना प्रव्रज्या भवतीति ज्ञातव्यं । “पापक्रियाविरमणं चरणं किलेति” वचनात् । पव्वज्जा प्रव्रज्या दीक्षा । एरिसा ईदृशी उक्तलक्षणा । भणिया गौतमस्वामिना प्रतिपादिता। णिण्णेहा जिल्लोहा, णिम्मोहा णिव्वियार णिकलुसा। णिब्भय णिरासभावा पन्चज्जा एरिसा भणिया ॥५०॥ निःस्नेहा निर्लोभा निर्मोहा निर्विकारा निष्कलुषा । "निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ णिण्णेहा नि:स्नेहा पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहरहिता, अथवा तैलाद्यभ्यङ्गरहिता निःस्नेहा । णिल्लोहा हे मुने ! हे. तपस्विन् ! तवेदं वस्तु वस्त्रादिकं दास्यामि मम गृहे भिक्षा गृह्यतां भवतेति लोभरहिता, अथवा सुवर्णरजतताम्रायस्त्रपुनागादिभाजनविवर्जिता निर्लोभा । णिम्मोहा दर्शनमोहो मिथ्यात्वं त्रिविधं चारित्रमोहः पंचविंशतिप्रकारस्ताभ्यामपि रहिता निर्मोहा, अथवा निश्चिताया अकलंकदेवसमन्तभद्रविद्यानन्दिप्रभाचंद्रादिभिस्तार्किकैर्निधारिताया माया प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणोपलक्षिताया प्रमाणद्वयस्य ऊहो वितर्को विचारणा यस्यां प्रव्रज्यायां सा निर्मोहा। णिवियार निर्विकारा वस्त्राभरणादिवेषविकाररहिता निर्विकारा, अथवा निश्चितो विचारो विवेको भेदज्ञानं यस्यां सा निर्विचारा, आत्मा पृथक् कर्म पृथक् इति विवेक पेता। उक्तं च नि. टी. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ षट्प्राभृते मानुष्यं सत्कुले जन्म लक्ष्मीवुद्धिः कृतज्ञता। विवेकेन विना सर्व सदप्येतन किंचन ॥१॥ अन्यच्चआत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥ १ ॥ णिक्कलुसा निष्कलुषा निष्पापा। णिब्भय निर्भया सप्तभयरहिता। णिरासभावा निराशभावा आशारहितस्वभावा । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रव्रज्या ईदृशी भणिता श्रीवृषभनाथेनेति शेषः । जहजायसवसरिसा अवलंबियभुअणिराउहा संता । परकियनिलयनिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया॥५१॥ यथाजातरूपसदृशा अवलम्बितभुजा निरायुधा शान्ता । परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ जहजायरूवसरिसा यथाजातरूपसदृशा नेग्नरूपा इत्यर्थः । अवलंबियभुअ अवलम्बितभुजा प्रायण कायोत्सर्गस्थिता पद्मासनादिस्थिता वा । पद्मासनं किं ?...-. सन्यस्ताभ्यामधोऽह्रिभ्यामूर्वोपरि युक्ततः । भवेच्च सगुल्फाभ्यां पद्मवीर सुखासनं ॥१॥ तत्र सुखासनस्येदं लक्षणं गुल्फोत्तानकरांगुष्ठरेखारोमालिनासिका। समहाष्टः समाः कुयान्नातिस्तब्धो न वामनः ॥ १॥ णिराउहा निगयुधा दण्डाद्यायुधरहिता, अथवा निरायुर्हा प्रासुकान् १ नि. टी. । २ सम्यग्दृष्टिः सम कुलार्याः खः पुस्तके पाठः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्रभृतं । ११७ प्रदेशान् हन्ति गच्छतीति निरायुर्हा | संता शान्तरूपा अक्रूरस्वभावा । परकियनिलय निवासा परेण केनचित्कृते निलये उपाश्रये निवासः स्थितिर्यस्यां सा परकृत निलयनिवासा सर्पवत् । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रत्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता प्रियकारिणीपुत्रेणेति शेषः । उवसमखमदमजुत्ता सरीरसकारवजिया रुक्खा । मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५२ ।। उपशमक्षमादमयुक्ता शरीरसत्कारवर्जिता रुक्षा । मदरागर्दोषरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ उवसमखमदमजुत्ता उपशमेन कर्मक्षयेण निर्जरया संवरेण अक्रूरपरिणामेन वा युक्ता, क्षमया उत्तमक्षमया युक्ता । उक्तं च शुभचन्द्रेण योगिना आकृष्टोऽहं हृतो नैव छतो वा न द्विधाकृतः । मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना ॥ १ ॥ दमेन युक्ता जितेन्द्रिया व्रतोपपन्ना वा । सरीरसक्कारवज्जिया शरीरसंस्कारवर्जिता दन्तनखकेश मुखाद्यवयत्रशृङ्गाररहिता | रुक्खा तैलाद्यभ्यंगरहिता । मयरायदोसरहिया मदरहिता मायारहिता वा, प्रीतिलक्षणरागरहिता, अप्रीतिलक्षणदोषरहिता दोषो वा त्रतादिष्वतीचारस्तेन रहिता । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रत्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता सिद्धार्थनन्दनेनेति शेषः । विवरीयमूढभावा पण कम्मट्ट पहमिच्छत्ता । सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५३ ॥ विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा । सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ षट्प्राभते विवरीयमृढभावा विपरीतमूढभावा विशेषेण परि समन्तात् इतो गतो नष्टो मूढभावो जडतास्वरूपं यस्याः सा विपरीतमूढभावा। पणहकम्मह णहमिच्छत्ता प्रणष्टानि कर्माण्यष्टौ यस्यां सा प्रणष्टकाष्टा नष्टमिथ्यात्वा पंचमिथ्यात्वरहिता । उक्तं च एयंत बुद्धदरिसी विवरीओ बंभ तावसो विणओ। इंदो वि य संसयिदो मक्कडियो चेव अण्णाणी ॥१॥ अस्या अयमर्थः-सर्वथा क्षणविनाशवादी बुद्धः । ब्रह्मवादी विपरीतः आत्मानं शाश्वतमेवैकान्तेन मन्यते । तापसो वैनयिकः सर्वविनयेन मोक्षं मन्यते गुणदोषविचारणा तन्मते नास्ति । इन्द्रचन्द्रनागेन्द्रवादी संशयमिथ्यादृष्टि: चतुरपरजैनाभासाश्च । संशयवादी किलैवं मन्यते---- सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभावभावियप्पा लहेइ मोक्खं ण संदेहो ॥१॥ मस्करपूरणः खल्वेवं वदति अण्णाणादो मोक्खं जाणं णस्थित्ति मुक्कजीवाणं । पुणरागमणं भमणं भवे भवे णस्थि जीवाणं ॥१॥ सम्मत्तगुणविसुद्धा सम्यक्त्वमेव गुणस्तेन विशुद्धा निर्मला, अथवा सम्यक्त्वगुणैनिःशंकितनिष्कांक्षितनिर्विचिकित्सितामूढदृष्टयुपगृहनस्थिती करणवात्सल्यप्रभावनालक्षणैरष्टभिः सम्यक्त्वगुणैर्विशुद्धा विशेषेण निर्मला पंचविंशतिदोषरहिता सम्यक्त्वगुणविशुद्धा । पव्वज्जा एरिसा भणिया , एकान्तो बुद्धदर्शी विपरीतो ब्राह्मणः तापसः विनयः । _इन्द्रोऽपि च संशयितः मस्करी चैवाज्ञानी ॥१॥ २ अस्याः छाया पूर्व द्वादशमे पृष्ठे गता। ३ अज्ञानतो मोक्षं ज्ञानं नास्तीति मुक्तजीवानां । पुनरागमनं भ्रमणं भवे भवे नास्ति जीवानाम् ॥१॥ ___ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ बोधप्राभृतं । प्रव्रज्या दीक्षा ईदृशी भणिता प्रतिपादिता चतुर्विंशतितमेन तीर्थकृतेति शेषः। जिणमग्गे पव्वज्जा छहसंघयणेसु भणिय णिग्गंथा। भावंति भव्बपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया ॥५४॥ जिनमार्गे प्रव्रज्या षट्संहननेषु भणिता निम्रन्था । भावयन्ति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता ॥ जिणमग्गे पव्वज्जा जिनमार्गे आहेतशासने प्रव्रज्या दीक्षा । छहसंघयणेसु षट्-संहननेषु वज्रर्षभनाराचवज्रनाराचनागचार्धनाराचकीलिकाप्राप्तासृपाटिकनामसु षट्सु संहननेषु । भणिय णिग्गंथा भणिता प्रतिपादिता श्रीन्द्रभूतिनामगणधरदेवेनेति शेषः । कथंभूता भणिता, निग्रन्था यथाजातरूपधारिणी यतोऽस्मिन् क्षेत्रेऽन्त्यो निग्रन्थो वीराङ्गजो यो भविष्यति पंचमकालस्यान्ते स किलाप्राप्तासृपाटिको संहननो भविष्यति तेन षष्ठेऽपि संहनने निग्रन्थप्रव्रज्या ज्ञातव्या । भावंति भव्वपुरिसा भावयन्ति मानयन्ति एतद्वचनं, के ? भव्यपुरुषा आसन्नभव्यजीवाः । कम्मक्खयकारणे भणिया पारम्पर्येण कर्मक्षयकारणे मोक्षप्राप्तिनिमित्तं भणिता प्रतिपादिता । तिलओसत्तनिमित्तं समबाहिरगंथसंगहो णत्थि । पावज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहिं ॥ ५५॥ तिलकोशवमात्रं समबाह्यग्रन्थसंग्रहो नास्ति । प्रव्रज्या भवतेि एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः ॥ तिलओसत्तनिमित्तं तिलस्य पितृप्रियबीजस्य कोशत्वमानं तिलतुषमात्रमपि अश्रमणपरिग्रहः । समबाहिरगंथसंगहो णत्थि ३ अत्रस्थले सर्वत्र एतादृगव पाठः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते तिलतुषमात्रसमोऽपि बाह्यग्रन्थस्य संग्रहो नास्ति न विद्यते । पावज्ज हवइ एसा प्रव्रज्या भवत्येषा । जह भणिया सव्वदरिसीहिं यथा भणिता सर्वदर्शिभिः सर्वज्ञदवारति । उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्थेइ । सिल कठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ।। ५६ ।। उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशेहि नित्यं तिष्ठति । शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥ उवसग्गपरिसहसहा उपसर्गाश्च तिर्यम्मानवदेवाचेतनभवाश्चतुःप्रकाराः, परीषहाश्च पूर्वोक्ता द्वाविंशतिः उपसर्गपरीषहास्तान् सहते तेषु वा सहा समर्था उपसर्गपरीषहसहा । णिज्जगदेसे हि णिच अत्थेइ निर्जनदेशे मनुष्यरहितप्रदेशे वने हि-स्फुटं नित्यं तिष्ठते । सिल कहे भूमितले शिलायां दृषदि, काष्ठे दारुफल के, भूमितले भूमौ तृणायां वा। सव्वे आरुहइ सव्वत्थ एतानि सर्वाणि, आर.हति उपविशति शेते च सर्वत्र वने ग्रामनगरादौ वा। पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ। सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५७ ॥ पशुमहिलाषण्ढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ पसुमहिलसंढसंगं यत्र पशवो भवन्ति तत्र न स्थीयते, यत्र महिला भवन्ति यत्र घंढा नपुंसकानि भवन्ति तत्र न स्थीयते । कुसीलसंग ण कुणइ विकहाओ कुशीलस्य कुत्सिताचारस्य साधुलोकशिक्षापरामुखस्य संगं न करोति-तत्संगतो दुर्ध्यानमुत्पद्यते, न करोति विकथाश्च राजकथास्त्रीकथाभोजनकथाचोरकथाश्चेति । सज्झायझाणजुत्ता स्वा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । ध्यायेन वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशलक्षणेन पंचविधेन युक्ता प्रव्रज्या भवति, ध्यानेन धर्म्यध्यानशुक्लध्यानद्वयेन युक्ता आर्त्तरौद्रदुर्ध्यानद्वयरहिता । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रव्रज्या जैनी दीक्षा ईदृशी एतलक्षणविराजमाना भाणता प्रतिपादिता अकलङ्कदेवेनेति शेषः । तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वजा एरिसा भणिया ॥ ५८॥ तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च । शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ तववयगुणेहिं सुद्धा तपोभिरिच्छानिरोधलक्षणैदिशभिः, व्रतैरहिं. सादिभिः पंचभिः रात्रिभोजनपरिहारव्रतषष्ठैः, गुणैश्चतुरशीतिलक्षलक्षणैः शुद्धा उज्वला । संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य संयमा इन्द्रियप्राणसंयमलक्षणा द्वादश, सम्यक्त्वानि दशप्रकाराणि द्वित्रिप्रकाराणि च, ते च ते गुणा आत्मोपकारकाः परिणामविशेषास्तैर्विशुद्धा निर्मला प्रव्रज्या भवति । निसर्गजमधिगमजं सम्यक्त्वं द्विविधं, उपशमवेद कक्षायिकभेदात्सम्यक्त्वं त्रिविधं । "आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादेगाढंच" इत्यार्याकथिता: सम्यक्त्वस्य दशप्रकारा ज्ञातव्याः । तद्विवरणं वृत्तत्रयं यथा-- आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाशयैव । त्यक्तग्रन्थप्रपंचं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः। मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता. या सद्ज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥ १॥ १ द्वादशमे पृष्ठेऽप्युक्ताः । २ एते त्रयः श्लोकाः त्रयोदशमे पृष्ठेऽप्युक्ताः सविवरणाः । al Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ षट्प्राभूते आकर्ष्याचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः - सूक्तासौ सूत्रदृष्टि१रधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः । कैश्चिजातोपलब्धरसमशमवशाद्वीजदृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ॥२॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरिह तं विद्धि विस्तारदृष्टिं संज्ञातात्कुितश्चित्प्रचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गन्बाहाप्रवचनमवगाहोत्थिता याऽवगाढा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥३॥ सुद्धा गुणेहिं सुद्धा या प्रव्रज्या गुणैः कृत्वा शुद्धा सा शुद्धा कथ्यते न तु वेषमात्रेण शुद्धाच्यते । पव्वज्जा एरिसा भणिया प्रव्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता शान्तिनाथेनेति शेषः । एवं आयत्तणगुणपज्जत्ता बहुविसुद्धसम्मत्ते । णिग्गंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहाखादं ।। ५९ ॥ एवं आत्मन्वगुणपर्याप्ता बहुविशुद्वसम्यक्त्वे । निम्रन्थे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम् ॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण । आयत्तणगुणपज्जत्ता आत्मत्वगुणपर्याप्ता परिपूर्णा, आत्मभावनागुणरहितेयं प्रव्रज्या परिपूर्णा न भवति, आत्मगुणभावनासहिता तु स्तोकापि प्रव्रज्या पर्याप्ता सम्पूर्णा भवतीति भावार्थः। बहुविसुद्धसम्मत्ते बहुविशुद्धसम्यक्त्वे मुनौ प्रव्रज्या पर्याप्ता भवति मिथ्यात्वदूषिते तु नग्नेऽपि मुनौ दीक्षा अदीक्षा भवति संसारविच्छदरहितत्वात् । उत्कृष्टतया नवमवेयकपदं लब्ध्वापि मिथ्यादृष्टयस्तपस्विनः पुनः संसारे पतन्तीति ज्ञात्वा पुनः पुनः भणामि सम्यक्त्ववता मुनिना भवितव्यं । उक्तं चानेनैव भगवता कुन्दकुन्दाचार्येण सम्मं चेव य भावे मिच्छाभावे तहेव बोद्धव्वा । चइऊण मिच्छभावे सम्मम्मि उवडिदे वंदे ॥१॥ १ सम्यंच एव भावा मिथ्यात्वभावाः तथैव बोद्धव्याः त्यक्त्वा मिथ्यात्वभावान् सम्यक्त्वे उपस्थितान् वन्दे ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । १२३ णिग्गंथे निग्रन्थे । जिणमग्गे जैनमार्गे नग्ने जिनमार्गे, वस्त्रसहितस्तु मोक्षं प्राप्नोतीति मिथ्यादृष्टिमार्गः । संखेवेणं संक्षेपेण समासेन । जहाखादं यथा मया कथितं प्रव्रज्या लक्षणं स सर्वोऽपि संक्षेप इति ज्ञातव्यमिति भावः । विस्तरस्तु गौतमस्वामिसूत्रे बोद्धव्यः । पव्वज्जा -- प्रव्रज्यास्वरूपं निरूपितं । प्रव्रज्या कोऽर्थः ? पारिव्राज्यं तस्य सूत्रपदानि सप्तविंशतिर्जिनसेना - चार्यैरुक्तानि । तथा हि जातिर्मूर्तिश्च तत्रस्थं लक्षणं सुन्दराङ्गता प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिर्षवनीथते ॥ १ ॥ सिंहासनोपधाने च छत्रचामरघोषणाः । अशोकवृक्षनिध्यो गृहेँशोभार्वगाहने ॥ २ ॥ क्षेत्राशे" तत्सभा कीर्ति" वंद्यता वाहनानि च । भांषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥ ३ ॥ इति त्रिभिः श्लोकैः सप्तविंशतिः प्रव्रज्यासूत्रपदानि ज्ञातव्यानि । एतेषां विवरणं तैरेव कृतं वर्तते । तथा हि जात्यादिकानिमान् सप्तविंशर्ति परमेष्ठिनाम् । गुणानाहुर्भजेदीक्षां (क्षा) स्तंषु तेष्वकृतादरः ॥ १ ॥ जातिमानप्यनुत्सिक्तः संभजेदर्हतां क्रमौ । यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जातिं चतुष्टयीं ॥ २ ॥ जातौ भवा ज्यात्या तां जात्यां उत्तमां जातिं मुनिर्याति । कस्मिन जात्यन्तरे चतुःप्रकारजातिभेदे । किं कुर्वाणः : अर्हत्क्रमौ भजमानः । जातिरैन्द्री भवेद्दिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता । परमा जातिरार्हन्त्ये स्वात्मोत्था सिद्धिमीयुषाम् ॥ ३ ॥ मूर्त्यादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयी | पुराणशैरसंमोहात्क्वचिच्च त्रितयी मता ॥ ४ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ षट्प्राभूतेकर्शयन् मूर्तिमात्मीयां रक्षन् मूर्तीः शरीरिणां । तपोऽधितिष्ठे दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः ॥५॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनशिनां । लक्षणान्यभिसंधाय तपस्येत्कृतलक्षणः ॥ ६॥ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाग्छन् दिव्यादिसान्दर्यमनिवार्य परं परं ॥ ७ ॥ मलीमसानो व्युत्सृष्टस्वकायप्रभवप्रभः। प्रभोः प्रभां मुनिायन् भवेक्षिप्रं प्रभास्वरम् ॥ ८॥ स्वं मणिस्नेहदीपादितेजोऽपास्य जिनं भजन् । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्वलः ॥९॥ त्यक्त्वाऽस्त्रवस्त्रशस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशान्तभाक्। जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्म क्राधिपो भवेत् ॥ १०॥ त्यक्तस्नानादिसंस्कारः संसृत्य स्नातकं जिनं । मूर्ध्नि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनं ॥ ११ ॥ स्वं स्वाम्यमहि त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनं । सेवित्वा सेवनीयत्वमेष्यत्येष जगजनैः ॥ १५॥ .. स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः। सिंह विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ॥ १३ ॥ स्वोपधानाद्यनादृत्य योऽभूनिरुपधिर्मुनिः। - शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रार्पितशिरस्तटः ॥१४॥ स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसक्रियः। देवैर्विरचितं दीमास्कन्दत्युपधानकं ॥ १५॥ त्यक्तशीतातपत्राणसकलात्मपरिच्छदः । त्रिभिश्छत्रैः समुद्भासिरत्नरुद्भासते स्वयं ॥१६॥ विविधव्यजनत्यागादनुष्ठिततपोविधिः।। चामराणां चतुःषष्ठया वीज्यते जिनपर्यये ॥ १७ ॥ उज्झितान (ने) कसंगीतघोषः कृत्वा तपोविधं । स्यायुदुन्दुभिनिघोषैर्युष्यमाणजयोदयः ॥१८॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । उद्यानादिकृतां छायामपास्य स्वां तपो व्यधात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोकमहाद्रुमः ॥ १९ ॥ स्वं स्वापतेयमुचितं त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निधिभिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दूरतः ॥ २० ॥ गृहशोभां कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्री मण्डपादिशोभ. स्य स्वतोऽभ्येति पुरोगतां ॥ २१ ॥ तपोविगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगज्जनतास्थानसहं स्यादवगाहनं ॥ २२ ॥ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात्क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीनं त्रिजगतो त्रमश्यमस्त्रोपजायते ॥ २३ ॥ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयं । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोघृतां ॥ २४ ॥ स्वामिष्टभृत्यवन्ध्वादिसामुत्सृष्टवानयं । परमात्म्य पद प्राप्तावध्यास्ते त्रिजगत्सभां ॥ २५ ॥ स्वगुणोत्कीर्तनं त्यक्त्वा त्यक्तकामो महातपाः । स्तुतिनिन्दासभो भूपः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः ॥ २६ ॥ वन्दित्वा वन्द्यमर्हन्तं यतोऽनुष्ठितवांस्तपः । ततोऽयं वन्द्यतं वन्द्यैरनिन्द्यगुणसन्निधिः ॥ २७ ॥ तपोऽयमनुपन कः पादचारी विवाहनः । कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणसमर्हति ॥ २८ ॥ वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात्प्रणीयन्त्यमखिलां सभां ॥ २९ ॥ अनाश्वानियताऽऽहारपारणोऽतप्तयत्तपः । तदस्य दिव्यविजय परमामृततृतयः ॥ ३० ॥ त्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाश्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भुतः परमानन्दथुं भजेत् ॥ ३१ ॥ किमत्रबहुनोक्तन यद्यदिष्टं यथाविधं । त्यजेन्मान र संकल्पस्तत्तत् सूतेऽस्य तत्तपः ॥ ३२ ॥ १२५ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ षट्प्राभतेप्राप्तोत्कर्ष तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलं । यतोऽर्हजातिमूर्त्यादिप्राप्तिः सैषानुवर्णिता ॥ ३३ ॥ जैनेश्वरी परामाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयन् । तपस्यां यदुपादत्ते पारिवाज्यं तदाञ्जसं ॥ ३४ ॥ अन्यच्च बहुवाग्जाले निबद्धं युक्तिबाधितं । पारिवाज्यं परित्याज्यं ग्राह्यं चेदमनुत्तरं ॥३५॥ पंचत्रिंशच्छ्लोकैः प्रव्रज्या वर्णिता। इति श्रीबोधप्राभृते प्रव्रज्याधिकार एकादशः समाप्तः।११। अथेदानी बोधप्राभूतस्य चूलिकां गाथात्रयेण निरूपयन्तिरूवत्थं सुद्धत्थं णिमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्कायहियंकरं उत्तं ।। ६० ॥ रूपस्थं शुद्धयर्थे जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । भव्यजनबोधनार्थ षट्कायहितंकर-उक्तम् ॥ रूवत्थं सुद्धत्थं रूपस्थं निग्रन्थरूपस्थितमाचरणं मयोक्तमितिसंम्बन्धः । किमर्थ भणितं, सुद्धत्थं-शुद्धयर्थ कर्मक्षयनिमित्तं । जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं जिनमार्गे जिनशासने जिनवरैतीर्थकरपरमदेवैगौतमान्तगणधरदेवैश्च यथा येन प्रकारेण भणितं । भव्वजणबोहणत्थं आसन्नभव्यजीवसम्बोधनार्थ । छक्कायहियंकरं उत्तं षट्कायहितकर सर्वजीवदयाप्रतिपालनार्थ उक्तं निरूपितम् । सदवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६१॥ शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यत् जिनेन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः ॥ सद्दवियारो हूओ शब्दविकारो भूतोऽर्हद्ध्वनिनिर्गतः। भासासुत्तेसुजं जिणे कहियं सर्वार्धमागधीभाषासूत्रेषु यजिनेन कथितं श्री Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतं । १२७ वीरेणार्थरूपं शास्त्रं कथितं । सो तह कहियं णायं तत्तथा कथितं ज्ञातमवगतं । सीसेण य भद्दबाहुस्स केन ज्ञातं ? शिष्येणान्तेवासिना भद्रबाहुशिष्येण अर्हद्वलिगुप्तिगुप्तापरनामद्वयेन विशाखाचार्यनाम्ना दशपूर्वधारिणामेकादशानामाचार्याणां मध्ये प्रथमेन ज्ञातं । बारसअंगवियाणं चउदसपुव्यंगविउलवित्थरणं । सुयणाणिभद्दबाहू गमयगुरूभयवओ जयओ ॥६२।। द्वादशाङ्गविज्ञान: चतुर्दशपूर्वाङ्गविपुलविस्तरणः । श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु ॥ बारसअंगवियाणं द्वादशाङ्गविज्ञानयुक्तः । चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं चतुर्दशानां पूर्वाङ्गानां पूर्वाणां विपुलं पृथु विस्तरणं यस्य स चतुर्दशपूर्वाङ्गविपुलविस्तरणः । सुयणाणिभद्दबाहू पचानां श्रुतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाहुः। गमयगुरुभयवओ जयओ यादृशः सूत्रेऽ र्थस्तादृशो वाक्यार्थस्तं जानन्तीति गमकास्तेषां गुरुरुपाध्यायो भगवान् इन्द्रादीनामाराध्यो जयतु सर्वोत्कर्षेण वर्ततां तस्मायस्माकं नमस्कार इत्यर्थः । इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन श्रीसीमन्धरस्वामिज्ञानसंबोधितभव्यजनेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षदप्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलिमण्डितेन कलिकालगोतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता बोधप्राभृतस्य टीका परिसमाप्ता। १ अस्मादने “ चतुर्थः परिच्छेदः" इति पाठः टीकापुस्तके वर्तते । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतम्। अथेदानी भावप्राभतं कुर्वन्तः श्रीकुन्दकुन्दाचार्या इष्टदेवता नमस्कुर्वन्ति-- णमिऊण जिणव दे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे । वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥१॥ नमस्कृत्वा जिनवरेन्द्रान् नग्सुरभवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतं-अवशेषान् संयतान् शिरसा ॥ णमिऊण जिणवरिंदे नमस्कृत्य, कान् ? जिनवरन्द्रान् सप्तप्रकृतिक्षयेण कृत्वैकदेशेन जिनाः सदृष्टयः श्रावकादय एकादशगुणस्थानवर्तिनः क्षीणकषायाश्च सयोगकवलिपर्यन्ता जिना उच्यन्ते गणधरदेवाश्च तेषां मध्ये वरा: श्रेष्ठा अपरकेत्रलिनश्च तेषामिन्द्राः स्वामिनस्तीर्थकरपरमदेवा जिनवरेन्द्राः कथ्यन्ते तान् नत्वा । कथंभूतान् जिनवरेन्द्रान्, णरसुरभवणिंदवंदिए नरेन्द्रमुरेन्द्रभावनेन्द्रवदितान् । सिद्धे तादृग्विशेषणविशिष्टान् सिद्धांश्च नत्वा । वोच्छामि भावपाहुडं वक्ष्यामि कथयिष्यामि, किं तद्भावप्राभतं भावसारग्रन्थं । न केवलमहे सिद्धान् वन्दित्वाऽपि तु अवसेसे संजदे अवशेषान् संयतान् आचार्योपाध्यायसर्वसाधून त्रिविधान् मुनीन् नत्वा । कन, सिरसा उत्तमांगेन जानुकूपरशिरःपंचकेन प्राणप येत्यर्थः । भावो य पढमलिंगंण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूतो गुणदोसाणं जिणों विति ॥२॥ १ अस्-त्पूर्वं 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः" इति पाठः टीका पुस्तके २ गुणा. घ. गुणिनः । ३ विति-कथयन्ति. घ. । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA भावप्राभृतं । भावश्च प्रथमलिङ्गं न द्रव्यलिङ्गं च जानीहि परमार्थम् ।। भावः कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विदन्ति ॥ भावो य पढमलिंगं भावश्च प्रथमलिंगं प्रथमं दीक्षाचिन्हें भावो भवति । चकाराद्र्व्यलिंगं धृत्वा भावलिंगं प्रकटं क्रियते यथाऽपत्योत्पादनेन पुरुषशक्तिः प्रकटीभवति तथा द्रव्यलिंगिनो मुने वलिंगं प्रकटं भवति पुरुषशक्तेर्भावस्य च लोचनानामगोचरत्वात् । उक्तं चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने द्रव्यलिंगं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः । विना तेन न वन्द्यः स्यान्नानावतधरोऽपि सन् ॥१॥ द्रव्यलिंगमिदं शेयं भावलिंगस्य कारणं । तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं यतः ॥२॥ मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निर्मुद्रो नैव मान्यते। राजमुद्राधरोऽत्यन्तहीनवच्छास्त्रनिर्णयः ॥३॥ ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं द्रव्यलिंगे सति भावं विना परमार्थसिद्धिर्न भवति तेन कारणेन द्रव्यलिंगं परमार्थसिद्धिकरं न भवति मोक्षं न प्रापयति, तेन कारणेन द्रव्यलिंगपूर्वकं भावलिंग धर्तव्यमिति भावार्थः । ये तु गृहस्थवेषधारिणोऽपि वयं भावलिंगिनो वर्तामहे दीक्षायामन्तर्भावत्वात्ते मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या विशिष्टजिनलिंगविद्वेषित्वात् , योद्धमिच्छवः कातरवत्स्वयं नश्यन्ति, अपरानपि नाशयन्ति, ते मुख्यव्यवहारधर्मलोपकत्वाद्विशिष्टैर्दण्डनीयाः । भावो कारणभूदो भावः परममुक्तिकारणभूतः । गुणदोसाणं गुणानां केवलज्ञानादीनां, दोषाणां नरकपातादीनां च कारणभूतो भाव एव । यदि द्रव्यलिंगं धृत्वा रागद्वेषमोहादिषु पतति मुनिस्तदा स तस्य भावः संसार कारणं भवति । यदि द्रव्यलिंग धृत्वा नीरागनिद्वैषनिर्मोहभावनां भावयति तदा केवल षटू. ९ ___ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० षट्प्राभूते ज्ञानादीन् गुणानुत्पादयति मुक्तिं गच्छति । एतदर्थं जिणा विंति केवलिनो जानन्ति । भावविशुद्धिनिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ । बाहिरचाओ विहलो अब्भन्तरं गंथजुत्तस्स ॥ ३ ॥ भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः । बाह्यत्यागो विफलः अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य ॥ भावविसुद्धिनिमित्तं भावस्यात्मनो विशुद्धिनिमित्तं कारणं । बाहिरगंथस्स कीरए चाओ बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः वस्त्रादेर्मोचनं विधीयते । बाहिरचाओ विहलो बाह्यत्यागो विफलोऽन्तर्गडुर्भवति । अभंतरगंथजुत्तस्स अभ्यन्तरपरिग्रहयुक्तस्य नग्नस्यापि वस्वादेराकांक्षायुक्तस्येति भावः । तथा चोक्तं I ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वपापतः सन्ति । यः पुनरन्तःसंगत्यागी लोके स दुर्लभः साधुः ॥ १ ॥ भावरहिओ न सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ । जम्मंतराई बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥४॥ भावरहितो न सिद्ध्यति यद्यपि तपश्चरति कोटकोटी । जन्मान्तराणि बहुशः लम्बितहस्तो गलितवस्त्रः ॥ भावरहिओ न सिज्झइ भवरहित आत्मस्वरूपभावनारहितो विषयकषायभावनासहितस्तपस्वी अपि न सिद्ध्यति न सिद्धि प्राप्नोति । जइ वि' तवं चरs कोडिकोडीओ यद्यपि तपश्चरति करोति कोटीकोटी | जम्मंतराई जन्मान्तराणि । बहुशो ऽनेक कोटीकोटी जन्मान्तराणि । कथंभूतः सन्, लंबियहत्थो अधोमुक्तबाहुद्वयः । गलियवत्थो नग्नमुद्राधरोऽपि सन् । १ विफलो. ग. । २ संग. ग. ध. । ३ व. टी. । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुच्चे बाहरे य जई। बाहिरगंथचाओ भावविहूणस्स किं कुणइ ॥ ५॥ परिणामे अशुद्ध ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि । बाह्यग्रन्थत्यागो भावविहीनस्य किं करोति ॥ परिणामम्मि असुद्धे परिणामे मनोव्यापारेऽशुद्धेऽपि विषयकषायादिभिर्मलिने सति । गंथे मुच्चेइ बाहिरे ये जई ग्रन्थान् मुञ्चति परिग्रहान् वस्त्रादीन् त्यजति यतिर्जिनलिंगधारी मुनिः । बाहिरगंथच्चाओ बाह्यग्रन्थत्यागो वस्त्रादित्यजनं । भावविहूणस्स किं कुणइ भावविहीनस्यात्मभावनारहितस्य बहिरात्मनो जीवस्य किं करोति, न किमपि कर्म संवरनिर्जरालक्षणं कार्य करोतीति भावार्थः । जाणहि भावं पढम किं ते लिंगेण भावरहिएण । पंथिय सिवउरिपंथं जिणउवइदं पयत्तेण ॥६॥ जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिङ्गेन भावरहितेन । . __ पथिक ! शिवपुरिपथः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ॥ जाणहि भावं पढमं जानीहि भावमात्मस्वरूपभावनां प्रथम मुख्यं । किं ते लिंगेण भावरहिएण किं तव लिंगेन भावरहितेन किं, न किमपि संवरनिर्जरादिलक्षणं कार्य, अपि तु न किमपि कार्य भवति लिंगेन वस्त्रादित्यजनलक्षणेनात्मस्वरूपभावनारहितेन । पंथिय हे पथिक ! मोक्षमार्गमार्गक! सिवउरिपंथं मोक्षनगरीमार्गः। जिणउवइदं जिनोपदिष्टः । प्रयत्नेन यतः कारणादिति शेषः । भावरहिएण सउरिस अणाइकालं अणंतसंसारे। गहिउज्झियाई बहुसो बाहिरनिग्गंथरूवाई ॥७॥ १ विहीणस्स. इति मूलगाथापाठः। किन्तु टीकायां क. ख. ग. घ. पुस्तके विहणस्स इति पाठः। तदनुसारेण प्रवर्तितः । २ करइ इति मूलगाथापाठः। ३ इ. टी. । ___ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ षट्प्राभृतेभावरहितेन सत्पुरुष ! अनादिकालं अनन्तसंसारे । ग्रहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिर्ग्रन्थरूपाणि ॥ भावरहिएण सउरिस भावरहितेन सत्पुरुष ! भावविविजितेनात्मरूपभावनारहितेन त्वया । अणाइकालं अणंतसंसारे अनादिकालमनन्तसंसारे । गहिउज्झियाई बहुसो गृहीतान्युज्ज्ञितानि च बहुशोऽनेकवारान् । बाहिरनिग्गंथरूवाई बहिर्निग्रन्थरूपाणि आस्मरूपभावनारहितानीति भावार्थः । भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए। पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीवं ॥ ८ ॥ भीषणनरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेवमनुष्यगतौ । प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावना जीव ! ॥ भीसणणरयगईए भीषणा भयानका या नरकगतिस्तस्यां भीषणनरकगत्यां । तिरियगईए तिर्यग्गत्यां । कुदेवमणुगइए कुत्सितदेवकुत्सितमनुष्यगत्योर्विषये । पत्तोसि तिव्वदुक्खं प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं एकान्तेन दुःखं । भावहि जिणभावणा जीव यया विना त्वं तीनं दुःखं प्राप्तश्चतुर्गतिषु तां भावय जिनभावनां जिनसम्यक्त्वभावनां हे जीव ! हे आत्मन् ! बहिरात्मत्वं मिथ्यादृष्टित्वं परित्यज्य सम्यग्दृष्टिर्भव त्वं, । तेन तव चतुर्गतिदुःखं विनंक्ष्यति स्तोकेन कालेनाल्पभवान्तरण तीर्थकरो भूत्वा मुक्तिं यास्यसि । तथा चोक्तं---- एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुतिं निवारयितुं । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः॥१॥ कासौ जिनभावना ? लोकप्रसिद्धं दोधकमिदम्---- १ जीवा. ग । जीवो. घ.। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १३३ जिण पुजहि जिणवरु थुणहि जिणहं म खंडहि आण । जे जिणधम्मिसु रत्तमण ते जाणिजइ जाण ॥ एक्कहि फुल्लहि माटिदेइ जु सुरनररिद्धडी । एही कर कुसाटिवपु भोलिम जिणवरतणी ॥ अन्यच्च - सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीताजिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥ १ ॥ e एवम ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननव जीर्णचैत्य चैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्म कर्मविध्वंसकं तीर्थकरनामकर्मदायकं विशिष्टं निदानरहितं प्रभावनाङ्गं गृहस्थाः सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापामानो मिथ्यादृष्टयो नरकादिदुःखं चिरकालमनुभवन्ति अनन्तसंसारिणो भवन्तीति भावार्थ: । सत्तसुनरयावासे दारुणभीसाई असहणीयाई । भुताई सुइकाले दुखाई निरंतरं सहिये ॥ ९ ॥ सप्तसुनरकवासे दारुणभीष्माणि असहनीयानि । भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरन्तरं स्वहित ! ॥ सत्तसुन रयावासे सप्तानां सुनरकाणां महानरकाणां वासे निवासे सति हे जीव ! । दारुणभीसाई दारुणानि तीव्राणि, भीष्माणि भयानकानि । असहणीयाई असहनीयानि असह्यानि सोढुमशक्यानि । भुक्ताई भुक्तानि अनुभूतानि । सुइकालं सुष्ठु अतीव चिरकालं दीर्घकालं एकसागरमारभ्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपर्यन्तमुत्कृष्टायुष्कं । दुःखान्य १ सहियं. क. ख. ग. पुस्तके मूलगाथापाठः । टीकायां तु सहिय इति पाठः । तदनुसारेण प्रवर्तितः । भविया इति. घ. पुस्तके | नार्थोऽस्य तत्र दत्तः । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेसातानि कष्टानि भुक्तानि निरन्तरमविच्छिन्नं । सहिय हे स्वहित ! हे आत्महित ! किं त्वया आत्मनो हितं कृतमित्याक्षेपः ! खणणुतावणवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च ।। पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ॥१०॥ खननोत्तापनज्वालनव्यजनविच्छेदनानिरोधं च । प्राप्तोऽसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरं कालम् ॥ खणण पृथिवीकायस्त्वं यदा जातस्तदा खननं कुद्दालादिनाऽवदारणदुःखं त्वया सोढं । उत्तावण अप्कायस्त्वं यदाभूतस्तदाऽग्न्युपर्युत्तापनदुःखं त्वया क्षमितं । वालणे अग्निकायिको जीवो यदा त्वं जातस्तदा ज्वालनदुःखं त्वयानुभूतं । वेयण वायुकायिको जीवो यदा त्वं जातस्तदा व्यजनादिनावीजनदुःखं त्वया तितिक्षितं । विच्छेयणा हे जीव ! वनस्पतिकायिको जीवो यदा त्वं उत्पन्नस्तदा विच्छेदना कुठारादिना कर्षणं दुःखं त्वया मृषितं । णिरोहं च शंखशुक्तिवृश्चिकगोमिभ्रमरमक्षिकावलीवर्दमहिषादिकस्त्वं समुत्पन्नस्तदा निरोधादि दुःखं त्वया भुक्तं । इति स्थावरत्रसदुःखानि अनुक्रमेण सूचितानि भवन्तीति ज्ञातव्यं । पत्तोसि भावरहिओ प्राप्तोऽसि भावरहितो जिनभक्तिभ्रष्ट आत्मभावनादूरीकृतश्च । तिरियगईए चिरं कालं तिर्यग्गतौ दीर्घ कालं असंख्यातवर्षपर्यन्त वनस्पतिकायापेक्षयानन्तकालं चेत्यागमानुसारेण ज्ञातव्यम् । आगंतुक माणसियं सहज सारीरियं च चत्तारि। दुक्खाई मणुयजम्मे पत्तोसि अगंतयं कालं ॥ ११ ॥ आगन्तुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि । दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोसि अनन्तकं कालम् ॥ १ तिरय इति मूलगाथापाठः। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १३५ आगंतुक आगन्तुकं दुःखं विद्युत्पातादिकं । मानसिकदुःखं स्त्रीकटाक्षादिताडने सति तदप्राप्तौ भवति । तथा चोक्तंसंसारे नरकादिषु स्मृतिपथेऽप्युद्वेगकारण्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत्स्मरसि स्मरस्मितशितापाङ्गैरनङ्गायुधै वामानां हिमदग्धमुग्धतरुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥१॥ सहजं व्याधिवेदनोत्पन्नं दुःखं । सारीरियं छेदनभेदनादिकं दुःखं । चकार उक्तसमुच्चयार्थस्तेन खलजनोक्तमिथ्यावचनश्रवणे यदुःखं भवति तत् केनापि सोढुं न शक्यते । तदुक्तं रुद्रटेन महाकविना शल्यमपि स्खलदन्तः सोढुं शक्येत हालाहलदिग्धं । धीरैर्न पुनरकारणकुपितखलालीकदुर्वचनं ॥ १ ॥. चत्तारि एतानि चत्वारि । दुःखाई दुःखानि । मणुयजम्मे मनुज. जन्मनि मनुष्यभवे । पत्तोसि प्राप्तोऽसि हे जीव ! त्वं प्राप्तवानसि भवसि । अणंतयं कालं अनन्तकं कुत्सितमनन्तं कालं समयमिति । सुरनिलएसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ ॥ १२ ॥ सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्रम् । ___संप्राप्तोऽसि महायशः ! दुःख शुभभावनारहितः ॥ सुरनिलएसु स्वर्गेषु । सुरच्छरविओयकाले देवीवियोगावसरे य चकारात्त्वं देवी जाता तदा देववियोगकाले । माणसं तिव्वं इन्द्रविभूतिं दृष्ट्वा मानसं मनसि भवं दुःखं त्वं प्राप्तः, तदुःखं तीव्रमत्युत्कृष्टं, हा ! मया मनुष्यभवे प्राप्तेऽपि निर्मलं चारित्रं न पालितं अनेन तु निरतिचारं चारित्रं प्रतिपालितं तेनायं मम किल्विषादेरादेशं १ हालहल. ख.। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ षट्प्राभूतेददाति स तु दुरितक्रमः कथं मया नानुष्ठीयते इत्यादि मानसं तीव्र दुःखं हे जीव ! त्वं संपत्तोसि सम्यक्प्रकारेण प्राप्तोऽसि अनुभूतवानसि । महाजस महत् त्रैलोक्यव्यापनशीलं यशः पुण्यगुणानुकीर्तनं यस्य स भवति महायशाः तस्य सम्बोधनं क्रियते कुन्दकुन्दाचार्येण हे महायशः ! । दुक्खं सुह भावणारहिओ ईदृग्विधं दुःखं कस्मात्प्राप्तमित्याह-सुहभावणारहिओ-शुभस्य विशिष्टपुण्यस्य भावनारहितः । कासौ शुभभावना ? दर्शनविशुद्धयादयः षोडशभावनाः शुभास्तीर्थकरनामकर्मोपार्जनहेतुत्वात् । अतिशयेन शुभाऽत्र जिनसम्यक्त्वभावना, मिथ्यात्वभावना त्वतीव पापीयसी। तथा चोक्तं समन्तभद्रेण महाकविना न सम्यक्त्वसमं किंचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥१॥ सम्यक्त्वभावनया एकयापि तीर्थकरनामकर्म बद्भयते पंचदशापरभावना विनापि । तस्य सम्यक्त्वस्य शुद्धता चर्मजलघृततैलहिंगुवर्जनेन भवति । अन्येनाप्युपासकाध्ययनादिशास्त्रेणोक्तेनाचारेण विस्तरेण ज्ञातव्या। तथा चोक्तं शिवकोटिनाचार्येण-- चर्मपात्रगतं तोयं घृतं तैलं प्रवर्जयेत् । नवनीतप्रसूनादि शाकं नाद्यात्कदाचन ॥१॥ कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाई य । भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ॥ १३ ॥ कान्दपीत्यादयः पंच अपि अशुभादिभावनाश्च । भावयित्वा द्रव्यलिङ्गी प्रहीणदेवः दिवि जातः ॥ कंदप्पमाइयाओ कान्दपी इत्येवमादिकाः । पंच वि असुहादिभावणाई य पंचापि अशुभशब्दादयो भावनाश्च कान्दीप्रभूतयः १ कंदप्पमाहियाओ इति. मूलगाथापाठः क. पुस्तके, न तु ख. पुस्तके । कंदप्पमादियाओ इति. ग. घ. पुस्तके । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १३७ पंचाशुभभावना इत्यर्थ । भाऊण दव्वलिंगी तास्त्वं भावयित्वा द्रव्यलिंगः सन् । पहीणदेवो दिवे जाओ प्रहीणदेवो-हीनदेवः प्रकर्षण नीचदेवः किल्विषादिको देवः दिवे-स्वर्गे हे जीव ! त्वं जात उत्पन्नः । कास्ता: पंचाशुभभावना इत्याह-कान्दी, कैल्विषी, आसुरी, सांमोही, आभियोगिकी चेति एतासां नामानुसारेणार्थश्चिन्तनीयः । उक्तं च शुभचन्द्रेण योगिना--- कान्दी कैल्विषी चैव भावना चाभियोगिकी। दानवी चापि साम्मोही त्याज्या पंचतयी च सा ॥१॥ पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ। भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ॥ १४ ॥ पावस्थभावना अनादिकालं अनेकवारान् । भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावनाभावबीजैः ॥ पासत्थभावणाओ पार्श्वस्थभावनाः । अणाइकालं अणेयवाराओ अनादिकालमादिरहितकालपर्यन्तं, अनेकवाराननन्तवारान्। भाऊण दुई पत्तो भावयित्वा दुःखं हे जीव ! त्वं प्राप्तः प्राप्तवान् । कुभावणाभावबीएहि कुभावनानां भावाः परिणामास्त एव बीजान्यंकुरोत्पत्तिहेतवस्तैः कुभावनाभावबीजैः । कास्ता: पावस्थपंचभावनाः ? यो वसतिषु प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी श्रवणानां पार्थे तिष्ठति स पार्श्वस्थः । क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलैः परिहीनः संघस्याविनयकारी कुशील उच्यते । वैद्यकमंत्रज्योतिषोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः कथ्यते । जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानचरणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्न आभाष्यते । त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्रः परिलप्यते स्वच्छन्द इति वा, एते पंच १ तथा च. ख. २ तासां पंचतयैव सा इति पुस्तके पाठः । मूलपुस्तकं ज्ञानार्णवं दृष्ट्वा प्रवर्तितः। ___ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ षट्प्राभृते श्रवणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीयाः । तेषां कार्यवशात् किमपि देयं जिनधर्मोपकारार्थमिति । देवाण गुणविहूई इड्ढी माहप्प बहुविह दहं । होऊण हीणदेवो पत्तो बहुमाणसं दुक्खं ॥ १५ ॥ देवानां गुणविभूतिं ऋद्धिं माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा । भूत्वा हीनदेवः प्राप्तो बहुमानसं दुःखम् ॥ देवाण गुणविहूई देवानां गुणान् अणिमा महिमा लघिमा गरिमान्तर्द्धानकामरूपित्वं । प्राप्तिकाम्यवशित्वेशित्वाप्रतिहतत्वामिति वैक्रियिकाः ॥ १ ॥ इत्यायाक्तलक्षणान् गुणान् दृष्ट्वा । इड्ढी ऋद्धिं इंद्राणीप्रमुखपरिवारं । उक्तं च शची पद्मा शिवा श्यामा कालिन्दी सुलसाञ्जुका । भान्वाख्या दक्षिणेन्द्राणां विश्वेषामपि कीर्तिताः ॥ १ ॥ उदीचां श्रीमती रामा सुसीमा च प्रभावती । जयसेना सुषेणा च सुमित्रा व वसुन्धरा ॥ २ ॥ षोडशाद्ये सहस्राणि विक्रि योत्थाः पृथक्च ताः । द्विगुणा द्विगुणास्तस्मात्परत्र सममात्मना ॥ ३ ॥ १६०००-३२०००-६४०००- १२८००० २५६००० - ५१२०००-१०२४००० | क्रमाद्वात्रिंशदष्ट द्वे सहस्राः पंचशत्यथ । अर्धार्धाश्च त्रिषष्टिश्च सप्तस्थानेषु वल्लभाः ॥ ४ ॥ सप्तस्थानानि कानि ? सौवमशांना १ सनत्कुमारमाहेन्द्रौ २ ब्रह्मब्रह्मोत्तरौ ३ लान्तवकापिष्ठो, ४ शुक्रमहाशुक्रौ ५ शतारसहस्रारौ ६ आनतप्राणतारणाच्युताश्चत्वारः स्वर्गा एकं स्थानमिति सप्तस्थानानि, इत्यादि देव्याधृद्धिं दृष्ट्वा । माहप्प बहुविहं दहुं इन्द्रवाचा दीर्घायु. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं। १३९ रपि म्रियते अल्पायुषोऽप्यायुर्न त्रुट्यति इत्यादि माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा । होऊण हीणदेवो हीनदेवो भूत्वा । पत्तो बहुमाणसं दुःखं प्राप्तोऽसि बहुतरं प्रचुर मनसि भवं मानसं दुःखं हे जीव ! त्वमिति कारणात जिनभक्तिं कुर्विति भावार्थः । चउविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो। होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेयवाराओ॥ १६ ॥ चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशुभभावप्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तोऽसि अनेकवारान् ॥ चउविहविर्कहासत्तो चतुर्विधविकथासक्तः आहारकथा-स्त्रीकथाराजकथा-चौरकथालक्षणासु विकथासु चतुर्विधास्वासक्तः। मयमत्तो अष्टमदैमत्तो गर्वितः । असुहभावपयडत्थो अशुभभावः पापपरिणामः प्रकटः स्फुटीभूतोऽर्थः प्रयोजनं यस्य स अशुभावप्रकटार्थः । होऊण कुदेवत्तं अशुभभावप्रकटार्थो भूत्वा कुदेवत्तं-कुत्सितदेवत्वं । पत्तोसि प्राप्तोऽसि । हे जीव ! असुरादिकुदेवगतीरनेकवारान् प्राप्तोऽसि । असुहीवीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि । वसिओसि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ॥१७॥ अशुचिबीभत्सासु कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु । उषितोसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर ! ॥ असुहीवीहत्थेहि य अशुचिषु अपवित्रासु बीभत्सासु, च विरूपकामु । कलिमलबहुलाहि पापबहुलासु । गम्भवसहीहि गर्भगृहेषु उदरवसतिषु । वसिओसि चिरं कालं उषितोऽसि स्थितोऽसि चिरं १ ई. ख. ग. घ. पुस्तके । २ पवरा. ग. घ. । घ. पुस्तकेऽस्यार्थः प्रचुरत्वमिति । ___ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० .....% A NA षट्प्राभूतेदीर्घकालमनन्तकालमनादिकालं । अणेयजणणीण मुणिपवर गर्भवसतिषु अनेका अनन्ता जनन्यो जाताः, हे मुनिप्रवर ! हे मुनीनामुत्तम !। पीओसि थणच्छीरं अणंतजम्मतराई जणणीणं । अण्णण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं ॥१८॥ पीतोऽसि स्तनक्षीरं अनन्तजन्मान्तराणि जननीनाम् । अन्यासामन्यासां महायशः ! सागरसलिलादधिकतरम् ॥ पीओसि थणच्छीरं पीतोऽसि पीतवान् धयितवानसि स्तनक्षीरं अपवित्रं वक्षोरुहक्षीरं स्तनदुग्धं । अणंतजम्मंतराइं अनन्तजन्मान्तराणि अनन्तभवान्तरेषु । जणणीणं जननीनां अनन्तमातृणां । अण्णण्णाण अन्यासामन्यासां । महाजस महत् त्रैलोक्यव्यापकं यशो यस्य भवति महायशास्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे महायशः । सायरसलिलादु अहिययरं सागरसलिलादप्यधिकतरं अतिशयेनाधिकतरमनन्तसागरजलसमानं । तुह मरणे दुक्खेणं अण्णण्णाण अणेयजणणीणं । रुण्णाण णयणणीरं सायरसलिलादु अहिययरं ॥ १९ ॥ तव मरणे दुःखेन अन्यासामन्यासां अनेकजननीनाम् । रुदितानां नयननीरं सागरसलिलात् अधिकतरम् ॥ तुह मरणे दुक्खेणं तव मरणे सति दुःखेन कृत्वा “ङसा दि दे इ ए तु ते उय उन्म तुब्भ तम्ह तुमाइ तुमो तुमे तुम तुव तुहं तइ तुहाः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण तवशब्दस्य तुह इत्यादेशः । अण्णण्णाणं अन्यासामन्यासां मानुषीसिंहीव्यात्रीमार्जारीमृगीगोगर्वरीबडवाकरेणुप्रभतीनां । अणेयजणणीणं अनेकजननीनां प्रत्येकमनन्तमातृणां । रुण्णाण सदितानां । णयणणीरं लोचनबाष्पजलं । सायरसलिलादु अहिययरं सागरसलिलादधिकतरं प्रत्येकं समुद्रतोयादप्यधिकतरमनन्तसागरसलिलपरिमाणं भवति । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १४१ भवसायरे अणंते छिण्णुज्झियकेसणहरणालही । पुंजेइ जइ को विजए हवदि य गिरिसमधिया रासी॥२०॥ भवसागरे अनन्ते छिन्नोज्झितकेशनखरनालास्थीनि । पुञ्जयति यदि कश्चित् देवो भवति च गिरिसमधिका राशिः ।। भवसायरे अणंते भावसागरेऽनन्ते संसारसमुद्रेऽन्तरहिते। छिण्णुज्झियकेसणहरणालही छिन्नानि उज्झितानि मुक्तानि क्षुरेण नखलुना छुरिकया पूर्व छिन्नानि पश्चादुज्झितानि केशनखरनालास्थीनि । पुंजेइ जइ को वि जए पुंजमति राशीकरोति यदि चेत् कोऽपि शक्रसन्तानागतः कश्चिद्देवः । हवदि य गिरिसमधिया रासी भवति च गिरेभैरोरपि समधिका राशि: केशादीनां प्रत्येकमनन्तमेरुसमा राशयो भवन्तीति भावार्थः । जलथलसिहिपवणंबरगिरिसरिदरिकुरुवणाई सव्वत्तो। वसिओसि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ॥२१॥ जलस्थलशिखिपवनांबरगिरिसरिदरीतरुवनादिषु सर्वत्र । __ उषितोसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्येऽनात्मवशः ॥ हे जीव ! है चेतनानाथ ! त्वं जले उदके उषितोऽसि निवास चकर्थ । थल थले भूम्यां । सिहि शिखिनि हुताशने । पवण पवने झंझामारुतादौ । अंबर अम्बरे विहायसि । गिरि पर्वते । सरि सरिति नद्यां । दरि दयाँ गुहायां । कुरुवणाई देवकरूतरकुरूत्तमभोगभूमिकल्पवृक्षवने । आदिशब्दाद्भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतादयोलभ्यन्ते । सव्वत्तो किं बहुना सर्वतः सर्वत्र । वसिओसि चिरं कालं उषितोऽसि चिरं दीर्घमनन्तं कालमनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालसमयपर्यन्तं । तिहुवणमज्झे अणप्पवसो त्रिभुवनमध्येऽनात्मवशः । नि १ ना. टी.। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ षट्प्राभृते जशुद्धबुद्धैकस्वभावचिच्चमत्कारलक्षणटंकोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावात्मभावना जिनस्वामिसम्यक्त्वभावनाभ्रष्ट इत्यर्थः । गसियाई पुग्गलाई भुवणोदरवत्तियाई सव्वाई । पत्तोसि तो ण तित्तिं पुणरूवं ताई भुजतो ॥ २२ ॥ ग्रसिताः पुद्गला भुवनोदरवर्तिनः सर्वे । प्राप्तोसि तन्न तृप्तिं पुनारूपं तान् भुंजानः ॥ गसियाई पुग्गलाई ग्रसिताः पुद्गलाः सर्वेऽप्यणवः । भुवणोदरवत्तियाई सव्वाईं भुवनोरदवर्तिनः सर्वेऽपि । पत्तोसि तो ण तित्ति प्राप्तोऽसि तदपि न तृप्तिं धृतिं । पुणरूवं ताई भुंजतो पुनारूपं पुननवमिति तान् पुद्गलान् भुंजानः । उक्तं च पूज्यपादेन गणिना भुक्तोज्झिता मुहुमहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः I उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ १ ॥ तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिन्हीए पीडिएण तुमे । तो विण तिण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ॥ २३ ॥ त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णया पीडितेन त्वया । तदपि न तृष्णाछेदो जातः चिन्तय भवमथनम् ॥ तिहुयणसलिलं सयलं त्रिभुवनसलिलं सकलं । पीयं पीतं त्वया । तिण्हाए तृष्णया । पीडिएण पीडितेनावगाढेन । तुमे त्वया भवता । तुम तुमाइ तुमे तुम तुमं त ( तु ) इ त (तु) ए ते दि दे भे टया " इति व्याकरणसूत्रेण टावचनेन सह युष्मदः तुमे आदेशः । तो वि << । १ पुणरुत्तं. ग. घ. । २ तव्हाइ. ग. घ. । अत्र एकारस्य प्राकृतलक्षणेन -हस्वोच्चारः । ३ तण्हाय. टी. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १४३ तदपि । ण नैव । तिण्हाछेओ तृष्णाच्छेदः । जाओ जातः । चिंतेह भवमहणं हे जीव ! त्वं चिन्तय अन्वेषस्व भवस्य संसारस्य मथनं विनाशनं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमिति भावार्थ: । गहिउझियाई मुणिवर कलेवराई तुमे अणेयाई । ताणं णत्थि पमाण अणन्तभवसायरे धीर ॥ २४ ॥ गृहीतोज्झितानि मुनिवर ! कलेवराणि त्वया अनेकानि । तेषां नास्ति प्रमणं अनन्तभवसागरे धीर ! ॥ गहिउज्झियाइं गृहीतोज्झितानि । हे मुनिवर मुनिश्रेष्ठ ! | कलेवराई कलेवराणि शरीराणि । तुमे अणेयाइं त्वयाऽनेकान्यनन्तानि । ताणं णत्थि पमाणं तेषां कलेवराणां नास्ति न विद्यते प्रमाणं गणनमनन्तत्वात् । अणभवसायरे धीर अनन्तभवसागरेऽन्तातीत संसारसमुद्रे हे धीर ! ध्येयं प्रति धियमीरयतीति धीरस्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे धीर ! हे योगीश्वर ! भावचारित्रं विनेति शेषः । विसवेयणरत्तक्खयभय सत्थग्गहणसंकिलेसाणं । आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ ॥ २५ ॥ विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्र ग्रहणसंक्लेशानाम् । आहारोच्छ्वासानां निरोधनात् क्षोयते आयुः ॥ विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसं किलेसाणं विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानां । आहारुस्सासाणं आहारोच्छ्वासानां णिरोहणा निरोधनात् । खिज्जए आऊ क्षीयते आयुः । हिमजलणसलिल गुरुयरपव्वयतरुरुहण पडणभंगेहिं । रस विज्जजोयधारणअणयपसंगहि विविहेहिं ॥ २६ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ षट्प्राभते हिमज्वलनसलिलगुरुतरपर्वततरुरोहणपतनभझैः । रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः विविधैः ॥ हिम केषांचिजन्तूनां मानवानां च शीतेनापमृत्युर्भवति । जलण केषांचिज्ज्वलनेनाग्निनापमृत्युर्भवति । सलिल केषांचित्सलिलेन समुद्रा. दिजलेनापमृत्युर्भवति । गुरुयरपव्वयतरुरुहणपडणभंगेहिं गुरुतरा अत्युन्नतशिखरास्ते च ते पर्वतास्तुंगीगिर्यादयः, तथा तरवो वृक्षा गुरुतरपर्वततरवस्तेषां रोहणेन पतनेन च कृत्वा ये भंगा: शरीरामर्दनानि ते तथा तैः हिमज्वलनसलिलगुरुतरतपर्वतरुरोहणपतनभंगैः । रसविज्जजोयधारणअणयपसंगेहि रसस्य विषस्य या विद्या विज्ञानं तस्या योगोऽनेकौषध. मेलनं तस्य धारणं सेवनमास्वादनं अनयप्रसंगश्चान्यायकरणं ते रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगास्तै रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः। विविहेहिं विविधैर्नानाप्रकारैः । तथा चोक्तं लक्ष्मीधरेण भगवता--- अन्नाए दालिदियहं अरे जिय दुहु आवग्गु । लक्कडियए विणु खोडयहं मग्गु सचिक्खलु दुग्गु ॥ १ ॥ इय तिरियमणुयजम्मे सुइरं उववज्जिऊण, बहुवारं । अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥ २७ ॥ इति तिर्यमनुष्यजन्मनि सुचिरं उपपद्य बहुवारम् । अपमृत्युमहादुःखं तीव्र प्राप्तोऽसि त्वं मित्र ! ॥ इय तिरियमणुयजम्मे इति पूर्वोक्तप्रकारेण तिर्यमनुष्यजन्मनि। सुइरं सुचिरं सुष्ठु दीर्घकालं । उववज्जिऊण बहुवा उपपद्य उत्पद्य जन्म गृहीत्वा बहु बारमनेकवारं । अवमिच्चुमहादुकावं अपमृत्युमहादुःखं । तिव्वं पत्तोसि तीव्र दुःखमसहनीयअसा प्राप्तोऽसि । तं मित्त त्वं भवान् हे मित्र ! हे बन्धो ! हे सुहृत् !। ___ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । छत्तीसं तिणि सया छावद्विसहस्सवारमरणाणि । अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तोसि निगोयवासम्म ॥ २८ ॥ षट्शतं त्रीणि शतानि षट्षष्टिसहस्रवारमरणानि । अन्तर्मुहूर्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे ॥ १४५ छत्तीसं तिणि सया त्रिंशदधिकत्रिशतानि । छावडिस्सहसबारमरणाणि षट्षष्टिसहस्रवारान् मरणानि ६६३३६ | अंतोमुहुत्तमज्झे अन्तर्मुहूर्तमध्ये | पत्तोसि निगोयेवासम्म प्राप्तोऽसि निकांतवासे । वियलिंदिए असीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह | पंचिदिय चउवीसं खुद्दभवतोमुहुत्तस्स ॥ २९ ॥ विकलेन्द्रियाणामशीतिं षष्ठि चत्वारिंशदेव जानीत | पञ्चेन्द्रियाणां चतुर्विंशतिं क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्तस्य ॥ वियलिंदिए असीदी विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवेषु अनुक्रमेण मरणसंख्यामन्तर्मुहूर्तस्य करोति । तथाहि । द्वीन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन अशीतिवारान् म्रियन्ते । त्रीन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन षष्ठिवारान् म्रियन्ते । चतुरिन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन चत्वारिंशतं वारान् त्रियन्ते । पंचिदिय चउवीसं पंचेन्द्रिया जीवा अन्तहूर्तेन चतुर्विंशतिवारान् म्रियन्ते । खुद्दभवतोमुहुत्तस्स क्षुद्रभवा अन्तर्मुहूर्तस्य क्रमेण ज्ञातव्याः रयणते सुअल एवं भमिओसि दीहसंसारे । इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तं समायरह ॥ ३० ॥ रत्नत्रये स्वलब्धे एवं भ्रमितोऽसि दीघसंसारे । इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ॥ रयणत्ते सुअलद्धे रत्नत्रये सुष्ठु अलब्धे सति । एवं भमिओसि दीहसंसारे एवममुनाप्रकारेण भ्रमितोऽसि पर्यटितवान् दार्घसंमारेऽनादौ १ द. टी. । घट. १० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ~~~~~~~ ~~~ ~ ~~~~~ ~~ षट्प्राभृतेसंसारे भवे । इय जिणवरेहि भणियं इत्येतद्वचनं जिनवरैस्तीर्थकरपरमदेवैर्भणितं प्रतिपादितं । तं रयणत्तं समायरह तत्तस्मात्कारणात् तजगत्प्रसिद्धं वा तत् त्वं वो रत्नत्रयं वो समाचर सम्यगाद्रियस्व वा। तं रयणत्तयं केरिसं हवदि। तं जहा । तद्रत्नत्रयं कीदृशं भवति ? तद्यथा-तदेवनिरूपयति-- अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्टी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गुत्तिं ॥ ३१ ॥ आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्दृष्टिः भवति स्फुटं जीवः । __ जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रमार्ग इति ॥ अप्पा अप्पम्मि रओ आत्मा आत्मनि रत आत्मनः श्रद्धानपरः । सम्माइही हवेइ फुडु जीवो सम्यग्दृष्टिर्भवति स्फुटं निश्चयनयेन, व्यवहारनयेन तु तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं भवति, जीव आत्मा सम्यग्दृष्टिरिति ज्ञातव्यः । जाणइ तं सण्णाणं जानाति तं. आत्मानं तत्सद्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं भवति, व्यवहारेण तु सप्ततत्वानि जानाति तत्सम्यरक्षानं भवति । चरदिह चारित्तमग्गुत्ति तमात्मानं जीवो यच्चरति तन्मयो भवति आत्मन्येकलोलीभावो भवति, इहास्मिन् संसारे, चारित्रमार्ग इति, व्यवहारेण तु पापक्रियाविरमणं चरणं भवति । अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मतराई मरिओसि । भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ॥ ३२ ॥ अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृतोऽसि । भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव ! ॥ अण्णे कुमरणमरणं अन्यस्मिन् भवसमूहे कुमरणमरणं-कुत्सितमरणमरणं यथा भवत्येवं । तथा अनेकजन्मान्तराण्यनन्तभवान्तरेषु । “अन्यार्थे १-२ वाद्वयं नास्ति. ख. पुस्तके । ३ मग्गोत्ति मूलगाथापाठः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । १४७ अन्या" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण सप्तम्यर्थे द्वितीया । मरिओसि मृतोऽसि मरणं प्राप्तोऽसि । भावहि सुमरणमरणं भावय सुमरणमरणं पंडितपंडितमरणं । कथंभूतं सुमरणमरणं, जरमरणविणासणं जरामरणविनाशनं परममोक्षदायकं । हे जीव है चेतनस्वभाव ! आत्मन्निति । समुद्रादिकलोलवत्प्रतिसमयमायुस्त्रुट्यति तदावीचिकामरणं स्थितिप्रदेशवीचिकाभेदात्तद्विविधमप्येकविधं । भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपसृष्टपूर्वभवविगमनं तद्भवमरणमुच्यते । तत् त्त्वनन्तशः प्राप्त जीवेनेति ज्ञातव्यं, तेन तद्भवमरणं न दुलर्भ । अवधिमरणं नाम कथ्यते-यो यादृशं मरणं साम्प्रतमुपैति तादृशमेव यदि मरणं भविष्यति तदवधिमरणं, तद् द्विविध देशावधिमरणं सर्वावधिमरणं चेति । तत्र सर्वावधिमरणं नाम यदायुर्यथांभूतमुदेति साम्प्रतं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशैस्तथाभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बध्नात्युदेष्यति च यदि सर्वावधिमरणं । यत्साम्प्रतमुदेत्यायुर्यथाभूतं भूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद्देशावधिमरणं । एतदुक्तं भवति-देशतः सर्वतो वा सादृश्येनावधीकृतेन विशेषितं मरणमवधिमरणमिति । साम्प्रतेन मरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यन्तमरणमुच्यते । आदिशब्देन साम्प्रतं प्राथमिकं मरणमुच्यते, तस्यान्तो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरणे तदेतदाद्यन्तमरणमुच्यते । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूतैः साम्प्रतमुपैति मृति तथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यन्तमरणं । बालमरणमुच्यते-स च बालः पंचप्रकारोऽव्यक्तबालो व्यवहारबालो ज्ञानबालो दर्शनवालश्चारित्रबालः । धर्मार्थकामकार्याणि न वेत्ति न तदाचरणसमर्थशरीरोऽव्यक्तबालः। लोकवेदसमयव्यवहारान् न वेत्ति शिशुर्वा व्यवहारबालः । मिथ्यादृष्टयो दर्शनबालाः । वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानहीना ज्ञानबालाः । अचारित्राश्चारित्रबालाः । दर्श १ भाव. क.। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ षट्प्राभृतेनबालमरणं द्विविधं इच्छाप्रवृत्तमनिच्छाप्रवृत्तं चेति । तत्रेच्छाप्रवृत्तमग्निना धूमेन शस्त्रेण विषेणोदकेन मरुत्प्रपातेनोच्छासरोधेन शीतपातेनोष्णपातेन रज्वा क्षुधा तृषा जिव्होत्पाटनेन विरुद्धाहारसेवनेन च मरणमिच्छामरणं । कालेऽकाले वाऽध्यवसानादिना विना जिजीविषोर्मरणमनिच्छाप्रवृत्तं । पंडितमरणमुच्यते-पंडितश्चतुर्धा व्यवहारपंडितः सम्यक्त्वपंडितो ज्ञानपंडितश्चारित्रपंडितश्चेति । लोकदसमयगतव्यवहारनिपुणो व्यवहारपंडितः, अथवानेकशास्त्रज्ञः शुश्रूषादिबुद्धिगुणसमन्वितो व्यवहारपंडितः । त्रिविधान्यतमसम्यक्त्वः दर्शनपण्डितः । पंचविधज्ञानपरिणतो ज्ञानपंडितः । पंचविधचारित्रान्यतमचारित्रपरिणतश्चारित्रपंडितः । नरके भवनेषु विमानेषु ज्योतिष्कंषु वानव्यन्तरेषु द्वीपसमुद्रेषु च ज्ञानपंडितमरणं । मनःपर्ययमरणं मनुष्यलोक एव मरणं । आसन्नमरणमुच्यते-निर्वाणमार्गप्रस्थितसंयतसार्थात् प्रच्युतः आसन्न उच्यते, तदुपलक्षणं पार्श्वस्थस्वच्छन्दकुशीलसंसकानां । ऋद्धिप्रिया रसेष्वासक्ता दुःखभीरवः सदा दुःखकातराः कषायपरिणताः संज्ञावशगाः पापश्रुत्याभ्यासकारिणः त्रयोदशक्रियास्वलसाः सदा संक्लिष्टचेतसः भक्ते उपकरणे च प्रतिबद्धा निमित्तमंत्रौषध्योगोपजीविनः गृहस्थवैयावृत्यकरा गुणहीना गुप्तिसमितिध्वनुद्यता मन्दसंवेगा दशधर्माअकृतबुद्धयः शबलचारित्रा आसन्ना उच्यन्ते । ते यद्यन्ते आत्मशुद्धिं कृत्वानियन्ते तदा प्रशस्तमेव मरणं । बालपंडितमरणं श्र वकस्य । सशल्यमरणं सुगमं । पलायमरणमुच्यते-विनयवैयावृत्यादावकृतादरः प्रशस्तक्रियोद्वहनालसः त्रयोदशचारित्रेषु वीर्यनिगूहनपरो धचिन्तायां निद्राघुर्णित इव ध्याननमस्कारादेः पलायत पलायमरणं । इन्द्रियवेदनाकषायनोकषायातमाणं वशार्तमरणं । प्रसिद्धऽनतुज्ञाते च मरणे विप्पाण १ मरु. क. पर्वत। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । समरणं, विप्राणसमरणमुच्यते-गृध्रपृष्टमिति संज्ञिते कृते प्रवर्तते । दुर्भिक्षे कान्तारे दुरुत्तरे पूर्वशत्रुभये दुष्टनृपभये स्तेनभये तिर्यगुपसर्गे एकाकिनः सोढुमशक्ये ब्रह्मव्रतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्नः पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये सावधकरणभीरुः विराधनमरणभीरुश्च एतस्मिन् करणे जाते कालेऽमुमिन् किं भवेत्कुशलमिति गणयता यधुपसर्गत्रासितोऽहं संयमाद्मश्यामि तत: संयमभ्रष्टो दर्शनादपि न वेदनामसंक्लिष्टः सोढुं प्रव्रज्यामुत्सहे ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिममेति निश्चितमतिनिर्मायः चरणदर्शनविशुद्धः धृतिमान् ज्ञानसहायोऽनिदानोऽर्हदन्तिके आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिलेश्यप्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसमरणमुच्यते। शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गृध्रपृष्ठमित्युच्यते मरणविकल्पसंभवप्रदर्शन मिदं सर्वत्र कर्तव्यतयोपदिश्यते । भक्तप्रत्याख्यानं, प्रायोपगमनमरणं, इंगिनीमरणं, केवलमरणं चेति । इत्येतान्येवोत्तमानि पूर्वपुरुषैः प्रवर्तितानि सप्तदशसु मध्ये त्रीण्युत्तमानि सुमरणानि । प्रायोपगमनं दर्भासने स्थितः स्वयमुपसर्ग न निवारयति, चेत्कोपि निवारयति तदा निवारयितुं ददाति । इंगिनीमरणे निवारयितुमपि न ददाति । केवलिमरणं तीर्थकरगणधरानगारकेवलिमरणं ज्ञातव्यं । एतन्मरणत्रयं सुमरणं हे जीव ! त्वं भावय । सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ। जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो ॥३३॥ स नास्ति द्रव्यश्रमणः परमाणुप्रमाणमात्रो निलयः। __यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः ॥ सो णत्थि स नास्ति न विद्यते । णिलओ गृहं स्थानं । कथंभूतो निलयः, परमाणुपमाणमेत्तओ परमाणुप्रमाणमात्रः अविभागी १ नि. टी. । २ यो. टी. । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० षट्प्राभूतेपरमाणुर्यावन्तं प्रदेशं रुणद्धि तन्मात्रोऽपि निलयो नास्ति । स कः प्रदेशः, जत्थ यत्र प्रदेशे। दव्वसवणो द्रव्यदिगम्बरः मिथ्यादृष्टिस्तपस्वी । ण जाओ न जातो नोत्पन्नः । ण मओ न मृतो न मरणं प्राप्तः। स निलयः कियान् , तियलोयपमाणिओ त्रिवभुवनेनमपितः। सव्वो समस्तोऽपि। कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं । जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण ॥ ३४॥ कालमनन्तं जीवः जन्मजरामरणपीडितः दुःखम् । जिनलिङ्गेन अपि प्राप्तः परम्पराभावरहितेन ॥ कालमणंतं जीवो कालं समयमनेहसमिति यावत् , अनन्तमन्तरहितं कर्मतापन्नं जीव आत्मा दुःखं प्राप्त इति क्रियाकारकसम्बन्धः । कालाध्वदेशभावानां कर्मसंज्ञा सिद्धैव वर्तते । कथंभूतो जीवः, जम्मजरामरणपीडिओ जन्मजरामरणपीडितः चम्पितः । जिणलिंगेण वि अहंदूपविशिष्टोऽपि, अपिशब्दादविशिष्टोऽपि । कथंभूतेन जिनलिंगेन, परंपराभावरहिएण परम्परा आचार्यप्रवाहस्तदुपदिष्टं शास्त्रं च परंपरा शब्देन लभ्यते तत्र भावरहितेन प्रतीतिवर्जितेन मिथ्यादृष्टिना जीवनेत्यर्थः । कासौ परंपरा ? अस्यामवसर्पिण्यां तृतीयकालप्रान्ते श्रीवृषभनाथेनार्थशास्त्रमुक्तं, वृषभसेनगणधरेण ग्रन्थः कृतः, तत्परम्परया वीरेण भगवतार्थः प्रकाशितः, गौतमैन गणिना प्रन्थितः, तदनुक्रमेण पंचमकाले प्रमाणभूतैर्निरम्बराचार्यैरारातीयैरुपदिष्टं तच्छास्त्रं प्रमाणीकर्तव्यं विसंघादिभिर्मिथ्यादृष्टिभिः कृतं शास्त्रं न प्रमाणनीयं । अथ के ते आचार्या यैः कृतं शास्त्रं प्रमाणीक्रियते इत्याह श्रीभद्रबाहुः श्रीचन्द्रो जिनचन्द्रो महामतिः। गृध्रपिच्छगुरुः श्रीमाँल्लोहाचार्यों जितेन्द्रियः ॥१॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १५१ एलाचार्यः पूज्यपादः सिंहनन्दी महाकविः! वीरसेनो जिनसेनो गुणनन्दी महातपाः ॥ २ ॥ समन्तभद्रः श्रीकुंभः शिवकोटिः शिवंकरः । शिवायनो विष्णुसेनो गुणभद्रो गुणाधिकः ॥३॥ अकलको महाप्राज्ञः सोमदेवो विदांवरः। प्रभाचंद्रो नेमिचन्द्र इत्यादिमुनिसत्तमैः॥४॥ यच्छास्त्रं रचितं नूनं तदेवाऽदेयमन्यकैः । विसंघरचितं नैव प्रमाणं साध्वपि स्फुटं ॥५॥ पडिदेससमयपुग्गलआउगपरिणामणामकालहं। गहिउझियाई बहुसो अणंतभवसायरे जीव ॥ ३५॥ प्रतिदेशसमयपुद्गलायुपरिणामनामकालस्थम् ।। ग्रहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीव ! ॥ पडिदेस यावन्तः प्रदेशा लोकाकाशस्य वर्तन्ते एकैकं प्रदेशं प्रति शरीराणीति पूर्वोक्तमेव ग्राह्यं गृहीतोज्झितानि । तथा प्रतिसमय-समयं समयं प्रति प्रतिसमयं शरीराणि गृहीतोज्झितानि । प्रतिपुद्गलं प्रतिपरमाणु-परमाणुं परमाणु प्रति प्रतिमरमाणु अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । आउगं प्रत्यायु आयु आयु प्रति प्रत्यायु अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । परिणाम परिणाम परिणामं प्रति प्रतिपरिणामं क्रोधमानमायालोभमोहरागद्वेषादिपरिणामान् प्रति प्रतिपरिणाम अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । णाम नाम नाम प्रति प्रतिनाम प्रतिनामं नपुंसकं चेति वचनाद्वाऽदन्तो निपातः, यावन्ति नामानि गतिजात्यादीनि वर्तन्ते तावन्ति प्रति अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । कालहं प्रतिकालस्थं उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालस्थं यथा भवत्येवं तत्समयांश्च प्रति प्रतिकालस्थं अनन्तानि १ जीवो. घ. । जीवा ग. । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ षट्प्राभूतेशरीराणि गृहीतोज्झितााने । गहिउज्झियाई बहुसो गृहीतोज्झितानि बहुशोऽनन्तवारान् । अणंतभवसायरे जीव अनन्तभवसागरेऽनन्तानन्तसंसारसमुद्रे हे जीव ! हे आत्मन्निति । जिनसम्यक्त्वं विनेति भावार्थः जिनसम्यक्वभावेन त्वनन्तसंसार उच्छिद्यते स्तोककालेन मुक्तो भवति । तेयाला तिण्णि सया रज्जुणं लोयखेत्तपरिमाणं । मुत्तूणपएसा जत्थ ण दुरुङल्लिओ जीवो ॥ ३६॥ त्रिचत्वारिंशत् त्रीणि शतानि रज्जूनां लोकक्षेत्रपरिमाणं । मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ॥ तेयाला तिणि सया त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशतरज्जुघनाकाररज्जूनां च लोकक्षेत्रपरिमाणं भवति । मुत्तणटेपएसा मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् मेरुकंदै गोस्तनाकारेण येऽष्टप्रदेशा वर्तन्ते तन्मध्ये जीवो नोत्पन्नो न मृतः अन्यत्र सर्वत्र जातो मृतश्चायं जीवः । तेऽष्टौ प्रदेशा निजात्मशरीरमध्ये गृहीतास्तन्मध्ये नोत्पन्न इति वृद्धाः । जत्थ ण- दुरुडुल्लिओ जीवो यत्रात्मा न पर्यटितः स कोऽपि प्रदेशो नास्ति। "पर परी ढुस ढुम कुम् गुम् भुम झंप रुंट तलयंट भमाड भमड भम्मड चक्कम्म ढंढल दुढुल्ल टिरिटिल्ल ढुरुढुल्ल भ्रमेः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण भ्रम्धातो: ढुरुढुल इत्यादेशः । धनपालकृतदेशीलक्ष्म्यां तु “घोलिय दुंदुलियाइ भमियत्थे" सूत्रं । एकेकंगुलिवाही छण्णवदी होति जाण मणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया ।। ३७ ।। एकैकाडगुली व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानीहि मनुष्यानाम् । अवशेषे च शरीरे रोगा भण कियन्तो भणिताः ॥ , पंचेव य कोडीओ तह चेव अडसडिलक्खाणि । णवणउदि च सहस्सा पंचसया होति चुलसीदी ॥॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १५३ एक्केकंगुलिवाही एकैकांगुली व्याधयो रोगाः । छण्णवदी होंति जाण मणुयाणं पण्णवतिर्भवन्ति हे जीव ! त्वं जानीहि मनुजानां मनुष्याणां शरीरे | अवसेसे य शरीरे अवशेषे च शरीरे एकागुलेरुद्धरितादवशिष्टे शरीरे । रोया भण कित्तिया भणिया रोगा व्याधस्त्वं भण कथय कियन्तो भणिता इति । ते रोया विय सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं ॥ ३८ ॥ | ते रोगा अपि च सकलाः संढा त्वया परवशेन पूर्वभवे ! एवं सहसे महायशः किं वा बहुभिः लपितः ॥ ते रोया विय-सयला ते रोगाः सकला अपि सर्वेऽपि । सहिया ते परवसेण पुत्रभवे सोढास्त्वया परवशेन कर्माधीनतया पूर्वभवे पूर्वजन्मान्तरसमूहे | एवं सहसि महाजस एवमुनाप्रकारेण त्वं सहसेऽनुभवसि हे महायशः ! | किंवा बहुएहिं लविएहिं किं वा बहुभिर्लपितै जल्पितैः । पित्तंतमृत्त फेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमिजाले ॥ उयरे वसिओसि चिरं नवदसमासेहिं पत्तेहिं ।। ३९ ।। पित्तान्त्रमूत्र फेफस यकृद्रुधिरखरिसक्रमिजाले । उदरे वसितोसि चिरं नवदशमासैः पूर्णैः ॥ पित्तं च मायुः | अंत्राणि च परीतंति । मूत्रं च प्रस्रावः । फेफसश्च प्लीहा । कालिज्जय यकृत् "उदर्यो जलाधारो हृदयस्य दक्षिणे यकृत् कालखण्डं क्लोम वामे 'प्लीहा पुष्पसश्चेति" वैद्याः । वरहल इति देश्यां । रुहिर रुधिरं च । खरिस खरिसच, अपक्कविमिश्ररुधिरश्लेष्मा खरिसः कथ्यते । खउरिय इति देश्यात् । किमि कृमयश्च द्वीन्द्रिया जीवास्तेषां जालं समूहो यत्रोदरे तत् पित्तान्त्रमूत्रपुष्पसकालियकरुधिरखरिसयकृमिजालं १ पुषस. क. । पुष्प. ख. । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ षट्प्राभृतेतस्मिन् । उयरे वसिओसि चिरं उदरे कुक्षिमध्ये उषितोऽसि निवासं कृतवानसि त्वं चिरं दीर्घकालं, अनन्तगर्भग्रहणापेक्षया चिरमिति विशेषणं । नवदसमासेहिं पत्तेहिं नवभिर्दशभिर्वा मासैः प्राप्तैः परिपूर्णेर्जातैः तन्मध्ये तदुपरि च कियान् कालो लभ्यते प्राप्तशब्देनेति । दियसंगहियमसणं आहारिय मायभुत्तमण्णंते । छदिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए ॥४०॥ द्विजसङ्गस्थितमशनमाहृत्य मातृभुक्तमन्नान्ते । छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोसि जनन्याः ॥ हे जीव ! त्वं जनन्या मातुः । जठरे उदरे उषितोऽसि निवासं चकर्थ। कथंभूते जठरे, छदिखरिसाण मज्झे छर्दिश्च वान्तमन्नं, खरिसश्च अपकं दर्दरं मलं रुधिरलिप्तं तेषां छदिखरिसाणं तयोः छर्दिखरिसयोर्मध्ये मध्यविशिष्टे । अथवा जठरे उषितोऽपि कुत्रोषितोऽसि छर्दिखरिसयोमध्ये त्वमुषितोऽसि । किं कृत्वा पूर्व, असणं आहारिय अशनं भोजनं आहृत्य आहारं कृत्वा । कथंभूतमशनं, दियसंगट्टियं द्विजानां दन्तानां अस्थ्यङ्कराणां संगे स्थितं, चर्वणवेलायां मातृमुखे दन्तानां समीपे स्थितं अस्थिभिः स्पृष्टं उच्छिष्टीकृतं । क उषितोऽसि, मायभुत्तमण्णंते यन्मात्रा भुक्तं तस्यान्नस्यान्ते मध्ये उषितोऽसि । अथवा मात्रन्नं भुत्तं-भुक्तं तेत्वया । तथा चोक्तं अन्तर्वान्तं वदनविवरे क्षुत्तषातः प्रतीच्छन् कर्मायत्तः सुचिरमुदरावस्करे वृद्धगृद्धया। निष्पन्दात्मा कृमिसहचरो जन्मनि क्लेशभीतो मन्ये जन्मिन्नपि च मरणात्तन्निमित्ताद्विभषि ॥१॥ सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलिओसि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर वालत्तपत्तेण ॥४१॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । १५५ शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लुठितोसि त्वम् । अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर ! बालत्वप्राप्तेन ॥ सिसुकाले य अयाणे गर्भरूपकाले स्तनन्धयावसरेऽज्ञाने निर्विवेके। असुई मज्झम्मि लोलिओसि तुमं अशुचिमध्ये विष्टामध्ये गूथमध्ये लोलितो लुठितस्त्वं भवान् । असुई असिया बहुसो अशुचिर्विष्टा अमेध्यमशिता भक्षिता बहुशोऽनेकवारान् । मुणिवर बालत्तपत्तेण हे मुनिवर ! यतिवराणां ज्ञानिनां मध्ये श्रेष्ठ ! परमप्रशस्य ! बालत्वप्राप्तेन अव्यक्तबालत्वं गतेन । तथा चोक्तं--- बाल्ये वत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङ्कने हितं वाहितं । कामान्धः खलु कामिनीद्रुमघने भ्राम्यन् वने यौवने। मध्ये वृद्धतृषार्जितुं वसु पशुः क्लिनासि कृष्णादिभि र्घार्धक्येऽर्धमृतः क्व जन्मफलिते धर्मों भवनिर्मलः ॥१॥ मंसहिसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंध । खरिसवसपूयखिब्भिसभरियं चिंतेहि देहउडं ॥ ४२ ॥ मांसास्थिशुक्रश्रोणितपित्तान्त्रस्रवत्कुणिमदुर्गन्धम् । खरिसवसापूय किल्बिषभरितं चिन्तय देहकुटम् ॥ हे जीव ! शुद्धबुद्धैकस्वभाव आत्मन् ! त्वं देहउडं कायकुटं शरीरघटं । चिंतेहि चिन्तय विचारय पर्यालोचयस्व । कथंभूतं देहकुटं, मंसेत्यादि मांसं च पिशितं, अस्थीनि च हड्डानि, शुक्रं च सप्तमो धातुः-बीजं वीर्य चेति यावत् , शोणितं रुधिरं-रक्तं लोहितमिति यावत् , पित्तं च उष्णविकारो मायुरिति, अंत्राणि च पुरीतंति, एतैः स्रवद्गलत कुणिमं शटितमृतकं तद्वदुर्गन्धमसुराभि । पुनः कथंभूतं देहकुटं त्वं चिन्तय, खरिसश्च अपक्कमलरुधिरमिश्रितं द्रव्यं । वसा च वपा भेद इति यावत् शुद्धमांसस्वेद इत्यर्थः। पूयं च विनष्टरुधिरं । पूइ इति पाठेऽपवित्रं । किल्विषं च कश्मलं एतैर्भरितं पूरितं । ___ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ षट्प्राभृते भावविमुतो मुत्तो ण य मुत्तो वंधवाइमित्तेण । sa भाविऊण उज्झसु गंधं अब्भंतरं धीर ॥ ४३ ॥ भावविमुक्तो मुक्तः न च मुक्तः बान्धवादिमात्रेण । इति भावयित्वा उज्झय गन्धमभ्यन्तरं धीर ! ॥ 7 भावविमुतो मुत्तो बान्धवादीनां प्रेमलक्षणेन भावेन विमुक्तो रहितो मुनिर्विमुक्तः कथ्यते । ण य मुत्तो बंधवाइ मित्तेण न च नैव मुक्तो यतिरुच्यते कीदृश: ? बान्धवादिकुटुम्बेन मुक्तस्त्यक्तो मुक्त उच्यते बान्धवादिमात्रेण मुक्तो मुनिर्नोच्यते, किं तर्हि उच्यते-गृहस्थ एवोच्यते इति भावार्थ: । इय भाविऊण उज्झसु इतीदृशमर्थे भावयित्वा सम्यग्विचार्य उज्झसु - परित्यज परिहर । कं, गन्धं परिमलं वासनां भावनां । कथंभूतं गन्धं, अभ्यन्तरं मनसि स्थितं बान्धवादिस्नेहं । हे धीर ! हे योगीश्वर ! ध्येयं प्रति धियं बुद्धिमीरयति प्रेरयतीति धीर इति व्युत्पतेः । देहादिचत्तसङ्गो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अतावणेण जादो बाहुवली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥ देहादित्यक्तसङ्गः मानकषायेन कलुषितो धीर ! | आतापनेन जातो बाहुबलिः कियन्तं कालम् ॥ देहादिचत्तसंगो देहः शरीरं, आदिशब्दाद्धस्त्यश्वरथपादातिसमूहः पुत्रकलत्र दिवर्गश्च लभ्यते तस्मात्त्यक्तसंगो निष्परिग्रहः । माणकसाएण कलुसिओ धीर संज्वनमानेनेषत्कषायेण कलुषितो मलिनित: हे धीर ! अत्तावणेण जादो आतापनेन योगेन उद्भकायोत्सर्गेण | बाहुवली कित्तियं कालं श्रीबाहुबलिस्वामी कियंतं कालं वर्षपर्यन्तं कालं कलुषित इति सम्बन्धः । तथा चोक्तं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ भावप्राभृतं । चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदेव स तेन मुंचेत् । क्लेशं किलाप स हि बाहुबली चिराय मानो मनागपि हर्ति महतीं करोति ॥१॥ महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो। सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय ॥ ४५ ॥ मधुपिङ्गा नाम मुनेः देहाहारादित्यक्तव्यापारः । श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत ! ॥ महुपिंगो णाम मुणी मधुपिंगो नाम मुनिः। देहाहारादिचत्तवावारो शरीराहारादि यक्तव्यापारः । सवणत्तणं ण पत्तो श्रवणत्वं दिगम्बरत्वं न प्राप्तः द्रव्यलिंगी बभूवेत्यर्थः । णियाणमित्तेण भवियणुय निदानमात्रेण सगरं सकुटुम्ब क्षयं नेष्यामीति निदानमात्रेणेति हे भविकनुत ! भव्य मी स्तुनमुने। इयं कथा महापुराणादिषु विश्रुता वर्तते। तथा हि। अथेह भरतक्षेत्रे चारणयुगलनगरे राजा सुयोधनः, राज्ञी अतिथिः, सुता सुटसा । तस्याः स्वयंवरे सर्वत्र दूता गताः । सर्वे नृपाः चारणयुगले पुरे मिलिताः । अयोध्यापतिस्तत्र सगर आगन्तुमुद्यमं चकार । पश्चास्नाने सति तैलोपलेपिना सगरेण राज्ञा पलितं केशं दृष्ट्वा तत्र गर्भने विरक्तेन बभूवे । तत्रावसरे मन्दोदरी धात्री राजानमुवाच । देव ! नवं पलितमिदं तवापूर्वद्रव्यलाभं वदति । तत्रैव विश्वभूमंत्री कथयति । हे राजन् ! सुठसा परनृपान् मुक्त्वा त्वानेव वरयिष्यति तथा कुशल या करिष्यामि। तच्छत्वा हृष्ट्वा राजा तत्र चतुरङ्गसेन्येन चचाल । तत्र केषुचि देवसेषु गतेषु मन्दोदरी सुलसान्तिकं गत्वा है पुत्रि! कुलरूपसान्दर्यविक्रमनयविनयविभवबन्धुसम्पादयो ये गुणा वरे १ मनास विरक्तन इति ख. पुस्तके । २ हृष्टो, इति ख. पुस्तक. । ३ कुलं रूपं इति क. पुस्तके। