Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (द्वितीय भाग) भगवान महावीर और उनकी संघ-परम्परा प्रेरक अध्यात्म योगी प्रमुख आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज सम्पादक व लेखक परमानन्द शास्त्री प्रकाशक नीरज जैन गजेन्द्र पब्लिकेशन 2578, गली पीपल वाली, धर्मपुरा, दिल्ली-110006 दूरभाष: 3285932PP. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना संस्कृति को मानव जीवन के विकास की एक प्रक्रिया कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। संस्कृति शब्द अनेक अर्थों में रूत है उन सब अर्थों की यहा विवक्षा न र मात्र संस्कारों का सुधार, सुदि सभ्यता, प्राचार-विचार सादा वेष-भपा और रहन-सहन विवक्षित है। प्राचीन भारत में दो संस्वातिया रहन प्राचीन काल से प्रवाहित हो रही है। दोनों का अपना अपना महत्व है फिर भी दोनों हजारों वर्षों से एक साथ रह कर भी सहयोग और विरोध को प्राप्त होती हुई भी एक दूसरे पर अपना प्रभाव ग्रंकित किये हुए हैं। इनमें एक वैदिक संस्कृति है और दूसरी अवैदिक । वैदिक संस्कृति का नाम ब्राह्मण संस्कृति है। इस संस्कृति के अनुयायी माह्मण जब तक ब्रह्म विद्या का अनुष्ठान करते हए अपने प्राचार-विचारों में दृढ रहे, तब तक उसमें कोई विकार नहीं हया, किन्तु जब उनमें भोगेच्छा और लोकेपणा प्रचुर रूप में घर कर गई, तब वे ब्रह्म विद्या को छोड़कर शुष्क यज्ञादि क्रियाकापड़ों में धर्म मानने लगे। उसमें वैदिक संस्कृति का क्रमशः ह्रास होना शुरु हो गया । अपने उस प्राचीन मूल रूप से मुक्त होकर वह प्राज भी उज्जीवित है। दसरी अदिक संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहते हैं। प्राकृत भाषा में इसे समन और सुमन कहते हैं और संस्कृति में श्रमण । समन का अर्थ समता है, राग-द्वेष रहित परमशान्त अवस्था का नाम समन है, अथवा शत्रु मित्र पर जिसका समान भाव है ऐसा साधकोपयोगी समण या श्रमण कहलाता है । श्रमण शब्द के अनेक अर्थ है परन्तु उन अर्थों की यहां विवक्षा नहीं है, किन्तु यहाँ उनके अयों पर विचार किया जाता है। श्रम धातु का अर्थ खेद है, जो व्यक्ति परिग्रह पिशाच का परित्याग कर घर बार से कोई नाता न रखते हए अपने शरीर से भी निस्पह एवं निमोही हो जाते हैं, बन में यात्म साधना रूप श्रम का याचरण करते हैं अपनी इच्छानों पर नियंत्रण रखते हैं, काय को शादि होने पर भी खिन्न नहीं होते, किन्तु विषय-कपायों का निग्रह करते हुए इन्द्रियों का दमन करते हैं वे समय पर श्रमण कहलाते हैं । अथवा जो बाह्याभ्यन्तर ग्रन्धियों का त्यागकर तपश्चरण करते हैं, प्रात्म-साधना में निष्ठ और ज्ञानी एवं विका बने रहते हैं-(श्राभ्यन्ति बाह्याभ्यन्तरं तपश्चरन्तीति अमणः) जो जुभा-शुभत्रियाओं में अच्छे बुरे विचारों में पुण्य-पाप रूप परिणतियों में तथा जीवन, मरण, मुख-दुख में और प्रात्म-साधनों से निष्पन्न परिस्थितियों में रागी द्वेषी नहीं होते प्रत्युत समभावी बने रहते हैं वे श्रमण कहलाते हैं। जो सुमन हैं..पाप रूप जिनका मन नहीं है, स्वजनों और सामान्य जनों में जिनको दृष्टि समान रहती है । जिस तरह दुख मुझे प्रिय नहीं है, उसी प्रकार संसार के सभी जीयों को भी प्रिय नहीं हो सकता। जो न दुसरों का स्वयं मारते है-न दुख संक्लेश उत्पन्न करते हैं। और न दमरों को मारने प्रादि की प्रेरणा करते हैं । किन्तु १. (क) जो समतो जा नुमणो, भावेश जइ रण होइ पामणो । माग अजयमगो समो अमारणाऽवमाणे तु ।। जह न गमन भियं दुःख जारिणय समेव सब्ध जीवाण । न हाद न हपविश्य समणगई तेरण सो समगो।। -(अनुयोगद्वार १५० (ख) यो च समेनि पापानि अणु थलानि सच्चसो । समितन्ता हि पापानं समयोति पबुञ्चति ।। (धम्मपद १६-१७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ मान-अपमान में समान बने रहते हैं, वही सच्चे श्रमण हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो श्रमण शत्रु और बन्धु वर्ग में समान वृत्ति हैं । सुख-दुख में समान हैं लोह प्रौर कंचन में समान हैं जीवन-मरण मैं समान है. वेश्रण है: समसत्तु बंधु वग्गो समसुह दुक्खो पसंस-णिवं-समो। समलोट्ट कचणो पुण जीविय मरणे समो समणो॥ जो पांच समितियों, तीन गुप्तियों तथा पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, कषायों को जीतने वाला है, दर्शन, ज्ञान, चरित्र सहित है वही श्रमण संयत कहलाता है। पंच समिदो तिगुत्तोपंथेविय संवडो जिदकसानो। दसणाणाण समागो समणो सो संजदो भणियो ।। स्थानाङ्ग सूत्र (५) की निम्न गाथा श्रमण के व्यक्तित्व और उनकी जीवन वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालत है। उरग-गिरि-जलण-सागर-णहतल-तरुणणसमोर जा होई। भमर-निय-धरणि-जलरह-रवि-पक्षणसमोन सो समणो ।। जो उरग सम (सर्प के समान) परकृत गुफा मठादि में निवास करने वाला, गिरिसम-पर्वत के समान प्रचल, ज्वलनसम-अग्नि के समान प्रतृप्त-अग्नि जैसे तृणो से अतृप्त रहती है, उसी तरह तप-तेज संयुक्त श्रमण सूत्रार्थ चिन्तन में अतृप्त रहता है। सागरसम-समुद्र के समान गंभीर, आकाश के समान निरालम्ब, भ्रमर के समान अनियत वृत्ति, मग के समान संसार के दुखों से उद्विग्न, पृथ्वी के समान क्षमाशील, कमल के समान देह भोगों से निलिप्त, सूर्य के समान बिना किसी भेद भाव के ज्ञान के प्रकाशक और पवन के समान अवरुद्धं गति, श्रमण ही लोक में प्रतिष्ठित होते हैं । ऊपर जिन श्रमणों का स्वरूप दिया गया है वे ही सच्चे थमण हैं। प्रनियोग द्वार में श्रमण पाँच प्रकार के बतलाये गये हैं, निर्गन्ध, शाक्य, तापस, गेरुय और प्राजीवक । इनमें अन्तबाह्य ग्रन्थियों को दूर करने वाले विषयाशा से रहित, जिन शासन के अनुयायी मुनि निग्रंथ कहे जाते हैं। सुगत (बुद्ध) के शिष्य सुगतः या शाक्य कहे जाते हैं, जो जटाधारी हैं, वन में निवास करते हैं वे तापसी हैं, रक्तादि वस्त्रों के धारक दण्डी कहलाते हैं। जो गोशालक के मत का अनुसरण करते हैं वे प्राजीवक कहे जाते हैं। इन श्रमणों में निर्गन्थ श्रमणों का दर्जा सबसे ऊँचा है, उनका त्याग और तपस्या कठोर होती है, वे ज्ञान और विवेक का अनुसरण करते हैं। ऐसे सच्चे श्रमण ही श्रमण संस्कृति के प्रतीक है। इस श्रमण संस्कृति के आद्य प्रतिष्ठापक आदि ब्रह्मा ऋषभदेव हैं जो नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र थे, और जिनके शत पूत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा है। महाँ बन्ध में प्रज्ञा श्रमणों को नमस्कार किया गया है । (णमो पण्ह समणा')। १. निग्गंथ सक्क ताबस मेरू पाजीव पंचहा समणा । तम्मिय निगंथा तेबे जिरण सासराभवा मुरिगणो । सबकाय सुगय सिस्सा जे जरिला तेउ ताबसा भणिया। जे गोसाल गमय मणु जे घाउरत्तवत्या तिदण्डिगो गेल्या तेण ॥ सरति यन्नति तेउ आजीवा -(अनुयोगवार अ १२० २. नाभे: पुनश्च ऋषभः ऋषभद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्नः त्विदं वर्ष मारतं चेति कीय॑ते ।। (विष्णपुराण ब.१ अग्नीध्र सूनो नाभेस्तु ऋषभोऽभूतसुतो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जो वीरः पुत्र शताबरः॥ येषो खलु महायोगी परतो ज्येष्ट श्रेष्ठ गुण बासीत । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥ भागवत ५-६ . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी बौद्ध परम्परा में भी श्रमणों का उल्लेख है। धम्मपद में लिखा है कि जो अणु और स्थूल पापों का पूर्ण रूप से शमन करता है वह पापों का शमन करने के कारण समण है। "यो च समेति पापानि अणुथूला निसव सो। सम्मितत्ताति पापानं समणेति पश्चति ॥" (१६-१०, इसी धम्मपद (२६-६) में एक अन्य स्थान पर लिखा है 'समुचरिया समणोति बच्चति'। समानता की प्रवृत्ति के कारण 'समण' कहा जाता है धम्मपद (१६-६) में बतलाया है कि व्रत हीन तथा झूठ बोलने वाला व्यक्ति केवल सिर मुड़ा लेने मात्र से 'समण' नहीं हो जाता, जो इच्छा और लोभ से व्याप्त है वह 'समण' कसे हो सकता है? 'मुंडके न समणो अन्वत्तो अलक भणं । इच्छा लोभ समापन्नो समणो कि भविस्सति।" प्राचार्य कुन्द कुन्दने श्रमण धर्म का सुन्दर व्याख्यान किया है, और बतलाया है कि जो दुःखों से उन्मुक्त होना चाहता है उसे श्रामण्य धर्म को स्वीकार करना चाहिए-"पडिवज्जवु सामण्णं जवि इच्छदि बुक्खपरिमोक्खं'। इससे श्रमण धर्म की महत्ता का बोध होता है। जिनसेनाचार्य ने महापुराण में ऋषभदेव को वात रसना बतलाते हए उसका अर्थ नग्न किया है:-'दिग्वासा वातरसनो निन्थेशो निरम्बरः। (२५-२-४)। वैदिक साहित्य में भी श्रमण का उल्लेख उक्त अर्थ में किया गया है। भागवत के (१२-३-१६) के मनुसार श्रमण जनम: सन्तुष्ट मामा और गो भावना गे गुल्ल, शान्त दान्त, तितिक्ष, अत्मा में रमण करने वाले और समदृष्टि कहे गये हैं। सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता वान्तास्तितिक्षवः । मात्मारामाः समशः प्रायशः श्रमणा जमा ॥ इसी ग्रन्थ में वातरशना श्रमणों को आत्मविधा विशारद ऋषि, शान्त, संन्यासी और अमल कह कर ऊध्र्वगमन द्वारा उनके ब्रा लोक में जाने की बात कही है। "श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्या विशारदः" (श्री भागवत् १२-२-२०) "पातरशनाय ऋषयः श्रमणाऊर्ध्वमन्यितः । ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः सन्यासिनोऽमलाः (श्री भाग. वैदिक साहित्य में 'श्रमण' का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है ऋग्वेद में वातरशना मुनि का उल्लेख किया गया है, उसमें उनके सात भेद भी बतलाये हैं। पर उन सब वातरशना मुनियों में ऋषभ प्रधान थे। क्योंकि अर्हत धर्म की शिक्षा देने के लिए उनका अवतार हुआ बतलाया है। . "मुनयो वातरशना पिशंगा धशते मला । वात स्थान प्राजि यान्ति यह वासो प्रविक्षत ।। उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम् । शरीरेहस्माकं यूयं मर्ता सो अभिपश्यथ ।।" (ऋग्वेद १०-१३६, २, ३) अतीन्द्रियार्थ दर्शी वातरवाना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं, जब वे वाय की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं-रोक लेते हैं तब वे अपने तपश्चरण की महिमा से दीव्यमान हो कर देवता रूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृत्ति से उन्मत वत (उत्कृष्ट मानन्द सहित) वायु भाव को-अशरीरी ध्यान वृत्ति को प्राप्त होते हैं, और तुम साधारण जन हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे प्राभ्यन्तर स्वरूप को नहीं, ऐसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते हैं । ऋग्वेद को उक्त ऋचाओं के साथ केशी की स्तुति की गई है१. जूनि-यातजूनि-विप्रजूनि-वृषाणक -करिकृत-एतषाः ऋषिङ्गः एते वातरशना मनुयः । (ऋग्वेद मं० १० सूक्त १३५) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ केश्यग्निं केशी विष केशी विति रोदसी। केशी विश्वं स्वईशे केशीदे ज्योति रुज्यते ॥ (ऋग्वेद १०-१३६-१) केशी अग्नि जल तथा स्वर्ण और पृथ्वी को धारण करता है, केशी समस्त विश्व तत्त्वों के दर्शन कराता है । केशी हो प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवल ज्ञानी) कहलाता है। केशी की यह स्तुति धातरशना मुनियों के कथन में की गई है। जिससे स्पष्ट है कि कशी वात रशना मुनियों में प्रधान थे। केशी का अर्थ केश बाला जटाधारी होता है सिंह भी अपनी केशर (पायाल) के कारण वे.शरी कहलाता है । ऋग्वेद के केशी और वातरशना मूनि और भागवत पुराण में उल्लिखित वातरशमा थमण एवं उनके अधिनायक ऋषभ की साधनाओं की तुलना दृष्टव्य है। क्योंकि दोनों एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं । वैदिक ऋषि वैसे त्यागो और तपस्वी नहीं थे, जैसे बात रशना मुनि थे। वे गृहस्थ थे, यज्ञ यज्ञादि विधानों में मास्था रखते थे, और अपनो लौकिक इच्छाओं की पूति नः लिए तथा धन इत्यादि सम्पत्ति के लिए इन्द्रादि देवतानों का आह्वान करते थे, किन्तु वातरशना मुनिग्रन्तवह्यि मान्थयों के त्यागो, शरीर से निर्माहो, परीषजयी और कठोर तपस्वी थे, बैं शरीर से निस्पृही, वन कंदराओं, गुफानी, योर वृक्षों के तले निवास करते थे। श्रमण संस्कृति वेदों से प्राचीन है, क्योंकि वेदों में तीच तीर्थकरों का-ऋषभदेव, अजित नाथ और नेमिनाथ का-उललेखादा वेद सबसे प्राचीन माना जाता है, उसमें वातरशना मुनियों में धेठ ऋषभदेव का उल्लेख होने से जैन धर्म की प्राचीन परम्परा पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । यद्यपि वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वान उन्हें ईस्वी सन् से १००० वर्ष पूर्व की रचना मानते हैं और कुछ प्रौर वाद की मानते हैं। यदि थेदों का रचना ईस्वी सन् से १५०० वर्ष भी पूर्व मानी जाय तो भी श्रमण संस्कृति प्राचीन ठहरती है। जैन कला में ऋषभ देव की अनेक प्राचीन मूर्तियाँ जटाधारी मिलती हैं। प्राचार्य यति वपस मे तिलोय पण्णत्ति में लिखा है कि उस गंगा कुट के जार जटा मुकुट से शोभित प्रादि जिनेन्द्र की प्रतिमाएं हैं। उन प्रतिमानों का मानों अभिषेक करने के लिए हो गंगा उन प्रतिमाओं के ऊपर अवतीण हुई है। