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संवत् १५८२ वर्षे चैत्रमासे शुक्लपक्षे पंचम्यां तिथौ रवी श्रीआदिजिनचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीदेवेन्द्रकीर्ति देवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीविद्यानंदिदेवास्तपट्टे भट्टार कश्रीमलिभूषणदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रदेवास्तेषां शिष्यवरब्रह्मश्रीज्ञानसागरपठनाथ ॥ आर्या श्रीविमलश्री चेली भट्टारक श्रीलक्ष्मीचन्द्रदीक्षिता विनयत्रिया स्वयं लिखित्वा प्रदत्तं महाभिषेकभाष्यं ॥ शुभं भवतु ॥ कल्याणं भूयात् ॥ श्रीरस्तु ॥"
इससे मालूम होता है कि विद्यानंदिके पट्टपर मल्लिषेणकी और उनके पट्टपर लक्ष्मीचन्द्रकी स्थापना हुई थी। यशस्तिलकटीकामें श्रुतसागरने मल्लिभूषणको अपना गुरुभ्राता लिखा है । इससे भी मालूम होता है कि विद्यानंदिके उत्तराधिकारी मल्लिभूषण ही हुए होंगे। यशस्तिलकचन्द्रिका टीकाके तीसरे आश्वासके अन्तमें लिखा है
" इतिश्रीपद्मनंदिदेवेंद्रकीर्तिविद्यानंदिमल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारकश्रीमल्लिभूषणगुरुपरमाभीष्टगुरुभ्रात्रा गुर्जरदेशसिंहासनभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रकाभिमतेन मालवदेशभधारकश्रीसिंहनंदिप्रार्थनया यतिश्रीसिद्धान्तसागरव्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहामहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्कव्याकरणछंदोऽलंकारसिद्धांतसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना प्राकृतव्याकरणाद्यनेकशास्त्रचञ्चुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचितायां यशस्तिलचंद्रिकाभिधानायां यशोधरमहाराजचरितचम्पुमहाकाव्यटीकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मी विनोदवर्णनं नाम तृतीयाश्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता।"
इससे मालूम होता है कि उस समय गुर्जर देशके पट्टपर भट्टारक लक्ष्मीचंद्र स्थित थे और मल्लिभूषणका शायद स्वर्गवास हो चुका था।
लक्ष्मीचंद्रके बाद भी श्रीश्रुतसागरके पट्टाधिकारी होनेका कोई उल्लेख नहीं मिलता । जान पड़ता है वे कभी सिंहासनासीन हुए ही नहीं।
ये पद्मनंदि, विद्यानंदि आदि सब गुजरातके ही भट्टारक हुए हैं । परन्तु यह मालूम न हो सका कि गुजरातकी किस स्थानकी गद्दीको इन्होंने सुशोभित किया था । ईडर, सूरत, सोजित्रा आदि कई स्थानोंमें भट्टारकोंके पट्ट रहे हैं । यशस्तिलककी रचनाके समय मालवेके पट्टपर सिंहनंदि भट्टारक थे। इन्हींकी प्रेरणासे श्रुतसागरसूरिने नित्यमहोद्योत या महाभिषेककी भी टीका लिखी थी।
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