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ षट्प्राभृतेविलोक्यन्ते ते सर्वेऽपि साकेतपतो सगरे सन्तीत्युवाच । तच्छत्वा सा तत्र रक्ता बभूव । अतिथिस्तज्ज्ञात्वा युक्तिवचनैस्तं दूषयित्वा हे पुत्रि ! सुरम्यदेशे पोदनापुरे बाहुबलिकुले सर्वराजसु ज्येष्ठो मम भ्राता तृणपिंगल: राज्ञी सर्वयशास्तत्पुत्रो मधुपिंगलः सवैर्वरगुणैराड्यो नवे वयसि वर्तते स त्वया वरमालया मदाक्षेपेण माननीयः। साकेतपतिना सपत्नीदुःखदायिना किं करिष्यसि ? इत्यवदत् । सुलसा तु तदुपरोधं नामन्यत । अतिथिरुपायेन मंदोदरीप्रवेशं तत्र निवारयामास । सा निजस्वामिन नष्टं कार्य जगाद । राजाह-विश्वभूर्मन्निन् ! इदं मम कार्य त्वया सर्वथा कार्य। तच्छ्रुत्वा तेन विश्वभुवा स्वयंवरविधानं नाम सामुद्रिक शास्त्रं नवीनं रचयित्वा तत्पुस्तकं मंजूषायां निक्षिप्य यथा कोऽपि न जानाति तथा वनमध्ये भू-तिरोहितं निदधे । तत्रोद्यानभूशोधनं कारयन् हलाने लग्नां मंजूषां समानीय मया लब्धेयं चिरन्तनशास्त्रसंयुक्ता मंजूषा । स्वयमजानन्निव राजपुत्राणामने वाचितवान् । वरकदम्बके कन्या पिङ्गाक्षं मालया न संभावयेत् । संभावयेच्चेत्तर्हि सा कन्या म्रियते । पिङ्गाक्षेण सभामध्ये न प्रवेष्टव्यं । पापभयाल्लजितव्यं च प्रधानान्न बिभेति च न लजते तदा स पापी निर्घाटनीयः । तत्सर्वं श्रुत्वा तद्गुणत्वाल्जया निर्गत्य हरिषेणगुरुपादमूले दीक्षां जग्राह । तज्ज्ञात्वा सगरो विश्वभूश्च मुदं प्रापतुः । अन्ये च कुटिला मुदं प्रापुः। सत्पुरुषास्तद्वान्धवाश्च विषादं प्रापुः । वंचनाकृतं पापमर्थिनो न पश्यन्ति। अथाष्टदिनानि महापूजां जिनेशिनामभिषेकं च कृत्वा स्नातालंकृतां शुद्धतिथिवारादिसन्निधौ कन्यां पुरोहितो रथमारोप्य नीत्वा सुभटपरिवृतां भद्रासनारूढान् नृपान् स्वयंवरमण्डपे यथाक्रमं पृथक्कुलजात्यादिकं विनिर्दिश्य विरराम | सा तु समासक्ता सगरं वरमालया वरयामास । १ युक्त इति ख. पुस्तके । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १५९ निर्मत्सरं राजमण्डलं तु तुतोष । अनयोरनुरूपः संगमो विधात्रा कृत इति । विवाहविधौ च जाते सगरः सुलसासहितस्तत्र कानिचिदिनानि तत्र सुखेन स्थित्वा साकेतं गतः । भोगसुखमनुभवन् स्थितः । मधुपिगलस्तु साधुः कस्मिंश्चित्पुरे भिक्षार्थ प्रविशन् केनचिजैनेन नैमित्तिकेन दृष्टः । राज्याहलक्षणोऽयं भिक्षाशी किंलक्षणशास्त्रेणेति निनिन्द । तदाकापर एवं बभापे । राज्यलक्ष्मी भुंजान एष सगरमंत्रिणा वृथा दूषितः कृत्रिमं सामुद्रिकं रचयित्वेति लजितस्तपो जग्राह । सुलसा सगरं च तच्छुत्वा कोपाग्निदीपितो निदानं चक्रे, तपःफलेन सगरकुलं सर्व जन्मान्तरे निर्मूलयिष्यामीति । ततोऽसौ मृत्वाऽसुरेन्द्रस्य प्रथममहिषानीके चतुःषष्ठिसहस्रासुरस्वामी बभूव । स महाकालासुरनामा निजदेवैर्वेष्टितो विभंगन पूर्वभवसम्बन्धं ज्ञात्वा पापी चेतसा मंत्रिणि तत्प्रभौ सगरे च प्ररूढवैरोऽपि तौ हन्तुनिच्छन्नत्युग्रं पापं तयोरिच्छन् तदुपायं सहायांश्च संचिन्त्य स्थितः । मम महापापं भविष्यतीति नाचिन्तयत् धिग्मूढतां । तदभिप्रायसाधनमिदमत्रान्यत्प्रकृतं । तथा हि । अत्र भरते धवलदेशे स्वस्तिकावति पुरे हरिवंशजो राजा विश्वावसुः । देवी श्रीमती । पुत्रो वसुः । तत्रैव क्षीरकदम्बनामा सर्वशास्त्रज्ञो ब्राह्मणोऽध्यापकोत्तमः पूज्यो विख्यातश्च । तत्पुत्रः पर्वतो देशान्तरागतो नारदो विश्वावसुपुत्रो वसुश्च एते त्रयोऽपि विद्यानां पारं प्रापुः । तेषु पर्वतोऽकीर्तिविपरीतार्थग्राही वसुनारदौ यथोपदिष्टार्थग्राहिणौ । ते त्रयोऽपि सोपाध्याया दर्भादिकं चेतुं वनं गताः। तत्र गिरिशिलोपरि स्थितः श्रुतधरगुरुः । मुनित्रयं तस्मादष्टाङ्गनिमित्तं पपाठ । तत्समाप्तौ. स्तुतिं कृत्वा सुखं तस्थौ । तस्य निपुणतापरीक्षार्थ गुरुः पप्रच्छ । भो मुनित्रय ! अधियानस्य छात्रत्रय १ स इति पाठः ख. पुस्तके नास्ति । २ अभिलषन्निति ख. पुस्तके। ३ संचित्य इति ख. पुस्तके। ४ नाचिन्तमात्. ख. । यन्. क.। ५ मुनिरिति ख. पुस्तके। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूतेस्यास्य कि नामकस्य किं कुलं को भावः प्रान्ते कस्य का गतिर्भविष्यतीत्युक्ते एकः प्राह-अस्मत्समीपगो वसुः, राज्ञः सुतः, तीव्ररागादिदूषितः, हिंसाधर्म विनिश्चित्य नारको भावी । द्वितीयो मुनिः प्राह-मध्यस्थितो पर्वतः, द्विजपुत्रः, दुर्बुद्धिः क्रूरः,महाकालोपदेशादथर्वणं पापशास्त्रं पठित्वा दुर्मार्गदेशको हिंसैव धर्म इति रौद्रध्यानपरायणो बहून् नरके प्रवेश्य स्वयमपि नरकं यास्यति । तृतीयो मुनिरुवाच-एष पश्चास्थितो नारदः, द्विजः, धीमान् , धर्मध्यानपरायणोऽहिंसा लक्षणं धर्म श्रितानां व्याकुर्वाणो भावी गिरितटाख्यपुरस्य स्वामी भूत्वा दीक्षित्वा सर्वार्थ सद्धि यास्यति। तन्मुनित्रयोक्तं श्रुतधरः श्रुत्वा साधु पठितं निमित्तं भवद्भिरिति तुष्टाव । क्षीरकदम्ब उपाध्यायः समीपतरतरुसमाश्रयस्तदाकर्ण्य तदेतद्विधिचेष्टितमशुभं धिगिति भणित्वा किमत्र मया क्रियते इति विचिन्त्य तत्रस्थित एव मुनीनभिवन्द्य वैमनस्येन शिष्यैः सह नगरं प्रविश । तदनन्तरमेकवर्षेण शास्त्रेण बालत्वे पूर्णे जाते विश्वावसुवसवे राज्यं दत्वा दीक्षां जग्राह । वसुनिष्कण्टकराज्यं कुर्वन्नेकदा वनं क्रीडितुं गतः। तत्राकाशे उड्डीयमानाः पक्षिणः स्खलित्वा पतितान् दृष्ट्वा चिन्तयामास । आकाशे उड्डीयमाना यत्पक्षिणः पतन्ति तत्र किमपि कारणं भविष्यतीति तस्मिन् प्रदेश बाणं मुमोच । सोऽपि तत्र स्खलितः, तत्र स्वयं जगाम सारथिना सह तत्र पस्पर्श । आकाशस्फटिकस्तंभं विज्ञाय परैरविदितं तमानयामास । तस्य पादच तुष्टय पृथु निर्माप्य तसिहासनमारुह्य नपादिभिः सेव्यमानः सत्यमाहात्म्यात् खे सिंहासने स्थितो वसुरिति विस्मयमानेन लोकेन घोषितोऽति तस्थौ। एवमस्य काले गच्छति पर्वतनारद वेकदा समित्पुष्पार्थ वनं गतौ। तत्र नदीतटे मयूग जलं पीत्वा गतास्तन्मार्गदर्शनान्नान्दः प्राह-ये मयूराः पानीयं पीत्वा गतास्तेष्वेको मयूरः सप्तमयूर्यो वर्तन्ते । तछत्वा पर्वतः १ व इति ख. पुस्तके । २ दुःखेन । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १६१ - ~ ~- ~ प्राह-मृषा वार्तासौ । मनस्यसहमानः पणितबन्धनं बबन्ध । तत्र किंचिदन्तरं गत्वा नारदोक्तं सद्भूतं ज्ञात्वा विस्मित्याने गत्वा करेणुमार्ग ददर्श । 'तं दृष्ट्वा नारद उवाच-एषा हस्तिनी गता, सा वामलोचनेनान्धा, तामारूढा गर्भिणी स्त्री, पट्टाम्बरसहिता, अद्य पुत्रमजीजनत् । अन्धसर्पविलप्रवेशवत् पूर्वोक्तं तव वचनं यादृच्छिकं सत्यमभूत् , इदं तु मिथ्या मयाऽविदितं किमस्तीति स्मित्वा स सासूयं विस्मयं चित्ते प्राप्य तदसत्यं कर्तुं हस्तिनीमनुगतः पुरं प्रविवेश । नारदोक्तं तथैव ददर्श। गृहमेत्य पर्वतो मातुरने. जगाद । किं जगाद ? मातः ! मे पिता यथा नारदं शिक्षितवाँस्तथा मां नापीपठत् , अस्य चेतसि नारदो वर्तते नाहमिति । तेन वचनेन विप्राया हृदयं विदारितं । पापोदयाद्विपरीतं तथा विचारितं । शोकं च ब्राह्मणी चकार । क्षीरकदम्बस्तु स्नात्वा अग्निहोत्रादिकं कृत्वा भुक्त्वा च स्थितः । तं प्रति ब्राह्मण्युवाच-खया पुत्रो न शिक्षितः, लोको व्युत्पादितः । क्षीरकदम्ब उवाच-प्रिये ! अहं निर्विशेषोपदेश: पुरुषं पुरुषं प्रति ददामि मतयस्तु भिन्नाः सन्ति । तेन नारदो कुशलो बभूव । प्रिये ! त्वत्पुत्रः स्वभावेन मन्दो नारदेऽसूयते किं क्रियते । इत्युक्त्वा स्त्रिया विश्वासमुत्पादयितुं पर्वतसमीपे नारदं पप्रच्छ । हे नारद ! त्वं वने भ्राम्यन् केन कारणेन पर्वतस्य बहुविस्मयं कारितवान् । नारद उवाच-स्वामिन् ! पर्वतेन सह वैनं गच्छन् नर्मकथापरः पीतवारां मयूराणां संघी नद्या निवर्तने स्वचन्द्रककलापाम्बुमध्यमजनगौरवात् भीत्वा व्यावृत्य विमुखं कृतपश्चात्पदस्थितिः शिखी च गतवानेकः । शेषास्त्वीषजलार्दिताः पत्रभागं विधूय अगुः । तं दृष्ट्वाहमुक्तवान्-पुमानेकः शेषाः १ तद्, क. २ अभूत्. ख. । ३ वने. ख.। ४ मयूरीणां. ख. । ५ सद्यो. ख. । ६ नद्यातिवर्तते ख.। षट. ११ ___ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ षट्प्राभूते स्त्रिय इत्यनुमानात् । ततो वनान्तरात्कश्चिदागत्य पुरसमीपे करिण्यारूढं स्त्रियं नयन् पुरं प्रति पश्चिमपादाभ्यां प्रयाणके स्वमूत्रघट्टनात् करिणीमकथय । दक्षिणे भागे तरुवीरुद्धंगेन वामलोचनेऽन्धां जगाद । मार्गात्प्रच्युत्य श्रमादारूढयोषितः शीतच्छायाभिलाषेण पुलिनस्थले सुप्ताया उदरस्पर्शमार्गेण गुल्मलग्नदशया स्त्रियं विवेद । करेणुश्रितमार्गे गृहोद्यत्सितकेतुदर्शनेन पुत्रजन्मोक्तवान् । तच्छृत्वा विप्रो निजापराधाभावं भार्याया अकथयत् । तदा पर्वतमाता प्रसन्ना जाता । प्रिये ! मुनिना भाषितं यत्पर्वतो नरकं यास्यति । तत्प्रतीत्यर्थ भार्या स्वयं च एकान्ते गत्वा पिष्टेन द्वौ बस्ती निर्माय पुत्रच्छात्रभावपरीक्षणार्थ द्विजोत्तम एक पुत्राय द्वितीयं छात्राय ददौ । परादृश्यप्रदेशे गत्वा गन्धपुष्पमंगलैरचित्वा कर्णच्छेदं कृत्वा एतावद्यैवानयतं युवां । तत्र पर्वतः पापी अस्मिन् वने न कोऽपि वर्तते इति कर्णौ छेदयित्वा पितरमागत्य पूज्य ! यथा त्वयोक्तं मया तथैव कृतमित्यवदत् । नारदस्तु वनं गत्वा विचारयति गुरुणोक्तमदृश्यप्रदेशेऽस्य कर्णौ छेदनीयाविति । चन्द्रः पश्यति । रविनिरीक्षते । मक्षत्राणि विलोकन्ते । ग्रहास्तारकाश्च पश्यन्ति । देवता निरीक्षन्ते । सन्निहिताः पक्षिणो मृगजातयश्च निषेढुं न शक्यन्ते इति विचार्य कर्णयोश्छेदमकृत्वा गुरुसमीपमागतो नारदः। यतोऽयं भव्यात्मा वनेऽदृष्टदेशस्यासंभवात् , नामस्थापनाद्रव्यभावानां विचारचतुरः पापापख्यातिकारणक्रियाणामकर्तव्यत्वादहमिमं छागं विच्छिन्नावयवं नाकार्षमित्युवाच । तच्छृत्वा क्षीरकदम्बः स्वपुत्रस्य जडत्वभावं ज्ञात्वा विचारयामास । यन्मिथ्यादृष्टय एकान्तेन ब्रुवन्ति कारणात्कार्यसिद्धिरिति तदसत्यं अत्र कारणं गुरुः कार्य शिष्यबुद्धयुत्कर्षः तत्त्वेकान्तेन १ पुस्तकद्वयेऽपि ववेद इति पाठः । २ द्वे. ख.। छाग. । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १६३ न भवति यतो मयि पाठयत्यपि मत्पुत्रो जड इति तेन घिगेकान्तं मतं तत्कुमतमेव । कारणानुगतं कार्यं कचिद्भवत्येव कचिन्न भवत्येवेत्यनेकान्तमतं सत्यमित्यनेकशस्तुष्टाव । नारदस्य योग्यत्वं ज्ञात्वा नारद ! त्वमेव सूक्ष्मबुद्धिर्यथार्थज्ञाता | अद्यप्रभृत्युपाध्यायपदे त्वं मया स्थापितः । सर्वशास्त्राणि त्वया व्याकर्तव्यानि इति तं प्रपूज्य प्रावर्धयत् । धीमतां सर्वत्र गुणैरेव प्रीतिः । निजसन्मुखं स्थितं पुत्रं जगाद -त्वं विवेकमन्तरणैव एतद्विरूपकं चकर्थ, शास्त्रादपि तव कार्याकार्यविवेको नास्ति, मच्चक्षुः परोक्षे त्वं अरे कथं जीविष्यसि मूर्ख ! । एवं शौकेन दत्तशिक्षो नारदे बद्धवैरो बभूव । कुधियामीदृशी गतिर्भवति । उपाध्यायस्त्वेकदा गृहादिकं त्यजन् वसुं गत्वोवाच- पर्वतस्तन्माता च द्वावपि मन्दधियौ तथापि मत्परोक्षे त्वया सर्वथा भद्र ! पालनीयाविति । वसुरुवाच - हे पूज्यपाद ! भवदनुग्रहादहं प्रीतोऽस्मि । एतदनुक्तमेव सिद्धं । अस्मिन् कार्ये ममेदं किं वक्तव्यं । अत्र सन्देहो न कर्त्तव्यः । यथोचितं परलोकं कर्तुमर्हति भवान् । इति मनोहरकथाम्लानमालया द्विजोत्तमं नृप आर्च | क्षीरकदम्ब उपाध्यायस्तु सम्यक्संयमं प्राप्य संन्यासं कृत्वोत्तमं स्वर्गलोकमवाप । पर्वतस्तु पितृस्थानमध्यास्य विश्वदि शिक्षाणां व्याकर्तु रतिं चकार । तस्मिन्नेव नगरे नारदो विद्वज्जनान्वितः सूक्ष्मबुद्धिर्विहितस्थानो व्याख्याया यशो बभार । एवं तयोः काले गच्छति सत्येकदा विद्वत्सभायां "अजैर्यष्टव्यमिति” वाक्यस्यार्थप्ररूपणे महान् विवादो बभूव । नारदः प्राह- अंकुरशक्तिरहितं यवबीजं त्रिवर्षस्थं अजमिति कथ्यते तद्विकारेण वन्हिमुखे देवार्चनं विद्वांसो यज्ञं वदन्ति । पर्वत उपन्यसति स्म - अजशब्देन पशुभेदस्तद्विकारेण हिरण्यरेतसि होत्रं यज्ञो विधीयते । इति तयोः सुधीप्रध्योरुपन्यासं श्रुत्वा ब्राह्मणमुख्याः साधवः प्राहुः प्राणिववाद्धर्मो न भवति । नारदे मत्सरि १ द्विरुक्तोऽयं इति शब्दः क. पुस्तके | Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ षट्प्राभृते त्वात् पर्वतोऽवन्यामधर्मं प्रवर्तयितुं दुरात्मोपन्यास्थत् । पतितोऽयमयोग्यः सहसंभाषणादिषु इत्युक्त्वा चपेटाभिस्ताडित: निर्भत्सितोऽयं पापात्मा लोके घोषितः । दुर्बुद्धेः फलमवेदृशं भवति । एवं सर्वैरपि बहिष्कृतो मानभंगाद्वनं जगाम । तत्र ब्राह्मणवेषेण कृतान्तारोहणासन्नसोपानपदवीमिव बलीरुद्वहता अन्धचक्षुषेक मुहुः स्खलता बिरलेन सितेन मूर्धजेन ततं राजतं शिरस्त्राणं समीपयमजाद्भयादिव दधता जराङ्गनासमासन्नसुखेनेव मीलच्चक्षुषा चलच्छिन्नकरेण करिणेव कुपितसर्पेणेव उर्ध्वश्वासिना राजवल्लभेनेवाऽग्रतो स्फुटं पश्यता भग्नपृष्टेन अपटुजल्पितेन असमेन योग्यदण्डेन राज्ञेव त्रिगुणीकृतमुपवीतं - धारयता विश्वभूनृपसुलसासु निजं बद्धक्रोधं वक्तुमिव स्वाभिमतारंभसिद्धिगवेषणा पर्वते पर्यटन पर्वतो महाकालासुरेण दृष्टः सन् तमभिगम्यानम्य चाभिवादनमभ्यधात् । महाकालस्तं समाश्वास्य सादरं तव स्वस्त्यस्त्वित्यु वाच । तमविज्ञातपूर्वत्वात्प्राह त्वं कुतस्त्यो वने पर्यटनं कस्मादिति । पर्वतस्तु निजवृत्तान्तमादितः प्राह । तच्छ्रुत्वा महाकालचिन्तयामास । मम शत्रुं । । सरं निर्वेशीकर्तुं समर्थ एष स्यात् । भोः पर्वत ! तव पिता स्थंडिल: अहं विष्णुरूपमन्युः । एतौ द्वावपि भोमोपाध्यायशिष्यौ शास्त्राभ्यासमकारिषातां । त्वत्पिता मम धर्मभ्राता तमहं दृष्टुमागतः ममागमनं त्वन्तर्गडु जातं । पुत्र पर्वत ! मा त्वं भैषीः तव शत्रुविध्वंसेऽहं सहायो भविष्यामि । इति क्षीरकदम्बपुत्रेष्टार्थस्यानुगता अथर्वणगताः षष्ठिसहस्रप्रमिताः पृथक् ऋचो वेदरहस्यानीति स्वयमुत्पाद्य पर्वतमध्याप्य शान्तिपुष्ट्यभिचारात्मक्रियाः पूर्वोक्तमंत्रणैर्निशितोः पवनोपेताग्निज्वालासमा इंष्टेः फलमुत्पादयिष्यन्ति पशुहिंसनात्प्रयुक्ताः सत्य इति । ततः १ विशिताः ख । २ दृ. ख. । " Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १६५ साकेतपुरमध्यास्य शान्तिकादिफलप्रदं हिंसायागं समारभ्य प्रभावं वयं कुर्महे । इति पर्वतमुक्त्वा वैरिविनाशार्थ निजतीव्रदैत्यान् सगरराष्ट्रस्य बाधां ज्वरादिभियूयं कुरुध्वमिति संप्रेष्य पर्वतेन युतः साकेतं महाकालासुरो गतः। पर्वतो मंत्रगर्भिताशीर्वादेनालोक्य सगरस्य स्वप्रभावं प्रकाशितवान्। हे राजन् ! त्वद्देशप्राप्तं विषममशिवं अहं सुमित्रेण यज्ञेन लघु शोषयिष्यामि । “यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञो हि वृद्धयै सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः॥" इति कारणात् स्वर्गमहासुखसाधनं पुण्यमेव भविष्यतीति पापी प्रत्याय्य तं जगाद । हे राजन् ! यागसिद्धयर्थं पशूनां षष्ठिसहस्राणि तद्योग्यमन्यद्व्यं च संगृहाण । सगरोऽपि सर्वे मेलयित्वा तस्मै समर्पितवान् । पर्वतो यागं प्रारभ्य पशूनभिमंत्रयामास । महाकालासुरस्तान् वषट्कृतान् शरीरेण सह स्वर्गं गतोऽयं स्वर्ग गतोऽयमिति विमानारूढानाकाशे नीयमानान् दर्शयामास । देशस्याशिवोपसर्ग तदैव निराचकार । तद् दृष्ट्वा मुग्धाः प्राणिनस्तद्वंचनया मोहिताः सन्तः स्वर्गगतये स्पृहयन्तो यागमृति भशमाचकांक्षुः । सुमित्रयज्ञावसाने जात्यश्वमेकं विधिपूर्वक हुतवान् , राजाज्ञया सुलसां च खलो वषट्चकार । प्रियकान्तावियोगदुःखदावानलज्वालाभिः प्लुष्टकायो राजा नगरं प्रविष्टः, शय्योपरि शरीर निचिक्षेप । प्राणिहिंसनं महदिदं वृत्तं किमयं धर्मः किमधर्मः इति संशयानः स्थितः । अन्यस्मिन्नहनि यतिवरनामानं मुनिमाभवन्ध विज्ञप्तवान् । भट्टारक ! मयारब्धं कर्म पुण्यं पापं वा सम्यकथय । यतिवरः प्राहधर्मशास्त्रबाह्यमिदं कर्म कर्तारं सप्तमं नरकं प्रापयेत् । स्वामिन्नस्ति १ यस्मिन् यज्ञे चतुःषष्ठिसहस्राणां पशूनां वधः क्रियते स सुमित्रो यज्ञः कथ्यते। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ षट्प्राभृतेतत्राभिज्ञानं । मुनिराह-राजन् सप्तमे दिने तव मस्तकेऽशनिः पतिप्यति इत्यभिज्ञानेन त्वं सप्तमे नरकं यास्यसि । तदाकर्ण्य राजा भीत्वा पर्वताय निवेदयामास । पर्वतः प्राह-राजन्नसौ नग्नः क्षपणकः किं वेत्ति तथापि यदि तव शंका वर्तते तदत्र शान्तिर्विधीयते इति वचनैस्तस्य मनः सन्धार्य शिथिलीचकार। पुनः सुमित्रमेव यज्ञं प्रारब्धवान् । ततः सप्तमे दिने पापासुरस्य मायया सुलसा आकाशे स्थिता देवत्वं प्राप्ता पूर्वपश्वग्रेसरी यागमृत्युफलेनैषा मया देवगतिर्लब्धा । तं प्रमोदं तव निरूपयितुमहं विमानेनागता । तव यज्ञेन देवाः पितरश्च प्रीणिता इत्यभाषत । तद्वचनात्प्रत्यक्षं यागमृत्युफलं दृष्टं, जैनमुनेर्वाक्यमसत्यं जातं । तदनु राजा तीत्रेण हिंसानुरागेण सद्धर्मद्वेषेण संजातदुष्परिणामेन मूलोत्तरविकल्पितात् तत्प्रायोग्यसमुत्कृष्टदुष्टसंक्लेशसाधनात् नरकायुराद्यष्टकर्मस्वोचितस्थितेः अनुभागबन्धनिकाचितबन्धने सति भीषणाशनिरूपेण कालासुरे तन्मस्तके पतिते सति यागकर्मासक्तनिखिलप्राणिभिः सह सगरः सप्तमे नरके पपात । स कालासुरस्तत्क्षणेन महाक्रोधस्तं दण्डयितुं तृतीयनरकपर्यन्तं पृष्ठतो जगाम । तमदृष्ट्वा सांकेतमागतः । विश्वभूप्रभृतिवैरिवर्गमारणार्थ निःशूकः सुलसासंयुक्तं सगरं विमानमारूढं व्योम्न दर्शयामास । पर्वतप्रसादेन यज्ञपुण्येनाहं स्वर्ग गतः सुखं प्राप्तवानिति प्रशशंस । सगरपरोक्षे विश्वभूसचिवो राजा जातः। महामेधे उद्यमं चकार । महाकालासुरेण विमानगता देवाः पितरश्चाकाशे सर्वेषां व्यक्तं दर्शिताः। ते ऊचुः-भो विश्वभूस्त्वया महामेधः कृतः पुण्यवता त्वत्प्रसादेन वयं सर्वेऽपि वषट्कृताः स्वर्गसुखं प्राप्ता इति स्तुतिं चक्रुः । नारदस्तापसाश्च तच्छ्त्वानेन दुरात्मना एष दुर्मार्गोऽधिकृतो लोकस्य पूर्व ये पशवो हतास्तेषां मध्येऽहमग्रेसरी मुख्यदेवत्वं प्राप्ता । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १६७. प्रकाशितः, धिक् पर्वतं, निवारणीयोऽयमुयायेन केनचित् पापपण्डितोऽयमिति साकेतमागताः । यथाविधि विश्वभुवं विलोक्य ऊचुः -ये पापिनो नरा भवन्ति तेऽपि अर्थार्थ कामार्थं च प्राणिनां वधं न कुर्युः । केsपि कापि धर्मार्थं प्राणिनां घातकाः किं सन्ति । अहो पर्वत ! वेदविद्भिर्ब्रम्हनिरूपिते वेदे अहिंसक एव वेद उक्तः । अहिंसा तु मातेव सखीव कल्पवल्लीव जगते हितोक्ता इति पूर्वर्षिवाक्यस्य प्रामाण्यं त्वच्छता कर्मनिबंधनं कर्मैतद्बधप्रायं त्याज्यमेवेति तापसैरुक्तं । ते तापसाः सर्वप्राणिहितैषिणः । विश्वभूरुवाच - भोस्तापसाः ! साक्षात्स्वर्गसाधनं दृष्टं कर्म कथं त्याज्यं मयेति । नारदो विश्वभुवं प्रत्याह-सचिवोत्तम ! त्वं विद्वान् किमिदं कर्म स्वर्गसाधनं भवति ? । सपरीवारं सगरं निर्मूलयितुं कांक्षता केनचित्कुहकेनायमुपायः कृतो मुग्धानां मोहकारणं । ततः शीतोपवासादिकं कर्म स्वर्गसाधनमापगमोक्तं त्वयाप्याचर्यतां । विश्वभूः पर्वतं प्राह - पर्वत ! नारदः किलैवं वक्ति तत्त्वया श्रुतं ! पर्वतोऽसुरोक्तेन शास्त्रेण मोहितो दुर्मतिः प्राह - हंहो सचिवोत्तम । इदं शास्त्रं नारदः किं न शुश्राव । मम गुरुरस्य च मम पितैवासीत् । न चान्यः कोऽपि एष नारदः । तदापि मयि समत्सरः । इदानीं किं वोच्यते । ममे गुरोर्धर्मभ्राता स्थविरनामा जगति विख्यातः । सोऽपि श्री रहस्यं यागमृत्युफलमेव प्रतिपादितवान् । मयापि साक्षात्प्रकटीकृतं । यदि तव प्रत्ययो नास्ति तर्हि विश्ववेदसमुद्रपारगं वसुं पृच्छेः । यः सत्येन गगने स्थितो वर्तते । तच्छ्रुत्वा नारद उवाच - को दोषः स एव पृच्छयतां । इदं तावद्विचारार्ह, चेद्वधोऽत्र धर्मसाधनं तर्हि अहिंसादानशीलादि पापप्रसाधनं भवेत् । एवं चेदस्ति तर्हि दासादीनां परमागतिरस्तु सत्यधर्मतपोब्रह्मचारिणां अधोगतिरस्तु । यज्ञे पशु I १ मद्गुरोः ख. । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvv १६८ षट्प्राभते-- वधाद्धर्मो वर्तते नान्यत्रेति चेन्न वधस्य दुःखप्रत्ययत्वे उभयत्र सादृश्यात् फलेनापि सदृशेन भाव्यं । अथ त्वं एवं वक्षि, पशूनां सृष्टिः स्वयंभुवा यज्ञार्थ कृता तन्न, अन्यथा विनियोगस्यागच्छमानत्वात् । अयमागमोऽतिमुग्धाभिलाषः विदुषां गर्हितः । यद्यदर्थ सृष्टं ततोऽन्यत्र विनियोगेऽ र्थकृत् कथं स्यात् । श्लेष्मादिशमनौषधं ततोऽन्यत्र कथमुपयोगि स्यात् । क्रयविक्रयादौ हलानोभारवाहनादौ महादोषः स्यात् । दुर्बलं त्वां वादिनं दृष्ट्वा सन्मुखमागत्य ब्रूमः । यथा शस्त्रादिभिः प्राणिघाती पापेन बध्यते तथा मंत्रादिनापि घातकृत्पापेन बध्यते एवाविशषत्वात् । हहो पर्वत ! पश्वादिलक्षणा सृष्टिय॑ज्यतेऽथवा क्रियते ? चेत्क्रियते तर्हि खपुष्पादिकमप्यविद्यमानं कथं न क्रियते । अथ विद्यमानैव सृष्टिर्यज्ञार्थ व्यज्यते तर्हि पूर्ववचनं करणप्रतिपादकमनर्थकं स्यात् प्रदीपज्वलनमेव घटादेः पूर्वमन्धकारप्ररूपकं यतः । अनावृतस्यैव व्यक्तिः क्रियते इति चेत्तर्हि सृष्टिवादो भवद्भिः पूर्व क्रियतां । इति नारदेन कृतमुपन्यासमाकर्ण्य सर्वेऽपि सभास्तारास्तं तुष्टुवुः । अथ सभ्या ऊचु:द्वयोर्विवादो वसुना चेच्छेद्यते तर्हि स एव अभिगम्यतां । इति श्रुत्वा ताभ्यां नारदपर्वताम्यां सर्वापि संसत् स्वस्तिकावतीमुच्चचाल । तत्र पर्वतः सर्व वृत्तान्तं स्वमात्रे निवेदयामास । सा तेन युता वसुं ददर्श। पुत्र वसो! पर्वतोऽपरिणीतः । तपोयता गुरुणापि तवायमर्पितः । नारदेन सह तव प्रत्यक्षे वादो भविष्यति, तत्र यद्यस्य भंगो भविष्यति तदास्य यमगृहप्रवेशो भविष्यतीति निश्चिनु । अस्य शरणमन्यो न वर्तते। वसुरुवाच । मातः ! गुरुशुश्रूषकोऽहं वर्ते । “गुरुवद्गुरुपुत्रं गुरुकलत्रं च पश्येत्" इत्यहं नीतिज्ञोऽस्य जयं करिष्यामि । त्वं भैषीर्मा । अथान्येद्युस्ते तथाविधं सिंहासनमारूढं वसुं ददृशुः । तत्र विश्वभूप्रभूतयः १ दुर्वलत्वं ख.। Tona! Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १६९ संपप्रच्छुः । हे राजन् ! त्वत्तः पूर्वमपि अहिंसाधर्मरक्षणे तत्परा अत्र चत्वारो राजानो हिमगिरिमहागिरिसमगिरिवसुगिरिनामानो हरिवंशजाः पुरा च संजाताः । तत्रैव वंशे विश्वावसुमहाराजः संजातः । ततश्च भवान् संबभूव । तत्राहिंसाधर्मरक्षित्वे किमुच्यते। त्वमेव सत्यवादीति प्रघोषस्त्रिभुवने वर्तते । वस्तुसंदेहे त्वं विषवत् वन्हिवत् तुलावत् वर्तसे । प्रत्ययोत्पादी त्वमेव तेनास्माकं प्रभो ! संशयं छिद्धि । नारदः खल्वहिंसालक्षणं धर्म पक्षं कक्षीचकार । पर्वतस्तु तद्विपरीतमाचिक्षेप । तत्कथयतु भवानुपध्यायस्योपदेशमित्यभ्यर्थितः । गुरुपत्न्या पुरा प्रार्थित उपाध्यायोपदेशं जानन्नपि राजा महाकालोत्पादितमहामोहो दुःषमकालनिकटवर्तित्वात् विषयसंरक्षणानन्दनामरोद्रध्यानतत्परः पर्वतोक्तं तत्वं वर्तते । प्रत्यक्षे वस्तुन्यनुपपन्नता का । पर्वतोक्तयागेन सस्त्रीकः सगरः स्वर्गमवाप । ज्वलन्त प्रदीपं कोऽन्यो दीपो यस्तं प्रकाशयेत् । तेन पर्वतोक्तं यज्ञं स्वर्गसाधनं भयं त्यक्त्वा यूयं कुरुध्वं । इति हिंसानृतानन्दबद्धनारकायुर्मिध्यापापादपवादाच्चाभीरुर्जगाद। तदा ब्रह्माण्डं स्फुटितमिवाकाशे ध्वनिः संजातः, आकाशः खल्वित्याक्रोशं चकोर च । किमाक्रोशयदाकाश: अहो नारद ! अहो तापसाः! पृथिवीपतेर्मुखादीदृशमपूर्व घोरं वचनं संजातमिति । नद्यः प्रतिकूलजलस्रवः संजाताः। सरांसि सद्यः शुष्काणि । रुधिरवर्षणमनारतं बभूव । सूर्यांशवो मन्दाः संजाताः । सर्वा दिशो मलीमसाः सम्पद्यन्ते स्म । भयविव्हलाः प्राणिनः कम्पं दधुः । तदा भूमिर्द्विधा भक्तिं गता । तस्मिन् महारन्ध्रे वसोः सिहासनं ममज्ज । आकाशे स्थिता देवविद्याधरेशा इत्यूचुः-अहो वसुनरेन्द्र महाबुद्धे ! धर्मविध्वसनं मार्ग मा त्वमीदृशं वादीरित्यघोषयन् । सिंहासने निमग्ने सति पर्वतो वसुश्च परिम्लानमुखौ बभूवतुः । तौ १ महमोंहो. क २ चकारेव. क. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० षट्प्राभूते तादृशौ निरीक्ष्य महाकालस्य किंकरास्तापसाकारं गृहीत्वा समूचुः-हे पर्वत ! हे वसो ! युवां भीतिं मा कार्टामित्युक्त्वा स्वयमुत्थापितं सिंहासनं दर्शयामासुः । तत्र स्थितो वसुरुवाच । अहं तत्ववित् कथं बिभेमि पर्वतस्य सत्यवचनं जानन्निति ब्रवाणः कण्ठपर्यन्तं निमग्नवान् । तद् दृष्ट्वा साधवो जगदुः । अनेन मिथ्यावादेन भूपतेरियमवस्था संजाता। हे राजन् ! अद्यापि मिथ्यामार्ग त्यजेति साधुभिः प्रार्थितोऽपि तथापि मूर्यो यज्ञमेव सन्मार्ग कथितवान् । भूम्या कुपितया सर्वाङ्गोऽपि निगीर्णः सप्तमं नरकं जगाम । तदा कालासुरो लोकप्रत्ययनिमित्तं गगने स्थितं सगरवसुरूपद्वयं दिव्यं दर्शयामास । आवां यागश्रद्धया दिवमवापांव यूयं नारदस्य वचनं मा मानयतेति प्रोच्य अन्तर्दधौ कालासुरः। अथ शोकाश्चर्ययुक्तेन जनेन वसुः स्वर्ग गतो न हि न हि नरकं गत इति विसंबदमानेन सह विश्वभूः प्रयागं गत्वा राजसूयविधिं विदधे । महापुराधिपप्रमुखा लोकस्य मूढत्वं निन्दन्तः परमब्रह्मनिर्दिष्टमार्गे मनाक्. स्थितास्तस्थुः। नारदेन धर्ममर्यादा रक्षितेति तं प्रशस्य गिरितटनाम्नी पुरं तस्य ददुः। तापसास्तु दयाधर्मनाशस्य कारणं कलिकालं कलयन्तो यथास्थिति विधुराशया जग्मुः। अथान्यदुर्नारदो दिनकरदेवं विद्याधरं निजमभीष्टं प्रत्युवाच-पर्वतस्य विरुद्धाचरणं त्वया निवार्यतामिति । सोऽपि तथा करिष्यामीति नागान्तं गत्वा निजविद्यया धारपन्नगानाहूय तत्प्रपंचं निवेदयामास । धारपनगास्तु संग्रामे कालासुरं भक्त्वा यागविघ्नं चक्रुः । विश्वभूपर्वतौ तद् दृष्ट्वा शरणान्वेषणौ यावदासातां तावन्महाकालमग्रतः स्थितं ददृशतुः । तदने तं वृत्तान्तं निवेदयाञ्चक्रतुः । कालासुर उवाच-अस्मद्वेषिणो नागास्तैरयमुपद्रवो विहितः । विद्यानुप्रवादोक्ता नागविद्यास्तासां विजंभणं जिनबिम्बानामुपरि न भवति ततः सुरूपान् जिनाकारान् चतुर्षु दिक्षु निवेश्य १ अवापिव । २ आदिब्रह्म । - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १७१ पूजयित्वा च यज्ञविधिं युवां कुरुतमिति । तमुपायं श्रुत्वा तौ तथा चक्रतुः । पुनर्विद्याधराधिपो यागविघ्नं कर्तुमागतः । जिनबिम्बानि दृष्ट्वा नारदाय कथयति स्म । यन्मे विद्या अत्र न कामन्तीति स्वस्थानं जगाम । तदनन्तरं यज्ञो निर्विघ्नो बभूव । तदनु विश्वभूः पर्वतश्च सप्तमं नरकं गतौ। दीर्घकालं महादुःखमनुबभूवतुः । अथ महाकालोऽभिप्रेतं साधयित्वा निजरूपं धृत्वा लोकान् प्रत्याह-पोदनापुरे पूर्वभवेऽहं मधुपिंगलो नाम राजा आसं । सुलसानिमित्तं मया महत्पापमुपार्जितं । अहिंसालक्षणो धर्मो जिनेन्द्रैः कथितः स भवद्भिः कर्तव्यो धर्मिष्टैरिति संप्रोच्य अन्तर्दधौ । पुनर्दयाधीः सन् सुदुश्चेष्टा पापस्य प्रायश्चित्तं स्वयं चकार । किं प्रायश्चित्तं ? सम्मोहात्कृतस्य पापस्य निवृत्तिरेव प्रायश्चित्तं तामसौ चकार। अथ दिव्यबोधैर्मुनिभिरित्युक्तं-विश्वभूप्रमुखा हिंसाप्रवर्तका नारका बभूवुः । तच्छत्वा पर्वतोद्दिष्टं दुमार्ग केचित् पापभीरवो नाशिश्रियुः । केचित्तु दीर्घसंसारिणस्तस्मिन्नेव दुर्मार्गे स्थिता इति। इति श्रीभावप्राभते मधुपिंगलद्रव्यलिंगिनः कथा समाप्ता । अण्णं च वसिमुणी पत्तो दुक्ख नियाणदोसेण । सो णत्थि वासठाणो जत्थ न दुरुहुल्लिओ जीवे ।। ४६॥ अन्यच्च वशिष्टमुनिः प्राप्तः दुःखं निदानदोषेण । तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रान्तो जीव ! ॥ अण्णं च वसिमुणी अन्यच्च भावरहितद्रव्यमुनिदृष्टान्तकथानकं वर्तते । तल्कि वसिष्टमुनिः । पत्तो दुक्खं नियाणदोसेण प्राप्तो दुखं निदानदोषेण शत्रुवधप्रार्थननिदानदोषेण नवमेन विष्णुना यः कंसनामा नृपो मारितः स वसिष्टमुनिचरो मलयुद्धे मरणदुःखं प्राप्तः । सो णत्थि १ तं ख । २ जीवो ग. घ. । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ षट्प्राभृतेवासठाणो तन्नास्ति वासस्थान जन्ममरणस्थानं । जत्थ न दुरुहुल्लिओ जीव हे जीव ! हे आत्मन् ! यत्र त्वं न जातो नोत्पन्नश्च दुरुढुल्लिओ-भ्रान्त इति । वसिष्टस्य कथा यथा--गंगागन्धवत्योर्नद्योः संगमे जठरकौशिकं नाम तापसानां पल्ली बभूव । तत्र वसिष्टो नायकः पंचाग्निव्रतं चरन्नास्ते स्म । तत्र गुणभद्रवीरभद्रनामचारणमुनिवरौ जगदतु:अज्ञानकृतमिदं तप इति । तच्छृत्वा वसिष्टः कुधीः सक्रोधं तयोः पुरतः स्थित्वा पप्रच्छ-कस्मान्मेऽज्ञानतेति । तत्र गुणभद्रो भगवानाह-यतः सत्पुरुषा हि हितभाषिणो भवन्ति । जटाकलापसंजातयूकालिक्षाभिघहनं सततं स्नानेन जटामध्यलग्नमृतमीनकान् दह्यमानकाष्ठमध्यस्थितकीटकान् प्रदर्श्य इदं तवाज्ञानमिति प्राबोधयत् । काललब्धिमाश्रित्य स वसिष्टः सुधीभूत्वा गुणभद्रचरणान्ते तपो निग्रन्थं गृहीत्वा सोपवासमातापनयोगं जग्राह । तत्तपोमाहात्म्यात् सप्तव्यन्तरदेवता अग्रतः स्थित्वा ब्रुवन्ति स्म-मुने! आदेशं देहीति । मुनिराह-इदानीं मम प्रयोजनं नास्ति गच्छत यूयं । जन्मान्तरे मच्छिष्टिं करिष्यथ । एवं तपः कुर्वन् वसिष्टः क्रमेण मथुरापुरीमाजगाम । तत्र मासोपवासी सन्नातापनयोगे स्थितवान् । स उग्रसेनेन राज्ञा दृष्टः । भक्तिवशेन पुर्या घोषणां कारयामास-अयं मुनिर्मद्गृहे एव भिक्षां गृह्णातु नान्यत्रेति । सोऽपि पारणादिने मथुरां जगाम । तत्राग्निमुत्थितं दृष्ट्वा व्याघुट्य वनमाजगाम पुनर्मासोपवासं जग्राह । पुनः पारणार्थ मासोपवासावसाने पुरं गतः । तत्र यागहस्तिनः क्षोभं दृष्ट्वा वनमागतः । पुनर्मासोपवासपारणायां नगर्न गतः । तदा जरासन्धपत्रकं दृष्ट्वा राजनि व्यग्रचित्ते सति पुनर्वलितः । तदा क्षीणशरीरं वसिष्टमुनिं दृष्ट्वा लोको जगाद-अनेन राज्ञा मुनि सरितः स्वयं भिक्षा न ददाति परान् वारयतीति न ज्ञायते कोभिप्राय नृपस्येति । तच्छ्रुत्वा वसिष्टो मुनिः पापोदयान्निदानं चकार । मम दुष्क Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १७३ रतपःफलादस्य राज्ञः पुत्रो भूत्वा अमुं निगृह्य अस्य राज्यं गृह्यासमहमित्यनेन दुष्परिणामेन मृत्वा पद्मावतीगर्भे पुत्रतया स्थितः । सा गर्भिकक्रौर्येण दोहदं चकार-राज्ञो हृदयमांसमद्मीति । तदप्राप्तुवन्ती दुर्बला बभूव । तज्ज्ञात्वा मंत्रिणः प्रयोगेण विहितं दोहदं पूरयन्ति स्म । विद्वांसः किन कुर्युः। तदा सा पूर्णमनोरथा सुतपातकमसूत । मातापितरौ दष्टोष्ठं सभ्रभंगं बद्धमुष्टिं तं दृष्ट्वा न पोषणे योग्योऽयमिति विचिन्त्य तद्विसर्जनोपायं चक्रतुः । कंसमयीं मंजूषामानीय सवृत्तकं कंसं तस्यां निधाय यमुनाप्रवाहे मुमुचतुः। कोशाम्बीपुरे मन्दोदरी नाम कल्पपाली, तया प्रवाहे मंजूषामध्ये स दृष्टः पुत्रतया पालितश्च। तपस्विनां हीनान्यपि पुण्यानि किं न कुर्युः। कैश्चिदिनैर्लभनादिसहं वयः प्राप । आक्रीडमानो निष्कारणं सकलबालकान् चपेटया मुष्टिना दण्डादिना च प्रहारं ददाति वधपापं बध्नाति । तदुराचारोपलंभान् असहमाना मन्दोदरी तं तत्याज पुत्रं । सोऽपि शौर्यपुरं गत्वा वसुदेवपदातिभूत्वा तत्सेवां करोति यावत्। अत्रान्तरे जरासन्धो राजा त्रिखण्डमेदिनीपतिरपि कार्यशेषवान् ववृते । सुरम्यदेशे पोदनापुराधीशं सिंहरथं युद्धे बद्ध्वा य आनयति तस्मै देशार्ध मत्सुतां कालिंदसेनासंजातां जीवद्यशोनामानं ददामीति पत्रमालां राज्ञां समूहान् प्रति प्रेषयामास । तत्पत्रं वसुदेवो गृहीत्वा प्रवर्वाचितवान् । निजाश्वान् सिंहमूत्रेण भावयित्वा तैर्बाह्यं रथमारुह्य संग्रामे तं जित्वा कंसेन निजभत्येन बन्धयित्वा सिंहरथं राजे अर्पयामास । जरासन्धस्तु तुष्ट्वा निजसुतां देशाधै च ददौ। वसुदेवस्तु तां कन्यां दुष्टलक्षणां दृष्ट्रोवाच-देव ! नाहं सिंहरथं बद्धवान् , कर्मेदं कंसः कृतवान् , भवत्प्रेषणकारिणेऽस्मै कन्या प्रदीयतां । तच्छत्वा जरासन्धः कंसस्य कुलं विज्ञातुं मन्दोदरी प्रति दूतं प्रजिघाय । तं दृष्ट्वा १ जीवयश• ख.। २ प्रतापवान् क.। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA १७४ षट्प्राभूतेमन्दोदरी मम पुत्रः किं तत्रापि कृतापराध इति भीत्वा समंजूषा तत्र जगाम । जरासन्धाने मंजूषां निक्षिप्य इयमस्य मातेत्युवाच । देव ! कंसमंजूषामधिष्ठायाऽर्भक आगतो यमुनाजले मया लब्धः प्रतिपाल्य वर्धितश्च तत एव नाम्ना कंसः कृतः । अयं स्वभावेन शौर्यदर्पिष्ठः शिशुत्वेऽपि निरर्गलः पश्चादुपालंभशतैर्लोकानां मया वर्जितः । तच्छत्वा मंजूषायाः पत्रं गृहीत्वा उच्चैर्वाचयामास । उग्रसेनपद्मावत्योः सुतं विज्ञाय सुतामर्धराज्यं च तस्मै विततार । कंसोऽपि जातमात्रोऽहं नद्यां प्रवाहित इति क्रोधेन मथुरापुरं स्वयमादाय मातरपितरौ बन्धस्थौ कृत्वा गोपुरे धृतवान् । विचारविकलाः पापीयांसः कुपिताः किं किं न कुर्युरिति । अथ वसुदेवं महीपतिं पुरमानीय निजानुजां देवकी दत्वा तत्र तं स्थापितवान् महाविभूतिमन्तं तं चकार । एवं सुखेन कंसस्य काले गच्छति सत्येकदाऽतिमुक्तको मुनिभिक्षार्थ राजमन्दिरं प्रविष्टः । तं दृष्ट्वा जीवद्यशा हर्षमाणा तं हास्येनोवाचहे मुने ! देवकी तव लघुभगिनी पुष्पजानन्दवस्त्रं तवैतदर्शयति वस्त्रेण स्वचेष्टितं प्रकाशयतीति । तच्छ्रुत्वा मुनिः कोपं कृत्वा वाग्गुप्ति भित्वा जगाद-मुग्धे ! किं हृष्यसि देवक्या यो भविष्यति पुत्रः स तव भर्तारमवश्यं हनिष्यति । तच्छत्वा जीवद्यशा कोपेन तद्वस्त्रं द्विधा चक्रे। मुनिराह-मुग्धे ! न केवलं तव पतिमेव हनिष्यत्यनेन पितरमपि तव हनिष्यति । इत्युक्ते सा कुपित्वा तद्वस्त्रं पादाभ्याममर्दयत् । तदृष्ट्वा मुनिजगाद-मुग्धे ! अनेन सागरावधिं पृथ्वी नारीमिव पालयिष्यति । जीवद्यशास्तच्छृत्वा गत्वैकान्तं भर्ने निवेदयामास । कंसो भीत्वा हास्येनापि प्रोक्तं मुनेः सफलं भविष्यतीति वसुदेवं राजानं गत्वा सस्नेहमिद १ कंसस्य तृणविशेषस्य मंजूषा तां । २ तव चेष्टितेन । ३ कुपिता ख. । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । मयाचत-देवकी ममं गृहान्तरे प्रसूतिं कुर्यान्मतादिति । वसुदेवस्तेनोपरुद्धः संस्तथास्त्विति जगाद । अवश्यंभाविकार्येषु मुनिरपि मुह्यति । अथैकदा स मुनिर्देवकीगेहं भिक्षार्थ प्रविवेश । वसुदेवो देवकी च तं प्रतिगृह्य भोजयित्वों आवयोदक्षा भविष्यतिति छद्मना जगदतुः । मुनिस्तदिङ्गितं ज्ञात्वोवाच- युवयोः सप्त पुत्रा भविष्यन्ति तेषु षट् पुत्राः परस्थाने वृद्धिमित्वा मोक्षं यास्यन्ति सप्तमस्तु पुत्रो निजच्छत्रच्छायया पृथ्वीं निर्वाप्य चक्रवर्ती दीर्घकालं पालयिष्यति । देवकी ततस्त्रिर्यमन् लेभे । तान् ज्ञानवान् शक्रश्वरमाङ्गान् ज्ञात्वा नैगम देवं प्रोवाचएतांस्त्वं रक्ष । स च भद्रिलपुरे अलकाया वणिक्पुत्र्याः पुरो निक्षिप्य तत्पुत्रांस्तदा तदा भूतान् गृहीत्वा मृतान् यमान् देवक्यग्रे निचिक्षेप | कंसस्तान् मृतान् यमान् दृष्ट्वा किममी मे मृताः करिष्यन्तीति मुनेर्वाक्यमसत्यमभूदिति प्रोच्य साशंकः शिलायामास्फालयामास । पश्चाद्देवकी सप्तमं पुत्रं सप्तम एव मासे जनितवती निजगृहे एव महाशुक्राच्च्युतं निर्नामकचरं मुनिवरं । वसुदेवो बलभद्रश्च नीतिमन्तौ, देवक ज्ञापयित्वा गृहीतवन्तौ बलेन बाल उद्धृतः, पित्रा घृतच्छत्रो रात्रावेब निष्कासितः । तत्पुण्येन पुरदेवता वृषभरूपेणाग्रेऽग्रे निजशृङ्गमणिदीपिकाकृतोद्योता मार्ग दर्शयामास । तद्वालपादस्पर्शाद्गोपुरमुद्घाटितौररं सद्यो जातं । तत्र बन्धनस्थित उग्रसेन उवाच -कवाटोद्घाटनं कः करोति ? बलदेव उवाच - यस्त्वां बन्धान्मोचयिष्यतीति तूष्णीं तिष्ठेति । उग्रसेन एवं भवत्वित्याशीर्भिरभिनन्द्य स्थितः । तौ तु यमुनामितौ । सा भविष्यचक्रिप्रभावेन द्विधा भूत्वा मार्ग ददौ । सवर्णः को वा बन्धुतां सार्दो न कुर्यात् । तौ विस्मितौ यमुनां व्यतिक्रम्य बालिकामुद्धृत्यागच्छन्तं नन्दगोपतिं ददृशतुः । तं दृष्ट्वा तावूचतुः - भद्र ! त्वमसहायो रात्रावत्र कि१ पूर्वदत्तवरदानात् । २ अस्मादग्रे उवाचेति पदं । ३ त्रियमल. ख. ४ शब्द | १७५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ षट्प्राभते मित्यागतः । स प्रणम्योवाच-मम प्रिया युष्मत्प्रचारिका पुत्रार्थ गन्धादिभिः पूजयित्वा देवतां याचितवती-देवि ! पुत्रं मे देहीति । सांद्य रात्रौ पुत्री लेभे । सोवाचेति स्त्र्यपत्यं ताभ्य एव देहि । तस्याः सशोकाया वचनादिदं स्त्र्यपत्यं देवताभ्यो दातुं मम प्रयासोऽयं स्वामिन्निति जगाद । तद्वचनं तौ श्रुत्वाऽस्मत्कार्य सिद्धमिति प्रहृष्य तमूचतुः-त्वमस्माकमभीष्टस्तेन तव गुह्यं कथ्यते, अयं बालश्चक्री भविष्यति त्वं पालयेति । इयं तु बालिकाऽस्मभ्यं दीयतामिति । तां गृहीत्वा गूढतया पुरं गतौ। नन्दगोपस्तु गृहं गत्वा प्रियां प्राह-प्रिये ! देवता तुष्टा महापुण्यं पुत्रं तुभ्यं ददुः प्रसन्ना इति प्रोच्य तं पुत्रं तस्यै समर्पयामास । कंसस्तु देवकी पुत्रीं प्रसूतवतीति श्रुत्वा तत्र गत्वा तां सुतां भग्ननासां चकार । मात्रा तु सा बालिका भूमिगेहे वर्धिता प्रौढयौवना नासाविकृतिं विलोक्य आर्यिकापार्वे सुव्रतां दीक्षां जग्राह शोकेनोते । विन्ध्यपर्वते स्थानयोगं गृहीत्वा स्थिता । वनवासिषु देवतेति पूजयित्वा गतेषु रात्रौ व्याघेण भक्षिता स्वर्गलोकं जगाम । अथापरस्मिन् दिने व्याधैहस्ताङ्गुलित्रयं दृष्टं । क्षीरकुंकुमादिभिः पूजितं देशवासिभिर्विमूढात्मभिरसावार्या विन्ध्यवासिनी देवतेति प्रमाणिता। अथ तस्मिन् पुरे महोत्पाताः प्रसृताः। तान् दृष्ट्वा कंसेन वरुणः पृष्टः किमेषां फलमिति । स आह-तव शत्रुः समुत्पन्नो महान् इति । नैमित्तिकवचनं श्रुत्वा राजा चिन्तावस्थो बभूव । तदा पूर्वोक्ता देवताः समागताः किं कर्तव्यमिति पप्रन्छुः । स आह-मम शत्रु पापिष्ठ कचिदुत्पन्नमन्विध्य मारयत यूयं । तच्छ्रुत्वा सप्तापि गतास्तथास्त्विति । तत्र पूतना विभंगात् ज्ञात्वा वासुदेवं मारयितुं यशोदातन्मातृरूपं गृहीत्वा विषस्तनपानोपायेन दुष्टा मारणं चिकाढौंकिता। तद्वालपालनोद्युक्ता काचिदन्या देवता स्तनदा१ यशोदा। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १७७ नावसरे बलवत्पीडां चकार । तत्पीडां सोढुमसमर्था मृताहमित्याक्रोशं कृत्वा पलायिता (१)। द्वितीया देवता शकटाकारं गृहीत्वा शिशूपरि धावन्ती तेन पादाभ्यां ताडिता नष्टा (२)। अपरेधुनन्दगोपी कव्यामुदूखलं बद्धा जलमानेतुं गता तथापि शिशुरन्वगमत् । तदा तं बालं मारयितुं द्वे देवते अर्जुनतरू भूत्वा तदुपरि पतन्त्यौ मूलादुन्मूलयामास (३-४)। विष्णोश्वंक्रमणवेलायामेका तालतरुर्भूत्वा तन्मस्तके फलानि दृषदोऽपि निष्ठुराणि पातयितुमुद्यता (५)। अपरा रासभी भूत्वा तं दष्टुमागता । तां रासभी चरणे धृत्वा तयैव तं वृक्षमताडयत् (६)। अन्यस्मिन् दिनेऽन्या देवता तुरंगमो भूत्वा तं मारयितुमागता । तस्य वदनं मुष्टिना जघान (७)। एवं सप्तैव देवताः कंसमागत्योचुः वयं तव शत्रुमाहन्तुं न समर्थाः स्म इति । विद्युत इव विलीनाः । देवतानामपि शक्तयः पुण्यवजने न समर्थाः शक्रवज्रेऽरिशस्त्राणीव । अन्यस्मिन् दिनेऽरिष्टनामा देवस्तत्पराक्रमं दृष्टुं तत्पुरमागतः कृष्णवृषाकारः, तस्य ग्रीवाभंजने स उद्यमं चकार। तन्माता यशोदापि तं तर्जयति स्म-पुत्र! एवमादित एवाफलचेष्टितात् क्लेशान्तरसम्पादकाद्विरमेति पुनः पुनर्निवारितोऽपि मदोत्कटस्तच्चेष्टितं चकार । महौजसोऽपदाने निवारयितुं न शक्यन्ते । तत्पौरुषं ख्यातं लोकवचनादाकर्ण्य देवकीवसुदेवौ तद्दर्शन उत्कण्ठितौ । गोमुखीनामोपवासमिषेण सीरिणां सह महत्या विभूत्या गोदावनं गोष्ठं परिवारेण सह गतौ । तस्मिन्नेव दर्पवद्रुषभेन्द्रग्रीवाभंगावसरे कृष्णं महाबलं समालम्ब्य स्थितं दृष्ट्वा गन्धमाल्यादिसन्मानानन्तरं भूषयामासतुः । तदनन्तरं प्रदक्षिणं कुर्वत्या देवक्याः शातकुंभकुंभसदृशयोः स्तनयोः क्षीरं सुस्राव कृष्णस्याभिषेकं कुर्वत्या इव । बलस्तद्वीक्ष्य मंत्रभेदभयादुपवासप १ महौजसौपदानि. ख.। २ शुद्धकर्मणि इत्यर्थः । ३ बलभद्रेण । ४ महाविभूत्या. ख. । ५ शुश्राव, ख. । ६ बलदेव । षद्र. १२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ षट्प्राभतेरिश्रान्ता माता मूर्छितेति जल्पन् सुधीः कुंभपूर्णपयोभिस्तां समन्ततोऽभ्युक्षितवान् । ततो गोष्ठवृक्षादीनामपि तद्योग्यं पूजनं कृत्वा गोपालकुमारैः सह कृष्णं भोजयित्वा स्वयं च भुक्त्वा माता पिता च विकुर्वाणौ पुरं प्रविविशतुः । कदाचिन्महावर्षपाते जाते गोवर्धनाख्यं पर्वतमुद्धत्य हरिर्गवामावरणं चकार । तेन ज्योत्स्नेव तत्कीर्तिरखिलं जगत् व्याप्नोति स्म शत्रुमुखकमलसंकोचकारिणी । तन्नगरस्थापनाहेतुभूतजिनालयसमीपे पूर्वदिशि देवतागृहे हरिपुण्यातिरेकात् नागशय्या धनुः शंखश्च त्रीणि रत्नानि देवतारक्षितानि नारायणस्य भविष्यलक्ष्मीसूचकानि समुत्पन्नानि । तानि दृष्ट्वा कंसो वरुणं सभयः पप्रच्छ-एतेषां प्रादुर्भूते: किं फलमिति । स प्राह-हे राजन् ! एतानि त्रीणि रत्नानि शास्त्रोक्तविधिना यः साधयति स चक्रवर्ती भविष्यतीति । तच्छत्वा कंसः स्वयं तत्रितयं साधयितुमिच्छुरपि साधयितुमशक्तो मनाक् खिन्नः साधनाद्विरराम । उक्तवांश्च यो नागशय्यामारुखैकेन हस्तेन शंखं पूरयति द्वितीयेन करेण धनुरारोपयति युगपत्कार्यत्रयं करोति तस्मै निजपुत्री दास्यामीति स्वशत्रु परिज्ञातुं साशंकः पुरे घोषणामचीकरत् । तद्वार्ता श्रुत्वा सर्वे राजान आगताः । राजगृहात् कंसश्यालकः स्वर्भानुनामा भानुनामानं स्वपुत्रं भानुसदृशमादायाजगाम । निवेशं चिकीर्षुर्गोदावनसमीपे महासर्पनिवाससरोवरतटे निवासं कर्तुमना गोपालकुमारेभ्यः श्रुत्वा कृष्णं विनाऽस्य सरसो जलमानेतुं परैर्न शक्यमिति तमाहूय यथास्थानं स्कन्धावारं निवेशयामास । कृष्ण उवाच-राजन् ! त्वया कुत्र गम्यते इति । स्वर्भानुमथुरागमनप्रयोजनं तस्योक्तवान् । कृष्ण उवाच-राजन् ! एतकर्म किमस्मद्विधैरपि कर्तुं भवेत् । तच्छुत्वा स्वर्भानुश्चिन्तयामास १ वृषा० ख. । २ हर्षमाणौ। ३ प्रविशशतुः क.। प्रविशतुः ख. । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १७९ असौ शिशुः पुण्याधिकः केवलो न वर्तते इति । तस्य कर्मणः शक्तश्वेदागच्छेति निजपुत्रमिव तं गृहीत्वा सुभान्वपरनामा स्वर्भानुर्मथुरां जगाम । यथा कंसं ददर्श । तत्कर्मकरणे बहून् भग्नमानान् दृष्ट्वा कृष्णः स्वर्भानुसुतं भानुं समीपगं कृत्वा कर्मत्रयं समकालं चकार । ततः सुभानुना दिष्ट्यादिष्टः कृष्णो गोष्टं जगाम । कैश्चित्पुरुषैः कंसो भणितः " तत्कर्म भानुना कृतं " । कैश्चित्तद्रक्षकैरुक्तं " न भानुना तत्कर्म कृतं अन्थेन कुमारेणेति ” । तच्छ्रुत्वा कंसः प्राह – सोऽन्योऽन्विष्यानीयतां तस्मै कन्या प्रदीयते इति । स कस्य, किं कुलं, कस्मिन्निति । तावन्नन्दगोपेन सम्यग्विज्ञातं अनेन मत्पुत्रेण तत्कर्म सम्यक्कृतमिति भीत्वा गोमण्डलं नीत्वा पलायांबभूवे । शिलास्तंभमुद्धर्तुं तत्र सर्वे जनाः प्रातास्ते नाशक्नुवन् । कृष्णेन केवलेनैव समुद्धृतः । तत्साहसात् सर्वे जना विस्मित्य जन्हषुः । परार्ध्याशुकाभरणादिदानेन पूजयामासुः । नन्दगोपस्तु ममास्य पुत्रप्रभावेन कुतोऽपि भयं नास्तीति प्राक्तनमेव स्थानं गोकुलं निनाय । अन्वेषकैस्तु नन्दगोपसुतेनैतत्कर्म कृतमिति राज्ञे निवेद्यते स्म । तथापि तदनिश्चये सहस्रदलं कमलमहीशरक्षितं प्रेष्यतामिति राज्ञा नन्दगोप आज्ञापितः शत्रोर्जिज्ञाशया । तच्छ्रुत्वा नन्दगोपः शोकादाकुलो बभूव " राजानः किल प्रजानां पालका भवन्ति कष्टमेतत् तेऽद्य मारकाः संजाता इति ।" निर्विद्य पुत्र ! त्वं याहि राजेविष्ठिदृशी वर्तते इति । त्वयैवोप्रसर्परक्षितानि कमलानि राज्ञः प्रदातव्यानीति जगाद | कृष्णः प्राह - कोऽपि पदार्थः किं दुष्करो मम वर्तते इत्यपूर्वतेजा नागसरो जगाम । त्वरितं तत्र निःशंकं प्रविवेश च । तं ज्ञात्वा कोपेन वेपमानो लेलिहानः स्वनिःश्वाससमुद्भूतज्वल १ ख. पुस्तके नास्त्ययं पाठः । २ आज्ञा । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेउज्यालाकणान् किरन् फणारत्नप्रभाभासिफणाप्रकटाटोपभयानकः प्रचलदरसनायुगलो विस्फुरद्वीक्षणाऽत्युग्रवीक्षणः प्रत्युत्थाय कृतान्ताकारस्तं निगरितुमुद्यतः । कृष्णस्तु मम वसनमिदमस्य ताडने शुद्धशिला भवत्विति जला, पीतवस्त्रं मुक्त्वा फटायां तं निष्ठुरं ताडयामास । तस्माद्वस्त्रपाताद्वज्रपातादपि दुर्धरात् पूर्वपुण्योदयाच्च भीत: कालियाहिः फणीन्द्रोऽदृश्यतां जगाम । हरियथेष्टं कमलानि गृहीत्वा शत्रोः समीपं प्रापयामास । तानि दृष्ट्वा कंसो निजशत्रु दृष्टवानिव नन्दगोपसमीपे मम शत्रुर्वर्तते इात निश्चिकाय । एकदा नन्दगोपालमादिष्टवान् मल्लयुद्धमीक्षितुं निजमल्लैः सहाऽऽगच्छेरिति । स च तत्सन्देशं श्रुत्वा कृष्णादिभिर्मल्लैः सह प्रविवेश । तत्र मत्तगजं वीतबन्धनं कृतान्ताकारं मन्दगन्धाकृष्टरुवद्धमरसेवितं नियमच्युतराजकुमारवत् निरंकुशं दन्तमुशलाघातनिर्भिन्नसुधामन्दिरमाधावन्तं विलोक्य कश्चित् संमुखं प्रढौक्य दन्तमेकमुत्पाट्य तेनैव तं ताडयामास । गजोऽपि भीतो दूरं जगाम्। तदृष्ट्वा हरि शं तुष्टः सन्नुवाच-अनेन निमित्तेन कुटुम्बप्रकृटीकृतो जयोऽस्माकं भविष्यतीति गोपान समुत्साह्य कंससंसदं विवेश । वसुदेवोऽपि राजा कंसाभिप्राय विदित्वा निजसेनां सन्नायैकत्र स्थितः । बलभद्रोऽपि कृष्णेन सह रंगं प्रविष्ट इव दोर्दण्डास्फालनध्वनि कृत्वा समन्तात् परिभ्रमन् कंसविनाशेऽद्य सव समय इति समाख्याय निर्जगाम । तदा कंसादेशेन विष्णुविधेया गोपकुमाराः प्रदर्पवन्तः भुजानास्फाल्य गृहीतमल्लपरिच्छदाः कर्णानन्दकारिवादित्रचटुलध्वनिभिरेकत्रीभूत्वा चरणोत्क्षेपविनिक्षेपाः प्रोन्नतभुजद्वयोत्कटाः पर्यायनर्तितप्रेक्षणीयभ्रूभंगभयानकशब्दानिवर्तनशतावर्तनसंभ्रमणवलानप्लवनसमवस्थानरपरैश्च स्फुटैः करणैः रंगसमीपमलंकृत्य नयन १ रसज्ञा. क. २ नेत्र । ३ अवलोकनीयः । ४ द्वयोत्क्षेपाः. ख. । ___ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १८१ मनोहरास्तस्थिवांसः। कंसमल्लाश्च प्रोवृत्ताश्चाणूरप्रमुखा विक्रमैकरसा रंगाभ्यर्ण समाक्रम्य स्थितवन्तः । विष्णुश्च रंगस्य मध्ये समुदात्तमनः प्रसरो वीर उरुमल्लाप्रणीः प्रतिमलयुद्धविजयं प्रागेव प्राप्त इव दीप्ततेजा देवोऽवतीर्णोऽधुना मल्लुत्वं प्राप्तो भास्वानिव अहं जेष्यामीति प्रवृद्धपराक्रमैकरसः स्वयं संभावयन् निविडपरिगहीतपरिधानः प्रबद्धकोशः स्वभावेन मसृणाङ्गो विकूर्चश्चित्तवृत्तिवित्तोऽप्रतिमल्लनिरन्तराभ्यस्तनियुद्धत्वादविकललब्धजयलाभः सर्वैरपि संभावितोत्साहः स्थिरतरपादनिवेशो वज्रसारास्थिबन्धो भुजार्गलापरविबाधी मुष्टिसंमायिमध्यप्रदेशः कृतानेककरणसमूहो लघुसंचरणप्रवीणोऽतिकठिन विस्तीर्णवक्षःस्थलो बृहन्नीलपर्वतोतुङ्गो दर्पप्रवृद्धित्रिगुणितनिजमूर्तिवलितवलितनेत्रत्वादुर्निरीक्ष्यसांमुख्योतिशयेनाशनिपातवदुनो नन्दनन्दनः स्थितः सन् यमस्याप्युच्चैर्भयमसहनीयमुत्पादयन् वरमखिलं शौर्य मूर्तिमन्मिलितमिव समस्तं रहो मनुष्याकारमागतमिव सिंहाकारः सहसाकृतसिंहध्वनिः रंगादंगणमिव नभोङ्गणमलंघत पुनराकाशादशनिवदवनिमापत्य आत्मपादपाताभिघातचलिताचलसन्धिबन्धो मुहर्वल्गन् परिसरंश्च प्रतिजंभमाणसिंदूररंजितभुजदण्डौ समुदग्रौ क्रुद्धः प्रवलयन् श्रोणीद्वितयभागविलंबिपीतवस्त्रो नियुद्धकुशलं पर्वतशिखरोन्नतं प्रतिमलं चाणूरमाहत्य सहसा सिंहवदाबभासे । तं दृष्ट्वा रुधिरोद्गमोग्रलोचनः कंसः स्वयं मल्लतां प्राप्यागच्छति स्म । तमुग्रसेनतनयं जन्मान्तरद्वेषात् करेण चरणे संगृह्याकाशे भ्रामयन्नल्पाण्डमिव यमराजस्य समीप उपायनीकृर्तुमिव स कृष्णो भूमावास्फालयामास । तदा कृष्णमस्तके व्योम्नः कुसुमानि प्रपेतुः देवदुंदुभयो ध्वनि चक्रुः । वसुदेवसेना समुद्रे प्रक्षोभणात् कोलाहलध्व १ केशः. ख. । २ अप्रतिमल्लैर्गोपमल्लैः. ख. । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ षट्प्राभूतेनिरुत्तस्थे । मुशलीवीरवरो विरुद्धनृपतीनाक्रम्य रंगे स्थितः । स्वानुजं स्वीकृत्य गर्जितं चकार । विष्णुस्त्रिखण्डलक्ष्म्या कटाक्षितः । इति श्रीभावप्राभृते द्रव्यलिंगिनो वसिष्टमुनेः कथा परिसमाप्ता। सो णत्थि तं पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि । भावविरओ वि सवणो जत्थ ण हुरुहुल्लिओ जीव ॥४७॥ स नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीतिलक्षयोनिवासे । भावविरतोऽपि श्रवणो यत्र न भ्रान्तः जीव । ॥ पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते। हे जीव ! हे चेतनस्वरूपात्मन् ! जत्थ यत्र प्रदेशे। तं त्वं भवान् । ण दुरुढल्लिओ न भ्रान्तः स प्रदेश: संसारे नास्ति । कस्मिन् , चउरासीलक्खजोणिवासम्मि चतुरशीतिलक्षयोनिवासे स्थाने । कथंभूतस्त्वं, भावविरओ वि सवणो श्रवणो दिगम्बरोऽपि सन् भावविरतो जिनसम्यक्त्वरहितः । उक्तं च गुम्मटसारग्रन्थे नेमिचन्द्रेण गणिना णिच्चिदरधादु सत्तय तरु दस वियलिदिएसु छच्चेव। सुरनरयतिरियचदुरो चउदस मणुए सदसहस्सा ॥१॥ अस्या अयमर्थः-नित्यनिकोतजीवानां सप्तलक्षा जातयः ७०००००। इतरनिगोदजीवानां जातयः सप्तलक्षाः ७०००००। धातूनां पृथिवीकायजीवानां अप्कायजीवानां तेजःकायजीवानां वायुकायजीवानां जातयः चतुर्णी प्रत्येकं सप्तलक्षाः । पृथ्वी ७००००० । अप् ७०००००। तेजः ७०००००। वायु ७००००० । तरु दह-वनस्पतिकायजीवानां जातयो दशलक्षा १०००००० । वियलिदिएसु छच्चेव-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानां जातयः समुदायेन षड्लक्षाः । द्वीन्द्रिय १ जीवो. ग. घ.। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १८३ २०००००| त्रीन्द्रिय २०००००। चतुरिन्द्रिय २००००० | सुरनरयतिरियचदुरो - सुराणां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४०००००| नारकाणां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४०००००| तिरश्चां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४०००००| चोद्दस मणुए - चतुर्दश लक्षा जातयो मनुजे मनुष्यजीवानां १४०००००। सदसहस्सा - शतसहस्राः । भावेण होइ लिंगीण हु लिंगी होड़ दव्वमित्तेण । तम्हा कुणि भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ॥ ४८ ॥ भावेन भवति लिङ्गी न हु भवति द्रव्यमात्रेण । तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिङ्गेन ॥ भावेण होइ लिंगी भावेन निदानादिरहिततया जिनसम्यक्त्वसहिततया लिंगी सन् लिंगी भवति निदानादिसहितो जिनसम्यक्त्वरहितो लिंगी मुनिलिंगी जिनलिंगी सत्यलिंगी न भवति । ण हू लिंगी होड़ दव्वमित्तेण न हु-स्फुटं लिंगी सन्नपि लिंगी न भवति द्रव्यमात्रेण शिरोलोच मयूरपिच्छकमण्डलुग्रहणवस्त्रत्य जनमात्रेण लिंगी सन्नपि लिंगी न भवति पुनः संसारपतनहेतुत्वात् । तम्हा कुणिज्ज भावं तस्मात्कारणात् कुर्यास्त्वं । कं, भावं - जिनसम्यक्त्व निर्मलपरिणामं । किं कीरइ दव्वलिंगेण पूर्वोक्तद्रव्यलिंगेन किं क्रियते न किमपि मोक्षसुखं क्रियत इति भावः । दंडयणयरं सयलं डहिउं अब्भंतरेण दोसेण । जिण लिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरखं नरयं ॥ ४९ ॥ दण्डकनगरं सकलं दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण । जिनलिङ्गेनापि बाहुः पतितः स रौरवं नरकम् ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ षट्प्राभूतेदंडयणयरं सयलं दण्डकस्य राज्ञो नगर सकलं । डहिउं अब्भंतरेण दोसेण दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण क्रोधेन कृत्वा । जिणलिंगेण वि बाहू जिनलिंगेनापि जिनलिंगसहितोऽपि बाहुर्नाममुनिः । पडि ओ सो रउरवं नरयं पतितो गतः रौरवं नाम नरकं । अस्य कथा-- दक्षिणापथे भरतदेशे कुम्भकारकटनगरे दण्डको नाम राजा । तन्महादेवी सुव्रता । बालको नाम मंत्री। तत्र अभिनन्दनादयः पंचशतमुनयः समागताः। खण्डकेन मुनिना बालको मंत्री वादे जितः । ततो रुष्टेन तेन भंडो मुनिरूपं कारयित्वा सुव्रतया समं रममाणो दर्शितः। भणितं च तेन देव ! दिगम्बरेषु भक्त्यातिमुख्योऽसि येन भार्यामपि तेभ्यो दातुमिच्छसि । ततो रुष्टेन राज्ञा मुनयो यंत्रे निष्पीलिताः। ते तमुपसर्ग प्राप्य परमसमाधिना सिद्धिं गताः । पश्चात्तन्नगरं बाहुर्नाम मुनिरागतः । स लोकैर्वारितः । अत्र नगरे राजा दुष्टो वर्तते तेन पंचशतमुनयो यंत्रे पीडिता भवन्तमपि तथा करिष्यति । तद्वचनेन बाहू रुष्टः । तेजोऽशुभसमुद्घातेन राज्ञा मंत्रिणा च सह सर्व नगरं भस्मीचकार । स्वयमपि मृतः । रौरवे नरके पतितं राजानं मंत्रिणं चानवेष्टुमिव तत्र गतः । को नाम रौरवो नरक इति चेत् ? सप्तमे नरके पंच विलानि वर्तन्ते तेषु पूर्वदिशि रौरवः । दक्षिणेऽतिरौरवः । पश्चिमेऽसि पत्रः । उत्तरे कूटशाल्मलिः । मध्ये कुंभीपाक इति । अवरोति दव्वसवणो दसणवरणाणचरणपब्भहो । दीवायणुत्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ॥५०॥ अपर इति द्रव्य श्रमणो दर्शनवरज्ञानचरणप्रभृष्टः । दीपायन इति नामा अनन्तसंसारिको जातः ॥ १ न. टी. । २ वि. मूलगाथा पाठः । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । १८५ अवरोत्ति दव्वसवणो अपर इति द्रव्यश्रवणो भावरहितो मुनिः जिनवचनप्रतीतिरहितः । दसणवरणाणचरणपन्भट्ठो दर्शनेन जिनसम्यक्त्वेन वरं श्रेष्टं यज्ज्ञानं चरणं च चारित्रं तेभ्यस्त्रिभ्योऽपि प्रभृष्टः पतितः सम्यग्दृष्टीनां मुनीनामपाङ्क्तेयः। दीवायणुत्ति णामो द्वीपायन इति नामा। अणंतसंसारिओ जादो अनन्तसंसारिकः अनन्ते संसारे नियुक्तः नियोगवान् कर्मपरवश इत्यर्थः, जातो भवति स्म । द्वीपायनस्य कथा यथा-श्रीनेमिनाथो बलभद्रेण पृष्टः स्वामिन् ! इयं द्वारवती पुरी किं कालान्तरे समुद्रे निमक्ष्यति कारणान्तरेण वा विनंक्ष्यति ? भगवानाह-रोहिणीभ्राता द्वीपायनकुमारस्तव मातुलोऽस्याः पुर्या रुषा दाहको भविष्यति द्वादशे वर्षे मद्यहेतुत्वात् । तच्छृत्वा द्वीपायनकुमार इदं जैनवचनमसत्यं चिकीर्षुदीक्षां गृहीत्वा पूर्वदेशं गतः। द्वादशावधिपूरणार्थ तपः कर्तुमारब्धवान् । जरत्कुमारेण कृष्णमरणमाकर्ण्य बलभद्रादयो नेमिनाथं नमस्कृत्य सर्वेऽपि यादवा द्वारवतीं विविशुः। ततः कृष्णो बलभद्रश्च पुर्या घोषणां मद्यनिषेधिनी कारयामासतुः। ततो मद्यपैर्मद्याङ्गानि पिष्टकिण्वादीनि मद्यानि च कदम्बवने गिरिगव्हरे शिलाभाण्डानि आस्फालितानि । सा मदिरा कदम्बवनकुण्डेषु गता। कर्मविपाकहेतुत्वेनावस्थिता । श्रीनेमिनाथः पल्लवदेशे गतः । जिनेन सह भव्यलोक उत्तरापथमुच्चलितः । द्वीपायनस्तु द्वादशं वर्ष भ्रान्त्याऽतीतं मन्वानो जिनादेशो व्यतिक्रान्त इति ध्यात्वा सम्यक्त्वहीनो द्वारवतीमागत्य गिरेनिकटनगरबाह्यमार्गे आतापनयोगे स्थितः । वनक्रीडापरिश्रान्तास्तृष्णया व्याकुलीभूताः कादम्बकुण्डेषु जलमिति ज्ञात्वा शंभवादयस्तां सुरां पिबन्ति स्म । कदम्बवनस्थितां कदम्बकतया स्थितां विसृष्टां कादम्बरीं पीत्वा कुमारा विकारांश्च प्रापुः । सा पुराणापि वारुणी परिपाकवशात् तरुणीवत्तरुणान् वशेऽकरोत् । ते कुमारा असंबद्धं गायन्तो नृत्यन्तश्च स्खलितपादाः Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ षट्प्राभूते-- प्रमुक्तकुन्तलाः पुष्पकृतावतंसाः कण्ठालम्बितपुष्पमालाः सर्वे पुरं समागच्छन्तः सूर्यप्रतिमास्थितं द्वीपायनमुनिं दृष्ट्वा घूर्णमाननयना इत्यूचुःसोऽयं द्वीपायनो यतिर्यो द्वारवती धक्ष्यति सोऽस्माकमग्रतः क्व यास्यति बराक इति प्रोच्य सर्वतो लोष्टुभिः पाषाणैश्च तावत्प्रजघ्नुर्यावद्भूमौ पपात । एवं तैनिसूकैस्ताडित उत्पन्नाधिकक्रोधो दष्टोष्ठो यदूनां स्वतपसश्च विनाशाय भ्रकुटिं चकार।कुमारास्तु पुरीं प्रति गमनं चक्रुः कैश्चित्तदुराचारो विष्णोर्बलस्य लघु निवेदितः। तच्छृत्वा द्वारवत्या प्रलयं जिनोक्तं प्राप्तं तदापि मेनाते परिच्छदरहितौ मुनिसमीपं गतौ । अग्निमिव ज्वलन्तं क्रोधेन संक्लिष्टधियं भ्रभंग विषमवक्त्रं दुनिरीक्ष्येक्षणं क्षीणकण्ठगतप्राणं विभीषणस्वरूपं ददृशतुः । कृताञ्जलिपुटौ महादरात्प्रणिपत्य याचनां वन्ध्यां जानन्तावपि मोहाद्याचितवन्तौ । हे साधो! चिरं परिरक्षितस्तपोभारः क्षमामूलः क्रोधाग्निना धक्ष्यते मोक्षसाधनं परिरक्ष्यतां परिरक्ष्यतां । मूढैः प्रमादबहुलैर्दुविचेष्टितं भवतः कृतं क्षम्यतां क्षम्यतां । क्रोधश्चतुर्वर्गशत्रुः, क्रोधः स्वपरनाशनः, अस्मभ्यं प्रसादः क्रियतां मुने! इति प्रियवादिनौ तौ पादयोर्लगित्वा प्रार्थितवन्तौ तथापि सोऽनिवर्तकः संजातः । सर्वप्राणिसंयुक्तद्वारवतीदाहे. पापधीः कृतनिश्चयः युवामेव न धक्ष्यामीत्यङ्गुलिद्वयेन संज्ञा चकार । अनिवर्तकक्रोधं ज्ञात्वा विषण्णौ व्याघुव्य किं कर्तव्यतामूढौ पुरीं प्रविष्टौ । तदा शंभवाद्याश्चरमाङ्गका यादवाः पुर्या निष्क्रम्य दीक्षां गृहीत्वा गिरिगुहादिषु तस्थिवांसः । द्वीपायनस्तु क्रोधशल्येन मृत्वा भवनामरो बभूव । सोऽग्निकुमारनामा विभंगेन पूर्ववैरं स्मृत्वा द्वारवती बालवृद्धस्त्रीपशुसमेतां विष्णुबलौ मुक्त्वा ददाह । तौ दक्षिणापथे वनं प्रविष्टौ । तत्र १ निर्दयैः । २ तदपि सेनातो. ख. । ३ समीपमागतो. ख.। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १८७ विष्णुर्जरत्कुमारभिल्लेन पादे बाणेन ताडितो मृतः प्रथमं नरकं जगाम । द्वीपायनस्तु अनन्तसंसारी बभूव । भावसवणो य धीरो जुवईयेणवेदिओ विसुद्धमई । णामेण सिवकुमारो परित्तसंसारिओ जादो ॥ ५१ ॥ भावश्रमणश्च धीरो युवतिजनवेष्टितो विशुद्धमतिः । नाम्ना शिवकुमारः परीतसंसारिको जातः ॥ भावसवणो य धीरो भावश्रवणश्च जिनसम्यक्त्ववासित: धीरो दृढसम्यक्त्व अविचलितामलिनमनाः । जुवईयण वेढिओ विसुद्धमई युवतिजनवेष्टितः हाव भावविभ्रमविलासोपेतराजकन्यामयुवति समूह परिवृतोऽपि विशुद्धमतिः निर्मल ब्रह्मचर्यनिष्कलुषचित्तः । णामेण सिवकुमारो नाम्ना कृत्वा शिवकुमारो नरेन्द्रपुत्रः । परित्तसंसारिओ जादो अल्पसंसारिकः परित्यक्तसंसार आसन्नभव्यो जातः, इह भरतक्षेत्रे जम्बूनामान्त्यकेवली बभूवेति क्रियाकारकसम्बन्धः । शिवकुमारस्य कथा यथा - अथ श्रोणिकः श्रीवीरं विपुलगिरौ समवस्थितं प्रणम्य श्रीगौतमस्वामिनं प्रत्याह- अत्र भरतक्षेत्रे पश्चिमकेवली को भविष्यति भगवन्निति । ततः कथां यावन्निरूपयितुं श्रीगौतम उद्यमं करोति स्म तस्मिन्नेवावसरे ब्रह्मकल्पाधीशो ब्रह्महृदयाव्हविमाजो विद्युन्माली जाज्वल्यमानतेजोविराजमानमुकुटः स्वनाम्ना स्वदर्शनेन चप्रियो विद्युत्प्रभाविद्युद्वेगादिनिजदेवीभिर्वृत आगत्य जिनं वन्दित्वा यथास्थानं स्थितः । तं दृष्ट्वा राजन् ! अनेन केवलज्योतिषः परिसमाप्तिर्भविष्यति । तत्कथं चेत्कथयिष्यामि । अस्माद्दिनात् सप्तमे दिनेऽयं ब्रह्मेन्द्रः स्वर्गादभेत्यास्मिन् राजगृहे नगरेऽर्हद्दासेभ्यस्य प्रियभार्याजिनदास्यां गजं १ जुयईयण ग. । २ ती. टीकायां । ३ धनिनः । ४ सी. क. स्यं. ख. । - Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ षट्प्राभृते सरोवरं शालिवनं निर्धूमानलं प्रज्वलज्ज्वालं स्वर्गकुमारसमानीयमानजम्बूफलानि च स्वने दर्शयित्वा महाद्युतिर्जम्बूनामाऽनावृतदेवाप्तपूजोऽतिविख्यातो विनीतः सुतो भविष्यति । यौवनारम्भेऽपि निर्विक्रियो भावी । तस्मिन् जम्बूस्वामियौवनकाले श्रीवीरभट्टारकः पावापुरे मुक्ति यास्यति तस्मिन्नेव समये मम केवलज्ञानमुत्पत्स्यते । सुधर्मंगणधरेण सह संसाराग्निततानां भव्यप्राणिनां धर्मामृतोदकेनाल्हादं करिष्यन्निदमेव राजगृहपत्तनमागत्यास्मिन्नेव विपुलाचलेऽहं स्थास्यामि । तत्समाकर्ण्य चेलनीसुतः कुणिको नृपः सर्व परिवारेण समागत्य मां सुधर्मे च पूजयित्वा दानशीलोपवासादिकं स्वर्गमोक्षसाधकं धर्मं ग्रहीष्यति । तेन सहागतो जम्बूनामा निर्वेदं प्राप्य दीक्षाग्रहणोत्सुको भविष्यति । तं कुटुम्बं वदिष्यति स्तोकेषु वर्षेषु गतेषु त्वया सह वयं सर्वेऽपि दीक्षां ग्रहीष्याम इति । तेन प्रोक्तं सोढुमशक्नुवन्निराकर्तुं च तदक्षमः पुरमायास्यति । तस्य मोहमुत्पादयितुं सुखबन्धनं' विवाह आरप्स्यते तेन कुटुम्बवर्गेण । बान्धवा हि श्रेयसो विघ्नाः । सागरदत्तपद्मावत्योः सुता श्रियोत्कृष्टा सुलक्षणा पद्मश्री, कुवेरदत्तकनकमालयोः सुता सुलोचना कनकश्रीः, वैश्रवणदत्तविनयवत्योर्धूदाँ मृगलोचनावलोकनीया विनयश्रीः तस्यैव वैश्रवणदत्तस्य धनश्रियाः सुता रुपश्रीः एताश्चतस्रो विधिपूर्वकं परिणीय सौधागारे समीचीनरत्नदीप - दीप्तिभिर्निरस्तान्धकारे नानारत्नसमीचीन चूर्णरंगवली संशोभिते विचित्रपुष्पोपहारसहिते जगतीतले स्थास्यति । एतस्य माता अयं मे सुतो रागेण प्रेरित: स्मितहासकटाक्षेक्षणादिना विकृति भजन् किं भवेन्न वा भवेदित्यात्मानं तिरोधाय पश्यन्ती स्थास्यति । तस्मिन्नवसरे सुरम्यदेशपोदनापुरेशविद्यद्राजविमलवत्योः सुतः पापिष्ठानां धुरि स्मर्यो दुरात्मनां २ बो ख. कर्तृ । ३ न ख. । ४ सुता. ख. 1 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । वन्दनीयोऽगुणवानुत्सुकश्च तीक्ष्णो विद्युत्प्रभनामा केनापि कारणेन निजज्येष्ठभ्रात्रे कुपित्वा पंचशतसुभटैर्निर्गतो विद्युच्चोरनामानमात्मानं कृत्वा चौरशास्त्रोपदेशेन मंत्रतंत्रविधानाददृश्यशरीरत्वकपाटोद्घाटनादिकं जानन्नर्हद्दासगृहाभ्यन्तररत्नधनादिकं चोरयितुं प्रविश्य जिनदासी नष्टनिद्रां विलोक्यात्मानं निवेद्य किमर्थ विनिद्रा त्वमेवमिति प्रक्ष्यति ? मम एक एव पुत्रः प्रातरेवाहं तपोवनं गमिष्यामीति संकल्पस्थितो वर्तते तेनाहं शोकिनी सती जागर्मि । त्वं बुद्धिमान् दृश्यसे यदि त्वमिममानहादुपायैर्वारयसि तत्त्वदभीप्सितं धनं सर्वमहं दास्यामीति वदिष्यति। सोऽपि तत्प्रतिपद्यैवं सम्पन्नभोगोऽयं किल विररस्यति, इह धनमाहर्तुं प्रविष्टं मां धिगिति स्वनिन्दनं कुर्वन्निःशंकं तदन्तिकं प्राप्य तं तासां कन्यकानां साध्यतयाधिष्ठितं कुमारं प्रसरत्सद्बुद्धिं पंजरगतं पक्षिणमिव, जाललग्नं मृगबालकमिव, अपारकर्दमे मग्नं भद्रजातिगजाधिपतिमिव, लोहपं. जरैर्निरुद्धं सिंहमिव प्रत्यासन्नसंसारक्षयं सम्प्राप्तनिर्वेदं समीक्ष्य विद्युच्चोरः सुधीरष्टाख्यानकं वदिष्यति । हे कुमार ! त्वया श्रूयतां-कश्चित्क्रमेलकः स्वच्छया चरन्नेकदा गिरेरुन्नतप्रदेशात् तृणं खादन्नेतन्मधुरसोन्मित्रं सकृदास्वाद्योत्सुकस्तादृशमेवाहमाहरिष्यामीति मधुपानाभिवाञ्छया तृणान्तरचरणातिपराङ्मुखस्तस्थौ मने च तथा त्वमप्येतानुपस्थितान् भोगाननिच्छन् स्वर्गभोगार्थी बुद्धिरहितः क्रमेलकावस्थां प्राप्स्यसि (१) । इति चौरप्रतिपादितं श्रुत्वा कुमारः प्रत्युत्तरं दास्यति-कश्चित्पुमान् महादाहकरेण रविणा परिपीडितो नदीसरोवरतडागादिपानीयं पुनः पुनः पीत्वा तथापि न विनष्टतृष्णस्तृणाग्रस्थितजलकणं पिबन् किं तृप्तिं याति तथायं जीवोऽपि चिरकालं दिव्यसुखं भुक्त्वाप्यतृप्तोऽनेन मनुष्यभव १ विलसति ख.। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेजातेन स्वल्पेन गजकर्णास्थिरेणास्वादुना तृप्तिं यायात्-अपि तु न यायात् (२)। इति तद्वाचं श्रुत्वा स एकागारिकः कथयिष्यति कथां-एकस्मिन् वने किरातश्चण्डो महातरुमाधारं कृत्वा गण्डान्तं धनुराकृष्य बाणेन वारणं जघान । तरुकोटरस्थितसर्पदष्टस्तं सर्प मारयित्वा स्वयं च मृतः । अथ तान् त्रीन् किरातसर्पगजान् मृतान् दृष्ट्वा क्रोष्टाऽतिलुब्धस्तावदेताँस्त्री न्नानि पूर्व धनुर्वी प्रान्तस्थितां च स्नसां भक्षयामीति कृतोद्यमस्तच्छेदं वैधेयश्चकार । सद्यो धनुरग्रनिभिन्नगलः सोऽपि मृतः। ततोऽतिगृध्नुता त्वया त्याज्या (३)। इति श्रुत्वा कुमारश्चिन्तयित्वा सूक्तं प्रवक्ष्यतिचतुर्मार्गसमायोगदेशमध्ये सुग्रहं रत्नराशिं प्राप्य पथिको मूर्खस्तदात्मना दायकेनापि कारणेन गतः पुनर्वनादागत्य तं देशं तं रत्नपुंजं किं पुनर्लभते तथा गुणमाणिक्यसंचयं दुष्प्रापमगृह्णन् संसारसमुद्रे कथं पुनः प्राप्नुयात् (४)। तदा मलिम्लुचोऽन्यदन्यायसूचनमुपाख्यानं वदिष्यति-- कश्चिच्छगालो मुखस्थितं मांसपिण्डं मुक्त्वा संक्रीडमानं मीनं भक्षितुं जले पपात । जलवेगवहत्प्रवाहेण प्रेर्यमाणो मृतः । मीनस्तु दीर्घायुजलमध्ये सुखं तस्थौ । एवं शृगालवदतिलुब्धो मरिष्यति (५) । एवं मुख्यतस्करवाचं श्रुत्वा प्रत्यासन्नमुक्तिः कुमारो भणिष्यति-कश्चिन्निद्रालुको वणिक् निद्रासुखरतः परार्घ्यरत्नगर्भनिजकच्छपुटः सुप्तः । चौरैरपहृते माणिक्यसंचये तदुःखेन दुर्मृतिर्मृति प्राप । तथायं जीवो विषयाल्पसुखासक्तो रागचौरकैर्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नेष्वपहतेषु निर्मूलं नश्यति (६)। दस्युरथ गदिष्यति-स्वमातुलानी दुर्वचनकोपेन काचित्कन्या तरुतले सर्वाभरणमण्डिता स्थिता । मरणोपायमजानती व्याकुलमनाः सुवर्णदारकेण पापिना मार्दङ्गिकेण दृष्टा । तदाभरणानि जिघृक्षुणा तस्या १ वैधेयकः ख.। २ तदातमना क.। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १९१ लम्बनोपायं दर्शयामास । स्वकीयं मर्दलं वृक्षतले समुद्रं संस्थापयांबभूव । तस्या गलपाशदानशिक्षणार्थ मर्दलोपरि पादौ धृत्वा गले पाशं चकार । केनापि कारणेन मर्दले पतिते मार्दङ्गिकस्य गले पाशो लग्नस्तेनाविलीभूतकण्ठः प्रोद्गतलोचनः शमैनमन्दिरं प्राप। कन्या तदृष्ट्वा मरणभयात् गृहमागता तथा कुमार ! त्वया लोभो हेयः (७) । इति तस्य वाग्जालमाकर्ण्य जम्बूनामा कुमारोऽसहमानस्तं प्रति भणिष्यतिकस्यचिद्राज्ञो महादेवी ललिताङ्गनामधेयं धूर्तविटं दृष्ट्वा मदनविव्हला संजाता । तस्य विटस्यानयननिरन्तरोपायनियुक्ता तद्धात्री तं गुप्तमानीतवती । सा महादेवी यथा भर्ता न जानाति तथैकान्तप्रदेशे यथेष्टं तं रममाणा स्थिता । बहुभिर्दिनैः शुद्धान्तरक्षकैः ज्ञाता राज्ञो ज्ञापिता च । उपपत्यपनयनोपायमजानत्यः परिसारिकास्तं खलं नीत्वा वस्करगृहे निक्षिप्तवत्यः । स तत्रातिदुर्गन्धेन तत्कीटैश्च दुःखं प्राप । पापोदयेनात्रैव नरकावासं प्राप्तः । तद्वदल्पसुखाभिलाषिणो जीवस्यातिघोरनरकादिषु महापदो भवन्ति (८)। कुमारः पुनरप्यकं प्रपंचं कथयिष्यति येन श्रुतेन सतां लघु संसारनिर्वेगो भवति। जीवोऽयं पथिकः संसारकान्तारे भ्राम्यनं मृत्युमत्तगजेन जिघांसुना रुषानुयातोऽतिभीरुः पलायमानो मनुष्यत्वतरुवरान्तरहितस्तन्मूले कुलगोत्रादिविचित्रबल्लीसमाकुले जन्मकूपे पतित आयुर्वल्लीलग्नकायः सितासितदिवसानेकमूषिकोच्छिद्यमानतद्वल्लीकः सप्तनरकप्रसारितमुखसप्तसर्पनिकटः तदृक्षेष्टार्थपुष्पोत्पन्नसुखमधुरसलालसस्तद्ग्रहणोत्थापितसमुप्रापन्मक्षिकाभक्षितः तत्सेवासुखं ज्ञात्वा सर्वोऽपि विषयलंपटो दुर्बुद्धिर्जीवति तथा धीमान् दुर्वहं तपोऽकुर्वन्नत्यक्तसंगः कथं वर्तते । इति तस्य वचनमाकर्ण्य माता कन्याश्चौरश्च संसारशरीरभोगेष्व १ अवलंबीभूत. ख. । २ यममन्दिर. ख.। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ षट्प्राभूतेतिविरागत्वं यास्यन्ति । तदान्धकारं निराकृत्य कोकं प्रियया कुमारं दीक्षयेव योजयन् निजकरैः समाक्रम्य कुमारस्य मनःकमलमिव रंजयन्नुदयाद्रेः शिखरे रविस्तपसि कुमार इवोदष्यति । सर्वसन्तापकारी तीक्ष्णकरोऽनवस्थितः क्रूरो दिवाकुवलयध्वंसी तदा सूर्यः कुनपस्योपमां धरिष्यति । नित्योदयो बुधाधीशोऽखण्डविशुद्धमण्डलः प्रवृद्धः पद्माल्हादी सुराजनं वाय॑माजेष्यति । अस्य कुमारस्य बान्धवा भववैमुख्यं विज्ञाय कुणिपमहाराजश्रेणयोऽष्टादशापि देवोऽनावृतश्च सर्वे संगम्य मंगलजलैरभिषेकं करिष्यन्ति । अथ कास्ता अष्टादशश्रेणयः-सेनापतिर्गणको राजश्रेष्ठी दण्डाधिपो मंत्री महत्तरो बलवत्तरः चत्वारो वर्णः चतुरङ्गं बलं पुरोहितोऽमात्यो महामात्य इति । असौ कुमारस्तत्कालोचितवेषो देवनिमितां शिबिकामारुह्य भूरि भूत्या उच्चैर्विपुलाचलशिखरे स्थितं मां महामुनिभिनिषेवितं समभ्येत्य भक्त्या त्रिःपरीत्य यथाविधि प्रणम्य वर्णत्रयसमुत्पन्नैर्भूयोभिविनयैर्विद्युच्चोरेण तत्पंचशतसेवकैश्च समं सुधर्मगणधरपादमूले समचित्तः संयम ग्रहीष्यति । द्वादशवर्षान्ते मयि मोक्षं गते सुधर्मा केवली भविष्यति जम्बूनामा श्रुतकेवली भविष्यति । ततो द्वादशवर्षपर्यन्ते सुधर्मणि निर्वाणं गते जम्बूनाम्नः केवलज्ञानमुत्पत्स्यते । जम्बूनाम्नः शिष्यो भवो नाम चत्वारिंशद्वर्षाणीह भरतक्षेत्रे विहरिष्यति। तदाकर्ण्य श्रेणिके स्थितेऽनावृतो देवो मदीयवंशस्येदं माहात्म्यमुद्धृतमीदृशमन्यत्र न दृष्टमित्युच्चैरानन्दनाटकं दृष्ट्वा श्रेणिक उवाच-कस्मादनेनबन्धुत्वमस्य देवस्येति ? भगवान् गौतमो बभाण-जम्बूनाम्नो वंशे पूर्व धर्मप्रियश्रेष्ठी गुणदेवी श्रेष्ठिनी । तयोरर्हद्दासः सुतो धनयौवनमदेन पितुः शिक्षामगणयन् कर्मवशात् सप्तव्यसनेषु निरंकुशो बभूव । निजदुरा १ तपति ख. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । १९३ चारेण दरिद्री संजातः । पश्चादुत्पन्नपश्चात्तापो मत्पितुः शिक्षा मया न श्रुता, उत्पन्नशमभावः किंचित्पुण्यमुपाया॑नावृतनामा व्यन्तरो जातः, तत्र समुत्पन्नसम्यक्त्वसम्पदिति बन्धुता प्रीतिरस्य । अथ श्रोणिकः प्राह-स्वामिन्नयं विद्युन्माली देवः कस्मादागतः, किं पुण्यं पूर्वभवे कृतवान्, अस्य प्रभा आयुरन्तेऽप्यनाहतेति । तदनुग्रहबुद्धयैव भगवान् गौतमः प्राह-अत्र जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये वीतशोकपत्तने महापद्मो राजा । तन्महादेवी वनमाला। तयोः सुतः शिवकुमारः नवयौवनसम्पन्नः सवयोभिर्वनं विहृत्य पुनरागच्छन् गन्धपुष्पादिमंगलद्रव्योत्तमपूजया सह जनानागच्छतो दृष्ट्वा समुत्पन्नविस्मयो बुद्धिसागरमंत्रिणः पुत्रं किमेतदिति पप्रच्छ। सप्राह-कुमार! शृणु-सागरदत्तनामा मुनीन्द्रः श्रुतकेवली दीप्ततपोमण्डितो मासोपवासपारणायै पुरं प्रविष्टः। कामसमुद्रो नाम श्रेष्ठी विधिपूर्वकं भक्त्या दानं दत्वा पंचाश्चर्य प्राप्य तेनोत्पन्नकौतुकाः पौरास्तं मनोहरोद्यानवासिनं पूजयित्वा वन्दितुं परमभक्त्या यान्तीति। शिवकुमारः प्राह-अयं सागरदत्ताख्यां सश्रुतां विविधर्तीश्च कथं प्राप। मंत्रिपुत्रोऽपि यथा श्रुतं तथा प्राह-पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणी नगरी, तस्याः पतिश्चक्री वज्रदत्तः । तस्य महादेवी यशोधरा गर्भिणी समुत्पन्नदौहृदा। सा सीतासागरसंगमे महाविभूत्या गत्वा महाद्वारेण समुद्रं प्रविष्टा । जलकेलीविधाने जलजानना आसन्ननिर्वृतिं पुत्रं प्राप। तेन हेतुनास्य सनाभयः सागरदत्ताख्यां चक्रुः । अथ सागरदत्तः परिप्राप्तयौवनः स्वपरिवारमण्डितो हर्म्यतले स्थितो नाटकं पश्यन्ननुकूलाख्यनाम्ना चेटकेनोक्तः । हे कुमार ! त्वमाश्चर्य पश्य मेर्वाकारोऽयं १ ख. पुस्तकेऽस्य स्थाने प्राप्तेनेति पाठः सोऽप्यशुद्धोऽवभाति । अतोस्य स्थाने प्राप्तः इति प्राप इति वा पाठेन भवितव्यं । २ पुअयितुं इति ख. पुस्तके । एतदेव सम्यग्भाप्ति । ३ गोत्रिणः । षद. १३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ षट्प्राभते मेघस्तिष्ठति । तं मेघ लोचनप्रिय सोन्मुखो निरीक्षितुमैहिष्ट । स मेघस्तत्काल एव नष्टः । सागरदत्तश्चिन्तयामास यौवनं धनं शरीरं जीवितमन्यच्च सर्व वस्तु विनश्वरं वर्तते यथायं मेघ इति निर्वेगं गतः । अपरेधुर्मनोहरोद्याने धर्मतीर्थनायकममृतसागरं नाम तीर्थंकरं वज्रदत्तेन निजवात्रा सह वन्दितुमितः । तत्र धर्म श्रुत्वा निश्चितसर्वस्थितिः सर्वबन्धुविसर्जनं कृत्वा बहुभी राजभिः समं संयम जग्राह । मनःपर्ययद्धिसम्पदं प्राप्य धर्मोपदेशेन देशान् विहृत्यात्र वीतशोकपुरमागतः । इति मंत्रिपुत्रवचनानि श्रुत्वा शिवकुमारः प्रीतमनाः स्वयं च गत्वा मुनिवरं स्तुत्वा धर्मामृतं ततः पीत्वा जगाद । भगवन् ! भवन्तं दृष्ट्वा मम महान् स्नेहः संजातः । तत्र कः प्रत्यय इत्यपृच्छत् । भगवान् सागरदत्तः प्राह-अत्र जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मगधदेशे वृद्धग्रामे राष्ट्रकूटो नाम वणिक् । तस्य भार्या रेवती । तयो? पुत्रौ भगदत्तभवदेवौ । तयोर्मध्ये भगदत्तः सुस्थितनामगुरुं नत्वा दीक्षां जग्राह । विनयान्वितो गुरुणा सह नानादेशान् विहृत्य स्वजन्मग्राममाजगाम । तदा तद्बान्धवाः सर्वेऽपि हर्षमाणाः समेत्य मुनि सुस्थित प्रदक्षिणीकृत्य संपूज्य चागन्तुमुद्यताः। तत्रैव ग्रामे दुर्मर्षणो नाम गृहपतिः । तस्य नागवसुर्भार्या । तयोः पुत्री -नागश्रीः । सा विधिपूर्वकं भवदेवाय ताभ्यां ददे । भगदत्तागमनं श्रुत्वा भवदेवोऽपि विकुर्वाणोऽत्रागत्य भगदत्तं विनयात्प्रणम्य तद्दत्ताशीर्वादेनार्द्रितमनास्तस्थिवान् । भगदत्तो धर्मस्वरूपं संसारवैरूप्यं व्याख्याय गृहीतकर एकान्ते भ्रातः! त्वया संयमो गृहीतव्य इत्याह । भवदेव उवाच-नागश्रीमोक्षणं विधाय भवत उदितं करिष्यामि । भगदत्त उवाच-हे भ्रातः! संसारे जायादिपाशबद्धो जीवः कथमात्महितं करोति परित्यज मोहमेतमिति । तदा भवदेव उत्तरमपश्यन् ज्येष्ठानुरोधेन दीक्षायां मतिं विदधौ । भग Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । १९५ दत्तः स्वगुरुसुस्थितसमीपं तं नीत्वा संसारच्छेदनार्थं मोक्षी दीक्षां मंक्षु ग्राहयांबभूव । सतां सौदर्यमीदृग्भवति । भवदेवो द्रव्यसंयमी भूत्वा गुरुभिः समं द्वादशवर्षाणि विहृत्यापरेधुर्विधीरसहायो निजं वृद्धग्रामं गत्वा सुव्रतां गणिनी समीक्ष्य तां प्राह-हे ऽम्ब ! काचिन्नागश्री म काचिदस्ति । सा तस्यङ्गितं ज्ञात्वा जगाद-मुने ! तदुदन्तमहं सम्यग्न वेदेति । तदौदासीन्यं प्राप्तं तं संयमे स्थिरीकर्तुं गुणवृत्यार्यिकां प्रति अर्थाख्यानकं जगाद । सर्वसमृद्धनामा वैश्यः, तद्दासीसुतोऽशुचिर्दारुकाभिधेयः स्वमात्रा प्रोचे-अस्मच्छ्रेष्टयुच्छिष्टभोजनं तु त्वयाऽशनीयमिति । निबन्धाद्भोजितः । स जुगुप्सया वान्तवान् । तत् कंसपात्रेण धृत्वाऽऽच्छाद्य धृतं । दारुकः पुनर्बुभुक्षुः स्वमातरं भोजनं ययाचे । तया तत्कंसपात्रं वान्तभतमुपढौकितं । क्षुत्पीडितोऽपि स आत्मवान्तं न जग्राह । सोऽशुचिरपि चेत्तादृशस्तर्हि साधुः कथं त्यक्तमभीप्सतीति (१)। गुणवति ! पुनरेकमाख्यानकं निजं मनो निश्चलं कृत्वा त्वं शृणु। नरपालनामा नरेन्द्र एक श्वानं कुतूहलेन मृष्टान्नेन संपोष्य कनकाभरणभूषितं सदा वनक्रीडादौ सुवर्णरचितां शिबिकामारोप्यैवं मन्दमतिस्तमपालयत् । एकदा शिबिकारूढः सरमासुतो गच्छन् बालविष्टामालोक्य तामालेढुमापपात ! तदृष्ट्वा राजा लकुटीताडनेन तमपाचकार । तथा पुत्रि! साधुः सर्वेषां पूजनीयः पूर्वत्यक्तं पुनर्वाञ्छन् पराभवं प्राप्नोति (२)। हे गुणवति ! पुनरेका कथां शृणु-कचित्कोपि पथिकस्तद्वनान्तरे सुगन्धिफलपुष्पादिसेवया युतस्तं तरं त्यक्त्वा सन्मार्ग विहाय महाटवीसंकटे पतितः । तत्र जिघांसुकं चमूरं दृष्ट्वा ततो भीत्वा धावन्नेकस्मिन् भीमे कूपे बिभ्यत् पपात । तत्र पापाच्छीतादिभिर्दोषत्रयसंभवे वाग्दृष्टि १ मोक्षदीक्षां. ख. । २ अज्ञानः । ३ तत्पित्राद्युच्छिष्ट०. ख. । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतेश्रुतिगतिप्रभृतिहीनं सर्पादिबाधानिकटं तस्मानिर्गमनोपायमजानन्तं तं कोऽपि भिषग्वरो यदृच्छया गच्छन् दृष्ट्वा दयाचित्तः केनाप्युपायेन महादरान्निष्काश्य मंत्रौषधिप्रयोगेण विहितचरणप्रसारणं सूक्ष्मरूपसमालोकनोन्मीलितनेत्रं स्फुटाकर्णने विज्ञाननिजशक्तिकर्णयुगलं व्यक्तवाक्प्रसरसंयुक्तजिव्हं स चकार । पुनः सर्वरमणीयं पुरं तन्मार्गदर्शनेन प्रस्थापयामास । निर्मलहृदयाः कस्योपकारं न विदध्युः । पुनः स विषयासक्तमतिः पंथिकदुर्मतिः प्रकटीकृतदिग्भागमोहः प्राक्तनकूपकं सम्प्राप्य तस्मिन् पुनः पतितः तथा कचित्संसारे मिथ्यात्वादिकपंचोग्रव्याधयो दीप्त्युपागता जन्मकूपे क्षुधादाहाद्यार्त्तमङ्गिनं वीक्ष्य गुरुः सन्मतिर्वैद्यो दयालुत्वाद्धर्माख्यानोपायपण्डितस्तस्मानिर्गमय्य जिनवागौषधिनिषेवना (णा) त् सम्यक्त्वलोचनमुन्माल्य सम्यग्ज्ञानश्रुतियुगलमुद्घाटय्य सद्वृत्तपादौ प्रसारितौ विधाय दयामयीं जिव्हां व्यक्तां विधाय विधिपूर्व पंचप्रकारस्वाध्यायवचनानि तं वादयित्वा स्वर्गापवर्गयोर्मार्ग सुधीः साध्वगमयत् । तत्र केचिद्दीर्घसंसाराः स्वपापोदयात् भ्रमरा इव सुगन्धिबन्धुरोद्भिन्नचम्पकसमीपवर्तिनस्तत्सौगन्ध्यावबोधरहिताः पार्श्वस्थाख्याः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमीपवर्तनात् , क्रोधादिकषायस्पर्शादिविषयलौकिकज्ञानचिकित्सादिकुज्ञानाः जिव्हायामष्टधा स्पर्शेषु च लम्पटा दुराशयाः कुशीलनामानः, निषिद्धेषु द्रव्येषु भावेषु च लोलुपाः संसक्ताव्हयाः, हीयमानज्ञानादिका अवसानसंज्ञाः, समाचारबहिर्भूता मृगचर्यानामधेयका महामोहा निवृत्या कृत्वा आजवंजवाऽस्ताघकूपे पेतुर्निपतन्ति च (३)। भवदेव इति श्रुत्वा सम्प्राप्तशान्तभावो बभूव । सुव्रता गणिनी सर्वार्याग्रेसरी तद्विज्ञाय दारिद्योत्पादितदौस्थित्यां नागश्रियमानाय्य तं दर्शयामास । भवदेवोऽपि तां दृष्ट्वा संसारस्थिति स्मृत्वा धि १ आजवंजवांगत्वाद्यकूपे ख.पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावग्राभतं । १९७ गिति निन्दित्वा पुनः संयमं गृहीत्वाऽऽयुःप्रान्ते भ्रात्रा भगदत्तेन सह आराधनां शिश्राय । समाधिना मृत्वा माहेन्द्रकल्पे बलभद्रविमाने सामानिको देवः सप्तसागरोपमायुर्बभूव । अहं भगदत्तचरः सागरदत्तश्चक्रिसुतः संजातः । त्वं भवदेवचरः शिवकुमारोऽत्र बभूविथ। स इति श्रुत्वा संसाराद्विरक्तो दीक्षां गृहीतुमुद्यक्तो बभूव । वनमालया मात्रा महापद्मन पित्रा च वारितो वीतशोक नगरं प्रविश्य संजातसंवित् अप्रासुकाहारं नाहरिष्यामीति व्रतं गृहीत्वा स्थितः । एतावतीदीक्षां विना प्रासुकाहारः कुतः ? भूपस्तद्वार्ती श्रुत्वा प्राह-यः कोऽपि शिवकुमारं भोजयति तस्मै संप्रार्थितमहं दास्यामीति सभायां घोषयामास । तद्विज्ञाय सप्तस्थानसमाश्रयो दृढधर्मनामा श्रावकः समागत्य शिवकुमारं प्राह । अथ कानि तनि सप्तस्थानानीति चेत् सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता। साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ॥ १ ॥ अथ दृढधर्मा किं प्राहेति चेत् ? हे कुमार ! तव ज्ञातयः तव शत्रवः पापस्य कारणं स्वपरघातका वर्तन्ते । तेन त्वं भावसंयममघातमकृत्वा तव प्रासुकाशनं संपाद्य पर्युपासनमहं कुर्वे । बन्धुवियोगं विना संयमे प्रवृतिस्तवापि दुर्लभेति हितं वचनं जगाद च । सोऽपि तद्विदित्वा आचाम्लनिर्विकृतिरसरहितभोजनः सन् दिव्यस्त्रीसन्निधौ स्थित्वापि सदा विकाररहितमनाः स्त्रियस्तृणाय मन्यमानः खड्गतीक्ष्णधारायां संवर्तमानो द्वादशसंवत्सरांस्तपः कृत्वा संन्यासं गृहीत्वा जीवितान्ते ब्रह्मेन्द्रनीम्नि कल्पे विद्युन्माली देहदीप्तिव्याप्तदिक्तटो देवो बभूव । विद्युन्मालिन एवाष्टदेव्योऽत्रागत्य जम्बूनाम्नः तेत्र चतस्रो १ एतां दीक्षां. ख. । २ तासु अष्टसु मध्ये । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ षट्प्राभूते 1 भार्याः पद्मकनकविनयरूपश्रियो भूत्वा निजभा सह दीक्षित्वाऽच्युतकल्पं गत्वा स्त्रीलिंगच्युता देवा भूत्वा पश्चादत्रागत्य मोक्षं यास्यन्ति । सागरदत्तनामा स्वर्ग गत्वात्रागत्य निर्वाणं यास्यति । इति जम्बूस्वामिचरित्रं श्रुत्वा श्रेणिको जहर्ष । इति श्रीभावप्राभते शिवकुमारकथा समाप्ता । अंगाई दस य दुण्णि य चउदसपुव्वाइं सयलसुयणाणं। पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥५२॥ अङ्गानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । पठितश्च भव्यसेनः न भावश्रवणत्वं प्राप्तः ॥ अंगाई दस य दुण्णि य अंगानि दश च द्वे च अङ्गे । चउदसपुव्वाई चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानं । पढिओ अ पठितश्च । भव्वसेणो भव्यसेननामा मुनिः । ण भावसवणतणं पत्तो भावश्रवणत्वं न प्राप्तः । जैनसम्यक्त्वं विनाऽनन्तसंसारी बभूवेति भावार्थः । अत्र भव्यसेनो मुनिरेकादशाङ्गानि शब्दतोऽर्थतश्च पठितस्तद्बलेनैव द्वादशस्याङ्गस्य चतुर्दशपूर्वाणां चार्थपरिज्ञायकत्वात् श्रीकुन्दकुन्दाचार्येण सकलश्रुतमधीतं प्रोक्तमिति ज्ञातव्यं सकलश्रुतेऽधीती संसारे न पततीयागमः । भव्यसेनस्य कथा यथा-विजया गिरौ दक्षिणश्रेणी मेघकूटपत्तने राजा चन्द्रप्रभः सुमतिमहादेवीकान्तश्चन्द्रशेखराय राज्यं दत्वा परोपकारार्थ जिनमुनिवन्दनाभक्त्यर्थं च काश्चन विद्या दधानो दक्षिणमथुरामागत्य मुनिगुप्ताचार्यसमीपे क्षुल्लको जातः । स एकदा जिनमुनिवन्दनाभक्त्यर्थमुत्तरमथुरां चलितः सन् श्रीमुनिगुप्तमाचार्य पप्रच्छकिं कस्य कथ्यत इति । गुप्त उवाच-सुव्रतमुनेर्नमोऽस्तु वरुणमहा १ यो. मूलगाथापाठः । २ घ. पुस्तके तु पूर्वत एव अभव्यसेन इति नाम कृतं, रत्नकरण्डकटीकायामत्र च पश्चात् । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १९९ राजमहादेव्या रेवत्या धर्मवृद्धिरिति वक्तव्यं त्वया । एवं त्रीन् वारान् पृष्टो मुनिस्तदेवोवाच । क्षुल्लकः स्वगतं एकादशाङ्गधारिणो भव्यसेनाचार्यस्यान्येषां च नामापि भगवान् नादत्ते तत्र प्रत्ययेन भवितव्यमिति विचार्य तत्र गतः। सुव्रतमुनेर्भट्टारकीयां वन्दनां कथयित्वा तदीयं विशिष्टं वात्सल्यं च दृष्ट्वा भव्यसेनवसतिं जगाम । तत्र भव्यसेनेन संभाषणमपि न कृतं । कुण्डिकां गृहीत्वा भव्यसेनेन सह बहिर्भूमि गत्वा विकुर्वणां कृत्वा हरितकोमलतृणाङ्करच्छन्नो मार्गो दर्शितः । तं मार्ग दृष्ट्वा भव्यसेन आगमे किलैते जीवाः कथ्यन्ते इति भणित्वा आगमेऽरुचिं कृत्वा तृणानामुपरि गतः । शौचसमये कुण्डिकाजलं शोषयित्वा क्षुल्लक उवाच-भगवन् ! कुण्डिकायामुदकं नास्ति तथा विकृतिश्चेष्टिकादिका कापि नाहमीक्षे । अतोऽत्र निर्मलसरोवरे मृत्स्नया शौचं कुरु । ततस्तत्रापि तथैव भणित्वा शौचं चकार । ततस्तं मिथ्यादृष्टिं द्रव्यलिंगिनं ज्ञात्वा भव्यसेनस्याभव्यसेनोऽयमिति नामान्तरं चकार । ततोऽन्यदिने पूर्वस्यां दिशि पद्मासनस्थं चतुर्वक्त्रमुपवीतदर्भमुंजीदण्डकमण्डलुप्रभृतिसहितं देवदानववन्द्यमानं ब्रह्मरूपं दर्शयामास । तत्र राजादयो भव्यसेनादयश्च गताः । रेवती कोऽयं ब्रह्मनाम देव इति भणित्वा लोकैः प्रेरितापि तत्र न गता । अन्यस्मिन् दक्षिणस्यां दिशि गरुडारूढं चतुर्भुजं चक्रशंखगदादिधारकं वासुदेवरूपं दर्शयामास । पश्चिमदिशि वृषभारूढं सार्धचन्द्रजटाजूटगौरीगणोपेतं शंकररूपं, उत्तरस्यां दिशि समवशरणमध्ये प्रातिहार्याष्टकसहितं सुरनरविद्याधरमुनिवृन्दवन्द्यमानं पर्यकस्थं तीर्थकररूपं दर्शयति स्म । तत्र सर्वे लोका गच्छन्ति स्म । रेवती तु लोकैः प्रेर्यमाणापि न गता । नवैव वासुदेवाः, एकादशैव रुद्राः, चतुर्विंशतिरेव तीर्थकरा जिनागमे प्रतिपादितास्ते तु सर्वेऽ ___ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० षट्प्राभृते प्यतीताः । कोऽप्ययं मायावी वर्तते इति विचिन्त्य स्थिता । ब्रह्मा तु कोऽपि नास्ति । उक्तं च - आत्मनि मोक्षे ज्ञाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ॥ १ ॥ अन्यस्मिन् दिने चर्यावेलायां व्याधिपीडितक्षुल्लकरूपेण रेवतीगृहसमीपप्रतोलीमार्गे मायामूर्च्छया पतितः । रेवती तदाकर्ण्य भक्त्योत्थाप्य T नीत्वोपचारं कृत्वा पत्थ्यं विधापयितुमारेभे । स च सर्वमाहारं भुक्त्वा दुर्गन्धवमनं चकार । तदपनीय हा ! विरूपकं पथ्यं मया दत्तमिति रेवतीवचनमाकर्ण्य प्रतोषान्मायामुपसंहृत्य तां देवीं वन्दित्वा गुरोराशीर्वादं पूर्ववृत्तान्तं च कथयित्वा लोकमध्ये तस्या अमूढदृष्टिमुचैः प्रशस्य स्वस्थानं चन्द्रप्रभो जगाम । वरुणमहाराजस्तु शिवकीर्तये निजपुत्राय राज्यं दत्वा दीक्षामादाय माहेन्द्रकल्पे देवो बभूव । रेवती तु तपः कृत्वा ब्रह्मकल्पे देवो बभूव । इति श्रीभावप्राभूते भव्यसेनमुनिकथा समाप्ता । तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवई केवलणाणी फुडं जाओ ॥ ५३ ॥ तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्धो महानुभावश्च । नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुटं जातः ॥ तुसमासं घोसंतो तुषमापशब्द घोषयन् पुनः पुनरुच्चारयन् मा वि - स्मृतिं यासीदिति कारणात् । भावविसुद्ध भावविशुद्धः । महाणुभावो य महानुभावश्च महाप्रभावयुक्तश्च । णामेण य सिवभूई नाम्ना च शिवभूतिः चकारादर्थेन च शिवभूतिः शिवानां सिद्धानां भूतिरैश्वर्य अनन्तचतुष्टयलक्षणं त्रैलोक्यनायकत्वं यस्य स भवति शिवभूतिः । केवलणाणी फुडं जाओ केवलज्ञानी केवलज्ञानवान् लोकप्रकाशकपंचमज्ञानवान् Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं। २०१ स्फुटं शक्रादिदेवैः प्रकटीकृतघातिक्षयजातिशयदशकः सर्वप्रसिद्धः संजात इति । अस्य कथा यथा-कश्चिच्छिवभूतिनामासन्नभव्यजीवः परमवैराग्यवान् कस्यचिद्गुरोः पादमूले दीक्षां गृहीत्वा महातपश्चरणं करोति षट्प्रवचनमात्रामानं जानाति परं वैदुष्यं किमपि तस्य नास्ति । आत्मानं शरीरकर्मचयाद्भिन्नं जानाति । तद्ग्रन्थं नायाति गुरुणा प्रोक्तं दृष्टान्तं पुनः पुनस्तीक्ष्णी करोति तुषान्माषो भिन्न इति यथा तथा शरीरादात्मा भिन्न इति । तं शब्दं घोषयन्नपि कदाचिद्विस्मृतवान् । अर्थ जानन्नपि शब्दं न जानाति । एकाकी विहरति च । शब्दविस्मरणक्लेशावर्ती कांचिधुवतिं वटकादिकपचनार्थ माषान् सूपीकृतान् जलमध्येप्लावितांस्तुषेभ्यो भिन्नान् कुर्वन्ती दृष्ट्वा पृष्टवान्-किं कुरुषे भवति ! इति। सा प्राह-तुषमाषान् भिन्नान् करोमि । स आह-मया प्राप्तमिति क्वचिद्गतः । तावन्मात्रद्रव्यभावश्रुतेनात्मन्येकलोलीभावं प्राप्तोऽन्तर्मुहूर्तेन केवलज्ञानं प्राप्य नवकेवललब्धिमान् देशान् विहृत्य भव्यजीवानां मोक्षमार्ग प्रदर्श्य मोक्षं गत इति। इति श्रीभावप्राभते शिवभूतिमुन्युपाख्यानं समाप्तं । भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च नग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण ॥ ५४॥ भावेन भवति नग्नः बहिर्लिङ्गेन किं च नग्नेन । कर्मप्रकृतीनां निकर नश्यति भावेन द्रव्येण ॥ भावेण जिनराजसम्यक्त्वेन । होइ णग्गो भवति नग्नो निग्रन्थस्वरूपः । बाहिरलिंगेण किं च नग्गेण बहिलिगेन किं च बाह्यनग्रतया न किमपि मोक्षलक्षणं कार्य सिद्धयति पशूनामिव । कम्मपय १ तदिति ख. पुस्तके नास्ति । २ नग्गो इति टीका पाठः Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ षट्प्राभूते डीण णियरं कर्मप्रकृतीनां निकर समूहः अष्टचत्वारिंशदधिकशतसंख्यानां वृन्दं । णासइ भावेण दव्वेण नश्यति भावेन द्रव्येण चेति । ये मिथ्यादृष्टयो गृहस्था अपि सन्तोऽस्माकं भावो विद्यते इति वदन्ति स्त्रीभिः सह ब्रह्मचर्यं च भजन्ति ते लोलौंका चार्वाकसदृशा नास्तिकास्तन्मतनिरासार्थमिदं वचनमुक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यस्वामिभिः " णासइ भावेण दव्वेण" भावेणे-कर्मक्षयो भवति भावपूर्वकद्रव्यलिंगेन गृहीतेन द्वाभ्यां भावद्रव्यलिंगाभ्यां कर्मप्रकृतिनिकरो नश्यति न त्वेकेन भावमात्रेण द्रव्यमात्रेण वा कर्मक्षयो भवति । इति व्याख्यानबलेन ते नास्तिका पूर्ववच्छिक्षीया इति भावार्थः । णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहिय जिणेहिं पण्णत्तं । इय णाऊण य णिचं भाविज्जहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥ नग्नत्वं अकार्य भावरहितं जिनैः प्रज्ञप्तम् । इति ज्ञात्वा च नित्यं भावयेः आत्मानं धीर ! ॥ णग्गत्तणं अकज्जं नग्नत्वं सर्वबाह्यपरिग्रहरहितत्वं अकार्य सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षकार्यरहितं । कथंभूतं नग्नत्वं, भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं भावनारहितं पंचपरमेष्टिबाह्यभावनारहितं, निजशुद्धबुद्धेकस्वभावात्मान्तरङ्गभावनारहितं च जिनस्तीर्थकरपरमदेवैरनगारकेवलिभिर्गणधरदेवैश्च प्रज्ञप्तं प्रणीतं प्रतिपादितं कथितं भणितमिति यावत् । इय णाऊण य णिच्चं इति ज्ञात्वा विज्ञाय नित्यं सर्वकालं । भाविजहि अप्पयं धीर भावयेस्त्वं आत्मानं बहिस्तत्वं च हे धीर! योगीश्वर ! इति सम्बोधनपदेन धेयं प्रति धियमीरयन्ति प्रेरयन्ति इति धीरा योगीश्वरा एव ग्राह्या न तु गृहस्थवेषधारिणः पापिष्ठ १ नियरं. टीकापाठः । २ नासइ टीकापाठः । ३ भावेणेति पाठः ख. पुस्तके नास्ति। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २०३ लौंकाः । गृहस्थानां सम्यक्त्वपूर्वकमणुव्रतेषु दानपूजादिलक्षणेषु गुरूणां वैयावृत्यसफलेषु नियोगो ज्ञातव्य इति । तथा चोक्तं लक्ष्मीचन्द्रेण गुरुणा वैयौवच्चे विरहिउ वयनियरो वि ण ठाइ । सुक्कसरहो किह हंसउ लुजंतउ धरणह जाइ ॥ १ ॥ तं भावलिंग केरिसं हवदितं जहातद्भावलिंग कीदृशं भवति तद्यथा-तदेव निरूपयन्ति भगवन्तः देहादिसंगरहिओ माणकसाएहि सयलपरिचत्तो । अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू॥५६॥ देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः। ... आत्मा आत्मनि रतः स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ।। देहादिसंगरहिओ देहः शरीरं स आदिर्येषां पुस्तकमण्डलुपिच्छपदृशिष्यशिष्याछात्रादीनां कर्मनोकर्मद्रव्यकर्मभावकर्मादीनां संगानां चेतनाचेतनबहिरंगान्तरंगपरिग्रहाणां ते देहादिसंगाः । अथवाऽऽगमभाषया क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं । हिरण्यं च सुवर्ण च कुप्यं भांडं बहिर्दश ॥१॥ मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट् कषायचतुष्टयं । रागद्वेषौ च संगाऽस्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥२॥ इति श्लोकद्वयकथितक्रमेण चतुर्विंशतिपरिग्रहास्तेभ्यो रहितो देहादिसंगरहितः । माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो मानकषायैः सकल १ वैयावृत्येन विरहिते व्रतनिकरोऽपि न तिष्ठति । शुष्कसरसि कथं हंस........................॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ षट्प्राभूतेपरित्यक्तः मनोवचनकायै रहितः। अप्पा अप्पम्मि रओ आत्मा आत्मनि रतः । य एवं विधः स भावलिंगी हवे साहू स साधु वलिंगी भवेत् । ममत्तिं परिवज्जामि निम्ममत्तिमुवडिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे ॥ ५७॥ ममत्वं परिवर्जामि निर्ममत्वमुपस्थितः।। आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषाणि व्युत्सृजामि ॥ ममत्तिं परिवज्जामि ममत्वं ममतां ममेदमहमस्येति भावं परिवर्जामि परिहरामि । निम्ममत्तिमुवहिदो निर्ममत्वमिति भावमुपस्थित आश्रितः । आलंत्रणं च मे आदा यद्येवं ममत्वं परिहरसि निषेधं करोषि तर्हि कं विधिं श्रयसि “एकस्य निषेधोऽपरस्य विधिः” इति वचनात् द्वयमत्रेति पृष्टे उत्तरं ददाति आलम्बनं चाश्रयो मे मम आदाआत्मा निजशुद्धबुद्धैकजीवपदार्थ इति विधिः । अवसेसाई वोसरे अवशेषाणि आत्मन उद्धरितानि रागद्वेषमोहादीनि व्युत्सृजामि परिहरामि । आदा खु मज्झणाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पञ्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगें ॥ ५८ ॥ आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च । आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे॥ आदा खु मज्झ णाणे आत्मा निजचैतन्यस्वरूपो जीवपदार्थः खुस्फुटं मम ज्ञाने ज्ञानकार्ये, ज्ञाननिमित्तं ममात्मैव वर्तते नान्यत्किमपि ज्ञानोपकरणादिकं पुस्तकपट्टिकादिकमिति भावः। आदा मे देसणे चरित्ते य आत्मा मे दर्शने सम्यक्त्वे सम्यग्दर्शनकार्ये नान्यत्किमपि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २०५. तीर्थयात्राजिनप्रतिष्ठाशास्त्रश्रवणवन्दनस्तवनादिकं, इत्यादि सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणं । चरित्रे च ममात्मैव चारित्रकार्ये ममात्मैव वर्तते न तु नानाविकल्परूपं व्रतसमिति गुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयादिकमात्रवनिरोधलक्षणभावसंवरनिमित्तं । आदा पच्चक्खाणे आगामिदोषनिराकरणलक्षणं प्रत्याख्यानं प्रत्याख्याननिमित्तं ममात्मैव वर्तते । आदा मे संवरे जोगे आत्मा मे मम संवरे संवरनिमित्तं कर्मास्त्रवनिरोधलक्षणसंवर कार्ये ममात्मैव वर्तते । योगस्य ध्यानस्य कार्ये ममात्मैव वर्तते इति भावः । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो | सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ५९ ॥ एको मे शास्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः ॥ शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ एगो मे सस्सदो अप्पा एको मे शाश्वत आत्मा अन्यत्सर्वं विनश्वरमित्यर्थः । स आत्मा कथंभूतः, णाणदंसणलक्खणो निश्चयेन केवलज्ञान केवलदर्शनलक्षणः, व्यवहारेणाष्टविधज्ञानचतुर्विधदर्शन चिन्हः, मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि सम्यग्ज्ञानं पंचविधं कुमतिकुश्रुतविभंगलक्षणं मिथ्याज्ञानं त्रिविधं, इत्यष्टभेदा ज्ञानस्य । चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति चतुर्विधं दर्शनं, इति द्वादशभेद उपयोगो जीवस्य व्यवहारभूतं लक्षणं । सेसा मे बाहिरा भावा शेषा ज्ञानदर्शनद्वयाद्वहिर्भूताः पुत्रकलत्रमित्रादयः पदार्था बाह्या भावा: पदार्था भवन्ति । सव्वे संजोगलक्खणा सर्वे संयोगलक्षणाः संयोगेन कर्मोदयेन मिलिता इत्यर्थः । भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्ध निम्मलं चेव । लहु चउगह चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ॥ ६० ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ षट्प्राभते NA भावयत भावशुद्ध आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव । लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शास्वतं सुखम् ॥ भावेह भावसुद्धं भावयत यूयं कथं ? यथा भवति भावसुद्धंभावशुद्धं परिणामस्य निष्कुटिलत्वं मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयरहितत्वं यथा भवत्येवं आत्मानमर्हत्सिद्धादिकं च हे भव्याः ! भावयत । "हजित्था मध्यमस्य” इति सूत्रेण तस्थाने ह । अप्पा सुविसुद्धनिम्मलं चेव आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव । आत्मानं कथंभूतं, सुविशुद्धनिर्मलं सुष्टु अतिशयेन विशुद्धं कर्ममलकलंकरहितं निर्मलं रागद्वेषमोहमलरहितं । लहु चउगइ चइऊणं लघु शीघ्रं चतुर्गतिं त्यक्त्वा प्रमुच्य। जइ इच्छह सासयं सुक्खं यदि चेत् , इच्छत यूयं शाश्वतमविनश्वरं सौख्यं परमानन्दलक्षणमिति । जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥६॥ यो जीवो भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः। स जरामरणविनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वाणम् ॥ जो जीवो भावंतो यो जीव आसन्नभव्यः भावंतो-भावयन् भवति । कं भावयन् भवति ? जीवसहावं जीवस्वभावमात्मस्वरूपं अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखस्वरूपं केवलं केवलज्ञानमयं वा आत्मानं । कथंभूतः सन् , सुभावसंजुत्तो शोभनपरिणाम. संयुक्तो रागद्वेषमोहादिविभावपरिणामरहितः । सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं स जीवोऽन्तरात्मा भेदज्ञानबलेन जरामरणविनाशं करोति पुनर्जराजीर्णो न भवति न च म्रियते, कथं ? फुडु-स्फुटं निश्चयेन तीर्थकरो भवति । लहइ णिव्वाणं लभते किं निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं अनन्तसुखं प्राप्नोतीत्यर्थः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २०७ जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेषणासाहओ॥ सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकारणणिमित्ते ॥६२।। जीवो जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभाश्च चेतनासहितः । स जीवो ज्ञातव्यः कर्मक्षयकारणनिमित्ते॥ जीवो जिणपण्णत्तो जीव आत्मा जिनप्रज्ञप्तः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागेण प्रणीतः कथितः। जीवो नास्तीति ये वाक्कुशिष्या वदन्ति तन्मतमनेन पदेन निरस्तं भवतीति ज्ञातव्यं । तथा चोक्तं-- तदर्हजस्तनेहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः। भूतानन्वयनाजीवः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥१॥ कथंभूतः प्रणीतः, णाणसहाओ य ज्ञानस्वभावो ज्ञानस्वरूपः । तथा चोक्तं विभावसोरिवोष्णत्वं वरण्योरिव चापलं । शशाङ्कस्येव शीतत्वं स्वरूपं ज्ञानमात्मनः॥१॥ इत्यनेन ये सांख्याः कापिलाः सत्कार्यापरनामानो मिथ्यादृष्टयो वदन्ति “जीवः खलु मुक्तः सन् बाह्यग्राह्यरहितो भवति" तन्मतं निराकृतं भवतीति वेदितव्यं । तथा चोक्तंकपिलो यदि वाञ्छति वित्तिमचिति सुरगुरुगीगुंफेष्वेव पतति । चैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ॥१॥ चेयणासहिओ चेतनासहितः प्रतिपद्विराजमान इत्यनेन लोकायतमतं निरस्तमिति ज्ञातव्यं । एवं गुणविशिष्टेन जीवेन किं कार्य भवतीति पर्यनुयोगे सतीदं प्राहुः सो जीवो णायव्यो स जीवः १ चार्वाकाकु० ख. । २ वो. टी. । ३ चरेण्योनुव. ख. । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ षट्प्राभूतेस आत्मा ज्ञातव्यः । कम्मक्खयकारणणिमित्ते कर्मक्षयकारणनिमित्ते कर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाणां समूलकाषं कषणे जीवपदार्थ एव समर्थ इति ज्ञातव्यं । अनन्तसौख्यदानहेतुरात्मेति भावः । जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सब्बहा तत्थ । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमतीदा ॥ ६३॥ येषां जीवस्वभावो नास्ति अभावश्च सर्वथा तत्र । ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वचोगोचरातीताः ॥ जेसिं जीवसहावो येषामासन्नभव्यानां जीवस्वभाव आत्मस्वभाव आत्मनोऽस्तित्वमस्ति । णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ नास्त्यभावश्च सर्वथा तत्र । तत्रात्मनि अभावश्च नास्ति "अस्त्यात्मानादिबद्धः" इति वचनात् । ते होंति भिण्णदेहा ते पुरुषा भवन्ति भिन्नदेहाः शरीरर हित्ताः। सिद्धा वचिगोयरमतीदाते पुरुषाः किं भवन्ति सिद्धाः सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिर्विद्यते येषां ते सिद्धाः प्रज्ञादित्वादस्त्यर्थेऽण्प्रत्ययः । कथंभूताः सिद्धाः, वचोगोचरातांता वाचां गोचरत्वे गम्यत्वेऽतीता अगम्या वक्तुं न शक्यन्ते-तत्सदृशानां केवलज्ञानिनां गम्या इत्यर्थः । अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणसमदं । जाणमलिंगग्गहणं जीवमाणिद्दिसंठाणं ॥ ६४ !! अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणसमाई। जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानं ॥ अरसं मधुराम्लकटुतिक्तकषायपंचरसरहितं हे जीव ! त्वं जीवं जानीहि । अरूवं श्वेतपीतहरितारुणकृष्णलक्षणपंचरूपरहितं जीवमात्मानं जानी १ दं. क. पुस्तके तट्टीकायां च. । २ न. टी. । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २०९ 1 I हीति दीपकं सम्बन्धनीयं । अगंधं सुरभिदुरभिलक्षणगन्धद्वयवर्जितं जीवपदार्थ जानीहि | अव्वत्तं अव्यक्तं इन्द्रियानिन्द्रियाणामगोचरत्वादस्फुटं, केवलज्ञानिनां व्यक्तं स्फुटं जीवतत्वं हे जीव ! भेदज्ञानसमृद्धान्तरात्मन् ! जानीहि । निषेधं कृत्वा विधिं दर्शयन्ति --- चेयणागुणसमद्दं चेतनागुणेन इतिमात्रेण सम्यक्प्रकारेणा परिणतं । समिद्धमिति पाठे चेतनागुणेन ज्ञानगुणेन समृद्धमिति व्याख्येयं । जाणलिंगग्गहणं जाण जानीहि त्वं हे जीव ! अलिंगग्रहणं स्त्रीपुंनपुंसकलिंगत्रयग्रहणं स्वीकारस्तेन रहितं जीवमात्मानं विदांकुरु । व्यवहारनयेन यद्यपीयं स्त्री अयं पुमान् इदं नपुंसकमिति भण्यते तथापि निश्चयनयेनात्मा शुद्धबुद्वैकस्वभावो न लिंगत्रयवानिति । जीवमणिदिवसंठाणं जीवमात्मानं, अनिर्दिष्टसंस्थानं न निर्दिष्टानि जिनागमे प्रतिपादितानि संस्थानानि डाकृतयो यस्येति अनिर्दिष्टसंस्थानस्तं जानीहि । अथ कानि तानि संस्थानानि यान्यात्मनो निश्चयनयेन नैव वर्तन्ते इति चेत् ? तन्नामनिर्देश: क्रियते - समचतुरस्र संस्थानं ( १ ) न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं (२) स्वात्यपरनामवाल्मिक संस्थानं (३) कुब्जकसंस्थानं (४) वामनसंस्थानं (५) हुंडकसंस्थानं चेति (६) नामानुसारेण शरीराकारो ज्ञातव्य इति तात्पर्यं । भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्धं । भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ ॥ ६५ ॥ भावय पञ्चप्रकारं ज्ञानं अज्ञाननाशनं शीघ्रम् । भावानाभावित सहितः दिशिव सुखभाजनं भवति ॥ १ अ. टी. । २ नि. टी. । १४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० षट्प्राभूतेभावहि पंचपयारं भावय त्वं हे जीव ! पंचप्रकारं पंचविधं । किं ? णाणं सम्यग्ज्ञानं । कथंभूतं ज्ञानं, अज्ञाननाशनं अज्ञानस्याविवेकस्य नाशनं विध्वंसकं । कथं भावय, सिग्धं शीघ्रं लघुतया । भावणभावियसहिओ भावना रुचिः तस्या भावितं वासितं तेन सहितः संहितः पुमान् संयुक्तो जीवः । दिवसिवसुहभायणो होइ दिवः स्वर्गस्य, शिवस्य मोक्षस्य, सुखस्य परमानन्दलक्षणस्य, भाजनममत्रं, भवति संजायते । पंचज्ञानविस्तरस्तत्वार्थतात्पर्यवृत्तौ प्रथमाध्याये ज्ञातव्यः । मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानमिति नामनिर्देशः । पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण । भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ॥६६॥ पठितेनापि किं क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन । भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम् ॥ पढिएण वि किं कीरइ पठितेन ज्ञानेन किं क्रियते-किं स्वर्गमोक्ष विधीयते-अपि तु न क्रियते इत्यर्थः । अपिशब्दादपठितेनापि अनभ्यस्तेनापि जिव्हाग्रेऽकृतेनापि ज्ञानेन स्वर्गो मोक्षश्च क्रियते इत्यर्थः । किंवा मणिएण वा-अथवा श्रुतेनाकर्णितेन ज्ञानेन किं ? न-किमपि, स्वर्गश्च मोक्षश्च न भवतीत्यर्थः । कथंभूतेन पठितेन श्रुतेन च, भावरहिएण भावरहितेन । भावो कारणभूदों भाव आत्मरुचिः जिनसम्यक्त्वकारणभूतो हेतुभूतः । सायारणयारभूदाणं सागारानगारभूतानां श्रावकाणां यतीनां चेति तात्पर्य । दव्वेण सयलनग्गा नारयतिरिया य सयलसंधाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणतणं पत्ता ॥ ६७॥ १ ओ. टी. । २ या. टी. । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । द्रव्येण सकलनग्ना नारकतिर्यञ्चश्च सकलसंघाताः । परिणामेन अशुद्धा न भावश्रवणत्वं प्राप्ताः ॥ दव्वेण सयलनग्गा द्रव्येण बाह्यकारणेन सकलाः सर्वे जीवा नग्ना वस्त्रादिरहिताः । के ते, नारय नारकाः सप्ताधोभूमिस्थितचतुरशीतिशतसहस्रबिलसंजातसत्वाः । तिरिया य तिर्यचश्च पशवो जीवा नग्ना एव भवन्ति । तथा सयलसंघाया नारकाणां तिरश्चां च सर्वे समूहाः । अथवा सकलसंघाताः स्त्रीभिः सह मिलिताः कमनीयकामिनीभिरालिगिताः सर्वे पुरुषसमूहा अपि द्रव्येण नग्ना निर्वस्त्रादिका भवन्ति । कथंभूतास्ते, परिणामेण असुद्धा परिणामेन मनोव्यापारेणाशुद्धा रागद्वेषमोहादिकश्मलिताः । ण भावसवणत्तणं पत्ता भावश्रवणत्वं परिणामदिगम्बरत्वं न प्राप्ता न कर्मक्ष्यलक्षणमोक्षनिरीक्षा बभूवुरिति पूर्वसम्बन्धः । नग्गो पावर दुक्खं नग्गो संसारसायरे भमइ । गोन लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं ॥ ६८ ॥ नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति । नग्नो न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः ॥ नग्गो पावर दुक्खं नग्नः पुमान् प्राप्नोति लभते, किं ? दुःखं छेदनभेद नशूला रोपणयंत्र पीलनक्रकचविदारणभ्राष्टक्षेपण तप्त लोहपुत्तलिकालिंगन वैतरणी नदी विशेषमज्जनकूटशाल्मलिघर्षणासिपत्रवनच्छायानिवेशनशारीरमानसागन्त्वसातं नरकेषु तिर्यक्षु कुमनुष्येषु कुदेवेषु च दुःखं प्राप्नोतीत्यभिप्रायः श्री कुन्दकुन्दाचार्याणां । नग्गो संसारसायरे भमइ (नग्नः संसारसागरे भ्राम्यति ) मज्जनोन्मज्जनं करोति । नग्गो न लहइ बोहिं नग्नो जीवो बोधिं रत्नत्रयप्राप्तिः न लभते - अनन्तानन्तसंसारे पर्यटितोऽपि जन्मशतसहस्रकोटिभिरपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षकारणानि न प्राप्नोतीत्यर्थः । कथंभूतो नग्नः, जिणभावणवज्जिओ सुइरं २११ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ षप्राभृतेजिनस्य श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागस्य सम्बन्धिनी या भावना सम्यक्त्वं तया वजिओ-वर्जितः। कथं, सुइरं-सुचिरमतिदीर्घकालं । तथा चोक्तं कालु अणाइ अणाइ जिउ भवसायरु वि अणंतु । जीवे वेणि न पत्ताइं जिणुसामिउसमत्तु ॥१॥ इति व्याख्यानं ज्ञात्वा सम्यग्दर्शने दृढभावना कर्तव्येति भावार्थः । अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण । पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ॥ ६९ ॥ अयशसां भाजनेन च किं ते नभेन पापमलिनेन। पैशून्यहास्यमत्सरमायाबहुलेन श्रवणेन ॥ अयसाण भायणेण य अयशसामपकीर्तीनां भाजनेनामत्रेणाधारपात्रेण । किं ते णग्गेण पावमलिणेण हे जीव ! ते तव नाग्न्येन नग्नत्वेन किं-न किमपि, स्वर्गमोक्षकार्यरहितेन वृथेत्यभिप्रायः । कथंभूतेन नाग्न्येन, पापमलिनेन पापवन्मलिनेन कश्मलिना । अथवा पापेति पृथक्पदं तेनायमर्थः रे पाप ! पापमूर्ते दिगम्बरवेषाजीवक! मलिनेन अतिचारानाचारातिक्रमव्यतिक्रमसहितेन नाग्न्येन किं ? न किमपि । तथा चोक्तं समासोक्तिना गुणभद्रेण भगवता हे चन्द्रमः! किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एव नाभूः। किं ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या ___ स्वर्भानुवन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः॥१॥ कथंभूतेन तव नाग्न्येन, पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण पैशून्यहास्यमत्सरमायाबहुलेन । पैशून्यं परदोषग्रहणं । उक्तं च १ कालोऽनादिः अनादिः जीवः भवसागरोऽपि च अनन्तः । जीवेन द्वे न प्राप्ते जिनस्वामिसम्यक्त्वे ॥ २ न. टी. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २१३ मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य । यस्य परदोषकथने जिव्हा मौनव्रतं चरति ॥१॥ हास्यं च वर्करः । मत्सरश्च परेषां शुभद्वेषः । उक्तं चउद्युक्तस्त्वं तपस्विन्नधिकमभिभवं त्वय्यगच्छन् कषायाः प्राभूद्वोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ किं तु दुर्लक्ष्यमन्यैः । नियंढेऽपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निम्नदेशेष्ववश्यं मात्सर्य ते स्वतुल्ये भवति परवशादुर्जयं तजहीहि ॥१॥ माया च परवंचना । उक्तं च---- यशो मारीचीयं कनकमृगमायामलिनितं हतोऽश्वत्थामोक्त्या प्रणयिलघुरासीद्यमसुतः । सकृष्णः कृष्णोऽभूत्कपटबहुवषेण नितरा मपि च्छद्माल्पं तद्विषमिव हि दुग्धस्थ महतः॥१॥ पैशून्यहास्यमत्सरमायाबहुलं तेन तथोक्तेन । पुनः कथंभूतेन नाग्नेन, श्रवणेन निरन्तरसम्बन्धिना नानाधर्ममिषोपार्जितद्रव्येण । अथवा सवनेन वनवाससहितेन । तथा चोक्तं - वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनं ॥ १ ॥ पयडहिं जिणवरलिंगं अभितरभावदोसपरिसुद्धो। भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ ॥ ७० ॥ प्रकटय जिनवरलिङ्ग अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः । भावमलेन च जीवो बाह्यसङ्गे मलिनः ॥ १ त्वामगच्छनिति पाठान्तरं । २ स्वतुल्यैर्भवतीति पाठान्तरं । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ षट्प्राभतेपयडहिं जिणवरलिंगं हे जीव ! हे आत्मन् ! प्रकटय जिनवरलिंगं पूर्व जिनवरलिंगं त्वं धर नग्नो भव । पश्चात्कथंभूतो भव, अभितरभावदोसपरिसुद्धो अभ्यंतरभावेन जिनसम्यक्त्वपरिणामेन कृत्वा दोषपरिशुद्धो दोषरहितो भव । अयमत्र तात्पर्य द्रव्यलिंगं विना भावलिंगीसन्नपि मोक्षं न लभत इत्यर्थः, शिवकुमारो भावलिंगी भूत्वापि स्वर्ग गतो न तु मोक्षं, जम्बूस्वामिभवे द्रव्यलिंगी अतिकष्टेन संजातस्तस्मिंश्च सति भावलिंगेन मोक्ष प्राप । भावमलेण य जीवो भावमलेनापरिशुद्धपरिणामेन जिनसम्यक्त्वरहिततया । बाहिरसंगम्मि मयलियइ बाह्यसंगे सति मइलियइ-मलिनो भवति सम्यक्त्वं विना निग्रन्थोऽपि सग्रन्थो भवतीति भावार्थः । स्याद्भावेन मोक्षो द्रव्यलिंगापेक्षत्वात् , स्याव्यलिंगेन मोक्षो भावलिंगापेक्षत्वात् , स्यादुभयं क्रमार्पितोभयत्वात् , स्यादवाच्यं युगपद्वक्तुमशक्यत्वात् , स्याद्भावलिंगं चावक्तव्यं च, स्याव्यलिंगं चावक्तव्यं च, स्यादुभयं चावक्तव्यं चेति सप्तभंगी योजनीया । तथा चोक्तं पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकं H-१ ॥ धम्मम्मि निप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो । निष्फलनिग्गुणयारो नडसवणो नग्गरूवेण ॥ ७१ ॥ धर्मे निप्रवासो दोषावासश्च इक्षुपुष्पसमः । निष्फलनिर्गुणकारो नटश्रवणो नमरूपेण ॥ धम्मम्मि निप्पवासो धर्मे दयालक्षणे चारित्रलक्षणे आत्मस्वरूपे उत्तमक्षमादिदशलक्षणे च । तदुक्तं १ इ. टी. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं। २१५ धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसबिहो धम्मो। चारित्तं खलु धम्मो जीवाण य रक्खणो धम्मो ॥१॥ एवमुक्तलक्षणे धर्मे निप्पवासो-निरतिशयेन प्रवासः प्रगतवासः उद्वस इत्यर्थः । दोसावासो य दोषाणां मलातिचाराणामावासो निवासः । उच्छुफुल्लसमो इक्षुपुष्पसमः इक्षुपुष्पसदृशः। निष्फलनिग्गुणयारो निष्फलो मोक्षरहितः, निर्गुणो ज्ञानरहितः । यथा इक्षुपुष्पं निष्फलं फलरहितं भवति सस्यविवर्जितं स्यात् तथा निर्गुणं गन्धहीनं भवति तथा परमार्थरहितो दिगम्बरो ज्ञातव्यः । तथा निर्गुणकारः परेषां गुणकारको न भवति सम्बोधको न स्यात् । नडसवणो नग्गरूवेण नग्नरूपेण कृत्वा नटश्रवणः नर्मसचिवसदृशः। स लोकरंजनार्य नग्नो भवति तथायमपि । इति व्याख्यानं ज्ञात्वा सम्यक्त्वे ज्ञाने चारित्रे तपसि च दृढतया स्थातव्यं । जे रायसंगजुत्ता जिणभावगरहियदव्वनिग्गंथा । न लहंति ते समाहि बोहिं जिणसासणे विमले ॥७२॥ ये रागसंगयुक्ता जिनभावनरहितव्यनिर्ग्रन्थाः । न लभन्ते ते समाधिं बोधिं जिनशासने विमले ॥ जे रायसंगजुत्ता ये मुनयो रागेण स्त्रीप्रीतिलक्षणेन, संगेन परिग्रहेण युक्ता भवन्ति । अथवा रागेण संगं स्त्रीगमनं कुर्वन्ति । अथवा राजसंगः अर्हद्भावनां त्यक्त्वा राजसेवां कुर्वन्ति राजसेवायुक्ता भवन्ति जिणभावणरहियदव्वनिग्गंथा जिनभावनारहितद्रव्यनिग्रन्थाः, जिने भावना रुचिर्येषां नास्ति ते जिनभावनारहितास्ते च ते निग्रन्था नग्नरूपधारिणो जिनभावनारहितद्रव्यनिग्रन्थाः । अथवा जिनस्य भावना तीर्थकरनामकर्मोपार्जनप्रत्ययभूता दर्शनविशुद्धयादयो भावनाः षोडश ताभ्यो रहिताः । जिनसम्यक्त्वसहिता व्यस्ताः समस्ता वा भावनास्तीर्थ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ षट्प्राभृतेकरनामकर्मदायिका भवन्ति । दर्शनविशुद्धिरहिता अपराः पंचदशादि भावनास्तीर्थकरनामकर्म नार्पयन्ति । तथा चोक्तं-- एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गतिं निवारयितुं । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥ १ ॥ अथवा द्रव्यनिग्रन्थाः-बहुविधधर्ममिषेण द्रव्यमुपार्जयन्ति ये ते द्रव्यनिग्रन्थाः कथ्यन्ते । न लहंति ते समाहिं ते मुनयः समाधि रत्नत्रयपरिपूर्णतां धर्म्य शुक्लध्यानद्वयं वा न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति । बोहिं जिणसासणे विमले बोधिं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणां न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति जिनशासने श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागमते। कथंभूते, विमले पूर्वापरविरोधविवर्जिते कर्ममलकलङ्कक्षयहेतुभूते वा। भावेण होइ नग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं । पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ॥ ७३ ॥ भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादींश्च दोषान् त्यक्त्वा।। पश्चाद्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिङ्गं जिनाज्ञया ॥ भावेण होइ नग्गो भावेन परमधर्मानुरागलक्षणजिनसम्यक्त्वेन भवति, कीदृशो भवति ? नग्नः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः । किं कृत्वा पूर्व, मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं मिथ्यात्वादींश्च दोषाँस्त्यक्त्वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणास्त्रवद्वाराणि त्यक्त्वा । पच्छा दव्वेण मुणी पश्चात् भावलिंगधरणादनन्तरं मुनिर्दिगम्बरः । पयडदि लिंगं जिणाणाए प्रकटयति स्फुटीकरोति, किं तत् ? लिंग-जिनमुद्रां, कया ? जिणाणाए-जिनस्याज्ञया जिनसम्यक्त्वेन सम्यक्त्वश्रद्धानरूपेणेति बीजांकुरन्यायेनोभयं संलग्नं ज्ञातव्यं । भावलिंगेन द्रव्यलिंगं द्रव्यालंगन भावलिंगं भवतत्युिभयमेव प्रमाणीकर्तव्यं । एकान्तमतेन तेन सर्व नष्टं भवतीति वेदितव्यं । अलं दुराग्रहणेति । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २१७ भावो विदिव्यसिवसुखभायणो भाववज्जिओ सवणो । कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥ ७४ ॥ भावोपि दिव्य शिव सुखभाजनं भाववर्जितः श्रवणः । कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः ॥ भावो वि दिव्वसवसुक्खभायणो इति विपुलानाम - गाथा लक्षणं । भावोऽपि, अपिशब्दाद्द्रव्यलिंगमपि । दिव्व-दिवि भवं दिव्यं सौधर्मेशानदेवीरतिक्रम्यान्यतरमहर्द्धिकदेवसुखं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तं सुखं द्रव्यलिंगमनन्तरेण भावनीयं । तद्युक्तद्रव्यलिंगेन सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं सुखं ज्ञातव्यं । कस्यचिदभव्यस्य भावलिंगमन्तरेण द्रव्यलिंगेन नवग्रैवेयकपर्यन्तं पुनः पुनर्भवपातहेतुभूतं सुखं ज्ञातव्यं । तेनास्य पादस्य पुनरर्थः प्रकाश्यते । भावोऽपि दिव्यशिवसौख्यभाजनं स्वर्गमोक्षसौख्यभाजनं । भाववज्जिओ सवणो भाववर्जितः श्रवणो जिनसम्यक्त्वरहितो दिगम्बरः । कम्ममलमलिणचित्तो कर्ममलेन अतिचारानाचारातिक्रमव्यतिक्रमचेष्टितोपार्जितपापेन दोषेण मलिनचित्तः मलिनं मलदूषितं चित्तमात्मा यस्य स भवति कर्ममलमलिनचित्तः । तिरियालयभायणो पावो तिर्यगालयभाजनं तिर्यग्गतिस्थानं भवति, पापः पापात्मा विचित्रमतिनाममंत्रिपुत्रवत् । खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संधुया विउला । चकहररायलच्छी लब्भेइ बोही ण भव्वणुओं ॥ ७५ ॥ १ खयरामरमणुयाणं अंजलिमालाहि घ. पुस्तके पाठः । २ सुभावेणेति पाठान्तरं । घ. पुस्तके च । ३ अस्माद्वाथासूत्रादग्रे घ. पुस्तके इमे गाथासूत्रे समुपलभ्येते । मुद्रितपुस्तके च । न चोपलभ्येते च ग. इति प्राचीनलिखित मूलपुस्तके | क. ख. इति टीका पुस्तके च न स्त एव । टीकाप्यनयोर्नास्ति । ते च घ. पुस्तको क्तटीकासहिते अत्र लिख्येते । ( अग्रतनपृष्ठे ) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ षट्प्राभूतेखचरामरमनुजानाम जलिमालाभिः संस्तुता विपुला। चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिं न भव्यनुतां ॥ खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च इयमपि विपुला गाथा ज्ञातव्या । अस्या अयमर्थः-खचरामरमनुजकराञ्जलिमालाभिश्च खे चरन्त्याकाशे गच्छन्तीति खचरा विद्याधरा उभयश्रेणिसम्बन्धिनः, न नियन्ते बहुकालेन प्रच्यवन्तेऽमरा व्यन्तरदेवाः, म[य-प्रतिश्रुत्यादिभ्यो जाता मनुजाः, खचरामरमनुजास्तेषां कराञ्जलयः करकुड्मलानि तेषां मालाभिः श्रेणिभिश्च । संथुया-संस्तुताः । चक्रवर्तिनां च तथा मण्डलेश्वरमहामण्डलेश्वरार्धमण्डलेश्वराणां राज्ञां लक्ष्मीः चक्रधरराजलक्ष्मीः । लब्भेइ बोही ण भव्यणुओ एतादृशी लक्ष्मीविभूतिर्लभ्यते प्राप्यते जीवनेति, बोही ण-परं बोधिर्नलभ्यते। कथंभूता बोधिः, भव्यनुता भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णादवं । असुहं अट्टरउदं सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं ॥ १ ॥ भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभः शुद्ध एव ज्ञातव्यः । अशुभः आर्तरौद्रः शुभः धयं जिनवरेन्द्रैः ॥ टीका-भावं त्रिविधप्रकारं शुभं अशुभं शुद्धं एव निश्चयेन ज्ञातव्यं । अशुभं आर्तरौद्रं । शुभं धर्मध्यानं जिनवरेन्द्रैः कथितम् । सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं । इदि जिणवरेहि भणियं जं सेयं तं समायरह ॥२॥ शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि स च ज्ञातव्यः । इति जिनवरैः भणितः यच्छ्रेयः तत् समाचर ॥ टीका-हे मुने ! शुद्धं निर्मलं शुद्धस्वभावं तं आत्मानं आत्मनि ज्ञातव्यं । इति जिनवरैर्भणितं कथितं । यच्छ्रेयं कल्याणकारि तत् समाचर कुर्विति । १ अस्य स्थाने मनुष्या इति ख. पुस्तके पाठः । २ या. टी. ? Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २१९ भव्यवरपुण्डरीकैः स्तुता प्रशंसनीया । अथवा हे भव्यनुत ! आसन्नभव्यजीव ! त्वमिदं जानीहाति शेषः । पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो। पावइ तिहुयणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥ ७६॥ प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः । प्राप्नोति त्रिभुवनसारां बोधि जिनशासने जीवः ॥ पयलियमाणकसाओ प्रगलितमानकषायो मानकषायरहितः । पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तो यद्विपरीतं तन्मिथ्यात्वं, मोहो वैचित्यं निर्विवेकता पुत्रमित्रकलत्रादिस्नेहः, प्रगतौ विनाशं प्राप्तौ मिथ्यात्वमोही यस्य स प्रगलितमिथ्यात्वमोहः, समं सर्वत्र तृणसुवर्ण-सर्पसृक्-शत्रुमित्र-सुखदुःख-बनभवन-पुरारण्यादिषु समानं चित्तं मनो यस्य स समचित्तः। पावइ तिहुयणसारं प्राप्नोति लभते । कां, बोही बोधि रत्नत्रयप्राप्ति । कथंभूतां बोधि, तिहुयणसारं-त्रैलोक्योत्तमां। जिणसासणे जीवो जिनशासने सर्वज्ञवीतरागस्वामिनो मते । मानमिथ्यात्वमोहरहितो जीवो बोधि प्राप्नोतीति जिनवचनं ज्ञातव्यमिति । विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाई भाऊणं । तित्थयरनामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ॥ ७७॥ विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणनि भावयित्वा । तीर्थकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ॥ विसयविरत्तो समणो विषयेभ्यः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्देभ्यः पंचेन्द्रियार्थेभ्यो विरक्तः पराङ्मुखः श्रमणो दिगम्बरः, न तु Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० षट्प्राभूते wmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr श्वेताम्बरादिकः प्रत्याख्यानादिहीनः, तपःक्लेशसहः श्रमण उच्यते न तु बहुवारं जलस्य पाता भोजनस्य भोक्ता च । छद्दसवरकारणाई भाऊणं षोडशवरकारणानि भावयित्वा । तित्थयरनामकम्मं बंधइ तीर्थकरनामकर्म बध्नाति त्रिनवतितमी प्रकृति स्वी. करोति यया त्रैलोक्यं संचलयति पादाधः करोति । अइरेण कालेण अचिरेण कालेन अन्तर्मुहूर्तसमयन, यया पंचकल्याणलक्ष्मी प्राप्नोति, अनन्तकालमनन्तसुखमनुभवति, अनायासेन मोक्षं प्राप्नोति । अथ कानि तानि षोडशकारणानि यैस्तीर्थकरनामकर्म बध्यत इति चेदुच्यते___" दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य" इत्युमास्वामिसूरिणा प्रोक्तं सूत्रं । अस्यायमर्थः-इहलोकभय-पैरलोकभय-वेदनाभय-मरणभैय-आत्मरक्षणोपायदुर्गाद्यभावागुप्तिभय-अत्राणभयारक्षणभय-विद्युत्पाताद्याकस्मिकभय इति सप्तभयरहितत्वं निःशंकितत्वं निग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्ग इति जिनमतं तथेति वा निःशंकितत्वं (१) इहलोकपरलोकभोगोपभोगाकांक्षानिवृत्तिनिष्कांक्षित्वं (२) शरीरादौ शुचीति मिथ्यासंकल्परहितत्वं निर्विचिकित्सता, मुनीनां रत्नत्रयमंडितशरीरमलदर्शनादौ निशूकत्वं तत्र समाढौक्य वैयावृत्यविधानं वाविचिकित्सता (३) परतत्वेषु मोहोज्झकत्वममूढदृष्टित्वं ( ४ ) उत्तमक्षमादिभिरात्मनो धर्मवृद्धिकरणं संघदोषाच्छादनं चोपवृंहणमुपगूहनं (५) कषायविषयादिभिर्धमविध्वंसकारणेपु सत्स्वपि धर्मप्रच्यवनरक्षणं स्थितिकरणं (६) जिनशासने सदानुरागता वात्सल्यं (७) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २२१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोभिरात्मप्रकाशनं शासनोद्योतकरणं वा प्रभावना (८) एतैरष्टभिर्गुणैर्युक्तत्वं चर्मजलतैलघुतभूतनाशनाऽप्रयोगत्वं मूलकगर्जरसूरणकन्दगुंजनपलाण्डुविशदौग्धिककलिंगपंचपुष्पसंधानककौसुंभपत्रपत्रशाकमांसादिभक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं च दर्शनवि. शुद्धिः (१) ज्ञानदर्शनचरित्रेषु तद्वत्सु चादरोऽकषायता वा विनयसम्पन्नता (२) निरवद्यावृत्तिः शीलवतेष्वनतिचारः (३) सन्ततं ज्ञानस्योपयोगोऽभ्यासः अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः ( ४ ) संसाराद्भीरुत्वं संवेगः ( ५ ) स्वशक्त्यनुरूपं दानं (६) मार्गाविरुद्धः कायक्लेशस्तपः (७) मुनिगणतपःसन्धारणं साधुसमाधिः (८) गुणवतां दुःखोपनिपाते निरवद्यवृत्या तदपनयनं वैयावृत्यं (९) अर्हत्सु केवलिषु अनुरागो भक्तिः (१०) आचार्येष्वनुरागो भक्तिः (११) बहुश्रुतेष्वनुरागो भक्तिः (१२) प्रवचने जिनसूत्रेऽनुरागो भक्तिः (१३) सामायिकं सर्वजीवेषु समत्वं, चतुर्विंशतिजिनानां स्तुतिः स्तवः कथ्यते, एकजिनस्य स्तुतिर्वन्दनाभिधीयते, कृतदोषनिराकरणं प्रतिक्रमणं, आगामिदोषनिराकरणं प्रत्याख्यानं । एकमुहूर्तादिषु शरीरव्युत्सर्जन कायोत्सर्गः एतेषां षण्णामावश्यकानामपरिहाणिरेका चतुर्दशी भावना ( १४ ) ज्ञानादिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना ( १५ ) सधमणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वं ( १६ ) एताः षोडशभावनाः समस्तास्तीर्थकरनामकारणं दर्शनविशुद्धिसहिता व्यस्ता अपि तीर्थकरनामकारणं भवन्तीति ज्ञातव्यं । वारसविहतवयरणं तेरसकिरियाओ भाव तिविहेण । धरहि मणमत्तदुरियं णाणांकुसएण मुणिपेवर ॥ ७८ ॥ १ मणमत्तणायं. ग. । मनोमत्तनागं । २ मुणिपवरा. ग. घ. । ___ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwAA.. २२२ षट्प्राभूतेद्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदशक्रियाः भावय त्रिविधेन। धरमनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिप्रवर ! ॥ वारसविहतवयरणं द्वादशविधं तपश्चरणं अनशनमुपवासः, अवमोदर्यमेकग्रासादिरल्पाहारः, वृत्तिपरिसंख्यानं गणितगृहेषु भोजनं वस्तुसंख्या वा, रसपरित्यागः षड्सविवर्जनं, विविक्तेषु जन्तुस्त्रीपशुनपुंसकरहितेषु स्थानेषु शून्यागारादिषु आसनं उपवेशनं शय्या निद्रा स्थानं अवस्थानं वा विविक्तशय्यासनं, कायक्लेश: जलौदनभोजनादि । इदं षडिधं बाह्यं तपः। बाह्यं कस्मादिति चेत् ? बाह्यं भोजनादिकमपेक्ष्य प्रवर्तते, परप्रत्यक्ष वा प्रवर्तते, परदर्शने पाषंडिगृहस्थैश्च क्रियते ततो बाह्यमुच्यते। एतस्मात्तपसः कर्मदहनं इन्द्रियतापकारित्वं च भवति । संयमो रागोच्छेदः कर्मनाशो ध्यानादिः आशानिवृत्तिः शरीरतेजोहानिः ब्रह्मचर्य दुःखसहनं सुखानभिष्वङ्ग आगमप्रभावनादिकं च फलं ज्ञातव्यं । षड्विधमभ्यन्तरं तपः, यतः परतीयैरनालीढं स्वसंवेद्यं बाह्यद्रव्यानपेक्ष्यं ततोऽभ्यन्तरं तप उच्यते । तत्कि ? प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानलक्षणं । तत्र नवविधं प्रायश्चित्तं, चतुर्विधा विनयः, दशविधं वैयावृत्यं, पंचविधः स्वाध्यायः, द्विविधो व्युत्सर्गः, चतुर्विधं ध्यानं चेति षड्विधमभ्यन्तरं तप इति द्वादशविधं तपः । किं तन्नवविधं प्रायश्चित्तमिति चेत् ? गुरोरने स्वप्रमादनिवेदनं दशदोषरहितमालोचनं । के ते दशदोषा आलोचनाया इति चेत् ? १ जलोदनभोजनत्यागादि. ख. । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं। २२३ आकंपिअ अणुमाणिअ जं दिह्र बाअरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउलअं बहुजणमव्यत्त तस्सेवी ॥१॥ पुरुषस्यैकान्ते द्वयाश्रयमालोचनं, स्त्रियास्तु प्रकाशे त्र्याश्रयमालोचनं, महदपि तपश्चरणमालोचनरहितं तत्प्रायश्चित्तमकुर्वतो वा अभीष्टफलदं न भवतीति ज्ञातव्यं । दोषमुच्चार्योच्चार्य मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु इत्येवमादिरभिप्रेतः प्रतीकारः प्रतिक्रमणं । एतत्प्रतिक्रमणमाचार्यानुज्ञया शिष्येणैव कर्त्तव्यं । आलोचनं प्रदाय प्रतिक्रमणमार्येणैव कर्त्तव्यं तत्तदुभयमुच्यते । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वेन यत्र सन्देहविपर्ययौ भवतः, अशुद्धस्य शुद्धत्वेन निश्चयो वा यत्र, प्रत्याख्यातं यत्तद्वस्तु भाजने मुखे वा प्राप्तं, यस्मिन् वस्तुनि गृहीते कषायादिकमुत्पद्यते तस्य सर्वस्य त्यागो विवेकः । नियतकालकायवाङ्मनसां त्यागो व्युत्सर्गः । तपो बाह्यं कथितमेव । दिनपक्षमासादिविभागेन दीक्षाहापनं छेदः । दिवसादिविभागेनैव दूरतः परिवर्जनं परिहारः । महाव्रतानां मूलच्छेदनं कृत्वा पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तकपिच्छादिपरोपकरणग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचनाकरणे संघनाथमपृष्ट्वा स्वसंघगमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यव्रतविशेषस्य धर्मकथादिव्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवंविधे आलोचनमेव प्रायश्चित्तं । षडिन्द्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघटने, व्रतसमितिगुप्तिषु स्वल्पातिचारे, पैशून्यकलहादिकरणे, वैयावृत्यस्वाध्यायादिप्रमादे, गोचरगतस्य लिंगोत्थाने, अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं भवति । दिव , आकम्पितं अनुमानितं यदृष्टं बारं, च सूक्ष्मं च । छन्नं शब्दांकुलितं बहुजनं अव्यक्तं तत्सेवी ॥ अस्यार्थो नवमे पृष्ठे दर्शनीयः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ षट्प्राभूते सान्ते रात्र्यन्ते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं । लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तं । मौनादिना लोचकरणे, उदरकृमिनिर्गमे, हिममशकादिमहावातादिसंह/तिचारे, स्निग्धभूहरिततृणपंकोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्यनिमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नावादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावरविघाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादौ, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियायां, अन्तर्व्याख्यानप्रवृत्यन्तादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चित्तं । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्गः प्रसिद्ध एव । अनशनादिकरणस्थानमागमाद्बोद्धव्यं । नवविधप्रायश्चित्ते किं फलं ? भावप्रसादोऽनवस्था शल्याभावदाादिकं फलं वेदितव्यं । अनलसेन देशकालादिविशुद्धिविधानज्ञेन सबहुमानो यथाशक्ति क्रियमाणो मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादि ज्ञानविनयः। तत्वश्रद्धाने निःशंकितत्वादिदर्शनविनयः । ज्ञानदर्शनवतो दुश्चरणे तद्वति च ज्ञानेऽति. भक्तिर्भावतश्चरणानुष्ठानं चरणविनयः। प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानवंदनानुगमनादिरात्मानुरूपः परोक्षेष्वपि तेष्वञ्जलिक्रियागुणकीर्तनस्मरणानुज्ञानुष्ठायित्वादिश्च कायवाङ्मनोभिरुपचारविनयः । विनयस्य किं फलं ? ज्ञानलाभः आचारशुद्भिः सम्यगाराधनादिश्च विनयस्य फलं वेदितव्यं । इति चतुर्विधो विनयः। ___ दशविधं वैयावृत्यं । तथा हि । आचार्यस्य वैयावृत्यं, उपाध्यायस्य वैयावृत्यं, महोपवासाद्यनुष्ठायितपस्विनो वैयावृत्यं, शास्त्राभ्यासी शैक्षस्तस्य वैयावृत्यं, रुजादिक्लिष्टशरीरो ग्लानस्तस्य वैयावृत्यं, स्थविरसन्ततिगणस्तस्य वैयावृत्यं, दीक्षकाचार्यशिष्यसंघः कुलं तस्य वैयावृत्यं, ऋषि १ पुस्तकद्वयेऽपीटगेव पाठः, अनगारधर्मामृते तु मौनादिना विनालोचनकरणे इति । २ वतां । ३ दुश्वरचरणे पाठान्तरं । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २२५ मुनिक्यनगारनिवहः संघः, अथवा ऋष्यार्यिकाश्रावकश्राविकानिवहः संघस्तस्य वैयावृत्य, चिरप्रव्रजित्तः साधुस्तस्य वैयावृत्यं, विद्वत्ताक्तृत्वादिलोकसम्मतोऽसंयतसम्यग्दृष्टि, मनोज्ञस्तस्य वैयावृत्यं । किं तद्वैयावृत्यं ? एतेषां दशविधानामाचार्यादीनां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वादेः प्रासुकौषधभक्तादिप्रतिश्रयसंस्तरादिभिर्धर्मोपकरणैः सम्यक्त्वप्रतिस्थापनं च प्रतीकारो वैयावृत्यं । बाह्यद्रव्याभावे स्वकाये (न) श्लेष्माद्यन्तर्मलापकर्षणादिस्तदानुकूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्यं । वैयावृत्यकरणे किं फलं ? समा (ध्या) धानं । ___ वाचना-संशयच्छेदाय निश्चितवलाधानाय वा ग्रन्थार्थोभयस्य परं प्रत्यनुयोगः । आत्मोन्नतिपरातिसन्धानोपहासादिवर्जितः पृच्छना । अधिगतार्थस्यैकाग्र्येण मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा । घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः। दृष्टादृष्टप्रयोजनानपेक्षमुन्मार्गनिवर्तनसन्देहच्छेदापूर्वार्थप्रकाशनाद्यर्थो धर्मकथानुष्ठानं धर्मोपदेशः । पंचविधस्य स्वाध्यायस्य किं फलं ! प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायप्रवचनस्थितिसंयोच्छेदपरवादिशंकाद्यभावसंवेगतावृद्धयतिचारविशुद्धाद्यर्थः पंचविधः स्वाध्यायः । नियतकालो यावजीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः । बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः । नि:संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासदोषोच्छेदमोक्षमार्गभावनापरत्वादि व्युत्सर्गफलम् । अथ ध्यानं नाम द्वादशे तप उच्यते तदर्थमिदं सूत्रमुमास्वामिभिः कृतं"उत्तमसंहनस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्।" अस्यायमर्थः-वज्रऋषभनाराचसंहननं, वज्रनाराचसंहननं, नामाचसंहननं संहननक्यमुत्तमं संहननं मोक्षादिकारणत्वात् । प्रथमं संहनन मोक्ष्यस्य हेतुः । ध्यानस्य हेतुस्त्रितयमपि भवति । अर्धनाराचस्य कीलि. षद. १५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ षट्प्राभृतेकाया अप्राप्तासृपाटिकायाश्च संहननत्रयस्यान्तर्मुहूर्तकालं यावञ्चिन्तानिरोधधारणायामसमर्थत्वात् । गमनभोजनादिक्रियाविशेषेष्वनियमेन प्रवर्तमानस्यात्मन एकस्याः क्रियायाः कर्तृत्वेनावस्थानं निरोधः-क्रियान्तरव्यवधानाभावेन एकक्रियायाः सातत्येन प्रवृत्तिनिरोध इत्यर्थः। एकाने एकार्थे एकस्मिन्नने प्रधाने वा वस्तुनि चिन्तानिरोधः-एकस्मिन् द्रव्ये पर्याये तदुभयात्मके स्थूले सूक्ष्मे वा चिन्तानिरोध इत्यर्थः । अथवा सद्धयानं, अगं मुखं, एकमग्रं यस्य स एकाग्रः स चासौ चिन्तानिरोधश्चैकाग्रचिन्तानिरोधः एकस्मिन्नर्थे वर्तमानचिन्तानिरोधः एकमुखः सद्ध्यानं, अनेकत्राक्षसूत्रादौ अनेकमुखः सद्ध्यानं न भवति यथा प्रदीपशिखा अनिराबाधेन परिस्पन्दते तथाऽनिराकुलतायां ध्यानं न स्यात् । गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रादिकं यत्संवरकारणं तदेव ध्यानकारणमिति ज्ञातव्यं । आन्तर्मुहूर्तात् मुहूर्तमध्ये ध्यानं भवति । न चाधिकः कालो ध्यानस्यास्ति, कस्मात् ? चिन्तानां दुर्धरत्वात् अतिचपसत्वाच्च । एतावत्यपि काले ज्वलदचलं ध्यानं कर्मध्वसाय भवति प्रलयकालमारुतवत् समुद्रजलशोषणवत् । तद्धयानं हेयमुयादेयं च । तत्र हेयमात रौद्रं च । उपादेयं धर्म्य शुक्लं च । ऋतौ दुःखे भवमात । रुद्राः क्रूराशयः प्राणी तत्कर्म रौद्रं । धर्मो वस्तुस्वरूपं तस्मादनपेतं आश्रितं धर्म्य । मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लं । तत्र धर्म्य शुक्लं च द्वयं मोक्षकारणं । संसारकारणमन्यवयमातरौद्रमिति ज्ञातव्यं । आर्त्तममोनज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो वारं वारं चिन्तनं मनोज्ञस्य विपरीत चितनं तद्विपरीतं वेदनाचिन्तनं तद्विपरीतं निदानस्य चिन्तनं । हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रं ध्यानमुत्पद्यते । आर्त अविरतदेशविस्तप्रमत्तसंयतेषु संभवति । रौद्रं अविरतदेशविरतेप संभवति । आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयैर्धर्म्यध्यानसुत्पद्यते । तत्पूर्व ___ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २२७ विदो मुनेः श्रेण्यारोहणात्पूर्व भवति । श्रेण्योरपूर्वकरणाद्युपशान्तान्तानां प्रथमं शुक्लं भवति । क्षाणकषायस्य द्वितीयं शुक्लं । तृतीयं शुक्ल चतुर्थं च शुक्लं केवलिनां भवति । तत्र सयोगस्य तृतीय, चतुर्थमयोगस्येति । पृथक्त्ववितर्कवीचारं प्रथमं शुक्लं । एकत्ववितर्कावीचारं तृतीयं शुक्लं । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिनामकं तृतीयं शुक्लं । व्युपरतक्रियानिवर्तिनामधेयं चतुर्थ शुक्लं । तत्र पृथक्त्ववितर्कवीचारं त्रियोगस्य भवति मनोवाकायावष्टम्भैरात्मप्रदेशपरिस्पन्दान् त्रीन् योगानवलम्ब्य अवष्टभ्य उत्पद्यते इत्यर्थः । एकत्ववितर्काविचारं त्रिषु योगेषु मध्ये एकस्य चलनद्वारेणात्मपरिस्पन्दे सति समुत्पद्यत इत्यर्थः । काययोगस्य केवलिनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लं भवति । अत्र कायावष्टम्भेनैवात्मनश्चलनं । अयोगकेवलिनो व्युपरतक्रियानिवार्तं शुक्लध्यानं, यतोऽत्र कायाद्यवष्टम्भेनात्मप्रदेशचलनं न भवति । पृथक्त्ववितर्कवीचारमेकत्ववितर्कवीचारं ध्यानद्वयं पुर्वेष्वधीतिन एव । वितर्कवीचारसहितं पूर्व । द्वितीयं तु वीचाररहितं । वीचारः किं ? अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिर्वीचारः परिवर्तनमित्यर्थः । अर्थसंक्रान्ति: का ? द्रव्यं विमुच्य पर्यायं गच्छति पर्यायं विहाय द्रव्यं समुपेतीत्यर्थसंक्रान्तिः । एकं वचनं त्यक्त्वा वचनान्तरमवलम्बते तदपि त्यक्त्वाऽन्यद्वचनमवलम्बते इति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गच्छति तदपि त्यक्त्वा काययोगं व्रजतीति योगसंक्रान्तिः । एवं श्रुतज्ञानेन वितर्पा समूह्य द्रव्यं तत्पर्याये पर्यायान् वितर्व्य ततो द्रव्ये परिवर्तने वीचारे सति पृथक्त्वेन भेदेन अर्थपर्याययोर्वचनयोगयोर्वा श्रुतज्ञानपर्यालोचनेन संक्रान्तिः पृथक्त्ववितर्कवीचारः शुक्लध्यानं भवति । यद्यप्यर्थव्यञ्जनादिसंक्रान्तिरूपतया चलनं वर्तते तथापि इदं ध्यानं । कस्मात् ? एवंविधस्यैवास्य विवक्षितत्वात् । विजातीयाने कविकल्परहितस्य अर्थादिसंक्रमेण चिन्ताप्रबन्धस्यैव एतद्धयानत्वेनेष्टत्वात् । अथवा द्रव्यपर्या Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ षट्प्राभृतेयात्मनो वस्तुन एकत्वात् सामान्यरूपतया व्यञ्जनस्य योगानां चैकीकरणादेकार्थचिन्तानिरोधोऽपि घटते । द्रव्यात्पर्यायं व्यञ्जनाद्वयञ्जनान्तरं योगायोगान्तरं विहाय अन्यत्र चिन्तावृतौ अनेकार्थता न द्रव्यादेः पर्यायादौ प्रवृत्तौ । तथा श्रुतज्ञानेन एकार्थ वितर्कयन्नविचलितचित्तः प्रवृत्तः क्षीणकषाय एकत्ववितर्कवान् भवति । वाङ्मनोयोगं बादरकपाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकोययोगालम्बनोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुर्वेद्यनामगोत्रः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिभाग्भवति । यदा पुनरायुषोऽधिकं बेद्यादित्रितयं तदा दण्डकपाटादिकं चतुःसमयैः कृत्वा पुनस्तावत्समयैः समुपहृत्य समीकृतकर्मचतुष्टयः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । ततोऽ योगिनः समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिव्युपरतक्रियानिवृत्यपरनामकं ध्यानं भवति । तस्मिन् स्थाने स्थितस्य सर्वास्रवनिरोधात् सर्वशेषकर्मविध्वंसनसमर्थं सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्रं साक्षान्मोक्षकारणं संजायते । अन्त्ये शुक्लध्यानद्वये चिन्तानिरोधाभावेऽपि ध्यानव्यवहारः ध्यानकार्यस्य योगापहारस्य अघातिघातस्य चोपचारनिमित्तस्य सद्भावात् । तथा साक्षात्कृतसमस्तवस्तावहति न किंचिद्धयेयमस्ति । ध्यानं तु तत्र असमानकर्मणां समानत्वकरणार्थ या चेष्टा, कर्मसाम्ये तत्क्षययोग्यसमया या अलौकिका मनीषा तदेव सौख्यं मोहक्षयाज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयाच्चात्मनो दर्शनं ज्ञानं च भवति । अन्तरायविनाशादनन्तवीर्य जीवस्य स्यात् । आयुकर्मविध्वंसनाच्चेतनस्य अन्ममरणाभावो भवति । नामकर्मनिर्मूलनानरस्यामूर्तत्वं जायते । नीचोच्चगोत्रवित्रासनात्कुलद्वयविनाशो भवति । वेदनीयकर्मनिर्मूलकाषं कषणात् जीवस्येन्द्रियोत्पन्नसुखाभावः संजायते । १-२ पुस्तकद्वयेऽपि ईगेव पाठः किन्तु कषायस्थाने कायेनेति पाठेन भवितव्यं आगमाविरुद्धत्वात् । कषायानां तत्राभावाच न तेषां हापनं सक्षमीकरणत्वं व सयोगिगुणस्थाने घटते। ३ समीपकृत. क. । ४ ज्ञानावरणक्षयात्. ख.। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं ! २२९ एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यानं । आर्तरौद्रधर्मापेक्षया तु मतिचंचला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनयमुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानं । अत्र संहननलक्षणं यथा यदुदयादस्थिबन्धनविशेषस्तत्संहननं षट्प्रकारं । वज्राकारोभयास्थिमध्ये सवलयबन्धनं सनाराचं वज्रवृषभनाराचसंहननं । तदेव वलयरहितं वज्रनाराचसंहननं । वज्राकारवलयव्यपेतं सनाराचं नाराचसंहननं । एकमस्थि सनाराचं अपरमनाराचं अर्द्धनाराचसंहननं । उभयास्थिप्रान्ते सकीलकं कीलिकासंहननं । अन्तरप्राप्तपरस्परास्थिसन्धिबहिःशिरास्नायुमांसवेष्टितं असंप्राप्तासृपाटिकासंहननं चेति । अष्टसप्ततितम्यां गाथायां वारसविहतवयरणं इत्यस्य पादस्य व्याख्यानं समाप्तं । तेरसकिरियाओ भावि तिविहेण त्रयोदशक्रिया भावय त्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धया पंचनमस्काराः, षडावश्यकानि, चैत्यालयमध्ये प्रविशता निसिही निसिही निसिही इति वास्त्रयं हृद्युच्चार्यते, जिनप्रतिमावन्दनाभक्तिं कृत्वा बहिर्निर्गच्छता भव्यजीवेन असिही असिही असिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यत इति त्रयोदशक्रिया हे भव्य ! त्वं भावय । तथा चोक्तं p निःसंगोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिःपरीत्येत्य भक्त्या स्थित्वा गत्वा निषिद्धयुच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मं । भाले संस्थाप्य बुद्धया मम दुरितहरं कीर्तये शक्रवन्द्यं निन्दादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानुं जिनेन्द्रं ॥ १ ॥ अरे लौंका दुरात्मानो ! यदि भवद्भिर्जिनप्रतिमा चैत्यालयश्च न मान्यते तदेदं वृत्तं पूज्यपादैर्जिनवन्दनाविधिः कथमुक्तः । तेन दुराग्रहं विमुच्यास्तिकत्वं भावनीयं भवद्भिः । अथवा पंचमहाव्रतानि पंचसमितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुण्ड Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० षट्प्राभूतेरीकमुने ! त्वं भावय । धरहि मणमत्तदुरयं विषयकषायान् गच्छन्तं मनोमत्ताद्वरदं मत्तगजं त्वं धर रक्ष । णाणंकुसएण मुणिपवर ज्ञानाकुशेन निष्ठुरमस्तकप्रहारेण हे मुनिप्रवर ! महामुनिमतलिक ! इति शेषः । पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू । भावं भाविय पुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ॥ ७९ ॥ पञ्चविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसंयमं भिक्षो ! । भावं भावयित्वा पूर्व जिनलिङ्गं निर्मलं शुद्धम् ॥ पंचविहचेलचायं पंचविधानि पंचप्रकाराणि चेलानि वस्त्राणि तेषां त्यागः परिहारो यस्मिन् जिनलिंगे जिनमुद्रायां तत्पंचविधचेलत्यागं । उक्तं च गौतमेन गणिना प्रतिक्रमणसूत्रे___“अंडज वा-कोशजं तसरिचीरं (१) वोडजं वा कर्पासवस्त्रं (२) रोमजं वा ऊर्णामयं वस्त्रं एडकोष्ट्रादिरोमवस्त्रं (३) वकजं वा वल्कं वृक्षादित्वम्भंगादिछलिवस्त्रं तट्टादिकं चापि (४) चर्मजं वा मृगचर्मव्याघ्रचर्मचित्रकचर्मगजचर्मादिकं न परिधानीयं (५)" खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू क्षितिशयनं भूमिशयनं तृणकाष्ठशिलास्थंडिलशयनं, द्विविधः संयमो यस्मिन् जिनलिंगे तद्विविधसंयमं । इन्द्रियसयम: पंचेन्द्रियसंकोचो मनः संकोचश्चेति षड्विधः संयमः । प्राणसंयमः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणपंचस्थावररक्षणं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियचतुःप्रकारत्रसजीवरक्षणलक्षणः षविधः प्राणसंयमः । भिक्खू हे भिक्षो! अहो तपस्विन् ! अथवा १ उत्तम. घ.। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २३१ भिक्षाभोजनं कुर्वन् उद्दण्डचर्यायां पर्यटन् भिक्षुर्जिनलिंगमुच्यते । साभिक्षा पंचविधा-अक्षम्रक्षणं, गर्तापूरणं, भ्रामरी, गोचारी, उदराग्निविध्यापनं चेति । भावं भाविय पुव्वं भावं आत्मरूपं भावयित्वा जिनसम्यक्त्वं च भावयित्वा पूर्व जिनलिंगं भवति । जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं जिनलिंगं नग्नरूपमर्हन्मुद्रामयूरपिच्छकमण्डलुसहितं निर्मलं कथ्यते तद्वयरहितं लिंगं कश्मलमित्युच्यते । अन्यत्र तीर्थकरपरमदेवात्तप्त.विना अवधिज्ञानादृते चेत्यर्थः, शुद्धं चर्मजलतैलघृतभूतनाशनास्वादरहितमुद्दण्डय॑मन्तरायमलरहितं शुद्धमित्यभिप्रायः । जहरयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्म भावि भवमहणं ॥८० ॥ यथा रत्नानां प्रवर वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्म भावय भवमथनम् ॥ जह रयणाणं पवरं यथा येन प्रकारेण रत्नानां मध्ये प्रवरं उत्तमं रत्नं किं वजं हीरकं षट्कोणं मौक्तिकगोमेदपुष्परागपुलकप्रवालचन्द्रकान्तरविकान्तजलकान्तहंसगर्भमसारगर्भरुचकपद्मरागेन्द्रनीलमहानीलनीलमरकतवैडूर्यलशुनकर्केतनेत्यादीनां रत्नानां मध्ये वज्र हीरकं हि सर्वोत्तमं तस्य देवाधिष्ठितत्वात् । जह तरुगणाण गोसीरं तरुगणानां मध्ये यथा गोशीर्ष तैलपर्णिकं परमोत्तमचन्दनं प्रवरं । तह धम्माणं पवरं तथा धर्माणां मध्ये जिनधर्म प्रवरं । हे मुने! त्वं भावि भवमहणं भावय रोचय भवमथनं संसारविच्छेदकम् । तं धम्मं केरिसं हवदि तं तहा स धर्मः कीदृशो भवति तद्यथा-तमेव निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्याः-- Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृतें पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं । मोहक्खहविहीण परिणामी अप्पणो धम्मो ॥ ८१ ॥ २३२ पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् । मोक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो धर्मः ॥ : पूयादिसु वयसहियं पूजादिषु व्रतसहितं पूजा आदिर्येषां कर्मणां तानि पूजादीनि तेषु पूजादिषुव्रतसहितं श्रावकत्रतसहितं । पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं पुण्यं स्वर्गसौख्यदायकं कर्म जिनैस्तीर्थकरपरमदेवैरपरकेवलिभिश्च हि स्फुटं शासने आर्हतमते उपासकाध्ययननाम्न्यङ्गे भणितं कर्तृतया प्रतिपादितं इदं कर्म करणीयमित्यादिष्टं । तथा चक्ति जिनसेनपादैः ww पुण्यं जिनेन्द्रचरणार्चनसाध्यमाद्यं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमेतत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥ १ ॥ तथा समन्तभद्रस्वाम्याचार्यैरप्यभिहितं--- देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणं । कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यं ॥ १ ॥ अर्हश्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥ २॥ यदौदं सर्वज्ञवीतरागपूजालक्षणं तीर्थंकर नामगोत्रबन्धकारणं विशिष्टं निर्निदानं पुण्यं पारम्पर्येण मोक्षकारणं गृहस्थानां श्रीमद्भिर्भणितं तर्हि साक्षान्मोक्षहेतुभूतो धर्मः क इत्याह- मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणी धम्मो मोहः पुत्रकलत्रमित्रघनादिषु ममेदमिति भावः, क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलनं ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभ - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २३३ विहीन एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्धैकस्वभावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानन्दरूपः परिणामो धर्म इत्युच्यते । स परिणामो गृहस्थानां न भवति पंचसूनासहितत्वात् । तथा चोक्तं- खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभः प्रमार्जनी | पंचसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥ १ ॥ यदि मोक्षं न गच्छति तदा जिनसम्यक्त्वपूर्वकं दानपूजादिलक्षणं विशिष्टगुणमुपार्जन् गृहस्थः स्वर्गं गच्छति परंपरया जिनलिंगेन मोक्षमपि प्राप्नोति । इति पुण्यधर्मयोः स्वरूपमुक्त्वेदानीं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं कर्मक्षयकारणं कथयन्ति भगवन्तः सहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि । पुण्णं भोयनिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयनिमित्तं ॥ ८२ ॥ श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति । पुण्यं भोगनिमित्तं न हु तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ॥ सहदि य श्रद्दधाति च तत्र विपरीताभिनिवेशरहितो भवति । पत्तेदि य प्रत्येति च मोक्षहेतुभूतत्वेन यथावत्तत्प्रतिपद्यते । रोचेदि य रोचते च मोक्षकारणतया तत्रैव रुचि करोति । तह पुणो वि फासेदि मोक्षार्थित्वात्तत्साधनतया स्पृशति अवगाहयति । पुण्णं भोयनिमित्तं एतत्पूजादिलक्षणं पुण्यं मोक्षार्थितया क्रियमाणं साक्षाद्भोगकारणं स्वर्गस्त्रीणामालिंगनादिकारणं तृतीयादिभवे मोक्षकारणं निग्रन्थलिंगेन । ण हु सो कम्मक्खयनिमित्तं न भवति हु- स्फुटं निश्चयेन साक्षात्तद्भवे गृहस्थलिंगेन कर्मक्षयनिमित्तं तद्भवे केवलज्ञानपूर्वकमोक्षनिमित्तं पुण्यं न भवतीति ज्ञातव्यं । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते अप्पा अप्पम्म रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो । संसारतरणहेतुं धम्मोति जिणेहिं णिहिं ॥ ८३॥ आत्मा आत्मनिरतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः । संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टः ॥ अप्पा अप्पम्म र आत्मा अत सातत्यगमने अतत्यूर्ध्वं व्रज्या - स्वभावेोर्ध्वमेव गच्छतीत्यात्मा शुद्धबुद्वैकस्वभाव आत्मनिरतो निजशुद्धबुद्वैकस्वभावे एकलोली भावभूतः । रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो रागादिषु रागादिभ्यः सकलदोषपरित्यक्तः रागद्वेषमोहलोभादिसकलदोपरहित इत्यर्थः । संसारतरणहेदुं संसारस्य तरणहेतुः कारणभूतः । धम्मोति जिणेहि णिद्दिहं धर्म इति जिनैर्निर्दिष्टं प्रतिपादितं जिनपूजादिकं पुण्यमिति शेषः । तेन कारणेन जिनपूजादिषु द्वेषो न कर्तव्यः । उक्तं च योगीन्द्रदेवैः -- २३४ देवहं सत्यहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ | नियामें पाउ हवे तसु जे संसारु भमेइ ॥ १ ॥ अस्य दोहकस्यायं भावः - देवशास्त्रगुरूणां प्रतिमासु निषेधिकादिषु च पुष्पादिभिः पुजादिषु च लौंका द्वेषं कुर्वन्ति तेषां पापं भवति तेन पापेन ते नरकादौ पतन्तीति ज्ञातव्यं । अह पुण अप्पा पिच्छदि पुण्णाई करेदि निरवसेसाई । तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्यो पुणो भणिदो ॥ ८४ ॥ अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषाणि । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनर्भणितः || अह पुण अप्पा णिच्छदि अथ पुनरात्मानं नेच्छति न भावयति । पुण्णाई करेदि निरवसेसाई पुण्यानि करोति निरवशेषाणि पूजादाना१ देवेभ्यः शास्त्रेभ्यः सुनिवरेभ्यः यो विद्वेषं करोति । नियमेन पापं भवति तस्य येन संसारे भ्राम्यति ॥ १ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २३५ दीनि सर्वाणि भोगाकांक्षानिदानख्यातिपूजालाभादिकमभिलाषुकतया करोति विदधाति परं जिनसम्यक्त्वेनान्त: शून्यो निर्विवेकः बहिरात्मा जीवः । तह वि ण पावदि सिद्धिं तथापि नानापुण्यानि कुर्वन्नपि जीवो न प्राप्नोति न लभते, कां ? सिद्धिं आत्मोपलब्धिलक्षणां मुक्तिमिति-जिनसम्यक्त्वरहितो दूरभव्योऽभव्यो वा स ज्ञातव्य इत्यर्थः । यदि सिद्धिं न प्राप्नोति तर्हि कीदृशो भवति ? संसारत्थो पुणो भणिदो संसारस्थोऽनन्तसंसारी पुनर्भणित आगमे प्रतिपादितः । एएण कारणेण य त अप्पां सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ॥ ८५ ।। __ एतेन कारणेन च तमात्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ एएण कारणेण य एतेन कारणेन चात्मनो मोक्षहेतुत्वेन । तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण तमात्मानं श्रद्धत्त तत्र विपरीताभिनिवेशरहिता भवत यूयं त्रिविधेन मनोवचनकाययोगप्रकारेण । जेण य लहेह मोक्खं येन च कारणेनात्मश्रद्धानहेतुना लभवं मोक्षं सर्वकर्मप्रक्षयलक्षणं मोक्ष प्राप्तुत यूयं । तं जाणिजह पयत्तेण तमात्मानं जानीत ज्ञानगुणेन भेदज्ञानेन बुध्यध्वं यूयं, प्रयत्नेन चारित्रगुणेनैकलोलीभावतया तत्र तिष्ठत यूयं । मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महानरयं । इय गाउं अप्पाणं भावह जिणभावणा णिचं ॥ ८६ ॥ मत्स्योपि शालिसिक्थोऽशुद्धभावो गतः महानरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम् ॥ मच्छो वि सालिसित्थो मत्स्योऽपि मीनजातिरल्पजीवः तन्दुल सिक्थप्रमाणशरीरत्वान्नाम्ना शालिसिक्थः । असुद्धभावो गओ महा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ षट्प्राभृते नरयं अशुद्धभावः सन् गतः प्राप्तः महानरकं सप्तमं नरकं गतः । इय गाउं अप्पाणं इति ज्ञात्वात्मानं शुद्धबुद्वैकस्वभावरूपं टंको कर्णस्फटिकबिंबोपमं चिच्चमत्कारलक्षणं मुक्तिगत सिद्धसमानं शुद्धनिश्चयनयेन सिद्धं ज्ञापकैकस्वभावं हे जीव ! हे आत्मन् ! | भावहि जिणभावणा णिच्चं भावय त्वं भावनाविषयं कुरु इयं जिनभावनेति ज्ञात्वा, अथवा जिनभावना जीवादिसप्ततत्वश्रद्धानं च नित्यं सर्वकालं भावय रोचस्व तस्मादिति अपध्यानं परिहृत्य अन्तस्तत्वं बहिस्तत्वं चाश्रयेति भावार्थ: : । किं तदपध्यानं ? वधबन्धच्छेदादे रागाद्वेषाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥ १ ॥ " पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनं ॥ " इति पद्योक्तं चतुर्विधं ध्यानं भावय हे जीव ! । अथ शालिसिक्थैमत्स्यकथा यथा - श्री पुष्पदन्त जिनजन्मभूमौ काकन्दीपुरे श्रावककुलजन्मा सौरसेनो राजा बभूव । सकलधर्मानुरोधेन मांसव्रतं जग्राह । पुनर्वेदवैद्यरुद्रमतमोहितमतिः मांसभक्षणमतिः संजातः, अङ्गीकृतवस्तुनिर्वाहनकारणाल्लोकापवादाच्च मांसं जुगुप्समानः मनोविश्रामहेतुं कर्मप्रियनामकेतुं सूपकारं स्वाद्वयैकान्ते निजाभिलाषं तमजिज्ञपत् । बिटचर -स्थलचर- जलचरजीवानां मांसमानाययन्नपि अनेकराजकार्याकुलचित्ततया मांसभक्षणावसरं न प्राप । कर्मप्रियोऽपि नृपादेशं अहर्निशं कुर्वनेकदा सर्पबालकेन दृष्टो मृतः स्वयंभूरमणसमुद्रे महामत्स्यो बभूव । भूपः सौरसेनोऽपि चिरकालेन मृत्वा मांसभक्षणाशयानुबन्धा १ द्वेषाद्रागाच्चेति पाठान्तरमन्यत्र । २ क्त. टी. । - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ AnA AnnnnnnnnnnnnAMAN भावप्राभृतं । त्तस्मिन्नेव समुद्रे तस्यैव महामत्स्यस्य कर्णबिलमलाशनशीलः शालिसिक्थप्रमाणशरीरो मत्स्यो बभूव । तदन्वेष पर्याप्तद्रव्यभावेन्द्रियः तस्य महामत्स्यस्य मुखं व्यादाय निद्रायतो वेलानदीप्रवाहे इव गलगुहानेकजलचरसमूहं प्रविश्य निष्क्रामन्तं निरीक्ष्य शालिसिक्थश्चिन्तयति-भयं पापकर्मा महामत्स्यो निर्भाग्यो यन्मुखे पतन्त्यपि यादांसि भक्षित्तुं न शक्नोति । मम देवेनैतावच्छरीरं यदि भवति तदा सकलमपि समुद्र सत्वसंचाररहितं करोमीति चेतश्चिन्ताबलात्क्षुद्रमत्स्यो निखिलनक्रचक्रभक्षणपापाच्च महामत्स्योऽपि द्वावपि मृत्वा सप्तमनरके संजातौ । ततस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुषौ तौ द्वावपि परस्परमालापं चक्रतुः। अहो क्षुद्रमत्स्य ! महापापकर्मणो ममात्रागमनं संगच्छत एव । त्वं तु मत्कर्णमलाजीवनः कथमत्रागतः । शालिसिक्थचरनारकः प्राह-महामत्स्यचेष्टितादपि दुरन्तदुःखं ( ख ) संबन्धनादुर्भावनावशात् । इति श्रीभावप्राभते शालिसिक्थमत्स्योपाख्यानं समाप्तं । बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो निरत्थओ भावरहियाणं ॥ ८७॥ बाह्यसङ्गत्यागः गिरिसरिद्दरीकन्दरादावासः । सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम् ॥ बाहिरसंगचाओ बाह्यसंगत्यागः निरर्थक इति सम्बन्धः । गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो गिर आवासः पर्वतोपरि आतापनयोगः पर्वते स्थितिर्वा, सरित्-नदीतटे तपश्चरणं भगीरथवत् , दरी गुहायामावासः, कन्दरो गिर्यादिविवरं तत्रावासः, आदिशब्दात् श्मशानोद्यानादौ आवासः स्थितिः। सयलो णाणज्झयणो सकलं वाचनापृच्छनानुप्रेक्षा. म्नायधर्मोपदेशलक्षणं ज्ञानाध्ययनं शास्त्रपठनं । निरत्थओ भावरहि. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ षट्प्राभृतेयाणं भावरहितानां जिनसम्यक्त्वविवर्जितानां निजशुद्धबुद्धकस्वभावा. त्मभावनाऽग्रच्युतानां यतीनां (निरर्थक)। उक्तं च बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वभावतः सन्ति। यः पुनरन्तःसंगत्यागी लोके स दुर्लभो जीवः ॥१॥ भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमकडं पयत्तेण । मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ॥ ८८ ।। भङग्धि इन्द्रियसेनां भङ्ग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन । मा जनरञ्जनकरणं बहिर्वतवेष ! त्वं कार्षीः ॥ भंजसु इंदियसेणं त्वं भंग्धि, कां ? इन्द्रियसेनां । भंजसु मणमकडं पयत्तेण भंजसु-त्वं भंग्धि आमर्दय विषयकषायेभ्यो गच्छन्तं निरुणद्धि, कं ? मणमक्कडं-मनोमर्कटं चपलस्वभावत्वान्मन एव मकर्टस्तं मनोवानरं प्रयत्नेन स्त्रीसंगपरित्यागात् । मा जणरंजणकरणं मा-नैव जनानां लोकानां रंजनकरणं अनुरागोत्पादकं कार्य । हे बाहिरवयवेस बहिर्बतवेष ! हे बाह्याकारदीक्षाचिह्नोद्वाहक !। तं त्वं । मा कुणसु मा कार्षीः । णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए। चेइयपवयणगुरुणं करेहिं भत्तिं जिणाणाए ॥ ८९ ॥ नवनोकषायवर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धया। चैत्यप्रवचनगुरूणां कुरु भक्ति जिनाज्ञया ॥ णवणोकसायवग्गं नवनोकषायवर्ग हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुसंकवेदलक्षणान् नोकषायान् ईषत्कषायान् यथाख्यातचारित्रघातकान् । चयसु त्यजेति संबन्धः। तथा मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए मिथ्यात्वं पंचप्रकारं चयसु-त्यज Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २३९ एयंत बुद्धदरिसी विवरीओ बंभ तावसो विणओ। इंदो वि य संसयिदो मक्कडिओ चेव अण्णाणी ॥१॥ एकान्तेन क्षणिकैकान्तेन मोक्षं बौद्धो वदति । विपरीतेन हिंसया मोक्षं बंभ-ब्राह्मणो वदति। तापसो विनयेन मोक्षं वदति । इन्द्र इन्द्रचन्द्रनागेन्द्रगच्छः संशयेन मोक्षं मन्यते । अपिचशब्दाद्गोपुच्छिको द्राविडो यापनीयाभिधो निष्पिच्छश्च संशयमोक्षो ज्ञातव्यः । मस्करपूरणो मार्कटिकोऽज्ञानान्मोक्षं मन्यते । एतन्महापातकं मिथ्यात्वपंचकं चयसु-त्यज हे जीव ! त्वं । तथा च समन्तभद्रः प्राह न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥१॥ भावसुद्धीए-तत्वार्थश्रद्धानलक्षणया भावशुद्धया जिनसम्यक्त्वेन लौंकपापसंभाषणसंगमपरिहारेण शुद्धबुद्धकस्वभावात्मरुचिपरिणामेनेति भावार्थः । चेइयपवयणगुरुणं चैत्यानां अर्हत्सिद्धप्रभृतिप्रतिमानां प्रवचनस्य जिननाथसूत्रस्य तथेति मस्तकोपर्यारोपणेन सरस्वतीप्रतिमापूजनेन गुरूणां निर्ग्रन्थदिगम्बराणां भव्यजीवभक्तजनविनेयमातृपितृसदृशहितोपदेशकानां । करेहिं भत्तिं जिणाणाए कुरु त्वं भक्तिं पंचामृतजलेक्षुरसहैयंगवीनगोमहिषीक्षीरगन्धोदककलशस्नपनेन जलचन्दनाक्षतपुष्पचरुदीपधूपफलार्धदानेन स्तवनेन जपेन ध्यानेन श्रृतदेवताराधनेन नित्यं प्रातरुत्थाय सर्वज्ञवीतरागप्रतिमासर्वाङ्गावलोकने भक्तिं कुरु, तथा श्रुतभक्तिं श्रुतोक्तप्रकारेण कुरु, तथा गुरूणां पादमर्दनेन वैयावृत्ययथासंभवाहारदानश्रुतसमर्पणौषधप्रदानवसत्यर्पणाभयदानादिभिर्यथायोग्यं भक्तिं कुरु । एतत्सर्व भक्तिलक्षणं कर्म जिनाज्ञया महापुराणश्रवणेने त्व कुरु हे जीव ! स्वर्ग मोक्षं च प्राप्स्यसि । लौंकानां महापाताकनां वचन मा मानवस्व । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० षट्प्राभूतेतित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म । भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ॥९०।। तीर्थंकरभाषितार्थ गणधरदेवैः ग्रन्थितं सम्यक् । भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ॥ तित्थयरभासियत्थं तीर्थकरेण श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागेण भाषितः कथितोऽर्थो यस्य श्रुतज्ञानस्य तत्तीर्थकरभाषितार्थ । गणहरदे. वेहिं गंथियं सम्म गणधरदेवैर्गौतमस्वाम्यादिभिर्ग्रन्थितं द्वादशाधिकशतकोटित्र्यशीतिलक्षाष्टापंचाशत्सहस्रपंचाधिकपदैरानीतमिति प्रन्थितं । चतुर्दशप्रकीर्णकैरप्यानीतं श्रुतज्ञानं । सम्मं सम्यक्प्रकारेण पूर्वापरविरोधरहितं । भावहि भावय । अणुदिणु अनुदिनमहर्निशं । अतुलं अनुपमं । विसुद्धभावेण सुयणाणं चलमलिनपरिणामरहिततया। एकस्य पदस्य श्लोका यथा-५१०८८४६२१ अक्षर १६ । उक्तं च श्रुतस्कन्धशास्त्रे एक्कावनकोडीओ लक्खा अहेव सहसचुलसीदी। सयछकं णायव्वं सड्ढाइगवीसपयगंथा ॥१॥ पाऊण णाणसलिलं निम्महतिसडाहसोसउम्मुका। होति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥९॥ प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ताः । भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥ पाऊण णाणसलिलं प्राप्य लध्वा, किं ? ज्ञानसलिलं सम्यग्ज्ञानपानीयं सिद्धा भवन्तीति सम्बन्धः । कथंभूताः सिद्धाः, निम्महतिसडाहसोसउमुक्का निर्मथ्या मथयितुमशक्या स चासौ तृषा विषयाभिलाषः दाहश्च शरीरपरिसन्तापः शोषश्च रसादिहानिः निर्मथतृषादाहशोषाः तैरु १ एकपंचाशत्कोट्यः लक्षा अष्टावेव सहस्रचतुरशीतिः । शतषट्रकं ज्ञातव्यं साधैकविंशतिपदग्रन्था ॥१॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । न्मुक्ताः परित्यक्ता निर्मथतृड्दाहशोषोन्मुक्ताः । निम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता इति च क्वचित्पाठः तत्रायमर्थः - निर्मलो द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितः योऽसौ सुविशुद्धभावः कर्ममलकलङ्करहितः क्षायिको भावः परिणामः निष्केवल आत्मा वा तेन संयुक्ताः सहिता निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । होंति सिवालयवासी भवन्ति संजायन्ते, के ते ? आसन्नभव्यजीवाः कीदृशाः संजायन्ते शिवालयवासिन ईषत्प्राग्भारनाम्न्यां शिलायां वसन्तीति मुक्तिशिलोपरि तिष्ठन्तीत्येवं शीलाः शिवालयवासिनः, अथवा शिवानां सिद्धानामालय: शिवालयः पंचचत्वारिंशलक्षयोजनविस्तार मुक्तिशिलाया' उपरि तनुवातनामवातवलये निराधारा आकाशे तिष्ठन्तीतिभावः । पुनः कथंभूताः सिद्धाः, तिहुर्वणचूडामणी त्रैलोक्यशिरोरत्नसदृशाः । " २४१ दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल कारण । सुत्तेण अप्पमत्ता संजमधादं पमोत्तूण ॥ ९२ ॥ दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने ! सकलकालं कायेन । सूत्रेण अप्रमत्ताः संयमघातं प्रमुच्य ॥ दस दस दो दश च पुनर्दश च द्वौ च द्वाविंशतिरित्यर्थः । के ते, सुपरीसह सुष्ठुअतिशयेन परिसमन्तात् सह्यन्ते ये ते सुपरीषहा: "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः " ते तु पूर्वोक्तवर्णना ज्ञातव्याः । सहहि सहस्व । मुणी हे मुने ! ही तपस्विन् ! | सयलकाल सकलकालं सर्वकालं, कायेन शरीरेण वाग्मनश्चात्मनि स्थाप्यते इति भावः । सुत्तेण सूत्रेण जिनवचनेन कृत्वा । किं तज्जिनवचनं : १ न केवल इति. ख. । २ य. टी. । ३ दस दस दो सुपरीसह सहंति. ख. । ४ इले. क. षट्० १६ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ षट्प्राभृते"मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिसोढव्याः परीषहाः" इति । अप्पमत्ता अप्रमत्ताः प्रमादरहिताः इत्यर्थः । संजमघादं पमोत्तूण संयमस्य घातं प्रमुच्य । जह पत्थरो ण भिज्जइ परिडिओ दीहकालमुदएण। तह साहू ण विभिज्जइ उवसग्गपरीसहेहितो ॥ ९३ ॥ ___ यथा प्रस्तरो न भिद्यते परिस्थितो दीर्घकालं उदकेन । तथा साधुर्न विभिद्यते उपसर्गपरीषहेभ्यः ॥ जह पत्थरो ण भिजइ यथा प्रस्तरः पाषाणो न विभिद्यते न परिणमति अन्तरार्दो न भवति । परिहिओ दीहकालमुदएण पाषणः कथंभूतः, परिस्थितः बुडित उदके इति सौत्रसम्बन्धात् । कथं परिस्थितः, दीर्घकालं प्रचुरकालं, केन न विभिद्यते ? उदकेन वारिणा । तह साहू ण विभिज्जइ तथा साधुर्मुनी रत्नत्रयसाधकः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमण्डितो न विभिद्यते नान्तःक्षुभितो भवति । उवसग्गपरीसहेहिंतो देवमानवतिर्यगचेतनोपद्रवेभ्य उपसर्गेभ्यः परीपहेभ्यः क्षुधापिपासादिभ्यो द्वाविंशतेरपि। “सुन्तो हिन्तो हि दु दो त्तो भ्यसः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण पंचमीबहुक्चनभ्यसः स्थाने हिंतो आदेशः । ङसिस्थाने च “ लुक्च हितो हि दु दो तो उसेः" इति सूत्रेण भवति । " व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणं" इति परिभाषयाऽत्र बहुवचनस्य भ्यसो हिन्तो आदेशो ज्ञातव्य इति । भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि । भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥ ९४॥ १" सीवूसहोऽङेऽसोः " इति शाकटायनीयेन " सोढः" इति जैनेन्द्रीयेण पाणिनीयेन च सूत्रेण षत्वनिषेधः । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ vvvv wwwwwwwwwwwww भावप्राभृतं । भावय अनुप्रेक्षा अपराः पञ्चविंशतिभावना भावय । भावरहितेन किं पुनः बहिर्लिङ्गेन कार्यम् ॥ भावहि अणुवेक्खाओ भावय पुनः पुनश्चिन्तय अनुप्रेक्षा अनित्यादीः । अवरे पणवीसभावणा भावि अपराः पंचविंशतिभावना भावय । भावरहिएण किं पुण भावरहितेन पुनः किं-न किमपि इत्याक्षेपः । बाहिरलिंगेण काय बहिलिगेन नग्नवेषेण किं साध्य कर्मक्षयशून्यमिदं । सव्वविरओ वि भावहि णवयपयत्थाई सत्ततच्चाई। जीवसमासीई मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥९५ ॥ सर्वविरतोपि भावय नवकपदार्थान् सप्ततत्वानि । जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि । सव्वविरओ वि भावहि सर्वविरतोऽपि हे जीव ! त्वं महाव्रत्यपि सन् भावय । णवयपयत्थाई सत्ततच्चाई नवपदार्थान् जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापपदार्थान् । चेतनालक्षणो जीवः । पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशा अजीवाः । आत्मप्रदेशेषु कर्मपरमाणव आगच्छन्ति स आस्रवो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपः । आत्मप्रदेशेषु आस्रवानन्तरं द्वितीयसमये कर्मपरमाणवः श्लिष्यन्ति स बन्धः प्रकृतिस्थित्युनु. भागप्रदेशभेदाच्चतुर्विधः । आस्रवस्य निरोधः संवर उच्यते । स संवरः सं गुप्तिसमितिदशधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैर्भवति । तपसा निर्जरा च भवति संवरश्च भवति । सर्वकर्मक्षयो मोक्षः कथ्यते। ऐते नवपदार्थाः, एतेषां विस्तर आगमाद्वेदितव्यः । सप्ततत्वानि पुण्यपापरहितानि ज्ञातव्यानि । १ पुस्तकद्वयेऽपि सशब्दो वर्तते । २ पुस्तकद्वयेऽपि पुण्यपापयोर्लक्षणं नास्ति तदनेन प्रकारेण ज्ञेयं । पुनात्यात्मानं तत्पुण्यं । पाति रक्षति शुभादात्मानं तत्पापं । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ षट्प्राभूतेजीवसमासाई मुणी हे मुने ! जीवसमासान् चतुर्दशसंख्यान् त्वं भावय । अथ के ते चतुर्दशजीवसमासा इति चेत् ? बांदरसुहमगिदिय वितिच उरिदिय असाण सण्णी य । पज्जत्तापजत्ता भूदा इय चोइसा होति ॥ १॥ विस्तरभेदैर्जीवसमासा अष्टानवतिर्भवन्ति । तत्रेयं गाथा-- थावर वेयालीसा दो सुर दो नरय तिरिय चउतीसा। नव विउले नव मणुए अडणउदी जीवठाणाणि ॥१॥ अस्या विवरणं-पृथ्वीकायिकसूक्ष्म बादर पर्याप्त-अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ६। तथा अप ६ । तेज ६ । वायु ६ । एवं २४। वनस्पतिकायिकभेद २ प्रत्येक साधारण । साधारणभेद १२ नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर-पर्याप्तअपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ६ तथा इतरनिगोद-सूक्ष्म-बादर-पर्याप्त-अपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्त ६ एवं १२ । प्रत्येकभेद ६ सुप्रतिष्ठितप्रत्येक वाटिकादौ, अप्रतिष्ठिताः स्वयमेव ते च पर्याप्त-अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त । एवं थावखेयालीसा । सुरभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । नारकभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । पंचेन्द्रियतिर्यग्भेद ३४ । जलचरभेद २ गर्भज-सन्मूर्च्छन। गर्भजभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । सम्मूर्छनभेद पर्याप्त-अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त ५। तथा नभश्चर ५। स्थलचर ५। एवं १५ संज्ञिभेदाः । तथा १५ असंशिभेदाः । भोगभूमिनतिर्यग्भेद ४ जलचर पर्याप्त-अपर्याप्त । नभश्चर पर्याप्त-अपर्याप्त। एवं ४ । एवं पंचेन्द्रियतिर्यग्भेद ३४ । विकलत्रयेभद ९। द्वान्द्रियपर्याप्त-अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त, त्रीन्द्रियपर्याप्त-अपर्याप्तलब्ब्यपर्याप्त, चतुरिन्द्रियपर्याप्त-अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त । एवं ९। मनुष्य १ बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासज्ञिसंज्ञिनः । पर्याप्तापर्याप्ता भूता इति चतुदर्श भवन्ति ॥ १॥ २ विवरणमिदं पुस्तकानुसारि । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ भावप्राभृतं । भेद ९ भोगभूमिजभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त, कुभोगभूमिजमनुष्य पर्याप्तअपर्याप्त, म्लेच्छखण्डमनुष्य पर्याप्त-अपर्याप्त, आर्यखण्डमनुष्य पर्याप्तअपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त । एवं भेद ९ । एवं जीवसमासा अष्टानवतिः । चउदसगुणठाणामाई चतुर्दशगुणस्थाननामानि । यथा मिच्छा सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इयरो अपुव्व आणियहि सुहमो य ॥१॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य । चउदसगुणठाणाणि य कमेण सिद्धा मुणेअव्वा ॥२॥ मिथ्यात्वगुणस्थानं (१) सासादनगुणस्थानं (२) मिश्रगुणस्थानं (३) अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं (४) देशविरतगुणस्थानं (५) प्रमत्तसंयतगुणस्थानं (६) अप्रमत्तसंयतगुणस्थानं (७) अपूर्वकरणगुणस्थानं (८) अनिवृत्तिकरणगुणस्थानं (९) सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानं (१०) उपशान्तकषायगुणस्थानं (११) क्षीणकषायगुणस्थानं (१२) सयोगकेवलिगुणस्थानं (१३) अयोगकेवलिगुणस्थानं (१४) चेति । चतुर्दशगुणस्थानानां विवरणमागमाद्वेदितव्यं । तानि त्वं हे जीव ! भावय-रुचिमानय-श्रद्धानं कुर्विति । णवविहभं पयडहि अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण । मेहुणसण्णासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ॥ ९६ ॥ नवविधब्रम्हचर्य प्रकटय अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य । मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोसि भवार्णवे भीमे ॥ णवविहभं पयडहि नवविधं नवप्रकारं ब्रह्मचर्य हे जीव ! त्वं प्रकटय सर्वकालमात्मप्रत्यक्षं कुरु । मनोवचनकायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमतानि त्रीणि त्रीणीति नवविधं ब्रह्मोच्यते । अथवा १ अनयोः छाया पूर्वं गता। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ षट्याभृतेइंस्थिविसयाहिलासो अंगविमोक्खो य पणिदरससेवा। संसत्तदव्वसेवा तहिंदियालोयणं चेव ॥१॥ सक्कारपुरक्कारो अतीदसुमरणमणागदहिलासो। इट्टविसयसेवा वि य नवभेदमिदं अबंभं तु ॥२॥ इति नवभेदमब्रह्म तद्वर्जनं नवभेदं ब्रह्मचर्य ज्ञातव्यमित्यर्थः। अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण अब्रह्मचर्य दशविधं प्रमुच्य परिहृत्य । किं तद्दशविधमब्रह्मेति चेत् ?– चिन्ता दिदृक्षा निःश्वासो ज्वरो दाहो रुचिस्तथा । मूर्टोन्मत्तोऽसुसन्देहो मरणं दशधा स्मरः ॥ १॥ मेहुणसण्णासत्तो मैथुनस्य कमनीयकामिन्या आलिङ्गनचुम्बनचूषणादिसंज्ञायामासक्तो लंपटो हे जीव !। भमिओसि भवण्णवे भीमे भ्रमितोऽसि भ्रान्तोऽसि पर्यटितोऽसि च्छेदनभेदनादिदुःखानि भुंजानो भवार्णवे संसारसमुद्रे चतुर्गतिलक्षणे भीमे भयानके रौद्रस्वभावे, अनन्तकालं दुःखी बभूविथेति । भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाचउक्कं च ।। भावरहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे ॥९७ ॥ भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति अराधनाचतुष्कं च । भावरहितश्च मुनिवर ! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ॥ भावसहिदो य मुणिणो भावेन जिनसम्यक्त्वलक्षणेन सहिदोसहितः संहित: संयुक्तः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागचरणकमलचंचरीकः, अथवा भावः पूर्वोक्तलक्षणः स्वः शुद्धबुद्धकस्वभाव आत्मा हितो यस्य , स्त्रीविषयाभिलाषः अंगविमोक्षश्च प्रणीतरससेवा । संसक्तद्रव्यसेवा तथेन्द्रियालोकनं चैव ॥१॥ सत्कारपुरस्कारः अतीतस्मरणं अनागताभिलाषः । इष्टविषयसेवापि च नवभेदमिदमब्रह्म तु ॥ २॥ - - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २४७ यस्मै वा स भावस (स्व) हितः । चकाराने मुनिरन्येषामपि भव्यजीवानां हित: त्रैलोक्यलोकतारणसमर्थत्वात् । यो भावसहितः स पुमान् मुणिणो - मुनीनामिन: स्वामी मुनीनः स मुनिर्मुनिचक्रवर्ती | पावइ आराहणाचउक्कं च प्राप्नोति लभते, किं तत् ? आराधनाचतुष्कं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामाराधकत्वं प्राप्नोति । भावरहिदो य मुणिवर भावरहितश्च जिनसम्यक्त्वातीतो वेषधारी मुनिः हे मुनिवर ! हे मुनिश्रेष्ठ ! | भ्रम भ्राम्यति पर्यटति । चिरं दीर्घकालं अनन्तकाल - यावत्कालं सिद्धस्वामिनो मुक्तौ तिष्ठन्ति तावत्पर्यन्तं स मिध्यादृष्टिर्मुनिभ्रमति । क ? दीहसंसारे दीर्घसंसारेऽनन्तभव संकटे संसारसमुद्रे मज्जनोमज्जनं करोतीति भावार्थः । / पार्वति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई । दुक्खाई दव्वसवणा नरतिरियकुदेवजोणीए ॥ ९८ ॥ प्राप्नुवन्ति भावश्रवणाः कल्याणपरम्पराणि सुखानि । दुःखानि द्रव्यश्रवणा नरतिर्यककुदेवयोनौ || पावंति भावसवणा प्राप्नुवन्ति लभन्ते, के ते ? भावश्रवणाः सम्यग्दृष्टयो दिगम्बराः । कल्लाणपरंपराई सोक्खाई कल्याणानां गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणलक्षणा ( नां) परंपरा श्रेणिर्येषु सौख्येषु तानि कल्याणपरंपराणि एवंविधानि सौख्यानि भावश्रवणाः प्राप्नुवन्ति तीर्थकरपरमदेवा भवन्ति । दुक्खाई दव्वसवणा दुःखानि प्राप्नुवन्ति, के ते ? दव्वसवणा- द्रव्यश्रवणा जिनसम्यक्त्वरहिता नग्नाः पशुसमानाः दिगम्बरा इति भावार्थः । क दुःखानि द्रव्यश्रवणाः प्राप्नुवन्तीति चेत् ? नरतिरियकुदेवजोणीए नराश्च मनुष्याः, तिर्यचश्च पशवः, कुत्सिता देवाश्च भावनामरा व्यन्तरा ज्योतिष्काश्च तेषां योनौ उत्पत्तिस्थाने । १ चकारात् न गुर्नर० इत्यादि ख. पाठः । पुस्तकद्वयेऽपि नकारो वर्तते स च शल्यति । - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ षट्प्राभूतेछायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण । पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥ ९९॥ षट्चत्वारिंशदोषदूषितमशनं ग्रसित्वाऽशुद्धभावेन । प्राप्तोसि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ॥ छायालदोसदसियं षट्चत्वारिंशद्दोषैर्दूषितं मलिनीकृतं । असणं गसिउं असुद्धभावेण अशनं पिण्डं प्रसित्वा अशुद्धभावेन मिथ्यादृष्टिपरिणामेन ख्यातिपूजालाभकश्मलिना परिणामेन । पत्तोसि महावसणं प्राप्तोऽसि हे जीव ! महाव्यसनं महादुःखं । कस्यां ? तिरियगईए अणप्पवसो तिर्यग्गत्यामनात्मवशो जिव्होपस्थादिषडिन्द्रियपराधीन इति भावः । अथ के ते षट्चत्वारिंशदशनदोषा अशनस्येति चेत् ? षोडशसंख्या उद्गमदोषाः, तथा षोडशोत्पादनदोषाः, दशविधा एषणादोषाः, संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमदोषाश्चत्वार इति षट्चत्वारिंशदशनदोषाः । प्राणिनः प्राणव्यपरोप आरम्भ उच्यते (१) प्राणिन उपद्रवणं उपद्रवः कथ्यते (२) प्राणिनोऽङ्गच्छेदादिविद्रावणमभिधीयते (३) प्राणिनः सन्तापकरणं परितापनं व्याव्हियते (४) एतैश्चतुर्भिर्दोषैनिष्पन्नमन्नमतिनिन्दितमधःकर्म प्रतिपाद्यते । तदधःकर्म मनोवचनकायानां त्रयाणां प्रत्येकं कृतकारितानुमतभेदैर्नवविधं भवति । तेनाधःकर्मणा रहिता उद्गमाख्यषोडशदोषैर्वर्जिता उत्पादनषोडशदोषैः परित्यक्ता एषणादशदोषैः परिहृता संयोजनप्रमाणाङ्गारधूमनामभिश्चतुर्भिदोषैरुज्झिता ज्ञानाभ्यासध्यानधर्मोपदेशमोक्षप्राप्त्यादिकारणोपेता एषणासमितिप्रोक्तक्रमप्राप्ताशनसेवा भिक्षाशुद्धिर्गुणसमूहरक्षादक्षा वेदितव्या। तस्यां उद्दिष्टादयः षोडशदोषा वर्जनीयाः । ते के ? तन्नामनिर्देश: ___ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । क्रियते । उद्दिष्टः (१) अध्यवधिः (२) पूति (३) मिश्रं ( ४ ) स्थापितं (५) बलिः (६) प्राभतं (७) प्राविष्कृतं (८) क्रीतं (९) प्रामृष्यः (१०) परिवर्त्तः (११) अभिहतं (१२) उद्भिन्नं (१३) मालिकारोहणं (१४) आच्छेद्यं (१५) अनिसृष्टं (१६) चेति षोडशोद्गमदोषाः । अथोद्दिष्टादीनां षोडशानामर्थविशेष उच्यतेयदन्नं स्वमुद्दिश्य निष्पन्नं तदुद्दिष्टं, अथवा संयतानुदिश्य निष्पन्नं, अथवा पाषंडिन उद्दिश्य निष्पन्नं, अथवा दुर्बलानुद्दिश्य निष्पन्नं तदन्नमुद्दिष्ट-- मुच्यते । प्रगता असवः प्राणा यस्मात्तत्प्रासुकं चर्मजलादिभिरस्पृष्टमप्यन्नमात्मार्थ कृतं तत्संयतैर्न सेव्यं । अत्र दृष्टान्तः यथा मदनोदके मत्स्यनिमितं कृते मत्स्या एव माद्यन्ति न तु दुर्दुरा भेका माद्यन्ति तथा यतिरपि दोषसहितमन्नमुद्दिष्टं न सेवते (१) अथाध्यवधिर्नाम दोषो द्वितीय उच्यते यतीनां-पाके क्रियमाणे आत्मन्यागते च सति तत्र पाके तन्दुला अम्बु चाधिकं क्षिप्यते सोऽध्यवषिर्दोष उच्यते, अथवा यावत्कालं पाको न भवति तावत्कालं तपस्विनां रोधः क्रियते सोऽध्यवधिर्दोष उत्पद्यते ( २ ) अथ पूतिनाम तृतीयं दोषमाहयत्प्रासुकं पात्रं कांस्यपात्रादिकं मिथ्यादृष्टिप्रातिवेशैमिथ्यागुर्वर्थ दत्तं तत्पात्रस्थमन्नादिकं महामुनीनामयोग्यं पूत्युच्यते (३) यत्प्रासुकेन मिश्रं तन्मिश्रं ( ४ ) पाकभाजनाद्गृहीत्वा यदन्नं स्वगृहेऽन्यगृहे वा स्थापित, अथवान्यस्मिन् भाजने भाण्डेऽन्नादिकं निष्पन्नं द्वितीये कांस्यपात्रादौ क्षिप्त्वा शोधनाद्यर्थ तृतीये भाजने मुच्यते तदन्नं मुनीनामयोग्यं किन्तु भाण्डान्मुनिभोजनपात्रे एव मुच्यते तस्माद्गृहीत्वा मुनये दीयते, अन्यथा स्थापितं नाम दोषः (५) यक्षादीनां बलिदानोद्धृतं अन्नं बलिरुच्यते, अथवा संयतागमनार्थ बलिकरणं बलिः कथ्यते (६) अस्यां वेलायां दास्यामि, अस्मिन् दिवसे दास्यामि, अस्मिन् मासे Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० षट्प्राभतेदास्यामि, अस्यामृतौ दास्यामि, अस्मिन् वर्षादौ दास्यामीति नियमेन यदन्नं मुनिभ्यो दीयते तत्प्राभतं कथ्यते (७) भगवन्निदं मदीयं गृहं वर्तते यत्रैवं गृहप्रकाशकरणं भवति निजगृहस्य गृहिणा प्रकटनं क्रियते, अथवा भाजनादीनां संस्कारः भाजनादीनां स्थानान्तरणं वा प्राविष्कृतमुच्यते ( ८ ) विद्यया क्रीतं द्रव्यवस्त्रभाजनादिना वा यत्क्रीतं तत्क्रीतं कथ्यते ( ९) कालान्तरेणाव्याजेन वा स्तोकमृणं कृत्वा यतीनां दानार्थ यदर्जितं तत्प्रामृष्यं मृष्यते (१०) कस्यचिद्गृहस्थस्य ब्रीहीन् दत्वा शालयो गृह्यन्ते, अथवा निजं कूरं दत्वा परकूरो गृह्यते निजाभ्यूषान् दत्वा परेषामभ्यूषा गृह्यन्ते एवं यत्परिवर्त्यते यतिभ्यो दीयते दास्यते वा स परिवर्तः कथ्यते (११) ग्रामात् पाटकात् गृहान्तराद्यदायातं तदभिहितं कथ्यते तद्योग्यं न भवति । कुतोऽप्यायातं योग्यं भवतीति चेत् ? भवति योग्यं यदि ऋजुत आसन्नादासप्ताद्गृहादायातं तत् योग्यं । पंक्तिबद्धात् षष्ठाद्गहाद्यदायातं तत्कल्पते सप्तमाहात् यदुपढौकितं तन्न कल्पते इत्यर्थः (१२) विमुद्रादिकं यदन्नादिकं भवति तदुद्भिन्नमुच्यते-उद्घाटितं न भुज्यते इत्यर्थः ( १३) मालिकादिसमारोहणेन यदानीतं तन्मालिकारोहणमुच्यते-उपरितनभूमेर्यद्धृतादिकमधस्तनभूमौ समानीतं तन्न कल्पते इत्यर्थः (१४ ) राजभयाचौरभयाद्यद्दीयते तदाच्छेद्यमुद्यते ( १५ ) ईशानीशानभिमतेन स्वाम्यस्वान्यनभिमतेन यद्दीयते तदनिसृष्टं कथ्यते (१६) इत्येते षोडशोद्गमदोषा भवन्ति । . ___ अथोत्पादनदोषाः षोडश उच्यन्ते तन्नामनिर्देशो यथा। धात्रीवृत्तिः (१) दूतत्वं (२) भिषग्वृत्तिः (३) निमित्तं (४) इच्छाविभाषणं (५) पूर्वस्तुतिः (६) पश्चात्स्तुतिः (७) क्रोधचतुष्कं (८-९-१०११) वश्यकर्म (१२) स्वगुणस्तवनं (१३) विद्योपजीवनं (१४) मंत्रोपजीवनं (१५) चूर्णोपजीवनं (१६) । बाललालनशिक्षादि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २५१ त्रीत्वं ( १ ) दूरबन्धुजनानां वचनानां नयनमानयनं च दूतत्वं ( २ ) गजचिकित्सा विषचिकित्सा जांगुल्यपरनामा बालचिकित्सा तादृशान्यचिकित्साभिरशनार्जनं भिषग्वृत्तिः ( ३ ) स्वरान्तरिक्षभौमाङ्गव्यञ्जनच्छिन्नलक्षणस्वनाष्टाङ्गनिमित्तैरशनार्जनं निमित्तं ( ४ ) कश्चित्पृच्छति हे मुने ! दीनहीनादीनामन्नादिदानेन पुण्यं भवेन्न वा भवेत् ? मुनिरन्नार्थं वदति पुण्यं भवेदेवेत्यभ्युपगम इच्छाविभाषणमुच्यते (५) अहो जिनदत्त ! त्वं जगति विख्यातो दाता वर्तसे इत्यादिभिर्वचनैर्गृहस्थस्यानन्दजननं भुक्तेः पूर्व तत्पूर्वस्तवनं ( ६ ) एवं भुक्तेः पश्चात् स्तवनविधानं पश्चात्स्तुति: (७) क्रोधं कृत्वाऽन्नोपार्जनं क्रोधः (८) मानेनान्नार्जनं मान: ( ९ ) माययाऽनार्जनं माया (१०) लोभेनान्नार्जनं लोभः ( ११ ) वशीकरण मंत्र - तंत्राद्युपदेशेन यदन्नोपार्जनं तद्वश्यकर्म ( १२ ) स्वकीयतपः श्रुतजातिकुलादिवर्णनं स्वगुणस्तवनं (१३) सिद्धविद्यासाधित विद्यादीनां प्रदर्शनं विद्योपजीवनं ( १४ ) अङ्गशृङ्गारकारिणः पुरुषस्य पाठसिद्धादि - मंत्राणामुपदेशनं मंत्रोपजीवनं (१५) एवं चूर्णादेरुपदेशनं चूर्णोपजीवनं (१६) एते षोडशोत्पादनदोषा वेदितव्याः | अथैषणादशदोषाः कथ्यन्ते । तेषामयं नामनिर्देश: । शंकितं ( १ ) म्रक्षितं ( २ ) निक्षिप्तं ( ३ ) पिहितं ( ४ ) उज्झितं ( ५ ) व्यवहारः (६) दातृ ( ७ ) मिश्र ( ८ ) अपक्कं ( ९ ) लिप्तं (१०) चेति । एतदन्नं सेव्यमसेव्यं वेति शंकितं ( १ ) सस्नेहहस्तपात्रादिना यद्दत्तं तन्म्रक्षितं (२) सचित्तपद्मपत्रादौ यत्क्षिप्तं तन्निक्षिप्तं ( ३ ) सचित्तेन पद्मपत्रादिना यत्पिहितं तदन्नं पिहितं ( ४ ) यच्चूतफलादिकं बहु त्यक्त्वा - ल्पसेवनं तदुज्झितं, अथवा यत्पानादिकं दीयमानं बहुतरेण गलनेनाल्पसेवनं तदुज्झितं ( ५ ) यद्यतीनां संभ्रमादादरतया चेलपात्रादेरसमीक्ष्याकर्षणं स १ वेल० क. । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ षट्प्राभूतेआगमे व्यवहार उच्यते (६) दातृदोषाः कथ्यन्ते-निर्वस्त्रः शौण्डः पिशाचः अन्धः पतितः मृतकानुगः तीव्ररोगी व्रणी लिंगी नीचस्थानस्थितः उच्चस्थानस्थित आसन्नगर्भिणी कोऽर्थः ? निकटजनितापत्या वेश्या दासी काण्डपटादिनान्तरिता अशुचिः किमपि भक्षयन्ती इत्यादयो दोषा दातृगा ज्ञातव्याः (७) षड्जीवसम्मिश्रं मिश्रः (८) पावकादिद्रव्यैरपरित्यक्तपूर्वस्वकीयवर्णगन्धरसमपकं (९) लिप्तैर्दीकराद्यैर्दीयमानमशनादिकं लिप्तं तथाऽप्रासुकजलमृत्तिकोल्मुकादिभिर्लिप्तैर्यद्दीयते तल्लिप्तं (१०)। स्वादनिमित्तं यत्संयोजनं शीते उष्णं उष्णे शीतमित्यादिमेलनं तदनेकरोगाणामसंयमस्य च कारणं ज्ञातव्यं (१) कुक्षेरर्धमंशमन्नेन पूरयेत् तृतीयमंशं कुक्षेः पानेन पूरयेत् कुक्षेश्चतुर्थमंशं वायोः सुखप्रचारार्थमवशेषयेत् रिक्तं रक्षेत् अस्मात्प्रमाणादतिरेकोऽधिकग्रहणं प्रमाणदोषः । प्रमाणातिक्रमेण किं भवति ? ध्यानभंगः, अध्ययनविनाशः, अर्युत्पत्तिः, निद्रोत्पत्तिः, आलस्यादिकं च स्यात् (२) इष्टान्नपानादिप्राप्तौ रागेण सेवनं अंगारदोषः (३) अनिष्टान्नपानादिप्राप्तौ द्वेषेण सेवा धूमदोषः (४)। अथ किमर्थमाहारो गृह्यते इति चेत् ? आहारग्रहणे मुनीनां गुणाः सन्ति । उक्तं च वीरनंदिभट्टारकेण क्षुच्छान्त्यावश्यकप्राण-रक्षाधर्मयमा मुनेः वैयावृत्यं च षड्भुक्तेः कारणानीति यन्मतम् ॥ १॥ ततः शरीरसंवृद्धयै तत्तेजोबलवृद्धये। स्वादार्थमायुसंवृद्धयै नैव भुंजीत संयतः ॥२॥ महोपसर्गातकाङ्गसन्यासाङ्गिन्दयातपोब्रह्मचर्याणि भिक्षोः षट्कारणान्यशनोज्झने ॥३॥ एतद्दोषविहीनान्नभुक्तेरन्तरकारिणः । अन्तरायाः कियन्तोऽत्र वण्यन्ते वर्णिनामिमे ॥४॥ १ व्यपहार इति दोषनाम अन्यत्र । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २५३ रसपूयास्थिमांसासृक्चर्मामेध्यादिवीक्षणं । काकाद्यमेध्यपातोऽढ़े वमनं स्वस्य रोधनं ।। ५॥ अश्रुपातश्च दुःखेन पिंडपातश्च हस्ततः । काकादिपिण्डहरणं पतनं त्यक्तसेवनम्॥६॥ पादान्तरालारपंचाक्षजातिपंचेन्द्रियात्ययः। स्वोदर कृमिविण्मूत्ररक्तपूयादिनिर्गमः ॥७॥ निष्ठीवनं सदंष्ट्राङ्गिदशनं चोपवेशनं । पाणिवक्त्रेऽत्र साङ्गास्थिनखरोमादिदर्शनम् ॥ ८॥ प्रहारो ग्रामदाहोऽशुभोग्रबीभत्सवाक्छृतिः। उपसर्गः पतनं पात्रस्यायोग्यगृहवेशनम् ॥९॥ जानुदेहादधःस्पर्शश्चेत्येवं बहवो मताः।। लोकसंयमवैराग्यजुगुप्साभवभीतिजाः॥१०॥॥ ज्ञात्वा योग्यमयोग्यं च द्रव्यं क्षेत्रत्रयाश्रयं । चरत्येवं प्रयत्नेन भिक्षाशुद्धियुतो यतिः ॥११॥ सञ्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्पेणऽधी पभुत्तूण । पत्तोसि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चित्त ॥१०॥ सचित्तभक्तपानं गृद्धया दर्पण अधीः प्रभुक्त्वा । प्राप्तोसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चित्त ! ॥ सच्चित्तभत्तपाणं सचित्तभक्तपानमप्रासुकभोजनजलादिकं। गिद्धी दप्पेण गृद्धयातिकांक्षया दर्पण उत्कटत्वेन । अधी बुद्धिहीनः । पभुत्तूण प्रकर्षेण भुक्त्वा । पत्तोसि तिव्वदुक्खं प्राप्तोऽसि प्राप्तो भवसि किं तत् ? तिव्वदुक्खं-तीव्रमसातं नरकादिदुःखमित्यर्थः । कियत्पर्यन्तं दुःखं प्राप्तोऽसि ? अणाइकालेण अनादिकालेन आसंसारं यावत् । कः प्राप्तो दुःखं ? तं त्वं भवान् । हे चित्त हे आत्मन् ! । कंदं मूलं बीयं पुप्फ पत्तादि किंचि सच्चित्तं । असिऊण माणगव्वे भमिओसि अणंतसंसारे ।। १०१॥ १ गतिः इत्यपि पाठान्तरमन्यत्र । जातिः इति क. पुस्तके । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ षटप्राभते कन्दं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् । अशित्वा मानगवे भ्रमितोसि अनन्तसंसारे ॥ कंदं सूरणं लशुनं पलाण्डु क्षुद्रवृहन्मुस्तां शालूकं उत्पलमूलं शृङ्गवेरं आर्द्रवरवर्णिनी आर्दहरिद्रेत्यर्थः । मूलं हस्तिदन्तकं मूलकमित्यर्थः । नारंगकंटकं गाजरमित्यर्थ । बीयं चणकादिकं । पुप्फ पुष्पं सेवत्रीपुष्पं करणबीजपूरपुष्पं । पत्तादि नागवल्लीदलं । किंचि सच्चित्तं किमपि ऐर्वािदिकं । असिऊण माणगव्वे अंशित्वा भक्षयित्वा मानेन मान्यतया गर्वे सति। भमिओसि अणंतसंसारे भ्रमितस्त्वं हे जीव ! अनन्तसंसारे अपर्यन्तभवसंकटे इति भावः । विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण । अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति ॥१०२॥ विनयं पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन । अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवन्ति ॥ . विणयं पंचपयारं विनयं यथायोग्यं करयोटन-पादपतन-अभ्युत्थान. स्वागत-भाषणादिकं पंचप्रकारं ज्ञानस्य, दर्शनस्य, चारित्रस्य, तपसश्च विनयं विनीतत्वं, उपचारलक्षणं पंचमं विनयं । हे आत्मन् ! हे मुने ! हे जीव ! हे आसन्नभव्य ! सर्वोपकारिस्त्वं । पालहि प्रतिपालय कुर्विति । मणवयणकायजोएण मनोवचनकाययोगेन आत्मव्यापारेण । अविणय. णरा सुविहियं अविनयनरा अविनतनरा वा सुविहितां तीर्थकरनामकर्मपूर्वकबन्धविशिष्टां । तत्तो मुत्तिं न पावंति ततः कारणान्मुक्तिं सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितां न प्राप्नुवन्ति नैव लभन्ते । णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि । तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ॥ १०३॥ १ वालुका। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ भावप्राभृतं । निजशक्त्या महायशः ! भक्तिरागेण नित्यकाले। त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ॥ णियसत्तीए महाजस एकारस्योच्चारलाघवादत्र पादे द्वादशैव मात्रा वेदितव्याः । अन्यथा त्रयोदशमात्रासद्भावाद्गाथाछन्दोभंगः स्यात् । तदुक्तं प्राकृतव्याकरणे " उच्चारलघुत्वमेदोतोयंजनस्थयोः" निजशक्त्या हे महायशः ! । भत्तीराएण णिचकालम्मि भक्तिरागेण नित्यकाले । तं कुण त्वं कुरु । जिणभत्तिपरं जिनभक्तौ परमुत्कृष्टं । विज्जावच्चं वैयावृत्यं । दसवियप्पं दशविकल्पं दशभेदं आचार्यादीनां पूर्वोक्तानाम् । जं किंचि कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेणं । तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ॥ १०४॥ यः कश्चित् कृतो दोषः मनवचनकायैः अशुभभावेन । तं गर्ह गुरुशकासे गारवं मायां च मुक्त्वा ।। जं किचि कयं दोसं यः कश्चित्कृतो दोषः व्रतादिष्वतीचारः । मणक्यकाएहिं असुहभावणं मनोवचनकायैरशुभभावेन रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामेन । तं-दोषमतीचारादिकं, गर्ह-प्रकाशय। गुरुसयासे गुरुशकासे गुरुपाचँ आचार्यबालाचार्यपादमूले । गारव मायं च मोत्तण गारवं रसर्द्धिशब्दसातगर्व मुक्त्वा, मायां च मुक्त्वा कपटं परिहृत्य । आलोचनादशदोषान् भगवत्याराधनाकथितान् विहाय । तदुक्तं आकंपिय अणुमाणिय, जं दिह्र बादरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥१॥ "तुमत्तुआणतूणाश्चतुष्कं क्त्वायाः" १ इत्यनेन मोतूण इत्यत्र क्त्वायाः तूणादेशः । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ षट्प्राभूतं दुज्जणवयणचडकं निहुरकइयं सहंति सप्पुरिसा । कम्ममलणासणडं भावेण य णिम्ममा सवणा ।। १०५ ।। दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः । कर्ममलनाशनार्थ भावेन च निर्ममाः श्रवणाः ॥ दुज्जणवयणचडक्कं दुर्जनानां गुरुदेवनिन्दकानां मिध्यादृष्टीनां नामश्रावकाणां च वचनमेव चपेटा तां । कथभूतां, निहुरकडुयं निष्ठुरा- निर्दया, कटुका- कर्णशूलप्राया निष्ठुरकटुका तां निष्ठुरकटुकां । सहति सप्पुरिसा सहन्ते सत्पुरुषा महामुनयो दिगम्बराः, सद्दृष्टयो गृहस्थाश्च । किमर्थे सहन्ते ? कम्ममलणासणहं कर्माणि ज्ञानावरणादीनि, मलानि अतिचाराश्च तेषां नाशनार्थं क्षयार्थं परमनिर्वाणप्राप्त्यर्थं च । भावेण य णिम्ममा सवणा भावेन जिनसम्यक्त्ववासनया निर्ममा ममेत्यकारान्तमव्ययशब्दः, ममत्वरहिताः श्रवणा दिगम्बरा महामुनयः । पावं खवड असेसं खमाए परिमंडिओ य मुणिपवरो । खेयरअमरनराणं पसंसणीओ धुवं होइ ॥ १०६॥ पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमण्डितश्च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयो ध्रुवं भवति ॥ पावं खवइ असे पापं त्रिषष्टिप्रकृतिलक्षणं क्षिपते, अशेषं द्वासततित्रयोदशप्रकृतिरूपमघातिकर्मलक्षणं च प्रकृतिसमुदायं च क्षिपते । कया, खमाए क्षमया पार्श्वनाथवत् उत्तमक्षमालक्षणपरिणामेन । परिमंडिओ य परि समन्तान्मनोवचनकायप्रकारेण मंडित: शोभितश्च 1 मुणिपवरो मुनिप्रवरो मुनीनां श्रेष्ठः । चकार उक्तसमुच्चयार्थः । तेनान्योऽपि कोऽपि गृहस्थोऽपि क्षमापरिणामेन स्वर्गं गत्वा पारंपर्येण मोक्षं याति इति ज्ञातव्यं । खेयरअमरनराणं खेचराणां विद्याधराणां, अम Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २५७ राणां भावनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनां कल्पातीतानां च, नराणां भूमिगोचरनृपादीनां च । पसंसणीओ प्रशंसनीयः स्तवनीयः स्तोतव्यः संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-सौरसेनी-मागधी-पैशाची-चूलिकापैशाचीबद्धगद्यपद्यानवद्यस्तुतिभिर्विशेषेणाभिवादनीयः । धुवं होइ ध्रुवं निश्चयेन भवति । अत्र संदेहो नास्ति । क्षमावान् मुनिस्तीर्थकरो भवतीति भावार्थः । इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं । चिरसंचियकोहसिहि वरखमसलिलेण सिंचेह॥१०७॥ इति ज्ञात्वा क्षमागुण ! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् । चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिञ्च ॥ इय णाऊण इति पूर्वोक्ततीर्थकरपदप्रापकं क्षमाफलं ज्ञात्वा विज्ञाय । खमागुण हे क्षमागुण ! चतुरशीतिशतसहस्रगुणानां मध्ये प्रधानक्षमागुण हे मुने ! । खमेहि क्षमस्व । तिविहेण मनोवचनकायलक्षणत्रिप्रकारेण । सयलजीवाणं सकलजीवान् एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तान् । चिरसंचियकोहसिहिं चिरं दीर्घकालं संचितः पुष्टितः पुष्टिं नीतः क्रोध एव शिखी वैश्वानरः दाहसन्तापकारकत्वात् तं क्रोधशिखिनं कोपाग्निं । वरखमसलिलेण सिंचेह वरा उत्तमा क्षमा सर्वसहनधर्मः सैव सलिलं पानीयमुदकं आयु:स्थिरीकरणमनःप्रसादजनकत्वात् तेन वरक्षमासलिलेन कृत्वा सिंच त्वं विध्यापय । उक्तं च--- आकृष्टोऽहं हतो नैव हतो वा न द्विधाकृतः। मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना ॥१॥ चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाड्या त्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्धया । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥२॥ षट् १७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ षट्प्राभृते दिक्खाकालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो । उत्तमबोहिनिमित्तं असारसाराई मुणिऊण ॥ १०८ ॥ दीक्षाकालादीयं भावय अविचार ! दर्शनविशुद्धः । उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा ॥ दिक्खाकालाईयं दीक्षाकाले खलु जीवस्य परमवैराग्यं भवति, दीक्षाकाल आदिर्यस्य रोगोत्पत्तिप्रभृतिकालस्य स दीक्षाकालादिः दीक्षाकालादौ भवो दीक्षाकालादीयो भावस्तं दीक्षाकालादीयं निजपरिणामविशेषं हे जीव आत्मन् ! हे चैतन्य ! हे मुने ! त्वं । भावहि - भावय तं परिणामं त्वं स्मर । यदहमद्यप्रभृति वनितामुखं न पश्यामि, वनितासु रक्तोऽहमनादिकाले संसारे पर्यटतोऽवाञ्छितमेव दुःखं प्राप्तः, अहर्निशमाकांक्षन्नपि सुखलेशं न लब्धवान् । तदुक्तं अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमूढेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित्सुखलेशमाप्यते तदार्य ! विद्धयन्धकवर्तकीयकम् ॥ १ ॥ अन्यच्च संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेऽप्युद्वेगकारीण्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तवत् स्मरसि स्मरस्मितशितापाङ्गैरनङ्गायुधैवमानां हिमदग्धमुग्धतरुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥ १ ॥ आतङ्कपावकशिखाः सरसावलेखाः स्वस्थे मनाङ्मनसि ते लघु विस्मरन्ति । तत्कालजातमतिविस्फुरितानि पश्चा जीवान्यथा यदि भवन्ति कुतोऽप्रियं ते ॥ १ ॥ १ तत्तस्मात्स्मरसस्मर इति पुस्तके पाठः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २५९ भावहि अवियार दंसणविसुद्धो दीक्षाकाले दारिद्र्यकाले रोगादिकाले च ये भावास्त्वया भाविता धर्माश्रयणपरिणामास्तान् भावान् है जीव ! सदाकालमपि त्वं भावय, हे अवियार - हे अविचार निर्विवेकजीव ! अथवा हे अविकार रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामवर्जितजीव ! । कथंभूतः सन् भावय, दंसणत्रिसुद्धो-सम्यक्त्वकौस्तुभशोभितनिर्मलहृदयः सन् भावय । अथवा अवियारदंसणविसुद्ध इत्येकमेव पदं । तत्रायमर्थः - अविकारं पंचविंशतिदोषरहितं यद्दर्शनं सम्यक्त्वरत्नं तेन विशुद्धोऽ. नन्तभवपापरहितुः । किमर्थे भावय, उत्तमबोहिनिमित्तं उत्तमा गणधरचक्रधर कुलिशधर भव्यवरपुण्डरीकैः पूज्यत्वात् उत्तमा चासौ बोधिः 1. तन्निमित्तं उत्तमबोधिनिमित्तं । असारसाराई मुणिऊण असाराणि साराणि च मुनित्वा ज्ञात्वा । उक्तं च— अथिरेण थिरांमलिणेण निम्मला निग्गुणेण गुणसारा । कारण जा विढप्पइ सा किरिया किं न कायव्वा ॥ १ ॥ अनालोचितं असारं, आलोचितं सारं । परनिन्दा असारं, निजनिन्दा सारं आत्मदोषाणां गुरोरमेऽप्रकथनं असारं, गुर्वग्रे निजदोषकथनं सारं । अप्रतिक्रमणं असारं, प्रतिक्रमणं सारं । विराधनं असारं, आराधनं सारं । अज्ञानं असारं, सम्यग्ज्ञानं सारं । मिथ्यादर्शनं असारं, सम्यग्दर्शनं सारं । कुचरित्रं असारं, सच्चरित्रं सारं । कुतपः असारं, सुतपः सारं । अकृत्यं असारं कृत्यं सारं । प्राणातिपातोऽसारं, अभयदानं सारं । मृषावादोऽसारः, सत्यं सारं । अदत्तादानं असारं, दत्तं कल्प्यं च सारं । मैथुनं असारं, ब्रह्मचर्यं सारं । परिग्रहोSसारं, १ अस्थिरेण स्थिरमनसा निर्मला निर्गुणेन गुणसारा । कायेन या विधीयते सा क्रिया किं न कर्तव्या ॥ " २ थिरामणेण ख. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० षट्प्राभृते नैर्ग्रन्थ्यं सारं । रात्रिभोजनमसारं, दिवाभोजनमेकभक्तं प्रत्युत्पन्नं प्रासुकं सारं । आर्त्तरौद्रध्यानमसारं, धर्म्य शुक्लध्यानं सारं । कृष्णनीलकपोतलेश्या असारं, तेज:पद्मशुक्ललेश्याः सारं | आरंभोऽसारं, अनारंभः सारं । असंयमोऽसारं, संयमः सारं । सग्रन्थोऽसारं, निग्रन्थः सारं । सचेलोऽसारं, निश्चेल: सारं । अलोचोऽसारं, लोचः सारं । स्नानं असारं, अस्नानं मलधारणं सारं । अभूमिशयनं असारं, भूमिशयनं सारं । दन्तधावनं असारं, अदन्तघर्षणं सारं । उपविश्य भोजनं असारं, उद्भभोजनं सारं । भाजने भोजनं असारं, पाणिपात्रे भोजनं सारं । क्रोधोऽसारं, क्षमा सारं । मानोऽसारं, मार्दवं सारं । मायाऽसारं, आर्जवं सारं । लोभोऽसारं, सन्तोषः सारं । अतपोऽसारं, द्वादशविधं तपः सारं । मिथ्यात्वं असारं, सम्यक्त्वं सारं । अशीलं असारं, शीलं सारं । सशल्योsसारं, निशल्यः सारं । अविनयोऽसारं, विनयः सारं । अनाचारा - सारं, आचारः सारं । उन्मार्गोऽसारं जिनमार्गः सारं । अक्षमा असारं, क्षमा सारं । अगुप्तिः असारं, गुप्तिः सारं । अमुक्तिः असारं, मुक्तिः सारं । असमाधिः असारं, समाधिः सारं । ममत्वं असारं, निर्ममत्वं सारं । यद्भावितं तदसारं, यन्न भावितं तत्सारं । इति सारासाराणि ज्ञातव्यानि । सेवहि चविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो । बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ॥ १०९ ॥ सेवस्व चतुर्विधलिङ्गं अभ्यंतरलिङ्गशुद्धिमापन्नः । बाह्यलिङ्गमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानां ॥ सेवहि चउविहलिंगं सेवस्व हे मुने ! चतुर्विधं लिंगं शिरःकेशमुखश्मश्रुलोचोऽधःकेशरक्षणं चतुर्विधमिदं लिंगं पिच्छकुण्डीद्वयग्रहः । अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो अभ्यन्तरलिंगं जिनसम्यक्त्वं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २६१ तस्य शुद्धिमापन्नः प्राप्तः । बाहिरलिंगमकज्जं बहिलिंगं पूर्वोक्तं चतुर्विधलिंगमकार्य मोक्षदायकं न भवति । होइ फुडं भावरहियाणं अकार्य भवति स्फुटमिति निश्चयेन भावरहितानां मिथ्यादृष्टीनां दिगम्बराणां । आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुमं । भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ॥ ११० ॥ आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञामिः मोहितोसि त्वम् । भ्रमितः संसारवने अनादिकालमनात्मवशः ॥ आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुमं आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभिर्मोहित आत्मरूपाच्चालितः प्रचलितः प्रच्युतः, असि-भवसि, तुम-त्वं हे जीव !। भमिओ संसारवणे भ्रान्तः पर्यटीस्त्वं संसारखने नरकतिर्यक्कुमनुष्यकुत्सितदेवगहने । अणाइकालं अनादिकालं पूर्वकाले । अणप्पवसो अनात्मवशः, न आत्मा मनो वशे यस्य सोऽनात्मवशः विषयकषायान्यायरंजितहृदय इत्यर्थः । बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि । पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं नईहंतो ॥ १११ ॥ बहिःशयनातपनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान् ।। पालय भावविशुद्धः पूजालाभं अनीहमानः ॥ बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि बहिःशयनातपनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान् पालयेति सम्बन्धः । शीतकालेऽनावृतस्थाने स्थितिं कुरु । उष्णकाले आतपनयोगं धर । वर्षाकाले तरुमूले तिष्ठ । वृक्षपर्णोपरि पतित्वा यज्जलं यत्युपरि पतति तस्य प्रासुकत्वाद्विराधनाsप्कायिकानां जीवानां न भवति द्विगुणं वर्षाकष्टं च भवतीति कारणात वर्षाकाले तरुमूलस्थितरुपयोगः, अन्यथा कातरत्वप्रसक्तेः। एते त्रयोऽपि Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ षट्प्राभूतेयोगा उत्तरगुणाः कथ्यन्ते । पालहि भावविसुद्धो ( पालय भावविशुद्धः ) तत्वभावनानिर्मलमनाः सन्निति भावः । पूयालाहं नईहतो पूजालाभख्यात्यादिकमनीहमानोऽनिच्छन्निति शेषः ।। भावहि पढम तचं विदियं तदियं चउत्थपंचमयं । तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ॥ ११२ ॥ भावय प्रथमं तत्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थपञ्चमकम् । त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम् ॥ भावहि पढमं तच्चं भावय हे जीव ! त्वं श्रद्धेहि, किं तत् ? प्रथमं तत्वं जीवतत्वं । विदियं द्वितीयं तत्वमजीवसंझं पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशलक्षणं । तदियं तृतीयं तत्वं आस्रवनामधेयं । चउत्थपंचमयं चतुर्थ बन्धनामधेयं, पंचमकं तत्वं संवराभिधानं, निर्जरा षष्ठं तत्वं, मोक्षः सप्तमं तत्वं । तिरयणसुद्धो अप्पं त्रिकरणशुद्धः सन्नात्मानं भावय, अल्पं वा स्तोककालं अन्तर्मुहूर्तकालं | कथंभूतमात्मानं, अणाइणिहणं अनादिनिधनं आद्यन्तरहितं । तिवग्गहरं धर्मार्थकामवर्गत्रयवर्जितं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षसहितं निश्चयात् । जाव ण भावइ तचं जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाई । ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥११३॥ यावन्न भावयति तत्वं यावन चिन्तयति चिन्तनीयानि । तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरणविवर्जितं स्थानम् ॥ जाव ण भावइ तचं यावत्कालं न भावयति, किं ? तत्वं सप्तसंख्यं जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणं,तन्मध्ये निजात्मतत्वं मोक्षकारणं अपरे जीवाः शुद्धबुद्ध कस्वभावा निजात्मा च । अजीवतत्वं पुद्गलो धर्मोऽ. धर्मः काल आकाशश्च । तत्रेष्टस्रग्बनितादिरूपः पुद्गलपर्यायो मोहोत्पादको Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २६३ रागजनकः, शस्त्रविषकण्टकशत्रुप्रभृतिद्वेषकारकपुद्गलपर्यायः । सोऽध्यास्रवनिमित्तः कर्मबन्धकारणं शुद्ध आहारादिर्गृहीतः शुद्धध्यानाध्ययनकारणत्वात् संवरनिर्जराकारणत्वात् सोऽपि मोक्षप्रत्ययः, अशुद्ध आहारो गृहीतः चर्मादिस्पृष्टतया दुर्ध्यानोत्पादकत्वादास्रवबन्धकारणं । इत्यादि पुद्गलस्य हेयोपादेययुक्तितया विचारो ज्ञातव्यः । अथवा पुद्गलद्रव्यमेव जीवस्य बन्धकारणत्वाद्दुःखकारणं परमार्थतया हेय एव । धर्मस्तु नरकादिगतिसहायकारकत्वाद्धेयः स्वर्गमोक्षगतिकारकत्वादुपादेयः । अधर्मस्तु स्वर्गमोक्षस्थानादौ मुनीनां ध्यानाध्ययनादिकाले स्थितिहेतुत्वादुपादेयः । नरकनिकोतादिस्थितिकारणत्वे हेयः । कालस्तु स्वर्गमोक्षादौ वर्तनाप्रत्ययत्वादुपादेयः, नरकादिपर्यायवर्तनाकारणत्वाद्धेयः । आकाशः समवशरणस्वर्गमोक्षादाववकाशदायक गुणत्वादुपादेयः । नरकनिगोदादिस्थानावकाशदानदायकत्वाद्धेयः । निर्निदान विशिष्टतीर्थंकरनामकर्मास्रव उपादेयो मोक्षहेतुत्वात् । नरकादिगर्तादिनिपातहेतुत्वादन्य आस्रवो हेयः । तीर्थकरनामकर्महेतुश्चतुर्विधोऽपि बन्ध उपादेयः, संसारपर्यटनकारीतरो बन्धो हेयः । संवर उपादेयः । निर्जरा चोपादेया मुनीनां सम्बन्धिनी । मोक्षः सवर्थाप्युपादेयोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयकारणत्वादिति सप्ततत्वानि यावन्न भावयति । जाव ण चिंते चिंतणीयाई यावन्न चिन्तयति चिन्तनयानि धर्म्यशुक्लध्यानानि अनुप्रेक्षादीनि च । ताव ण पावइ जीवो तावन्न प्राप्नोति जीव आत्मा । जरमरणविवज्जियं ठाणं जरामरणवेवर्जितं स्थानं परमनिर्वाणपदमिति शेषः । 1 पावं पर्यs असेसं पुण्णमसेसं च पयइ परिणामो । परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥ ११४ ॥ १ हवइ इति पाठान्तरं क्वचित्स्थाने | Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ षट्प्राभृतेपापं पचति अशेषं पुण्यमशेषं च पचति परिणामः । परिणामाद्वन्धः मोक्षो जिनशासने दृष्टः ॥ पावं पयइ असेसं पापं पचति अशेष, सर्व पापं परिणामः पचति निर्जरयति निजात्मपरिणामो भावना निःशेषं पापं दूरीकरोति । उक्तं च-- नाममात्रकथया परात्मनो भूग्जिन्मकृतपापसंक्षयः। बोधवृत्तरुचयस्तु तद्गताः कुर्वते हि जगतां पतिं नरम् ॥१॥ पुण्णमसेसं च पयइ परिणामो पुण्यं अशेषं सर्वं च सर्वमपि पचति विस्तारयति मेलयति, कोऽसौ ? परिणामः निजशुद्धबुद्घकस्वभावात्मभावना जिनसम्यक्त्वं च । तथा चोक्तं. एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१॥ सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्रलक्षणं तीर्थकरनामकर्मासाधारणपुण्यं परिणामेनैवोपाय॑त इत्यर्थः । तथा चोक्तं परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोनिपुणाः । तस्मात्पुण्योपचयः पापापचयश्च सुविधेयः॥१॥ तथा च समयसारः-- आत्मकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१॥ परिणामादो बंधो परिणामाद्वन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षणश्चतुर्विधो बन्धः-पुण्यसम्बन्धी पापसम्बन्धी च बन्धः संजायते। उक्तं च-- पयडिटिदिअणुभागप्पदेसबंधा दुचदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति ॥ १ ॥ १ पुरुषार्थसिद्धयुपायस्यैवेतनामान्तरं । २ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धात्तु चतुर्विधो बन्धः । योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतो भवतः ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २६५ मुक्खो जिणसासणे दिहो मोक्षः सर्वकर्मप्रक्षयलक्षणोपलक्षितं परमनिर्वाणं जिनशासने श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागमते दृष्टः प्रतिपादितः परिणामादेवेति निश्चयः, स मोक्षकारणभूतः परिणाम आत्मन्येकलोलीभाव इति भावार्थः । मिच्छत्त तह कसायाऽसंजमजोगेहि असुहलेसेहिं । बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो ॥ ११५ ॥ मिथ्यात्वं तथा कषया असंयमयोगैरशुभलेश्यैः ।। बध्नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराङ्मुखो जीवः ॥ मिच्छत्त तह कसाया मिथ्यात्वं पंचविधं तथा तेनैव पंचप्रकारमिथ्यात्वप्रकारेण कषायाः पंचविंशतिभेदाः । असंजमजोगेहि असुहलेसेहिं असंयमो द्वादशविधः, योगा: पंचदशभेदाः, एवं सप्तपंचाशत्कर्मबन्धप्रत्ययाः कारणानि आस्त्रवभेदा भवन्तीति संक्षेपार्थः । कथंभूतैरेतैरास्रवैः, अशुभलेश्यैः कृष्णनीलकापोतलेश्याबलेन संजातैः । बंधइ असुहं कम्मं बध्नाति अशुभं कर्म । जिणवयणपरम्मुहो जीवो जिनवचनपराङ्मुखो जीवो मिथ्यादृष्टिरात्मा । तं विवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो । दुविहपयारं बंधइ संखेवेणेवं वैजरियं ॥ ११६ ॥ तद्विपरीतः बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापन्नः। द्विविधप्रचारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितं ॥ तं विवरीओ बंधइ तस्माजिनवचनपराङ्मुखान्मिथ्यादृष्टिजीवाद्विपरीतः सम्यग्दृष्टिजीवः बध्नाति, किं ? शुभकर्म-पुण्यकर्म-सद्वेद्य शुभायु १ संखेवेण जिणेण वज्जरियं. ग. पुस्तके पाठः । संखेवें जिणेण वज्जरियं घ. पुस्तके पाठः । २ "कथेर्वज्जर-पजर-सग्घ-सास-साह-चव-जप्प-पिसुणबोलोव्वालाः।" इत्यनेन एतेषु दशादेशेषु कथयतेर्वज्जरादेशो जातः । ___ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ षट्प्राभृते र्नामगोत्रलक्षणं तीर्थकरत्वं । कथंभूतो जीवः, भावसुद्धिमावण्णो भावशुद्धिमापन्नः परिणामशुद्धिं प्राप्तः सद्दृष्टिजीव इत्यर्थः । दुविहपयारं बंध द्विविधप्रचारं द्वयोर्भेदयोः प्रचारं विस्तारं बध्नाति । संखेवेणेव वज्जरियं संक्षेपेणैव कथितं प्रतिपादितम् | णाणावरणादीहिय अडविकम्मे हि वेदिओ य अहं । डहिऊण इण्हि पयडमि अणतणाणाइगुणचिंता ॥ ११७ ॥ ज्ञानावरणादिभिश्च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्चाहम् । दवेदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुणचेतनां ॥ णाणावरणादीहि यज्ञानावरणादिभिश्व ज्ञानावरणमादिर्येषां दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाणां तानि ज्ञानावरणादीनि तैज्ञानावरणादिभिः । चकारादुत्तरप्रकृतिभिरष्टचत्वारिंशदधिकशतप्रकृतिभिः । तथा उत्तरोत्तरप्रकृतिभिरसंख्याताभिरहं वेष्टित इति सम्बन्धः । अविकम्मेहि वेदिओ य अहं अष्टभिरपि कर्मभिर्वेष्टितश्चाहं । अपिचशब्दादनन्तानन्तकर्मभिरहं वेष्टितो वर्ते । डहिऊण इण्हि पयमि दग्ध्वा भस्मीकृत्य तानि कर्माणि इत्युपस्कारः । इण्हि - इदानीं, प्रकटयामि । अनंतणाणाइगुणचिंता अनन्तज्ञानादिगुणचेतनामिति तात्पर्यम् । I सीलसहस्सारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई । भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा ॥ ११८ ॥ शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि । भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना ॥ १ अट्ठविह इति क . पुस्तके मूलगाथापाठः । ख. पुस्तके, क. ख. पुस्तकयस्य टीकायां च अट्ठवि इति पाठः । ग. घ. पुस्तके तु अहिं इति पाठः । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २६७ सीलसहस्सहारस शीलसहस्राष्टादश शीलानां सहस्राणि अष्टादश भवन्ति तानि त्वं भावयेति सम्बन्धः । चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि । भावहि अणुदिणु णिहिलं भावय अनुदिनं अहर्निशं निखिलं समग्रं। असप्पलावेण किं बहुणा असत्प्रलापेन मिथ्यानर्थकवचनेन बहुना बहुतरेण किं-न किमपि । अष्टादशशीलसहस्राणां विवरणं यथा-अशुभमनोवचनकाययोगाः शुभेन मनसा हन्यन्ते इति त्रीणि शीलानि । अशुभमनोवचनकाययोगाः शुभेन वचसा हन्यते इति षट् शीलानि । अशुभमनोवचनकाययोगाः शुभेन काययोगेन हन्यन्ते इति नव शीलानि । तानि चतसृभिः संज्ञाभिर्गुणितानि षट्त्रिंशच्छीलानि भवन्ति । तानि पंचभिरिन्द्रियजयैर्गुणितानि अशीत्यग्रशतं भवन्ति । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसइयसंज्ञिदयाभिर्दशभिर्गुणितानि अष्टादशशतानि भवन्ति । उत्तमक्षमादिभिर्दशभिर्गुणितानि अष्टादशसहस्राणि भवन्ति । अथवा अशीत्याद्विशताधिकसप्तदशसहस्राणि चैतन्यसम्बन्धीनि भवन्ति । विंशत्यधिकसप्तशतानि अचेतनसम्बन्धीनि भवन्ति । तत्राचेतनकृतभेदाः कथ्यन्ते-काष्ठ-पाषाण-लेप-कृताः स्त्रियो मनःकायकृतगुणिताः षट् । कृतकारितानुमतगुणिता अष्टादश। स्पर्शादिपंचगुणिता नवतिः। द्रव्यभावगुणिता अशीत्यग्रं शतं । कषायैश्चतुर्भिर्गुणिता विंशत्यधिकानि सप्तशतानि। चैतन्यसम्बन्धीनि अशीत्यधिकद्विशताग्रसप्तदशसहस्राणि, तद्यथा-देवी-मानुषी-तिरश्ची चेति स्त्रियस्तिस्रः कृतकारितानुमतगुणिता नव भवन्ति । मनोवचनकायगुणिताः सप्तविंशतिर्भवन्ति । स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दैर्गुणिता: पंचत्रिंशदधिकं शतं । द्रव्यभाव१ असप्पलावेहिं. ग. घ. पुस्तके पाठः । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ षट्प्राभृतेगुणिताः सप्तत्यधिकद्वेशते । आहारभयमैथुनपरिग्रहचतसृसंज्ञाभिर्गुणिता अशीत्यधिकं सहस्रं । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनचतुकषोडशकषायैर्गुणिता अशीत्यधिकद्विशतान सप्तदशसहस्राणि भवन्तीति चेतनसम्बन्धिभेदाः । ७२०+१७२८०=१८००० । ___ अथ चतुरशीतिलक्षगुणा वित्रियन्ते । तद्यथा-हिंसा, अनृतं, स्तेयं, मैथुनं, परिग्रहः, क्रोधः, मानः, माया, लोभः, जुगुप्सा: भयं, अरतिः, रतिः, मनोदुष्टत्वं, वचनदुष्टत्वं, कायदुष्टत्वं, मिथ्यात्वं, प्रमादः पिशुनत्वं, अज्ञान, इन्द्रियानिग्रहत्वं, एकविंशतिदोषा वर्जनीयाः । अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारानाचारा एते चत्वारो दोषा वय॑न्ते। अतिक्रमो मानसशुद्धहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः। तथातिचारः करणालसत्वं भंगो ह्यनाचारःइह व्रतानां ॥१॥ गुणानां चतुरशीतिर्भवति । सा चतुरशीतिर्दशकीयसंयमैगुणिता चतुरशीतिशतानि भवन्ति । ते दशशीलविराधनैर्गुणिताः चतुरशीतिसहस्राणि गुणा भवन्ति । कास्ताः शीलविराधनाः ? स्त्रीसंसर्गः १ सरसाहारः २ सुगन्धसंस्कारः ३ कोमलशयनासनं ४ शरीरमण्डनं ५ गीतवादित्रश्रवणं ६ अर्थग्रहणं ७ कुशीलसंसर्गः ८ राजसेवा ९ रात्रिसंचरणं १० । ते आकम्पितादिदशालोचनापरिहृतिभिर्दशभिर्गुणिताः चत्वारिंशत्सहस्राधिकाष्टलक्षाणि भवन्ति । ते दशभिधमैर्गुणिताश्चतुरशीतिलक्षा गुणा भवन्ति । अथ दशकायसंयमाः के ? एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानां रक्षा प्राणसंयमः पंचविधः । स्पर्शनादीनां १ अष्टमनवमपृष्ठेऽपि गुणानां विवरणं आगतमस्ति । २ दशकायसंयमभेदैः पृथिव्यादिशतजीसमासैरित्यर्थः । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २६९ पंचानामिन्द्रियाणां प्रसरपरिहार इन्द्रियसंयम: पंचविधः । एते दशकायसंयमा ज्ञातव्याः । दशालोचनदोषा यथा आकंपिय अणुमाणिय जं दिटुं बायरं च सुहमं च। छन्नं सद्दाउलयं बहुजणमवत्त तस्सेवी ॥१॥ अस्या अयमर्थः-आलोचनां कुर्वन् शरीरे कम्प उत्पद्यते भयं करोतीत्याकम्पितदोषः । अणुमाणिय-अनुमानेन दोषं कथयति यथोक्तं न कथयतीत्यनुमानदोषः। जं दिढं-यत्पापं केनचिदृष्टं तत्कथयति, अन्यजानन्नपि न कथयतीति यदृष्टदोषः । बायरं च-स्थूलं पापं प्रकाशयति सूक्ष्मं न कथयतीति बादरदोषः । सुहमं च-सूक्ष्म अल्पं पापं प्रकाशयति स्थूलं पापं न प्रकाशयतीति सूक्ष्मदोषः । छन्नं यदा कोऽपि न भवत्याचार्यसमीपे तदैकान्ते पापं प्रकाशयतीति छन्नदोषः । सद्दाउलयंयदा वसतिकादौ कोलाहलो भवति तदा पापं प्रकाशयतीति शब्दाकुलदोषः । बहुजणं-यदा बहवः श्रावकादयो मिलिता भवन्ति तदा पापं प्रकाशयतीति बहुजनदोषः । अव्वत्त-अव्यक्तं प्रकाशयति दोषं स्फुटं न कथयतीत्यव्यक्तदोषः । तस्सेवी-यत्पापं गुर्वग्रे प्रकाशितं तत्सर्वथा न मुंचति पुनरपि तदेव कुरुते स तत्सेवी कथ्यते । अथवा य आचायस्तं दोषं करोति तदने पापं प्रकाशयति निर्दोषाचार्याने पापं न प्रकाशयतीति तत्सेवी दोषः । दश धर्मास्तु प्रसिद्धा वर्तन्ते तेन न व्याख्याताः। झायहि धम्मं सुकं अट्ट रउदं च झाण मुत्तण । रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ॥ ११९ ॥ ध्याय धर्म्य शुक्लं आर्त रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा । आर्तरौद्रे ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ॥ झायहि धम्म सुक्कं ध्याय-एकाग्रेण चिन्तय । किं ? कर्मतापन्नं धर्म्य धर्मादनपेतं धर्म्य । आज्ञापायविपाकसंस्थानलक्षणं चतुर्विधं Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० षट्प्राभृते धर्म्य ध्यानमित्युमास्वोमिसूचेनात् । तथा श्रीगौतमस्वामिवचनाद्धर्म्यं ध्यानं दशविधं । तद्यथा । अपायविचयः १ उपायविचयः २ विपाकविचयः ३ विरागविचयः ४ लोकविचयः ५ भवविचयः ६ जीवविचयः ७ आज्ञाविचयः ८ संस्थानविचयः ९ संसारविचयश्चेति १० । तथा शुक्लध्यानं ध्याय पृथक्त्ववितर्कवीचारं १ एकत्ववितर्कवीचारं २ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ३ व्युपरतिक्रियानिवर्ति ४ चेति । अह रउद्दं च झाण मुत्तूण आर्त्त रौद्रं च ध्यानद्वयं मुक्त्वा परित्यज्य । तत्रार्त्तध्यानं चतुर्विधं इष्टवियोगः १ अनिष्टसंयोगः २ पीडाचिन्तनं ३ निदानं चेति ४ । रौद्रध्यानं चतुर्विधं हिंसानन्दः १ अनुतानन्दः २ स्तेयानन्दः ३ संरक्षणानन्दश्चेति ४ | रूद्दट्ट झाइयाई रौद्रा द्वे ध्याने ध्यातानि ( ध्याते ) । इमेण जीवेण चिरकालं इमेन प्रत्यक्षीभूतेन जीवेनात्मना चिरकालं अनादिकालं । धर्म्य शुक्लं च ध्यानद्र्यं न ध्यातमिति भावार्थः । 1 जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति । छिंदति भावसवणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं ॥ १२०॥ ये केपि द्रव्यश्रवणा इन्द्रियसुखाकुला न छिन्दन्ति । छिन्दन्ति भावश्रवणा ध्यानकुठारेण भववृक्षम् ॥ जे के विदव्वसवणा ये केऽपि द्रव्यश्रवणाः शरीरमात्रेण दिगबरा अन्तर्जिन सम्यक्त्वशून्याः । इंदियसुहआउला ण छिंदंति इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्रलक्षणानां विषयाणां सुखेषु आकुलाः । कदा उर्वोरुपरि विवक्षितवनितायाः पादौ विन्यस्य स्तन 66 १ आज्ञापायविपायकसंस्थानविचयाय धर्म्यं " इति सूत्रसूचनात् । २ वचनातू ख. पुस्तके पाठः । ३ भवदुक्खं. घ. । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २७१ कनककलशोपरि करपल्लवौ विधृत्य मुखचुम्बनमधरपानमहं करिष्यामीति स्पर्शनेन्द्रियसुखलम्पटः, घृतपानपक्कान्नव्यञ्जनशाल्यन्नादिस्वादमहं ग्रहीष्यामि, कर्पूरकस्तूरीचन्दनागुरुपुष्पादिपरिमलपानं विधास्यामि, स्तनजघनवदनविलोचनविलोकनं प्रणेष्यामि, वीणावंशस्वरमण्डलनवयौवनकामिनीगीतमिश्रं रवं श्रोष्यामीति पंचेन्द्रियविषयमाकांक्षन् व्याकुलोऽयं जीवो भवति । तत्सर्वं पूर्वमनन्तशोऽनुभूतमेव संसारे, न किमपि दुर्लभं वर्तते अन्यत्रात्मस्वरूपसमुत्पन्नसुखामृतपानात् । तथा चोक्तं अदृष्टं किं किमस्पृष्टं किमनाघ्रातमश्रुतं । किमनास्वादितं येन पुनर्नवमिवेक्ष्यते ॥१॥ तथा चअङ्गं यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यव द्भषावत्तदपि प्रमोदजनकं मूढात्मनां नो सताम् । उच्छन्नैर्बहुभिः शवैरतितरां कीर्ण श्मशानस्थलं लब्ध्वा तुष्यति कृष्णकाकतिकरो नो राजहंसव्रजः॥१॥ तथा चसमसुखशीलितमनसामशनमपि द्वेषमति किमु कामाः। स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग ! पुनरङ्गमगाराः ॥१॥ इत्यमृतचन्द्रः । तथा च शुभचन्द्रभगवान्वरमालिङ्गिता क्रुद्धा चलल्लोलात्र सर्पिणी। न पुनः कौतुकेनापि नारी नरकपद्धतिः॥१॥ तथा च शुभचन्द्रःमालतीव मृदन्यासां विद्धि चाङ्गानि योषितां । दारयिष्यन्ति मर्माणि विपाके ज्ञास्यसि स्वयं ॥१॥ १ तथा चोक्तं. क. । २ उच्छूनैः ख. । ३ विद्धयङ्गानि च योषितांख. । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ षट्प्राभूते काकः कृमिकुलाकीर्णे करके कुरुते रतिम् । यथा तद्वद्वराकोऽयं कामी स्त्रीगुह्यमन्थने ॥ २ ॥ तथा च सोमदेवस्वामी चूर्णिगयेन वैराग्यभावनामाह युवजनमृगाणां बन्धायानाय इव वनितासु कुन्तलकलापः । पुनर्भवमहीरुहारोहणोपाय इव भूलतोल्लासः। संसारसागरपरि. भ्रमाय नौयुग्ममिव लोचनयुगलं । दुःखाटवीविनिपातकरमिव वाचि माधुर्य । मृत्युगजप्रलोभनकवल इवायमधरपल्लवः । स्पर्शविषकन्दोद्भद इव पयोधरविनिवेशः। यमपाशवेष्टनमिव भुजलतालिङ्गनं । उत्पत्तिजरामरणवमव बलीनां त्रयं । आलंभनकुण्डमिव नाभिमण्डलं। अखिलगुणविलोपनखरेखेव रोमराजीवि. निर्गमः । कालव्यालनिवासभूमिरिव मेखलास्थानं। व्यसनागमनतोरणमिवोरुनिर्माणं । अपि च भ्रधनुदृष्टयो बाणास्त्रिशूलं च बलित्रयम् । हृदयं कर्तरी यासां ताः कथं नं नु चण्डिकाः ॥१॥ गुणग्रामविलोपेषु साक्षाढुर्नीतयः स्त्रियः। स्वर्गापवर्गमार्गस्य निसर्गादर्गला इव ॥२॥ गृथकीटो यथा गूथे रतिं कुरुत एव हि।। तथा स्यमध्यसंजातः कामी स्त्रीविईतो भवेत् ॥३॥ एवमिन्द्रियसुखाकुला इन्द्रियसुखविव्हला न छिन्दन्ति भववृक्षमिति सम्बन्धः । छिंदंति भावसवणा छिन्दन्ति द्विधाकुर्वन्ति खण्डयन्ति भववृक्षमिति सम्बन्धः । के छिन्दन्ति ? भावश्रवणा जिनसम्यक्त्वरत्नमण्डितहृदयस्थलाः । झाणकुढारेण भवरुक्खं ध्यानं धर्म्यध्यानं शुक्लध्यानं च तदेवकुठारः कुठान् वृक्षान् इयति गृह्णातीति कुठारः, ध्यानमेव कुठारो ध्यानकुठारः कर्मतरुस्कन्धविदारणत्वात् । भववृक्षं संसारतरुमिति शेषः । १ मारणकुण्डं । २ अत्र डलयोर भेदस्तेनलस्थाने ड.। ३ तु न ख. ४ विष्टारतः । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २७३ जह दीवो गम्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ ॥ १२१॥ यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविवर्जितो ज्वलति । तथा रागानिलरहितो ध्यानप्रदीपोऽपि प्रज्वलति ॥ जह दीवो गब्भहरे यथा दीपो ज्योतिः गर्भगृहेऽपवरके स्थितः सन्। मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ मारुतस्य सम्बन्धिनी मारुतोत्पन्ना वायोः संजाता, बाधा प्रचलार्चि:करणलक्षणा पीडा तस्या विवर्जितो ज्वलति ज्वलनक्रियां कुर्वाण उद्योतं करोति । तह रायानिलरहिओ तथा रागानिलरहितो वनितालिंगनादिप्रीतिलक्षणरागानिलरहितो रागझंझावातविवर्जितो मुनेानप्रदीपः प्रज्वलति-उद्योतं करोति । उक्तं च जसु हिरणच्छी हियवडइ तासु न बंभु वियारि। एक्कहि केम समंति वढ ! बे खंडा पडियारि ॥१॥ उक्तं च वृष्टयाकुलश्चण्डमरुज्झंझावातः प्रकीर्तितः ॥३॥ झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए । णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ।। १२२ ॥ ध्याय पञ्चापि गुरून् मङ्गलचतुःशरणलोकपरिकरितान् । नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् ॥ झायहि पंच वि गुरवे ध्याय त्वं हे मुने ! हे आत्मन् ! पंचापि भर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधून् पंचपरमेष्ठिनः । कथंभूतान् पंचापि गुरून् , मंगलचउसरणलोयपरियरिए मंगललोकोत्तमशरणभूतानित्यर्थः । मलं पापं गालयन्ति मूलादुन्मूलयन्ति निमूलकाषं कषन्तीति मंगलं । अथवा मंगं सुखं परमानन्दलक्षणं लान्ति ददतीति मंगलं । १ इयं गाथा पूर्व एकोनचत्वारिंशत्तमे पृष्ठे आगता। तत्रैवास्याः छाया वर्तते। षट् १८ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ षट्प्राभृते एते पंचपरमेष्ठिनो मंगलमित्युच्यन्ते । लोकेषु भूर्भुवः स्वर्लक्षणेषु उत्तमा उत्कृष्टा लोकोत्तमाः । एते पंचगुरवः सर्वेभ्योऽपि वर्या उध्यन्ते । तथा शरणं - अर्तिमथनसमर्था इमे पंचगुरवो जीवानां शरणं प्रतिपाद्यन्ते, चउसरणशब्देनामी, अर्हन्मंगलं अर्हलोकोत्तमाः अर्हच्छरणं । सिद्धमंगलं सिद्धलोकोत्तमा सिद्धशरणं । साधुमंगलं साधुलोकोत्तमाः साधुशरणं । साधुशब्देनाचार्योपाध्याय सर्वसाधवो लभ्यन्ते । तथा केवलिप्रणीतधर्ममंगलं धर्मलोकोत्तमाः धर्मशरणं चेति द्वादशमंत्राः सूचिताः चतुःशब्देनेति ज्ञातव्यं । एते द्वादशमंत्राः प्रणवपूर्वमायाबीजब्रह्मश्रुतबीजाक्षरपूर्वा ललाटपट्टे गोक्षीरवर्णा लिखिताश्चिन्त्यन्ते । तथा चोक्तं नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भ्रूयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यत्र देहे तेष्वेकस्मिन् विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ॥ १ ॥ परियरिए - लोकोत्तम मंत्रसहितानित्यर्थः । तथा चानादिसिद्धमंत्रो गुरूपदेशान्मन्तव्यः । सूरिणा तु सूरिमंत्रः तिलकमंत्री बृहलघुश्च निजगुरुसमीपादुपदेशात् ध्यातव्य इति भावार्थ: । णरसुरखेयरमहिए कथं भूतान् पंचगुरून्, नरसुरखेचर महितान् नराणां नृपादीनां, सुराणां सौधर्मेन्द्रादीनां, खेचराणां विद्याधरचक्रवर्तिनां, महितान् अष्टविधपूजाद्रव्यैभवपूजाभिश्च पूजितान् । पुनः कथंभूतान् पंचगुरून्, आराहणणायगे भाराधनाया नायकान् स्वामिन इत्यर्थः । वीरे वीरान् कर्मशत्रुक्षयकरणसमर्थानिति भावार्थ: । पाणमय विमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ।। १२३ ।। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २७५ ज्ञानमयविमलशीतलसलिलं प्राप्य भव्या भावेन । व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवा भवन्ति ॥ णाणमयविमलसीयलसलिलं ज्ञानेन निवृत्तं ज्ञानमयं सम्यग्ज्ञानमेव विमलं कर्ममलकलंकरहितं शीतलं परमाल्हादलक्षणसुखोत्पादक एतद्विशेषणत्रयविशिष्टं सलिलं जलमिति रूपकं । पाऊण ज्ञानपानीयं प्राप्य लब्ध्वा । के ते, भविय रत्नत्रययोग्या भव्यजीवाः । भावेण भावेन जिनभक्त्या । उक्तं च सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीता.. जिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥१॥ वाहिजरमरणवेयणडोहविमुक्का सिवा होंति व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवा भवन्ति । ज्ञानजलं पीत्वा ज्ञानजलमाकर्ण्य तन्मध्ये ब्रुडित्वा तदवगाह्य परममंगलभूताः शिवाः सिद्धा भवन्ति इति सम्यग्ज्ञानमाहात्म्यं भगवता श्रीकुन्दकुन्दाचार्येण सूरिणोद्भावितं भवतीति भावार्थः । जह बीयम्मि य दड्ढे ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे । तह कम्मबीयदइढे भवंकुरो भावसवणाणं ॥ १२४॥ यथा बीजे दग्धे नैव रोहति अंकुरश्च महीपीठे । तथा कर्मबीजे दग्धे भवांकुरो भावश्रवणानां ॥ जह बीयम्मि य दड्ढे यथा येनप्रकारेण बीजे दग्धे भस्मीकृते । ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे नापि नैव रोहति प्रादुर्भवति । कोऽसौ ? अंकुरः अभिनव उद्भिजं उद्भिद् , महीपीठे भूमितले। चकार उक्तसमुच्चयार्थः, तेन रागद्वेषमोहादयो भावकर्मशाखादयोऽपि न रोहाने ___ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ षट्प्राभृतेतह कम्मबीयदड्ढे तथा कर्मबीजे दग्धे भस्मीकृते । भवंकुरो भावसवणाणं भवाङ्करः संसाराङ्करो जन्मलक्षणो नापि रोहति न प्रादुर्भवति। केषां, भावसवणाणं-सम्यग्दृष्टिनिरम्बराणां दुर्लक्ष्यपरमात्मभावनाभावितानां भेदज्ञानवतां । उक्तं च दुर्लक्ष्यं जयति परं ज्योतिर्वाचां गणः कवीन्द्राणां । जलमिव वज्रे यस्मिन्नलब्धमध्यो बहिर्जुठति ॥ १ ॥ भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य । इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह ॥ १२५ ।। भावश्रवणोपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रव्यश्रवणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतो भव ॥ भावसवणो वि पावइ भावश्रवणः सम्यग्दृष्टिदिगम्बरोऽपि निश्चयेन प्राप्नोति लभते । कानि प्राप्नोति, सुक्खाई निजात्मोत्थपरमानन्दलक्षणीनराकुलतासहितपरमानन्तसौख्यानि । दुहाई दव्वसवणो य प्राप्नोतीति दीपकोद्योतात् दुःखानि शारीरमानसागन्तुकलक्षणोपलक्षितान्यसातानि द्रव्यश्रवणो मिथ्यादृष्टिदिगम्बरः प्राप्नोति । चशब्दाद्गृहस्थोऽपि सावद्यसंयुक्तो दानपूजास्नपनरहितः पर्वोपवासकातरः चलमलिनाङ्गरहितसम्यग्दर्शनदुर्विधो व्रतातिचारभग्नपुण्यपादो दूरभव्यतया गुरुचरणनिन्दक आत्महितो न भवति । लौकस्तु महापापी जिनप्रतिमोच्छेदको नारको भवति । तथा चोक्तं-- सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं क्वाप्येतद्वयवत् करोति चरितं प्रशाधनानामपि । तस्मादेतदिहान्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविचोष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥१॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २७७ इय जाउं गुणदोसे इति ज्ञात्वा गुणदोषान् । भावेण य संजुदो होह भावेन जिनभक्तिनिजात्मभावनापंचगुरुचरणरेणुरंजितभालस्थल: संयुतो भव । एवं सति शं सुखं तेन युक्तो भव हे मुने ! हे जीवेति सम्बोधनं । तित्थयरगणहराई अब्भुदयपरंपराइं सोक्खा। पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वज्जरियं ॥ १२६ तीर्थकरगणधरादीनि अभ्युदयपरम्पराणि सौख्यानि । प्राप्नुवन्ति भावसहिताः संक्षेपेन जिनैः कथितं ॥ तित्थयरगणहराई तीर्थकरगणधरादीनि सौख्यानीति सम्बन्धः । तीर्थकराणां धर्मोपदेशकाले तीर्थकराः कमलोपरि पादौ न्यस्यन्ति, अशोकवृक्षच्छायायामुपविशंति, तेषामुपरि द्वादशयोजनमभिव्याप्य देवाः पुष्पवर्षणं विरचयन्ति, तानि तु पुष्पाणि उपरि मुखानि अधोवृतानि अवतिष्ठन्ते, जानुपर्यन्तं पतन्ति, मुनीनामागमने मुनिपुंगवा मार्ग लभन्ते, भ्रमरपरीतानि कमलोत्पलकैरवेन्दीवरराजचंपकजातिमुक्तबन्धनाट्टहासवकुलकेतकमंदारसुन्दरनमेरुपारिजातसन्तानककल्हारशुक्लरक्तसेवत्रकमुचुकुन्दवृन्दानि पतन्ति, पंचाशल्लक्षद्वादशकोटिपटहा अपराणि च वादित्राणि वेणुवल्लकिपणवमृदंगत्रिविलतालकाहलकम्बुप्रभृतीनि संख्यातीतानि अम्बरचरकुमारकरास्फलितानि समुर्वन्तरिक्षलक्षाणि ध्वनन्ति, सजलजलधरगर्जितमिव स्वामिनो योजनैकं यावद्ध्वनिर्भव्यजनैराकर्ण्यते, हंसांसोउज्वलानि चतुःषष्ठिचामराणि पतन्त्युत्पतन्ति च, पंचशतधनुरुन्नतं सिंहविष्टरं भवति, योजनैकप्रमाणं सभामभिव्याप्य कोटिभास्करयुगप दुद्योतिशरीरतेजो भवति, तच्च शारदेन्दुपरिपूर्णमण्डलमिव लोचनानां प्रियतमं भवति, एकदण्डानि उपर्युपरि त्रीणि च्छत्राणि मस्तकोपरि संभ १ होइ ख.। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ षट्प्राभूतेवन्ति, इत्यादीनि चतुस्त्रिंशदतिशयपंचकल्याणादीनि जिनोत्तमानां सुखानि बाह्यानि भवन्ति, अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखानि चाभ्यन्तरसुखानि भगवतां भवन्ति । तथा भावश्रवणा (नां) गणधरदेवानां तीर्थंकरयुवराज्यसौख्यानि भवन्ति । अन्भुदयपरंपराई सोक्खाई इन्द्रपदतीर्थकरकल्याणत्रयलक्षणानि कल्याणपरम्पराणि सौख्यानि भावश्रवणा अब्भ्यन्तरमहामुनयो भुञ्जत इति भावार्थः । पावंति भावसहिया प्राप्नुवन्ति लभन्ते, के ते ? भावसहिताः सम्यक्त्वचिन्तामणिमण्डितमनःस्थलयः खलु दिगम्बराः। संखेवि जिणेहिं वज्जरियं संखेविसमासेनोक्तमिदं वचनं जिनैः कथितमिति भावार्थः । ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं । भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणहमायाणं ॥ १२७॥ ते धन्यास्तेभ्यो नमः दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धेभ्यः । भावसहितेभ्यो नित्यं त्रिविधेन प्रनष्टमायेभ्यः ते धण्णा ताण णमो ते मुनिपुंगवा धन्याः पुण्यवन्तः तेभ्योऽस्माकं श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणां नमो नमस्कारो भवतु नमोऽस्तु स्तात् । दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चरणानि शुद्धानि निरतिचाराणि येषां, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्वा ये शुद्धाः कर्ममलकलङ्करहिता दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धा ये मुनिपुंगवाः तेभ्यो नमः। कथंभूतेभ्यस्तेभ्यः, भावसहियाण भावेन शुद्धात्मपरिणामेन जिनसम्यक्त्वेन च सहितानां संयुक्तेभ्य इत्यर्थः । ननु नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगे चतुर्थी भवति तत्कथमत्र षष्ठीनिर्देशः ? सत्यं, संस्कृते तद्योगे चतुर्थी प्रोक्ता, न तु प्राकृते । कथं ? नित्यं-सर्वकालं-नमोनमोस्तु इत्यस्य विशेषणमिदं । केन कृत्वा नमः, तिविहेण मनोवाक्का Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २७९ यलक्षणेन नमस्कारेण नमो न तु हास्येन । कथंभूतानां तेषां, पणहमायाणं प्रणष्टा विनाशं प्राप्ता माया परवंचना येषां ते प्रणष्टमायास्तेषां । इडिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं । तेहि वि ण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो॥१२८॥ ऋद्धिमतुलां विकृतां किंनरकिम्पुरुषामरखचरैः । तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावितो धीरः ॥ इडिमतुलं विउव्विय ऋद्धिः पूर्वोक्तलक्षणा, अतुला अनुपमा, विकुर्विता विक्रियाकृता निजतद्भवान्यभवतपोमहिमसंजाता। तथा किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं किन्नरैः, किम्पुरुषैः, अमरैः कल्पवासिप्रभृतिभिश्च विहिता ऋद्धिः । तेहि विणं जाइ मोहं तैरपि किनरकिम्पुरुपामरखचरैरपि मोहं न याति लोभं न गच्छति । कोऽसौ, जिणभावणभाविओ धीरो जिनभावनया निर्मलसम्यक्त्वेन भावितो वासितो धीरो योगीश्वरः । ध्येयं प्रति धियमीरयतीति धीरः । किं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख:मुणिधवलो ॥१२९॥ किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानामल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्षं मुनिधवलः ॥ किं पुण गच्छइ मोहं किं पुनर्गच्छति मोहंः लोभं । परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं नराणां नृपादीनां सम्बन्धिनां, सुराणामिन्द्रादीनां देवानां सम्बन्धिनां सौख्यानां मोहं. लोभं किं गच्छति-अपि तु न गच्छति । कथंभूतानां सौख्यानां, अल्पसाराणां स्तोकप्रशस्यानां वा अल्पस्वादानामित्यर्थः । जाणतो पस्संतो जानन्नपि अनुभूय दृष्ट्वा १ न. टी.। २ धीराः क.। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० षट्प्राभूतेजानन्नपि, पस्संतो-पश्यन् प्रत्यक्षं चक्षुा निरीक्षमाणोऽपि । चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो चिन्तयन्नपि विचारयन्नपि, किं ? मोक्षं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं परमनिर्वाणसुखं अनन्तसौख्यदायक परमनिर्वाणसुखं जानन्नपीत्यादिसम्बन्धः, मुनिधवल: मुनीनां मुनिषु वा धवलो निर्मलचारित्रभरोद्धरणधुरंधरो वृषभः श्रेष्ठ इत्यर्थः । उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं । इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥१३०॥ आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निः यावन्न दहति देहकुटिम् । इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ॥ उत्थरइ जा ण जरओ आक्रमते यावन्न जरा। "छंदोत्थारौहावा आक्रमः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण आक्रमधातोरुत्थार इत्यादेशः । तर्हि उत्थारइ इतीदृशं रूपं स्यात् ? प्राकृते -हस्वदीर्धी मिथः भवतः " अचामचः प्रायेण” इति सूत्रेण, तत्र नास्ति दोषः “ आङो ज्योतिरुद्गमे: ” इति रुचादिपाठादात्मने पदं । अथवा उत्थारइ जाण जरा इति च कचित् पाठः । रोयग्गी जा ण डहइ देहउडि रोगाग्निविन्न दहति न भस्मीकरोति, कां ? देहकुटिं शरीरपणशालां । इंदियबलं न वियलइ इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं सामर्थं यावत्कालं न विगलति । इंदियबलं न वियलं इति पाठे इन्द्रियबलं यावद्विकलं हीनं न भवति । ताव तुमं कुणहि अप्पहियं तावत्त्वं हे मुनिपुंगव ! कुरु विधेहि, किं ? आत्महितं मोक्षं साधयेत्यर्थः । उक्तं च पलितच्छलेन देहान्निगच्छति शुद्धिरेव तव बुद्धः । कथमिव परलोकार्थ जरी वराकस्तदा स्मरंसि ॥१॥ १ स्मरति. पाठान्तरमन्यत्र । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । आतशोकभयभोगकलत्रपुत्रैयः खेदयेन्मनुजजन्म मनोरथाप्तं । नूनं स भस्मकृतधीरिह रत्नराशिमुद्दीपयेदतनुमोह मलीमसात्मा ॥ २ ॥ अश्रोत्रीव तिरस्कृता परतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिचक्षुर्वीक्षितुमक्षमं तव दशां दूष्यामिवान्ध्यं गतं । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोऽप्ययं कंपते निष्कम्पस्त्वमहो प्रदीप्तभवनेऽप्यासे जराजर्जरः ॥ ३ ॥ छज्जीवछडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं । कुरु दय परिहर सुणिवर भावि अपुव्वं महासत्त ॥ १३१ ॥ षट्जीवषडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगैः । Are you कुरु दयां परिहर मुणिवर ! भावय अपूर्वं महासत्व ! ॥ छज्जीवछडायदणं षड्जीवानां दयां कुरु, पडायतनानि परिहर कथं, णिच्चं सर्वकालं । मणवयणकायजोएहिं मनोवचनकाययोगैः । कुरुदय परिहर मुणिवर हे मुनिवर मुनीनां श्रेष्ठ ! । भावि अपुव्वं महासत्त भावय अपूर्व आत्मभावनं हे महासत्व महाप्रसन्न धर्मपरिणाम ! | अभावयं भावे भावियं न भावेमि । " 66 २८१ इति श्रीगौतमोक्तत्वात् । दसवहपाणाहारी अनंतभवसायरे भमंतेण । भोयसुहकारणहं कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ॥ १३२ ॥ दशविधप्राणाहारः अनन्तभवसागरे भ्रमता । भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानाम् ॥ दसवहपाणाहारो दशविधानां प्राणानामाहारः पंचेन्द्रियाणि मानवानां तिरवां च त्वया कवलितानि, मनोवचनकायलक्षणास्त्रयो बलप्राणास्त्वया हे जीव ! भक्षिताः, उच्छ्वासप्राणोऽपि त्वया चर्वितः, आयु:प्राणश्वोदराग्निभाजनं कृतः । अनंतभवसायरे भमंतेण अनन्तानन्त १ निःशंक. ख. । २ जर्जरे अन्यत्र । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ षट्प्राभृतेसंसारसमुद्रे भ्रमता पर्यटता। भोयसुहकारणहं भोगसुखकारणार्थ जिव्होपस्थसंजातसुखहेतवे । कदो य तिविहेण सयलजीवाणं दशप्राणानां त्वया आहारः कृतः त्रिविधेन मनसा वाचा वपुषा चेति सकलजीवानां चातुर्गतिकप्राणिनां । पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि । उप्पज्जंतमरंतो पत्तोसि निरंतरं दुक्खं ॥ १३३ ॥ प्राणिवधैः महायशः ! चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये । ____ उत्पद्यमानम्रियमाणः प्राप्तोसि निरन्तरं दुःखम् ॥ पाणिवहेहि महाजस प्राणिनां वधैः कृत्वा हे महायशः !। चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि चतुरशीतिलक्षयोनीनां मध्ये । उप्पज्जंतमरंतो उत्पद्यमानो म्रियमाणश्च । पत्तोसि निरंतरं दुक्खं प्राप्तोऽसि लब्धवानसि निरन्तरमविच्छिन्नं दुःखं शारीरमानसागन्तुकलक्षणं । चतुरशीतिलक्षयोनीनां विवरणनिर्देशः पूर्वोक्त एव ज्ञातव्यः । जीवाणमभयदाणं देह मुणी पाणभूदसत्ताणं । कल्लाणसुहनिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए ॥ १३४ ॥ जीवानामभयदानं देहि मुने! प्राणभूतसत्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परम्परा त्रिविधशुद्धया ॥ जीवाणमभयदाणं जीवानामभयदानं । देह मुणी पाणभूदसत्ताणं हे मुने ! त्वं देहि प्रयच्छ न केवलं जीवानां अभयदानं देहि-अपि तु प्राणभूतसत्वानां । किमर्थमभयदानं देहि ? कल्लाणसुहनिमित्तं तीर्थकरनामकर्मबन्धनार्थ गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणपंचकल्याणसुखपरंपरानिमित्तं सुखश्रेणिकारणं अभयदानमित्यर्थः । तिविहसुद्धीए त्रिविधशुद्धया मनोवचनकायनिर्मलतया अभयदानं देहि । उक्तं च Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं ! अभयदाणु भयभीरुहं जीवहं दिष्णु ण आसि । वारवारमरणहं डरहि केम्व चिराउ सुहोसि ॥ १ ॥ तथा चोक्तं— एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः । परं फलं तु सर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥ १ ॥ आयुष्मान् सुभगः श्रीमान् सुंरूपः कीर्तिमान्नरः । अहिंसाव्रतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ॥ २ ॥ उक्तं च द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्राणा भूतास्ते तरवः स्मृताः । जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वाः प्रकीर्तिताः ॥ १ ॥ असियस्य किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी । सत्तट्ठी अण्णाणी वेणैया होंति बत्तीसा ॥ १३५ ॥ अशीतितं क्रियावादिनामक्रियाणां च भवति चतुरशीतिः सप्तषष्ठिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवन्ति द्वात्रिंशत् ॥ २८३. असिसय किरियाई अशीत्यग्रं शतं क्रियावादिनां श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति । अक्किरियाणं च होइ चुलसीढ़ी अक्रियावादिनां इन्द्रचन्द्र नागेन्द्र गच्छोत्पन्नानां तन्दुलोदकक्काथोदकादिसमाचारीसमाश्रयिणां श्वेतपदानां प्रायः कपटानां मायाबाहुलानां चतुरशीतिः संशयिनां मिथ्यात्वभेदा भवन्ति । सत्तट्टी अण्णाणी सप्तपष्ठिरज्ञानेन मोक्षं मन्वानानां मस्करपूरणमतानुसारिणां भवति । वेणैया ति बत्तीसा विनयात् मातृपितृनृपलोकादिविनयेन मोक्षक्षेपिणां तापसानुसारिणां द्वात्रिंशन्मतानि भवन्ति । एवं त्रिषष्ठयग्राणि त्रीणि शतानि १ अभयदानं भयभीतानां जीवानां दत्तो नासि । वारवारमरणेन बिभेसि कथं चिरायुः सुभवसि ॥ २ नरः पुण्यधनेश्वरः ख. | ३ द्विजानां ख. । ४ न्ना. टी. । ५ मोक्षापिणां ख. । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्प्राभृते मिथ्यावादिनां भवन्ति तानि त्याज्यानीत्यर्थः । १८० + ८४+६७+ ३२=३६३'। २८४ मुय पयडि अभव्वो सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्धं पि पिचंता ण पण्णया विव्विसा होंति ।। १३६ ।। न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम् । गुडदुग्धमपि पिबन्तः न पन्नगा निर्विषा भवन्ति ॥ यह पयेडि अभव्वो न मुञ्चति प्रकृति मिध्यात्वं अभव्यो दूरभव्यो वा लौकादिमिथ्यादृष्टिः पापिष्टः । सह वि आयणिऊण जिणधम्मं सुष्ठु अपि आकर्ण्य श्रुत्वा जिनधर्मे दिगम्बरशास्त्रं । गुडदुद्धं पि पिता गुडेन मिश्रं दुग्धं गुडदुग्धं पिबन्तोऽपि । ण पण्णया णिव्विसा होंति न पन्नगाः सर्पा निर्विषा विषरहिता भवन्ति संजायन्ते । तथा चोक्तं बहुत्थई जाणियइ धम्मु ण चरई मुणेवि । दिणयर सउजइ उग्गमइ घूहड अंधर तो वि ॥ १ ॥ मिच्छत्तछण्णदिट्टी दुद्धी रागगह गहियचितेहि । धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि ॥ १३७ ॥ मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुर्द्धा रागग्रहगृहीतचित्तैः | धर्मं जिन प्रणीतं अभव्यजीवो न रोचयति ॥ मिच्छत्तछण्णदिट्टी मिथ्यात्वेन छन्ना आवृता दृष्टिज्ञनलोचन यस्य स मिध्यात्वच्छन्नदृष्टि : अज्ञानो मिध्यादृष्टिः । दुद्धी दुष्टा धर्बुद्धि र्यस्य स दुर्धीः दुर्बुद्धिः । रागगहगहियचित्ते हि रागग्रहगृहीतचित्ते रागो दुर्मार्गाश्रिता प्रीतिः स एव ग्रहः पिशाचः तेन गृहीतानि चित्तानि अभिप्राया रागग्रहगृहीतचित्तानि ते रागग्रहगृहीतचित्तैः करणभूतै १-१८० । ८४ । ६७ । ३२ एकत्रकृते ३६३.ख. । २इ. टी. । ३ तहु. क. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं। २८५ नानानयदुष्टपरिणामैरित्यर्थः । धम्म जिणपण्णत्तं धर्म जिनेन केवलिना प्रणीतं । अभव्वजीवो ण रोचेदि अभव्यजीवो रत्नत्रयायोग्यो जीव आत्मा न रोचयति न श्रद्दधाति । कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो।। कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ ॥ १३८ ॥ कुत्सितधर्मे रतः कुत्सितपाषण्डिभक्तिसंयुक्तः । कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगतिभाजनं भवति ॥ कुच्छियधम्मम्मि रओ कुत्सितधर्मे हिंसाधर्मे रतस्तत्परोऽनुरागवान् । कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो कुत्सिता ऋषिपत्नीपादपद्मसंलग्नमस्तका ये पाषण्डिनो वशिष्टदुर्वासपाराशरयाज्ञवल्क्यजमदग्निविश्वामित्रभरद्वाजगौतमगर्गभार्गवप्रभृतय उपनिषत्प्रान्ते उक्ताश्च अतीता वर्तमानाश्च तेषां पापंडिनां भक्तिसंयुक्ताः करयोटनपादपतनभोजनदानादितस्परमनाः । कुच्छियतवं कुणंतो कुत्सितं तपः एकपादेनो. दीभूतोर्ध्वहस्तजटाधारणत्रिकालजलस्नानपंचाग्निसाधनादिकुत्सितं तपः कुर्वन् । कुच्छियगइभायणो होइ कुत्सितगते रकतिर्यग्योनिमलिनासुरव्यन्तरज्योतिष्ककिल्बिषिकवाहनदेवादिगते जनं स्थानं भवति-अनन्तसंसारी च स्यात् । “ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत" इत्यादि कुत्सितो धर्मो ज्ञातव्यः। इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहि मोहिओ जीवो । भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ॥ १३९ ॥ इति मिथ्यात्वावासे कुनयकुशास्त्रैः मोहितो जीवः । भ्रान्तः अनादिकालं संसारे धीर ! चिन्तय ॥ इय मिच्छत्तावासे इति अमुना प्रकारेण मिथ्यात्वावासे मिथ्यात्वास्पदे प्रायेण मिथ्यात्वभूते संसारे इति सम्बन्धः । कुणयकुसत्थेहि ___ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ षट्प्राभृते मोहिओ जीवो कुनयैः कुत्सितनयैः सर्वथैकान्तरूपैः, कुशास्त्रैः चतुर्वेदाष्टादशपुराणाष्टादशस्मृत्युभयमीमांसादिशास्त्रैः मोहितो भ्रान्ति प्राप्तो जीव आत्मा । भमिओ अणाइकालं भ्रान्तोऽयं पर्यटितो जीवोऽनादिकालं उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालबहुलं । संसारे धीर चिंतेहि हे धीर ! हे योगीश्वर ! संसारे भवे भ्रान्त इति चिन्तय विचारय । पासंडी तिणि सया तिसद्विभेया उमग्ग मुत्तूण | संभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥ १४० ॥ पाषण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्टिभेदा उन्मार्ग मुक्त्वा । रुन्द्धि मनो जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना ॥ पाखंडी तिणि सया पाषण्डिनस्त्रीणि शतानि । तिसहिभेया उम्मग्ग मुत्तूण तथा त्रिपष्टिभेदा उन्मार्ग मुक्त्वा । संभहि मणु जिणमग्गे रुन्द्वि मनो जिनमार्गे जिनधर्मे त्वं स्थापय । असप्पलावेण किं बहुणा असत्प्रलापेनानर्थकेन वचसा बहुना प्रचुरतरेण किं ? न किम पीत्याक्षेपः । जीवविमुको सवओ दंसणमुको य होड़ चलसवओ । सवओ लोयअपुजो लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ १४१ ॥ जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवकः ॥ शवको लोकापूज्यः लोकोत्तरे चलशवकः ॥ जीवविमुको सवओ जीवविमुक्तो जीवेन रहितः कायो लोके शव उच्यते । दंसणमुको य होइ चलसवओ दर्शनमुक्तः पुमान् सम्यक्त्वहीनो जीवश्च भवति चलशवकः कुत्सितं मृतकं । सवओ लोयअपुज्जो जीवरहितः शवको लोकानामपूज्यः, अपूज्यत्वादेव भूमौ निखन्यते अग्निना भस्मीक्रियते वा । लोउत्तरियम्मि चलसवओ लोकोत्तरे लोवे Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २८७ जैनलोके चलसवओ-सचेष्टितमृतकं मिथ्यादृष्टिर्मुनिः लोकोत्तराणां सम्यग्दृष्टिलोकानां अपूज्योऽमाननीयो भवति । इति भावप्राभूतस्य गोप्यतत्वं यत्सद्दृष्टिना जीवेन भवितव्यमिति । लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्याहष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबन्धकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणे महापापमुत्पद्यते । तथा चोक्तं कालिदासेन महाकविना निवार्यतामालि ! किमप्ययं वटुः पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः । न केवलं यो महतां विभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् ॥ १ ॥ तेन जिनमुनिनिन्दका लौंकाः परिहर्तव्याः । तथा चोक्तं खलानां कण्टकानां च द्विधैव प्रतिक्रिया। उपानन्मुखभंगो वा दूरतः परिवर्जनम् ॥ १॥ जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ॥१४२॥ यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजो मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावकद्विविधधर्माणाम् ॥ जह तारयाण चंदो यथा तारकाणां ताराणां मध्ये चन्द्रोऽधिक इति सम्बन्धः । मयराओ मयउलाण सव्वाणं मृगराजः सिंहः मृगकुलानां मध्ये सर्वेषामपि अधिकः प्रधानभूतः । अहिओ तह सम्मत्तो अधिकं तथा सम्यक्त्वं । केषां मध्ये सम्यक्त्वमधिकं, रिसिसावयदुविहधम्माणं ऋषीणां दिगम्बराणां श्रावकाणां च देशयतीनां द्विविधध. र्माणां मध्ये सम्यक्त्वमधिकं प्रधानभूतमित्यर्थः । अस्य षट्प्राभतग्रन्थस्य प्रारंभपरिसमाप्तिपर्यन्तं सम्यक्त्वमेव प्रशंसितमिति तात्पर्यार्थी ज्ञातव्य इति भावः । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते २८८ जह फणिराओ रेहइ फणमणिमाणिककिरणविप्फुरिओ । तह विमलदंसणधरो जिणभत्तीपवयणो जीवो ।। १४३ ॥ यथा फणिराजो राजते फणमणिमाणिक्यकिरणविस्फुरितः । तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिप्रवचनो जीवः॥ जह फणिराओ रेहइ यथा फणिराजो धरणेन्द्रो राजते शोभते । कथंभूतः सन् राजते, फणमणिमाणिककिरणविप्फुरिओ फणानां सहस्रसंख्यफटानां सम्बन्धिनो ये मणयस्तेषु मध्ये यन्माणिक्यं पद्मरागमणिः मध्यफणाया उपरि स्थितं यल्लालरत्नं तस्य सर्वोत्तमरत्नस्य ये किरणा रश्मयस्तैर्विस्फुरितो धरणेन्द्रः शेषनागनामा पद्मावतीदेवीप्राणवल्लभः पातालस्वर्गलोकस्वामी यथा शोभते । तह विमलदसणधरो तथा तेन प्रकारेण विमलदर्शनधरो निर्मलसम्यक्त्वमंडितो मुनिः श्रावको वा । जिणभत्तीपवयणो जीवो जिनभक्तिरेव प्रवचनं गोप्यतत्वसिद्धान्तः, जीव आत्मा चातुर्गतिकोऽपि पंचेन्द्रियसज्ञिजीवः शोभते। तथा चोक्तं-- सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गन्देहऊं। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसं ॥१॥ जह तारायणसहियं ससहरबिंब खमंडले विमले। भाविय तह वयविमलं जिणलिंगं देसणविसुद्धं ॥१४४॥ यथा तारागणसहितं शशधरविम्बं खमण्डले विमले । भावितं तथा व्रतविमलं जिनलिङ्गं दर्शनविशुद्धम् ॥ जह तारायणसहियं यथा येन प्रकारेण तारागणसहितं । ससहरविंबं खमंडले विमले शशधरबिंबं चन्द्रमण्डलं खमण्डले गगनमण्डले । कथंभूते, यिमलेऽभ्रपटलादिरहिते । भाविय तह वयविमलं तथा तेन Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २८९ प्रकारेण भावितव्रतं व्रतैर्मण्डितं निरतिचारव्रतसहितं । जिणलिंगं दंसणविसुद्धं जिनलिंगं निग्रन्थमुनिपुंगववेषः दर्शनेन सम्यक्त्वेन विशुद्धं निर्मलं जिनशासने शोभते इति शेषः । इय गाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ।। १४५ ॥ इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरत भावेन । सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ इय गाउं गुणदोसं इत्यमुना प्रकारेण ज्ञात्वा सम्यग्विचार्य गुणदोषं, सम्यक्त्वगुणरत्नमण्डितः पुमान् गुणवान्- मिध्यात्वेन दूषितो जीवो महापातकीति विज्ञायं । दंसणरयणं धरेह भावेण दर्शनरत्नं सम्यक्त्वरत्नं धरत यूयं भावेन शुद्धपरिणामेन कपटं परित्यज्येत्यर्थः । सारं गुणरयणाणं सारं उत्तमं गुणरत्नानां मध्ये व्रतसमितिगुप्यादीनां मध्ये दानपूजोपवासशीलव्रतादीनां च मध्ये सम्यक्त्वरत्नं सारं उत्तमं धरत यूयं हे भव्याः ! । कथंभूतं, सोवाणं पढम मोक्खस्स सोपानं आरोहणं पादारोपणस्थानं पढम-प्रथमं । कस्य, मोक्षस्य सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितस्य मोक्षप्रासादस्योपरितनभूम्युपरिगमने, सिद्धपर्याय प्रापणमित्यर्थः । कत्ता भइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दंसणणाणुवओगो णिद्दिहो जिणवरिंदेहि ॥ १४६ ॥ कर्त्ता भोगी अमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनश्च । दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टो जिनवरेन्द्रैः ॥ कत्ता भोइ अमुत्तो जीवशब्द: पूर्वोक्त एवं ग्राह्यः । तेन जीव आत्मा कर्ता वर्तते । न कवलं कर्ता पुण्यस्य पापस्य च अपि तु भोगी पुण्यस्य पापस्य च फलस्य भोक्ता आस्वादक इति व्यवहारः. निश्चयेन षट्० १९ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० पप्राभूतेतु केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च कर्ता वर्तते । तथा अनन्तसुखस्य भोक्ता अनन्तवीर्यस्य च। अमूर्तो मूर्ते: शरीराद्रहित इति निश्चयः, व्यवहारेण तु कर्मबन्धप्रबन्धात् शरीरसंयुक्तत्वाच्च मूर्त इत्युच्यते। शरीरमित्तो अणाइणिहणो य शरीरमात्रः शरीरप्रमाण आत्मा वर्तत इति व्यवहारः तत्सुखदुःखाद्यावेदकत्वात् , निश्चयेन तु असंख्यातप्रदेशत्वालोकप्रमाणः। अनादिनिधनश्च जीवस्यादिर्नास्ति निधनं विनाशश्च न वर्तते । दसणणाणुवओगो दर्शनज्ञानोपयोगः व्यवहारेण चत्वारि दर्शनानि अष्टज्ञानानि उभयाभ्यां द्विविधोपयोगः, निश्चयेन तु केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां द्विविधोपयोगः परमनिश्चयेन तु आत्मा केवलज्ञानमेव तन्मयत्वात् । णिदिटो जिणवरिंदेहि निर्दिष्टः प्रतिपादितः कथित आत्मा जिनवरेन्द्रैः सर्वज्ञवीतरागैरिति तात्पर्यार्थः । दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ॥१४७॥ दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयमन्तरायं कर्म । निष्ठापयति भव्यजीवः सम्यग्जिनभावनायुक्तः ॥ दसणणाणावरणं दर्शनावरणं नवविधं, तत्र चक्षुर्दर्शनावरणं अचक्षुर्दर्शनावरणं अवधिदर्शनावरणं केवदर्शनावरणं चेति चतुर्विधं दर्शनावरणं निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धिश्चेति पंचविधानिद्रा एवं नवविधं दर्शनावरणं । मतिज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणं अवधिज्ञानावरणं मनःपर्ययज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणं चेति पंचविध ज्ञानावरणं । मोहणियं अंतराइयं कम्मं मोहनीयं कर्म अष्टाविंशतिभेदं, अन्तरायं कर्म पंचभेदं । तत्राटाविंशतिभेदं मोहनीय कर्म यथा-तत्र त्रिविधं दर्शनमोहनीयं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं चेति । चारि. ___ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ भावप्राभतं । mammmmmmmmmmmmmmmmmmmm त्रमोहनीयं पंचविंशतिभेदं, अकषायभेदा नव हास्यं रतिः अरतिः शोको भयं जुगुप्सा स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेदश्चेति नव नोकषाया अकषाया उच्यन्ते यथाख्यातचारित्रघातकत्वात्। षोडशकषायाः। तथाहि-अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽनन्तानुबन्धी मानोऽनन्तानुबन्धिनी मायाऽनन्तानुबन्धिनो लोभश्चेति चत्वारः कषायाः सम्यक्त्वघातकाः पूर्वोक्तं त्रिविधं दर्शनमोहनीयं च । अप्रत्याख्यानक्रोधोऽप्रत्याख्यानमानोऽप्रत्याख्यानमायाऽ. प्रत्याख्यानलोभश्चेति चत्वारः कषायाः श्रावकवतघातकाः। प्रत्याख्यानक्रोधः प्रत्याख्यानमानः प्रत्याख्यानमाया प्रत्याख्यानलोभश्चेति चत्वारः कषाया महाव्रतघातकाः। संज्वलनक्रोधः संज्वलनमानः संज्वलनमाया संज्वलनलोभश्चेति चत्वारः कषाया यथाख्यातचारित्रघातकाः। अन्तरायः पंचविधो दानान्तरायो- लाभान्तरायो भोगान्तराय उपभोगान्तरायो वीर्यान्तरायश्चेति । एतत्सर्व कर्म णिवइ भवियजीवो निष्ठापयति क्षयं नयति, कोऽसौ ? भविकजीवो भव्यजनः । सम्मं जिणभावणा जुत्तो सम्यग्जिनभावनायुक्तो जिनसम्यक्त्वाराधक इत्यर्थः । बलसोक्खणाणदंसण चत्तारि वि पायडा गुणा होति । णहे घाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ॥ १४८ ॥ बलसौख्यज्ञानदर्शनं चत्वारोपि प्रकटा गुणा भवन्ति । नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥ बलसोक्खणाणदंसण बलं चानन्तवीर्य केवलज्ञानदर्शनाभ्यामनन्तानन्तद्रव्यपर्यायस्वरूपपरिच्छेदकत्वलक्षणा शक्तिरनन्तवीर्यमुच्यते न तु कस्यचिद्घातकरणे भगवान् बलं विदधाति सूक्ष्मगुणाभावप्रसक्तेः । तथा चोक्तमाशाधरेण महाकविनायद्याहंति न जातु किंचिदपि न व्याहन्यते केनचिद यनिष्पीतसमस्तवस्त्वपि सदा केनापि न स्पृश्यते। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ षट्प्राभूतेयत्सर्वज्ञसमक्षमप्यविषयस्तस्यापि चार्थाद्विरां तद्वः सूक्ष्मतमं स्वतत्वमभवा भाव्यं भवोच्छित्तये ॥१॥ तथा अनन्तसौख्यं भगवतः सिद्धस्य भवति तदप्यनन्तज्ञानगुणसद्भावात् परमानन्दोत्पत्तिलक्षणं वस्तुस्वरूपपरिच्छेदकत्वमेव वेदितव्यं । तथा चोक्तं विमानपंक्तयुपाख्यानपर्यन्ते । तथा हि शास्त्र शास्त्राणि वा ज्ञात्वा तावं तुष्यन्ति साधवः । सवतत्वाथविज्ञानान्न सिद्धाः सुखिनः कथं ॥ ॥ चक्रिणां कुरुजातानां नागेन्द्राणां मरुत्वताम् । अनन्तगुणितं सौख्यमुत्तरोत्तरवर्तिनां ॥२॥ तत्रिकालभवात् सौख्यादनन्तगुणितं सुखं । सिद्धानां तु क्षणार्धेन ते वो यच्छन्तु तच्छिवं ॥ ॥ तथा ज्ञानं केवलज्ञानं लोकालोकवस्तुपरिज्ञायकं, दर्शनं चानन्तदर्शनं ज्ञानक्षण एव वस्तुसत्तास्वरूपेण ग्रहणलक्षणं बोद्धव्यं । चत्तारि वि पायडा गुणा होति चत्वारोऽपि गुणाः प्रकटा भवन्ति । कस्मिन् सति, णडे घाइचउक्के नष्टे विनाशं प्राप्ते घाइच उक्के -मोहज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायात्मकेवलज्ञानसाम्राज्यविध्वंसकारके कर्मशत्रुचतुष्टये । लोयालोयं पयासेदि लोकालोकं प्रकाशयति । लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवपुद्गलधर्माधमकालाकाशा यस्मिन्निति लोकः । ते न लोक्यन्तं न दृश्यन्ते यस्मिन् संसौर सर्वतोऽनन्तानन्तजीवादयः पदार्थाश्चालोकः । लोकश्वालोकश्च लोकालोकस्तं लोकालोकं प्रकाशयति जानाति पश्यति चेत्यथः। णाणी सिव परमेही सधण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो । अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुको य होइ फुडं ॥ १४९ ॥ १ श्लोका इमे घ्यशीतितमे पृष्ठे उद्धृतात्र लोकसारगाथाद्वय मनुवर्तन्ते । २ सुशिरे. ख. । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २९३ ज्ञानी शिवः परमेष्ठी सर्वज्ञो विष्णुः चतुर्मुखो बुद्धः । आत्मापि च परमात्मा कर्मविमुक्तश्च भवति स्फुटम् ॥ सम्यग्दर्शनप्रभावेणायं संसारी जीवः सिद्धो भवतीति-न केवलं सर्वज्ञो भवतीत्यपिशब्दस्यार्थः । स सिद्धः कथंभूतः तस्य नाममालां प्रतिपादयन्नाह भगवान कुन्दकुन्दाचार्यः-णाणी सिव परमेही ज्ञानी ज्ञानमनन्तकेवलज्ञानं विद्यते यस्य स भवति ज्ञानी । शिवः परमकल्याणभूत: शिवति लोकाग्रे गच्छतीति शिवः । “ नाम्युपधप्रीकृगृज्ञों कः" । परमेष्ठी परमे इन्द्रचन्द्रधरणेन्द्रवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्टी। औणादिकोऽयं प्रयोगः। सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो सर्व लोकालोकं जानाति वेत्तीति सर्वज्ञः । वेवेष्टि केवलज्ञानेन लोकालोकं व्यामोतीति विष्णुः “ विषेः किच्च" इत्यनेन नुप्रत्ययः स च कित् कानुबन्धत्वान्न गुणः । चतुर्मुखः भूतपूर्वनयापेक्षया चतुर्मुखः चतुर्दिक्षुसर्वसभ्यानां सन्मुखस्य दृश्यमानत्वात् सिद्धावस्थायां तु सर्वत्रावलोकनशीलत्वात् चतुर्मुखः । बुद्धयत सबै जानातीति बुद्धः । “ज्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्यः क्तः” इत्यनेन सूत्रेण वर्तमानकाले क्तप्रत्ययः । अप्पो वि य परमप्पो आत्मापि च संसारी जीवोऽपि च परमात्मा अर्हन् सिद्धश्च भवति । कथंभूतः सिद्धः, कम्मविमुक्को य होइ फुडं कर्मभ्यो विमुक्तो रहितो भवति संजायते स्फुटं निश्चयेनेति शेषः । एतत् सम्यग्दर्शनस्य महान् महिमा ज्ञातव्य इति भावार्थः । इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवज्जिओ सयलो । तिहुवणभवणपईवो देउ मम उत्तमं बोहं ॥ १५०॥ इति घातिकर्ममुक्तः अष्टादशदोषवर्जितः सकलः । त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यमुत्तमं बोधम् ॥ १ इत्यनेन नाम्युपधशिवधातोः कप्रत्ययः । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ षट्प्राभूते इय घाइकम्ममुक्को इति पूर्वोक्तलक्षणघातिकर्मभ्यो मुक्तः । अट्ठारहदोसवज्जिओ सयलो अष्टादशदोपवर्जितो रहितः, सकलः सह कलया शरीरेण वर्तते इति सकलः तेन तस्य धर्मोपदेशोऽपि घटते शरीरसंयुक्तपरमाप्तत्वात् । एतेनेदं वचनं प्रत्युक्तं भवति अष्टविग्रहाच्छान्ताच्छ्विात्परमकारणात् । नादरूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमदुर्लभं ॥ १ ॥ अशरीरस्य शास्त्रोत्पतिर्न संगच्छते कूर्मरोमवत् बंध्यास्तनन्धयवत् शशविषाणवत् विष्णुपदलैतांतवत् मरुमरीचिकोदकवत् " अष्टौ स्थानानि वर्णानां " इति शब्दानां करणकारणत्वात् । तिहुवणभवणपईवो त्रैलोक्यगृहस्य दीपः प्रद्योतकः त्रिभुवनभवनप्रदीपः । देउ मम उत्तमं बोहं ददातु मम मह्यं उत्तमं बोधं केवलज्ञानं । इतीष्टप्रार्थना श्री कुन्दाकुन्दाचार्याणां शास्त्रकरणस्य फलाभिलाषित्वात् । अथ के ते अष्टादश दोषा इति चेदुक्ता अप्युच्यन्ते — क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्यातः स प्रकीर्त्यते ॥ १ ॥ चकाराच्चिन्ताऽरतिनिद्राविषादस्वेद खेद विस्मया गृह्यन्ते । निर्दोषपरमाप्तविचारो ऽष्टसहस्त्रीन्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकमलमार्तण्डाप्तपरीक्षातत्वार्थराजवार्तिकतत्वार्थश्लोक वार्तिकन्याय निश्चयालङ्कारादिषु महाशास्त्रेषु विस्तरेण ज्ञातव्यः । जिणवरचरणं बुरुहं णमंति जे परमभत्तिरायण | ते जम्मवेल्लमूलं खणति वरभावसत्थेण ।। १५१ ॥ १ नि. ख. । २ नादकपंकजच्छन्नं ख. । ३ मलांतवत् ख । ४ करणशब्दो नास्ति ख. पुस्तके | ५ न्यायविनश्चयेति विश्रुतिरन्यत्र । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । २९५ जिनवरचरणाम्बुरुहं नमन्ति ये परमभक्तिरागेण । ते जन्मवल्ली मूलं खनन्ति वरभावशस्त्रेण ॥ जिणवरचरणंबुरुहं जिनोऽनेकविषमभवगहनव्यसनप्रापणहेतून् कारातीन् जयतीति जिनः " इजिकृषिभ्यो नक्"। जिनश्चासौ वरः श्रेष्टो जिनवरः । अथवा जिनानां गणधरदेवादीनां मध्ये वरः श्रेयस्करो जिनवरस्तस्य चरणावेवाम्बुरुहं जिनवरचरणाम्बुरुहं श्रीमद्भगवदहसर्वज्ञवीतरागपादपद्मं । णमंति जे परमभत्तिराएण नमन्ति नमस्कुर्वन्ति ये आसन्नभव्याः परमभक्तिरागेण परमभक्त्यनुरागेणाकृत्रिमस्नेहेन। ते जम्मवेल्लिमूलं ते पुरुषा जन्मवल्लीमूलं खनन्तीति सम्बन्धः, जन्मैव वल्ली संसारवीरुत् अनन्तानन्तप्रसारत्वात् तस्या मूलं कन्दं खनंति उत्पाटयन्ति उद्धरन्ति समूलकाषं कषन्तीत्यर्थः मोहस्य विच्छेदकत्वात् , संसारवल्लीमूलं मिथ्यात्वमोहः तस्य मूलं खनन्ति सम्यग्दृष्टयो भवन्ति । उक्तं च श्रीभोजराजमहाराजेन सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय ___ दृष्टव्यमस्ति यदि मंगलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ ! तवैव वक्त्रं त्रैलोक्यमंगलनिकेतनमीक्षणीयं ॥ १ ॥ खणंति वरभावसत्थेण खनन्ति निमूलकाषं कषन्ति, केन कृत्वा ? वरभावशस्त्रेण विशिष्टभावनाकुद्दालेन दात्रादिना वा । जह सलिलेण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहि सप्पुरिसो ॥१५२॥ यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या। तथा भावेन न लिप्यते कषाय विषयैः सत्पुरुषः ॥ १ इत्यनेन जि जये इत्यस्य धातोर्नगादेशः क इत् कित्वानैङ् । २ न. मू.। ___ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ षट्प्राभृतेजह सलिलेण ण लिप्पड़ यथा येन प्रकारेण ( सलिलेन ) न लिप्यते न स्पृश्यते । किं तत्कर्मतापन्नं, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए कमलिनीपत्रं पद्मिनीच्छदः स्वभावप्रकृत्या निजस्वभावेन । तह भावेण ण लिप्पइ तथा तेन प्रकारेण भावेन जिनचरणकमलभक्तिलक्षणसम्यक्त्वेन करणभूतेन कृत्वा । कैः कर्तृभूतैः न लिप्यत, कसायविसएहि सप्पुरिसो कषायैः क्रोधमानमायालोभैः, विषयैः विषयसुखैः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दैः सत्पुरुषः सम्यग्दृष्टिजीवः । तथा चोक्तं -- धात्रीबालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् । दग्धरजुवदाभासं भुझन् राज्यं न पापभाक् ॥ १॥ ते चिय भणामिहं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तोण सावयसमो सो ॥१५३॥ तानेव भणामि अहं ये सकलकलाशीलसंयमगुणः। . बहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्वावकसमः सः ॥ ते चिय भणामिहं जे तानेव सत्पुरुषानहं कुन्दकुन्दाचार्यो भणामि कथयामि । तान् कान् , ये पुरुषाः सकलकलासीलसंजमगुणेहिं सकलकलाः परिपूर्णकलनाः सम्यक्परीक्षादायिनः, कः ? शीलसंयमगुणैः शीलनिकषक्षमाः संयमनिकषक्षमा गुणनिकषक्षमा भवन्ति । तथा चोक्तं यथा चतुर्भिः कनक परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः । तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः ॥१॥ तथा चोक्तं १ अस्मादग्रे अयं पाठोऽधिकः ख. पुस्तके । सलिलेन जलेन न लिप्पइ कमलिनीदल इति सम्बन्धः । २ भुंजानोऽपि न पापभाक् इत्यपि क्वचित्पाठः । ____ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । १ ॥ संजम सीलु सउच्चु तवु जसु सूरिहि गुरु सोइ । दाहछेदकसघायखमुं उत्तम कंचणु होइ ॥ बहुदोसाणावासो बहूनां दोषाणामतीचारादीनामाबासो गृहं, अथवा वधूनां स्त्रीणां दोष्णां बाहूनां आवास आलिंगको मुनिः । सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो सुष्ठु अतीव मलिनचित्तो रागद्वेषमोहकश्मलचंता मुनिः मुनिर्न भवत्येव, तर्हि किं भवति ? ण सावयसमो सो - न श्रावकसम: श्रावकेणापि गृहस्थेनापि समः सदृशः स न भवति । तस्य दानपूजादिला मसंयुक्तत्वादुत्तमत्वं । तथा चोक्तंवरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुंटा कलाप्यवैराग्यसम्पदः ॥ १ ॥ “ चिअ चेअ अस्मदीय़स्त्यानस्थाणुमूकतूष्णीकंद वैकमृदुकसेवानखनीडनिहितहूत व्याहृत कुतूहलस्थूलव्याकुलेषु वा " इत्यनेन प्राकृतव्याकरणसूत्रेण चि इत्यस्य वा द्वित्वं । चिअ इति कोऽर्थः " अवधारणे ई च चिअ चेओः । " अन्यच्च ते चि धण्णा ते चिय साउरिसा ते जियंति जियलोए । वोद्दहदहम्मि पडिया तरंति जे च्चिय लीलाए ॥ १ ॥ वोह इति कोऽर्थो यौवनम् । १ संयमः शीलं शौचं तपः यस्य सूरे: गुरुः सः । दाहच्छेदकषघातक्षमं उत्तमं कंचनं भवति ॥ २ कमु. मूले । कम्मु. ख. 1 ३ य. क. ख. । ४ एते चत्वारः शब्दा अवधारणार्थे वर्तन्त इत्यर्थः । एव धन्याः ते एव सत्पुरुषाः ते जीवन्ति जीवलोके । यौवनद्र हे पतितास्तरन्ति ये चैव लीलया || ते ५ २९७ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ षट्प्राभृते ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विष्फुरंतेण | दुज्जयपबलबलुद्धरकसायभड णिज्जिया जेहिं ॥ १५४ ॥ ते धोरवीरपुरुषाः क्षमादमखङ्गेन विस्फुरता । दुर्जयप्रबलबलोद्धरकषायभटा निर्जिता यैः ॥ ते धीरवीरपुरिसा ते पुरुषा धीरा अनिवर्तकाः संयमसंग्रामात् कर्मशत्रूणां घातमकृत्वा न पश्चाद्व्याघुटंति, वीरा विशिष्टां केवलज्ञानसाम्राज्यलक्ष्मी रान्ति स्वीकुर्वन्तीति वीराः । खमदमखग्गेण विप्फुरंतेण क्षमा प्रकृष्टप्रशमः, दमो जितेन्द्रियत्वं क्षमयोपलक्षितो दमः क्षमदमः स एव खड्गः कौक्षेयः करवालोऽसिर्निस्त्रिंशः घातिकर्मशत्रुसंघातघातकत्वात् तेन क्षमादमखड्गेन । किं कुर्वता : विस्फुरता अप्रतिहतव्यापारतया चमत्कुर्वता । दुज्जयपत्रलालुद्धेर दुःखेन महता कष्टेन जेतुमशक्या दुर्जयाः, प्रबलं प्रचुरं बलं सामर्थ्यं तेन उद्धरा उत्कटा ये कषायभटाः क्रोधमानमायालोभसुभटाः । कसायभड णिज्जिया जेहिं एवंविधाः कषायभटा यैर्निर्जिता मारिता भूमौ पातिताः । ते भयवंता दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं । विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं ।। १५५ ।। धन्यास्ते भगवन्तो दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्ताभ्याम् । विषयमकरधरपतिता भव्या उत्तारिता यैः ॥ धण्णा ते भयवंता धन्याः पुण्यवन्तः ते भगवन्त इन्द्रादिपूजिताः अथवा भयं वांतं त्यक्तं यैस्ते भयवन्ता निर्भयाः सप्तभयरहिता: । दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं दर्शनज्ञाने एव प्रवरौ बलवत्तरौ हस्तौ करौ दर्शनज्ञानप्रवराग्रहस्तौ ताभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्यां करणभूताभ्यां । विस १ इत आरभ्य जेहिं पर्यन्तः पाठः पुस्तके एतादृश एव । २ वन्ना मूलगाथा पाठः । २ दर्शनज्ञातो ( ना ) ग्रं एव. क. । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभतं । २९९ 40000rno.man यमयरहरपडिया विषय एव मकरधरः समुद्रः तत्र पतिता बुडिताः । भविया उत्तारिया जेहिं भव्यजीवा उत्तारिता हस्तावलम्बनं दत्वा उत्तारिताः संसारसुखक्षारसमुद्रस्य पारं नीता:, यैरिवर्धमानश्रीगौतमस्वाम्यादिभिरिति मंगलाभिप्रायः । मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा । विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं ॥१५६॥ मायावल्लीमशेषां मोहमहातरुवरे आरुढाम् । विषय विषपुष्पपुष्पिता लुनन्ति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः ॥ मायावेल्लि असेसा माया परवंचनस्वभावा सैव वल्ली प्रतानिनी तां मायावल्ली, अशेषां अनन्तानुबन्धिप्रभतिचतुर्भेदसमनां । मोहमहातरुवरम्मि आरूढा मोह एव तरुवरः पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहमहावृक्षस्तमारूढां चटितां । विसयविसपुप्फफुल्लिय विषया एव विषपुष्पाणि तैः पुष्पिता विषयविषपुष्पपुष्पिता तां । लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं लुनन्ति च्छिन्दन्ति, के ते ? मुनयः सम्यग्ज्ञानसमुपेता दिगम्बरगुरव इत्यर्थः । केन, ज्ञानशस्त्रेण सम्यग्ज्ञानशस्त्रेण परशुना इति शेषः । मोहमयगारवेहि य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता । ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥ १५७ ॥ मोहमदगारवैः च मुक्ता ये करुणभावसंयुक्ताः। ते सर्वदुरितस्तंभं नन्ति चारित्रखड्गेन ॥ मोहमयगारवेहि य मोहः कलत्रपुत्रमित्रादिषु स्नेहः, मदो ज्ञानादिरष्टप्रकारो निजौन्नत्यं, गारवं शब्दगारवर्द्धिगारवसातगारवभेदेन त्रिविधं । तत्र शब्दगावं वर्णोच्चारगर्वः, ऋद्धिगारवं शिष्यपुस्तककमण्डलुपिच्छपट्टादिभिरात्मोद्भावनं, सातगारवं भोजनपानादिसमुत्पन्नसौख्यलीलामदस्तैर्मोहमदगारवैः। चकार उक्तसमुच्चयार्थस्तेन निजपक्षीयसधन. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० षट्प्राभृतेराजमान्यश्रावकादिभिरभिमानः । मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता पूर्वोक्तैर्मोहादिभिर्ये मुक्ताः, करुणभावः कारुण्यं दयापरिणामस्तेन संयुक्ताः । ते सव्वदुरियखंभं ते मुनयः सर्वदुरितस्तंभं समस्तमलातिचारादिसमुत्पन्नं पापस्तंभं । हणंति चारित्तखग्गेण प्नन्ति चारित्रखङ्गेन च्छिन्दन्ति निननिर्मलसद्वृत्तनिस्त्रिंशेनेति शेषः । गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो। तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणवहे ॥ १५८॥ गुणगणमणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनीन्द्रः । तारावलिपरिकलितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे ॥ गुणगणमणिमालाए गुणा अष्टाविंशतिमूलगुणाः दश धर्माः तिस्रो गुप्तयः अष्टादशशीलसहस्राणि द्वाविंशतिपरीषहाणां जय एते उत्तरगुणाः, गुणानां गणाः समूहा गुणगणास्त एव मणयो रत्नानि तेषां माला मुक्ताफलहारस्तया गुणगणमालया मुनिः शोभते इत्युपस्कारः । जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो जिनमतमाहतशासनं तदेव गगनं आकाश: पापलेपरहितत्वात् जिनमतगगनं तस्मिन् जिनमतगगने सर्वज्ञशासनाकाशे, निशाकरश्चन्द्रः निशां करोति उद्योतयति निशाकरो मुनीन्द्रः, तत्र मुनीन्द्रो दिगम्बर: निशाकरः पापान्धकारविच्छेदकत्वात्। तारावलिपरियरिओ तारावलिपरिकलितो नक्षत्रमालापरिवेष्टितो नक्षत्रमण्डलोपेतः । पुण्णिमइंदुव्व पवणवहे पूर्णिमेन्दुरिव पूर्णिमाचन्द्रव च्छोभते, पवनपथे गगनमार्ग इति शेषः । चक्कहररामकेसवसुरवरजिणगणहराइसोक्खाई। चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा णरा पत्ता ॥ १५९ ॥ चक्रधररामकेशवसुरवरजिनगणधरादिसौख्यानि । चारणमुन्युद्धीः विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतं । ३०१ mmmmmmmmmmmm चक्कहररामकेसवसुरवरजिणगणहराइसोक्खाई चक्रधराश्च भरतादयः सकलचक्रवर्तिनः, रामाश्च बलदेवाः, केशवाश्चार्धचक्रवर्तिनः, सुरवराश्च सौधर्मेन्द्राद्यच्युतेन्द्रपर्यन्ता अहमिन्द्रान्ताः, जिनाश्च वृषभादिवीरान्ताः, गणधरादयश्च वृषभसेनादयः श्रीगौतमान्तास्तेषां सौख्यानि महापुराणादिशास्त्रवर्णितानि । चारणमुणिरिद्धीओ चारणमुनीनां आकाशगामिनामृषीणां ऋद्धी: अक्षीणमहानसालयप्रभतीः। विशुद्धभावा नरा जीवाः प्राप्ता लभन्ते स्म ।। सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तंमपरमविमलमतुलं । पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥१६०॥ शिवमजरामरलिङ्गमनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् । प्राप्ता वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः ॥ शिवमजरामरलिंगं शिवं परमकल्याणं परममंगलभूतं कर्ममलकलंकरहितत्वात् , अजरामरलिंगं जरामरणरहितचिन्हं । अणोवमं उपमारहितं । उत्तमं परममुख्यं । परमविमलं द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितं । अतुलं अनन्तमित्यर्थः । पत्ता वरसिद्धिसुहं एतद्विशेषणविशिष्टं वरं श्रेष्टं सिद्धिसुखं परमनिर्वाणसौख्यं प्राप्ता लभन्त स्म । जिणभावणभाविया जीवा जिवभावनया निर्मलसम्यक्त्वेन भाविता वासिता जीवा आसन्नभव्याः । ते मे तिहुवणमाया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिचा । दितु वरभावसुद्धिं दंसणणाणे चरित्ते य ॥ १६१ ॥ ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः शुद्धा निरंजना नित्याः । ददतु वरभावशुद्धिं दर्शनज्ञाने चारित्रे च ॥ ते मे तिवणमहिया ते जगप्रसिद्धाः, म. मम श्रीकुन्दकुन्दाचार्यस्य, त्रिभुवनमहितास्त्रैलोक्यपूजिताः। सिद्भा सद्धा णिरंजणा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ षट्प्राभतं णिचा। सिद्धा मुक्तिस्त्रीवल्लभाः, शुद्धाः कर्ममलकलंकरहिताः, निरंजना निरुपलेपाः, नित्याः शाश्वताः । दिंतु वरभावसुद्धिं ददतु प्रयच्छन्तु, वरभावशुद्धिं विशिष्टपरिणामशुद्धिं । कस्मिन् , दंसणणाणे चरित्ते य सम्यग्दर्शने सम्यग्ज्ञाने सम्यक्चारित्रे चेत्यर्थः । किं जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य । अण्णे वि अ वावारा भावम्मि परिडिया सव्वे ॥ १६२ ॥ किं जल्पितेन बहुना अर्थो धर्मश्च काममोक्षश्च । अन्येपि च व्यापारा भावे परिस्थिताः सर्वे ॥ किंजंपिएण बहुणा बहुना प्रचुरतरेण, जल्पितेन किं ? न किमपि । अत्थो धम्मो य काममोक्खो य अर्थो धनं, धर्मो यतिश्रावकगोचरः, काम: पंचेंद्रियसुखदायिनी इष्टवनिता तस्या भोगः, मोक्षः सर्वकर्मक्षयलक्षणः । अण्णे वि अ वावारा अन्येऽपि च व्यापारा विद्यादेवता. साधनादयः । भावम्मि परिहिया सव्वे भावे शुद्धपरिणामे परिस्थिता भावाधीना भवन्तीति भावार्थः । उक्तं च न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये.. भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं ॥ १ ॥ भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु वहहि सिरेण । पत्थरि कमलु किं निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण ॥२॥ सीसु नमंतह कवणु गुणु भाउ कुसुद्धउ जाहं । पारद्धीदूणउ नमइ दुकंतउ हरिणाहं ॥३॥ अन्नन्नपि भवत् पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । परिणामविशेषेण यथा धीवरकर्षकौ ॥४॥ १ भावविहीनः जीव ! त्वं यदि जिनं वहति शिरसा । प्रस्तरे किं कमलं निष्पद्यते यदि सिंचेत् अमृतेन ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ भावप्राभृतं । इय भावपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्म । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं॥१६३॥ इति भावप्राभृत मिदं सर्वं बुद्धैः देशितं सम्यक् । यः पठति शृणोति भावयति स प्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥ इय भावपाइडमिणं इति-एवं प्रकारं, भावप्राभतमिदं भावनाभूतनाम शास्त्रं । सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्मं सर्वं बुद्धैः सर्वज्ञैः, देशितं कथितं सम्यनिश्चयन। यथा मया कथितं सर्वं बुद्धरप्येवमेवोक्तमिति भावार्थः । जो पढइ सुणइ भावइ य आसन्नभव्यो जोवः पठति गुर्वग्रेऽनुशीलयति अभ्यस्यति, सुणेइ-एतदर्थमाकर्णयति, भावइ-श्रुत्वा श्रद्दधाति । सो पावइ अविचलं ठाणं स आसन्नभव्यो मुनिपुंगवः, प्राप्नोति लभते, अविचलं निश्चलं, स्थानं मोक्षपदमिति सिद्धम् । इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचायलाचार्यगृध्रपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन श्रीसीमन्धरस्वामिसम्यग्बोधसंबोधितभव्यजनेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षदप्राभृतभावनाग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना श्रीदेवेन्द्रकीर्तिप्रशिष्येण सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता भावप्राभृतटीका परिसमाप्ता। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ५ः० अथ देवेन्द्रयशोगुरुविद्यानन्दीश्वरस्य शिष्येण । मुक्तिप्रियामुखाम्बुजदिदृक्षुणा शिक्षितेन गुणे ॥ १ ॥ श्रुतसागरेण कविना विनापि बुद्धया विरच्यते रुचिदा । मोक्षप्राभृतविवृतिष्टीकाऽलीकप्रमुक्तेन ॥ २ ॥ याचकजनकल्पतरुः स्वरुरपि मिथ्यामताद्रिशृङ्गेषु । भव्यजनजनकतुल्यो विवेकवान् मल्लिभूषणो जयति ॥ ३ ॥ गीति । णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण । चऊण य परदव्वं णमो णमो तस्स देव्वस्स ॥ १ ॥ ज्ञानमय आत्मा उपलब्धो येन क्षरितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमो नमस्तस्मै देवाय || णाणमयं अप्पाणं ज्ञानमय आत्मा । उवलद्धं जेण· झडियकम्मेण उपलब्धो येन क्षरितकर्मणा । चइऊण य परदव्वं त्यक्त्वा च परद्रव्यं शरीरं कर्म च परित्यज्य नमो नमः - पुनः पुनर्नमः । तस्य देवस्य - तस्मै देवायेति भावार्थ: । णमिऊण य तं देवं अनंतवरणाणदंसणं सुद्धं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥ २ ॥ नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् । वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ १ व्हादिनी वज्रमस्त्री स्यात् कुलिशं भिदुरं पविः । शतकोटि : : स्वरुः शम्बो दंभोलिरशनिर्द्वयोः ॥ २ अस्माद ॐ नमः सिद्धेभ्यः इति पाठः । ख. पुस्तके तु नास्ति । ३ वुच्छं. क्वचित् । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३०५ __णमिऊण य तं देवं नत्वा च तं देवं सर्वज्ञवीतरागं । कथंभूतं देवं, अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धं अनन्तज्ञानमनन्तदर्शनमनन्तवीर्यमनन्तसौख्यमित्यर्थः, शुद्धं घातिकर्मसंघातनेन निर्मलस्वरूपं अष्टादशदोषरहितमित्यर्थः । वोच्छं परमप्पाणं वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः कर्ता ? अहं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः, कं वक्ष्ये ? परमात्मानं शुद्धनयेन परमात्मानं अर्हत्सिद्धसमानं । कथंभूतं परमात्मानं, परमपयं परमपदं परमं उत्कृष्टं इन्द्रादिदेव-नरेन्द्रादिमानव-गणधरादिमहामुनीश्वरसंयुक्तसमवशरणस्थानमण्डितं । अथ केषां परमात्मानं वक्ष्यामि ? परमजोईणं परमयोगिनां दिगम्बरगुरूणां । इत्यनेन मुनीनामेव परमास्मध्यानं घटते। तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते । तेषां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्वप्रतिपालनशीलवतरक्षणादिकं गृहस्थधर्म एवोपदिष्टं भवतीति भावार्थः । ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । अयत्याचारा गृहस्थधर्मादपि पतिता उभयभ्रटा वेदितव्याः। ते लौंकाः, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविघ्नहेतुत्वात् । ते जिनस्नपनपूजादानादिसद्धर्मघातका ज्ञातव्याः । जं जाणिऊण जोई जो अंत्यो जोइऊण अणवरयं । अव्वावाहमणंतं अणोवमं हवई णिव्वाणं ॥३॥ यदज्ञात्वा योगी यमर्थं दृष्ट्वाऽनवरतम् । __ अव्यावाधमनन्तं अनुपमं भवते निर्वाणम् ॥ जं जाणिऊण जोई यं अर्थ आत्मतत्वं ज्ञात्वा हे योगिन् ! जो अत्थो जोइऊण अणवरयं (1) अर्थ तत्वं, जोइऊण-दृष्ट्वा ज्ञानेन १ जोयत्थो ग. । योगस्थो ध्यानस्थ इत्यर्थः । २ लहइ. ग. । षद० २० www Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ पद्माभते साक्षाद्वीक्ष्य योगी ध्यानवान् मुनिः। अव्यावाहमणतं अव्याबाधं बाधारहितं, अनन्तमविनश्वरं । अणोवमं हवइ णिव्याणं अनुपम उपमारहितं, भवते प्राप्नोति । "भूप्राप्तावात्मनेपदी" इति वचनात् । किं ? निर्वाणं शुद्धसुखं मोक्षस्थानं । उक्तं च जन्मजरामयमरणैः शके१ःखैर्भः च परिमुक्तं । निर्वणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यं ॥१॥ तिपयारो सो अप्पा परभितरबाहिरो दु हेऊँणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा ॥४॥ त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तो बहिः तु हित्वा । तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानम् ॥ तिपयारो सो अप्पा त्रिप्रकारः स आत्मा त्रिविधः । परभिंतरवाहिरो दु हेऊणं परमात्मा-अन्तरात्मा-बहिरात्मा चेति । तत्र बाहिरो दु हेऊणं-बहिरात्मानं हित्वा परित्यज्य । तत्थ परो झाइज्जइ तत्र परमात्मा ध्यायते । कथं परमात्मा ध्यायते ? अंतोवाएण अन्तरात्मोपायेन भेदज्ञानबलेनेत्यर्थः । चयहि बहिरप्पा त्यज्य परिहर त्वं हे मुने! बहिरप्पा-बहिरात्मानं-शरीरमेवात्मेति मतं मन्यते बहिरात्मा तमभिप्राय त्वं त्यजेति तात्पर्यार्थः ।। अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो । कम्मकलंकविमुको परमप्पा भण्णए देवो ॥५॥ अक्षाणि बहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसङ्कल्पः । कर्मकलङ्कविमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः ॥ अक्खाणि बाहिरप्पा अक्षाणि इंद्रियाणि बहिरात्मा भवति अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो अन्तरात्मा हु-स्फुटं आत्मसंकल्पः शरी. रकर्मरागद्वेषमोहादिदुःखपरिणामरहितोऽयं ममात्मा वर्तते शरीरे तिष्ठ. १ मंतर. घ । २ देहीण. घ. मु.। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३०७ नशुद्धनिश्चयनयेन शरीरं न स्पृशति, कर्मबन्धनबद्धोऽपि सन् कर्मबन्धनैबेद्रो न भवति नलिनीदलस्थित जलवद्वितीदृशं भेदज्ञानं आत्मसंकल्प उच्यते स आत्मसंकल्पो यस्य जीवस्य वर्तते सोऽन्तरात्मा वेदितव्यः । कम्म कलंक विमुको परमप्पा भण्णए देवो कर्मकलङ्कविमुक्तो द्रव्यकर्मभावकर्म नोकर्मरहितः सिद्धपरमेश्वरो देवः परमात्मा भण्यते--अर्हन् परमेश्वर: सामान्य केवली च परमात्मा कथ्यते तस्य जीवन्मुक्तत्वात् । उक्तं च आत्मन्नात्मविलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः परमात्मनीनचरितैरात्मकृतैरात्मनः । आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥१॥ मलरहिओ कलचेत्तों अणिदिओ केवलो विसुद्धप्पा | परमेही परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो ॥ ६ ॥ मलरहितः कलत्यक्तः अनिन्द्रियः केवलो विशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवङ्करः शाश्वतः सिद्धः ॥ मलरहिओ कलचत्तो मलरहितः कर्ममलकलंकरहितः, कलया शरीरेण त्यक्तः कलत्यक्तः । योकारो स्त्रीकृतौ स्वौ कचित् यथा इष्टकचितं इषीकतूलमिति । अगिंदिओ केवलो विसुद्धा अनिन्द्रिय इन्द्रियज्ञानरहितः केवलज्ञानेन द्रव्यपर्यायस्वरूपं जानन्नित्यर्थः । उक्तं च पुष्पदन्तेन महाकविना सर्व अणिदिओ णाणमओ जो मयमुदु न पत्तियइ । सो जिंदिओ पंचिदियनिरओ वइतरणिहि पाणिउ पियइ ॥ १ ॥ १ चित्तो. मू. क. । २ ई+आ इति छेदोत्र ज्ञातत्र्यः । ३ सर्वज्ञः अनिन्द्रियः ज्ञानमयो यो मदमूहः न प्रत्येति । स निन्दकः पंचेन्द्रियनिरतः वैतरण्याः पानीयं पित्रति ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ षट्प्राभूते - ___ अथवा-अणिदिओ-अनिंदित इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रखगेन्द्रादीनां स्तुत्य इत्यर्थः । उक्तं च सुलोचनाकान्तेनशमिताखिलविघ्नसंस्तवस्त्वयि तुच्छोऽप्युपयात्यतुच्छतां । शुचिशुक्ति जुटेऽम्बुविधृतं ननु मुक्ताफलतां प्रपद्यते ॥१॥ घटयन्ति न विघ्नकोटयो निकटे त्वत्क्रमयोर्निवासिनां। पटवोऽपि पदं दवाग्निभिर्भयमस्त्यम्बुधिमध्यवर्तिनां ॥२॥ हृदये त्वयि सन्निधापिते रिपवः केऽपि भयं विधित्सवः। अमृताशिषु सत्सु सन्ततं विषभेदार्पितविप्लवः कुतः ॥३॥ उपयान्ति समस्तसम्पद विपदो विच्युतिमाप्नुवन्त्यलं । वृषभं वृषमार्गदेशिनं झषकेतुद्विषमायुषां ॥४॥ इत्थं भवंतमतिभक्तिपथं निनीषोः,प्रागेवबन्धकलयःप्रलयं व्रजन्ति। पश्चादनश्वरमयाचित्तमप्यवश्यं,संपत्स्यतेऽस्य विलसद्गुणभद्रभद्र।। केवलोऽसहायः केवलज्ञानमयो वा, के परब्रह्मणि निजशुद्धबुद्धकस्वभावे आत्मनि बलमनन्तवीर्य यस्य स भवति केबल:, अथवा केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवलः । विशुद्धात्मा-विशेरेण शुद्धः कर्ममलकलंकरहित आत्मा स्वभावो यस्य स विशुद्धात्मा । परमेही परमजिणो परमेष्टी परमजिनः, परमे इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रमुनीद्रादिवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी पंचपरमेष्ठिरूपः, परमजिणो-परा उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपलक्षिता मा प्रमाणं यस्येति परमः, अथवा परेषां भव्यप्राणिनां उपकारिणी मा लक्ष्मीः समवशरणविभूतिर्यस्येति परमः, अनेकविषमभवगहनदुःखप्रापणहेतून् कर्मारातीन् जयति समूलकाषं कषतीति जिनः परमश्चासौ जिनः परमजिनः तीर्थकरपरमदेवः । सिवंकरो शिवं परममंगलं करोति शिवंकरः, अथवा शिवं मोक्षं करोति भक्तभ. यजीवानां मोक्षं विदधातीति शिवंकरः शिवतातिरपरपर्यायः । सासओ १ अस्मादग्रे तथाहि-इति पाठः ख. पुस्तके । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं ! ३०९ शश्वद्भवः शाश्वतोऽविनश्वरः । सासवो - इति च क्वचित् पाठो दृश्यते तत्रायमर्थः–साशपः भक्तभव्यानां आशापूरणसमर्थ इत्यर्थः । सिद्धो सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिर्विद्यते यस्य स सिद्ध: परमनिर्वाणपदमारूढ इत्यर्थः । तदुक्तं - तस्य त्रिविधस्यात्मनः स्त्ररूपं शास्त्रान्तरेऽपि प्रोक्तमस्तीति श्री कुन्दकुन्दाचार्या निरूपयन्ति आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण । झज्जर परमप्पा उवहं जिणवरिंदेहिं ॥ ७ ॥ आरुह्य अन्तरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन । ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥ 1 आरुहवि अंतरप्पा आरुह्य प्रादुर्भाव्य आश्रित्येति किं ? अंतरप्पा - अन्तरात्मानं भेदज्ञानावलम्बनं कृत्वेत्यर्थः । बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण त्रिविधेन मनोवचनकायैर्बहिरात्मानं त्यक्त्वा | झाइज्जइ परमप्पा ध्यायते अहर्निशं चित्यते, कोऽसौ ? परमात्मा निश्चयनयेन कर्ममलकलंकरहितः सिद्धस्वरूपः निजपरमात्मा ध्यायते अर्हत्सिद्धस्वरूपोऽबलोक्यते द्विविधमभ्यासं कुर्वाणो मुनिः परमात्मानमेव प्राप्नाति -अ - त्सिद्धसदृशो भवति । तथा चोक्तं आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धया ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं किं नामनो विषविकारमपाकरोति ॥ १ ॥ उas जिनवरिंदेहिं उपदिष्टं प्रतिपादितं । कै:, जिनवरेन्द्रैः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागैरिति शेषः । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० षट्प्राभूतेबहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्टी ओ ॥ ८ ॥ बहिरर्थे स्फुरितमना इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः । निजदेहं आत्मानमध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ॥ बहिरत्थे फुरियमणो बहिरर्थे इष्टवनितासुतस्वापतेयादौ स्फुरितं चमत्कृतं मनो यस्य स इष्टार्थे स्फुरितमनाः । इंदियदारेण णियसखवचुओ इन्द्रियद्वारेण इन्द्रियेषु प्रविश्य, निजस्वरूपच्युत आत्मभावनायाः प्रभृष्टः । णियदेहं अप्पाणं निजदेहं स्वकीयशरीरं आत्मानमध्यवस्यसीति सम्बन्धः-शीरमात्मानं जानातीत्यर्थः । अज्झवसदि मूढदिट्टी ओ अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ममायं काय आत्मेति जानाति मूढदृष्टिर्बहिरात्मेति भावार्थः । णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण ॥ ९॥ निजदेहसदृक्षं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन । अचेतन मपि गृहीतं ध्यायते परमभागेन ॥ णियदेहसरिसं पिच्छिऊण निजदेहसदृक्षं संदृशं पिच्छिऊणदृष्ट्वा । परविग्गहं पयत्तेण परविग्रहं इष्टवनितादिशरीरं, पयत्तेण-प्रयलेन मलमूत्रशुक्ररुविरमांसकी कसचर्मरोमादिदुर्गन्धापवित्रादिपरिणामभाघेन । अचेयणं पि गहियं अचेतनमपि आत्मना गृहीतं जीवेन स्वीकृतं । झाइज्जइ परमभाएण ध्यायते शरीरस्वरूपं चिन्त्यते परमभागेन पृथक्तया भेदज्ञानेन-शरीरं भिन्नं आत्मा भिन्नो वर्तते इति भेदं कृत्वे त्यर्थः । तथा चक्तं-- १ चओ. मूले. । २ मिच्छभावेण. ग. घ. अन्यत्र च । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAARRARAawww मोक्षप्राभृतं । ३११ आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत् कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकातः सापि भिन्ना तयेव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालकृतं सर्वमेतत् ॥१॥ सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्यमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं वडए मोहो ।। १०॥ स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मनम् । सुतदारादिविषये मनुजानां वर्धते मोहः ।। सपरज्झवसाएणं स्वपराध्यवसायेन परवस्तुशरीरादिकं स्वमात्मानं मन्यते स्वपराध्यवसायः। केषु पदार्थेषु, देहेसु य शरीरेषु च, चकाराद्वनितादिषु च, शरीरं वनितासुतस्वापतेयादिकं वस्तु खलु परकीयं वर्तते तत्र । अविदिदत्थं अविदितार्थ यथावत्स्वरूपपरिज्ञानरहितार्थ यथा भवत्येवं वर्तमान आत्मा । अप्पाणं इति जीवः आत्मानं जानीते तच्च देहादिकं वस्तु आत्मा न भवति । तेन विपरीताभिनिवेशेन सुयदाराईविसए सुतदारादिविषये पुत्रकलत्रादिषु । मणुयाणं वड़ए मोहो मनुजानां मानवानां वर्धते मोहः-स्नेहेनाज्ञानमूलं मोहो वैचित्त्यं वृद्धि याति, मोहेन परिणतो जीवो बहिरात्मा पुनः कर्माष्टौ बध्नाति । उक्तं च जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र युद्गलाः कर्मनावेन ॥१॥ मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो । मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ ॥११॥ मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन् । ___मोहोदयेन पुनरपि अङ्गं स्वं मन्यते मनुजः ।। मिच्छाणाणेसु रओ मिथ्याज्ञानेषु रतोऽयं मनुजो जीवः । मिच्छाभावेण भाविओ संतो मिथ्यापरिणामेन कुगुरुकुदेवभत्तया भावितो ___ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ षट्प्राभृते वासितः सन् । मोहोदएण पुणरवि मोहोदयेन मिथ्यामोहस्य त्रिवि - धस्योदयेन विपाकेन, पुनरपि भूयोऽपि । अंग सं मण्णए मणुओ अंगं शरीरं, स्वमात्मानं मन्यते जानाति, मनुजो मनुष्यो मिथ्यादृष्टिजीव इत्यर्थः । " जो देहे णिरवेक्खो गिंदो निम्ममो निरारम्भो । आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ १२ ॥ यो देहे निरपेक्षः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निरारम्भः । आत्मस्वभावे सुरतः योगी स लभते निर्वाणम् ॥ जो देहे णिरवेक्खो यो योगी देहे शरीरे निरपेक्ष उदासीनो ममत्वेन च्युतः । णिहंदो निम्ममो निरारंभो निर्द्वन्द्वो निष्कलहः केनापि सह कलहरहित: । अथवा निर्द्वन्द्वो निर्युग्मः स्त्रीभोगरहितः " द्वन्द्वं कलहयुग्मयोः " इति वचनात् । निर्ममो ममत्व रहितः, ममेति अदन्तो ऽव्ययशब्दः निर्गतं ममेति परिणामो यस्येति निर्ममः । उक्तं चअ कंचनोऽहमित्यास्वं त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ १ ॥ निरारंभ: सेवाकृषिवाणिज्यादिकर्मरहितः । उक्तं च- औरंभे णत्थि दया महिलासंगएण णासए बंभं । संकाए सम्मत्तं पव्वज्जा अत्थगहणेण ॥ १ ॥ आदसहावे सुरओ आत्मस्वभावे टंकोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावचिच्चमत्कारलक्षणनिजशुद्धबुद्धैकपरिणामे जीवतत्वे सुष्ठु - अतिशयेन रत एक १ नि. मू. । २ नं. मू. । ३ आस्स्व इत्याच कविलाठः । ४ आरंभे नास्ति दया महिलासंगेन नाशयति ब्रह्म । शंकया सम्यक्त्वं प्रव्रज्या अर्थग्रहणेन ॥ ५ ए. टी. । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३१३ लोलीभावः । जोई सो लहइ णिव्वाणं य एवं विधो योगी शुद्धोपयोगरतो मुनिः स लभते निर्वाणं, सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितं मोक्षं लभते प्राप्नोति । अथवा जोईसो-योगो ध्यानं विद्यते यस्य स योगी योगिनामीशो योगीश इत्यनेन गृहस्थस्य स्त्रियाः परलिंगे च मुक्तिर्न भवतीति सूचितं ज्ञातव्यं । उक्तं च साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चिन्तानिरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ॥१॥ कथं गृहस्थस्य मुक्तिर्न भवतीति चेत् ?-- खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभः प्रमार्जनी। पंच सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥१॥ तथा स्त्रीणामपि मुक्तिर्न भवति महाव्रताभावात् । तदपि कस्मान्न भवति ? कक्षयोः स्तनयोरन्तरे नाभौ योनौ च जीवानामुत्पत्तिविनाशलक्षणहिंसासद्भावात् , निःशंकत्वाभावात् , वस्त्रपरिग्रहात्यजनात्, अहमिन्द्रपदमपि न लभन्ते कथं निर्वाणमिति हेतोश्च । यदि च स्त्रियो मुक्ता भवन्ति तर्हि तत्पर्यायमूर्तयः कथं न पूज्यन्ते । सर्वथा दुर्मतं विहाय पुरुषस्यैव मुक्तिर्मन्तव्येति भावः । परलिंगे च मुक्तिर्न भवति मिथ्यात्वदूषितत्वात्, दण्डकमण्डलुमृगचर्मकर्माशर्मकारणात् । तद्विस्तरेण प्रमेयकमलमार्तण्डादिषु शास्त्रेषु ज्ञातव्यं । सजातिज्ञापनार्थ स्त्रीणां महाव्रतान्युपर्यन्ते न परमार्थतस्तासां महाव्रतानि सन्ति तेन मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दनापि न युक्ता । यदि ता वन्दन्ते तदा मुाना भिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं ? समाधिकर्मक्षयोऽास्त्वति । ये तु परस्परं मत्थएण वदामीति आर्याः प्रतिवन्दन्ति तेऽप्यसंयमिनो ज्ञातव्याः । दिगम्बराणां मते या नीतिः कृता सा प्रमाणमिति मन्तव्यं । उक्तं च Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते वरिसंसयदिक्खियाए अजाए अज दिक्खिओ साहू | अभिगमण वंदण नसंसणेण विणण सो पुज्जो ॥ १ ॥ इति गाथा अप्रमाणं भवति यदि स्त्रीणां मुक्ति: स्यात् । ३१४ परदव्वरओ बज्झइ विरओ मुचे विविहकम्मे हि । एसो जिउवएसो समासओ बंधमोक्खस्स ॥ १३ ॥ परद्रव्यरतः बध्यते विरतः मुञ्चति विविधकर्मभिः । एष जिनोपदेशः ः समासतः बन्धमोक्षस्य ॥ " परदव्वरओ बज्झइ परद्रव्यं शरीरादिकं तत्र रतो बध्यते बन्धनं प्राप्नोति चौरवत् यथा चौरः परद्रव्यं चोरयन् पुमान् राजला कैर्बध्यते यो न परद्रव्यं चोरयति स न बध्यते । विरओ मुच्चेर विविहक - मेहि विरतः परद्रव्यपरान्मुखः पुमान् मुच्यते - मुक्तो भवति विविधैर्नानाप्रकारैः कर्मभिर्ज्ञानावरणादिभिः । एसो जिणउवएसो ऐष जिनोपदेशः । समासओ बंधमोक्खस्स समासतः संक्षेपात् बन्धमोक्षस्य बन्धेनोपलक्षितो मोक्षो बन्धमोक्षः तस्य बन्धमोक्षस्य । अथवा बन्धश्च मोक्षश्च बन्धमोक्षं समाहारद्वन्द्वस्तस्य । सव्वरओ सवणो सम्माहट्टी हवेइ नियमेण | सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृट्टकम्माणि ॥ १४ ॥ स्वद्रव्यरतः श्रमण: सम्यग्दृष्टिर्भवति नियमेन 1 सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षिपते दुष्टाष्टकर्माणि ॥ १ वर्षशतदीक्षितया आर्यया अद्य दीक्षितः साधुः । अभिगमनेन वन्दनया नमस्कारेण विनयेन स पूज्यः ॥ २ अस्य स्थाने एषो जिनोपदेश इति क पुस्तके । ख. पुस्तके तु एष जिनोपदेश इति । अनेनैव पाठेन भवितव्यं लक्षणशास्त्राविरुद्धत्वात् । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३१५. सव्वरओ सवणो स्वद्रव्यरतः श्रवण आत्मस्वरूपे तन्मयभूतो दिगम्बरः । सम्माट्ठी हवेr नियमेण सम्यग्दृष्टिर्भवति नियमेन निश्चयेन, अत्र सन्देहो नास्ति । सम्यग्दर्शनस्य आत्मपरिणामयेन सूक्ष्मत्वात् चक्षुरादीन्द्रियाणामगोचरत्वात् । सम्मत्तपरिणदो उण सम्यक्त्वपरिणतः पुनः । खवेइ दुदृदृकम्माणि क्षिपते दुष्टानि अष्टकर्माणि ज्ञानावरणादीनि । जो पुण परदन्वरओ मिच्छादिट्टी हवेइ सो साहू | मिच्छत्तपरिषदो उण बज्झदि दुह्टकम्मे हिं ॥ १५ ॥ यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिर्भवति स साधुः । मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ॥ जो पुण परदव्यरओ यः पुनः साधुः परद्रव्यरत इष्टवनितादिरतः स्तनजघनवदनलोचनादिकायादिविलोकनादिलम्पटः । मिच्छादिट्टी हवे सो साहू मिध्यादृष्टिर्भवति संजायते साधुः जिनलिंगोपजीवी | मिच्छत्तपरिणदो उण मिथ्यात्वपरिणतः पुनः मिथ्यादर्शनेन वासितो मुनिः । बज्झदि दुष्टकम्मेहिं बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः । उक्तं चकम्मं दिढघणचिकणई गरुयई वज्जसमाई । पाणवियक्खणजीवडउ उपरि पाडहि ताई ॥ १ ॥ इति कारणात् कर्माणि दुत्वविशेषणविशिष्टत्वं लभन्ते । परदव्वादो दुगई सव्वादो हु सुग्गई हवइ । इय पाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ॥ १६ ॥ परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रात विरतिमितरस्मिन् ॥ १ नि. टी. २ कर्माणि दृढधनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानानि । ज्ञानविचक्षणं जीव उत्पथे पातयति तानि ॥ । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmummmmmmmmm षट्प्राभूतेपरदव्वादो दुगई परद्रव्यादुर्गतिः परमात्मध्यानं परिहृत्य परदव्ये परिणमनान्नरकादिषु चतसृषु गतिषु पतनं हे जीव ! तव भवति । सद्दव्वादो सुग्गई हवइ स्वद्रव्यादात्मद्रव्ये एकलोलीभावात् सम्य श्रद्धानज्ञानानुचरणात् सुगतिर्भवति मुक्तिर्भवति । इय णाऊण सदव्वे इति ज्ञात्वा ईदृशमर्थ परिज्ञाय स्वद्रव्ये आत्मतत्वे । कुणह रई विरइ इयरम्मि कुरुत यूयं रतिं भावनां, विरतिं विरमणं, इतरस्मिन् परद्रव्ये, मा रज्यत यूमिति । तं परदव्वं सद्दव्वं च केरिसं हवदि । तं जहा तत्परद्रव्यं स्वद्रव्यं च कीदृशं भवति । तद्यथा-तदेव निरूपयंत्याचार्या:--- आदसहावादण्णं सच्चिताचित्तमिस्सियं हवदि। तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसीहि ॥ १७ ॥ आत्मस्वभादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति। तत् परद्रव्यं भणितं-अवितथं सर्वदर्शिभिः ॥ आदसहावादणं आत्मस्वभावादन्यत् पुद्गलादिद्रव्यं । सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि सचित्तं विद्यमानचेतनं इष्टवैनितादिकं, अचित्तं अचेतनं धनकनकवसनादिकं, मिश्रितं आभरणवस्त्रादिसंयुक्तं कलत्रादिकं भवति । तं परदव्वं भणियं तत्परद्रव्यं भणितं-आगमे प्रतिपादितं । अवितत्थं सव्वदरिसीहिं अवितथं सत्यरूपं सर्वदर्शिभिः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागैरिति शेषः ! दुहकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं । सुद्धं जिणेहि कहियं अप्पाणं हेवदि सद्दव्वं ॥१८॥ १ भवदि मूलगाथा पाठः। हवइ अन्यत्र । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३१७ दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् । शुद्धं जिनैः कथितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ॥ दुदृढकम्मरहियं दुष्टाष्टकर्मरहितं दुष्टानि पापिष्ठानि यानि अष्टकर्माणि दुर्गतिसंपातहेतुत्वात् तै रहितं वर्जितं । अणोवमं णाणविग्गहं णिचं अनुपम उपमारहित, ज्ञानविग्रहं ज्ञानशरीरं केवल ज्ञानमयं, नित्यं शाश्वतं अविनश्वरं । सुद्धं जिणेहि कहियं शुद्धं निष्केवलं कर्ममलकलङ्करहितं रागद्वेषमोहादिविभावपरिणामविवर्जितं, जिनैः सर्वज्ञवीतरागैः, कथितं--आगमे प्रतिपादितं । अप्पाणं हवदि सद्दव्यं आत्मा भवति स्वद्रव्यं आत्मरूपं स्वद्रव्यं निजद्रव्यं ज्ञातव्यमिति । जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरित्ता । ते जिणवराण मग्गं अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं ।। १९ ॥ ये ध्यायन्ति स्वद्रव्यं परद्रव्यपराङ्मुखास्तु सुचरित्राः । ते जिनवराणां मार्गमनुलग्ना लभन्ते निर्वाणम् ॥ जे झायंति सदव्वं ये मुनयो ध्यायन्ति चिन्तयन्ति स्वद्रव्यं आत्मतत्वं । परदव्वपरम्मुहा दु सुचरित्ता परद्रव्यात् परान्मुखाः परद्रव्ये शरीरादौ रागरहिताः, तु पुनः, सुचरित्रा: शोभनं चारित्रं अनतिचारचारित्रसहिताः । ते जिणवराण मग्गं अणुलग्गा ते मुन्यो, जिनवराणां सर्वज्ञवीतरागाणां, मार्ग रत्नत्रयलक्षणं, अनुलग्नाः पृष्टतो लग्ना भवन्ति-जिनमार्गाराधका भवन्ति । लहदि णिव्वाणं निर्वाणमनन्तसुखं परममोक्षं लभन्ते प्राप्नुवन्ति । जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं । जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥२०॥ १ हि. टी. । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ षट्प्राभृतेजितवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम् । येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ॥ जिणवरमएण जोई जिनवरमतेन जिनशासनेन सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभवनलक्षणेन रत्नत्रयेण योगी दिगंबरो मुनिः । झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं ध्याने एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणे, ध्यायति चिंतयति, शुद्धं रागद्वेषमोहादिरहितं कर्ममलकलंकरहितं टंकोत्कीर्णस्फटिकमणिबिंबसदृशं ज्ञायकैकस्वभावं चिच्चमत्कारस्वरूपं, आत्मानं निजात्मतत्वं । जेण लहइ णिव्वाणं येनात्मध्यानेन लभते निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षमनन्तसौख्यं । ण लहइ किं तेण सुरलोयं तेनात्मध्यानेन न लभते किं न प्राप्नोति सुरलोकं स्वर्गभोगं । तथा चोक्तं तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो ! सहस्वाल्पं स्वरेव ते। प्रतीक्ष्य पाकं किं पीत्वा पेयां भुक्तिं विनाशयेः ॥ १ ॥ जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ॥ २१ ॥ यो याति योजनशतं दिनेनैकेन लात्वा गुरुभारम् । स किं क्रोशाधमपि हु न शक्यते यातुं भुवनतले ॥ जो जाइ जोयणसयं यो याति यः पुमान् याति गच्छति, किं ? योजनशतं सहस्रयोजनदशमभागं । दियहेणेकेण लेवि गुरुभारं दिवसेनैकेन लेवि-लात्वा गृहीत्वा, कं ? गुरुभारं महाभारं । सो किं कोसद्धं पि हु स पुमान् (किं) क्रोशार्धमपि हु-स्फुटं। णे सकए जाह भुवणयले न शक्रोति न समर्थो भवति यातुं भुवनतले पृथिवीमण्डले अपि तु गव्यूतिचतुर्थमंशं यातुं शक्नोत्येव । १ पेयं पाठान्तरं । २ न. टी. । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभतं । जो कोडिए ण जिप्पइ सुहडो संगामएहि रोहिं । सो किं जिप्पइ इकिं णरेण संगामए सुइडोबासर, यः कोट्या न जीयते सुभटः संग्रामः सर्वैः।। स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः ॥ जो कोडिए ण जिप्पड़ यः सुभटः सुभटानां कोट्या न जीयते न पराभूयते । सुहडो संगामएहिं सव्वेहिं सुभटः संग्रामकैः सर्वैरपि । सो किं जिप्पड इकिं स सुभटः किं जीयते एकेन सुभटेन-अपि तु न जीयते । रेण संगामए सुहडो नरेण एकेन पुरुषेण संग्रामके एकस्मिन् संग्रामे । सग्गं तवेग सम्बो वि पावए तहि वि झाणजोएण। जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ॥ २३॥ स्वर्ग तपसा सर्वोऽपि प्राप्नोति तत्रापि ध्यानयोगेन । यः प्राप्नोति स प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम् ॥ सग्गं तवेण सम्बो वि पावए स्वर्ग तपसा कृत्वा उपवासादिन कायक्लेशेन सर्वोऽपि भव्यजीवोऽभव्यजीवोऽपि प्राप्नोति लभते। तह वि झाणजोएण तत्रापि सर्वेष्वपि जीवेषु मध्ये ध्यानयोगेन कृत्वा जो पावइ सो पावइ यः प्राप्नोति स्वर्ग स पुमान् प्राप्नोति। परलोए सासयं सोक्खं परलोके आगामिनि भवे शाश्वतमविनश्वरं सौर परमनिर्वाणमिति शेषः । परभावे इति च कचित्पाठः तत्रायमर्थःपरभावे भवनं भावो जन्मोच्यते तस्मिन् परभावे परजन्मनीत्यर्थः । अइसोहणजोएणं सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य । कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥२४॥ अतिशोभन योगेन शुद्धं हेमं भवति यथा तथा च । काला दिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति ॥ १ एक्कें. टी. । २ न. टी.। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते अइसोहणजोएणं अतिशोभनयोगेन सामग्र्या अनन्धपापाणादिकं अग्निमध्ये पचितं गुरूपदिष्टौषधयोगेन । सुद्धं हेमं हवेह जह तह य शुद्धं षोडशवर्णिकं हेमं सुवर्णे भवति यथा तह य-तथा च तथैव च कालाईलद्धीए कालादिलब्ध्या कृत्वा कालादिलब्ध्यां सत्यां वा । अप्पा परमप्पओ हवदि आत्मा संसारी जीवः परमात्मा भवति - अर्हन् सिद्धश्व संजायते । उक्तं च ३२० नागफणीए मूलं नागिजितोषण गग्भणाएन । नागं होइ सुवण्णं धम्मंतंह पुण्णजोएण ॥ १ ॥ अस्या अयमर्थः- नागफणीए मूलं - नागौषधिः । नागिणितोरणहस्तिनीमूत्रेण पिष्ट्वा । गव्भणोएण- गर्भे नागः सीसको यस्य स गर्भनागः सिन्दूरः सोऽपि मध्ये क्षिष्वा मर्धते । नागं होइ सुवण्णं-नागः सीसकः । एतत्सर्वे मृत्तिकाभाजने क्षिष्वा अधोऽग्निः क्रियते खदिराङ्गारैर्मायते सुवर्ण भवति । पुण्ययोगेन पुण्ययोगं विना सुवर्णे न भवति ब्रह्मादिभ्रष्टस्येति भावः तथायं आत्मा कालादिलब्धि प्राप्य सिद्धपरमेष्ठी भवतीति भावार्थ: । वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ निरई इयरेहिं । छायातवद्वियाणं पडिवालं ताण गुरुभेयं ।। २५ ।। वरं व्रततपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः । छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः ॥ वर वयतवेहि सग्गो वरं ईषदुचौ वरं श्रेष्ठं व्रतैस्तपोभिश्च स्वर्गो भवति तच्चारु | मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं मा दुःखं भवतु निरइ- नरकावासे, इतरैरव्रतैरतपोभिश्च । छाया तवहियाणं छायातप १ नागेण. टी. ! २ धमतां । ३ ए. मूलगाथा पाठः । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३२१ स्थितानां ये छायायां स्थिता अनातपे वर्तन्ते ते सुखेन तिष्ठन्ति, ये आतपे धर्मे स्थिता वर्तन्ते ते दुःखेन तिष्ठन्ति । पडिवालं ताण गुरुभेयं प्रतिपालयतां व्रतानि अनुतिष्ठतां स्वर्गो भवति तद्वरं संसारित्वेनापि ते सुखिनः । अव्रतानि प्रतिपालयतां नरके दुःखमनुभवतां अतिनिन्दितमिति महान् भेदो वर्तते । तथा चोक्तं पूज्यपादेनेष्टोपदेशग्रन्थे वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्बत नारकं । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ॥१॥ जो इच्छई निस्सरिदं संसारमहण्णवस्स रुंदस्स । कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥२६॥ य इच्छति निस्स रितुं संसारमहार्णवस्य रुंद्रस्य । कर्मेन्धनानां दहनं स ध्यायति आत्मानं शुद्धम् ॥ जो इच्छइ निस्सरिदं यो मुनिवर इच्छति अभिलषति, किं कर्तुं ? नि:सरितुं पारं यातुं । कस्य, संसारमहण्णवस्स रुंदस्स संसारमहार्णवस्य संसारमहासमुद्रस्य । कथंभूतस्य, रुन्द्रस्य अतिविस्तीर्णस्य । कम्मिधणाण डहणं कर्मेन्धनानां दहनं कर्मकाष्ठानां भस्मीकरणं । सो झायइ अप्पयं सुद्धं स मुनिया॑यति चिन्तयति, आत्मानं शुद्धं कर्ममलकलंकरहितं रागद्वेषमोहादिविभाववर्जितमिति शेषः । . सव्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं । लोयववहारविरदो अप्पा झाएइ झाणत्थो ॥ २७ ॥ सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागद्वेषव्यामोहम् । लोकव्यवहारविरत आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ॥ सव्वे कसाय मोत्तुं सर्वान् कषायान् क्रोधमानमायालोभान मुक्त्वा परित्यज्य क्षीणकषायो मुनिर्भूत्वा । गारवमयरायदोसवामोहं षट् २१ Phar ___ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ षट्प्राभूते गारवं च शब्दगारवं-अहं वर्णोच्चारं रुचिरं जानामि न त्वेते यतयः, ऋद्धिगारवं-शिष्यादिसामग्री मम बव्ही वर्तते न त्वमीषां यतीनां, सातगारवं-अहं यतिरपि सन् इन्द्रत्वसुखं चक्रिसुखं तीर्थकरसुखं भुंजानो वर्ते न विमे यतयस्तपस्विनो वराकाः । मदा अष्ट-अहं ज्ञानवान् सकलशास्त्रज्ञो वर्ते, अहं मान्यो महामंडलेश्वरा मत्पादसेवकाः । कुलमपि मम पितृपक्षोऽतीवोज्वलः कोऽपि ब्रह्महत्या-ऋषिहत्यादिभिरदोषं । जाति:मम माता संघस्य पत्युर्दुहिता-शीलेन सुलोचना-सीता-अनन्तमती-चन्दनादिका वर्तते । बलं-अहं सहस्रभटो लक्षभटः कोटीभटः । ऋद्धिः-ममानेकलक्षकोटिगणनं धनमासीत् तदपि मया त्यक्तं अन्ये मुनयोऽधमर्णाः संतो दीक्षां जगृहुः । तपः-अहं सिंहनिष्क्रीडित. विमानपंक्तिसर्वतोभद्रशातकुंभसिंहविक्रमत्रिलोकसारवज्रमध्योल्लीणोल्लीणमृदंगमध्यधर्मचक्रवालरुद्रोत्तरवसंतमेरुनन्दीश्वरपंक्तिपल्यविधानादिमहातपोविधिविधाता मम जन्मैवं तपः कुर्वतो गते, एते तु यतयो नित्यभोजनरताः । वपुः-ममरूपाने कामदेवोऽपि दासत्वं करोतीत्यष्टमदाः । रागश्च प्रीतिलक्षणः । द्वेषश्चाप्रीतिलक्षणः । व्यामोहं पुत्र कलत्रमित्रादिस्नेहः । वामानां स्त्रीणां वा ओहो वामौहः तत्तथोक्तं समाहारो द्वन्द्वः । लोयववहारविरदो धर्मोपदेशादिकमपि न करोति लोकव्यवहारविरतः । अप्पा झाएइ झाणत्थो आत्मानं, ध्यायति चिन्तयति, झाणत्थो" उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्" इत्युक्तलक्षणे ध्याने तीष्ठतांति ध्यानस्थः । “ स्थैश्च ” इति कप्रत्ययप्रयोगत्वात् ध्यानस्थ उच्यते । १ अधर्माणः ख. । २ स्नेहं. ख. । ३ ओघो वामौहः क.। ४ जैनेन्द्रस्येदं सूत्रं परिज्ञायते । अस्य स्थाने स्थः कः इति शाकटायनीयं सूत्रं । ___ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३२३ मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण। मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ २८ ॥ मिथ्यात्वमज्ञानं पापं पुण्यं च त्यक्त्वा त्रिवेधेन । मौनव्रतेन योगी योगस्थो द्योतयति आत्मानम् ॥ मिच्छत्तं अण्णाणं मिथ्यात्वं बौद्धवैशेषिकचार्वाककणभक्षकापिलभट्टवेदान्तप्राभाकरश्वेतपटगौपुच्छिकयापनीयद्रामिलनिष्पिच्छाद्यनेकैकान्ताद्याश्रितमतं, अज्ञानं मस्करपूरणमतं । पावं पुण्णं चएवि तिविहेण पापं पंचप्रकारं प्राणातिपातानृतचौर्यमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनादिकं सप्तव्यसनादिलक्षणं च, पुण्यं शुभपुद्गलग्रहणलक्षणं स्वदुःखसहनं इत्यादिकं त्यक्त्वा परिहृत्य त्रिविधेन मनोवचनकाययोगप्रकारेण । मोणव्वएण जोई मौनव्रतेन वाग्व्यापाररहिततया योगी दिगम्बरः । जोयत्थो योगस्थितः शुद्धोपयोगतल्लीनः । द्योतयति ध्यायत्यात्मानं शरीरप्रमाणं निजजीवस्वरूपं । कथं मौनेन तिष्ठतीति प्राकृतवक्त्रमोहजं मया दिस्सदे रूवं तण्ण जाणादि सव्वहा । जाणगं दिस्सदे णंतं तम्हा जपेमि केण हं ॥ २९॥ _यन्मया दृश्यते रूपं तत्र जानाति सर्वथा। ज्ञायको दृश्यतेऽनन्तः तस्माज्जल्पामि केनाहम् ॥ जं मया दिस्सदे रूवं यन्मया दृश्यते रूपं यद्रूपं स्त्रीप्रभतिशरीरादिकं दृश्यतेऽवलोक्यते रूपं रूपिपदार्थ तत् सर्वं पुद्गलद्रव्यपर्यायत्वात्परमार्थतोऽचेतनं । तण्ण जाणादि सव्वहा तद्रूपं सर्वथा निश्चयनयेन न जानाति, अचेतनेन सह कथं जल्पामि । जाणगं दिस्सदे णंतं ज्ञायकमात्मानं रूपाश्रितं वस्तु, अनन्तमात्मतत्वमनन्तकेवज्ञानस्वभावस्वादनन्तं यदहं तेन सह जल्पामि स तु जानात्येवात्मा । तम्हा जंपेमि Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ षटप्राभूते vA केण हं तस्मात्कारणात् केन सहाहं जल्पामि, अथवा केन कारणेन जल्पामि तेन मे मौनमेव शरणं । सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं । जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ॥३०॥ सांस्रवनिरोधेन मैकक्षिपयति संचितम् । योगस्थो जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम् ॥ सव्वासवणिरोहेण सर्वेषामास्रवाणां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणानां निरोधेन निषेधेन । कम्मं खवदि संचिदं कर्म क्षिपयति पूर्वोपार्जितं तडागेऽभिनवजलप्रवेशाभावे संचितपूर्वजलशोषवत् । जोयत्थो जाणए जोई योगस्थः ध्यानस्थित आत्मैकलोलीभावमिलितो जानाति केवलज्ञानमुत्पादयति योगी शुक्लध्यानविशेषागमभाषया केवली भवति । जिणदेवेण भासियं सिद्धार्थनृपनन्दनेन वीरेण कथितमिति भावः । जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥३१॥ यः सुप्तो व्यवहारे स योगी जागर्ति स्वकार्ये ।-.. यो जागर्ति व्यवहारे स सुप्त आत्मनः कार्ये ॥ जो सुत्तो ववहारे यो मुनिः सुप्तः, के ? व्यवहारे व्यवहारमध्ये न पतितः । सो जोई जग्गए सकजम्मि स योगी जागर्ति सावधानो भवति, स्वकार्ये आत्मकार्ये कर्मक्षयविधाने । जो जग्गदि ववहारे यो योगी जागर्ति सावधानो भवति, क ? व्यवहारे लोकोपचारे । सो सुत्तो अप्पणे कज्जे स योगी मुनिः सुप्तो न वेदयतेऽसावधानो भवति आत्मनः कार्ये आत्मस्वरूपे । उक्तं च--- : १ सर्वेषामात्रवाणामिति पाठः क. पुस्तके नास्ति । ख. पुस्तकात् संयोजितः । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ मोक्षप्राभृतं । जो निसि सयलह देहियहं जोग्गिउ तहिं जग्गेइ । जहि पुणु जग्गइ सयलु जगु सा निसि भणेवि सुएइ ॥१॥ इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेण ॥ ३२ ॥ इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् । ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रेण ॥ इय जाणिऊण जोई इतीदृशमर्थ ज्ञात्वा, कोऽसौ ? योगी ध्यानवान् मुनिः ।ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्व आत्मना सह एकलोलीभावं गते सति व्यवहारः स्वयमेव तिष्ठति । झायइ परमप्पाणं ध्यायति परमात्मानं-निजशुद्धबुद्धैकस्वभावे आत्मनि तल्लीनो भवति । जह भणियं जिणवरिंदेण यथा भणितं प्रतिपादित जिनवरेन्द्रेण प्रियकारिणीप्रियपुत्रेण श्रीवीरवर्धमानस्वामिना । पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह ॥ ३३॥ पञ्चमहाव्रतयुक्तः पंचसु समिनिषु तिसृषु गुप्तिषु । रत्नत्रयसयुक्तः ध्यानाध्ययन सदा कुरु॥ पंचमहव्वयजुत्तो पंचमहाव्रतयुक्तो दयावान् सत्यवादी अदत्तादानविरतः सर्वस्त्रीसोदरः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः दिवा एकवारं प्रत्युत्पन्नं प्रासुकं भुक्तं शुद्धं शोधितं भुंजानः । पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु इर्यायां युगान्तरविलोकगमनः, आगेमोक्तभाषानिपुणः, चर्मजलस्पृष्टभो. जनपरित्यागी हिंगुसंवासितव्यंजनाभोजनः अजिनसंगघृततैलपरिहारी,दृष्टमृष्टोपकरणग्रहणनिक्षेपः, प्रासुकारुद्धभूमिमलमूत्रव्युत्सर्जनकुशलः, अपध्यानमनोनिषेधी, मौनवान् , कूर्मवत्संकोचितकरचरणादिकार्यः । रयण१ या निशा सकलानां देहिनां योगी तस्यां जागर्ति । यस्यां पुनः जागर्ति सकलं जगत् तां निशां भणित्वा स्वपिति ॥ ___ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ षट्प्राभूतेत्तयसंजुत्तो मिथ्यात्वकंदकुद्दालः सम्यग्ज्ञानानुशीलनकुशलः सच्चरित्रपवित्रगात्रः । झाणज्झयणं सया कुणह ध्यानाध्ययनं सदा सर्वकालं कुरु त्वं हे जीव ! इति तात्पर्यार्थः ।। रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्यो । आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥३४॥ रत्नत्रयमाराधयन् जीव आराधको मुनितव्यः । आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम् ॥ रयणत्तयमाराहं रत्नत्रयमाराधयन् । जीवो आराहओ मुणेयवो जीव आत्मा आराधको मुनितव्यो ज्ञातव्यः । आराहणाविहाणं इदमाराधनाविधनं विधिः । तस्स फलं केवलं गाणं तस्याराधनाविधानस्य, किं फलं केवलं ज्ञानं अनन्तकेवलज्ञानमिति अनन्तचतुष्टयं । सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरसी य । सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुमं केवलं गाणं ॥३५॥ सिद्ध शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । __ स जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम् ॥ सिद्धो सुद्धो आदा सिद्ध आत्मोपलब्धिमान् । शुद्धः कर्ममलकलंकरहितः, ईदृग्विध आत्मा अतति समयैकेन ऊर्ध्वं व्रज्यास्वभावेन त्रिभुवनाग्रं गच्छतीति आत्मा शुद्धबुबैकस्वभावः । सबण्हू सव्वलोयदरिसी य सर्वज्ञः त्रैलोक्यालोकस्वरूपज्ञायककेवलज्ञानसमुपेतः, सर्वलोकदर्शी च सर्वशब्देनालोकाकाशो लभ्यते लोकशब्देन षडूद्रव्याधारवत्रिभुवनमुच्यते तव्यं दृष्टुं अवलोकयितुं शीलमस्येति सर्वलोकदर्शी । चकार उक्तविशेषणसमुच्चयार्थः तेनानन्तवीर्यानन्तसौख्यावदादिरनन्त१ रयणत्तयमाराहं अयं पाठः क. पुस्तके नास्ति, ख. पुस्तकात् संयोजितः । २ सौख्यादादि इ. ख. पुस्तके पाठः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwww मोक्षप्राभृतं । ३२७ गुणोऽपि गृह्यते । सो जिणवरेहि भणिओ स एवं गुणविशिष्ट आत्मा जिनवरैस्तीर्थकरपरमदेवैर्भणितः प्रतिपादितः । एवं गुणविशिष्टमात्मानं जाण तुमं केवलं णाणं जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं, आत्मा खलु केवलं ज्ञानं-अभेदनयत्वात् ज्ञानमेवात्मानं जानीहि । रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण । सो झायदि अप्पाणं परिहरदि परंण संदेहो ॥ ३६॥ रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन । स ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः ॥ रयणत्तयं पि जोई रत्नत्रयमपि योगी ध्यानवान् मुनिः, न केवलं गुणिनमात्मानं तद्गुणं रत्नत्रयमपीत्यपेरर्थः । आराहइ जो हु जिणवरमएण आराधयति यः संयमी हु-स्फुटं जिनवरमतेन सर्वज्ञवीतरागकथितमार्गेण । सो झायदि अप्पाणं स योगी ध्यायति चिंतयति, कं ? आत्मानं सहजानन्दस्वभावं जीवतत्वं । चकाराद्य आत्मा तद्रत्नत्रयं यद्रत्नत्रयं स आत्मा गुणगुणिनोरभेदनयात् । परिहरदि परं णं संदेहो परिहरति परित्यजति, परं पुद्गलाद्यचेतनद्रव्यं, न सन्देहोऽत्रार्थे संशयो नास्ति । कह दे रयणत्तयं हवदि तं जहाकथमात्मनि रत्नत्रयं भवतीति चेत् ? तद्यथा-तदेव निरूपयति जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ॥ ३७ ॥ यज्जानाति तज्ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् । तच्चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम् ।। १ न. टी. । २ आदा. ग. घ. अन्यत्र च पाठः । अस्यार्थ आत्मेति । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ षट्प्राभूतेजं जाणइ तं णाणं यजानाति तज्ज्ञानं आत्मैव जानाति तेनात्मैव ज्ञानमित्यर्थः । “ कृत्ययुटोऽन्यत्रापि” इति वचनात् कर्तरि युट् । जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं यत्कर्तृभूतं, पश्यति तद्दर्शनं ज्ञेयं ज्ञातव्यं आत्मैव पश्यति तेन कारणेनात्मैव दर्शनं । अत्रापि पूर्ववत् कर्तरि युट् । तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं तच्चरित्रं भणितं प्रतिपादितं, तत्किं ? परिहारः पुण्यपापानां आत्मैव पुण्यं पापं च परिहरति तेनात्मैव चारित्रं । " पापक्रियाविरमणं चरणं किल" इति वचनात् । तथा चोक्तं न किंचित् पापाय प्रभवति न वा पुण्यततये प्रसिद्धेद्धां शुद्धिं समधिवसतो ध्वंसविधुरां। भवेत् पुण्यायैवाखिलमपि विशुद्धयंगमपरं मतं पापायैवेत्युदितमवताद्वो मुनिपतेः ॥१॥ मुनिपतिरत्र विद्यानन्दी समन्तभद्रो वा मंतव्यः । अण्णं च-अन्यच्च वचनमस्तीति भगवंतो निरूपयन्ति-- तचरई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारित्तं परिहारो पयंपियं जिणवरिंदेहि ॥३८॥ तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वग्रहणं च भवति संज्ञानम्। चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रः ॥ तच्चरुई सम्मत्तं तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वानां जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणोपलक्षितानां सप्तानां रुचिः श्रद्धा सम्यक्त्वमुच्यते । " तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं " इति वचनात् । तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं तत्वानां पूर्वोक्तसप्तपदार्थानां ग्रहणं सम्यग्विज्ञानं भवति सज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं । चारित्तं परिहारो चारित्रं पापक्रियापरिहरणं परिहार: सम्यक्चारित्रं भवति । पयंपियं जिणवरिंदेहि प्रजल्पितं कथितं जिनवरेन्द्रैः। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३२९ दसणसुद्धो सुद्धो देसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसो न लहइ तं इच्छियं लाहं ॥३९ ॥ दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् । दर्शनविहीनपुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम् ।। दंसणसुद्धो सुद्धो दर्शनेन सम्यग्दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धो निर्मलो निरतिचारः पंचविंशतिदोषरहितः पुमान् शुद्धः कथ्यते । उक्तं च सम्यग्दर्शनसंशुद्धमपि मातंगदेह। देवा देवं विदुर्भस्मगूढागारान्तरोजसं ॥ १॥ दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं दर्शनशुद्धः पुमॉल्लभते निर्वाणं मोक्षं । दसणविहीणपुरिसो दर्शनविहीनः पुरुषः सम्यग्दर्शनरहितः पुमान् सम्यक्त्वविवर्जितो जीवः । न लहइ तं इच्छियं लाहं न लभते न प्राप्नोति तं जगत्प्रसिद्धं योगिनां प्रत्यक्षं इष्टं लाभं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षपदार्थ । इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु । तं सम्मत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि ॥४०॥ इति उपदेशः सारो जन्ममरणहरं स्फुटं मन्यते यत्तु । तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि । इय उवएसं सारं इतीदृश उपदेशः संबोधवचनं, सारं-सारः श्रेष्ठतरः । श्रेष्ठे बैले स्थिरस्वान्ते मज्जायां सार उच्यते । जले न्याय्ये धने विद्भिः सारमुक्तं नपुंसके ॥ १ ॥ जरमरणहरं खु मण्णए जंतु जरामरणहरं जरामरणविनाशकं इमं उपदेशं मन्यते श्रद्दधाति यत्तु यत् श्रद्धत्ते तु पुनः । तं सम्मत्तं भणियं तत्सम्यक्त्वं भणितं प्रतिपादितं । समणाणं सावयाणं पि १ अमरेऽप्युक्तं-" सारो बले स्थिरांशे न्याय्ये क्लीवं वरे त्रिषु ।" Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० षट्प्राभृते श्रवणानां दिगम्बराणां अनगारयतीनां श्रावकाणामपि गृहस्थानां । अपिशब्दाच्चातुर्गतिक जीवानामपि । जीवाजीव विहत्ती जोई जाणे जिणवरमरणं । तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरिसीहिं ॥ ४१ ॥ जीवाजीव विभक्ति योगी जानाति जिनवरमतेन । तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः ॥ 1 जीवाजीव विहत्ती जीवाजीवानां विभक्तिः भेदस्तां जीवाजीववि भक्ति । जोई जाणे जिणवरमएणं योगी दिगम्बरो मुनिः, जानाति वेत्ति यथावत्स्वरूपमवैति, जिनवरमतेन सर्वज्ञशासनेन । तं सण्णाणं भणियं तत्संज्ञानं भणितं तत्सम्यग्ज्ञानं कथितं । अवियत्थं सव्वद - रिसीहिं अवितथं सत्यभूतं, सर्वदर्शिभिः सर्वज्ञैरिति शेषः । उक्तं चअन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ १ ॥ जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारितं भणियं अवियप्पं कम्मरहिए ॥ ४२ ॥ यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापयोः । तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्म्मरहितेन ॥ जं जाणिऊण जोई यज्ज्ञात्वा विज्ञाय योगी जैनो मुनिः । परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं परिहारं परित्यागं करोति पुण्यपापयोः । तं चारितं भणियं तदात्मना सहकलोलीभावः तन्मयत्वं तत्परत्वं तन्निष्टत्वं तदेकतानत्वं चारित्रं परमोदासीनतालक्षणं भणितं प्रतिपादितं । केन, कम्मर हिल्ण घातिकर्मविध्वंस केन सर्वज्ञेन । तत्कथंभूतं चारित्रं, अवियप्पं अविकल्पं संकल्पविकल्परहितं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं यथाख्यातनामकं । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससतीए । सो पावs परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं || ४३ ॥ यो रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या । स प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम् ॥ जो रणत्तयजुत्तो यो जैनो मुनी रत्नत्रययुक्तः सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्रसंहितः सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमुपेतः । कुणइ तवं संजदो संसत्तीए करोति विदधाति सम्यगनुतिष्ठति, किं तत् ? तप इच्छानिरोधलक्षणं आत्मनि ज्ञानवत्तया तपनं संयतो जैनो मुनिः परमोदासीनतालक्षणसंयमं सम्पन्नः स्वशक्त्या आत्मशक्त्यनुसारेण । उक्तं च 3 " जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहइ । सद्दहमाणो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥ १ ॥ " शक्तितस्त्यागतपसी" इति वचनात् । सो पावर परमपर्यं स प्राप्नोति स मुनिर्लभते, किं तत् ? परमपदं इन्द्रवरणेन्द्रमुनीन्द्रनरेन्द्रवंदितं स्थानं परमनिर्वाणं । झायंतो अप्पयं सुद्धं ध्यायन् सन् एकाग्रतया चिन्तयन्, कं ? आत्मानं निजशुद्धबुद्धैकस्वभावात्मतत्वं शुद्धं द्रव्यकर्मभावकर्मनो कर्मरहितं रागद्वेषमोहादिविवर्जितं कर्ममलकलङ्करहितं प्रत्यक्षतया प्राप्तमिति तात्पर्यार्थः । " तिहि तिणि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ । दोदोसविप्पको परमप्पा झायए जोई ॥ ४४ ॥ ३३१ त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिकलितः । द्विदोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी ॥ १ सशब्दोऽयं टीकायां नास्ति मूलात् संयोजितः । २ यच्छन्नोति तत्क्रियते यच्च न शक्नुयात् तच्च श्रद्धीयते । श्रद्दधानो जीवः प्राप्नोति अजरामरं स्थानं ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ षट्माभृतं तिहि त्रिभिः मनोवचनकायैः । तिणि धरवि त्रीन् वर्षाशीतोष्णकालयोगान् धृत्वा । “तुआण तूणाव तुम् च क्त्वायाः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण क्त्वास्थानेऽव-आदेशः तेन धृत्वा इत्यस्य स्थाने वरवि इति प्रयोगः साधुः । णिच्चं सर्वदा सर्वस्मिन् दीक्षाकाले । तियरहिओ मायामिथ्यात्वनिदानशल्यत्रिकरहितः । तह तिएण परियरिओ तथा तेनैव त्रिकरहितप्रकारेण, त्रिकेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेण, परिकरितो मंडितः । दोदोसविप्पमुक्को द्विदोषविप्रमुक्तः विशेषेण प्रकर्षण रागद्वेषदोषरहितः । परमप्पा झायए जोई परमात्मानं सिद्धस्वरूपमात्मानं ध्यायति चिंतयति योगी ध्यानवान् मुनिः । अथवा योगीति योगबलेन मनोवाक्काययोगावष्टम्भेन । मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो । निम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तम सोक्खं ॥ ४५ ॥ मदमायाकोधरहितः लोभेन विवर्जितश्च यो जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः स प्राप्नोति उत्तम सौख्यम् ॥ मयमायकोहरहिओ मदमायाक्रोधरहितः । लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो लोभेन विवर्जितश्च यो जीव आत्मा । निम्मलसहावजुत्तो निर्भलस्वभावः रागादिरहितः परिणामस्तेन संयुक्तः। सो पावइ उत्तमं सोक्खं स जीवः प्राप्नोति लभते, किं ? उत्तमं सौख्यं कर्मक्षयसंजातं-इन्द्रियसुखरहितं-इन्द्रादीनामपि दुलर्भ सौख्यं परमानन्दलक्षणं । तथा चोक्तं--- जे मुणि लहइ अणंतसुहु नियअप्पा झायंतु । तं सुहु इंदु वि न वि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ॥१॥ १ जो. क. । २ यन्मुनि: लभतेऽनन्तसुखं निजात्मानं ध्यायन । तत् सुखं इन्द्रोऽपि नैव लभते देवीनां कोटिं रममाणः ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAMANAN मोक्षप्राभृतं । विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो। सो न लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो ॥४६॥ विषयकाषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः ।। स न लभते सिद्धसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखो जीवः ॥ विसयकसाएहि जुदो विषयैः वनिताजनानामालिंगनादिस्पदिपंचेन्द्रियसुखैः कषायैश्च क्रोधमानमायालोभैः युतः संहितः । रुद्दो परमप्पभावरहियमणो रुद्रः सत्यकिमहाराजपुत्रः परमात्मभावरहितमनाः परमात्मभावनाया: प्रभृष्टः । सो न लहइ सिद्धिसुहं स रुद्रो न लभते न प्राप्नोति, किं ? सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिसुखं । तर्हि किं लभते ? नरकदुःखं लभते इत्यर्थापत्तिः । जिणमुदपरम्मुहो जीवो जिनमुद्रापराङ्मुखो जीवः-जिनमुद्रां परित्यज्य भ्रष्टो बभूवेति भावार्थः । रुद्रस्य कथा यथा-अथेह भरतक्षेत्रे विजयापर्वते दक्षिणश्रेण्यां किन्नरगीतनगरे रत्नमाली खगनरेन्द्रो मनोहरीविद्याधरीकान्तः, तत्पुत्रो रुद्रमाली । स एकस्मिन् दिने स्वच्छन्दं वने विहरमाणो विद्यां साधयन्ती विद्याधरकुमारी ददर्श । तद्रूपमोहितो विद्यया भ्रमरो बभूव । षण्मासपर्यन्तं तद्वदनकमले स्थितिं चकार । पुनः सूक्ष्मो भूत्वा स्तनयोजघने च तस्थौ । पश्चात्प्रकटीकृतनिजशरीरः स तया परिंगलितधैर्यो भणित:-प्रतीक्षस्व कियत्कालं तावत् विघ्नं मा कार्षीः । शिखिदुर्लभाविद्या सिद्धयति तस्यां सिद्धायां तव जाया भविष्यामि । हे सुभग ! बद्धानुरागाहं वर्ते । तदा तेन सा पृष्टा । भद्रे ! त्वं कस्य धूदा ? । भणितं च तया । अत्रैव पर्वते उत्तरस्यां श्रेणौ गन्धर्वपुरपत्तनाधीशो मम पिता महाबलः । तस्य प्रभाकरी भार्या । तयो/दा प्रसिद्धाहमर्चि १ अस्मात्पदादग्रे सुता इत्यपि पाठः ख. पुस्तके वर्तते । स च क, पुस्तके टिप्पणरूपेण वर्तते । धूदा इत्यस्यैव नामान्तरं सुतेति । ज्ञायते खलु लेखकप्रमादोऽयं । यत् मूले प्रक्षिप्तोऽयं सुतेति शब्दः । ___ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ षट्प्राभूतेमालिनी । तयापि पृष्टः त्वं कः ? । स आह । अत्र गिरौ दक्षिणश्रेणी किन्नरगीतपुरप्रभुरत्नमालिमनोहयो: सुतोऽहं रुद्रमाली नाम । बहुभिदिनैः साधितविद्यार्चिमालिनीन्दुवदना सदनं जगाम। मातरपितरौ द्वयोमनो विज्ञाय तयोविवाहं चक्रतुः । तौ रतिरसरंजितौ साधितप्रज्ञप्तिविद्यौ नन्दनवने शान्तिहेतवे जिनस्नपनपूजनस्तवनानि कृत्वा सुखं स्थितौ । मनोजयचित्तवेगौ तस्या मैथुनिकावागत्य महाजालिनीविद्यया रुद्रमालिनं बद्ध्वा प्रगृह्य गतौ। सोऽपि तौ निर्जित्य पुनरागतः । अर्चिमालिन्या सह निजपुरं प्रविवेश । सानुरागस्तस्थौ । एकदा वैराग्यं प्राप्य चारणचरणमूले सभार्यो दिदीक्षे । तौ परस्परं ममायं कान्तो भविष्यति ममेयं प्राणप्रिया भविष्यतीति सनिदानौ सौधर्म संन्यासेन गतौ। तत्रापि दीर्घकालं रतिसुखं भुक्त्वा गन्धारदेशे माहेश्वरपुरे स देवः सत्यन्धरमहाराजसत्यबत्योः सुतः सात्यकिर्जातः । अर्चिमालिनीचरी देवी सौधर्माच्च्युत्वा सिन्धुदेशे विशालीपत्तने चेटकमहाराजसुप्रभादेव्योः सुता ज्येष्ठा जाता।सा सात्यके: पूर्वमेव दत्ता । परं विवाहो न वर्तते । अत्रान्तरे श्रेणिकमहाराजपुत्रः कन्यार्थ सार्थवाहो भूत्वा अभयकुमारो नाम धूर्तस्तत्रागतः । तत्र राजपुत्र्यौ चेलनां ज्येष्टां च चालयित्वा उपायं कृत्वा सुरंगया निःसृतः । तत्र चेलनया जेष्टा आभरणादिमिषेण व्याघोटिता स्वयं श्रेणिकं आगता । यावज्ज्येष्टा जिनप्रतिमां गृहीत्वा गच्छति तावत्तत्र कोऽपि न दृष्टः । जेष्ठा तु लजिता " अहं वृहद्भगिन्या वंचिता" इति वैराग्यण पितृष्वसुर्यशस्वत्याश्चैत्यालये स्थितायाश्चरणमूले दीक्षां जग्राह । कनकांचनवायाः कन्याया वार्ता श्रुत्वा सत्यकिर्नाम कुमारः संसाराद्विरक्तो राज्यलक्ष्मी परित्यज्य समाधिगुप्तं नत्वा जिनदीक्षामग्रहीत् । त्रिगुप्तिगुप्तः १ आर्यिकायाः Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३३५ सन् स तपस्तीनं कुर्वाण उत्तरगोकर्णमनि मुक्त्वा कदाचित् राजगृहनगरसमीपे उच्चग्रीवपर्वते स्थितः । एकस्मिन् दिने तद्गुणानुरागिण्यस्तत्रत्यास्तिं वन्दितुमागताः । वन्दित्वा यावद्गिरेवतरन्ति तावन्महामेघवृष्टिरागता । आर्यास्तु स्तिम्यन्त्यो विव्हलीभूता यत्र तत्र गताः। जेष्टार्या सत्यकिमुनेगुहां प्रविष्टा । तत्र वस्त्रं निष्पीलयन्ती ज्येष्ठा सत्यकिना मुनिना दृष्टा । समुत्पन्नकामोद्रेकेण सा तेन भुक्ता। पुनरालोचनां निन्दा गर्हणं च कृत्वा श्रवणधर्मे स्थितः । सा सगी शान्त्यार्यया ज्ञात्वा चेलन्याः समर्पिता- तत्र तिष्ठन्ती सा पुत्रमसूत । स पुत्रोऽभयकुमारेण स्वयंभूगुहायां क्षिप्तः । तत्र रात्रौ स्वप्नदर्शनाच्चेलनया स आनायितः । दर्शनोड्डाहं शमयित्वा स्वयंभूनामा कृतः । ज्येष्ठा तु निःशल्या भूत्वा गता । आर्यायाः पार्वे संयमनियमान् पालयन्ती स्थिता । स्वयंभूस्तु वर्धमानः शिशूनां चपेटादिताडनेन सन्तापं करोति । तद्देव्या चेलनया अपरमपि कालेनायुक्तं दृष्ट्वा स्वयंभूरुक्तः । खलो जारजातो निर्लजः किं केनापि स्वभावं मुंचति । भ्रुकुटिं कृत्वा दुर्वचनेन शूलभिन्न इव ताडितः । पुनः स प्रणामं कृत्वा पृष्टवान्-मातः ! किमेतदुक्तं ? चेलनया तु न किमपि रक्षितं यथोक्तमुवाच। निजोत्पत्तिव्यतिकरं ज्ञात्वा उत्तरगोकर्णपर्वतं गत्वा सत्यकिमुनि नत्वा वैराग्येण दिगम्बरो भूत्वा उत्तरगोकर्णपर्वते स्थितः । गुरुशिक्षया मनो रुद्ध्वा स एकादशाङ्गानि शिक्षितः। तत्र रोहिणीप्रभूतयः पंचशतविद्या महातिशया आगताः सिद्धाः । अपरा अपि अंगुष्टप्रसेनाप्रभृतयः सप्तशतक्षुद्रविद्यास्तस्य सिद्धाः । विद्यासामर्थेन सिंहो भूत्वा जन भीषयति। तद्वृत्तान्तः केनचित् सत्यकेनिरूपितः । गुरुणा स ऊचे-मुने ! तब स्त्रीहेतुना विनाशो भविष्यति। २ आर्या समस्तापि इति ख. पुस्तके एकवचनान्तोऽशुद्धः पाठः। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ षट्प्राभृते । तच्छ्रुत्वा यत्र स्त्रीमुखं न पश्यामि तत्राहं तपः करिष्यामीति कैलासपतं गत्वा तपः कर्तुं लग्नः । तावद्विजयार्धदक्षिणश्रेणौ मेघनिबद्धपत्तने कनकरथो नाम विद्याधरनरेन्द्रः । तदेवी मनोरमा | देवदारुविद्युद्रसनौ द्वौ पुत्रौ । एकदा देवदारुं राज्ये स्थापयित्वा विद्युजिव्हं च युवराजं कृत्वा कनकरथो गुणधरगुरुचरणमूले दीक्षां जग्राह । प्रज्ञप्तिविद्याप्रभावेण विद्युजिव्हेन देवदारुर्जितो निर्घाटितः । कैलासमागत्य सपरिवारो विद्यापुरं कृत्वा निर्भयः स्थितः । तस्य देवदारोः चतस्रो महादेव्यः सत्यः योजनगन्धा, कनका, तरंगवेगा, तरंगभामिनी चेति । चतस्रोऽप्यतिमनोहरशरीराः | योजनगन्धायां गंधिला गन्धमालिनी चेति द्वे धीदे जाते अतिविनीते । कनकायां कनकचित्रा कनकमाला चेति धूदे द्वे जाते । तरंगवेगायां तरंगसेना तरंगवती चेति द्वे कन्ये संजाते । तरंगभामिन्यां सुप्रभा प्रभावती चेति द्वे पतिवरे बभवतुः । एता अष्टावपि दिव्याभरणभूषिता दिव्याम्बरधरा अमरकुमारिका इक कंचुकिपरिवरितास्तिष्ठन्ति । एकदा कैलासोपरि मानससरसि जलक्रीडार्थमागताः पीनोन्नतस्तनशोभिताः स्नानं कुर्वतीस्ता रुद्रो ददर्श । मदनवाणैवक्षास विद्धः । क्षुभितो रुद्रो व्यामोहं प्राप । तेनासन्नस्थितेन कामबाणजर्जरितहृदयेन चिन्तित उपायः । विद्यया सरस्तटस्थितानि वस्त्राभरणानि हारयति स्म । ता अनुपमाः स्नानं कृत्वा तटमागव्य वस्त्राभरणानि न पश्यन्ति स्म । व्याकुलितमनोभिस्ताभिर्मुनिसमीपं गत्वा स मुनिरूचे । स्वामिन् ! न ज्ञायते देवानामपि प्रियाणि अस्माकं वस्त्राभरणानि केनचिद्गृहीतानि । भगवन् ! त्वं ज्ञानवान् जानासि निश्चितं कथय । रुद्र उवाच । जानाम्येव, यदि मामिच्छत यूयं तदा दर्शयामि। एतच्छ्रुत्वा विस्मित्य नवयौवना विद्याधरकुमार्य ऊचुः । मुने! १ अस्य स्थाने सन्तीति पाठः ख. पुस्तके | Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ waman..rina मोक्षप्राभृतं । ३३७ वयं स्वच्छन्दचारिण्यो न वर्तामहे । अस्मन्मातरपितरौ जानीतः। स्वच्छन्दचारिणीनां विद्यामाहात्म्यं कुतः । ततो वस्त्राभरणानि दत्वा शिपिविष्टः प्राह । निजमातरपितृगणं पृष्ट्वा मम उत्तरं दत्त यूयं । ताभिर्गृहं गत्वा पितुरले वार्ता कृता। पित्रा तु एकः कंचुकी संदेशहरो हरं प्रेषितः । स गत्वा मुनिमुवाच । स्वामिन् ! अस्मत्स्वाम्येवं भणति । यदि मेघनिबद्धं पत्तनं गत्वा मेघनृपं तथा मेघनादं च दायिनं निर्धाट्य त्रिकहर्षदायि त्रिपुरं पुरं प्रवेशयास मां तदा जनमनोमोहनकारिणीमम सुता अष्टा अपि ददामि । कपर्दिना ओमिति भणिते कंचुकिना चागत्य राज्ञे तथा कथिते खचराधिपो हर्ष चकार । सुहृत्सुजनवर्गेण सर्वेण तत्र गत्वा शर्व स्वमन्दिरमानिनाय । तत्रोपवेश्येश्वरमादितो वृत्तान्तं जगाद यथा दायिना राज्यमपहृतं । ईशान उवाच । राजन् ! यत्त्वं भणसि तदहं साधयामि, किमेकेन त्रिपुराधिपेन ? त्रिजगदपि संहरामि । तदनन्तरं सरोषो देवदारुर्भयरहितो नानाछत्रध्वजचामरसैन्यसहितः शंकरं नीत्वा तत्र गतः। पुरं वेष्टितवान् । विद्युजिव्हस्तु निर्गतः, चन्द्रशेखरस्तेन सह त्रैलोक्यचित्तचमत्कारकारकं समनीकं चकार । ज्वालिन्या विद्यया ज्वालयित्वा रिपुं भस्मयामास । त्रिपुरं गृहीत्वा देवदारुः सुखी बभूव । जामातरं त्रिपुरं नीत्वा तस्मै चन्द्रशेखराय अष्टा अपि कन्या अदित । तास्त-मैथुनमसहमाना अष्टा अपि मृताः। देवदारुखगस्याष्टचन्द्रैः सुहृद्भिः शत्रुमारकस्य भूतेशस्य मालतीमाला इव कोमलभुजाः पंचशतकन्याः पुनर्दत्ता: । ता अपि खण्डपरशोर्विषमरतेन दिनं दिनं प्रति भुक्ता एकैकाः सर्वा अपि मनुः । तदा तासां मरणे गिरीशश्चिन्ताव्याकुलितमनाः स्थितः । अथ गौर्या सह यथा संयोगो जातस्तत्कथां कथयामि शृणुत भव्याः ! । पूर्वभवे खल्वेका क्षान्तिका देशान्तरं यान्ती मार्गश्रमश्रान्ता धीवरेण नदीमुत्तारिता । षट्र० २२ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ षट्प्राभृते तस्य मत्स्यबन्धस्य शीतलशरीरस्पर्शेन सा आप्यायिता । तया विषयाशया कर्मवशेन निदानं कृतं - अन्यस्मिन् भवे प्रकटितपरमस्नेहोऽयं मम भर्ता भविष्यतीति । ईदृशं निदानं कृत्वा कार्यं विमुच्य सौधर्मेन्द्रस्य देवी जाता । कैवर्तस्तु संसारे भ्रमित्वा मिथ्यातपः कृत्वा ज्येष्ठासुतो जात: । अथ सावस्तिपुरे राजा वासवः । तन्महादेवी मित्रवती । तया विद्युन्मती नाम्नी कन्या जनिता । तडिद्दंष्ट्रस्य विद्याधरस्य सा दत्ता । सौधर्मेन्द्रदेवी च्युत्वा विद्युन्मती गर्भे स्थिता | नवमे मासे कष्टेन जनिता । विद्युन्मती विद्याधरी पीडावशेन निर्विन्ना (ण्णा ) सती सौवस्तिनगरे पर्वतगुहायां त्याजिता । तत्र गुहायां चतस्रो द्विजपुत्र्यः क्रीडितुं कन्यापुण्येनागताः । उमा उमा इति शब्देन रटन्ती ताभिर्दृष्टा | उमेति नाम कृत्वा सा कोमलाङ्गी करुणया गृहमानीता । ब्राह्मणपुत्रीभिश्चतसृभि सा कन्या राजकुले विद्युन्मत्या महादेव्या वासवनुपपत्न्याः [सा बालिका ] दर्शिता । तयापि गृहीत्वा पुत्र्यः पुत्री निजधात्र्याः पंडितायाः पालयितुं दत्ता। अथाष्टचन्द्रनृपेषु प्रधान ईंद्रसेनाभिधानो गगनाङ्गणे संचोदितविमान एकस्मिन् दिने साँवस्तिमागतः । तस्य कुलस्त्रियाः निजभगिन्या अपत्यरहिताया: सन्मानपूर्वकं मित्रवत्या वासवनृपभार्यया गिरिकर्णिकानाम्न्याः सा उमा दत्ता । तयापि प्रतिपाल्य नवयौवना कृता । सा सुन्दरी सुरकूटपुरेशविद्याधरेशतडिद्वेगस्य परिणायिता । सा मदोन्मत्ता सुष्ठु सुरतानुरागा यदा सुरतसुखमनुभवति तदा तडिद्वेगो मृतः । उमा तु यौवनमदेन स्वच्छन्दा जाता । विश्वस्तोमा देवदारुनगरे एकस्मिन् दिने गता । देवदारुणा तच्चारं ज्ञात्वा रतिगुणाधिका सा स्थाणोर्विद्या. १ स्रा. ख. । २ स्रा. ख. । स्वा. क. । पूर्वपाठानुसारेण ( सा ) प्रवर्तितः । ३ पुत्र्याः । ४ विद्युन्मत्याः । ५ उमा । ६ च. ख. । ७ स्रा. ख., स्वा क. । अयोध्यां । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं। ३३९ विभवस्यार्धमाननेनार्धासनस्याङ्गीकरणेन च तस्य भार्या पुनर्भूर्जाता । भूतेशस्तु तस्या मुखविशप्रसूनं निरीक्षमाणोऽहर्निशं तिष्ठति । सरित्सु सीतासीतोदादिषु सरस्सु पद्मादिषु गिरिषु मेर्वादिषु लवणोदादिषु ससुद्रेषु देवारण्यादिषु च वनेषु सर्वमंगलया तया सार्धमनुदिनं रममाण उर्वरायां पर्यटति । स जटामुकुटविभूपितो वृषारूढो भस्मोद्धूलितो लोकानेवं वदति-अहं त्रिजगत्स्वामी, कर्ता, हर्ता, शिवः, स्वयंभूः, शंभुः, ईश्वरः, हरः, शंकरः, सिद्धः, बुद्धः त्रिपुरारिः, त्रिलोचनः, प्रकृतिशुद्धः, सर्वज्ञः, उमापतिः, भवः, ईशः, ईशानः, मृडः, मृत्युञ्जयः, श्रीकण्ठः, वामदेवः, महादेवः व्योमकेश इत्यादीनि मम नामानि । अहमेव वर्तेऽपरो नास्ति । मायावी विजयाधै बहूनि दिनान्युषित्वा जनमनांसि मंत्रै रंजयित्वात्र भरतक्षेत्रमागत्य तेन शैवशास्त्रं. प्रकटीकृतं । तद्दीक्षिताः शैवाचार्या बहवो बभूवुः । दर्शितगुणा गणाः प्रभूता मिलिताः, तैः परिवृतोऽस्खलितप्रतापोऽनवरतमुमाप्रेमानुरागो द्वादश वर्षाणि विषयसौख्यं भुंजानो मह्यां हतविपक्षो भ्रमितः। तत्प्रतापं दृष्ट्वा सर्वेऽपि विद्याधरा अतिभीताः । तैर्विचारितं एष महाविद्याबलीयानस्मान् मारयित्वा उभये अपि श्रेण्यो निश्चितं ग्रहीष्यति । केनोपायेनायं खलो हन्यते यावन्न हन्तीति । लोकं चिन्ताकुलं दृष्ट्वा मात्रा गिरिकर्णिकानाम्न्या निजसुतोमा भेदं पृष्टापुत्रि उमे! मम जामातुर्विद्याः कदाचिदपि अवशा भवन्ति न वेति, उमा प्राह-मातगिरिकर्णिके ! यदायं मया सह सुरतसुखमनुभवति तदा सुरतकाले विद्या अस्य न स्फुरन्ति । इत्युपदेशं लब्धा । गन्धारदेशे दुरंडनगरे वनप्रदेशे सुरतमारुढः, तैर्विद्याधरैः कान्तासहितस्य शिरश्चिच्छिदे। तस्मिन् हते तद्विद्याभिर्देश उपद्रूयोद्वासितः । गृहे गृहे कृतचौरः प्रविष्टः जीवधनं मुष्णाति । तन्नगरस्य राज्ञा विश्वसेनेन नन्दिषेणो मुनिः पृष्टः । भगवन् ! मरकोपसर्गस्य कः प्रत्ययः । मुनिरुवाच। रुद्रनामा Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते विद्याधरस्तव नगरे विद्यानामक्षमापणं कुर्वाणो मारितस्तेनोपसर्गो वर्तते। तर्हि स्वामिन् ! उपसर्गविनाशः कथं भविष्यति ? तलिंगं छित्वा उमोपस्थे स्थापयित्वा यदि पूजयन्ति भवंतस्तदा विद्या उपशाम्यन्ति। उत्पात उपशाम्यतीति तछत्वा विश्वसेनस्तत्र गत्वा सर्वोऽपि जनपदो व्याहृतः । इष्टकाभिरुच्चां मंचिकां कृत्वा तल्लिंगं छित्वा तदुपरि धृत्वा तलिंगोपरि सुरतसुखक्षोणिं तदुपरि धृत्वा तन्मध्ये ऊर्ध्वमाण शिवलिंगं स्थापयित्वा जलेन प्रक्षाल्य परिमलबहुलेन चन्दनेन विलिप्य पुष्पाक्षतादिभिर्लोकै राजाज्ञया पूजयित्वा तदिन्द्रिययोर्नमस्कारः कृतः तदा विद्याभिः क्षमा कृता, लोकस्योपसर्गस्य विनाशो जातः । तद्दिनमारभ्य प्रहतलज लोकस्येश्वरं लिंगं पूज्यं जातमित्यज्ञानिभिर्लोकः श्रीमद्भगवदर्हत्परमेश्वरं परित्यज्य स एव देवः परमात्मीकृतः। इति मोक्षप्राभते रुद्रोत्पत्युपाख्यानं जिनमुद्रापरिभ्रष्टत्वसूचकं समाप्तम् । जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ नियमेण जिणवरुदिहा। सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगृहणे ॥४७॥ जिनमुद्रा सिद्धसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा । स्वप्नेपि न रोचते पुनः जीवा तिष्ठन्ति भवगहने ॥ जिणमुई सिद्धिसुहं जिनमुद्रा सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिलक्षणमुक्तिसुख-सिद्धिसुखयोगाजिनमुद्रैव सिद्धिसुखमुपचर्यते । हवेइ भवति । नियमेण जिणवरुद्दिट्टा नियमेन निश्चयेन, कथंभूता जिनमुद्रा ? जिनवरोद्दिष्टा केवलिप्रतिपादिता । तल्लक्षणं पूर्वमेवोक्तं वर्तते । सिविणे वि ण रुच्चइ पुण सा जिनमुद्रा जीवस्य स्वप्नेऽपि निद्रायामपि न १न. टी। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभतं । ३४१ रोचते । रुचधातोः प्रयोगे चतुर्थी प्रोक्ता “ यस्मै दित्सा रोचते धारयते वा तत्संप्रदानं" इति वचनात् संप्रदाने चतुर्थी तदयुक्तं, कस्मादिति चेत् ? यदा रोचते तदा संप्रदानं यदा तु न रोचते तदा षष्ठीप्रयोग एव । स्वप्नेऽपि न रोचते पुनर्जीवस्येति सम्बन्धः । जीवा अच्छंति भवगहणे येन कारणेन जिनमुद्रा न रोचते भावचारित्रं भावचारित्रमिति लौंकादिभिरानेड्यते तेनैव कारणेन जीवास्तिष्टन्ति भवगहने संसारवने । रुद्रादिवन्द्रष्टजिनमुद्रा नरकादौ पतन्ति । परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । णादियदि णवं कम्मं णिदिदं जिणवरिंदेहिं ॥४८॥ . परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन । नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रः ॥ परमप्पय झायंतो परमात्मानं निजात्मस्वरूपं ध्यायन् । जोई मुच्चेइ मलदलोहेण योगी ध्यानवान् मुनिर्मुच्यते परिहियते, केन ? मलदलोभेन मलं पापं ददातीति मलदः स चासौ लोभो धनाकांक्षा तेन मलदलोभेन । णादियदि णवं कम्मं लोभरहितो मुनि द्रियते न बध्नाति, नवं कर्म अभिनवं पापं, पूर्वोपार्जितं तु स्वयमेव क्षीयते । णिदिदं जिणवरिंदेहिं निर्दिष्टं कथितं, जिनवरेन्द्रैः* जिनवरा एव इन्द्रास्त्रिभुवनप्रभवस्तैर्जिनवरेन्द्रैः* सर्वज्ञवीतरागैरिति शेषः।। होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ।। ४९ ॥ भूत्वा दृढचरित्रः दृढसम्यक्त्वेन भावितमतिः । ध्यायनात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥ * एतच्चिन्हमध्यगतः पाठः ख. पुस्तके नास्ति । १ जिनेन्द्रः इति मूलटीकापाठः मूलपदानुसारेण प्रवर्तितः। ___ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ षट्प्राभृते होऊण दिढचरित्तो दृढचरित्रोऽचलितचारित्रो भूत्वा । दिढसम्मत्तेण भावियमईओ दृढसम्यक्त्वेन चलमलिनतारहितसम्यग्दर्श नेन भावितमतिस्तु वासितमनाः । झायंतो अप्पाणं ज्ञानबलेन ध्यायनात्मानं । परमपयं पावए जोई परमपदं केवलज्ञानं निर्वाणं च प्राप्नोति, योगी भेदज्ञानवान् मुनिः । चरणं व धम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो गरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥ ५० ॥ चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः स भवति आत्मसमभावः । स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥ चरणं हवs सधम्मो चरणं चारित्रं भवति स्वधर्म आत्मस्वरूपं । धम्मो सो हव अप्पसमभावो धर्मो भवति, कोऽसौ ? स एव यः स्वधर्म आत्मस्वरूपं, स धर्मः कथंभूतः ? अप्पसमभावो आत्मसमभाव आत्मसु सर्वजीवेषु समभावः समतापरिणामः, यादृशो मोक्षस्थाने सिद्धो वर्तते तादृश एव ममात्मा शुद्धबुद्वैकस्वभावः सिद्धपरमेश्वरसमानः यादृशोऽहं केवलज्ञानस्वभावस्तादृश एव सर्वोऽपि जीवराशिरत्र भेदो न कर्तव्यः । सो रागरोसरहिओ जीवस अणण्णपरिणामो से आत्मसमभावः कथंभूतस्तस्य लक्षणं निरूपयन्ति भगवन्तः - स आत्मसमभावो रागरोषरहितो भवति यं प्रति प्रीतिलक्षणं रागं करोमि सोऽप्यहमेव, यं प्रति अप्रीतिलक्षणं द्वेषं करोमि सोऽप्यहमेव तेन रागरोषरहितो जीवस्यात्मनोऽनन्यपरिणाम एकलोलीभावः समत्वमेव परमचारित्रं ज्ञातव्यमिति । तथा चोक्तं जीवां जिणवर जो मुणइ जिणवर जीव मुणेइ । सो समभावपरिट्ठियओ लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ १ ॥ १. टी. २ जीवान् जिनवरं यो जानाति जिनवरं जीवं जानाति । स समभावपरिस्थितः लघु निर्वाणं लभते ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३४३ जह फहिमणि विसुद्ध परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ॥५१॥ यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतो भवति अन्यः सः । तथा रागादिवियुक्तः जीवो भवति स्फुटमन्योन्यविधः ॥ जह फलिहमणि विसुद्धो यथा येन प्रकारेण स्फटिकमणिः स्वभावेन विशुद्धो निर्मल वर्तते । परदव्वजुदो हवे अण्णं सो परद्रव्येण जपापुष्पादिना युतः, अण्णं - अन्योऽन्यादृशो भवति । तह रागादि - विजुत्तो तथा तेनैव स्फटिकमणिप्रकारेण रागादिभिर्विशेषेण युक्तः स्त्र्यादिरागयुतो रागादिमान् भवति । जीवो हवदि ह अणण्णविहो जीव आत्मा भवति हु-स्फुटं अन्योन्यविधोऽपरापरप्रकारो भवति - स्त्रीभियोगे रागवान् भवति शत्रुभिर्योगे द्वेषवान् भवति पुत्रादिभिर्योगे मोहवान् भवतीति तात्पर्यार्थः । 2 देव गुरुम्मिय भत्तो साहम्मि य संजदेसु अणुरत्तो । सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होइ जोई सो ॥ ५२ ॥ देवे गुरौ च भक्तः साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्तः । सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥ देव गुरुम्मिय भत्तो देवे गुरौ च भक्तो विनयपरः | साहम्मिय संजदे अणुरतो साधर्मिकेषु समानधर्मेषु जैनेषु, संयतेषु महामुनिषु, अनुरक्तोऽकृत्रिमस्नेहवान् वात्सल्यपरः । सम्मत्तमुव्वहंतो सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनमुद्वहन् मूर्धनि स्थापयन् । झाणरओ होइ जोई सो एवं विशेपणत्रयविशिष्टो योगी अष्टाङ्गयोगनिपुणो मुनिर्ध्यानरतो भवति ध्यानानुरागी भवति सः । विपरीतस्य ध्यानं न रोचत इत्यर्थः । तथा चोक्तंसर्वपापात्रवे क्षीणे ध्याने भवति भावना | पापोहतवृत्तीनां ध्यानवार्तापि दुर्लभा ॥ १ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ षट्प्राभृते अन्यच्च-- स्वयूथ्यान् प्रति सद्भावसनाथापेतकैतवा। प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥२॥ उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि । तं पाणी तिहिं गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥ ५३ ।। उग्रतपसाऽज्ञानी यत्कर्म क्षपते भवैर्बहुकैः । __ तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्तेन ॥ उग्गतवेण उग्रतपसा तीव्रतपसा कृत्वा । अण्णाणी अज्ञानो मुनिः आत्मभावनाविवर्जितस्तपस्वी । जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि यत्कर्म पापकर्म क्षिपते भवैर्बहुकैः कोटिभवैः शतकोटिभवैः सहस्रकोटिभवैः लक्षकोटिभवैः कोटिकोटिभवैश्चेत्यादिभिः । तं णाणी तिहिं गुत्तो तत्कर्म ज्ञानी आत्मभावनापरः सूरिः तिहिं गुत्तो-त्रिभिर्गुप्तो मनोवचनकायगुप्तिसहितः । खवेई अंतोमुहुत्तेण क्षपयति क्षयमानयति, कियति काले ? अन्तर्मुहूर्तेन । कोऽसावन्तर्मुहूर्त इति चेत् ? आंवलि असंखसमया संखेजावलिहि होइ उस्सासो। सत्तुस्सासो थोओ सत्तत्थोओ लवो भणिओ ॥१॥ अदृत्तीसद्धलवा नाली दो नालिया मुहुत्तं तु। समऊणं तं भिण्णं अंतमुहुत्तं अणेयविहं ॥२॥ इति गाथाद्वयकथितक्रमेण आवल्या उपरि एकः समयोऽधिको भवति सोऽन्तर्मुहूर्तो जघन्यः कथ्यते । एवं व्यादिसमयवृद्धया समयद्वयहीनोऽन्तर्मुहूर्त उत्कृष्टः कथ्यते । मध्येऽसंख्यातभेदा अन्तर्मुहूर्तस्य ज्ञातव्याः । तेषु कस्मिंश्चिदन्तर्मुहूर्ते ज्ञानी कर्म क्षपयति । एकेन समयेन हीनो मुहूर्तो भिन्नमुहूर्त उच्यते इति भावः । __ १ दि. टी. । २ अनयोछाया पूर्व चत्वारिंशत्तमे पृष्ठे आगता। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३४५ सुभजोगेण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू । सो तेण दु अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥५४॥ शुभयोगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः । स तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्माद्विपरीतः ॥ सुभजोगेण सुभावं शुभस्य मनोज्ञपदार्थस्येष्टवनितादेः योगेन संयोगेन मेलनेनोपढौकनेनाग्रत आगतेन सुभा-शोभनं प्रीतिलक्षणं भावं परिणामं । परदव्वे कुणइ रागदो साहू परद्रव्ये आत्मनो भिन्ने वस्तुनि इष्टवनितादौ, करोति विदधाति सुभावमिति सम्बन्धः, रागतः प्रेमपरिणामात् । कः कर्ता, साधुर्वेषधारी मुनिः पुष्पदन्तवत् । तथा चोक्तं अलकवलयरम्यं भूलतानर्तकान्तं नवनयनविलासं चारुगण्डस्थलं च। मधुरवचनगर्भ स्मेरबिम्बाधरायाः पुरत इव समास्ते तन्मुखं मे प्रियायाः ॥१॥ कर्णावतंसमुखमण्डनकण्ठभूषा वक्षोजपत्रजघनाभरणानि रागात् । पादेष्वलक्तकरसेन च चर्चनानि कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एव धन्याः ॥२॥ लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलायाः स्फारस्मरोत्तरलिताधरपल्लवायाः। उत्तुंगपीवरपयोधरमंडलाया स्तस्या मया सह कदा ननु संगम: स्यात् ॥३॥ किंचचित्रालेखनकर्मभिर्मनसिजव्यापारसारास्मृतै र्गाढाभ्यासपुरःस्थितप्रियतमापादप्रणामक्रमैः । स्वप्ने संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यमोदागमैरित्थं वेषमुनिर्दिनानि गमयत्युत्कंठितः कानने ॥१॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ षट्प्राभतेइत्यादिसुदतीचिन्तनेनाज्ञानी मूढः कथ्यते । णाणी एत्तो दु विवरीदो ज्ञानी निर्मोहो मुनिः एतस्मादुक्तलक्षणात् साधोविपरीतः शुभवस्तुयोगे सति रागं न करोतीति तात्पर्यार्थः । आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण दु अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो ॥५५॥ आस्रवहेतुश्च तथा भावो मोक्षस्य कारणं भवति । ___ स तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥ आसवहेद् य तहा आस्रवहेतुश्च तथा यथेष्टवनितादिविषये राग आस्रवहेतुर्भवति तथा निर्विकल्पसमाधि विना मोक्षस्यापि रागः कर्मास्रवतुर्भवति । सो तेण दु अण्णाणी स साधुर्मोक्षेऽपि रागभावं कुर्वाणः तेन कारणेन पुण्यकर्मबन्धहेतुत्वादज्ञानी भवति-मूढः स्यात् आदसहावस्स विवरीदो आत्मस्वभावानिर्विकल्पसमाधिलक्षणात्मध्यानरूपाद्विपरीतः । तथा चोक्तमेकत्वसप्तत्यां स्पृहा मोक्षेऽपि मोहोत्था तनिषेधाय जायते । अन्यस्मै तत्कथं शान्ताः स्पृहयन्ति मुमुक्षवः ॥१॥ जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो। सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ॥५६॥ यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खण्डदूषणकरः । स तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषको भणितः ॥ जो कम्मजादमइओ यः पुमान् कर्मजातमतिक इन्द्रियानिन्द्रियाणि खलु कर्मजातानि तदुत्पन्नमतिलेशसंयुक्तः । सहावणाणस्स खंडदूसयरो स्वभावज्ञानस्यात्मोत्थज्ञानस्य केवलज्ञानस्य दूसयरो-दोषदायकः । आत्मनः खल्वतीन्द्रियज्ञानं नास्ति चक्षुरादीन्द्रियजनितमेव ज्ञानं वर्तते ___ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ narvavran मोक्षप्राभृतं । ३४७. इत्येवं स्वभावज्ञानस्य दूषणकरो भवति, अतीन्द्रियज्ञानं न मन्यते । खंडदूसयरो-खण्डज्ञानेन दूषणकरः कश्चिन्मिथ्यादृष्टिः । सो तेण दु अण्णाणी स पुमान् तेन तु दूषणदानेन अज्ञानी ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेयो वेदितव्य इति यावत् । स कथंभूतः, जिणसासणदूसगो भणिदो जिनशासनस्यार्हतमतस्य दूषको दोषभाषको भणित:-स नरकदुखं प्राप्स्यति । तथा चोक्तं पुष्पदन्तेन महाकविना काव्यपिशाचखण्डकव्यपरनामद्वयेन लेव्वण्हु अणिदिओ णाणमउ जो मइमूद न पत्तियइ। सो णिदिउ पंचिंदियणिरउ वैतरणिहिं पाणिउ पियइ ॥१॥ णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहि संजुत्तं ।। अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥ ५७ ॥ ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम् । अन्येषु भावरहितं लिङ्गग्रहणेन किं सौख्यम् ॥ णाणं चरित्तहीणं ज्ञानं चरित्रहीनं सौख्यकरं न भवतीति सम्बन्धः। दसणहीणं तवेहि संजुत्तं दर्शनहींनं सम्यग्दर्शनरत्नरहितं तपोभिः संयुक्तं कर्म सौख्यकरं न भवतीति सम्बन्धः । अण्णेसु भावरहियं अन्येषु षडावश्यकादिषु भावरहितं कर्म । लिंगग्गहणेण किं सोक्खं लिंगग्रहणेन वेषमात्रेण आत्मभावनारहितेन कर्मणा किं सौख्यं भवतिअपि तु सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षसुख न भवतीति भावार्थः। अच्चेयण पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी । सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥५८॥ अचेतनमपि चेतयितारं यो मन्यते स भवति अज्ञानी। स पुन ज्ञानी भणितः यो मन्यते चेतने चेतयितारम् ।। १ अस्य छाया पूर्व ३०७ पृष्ठे गता। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्माभृते - अच्णं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी चेतयितारमात्मानं यः पुमान कापि मतानुसारी अचेतनमात्मानं मन्यते स पुमान् अज्ञानी ज्ञानवर्जितो मूर्खो भवेत् । सो पुण णाणी भणिओ स पुमान् पुनर्ज्ञानी भणितः । स कः ? जो मण्णइ चेयणे वेदा यः पुमान् चेतने चेतनद्रव्ये चेतयितारमात्मानं मन्यते । उक्तं च ३४८ स यदा दुःखत्रयोपतप्तचेतास्तद्विघात कहेतुजिज्ञासोत्सेकितविवेकस्रोताः स्फाटिकाश्मानमिवानन्दात्मानमप्यात्मानं सुखदुःखमोहावह परिवर्तैर्मह दहंकारविवर्तैश्च कलुषयन्त्याः सत्वरजः साम्यावस्थापरनामवत्याः सनातनव्यापिगुणाधिकृतेः प्रकृतेः स्वरूपमवगच्छति तदायोमय गोलकानलतुल्यवर्गस्य बोधवद्बहुधानकसंसर्गस्य सति विसर्गे सकलज्ञानज्ञेयसम्बन्धवैकल्यं कैवल्यमवलम्बते तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिरिति कापिलाः विवदन्तः प्रतिवक्तव्याःकपिलो यदि वांछा वित्तिमचिति सुरगुरुगीगुंफेष्वेष पतति । चैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वदं तत्र विदित ! ॥ १ ॥ तवरहियं जं गाणं णाणविजुत्तो तबो वि अकयत्थो । तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥ ५९ ॥ तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपोऽपि अकृतार्थं । तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम् ॥ तवरहियं जं गाणं तपोरहितं यज्ज्ञानं तदकृतार्थमिति सम्बन्धः । णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो ज्ञानवियुक्तं ज्ञानरहितं अज्ञानं तपोऽपि अकृतार्थे मोक्षं न साधयति । तह्मा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं तस्मात्कारणात् ज्ञानतपसा ज्ञानं च तपश्च ज्ञानतपः समाहारो द्वन्द्वस्तेन ज्ञानतपसा । अथवा ज्ञानेनोपलक्षितं तपो ज्ञानतपस्तेन तथोक्तेन संयुक्तो मुनिर्लभते निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमित्यर्थः । तथा चोक्तं १ वंदत तत्र इति. ख. । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । मान्यं ज्ञानं तपोऽहीनं ज्ञानहीनं तपोऽहितं द्वाभ्यां युक्तः स देवः स्याद् द्विहीनो गणपूरणः ॥१॥ धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि ॥ ६०॥ ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुष्कज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् । ___ ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तोपि ॥ धुवसिद्धी तित्थयरो ध्रुवसिद्भिरवश्यं मोक्षगामी, कोऽसौ ? तीर्थकरः तीर्थकरपरमदेवः । चउणाणजुदो करेइ तवयरणं दीक्षानन्तरमेवोत्पनमनःपर्ययज्ञानः नथापि तपश्चरणं त्रिरात्रादिकं तपश्चरणं करोति । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि इति ज्ञात्वा, ध्रुवमिति निश्चयेन, कुर्याद्विदध्यात् , किं तत् ? तपश्चरणं ज्ञानयुक्तोऽपि । अहं सकलशास्त्रप्रवीणः किं ममोपवासादिना तपश्चरणेनेति न वाच्यमिति भावः । उक्तं च उवासहो एक्कहो फलेण संबोहियपरिवारु । णायदत्तु दिवि देव हुउ पुणरवि णायकुमारु ॥१॥ ते कारणि जिय पइंभणमि करि उववासुब्भासु।। जाम्ब ण देहकुडिल्लयहि दुक्कइ मरणहु यासु ॥२॥ यदज्ञानेन जीवेन कृतं पापं सुदारुणं । उपवासेन तत्सर्व दहत्यग्निरिवेन्धनं ॥१॥ तथा चोक्तं प्रभाचन्द्रेण तार्किकलोकशिरोमणिनाउपवासफलेन भजति नरा भुवनत्रयजातमहाविभवान् । खलु कर्ममलप्रलयाचिराद्जरामरकेवलसिद्धिसुखं ॥१॥ १ उपवासस्य एकस्य फलेन संबोधितपरिवारः । नागदत्तः दिवि देवो जातः पुनरपि नागकुमारः ॥ २ तेन कारणेन जीव ! प्रभणामि कुरु उपवासाभ्यासं । यावन्न देहकुड्यां ढोकते मरणं यत् ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० षट्प्राभृतेहोइ वणिज्जु न पोट्टलिहिं उववासे नउ धम्मु । एउ अयाणउ सो ववइ जसु कउ भारउ कम्मु ॥१॥ पोलियहिं मणिमोत्तियइ धणु केत्तियहि ण माइ। बोरहि भरिउ बलद्दडा तं नाहीं जं खाइ ॥२॥ आत्मशुद्धिरियं प्रोक्ता तपसैव विचक्षणैः । किमग्निना विना शुद्धिरस्ति कांचनशोधने । १॥ बाहरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहिदपरियम्मो । सो सगचरित्तभहो मोक्खपहविणासगो साहू ॥६१॥ बहिलिगेन युतो अभ्यंतरलिंगरहितपरिका । __स स्वकचरित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः ॥ बाहिरलिंगेण जुदो बहिलिगेन युतो नग्नमुद्रासहितः। अभंतरलिंगरहिदपरियम्मो अभ्यन्तरलिंगरहितपरिकर्मा आत्मस्वरूपभावनारहितं परिकर्म अंगसंस्कारो यस्य सोऽभ्यन्तरलिंगरहितपरिकर्मा । सो सगचरित्तभहो स साधुः स्वकचरित्रभ्रष्टः । मोक्खपहविणासगो साहू मोक्षपथविनाशकः साधुः स साधुर्मोक्षमार्गविध्वंसको ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेयः। इति भावं ज्ञात्वा निजशुद्धबुद्धैकस्वभावे आत्मतत्वे नित्यं भावना कर्तव्या साधोः। सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ॥ ६२ ॥ सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति । तस्माद् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत् ॥ सुहेण भाविदं णाणं सुखेन नित्यभोजनादिना भावितं वासितं ज्ञान आत्मा । दुहे जादे विणस्सदि दुःखे जाते सति भोजनादेरप्राप्तौ सत्यां विनश्यति आत्मभावनाप्रच्युतो भवति। तम्हा जहा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३५१ बलं जोई तस्मात्कारणाद्यथाबलं निजशक्त्यनुसारेण योगी मुनिः । अप्पा दुक्खेहि भावए आत्मानं दुःखैरनेकतपःक्लेशैः भावयेद्वासयेत् दुःखाभ्यासं कुर्यादित्यर्थः । आहारासणणिदाजयं च काऊण जिणवरमएण । झायव्वो णियअप्पा णाऊणं गुरुपसाएण ॥ ६३ ॥ आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन । ध्यातव्यो निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥ आहारासणणिदा जयं च काऊण जिणवरमएण आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन, शनैः शनैः आहारोऽल्पः क्रियते । शनैः शनैरासनं पद्मासनं उद्भासनं चाभ्यस्यते । शनैः शनैः निद्रापि स्तोका स्तोका क्रियते एकस्मिन्नेव पार्श्वे पार्श्वपरिवर्तनं न क्रियते। एवं सति सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तुं शक्यते। आसनं च कदाचिदपि त्यक्तुं (न) शक्यते। निद्रापि कदाचिदप्यकर्तुं शक्यते । अभ्यासात् किं न भवति ? तस्मादेवकारणात्केवलिभिः कदाचिदपि न भुज्यते । पद्मासन एव वर्षाणां सहखैरपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तैर्भूयते, स्वप्नो न दृश्यते । एवं जिनवरमतेन वृषभस्वामिवीरचन्द्रशासनेनानुशील्यते । झायव्वो णियअप्पा ध्यातव्यो निज आत्मा । णाऊणं गुरुपसाएण आत्मानमष्टाङ्गं च ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन निग्रन्थाचार्यवर्यस्य कारुण्येन। गुरुप्रसादं विना "द्रष्टव्यो रेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य" इति ब्रुवदभिरपि वेदान्तवादिभिनिवृत्तैः केनापि जनेन याज्ञवल्क्यादिना न प्राप्त इति भावार्थः। अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा। सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण ॥ ६४ १ नि. टी.। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ षट्प्राभूते आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुत आत्मा । स ध्यातव्यो नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥ अप्पा चरित्तवंतो आत्मा चारित्रवान् वर्तते आत्मात्मानमेवानुतिष्ठतीति कारणात् यस्य मुनेश्चारित्रे प्रीतिरस्ति स आत्मानमेवाश्रयत्विति भावार्थः । दसणणाणेण संजुदो अप्पा दर्शनेन ज्ञानेन च संयुतः संयुक्तः, कोऽसौ ? आत्मा जीवतत्वं, अत्रापि स एव भावार्थः–यस्य मुनेर्दर्शने प्रेम वर्तते ज्ञाने वानुरागोऽस्ति स मुनिरात्मानमेवाश्रयतु तद्द्वयमपि तत्रैव वर्तते यस्मात् । सो झायव्वो णिचं स आत्मा ध्यातव्यो नित्यं सर्वकालं । रत्नानां त्रयस्योपायभूतस्यात्मलाभे मोक्षलाभे वा प्रीतिमत इत्यर्थः । णाऊणं गुरुपसाएण गुरोनिग्रन्थाचार्यस्य शिक्षादीक्षाचारवाचनादेश्च कर्तुः प्रसादेन कारुण्येन । अयं वस्तुस्वभावो वर्तते यदाचार्यप्रसन्नतयात्मलाभो भवति तद्विराधने सत्यात्मा न स्फुटीभवति । तथा चोक्तं गुणेषु दोषमनीषयान्धा दोषान् गुणीकर्तुमथेशते ये । श्रोतुं कवीनां वचनं न तेऽर्हाः ___ सरस्वतीद्रोहिषु कोऽधिकारः॥१॥ अथवा गुरूणां पंचतयानां परमेष्ठिनां प्रसादादात्मा प्रभुर्लभ्यते । तेषां प्रसादं विना आत्मप्रभुर्न प्राप्यत इत्यर्थः । यथा राजानं द्रष्टुकामः कश्चित् पुमान् तत्सामन्तकादीन् पूर्व पश्यति ते तु राजानं मेलयन्ति, तानन्तरेण तत्र प्रवेष्टुमपि न लभ्यते इति कारणात् पूर्व पंचदेवताः प्रसादनीया आत्मलाभमिच्छता योगिनेति भावार्थः । दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसएसु विरचए दुक्खं ॥६५॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ मोक्षप्राभृतं । दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् ॥ भावितस्वभावपुरुषो विषयेषु विरज्यति दुःखम् ॥ दुक्खं णज्जइ अप्पा दुःखेन महता कष्टेन तावदात्मा ज्ञायते आत्मास्तीति बुद्धिरुत्पद्यते । अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं यद्यात्मास्तीति ज्ञातं तदा तस्मिन्नात्मनि भावना वासनाऽहनिशचिन्तनं तद्गुणस्मरणादिकं दुःखं दुष्प्राप्यं भवति । भावियसहावपुरिसो विसएसु विरच्चए दुक्खं भावितस्वभावः पुरुष आत्मभावनासहितोऽपि सूरिः यद्विषयेषु वनिताजनस्तनजघनवदनलोचनादिविलोचने तद्वार्तालापगोष्ठीषु शरीरस्पर्शनादिसुखेषु विरज्यति तत्सुखं हालाहलविषास्वादनवजानाति तदतीव दुःखं दुष्करमिति तात्पर्यार्थः। ताम ण णजइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम । विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पागं ॥६६॥ तावत् न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् । विषये विरक्तचित्तः योगी जानाति आत्मानम् ॥ ताम ण णज्जइ अप्पा तावत्कालमात्मा न ज्ञायते । तावत्कियत् ! विसएसु णरो पवट्टए जाम यावत्कालं विषयेषु पूर्वोक्तलक्षणेषु नरो जीवः प्रवर्तते व्याप्रियते । विसए विरत्तचित्तो विषये पूर्वोक्तलक्षणे विरक्तचित्तो निवृत्तचेता यती। जोई जाणेइ अप्पाणं योगी ध्यानवान् पुमान् महामुनिरात्मानं जानाति प्रत्यक्षतया पक्ष्याते । अप्पा णाऊण णरा केई सब्भावभावपमहा। हिंडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा ॥ ६७ ॥ आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचित्सद्भावभावप्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरङ्गं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ १ न. टी. पटू. २२ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ षट्प्राभूतेअप्पा णाऊण णरा आत्मानं ज्ञात्वा आत्मास्तीति सम्यग्विज्ञाय नरा बहिरात्मजीवाः । केई सब्भावभावपब्भहा केचित् सद्भावभावप्रभ्रष्टाः केचित् विवक्षिताः सन् समीचिनो भावः सद्भावः निजात्मभावना तस्मात्प्रभ्रष्टा निजशुद्धबुद्धैकस्वभावात्मभावनाप्रच्युता विषयसुखदुर्भावनासु रता इत्यर्थः । हिंडंति चाउरंग हिण्डन्ते परिभ्रमन्ति पर्यटनं कुर्वन्ति चाउरंग-चतुरंगे भवं चातुरंगं चतर्गतिसंसारसंसरणं यथा भवत्येवं । विसएसु विमोहिया मूढा विषयेषु पंचेन्द्रियार्थेषु स्पर्शरसगन्धवर्णशब्देषु विमोहिता लोभं गताः, ते च विषया अनादिकाले जीवेनास्वादिताः, आत्मोत्थस्वाधीनं सुखं कदाचिदपि न प्राप्ताः। तथा चोक्तं अदृष्टं किं किमस्पृष्टं किमनाघ्रातमश्रुतं । किमनास्वादितं येन पुनर्नवमिवेक्ष्यते ॥१॥ भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः। उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥२॥ विषयेषु विमोहिता ये ते मूढा अज्ञानिनो बहिरात्मान इत्यर्थः । तेन बहिरात्मभावं परित्यज्यात्मभावना कर्तव्या । जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया । छंडंति चाउरंग तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥ ६८ ॥ ये पुनः विषयविरक्ता आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः । त्यजन्त्रि चातुरङ्गं तपोगुणयुक्ता न सन्देहः ॥ जे पुण विसयविरत्ता ये पुनरासन्नभव्यजीवा विषयेभ्यो विरक्ताः पराङ्मुखा विषयेषूपन्नविषभावनाः । अप्पा पाऊण भावणासहिया आत्मानं ज्ञात्वा आत्मभावनासहिता भवन्ति । छंडंति चाउरंगं ते पुरुषास्त्यजन्ति, किं ? चातुरंगं संसारं । तवगुणजुत्ता ण संदेहो तप १ चाउरंगे. टी. । २ न. टी. । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३५५ एव गुणस्तपो गुणस्तेन युक्ताः । अथवा तपो द्वादशभेदं गुणा अष्टाविंशतिर्मूलगुणा उत्तरगुणाश्च बहुभेदास्तैर्युक्ताः संसारं त्यजन्ति अत्र सन्देहो नास्ति संशयो न कर्तव्यः । उक्तं च गौतमेन महर्षिणा --- वदंसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेल मण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ १ ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता । एत्थ पमादकदादो अइचारादो नियत्तो हं ॥ २ ॥ परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो । सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो ॥६९॥ परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् । समूढोऽज्ञानी आत्मस्वभावाद्विपरीतः परमाणुपमाणं वा परमाणुप्रमाणं वा । परदव्वे रदि हवेदि मोहादो परद्रव्ये रतिर्भवति मोहादज्ञानात् परमाणुमात्रापि रतिर्मोहादज्ञानाद्भवति, किमुच्यते बव्ही रतिः ? महती रतिस्तु अज्ञानाद्भवत्येव । सो मूढो अण्णाणी यस्य परद्रव्ये यादिविषये रतिर्भवति स मुनिर्मूढः तस्यैव पर्यायोऽज्ञानीति । आदसहावस्स विवरीदो स मुनिरात्मस्वभावाद्विपरीतः परद्रव्यरत इत्युच्यते बहिरात्मा कथ्यत इति भावार्थ: । एवं ज्ञात्वा परमात्मानं परित्यज्य परद्रव्ये रतिर्न कर्तव्येति तात्पर्यार्थः । अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं । होदि धुवं णिव्वाणं विसऐसु विरत्तचित्ताणं ॥ ७० ॥ १ व्रतसमितीन्द्रियरोधाः लोचः आवश्यकमचेलमस्नानं । क्षितिशयनमदन्तमनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ॥ एते खलु मूलगुणा श्रमणानां जिनवरैः प्रणीताः । अत्र प्रमादकृतादतिचारान्निवृत्तोऽहं ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥ " अप्पा झायंताणं आत्मानं ध्यायतां मुनीनां । दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं दर्शनस्य शुद्धिनैर्मल्यं चलमलिनत्व रहित सम्यक्त्वानां चर्मजलघृततैलभूतनाशनादिपरिहरतां शरीरमात्रदर्शनेन परगृहेषु कृतादिदोषरहिताशेनमश्नतां दर्शनशुद्धिमतां दृढ चरित्राणां ब्रह्मचर्य प्रत्याख्यानादिदृढचारित्राणां । होदि धुवं णिव्वाणं भवति ध्रुवमिति निश्चयेन निर्वाणं मोक्षो भवति । विसएसु विरत्तचित्ताणं विषयेषु इष्टवनितालिङ्गनादिषु विरक्त चित्तानां विषयान् विषं मन्यमानानामिति संक्षेपतोऽर्थो ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेय इति । जेण रागे परे दव्वे संसारस्य हि कारणं । तेणावि जोड़णो णिच्चं कुज्जा अप्पे सभावणा ॥ ७१ ॥ येन रागे परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् । तेनापि योगी नित्यं कुर्य्यादात्मनि स्वभावनाम् ॥ ३५६ जेण रागे परे दव्वे येन वनितादिना पर्यायेण, रागे सति राग उत्पद्यते, परकीये द्रव्ये आत्मनो भिन्ने वस्तुनि । संसारम्स हि कारणं स रागः कथंभूतः, संसारस्य भवभ्रमणस्य, हि निश्चयेन, कारणं हेतुः । तेणांवि न केवलं आत्मनि आत्मभावनां कुर्यात् किन्तु तेनापीष्ट वनितादिना । जोइणो योगी । नित्यं सर्वकालं । अप्पे आत्मनि । स्वभावनां - आत्मभावनां कुर्यात् । कथमिति चेत् ? इयमिष्टवनिता अनन्तकेवलज्ञानमयी वर्तते यथा ममात्मानन्त केवलज्ञानमयो वर्तते । इयमहं च द्वापि केवलज्ञानिनौ वर्तावहे । तेन इयमप्यात्मा ममेति को नाम पृथग्वर्तते येन सह स्नेहं करोमि । तथा चोपनिषद् - १ रहितानशनमिति मूलटीकापाठः । २ तेनापि . टी. । ३ योगिनः टी. । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः । तत्र को मोहः कश्शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ १ ॥ निंदाए य पसाए दुक्खे य सुहसु य । सत्तूणं चैव बंधूणं चारित्तं समभावदो ॥ ७२ ॥ निन्दायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च । शत्रूणां चैव बन्धूनां चारित्रं समभावतः ॥ निंदाए य पसंसाए निन्दायां प्रशंसायां च समभावतश्चारित्रं भवतीति सम्बन्धः । दुक्खेय सुहए ये दुखे च सुखके च समागतेष्वित्युपस्कारः । सत्तूर्णं चेव बंधूणं शत्रूणां चैव बन्धूनां समायोगे इत्युपस्कारः । चारित्तं समभावदो समभावतः समतापरिणामे सति चारित्रं भवतीति निर्विकल्पसमाधिरूपं यथाख्यातं चारित्रं भवतीति भावार्थ: । ३५७ चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपब्भट्ठा । केई जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥ ७३ ॥ चर्यावरिका व्रतसमितिवर्जिता शुद्धभावप्रभ्रष्टाः । केचित् जल्पन्ति नराः न हि कालो ध्यानयोगस्य ॥ चरियावरिया चर्यायाश्चारित्रस्य आवरिका आवरणं येषां ते चर्याचरिकाः चारित्रमोहनीयकर्मयुक्ताः । वदसमिदिवज्जिया व्रतसमितिवर्जिता व्रतरहिता: समितिहीनाश्च । सुद्धभावपव्भट्ठा शुद्धभावप्रभ्रष्टा रागद्वेषमोहादिभिः परिणामै: कश्मलीकृता आत्मध्यानहीनाः । केई जंपति रा केचिद्वहिरात्मानो नराः पुरुषा जल्पन्ति ब्रुवन्ति । किं जल्पन्ति ? ण हु कालो झाणजोयस्स ध्यानयोगस्य अष्टाङ्गयोगमध्ये सप्तमो योगो ध्यानयोगस्तस्य कालोऽवसरो न वर्तते । कथं ? हि-स्फुटं । के ते अष्टाङ्गयोगाः - १ च. टी. । २ न. टी. । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते । इति । यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुको । संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भगइ झाणस्स ॥ ७४ ॥ सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवो हि मोक्षपरिमुक्तः संसारसुखे सुरतः न हि कालो भणति ध्यानस्य ॥ ३५८ सम्मत्तणाणरहिओ सम्यक्त्वरहितो मिथ्यादृष्टिः, ज्ञानरहितोऽज्ञानो मूढजीवो बहिरात्मा | अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को अभव्यजीवो रत्नत्रयस्यायोग्यो लौकादिको मोक्षपरिमुक्तः तस्य कदाचिदपि कर्मक्षयो न भविष्यति स न सेत्स्यति कंकटूकमुद्भवत् । संसारसु सुरदो संसारसुखे वनितायोनिमधनसुखे, सुरतः सुष्ठु अतिशयेन रतः तत्परः । ण हु कालो भइ झाणस्स एवं दोषदुष्टो भणति ब्रूते, किं भणति ? ध्यानस्य कालो न भवति । कथं ? हु-स्फुटं । पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीस तीस गुत्तीसु । जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भगड़ झाणस्स ॥ ७५ ॥ पञ्च महाव्रतेषु च पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । यो मूढः अज्ञानी न हि कालो भगति ध्यानस्य ॥ पंचसु महव्वदेसु य पंचसु महात्रतेषु च प्राणातिपातमृषावादस्तैयमैथुनपरिग्रहसर्वथा परित्यागो महाव्रतमुच्यते एतेषु पंचसु महाव्रतेषु यो मूढश्चारित्रमोहबलवत्तरः । चकारादणुव्रतानामपि अप्रतिपालको रात्रिभो - जननियमरहितः चर्मजलघृततैलरामठ स्वादनमठः । पंचसु समिदीस तीसु गुत्तीसुर्यासमितिः - करचतुष्टयं मार्गमवलोक्य गमनं, भाषासमिति :आगमाविरुद्ध भाषणं, एषणासमिति : - पूर्वोक्तषट्चत्वारिंशद्दोषरहिताहारग्रहणं, आदाननिक्षेपणासमितिः- ज्ञानोपकरणशौचोपकरणानां पूर्वं दृष्ट्वा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । पश्चान्मयूरपिच्छैः प्रतिलेख्य ग्रहणं विसर्जनं च आदाननिक्षेपणासमितिः, प्रतिष्ठापनासमितिः-मलमूत्रशरीरादिकस्याविरुद्धनिर्जन्तुप्रदेशे विसर्जन एतासु पंचसु समितिषु यो मूढो निर्विवेकः । तिसृषु गुप्तिषु मनोगुप्तिवाग्गुप्तिकायगुप्तिषु । जो मूढो अण्णाणी यः पुमान् मूढो निर्विवेकोऽज्ञानी जिनसूत्रबहिर्भूतः। ण हु कालो भगइ झाणस्स न विद्यते हु-स्फुटं, कोऽसौ ? कालोऽवसरः, ध्यानस्य सप्तमयोगस्य, एवं भणति ब्रूत । भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्त । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ॥७६॥ भरते दुःषमकाले धम्य॑ध्यानं भवति साधोः । तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ॥ भरहे दुस्समकाले भरहे-भरतक्षेत्रे भारतवर्षे, दुःषमे काले पंचमकाले कलिकालापरनाम्नि काले। धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स धर्मध्यानं भवति साधोदिगम्बरस्य मुनेः । तं अप्पसहावठिदे तद्धर्मध्यानं आत्मस्वभावस्थिते आत्मभावनातन्मये मुनौ भवति । ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी न मन्यते नाङ्गीकरोति सोऽपि पुमान् पापीयान् अज्ञानी जिनसूत्रबाह्यः । अन्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ॥ ७७ ॥ अद्यापि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभन्ते इंद्रत्वम् । लौकान्तिकदेवत्वं ततः च्युत्वा निर्माण यान्ति ॥ अज वि तिरयणसुद्धा अद्यापि पंचमकालोत्पन्नाः समनस्काः पंचेन्द्रिया उत्तमकुलादिसामग्रीप्राप्ता वैराग्येण गृहीतदक्षिास्त्रिरत्नशुद्धाः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रनिर्मला वर्तन्त एव, ये कथयन्ति महाव्रतिनो न विद्यन्त ते नास्तिका जिनसूत्रबाह्या ज्ञातव्याः । ते आसन्नभव्याः किं कुर्वन्ति ! ___ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० षट्प्राभूतेअप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं आत्मानं ध्यात्वा भावयित्वा लभन्ते इन्द्रत्वं शक्रपदं । न केवलमिन्द्रत्वं लभन्ते, लोयंतियदेवत्तं केचिदल्पश्रुता अपि साधव आत्मभावनाबलेन लौकान्तिकत्वं लभन्ते पंचमस्वर्गस्यान्ते पर्यन्तप्रदेशेषु तेषां विमानानि सन्ति, तत्र भवा लौकान्तिकाः सुरमुनयश्च कथ्यन्ते, ते स्वर्गे स्थिता अपि ब्रह्मचर्य प्रतिपालयन्ति-स्त्रीरहिता भवन्ति, तीर्थकरसम्बोधनकाले मर्त्य ओकमागच्छन्ति अन्यथा स्वस्थानमेवावतिष्ठन्ते। चतुर्लक्षाः सहस्राणि सप्त चैव शताष्टकं । विंशतिर्मेलिता एते बुधैौकान्तिका मताः ॥१॥ " सारस्वत्यादित्यवन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च" इति तेषां अष्टौ जातयः । तथा तेषां षोडशजातयश्च वर्तन्ते । सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यवह्निमध्ये चन्द्राभसत्याभाः । वन्ह्यरुणान्तरे श्रेयस्करक्षेमंकराः । अरुणगर्दतोयमध्ये वृषभोष्टकामचराः । गर्दतोयतुषितान्तरे निर्वाणरजोदिगन्तरक्षिताः । तुषिताव्याबाधमध्ये आत्मरक्षितसर्वरक्षिताः । अव्याबाधारिष्टान्तरे मरुद्वसवः । अरिष्टसारस्वतान्तरे अश्वविश्वाः । तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति तस्माच्च्युता निवृतिं निर्वाण यान्ति गच्छन्ति । सर्वेऽपि पर्वधारिण एकं गर्भवासं गहीत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्ति । जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं । पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥७८ ॥ ये पापमोहितमतयः लिङ्गं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥ जे पावमोहियमई ये मुनयः पापमोहितमतयः पापेन ब्रह्मचर्यभंगप्रत्याख्यानभंजनादिना मोहिता लोभं प्रापिताः पापमोहितमतयः । लिंगं घेत्तण जिणवरिंदाणं लिंगं चिन्हें मुद्रां नग्नत्वं वस्त्रमात्रोपेत Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभूतं । ३६१ क्षुल्लकत्वं च चक्रवर्तिलिंगं, घेत्तूण-गृहीत्वा धृत्वा, जिनवरेन्द्राणां तीर्थकरपरमदेवानां । पावं कुणंति पावा पापं ब्रह्मचर्यभंगादिकं कुर्वन्ति पापाः पापमूर्तयः पापरूपाः । ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ते जिनलिंगोपजीविनः त्यक्ताः पतिता मोक्षमागादित्यर्थः । उक्तं च अन्यलिंगकृतं पापं जिनलिंगेन मुच्यते। जिनलिंगकृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥१॥ जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥७९॥ ये पञ्चचेलसक्ताः ग्रन्थग्राहिणः याचनशीलाः । अधःकर्मणि रताः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥ जे पंचचेलसत्ता ये मुनयः पंचचेलसक्ताः पंचविधवस्त्रलंपटा अंडजवुडज-वल्कज-चर्मज-रोमजपंचप्रकारवस्त्रेष्वन्यतमं वस्त्रप्रकारं परिदधत्युपदधति च । गंथग्गाहीय जायणासीला ग्रन्थग्राहिणो रिक्थस्वीकारिणः, याचनाशीलाः स्वभावेन याच्आपरा जिनमुद्रां प्रदर्श्य धनं याचन्ते मातरं प्रदर्य भाटी गृह्णन्ति तत्समानाः । आधाकम्मम्मि रया आधाकर्मणि अधःकर्माण निन्द्यकर्मणि उपविश्य भोजनं कारयित्वा भुंजते ये तेऽध:कर्मरता इत्युच्यन्ते । ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ते मुनयस्त्यक्ताः पतिता मोक्षमार्गादिति भावार्थः । निग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥ ८०॥ निग्रन्थ मोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहा जितकषायाः । पापारम्भविमुक्ताः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥ निग्गंथमोहमुक्का निग्रन्थाः परिग्रहरहिताः, मोहमुक्ताः पुत्रमित्रकलत्रादिस्नेहरहिताः । बावीसपरीसहा द्वाविंशतिपरीपहा द्वाविंशति १ "द्रव्यं वित्तं स्वापतेयं रिक्थमृक्थं धनं वसु"इत्यमरः । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ षट्प्राभते परीषहसहनशीलाः । जियकसाया क्रोधमानमायालोभकषायरहिताः । पावारंभविमुक्का पापारंभेभ्यो विमुक्ता रहिता हिंसादिपंचपातकविहीनाः सेवाकृषिवाणिज्यादिप्राणातिपातहेतुभूतारम्भरहिताः । ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ते गृहीता अङ्गीकृता, मोक्षमार्गे रत्नत्रयलक्षणे । उद्धद्धमज्झलोए केई मज्झंण अहयमेगागी। इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ॥८१॥ उध्वधिोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी । इति भावनया योगिनः प्राप्नुवन्ति हि शाश्वतं सौख्यम् ॥ उद्धद्धमज्झलोए ऊर्ध्वलोकेऽधोलोके मध्यलोके । केई मज्झं ण अहयमेगागी केचिज्जीवा मम न वर्तन्ते, अहकं अहं एकाकी एक एव वर्ते । इय भावणाए जोई इति भावनया योगिनो मुनयः । पावंति हु सासयं सोक्खं प्राप्नुवन्ति लभन्ते हु-स्फुटं शाश्वतं सौख्यं अविनश्वरं परमनिर्वाणसुखं । ठाणं इति पाठे शाश्वतं अविनश्वरं स्थानं मोक्षं प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः । देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंता । झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमरगम्मि ॥८२ ॥ देवमुरूणां भक्ताः निर्वेदपरम्परां विचिन्तयन्तः । ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥ देवगुरूणं भत्ता देवानामष्टादशदोषरहितानामिन्द्रादिपूजितानां पंचकल्याणप्राप्तानां अष्टमहाप्रातिहार्यशोभितानां संसारसमुद्रनिस्तारकाणां भव्यकमलबोधमार्तण्डानामित्याद्यनन्तगुणगरिष्ठानामर्हदेवानां तथा गुरूणां निग्रन्थाचार्यवर्याणां शास्त्रसमुद्रपारगाणां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपवित्रगात्राणां स्त्रीविवर्जितानां विवाहादिपापारम्भविवर्जितानां क्षत्रद्विजवैश्याश्वगजवर्करादिजीवानाममारकाणां मधुलिप्तवनिताभगानास्वादकानां सौत्रा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । मणिमद्यानामपायकानां गोवधं कृत्वा संवत्सरे मातृभगिन्यादिभोगालम्पटानां भव्यजीव संबोधने मातृपितृवद्धितोपदेशकानां पापघटाग्राहकाणां, इत्यादिसावद्य कर्मरहितानां प्रासुकपरगृहयोग्यभोजनभोजकानां अवर्णलोपकानामनुच्छिष्टभुक्तिग्रहणमार्गाणां इत्यादिगुणगणगरिष्ठानां जगदिष्टानां गुरूणां ये भक्ताः पादपंकजमधुलिहा (हः) देवगुरूणां भक्ता इत्युच्यन्ते । णिव्वेयपरंपरा विचिंतता निर्वेदः संसारशरीरभोगविरागता तस्य परंपरा नानाविधोपदेशस्तां विशेषेण चिन्तयन्तः पर्यालोचयन्तः नरकादिगतिगर्तपातिपातकभ्यभीतमूर्तयः । झाणरया सुचरिता ध्याने धर्म्यशुक्लध्यानद्वये रतास्तत्पराः, सुचारित्राः शोभनाचाराः । ते गहिया मोक्खमग्गमि ते भव्यवरपुण्डरीका गृहीता अङ्गीकृता मोक्षमार्ग इति । णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरितो जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ ८३ ॥ निश्चयनयस्यैवं आत्माऽऽत्मनि आत्मने सुरतः । 1 स भवति हि सुचरित्रः योगी स लभते निर्वाणम् ॥ णिच्छयणयस्स एवं निश्चयनस्यैवमभिप्रायः । एवं कथमिति चेत् ? अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो आत्मा कर्ता, आत्मन्यधिकरणभूते, आत्मने आत्मार्थमिति संप्रदाने तादर्थ्यचतुर्थी, सुष्ठु अतिशयेनालौकिकप्रकारेण रतः तन्मयीभूत एकलोलीभावं गतः । सो होदि हु सुचरितोस आत्मा भवति, कथंभूतो भवति ? सुचरित्रः निश्चयचारित्रः । जोई सो लहइ णिव्वाणं योगी ध्यानवान् पुमान् लभते प्राप्नोति, किं तत् ? निर्वाणं परमसुखं मोक्षामिति, अथवा योगीशो योगिनां ध्यानिनामीशः स्वामी निर्वाणं लभते इति सम्बन्धः । पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो | जो झायदि सो जोई पावहरो भवदि गिदो ॥ ८४ ॥ ३६३ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ षट्प्राभृते पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः । यो ध्यायति स योगी पापहरो भवति निर्द्वन्द्वः ॥ पुरिसायारो अप्पा पुरुषस्य नरस्याकार आकृतिर्यस्य स पुरुषाकारः, एवं गुण विशिष्टः कः ? आत्मा चेतनस्वभावो जीवतत्वं, जोई वरणाणदंसणसमग्गो योगी मुनिः, इत्यनेन गृहस्थस्य मोक्षं ब्रुवाणाः सितपटाः प्रयुक्ता भवन्ति । वरज्ञानदर्शनसमग्रः केवलज्ञानकेवलदर्शनपरिपूर्णः । इत्यनेनाचैतन्यमात्मानं मन्यमानाः कापिलाः शुनका इव निराकृताः । जो झायदि सो जोई एवं गुणविशिष्टमात्मानं यो मुनि ायति स योगी ध्यानी भवति । अन्यश्चार्वाको नास्तिको योगिनामा । एवं स्थाने स्थाने मतान्तराश्रयेण व्याख्यानं कर्तव्यमिति भावः । पावहरो भवदि णिहंदो पापहरस्त्रिषष्ठिप्रकृतिविच्छेदको भवति घातिसंघातघातकः स्यात् , निर्द्वन्द्वः समवशरणागतपरस्परविरोधिजन्तुकलहनिषेधक इत्यर्थः । एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण पुणसु । संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ।। ८५॥ एतत् जिनैः कथितं श्रवणानां श्रावकाण पुनः पुनः । “संसार विनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमम् ॥ एयं जिणेहि कहियं एतद्वातिसंघातघातनादिकं फलं आत्मध्यानस्य, जिन: सर्वज्ञैः कथितं प्रमाणभूतवचनैः प्रतिपादितं । सवणाणं सावयाण पुण पुणसु श्रवणानां दिगम्बराणां महामुन्यपरसंज्ञानामृषीणामिति, न केवलं श्रवणानां श्रावकाणां सदृष्टीनामुपासकानां च यतस्ते दीक्षायोग्या ध्यानाधिकारिणो देशव्रताः सन्त आत्मभावनापरा संसारविरक्तचित्ता आरक्षकगृहीतचौरवत् गृहपरित्यागपरिहारमनसः षोड. शान्यतमस्वर्गगामिनः । पुनः पुनः भणितं तत्वज्ञानविज्ञानार्थ च । संसा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ na.in मोक्षप्राभतं । ३६५ रविणासयरं सर्वज्ञवीतरागवचनमिदं कथंभूतं ? संसारविनाशकरं मोक्षप्रदायकं । सिद्धियरं आत्मोपलब्धिकरं । कारणं हेतुभूतं । परमं उत्कृष्टं उपदेशानामुपदेशोत्तमं । गहिऊण य सम्मत्तं सुनिम्मलं सुरगिरीव निकंपं । तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयहाए ॥८६॥ ___ गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरिरिव निष्कम्मम् । ___ तद् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे । गहिऊण य सम्मत्तं गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं । सुनिम्मलं सुरगिरीव निकंपं सुनिम्मलं-मुष्ठु अतिशयेन निर्मलं निरतिचारं शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवलक्षणातिचाररहितं । सुरगिरिवन्मेरुपर्वत इव निष्कम्पं चलमलिनत्वरहितं । तं झाणे झाइज्जइ तजिनवचनं सम्यक्त्वं वा ध्याने धर्म्यध्यानावसरे दानपूजादिस्तवनमहापुराणादिशास्त्रश्रवणसामायिकजिनयात्राप्रतिष्ठादिप्रस्तावे ध्यायते मुहुर्मुहुश्चिन्त्यते भाव्यते । सावय दुक्खक्खयहाए हे श्रावक सम्यग्दृष्टयुपासक ! हे मुने ! च, श्रावयति धर्ममिति श्रावक इति व्युत्पत्तेः, दुःखक्षयार्थे । सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो।। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृढकम्माणि ॥ ८७॥ सम्यक्त्वं यो ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति स जीवः । सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥ सम्मत्तं जो झायदि सम्यक्त्वमनर्थ्यमाणिक्यं यो जीवो ध्यायति चिन्तयति पुनः पुनर्भावयति । सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो सम्यग्दष्टिर्भवति स आसन्नभव्यजीवः । सम्मत्तपरिणदो उण सम्यक्त्वरत्नपरिणतः सम्यग्दर्शनमयीभूतः पुनः । किं भवति ? खवेइ दुइटक Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ षट्प्राभूतेम्माणि क्षिपते विनाशयति दुष्टानि दुःखदायीनि अष्टकर्माणि ज्ञानावरणादीनि । किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा नरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥८८॥ किं बहुना भणितेन ये सिद्धा नरवरा गते काले । ___ सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यं ।। किं बहुणा भणिएणं कि बहुना भणितेन किं प्रचुरेण जल्पितेन न किमपीत्याक्षेपः । जे सिद्धा नरवरा गए काले ये किंचित्सिद्धा मुक्ति गता मोक्ष प्राप्ताः, नरवरा भव्यवरपुण्डरीका भरतसगररामपाण्डवादयः, तत्सर्व सम्यक्त्वमाहात्म्यं जानीत यूयमिति सम्बन्धः, गते काले अतीते काले । सिज्झिहहि जे वि भविया सेत्स्यन्ति भविष्यति काले सिद्धिं यास्यन्ति मोक्ष प्राप्स्यन्ति येऽपि भव्याः । तं जाणह सम्ममाहप्पं तजानीत सम्यक्त्वस्य माहात्म्यं प्रभावं । - ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्मत्तं सिद्धियरं सिवणे वि ण मइलियं जेहिं ॥ ८९ ॥ ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेपि पण्डिता मनुजाः। सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेपि न मलिनितं यैः ॥ ते धण्णा सुकयत्था ते पुरुषा धन्याः पुण्यवन्तः, ते पुरुषाः सुकृतार्थाः सुष्टु अतिशयेन कृतार्थाः कृतकृत्याः साधितचतुःपुरुषार्थाः । ते मूरा ते वि पंडिया मणुया ते पुरुषाः शूराः सुभटाः पापकर्मशत्रुविध्वंसकत्वात् , ते पुरुषाः पण्डिताः विद्वांसस्तार्किका अपि मनुजा मानवा अपि सन्तो देवा इत्यर्थः । सम्मत्तं सिद्धियरं सिवणे विण मडलियं जेहिं सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं, स्वप्नेऽपि निद्रायां, अपिशब्दा ___ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३६७ ज्जाग्रदवस्थायामपि, यैः पुरुषैः, सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनरत्नं, न मलिनीकृतं निरतिचारं प्रतिपालितं । कथंभूतं सम्यक्त्वं, सिद्धियरं - सिद्धिकरं आत्मोपलब्धिलक्षण मोक्षकारकमिति । तं सम्मत्तं केरिस हवदितं जहा - तत्सम्यक्त्वं कीदृशं भवति तद्यथा —- हिंसारहि धम्मे अहारहदो सवज्जिए देवे | निग्गंथे पावणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ९०॥ हिंसारहि धर्मे अष्टादशदोषवर्जिते देवे । निर्ग्रन्थे प्रावचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ॥ हिंसारहि धम्मे हिंसारहिते धर्मे श्रद्धानं सम्यक्त्वं भवतीति सम्बन्धः, हिंसारहितो धर्मो जैनधर्मः । यत्र धर्मे ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राश्वपश्वादिको जीवो वध्यते सोऽधर्म इति तत्वार्थः । अट्ठारहदोसवज्जिए देवे अष्टादशदोषवर्जिते देवे श्रद्धानमिति सम्बन्धः । रुद्रः किल शृगालश्रेष्ठिनः पुत्रं भक्षितवान् तत्र क्षुधादोषः हिंसादोपश्च । ब्रह्मणः कमण्डलुग्रहणात् पिपासादोषः, जीर्णशरीरत्वात्तस्य जरादोषः । गजचर्मवे ? कण्ठे कालत्वं रुद्रे रुग्दोपः सूर्ये पादकुष्टत्वाद्रुग्दोषः । दशावतारसंयुक्तत्वात् कृष्णे जन्मदोषः वसुदेवदेवकीनन्दनत्वाच्च । त्रयाणामपि मृत्युसद्भावो वेदितव्यः । नरकासुरभयान्नष्टः खलु श्रीमहादेवस्तत्र भयदोषः, ब्रह्मा दंडं धरति, रुद्रः शूलं खण्डपरशुं पिनाकं धनुश्चेत्यादिकं धत्ते, विष्णुश्चक्रं सुदर्शनं कौमोदकीं गदां चेत्यादिकं गृह्णाति तेन त्रयाणामपि भयसद्भावो बुधैरवबुद्धयते । सृष्टिकर्तृत्वसंहर्तृत्वादिकस्तत्र स्मयो मदश्च निश्चीयते विपश्चिद्भिः । रुद्रः पार्वती १ चर्मवत् ख. पुस्तके | Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पट्प्राभृते मर्धाङ्गे धरति जटामध्ये गंगां चादधाति, ब्रह्मा वशिष्टस्य पितृत्वादुर्वशीवल्लभत्वात्, विष्णुः षोडशसहस्र गोपीर्भजते गोपनाथस्य दुहितरं च, सूर्यो रण्णादेवीं चन्द्रो रोहिणी च भुंक्ते तेनैते रागवन्तोऽपि ज्ञातव्याः । ब्रह्मा गजासुरं द्वेष्टि, रुद्रस्त्रिपुरदानवं भस्मयति, विष्णुः कंस केशचाणूरजरासन्धान् पिनष्टि तेनैते द्वेषवन्तोऽपि ज्ञातव्याः । ब्रह्मा वशिष्टमुखं पश्यति, रुद्रस्तु स्कन्दं निरीक्षते, विष्णुः प्रद्युम्ने स्निह्यति तैनेते मोहिनोऽपि ज्ञातव्याः । ब्रह्मणः सृष्टिचिन्ता समुत्पन्ना रुद्रस्य नरकवरदानात् विष्णोर्जरासन्धशिशुपालादिवधे महती चिन्ता समुत्पन्ना । ब्रह्मा उर्वश्यां रमते, रुद्रः पार्वतीं भुंक्ते, विष्णुः सत्यभामाद्याः क्रीडति तेनैतेषु रतिदोषोऽपि घटते । ब्रह्मा योगनिद्रां करोति, रुद्रः कैलासे शेते गिरीशनामकत्वात्, विष्णुर्जलशायीति कथ्यते तेनैते प्रमीलावन्तोऽपि विज्ञेयाः निद्रादोषा इत्यर्थः । रुद्रो नरकाय वरं दत्वा विषीदति इत्यादि विषाददोषोऽपि संगच्छते । मैथुनादिषु स्वेदसद्भावोऽपि लोककल्पितदेवानामभ्यूह्यः । खेदस्तु संग्रामादौ । विस्मयस्तु रूपादिदर्शने । इत्यादि लोकदेवतानामष्टादशापि दोषाश्चिन्तनीयाः । सर्वज्ञवीतरागे तु कश्चिदपि दोषो न वर्तते । उक्तं च I रागादिदोषसद्भावो ज्ञेयोऽमीषां तदागमात् । असतः परदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ॥ १ ॥ निग्गंथे पोवयणे निग्रन्थे प्रावचने प्रवचननियुक्ते गुरौ । सद्दहणं होइ सम्मत्तं एतेषु धर्मदेवगुरुषु पदार्थेषु श्रद्धानं रुचिः अन्येषु स्ववांतान्नास्वादनवदरुचिः सम्यक्त्वं भवतीति क्रियाकारकसम्बन्धः | जहजारूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं । लिंगं ण वरावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥ ९१ ॥ १ पव्वयणे इति मूलगाथा पाठः । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । यथाजातरूपरूपं सुसंयतं सर्वसंगपरित्यक्तम् । लिङ्गं न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम् ॥ जहजायरूवरूवं यथाजातरूपं मातुर्गर्भनिर्गतबालकरूपं तद्वद्रूपमाकारो यस्य लिंगस्य तद्यथाजातरूपरूपं । सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं पुनः कथंभूतं लिंगं, सुसंयतं सुष्ठु-अतिशयवत्संयमसहितं, सर्वसंगपरित्यक्तं सर्वपरिग्रहरहितं शिरःकर्णकण्ठकरकटीक्रमप्रभृत्यङ्गाभरणवस्त्ररहितं सर्वथा नग्नं । लिंगं ण वरावेक्खं ईदृग्विधं लिंगं कथंभूतं, न परापेक्षं परापेक्षारहितं शरीरमात्रपरिग्रहं । जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ईदृशं लिंगं निग्रन्थवेषं यः पुमान् मन्यते साधु वक्ति तस्य सम्यक्त्वं भवति, यः सग्रन्थलिंगेन मोक्षं वक्ति स मिथ्यादृष्टितिव्य इति । कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिही हवे सो हु ॥१२॥ कुस्सितदेवं धर्म कुत्सितलिङ्गं च वन्दते यस्तु । लज्जाभयगारवतः मिथ्यादृष्टिर्भवेत् स हु ॥ कुच्छियदेवं धम्मं कुत्सितदेवं श्रीमहादेवं ब्रह्माणं नारायणं बुद्धं (विं चन्द्रमसं यक्षं त्रिपुरभैरवीं चेत्यादिकं । कुत्सितधर्म आलंभनकुंडवण्डितपशुचक्रवषट्कारसम्बन्धं शूलपाणि, झंपापातं, वह्निप्रवेशं, भर्तुः सह गमनं, सूर्यार्घग्रहणस्नानं, संक्रान्तिदानं, नदीसागरादिमंजनं, गोयोनेस्पर्शनं, तन्मूत्रपानं, शमीतरुपूजनं, पिप्पलालिंगनं मृत्तिकाविलेपनं, कृष्णसारचर्मवसनं, नक्तभोजनं, धूलीदृषदुच्चयवन्दनं, रत्नपूजनं, वाहनार्चनं, भूमिपूजनं, खड्गपूजनं, पर्वतपूजनं, घृते मुखवीक्षणमित्यादि कुत्सितधर्म । कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु कुत्सितलिंगं नग्नाण्डकं,जटाधारिणं, पंचशिखं, एकदण्डिन, त्रिदण्डिनं, शिखाधारिणं, सौगतपाशुपतयोगपे१ भी सह गमनं ख. इदमेव साधु । षद० २४ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभते त्यादि-कुत्सितलिंगं च वन्दते नमस्करोति अभिवादनं विदधाति नमोनारायणमिति वाचा प्रणमति मस्तकेन धन्दे इति प्रणमति यस्तु पुमान् । लज्जाभयगारवदो लजया कृत्वा भयेन च गारवेण गर्वेण च यो वन्दते । मिच्छादिही हवे सो हु मिथ्यादृष्टिर्भवति सः । कथं ? हु-स्फुटं । सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे । माणइ मिच्छादिट्टी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो ॥१३॥ स्वपरापेक्ष लिङ्गं रागिणं देवं असंयतं वन्दे । मानयति मिथ्यादृष्टिः न हि मानयति शुद्धसम्यक्त्वः ।। सपरावेक्खं लिंगं स्वपरापेक्षं लिगं, स्वापेक्षं ऋषिपत्नीयुतं परापेक्षं रक्तवस्त्रमृगचर्मादि सापेक्षं लिंगं वेषं । राई देवं असंजयं वंदे रागिणं देवं पार्वतीपति लक्षमीकान्तं तिलोत्तमामुखकमलप्रघट्टकचतुर्वक्त्रं चेत्यादिकं देवं, असंजयं वंदे-असंयतं अनेकमानुषमांसदक्षिणमुखभक्षकं वन्दे इति यो वक्ति । माणइ मिच्छादिही मानयति मिथ्यादृष्टिः-श्रद्दधाति मिथ्यादृष्टिः जिनानामभक्तः । ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो न मानयति न सन्मानं ददाति, कोऽसौ ? शुद्धसम्यक्त्वो निर्मलसम्यक्त्वरत्नमंडितः । सम्माइट्टी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि । विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्टी मुणेयव्वो ॥९४॥ सम्यग्दृष्टिः पावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ सम्माइही सावय सम्यग्दृष्टिः श्रावकः सम्यक्त्वरत्नसंशोभितं गृहस्थः । अथवा श्रावयतीति श्रावको मुनिः। अथवा हे सम्यग्दृष्टिश्रावक इति सम्बोधनपदं । धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि धर्म दुर्गतिपाता १ मस्तकेन वंदयति प्रणमति ख. । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । दुद्धृत्य इन्द्रचन्द्रमुनीन्द्रवन्दिते पदे धरतीति धर्मस्तं । जिणदेवदेसियंजिनदेवदेशितं श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागकथितं करोति । विवरीयं कुव्वंतो विपरीतं कुर्वन् रुद्रजिमिनिकणभक्षकापिलसौगतादिभिरुपदिष्टं धर्म कुर्वन् पुमान् । मिच्छादिट्टी मुणेयव्वो मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः । मिच्छादिही जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ । जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥९५॥ - मिथ्यादृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुले जीवः ॥ मिच्छादिही जो सो मिथ्यादृष्टिर्यो जीवः सः। किं करोति ? संसारे संसरेइ सुहरहिओ संसारे भवसागरे संसरति सम्यक्प्रविशति सुखरहितो दुःखसहितः । कथंभूते संसारे, जम्मजरमरणपउरे जन्मजरामरणप्रचुरे बहुले । दुक्खसहस्साउले जीवो दु:खानां सहस्रैरनन्तदुःखैराकुले परिपूर्णे, कः ? जीवो मिथ्यादृष्टिप्राणीति शेषः । सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुचइ किं बहुणा पलविएणं तु ॥ ९६ ॥ सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत्कुरु । यत्ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ॥ सम्म गुण मिच्छ दोसो सम्यक्त्वं गुणो भवति, मिथ्यात्वं दोषो भवति पापं स्यात् । मणेण परिभाविऊण तं कुणसु इममर्थ मनसा चित्तेन परिभाव्य सम्यग्विचार्य तत्कुरु तत्त्वं विधेहि । तत् किं ? जंते मणस्स रुञ्चइ यद्योर्गुणदोषयोर्मध्ये ते तव मनसे रोचते । किं बहुणा पलविएणं तु बहुना प्रलपितेन अनर्थकवचनेन किं-न किमपि । यदि तव मनसे गुणो रोचते तर्हि सम्यक्त्वं विधेहि उत दोषो रोचते तर्हि Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ षट्प्राभृते मिथ्यात्वं विधेहि | अर्थतस्तु सम्यक्त्वं विधेहीति सम्यगुपदेशो भगवतां श्री कुन्दकुन्दाचार्याणां । बाहिरसंगविमुको ण वि मुको मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभावं ॥ ९७ ॥ बाह्यसंगविमुक्तः न विमुक्तः मिथ्याभावेन निर्ग्रन्थः । किं तस्य स्थानमानं नापि जानाति आत्मसमभावम् ॥ बाहिरसंगविमुक्क बहि:संगाद्विमुक्तो रहितो नग्नवेषः । ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो नापि मुक्तः नैव मुक्तः न विमुक्तो वा मिथ्याभावेन - मिध्यात्वदोषेण रहितो न भवति, कोऽसौ ? निग्रन्थो दिगम्बरवेषाजीवी जीवः । किं तस्स ठाणमउणं तस्य निग्रन्थस्य स्थानं उद्भकायोत्सर्गः किं न किमपि, कर्मक्षयलक्षणं मोक्षं न साधयतीत्यर्थः । तथा मौनं किं- मूकत्वमपि न किमपि, मोक्षाश्रितं कार्यं न करोतीत्यर्थः । ण वि जाणदि अप्पसमभावं नापि जानीते न लभते न वेत्ति आत्मसमभावं आत्मनां जीवानां समत्वपरिणामं सर्वे जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावा इति सिद्धान्तवचनं न जानाति । - मूलगुणं छित्तूणय बाहिरकम्मं करेइ जो साहू | सोण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराधगो णिचं ॥ ९८ ॥ मूलगुणं छित्वा बाह्यकर्म करोति यः साधुः । स न लभते सिद्धिसुखं जिनलिङ्गविराधकः नित्यम् ॥ मूलगुणं छित्तूण य मूलगुणमष्टाविंशतिभेदभिन्नं पंचमहाव्रतानि पंचसमितयः पंचेन्द्रियरोधो लोचः षडावश्यकानि अचेलत्वमस्नानं क्षितिशयनं दन्तधावनरहितत्वं उद्भभोजनं एकभक्तं इत्यष्टाविंशतिमूलगुणाम्नायः । तत्र यदुक्तः स्नानाभावस्तस्यायमर्थ: -: Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३७३ नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात् स्नानमन्यद्विगर्हितं ॥१॥ तत्र यते: रजस्वलास्पर्शे अस्थिस्पर्शे चण्डालस्पर्शे शुनकगर्दभनापितयोगकपालस्पर्श वमने विष्टोपरि पादपतने शरीरोपरिकाकविण्मोचने इत्यादिस्नानोत्पत्तौ सत्यां दंडवदुपविश्यते, श्रावकादिकश्छात्रादिको वा जलं नामयति, सर्वांगप्रक्षालनं क्रियते, स्वयं हस्तमर्दनेनागमलं न दूरीक्रियते, स्नाने संजाते सति उपवासो गृह्यते, पंचनमस्कारशतमष्टोत्तरं कायोत्सर्गेण जप्यते. एवं शुद्धिर्भवति । एवं मूलगुणं छित्वा बाहिरकम्मं करेइ जो साहू बहिःकर्म आतपनयोगादिकं यः साधुः: करोति। सो ण लहइ सिद्धिसुहं स साधुः सिद्धिसुखं मोक्षसौख्यं न लभते न प्रामोति । जिणलिंगविराधगो णिचं स साधुर्जिनलिंगविराधको भवति, कथं ? नित्यं सर्वकालं ।। किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं च । किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो ॥ ९९ ॥ किं करिष्यति बाह्यकर्म किं करिष्यति बहुविधं च क्षमणं च । किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावाद्विपरीतः ॥ किं काहिदि बहिकम्मं किं करिष्यति-न किमपि करिष्यति, मोक्षं न करिष्यति, किं तत् ? बहिष्कर्म पठनपाठनादिकं प्रतिक्रमणादिकं च । किंकाहिदि बहुविहं च खवणं च किं करिष्यति-न किमपि करिष्यति, न मोक्षं दास्यति । किं तत् ? बहुविधं नानाप्रकारं क्षमणमुपवासः। किं काहिदि आदावं किं करिष्यति-न किमपि करिष्यति, कोऽसौ ? आतापः धर्मकायोत्सर्गः पूर्वोक्तः समाचारः । कथंभूतः, आदसहावस्स विवरीदो आत्मस्वभावाद्विपरीत: बाह्यवस्तुसम्मोहित्तमनाः । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ षट्प्राभृते जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहे य चारिते । तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीं ॥ १०० ॥ यदि पठति श्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधानि चारित्राणि । तद्वालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् ॥ जदि पढदि बहुसुदाणि य यदि चेत्, पठति व्यक्तमुच्चारयति, बहुश्रुतानि अनेकतर्कव्याकरणच्छन्दोऽलङ्कारसिद्धान्तसाहित्यादीनि शास्त्राणि । चकार उक्तसमुच्चयार्थ एकादशाङ्गानि दशपूर्वाणि च । जदि काहि दि बहुविहे य चारित्ते यदि चेत्, काहिदि-करिष्यति अनुष्ठास्यति, बहुविधानि चारित्राणि त्रयोदशप्रकाराणि सामायिकादीनि पंचविधानि वा । तं बालसुदं चरणं तत्सर्वं बालश्रुतं मूर्खशास्त्रं, बालचरणं मूर्खचारित्रं । Tas अप्पस विवरीदं भवति बालश्रुतं बालचारित्रं भवति, कथंभूतं सत् ? आत्मनो निजशुद्धबुद्धैकस्वभावजीव तत्वाद्विपरीतं पराङ्मुखमात्मभावनारहितमिति भावार्थ: । वेरग्गपरो साहू परदव्यपरम्मुह य सो होदि । संसारमुहविरतो सगसुद्धसुसु अणुरत्तो ॥ १०१ ॥ ہے کہ वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च स भवति । संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः ॥ वेरग्गपरो साहू वैराग्यपरः साधुः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः सम्यग्दर्शनज्ञानानामाराधकत्वात्साधक आत्मनामान्वर्थत्वात् । परदव्वपरहोय सो होदि यः साधुः वैराग्यपरः स साधुः परद्रव्यपराङ्मुखो भवति इष्टवनितादिविरक्तो भवति । संसारसुहविरत्तो संसारस्य सुखं कर्पूरकस्तूरीचन्दनपुष्पमालापट्टकूल सुवर्णमणिमौक्तिकप्रासादपल्यंकनवयौवनयुवतिपुत्रसम्पदिष्टसंयोगारोग्यदीर्घायुयशः कीर्तिप्रभृतिकं तस्माद्विरक्तः । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३७५ सगसुद्धसुहेसु अणुरतो पूर्वोक्तात्मशरीरकर्मसमुत्पन्नविश्वसुखाद्विरज्य निष्केवललवणखल्यास्वादवत् सुखेषु अनन्तज्ञानादिचतुष्टयेऽनुरक्तोऽनुरागवान् भवतीति भावार्थः । गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू | झणझणे सुरदो सो पावर उत्तमं ठाणं ॥ १०२ ॥ गुणगणविभूषिताङ्गः हेयोपादेय निश्चितः साधुः । ध्यानाध्ययने सुरतः स प्राप्नोति उत्तमं स्थानम् ॥ गुणगणविहूसियंगो गुणानां ज्ञानध्यानतपोरत्नानां गणैः समूहैर्विभूषिताङ्गः शोभितशरीरः । हेयोपादेयणिच्छिदो साहू हेयं मिथ्यात्वादिकं उपादेयं ग्रहणीयं सम्यक्त्वरत्नादिकं तत्र निश्चितं निश्चयो यस्य स हेयोपादेय निश्चितः साधू त्नत्रयाराधको मुनिः । झाणज्झयणे सुरदो ध्यानमार्तरौद्रध्यानद्वयपरित्यागेन धर्म्यशुक्लध्यानद्वये रतस्तत्परस्तन्निष्ठस्तदेकतानः । सो पावह उत्तमं ठाणं य एवंविधः साधुः स प्राप्नोति, किं ? उत्तमस्थानं नीचस्थानं - शरीरलक्षणं हीनस्थानं परिहृत्य उत्तमस्थानं कर्मशरीरबन्धनरहितत्वं मोक्षं प्राप्नोति लभते सिद्धः प्रसिद्धश्व भवतीति तात्पर्यार्थः । विएहिं जं विज्जर झाइज्जर झाइएहि अणवरयं । थुव्वं हि थुणिज्जर देहत्थं किं पि तं मुणह ॥ १०३॥ नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् मनुत ॥ विएहिं जं विज्जड़ नतैर्देवेन्द्रादिभिर्यन्नम्यते । झाइज्ज झाड़एहि अणवरयं ध्यायते ऽहर्निशं चिन्त्यते झाइएहिं - ध्यातैस्तीर्थकरपर १. पुस्तकेऽस्य स्थाने भावस्थानमिति पाठः । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ षटमाभते-- मदेवैर्यद्धयायते अहर्निशं शुक्लध्यानार्थ सर्वकर्मक्षयार्थ तत्पदप्राप्त्यर्थ अनुचिन्त्यते। थुन्वंतेहि थुणिज्जइ स्तूयमानैस्तीर्थकरपरमदेवैर्यत् स्तूयतेऽनन्तगुणोद्भावनतया प्रशस्यते । देहत्थं कि पि तं मुणह देहस्थं शरीरमध्ये स्थितं किमप्यपूर्वमनिर्वचनीयमासंसरमप्राप्तं तद्योगिनां प्रसिद्ध तत्वं आत्मस्वरूपं मुणह-जानीत यूयं । यदुक्तं तिलमध्ये यथा तैलं दुग्धमध्ये यथा घृतं । काष्ठमध्ये यथावन्हिर्देहमध्ये तथा शिवः ॥१॥ शिवशब्दवाच्यमात्मतत्वमित्यर्थः । इदानी शास्त्रस्यान्ते मंगलनिमित्तं पंचपरमेष्ठिपुरस्सररत्नत्रयगर्भितमास्मतत्वमुद्भावयन्ति भगवन्तः-- अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंचपरमेही । ते वि हु चिहहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥१०४॥ अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंचपरमेष्टिनः । तेऽपि हु तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ॥ अरुहा सिद्धायरिया अर्हन्तः सिद्धा आचाश्चि । उज्झाया साहु पंचपरमेही उपाध्यायाः, साधयः, एते पंचपरमेष्टिनो देवा ममेष्टदेवताः । ते वि हु चिहहि आदे तेऽपि पंचपरमेष्ठिनो देवा अपि तिष्ठन्ति, क ? आत्मनि निजजीवतत्वे । केवलज्ञानादिगुणविराजमानत्वात् सकलभव्यजीवसम्बोधनसमर्थत्वाच्चात्मायमर्हन् वर्तते । सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षपदप्राप्तत्वात् निश्चयनयान्ममात्मायमेव सिद्धः । दीक्षाशिक्षादायकत्वात् पंचचाराचरणचारणप्रवीणत्वात् सूरिमंत्रतिलकमंत्रतन्मयत्वान्ममात्मायमेवाचार्यपदभागी वर्तते । श्रुतज्ञानोपदेशकत्वात् स्वपरमतविज्ञायकत्वात् भव्यजीवसम्बोधकत्वान्ममात्मायमेवोपाध्यायः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रर Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३७७ त्नत्रयसाधकत्वात् सर्वद्वन्द्वविमुक्तत्वात् दीक्षाशिक्षायात्राप्रतिष्ठाद्यनेकधर्मकार्यनिश्चिन्ततयाऽऽत्मतत्वसाधकतया ममात्मायमेव सर्वसाधुर्वर्तते इति पंचपरमेष्ठिन आत्मनि तिष्ठन्तीति कारणात् । तम्हा आदा हु मे सरणं तस्मात्कारणादात्मा हु-स्फुटं मे मम शरणं संसारदुःखनिवारकत्वादर्तिमथनसमर्थः मम शरणं गतिरिति । सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव । चउरो चिहहि आदे तमा आदा हु मे सरणं ॥१०५॥ सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चारित्रं हि सत्तपश्चैव ।। चत्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ॥ सम्मत्तं सण्णाणं सम्यग्दर्शनरत्नं सज्ज्ञानं समीचीनमबाधितं पूर्वापरविरोधरहितं सम्यग्ज्ञानं । सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव सञ्चारित्रं सम्यक्चारित्रं पापक्रियाविरमणलक्षणं परमोदासीनतास्वरूपं च सम्यक्चारित्रं, सत्त-समीचीनं तपः इच्छानिरोधलक्षणं चेति । चउरो चिहहि आदे एते चत्वारोऽपि परमाराधनापदार्थास्तिष्ठन्ति, क तिष्ठन्ति ? आत्मनि निजशुद्धबुद्धकस्वभावजीवतत्वे तिष्ठन्ति । यदात्मनः श्रद्धानमात्मेव करोति, आत्मनो ज्ञानमात्मैव विधत्ते, आत्मना सहैकलोलीभावमात्मैव कुरुते, आत्मैवात्मनि तपति, केवलज्ञानेश्वर्य प्राप्नोति चतुर्भिरपि प्रकारैरात्मात्मानमेवाराधयति । तम्हा आदा हु मे सरणं तस्मादात्मैव मम शरणमर्तिमथनसमर्थः संसारार्तिनिषेधकत्वात् आत्मैव मे गतिः, मंगलं मलगालने कर्ममलकलङ्कनिषेधने मंगस्य सुखस्य दाने च समर्थत्वादात्मैव परमं मंगलगिति भावार्थः । एवं जिणपण्णतं मोक्खस्य य पाहुडं सुभत्तीए। जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ॥१०६॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ षट्प्राभूतेएवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च प्राभृतं सुभक्त्या ।। यः पठति शृणोति भावयति स प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यम् ॥ एवं जिणपण्णत्तं एवममुना प्रकारेण जिनप्रज्ञप्तं सर्वज्ञवीतरागभावितं । मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए माक्षस्य परमनिर्वाणपदस्य प्राभृतं सारमिदं शास्त्रं सुष्ठु-अतिशयेन भक्त्या परमधर्मानुरागेण । जो पढइ सुणइ भावइ य आसन्नभव्यो जीवः पठति जिह्वाग्रे करोति, यश्च भव्यजीवः शृणोत्याकर्णयति, यश्च मोक्षाभिलाषुको जीवो भावयति एतच्छास्त्रं यस्मै रोचते । सो पावइ सासयं सोक्खं स जीवः परममुनीश्वरः, प्राप्नोति लभते, शाश्वतमविनश्वरं, सौख्यं निजात्मोत्थं परमानन्दलक्षणं सौख्यं । नानाशास्त्रमहार्णवैकतरणे यद्बुद्धिरिद्धश्रिया पूर्णा पुण्यकविप्रमोदजननी लारैकनौकायते । यत्पादाम्बुजयुग्ममाप्य मुनिभि गैरिचापीयते स श्रीमान् श्रुतसागरो विजयतामेनस्तमोऽहपतिः॥१॥ श्रीमत्स्वामिलमन्तभद्रममलं श्रीकुन्दकुन्दाव्हयं यो धीमानकलङ्कभट्टमपि च श्रीमत्प्रमेन्दुप्रभु। विद्यानन्दमपीक्षितुं कृतमनाः श्रीपूज्यपादं गुरुं वक्षित श्रुतसागरं सविनयात् विद्यधीमन्नुतं ॥२॥ श्रीमल्लिभूषणगुरोर्वचनादलंध्या न्मुक्तिश्रिया सह समागमामिच्छतेयं । षट्प्राभृते सकलसंशयशत्रुहंत्री टीका कृताऽकृतधियां श्रुतसागरेण ॥३॥ १ पूर्वापुण्य ख.। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतं । ३७९ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्य गृध्रापच्छाचार्य नामपंचकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगर वंदित सीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तच्छ्रुतज्ञानसम्बोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्र सूरिभट्टारक पट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनीमण्डलीमंडितेन कलिकाल गौतमस्वामिना श्रीपद्मनान्देदेवेन्द्रकीर्ति-विद्यानन्द पट्टभहारकेण श्रीमल्लिभूषणेनानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभय भाषाक विचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता मोक्षप्राभृतटीका - परिसमाप्ती । १ अस्मादग्रे क . पुस्तकेऽयं पाठो वर्तते न तु ख. पुस्तके | षष्ठः परिच्छेदः । शुभं भवतु । श्रीरस्तु | मङ्गलमस्तु | श्रीविद्यानन्दस्वामि-भट्टारक श्रीमत्रिभूषण - सूरिवरश्रीश्रुतसागराः मम शुभानि कुर्वन्तु । श्लोक संख्या ६००० ज्ञातव्या । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगप्राभृतं । sole+ काऊ णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं । वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण ॥ १ ॥ कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव सिद्धानां । वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्रं समासेन || धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो ॥ २ ॥ धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः । जानीहि भावधर्म किं ते लिंगेन कर्तव्यं ॥ जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तृणं जिणवरिंदाणं । उवहस लिंगि भावं लिंगं णासेदि लिंगीणं ॥ ३ ॥ यः पापमोहितमतिः लिंगं गृहीला जिनवरेन्द्राणां । उपहसति लिंगी भावं लिंगं नाशयति लिंगिनां ॥ चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । सो पाव मोहिमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४ नृत्यति गायति तावत् वाड्यां ? वाचयति लिंगरूपेण । स पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः || समूहदि रक्खेदि य अहं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पाव मोहिमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ५ १६. पु. । २ स्स. पु. । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAN लिंगप्राभतं । समूह्यति रक्षति च आर्तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन । स पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ कलहं वादं जूवा णिचं बहुमाणगबिओ लिंगी। वचदि णरयं पाओ करणमणो लिंगिरूवेण ॥ ६ ॥ कलहं वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वितो लिंगी। व्रजति नरकं पापः कुर्वाण: लिंगिरूपेण ।। पाओपहदभावो सेवदि य अबंभु लिंगिरूवेण । सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकांतारे ॥७॥ पापोहतभावः सेवते च अब्रह्म लिंगिरूपेण । स पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे ॥ दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण । अट्ट झायदि झाणं अणंतसंसारिओ होदी ॥ ८॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरूपेण । आर्त ध्यायति ध्यानं अनन्तसंसारीको भवति ।। जो जोडदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च । वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ॥९॥ यः विवाहं युनक्ति कृषिकर्मवणिज्यजीवघातं च । . __ व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण ॥ चोराण समाएण य जुद्ध विवाहं च तिव्वकम्महि । जंतेण दिव्वमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ॥ १० ॥ चोराणां मिथ्यावादिनां युद्धं विवादं च तीव्रकर्मभिः । यंत्रेण दीव्यमानः गच्छति लिंगी नरकवासं ।। १ क्रीडमानः । Tona! Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितंदंसणणाणचरित्ते तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि । पीडयदि वद्धमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥११॥ दर्शनज्ञानचरित्रेषु तपःसंयमनियमनित्यकर्मणि । पीडयति वर्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासं ॥ कंदप्प (प्पा ) इय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं । माई लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ १२ ॥ कंदर्पादिकं वर्तते कुर्वाणः भोजनेषु रसगृद्धिं । मायावी लिंगव्यपायी तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊणःमुंजदे पिंडं । अवरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ॥ १३ ॥ धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुंक्ते पिडं । अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति स श्रमणः ॥ गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खसेहिं । जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ॥ १४॥ गृह्णाति अदत्तदानं परनिन्दामपि च परोक्षदूषणैः । जिनलिंग धारयन् चोरेणेव भवति स श्रमणः । उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण । इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ १५ ॥ उत्पतति पतति धावति पृथिवीं खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ बंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह व वसुहं पि । छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१६॥ १ अयथावादी। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगप्राभृतं । ३८३ बंधं नीरजाः सन् सस्यं खण्डयति तथा च वसुधामपि । छिनत्ति तरुगणं बहुशः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ रागो करेदि णिचं महिलावग्गं परं च दूसेदि । दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ १७॥ रागं करोति नित्यं महिलावार्ग परं च दूषयति । दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ पव्वजहीणगहिणं णेहं सीसम्मि वहदे बहुसो । आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो सवणो ॥१८॥ प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्तते बहुशः । आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न स श्रवणः ।। एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वदे णिचं । बहुलं पि जाणमाणो भावविणहो ण सो सवणो ॥ १९ ॥ एवं सहितः मुनिवरः संयतमध्ये वर्तते नित्यं । बहुलमपि जानानः भावविनष्टो न स श्रवणः ॥ दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वीसहो । पासत्थ वि हु णियहो भावविणहो ण सो सवणो ॥२०॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः । पार्श्वस्थादपि हु निकृष्टः भावविनष्टः न स श्रवणः ॥ पुच्छलिघरि जसु झुंजइ णिचं संथुणदि पोसए पिंडं । पावदि वालसहावं भावविणहो ण सो सवणो ॥ २१ ॥ १ निरजाः पु.। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितं पुंश्चलीगृहे यः भुंक्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिंडं । प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्टो न स श्रवणः ॥ इय लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहि देसियं धम्म । पालेहि कसहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥ २२ ॥ इति लिंगप्राभूतमिदं सर्वे बुद्धैः देशितं धर्म । पालयति कष्टसहितं स गाहते उत्तमं स्थानं ॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितलिंगप्राभृतकं समाप्तम्। - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलप्राभृतं । वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह ॥ १ ॥ वीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोमलसमपादम् । त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ॥ सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुधेहि णिदिहो । णवैरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति ॥२॥ शलिस्य च ज्ञानस्य.च नास्ति विरोधो बुधैर्निदिष्टः । नवरि च शीलेन विना विषयाः ज्ञानं विनाशयन्ति ।। दुक्खे णजहि णाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं । भावियमई व जीवो विसएसु विरंजए दुक्खं ॥३॥ दुःखेन ज्ञायते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखं । भावितमतिश्च जीवो विषयेषु विरज्यति दुःखं ॥ ताव ण जाणदि गाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो। विसए विरत्तमेत्तो ण खुवेइ पुराइयं कम्मं ॥४॥ तावन्न जानाति ज्ञानं विषयबल: यावत् वर्तते जीवः । विषये विरक्तमात्रः न क्षिपते पुराणकं कर्म ॥ १ प्पावं. मूलः पाठः। २ सयराहं नवरि य दुत्ति झत्ति सहलत्ति इक्कसरिअं च । अविहाविअं इक्कवए अत्तक्कियं तक्खणं सहसा ॥ १ ॥ ३ विवज्जए. पु.। षद० २५ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितं गाणं चरितहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं । संजमहीणो य तवो जइ चरइ गिरत्थयं सव्वं ॥ ५ ॥ ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं । संयमहीनश्च तपः यदि चरति निरर्थकं सर्वं ॥ गाणं चरितसुद्धं लिंगग्गहगः च दंसणविसुद्धं । संजम सहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ ॥ ६ ॥ ज्ञानं चारित्रशुद्धं लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्धं । संयमसहितश्च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥ गाणं गाऊन रा केई विसयाइभावसंसत्ता | हिंडति चादुरगदिं विसएस विमोहिया मूढा ॥ ७ ॥ ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभाव संसक्ताः । हिण्डन्ते चातुर्गतिं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ जे पुण विसयविरत्ता णाणं णाऊण भावणासहिदा । छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता न संदेहो ॥ ८ ॥ ये पुनर्विषयविरक्ता ज्ञानं ज्ञाला भावनासहिता: । छिन्दन्ति चातुर्गतिं तपोगुणयुक्ता न सन्देहः ॥ जह कंचणं विसुद्ध धम्मइयं खंडियलचणलेवेण । तह जीवो वि विसुद्ध गाणविसलिलेण विमलेण ॥ ९ ॥ यथा कंचनं विशुद्धं धमत् खंडिकलवणलेपेन । तथा जीवोऽपि विशुद्धे ज्ञानसलिलेन विमलेन ॥ गाणस्स णत्थि दोसो कापुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो । जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रज्जंति ॥ १० ॥ ज्ञानस्य नास्ति दोषः कापुरुषस्यापि मन्दबुद्धेः । ये ज्ञानगर्विता भूत्वा विषयेषु रज्यन्ति ॥ .. ...... Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलप्राभतं । ३८७ णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। होहदि परिणिव्वाणं जीवाणं चरित्तसुद्धाणं ॥ ११ ॥ ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानां ॥ सीलं रक्खंताणं दंसगसुद्धाण दिढचरित्ताणं । अस्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥ १२ ॥ शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढचारित्राणां । अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानां । विसएसु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसींगं गाणं पि णिरत्ययं तेसि ।।१३।। विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां । उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषां ॥ कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति ॥ १४ ॥ कुमतकुश्रुतप्रशंसां (सकाः) जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि। शीलवतज्ञानरहिता न हु ते आराधका भवन्ति ॥ स्वसिरिगविदाणं जुव्वणलावण्णकंतिकलिदाणं । सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्ययं माणुसं जम्मं ॥ १५ ॥ रूपश्रीगर्वितानां यौवनलावण्यकान्तिकलितानां । शीलगुणवर्जितानां निरर्थकं मानुषं जन्म ॥ वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु । वेदेऊण सुयतेवसु य ते वसुय ? उत्तमं सीलं ॥ १६ ॥ व्याकणछन्दोवैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु । विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तमं शीलं ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितं सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होंति । सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए ॥ १७ ॥ शीलगुणमण्डितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवन्ति । श्रुतपारगप्रचुरा दुःशीला अल्पकाः लोके ॥ सव्वे वि य परिहीणा रूवविरुवा विवदिदसुवया वि । सील जेसु सुसील सुजीविदं माणुस तेसिं ॥ १८ ॥ सर्वेऽपि च परिहीना रूपविरूपा अपि पतितसुवयसोऽपि । शीलं येषु सुशीलं सुजीवितं मनुष्यत्वं तेषां ॥ जीवदया दम सब अचोरियं वंभचेरसंतोसे । सम्महंसण गाणं तओ य सीलस्स परिवारो ॥ १९ ॥ जीवदया दमः सत्यं अचौर्य ब्रह्मचर्यसन्तोषौ । सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तपश्च शीलस्य परिवारः || सीलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धी य पाणसुद्धी य । सीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोपाणं ।। २० ।। शीलं तपो विशुद्धं दर्शनशुद्धिश्व ज्ञानशुद्धिश्च । शीलं विषयाणामरिः शीलं मोक्षस्य सोपानं ॥ जह सिद्ध सिदो तह थावरजंगमाण घोराणं । सेव्वेसिं पविणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥ २१ ॥ यथा विषयलुब्धो विषदः तथा स्थावरजङ्गमान् घोरान् । सर्वानमपि विनाशयति विषयविषं दारुणं भवति ॥ वारि एकैम्मिय जम्मे सरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो । विसयविसपरिया णं भमंति संसारकांतारे ।। २२ ।। ३८८ १ क्वचिदसादेः" इत्यनेन द्वितियास्थाने षष्ठी । द्वितीयादिविभक्तीनां स्थाने कचित् षष्ठी स्यादिति सूत्रार्थः । २ "अस्टासोर्डीप्" इत्यनेन द्वितियास्थाने सप्तमी । द्वितीयातृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवतीति सूत्रदंपर्यं । (सं.) । "6 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलप्राभृतं । ३८९ वा एकं जन्म गच्छेत् विषवेदनाहतो जीवः । विषयविषपरिहता भ्रमन्ति संसारकान्तारे ॥ णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणुएसु दुक्खाई। देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासता जीवा ॥ २३ ॥ नरकेषु वेदना: तिरश्चि मानवेषु दुःखानि । देवेष्यपि दौर्भाग्यं लभन्ते विषयासक्ता जीवाः ॥ तुसधम्मंतबलेण य जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि । तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विसय व खलं ॥२४॥ तुषध्मबलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति । __ तपःशीलमन्तः कुशला क्षिपन्ते विषयं विषमिव खलं ? ॥ वट्टेसु य खण्डेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु । अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ॥ २५ ॥ वृत्तेषु च खण्डेषु च भद्रेषु च विशालेषु अंगेषु । अंगेषु च प्राप्तेषु सर्वेषु च उत्तमं शीलं ॥ पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहिं विसयलोलेहिं । संसारे भमिदव्वं अरयघरट्टे व भूदेहिं ॥ २६ ॥ पुरुषेणापि सहितेन कुसमयमूढैः विषयलोलैः । संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरदं इव भूतैः ।। आदेहि कम्मगंठी जावद्धा विसयरायमोहेहिं । तं छिंदंति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण ॥ २७ ॥ आत्मनि हि कर्मग्रंथि: यावद्धा विषयरागमोहाभ्यां । तां छिन्दन्ति कृतार्थाः तपःसंयमशीलगुणेन ॥ १सु. मू.। Tona! Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितं उदधी व रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं । सोहेतो य ससीलो णिव्याणमणुत्तरं पत्तो ॥ २८ ॥ उदधिरिव रत्नभूतः तपोविनयशीलदानरत्नानां । शोभेत सशीलः निर्वाणमनन्तरं प्राप्तः ॥ सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो । जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंताजणेहि सव्वेहिं ॥ २९ ॥ शुनां गर्दभानां च गोपशुमहिलानां दृश्यते मोक्षः । ये साधयन्ति चतुर्थ दर्यमानाः जनैः सर्वैः ।। जइ विसयलोलएहिं णाणीहि हविज्ज साहिदो मोक्खो । तो सो सुरत्तपुत्तो दसपुव्वीओ वि किं गदो नरयं ॥३०॥ यदि विषयलोलैः ज्ञानिभिः भवेत् साधितो मोक्षः । तर्हि स सात्यकिपुत्रः दर्शपूर्विकः किं गतो नरकं ॥ जइ णाणेण विसोहो सीलेण विणा बुहेहि णिदिहो। दसपुचिस्स य भावो ण किं पुण णिम्मलो जादो ॥३१॥ यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्निदिष्टः । दशपूर्विणः च भावो न किं पुनः निर्मलो जातः ।। जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणापउरा । ता लेहदि अरुहपयं भणियं जिणवडमाणेण ॥३२॥ यः विषयविरक्तः स गमयति नरकवेदना प्रचुरां। तल्लभते अर्हत्पदं भणितं जिनवर्धमानेन ।। एवं बहुप्पयारं जिणेहि पञ्चक्खणाणदरिसीहिं । सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं च लोयणाणेहिं ॥३३॥ १ जो. २ सो । ३.रुद्रः। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलप्राभृतं । ३९१ एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः । शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः । सम्मत्तणाणदंसणतववीरियपंचयारमप्पाणं । जलणो वि पवणसहिदो डहंति पोराणयं कम्मं ॥ ३४ ॥ सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवर्यिपंचाचारा आत्मनां । __ ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहति पौराणकं कर्म ॥ णिद्दडअट्टकम्मा विसयविरत्ता जिदिंदिया धीरा । तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिगदि पत्ता ॥ ३५ ॥ निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेन्द्रिया धीराः । तपोविनयशीलसहिताः सिद्धाः सिद्धिगतिं प्राप्ताः ॥ लावण्णसीलकुसला जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स । सो सीलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरं भविए ॥ ३६ ॥ लावण्यशीलकुशलाः जन्ममहीरुहः यस्य श्रवणस्य । स शीलः स महात्मा भ्रमेत् गुणविस्तारं भव्ये ॥ णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धी य वीरियावत्तं । सम्मत्तदसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥ ३७॥ ज्ञानं, ध्यान योगो दर्शनशुद्धिश्च वीर्यत्वं । . सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधि । जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तवोधणा धीरा । सीलसलिलेण व्हावा ते सिद्धालयसुहं जंति ॥ ३८ ॥ जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीराः । शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यान्ति ।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितं सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा । पप्फोडिय कम्मरया हवंति आराहणापयडा ॥ ३९ ॥ सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिता मनोविशुद्धाः । प्रस्फुटितकर्मरजसः भवन्ति अराधनाप्रकटाः ॥ अरहते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्ध । सीलं विसयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं ॥४०॥ अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धं । शीलं विषयविरागो ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितं ॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितशीलप्राभृतकं समाप्तं। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। णमिऊण वडमाणं परमप्पाणं तियेणं सुद्धेण । वोच्छामि रयणसारं सायारणयारधम्माणं ॥१॥ नत्वा वर्धमानं परमात्मानं त्रिकया शुद्धया । वक्ष्यामि रत्नसार सागारानगारधर्मयोः ॥ पुव्वं जिणेहि भणियं जहहियं गणहरेहि वित्थरियं । पुवायरियकमेणं जं तं वोलेइ सद्दिट्टी ॥ २ ॥ पूर्व जिनैः भणितं यथास्थितं गणधरैः विस्तारितं ! पूर्वाचार्यक्रमेण यत्तत् भाषते सद्दृष्टिः ।। मदिसुदणाणवलेण दु सच्छंदं वोर्लेए जिणुत्तमिदि । जो सो होइ कुदिही ण होइ जिणमग्गलग्गरवो ॥ ३ ।। मतिश्रुतज्ञानबलेन तु स्वच्छन्दं भाषते जिनोक्तमिति। __ यः स भवति कुदृष्टिर्न भवति जिनमार्गलग्नरतः ॥ सम्मत्तरयणसारं मोखुमहारुक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिजेइ णिच्छयववहारसरूवदोभेदं ॥४॥ सम्यक्त्वरत्नसारं मोक्षमहावृक्षमूलमिति भणितं । तज्ज्ञायते निश्चयव्यवहारस्वरूपद्विभेदं ॥ भयवसणमलविवर्जिय संसारसरीरभोगणिविण्णो। अहगुणंगसमग्गो दंसणसुद्धो हुँ पंचगुरुभत्तो ॥५॥ १ जिणं तिसुद्धेण ख. पुस्तके पाठः । २ धम्मीणं. ख.। ३ कमजं तं ख. ४ बोल्लइ जिणद्दिढें ख. । ५ जाणिज्जउ ख.। ६ जी ख. । ७ य ख. । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचायविरचितो भयव्यसनमलविवर्जितः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः । अष्टगुणाङ्गसमग्रः दर्शनशुद्धः हि पंचगुरुभक्तः ॥ णियसुद्धप्पणुरत्तो बहिरप्पावच्छवज्जिओ गाणी | जिणमुणिधम्मं मण्णइ गयदुक्खी होइ सद्दिट्ठी ॥ ६ ॥ निजशुद्धात्मानुरक्तः बहिरात्मावस्थावर्जितः ज्ञानी । जिनमुनिधर्मे जानाति गतदुःखो भवति सद्दृष्टिः ॥ मय मूढमणायदणं संकाइ वसण भयमईयारं । जेसिं चउदालेदे ण संति ते हुंति सद्दिट्ठी ॥ ७ ॥ मदो मूढमनायतनं शंकादि व्यसनं भयमतिचारम् | येषां चतुश्चत्वारिंशन्ति एतानि न सन्ति ते भवन्ति सद्दृष्टयः ॥ उहयगुणवसणभयमलवेरग्गइचारभत्तिविग्धं वा । एदे सत्तत्तरिया दंसण सावयगुणा भणिया ॥ ८ ॥ उभयगुणव्यसनभयमलवैराग्यातिचांरभक्तिविघ्नानि वा । एते सप्ततिः दर्शनश्रावकगुणा भणिताः ॥ देवगुरुसमयभत्ता संसारसरीर भोयपरिचत्ता । रयणत्तय संजुत्ता ते मणुव सिवसुहं पत्ता ॥ ९ ॥ देवगुरुसमयभक्ताः संसारशरीरभोगपरित्यक्ताः । रत्नत्रयसंयुक्तास्ते मनुष्याः शिवसुखं प्राप्ताः ॥ दाणं पूजा सीलं उववासं बहुविहं पि खवणं पि । सम्मजुदं मोक्खमुहं सम्म विणा दीहसंसारं ॥ १० ॥ दानं पूजा शीलं उपवास: बहुविधमपि क्षमणमपि । सम्यक्त्वयुतं मोक्षसुखं सम्यक्त्वं विना दीर्घसंसारं ॥ १ नेयं गाथा ख. पुस्तके । २ या. ख. । ख. ३ रा. ख. । ३९४ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । ३९५ दाणं पूजामुक्खं सावयधम्मे ण सावयां तेण विणा । झाणज्झयणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥११॥ दानं पूजा मुख्या श्रावकधर्मे न श्रावकाः तेन विना । ध्यानाध्ययनं मुख्यं यतिधर्मे तं विना तथा सोऽपि ॥ दाणु ण धम्मु ण चागु ण भोगु ण बहिरप्प जो पयंगो सो लोहकसायग्गिमुहे पडिउँ मरिउँ न संदेहो ॥ १२ ॥ दानं न धर्मः न त्यागो न भोगो न बहिरात्मा यः पतङ्गः । स लोभषायाग्निमुखे पतितः मृतः न सन्देहः ।। जिणपूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण । सम्माइट्टी साक्यधम्मी सो होइ मोक्खमग्गरवो ॥१३॥ जिनपूजां मुनिदानं करोति यो ददादि शक्तिरूपेण । सम्यदृष्टिः श्रावकधर्मी स भवति मोक्षमार्गरतः ।। पयों ( य ) फलेण तिलोके सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो। दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुंजदे णियदं ॥ १४ ॥ पूजाफलेन त्रिलोके सुरपूज्यो भवेत् शुद्धमनाः । दानफलेन त्रिलोके सारसुखं भुक्ते नियतं ।। दाणं भोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेह सायारो। पत्तापत्तविसेसं सदसणे किं वियारेण ॥ १५ ॥ दानं भोजनमात्रं ददाति धन्यो भवति सागारः । पात्रापात्रविशेषं स्वदर्शने किं विचारेण ॥ दिण्णइ सुपत्तदाणं विसेसतो होइ भोगसग्गमही । णिव्वाणसुहं कमसो णिद्दि जिणवरिंदेहिं ॥१६॥ १ धम्मो. ख. २ सावगो । ख. ३-४ यो. ख. । ५ पूजा. ख. । ६ तिलो. वकेसुर. ख.। ७-८ देण्णइ ख. । ९ दो । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww ३९६ __ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो ददाति सुपात्रदानं विशेषतः भवति भोगस्वर्गमही । निर्वाणसुखं क्रमश: निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रः ॥ खेत्तविसेसे काले ववियसुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणई पत्तविसेसेसु दाणफलं ॥ १७ ॥ क्षेत्रविशेषे काले उपितसुबीजं फलं यथा विपुलं । भवति तथा तजानीहि पात्रविशेषे सुदानफलं ॥ इह णियसुवित्तवीयं जो ववइ जिणुत्तसत्तखेत्तेसु । सो तिहुवणरज्जफलं भुजदि कल्लाणपंचफलं ॥ १८ ॥ इह निजसुवित्तबीजं यो वपति जिनोक्त सत्वक्षेत्रेषु । स त्रिभुवनराज्यफलं भुनक्ति कल्याणपंचफलं ॥ मादुपिदुपुत्तमित्तकलत्तधणधण्णवत्थुवाहविसयं । संसारसारसोक्खं सव्वं जाणउ सुपत्तदाणफलं ॥ १९ ॥ मातृपितृपुत्रमित्रकलत्रधनधान्यवस्तुवाहनविषयं । संसारसारसौख्यं सर्व जानीहि सुपात्रदानफलं ॥ सत्तंगरजणवणिहिभंडारखडंगवलचउद्दहरयणं । छण्णवदिसहसिच्छिविहउ जाणह सुपत्तदाणफलं ॥२०॥ सप्ताङ्गराज्यनवनिधिभण्डारषडङ्गबलचतुर्दशरत्नं । षण्णवतिसहस्रस्त्रीविभवं जानीहि सुपात्रदानफलं ॥ सुकुलसुरूवसुलक्खणसुमइसुसिक्खांसुसीलसुगुणचरित्तं । सुहलेसं सुहणामं सुहसादं सुपत्तदाणफलं ॥ २१ ॥ १ जाणउ ख.। २ इय. ख. । ३ क्खो. ख.। ४ सयलक्खसुहाणुहवणं विहवं जाणउ ख. पुस्तके, सकलाक्षसुखानुभवनं विभवं जानीहि । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । सुकुलसुरूपसुलक्षणसुमतिसुशिक्षा सुशीलसुगुणचरित्रं । शुभलेश्यं शुभनाम शुभसातं सुपात्रदानफलं ॥ जो मुणित्तवसेसं भुंजड़ सो भुंजए जिणुदिहं । संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥ २२ ॥ यो मुनिभक्तावशेषं भुंक्ते स भुंक्ते जिनोपदिष्टं । संसारसारसौख्यं क्रमश: निर्वाणसौख्यं ॥ सीदुहं वाउ पिउलं सिलेसिमं तह परीसमं वाहि । कायकिलेमुव्वासं जाणिचा दिण्णए दाणं ।। २३ । शीतोष्णं वातं पित्तं श्लेष्म तथा परिश्रमं व्याधिं । कायक्लेशं उपवासं ज्ञात्वा दत्त दानं ॥ हियमियमण्णं पाणं गिरवज्जोसहि णिराउलं ठाणं । सयणासणमुवयरणं जाणिच्चों देइ मोक्खरवो ॥ २४ ॥ हितमितं अन्नं पानं निरवद्यौषधि निराकुलं स्थानं । शयनासनं उपकरणं ज्ञात्वा ददाति मोक्षरतः ॥ अणयाराणं वेज्जावचं कुज्जा जहेह जाणिच्चा | भमेव मादा पिदु वा णिच्चं तहा गिरालसया ।। २५ ।। अनगाराणां वैयावृत्यं कुर्यात् यथेह ज्ञात्वा । गर्भोद्भवमिव माता पिता वा नित्यं तथा निरालसंकः || सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा । लोही दाणं जड़ विमाणसोहा सँव जाणे ॥ २६ ॥ सत्पुरुषाणां दानं कल्पतरूणां फलानां शोभामिव । लोमिनां दानं यदि विमानशोभां शवस्य जानीहि ॥ ३९७ १ भुत । २ परीसमव्वाहिं ख. । ३ ज्जे ख. । ४ जाणिज्जा मोत्रखमगरओ ख. । ५ भवे ख. । ६ कप्पसुराणविमाणसोहं वा ख. । ७ सवस्स जाणेह ख. । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAA ३९८ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो जसकित्ति पुण्णलोहे देइ सुबहुगं पि जत्थ तत्थेव । सम्माइसुगुणभायण पत्तविसेसं ण जाणंति ॥ २७ ॥ यश कीर्तिपुण्यलाभे ददति सुबहुकमपि यत्र तत्रैव । सम्यक्त्त्वादिसुगुणभाजनपात्रविशेषं न जानन्ति || जंतं मंतं तंतं परिचरियं पक्खवाय पियवयणं । पडुच्च पंचमयाले भरहे दाणं ण किं पि मोक्खस्स ॥२८॥ ___ यंत्रं मंत्रं तंत्रं परिचर्या पक्षपातं प्रियवचनं । प्रतीत्य पंचमकाले भरते दानं न किमपि मोक्षस्य ॥ दाणीणं दालिदं लोहीणं किं हवेइ महसिरियं । उहयाणं पुव्वजियकम्मफलं जाव होइ थिरं ॥ २९॥ दानिनां दरिद्रत्वं लोभिनां किं भवेत् महाश्रीः । उभयोः पूर्वाजितकर्मफलं यावत् भवति स्थिरं ॥ धणधण्णाइसमिद्धे सुहं जहा होइ सव्वजीवाणं । मुणिदाणाइसमिद्धे सुहं तहा तं विणा-दुक्खं ॥३०॥ धनधान्यादिसमृद्धे सुखं यथा भवति सर्वजीवानां । मुनिदानादिसमृद्धे सुखं यथा तं विना दुःखं ॥ पत्त विणा दाणं च सुपुत्त विणा बहुधणं महाखेत्तं । चित्त विणा वयगुणचारित्तं णिक्कारणं जाणे ॥ ३१॥ पात्रं विना दानं च सुपुत्रं विना बहुधनं महाक्षेत्रं । चित्तं विना व्रतगुणमचारित्रं निष्कारणं जानीहि ।। जिण्णुद्धारपति (दि) हाजिणपूजातित्थवंदणविसे य धणं । जो भुंजइ सो भुंजइ जिणदिहं णिरयगईदुक्खं ॥ ३२ ॥ १ किहि ख.। २ लोही ख.। ३ दाणं ण मोक्खस्स ख. । ४ दाणेणं ख.। ५ लोहेणं ख.। ६ उदयाणं ख. । ७-८ मिद्धो. पुस्तके पाठः। ख. पुस्तके तु एष एव । ९ विसयधणं ख. । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । जीर्णोद्धारप्रतिष्ठाजिनपूजातीर्थवन्दनाविषये च धनं । यो भुक्ते स भुंक्ते जिनदृष्टं नरकगतिदुःखं ॥ पुत्तकलत्तविदूरो दारिदो पंगु मूक बहिरंधो । चांडालाइकुजादो पूजादाणाइदव्वहरो ॥ ३३ ॥ पुत्रकलत्रविदूरः दारिद्रः पंगुः मूकः वधिरोऽन्धः । चांडालादिकुजातिः पूजादानादिद्रव्यहरः ॥ इच्छिय फलं ण लब्भइ जइ लब्भइ सो ण भंजदे णियदं । वा हाणमायरोसे पूजादाणाइदव्वहरो ॥ ३४ ॥ इच्छितफलं न लभते यदि लभते स न भुक्ते नियतं । .......... पूजादानादिद्रव्यहरः ।। गेयहत्थपायनासियकण्णउरंगुलविहाणदिही य । जो तिब्बदुक्खमूलो पूजादाणाइदबहरो ॥ ३५ ॥ गतहस्तपादनासिकाकोरोंऽगुलविधानदृष्टिश्च । यः तीव्रदुःखमूल: पूजादानादिद्रव्यहरः ॥ खयकुमूलसूलो लूयिभयंदरजलोदरखिसिरो। सीदुण्हवाहिराई पूजादाणंतरायकम्मफलं ॥ ३६॥ क्षयकुष्ठमूलशूलं........भगन्दरजलोदर............। शीतोष्णबाह्यानि पूजादानान्तरायकर्मफलं ॥ गरइतिरियाइदुरईदरिदवियलंगहाणिदुक्खाणि । देवगुरुसत्यचंदणसुयभेयसज्झाइदाणविधणफलं ॥३७॥ नरकतिर्यग्दुर्गतिदरिद्रविकलाङ्गहानिदुःखानि । देवगुरुशास्त्रवन्दनाश्रुतभेदस्वाध्यायदानविघ्नफ्लं ॥ १ नेयं गाथा ख. पुस्तके । २ नेयं गाथा ख. पुस्तके । ३-४ रोगविशेषस्य नामनी.। ५ ब्रह्मराइ ख. । ६ नेयं गाथा ख. पुस्तके। ___ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो सम्मविसोही तवगुणचारित्तसण्णाणदाणपरिही णं । भरहे दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियदं ॥ ३८ ॥ सम्यक्त्वविशुद्धिः तपोगुणचारित्रसंज्ञानदानपरिधयः । भरते दुःषमकाले मनुजानां जायते नियतं ॥ ण हि दाणं ण हि पूजा ण हि सीलण हि गुणं ण चारित्तं । जे जइणा भणिया ते णेरड्या होति कुमाणुसा तिरिया ॥३९॥ न हि दानं न हि पूजा न हि शीलं न हि गुणः न चारित्रं । ये यतिना भणिताः ते नारका भवन्ति कुमानुषाः तिरश्चः ॥ ण वि जाणइ कज्जमकर्ज सेयमसेयं पुण्ण पावं हि । तचमत्तच्चं धम्ममधम्म सो सम्मउम्मुक्को ॥ ४०॥ नापि जानाति कार्यमकार्य श्रेयोऽश्रेयः पुण्यं पापं हि । तत्वमतेत्वं धर्ममधर्म स सम्यक्त्वोन्मुक्तः ॥ ण वि जाणइ जोग्गमजोग्गं णिचमणिचं हेयमुवादेयं । सच्चमसच्चं भवमभवं स सम्मउम्झुक्की ॥ ४१ ॥ नापि जानाति योग्यमयोग्यं नित्यमनित्यं हेयमुपादेयं । - सत्यमसत्यं भावमभावं स सम्यक्त्वोन्मुक्तः ॥ लोइयजणसंगादो होइ मइमुहरकुडिलदुब्भावी । लोइयसंगं तम्हा जोई वि तिविहेण मुंचाहो ॥ ४२ ॥ लौकिकजनसंगतो भवति मतिमुखुरकुटिलदुर्भावः । लौकिकसंगं तस्मात् योग्यपि त्रिविधेन मुञ्चतात् । उग्गो तिव्यो दुहो दुब्भावो दुस्सुदो दुरालावो। दुम्मदरदो विरुद्धो सो जीवो सम्मउम्मुक्को ॥४३॥ १ या.ख. । २ अस्मादने हि इति शब्दः। तेन छन्दोभंगो जायते। अतोनिःसारितः ख. पुस्तके नास्त्यपि । ३ गाथेयं ४०-४१ गाथातः पूर्वं ख. पुस्तके । ४ जोई तिविहेण. ख. । ५ वि ख. । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । ४०१ उग्रः तीव्रो दुष्टो दुर्भावो दुःश्रुतो दुरालापः । दुर्मतरतो विरुद्धः स जीवो सम्यक्त्वोन्मुक्तः ।। खुद्दो रुद्दो रुटो अणि विसुणो सगव्वियो सुइओ। गायणजायणभंडणदुस्सणसीलो दु सम्मउम्मुक्को ॥४४॥ क्षुद्रो रुद्रः रुष्ट अनिष्टः पिशुनः सगर्वितः सूयः । गायनयाचनाभण्डनदूषणशीलस्तु सम्यक्त्वोन्मुक्तः ॥ दोहावाणरगद्दहसाणगयवग्घवराहकरहा । पक्खिजलूयसहाव णर जिणवरधम्मुविणासु ॥४५॥ वानरगर्दभश्वगजव्याघ्रवराहकरभ- । पक्षिजलौकस्वभावो नरः जिनवरधर्मविनाशकः ॥ कुतवकुलिंगिकुणाणिकुवयकुसीले कुदंसणकुसत्थे। कुनिमित्ते संथुइ पथुइ पसंसणं सम्महाणि होइ णियमं ॥४६॥ कुतपःकुलिंगिकुज्ञानिकुव्रतकुशीलेषु कुदर्शनकुशास्त्रयोः । कुनिमित्त संस्तुतिः प्रस्तुतिः प्रशंसनं सम्यक्त्वहानिः भवति नियमेन ॥ सम्म विणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण ।। तो रयणत्तयमज्झे सम्मुगुणुकिमिदि जिणुदिह ॥४७॥ सम्यक्त्वं विना सज्ज्ञानं सच्चारित्रं न भवति नियमेन । ततः रत्नत्रयमध्ये सम्यक्त्वगुण उत्कृष्ट इति जिनदिष्टम् ॥ तणुकुट्टी कुलभंग कुणइ जहा मिच्छमप्पणो वि तहा । दाणाइसुगुणभंगं गईभंग मिच्छत्तमेव हो कई॥४८॥ १ जिणभणिदं ख.।२ पाठोऽयं क-पुस्तके नास्ति ख-पुस्तकात् संयोजितः। षद० २६ ____ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmwww ४०२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितोतनुकुष्ठी कुलभंग करोति यथा मिथ्यात्वमापन्नोऽपि तथा। दानादिसुगुणभंगं गतिभंग मिथ्यात्वमेव अहो ! कष्टम् ॥ देवगुरुधम्मगुणचारित्तं तवसारमोक्खगइभेयं । जिणवरवयणसुदिहि विणा दीसइ किह जाणए सम्मं ॥४९॥ देवगुरुधर्मगुणचारित्रं तपःसारमोक्षगतिभेदं । जिनवरवचनसुदृष्टिं विना दृश्यते कथं ज्ञायके सम्यक्त्वं ॥ । एक्कु खण ण विचिंतइ मोक्खणिमित्तं णियप्पसब्भावं । अणिस विचितइ पावं बहुलालावं मणे विचिंतेइ ॥ ५० ॥ एक क्षणं न विचिन्तयति मोक्षनिमित्तं निजात्मसद्भावं । अनिशं विचिन्तयति पापं बहुलालापं मनसा विचिन्तयति ॥ मिच्छामइमयमोहासवमत्तो वोल्लए जहा भुल्लो। तेण ण जाणइ अप्पा अप्पाणं सम्मभावाणं ॥५१॥ मिथ्यामतिमदमोहासवमत्तः कथयति यथा विस्मृतः । तेन न जानाति आत्मा आत्मनां सद्भावान् ॥ मिहिरो महंधयारं मरुदो मेहं महावण दाहो।। वज्जो गिरिं जहा विणसिंजइ सम्मे जहा कम्मं ॥५२॥ मिहिरः महान्वकारं मरुत् मेघ महावनं दाहः। वज्रो गिरिं यथा विनाशयति सम्यक्त्वं तथा कर्म। मिच्छंधयारसहियगिहमज्झम्मिय सम्मरयणदीवकल ।। जो पज्जलइ सं दीसइ सम्म लोयत्तयं जिणुद्दिहं ॥ ३ ॥ मिथ्यात्वान्धकारहृदयगृहमध्ये च सम्यक्त्वरत्नदीपकलाप ॥ यः प्रज्वालयति स पश्यति सम्यक् लोकत्रयं जिनदृष्टं ॥ १ येन प्रकारेण । २ तेन प्रकारेण । ३ कर्तृ । ४ पदिस्सइ. ख.। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। ४०३ कामदुहिं कप्पतरं चिंतारयणं रसायणं परमं । लद्धो भुंजइ सुक्खं जह हियं जाण तह सम्मं ॥५४॥ कामदुहं कल्पतरं चिन्तारत्नं रसायनं परमं । लब्धः भुंक्त सुखं यथा स्थितं जानीहि तथा सम्यक्त्वं ॥ केतकफलभरियणिम्मलववगयकालियसुवण्ण व्व । मलरहियसम् जुत्तो भव्ववरो लहइ लहु मोक्खं ॥ ५५ ॥ कतकफ तनिर्मलव्यपगत कालिकासुवर्णवत् । मलरहि सम्यक्त्वयुतो भव्यवरो लभते लघु मोक्षं ॥ पुवठियं खवइ कम्मं पइसदु णो देइ अहिणवं कम्मं । इहपरलोयमहप्पं देई तहा उवसमो भावो ॥५६॥ पूर्वस्थितं क्षपयति कर्म प्रवेष्टुं न ददाति अभिनवं कर्म । इहपरलोकमाहात्म्यं ददाति तथा उपशमो भावः ॥ सम्माइट्टी कालं वोलइ वेरग्गणाणभावेण । मिच्छाइट्टी वांछादुब्भावालस्सकलहेहिं ॥ ५७ ॥ सम्यग्दृष्टिः कालं गमयति वैराग्यज्ञानभावेन । मिथ्यादृष्टिः वाञ्छादुर्भावालस्यकलहैः ॥ अजवसप्पिणिभरहे पउरा रुद्दट्टझाणया दिवा । णहा दुटा कहा पाविद्या किण्हणीलकाओदा ॥ ५८ ॥ अद्यावसर्पिणीभरते प्रचुरा रुदार्तध्याना दृष्टाः । नष्टा दुष्टाः कष्टाः पापिष्ठाः कृष्णनीलकापोताः ।। अज्जवसप्पिणिभरहे दुस्समया मिच्छपुव्वया सुलहा। सम्मत्तपुव्वसायारणयार दुल्लहा होति ।। ५९ ॥ १ रसपुरुषं ख.। २ गाथेय ख. पुस्तके नास्ति.। ३ गाथेयं ख. पुस्तके नास्ति। - Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितो अद्यावसर्पिणीभरते दुःषमायां मिथ्यात्वपूर्वकाः सुलभाः । सम्यक्त्वपूर्वकाः सागारानगारा दुर्लभा भवन्ति || अज्जवसप्पिणिभर हे धम्मज्झाणं पमादरहिदुत्ति । जिणुदिहं ण हु मण्णइ मिच्छादिट्ठी (हवे ) सो ( हु ) ||६०|| अद्यावसर्पिणीभरते धर्म्यध्यानं प्रमादरहितमिति । जिनदिष्टं न हि मन्यते मिथ्यादृष्टि: भवेत् स हि ॥ अमुहादो णिरयाऊ सुहभावादो दु सग्गमुहमाऊँ । दुहसुभावं जाणइ जं ते रुच्चेई तं कुणही ॥ ६१ ॥ अशुभतो नरकायुः शुभभावतस्तु स्वर्गसुखायुः । दुःखसुखभावं जानीहि यत्तुभ्यं रोचते तत्कुरु ॥ हिंसासु कोहाइसु मिच्छाणाणेसु पक्खवाए । मच्छरिए मएस दुरहिणिवेसेसु अमुहलेसेसु ॥ ६२ ॥ हिंसादिषु क्रोधादिषु मिथ्याज्ञानेषु पक्षपातेषु । मत्सरितेषु मतेषु दुरभिनिवेशेषु अशुभलेश्यासु ॥ विकहाइसु रुद्दट्टज्झाणेसु असूयगेस दंडे !. सल्लेसु गारवेसु खासु जो वट्टई असुहभावो ॥ ६३ ॥ विकथादिसु रुद्रार्त्तध्यानेषु असूयकेषु दण्डेषु | शल्येषु गारवेषु ख्यातिषु यो वर्तते अशुभभावः || दव्वत्थिकाय छप्पण तच्चपयत्थेसु सत्तणवसु । बंधणमुक्खे तकारणरूपे वारसवेक्खे || ६४ ॥ ४०४ १ दो. पुस्तके | २ माई पुस्तके । ३ रुचेदणं पुस्तके | ४ कुज्जा ख । ५ व्वासु क । ६ वट्टदे. ख । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। ४०५ द्रव्यास्तिकायेषु षट्पंचसु तत्वपदार्थेषु सप्तनवकेषु । बन्धनमोक्षे तत्कारणरूपे द्वादशानुप्रेक्षायां ॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मे दयाइसद्धम्मे । इच्चेवमाइगे जो वट्टइ सो होइ सुहभावो ॥ ६५ ॥ रत्नत्रयस्य रूपे आयकर्मणि दयादिधर्मे ।। इत्येवमादिके यो वर्तते स भवति शुभभावः ॥ सम्मत्तगुणादो सुगइ मिच्छादो होइ दुग्गई णियमा । इदि जाण किमिह बहुणा जं ते रुच्चेइ तं कुणहो ॥६६॥ सम्यक्त्वगुणतः सुगतिः मिथ्यात्वतो भवति दुर्गतिः नियमात्। इति जानीहि किमिह बहुना यत्तुभ्यं रोचते तत्कुरु ।। मोहु ण छिज्जइ अप्पा दारुणकम्मं करेइ बहुवारं । ण हु पावइ भवतीरं किं बहुदुक्खं वहेइ मूढमई ॥ ६७॥ मोहं न छिनत्ति आत्मा दारुणकर्म करोति बहुवारं । न हि प्राप्नोति भवतीरं किं बहुदुःखं वहति मूढमतिः ।। धरियउ बाहिरि लिंगं परिहरियउ बाहिरक्खसोक्खं हिं। करियउ किरियाकम्मं मरिऊँ जमिऊ बहिरप्पजिऊ ॥६८॥ धरति बाह्यं लिंगं परिहरति बाह्याक्षसौख्यं हि । करोति क्रियाकर्म मरति जायते बहिरात्मजीवः ॥ मोक्खणिमित्तं दुक्खं वहेइ परलोयदिहि तणुदिट्टी। मिच्छाभाव ण छिज्जइ किं पावइ मोक्खसोक्खं हि ॥ ६९॥ १ कम्मो. क. । २ वि. ख.। ३ मरियउ जमियउ बहिरप्पजीवो. ख. । - ___ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितो मोक्षनिमित्तं दुःखं वहति परलोकदिष्टि : तनुदिष्टि: । मिथ्यात्वभावान् न छिनत्ति किं प्राप्नोति मोक्षसौख्यं हि ॥ हु दंड कोहाई देहं दंड कहं खवइ कम्मं । सप्पो किं मुवइ तहा वम्मीए मारिए लोऐ ॥ ७० ॥ न हि दण्डयति क्रोधादीनि देहं दंडयति कथं क्षिपते कर्म । सर्पः किं म्रियते तथा वल्मीके मारिते लोके ॥ उवैसमभवभावजुदो णाणी सो भावेसंजदो हो । गाणी कसायवसगो असंजदो होइ सो ताव ॥ ७१ ॥ उपशमभवभावयुतो ज्ञानी स भावसंयतो भवति । यवशगोऽसंयतो भवति स तावत् ॥ ४०६ : णाणवलेणेदि सुवोलए अण्णाणी । ज्ञानी णाणी खवेइ विज्जो भेज्जमहं जाणे इदि णस्सदे वाही ॥ ७२ ॥ ज्ञानी क्षिपते कर्म ज्ञानबलेनेति सुकथयति अज्ञानी । वैद्यो भेषजं अहं जानामीति नाशयति बांधिं ॥ पुव्वं सेवइ मिच्छामलसोहण हेउ सम्मभेसनं । पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियसम्म भेसज्जं ॥ ७३ ॥ पूर्व सेवते मिध्यात्वमलशोधनहेतुः सम्यक्त्वभेषजं । पश्चात् सेवते कर्मामयनाशनचरितसम्यग्भेषजं ॥ अण्णाणी विसयविरत्तादो होइ सयसहस्सगुणो । पाणी कसायविरदो विसयासत्तो जिहिं ॥ ७४ ॥ १ वम्म मारिउ. क. । २ अस्मादग्रे क - - पुस्तके विसहरमणि इति शब्दः ! ३ तव ख. । ४ सुदो. क. । ५ ताव. ख. । ६ ण जाणदे णस्सदे वाहिं. ख. । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । ४०७ अज्ञानितः विषयविरक्ततः भवति शतसहस्रगुणः। ज्ञानी कषायविरत: विषयासक्तः जिनोद्दिष्टम् ॥ विणओ भत्तिविहीणो महिलाणं रोयणं विणा णेहं । चागो वेरग्ग विणा एदे दोवारिया भणिया ।। ७५ ॥ विनयो भक्तिविहीनः महिलानां रोधनं विना स्नेहं । त्यागो वैराग्यं विना एते दुर्वारका भणिताः ॥ सुहडो सूरत्त विणा महिला सोहग्गरहियपरिसोहा । वेरग्गणाणसंजमहीणा खवणा ण किं वि लब्भंते ॥७६॥ सुभटः शूरत्वं विना महिला सौभाग्यरहितपरिशोभा । वैराग्यज्ञानसंयमहीना क्षपणा न किमपि लभन्ते ॥ वत्थुसमग्गो मूढो लोहि ये लहिए फलं जहा पंच्छा। अण्णाणी जो विसर्यपरिचत्तो लगाइ तहा चेव ॥ ७७॥ वस्तुसमग्रो मूढो लोभी च लभते यथा पश्चात् । अज्ञानी यो विषयपरित्यक्तो लभते तथं । वत्थुसमग्गो णाणी सुपत्तदाणी फलं जहा लहइ । णाणसमग्गो विसयपरिचत्तो लहइ तहा चेव ॥ ७८॥ वस्तुसमग्रो ज्ञानी सुपात्रदानी फलं यथा लभते । ज्ञानसमग्रो विषयपरित्यक्तो लभते तथैव ।। भूमहिलाकण्णाईलोहाहिविसहरं कहं पि हवे । सम्मत्तणाणवेरग्गोसंहमंतेण जिणुद्दि ॥ ७९ ॥ १ लोही. ख. । २ लहइ. ख. । ३ पेच्छा. क. । ४ विसयासतो. ख. । ५ दाणे ख.। ६ कणाइ क.। ७ इ. क. । ८ कहिपि. ख. । ९ मतेण ख. । वेरगसहमंतेण क.। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितो भूमहिलाकन्यादिलो भाहिविषहरो कथमपि भवेत् । सम्यक्त्वज्ञानवैराग्यौषधमंत्रेण जिनोद्दिष्टं ॥ पुवं जो पंचेंद्रियतणुमेणुवचिहत्थपाय मुंडहरो । पच्छा सिरमुंडहरो सिवगइपहणायगो होई ॥ ८० ॥ पूर्व यः पंचेन्द्रियतनुमनोवाग्घस्तपादमुंडहरः । पश्चात् शिरोमुंडहर : शिवगतिपथनायको भवति ॥ पतिभत्तिविहीण सदी भिच्चो य जिणसमयभत्तिहीण जई । गुरुभत्तिहीण सिस्सो दुग्गइमग्गाणुलग्गणो नियम ॥ ८१ ॥ पतिभक्तिविहीना सती भृत्यश्व जिनसमयभक्तिहीनो यतिः । गुरुभक्तिहीनः शिष्यो दुर्गतिमार्गानुलग्नो नियमात् ॥ गुरुभत्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं । ऊसरेछेत्ते ववियसुबीयसमं जाण सव्वणुद्वाणं ॥ ८२ ॥ गुरुभक्तिविहीनानां शिष्यानां सर्वसङ्गविरतानां । ऊषरक्षेत्रे उपितसुबीजसमं जानीहि सर्वानुष्ठानं ॥ रज्जं पहाणहीणं पदिहीणं देसगामरहबलं । गुरुभत्तिहीण सिस्साणुहाणं णस्सदे सव्वं ॥ ८३ ॥ राज्यं प्रधानहीनं पतिहीनं देशग्रामार्थबलं । गुरुभक्तिहीनशिष्यानुष्ठानं नश्यति सर्वे ॥ सम्माण विर्णं य रूई भत्ति विणा दाण दया विणा धम्मं । गुरुभत्ति विणा तवचरितं णिष्फलं जाण ॥ ८४ ॥ ४०८ १ मण ख । २ मुंडाउ क. । ३ लग्गवो ख. । ४ णियदो ख. । ५ खेत्ते ख. । ६ विण विणयरूई ख । ७ रूपी. क. । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । ४०९ सम्मानं विना च रुचिः भक्तिं विना दानं दया विना धर्मः । गुरुभक्तिं विना तपश्चारित्रं निष्फलं जानीहि ॥ हाणादाणवियारविहीणदो बाहिरक्खसुक्खं हि। किं तजियं किं भजियं किं मोक्खु दिदं जिणुहि ॥ ८५॥ हानादानविचारविहीनतः बाह्याक्षसुखं हि । किं त्यक्तं किं भाजितं किं मोक्षो दृष्टो जिनदृष्टः ॥ कायकिलेसुववासं दुद्धरतवसरणकारणं जाण । तं णियसुद्धसरुवपरिपुण्णं चेदि कम्मणिम्मूलं ॥८६॥ कायक्लेशोपवासं दुर्धरतपश्चरणकारणं जानीहि । तन्निजशुद्धस्वरूपपरिपूर्ण आत्मनि कर्मनिर्मूलं ॥ कम्मु ण खवेइ जो हु परब्रम्ह ण जाणेइ सम्मउम्मुक्को। अत्थु ण तत्थु ण जीवो लिंगं घेर्तेण किं करई ॥ ८७॥ कर्म न क्षिपते यो हि परब्रह्म न जानाति सम्यक्त्वोन्मुक्तः । अत्र न तत्र न जीवो लिंगं गृहीत्वा किं करोति ॥ अप्पाणं पिण पिच्छइण मुणइ ण वि सद्दहइ ण भावेइ । बहुदुक्खभारमूलं लिंगं चित्तूण किं करई ॥ ८८ ॥ आत्मानमपि न पश्यति न जानाति नापि श्रद्दधाति न भावयति । बहुदुःखभारमूलं लिंगं गृहीत्वा किं करोति ॥ जाव ण जाणइ अप्पा अप्पाणं दुक्खमप्पणो तावं । तेण अणंतसुहाणं अप्पाणं भावए जोई ॥ ८९ ॥ १ भणियं. ख.। २ किं मोक्खो ण दिटुं. ख.। ३ णियसुद्दपरुइपरिपण्णं ख.। ४ धत्तण. ख. । ___ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो यावन्न जानाति आत्मा आत्मानं दुःखमात्मनस्तावत् । तेनानन्तसुखमात्मानं भावयेत् योगी ॥ णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तुवलद्धि णत्थि णियमेण । सम्मत्तुवलद्धि विणा णिव्वाणं णत्थि जिणुदिहं ।। ९०॥ निजतत्वोपलब्धि विना सम्यक्त्वोषलब्धिर्नास्ति । सम्यक्त्वोपलब्धि विना निर्वाणं नास्ति जिनदृष्टं । पंवयणसारब्भासं परमप्पाझाणकारणं झाणं । कम्मक्खवणणिमित्तं कम्मक्खवणेहि मोक्खसोक्खं हि ॥११॥ प्रवचनसाराभ्यासं परमात्मध्यानकारणं ध्यानं । कर्मक्षपणनिमित्तं कर्मक्षपणैः मोक्षसौख्यं हि ।। सालविहीणो राउ दाणदयाधम्मरहियगिहसोहा । णाणविहीणतवो वि य जीव विणा देहसोहं च ॥ ९२ ॥ सालविहीनो राजा दानदयाधर्मरहितगृहिशोभा । . ज्ञानविहीनतपोऽपि च जीवं विना देहशोभा च ॥ मक्खि सिलिम्मे पडिओ मुवइ जहा तह परिगहे पडिउँ । लोही मूढो खवणो कायकिलेसेसु अण्णाणी ॥ ९३ ॥ मक्षिका श्लेष्मणि पतिता म्रियते यथा तथा परिग्रहे पतितः। लोभी मूढः क्षपणः कायक्लेशेषु अज्ञानी ॥ णाणब्भासविहीणो सपरं तचं ण जाणए किं पि । झाणं तस्स ण होइ हु ताव ण कम्मं खवेइ ण हु मोक्खो॥९४॥ १ नेदं गाथासूत्रं. ख-पुस्तके अत्र स्थले किन्तु बव्हये। २ वा. ख. । ३ सिलिम्मपडियो ख. । ४ यो ख. । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। ४११ Varmanav ज्ञानाभ्यासविहीनः स्वपरं तत्वं न जानाति किमपि । ध्यानं तस्य न भवति हि तावन्न कर्म क्षपयति न हि मोक्षः ॥ अज्झयणमेव झाणं पंचेंदियणिग्गहं कसायं पि । तो पंचमयाले पव-यणसारब्भासमेव कुज्जाहो ॥९५ ॥ अध्ययनमेव ध्यानं पंचेन्द्रियनिग्रहो कषायस्यापि । ततः पंचमकाले प्रवचनसारभ्यासमेव कुर्यात् ।। धम्मज्झाणब्भासं करेइ तिविहेण जाव सुद्धेण । परमप्पझाणचेतो तेणेव खवेइ कम्माणि ॥ ९६ ॥ धर्म्यध्यानाभ्यासं करोति त्रिविधेन यावच्छुद्धेन । परमात्मध्यानचेता:- तेनैव क्षपयति कर्माणि ॥ पावारंभणिवित्ती पुण्णारंभे पउत्तिकरणं पि । णाणं धम्मज्झाणं जिणभणियं सव्वजीवाणं ॥९७॥ पापारंभनिवृत्तिः पुण्यारंभे प्रवृत्तिकरणमपि । ज्ञानं धर्म्यध्यानं जिनभणितं सर्वजीवानां ॥ सुदणाणब्भासं जो कुणई सम्मं ण होइ तवयरणं । कुवं जइ मूढमइ संसारसुखाणुरत्तो सो ॥ ९८ ॥ श्रुतज्ञानाम्यासं यः करोति सम्यक्त्वं न भवति तपश्चरणं । कुर्वन् यतिः मूढमतिः संसारसुखानुरक्तः सः ।। तञ्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणासहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगदो होइ मुणिराओ ॥९९ ॥ १ तत्तो. ख.। २ ण कुणइ. ख. । ३ कुव्वंतो मूढ. ख. । ४ जो. क. । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो तत्वविचारणशीलो मोक्षपथाराधनास्वभावयुतः । अनवरतं धर्मकथाप्रसंगतो भवति मुनिराजः ॥ विकहाइविप्पमुक्को आहाकम्माइविरहिओ णाणी । धम्मुद्देसणकुसलो अणुपेहाभावणाजुदो जोई ॥१०॥ विकथादि विप्रमुक्तः आधाकर्मादिविरहितो ज्ञानी । धर्मदेशनाकुशलोऽनुप्रेक्षाभावनायुतो योगी ॥ अवियप्पो णिबंदो णिम्मोहो णिक्कलंकओ णियदो। णिम्मलसहावजुत्तो जोई सो होइ मुणिराओ ॥१०१॥ अविकल्पो निर्द्वन्द्वो निर्मोहो निष्कलङ्को नियतः । निर्मलस्वभावयुक्तो योगी स भवति मुनिराजः ।। जिंदावंचणदूरो परिसहउवसग्गदुक्ख सहमाणो। . सुहझाणज्झयणरदो गयसंगो होइ मुणिराओ ॥१०२ ॥ निन्दावंचनादूरः परीषहोपसर्गदुःखं सहमानः । शुभध्यानाध्ययनरतो गतसङ्गो भवति मुनिराजः ।। तिव्वं कायकिलेसं कुव्वंतो मिच्छभावसंजुत्तो। सव्वण्णुवएसे सो णिव्वाणसुहं ण गच्छेई ॥१०३॥ तीव्र कायक्लेशं कुर्वन् मिथ्यात्वभावसंयुक्तः । सर्वज्ञोपदेशेन स निर्वाणसुखं न गच्छति ॥ रायाइमलजुदाणं णियप्परूवं ण दिस्सए किं पि । समलादरिसे रूवं ण दिस्सए जह तहा णेयं ॥१०४॥ ४ यो. ख.। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। ४१३ रागादिमलयुक्तानां निजात्मरूपं न दृश्यते किंमपि । समलादर्श रूपं न दृश्यते यथा तथा ज्ञेयम् ॥ दंडत्तयसल्लत्तयमंडियमाणो असूयगो साहू । भंडणजायणसीलो हिंडइ सो दीहसंसारे ॥ १०५ ॥ दण्डत्रयशल्यत्रयमण्डितमानोऽसूयकः साधुः । भण्डनयाचनाशीलो हिण्डते स दीर्घसंसारे ॥ देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुत्ता । अप्पसहावे सुन्ना ते साहू सम्मपरिचत्ता ॥१०६॥ देहादिषु अनुरक्ता विषयासक्ताः कषयसंयुक्ताः । आत्मस्वभावे 'सुप्ता: ते साधवः सम्यक्त्वपरित्यक्ताः ।। आरंभे धणधण्णे उवेयरणे कक्खिया तहा मूया। वयगुणसीलविहीणा कसायकलहप्पिया मुहुरा ॥ १०७॥ आरम्भे धनधान्ये उपकरणे कक्षितास्तथा सूयाः । व्रतगुणशीलविहीनाः कषायकलहप्रिया मुखराः ॥ संघविरोहकुसीला सच्छंदा रहियगुरुकुला मृढा । रायाइसेवया ते जिणधम्मविराहिया साहू ॥१०८ ॥ संघविरोधकुशीलाः स्वच्छन्दा रहितगुरुकुला मूढाः । राजादिसेवकाः ते जिनधर्मविराधकाः साधवः ॥ जोइसविज्जामंतोपजीवणं वा य वस्सववहारं । धणधण्णपडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ ॥ १०९ ॥ ज्योतिर्विद्यामंत्रोपजीवनं वा च वर्षव्यवहारं ? | धनधान्यप्रतिग्रहणं श्रमणानां दूषणं भवति ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितो वसहीपडिमोवयरणे गणगच्छे समयजाइकुले | सिस्सपडिसिस्सछत्ते सुतजाते कपडे पुच्छे ॥ ११० ॥ वसतिप्रतिमोपकरणे गणगच्छे समयजातिकुले । शिष्यप्रतिशिष्यच्छात्रे सुतजाते : कर्पटे पुस्तके ॥ ४१४ पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइ ममयारं । याच अवरुदं ताव ण मुंचेदि ण हु सोक्खं ॥ १११ ॥ पिच्छिकायां संस्तरे इच्छासु लोभेन करोति ममकारं । यावच्च आर्तरौद्रं तावन्न मुञ्चति न हि सुखं | जे पावारंभरया कसायजुत्ता परिग्गहासत्ता । लोयवहारपउरा ते साहू सम्मउम्मुक्का ॥ ११२ ॥ ये पापारं भरताः कषाययुक्ताः परिग्रहासक्ताः । लोकव्यवहारप्रचुराः ते साधवः सम्यक्त्वोन्मुक्ताः ॥ चम्मसिलवद्धो सुणहो गज्जए मुणिं ? दिवा | जह पाविहो सो धम्महं दिहा सगीयहो ॥ ११३ ॥ चर्मास्थिमांसलवलुब्धः शुनकः गर्जति मुनिं दृष्ट्वा | यथा पापिष्ठः स धर्मिष्ठं दृष्ट्वा r ण सहति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमहप्पं । जिन्भणिमित्त कुणति ते साहू सम्मउम्मुक्का ॥ ११४ ॥ न सहन्ते इतरदर्पं स्तुवन्ति आत्मनात्ममाहात्म्यं । जिव्हानिमित्तं कुर्वन्ति ते साधवः सम्यक्त्वान्मुक्ताः ॥ .......... १ सुवइचालसु. क. परिग्रहेषु । २ तावत्थ. क. । ३, ११०-१११ - गाथाद्वयं अत्रस्थले नास्ति ख पुस्तके | ४ नेदं गाथासूत्रं. ख- पुस्तके । ५ धुवंतिये हृप्पं ख. । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । भुंजे जहालाहं लहेइ जड़ णाणसंजमणिमित्तं । झाणज्झयणणिमित्तं अणियारो मोक्खमग्गरखो ।। ११५ ।। भुंक्ते यथालाभं लभते यतिः ज्ञानसंयमनिमित्तं । ध्यानाध्ययननिमित्तं अनगारो मोक्षमार्गरतः ॥ उयरग्गिसमण मक्खमक्खण गोयार सम्भपूरण भमरं । णाऊण तप्पयारे णिच्च एवं भुंजए भिक्खु ॥ ११६ ॥ उदग्निशमन अक्षम्रक्षणं गोचारं श्वम्रपूरणं भ्रमरं । ज्ञात्वा तत्प्रकारान् नित्यमेवं भुंक्तां भिक्षुः || रसरुहिरमंसमेदहिसुकिलमलमुत्तपूय किमिबहुलं । दुग्गंधमसुइचम्ममयमणिचमचेयणं पडणं ॥ ११७ ॥ रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिशुक्लमलमूत्रपूयकृमिबहुलं । दुर्गन्धमशुचि चर्ममयमनित्यमचेतनं पतनं ॥ बहुदुक्खभायणं कम्मकारणं भिण्णमप्पणी देहो । तं देहं धम्माणुट्टाणकारणं चेदि पोसए भिक्खू ॥ ११८ ॥ बहुदुःखभाजनं कर्मकारणं भिन्न आत्मनो देहः । तं देहं धर्मानुष्ठानकारणं चेति पोषयेत् भिक्षुः । कोहेण य कलहेण य जायणसीलेण संकिलेसेण । रुण य रोसेण य भुंज किं विंतरो भिक्खू ॥ ११९ ॥ क्रोधेन च कलहेन च याचनाशीलेन संक्लेशेन । रुद्रेण च रोषेण च भुंक्ते किं व्यन्तरो भिक्षुः ॥ दिव्वुत्तरणसरित्थं जाणिच्चाहो धरेह जइ सुद्धो । तत्तायसपिंडसम भिक्खू तुह पाणिगयपिंडं ॥ १२० ॥ १ देहं . ख. । ४१५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो-- दिव्योत्तरणसदृशं ज्ञात्वा अहो धर यदि शुद्धं । तप्तायःपिण्डसमं भिक्षो! तव पाणिगतपिण्डं ।। संजमतवझाणज्झयविण्णाणए गिण्हए पडिग्गहणं । बच्चइ गिण्हइ भिक्खू ण सक्कदे वज्जिदुं दुक्खं ॥ १२१ ॥ संयमतपोध्यानाध्ययनविज्ञानकेन गृह्णाति प्रतिग्रहणं । त्यक्त्वा गृह्णाति भिक्षु न शक्नोति वर्जितुं दुःखं ॥ भुत्तो अयोगुलोसइयो तत्तो अग्गिसिखोपमो यजे । भुंजइ ये दुस्सीला रत्तप्पिडं असंयत्तो ॥ १२२ ॥ ............ । .............................................. ॥ अविरददेसमहव्वइ आगमरुइणे विचारतच्चण्हं । पत्तंत्तरं सहस्सं णिदिई जिणवरिंदेहिं ॥ १२३ ॥ अविरतदेशमहाव्रतिनां आगमरुचीनां विचारतत्वज्ञानां । पात्रान्तरं सहस्रं निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः ।। उवसमणिरीहझाणझयणाइमहागुणा जहा दिट्टा । जेसिं ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया ॥ १२४ ॥ उपशमनिरीहध्यानाध्ययनमहागुणा यथा दृष्टाः । येषां ते मुनिनाथा उत्तमपात्राणि तथा भणिताः ॥ दंसंणसुद्धो धम्मज्झाणरदो संवज्जिदो णिसल्लो। पत्तविसेसो भणियो तें गुणहीणो दु विवरीदो ॥ १२५ ॥ दर्शनशुद्धो धर्म्यध्यानरतः संवर्जितः निःशल्यः । पात्रविशेषो भणितः तैर्गुणैः हीनस्तु विपरीतः ॥ १ अस्या गाथाया भावी नावगतः पुस्तकद्वयेऽपि अशुद्धावभाति । २ तं पुस्तक द्वयेऽपि पाठः ३ नेयं गाथा ख. पुस्तके । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। ४१७ सम्माइगुणविसेसं पत्तविसेसं जिणेहि णिदिदं । ..............॥ १२६ ॥ सम्यक्त्वादिगुणविशेषः पात्रविशेषो जिनैः निर्दिष्टः । तं.... .... || ण वि जाणइ जिणसिद्धसरूव तिविहेण तह णियप्पाणं । जो तिव्वं कुणइ तवं सो हिंडइ दीहसंसारे ॥ १२७ ॥ नापि जानाति जिनसिद्धस्वरूपं त्रिविधेन तथा निजात्मानं । यः तीव्र करोति तपः स हिंडते दीर्घसंसारे ॥ णिच्छयववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणइ सो। जं कीरइ तं मिच्छारूवं सव्वं जिणुदिहं ॥ १२८ ॥ निश्चयव्यवहारस्वरूपं यो रत्नत्रयं न जानाति सः । यत्करोति तन्मिथ्यारूपं सर्व जिनदृष्टं ॥ किं जाणिऊण सयलं तचं किच्चा तवं च किं बहुलं । सम्मविसोहिविहीणं णाणतवं जाण भववीयं ॥ १२९॥ किं ज्ञात्वा सकलं तत्वं कृत्वा तपः च किं बहुलं । सम्यक्त्वविशुद्धिविहीनं ज्ञानतपः जानीहि भवबीजं ॥ वयगुणसीलपरीसहजयं च चरियं च तवं छडावसयं । झाण झयणं सव्वं सम्म विणा जाण भवबीयं ॥ १३०॥ व्रतगुणशीलपरीषहजयं च चरितं च तपः षडावश्यकानि । ध्यानं अध्ययनं सर्व सम्यक्त्वं विना जानीहि भवबीजं ॥ खाई पूंजा लाहं सक्काराई किमिच्छसे जोई । इच्छसि जइ परलोयं तेहिं किं तुझ परलोयं ॥ १३१ ॥ १ गाथेयं ख-पुस्तके नास्ति । षद० २७ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितोख्याति पूजां लाभं सत्कारादि किमिच्छसि योगिन् ! । इच्छसि यदि परलोकं तैः किं तव परलोकं ॥ कम्मादविहावसहावगुणं जो भाविऊण भावेण । णियसुद्धप्पा रुच्चइ तस्स य णियमेण होइ णिव्वाणं ॥१३२॥ कर्मात्मविभावस्वभावगुणं यो भावयित्वा भावेन । निजशुद्धात्मा रोचते तस्मै च नियमेन भवति निर्वाणं ॥ . मूलुत्तरुत्तरुत्तरदव्वादी भावकम्मदो मुक्को । आसवबंधणसंवरणिज्जर जाणेह किं बहुणा ॥ १३३ ॥ मूलोत्तरोत्तरद्रव्यतः भावकर्मतः मुक्तः । आस्रवबन्धनसंवरनिर्जरा जानीहि किं बहुना ॥ विसयविरत्तो मुंचइ विसयासत्तो ण मुंचए जोई । बहिरंतरपरमप्पाभेयं जाणेह किं बहुणा ॥ १३४॥ विषयविरक्तो मुंचति विषयासक्तो न-मुञ्चति योगी । बहिरन्तःपरमात्मभेदं जानीहि किं बहुना ॥ अप्पाण णाणझाणज्झयणसुहमियरसायणप्पाणं । मोत्तूणऽक्खाण सुहं जो भुंजइ सो हु बहिरप्पा ॥१३५॥ आत्मनो ज्ञानध्यानाध्ययनसुखामृतरसायनपानं । मुक्त्वा अक्षाणां सुखं यो भुक्ते स हि बहिरात्मा । किंपायफलं पकं विसमिस्सिदमोदगिव चारुसुहं । जिब्भसुहं दिहिपियं जह तह जाणक्खसोक्खं पि ॥१३६॥ किम्पाकफलं विपमिश्रितमोदकं चारुसुखं । जिव्हासुखं दृष्टिप्रियं यथा तथा जानीहि अक्षसुखमपि ॥ १ आसवसंवरणिज्जरभेयं ख। २ णियअप्पणाण ख। ३ मोदविद्दवारुणसोहं ख । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । ४१९ देह कलत्तं पुत्तं मित्ताइ विहावचेदणारूवं । अप्पसरूवं भावइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥ १३७॥ देहं कलत्रं पुत्रं मित्रादिकं विभावचेतनारूपं । आत्मस्वरूपं भावयति स एव भवेत् बहिरात्मा ॥ इंदियविसयसुहाइसु मूढमई रमइ ण लहई तचं । बहुदुक्खमिदि ण चिंतइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥१३८ । इन्द्रियविषयसुखादिषु मूढमतिः रमते न लभते तत्वं । बहुदुःखमिति न चिन्तयति स एव भवेत् बहिरात्मा ॥ जं जं अक्खाण सुहं तं तं तिव्वं करेइ बहुदुक्खं । - अप्पाणमिदि ण चिंतइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥१३९।। यद्यदक्षाणां सुखं तत्तत्तीवं करोति बहुदुःखं । आत्मानमिति न चिन्तयति स एव भवेद्बहिरात्मा । जेसिं अमेज्झमज्झे उप्पण्णाणं हवेइ तत्थेव रुई। तह बहिरप्पाणं बाहिरिदियविसएसु होइ मई ॥१४०॥ __येषां अमेध्यमध्ये उत्पन्नानां भवेत् तत्रैव रुचिः । तथा बहिरात्मनां बहिरिन्द्रियविषयेषु भवति मतिः ॥ सिविणे वि ण भुंजइ विसयाई देहाइभिण्णभावमई । भुंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ॥१४१॥ स्वप्नेऽपि न मुंक्त विषयान् देहादिभिन्नभावमतिः । भुंक्ते निजात्मरूपं शिवसुखरक्तः तु मध्यमात्मा सः । मलमुत्तघडव्य चिरं वासिय दुव्वासणं ण मुंचेइ । पक्खालियसम्मत्तजलो येण्णाणम्मएण पुण्णो वि ॥ १४२ ॥ १ रमइ लहइ ण लहई तं ख । २ वि य णाणावियेण पुण्णो वि. ख । ___ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितो मलमूत्रघटवत् चिरं वासितां दुर्वासनां न मुञ्चति । प्रक्षालितसम्यक्त्वजलो यज्ज्ञानामृतेन पूर्णोऽपि ॥ Reset णाणी अक्खाण सुहं कहं पि अणुहवइ । hणाविण परिहारण वाहणविणासह भेसज्जं ॥ १४३ ॥ सम्यग्दृष्टिः ज्ञानी अक्षाणां सुखं कथमपि अनुभवति । केनापि न परिहारयति व्याधिविनाशार्थं भेषजं ॥ किं बहुणा हो तजि बहिरप्पसरूवाणि सयलभावाणि । भजि मज्झिमपरमप्पा वत्थुसरुवाणि भावाणि ॥ १४४ ॥ किं बहुना अहो त्यज बहिरात्मस्वरूपान् सकलभावान् । भज मध्यमपरमात्मनां वस्तुस्वरूपान् भावान् ॥ चउगइसंसारगमणकारणभूयाणि दुक्खहेऊणि । ताण हवे हरप्पा वत्थुसरूवाणि भावाणि ॥ १४५ ॥ चतुर्गतिसंसारगमनकारणभूता दु:खहेतवः । ते भवन्ति बहिरात्मनां वस्तुस्वरूपा भावाः || मोक्खगड्गमणकारण भूयाणि पसत्यपुण्णहेऊणि । ताणि हवे दुहिप्पा वत्थुसरुवाणि भावाणि ॥ १४६ ॥ मोक्षगतिगमनकारणभूताः प्रशस्त पुण्यहेतवः । ते भवन्ति द्विविधात्मनां वस्तुस्वरूपा भावाः ॥ दव्वगुणपजएहिं जाणइ परसमयससमयादिविभेयं । अप्पाणं जाणइ सो सिवग पहणायगो होई ॥ १४७॥ द्रव्यगुण पर्यायैः जानाति परसमयस्वसमयादिविभेदं । आत्मानं जानाति स शिवगपथनायको भवति ॥ १ वाहिणासह ख । ४२० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः। ४२१ बहिरंतरप्पमेयं परसमयं भण्णये जिणिंदेहिं । परमप्पो सगसमयं तब्भेयं जाण गुणठाणे ॥१४८॥ बहिरन्तरात्मभेदः परसमयः भण्यते जिनेन्द्रैः । परमात्मा स्वकसमयः तद्भेदं जानीहि गुणस्थाने ॥ मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा । संतोत्ति मज्झिमंतर खीणुत्तम परम जिणसिद्धा ॥१४९॥ मिश्रेति बहिरात्मा तरतमकः तुर्थे अन्तरात्मजघन्यः । शान्तेति मध्यमान्तः क्षीणे उत्तमः परमाः जिनसिद्धाः ।। मुढत्तयसल्लत्तयदोसत्तयदंडगारवतयहिं । परिमुक्को जोई सो सिवगइपहणायगो होई ॥१५०॥ मूढत्रयशल्यत्रयदोषत्रयदण्डगारवत्रयैः । परिमुक्तो योगी स शिवगतिपथनायको भवति । रयणत्तयकरणत्तयजोगत्तयगुत्तित्तयविसुद्धेहिं । संजुत्तो जोई सो सिवगइपहणायगो होई ॥१५॥ रत्नत्रयकरणत्रययोगत्रयगुप्तित्रयविशुद्धैः । संयुक्तो योगी स शिवगतिपथनायको भवति ॥ बहिरभंतरगंथविम्मुक्को सुद्धोवजोयसंजुत्तो। मूलुत्तरगुणपुण्णो सिवगइपहणायगो होई ॥१५२॥ बहिरभ्यन्तरग्रन्थविमुक्तः शुद्धोपयोगसंयुक्तः । मूलोत्तरगुणपूर्णः शिवगतिपथनायको भवति ।। जं जाइ जरामरणंदुहदुदृविसाहिविसविणासयरं । सिवसुहलाहं सम्मं संभावई सुणई साहएं साहू ॥१५३॥ १-२ य. ख । ३ ये. ख । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितो यजातिजरामरणदुःखदुष्टविषाहिविषविनाशकरं । शिवसुखलाभं सम्यक्त्वं संभावय शणु साधक साधो ! ॥ किं बहुणा हो देविंदाहिंदणरिंदगणधारदेहि । पुजा परमप्पा जे तं जाण पहाणसम्मगुणं ॥१५४॥ किं बहुना अहो देवेन्द्राहीन्द्रनरेन्द्रगणधरेन्द्रैः । पूज्याः परमात्मानः ये तज्जानीहि प्रधानसम्यक्त्वगुणं ॥ उवसमई सम्मत्तं मिच्छत्त बलेण पेल्लए तस्स । परिवर्ल्डति कसाया अवसप्पिणिकालदोसेण ॥१५५।। उपशमकं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं बलेन क्षिपति तत् ? । परिवर्तन्ते कषाया अवसर्पिणीकालदोषेण ॥ गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालणं अणथमियं । दसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥१५६॥ गुणव्रततपःसमप्रतिमादानं जलगालनं अनस्तमितं । दर्शनज्ञानचरित्रं क्रिया त्रिपंचाशत् श्राविका भणिताः ॥ गाणेण झाणसिद्धी झाणादो सव्वकम्मणिजरणं । णिज्जरणफलं मोक्खं णाणब्भासं तदो कुजा ॥१५७॥ ज्ञानेन ध्यानसिद्धिः ध्यानतः सर्वकर्मनिर्जरणं । निर्जरणफलं मोक्षः ज्ञानाभ्यासं ततः कुर्यात् ॥ कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो समपरस्स वेरग्गो। सुदभावणेण तत्तिय तम्हा सुदभावणं कुणह ॥१५८॥ १ अस्माद्गाथासूत्रादग्रे १२२ अंके स्थिता गाथा पुनरपि लिखित-पुस्तके वर्तते । सा तु अत्र पुनर्न मुद्रिता । ख-पुस्तके तु अत्रैव वर्तते, न तु तत्र । २ रात्रिभुक्तिवर्जनं । ___ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारः । कुशलस्य तपः निपुणस्य संयमः समपरस्य वैराग्यं । श्रुतभावनेन तत्रयं तस्माच्छ्रतभावनाः कुर्यात् ॥ कालमणतं जीवो मिच्छसरूवेण पंचसंसारे । हिंडदि ण लेई सम्मं संसारम्भमणपारंभो ॥ १५९ ॥ कालमनन्तं जीवो मिथ्यात्वस्वरूपेण पंचसंसारे । हिण्डते न लभते सम्यक्त्वं संसारभ्रमण प्रारम्भः ॥ सम्म सणसुद्धं जाव दु लभते हि ताव सुही । सम्म सणसुद्धं जाव ण लभते हि ताव दुही ॥ १६०॥ सम्यग्दर्शनशुद्धं यावत्तु लभते हि तावत् सुखी । सम्यग्दर्शनशुद्धं यावन्न लभते हि तावद्दुःखी ॥ किं बहुणा वचणेण दु सव्वं दुक्खेव सम्मत्त विणा । सम्मत्तेण वि जुत्तं सव्वं सोक्खेव जाणं खु ॥ १६१॥ कंबहुना वचनेन तु सर्वे दुःखमेव सम्यक्त्वं विना । सम्यक्त्वेनापि युक्तं सर्व सुखमेव जानीहि खलु ॥ णिक्खेवणयप्पमाणं सद्दालंकारछंद लहिघूणं । नाटयपुराणकम्मं सम्म विणा दीहसंसारं ॥ १६२॥ निक्षेपनयप्रमाणं शब्दालंकारछन्द.... T नाटकपुराणकर्म सम्यक्त्वं विना दीर्घसंसारं ॥ रयणत्तयमेव गणं गच्छं गमणस्स मोक्खमग्गस्स । संघो गुणसंघाओ समयो खलु णिम्मलो अप्पा ॥ १६३ ॥ ४२३ १ लहइ ख । २ या. ख । ३ संसारा. ख । ४ अस्या अग्रे-वसही इति ११० पिच्छे इति १११ गाथाद्वयं लिखित-पुस्तके वर्तते, तच्च पूर्वं ४१४ पृष्ठे आगतं । ख- पुस्तके तु अत्रैव वर्तते न तु पूर्वं । ५ अस्मादग्रे मिहिरो इति, मिच्छंध इति, पवयणसार इति, धम्मज्झाण इति च गाथाचतुष्टयं । तच्च पूर्वं क्रमेण ५२-५३९१-९६ अंके आगतं । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता रत्नत्रयमेव गणः गच्छः गमनस्य मोक्षमार्गस्य । संघो गुणसंघातः समयः खलु निर्मल आत्मा ॥ जिणलिंगधरो जोई विरायसम्मत्तसंजुदो णाणी । परमोवेक्खाइरियो सिवगइपहणायगो होई ॥१६४॥ जिनलिंगधरो योगी विरागसम्यक्त्वसंथुतो ज्ञानी । परमोपेक्षादिरिक्तः शिवगतिपथनायको भवति ॥ सम्मं णाणं वेरग्गतवोभावं णिरीहवित्तिचारित्तं । गुणसीलसहावं उप्पजइ रयणसारमिणं ॥१६५॥ सम्यक्त्वं ज्ञानं वैराग्यतपोभावं निरीहवृत्तिचारित्रं । गुणशीलस्वभावं उत्पादयति रत्नसारोऽयं ॥ गंथमिणं जो ण दिइ ण हु मण्णइ ण हु सुणेइ ण हु पढइ । ण हु चिंतइ ण हु भावइ सो चेव हवेइ कुदिट्टी ॥१६६॥ प्रन्थमिमं यो न पश्यति न हि मन्यते न हि शृणोति न हि पठति । न हि चिन्तयति न हि भावयति स चैव भवेत् कुदृष्टिः ॥ इदि सजणपुजं रयणसारं गंथं णिरालसो णिचं । जो पढइ सुणइ भावइ पावइ सो सासयं ठाणं ॥ १६७ ॥ इति सज्जनपूज्यं रत्नसारग्रन्थं निरालेसो नित्यं । यः पठति शृणोति भावयति प्राप्नोति स शाश्वतं स्थानं ॥ समाप्तोयं रयणसारः १ अस्या अग्रे ५४ अंके स्थिता कामदुहीति गाथा वर्तते लिखित-पुस्तके । ख-पुस्तके तु अत्रैव । २ अस्मादने अजविसप्पिणीत्यादि ६० अंके स्थिता गाथा लिखित-पुस्तके, ख-पुस्तके त्वत्रैव । ___ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारस अणुवेक्खा। णमिऊण सव्वसिद्धे झाणुत्तमखविददीहसंसारे। दस दस दो दो य जिणे दस दो अणुपेहणं वोच्छे ॥१॥ नत्वा सर्वसिद्धान् ध्यानोत्तमक्षपितदीर्घसंसारान् । दश दश द्वौ द्वौ च जिनान् दश द्वौ अनुप्रेक्षा वक्ष्ये ॥ अद्धवमसरणमेगत्तमण्णसंसार लोगमसुचित्तं । आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोहिं च चिंतेज्जो ॥२॥ अध्रुवमशरणमेकत्वमन्यसंसारे लोकमशुचित्वं । आस्रवसंवरनिर्जराधर्म बोधि च चिन्तयेत् ॥ वरभवणजाणवाहणसयणासण देवमणुवरायाणं । मादुपिदुसजणभिच्चसंबंधिणो य पिदिवियाणिचा ॥३॥ वरभवनयानवाहनशयनानानि देवमनुजराज्ञाम् । मातृपितृस्वजनभृत्यसम्बन्धिनश्च पितृव्योऽनित्याः ॥ सामग्गिदियरूवं आरोग्गं जोवणं बलं ते । सोहग्गं लावण्णं सुरधणुमिव सस्सयं ण हवे ॥४॥ समग्रेन्द्रियरूपं आरोग्यं यौवनं बलं तेजः । सौभाग्यं लावण्यं सुरधनुरिव शाश्वतं न भवेत् ॥ जलबुब्बुदसकधणूखणरुचिघणसोहमिव थिरं ण हवे । अहामिदहाणाई बलदेवप्पहुदिपज्जाया ॥५॥ जलबुद्बुदशक्रधनु:क्षणरुचिघनशोभेव स्थिरं न भवेत् । अहमिन्द्रस्थानानि बलदेवप्रभृतिपर्यायाः ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्धं । भोगोपभोगकारणदव्यं णिचं कहं होदि ॥६॥ जीवनिबद्धं देहं क्षीरोदकमिव विनश्यति शीघ्रम् । भोगोपभोगकारणद्रव्यं नित्यं कथं भवति ॥ परमटेण दु आदा देवासुरमणुवरायविहवेहिं । वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चिंतए णिचं ॥७॥ परमार्थेन तु आत्मा देवासुरमनुजराजविभवैः । व्यतिरिक्तः स आत्मा शाश्वत इति चिन्तयेत् नित्यं ।। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा। मणिमंतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविजाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥८॥ मणिमन्त्रौषधरक्षाः हयगजरथाश्च सकलविद्याः । जीवानां न हि शरणं त्रिषु लोकेषु मरणसमये ॥ सग्गो हवे हि दुग्गं भिचा देवा य पहरणं वजं । अइरावणो गइंदो इंदस्स ण विज्जदे सरणं ।।९ ॥ स्वर्गो भवेत् हि दुर्ग भृत्या देवाश्च प्रहरणं वज्रं । ऐरावणो गजेन्द्रः इन्द्रस्य न विद्यते शरणं ॥ णवणिहि चउदहरयणं हयमत्तगइंदचाउरंगबलं । चक्केसस्स ण सरणं पेच्छंतो कहिये काले ॥ १० ॥ नवनिधिः चतुर्दशरत्नं हयमत्तगजेन्द्रचतुरङ्गबलम् । चक्रेशस्य न शरणं पश्यत कर्दिते कालेन । १ रहड सयल, पुस्तके पाठः । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा । जाइजर मरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणी अप्पा | तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ।। ११ । जातिजरामरणरोगभयतः रक्षति आत्मानं आत्मा । तस्मादात्मा शरणं बन्धोदयसत्त्वकर्मव्यतिरिक्तः ॥ अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेडी | ते विहु चेदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। १२ ।। अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पञ्चपरमेष्ठिनः । ते पि हि तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मात् आत्मा हि मे शरणम् ॥ सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारितं च सत्तवो चेव । उरो चेदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ १३ ॥ सम्यक्त्वं सद्ज्ञानं सच्चारित्रं च सत्तपश्चैव । चत्वारि तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मात् आत्मा हि मे शरणम् ॥ इत्यशरणानुप्रेक्षा । ४२७ एको करेदि कम्मं को हिंडदि य दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥ १४ ॥ एक: करोति कर्म एकः हिण्डति च दीर्घसंसारे । एकः जायते म्रियते च तस्य फलं भुङ्क्ते एकः ॥ एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्वलोहेण । णिरयतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एको ।। १५ ।। एक: करोति पापं विषयनिमित्तेन तीव्रलोभेन । नरकतिर्यक्षु जीवो तस्य फलं भुङ्क्ते एकः ॥ एको करेदि पुण्णं धम्मणिमित्रोण पत्तदाणेण । मणुवदेवे जीवो तस्स फलं भुंजदे एको ॥ १६ ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचिता एक: करोति पुण्यं धर्मनिमित्तेन पात्रदानेन । मानवदेवेषु जीवो तस्य फलं भुङ्क्ते एकः ॥ उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू | सम्मादिही सावय मज्झिमपत्तो हु विष्णयो ॥ १७ ॥ ४२८ उमत्तपात्रं भणितं सम्यक्त्वगुणेन संयुतः साधुः । सम्यग्दृष्टिः श्रावको मध्यमपात्रं हि विज्ञेयः || णिोि जिणसमये अविरदसम्मो जहण्णपत्तोति । सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो ॥ १८ ॥ निर्दिष्टः जिनसमये अविरतसम्यक्त्वः जघन्यपात्रं इति । सम्यक्त्वरत्नरहितः अपात्रमिति संपरीक्ष्यः ॥ दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्यंति ॥ १९ ॥ दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टा दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् | सिद्धयन्ति चरित्रभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिद्धयन्ति ॥ एकोह णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो 1.. सुद्धे यत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ संजदो ॥ २० ॥ एकोऽहं निर्ममः शुद्धः ज्ञानदर्शनलक्षणः । शुद्वैकत्वमुपादेयं एवं चिन्तयेत् संयतः ॥ इत्येकत्वानुप्रेक्षा । मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो । जीवस ण संबंधो णियकज्जवसेण वर्हति ॥ २१ ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा। ४२९ मातृपितृसहोदरपुत्रकलत्रादिबन्धुसन्दोहः । जीवस्य न सम्बन्धो निजकार्यवशेन वर्तन्ते ॥ अण्णो अण्णं सोयदि मदोत्ति मम णाहगोत्ति मण्णंतो। अप्पाणं ण हु सोयदि संसारमहण्णवे बुढें ॥ २२ ॥ अन्यः अन्यं शोचति मदीयोस्ति मम नाथक इति मन्यमानः । आत्मानं न हि शोचति संसारमहार्णवे पतितम् ॥ अण्णं इमं सरीरादिगंपि जं होज बाहिरं दव्वं । णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥२३॥ अन्यदिदं शरीरादिकं अपि यत् भवति बाह्यं द्रव्यम् । ज्ञानं दर्शनमात्मा एवं चिन्तय अन्यत्त्वम् ।। इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा। पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयप्पउरे । जिणमग्गमपेच्छंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥ २४ ॥ पंचविधे संसारे जातिजरामरणरोगभयप्रचुरे । जिनमार्गमपश्यन् जीवः परिभ्रमति चिरकालम् ॥ सव्वे वि पोग्गला खलु एगे भुत्तुझिया हु जीवेण । असयं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे ॥ २५ ॥ सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकेन भुक्तोज्झिता हि जीवेन । असकृदनंतकृत्वः पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पण्णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ॥ २६ ॥ ___ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता सर्वस्मिन् लोकक्षेत्रे क्रमशः तन्नास्ति यत्र न उत्पन्नः । अवगाहनेन बहुशः परिभ्रमितः क्षेत्रसंसारे ॥ अवसप्पिणिउस्सप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसेसु। जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे ॥२७॥ अवसर्पिण्युत्सर्पिणीसमयावलिकासु निरवशेषासु । जातः. मृतः च बहुशः परिभ्रमितः कालसंसारे ।। णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लवा (गा) दु गेवेज्जा । मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवहिदी भमिदो ॥२८॥ __ नरकायुर्जघन्यादिषु यावत् तु उपरितनानि प्रैवेयिकाणि । मिथ्यात्वसंश्रितेन तु बहुशः अपि भवस्थितौ भ्रमितः ॥ सव्वे पयडिहिदिओ अणुभागप्पदेसबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ॥ २९ ॥ सर्वाः प्रकृतिस्थितयोऽनुभागप्रदेशबन्धस्थानानि ।। जीवः मिथ्यात्ववशात् भ्रमितः पुनः भावसंसारे ॥ पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अज्जयदि पावबुद्धौए । परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे ॥३०॥ पुत्रकलत्रनिमित्तं अर्थ अजयति पापबुद्धया । परिहरति दयादानं स: जीवः भ्रमति संसारे ॥ मम पुत्तं मम भज्जा मम धणधण्णोत्ति तिव्वकंखाए। चइऊण धम्मबुद्धिं पच्छा परिपडदि दीहसंसारे ॥ ३१ ॥ मम पुत्रो मम भार्या मम धनधान्यमिति तीवकांक्षया । त्यक्त्वा धर्मबुद्धिं पश्चात् परिपतति दीर्घसंसारे ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा । मिच्छोदयेण जीवो णिंदतो जेण्णभासियं धम्मं । कुधम्मकुलिंगकुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ॥ ३२ ॥ मिथ्यात्वोदयेन जीवः निंदनू जैनभाषितं धर्मम् । कुधर्मकुलिङ्गकुतीर्थं मन्यमानः भ्रमति संसारे ॥ हंतूण जीवरासिं महुमंसं सेविऊण सुरपाणं । परदव्वपरकलतं गहिऊण य भमदि संसारे ॥ ३३ ॥ हत्वा जीवराशिं मधुमांसं सेवित्वा सुरापानम् । परद्रव्यपरकलत्रं गृहीत्वा च भ्रमति संसारे || जत्तेण कुणइ पावं विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो । मोहंधारसहिओ तेण द परिपडदि संसारे ॥ ३४ ॥ दु यत्नेन करोति पापं विषयनिमित्तं च अहर्निशं जीवः । मोहान्धकारसहितः तेन तु परिपतति संसारे ॥ णिच्चिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिंदिएसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चोदस मणुवे सदसहस्सा ।। ३५ ।। नित्येतरधातुसप्त च तरुदश विकलेन्द्रियेषु षट् चैव । सुरनारकतिर्यक्चतस्रः चतुर्दश मनुजे शतसहस्राः ॥ संजोग विप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्खं च । संसारे भूदाणं होदि हुमाण तहावमाणं च ॥ ३६ ॥ संयोगविप्रयोगं लाभालाभं सुखं च दुःखं च । संसारे भूतानां भवति हि मानं तथावमानं च ॥ 1 कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे । जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुको ॥ ३७ ॥ १ संसारे अभूदमाणं इति पुस्तके पाठः । ४३१ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता कर्मनिमित्तं जीवः हिंडति संसारपोरकांतारे । जीवस्य न संसारः निश्चयनयकर्मनिर्मुक्तः ॥ संसारमदिक्कतो जीवोवादेयमिदि विचिंतेजो। संसारदुहकंतो जीवो सो हेयमिदि विचिंतेजो ॥ ३८ ॥ संसारमतिक्रान्तः जीव उपादेय इति विचिन्तनीयम् । संसारदुःखाक्रान्त: जीवः स हेय इति विचिन्तनीयम् ॥ इति संसारानुप्रेक्षा। जीवादिपयहाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेइ लोगो अहमज्झिमउभेएण ॥ ३९ ॥ जीवादिपदार्थानां समवायः स निरुच्यते लोकः । त्रिविधः भवेत् लोकः अधोमध्यमोलभेदेन ॥ णिरया हवंति हेहा मज्झे दीवंबुरासयोसंखा। सग्गो तिसहि भेओ एत्तो उड़े हवे मोक्खो ॥ ४० ॥ नरका भवंति अधस्तने मध्ये द्वीपाम्बुराशयाँ: असंख्या । स्वर्गः त्रिषष्ठिभेदः एतस्मात् ऊर्ध्वं भवेत् मोक्षः ।। इंगितीस सत्त चत्तारि दोण्णि एकेक छक्क चदकप्पे । तित्तिय एकेकेंदियणामा उडुआदितेसही ॥४१॥ एकत्रिंशत् सप्त चत्वारि द्वौ एकैकं षटं चतु:कल्पे । त्रित्रिकमेकैकेन्द्रकनामानि ऋत्वादित्रिषष्टिः ॥ असुहेण णिरयतिरियं सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं । सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥ ४२ ॥ ___ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा। अशुभेन नरकतिर्यञ्चं शुभोपयोगेन दिविज-नरसौख्यम् । शुद्धेन लभते सिद्धिं एवं लोकः विचिन्तनीयः ।। इति लोकानुप्रेक्षा। अट्टीहिं पडिबद्धं मंसविलित्तं तएण ओच्छण्णं । किमिसंकुलेहिं भरिदमचोक्खं देहं सयाकालं ॥ ४३ ॥ अस्थिाभेः प्रतिबद्धं मांसविलिप्तं त्वचा अवच्छन्नम् । क्रिमिसंकुलैः भरितं अप्रशस्तं देहं सदाकालम् ।। दुग्गंधं बीभर्थ कलिमलभरिदं अचेयण मुत्तं । सडणप्पडणसहावं देहं इदि चिंतये णिचं ॥४४॥ दुर्गधं बीभत्सं कलिमलभतं अचेतनं मूर्त्तम् । स्खलनपतनस्वभावं देहं इति चिन्तयेत् नित्यम् ॥ . रसरुहिरमंसमेदहीमज्जसंकुलं मुत्तपूयकिमिबहुलं । दुग्गंधमसुचि चम्ममयमणिञ्चमचेयणं पडणम् ॥ ४५ ॥ रसरुधिरमांसमेदास्थिमजासंकुलं मूत्रपूयकृमिबहुलम् । दुर्गन्धं अशुचि चर्ममयं अनित्यं अचेतनं पतनम् ॥ देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिचं भावणं कुज्जा ॥४६॥ देहात् व्यतिरिक्तः कर्मविरहितः अनन्तसुखनिलयः । प्रशस्तः भवेत् आत्मा इति नित्यं भावनां कुर्यात् ॥ . इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा। मिच्छंत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति । पणपणचउतियभेदा सम्मं परिकित्तिदा समए ॥४७॥ षद० २८ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता मिथ्यात्वं अविरमणं कषाययोगाश्च आस्रवा भवान्त । पञ्चपञ्चचतु:त्रिकभेदाः सम्यक् प्रकीर्तिताः समये ॥ एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच । अविरमणं हिंसादी पंचविहो सो हवइ णियमेण ॥४८॥ ___ एकान्तविनयविपरीतसंशयं अज्ञानं इति भवेत् पञ्च । अविरमणं हिंसादि पञ्चविधं तत् भवति नियमेन ॥ कोहो माणो माया लोहो वि य चउविहं कसायं खु । मणवचिकाएण पुणो जोगो तिवियप्पमिदि जाणे ॥४९॥ क्रोधः मानः माया लोभः अपि च चतुर्विधः कषायः खलु। मनोवचःकायेन पुनः योगः त्रिविकल्प इति जानीहि ॥ असुहेदरभेदेण दु एकेकं वण्णिदं हवे दुविहं । आहारादीसण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि ॥५०॥ अशुभेतरभेदेन तु एकैकं वर्णितं भवेत् द्विविधम् । आहारादिसंज्ञा अशुभमनः इति विजानीहि ॥ किण्हादितिणि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिदिपरिणामो। ईसाविसादभावो असुहमणं त्ति य जिणा वेंति ॥५१॥ कृष्णादितिस्रः लेझ्याः करणजसौल्येषु गृद्धिपरिणामः । ईर्षाविषादभावः अशुभमन इति च जिना जुवन्ति । रागो दोसो मोहो हास्सादीणोकसायपरिणामो । थूलो वा सुहुमो वा असुहमणो ति य जिणा वेंति ॥ ५२ ॥ रागः द्वेषः मोहः हास्यादि-नोकषायपरिणामः। स्थूलः वा सूक्ष्मः वा अशुभमन इति च जिना ब्रुवन्ति ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा । भत्तिच्छिरायचोरकहाओ वयणं वियाण असुहमिदि । बंधणछेदणमारण किरिया सा असुहकायेति ॥ ५३ ॥ भक्तस्त्रीराजचौरकथाः वचनं विजानीहि अशुभमिति । बन्धनछेदनमारणक्रिया सा अशुभकाय इति ॥ मोत्तूण असुहभावं पुव्वत्तं णिरचसेस दो दव्वं । वदसमिदि सीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे ५४ ॥ मुक्त्वा अशुभभावं पूर्वोक्तं निरवशेषतः द्रव्यम् । व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामं शुभमनः जानीहि ॥ संसारछेदकारणवयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिहं । जिणदेवादिसु पूजा सुहकार्य त्ति य हवे चेहा ।। ५५ ।। संसारच्छेदकारणवचनं शुभवचनमिति जिनोद्दिष्टम् । जिनदेवादिषु पूजा शुभकायमिति च भवेत् चेष्टा ॥ जम्मसमुद्दे बहुदोसवीचिये दुक्ख जलचरा किण्णे | जीवस परिभमण कम्मासवकारणं होदि ॥ ५६ ॥ जन्मसमुद्रे बहुदोषवीचिके दुःखजलचराकीर्णे | जीवस्य परिभ्रमणं कर्मास्त्रवकारणं भवति ॥ कम्मासवेण जीवो बूडदि संसारसागरे घोरे । जण्णावसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया ॥ ५७ ॥ कर्मास्रवेण जीवः ब्रूडति संसारसागरे घोरे । या ज्ञानवशा क्रिया मोक्षनिमित्तं परम्परया || आसवहेदू जीवो जम्मस मुद्दे णिमज्जदे खिष्पं । आसवकिरिया तम्हा मोक्खणिमित्तं ण चिंतेज्जो ॥ ५८ ॥ ४३५ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता आस्रबहेतोः जीवः जन्मसमुद्रे निमजति क्षिप्रम् । आस्रवक्रिया तस्मात् मोक्षनिमित्तं न चिन्तनीया ॥ पारंपज्जाएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं । संसारगमणकारणमिदि जिंदं आसवो जाण ॥५९ ।। पारम्पर्येण तु आस्रवक्रियया नास्ति निर्वाणम् । संसारगमनकारणमिति निन्द्यं आस्रवं जानीहि ।। पुव्वुत्तासवभेया गिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स । उहयासवणिम्मुकं अप्पाणं चतए णिचं ॥ ६० ॥ पूर्वोक्तास्त्रवभेदाः निश्चयनयन न सन्ति जीवस्य । उभयास्रवानर्मुक्तं आत्मानं चिन्तयेत् नित्यं ।। इत्यारवानुप्रेक्षा। चलमलिणमगाढं च वज्जिय सम्मत्तदिढकवाडेण । मिच्छत्तासवदारणिरोहो होदित्ति जिणेहिं णिहिट ॥६॥ चलमलिनमगाढं च वर्जयित्वा सम्यक्त्वदृढकपाटेन । मिथ्यात्वास्रबद्वारनिरोधः भवति इति जिनैः निर्दिष्टम् ।। पंचमहव्ययमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा । कोहादिआसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं (?) ॥६२॥ पंचमहाव्रतमनसा अविरमणनिरोधनं भवेत् नियमात् । क्रोधादि-आस्रवाणां द्वाराणि कषायरहितपरिणामैः ।। सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ।। ६३॥ शुभयोगेषु प्रवृतिः संवरणं करोति अशुभयोगस्य । शुभयागस्य निरोधः शुद्धोपयोगेन सम्भवति ॥ ___ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा। ४३७ सुद्धवजोगेण पुणो धम्मं सुकं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिचं ॥ ६४ ॥ शुद्धोपयोगेन पुनः धर्म शुक्लं च भवति जीवस्य । तस्मात् संवरहेतु: ध्यानमिति विचिन्तयेत् नित्यम् ॥ जीवस्स ण संवरणं परमट्टणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिचं ॥ ६५ ॥ जीवस्य न संवरणं परमार्थनयन शुद्धभावात् । संवरभावविमुक्तं आत्मानं चिन्तयेत् ॥ इति संवरानुप्रेक्षा। बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तम् । जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे ॥ ६६ ॥ बन्धप्रदेशगलनं निर्जरणं इति जिनैः प्रज्ञतं । येन भवेत्संवरणं तेन तु निर्जरणमिति जानीहि ॥ सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा । चदुगदियाणं पढमा वयजुत्ताणं हवे विदिया ॥ ६७ ॥ सा पुनः द्विविधा ज्ञेया स्वकालपक्का तपसा क्रियमाणा। चतुर्गातेकानां प्रथमा व्रतयुक्तानां भवेत् द्वितीया।। इति निर्जरानुप्रेक्षा । एयारसदसभेयं धम्म सम्मत्तपुव्वयं भणियं । सागारणगाराणं उतमसुहसंपजुत्तेहिं ॥ ६८ ॥ एकादशदशभेदो धर्मो सम्यक्त्वपूर्वको भणितः । सागारानगाराणां उत्तमसुखसम्प्रयुक्तैः ॥ दसणवयसामाझ्यपोसहसच्चित्तरायभत्ते य । बम्हारंभपरिग्गहअणुमणमुदिड देसविरदेदे ॥६९ ।। ___ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता दर्शनव्रतसामायिकप्रोषधसचित्तरात्रिभक्ताः च । ब्रह्मारंभपरिग्रहानुमतोद्दिष्टा देशविरतस्यैते ॥ उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव । तवचागमकिंचण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि ॥ ७० ॥ उत्तमक्षमामाईवार्जवसत्यशौचं च संयमः च । तपस्त्यागं आकिञ्चन्यं ब्रह्म इति दशविधं भवति ॥ कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किंचि वि कोह तस्स खमा होदि धम्मोत्ति ॥७॥ क्रोधोत्पत्तेः पुनः बहिरङ्गं यदि भवेत् साक्षात् । __ न करोति किञ्चिदपि क्रोधं तस्य क्षमा भवति धर्म इति ॥ कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि । जो ण वि कुव्वदि समणो मद्दवधम्मं हवे तस्स ॥ ७२ ॥ कुलरूपजातिबुद्धिषु तपश्रुतशीलेषु गर्व किञ्चित् । । यः नैव करोति श्रमणो मार्दवधर्मो भवेत् तस्य ॥ मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो । अजवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ॥ ७३ ॥ मुक्त वा कुटिलभावं निर्मलहृदयेन चरति यः श्रमणः । आर्जवधर्मः तृतीयः तस्य तु संभवति नियमेन ॥ परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सचं ॥७४॥ परसंतापककारणवचनं मुक्त्वा स्वपरहितवचनम् । यः वदति भिक्षुः तुरीयः तस्य तु धर्मः भवेत् सत्यम् ॥ ___ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा । कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो। जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्च ॥ ७५ ॥ कांक्षाभावनिवृतिं कृत्वा वैराग्यभावनायुक्तः । यः वर्तते परममुनिः तस्य तु धर्मः भवेत् शौचम् ।। वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ॥ ७६ ॥ व्रतसमितिपालनेन दण्डत्यागेन इन्द्रियजयेन । परिणममानस्य पुनः संयमधर्मः भवेत् नियमात् ।। विसयकसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसज्झाए । जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ॥ ७७ ॥ विषयकषायविनिग्रहभावं कृत्वा ध्यानस्वाध्यायेन । यः भावयति आत्मानं तस्य तपः भवति नियमेन ॥ णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहि ।। ७८ ॥ निर्वेगत्रिकं भावयेत् मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु । ___ यः तस्य भवेत् त्याग इति भणितं जिनवरेन्द्रैः ।। होऊण य णिस्संगो गियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । णिदेण दु वदि अणयारो तस्स किंचण्हं ॥ ७९ ॥ भूत्वा च निस्सङ्गः निजभावं निगृह्य सुखदुःखदम् । निर्द्वन्द्वेन तु वर्तते अनगारः तस्याकिञ्चन्यम् । सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं । सो बम्हचेरभावं सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥८० ॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता सर्वाङ्गं पश्यन् स्त्रीणां तासु मुञ्चति दुर्भावम् । स ब्रह्मचर्य्यभावं सुकृती खलु दुद्धरं धरति ॥ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो। सो ण य वजदि मोक्खं धम्म इदि चिंतये णिचं ॥ ८१॥ श्रावकधर्म त्यक्त्वा यतिधर्मे यः हि वर्तते जीवः । स न च वर्जति मोक्षं धर्ममिति चिन्तयेत् नित्यम् ॥ णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो । मज्झत्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिचं ॥ ८२ ॥ निश्चयनयेन जीवः सागारानागारधर्मतः भिन्नः । मध्यस्थभावनया शुद्धात्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ इति धर्मानुप्रेक्षा। उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स । चिंता हवेइ बोही अञ्चत्तं दुल्लहं होदि ॥ ८३ ।। उत्पद्यते सद्ज्ञानं येन उपायेन तस्योपायस्य+. चिन्ता भवेत् बोधिः अत्यन्तं दुर्लभं भवति ॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु । सगदव्वमुवादेयं णिच्छित्ति होदि सण्णाणं ।। ८४ ॥ कर्मोदयजपर्याया हेयं क्षायोपशमिकज्ञानं खलु । स्व कद्रव्यमुपादेयं निश्चितिः भवतिः सद्ज्ञानम् ॥ मुलुत्तरपयडीओ मिच्छत्तादी:असंखलोगपरिमाणा । परदव्वं सगदव्वं अप्पा इदि णिच्छयणएण ॥ ८५ ॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा। ४४१ मूलोत्तरप्रकृतयः मिथ्यात्वादयः असंख्यलोकपरिमाणाः । परद्रव्यं स्वकद्रव्यं आत्मा इति निश्चयनयेन ।। एवं जायदि णाणं हेयमुवादेय णिच्छये णत्थि । चिंतेज्जइ मुणि बोहिं संसारविरमणहे य ॥ ८६ ॥ एवं जायते ज्ञानं हेयोपादेयं निश्चयेन नास्ति । चिन्तयेत् मुनिः बोधि संसारविरमणार्थं च ॥ इति बोध्यनुप्रेक्षा। बारसअणुवेक्खाओ पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं । आलोयणं समाही तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥ ८७ ॥ द्वादशानुप्रेक्षाः प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् । आलोचनं समाधिः तस्मात् भावयेत् अनुप्रेक्षाम् ॥ रत्तिदिवं पडिकमणं पञ्चक्खाणं समाहिं सामइयं । आलोयणं पकुव्वदि जदि विजदि अप्पणो सत्ती ॥ ८८ ॥ रात्रिंदिवं प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं समाधि सामयिकम् । आलोचनां प्रकुर्यात् यदि विद्यते आत्मनः शक्तिः ॥ मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं । परिभाविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥ ८९ ॥ मोक्षगता ये पुरुषा अनादिकालेन द्वादशानुप्रेक्षाम् । परिभाव्य सम्यक् प्रणमामि पुनः पुनः तान् ॥ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥९०॥ किं प्रलपितेन बहुना ये सिद्धा नरवरा गते काले । सेत्स्यन्ति येऽपि भविकाः तद् जानीहि तस्याः माहात्म्यम् ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुंदकुंदमुणिणाहें । जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणिवाणं ॥ ९१॥ इति निश्चयव्यवहारं यत् भणितं कुन्दकुन्दमुनिनाथेन । यः भावयति शुद्धमनाः स प्राप्नोति परमनिर्वाणम् ।। इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता द्वादशानुप्रेक्षा समाप्ता। * समाप्तोऽयं षटनाभतादिसंग्रहः ।। शुभं भूयात्। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: पद्माभृतीय- मूलगाथानामकारादिक्रमेण सूची । पृष्ठसंख्याः अ असोहनजोएणं अक्खाणि बाहिरप्पा अंगाई दस दुण य... अच्चेयणं पि चेदा अज्ज वि तिरयणसुद्धा अण्णाणं मिच्छतं „ ,, अप्पा चरितवतो अप्पा झायंताणं ... अण्णं च वसिमुणी अण्णे कुमरणमरणं अपरिग्गह सुमणुणे अप्पा अप्पम रओ ܙܕ ... $20 अप्पा गाऊण णरा... अमणुष्णेय मणुष्णे अमराण वंदियाण अयसाण भायणेण अरसमरूवमगंधं अरहंतभासि यत्थं अरहंतेण सुदिनं अरुहा सिद्धायरिया अवरोत्ति दव्वसवणो *** ... ... ... ... ... ... ... Cea *** ... *** ... ... 444 ... ... 800 ... गाथा: अवसेसा जे लिंगी... असियसय किरियवाई ३१९ ३०६ असुही वीहत्थे ह अस्संजदं ण वंदे १९८ ३४७ ३५९ ३८ "" " अह पुण अप्पा णिच्छदि ,, ... ... आ १७१ आगंतुक माणसियं १४६ | आदसहावादण्णं ५० आदा खु मज्झणाणे १४६ | आयद चेदिहरं २३४ आरुहवि अंतरप्पा ३५१ आसवहेदूय तहा ३५५ आहारभयपरिग्गह ३५३ | आहारासणणिद्दा आहारो य सरीरो ४७ ... " ... ... ... ... ... ... २१ २१२ | इच्छायारमहत्थं २०८ | इड्डिमतुलं विउब्विय ५६ इ ..s इय उवएसं सारं ७२ इय घाइकम्ममुक्को ३७६ इय जाणिऊण जोई १८४ इय णाउं गुणदोसं ... ... पृष्ठसंख्याः ६२ २८३ १३९ २२ ६३ २३४ ... ... ... ... ... ... ... *** ... ... ... ... *** ... :: ... १३४ ३१६ २०४ ७२ ३०९ ३४६ २६१ ३५१ १०१ ६२ २७९ ३२९ २९३ ३२५ २८९ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ गाथाः पृष्ठसंख्याः । गाथाः पृष्ठसंख्याः इय णाऊण खमागुण २५७ एवं जिणपणत्तं ... ... इय तिरियमणुयजम्मे ... १४४ ,, ,, ... ३७७ इय भावपाहुडमिणं... ... ३०३ | एवं सावयधम्म ... इय मिच्छत्तावासे ... ... २८५ एवं संखेवेण य इरिया भासा एसण कत्ता भोइ अमुत्तो... उक्किट्ठसीहचरियं कल्लाणपरंपरया ... उग्गतवेणण्णाणी ... ... | काऊण णमुक्कारं ... उच्छाहभावणाए ... ... कालमणतं जीवो ... किं काहिदि बहिकम्म उत्तममज्झिमगेहे ... किं जंपिएण बहुणा उत्थरइ जा ण जरओ ... किं पुण गच्छइ मोहं उद्धद्धमज्झलोए ... ... किं बहुणा भणिएणं... ... ३६६ उवसम्गपरिसहसहा १२० १० कुच्छियदेवं धम्म ... ३६९ उवसमखमदमजुत्ता कुच्छियधम्मम्मि रओ २८५ कोहभयहासलोहा एएण कारणेण य ... कंदप्पमाइयाओ " कंदं मूलं बीयं ... " " ... . ... २३५ एए तिपिण वि ... खणणुत्तावणवालण... ... १३४ एएहिं लक्खणेहिं ... खयरामरमणुयकर ... ... एकं जिणस्स रूवं ... ९७ ग एक्केक्कंगुलवाही गइ इंदियं च काये... एगो मे सस्सदो आदा गसियाई पुग्गलाई ... एयं जिणेहि कहियं गहिउज्झियाइं मुणिणा १४३ एरिसगुणे हिं सव्वं ... ... गहिऊण य सम्मत्ते... ... ३६५ एवं आयत्तणगुण ... ... १२२ गाहेण अप्पगाहा ... ... एव चिय णाऊण ... ... ३३ । गिहगंथमोहमुक्का ... १०९ Sum८०८ ... ३१ o १७ m १४२ ३६४ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाः ه ... २८८ ه ه م م १० १० م م गाथाः पृष्ठसंख्याः । पृष्ठसंख्याः गुणगणमणिमालाए... ... जह तारायणसहियं... ... २८८ गुणगणविहूसियंगो ... ... ३७५ जह दीवो गब्भहरे... ... गुणठाणमग्गणेहि ... ... जह पत्त्थरो ण भिज्जइ २४२ जह फणिराओ रेहइ चउविहविकहासत्तो ... १३९ जह फलियमणिविसुद्धो ... चउसद्विचमरसहिओ ... जह फुलं गंधमयं ... ... चक्कहररामकेसव ... ... जह बीयम्मि य दड़े ... चरणं हवइ सधम्मो ... जह मूलम्मि विणढे चरियावरिया वद ...... जह मूलाओ खंधो... ... चारित्तसमारूढो ... ... जह रयणाणं पवरं ... ... २३१ चित्ता सोही ण तेसिं जह सलिलेण ण लिप्पइ ... चेइय बंधं मोक्खं ... ... जाणहि भावं पढमं... ... १३१ जाव ण भावहि तचं ... छज्जीवछडायदणं जिणणाणदिहि सुद्धं... ... ३२ छद्दव्व नवपयथा ... ... १८ जिणबिंब णाणमयं ... ... ८४ छायालदोसदूसिय ... जिणमग्गे पव्वजा ११९ जिणमुदं सिद्धिसुह... जइ दंसणेण सुद्धा ... ... जिगवयणमोसहमिणं ... जदि पठदि बहुसुदाणि जिणवरचरणंबुरुहं ... ... २९४ जरवाहिजम्ममरणं... ... जिणवरमएण जोई ... ... जरवाहिदुक्खरहियं जीवविमुक्को सवओ जलथलसिहिपवणंबर ... जीवाजीवविहत्ती ... ... जस्स परिग्गहगहणं ... जहजायरूवरूव ... ... ३६८ जीवाणमभयदाणं ... ... जहजायरूवसरिसो... ... जीवादी सद्दहणं ... ... जह जायरूवसरिसा ... ११६ जीवो जिणपण्णत्तो... ... २०७ जह ण वि लहदि ... ... | जे के वि दव्वसवणा ... २७० जह तारयाण चंदो... ... २८७ । जे झायंति सदव्वं ... ... २४८ ه م م १०३ م م १४१ ६५ ३३० २८२ م ८८ می ___ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाः जेण रागे परे दव्वे जे दंसणेसु भट्ठा " 29 "" जे पाव मोहिम ::: जे पि पडति च जे पुण विसयविरत्ता जे पंचचेलसत्ता जे रायसंग जुत्ता जे वावीसपरीसह जेसिं जीवसहावो जो इच्छइ निस्सरिदु जो कम्मजादमदिओ जो कोडिएण जिप्पइ जो को वि धम्मसीलो जो जाइ जोयणसयं जो जीवो भावंतो . ... ... 39 ... ... जो देहे णिरवेक्खो जो पुण परदव्वओ जो रयणत्तयजुत्तो जो सुत्तो ववहारे जो संजमेसु सहिओ जं किंचि कयं दोसं... जं चरदि सुद्धचरणं जं जाणइ तं गाणं... ... ... 39 33 33 जं जाणिऊण जोई... ... '' 33 33 जं निम्मलं सुधम्मं... ... पृष्ठसंख्याः ३५६ ... ... ... ... ... ... *** ... ... 8.0 ... ce ... ... ... ... ... ... ... ... ७ १२ ३६० झ १४ झायहि धम्मं सुक्कं ३५४ | झयहि पंचवि गुरवे ण ३६१ २१५ ६१ २०८ ३२१ ३४६ ३१९ ७ णग्गत्तणं अकज्जं णमिऊण जिणवरिंदे मऊणय तं देवं ... ण मुयइ पयडि अभव्वो वोकसायवरगं णवविहवंभं पहि विएहिं जं विज्जइ विदेहो वंदिज्जइ ३१८ २०६ ण वि सिज्झइ वत्थ ३१२ णाणगुणेहि विहीणा... ३१५ | णाणमिदंसणम्मि णाणमयविमलसीयल णाणमयं अप्पाणं ३३१ ३९४ ६१ २५५ ८० गाथा: जं मया दिसदे रूवं जं सकइ तं कीरइ ... जं सुत्तं जिणउत्तं ३२ ३२७ - ३०५ ३३० ९२ ... गाणं णरस्स सारो णाणं दंसण सम्म णाणं पुरिसत्स णामे ठवणे हि य ... णाणावरणादीहि य... *** णाणी सिवपरमेट्ठी नाणेण दंसणेण य... गाणं चरितहीणं ... ... ... ... पृष्ठसंख्याः ३२३ २० ५८ ... : : :: 446 ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... : 460 २६९ २७३ २०२ १२८ ३०४ २८४ २३८ २४५ ३७५ ३२ ६७ ५४ २५ २७४ ३०४ २६७ २९२ २४ ३४७ २५ ३० ८८ ९२ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P r परस एप ... २६३ mr ३१० ४४ २१० m गाथाः पृष्ठसंख्याः । गाथाः पृष्ठसंख्याः णिग्गंथा णिस्संग्गा ... ... तेरहमे गुणठाणे ... ... णिच्छयणयस्स एवं ते रोया वि य सयला १५३ णिण्णेहा णिल्लोहा ... ... ११५ तं चेव गुणविसुद्धं ... ... गिदाए पसंसाए ... ... तं विवरीओ बंधइ... ... णियदेहसरिस्सं ... ... णियसत्तीए महाजस ... २५४ थूले तसकायवहे णिस्संकिय णिक्कंखिय ... दह्रण य मणुयत्तं ... तच्चरुई सम्मत्तं ...... | दढसंजममुद्दाए ... ... तवरहियं जं णाणं ... ... दम्वेण सयलनग्गा तववयगुणेहिं दस दस दो सुपरीसह २४१ दसपाणा पज्जत्ती ... ... १०४ तस्स य करह दसविहपाणाहारो ... ... २८१ ताम ण णजइ अप्पा | दिक्खाकालाईयं २५८ तित्थयरगणहराइ ... दियसंगट्ठियमसणं ... तित्थयरभासियत्थं... दिसिविदिसिमाण ... तिपयारो सो अप्पा दुइयं च वुत्तलिगं ... ... तिलओसत्तनिमित्तं दुक्खे णजइ अप्पा... तिहि तिण्णि धरवि' दुज्जणवयणचडक्कं ... ... तिहुयणसलिलं दुट्ठकम्मरहियं ...... तुसमासं घोसंतो ... २०० दुविहं पि गंथचायं ... १४ तुह मरणे दुक्खेणं ... १४० दुविहं संजमचरणं ... ४२ ते चिअ भणामिहं जे देहादिचत्तसंगो ... ... १५६ ते धण्णा ताण णमो ... २७८ | देहादिसंगरहिओ ... २०३ ते धण्णा सुकयत्था | देव गुरुम्मि य भत्ता ते धीरवीरपुरिसा | देव गुरूणं भत्ता ... ... ते मे तिहुवणमहिया | देवाण गुणविहूई ... ... तेयाला तिणि सया ... १५२ / दंडयणयरं सयलं ... ... १८३ 2 ... ... १५४ 0 m ० ... ११९ MY mr १४२ २९६ M r ... २९८ १३८ M ० Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: दंसण अणतणाणं दंसण अनंतणाणे दंसणणाणचरित् दंसणणाणचरितं दंसणणाणावरणं दंसणभट्ठा भा दंसणमूलो धम्मो : : : ⠀⠀⠀ दंसण वय सामाइय दंसणसुद्धो सुद्धो दंसेइ मोक्खमगं ... 300 ... ... ... 5: ध घणघण्णवत्थदाणं ण ते भयवंता धम्मम्मि निप्पवासो ... धम्मो दयावसुद्धो .. धुवसिद्धी तित्थयरो SAR न नग्गो पावइ दुक्खं ... निrie मोहमुक्का निचेलपाणिपत्तं निरुवमचलमखोहा *** ... पडिदेससमय पुग्गल पढिएण वि किं कीरइ पयहि जिणवरलिंगं पयलिय माणकसाओ परदव्वरओ बज्झइ परदव्वादो दुगई पृष्ठसंख्याः 404 ... ... ... ... ... 003 ... ... ... ... ... We गाथाः ८१ परमप्पय झायंतो ९५ परमाणुपमाणं वा २० परिणामम्मि असुद्धे ५३ | पव्वज्जसंगचाए २९० पसुम हिल संठसंग ४ पाऊण णाणसलिलं.... २ "" " ४२ पाणिवहेहि महाजस ३२९ | पावं खवइ असेसं ... ८३ | पावंति भावसवणा पावं पयइ असे सं पास्त्थभावणाओ पाखंडी तिष्णि सया २१४ | पित्तंतमुत्त फेफस १११ २९८ ९१ पीओ सि थणच्छीरं २२१ ३६१ ६१ ८२ ,, ३४९ पुरिसायारो अप्पा पंचविह चेलचायं पंचसु महत्व दे ... १५१ २१० २१३ पंचिदियसंवरणं २१९ | पंचेणुव्वाइं ... ... पुरिसो वि जो समुत्तो पूयादिषु वयसहियं. पंचमहव्वयजुत्ता पंचमहव्व यजुत्तो *** ... ... " 33 "" पंच वि इंदियपाणा... ... D ... ... ३१४ ३१५ | बलसोक्खणाणदंसण 600 ब पृष्ठसंख्याः ३४१ ३५५ १३१ ate ... ... ... ... *** ... ... ... 43. 500 ... ... ... : : : ३८ १२० ५३ २४० २८२ २५६ २४७ २६३ १३७ २८६ १५३ १४० ३६३ ५८ २३२ १०८ ६६ ३२५ १०२ २३० ३५८ ४६ ४४ २९१ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GS ० 6 AM गाथाः पृष्ठसंख्याः | गाथाः पृष्ठसंख्याः बारसविहतवयरण ... २२१ भावो य पढमालिंग... ... १२८ बहिरत्थे फुरियमणो ३१० भावो वि दिव्व सिव... ... २१७ बहुसत्थअत्थजाणे ... ... ७१ | भीसणणरयगईए ... ... १३२ बारसअंगवियाणं ... १२७ भंजसु इंदियसेणं ... ... २३८ बाहिरलिंगेण जुदो ... ... ३५० बाहिरसयणत्तावण ... ... २६१ मइधणुहं जस्स थिरं... बाहिरसंगच्चाओ ... ... २३७ मच्छो वि सालिसित्थो बाहिरसंगविमुक्को ३७२ मणवयणकायदव्वा... ... बुद्धं जं बोहंतो ....... ७८ मणुयभवे पंचिदिय १०३ ममत्तिं परिवज्जामि २०४ भरहे दुस्समकाले ... ... ३५९ मयमायकोहरहियो ... ३३२ भवसायरे अणंते ... ... १४१ मयरायदोसमोहो ... भव्वजणबोहणत्थं ... मयरायदोसरहियो ... ... १०५ भावरहिएण सउरिस मलरहिओ कलचत्तो भावरहिओ न सिज्झइ १३० महिलालोयणपुव्व ... ... ५० भावविमुत्तो मुत्तो ... ... महुलिंगो णाम मुणी भावविसुद्धिनिमित्तं ... मायावेल्लि असेसा ... २९९ भावसवणो य धीरो मिच्छत्तछणदिट्ठी ... २८४ भावसवणो वि पावइ मिच्छत्त तह कसाया भावसहिदो य मुणिणो | मिच्छत्तं अण्णाणं ... ... ३२३ भावहि अणुवेक्खाओ मिच्छाणाणेसु रओ... भावहि पढमं तच्चं मिच्छादिट्ठी जो सो... भावहि पंचपयारं ... मिच्छादंसणमग्गे ... ... ३९ भावेण होइ णग्गो... २०१ मूलगुणं छित्तूण य ... ... , , , ... मोहमयगारवेहि य .. ... २९९ ,, ,, लिंगी ... ... १८३ । मंसट्ठिसुक्कसोणिय ... ... १५५ भावेह भावसुद्धं ... ... २०५ । रयणत्तयमाराहं ... ... ३२६ ३०७ - १३० १८७ م م mmm my २१६ ___ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाः ه ه १२६ ه :: ه م ३५८ ure पृष्ठसंख्याः गाथाः पृष्ठसंख्याः रयणत्तयं पि जोई ... ... ३२७ सद्दहदि य पत्तेदि य ... २३३ रयणत्ते सुअलद्धे ... ... १४५ सपरज्झवसाएणं ... रूवत्थं सुद्धत्थं ... ... सपरा जंगमदेहा ... सपरावेक्खं लिंगं ... लिंग इत्थीण हव दि... सम्म गुण मिच्छ दोस लिंगम्मि य इत्थीणं सम्मत्तचरणसुद्धा ... ... व सम्मत्तणाणदंसण ... ... वच्छल्लं विणएण य सम्मत्तणाणरहिओ वयगुत्ती मणगुत्ती ... सम्मत्तरयणभट्ठा ... ... वयसम्मत्तविसुद्धे सम्मत्तविरहिया ... ... वरवयतवेहि सग्गो... सम्मत्तसलिलपवहो ... वालग्गको डिमत्तं ... ... सम्मत्तादो णाणं ... ... १५ विणयं पंचपयारं ... ... २५४ । सम्मतं जो झायदि ... वियलिदिए असीदी ... १४५ सम्मत्तं सण्णाणं विवरीयमूढभावा ... ... ११७ सम्मइंसण पस्सदि... विसयकसाएहि जुदो ३३३ सम्मदसण पस्सइ ... विसयविरत्तो समणो | सम्माइली सावय ... ... ३७० विसवेयणरत्तक्खय... ... सयलजणबोहणत्थं ... विहरदि जाव जिणिंदो... सवसा सत्तं तिथं ... ... वेरग्गपरो साहू ... ... ३७४ सव्वण्हू सव्वदंसी ... ... ३० वंदामि तवसमण्णा... .... सव्वविरओ वि भावहि · ... सव्वासवणिरोहेण ... ... सग्गं तवेण सव्वो ... ३१९ सव्वे कसाय मोत्तु सच्चित्तभत्तपाणं ... सहजुप्पणं रूवं ... ... २१ सत्तसुनरयावासे ... १३३ सामाइयं च पढमं ... सस्तमित्ते व समा ... १११ साहति ज महल्ला... ४८ सहव्वरओ सवणो ... ... ३१४ सिद्धो सुद्धो आदा ... ... ३२६ सवियारो हुओ ... ... १२६ । सिद्धं जस्स सदत्थं... ... " ० १४३ १ १०७ २४३ ३२४ ३२१ २५३ ___ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाः २६६ पृष्ठसंख्याः गाथाः पृष्ठसंख्या: सिवमजरामरलिंगं ... ... . ३०१ से यासे यविदण्डू ... ... १६ सिसुकाले य अयाणे ... १५४ सेवहि च उविलिंग सीलसहस्सद्वारस ... ... सो पत्थि तं पएसो १८२ सुण्णहरे तरुहि ... ... १०६ | सो त्यि दवसवणो १४९ सुण्णायारनिवासो ... ... ४९ / सो देवो जो अन्थ... सुत्तत्थपयविणठो ... ... ५९ संखिज्जमसंखिज्ज ... सुत्तत्थं जिणभणियं ... संजमसंजुत्तस्स य ... सुत्तम्मि जं सुदिहूँ ... ... ५६ सुत्तं हि जाणमाणो... ... हरिहरतुल्लो वि. ... ५७ हिमजलणसलिल. ... ... सुभजोगेण सुभावं... ... ३४५ हिंसारहिए धम्मे ... सुरनिलएसु सुरच्छर ... १३५ | हिंसाविग्इ अहिंसा... सुहेण भाविदं गाणं ... ३५० होऊण दिढचरित्ता... ... १६७ - इति मूलानुक्रमणिका। - Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - m षट्प्राभृतटीकोक्तोद्धरण-श्लोकानामकारादिक्रमेण सूची। कतुर्नाम ग्रन्थनाम पृष्ठसंख्याः । अइकुणउ तवं श्रीदेवसेनसूरिः आराधनासारे अफालको महा इन्द्रनन्दी नीतिसारे १५१ अकिंचनोऽहं गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने ११४ ३१२ अकोहणो अलोहो गौतमर्षिः प्रतिक्रमण सूत्रे अग्निवत्सर्वभक्ष्यो अङ्गं यद्यपि योषितां २७१ अनन्नपि भवेत् सोमदेवसूरिः - यशस्तिलके ३०२ अजस्तिलोत्तमा सामदेवसूरिः यशस्तिलके १०२ अजाकृपाणीय गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने २५८ अट्ठत्तीसद्धलवा ३४४ अण्णाणादो मोक्खं ११८ अणिमा महिमा... अतिक्रमो मानस अत्यल्पा यति सोमदेवसूरिः यशस्तिलके अथ देवेन्द्र श्रुतसागरसूरिः अत्रैव ग्रन्थे अथिरेण थिरा... २५९ अदृष्टं किं किमस्पृष्टं २०१ १३८ २६८ ९ . . यशस्तिलके अष्टविग्रहाच्छान्ता अनाश्वनियता अनाए दालिद्दियह (अन्येषां) जिनसेनाचार्यः लक्ष्मीधरः २९४ १२५ १४४ ... ___ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्वान्तं वदन अन्यच्च बहुवाग्जाले अन्यूनमनतिरिक्तं 39 अन्यलिंगकृतं पापं पूजयित्वा यो अभयदाणु अभावियं भावे मि अच्चरणपर्या 29 अलकवलयरम्यंं अलंघ्यशक्तिर्भुवि अशोकवृक्षः सुर "" अश्रूपातश्च दुःखेन अश्रोत्रीव तिरस्कृता आ आचार आकृष्टोऽहं हतो "" आकंपिअ अणु " "" "" ... आचारवान् आज्ञाभिमानमुत्सृज्य आज्ञामार्ग "" ... गुणभद्राचार्य: जिनसेनाचार्यः समन्तभद्रस्वामी सोमदेवसूरिः गौतमर्षिः समन्तभद्रस्वामी $39 23 सोमदेव सूरिः समन्तभद्रस्वामी ... *** ११ वीरनन्दी गुणभद्राचार्य: आ गुणभद्राचार्यः ,, शिवकोटिः ... "" शुभचन्द्राचार्यः "" "" " ... ... "" 100 जिनसेनाचार्यः मुणभद्रभदन्तः आत्मानुशासने महापुराणे रत्नकरण्डके ... " ... यशस्तिलके ... प्रतिक्रमणसूत्रे रत्नकरण्डके "" यशस्तिलके । स्वयंभुवि शांतिपाठे " आचारसारे आत्मानुशासने आत्मानुशासने 32 ज्ञानार्णवे "" भगवत्याराधनायां "" " " महापुराणे आत्मानुशासने " १५४ १२६ ५२ ३३० ३६१ ८५ २८३ २८१ ८० २३२ ३४५ ११४ २९ १०० २५३ २८१ १३ १२२ ११७ २५७ २२३ २५५ २६९ १२५ १२ १२१ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाज्ञासम्यक्त्व गुणभद्रभदन्तः ___ आत्मानुशसाने १२१ २५८ आतङ्कपावक ... आतङ्कशोक ... आत्मकृतं परि अमृतचन्द्रसूरिः पुरुषार्थसिद्धयुपाये २८१ २६४ ३८१ आत्मनात्म ... आत्मनि मोक्षे आत्मशुद्धिरियं ... आत्मा भिन्न सोमदेवसूरिः यशस्तिलके २०० ३५० ११६ ३११ गुणभद्राचार्याः आत्मानुशासने आत्मा मनीषिभि आद्यास्तु षट् ... आपगासागर आयुष्मान् समन्तभद्रस्वामी सोमदेवसूरिः रत्नकरण्डके यशस्तिल के आरोगमुक् ... आरंमे णत्थि .... आवलि असंख... ४० ३४४ १४४ आशागतः आशा दासी ... गुणभद्राचार्यः ... ... आत्मानुशासने ... ... १४४ ... ... पूज्यपादस्वामी इक्कहि फुल्लहिं इक्षोर्विकार इरिथविषयाहिलासो इत्थीणं पुण दिक्खा इत्थं भवन्त २४६ देवसेनसूरिः दर्शनसारे कान्तः ... ___ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م १३८ १२५ २१३ उज्झितानेकसंगीत जिनसेनावार्यः महापुराणे उदीचां श्रीमती उद्यानादिकृतां जिनसेनावार्यः महापुराणे उद्युक्तस्त्वं गुगभद्राचार्यः आत्मानुशासने उपयान्ति समस्त सुलोचनाकान्तः ... उपवासफलेन प्रभाचन्द्रदेवः ... ... उववासहो एक्कहो ..... उवसंतखीणमोहो नेमिचन्द्रादयः गोम्मटसारादिषु ३०८ سه له سه २४५ . एकवारं एक्कहि फुल्लहि و ... ... ... १३३ سم سم एका जीवदयै एकादशके एकापि समर्थेयं सोमदेवसूरिः सोमदेवसूरिः , यशस्तिलके यशस्तिलके و १३२ २६४ २४० २५२ एक्कावनकोडीओ एतद्दोषविहीनान 'एदे खलु मूल एयंत बुद्धदरिसी .. वीरनन्दी आचारसारे गौतमर्षिः प्रतिक्रमणसूत्रे नेमिचन्द्रसैद्धान्ती ___ जीवकाण्डे ११८ 'एयं सत्यं सव्वं एलाचार्यः पूज्य त्रिलोकसारे नीतिसारे इन्द्रनंदी १५१ कच्छं खेत्तं वसही देवसेनसूरिः दर्शनसारे १११ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिलो यदि सोमदेवसूरिः यशस्तिलके २०७ ३४८ सोमदेवसूरिः जिनसेनाचार्यः यशस्तिलके महापुराणे १२४ २७२ १०२ कम्मई दिढघण कर्णावतंसमुख कर्शयन् मूर्ति काकः कृमि ... कान्दी कैल्विषी कायवाक्यमनसां काले कल्पशते किमत्र बहुनोक्तेन कुदेवगुरुशास्त्राणां केण य वाडी वाहिया कौपीनोऽसौ ... क्षुच्छांत्यावश्यक क्षुत्पिपासाजरा शुभचंद्रयोगी समन्तभद्रस्वामी स्वयंभूस्तोत्रे रत्नकरंडके जिनसेनाचार्यः महापुराणे ३४ ... . २५२ वीरनन्दी __आचारसारे समन्तभद्रस्वामी रत्नकरण्डके २९४ १२५ जिनसेनाचार्यः जिनसेनाचार्यः महापुराणे महापुरण्णे-.. १२३ १५ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्ग क्षेत्राज्ञे तत्सभा क्षेत्रं वास्तु धनं क्रमाद्वात्रिंश क्रियते भोजन कचित्कालानु m २०३ इन्द्रनन्दी नीतिसारे नीतिसारे १३८ ११३ ६५ खलानां कण्टकानां खण्डनी पेषणी चुल्ली ... २३३ ३१३ गङ्गाद्वारे ... गायकस्य तलारस्य इन्द्रनन्दी नीतिसारे ११२ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ यशस्तिल के गुणग्रामविलोपेषु गुणेषु दोष ... गुल्फोत्तान गूथ कीटो गृहशोभां कृता गोपुच्छिकः श्वेत सोमदेवसूरिः ... सोमदेवसूरिः यशस्तिल के २७२ ३५२ ११६ २७२ १२५ जिनसेनाचार्यः इन्द्रनदी महापुराणे नीतिसारे गोपृष्ठान्त सोमदेवसूरिः यशस्तिलके सुलोचनाकान्तः ३०८ घटयन्ति न विघ्न च चक्किकुरुफणि चक्रिणां कुरु चक्र विहाय ... चतुःसंघसंहिता चतुःसंध्यां नरो चतुर्लक्षाः सह... चर्मपात्रगतं चित्तस्थमप्य चिन्तादिक्षा ... चित्रालेखन नेमचन्द्रसैद्धान्ती त्रिलोकसारे ... ... ... ... .. ... ... इन्द्रनन्दी , नीतिसारे २९२ १५७ . १३६ शिवकोटिः __ गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने २४६ सोमदेवसूरिः यशस्तिलके ३४५ जन्मजरामय जसु हिरणच्छि समन्तभद्राचार्यः योगीन्द्रदेवः रत्नकरण्डके परमात्मप्रकाशे ३९ जिनसे नस्वामी आदिपुराणे जात्यादिकानिमान् जातिमानप्य जातिमूर्तिश्च जातिरैन्द्री भवेद् १२३ १२३ १२३ १२३ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वीरनन्दी आचारसारे जा निसि सयलह जानुदेहादधःस्पर्श जिण पुज्जहि जीवकृतं परिणाम ३२५ २५३ १३३ ३११ अमृतचन्द्रसूरिः पुरुषार्थसिद्धयुपाये ३४२ जिनसेनाचार्यः महापुराणे ... १२६ जीवा जिणवर जैनेश्वरी परामाज्ञा जं मुणि लहइ जं सक्कइ तं ज्ञात्वा योग्यमयोग्य ज्ञानकाण्डे क्रिया ज्ञानं पूजां कुलं ३२१ बारमारे .. २५३ वीरनन्दी आचारसारे सोमदेवसूरिः यतिलके समन्तभद्राचार्यः रत्नकरण्डके ज्ञानं पंगो क्रिया .१०८ णवकोडिसया णाणविहीणहं णाम जिणा णिच्चिदरधादु नेमिचद्रसैद्धान्ती गोम्मटसारे वीरनन्दी ... सोमदेवसूरिः जिनसेनाचार्यः आचारसारे ... ... यशस्तिलके महापुराणे २५२ २९२ २०७ १२५ ततः शरीरसंवृद्धयै तत्रिकालभवात् तदर्हजस्तनेहातो तपोयनुमपानक्तः तपोविगाहनादस्य त्यक्तकामसुखो स्यक्तशीतातपत्राण त्यक्तस्नादि यक्त्वात्रवस्त्र १२५ १२४ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्राचार्यः स्वयंभूस्तोत्रे mr त्वमसि सुरासुर तित्थयरा तप्पियरा तिलमध्ये यथा तृष्णा भोगेषु ते चिअ धण्णा तें कारणि जिय vur v. गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने ३१८ ३४९ थावरवेयालीसा ... ... २४४ १९ समन्तभद्राचार्यः इन्द्रनन्दी रत्नकरण्डके नीतिसारे ११२ दर्शनं ज्ञानचारित्रा दीनस्य सूतिका दुर्लक्ष्यं जयति दुष्ठमन्तर्गतं दृग्वृत्तसूत्रबोध हतिप्रायेषु देवहं सस्थहं देवाधिदेवचरणे टीकाकर्तृ ... सोमदेवसूरिः योगीन्द्रदेवः समन्तभद्राचार्य: यशस्तिलके परमात्मप्रकाशे रत्नकरण्डके २३४ ० २३२ ८१ नेमिचन्द्रसैद्धान्ती द्रव्यसंग्रहे इन्द्रनन्दी नीतिसारे १२९ देवा वि य नेरइया दसणपुव्वं गाणं द्रव्यलिंगमिदं ज्ञेयं द्रव्यलिंग समास्थाय द्रुहिणाधोक्षजेशान द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः द्विषटतपास्तथा १२९ १०२ सोमदेवसूरिः ... ... ... यशस्तिलके ... ... ... ... २८३ - धात्रीवालासती धम्मो वत्थुसहावो २९६ ... ... ... २१५ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ३०२ न किंचित्पापाय न देवो विद्यते नलया बाहू य नवनवचतुः न सम्यक्त्वसमं नेमिचन्द्रसैद्धान्ती गोम्मटसारे श्रीदेवः ... ... समन्तभद्राचार्यः रत्नकरण्डके ११३ १०८ . २३९ १३६ w ३२० श्रुतसागरसूरिः अत्रैव ... 6 ० ८ नागफणीए मूलं नानाशास्त्रमहा नाममात्र कथया नित्यस्नानं गृहस्थ नियमो यमश्च निराभरण निवार्यतामालि निष्ठीवनं सदंष्ट्रा निःसंगोऽहं जिनानां नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले यशस्तिलके रत्नकरण्डके सोमदेवसूरिः समन्तभद्रस्वामी गौतमर्षिः कालिदासः वीरनन्दी ० २०७ - आचारसारे २५३ २२९ २७४ .... سه नेमिचन्द्रसैद्धान्ती द्रव्यसंग्रहे पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं गुभाग पयोव्रतो न दध्य परिणाममेव कारण पलितच्छलेन पादान्तरालात् पिच्छे ण हु सम्मत्तो पुण्यं जिनन्द्र पोलियहि पंचेन्द्रियाणि २६४ २१४ २६४ २८० सोमदेवसूरिः गुणभद्राचार्यः वीरनन्दी यशस्तिलके आत्मानुशासने आचारसारे . ढाढसीगाथासु २५३ १२ जिनसेनपादाः २३२ م م Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्धाष्टसहस्रेद्ध प्रहारो ग्रामदाहो प्रादिच्यौ विभजते प्राज्ञेन ज्ञातलोक प्राप्तोत्कर्षं तदस्य प्रेरिताः श्रुतगुणेन फ फुल्ल पुकारइ व बहु सत्थई बादरहमे गिंदिय बाल्ये वेत्सि न बाह्यग्रन्थविहीना "" 32 बिम्बादलोन ति बिल्वालाबु atre afte ... मद्यपलमधु मद्यमांससुरा मलीमसाङ्गो भयाशास्नेह भर्तारः कुलपर्व भवणव्विंतर भावविहूणउ भुक्तोज्झिता श्रूधनुर्दष्टयो ... 400 भ म जिनसेनाचार्यः वीरनन्दी ... वीरनन्दी जिनसेनाचार्य: पद्मनन्दी :. ... १९ ... ... गुणभद्राचार्यः ... ... पद्मनन्दी देव सेन सूरि : समन्तभद्रार्यः गुणभद्राचार्यः नेमिचन्द्र सैद्धान्ती ... पूज्यपादाचार्यः 2.0 सोमदेव पंडिता: पंडिताशाधरः पद्मनन्दी जिनसेनाचार्यः महापुराणे आचारसारे ... आचारसारे महापुराणे पंचविंशतिकायां ... ... ... आत्मानुशासने ... ... ... ... ... se *** ... रत्नकरण्डके आत्मानुशासने त्रिलोकसारे *** ... दर्शनसारे ... ... यशस्तिल के सागारधर्मामृते पंचविंशतिकायां महापुराणे १०४ २५३ ९४ ११३ १२६ ८९ ७८ २८४ २४४ १५५ १३० २३८ ७९ ४६ ११० १४ ३ १०७ ३०२ १४२ ३५४ २७२ ४३ ४३ १२४ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y २५२ वीरनन्दी ... ... आचारसारे ... ... महोपसर्गातङ्का मान्य ज्ञानं तपो मानुष्यं सत्कुले मानुषीं प्रकृति मा भवतु तस्य मालतीव मिच्छा सासण ३४९ ११६ १०१ समन्तभद्रदेवाः स्वयंभूस्तोत्रे... शुभचन्द्राचार्याः नेमिचन्द्राचार्यः गोम्मटसारे ur G MP 95S m. mm 98 मिथ्यात्ववेद २०३ ११० इन्द्रनन्दी नीतिसारे १२९ मिथ्यात्ववेदी मिथ्याहग्भ्यो मुद्रा सर्वत्र मान्या " , मूढत्रयं मदाश्चा मूर्त्यादिष्वपि नेतव्या मैथुनाचरणे म्लापयन् स्वाङ्ग १२३ जिनसेनाचार्यः शुभचन्द्राचार्याः जिनसेनाचार्यः महापुराणे ज्ञानार्णवे महापुराणे १२४ इन्द्रनन्दी नीतिसारे ३४९ यच्छास्त्ररचितं यज्ञार्थं पशवः यथा चतुर्भिः यदज्ञानेन जीवेन यव्याहन्ति न यशोमारीचीयं यस्मिन् सर्वाणि यः श्रुत्वा द्वादशां २९१ पंडिताशाधराः गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने ...उपनिषदि आत्मानुशासने ३५७ गुणभद्रभदन्ताः १३ १२२ याचकजनकल्प श्रुतसागरसूरयः षप्राभृतटीकायां Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतमर्षयः यावन्ति जिनचैत्या ये गुरु नैव मन्यन्ते २२ ११३ रजकस्तक्षकश्चैव रजसेदाणमगहणं शिवकोट्याचार्याः भगवत्याराधनायां वट्टकेरलाश्च मूलाचारे च वीरनन्दी आचारसारे सोमदेवसूरिः यशस्तिलके रसपूयास्थिमांसा रागादिदोष २५३ १०३ ३६८ लीलाविलास सोमदेवसूरिः यशस्तिलके ३४५ १२५ गौतमर्षयः प्रतिक्रमणे जिनसेनाचार्याः महापुराणे समन्तभद्रस्वामिनः रत्नकरण्डके पद्मनन्दी २१३ __शुभचन्द्रदेवाः ... ३१४ समन्तभद्राचार्यः रत्नकरण्ड के वदसमिदिदिय वन्दित्वा वन्द्यमह वधबन्धच्छेदादे वनशिखिनि मृतो वनेऽपि दोषाः वरमालिंगिता वरिससयदिक्खि वरोपलिप्सया वरं गार्हस्थ्य वरं व्रतैः पदं देवं वरं स्वहस्तेन वाग्गुप्तो हितवागू बारह अंगंगिज्जा विभावसोरिवोष्ण विविधव्यजनत्यागा वीरचर्या च ... वृष्टयाकुलः ... पूज्यपादाचार्याः ... ... इन्द्रनन्दिनः जिनसेनाचार्यः महापुराणे ११३ १२५ ० जिनसेनाचार्याः महापुराणे २०७ १२४ २७३ ___ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M २०३ ... ... ... ... समन्तभद्राचार्यः रत्नकरण्डके ه 5 सुलोचनाकान्तः ... १३८ ३०८ ... वैयावचे विरहिउ व्यापत्तिव्यपनोदः श शची पद्मा शिवा शमिताखिल शल्यमणिस्खलदन्तः शालिको मालिकः शास्त्रं शास्त्राणि... श्रीभबाहुः श्रीचन्द्रो श्रीमत्स्वामिसमन्त श्रीमल्लिभूषण १३५ इन्द्रनन्दी नीतिसारे م م १९२ م इन्द्रनन्दी श्रुतसागराः नीतिसारे अत्रैव م mm به " श्रुतसागरेण ३०४ श्रेष्ठे बले स्थिर ... ३२९ ... ... ... षोडशाये सहस्राणि २४६ समन्तभद्राचार्यः जिनसेनाचार्याः रत्नकरण्डके महापुराणे .. ३३ १९७ सकारपुरकारो सग्रन्थारंभहिंसा सज्जातिः सद्गृहस्थ सत्तालोचनमात्र - सन्तोषकारी समन्तभद्रः श्रीकुंभः समसुखशीलित इन्द्रनन्दी नीतिसारे अमृतचन्द्रसूरिः ... स महाभ्युदयं प्राप्य सम्मं चेव य भावे सम्यग्दर्शनसंशुद्ध जिनसेनाचार्याः महापुराणे कुन्दकुन्दाचार्याः ... समन्तभद्राचार्यः रत्नकरण्डके । २७१ १२४ १२२ २८८ ३२९ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्राचार्यः रत्नकरण्ड के ३२९ ३४३ गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने له م सम्यग्दर्शनशुद्धा सर्वपापास्रवे ... सर्व धर्ममयं सर्वः प्रेप्सति सर्वार्थसिद्धि सव्वण्हु अणि दियो م . अत्रैव १२ टीकाकर्ता अभिमानमेरुपुष्पदन्तः यशोधरचरिते ३४७ साम्यं स्वास्थ्यं पद्मनन्दी م سه जिनसेनाचार्यः महापुराणे १२३ सिंहासनोपधाने सीसु नमंतह सुखयतु सुखभूमिः س و समन्तभ रत्नकरण्डके ف سه w २९५ सुप्तोस्थितेन सूक्ष्मं जिनोदितं सूर्या! ग्रहण सेयंबरो य आसं भोजराजमहाराजः समन्तभद्राचार्यः सोमदेवसूरिः م م यशस्तिलके س م १२ م م संजमु सील संन्यस्ताभ्यां संसारे नरकादिषु २९७ ११६ गुणभद्राचार्यः आत्मानुशासने । سه م . . स्पृहा मोक्षेऽपि स्वगुणोत्कीर्तनं स्वयूथ्यान् प्रति स्वलक्षणमनिर्देश्य स्वामिष्टभृत्त्य स्वोचितासनभेदा स्वोपधानाद्यनाहत्य पद्मनन्दी जिनसेनाचार्यः समन्तभद्राचार्यः जिनसेनाचार्यः एकत्वसप्तत्यां महापुराणे रत्नकरण्डके महापुराणे २५८ ३४६ १२५ ३४४ १२४ १२५ १२४ १२४ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जिनसेनाचार्यः महापुराणे स्वं मणिस्नेह स्वं स्वापतेय स्वं साम्यमैहिक १२४ १२५ हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हृदये त्वयि हे चन्द्रमः होइ वणिज्जु न . सुलोचनाकान्तः ... गुणभद्राचार्यः ... ... ... ... आत्मानुशासने ... ३०८ २१७ ३५० समाप्तेयमनुक्रमणिका। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकसूत्रवाक्यानां सूची। पृष्ठसंख्याः गाथाः गाथाः पृष्ठसंख्याः ३० नाम्युपध २९३ अजेर्वीः अन्यार्थे अष्टौ स्था अंडज वा अवधार पर परि पापक्रिया २९४ m ब इणजिक ब्रह्मणे उच्चारल उत्तमसं भूप्राप्ता ३०६ २ २ एकस्य नि . २०४ मार्गाच्यव मूढस्य कृत्ययुटो क्रोधलोभ क्षुत्पिपासा ३४१ यस्मै दि युवजन घाए घाए ६८ १० घोलिय २४२ च चिअचे विषेः किच्च व्याख्यान र ज्यनुबन्ध तत्वार्थ तुआण तुणा ... तुमत्तूआण ३२८ शक्तितस्या ... ३३२ २५५ स यदा सुंतो हिंतो ... २२० ३१२ । हजित्था ... ८ दर्शनवि द्वन्द्वं कल ... ... ... Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगशीलप्राभृत-रयणसार-द्वादशानुप्रेक्षाणां अकाराद्यनुक्रमणिका। ३९९ ४४२ ... ४०४ . . ४०३ इगतीससत्तचत्ता ... ... ४०३ इच्छियफलं ण लब्भइ इदि णिच्छयववहारं इदि सजणपुजं ... ... इंदियविसयसुहाइसु इय लिंगपाहुडमिणं... ... ४०६ इह णियसुवित्तबीयं... ... ० ४२४ ४१९ ० ३८४ ३९६ . ४३८ अजवसप्पिणिभरहे ... " ,... ... ". , ... अज्झयणमेव झाणं अहीही पडिबद्धं ... ... अणयाराणं वेज्जा ... अण्णाणी वियसविरत्ता ... अण्णो अण्णं सोयदि अण्णं इमं सरीरा ... ... अद्भुवमसरणमेगत्त अप्पाण णाणझाण ... अप्पाणं पि ण ... अरहंते सुहभत्ती ... अरुहा सिद्धाइरिया... अवसप्पिणिउस्सप्पिणि अवियप्पो णिइंदो ... अविरददेसमहव्वइ असुहादो णिरयाऊ... असुहेण णिरयतिरियं असुहेदरभेदेण दु ... आ आदे हि कम्मगंठी... ... आरंभे धणधण्णे ... आसवहेदू जीवो ... ... ४०९ ४२८ ३९० ४४० उग्गो तिव्वो दुट्ठो ... ... उत्तमखमदम ... ... उत्तमपत्तं भणियं ... उदधीव रदणभरिदो उप्पज दि सण्णाणं ,.. उप्पडदि पड दि ... उयरग्गिसमण ... उक्समई सम्मत्तं ... उवसमभवभावजुदो ... उवसमणिरीहझाण ... ... उह्यगुणवसण ... ... ... ... ३८२ ४१५ ४१२ ४२२ ४१६ ४०६ ४१६ ४०४ ४३२ ३८९ एक्कु खणं ण ... ... ४०२ ४१३ एक्को करेदि कम्मं... ... ४३५ 'एक्को करेदि पावं... ... ४२७ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्को करेदि पुण्णं एक्को णिम्ममो एयारसद सभेयं एयंत विणयविवरिय एवं जायदि गाणं एवं बहुप्पयारं एवं सहिओ मुणिवर क ... ... कतकफलभरिय कम्मणिमित्तं जीवो... कम्मादविहाव सहाव कम्मासवेण जीवो कम्मु ण खवेइ कम्मुदयजपज्जाया कलहं वादं जूआ काऊ णमोकार कामदुहिं कप्पतरु काय किले सुवासं कालमत्तं जीवो किण्हादितिणि लेस्सा किं जाणिऊण सयलं किं पलविएण बहुणा किंपायफलं पक्कं ... किंबहुना वचणेण किंबहुना हो जि किंबहुना हो देव कुतवकुलिंगिकुणाणी कुमयकुसुदपसंसा कुलरूवजा दिबुद्धिसु ... ... ⠀⠀ ... ... ... ... ... ... ... *** *** ... ... 940 ... ... ... *** ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... २७ ४२७ कुसलस्स तवो णिवण ४२८ कोहुतिस्स पुणो ४३४ | कोहेण य कलहेण य ४३७ कोहो माणो माया... ४४१ कंखा भावणिवित्ति ३९० | कंदप्पमाइयाओ ३८३ च उगइसंसारगमण 830 449 खय कुद्रमूलसूलो ४०३ खाई पूजा ला ४३१ खुद्दो रुद्दो रुट्टो खेत्तविसेसे काले ४१८ ४३५ - ४०९ ४४० गयहत्थपायनासिय गिण्हृदि अदत्तदाणं ३८१ गुणवयतवसमपडिमा ३८० गुरुभत्तिविहीणाणं ४०३ गंथमिणं जो ण दिट्ठ ४०९ च ४२३ ४३४ चम्मट्ठिमंसलव ४१७ चलमलिणमगाढं ४४१ ४१८ ४२३ जइ णाणेण विसोहो ४२० जइ विसयलोल ४२२ जण कुइ पावं ४०१ जम्मसमुद्दे बहुदो ३८७ | जलबुब्बुदसक्कघणू ४३८ । जसकित्तिपुण्णलाहे.. ख .. ... 4: ग ... ... चोराण समाएण य... ज ... ... 4.9 ... :: ... ... ... *** ... : :: ... 404 *** :: ... ... ... ... *** ... ... ... 010 ४२२ ४३८ ४१५ ४३४ ४३९ ३८२ ३९९ ४१७ ४०१ ३९६ ३९९ ३८२ ४२२ ४०८ ४२४ ४२० ४१४ ४३६ ३८१ ३९० ३९० ४३१ ४३५ ४२५ ३९८ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ण वि जाणइ ... و ४०० ४०० ४१७ ४१४ ل م ४०९ ه ० م ه ४२४ ४१० م ي u م و r م ::::::::::::::::: ४२२ ३८७ जह कंचणं विसुद्धं ... ... जह विसयलुद्ध ... जाइजरमरणरोग ... जाए विसयविरत्तो जाव ण जाणइ जिणपूजा मुणिदाणं जिणलिंगधरो जोई जिणवयणगहिदसारा जिण्णुद्धारपदिट्ठा ... जीवणिवद्धं देहं ... जीवदया दम सच्चं... जीवस्स ण संवरणं... जीवादिपयट्ठाणं ... जे पावारंभरया ... जे पुण विसय ... जेसिं अमेज्झमज्झे... जोइसविजामंतो ... जो जोडदि विवाह जो पावमोहिदमदी जो मुणिभत्तवसेसं... ... जं जाइजरामरणं ... ... जं जं अक्खाण सुहं जंतं मंतं तंतं ... ३८८ س ::::::::::::::::::::::: ३८६ ج or م م ४१४ N ج ३८६ ण सहंति इयरदप्पं... ण हि दाणं ण हि ... ण हु दंडइ कोहाइ... णाणभासविहीणं ... णाणस्स गस्थि दोसो | णाणी खवेइ कम्म णाणेण झाणसिद्धी ... | णाणेण सणेण य ... णाणं चरित्तसुद्धं ... ... ३२ णाणं चरित्तहीणं ... ... णाणं झाणं जोगो ... णाणं णाऊण णरा ... ... णिक्खेवणयप्पमाण णिच्चिदरधादुसत्त य | णिच्छयववहार ... ... णिच्छयणएण जीवो |णिद्दडअट्टकम्मा... ... णिहिट्ठो जिणसमये जिंदा वंचणदूरो ... ३९८ णियतच्चुवलद्धि ... णियसुद्धप्पणुरत्तो ... ... णिरयाऊ जहण्णादिसु णिरया हवंति हेट्ठा णिव्वेगतियं भावइ... ur T... و ४१९ ४२३ س ४१३ ४१७ ४४० ३८० م ० ४२१ ४२८ ४१९ ४१२ م ० WWo A WWWW AM م ० سم سم سم ० णचदि गायदि ... णमिऊण वडमाणं णमिऊण सम्वसिद्धे णरइतिरियाइ दुरइ ... ... णरएसु वेअणाओ ... ... णवणिहि चउदह ... ... ४२५ ३८९ तच्चवियारणसीलो ... ... ४२६ / तणुकुट्ठी कुलभंगं ... ... ४११ ४०१ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ३८० ताव ण जाण दि ... तिव्वं कायकिलेसं ... तुसधम्मंतबलेण ... ३८५ धम्मेण होइ लिंगं ... ... ४१२ धरियउ बाहिरि ... ... धावदि पिंडणिमित्तं ... ४०५ ८९ ४२६ १९५ ३८३ ४१० ३९४ ३८१ दव्वगुणपजएहिं दव्वत्थिकायछप्पण दाणीणं दालिदं ... दाणु ण धम्मु ण ... दाणं पूजा मुक्खं ... दाणं पूजा सीलं .... दाणं भोयणमेत्तं ... दिण्णइ सुपत्तदाणं ... ... दिव्युत्तरणसरित्थ ... ... दुक्खे गजहि णाणं ... दुग्गंधं बीभत्सं ... देवगुरुधम्मगुणचा देवगुरुसमयभत्ता ... देह कलत्तं पुत्त देहादिसु आरंमे देहादो वदिरत्तो दंडत्तयसल्लत्तय दसणणाणचरित्ते ४११ ४१४ 44 mWp4wwwww पत्त विणा दाणं च... ... ४०४ पतिभत्तिविहीण सदी परमटेण दु आदा ... परसंतावयकारण ... पव्वजहीणगहिणं ... पवयणसारब्भासं ... पाओपहदभावो ... पारंपज्जाएण दु ... पावारंभणिवित्ती ... पिच्छे संथरणे ... ... पुच्छलि घरि जसु ... ... पुत्तकलत्तणिमित्तं ... ... ३९४ | पुत्तकैलत्तविदूरो ... पुरिसेण वि सहियाए ... पुव्वठियं खवइ ... ... पुव्वुत्तासवभेयो ... पुव्वं जिणेहि भणियं ... | पुव्व जो पंचेंदिय ... पुव्वं सेवइ मिच्छा... ... ... पूयफलेण तिलोए पंचमहव्वयमणसा ... पंचविहे संसारे ... Wws २ ३८९ ४१ W.wwwA ... ४०८ ४०६ ३८३ दसणभट्टा भट्टा दंसणवयसामाइय ... दंसण सुद्धो धम्मो... धणधण्णाइ ... ... ३९८ बहिरंतरप्पमेयं ... ... ४२१ धम्मज्झाणभासं ... .. ४११ बहिरभंतरगंथ ... ... ४२१ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० V ४०८ ४१५ m ० ४०७ ० ४१० ا m س बंधो णिरओ संतो... ... ३८२ | मोक्खगया जे पुरिसा ... ४४१ बंधपदेसग्गलणं ... ... ४३७ मोक्खणिमित्तं दुक्खं ... बहुदुक्खभायणं ... ... | मोत्तूण असुहभावं ... ... ४३५ बारसअणुवेक्खाओ ... ४४१ मोत्तूण कुडिलभावं... ... मोहु ण छिज्जइ ... भत्तिच्छिरायचोर ... भयवसणमलविवज्जिय रजं पहाणहीणं ... भुंजेइ जहालाहं. रत्तिदिवं पडिकमणं भुत्तो अयोगुलोसइयो रयणत्तयकरण ... ... ४२१ भूमहिलाकण्णाइ ... ... रयणत्तयमेव गणं ... ४२३ रयणत्तयस्स रूवे ... ४०५ मक्खिसिलिम्मे | रसरुहिरमंसमेद ... मणिमंतोसहरक्खा ... ... मदिसुदणाणबलेग ... ... रागो करेदि णिचं ... ३८३ मम पुत्तं मम भज्जा रागो दोसो मोहो ... ४३४ मयमूढमणायदणं ... रायाइमलजुदाणं ... ४१२ मलमुत्तघडव्व चिरं रूवसिरिगव्विदाणं ... मादापिदरसहोदर ४२८ मादुपिदुपुत्तमित्त ... ... ३९६ लावण्णसीलकुसला... ३९१ मिच्छत्तं अविरमणं.... लोइयजणसंगादों... मिच्छामइमय ... व मिच्छंधयार ... | वहेसु य खंडेसु ... मिच्छोदएण जीवो... वत्थुसमग्गो ४०७ मिस्सोत्ति बाहिरप्पा ४२१ , , मिहरो महंधयारो ... ४०२ वदसमिदिपालणाए... मूढत्तयसल्लत्तय ... ... वयगुणसीलपरीसह ... ४१७ मूलुत्तरुत्तरुत्तरुत्तर ... .... वरभवणजाणवाहण ... ४२५ मूलुत्तरपयडोओ ... ... वसहीपडिमोयरणे ... ... ४१४ मोवखगइगमणकारण ... ४२० । वाणरगद्दसाण ... ... ४०१ NOW و ० ३९४ م م KAN ० م ० م م م त्युसमग्गो ... م ४०७ ل م ا ४४० K ___ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v ... ... ४३९ mm w ४२५ वायरणछंद ... वारि एक्कम्मि य ... विकहाइवियप्पमुक्को विकहाइसु रुद्द ... विणओ भत्तिविहीणो विसएमु मोहिदाणं ... विसयकसायविणि ... विसयविरत्तो मुंचइ... वीरं विसालशयणं ... 0 ४१० ४१९ ४३९ 0 ३८५ ३८८ ३८७ सव्वे वि य परिहीणा ... ३८८ | सव्वंग पेच्छंतो ... ... ४१२ सा पुण दुविहा णेया ४०४ समग्गिदियरूवं ... ... ४०७ । सावयधम्मं चत्ता ... ... सालविहीणो राओ... सिविणे वि ण भुंजइ ४१८ सीदुण्ह वाउ पिउलं सीलगुणमंडिदाण... ... सीलस्स य णाणस्स ... सील तवो विसुद्धं ... सीलं रक्खताणं ... सुकुलसुरूव ... ... | सुणहाण गद्दहाण ... सुदणाणभासं ... सुद्धवजोगेण पुणो ... सुहृडो सूरत्त विणा... सुहजोगेसु पवित्ती... संघविरोहकुसीला ... संजोगविप्पजोगं ... संजमतवझाण ... संसार मदिक्कतो ४२० संसारछेदकारण ... ३८७ ५ ५ ५ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ ३९९ mm Mmm m ४५ ४९ ४९ ४०२ ५२ रयणसारस्य पाठभेदः । रयणसारख्यस्य ग्रन्थस्य मुद्रणानन्तरं पुस्तकमेकं ब्रह्मचारिशीतलप्रसादद्वारेण लाला हरसुखराय जैनपुस्तकालयस्थं संप्राप्तं । तत्रत्यः पाठभेदोऽत्र मुद्यतेपृष्ठसंख्याः गाथासंख्याः मुद्रितपाठः पाठान्तरम् ३९६ वाहविसयं वाहणविहवं । वाहाणमायरोसे वाहीणमायरो सो ३९९ विहाणदिट्ठी य विहीणदिट्ठी य सूलो लूयि सूलालूय ३९९ सीदुण्हवाहिराई सीदुण्हबंभरोई ४०० परिही णं परिहीणो ४०१ पक्खि मक्खि ४०२ तवसार तवायार ४०२ जिणवरवयण जिणवयण जहा विणसिंजर जहा वि य सिंजर ४०३ परमं णिम्मलवव णिम्मलजलेव्व ४०६ अण्णाणी अण्णाणीदो। ४०७ कण्णाइ कणयाइ ४०८ मुंडहरो मुंडाओ सिरमुंडहरो सिरमुंडाओ सम्माण विण य रुई "सम्माणविणयाँवा ४१० सालविहीणो राउ सीलविहीणो चाओ ४१६ । १२१ यज्जे १२३ आगमरुइणं आगम उत्तं ४१७ १२९ तं, तं जाणिऊण देइ सुदाणं जो सो हु मोक्खरओ। ४१७ १२९ णाणतवं अणागतवं १ वाहनविभवं। २ व्याधीनामाकरः सः। ३ विहीनदृष्टिश्च । ४ निर्मल. जलवत् । ५ सम्मानविनयरूपाः। ६ शीलविहीनस्त्यागः । ७ तं ज्ञात्वा ददाति सुदानं यः स हि मोक्षरतः। ८ अज्ञानतपः। ५४ पुरुसं ७. ९२ एवे Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ४१९ در 35 ४२० १३६ १४० १४१ "" " १४३ ३३ मोदगिव चारुमुदं मोदगिंदवारुणिसोहं मई भुंजइ "" "" केणावि ण परिहारण तेण विणा परिहरणं वाहण वर्तते - वाहीण ( व्याधीनां ) ४१९ पृष्टे १४० गाथासूत्रतोऽग्रे इदं गाथासूत्रमधिकं सुयसूयरसाणाणं खारामियभक्खभक्खणाणं पि । मणु जाइ जहो मज्झे बहिरप्पाणं तहा णेयं ॥ ४२३ पृष्टे १६२ अंके वर्तमानं गाथासूत्रं तृतीयपुस्तके नास्ति । अयं विशेषोऽत्र रयणसाराख्यतृतीयपुस्तके, अन्तिमं गाथासूत्रत्रयं १५४ गाथातोऽग्रे वर्तते । तत्पश्चात् उवसमई सम्मत्तं इत्यादीनि गाथासूत्राणि यथाक्रमं वर्तन्ते । अन्ते च पवयणसारब्भासं, धम्मज्झाणभासं, अज्जवसप्पिणि ६० इतीमानि त्रीणि गाथासूत्राणि प्रागुक्तान्येवात्र पुनरपि सन्ति । अतो ग्रन्थसंख्या १७० प्रमिता संजाता । उच्तसूत्रत्रयेऽहने १६७ प्रमितैव संख्या संजायते । द्वितीयमुद्रितपुस्तके १५५ परिमिता गाथाः सन्ति । अस्मिन् पुस्तके यानि गाथासूत्राणि नैवोपलभ्यन्ते तेषां तत्र तत्रोल्लेखः कृत एव । रुई जुज्जई - Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धयशुद्धिपत्रम् । पंक्तयः अशुद्धयः इतिदश दि, भाषया सूत्तत्थ शुद्धचः इति दश दिटुं भाषाया पडिया ११० १२२ सविचार्य ओक्रोश उकिट्ठ उक्त कीर्ति वंद्य तत् त्वनन्त हलानोभार विशषत्वात् वृद्धिभित्वा १४७ १६८ सुत्तत्थ पडिमा सुविचार्य आक्रोश उकिट्ठ उक्तं कीर्तिर्वद्य तत्त्वनन्त हलानो भार विशेषत्वात् वृद्धिमित्वा तीति रात्रावेव मुद्घाटित कर्तु मुशली वीरवरो भवती मञ्जलि तिति रात्रावेब मुद्धाटित १८१ १८२ मुशलीवीरवरो भवर्ता मजलि बोधि २१८ बोधिः Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ नुता सधर्मणि घर मनो २२१ २२२ त्यैत्य २२९ नुतां सधर्माण धरमनो त्येत्य चोष्टेतं उत्तम लोकादि आदेहि सहिय यार तहा सूया तथा सूया चेष्टितं उत्तम लौंकादि। आदे हि हिय ३८८ ४०२ यारा ४०३ ४१३ तहासूया तथाऽसूया श्वम्र श्वभ्र Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित पुस्तकोंकी सूची। 1 लघीयत्रयादिसंग्रह ( लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, रतक कार लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहत्सर्वज्ञसिद्धि) 2 सागारधामृत सटीक 3 विक्रान्तकौरवीय नाटक 4 पार्श्वनाथचरित्र 5 मैथिलीकल्याण नाटक 6 आराधनासार ठीक 7 जिनदत्तचरित 8 प्रद्युम्नचरित 9 चारित्रसार 10 प्रमाणनिर्णय 11 आचारसार 12 त्रैलोक्यसार सटीक 13 तत्त्वानुशासनादिह ( तत्त्वानुशासन, इष्टोपदेश सटीक, नीति सा, श्रुतावहार, श्रुतस्कन्ध, वैर य. मणिमाला, ढाढसीगाथा, तत्त्वसार, ज्ञानसार, मोक्षपंचाशिका, अध्यात्मतरंगिणी, पा. कसरी स्तोत्र, अध्यात्माष्टक, द्वात्रिंतिका ) .... ) 14 अनगारधर्मामृत सटीक 31) 15 युक्त्यानुशासन सटीक 16 नयचक्रसंग्रवा(आलापपति, नयचक्र द्रव्यस्वभावकाका का नयचकर व मलि ) For Prive Personal use only w ainelibrary.org