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है। प्रादि जिण पडिमानो जड़मउडसेहरिल्लायो। पांडवोबरश्मि गंगा अभिसित्तु मणा व पउदि । रांबपेण ने पमचरित (३-२८८) --"चासोद्धता जटास्तस्य रेजुराकुल मूर्तयः।" और पुन्नाट संघी जिनसेन हरिवंश पुराण (९.२०४) में "त प्राव जटाभार भ्राजिष्णु" रूप से उल्लेखित किया है। तथा प्रपत्रंश भाषा के सकमाल चरित्र में भी निम्न रूप उल्लख पाया जाता है: ''पढमू जिणवरु णांवांवभावण। जड-मउड बहसउ विसह मयणारि णासणु । अमरासुर-जर-थुय चलणु । सत्ततत्त्व णपयत्य जयणयहि पयासण लोबालोय पयासयरु जसुउपाणउ णाणु । सो पणवेप्पिणु रिसह जिणु अस्त्रय-सोक्ख णिहाणु ।।' जटा-बाश-कसर सब एक ही अर्थ के वाचक है 'जटा सटा केशरयोः' इति मोदिनी । इस सव कथन पर से जनार्थको पुष्टि होती है। कशी और ऋषभ एक ही हैं, क्योंकि ऋग्वेद वी एक ऋचा में दोनों का एक साथ उल्लेख हुआ है और वह इस प्रकार है: ककर्दवे वृषभो युयत प्रासीद प्रवाचीत् सारथिरस्स केशी। . दुधयुक्तस्य द्रवतःसहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।। (ऋग्वेद १०.१०२, ६) १. भवमत पुराए ५-६, २८-३१ Fi Indian Philosophiy vul, I p. 287 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस सूक्त के ऋचा की प्रस्तावना में निरुक्त में 'मुदगलस्य हृता गाव । प्रादि श्लोक उद्धृत किये गये हैं, जिन में बतलाया है कि मुदगल ऋषि की गायों को चोर चरा ले गए थे, उन्हें लौटाने के लिए ऋपि ने केशी चपन का अपना सारथी बनाया, जिसके वचन से बे गौएँ आगे न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ी इस ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने केशी और वृषभ का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है, किन्तु प्रकारान्तर से उसे स्वीकृत भी किया है-"अथवा अस्य सारथिः सहाय भूतः प्रकृष्ट केशी वृषभः अवाचीत भ्रशमशब्दयत्" इत्यादि। मुद्गल ऋषि के सारथी (बिद्वान नेता) केशी वृषभ जो शनों का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनको बाणी निकलो, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौवें (इन्द्रियां) जुते हुए दुर्घररथ (शरीर) के साथ दौड़ रही थी वे निश्चल होकर मौदगलानी (मुद्गल को स्वात्मावृत्ति) की मार लाट पड़ा, अर्थात् मुद्गल ऋषि की इन्द्रियाँ, जो स्वरूप से पराड़ मुख हो अन्य विषयों की ओर भाग रही था वे उनके योग युक्त ज्ञाना नता कसा बपन के धर्मोपदेश को सुनकर अन्त स्त्री हो गई'-अपने स्वरूप में प्रविष्ट हो गई। ऋग्वेद के (३-५८.३) सूक्त में-"त्रिधा बद्धो वृषभो रोर वोति महादेवो मान विवंश । " बतलाया गया है कि (दर्शन-ज्ञान-चरित्र से अनुबद्ध वृषभ (ऋषभ) न घोषणा को मोर व एक महान् देव के रूप में मत्या । प्रविष्ट हुए। इस तरह वेद, भागवत और उपनिषद में श्रमणों के तपश्चरण की महत्ता का भी वर्णन उपलब्ध होता वह महत्वपूर्ण है और उसका सम्बन्ध ऋषभ देव की तपश्चयों से है। श्रमणों ने आत्म-साधना का ज। उत्कृष्टतान प्रादर्श लोक में उपस्थित किया है तथा प्रहिसा की प्रतिष्ठा द्वारा जा प्रात्म निभयता प्राप्त की। उस समय संस्कृति का गौरव सरक्षित है। श्रमण संस्कृति ने भारताय संस्कृति को जो अहिसा अपरिग्रह अनेकान्त पार पाद्वाद आदि महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की अपूर्व देन दी है, उससे भारतीय सन्त परम्परा यशस्वो हुई है। भगवान नपभदव इस सन्त परम्परा एवं श्रमण संस्कृति के भाद्य प्रतिष्ठापक थे। उनका इस भूतल पर अबतारत ए बात काल व्यतीत हो गया है, तो भी उनकी तपश्चर्या की महत्ता और उनका लोक कल्याण कारी उपदेश भूमडल में अभी वर्तमान हैं वे श्रमण संस्कृति के केवल संस्थापक ही नहीं थे किन्तु उन्होंने उसे उज्जीवित और पालल्वावत भी किया था। उनके अनुयायी २३ तोयंकरों ने उसका प्रचार एवं प्रसार किया है। इन चौबीस तीथंकरों में अन्तिम तान तीर्थकरों को-नमिनाथ, पाश्वनाथ और महावीर का इतिहासज्ञों ने ऐतिहासिक महापुरुष मान लिया है भार वाईसव तीर्थकर नेमिनाथ ने अहिंसा के लिए वैवाहिक कार्य का परित्याग कर अपने को आत्म-साधना में लगाया। यह श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। पाश्र्वनाथ तेईसव तीर्थकर थे जो बनारस के राजा विश्वसेन और वामा दवी के पुत्र थे। उन्होंने तपाचरण द्वारा प्रात्म-सिद्धी प्राप्त को और बिहार तथा कलिंगादि देशों में उपदंश द्वारा श्रमण संस्कृति का प्रसार किया। प्रार जनता को सन्मार्ग में लगाया। पार्श्वनाथ से २५० वर्ष बाद महावीर ने भरी जवानी में राज्य वैभव का परित्याग कर प्रात्म-साधना का अनुष्ठान किया, और पूर्ण ज्ञानी बन जगत को 'स्वयं सुख पूर्वक जियो, और दूसरों को भी सुख पूर्वक जीने दो' के सिद्धान्त का केवल प्रसार ही नहीं किया। प्रत्युत उसे अपने जावन में उतार कर लोक में अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनको कल्याणकारी मुद् वाणी ने अनेकान्त दृष्टि द्वारा जगत के विरोधों को दूर किया। उनमें अहिंसा और समता की भावना को प्रात्तेजित किया। और अहिसा द्वारा विश्व शान्ति का लोक में प्रसार किया उससे यज्ञादि हिसा का प्रतीकार हुा । पशुकुल को अभय मिला। और जनता में अहिंसा के प्रति अनुराग ही नहीं हमा, मनेकों ने उसे अपने जीवन का आदर्श बनाया। उनके बाद उनकी संघ परम्परा के धमणों द्वारा उन्हीं लोक हितकारी सिद्धान्तों का प्रसार किया जाता रहा । और अब भी उनके सिद्धान्तों के अनुयायी मौजूद हैं। जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं। उन्हें अवतरित हए २५०० वर्ष पूरे हो रहे हैं तो भी उनका उपदेश और उनके मौलिक १. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान पृ० १५, १६ २. भागवत पुराण ५-६, २८-३१) ऋषभदेव की तपश्चर्या का वर्णन है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सिद्धान्तलोक में फैले हुए हैं। अब समय श्री गया है कि विश्व का संरक्षण उनके पाचन सिद्धान्तों के प्राचरण से ही हो सकता है * इस युग में परमाणु की अनन्त शक्ति और उनकी दाहकता की विभीषिका से लोक भयभीत हैं, दुःखी और चिन्ता ग्रस्त हैं। उससे यदि विश्व को संरक्षित करना है तो महावीर के ग्रहिंसा और अनेकान्त आदि सिद्धान्तों को जीवन में प्रवाहित करना होगा, उनको जीवन के व्यवहार में लाये बिना विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । क्योंकि साम्राज्य की लिप्सा और बहुकार ने मानवता का तिरस्कार और दुरुपयोग किया है। और किया जा रहा है जिसका परिणाम प्रशान्ति और विनाश है । महात्मा बुद्ध के समय भगवान महावीर को 'णिग्गंठ णात पुत्र' कहा जाता था, और उनका शासन भी 'निरगंठ' नाम से प्रसिद्ध था । अशोक के शिलालेखों में भी 'गिंठ नाम से उसका उल्लेख है। महावीर के बाद ''णिगठ' श्रमण परम्परा द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षादि के कारण दो भेदों में विभक्त हो गई। एक निम्ठ श्रमण संघ दूसरा श्वेतपट श्रमण संघ । इन दो भेदों का उल्लेख कदम्ब वंश के लेखों में मिलता है । भग पश्चात् निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ हो मूल संघ के नाम से लोक में विश्रुत हुआ । मूलबंध परम्परा वान महावीर की निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा है, दूसरी परम्परा मूल परम्परा नहीं कही जा सकती। इसी से इस ग्रन्थ में भगवान महावीर की मूल निर्ग्रन्थ संघ परम्परा के आचार्यों व विद्वानों, भट्टारको और कवियों का यहां परिचय दिया गया है। दूसरी परम्परा के सम्बन्ध में फिर कभी विचार किया जायेगा। इस परम्परा की प्रतिष्ठा कुन्दकुन्दाचार्य जैसे नियंन्थ श्रमणों से हुई। उनकी कृतियां वस्तु तत्व की निदर्शक और लोक कल्याणकारी हैं । उनकी समता अन्यत्र नहीं पायी जाती। इस परम्परा में अनेक महान आचार्य हुए, जिनकी कृतियां लोक में प्रसिद्ध हुई । दार्शनिक विद्वानों में गृद्धपिच्छाचार्य, समन्तभद्र, पात्र केसरी, सिद्धसेन, पूज्यवाद, अकलंक देव, सुमतिदेव और विद्यानन्दादि महान प्राचार्य हुए। जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक में श्रमण संस्कृति का प्रसार हुआ। इस परम्परा में भी अनेक संघ भेद हुए, गण-गच्छादि हुए, परन्तु मूल परम्परा बराबर संरक्षित रही, और रह रही है। भारतीय इतिहास में शिलालेख ताम्र पत्र लेखक प्रशस्तियां, ग्रन्थ प्रशस्तियां, पट्टावलियां और मूर्तिलेखों की महत्ता से कोई इंकार नहीं कर सकता। इनमें उपलब्ध साधन सामग्री इति वृत्तों के लिखने में सहायक ही नहीं होती । प्रत्युत अनेक उलझी हुई समस्याओं के सुलझाने में योगदान देती है। जैन साहित्य और इतिहास के लिखने में उनकी उपयोगिता लिये बिना किसी आचार्य विशेष, विद्वान कवि या भट्टारक, राजा आदि का परिचय लिखना सम्भव नहीं होता । इसी से इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन होना श्रावश्यक है। इसके साथ पुरातत्त्व संबंधो अवशेषों आदि का उल्लेख भी श्रावश्यक होता है। उससे उसमें प्रामाणिकता आ जाती है। जब हम किसी प्राचार्य विशेष आदि का परिचय लिखने बैठते हैं तब समुचित सामग्री के संकलन के प्रभाव में एक नाम के अनेक विद्वानों आदि के समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है । तब हमें उक्त सामग्री की उपयोगिता की महत्ता ज्ञात होती है और हम उसके संकलन की आवश्यकता का अनुभव करते हैं । विद्वान इस कठिनाई का अनुभव करते हुए भी उसके संकलन का प्रयत्न नहीं कर पाते, समाज और श्रीमानों का तो उस ओर ध्यान ही नहीं है। विद्वानों के सामने अनेक समस्याएं हैं, जिनके कारण उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाते । उनमें सबसे पहला कारण प्रभाव है दूसरा कारण गृही समस्याएं हैं श्रीर तीसरा कारण सामग्री की विरलता और समय की कमी है। यद्यपि वर्तमान में ऐतिहासिक विद्वानों के समक्ष बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्री बिखरी हुई यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है । कुछ प्रकाश में ग्रा चुकी हैं, कुछ प्रकाश में लाने के प्रयत्न में है। और अधिकांश सामग्री ग्रन्थ भण्डारों, मूर्ति लेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में निहित है । श्रतएव इतिवृत्तों की सामग्री का संकलित होना अत्यन्त आवश्यक है । इसी आवश्यकता को देखते हुए मेरा विचार बहुत दिनों से महावीर संघ परम्परा के कुछ प्राचार्या, विद्वानों, भट्टारकों, कवियों आदि का जैसा कुछ भी परिचय मिलता है, संकलित करने की भावना चल रही १. इंडियन एण्टी वे ०६० ३७-३८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना धी, परन्तु इस महान कार्य में सामग्री की विरलता, साधनों की कमी और अपनी अल्पज्ञता बाधक हो रही थी, इस लिये उससे विराम ले लेना पड़ता था।। मेरे पास जो थोड़े बहुत नोट्स थे, उनके आधार पर अनेक लेख लिखे गये जो समय पर अनेकान्तादि पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं। जिनसे विद्वान प्रायः परिचित ही हैं। जिन्होंने मेरे नोट रूप लेखों का अवलोकन किया है, वे उन्हें बहुत उपयोगी प्रतीत हुए और उन्होंने उन्हें प्रकाशित कराने की प्रेरणा दी। मैंने अपने नोटों को अनुसन्धान प्रिय मुनि धी विद्यानन्द जी को दिखलाये थे, उन्होंने देखकर कहा था कि इन्हें पुस्तक का रूप देकर प्रकाशित कर देना चाहिये । मेरी भी इच्छा प्रकाशित करने की थी ही, परन्तु अशुभोदय से मैं बीमार पड़ गया, उससे जैसे तसे बचा तो शारीरिक कमजोरी ने लिखने में बाधा उपस्थित कर दी । अस्तु, भगवान महावीर के २५००वं निर्वाण महोत्सव की चर्चा ने मुझे प्रेरित किया कि तु इस समय इस कार्य को पूरा कर दे। डा० दरबारी लाल जी की विशेष प्रेरणा रही इस कार्य को पूरा करने को। अन्य मित्रों को भी यही राय थी। प्रतः मैंने लिखने का संकल्प कर लिया। एक दिन पं. बलभद्र जी ने कहा कि पाप अपनी सामग्री को तैयार करो, प्रकाशन