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________________ रयणसारः। ४०५ द्रव्यास्तिकायेषु षट्पंचसु तत्वपदार्थेषु सप्तनवकेषु । बन्धनमोक्षे तत्कारणरूपे द्वादशानुप्रेक्षायां ॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मे दयाइसद्धम्मे । इच्चेवमाइगे जो वट्टइ सो होइ सुहभावो ॥ ६५ ॥ रत्नत्रयस्य रूपे आयकर्मणि दयादिधर्मे ।। इत्येवमादिके यो वर्तते स भवति शुभभावः ॥ सम्मत्तगुणादो सुगइ मिच्छादो होइ दुग्गई णियमा । इदि जाण किमिह बहुणा जं ते रुच्चेइ तं कुणहो ॥६६॥ सम्यक्त्वगुणतः सुगतिः मिथ्यात्वतो भवति दुर्गतिः नियमात्। इति जानीहि किमिह बहुना यत्तुभ्यं रोचते तत्कुरु ।। मोहु ण छिज्जइ अप्पा दारुणकम्मं करेइ बहुवारं । ण हु पावइ भवतीरं किं बहुदुक्खं वहेइ मूढमई ॥ ६७॥ मोहं न छिनत्ति आत्मा दारुणकर्म करोति बहुवारं । न हि प्राप्नोति भवतीरं किं बहुदुःखं वहति मूढमतिः ।। धरियउ बाहिरि लिंगं परिहरियउ बाहिरक्खसोक्खं हिं। करियउ किरियाकम्मं मरिऊँ जमिऊ बहिरप्पजिऊ ॥६८॥ धरति बाह्यं लिंगं परिहरति बाह्याक्षसौख्यं हि । करोति क्रियाकर्म मरति जायते बहिरात्मजीवः ॥ मोक्खणिमित्तं दुक्खं वहेइ परलोयदिहि तणुदिट्टी। मिच्छाभाव ण छिज्जइ किं पावइ मोक्खसोक्खं हि ॥ ६९॥ १ कम्मो. क. । २ वि. ख.। ३ मरियउ जमियउ बहिरप्पजीवो. ख. । - Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003149
Book TitleShatprabhutadi Sangraha
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages494
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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