की चिन्ता न करो, मैं उसकी जिम्मेदारी लेता हूं। इस सम्बन्ध में मेरी प्राचार्य देश भूपण जी से चर्चा हो गई है। प्रतः पाप निश्चिन्त रहें और उसे पूरा कर दें। मुझे इस कार्य के लिये अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ा, और पुरातत्त्व विभाग की लाइब्रेरी से अनेक बार जाकर लाभ उठाया। दूसरों की सहायता से अंग्रेजी लेखों की जानकारी प्राप्त की, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। तदनुसार मेंने इस ग्रन्थ को पूरा करने का प्रयत्न किया, दिन रात परिथम किया तब किसी तरह यह ग्रन्थ पूरा हो सका है। प्रस्तावना संक्षिप्त रूप में लिखी है । कागज की समस्या के कारण कुछ परिशिष्ट छोड दिये पडले ग्रन्थ का पूरा मैटर तो लिखा नहीं गया था किन्तु कुछ मैटर प्रेस में देने के बाद उसे लिखता गया और देता गया। इससे इसमें मोर कछ प्राचार्यों के समय प्रादि के परिचय में कमी रह सकती है। परन्तु पाठकों के सामने लगभग सात सौ प्राचार्यों, विद्वानों, भट्टारकों और संस्कृत अपभ्रंश के कवियों का परिचय संक्षेप में उनकी रचनादि के साथ दिया गया है। मेरी प्रल्पज्ञता वश उसमें कमी रह जाना स्वाभाविक है। अतः विद्वान उसे सुधार लें, और मुझे उसकी सचना दें। श्रीमान् डा. ए. एन. उपाध्ये पं० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, डा० भागचन्द जी नागपुर, पं० बालचन्द जी. शास्त्री पं० बलभद्र जी और पं० रतनलाल जो केकड़ी प्रादि विद्वानों को सलाह मुझे मिलती रही है। इसके लिए मैं उनका आभारी हूं। प्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जो सौजन्य पूर्ण सहयोग दिया है इसके लिये उनका विशेष आभारी है । और आशा करता हूं कि भविष्य में उनका सहयोग मुझे मिलता रहेगा। भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ विद्वान डा० दशरथ शर्मा ने अस्वस्थ होते भी मेरे निवेदन पर ग्रन्थ का प्राक्कथन बोलकर प्रपती सपत्री शान्ताकुमारी से लिपि कराया है। उनकी इस महती कृपा के लिये मैं उनका बहत आभारी। परमानन्द जैन शास्त्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका (प्राचार्य, भट्टारक और विद्वान कवि सूची) अङ्गदेव भट्टारक १५४ अभयनन्दी २५६ प्रकलं ना १५५,१५५ अमरकीति ३६४ कलंकचन्द्र १५४ अमरकीति ४५१ अकलंक विद्य १५४ प्रमरकीति ५२६ अकालंगादेव १५४,१५५,१५५ अमरसेन १७३ अकलंक पंडित १५४ अमरसेन ३७१ अकलंकदेव' १५५ अमित गति (प्रथम) २०४ अमितगति (द्वितीय) २८८ अलंकदेव १५५ अकलंक मुनिप १५५. अमितसेन १७३ अक्षय राम अमृतचन्द्र ठक्कुर २०५ (कवि) सग्गल ३८६ अमृतचन्द्र (द्वितीय) ३५६ अग्निभूति (गणधर) २५ अय्यपार्य ४४६ अज्जनन्दि (आगन) २० पराममणि अजित ब्रह्म ५१४ अर्ककीर्ति १७० अजितसेनाचार्य २३८ (कवि) अहंदास ४०५ अजित सेनाचार्य (अलंकार चिन्ताम०) ४१७ अहंदबलो ६८ अण्डरय ४२६ अहनन्दि २४६ प्रगन्तकीति २२८ अर्हनन्दि ३३६ अनन्तकीति २२६ ग्रहनन्दी २४४ अन्तकी ति भट्टारक २२६ अवन्ति भूभृत (राजा) १७७ अनन्तकीति २२६ (कवि) असम २२४ अनन्तवीर्य (अतिवृद्ध) २४० (कवि) असवाल ४६७ अनन्तवीर्य २४४ आचण्ण ३३३ अनन्तवीर्य २४० आदिपम्प २१५ (लघु) अनन्तवीर्य ३५६ आर्यनन्दि १६२ अपराजित (थ तकेवली) ४६ आर्यनन्दी २३८ अपराजितसूरि (श्री विजय) २०२ प्रार्यमा १२१ अभयचन्द्र ४४४ पार्यव्यक्त या शुचिदत्त (गणधर) २५ अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ४१५ आर्यसेन २६४ अभयनन्दि १९५ आर्यसेन २३७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका (पंडित प्रवर) यासाधर ४०५ इन्द्रकीति २०२ इन्द्रकीर्ति २५८ इन्द्रकोति ३०५ इन्द्रगुरु १५४ इन्द्र नन्दि योगशास्त्र टीकाकार) ४३५ इन्द्रनन्दी ४२६ इन्द्रनन्दी (प्रथम) २४० इन्द्रनन्दी (श्र तावतार के कर्ता) २४५ इन्द्रनम्दी (ज्वालामालिनी कल्पकर्ता) २१२ इन्द्रभूति (प्रथम गणधर) २३ इन्दसेन भट्टारक २७६ इन्द्रायुध (राजा) १७७ उदित्याचार्य १५६ उग्रसेन गुरु १५६ उदयचन्द्र ३६० उदयदेव १६३ उमास्वाति (गुद्धपिच्छाचार्य) ८७ एलयाचार्य १६३ एलाचार्य २६३ एलाचार्य २२७ कनकचन्द्र ३७६ कनकनन्दी २४६ कनकसेन २१३ कनकसेन २३८ कनकसेन २४४ कनकामर ३५३ (भ०) कमल कीति ५०२ कमल भव ४१४ कर्णपार्य३३७ कलधौतनन्दि १६७ (मुनि) कल्याण ६५ (मुनि) कल्याणकीर्ति ४८२ कवि धर्मघर ५२२ काणभिक्षु १४२ कान्ति (कवियित्री) ३०२ (ब्रह्म) कामराज कीर्तिवर्मा ३०५ कीर्तिवर्मा ३३४ कोतिषण १७४ कुमारनन्दी १६२ कुमारसेन १४१ (भट्टारक) कुमारमेन २३६ कुमाररोन २३६ कुमुदचन्द्र ४४८ (वादि) कुमृदचन्द्र ४४८ कुमुदेन्दु ४२८ कुन्दकुन्दचार्य ७४ कालचन्द्र उपाध्याय ४३० कुलचन्द्रमुनि ३०५ कुलचन्द्रमुनि ३३३ कूलचन्द्रमुनीन्द्र ३३२ फुलन्द्र ४३६ कविलाचार्य १६८ केशवनन्दि६०५ केशवराज २७६ केशववर्णी ४४१ (कवि) कोटीश्वर ५०३ (ब्रह्म) कृष्ण या केशवसेन मूरि ५३१ (पंडित) खेता ५०३ गणधरकीति ३३६ गण्ड विमुक्त सिद्धान्तदेव ३४८ गिरिकीर्ति ३६८ गुणकीर्ति १६० गुणकीर्तिमुनीश्वर २०२ गुण कीर्ति १६० गुणकीति सिद्धान्तदेव ३०० (म.) गुणचन्द्र ५४२ गुणचन्द्रपंडित २२८ गुणदेवसूरि १६० (प्राचार्य) गुणधर ६६ गुणभद्र ४२८ गुणभद्र ३३७ (भ०) गुणभद्र ५०८ गुणभद्राचार्य १८२ गुणभद्राचार्य (धन्य कुमार चरित कर्ता) ३४६ गुणभूषण ४४४ गणवीर पंडित ५६ गुण वर्म (द्वितीय) ४१४ गुणसेन पंडितदेव २५८ गुणसेन मुनि १५६ गुरुदास २१३ गृहनन्दि ११२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १८ गोपनन्दी २५६ गोल्लाचार्य २३६ गोवर्द्धन (श्रुतकेवली) ४६ गोबर्द्धनदेव ३०० (कवि) गोविन्द ५०२ चउमुह (चतुर्मुख) १४३ (भ.) चन्द्रकोर्ति ५४० चन्द्रकीर्ति ३५६ चन्द्रकीति ३४७ चन्द्रकीर्ति ३४ चन्द्रकीति नाम के दूसरे विद्वान ३४६ चन्द्रकीति (श्रुतविन्दु के कर्ता) ३४६ चन्द्रदेवाचार्य २३७ चन्द्रनन्दि ११३ चन्द्रनन्दि १६० चन्द्रप्रभाचार्य ३०६ चन्द्रसेन १६२ (कवि) चन्द्रसेन ५०२ चामुण्डराय ३६५ (मभिनव) चारुकीर्ति पंडित देव ४६५ चितकाचार्य १२६ छत्रसेन ३३६ (कवि) जगन्नाथ ५५१ जयसिंहनन्दी १३६ (कवि) जन्न ४२६ जटाकीर्ति २७५ जयकोति २२७ जयदेवपंडित १६० जयसेन २३८ जयसेन १७३ जयसेन (प्राभत यटीकाकार) ३८३ जयसेन ३२४ जयसेन ३११ (कवि) जल्हिग ५०० (५०) ज़िनदास ५३० जिनसेनाचार्य १७४ जिनसेनाचार्य १४८ जिनसेन २६४ (ब्रम्ह) जीवंधर जोइन्दु (योगीन्द्रदेव) १२८ ज्ञानकीति १४४ (भ०) शानभूषण ५०४ (कवि) ठकुरसी ५२१ (शाह) ठाकुर ५३७ (कवि) डड्ढा २५७ तुम्बुलू राचार्य ११२ (कवि) तेजपाल ५१५ तलमोलिदेवर १६० तोरणाचार्य २३६ तोलकप्पिय ८६ त्रिभुवनचन्द्र ३२३ त्रिभुवन मल्ल ३५३ त्रिविक्रमदेव ४३२ कालयोगीश २२३ दयापालमुनि ३२३ दशरथगुरु १५२ दामनन्दि भट्टारक ३०० दामनन्दि २०० दामनन्दि ३०१ दामराज ३०२ (कवि) दामोदर ३६४ (कवि) दामोदर ५०६ दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव २५१ दुर्गदेव २५२ देवकीर्ति ३४८ देवकीतिपंडितदेव ३०० (मुनि) देवचन्द्र ३८२ देवनन्दि (पूज्यपाद) ११५ (भ०) देवेन्द्रकीति - देवेन्द्रमुनि ३७३ देवेन्द्रसैद्धान्तिक १६६ देवसेन २८६ देवसेनगणी (सुलोचना च० कर्ता) ३७९ देवसेन (भावसंग्रह के कर्ता) ४३६ देवसेन भट्टारक २३, देवसेन २३१ देवसेन १५६ देवसेन (दर्शनसार के कर्ता) २३१ (कवि) दोड्डय्य ५३० (आचार्य) दोलामस (धृतिसेन) ६५ (महाकवि) धनंजय १३८ (कवि) धनपाल ४८८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका पद्यनन्दी ३२५ पद्यनन्दी २६२ पपनाम कायस्थ ४७ पसिंह ३०६ पपसेनाचार्य २७६ परवादिमलय १५५ (कवि) परमेश्वर १४२ पात्रकेसरी १३१ पावपण्डित ४२६ पुष्पदत्त ७१ (महाकवि) पुष्पदस २५२ कवि पौन्न २१५ प्रभाबन्द्र ३७५ प्रभाचन्द्र ३७५ प्रभाषन्द्र ४८३ प्रभाचा ४० प्रभाचन्द्र ४२८ धनपाल ३०७ धर्मघर ५२२ (अभिनव) धर्मभूषण ५१२ धर्मसेनाचार्य २४५ धरसेन ७० मन्दिमित्र (श्रतकेवली) ४६ नयकीतिमुनि ३७३ नयनन्दी २७६ नयसेन २६४ (पं०) नरसेन ४५३ नरेन्द्र कीर्ति विद्य ३५३ नरेन्द्रकीर्ति विद्य ४१२ नरेन्द्रसेन ३६१ नरेन्द्रसेन (प्रथम) २६३ नरेन्द्रसेन त्रिविद्य चन्देश्वर (द्वितीय) २१३ तल्विगंद नादिराज ४३१ नागचन्द्र ३३७ नागचन्द्र (सूरि) ५०७ नागदेव २६४ मागनन्दी २३१ (कवि) नागव नागवर्म (द्वितीय) २१४ नागवर्म (प्रथम) २१४ (कवि) नागराज ४४. नागसेनगुरु-१५६ नागसेन गुरु १२७ नागहस्ति १२१ नेमचन्द्र ५०० (पंडित) नेमचन्द्र ३७२ पं० नेमिचन्द्र (प्रतिष्ठत तिलक के कर्ता) ५२२ नेमिचन्द्र सि. चक्रवर्ती २६१ (ब्रह्म) नेमिवत्त ५११ नेमिदेवाचार्य २१६ नेमिषेण २७ पं० मेधावी ५२४ पण्डित हरिचन्द ५२३ पप्रकीति २४२ पयनन्दि मलधारि ३२८ पानन्दि मलपारि ३०६ पयनन्दि यती ३६७ पानन्दी (जंबूद्वीपपत्ति०) २७२ भद्रारक प्रभाचन्द्र ४३२ प्रभाचन्द्र २५२ प्रभाचन्द्र विन ३७५ प्रभास (गणघर) २२८ (पंडित) प्रवचनसेन २५८ बन्धुषेण २२७ १ बप्पनन्दी २२७ २ बलदेवगुरु १५६ बसक पिछ ६१ बालचन्द्र ३३३ बालचन्द्रसिद्धान्तदेव ३६० बालचन्द्र पंडितदेव ४२५ बालचन्द्रकवि ४३६ बालचन्द्र मलवारी ४३२ बाहुबलि पाचार्य ३२४ धाहबखिदेव २१३ बोप्पण पंडित ३३४ ब्रह्मकृष्ण या केशवसेन सूरि ५३१ ब्रह्मजीवंधर ५२१ ब्रह्मदेव ३२० ब्रह्मशिवब्रह्मसेनवतिय २७५ (कवि) भगवतीदास ५४८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टवोदि ३३६ मट्टाकलंकदेव ५४९ भट्टारकविद्यानन्द ५१३ भट्टारक प्रभाचन्द्र ५२६ भट्टारक शुभचन्द्र ५२६ भ० श्रुतकीर्ति ५१४ भगवान महावीर २ भद्रवा श्रुतवली ४७ भद्रबाहु (द्वितीय) - भरतसेन २३० भानुकीति सिद्धान्तदेव ४१६ भावसेन ३१६ भाबसेन । ४०६ भास्कर कवि ५०१ भास्कर नन्दी (तत्त्वार्थवृत्ति ) ४५५ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ माणिक्यसेन पंडितदेव ३७४ माधवचन्द्र त्रैविद्य (क्षपणासार गद्य) ३६७ मावचन्द्र विद्य ३२५ माधवचन्द्र मलधारी ३४६ माधवचन्द्र ३५० माधवचन्द्रव्रती ३५० माधवसेन २०७ माधवसेन नाम के अन्य विद्वान ३६० माधवसेन नाम के अन्य विद्वान ३६१ मानतुंगाचार्य १३३ मुनिचन्द्र ४१६ मुनिपूर्णभद्र ४१४ मेघचन्द्र ४२८ मेघचन्द्र विद्यदेव ३७० मेतायं ( गणधर ) ५८ T मौनिभट्टारक २२५ मौर्यपुत्र ( गणधर ) २८ ( श्राचार्य) यति वृषभ १२३ 対 भूतबली ७१ भूपाल कवि ३०१ (कवि ) मंगराज ४४८ मंगराज द्वितीय ४४४ मंगराज तृतीय ४८५ मदनकीर्ति ४०३ मधुरकवि ४४० मल्लिषेण २९६ मल्लिषेण मल्लिषेण मलधारि ३५७ 11 यशः कीर्ति ४०२ ( भ० ) यशः कीर्ति ४८० यशोदेव २१८ यशोभद्र ११४ (पंडित) योगदेव ५०० पण्डित ४३१ (कवि ) रइधू ४५६ रट्ट कवि श्रद्दास ४२५ भ० रतनचन्द्र रत्न कीर्ति ५०० महाबलकवि ४३० (पण्डित) महावीर २६१ महावीराचार्य १८७ महासेन २६४ ( श्राचार्य) महासेन २१४ महासेन (सुलोचना कथाकर्ता ) १६७ रत्न योगीन्द्र ४३६ (कवि) र २१६ रवि कीर्ति २३६ रवि चन्द्र २७१ रविचन्द्र ( आराधना समुचय ) ४२४ महासेन पंडितदेव ३७४ (कवि ) महिन्दु या महाचन्द्र ५२४ महेन्द्रदेव २१९ माइल्ल धवल ३३६ रवि नन्दी १२७ रविषेणाचार्य १५६ (कवि ) राजमल्ल ५३३ (पंडित) रामचन्द्र ४६४ रामचन्द्र मुमुक्षु ३६८ मुनि रामसिंह ( देहा पाहुड) २४१ (ब्रह्म) राय मल्ल ५४३ रामसेन ३२३ राससेन २०७ मानन्द योगीन्द्र ४४७ माधनन्दी सैद्धान्तिक ७१ माघनन्दि सिद्धान्तदेव ३४६ माण्डव्य ( गणधर ) २८ माणिक्य नन्दी २७७ माणिक्य नन्दी ३४८ (कवि) माणिक्यराज ५१६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका (पं.) रूपचन्द ५४४ लक्ष्मो चन्द्र ४६५ लक्ष्मणदेव ३५७ (कवि) लालू या लक्ष्मण ३६१ लोक सेन १८८ लंगो वाडिगल ६१ (महामुनि) वऋग्रीव २२५ वजनन्दी १२६ बर्द्धमान भट्टारक ४४२ बसुनन्दी ३५१ (कवि) वाग्भट ४२० वाग्भट (नेमि निर्वाण काव्य के कर्ता) ३११ (भ०) वादि चन्द्र ५३२ वादिराज २४६ वादिराज (द्वितीय) ४३२ (कवि) बादिराज ५५२ वादि विद्यानन्द ५४२ बादीन्द्र विशाल कोति ४१३ बादीभसिंह १६८ वायुभूति (गणधर) २५ वावन नन्दी मुनि वासव चन्द्र मुनीन्द्र ३७३ वासव नन्दी २४० पासव सेन ४१३ विजय कीति ३७९ विजय कीति मुनि १६० विजय देव पंडिताचार्य १६७ विजय वर्णी (शृंगारार्णवचंद्रिका) ४१६ (बुध) विजयसिंह ४६E (भ०) विद्यानन्द(माचार्य) विद्यानन्द १६८ विद्यानन्द ४५५ (भट्टारक) विद्याभूषण ५३६ (मुनि) विनय चन्द्र ३६८ (मुनि) विनय चन्द्र ३८७ विनयसेन २०५ विमल कीति ३६६ विमल कीति ४२८ विमल चन्द्र मुनीन्द्र २२५ विभल चन्द्राचायं १६१ विमलसेन पंडिस २७६ विष्णु नन्दि (श्रुत केवली) ४६ (भ०) विश्वसेन ५३८ विशेषवादि १६१ (महाकथि) वीर २६७ मीर कति या बुधवीरु ५२९ वीरदेव ११२ वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती २६० वीर नन्दी (माचारसार के कर्ता) ३३५ वीरसेन २७० वीरसेन २८६ वीरसेन पंडित देव ३६० वृति विलास ३३० वृषभ नन्दी १६७ वृषभनन्दी (जीतसार समुचय कर्ता) २५६ शाकटायन (पाल्यकीति) १॥ शामकुण्डाचार्य १५८ शान्तिदेव २८८ शान्तिनाथ २५८ शान्तिषण ३७१ शिवकोटि (शिवार्य) १०४ पंडित शिवाभिराम ५५० (कवि) शिशु मायण ४२६ (भ०) शुभकीति ४८४ शुभचन्द्र योगी ४३१ (भ०) शुभचन्द्र ४६ स्मा) शुभचन्द्र ५०१ (प्रा.) शुभचन्द्र ३०३ शुभ नन्दी १३७ श्रो कीति ४३० श्रीकुमार कवि (प्रात्म प्रबोध के कर्ता) २६७ श्री चन्द्र कथाकोशकर्ता ३४३ श्री दत्त ११३ श्री दत्त (द्वितीय) ११३ श्री देव १८९ (कवि) श्रीधर ३६६ (कवि) श्रीधर ३८६ (कवि) श्रीधर ४४१ (कवि) श्रीधर ३४४ श्रीधर ३७३ श्रोषरसेन (विश्वलोचन कोष) ४१५ श्रीपालदेव १७४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ Ba (भ० ) श्रीभूषण ५३९ श्री वल्लभ (राजा) १७७ श्रीषेण सूरि ३७१ श्रुतकीर्ति ३३८ श्रुतकीर्ति ३०६ (भ०) श्रुतकीर्तिश्रुत मुनि ४३७ (ब्रह्म) श्रुतसागर ५०८ ( भ० ) सकल कीर्ति ४६१ सकल कोति ४३२ सकल चन्द्र भट्टारक ४३१ ( भ० ) सकल भूषण ५४१ ( प्राचार्य) समन्तभद्र १२ (लघु) समन्तभद्र ४३० (अभिनव ) समन्तभद्र ५०० सर्वनन्दी भट्टारक १६८ सर्वनन्दी भट्टारक २१३ सर्वनन्दी १६७ मुनि सर्वनन्दी १२२ सागर नन्दी सिद्धांतदेव ३३६ सागर सेन सिद्धांतिक २७६ (ब्रह्म) साधारण ४६८ (कवि) सिद्ध और सिंह ३६२ सिद्ध नन्दी १२५ सिद्धभूषण सैद्धान्तिक मुनि १९७ सिद्धसेन १०७ सिद्धान्त कीर्ति १५३ सिंह नन्दि १०३ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सिंहनन्दि गुरु १५६ ( भ० ) सिंहनन्दी ५४६ सुधर्म स्वामी ( गणधर ) २६ सुमति (सन्मति ) देव १४० ( भ० ) सुमति कीर्ति ५४७ सुमतिदेव १४१ सुप्रभाचार्य ४५४ सोमकीर्ति ५१६ सोमदेव २२० सोमदेव ४८६ ( मुनि) सोमदेव ४०० स्वयंभू कवि १५६ स्वामिकुमार १२७ सन् १६ (पं. हरपाल (वैद्यक ग्रन्थ कर्ता ) ४४१ हल्ल या हरिचन्द ४६६ (a) हरिचन्द्र ४७६ ( महाकवि ) हरिचन्द्र ३१७ हरिदेव ४०१ हर्षनन्दी ३१६ (कवि) हरिषेण २२६ हरिषेण २१० (श्री) हरिषेण २२ε हरिसिंह मुनि ३१६ हस्तिमल्ल ४५२ (ब्रह्म) हेमचन्द्र २६२ हेमसेन ३१६ लाचार्य २२५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची प्रस्तुत ग्रंथ में ग्रन्थकार और उनके ग्रन्थों के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों का उपयोग किया गया है— उनकी तालिका निम्न प्रकार अनेकान्त (वीर सेवामन्दिर दिल्ली ) आचाराग सूत्र सटीक शीलांकाचार्य आवश्यक निर्युक्ति इंडियन एण्टी क्वेरी जिल्द ३ इंडियन एण्टी क्वेरी भाग ११ जिल्द ५ इंडियन एण्टी क्वेरी जि० १२ इंडियन एण्टी क्वेरी वाल्यूम ११ जि० १५ इंडियन एण्टी क्वेरी जि० १२ एपिग्राफ़िया इंडिका जि० १ 13 JI -: 15 13 12 जि० ३ जिल्द ४-५ जि० ६ जि०८ कनिषम रिपोर्ट नं० १-१० गौतम धर्मसूत्र ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह के. भुजबली शास्त्री, मारा ग्रंथ सूची (ग्रामे भंडार) भा० १ 11 जि० १० जि० २० राजस्थान शास्त्र भंडार, जयपुर 32 ग्रंथसूची भा० २ ग्रंथसूची भा ३ ग्रंथसूची भा० ४ " ग्रंथसूची भा० ५ चौपन्न पुरिस चरिउ प्राचार्य शीलांक जागर्फीकल डिक्सनरी माफ नन्दलाल है जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० १ वीर सेवामंदिर IF " 12 जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ वीर सेवा मंदिर जैनिज्म इन साउथ इंडिया- पी० वी० देसाई (सोलापुर) जैन दर्शन पत्र भा० द० जैन संघ चौरासी मथुरा २३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन लेख संग्रह भा० १, भा० २, भा० ३, भा० ४, भा० ५, जैन सन्देश शोधांक १५ सम्पादक डा० ज्योति प्रसाद जैन जैन सन्देश शोधांक ३-४ जैन साहित्य और इतिहास, नाथराम जी प्र ेमी, चम्बई जैन साहित्य में विकार थवा घमेली हानि, पं० वेचरदास जंन हितेषी भाग १३ पं० नाथूराम प्रेमी fsaare शिवराम वामन ए (माणिकचन्द्र प्रथमाला चम्बई) तत्व संग्रह भ० १ २ ( बौद्ध ग्रन्थ) दक्षिण भारत में जैन धर्म, पं० कैलाश चन्द शास्त्री दी राष्ट्रकूटाज इन देअर टाइम, डा० अल्तेकर धर्मोत्तर प्रस्तावना पंचाशक हरिभद्राचार्य परिशिष्ट पर्व हेमचन्द सूरि पुरातत्व निबंधावली, राहुल सांकृत्यायन प्लूटार्च एन्शियेंट इंडिका प्रस्तावना उपासकाध्ययन, पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री प्रस्तावना पुरातन जैन वाक्य सूची पं० जुगल किशोर मुख्तार प्रस्तावना परमात्म प्रकाश डा० ए० एन उपाध्ये प्रस्तावना प्रवचनसार (डा० ए० एन० उपाध्याय) प्राकृतपिंगल पिंगलाचार्य प्राचीन भारत का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास भारत के प्राचीन राजवंश विश्वेश्वर नाथ रेउ भा० ३ भारतीय इतिहास की रूप रेखा, जयचन्द्र विद्यालंकार प्रथम एडीसन, मिडियावल जैनिज्म (डा० ए० बी० सालेसोर) मनुस्मृति राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द म० म० हीराचन्द जी मोझा वशिष्ट स्मृति विशेषावश्यक जिनभद्रगणिक्षमा श्रमण शामनगढ़ । दानपत्र (शक संo ) श्रमण भगवान महावीर मुनि कल्याण विजय संगमतंत्र स्कन्ध पुराण हिन्दु भारत का उत्कर्ष (सी० पी० वैद्य) हिस्टरी ऑफ इंडियन लिटेरचर वाल्यूम II हैदराबाद आरक्यो लाजिकल सीरीज संख्या १२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भगवान महावीर और उनकी संघ- परम्परा द्वितीय भाग प्रथम परिच्छेद १. महावीर से पूर्व देश-काल की स्थिति २. भगवान महावीर के ग्यारह गणधर ३. अन्तिम केवली जम्बू स्वामी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. महावीर से पूर्व देश-काल की स्थिति आज से लगभग छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भारत की स्थिति अत्यन्त विषम थी। चारों ओर हिंसा, असत्य, शोषण, दम्भ और अनाचार का साम्राज्य था। देश का वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध, पीड़ित और संत्रस्त हो रहा था । धर्म की रुचि मन्द पड़ गयी थी। बाह्मण संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व में श्रमण संस्कृति दबी जा रही थी। जानि भेद की दुर्गन्ध से देश का प्राण घट रहा था। जातिभेद के अभिमान ने ब्राह्मणों को पतित बना दिया था। ई-. द्वेप, अहंकार, लोभ, अज्ञान, अकर्मण्यता, क्रूरता और धूर्ततादि दुगंणों का निवास हो गया था। बहुदेवताबाद की कल्पना साकार हो उठी थी। धर्म के नाम पर मानव अधर्म और विकृतियों का दास बन गया था। धर्म का स्थान याज्ञिक क्रियाकाण्डों ने ले लिया था। यज्ञों में धूत, मधु अदि के साथ पशु भी होमे जाते थे और डके की चोट यह घोषणा की जाती थी कि भगवान ने यज्ञ के लिए ही पशुओं की रचना की है। वेद विहित यज्ञ में की जाने वाली हिंसा, हिंसा नहीं किन्तु अहिंसा है।' शैस्त्र के द्वारा मारने पर जीव को दुःख होता है। इसी शस्त्रबध का नाम पाप है, हिंसा है, किन्तु शस्त्र के बिना वेद मन्त्रों से जो जीव मारा जाता है वह लोक-धर्म कहलाता है। मानव अधिकारों का दिन दहाड़े हनन होता था । व्यक्ति की सत्ता विनष्ट हो चुकी थी। ब्राह्मण ही धर्मानष्ठान के उच्च अधिकारी माने जाते थे। शासन विभाग में उन्हें खास रियायतें प्राप्त थीं। बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी उन्हें प्राणदण्ड नहीं दिया जाता था, जबकि दूसरों को साधारण से साधारण अपराध होने पर मृत्युदण्ड दे दिया जाता था। धर्म का स्थान अधर्म ने ले लिया था, अराजकता का साम्राज्य बढ़ रहा था। मानवता कराह रही थी। उसकी गरिमा का पतन हो चुका था। धर्म राजनीति का एक कुण्ठित हथियार मात्र रह गया था। जनता की प्रास्था धर्म से उठ चुकी थी। स्वार्यलोलुप धर्मगुरु उसके ठेकेदार समझे जाते थे। स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी। मूक पशुओं की हत्या और उनके प्राक्रन्दन प्रादि से पृथ्वी तिलमला उठी थी। मानव का कोई मूल्य नहीं रह गया था। उसकी चेतना को लकवा मार गया था। नारी की सामाजिक स्थिति भयावह थी, उसका अपहरण हो चुका था। उसे धर्म-साधन करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था । वे बंद प्रादि की उच्च शिक्षा से भी वंचित थी। 'न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति' 'स्त्री १. यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञस्य भुत्य सर्वस्व तस्माद् यज्ञे वयोऽवमः ।। या वेदविहिता हिंसा नियताम्मिश्चराचरे । महिंसामेव तां विद्याद वेवादु धर्मो हि निर्बभौ ॥ -भनुम्गनि ५-२२, २६.४ २. या वेदविहिता हिंसा स न हियति निर्णयः । शस्त्रेण हन्यते यच्च पीडा जन्नु जापटे ५० स एव धर्मएवास्नि लोके धर्मविशवाः । वेदमंत्रविहन्येत विना परत्रेण जन्तवः ।। - स्कन्ध पुराण Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धम का प्राचीन इतिहाम भाग २ स्वतन्त्र नहीं हो सकती जैसों कठोर प्राज्ञायें प्रचलित थी। स्त्रो योर शूद्रों को बेद पढ़ने का अधिकार नहीं था।' शूद्रों से पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्हें धर्म-सेवन करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। वे पददलित और नीच समझे जाते थे। उनकी छाया पड़ जाने पर उन्हे दक्त किया जाता था और स्पर्श हो जाने पर सचेल स्नान किया जाता था। शिक्षा-दीक्षा प्रार देदादि शास्त्रों के सुनने का अधिकार केवल द्विजालियों को था। शुद्र को बंद की ऋचार सुनने पर काना में शीशा भरने, घोलने पर जीभ काटने और ऋचात्रों के कंठस्थ करने पर शरीर नष्ट कर देन का कठोर विधान था तथा यह प्रार्थना की जाती थी कि उन्हें बुद्धि न दे, का प्रसाद न दे और ता.द का उपदंश भी न दे । यद्यपि २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के निवाण को अभी पूरे दो सौ वर्ष भी व्यतीत नहीं हुए थे, किन्तु फिर भी उनके संघ और धर्म की स्थिति शोचनीय हो गई थी। तात्कालिक क्रियाकाण्डों के प्रभाव से जैन मंघ भी अछूता नहीं बचा था। उसमें भी वर्ण और जाति-भेद के संस्कारों का प्रभाव किसी न किसी रूप में प्रविाट हो गया था। धार्मिक संस्कारों पर भी अन्धविश्वास, हिमा और रूदियों का प्रभाव अंकित हो रहा था। पाखनाथ-पपरा के श्रमणों में भी दोथिल्य प्रदिष्ट हो गया था। वे स्वयं अराक्त हो रहे थे। ऐसी स्थिति म हिंसक क्रियाकाण्डों को मिटाना उनके लिये सम्भव नहीं था। राजनैतिक दष्टि से भी उक्त समय उथल-पुथल का था। उसमें स्थिरता नहीं थी। कई स्थानों पर प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य थे जिनका शासन अपेक्षाकृत सुखशान्ति सम्पन्न था। पर याजिक क्रियाकाण्डों में होने वाली हिसा का तांडव दूर नहीं हुआ था और न उन राज्यों में ऐसी शक्ति ही थी, जो उन पाशिक श्ािकाण्डों से पा हिसा का निवारण कर पदानों को अभयदान दिला सके। क्योंकि अशक्त आत्मा अपना स्वयं भी उत्थान नहीं कर सकता, फिर अन्य के करने का प्रदन ही नहीं उता। उस समय देश का वातावरण विषम हो रहा था। ऐसी स्थिति में किसी ऐसे योग्य नेता की आवश्यकता थी, जो आत्मवल से क्रान्ति ला दे और यानिक भयाकागदों का विरोध कर उसमें प्रदिसा की भावना भर दे। अधर्म को धर्म समझ कर जो कार्य निष्पन्न किया जाता था, उसमें परिवर्तन ला द। धर्म को यथार्थ परिभाषा को जन-मानस में प्रतिष्ठित कर दे और जनता के कष्टों को दूर कर उसके उत्थान का मार्ग सरल एवं सुलभ बना दे। उस समय किसी ऐसे शक्तिमान नेतृत्व की प्रावश्यकता थी, जिसके व्यक्तित्व के प्रभाव से हिला का ताण्डव अहिसा में परिणत हो सके । 'जनना महो कोई अवतार नया की आवाजें उठ रही थीं। जव अन्याय अत्याचार के साथ मधर्म की मात्रा अधिक हो जाया करती है, तभी शान्तिकारी नेता का प्रादुर्भाव होता है। परिणामस्वरूप लोक में महावीर का अवतार हुआ। १. 'न -बीद्रौत्र दे मधी येताम् वशिष्ठ-स्मृति २. बंदमुपवतन्नस्य उतुभ्यां धीरः प्रतिपूरए मुच्चारण जि.वादो, दाणे शरीरभेदः । (गौतम धर्मम्बम् १९५) न शूद्राय भनि दद्यान्नोच्छिष्टं न हविकृतम् । न चास्योपदिशेद्धर्म, न चास्य इतमादिकेत् । (वशिष्ठ स्मृति १८, १२, १३) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की जन्म भूमि भगवान महावीर की जन्मभूमि विदेह देश की राजधानी वैशाली थी, जिसे वर्तमान में वसाढ़ कहा जाता है। प्राचीन काल में वैशाली की महत्ता और प्रतिष्ठा शक्तिशाली गणतन्त्र की राजधानी होने के कारण अधिक बढ़ गई थी। मुजफ्फरपुर जिले की गंडकी नदी के समीप स्थित वसा ही प्राचीन वैशाली है । उसे राजा विशाल की राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । पाली ग्रन्थों में वैशाली के सम्बन्ध में लिखा है कि दीवारों को तीन बार हटा कर विशाल करना पड़ा था, इसीलिए इसका नाम बंगाली हुआ जान पड़ता है । वैशाली में उस समय अनेक उपशाखा नगर थे जिनसे उसकी शोभा और भी द्विगुणित हो गई थी। प्राचीन वैशाली का वैभव अपूर्व था और उसमें चातुर्वर्ण के लोग निवास करते थे । वजी देश की शामक जातियों में मुख्य लिच्छवि थे। लिच्छवि उन्न वंशीय क्षत्रिय थे। उनका वश उस समय अत्यन्त प्रतिष्ठित समझा जाता था। यह जाति अपनी वीरता, धीरता, दृढ़ता, सत्यता और पराक्रमादि के लिये प्रसिद्ध थी । इनका परस्पर संगठन और रीति-रिवाज, धर्म और शासन-प्रणाली सभी उत्तम थे। इनका शरीर अत्यन्त कमनीय और भोज एवं तेज से सम्पन्न था। ये अपने लिये विभिन्न रंगों के वस्त्रों का उपयोग करते थे श्री श्रच्छे श्राभूषण पहनते थे । परस्पर में एक दूसरे के सुख-दुख में काम आते थे। यदि किसी के घर कोई उत्सव वगैरह या इष्ट-वियोग आदि जैसा कारण बन जाता था तो सब लोग उसके घर पहुंचते थे, और उसे अनेक तरह से सान्त्वना प्रदान करते थे प्रत्येक कार्य को न्याय-नीति से सम्पन्न करते थे । वे न्यायप्रिय और निर्भय वृत्ति थे तथा स्वार्थपरता से दूर रहते थे। वे एकता और न्यायप्रियता के कारण यजेय बने हुए थे। वे अपने सभी कार्यों का निर्णय परस्पर में विचार-विनिमय से करते थे । राजा चेटक उस गणतन्त्र के प्रधान थे। राजा चंटक की रानी का नाम भद्रा था, जो बड़ी ही विदुषी और शीलादि सद्गुणों से विभूषित था। राजा चंटेक की सात पुत्रियाँ और सिंहभद्रादि दश पुत्र थे । सिंहभद्र की सातों बहनों के नाम- प्रियकारिणी (त्रिशला ), सुप्रभा, प्रभा १. गण्डकी नदी से लेकर चम्पारन तक का प्रदेश विदेह प्रथवा नीरभुक्त (तिरहुत) के नाम से भी ख्यात था। शक्ति संगम तन्त्र के निम्न पथ से उसको स्पष्ट सूचना मिलती है : गण्डकीनीरमारभ्य चम्पारयन्तिकं शिवे । विदेहभूः समाख्याता वीरभुक्ताश्रमनु || (a) वामिदेशे विशाली नगरी नृपः ॥ - दृश्येण कथाकोप ५५ श्लोक १६५ (प्रा) विदेहों और लिवियों के पृथक्-पृथक् संघों को मिला कर एक ही संघ या गण बन गया था जिसका नाम वृज या वगण था। समूचे वृजि संघ की राजधानी वैशाली ही थी। उसके चारों मोर तिहरा परकोटा था जिसमें स्थानस्थान पर बड़े-बड़े दरवाजे और गोपुर (पहरा देने के मीनार ) बने हुए थे। - भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ३१० से ३१३ (इ) बज्जी देश में प्राजकल का चम्पारन और मुजफ्फरपुर, जिला दरभंगा का अधिकांश भाग तथा छपरा जिले का मिर्जापुर, परसा, सोनपुर के थाने तथा अन्य कुछ मोर भूभाग सम्मिनित थे । - पुरातत्व निबन्धावली पृ० १२ २. ( ) मय वज्राभिषे देणे विशाली नगरी नृपः ।। अस्यां केकोsस्य भार्याऽसीत् यशोमतिरिति प्रभा ।। विनयाचार संपन्नः प्रतापाक्रान्तशत्रवः । अभूत् साधुकृतश्यन्दयचेटकाल्यः सुनोऽनयोः ।। x - वृहत्कयाकोष ५४-१६६-१६७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम मान बती मगावती, ज्येष्ठा, चेलना और चन्दना था। इनमें त्रिशला कुण्डपुर के राजा सिद्धार्थ को विवाही थी। सुप्रभा दशार्ण देश के राजा दशरथ को, और प्रभावती कच्छदेश के राजा उदायन की रानी थी। मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक की पत्नी थी। चेलना मगध के राजा विम्बसार (थणिक) की पटरानी थी । ज्येष्ठा और चन्दना माजन्म ब्रह्मचारिणी रहीं। ये दोनों ही भगवान महावीर के मंघ में दीक्षित हुई थी। उन में चन्दना प्रायिकानों में प्रमुख थी, संघ की गणनी थी। सिंहभद्र वज्जिसंघ की सेना के सेनापति थे । इस तरह चेटक का परिवार खूब सम्पन्न था। वज्जिसंघ में गणतन्त्र सम्मिलित थे, जिनमें वृजि, लिच्छवि, ज्ञात्रिक, विदेह, उग्र, भोग और कौरवादि पाठ जातियां शामिल थीं। वृजि लोगों में प्रत्येक गांव का एक सरदार राजा कहलाता था। लिच्छवियों के अनेक राजा थे, और उनमें प्रत्येक के उपराज, सेनापति और कोषाध्यक्ष आदि अलग-अलग होते थे। ये सब राजा अपने अपने गांव के स्वतंत्र शासक थे; किन्तु राज्य-कार्य का संचालन एक सभा या परिषद् द्वारा होता था। यह परिषद ही लिच्छवियों को प्रधान-शासन शक्ति थी। शासन-प्रबन्ध के लिये संभवतः उनमें से नौ प्रादमी गण राजा चुने जाते थे। इनका राज्याभिषेक एक पोखरमी के जल से होता था। वैशाली गणतंत्र के अधिकांश निवासी व्रात्य कहलाते थे। ये महन्त के उपासक थे। उनमें जैनियों के तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का शासन या धर्म प्रचलित था। वर्तमान वसाढ़ के समीप ही 'वासुकुण्ड' नाम का ग्राम है, वहाँ के निवासी परम्परा से एक स्थल को भगवान महावीर की जन्म-भूमि मानते आये हैं और उन्होंने पूज्य भाव से उस पर कभी हल नहीं चलाया। समीप ही एक विशाल कगड है, जो अब भर गया है और जोता बोया जाता है । वैशाली की खुदाई में एक ऐसी प्राचीन मुद्रा भी मिली है, जिसमें वैशाली नाम कुडे' ऐसा उल्लेख है । इन सब प्रमाणों के आधार पर विद्वानों ने वासुकुण्ड को महावीर की जन्मभूमि कुण्डधामस्वकार किया है। वैशाली के पश्चिम में गण्डकी नदी वहती थी। उसने पश्चिम तट पर क्षत्रिय कुण्डपुर, ब्राह्मण कुण्डपुर, बाणिज्यग्राम, कर्मारग्राम और कोल्लाग सन्निवेश प्रादि उपनगर एवं शाखानगर अवस्थित थे। क्षत्रिय-कूण्डपुर में जात, जात, ज्ञात या णाह क्षत्रियों के पांचसी घर धे। राजा सिद्धार्थ क्षत्रिय कुण्डपुर के अधिनायक थे। वे राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती के धर्मात्मा पुत्र थे। उन्हें थेयांस और यशांश भी कहते थे। वे काश्यप वंश के चमकते रत्न थे। सिद्वार्थं वीर योद्धा और पराक्रमी शासक थे। राजा सिद्धार्थ का विवाह वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की अत्यन्त सुन्दर एवं विदुषी पुत्री त्रिशला के साथ सम्पन्न हुआ था, जिसका अपर नाम 'प्रियकारिणी' था, और जो लोक में विदेहदत्ता के नाम से प्रसिद्ध थी। वह पुण्यात्मा और सौभाग्यशालिनी थी। राजा सिद्धार्थ नाथ या शात क्षत्रियों के प्रमुख नेता के रूप में ख्यात थे। इसी कारण वे सिद्धार्थ कहलाते थे। वे शस्त्र और शास्त्र विद्या में पारगामी थे और भगवान पार्श्वनाथ के उपासक थे। (मा) सिन्ध्वाध्यविषये भूभद वैशाली नगरेऽभवत् । चेटकायोज-विख्यातो विनीतः परमाहतः ।।३।। तस्य देवी सुभद्राख्या तयोः पुत्रा दशाभवन् । घनायो दन्तभद्रान्तावुपेन्द्रो ऽन्यः सुदसवाक् ।।४।। सिंहभद्रः सुकुम्भोजो ऽकंपनः सपतंगकः । प्रभजन: प्रभासश्च धर्मा इव सुनिर्मला:॥|| -उत्तर पुराणे गुणभद्रः पर्व ७५ १. भारतीय इतिहास की रूप-रेखा भा० ११० १३४ २. श्रमरा भगवान महावीर पृष्ठ ५ ३. श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में त्रिशला को राजा चेटक को दहिन बतलाया है । चेटक को अन्य पुत्रियों के नामों में भी बिभिनना है। चन्दना को अंगदेश के राजा दधिवाहन की पुत्री बतलाया है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जन्म भगवान महावीर का जीव अच्युत कल्प के पुष्पोत्तर नामक विमान से च्युत होकर पाषान शुक्ला षष्ठी के दिन, जबकि हस्त और उत्तरा नक्षत्रों के मध्य में चन्द्रमा अवस्थित था, त्रिशला देवी के गर्भ में पाया। उसो रात्रि में त्रिशला देवी ने सोलह स्वप्न देखे', जिनका फल राजा सिद्धार्थ ने बतलाया कि तुम्हारे शूरवीर, धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक और पराक्रमी पुत्र का जन्म होगा जो अपनी समुज्ज्वल कीति में जनता का कल्याण करेगा । भगवान महावीर जबसे त्रिशला के गर्भ में आये, तवसे राजा सिद्धार्थ के घर में विपुल धन-धान्य को वृद्धि होने लगी, राज्य में सूख-समद्धि हई । सिद्धार्थ के घर में अपरिमित धन और वैभव में बढ़ोतरी होती हुई देखकर जनता को बड़ा आश्चर्य होना था कि सिद्धार्थ का वैभव इतना अधिक क्यों बढ़ रहा है और उसकी प्रतिष्ठा में भी निरन्तर वद्धि हो रही है। नौ महीने और पाट दिन व्यतीत होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को रत्रि में सौम्य ग्रहों और शुभ लग्न में जब चन्द्रमा अवस्थित था, उत्तरा फाल्गुणी नक्षत्र के समय भगवान महावीर का जन्म हमा। पुत्रोत्पत्ति का शुभ (क) मिद्धार्थनपतितनयो भारतवास्ये विदेह कुण्डपरे । देया प्रियकारिण्या मुस्वप्नान् संप्रदय विभुः ।। भापासुमिनपाठयां हस्तोत्तर मध्यमाथिते शशिनि । मायातः स्वर्गमुन्त्र भुक्त्वा पुष्पोनराधीशः ।।-(निर्वाणभक्नि) (ख) यहां मह प्रघट कर देना अनुचित न होगा कि इवेनाम्बरीय कल्पसूत्र घोर अावश्यक भाध्य में ८२ दिन बाद महावीर के गर्भपहार की असंभव और अप्राकृतिक घटना का उल्लेख किया है। यह घटना ब्राह्मणों को नीचा दिखाने की दृष्टि से घड़ी गई प्रतीत होती है। उसमें कृष्ण के गर्भारहार का अनुसरण पाया जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उसे मछेरा या दश प्रापचयों में गिनाया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय के किमो भी ग्रन्थ में इस घटना का उल्लेख तक नहीं है। दूसरे यह बात सभव भी नहीं जंचती। सभी तीर्थकरों और महापुरुषों को जब एक ही माता-पिता की सन्तान बतलाया गया है तब भगवान महावीर के दो-दो माता-पितामों का उल्लेख करना कसे उचित कहा जा सकता है ? यह घटना घज्ञानिक भी है। इतिहास में ऐसी एक भी घटना का उल्लेख देखने में नहीं पाया जिसमें एक ही बालक के दो पिता और दो भाताएं हो। वसूदेव की पत्नी देवकी के गर्भ को सातवें महीने में दिव्य शक्ति के द्वारा पत्नी रोहिणी के गर्भ में रखे जाने की जो बात हिन्द पौराणिक पाख्यानों में प्रचलित थी, उसका अनुसरण करके महावीर के लिये भी ऐसी अप्राकृतिक प्रदभूत घटना को किन्हीं विद्वानों ने प्रछेरा बहकर प्रग-सूत्रों में अंकित कर दिया । श्वेताम्बरी मान्य विद्वान् पं० मुखलालजी भी इसे अनुचित बतलाते हैं। चार तीर्थकर १०१०९ २. (4) सिद्ध स्वराय पियकारिणोहि पयरम्भिकडले वीरो। उतरकगिरिक्खे चिपिया तेरसीए उप्पण्णो॥-तिलो.प. (पा) र सित पक्ष फाल्गुनि शशांक योगे दिन त्रयोदश्यां । जो स्वोच्चस्येषु ग्रहेषु सौम्येष शुभलग्ने । –निर्वाण भक्ति (1) "प्रासाद जोह पकाद-छुट्टीए कुडपुर ण गराहिव-गाहास-सिद्धरप-गरिबस्स तिसला देवीए गम्भमागंतूरण' तस्य प्रदिवसाहिय रणवमासे अच्छिा चइत्त-मुक्त-वक्त नरमीए रत्तीए उत्तरफग्गुणों णक्वते गम्भादो णि खंतो बड़हमारण निरिणदो ॥ -जय घ० भा० ११०७६-७७ (६) उम्मीलितावधिदशा सहम, विदित्वा तज्जन्म भक्तिभरत: प्रणतोतमांगाः । घंटानिनादसमदेतनिकायमुख्या दृष्टया ययुस्तदिति कुण्डपुरं सुरेन्द्राः ॥-प्रसंगकरि रुत वर्षमान परित Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ समाचार देने वालों को खूब पारितोषिक दिया गया और नगर पुत्रोत्पत्ति की खुशी में तोरणों और ध्वज-पंक्तियों से अलंकृत किया गया । मुन्दर वादित्रों की मधुर ध्वनि से अम्बर गुंज उठा। याचक जनों को मनवांछित दान दिया गया। उस समय नगर में दीन दुखियों का प्रायः प्रभाव-सा था। नगर के सभी नरनारी हातिरेक से प्रानन्दित थे। धूप-घटों से उद्गन मुगन्धित धूम्र से नगर सुरभिन हो रहा था। जिधर जाइये उधर ही बालक महावोर । जन्मोत्सव की धूम और कलरव सुनाई पड़ रहा था। देव और इन्द्रों ने भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाया और सुमेरु पर्वत पर ले जाकर इन्द्र ने उनके जम्माभिषेक का महोत्सव धूम-धाम से मम्पन्न किया और बालक को दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत किया गया । बालक का जन्म जनता के लिये बड़ा ही सुखप्रद हया था। उनके जन्म के समय संसार के सभी जीवों ने क्षणिक शान्ति का अनुभव किया था। इन्द्र ने धावृद्धि के कारण बालक का नाम वर्द्धमान रक्खा । बालक के जातकर्मादि संस्कार किये गए। राजा सिद्धार्थ ने स्वजन-सम्बन्धियों, परिजनों, मित्रों, नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों, सरदारों और जातीय जनों को तथा नगरनिवासियों का भोजन, पान, वस्त्र, अलंकार और ताम्बूलादि से उचित सन्मान किया। बाल्य-जीवन बालक वर्द्धमान वाल्यकाल से ही प्रतिभासम्पन्न, पराक्रमी, वीर, निर्भय और मति-श्रुत-अवधि मप तीन ज्ञान नेत्रों के धारक थे। उनका शरीर अत्यन्त सन्दर, सम्मोहक एवं प्रोज तेज से सम्पन्न था। उनकी सौम्य याकृति देखते ही बनती थी। उनका मधुर संभाषण प्रकृतितः भद्र और लोकहितकारी था । उनका शरीर दूज के चन्द्र के समान प्रतिदिन बढ़ रहा था। पाश्वपित्तीय संजय (जयसेन) और विजय नाम के दो चारण मुनियों को इस बात में भारी सन्देह उत्पन्न हो गया था कि मत्यु के बाद जाव किमी दूसरी पर्याय में जन्म लेता है या नहीं। वर्तमान समय बाद उन चारण मनियों ने जब बर्द्धमान तीर्थकर को देखा, उसी समय उनका वह सन्देह दूर हो गया । अतएव उन्होंने भक्ति से उनका नाम सन्मति रक्खा' । उनका शरीर अत्यन्त रूपवान और सर्वलक्षणों से भूपित था । वे जन्म-समय के दस अतिशयों से सम्पन्न थे। एक दिन इन्द्र की सभा में देवों में यह चर्चा चल रही थी कि इस समय सबसे अधिक शक्तिशाली शवोर बर्द्धमान हैं। यह सुनकर 'संगम' नाम का एक देब उनकी परीक्षा करने के लिये पाया। पाते ही उसने देखा कि देदीप्यमान प्राकार के धारक बालक वर्तमान समवयस्क अनेक बाल के साथ एक वृक्ष पर चढ़े हुए क्रीड़ा करने में तत्पर हैं । यह देख संगम देव इन्हें डरावने की इच्छा से एक बड़े सांप १. (क) संजयस्वाधंसंदेहे संजाने विजयस्य । जन्मानन्तरमेवनमभ्येत्यालोकमात्रतः ।।२८२ तरसह गते ताम्यां चारणामांम्वभक्तिलः । प्रस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाहृतः ॥ २५३ -उत्तर पुराण पर्व ७४ (ख) निवृतो जयसेनाप्रधारिणा विजयेन च । तत्वेष सन्मतिदेव इत्युक्तः प्रमदादसा ।।२६ -त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगग्य और दीक्षा का रूप धारण कर उस वृक्ष की जड़ से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया । सब बालक उसे देखकर भय से कांप उठे और शीघ्र ही डालियों पर से नीचे कूद कर भागने लगे। परन्तु राजकुमार वर्द्धमान के हृदय में जरा भी भय का संचार न हुआ। वे उसके विशाल कण पर चढ़कर उससे क्रीड़ा करने लगे । सर्प का रूप धारण करने वाला संगम देव उनकी वीरता और निर्भयता को देखकर विस्मित हुआ और अपना असली रूप प्रकट कर उन्हें नमस्कार किया, स्तुति की और उनका नाम 'महावोर' रक्खा । महाकवि धनंजय ने नाममाला में भगवान नाथान्वय और वर्द्धमान नामों का उल्लेख किया है प्रचलित है । महावीर के सम्मति प्रतिवीर, महावीर, अन्त्यकाश्यप, और बतलाया है कि इस समय उन्हीं का शासन भगवान महावीर का गोत्र काश्यप था। उनके तेज पुंरंज से वैशाली का राज्य शासन चमक उठा था। उस समय वैशाली और कुण्डपुर की शोभा द्विगुणित हो गई थी और वह इन्द्रपुरी से कम नहीं थी । वैराग्य और दीक्षा महावीर का बाल्य-जीवन उत्तरोत्तर युवावस्था में परिणत होता गया। इस अवस्था में भी उनका चित्त भोगों की ओर नहीं था । यद्यपि उन्हें भोग और उपभोग की वस्तुनों की कमी नहीं थी, किन्तु उनके अन्तर्मानस में उनके प्रति कोई आकर्षण नहीं था । वे जल में कमलवत् उनमे निस्पृह रहते थे। वे उस काल में होने वाली विषम परिस्थिति से परिचित थे। राज्यकार्य में भी उनका मन नहीं लगता था । राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला उन्हें गृहस्थ-मार्ग को अपनाने की प्रेरणा करते थे और चाहते थे कि वर्द्धमान का चित्त किसी तरह राज्य कार्य के संचालन की ओर हो । एक दिन राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला ने महावीर को वैवाहिक सम्बन्ध करने के लिए प्रेरित किया । कलिंग देश का राजा जितशत्रु, जिनके साथ राजा सिद्धार्थ की छोटी बहिन यशोदा का विवाह हुआ था, अपनी पुत्री यशोदया के साथ कुमार वर्द्धमान का विवाह सम्बन्ध करना चाहता था । परन्तु कुमार बर्द्ध - १. ( ) उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक २६८ से २६५ (भा) वीरः शूरो स्मृति सुराणा मिन्द्रसंसदि । श्रुत्वा सङ्गमगतस्तं परीक्षितुम् ||२७|| दृष्ट्वा क्रीडन्तमुद्यानेऽयमारुढो नृपात्मजः । काकपक्षधरः सार्धं सवयोभिर्महाफणी ||२८|| भूत्वा वेष्टिताभास्कन्धावस्थात्तद्भयतोऽखिलाः । विटपिभ्यो निपत्यश्शु राजपुत्राः पीयताः ।।२६ वीरोऽरुषादा रहा भीष्मं मात्रक बदरीरमत् । ततः प्रीतो महावीर इत्याख्यां तस्य सव्यधात् ॥ ३० त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्रम् पृ. १५४ २. सम्मति: महतिवीरः महावीरोऽत्मकाश्यपः । नाथान्वयः वर्धमानः यत्तीबंमिह साम्प्रतम् ॥ - धनंजय नाममाला Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ मान ने विवाह करने से सर्वथा इनकार कर दिया और विरक्त होकर तप में स्थित हो गये।' इससे राजा जितशत्रु का मनोरथ पूर्ण न हो सका। महावीर के विवाह सम्बन्ध में श्वेताम्बरों की मान्यता इस प्रकार है : श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महावीर के विवाह सम्बन्ध में दो मान्यतायें पाई जाती हैं- विवाहित और अविवाहित । कल्पसूत्र और आवश्यक भाष्य को विवाहित मान्यता है और समवायांग सूत्र, ठाणांगसूत्र, पामचरित तथा आवश्यक नियुक्तिकार द्वितीय भद्रवाहु की अविवाहित मान्यता है। यथा-"एगणवीस तित्थयरा अगारवास मझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं प्रगाराप्रो अणगारियं ब्वइया।" (समवायांग सूत्र १६ पृ०३५) इस सूत्र में १६ तीर्थकरों का घर में रह कर और भोग भोगकर दीक्षित होना बतलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि शेष पांच तीथंडर कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए हैं। इसी से टीकाकार अभयदेव सुरि ने अपनी वृत्ति में 'शेषास्तु गचकुमारभाव एवेत्याह च' वाक्य के साथ कार रिटुनमि' नाम की दो गाथाएँ उहत की हैं वीर अस्टिनेमि पास महिल च वासुपुज्ज च। एए मोत ण जिणे अवसेसा प्रासि रायाणो ।।२२१ रायकुलेसु वि आया विसुद्धवंसेसु वि खत्ति कुलेसु । नयइच्छियाभिसेया कुमारवासंमि एवश्या ।।२२२॥ -- आवश्यक नियुक्ति पत्र १३६ इन गाथानों में बतलाया गया है कि बीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लि और वासुपूज्य इन पांचों को छोड़कर शेष १६ तीर्थङ्कर राजा हुए थे। ये पांचों तीर्थकर विशुद्ध वंयों, क्षत्रिय कुलों और राजकुलों में उत्पन्न होने पर भी राज्याभिषेक रहित कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए थे। आवश्यक नियुक्ति को २२६ वीं गाथा में उक्त पांच तीथंकरों को 'पढमवए पब्बइया' वाक्य द्वारा प्रथम अवस्था (कुमार काल) में दीक्षित होना बतलाया है। उक्त नियुक्ति की निम्न गाथा में इस विषय को और भी स्पष्ट किया गया है : गामायारा बिसया निसेविया ते कुमारवज्जे हि । यामागराइए सय केसि (स) विहारो भये कस्स (२५५ प्रागमोदय समिति से प्रकाशित आवश्यक नियुक्ति की मलयगिरि टीका में महावीर का नाम छपने से रह गया है । इसमें स्पष्ट रूप से बतलाया है कि पांच कुमार तीर्थङ्करों को छोड़ कर शेष ने भोग भोगे हैं। कुमार का अर्थ पविवाहित अवस्था से है। परन्तु कल्पसूत्र की समरवीर राजा की पुत्री यशोदा से विवाह सम्बन्ध होने, उससे प्रियदर्शना नाम की लड़की के उत्पन्न होने और उसका विवाह जमालि के साथ करने की मान्यता का मूलाधार क्या है यह कुछ मालूम नहीं होता, और न महावीर के दीक्षित होने से पूर्व एवं पश्चात् यशोदा के शेष १ () भवान्न कि श्रेणिक वेत्ति भूपति नपेन्द्रसिद्धायकनीयसीपतिम् । इमं प्रसिद्ध जितशत्रमाख्यया प्रतापवतं जितशत्रुमण्डलम् ॥६॥ जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोत्सवे तदागतः कुण्डपुर सुहृत्परः । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भूभृता नपोऽपमाखण्डलतुल्य विक्रमः ॥७॥ यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीरविवाहमंगलम् । भनेककन्यापरिवारयारुहत्समीक्षित तुगमनोरथं तदा ll स्थिते ऽथ नाये तपसि स्वयंभूवि प्रजातकवल्यविशाललोचनं । जगद्विभूत्यै विहरत्यपि मिति क्षिति विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥६॥ -हरिवंश पुराण, जिनसेनाचार्य, पर्व ६६ (मा) प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोय पण्णसो' को 'वीर भरिखनेमि' नामक गाथा में बासुपूज्य, मल्लि, नेमिनाथ पौर पाश्वनाथ के साथ वर्षमान को भी पांच वालपति तीर्थकरों में गणना की है, जिन्होंने कुमार अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण की थी। इस सम्बन्ध में दिगम्बर सम्प्रदाय को एक ही मान्यता है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य और दीक्षा जीवन अथवा उसकी मृत्यु प्रादि के सम्बन्ध में ही कोई उल्लेख श्वेताम्बरीय साहित्य में उपलब्ध होता है, जिससे यह कल्पना भी निष्प्राण एवं निराधार जान पड़ती है कि यशोदा अल्पजीवी थी, और वह भगवान महाबीर के दीक्षित होने से पूर्व ही दिवंगत हो चुकी थी। अतः उसको मृत्यु के बाद भगवान महावीर ब्रह्मचारी रहन से ब्रह्मचारी के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। कुमार वर्द्धमान अपना प्रात्म-विकास करते हुए जगत का कल्याण करना चाहते थे। इसी कारण उन्हें सांसारिक भोग और उपभोग अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य-वैभव में पले और रह रहे थे, किन्तु बे जल में कमलवत् रहते हुए उसे एक कारागृह ही समझ रहे थे। उनका अन्तःकरण सांसारिक भोगाकांक्षाओं से विरक्त और लोक-कल्याण को भावना से ओत-प्रोत था । अतः विवाह-सम्बन्ध की चर्चा होने पर उसे अस्वीकार करना समुचित ही था। कुमार वर्द्धमान स्वभावतः ही वैराग्यशील थे। उनका अन्तःकरण प्रशान्त और दया से भरपूर था, वे दीन-दुखियों के दुःखों का अन्त करना चाहते थे। इस समय उनकी अवस्था २८ वर्ष ७ माह और १२ दिन की हो चुकी थी। अत: आत्मोत्कर्ष की भावना निरन्तर बढ़ रहो थो, जो प्रतिम ध्येय की साधिका ही नहीं, किन्तु उसके मूर्त रूप होने का सच्चा प्रतीक थी। अतः भगवान महावीर ने द्वादश भावनाओं का चिन्तन करते हुए संसार को अनित्य एवं अशरणादिरूप अनुभव किया। उन्हें सांसारिक वभव की अस्थिरता एवं विनश्वरता का स्वरूप प्रतिभासित हो रहा था और अन्तःकरण की वृत्ति उससे उदासीन हो रही थी। अत: उन्होंने राज्य-विभूति को छोड़ कर जिन-दीक्षा लेने का दृढ़ सकल्प किया। उनकी लोकोपकारी इस भावना का लौकान्तिक देवों ने अभिनन्दन किया। भगवान महावीर चन्द्रप्रभा नाम की शिविका (पालको) में बैठ कर नगर से बाहर निकले और ज्ञात खण्ड नाम के वन में मार्गगिर कृष्णा दशमी के दिन अपराण्ह में जबकि चन्द्रमा हस्तोत्तरा नक्षत्र के मध्य में स्थित था, षष्ठोपवास से दीक्षा ग्रहण की। वे सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार कर अशोक वृक्ष के नीचे शिलासन पर उन्त र दिशा की ओर मुख कर विराजमान हुए । सर्व वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर--बहमूल्य वस्त्राभूषणों को उतार कर फेंक दिया और पंच मूप्टियों से अपने केशों का लौंच कर डाला। इस तरह भगवान महावीर ने दिगम्बर मुद्रा धारण की और प्रात्मध्यान में तन्मय हो गए । दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। उपवास की परिसमाप्ति पर जब वे पारणा के लिए वन से निकले और विद्याधरों के नगर के समान सुशोभित कुलग्राम की नगरी (वर्तमान कार ग्राम) में पहंचे, वहाँ कल नाम के राजा ने भक्तिभाव से उनके दर्शन किये, तीन प्रदक्षिणाएं दों, और चरणों में सिर झुका कर नमस्कार किया, उनकी पूजा की और मन, वचन काय की शुद्धिपूर्वक नवधाभक्ति से परमान्न (खीर) का पाहार दिया। दान के प्रानुषङ्गिक फलस्वरूप उस राजा के घर पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई । आहार लेकर वर्द्धमान पुनः तप में स्थित हो गए और प्रात्म-साधना के लिये कठोर तप का प्राचरण करने लगे। वे निर्जन एवं दुरूह वनों में बिहार १. मणवयत्तणहमतुलं देवक्यं सेविऊरण दासाई। अदाबीसं सत य मासे दिवसे य गारमयं ।। माभिरिणबोहियबुद्धो राष्टुण य मागासीमबहुला। दसमीए गिवखतो सुरमहिदो रिपक्खमणे पृज्जो ।। ---जयधवला भा० ११०७८ २. नानाविधरूपचिता विचित्रकूटोचिनां मरिणविभूपाम् । चन्द्रप्रभाग्य शिविकामारुह्य पुराविनिष्कान्तः । ८ ।। मार्गशिरकष्णादशमी हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते सोमे । पष्ठेन त्वपराण्हे भक्तेन जिनः प्रवदाज || -निणि भक्ति पूज्यपाद ३. देखो उत्तर पुराण पर्व ७८ श्लोक ३१८ से ३२१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहासभाग २ करके एकान्त स्थान में निर्भय हो योग-साधना करते थे। मीन दिन में अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। किन्तु वर्षा ऋतु को बिताने के लिए वे चार महीने एक स्थान पर अवश्य ठहरते थे और मौनपूर्वक ताप का अनु टान बरते थे। वे अट्ठाईस मुलगणों का बड़ी दहनाचे पालन करने थे। इस तपस्त्री जीवन में महावीर ने अनेक देगा, नम गंभार ग्रामा ग्रादि विविध स्थानों में बिहार कर तप द्वारा प्रात्म-शोधन किया। ब इन्द्रियजयी कपायों के. रमना सुखाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते थे। ध्यान में स्थिन हो यात्मतत्व का चिन्तन करने थे। वे ध्यान में इस तरह स्थित होते थे जैसे कोई पापाण-मूति स्थिन हो । वे हलन-चलन से रहित निष्कम्प मुनही जाने थे। केवलज्ञान भगवान महाबीर ने अपने साधु-जीवन में अनशनादि द्वादश कठोर दुर्धर एवं दुष्कर तपों का अनुष्ठान किया। भयानक हिंस्र जीवों मे भरी हई अटवी में विहार किया । डांस-मच्छर, शीत, उष्ण और वर्षादिजन्य घोर काटों को महा। साथ ही, उपमर्ग-परिपहों को सहन किया परन्तु दूसरों के प्रति अपने चित्त में जरा भी विकृति को स्थान नहीं दिया । यह महावीर को महानता और सहनशीलता का उच्च आदर्श है। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त मौनपूर्वना पाठोर तपश्चर्या की। भ्रमण महावीर शत्रु-मित्र, सुख-दुख, प्रशंसा-निन्दा, लोह-कांचन और जीवनमरणादि में सम भाव को-मोह क्षोभ से रहित बीतराग भाव को–अबलम्बन किये हुये थे। वे स्व-पर कल्पना रूप ग्रहकार गमलारात्मक विकल्पों को जीत चके थे और निर्भय होकर सिंह के समान ग्राम-नगरादि में स्वच्छन्द विचरते थे । महावीर अपने प्राध-जोवन में बपो ऋतु को छोड़कर तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरे। उनके मौनी-साधु जीवन से भी जनता को विशेष लाभ पहुंचा था । अनेकों को अभयदान मिला, अनेकों का उद्धार हना और अनेक को पथ-प्रदर्शन मिला । भगवान महावीर ने श्रमण अवस्था में श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, नालन्दा, वैशाली मादि नगरों तथा राढ़ आदि देशों में बिहार किया और अपनी योग-साधना में निष्ठता प्राप्त की। कौशाम्बी में तो चन्दना की बेड़ी टूट गई। उसने नवधाभक्ति से उन्हें जो ग्राहार दिया, उससे उसने सातिशय पूण्य का संचय किया। उसे सेठानी की कैद से छुटकारा मिला, दुःख का अवसान हमा। यद्यपि यमण महावीर के मुनि-जीवन में होने वाले उपमगों का दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य के समान उल्लेख उपलब्ध नहीं होना, किन्तु पांचवी शताब्दी के प्राचार्य यतिवृषभ रचित तिलोय पण्णत्ती के चतृाधिकार गत १६२० नम्बर की गाथा के निम्न-सत्तम तेबीसतिम तित्थयराणं च उवसम्गों' वाक्य में सातव, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के सोपसर्ग होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इससे महावीर के सोपसर्ग जीवन का स्पष्ट आभास मिल जाता है। भले ही उनमें कुछ अतिशयोक्ति से काम लिया गया हो; परन्तु श्रमण महावीर के सोपसर्ग साधु जीवन से इनकार नहीं किया जा सकता । उत्तर पुराण में महावीर के सोपसर्ग जोवन की घटना का उल्लेख मिलता है। उसमें लिखा है कि-किसी समय भगवान महावीर भ्रमण बरते हए उज्जैनी की प्रतिभक्तक स्मशान भूमि में प्रतिमा-योग ध्यान से विराजमान थे। उन्हें देख कर महादेव नाम के रुद्र ने अपनी दुष्टता मे उनके धैर्य की परीक्षा लेनी चाही। अतः उसने रात्रि के समय अनेक बड़े बड़े बैतालों का रूप बनाकर उपसर्ग किया। वे तीक्ष्ण चमड़ा छील कर एक दूसरे के उदर में प्रवेश करना चाहते थे। १. सम-सतु-बन्धु बग्गों सम-सुह-दुवाको पसंस-णिद-समो। सम-लोट-कंचरणो पुण जीविद-मरणे समो समणो ।। --प्रवननसार ३-४१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान १३ वे खोने हुए मुखों से अत्यन्त भयंकर दोखते थे । इनके अतिरिक्त सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। इस तरह पाप का अर्जन करने में निपुण उस रुद्र ने अपनी विद्या के प्रभाव से भीषण उपसर्ग किये किन्तु वह उन्हें ध्यान से विचलित करने में समर्थ न हो सका। अन्त में उसने उनके महति और महावीर नाम रखकर स्तुति की ओर अपने स्थान को चला गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की आचाराङ्ग निर्मुक्ति में वर्द्धमान को छोड़कर शेष २३ नोर्थङ्करों के तप कर्म को पिस बतलाया है। अन्य श्वेताम्वरीय प्रत्था में भी महावीर के उपसर्ग की अनेक घटनाएं उल्लिखित मिलती हैं, जिनसे स्पष्ट है कि महावीर को अपने साधु-जीवन में अनेक अतर्ग और परीषही का सामना करना पड़ा, रन्तु वे उनसे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए, प्रत्युत ग्रात्मसहिष्णुता से उनके ग्रात्मप्रभाव में हो अभिवृद्धि हुई और लोगों ने उनके अमित साहस और धैर्य की सराहना की। महावीर अपने साधु-जीवन में पंच समितियों के साथ मन-वचन-कायरूप तीन गुप्नियों को जीतनेउन्हें वश में करने और पचेन्द्रियों को उनके विषयों से निरोध करने तथा कपाय चक्र को कुशल मन के समान मल-मल कर निष्प्राण एवं रस रहित बनाने अथवा कषायों के रस को सुखाने, उनकी शक्ति को निर्वल करते हुए क्षीण करने का उपक्रम करने हेतु, दर्शन ज्ञान चारित्र को स्थिरता से समता एवं संयत जीवन व्यतोन करते हुए समस्त परद्रव्यों के विकल्पों से शून्य विशुद्ध आत्म स्वरूप में निश्चल वृत्ति से अवगाहन करते थे । श्रमण महावीर को इस तरह ग्राम, खेट, कवंट, और वन मटम्बादि अनेक स्थानों में मीनपूर्वक उग्र तपदचरणों का अनुष्ठान एवं आचरण करते हुए बारह वर्ष पांच महोने और पन्द्रह दिन का समय व्यतीत हो गया। उन्हें इन बारह वर्षों के समय में बारह चातुर्मासों में चार चार महीने एक एक स्थान पर रहना पड़ा, परन्तु अपनी मौन वृत्ति के कारण उन्होंने कभी किसी से संभाषण तक नहीं किया और न किसी को उपदेशादि द्वारा हो तुष्ट किया । उपसर्ग और परीषों के कठिन अवसरों पर भी समभाव का प्राश्रय लिया । महावीर का साधु जीवन कष्टसहिष्णु और १. देखो, उत्तर पर्व ७४ ३३१ से ३३६ २. सम्बेसि तो कम्मं निश्वसमां तु वणियं जिणा । नवरं तु बदमास सोचमग्मं मुणेयस्वं ॥ २७६ ।। आचारांग नियुक्ति ग्रामपुर टकट बंधारा विजहार । उस्तपोविद्विदिवम पूज्यः ॥ १०॥ निर्वारणभक्ति (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्रामतौर पर तीर्थंकरों के रस का दिवान नहीं है किन्तु उनके यहाँ जहां तहाँ वर्षावास में चौमासा बिताने और वयस्य अवस्था में उपदेशादि स्वयं देने अथवा यजादि के द्वारा दिलाने का उल्लेख पाया जाता है । परन्तु प्राचाराङ्ग सूत्र के टीकाकार शीला ने साधक are strपूर्वक ताश्चरण करने का दिगम्बर परम्परा के समान ही विधान किया है। वे बाक्य इस प्रकार हैं : "नानाविधाभितपतो घोरान् परीषहोपसर्गानपि सहनानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशमनं नयन् द्वादशवर्षाणि साधिकानि वमस्थ मोती तपश्चचार ।" सूत्रवृत्ति पृ० २७३ ) - ( आवारा भाषा लांक के इस उल्लेख पर से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी तीर्थंकर महावोर के मौनपूर्वक तपदचरण का विधान होने से छद्मस्थ अवस्था में उपदेशादि की कल्पना निरर्थक जान पड़ती है । लाठीका में महावीर के तपश्चरण का काल बारह वर्ष साढ़े पांच महीना बतलाया है गमय मस्त वारसवासारिण पंच मासेय । पारस दिशायि तिरयण सुद्धो महावीरो ॥ —घवला में उद्धृत प्राचीन गाथा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास संयम मनिष चर्या से देदीप्यमारदाता है। इस तरह महावीर अन्तर्बाह्य तपों के अनुष्ठान द्वारा आत्म-शुद्धि करते हए जम्भिक ग्राम के समीप आये, और ऋजुकला नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे बैठ गये। वैशाख शुक्ला दशमी को तीसरे पहर के समय जब वे एक शिला पर षष्ठोपवास से युक्त होकर क्षपक श्रेणी पर आरूढ थे, उस समय चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र के मध्य में स्थित था। भगवान महावीर ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा ज्ञानावरणादि घाति-कर्म-मल को दग्ध किया और स्वाभाविक पात्म-गुणों का विकास किया और केवलज्ञान या पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। जिस समय भगवान महावीर ने मोह कर्म का विनाश किया, उसके अनन्तर वे केवलज्ञान, केवल दर्शन और अनन्तवार्य युक्त होकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गए तथा वे सयोगी जिन कहलाये। ऐसा नियम है कि सयोगी जिन प्रति समय असंख्यात गणित श्रेणी से कर्म प्रदेशाग्र की निर्जरा करते हुए । धर्म रूप तीर्थ-प्रवर्तन के लिये यथोचित धर्म-क्षेत्र में महाविभूति के साथ) विहार करते है। केवलज्ञान होने पर उन्हें संसार के सभी पदार्थ युगपत् (एक साथ) प्रतिभासित होने लगे और इस तरह भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदशी होकर अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए। उनके समीप जाति विरोधी जीव भी अपना वर-विरोध छोड़कर शान्त हो जाते थे। उनकी अहिंसा विश्वशान्ति और वास्तविक १. जमुई या जभक ग्राम वञभूमि में है । जो राजगिर से लगभग ३० मील और झरिया से सवासौ मील के लगभम दूरी पर स्थित है । ऋजुकूला नदी का संस्कृत नाम 'ऋष्यकूला' है। इसी जम्भक ग्राम के दक्षिण में लगभग चार-पाच मील की दूरी पर केवली' नाम का एक गांव है। इस ग्राम के पास बहने वाली नदी का नाम अंजन है। संभव है, उक्त केवली ग्राम भगवान महाबीर के केवलज्ञान का स्थान हो । वैशाख शुक्ला दशमी के दिन वहाँ मेला भरता है, जो भगवान महावीर के केवलज्ञान की तिथि है । जयधवसा में जुम्भक ग्राम के बाहर का निकटवर्ती प्रदेश महावीर के केवलज्ञान का स्थान बतलाया है । जैसा किवसाह जोहपरव-दसमीए उजुकूलएदी तीरे भियगामिस्स बाहि छट्टोववासेा सिलाव प्रादाबतेए अवर हे पाद बायाए केवसणाणमुप्पाइदं ।' (जयप पु०१ १०७९) २. (अ) वसाह सुखदसमी माषा विखम्मि बीरणाहस । ऋजुकूलणदीतीरे प्रवराहे केवलं गाणं । तिलो १० (आ) ऋजुलायाम्तीरे शाल मसथिते शिलापट्ट।। अपराण्हे षष्ठेनारियतस्य खलु ज भिका मामे ।। वैशाख सितदशम्या हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते पन्द्र ॥ नि० भ० (इ) उजुकूलरणदीतीरे अभिपगामे वहि सिलावटै । छणादावते प्रवरण्हे पाद बायाए ।। वसाह जोण्डपक्से दसमीए सवगसे ढिमारूढो । हंतूण घाईकम्म केबलणाणं समावण्णो।। (जय ध० पु. १०६०) (६) हरिवंशपुराण २।५७-५६ । (उ) उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक ३४८ से ३५२ ३. तदो प्रणतर केबसपारण-दसण-बोरियजुत्तो जियो केवली सव्वण्र सम्वदरिसी भवदि सजोगिजियो ति भाइ । भसज्ज गुणाए सेहीए पदेसग्ग गिजरे मारणो विहरदिसि । कसाय पा०णि सुत्त १५७१, १५७२ पृ० ८६६ भगवान महावीर की सर्वशता और सर्वदर्शित्व की चर्चा उस समय लोक में विश्व त थी। यह बात बौद्ध त्रिपिटकों से प्रकट है: देखो, मज्झिमनिकाय के चूल-दुक्ख क्खन्घ मुत्तन्त पृ० ५६ तथा म०नि० के चूस सकुलु दायी मुत्तन्त पृ० ३१८ ४. महिला प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वरत्यागः । --पातंजलि योगसूत्रम् ३५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलगान स्वतंत्रता की प्रतीक है। इसीलिये प्राचार्य समन्तभद्र ने उसे परम ब्रह्म कहा है। केवलज्ञान होने पर इन्द्रादिकदेव उनके कंवलज्ञान का कल्याणक मनाने के लिये आये और उन्होंने भगवान महावीर के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की। परन्तु उस समय उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी-उनका धर्मोपदेश नहीं हुआ। धर्मोपदेश न होने का कारण–क्षायोपशमिक ज्ञान के नष्ट हो जाने पर अनन्त रूप केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर नौ प्रकार के पदाथों से गभित दिव्यध्वनि सूत्रार्थ का प्रतिपादन करती है। किन्तु भगवान महावीर को कंवलज्ञान होने के पश्चात ६६ दिन तक गणधर के अभाव में धर्म-नीर्थ का प्रवर्तन नहीं हुआ। उनकी वाणी नहीं खिरी । सौधर्म इन्द्र ने गणधर को तत्काल उपस्थित क्यों नहीं किया? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि काल लधि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को कैसे उपस्थित कर सकता था। उस समय उस में गणधर को अस्थित करने की सामध्ध नहीं थी, क्योंकि जिम जि. पब में महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे व्यक्ति को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि नहीं खिरती । ऐसा उसका स्वभाव है। सौधर्म इन्द्र को जब यह ज्ञात हा कि गणधर के अभाव में धर्म-तार्थ का प्रवर्तन नहीं हया. तब उसने उपयुक्त पात्र के अन्वेषण करने का प्रयत्न किया। उसका ध्यान इन्द्रभूति की ओर गया और वह तत्काल बद्ध ब्राह्मण का वेष बनाकर इन्द्रभूति के पास पहुँचा। अभिबादन के पश्चात् बोला-विद्वन् ! मेरे गुरु ने मुझे एक गाथा सिखाई थी, उस गाथा का अर्थ मेरी समझ में अच्छी तरह से नहीं आ रहा है। मेरे गुरु इस समय मौन धारण किये हए । प्रतः कृपाकर पाप ही इसका अर्थ समझा दीजिये। उत्तर में इन्द्रभूति ने कहा-मैं तुम्हें गाथा का अर्थ इस शर्त पर समझा सकता है कि उस गाथा का अर्थ समझ जाने पर तुम मेरे शिष्य बन जाओगे। देवराज ने इन्द्रभूति की शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली और उसने इन्द्रमति के सामने गाथा पढी। पंखेव प्रत्यिकाया छज्जीवणिकाया महम्बया पंछ । प्रद्रय पक्षयणमावा सहेजनो बंध-मोक्खो य॥ -धवला. पु०९ पृ० १२६ १. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरम । न सा तत्रारम्भोऽस्त्वरणपि च यवाश्रमवियो। ततस्तत्सिद्धयर्थ परम करुणो ग्रंथ मृभयं, भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः । वहत्स्वयंभूस्तोत्र २. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि जू भक ग्राम की ऋजुकला नदी के किनारे जब भगवान महावीर को केवलज्ञान हमा, तब देवता गणों ने आकर उनकी पूजा की। शान की महिमा की। देवतानों ने समवसरण की रचना की, किन्तु प्रकम देशना का परिणाम विरति-ग्रहण की दृष्टि से शुन्य रहा । प्रथम समवसरण में भगवान महावीर की वाणी नहीं खिरी। इसलिए उस दिन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन न हो सका। आवश्यक नियुक्ति गाथा २३८ के अनुसार केवलज्ञान उत्पन्न होने पर महावीर रात्रि में ही मध्यमा के महासेन वन नामक उद्यान में चले गए। टीकाकार मलयगिरि के भनुसार ऋजुकूला से १२ योजन दूर मध्यमा नगरी के महामेन वन में प्रामे पोर यहाँ सोमिल ब्राह्मण के यज्ञ में पाये हुए ११ उपाध्यायों को उनके शिष्यों के साथ दीक्षित किया। वे महावीर के ११ गणधर हुए। ३. केबलणाणे समुप्पणे वि तत्थ तित्याणुप्पत्ती दो। दिग्दम्भुणीए किम सत्यापउसी? गरिसदाभावादो। मोहम्मिदेण सक्खरणे पेय गरिणदो कि होइदो? काललडीए विणा असहायस्स देविंदस्स तहदोपणसत्तीए प्रभावादो। सगपादमूलस्मि पडिवणमहब्वयं मोतूरण भरणामुद्दिसिम दिम्बग्भुलो किण पयट्टदे? साहाचियादो। ए च सहावो परपज्जरिणयोगारहो, मम्मवत्यावतीदो। -धवला. पु० थपृ. १२१ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ इन्द्रभति गाथा को सुनते तथा पढ़ते ही असमंजस में पड़ गया। उसको समझ में नहीं पाया कि पांच अस्तिकाय, पट जीवनिकाय और प्रष्ट प्रवचन मात्राएं कौन-सी हैं ? 'छज्जीवणिकाया' पद से वह और भी विस्मित हना, जीवों के छह निकाय कौन से हैं? क्योंकि जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में उसका मन पहले से ही शंकाशील बना हया था। इन्द्रभूति ने अपने विचार प्रवाह को रोकते हुए उस आगन्तुक से कहा-'तुम मुझे अपने गुरु के पास ले चलो, उनके सामने ही मैं इस गाथा का वार्य रमझाऊँगा। इन्ट मापने अभीष्ट अर्थ को सिद्ध होता देख बड़ा प्रसन्न हुआ और वह इन्द्रभूनि को उसके भाइयो और उनके पांच-पाँच सौ शिष्यों को साथ लेकर महावीर के समम्मरण में पहुंचा। वीर-शासन छयासठ दिन तक मौन से विहार करते हुए बर्द्धमान जिनेन्द्र राजगह के प्रसिद्ध भूधर विपुलगिरि पर पधारे। जिस तरह सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार बर्द्धमान जिनेन्द्र भव्य लोगों को प्रबुद्ध करने के लिए विपुल लक्ष्मी के धारक विपुलाचल पर ग्रारूढ़ हुए' । वर्द्धमान जिनेन्द्र के आगमन का वृत्तान्त अवगत कर सुर-असुरादि सपरिकर पधारे और उन्होंने एक योजन विस्तार वाले समवसरण की रचना की, जो कोटों, द्वारों, गोपूरों, अष्टमंगल द्रव्यों, ध्वजायों, मानस्तम्भों, स्तूपों, महावनों, वापिकाओं, कमल समूहों और लता गहों से अलंकृत था और जिसमें बारह प्रकोष्ठ या विभाग बने हुए थे। समवसरण की देवोपुनीत रचना अत्यन्त सम्मोहक और प्रभावक थी। उसकी महिमा अद्भुत थी। समवसरण की यह खास विशेषता थी कि उस समवसरण सभा में देव विद्याधर, मनुष्य और तिर्यचादि पशु सभी जीव अपने-अपने विभाग में शान्तभाव से बैठे हए थे और भगवान महावीर उसमें पाठ प्रातिहायों और चौंतीस अतिशयों में संयुक्त विराजमान थे । उनकी निर्विकार प्रशान्त मुद्रा प्राकतिक आदर्शरूप को जनक थी । वे अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को पाकर परमब्रह्म परमात्मा बन गए थे । अतः उनकी अहिंसा को पूर्ण प्रतिष्ठा के प्रभाव से जानि-विरोधी जीवों का परस्पर में ऋषायरूप विष धुल गया था। उनकी मोह-क्षोभ रहित वीतराग मुद्रा अत्यन्त प्रभावक थी। इसो से विरोधी जीवों पर उसका अमित प्रभाव अंकित था। जनता ने जाति विरोधी जीवों का विपुल गिरि पर एकत्र मिलाप देखा, उसमें देव और मनुष्यों के अतिरिक्त सिंह-हिरण, सर्प-नकूल, और चहा-बिल्ली यादि विरोधी जीव भी शान्तभाव से बैठे थे। उन्हें देखकर उनके ग्राश्चर्य का ठिकाना न रहा । वे बार-बार कहने लगे कि यह सब उस क्षीणमोही विगतकल्मष, योगीन्द्र महावीर का ही प्रभाव है। जैसा कि संस्कृत के निम्न प्राचीन पद्य से स्पष्ट है : सारंगी सिंहशावं स्पशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं । मार्जारी हंसबालं प्रणयपरधशाके किकान्ता भुजंगीम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमवा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति, श्रित्वा साम्येकरूढ़ प्रशमितकलूषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥ १. षट्षष्टि दिवसान भूपो मौनेन विहान विभुः । माजगाम जगत्स्यात जिनो राज गहं पुरम् ॥ ६१ प्रारोह गिरि तत्र विपुलं विपुल श्रियम् । प्रबोधार्थं स लोकाना भानुमानुदयं यथा ॥ १२ ॥ हरिवंश पु०२। ६१, ६२ २. प्रातिहाय नोऽष्टाभिश्चम्सिन्महातः । दत्र देवतोऽभासीज्जिनश्चन्द्र इव ग्रहै: ।। हरिवंश पुराण २ । १६५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ समवसरण की महत्ता और प्रभुता को देखकर ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो प्रभावित हुए बिना न रहता । उनका छत्रत्रय तीन लोक की प्रभुता को व्यक्त कर रहा था। सोधर्म और ईशान इन्द्र चमर होल रहे थे, और शेष इन्द्र जय-जय शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। फिर भी भगवान वर्द्धमान उस विभूति से चार अंगुल र अन्त रिक्ष में विराजमान थे । वे उस विभूति से यन्नविष्ट दिखाई दे रहे थे। उनकी यह निम्तायात्म-बोध और वैराग्य की जनक थी । वीर शासन इन्द्रभूति ने भाइयों और शिष्यों के साथ समवसरण की महत्ता का अवलोकन किया। उसे अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था । वह अपने सामने किसी दूसरे को विद्वान् मानने के लिए तैयार न था । किन्तु जब वह समयसरण में प्रविष्ट हुआ, तब मानस्तम्भ देखते ही उसका सव अभिमान गल गया और मन मात्र भावना से प्रांत हो गया । मन में भगवान के प्रति आदर भाव जागृत हुआ। और थान्तरिक विशुद्धि के साथ वह समवसरण के भीतर प्रविष्ट हुआ। उसने दिव्यात्मा महावीर को देखते ही भक्ति से नमस्कार किया, तीन प्रदक्षिणाएं दीं, उस समय उसका अन्तःकरण विशुद्धि से भर रहा था । प्रान्तरिक वैराग्य भावना ने उसे प्रेरित किया और उसने पांचों से अपने केशों का लोंच किया और वस्त्राभूषण के त्यागपूर्वक अपने भाइयों और पांच-पांच सौ शिष्यों के साथ संयम धारण किया' - यथा जात दिगम्बर मुद्रा धारण की और वह गौतम गोत्री इन्द्रभूति भगवान महावीर का प्रथम अवधि गणधर बना, और अग्निभूति वायुभूति भी गणधर पद से अलंकृत हुए। दीक्षा लेते ही इन्द्रभूति मति, श्रुत, और मन:पर्ययरूप ज्ञानचतुष्टय से भूषित हुए । उनका जीव-विषयक सन्देह भी दूर हो गया और तपोबल से उन्हें अनेक ऋद्धियां (विशेष शक्तियां ) प्राप्त हुई। वे अणिमादि सप्त ऋद्धिसम्पन्न सप्त भय रहित, पंचेन्द्रियविजयी, परीपह सहिष्णु, और पद् जीव निकाय के संरक्षक थे। वे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग श्रीर द्रव्यानुयोग रूप चार वेदों में अथवा साम, ऋक, यजु और अथर्व वेदादि में पारंगत तथा विशुद्ध झील से सम्पन्न थे । भावश्रुतरूप पर्याय से बुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त इन्द्रभूति गणधर ने एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्वी की रचना की। जैसा कि तिलोय पण्णत्ती की निम्न गाथाओं से प्रकट है : 'विमले गोदमगोते जावेणं इंदभूदि णामेण । चउवेदपारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण ॥ भावसुदपज्जयेहिं परिणदमविणा वारसंगाणं | चोदस पुत्राण तहा एक्कमृहुत्तेन विरचिणा विहिदो । तिलो० प० १४७६-७ इन्द्रभूति को भगवान महावीर के सान्निध्य से तथा विशुद्धि और तपोवल से ऐसी अपूर्व सामर्थ्य प्राप्त हुई, जिससे उन्हें सर्वार्थसिद्धि के देवों से भी श्रनन्तगुणा वल प्राप्त था, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रन्थों के स्मरण तथा पाठ करने में समर्थ थे, और अमृतासव यादि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब आहारों को वे अमृत रूप से परिणामाने में समर्थ थे तथा महातप गुण से कल्प वृक्ष के समान, एवं प्रक्षीण महानस लब्धि के वल से अपने हाथों में गिरे हुए आहारों की अक्षयता के उत्पादक थे घोरतपऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन और कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्याओं के द्वारा जिनके चरण सेवित थे । आकाश चारण गुण से सब जोव समूहों की रक्षा करने वाले, बचन एवं मन मे समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थथे, अणिमादि प्राठ गुणों के द्वारा सब देव समूहों को जीतने वाले और परोपदेश के बिना अक्षर अक्षर रूप सव भाषाओं में कुशल गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं ऐसी दिव्य शक्तियों के धारक गणधर इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम गणधर बने । और उनके दोनों भाई भी गणधर पद से अलंकृत हुए। श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति में भी सभी गणधरों को द्वादश अंग और चौदह पुत्रों का धारक बतलाया है, भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे, जिनका परिचय आगे दिया गया है। । १. प्रत्येक सहिताः सर्वे शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । त्यवताम्बर/दिसम्बन्धाः संयमं प्रतिपेदिरे । (हरिवंश ० २२६६ ) २. घवला पृ० १२६ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ मगधनरेश बिम्बसार (क) से जब यह काल पर भगवान महावीर का समवसरण आया है, तब उसने सिहासन से उठकर सात पेड चलकर भगवान को परीक्ष नमस्कार किया । और नगर में महावीर के दर्शन को जाने के लिए डोंडी पिटवाई । वह स्वयं वैभव के तथा अपनी रानी चेलना के साथ विपुला - चल के समीप आया | तब समवसरण के दृष्टिगोचर होते ही समस्त वैभव को छोड़कर रानी के साथ समवसरण में प्रविष्ट हो गया । श्रेणिक ने भगवान की वंदना कर तीन प्रदक्षिणाएं दीं और गदगद हो भक्तिभाव से उनकी स्तुति की और स्तवन करते हुए कहा कि हे नाथ! मुझ अज्ञानी ने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के संचय में झारभादि द्वारा घोर पाप किये हैं। और तो क्या मुझ मिध्यादृष्टि पापी ने मुनिराज का वध करने में बड़ा आनन्द माना था, उन पर मैंने बहुत उपमगं किया था, जिससे मैंने नरके ले जाने वाले नरकाय कर्म का बन्ध किया, जो छूट नहीं सकता । ग्रापको वीतराग मुद्रा का दर्शन कर आज मेरे दोनों नेत्र सफल हो गए। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं इस संसार समुद्र से पार जाऊँगा । हे भगवन्! आपके दर्शन से मुझे अत्यन्त शान्ति मिली है । आपके दर्शन से मुझे ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो, जो मैं इस दुस्तर भवसागर से पार हो सकूँ । इस तरह वह भगवान महावीर का स्तवन कर मनुष्यों के कोठे में बैठ गया, और उपदेशामृत का पान किया। बिम्बसार भगवान के असा धारण व्यक्तित्व से प्रभावित ही नहीं हुआ। किन्तु उसने उन्हें लोक का कारण बन्धु समझा। उसका हृदय आनन्द से छलछला रहा था । ऐसा मानन्द और शान्ति उसे अपने जीवन में कभी प्राप्त नहीं हुई थी। उनके दर्शन से उसके हृदय में जो विशुद्धि और प्रसन्नता बढ़ी, उसका कारण केवल वीतराग प्रभु का दर्शन है । उसी दिन वैशाली के राजा चेटक की पुत्री चन्दना ने दीक्षा ली और वह आर्यिकाओं को प्रमुख गणिनी हुई । उस समय अनेक राजाश्रों, राजपुत्रों तथा सामान्य जनों ने महावीर की देशना से प्रभावित होकर यथाजात मुद्रा धारण की। अनेकों ने श्रावकादि के व्रत धारण किये। राजा श्रेणिक के अक्रूर, वारिषेण, अभयकुमार और मेघकुमार आदि पुत्रों ने राज वैभव का परित्याग कर दीक्षा लो और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना को श्रीर उनकी माताओं ने तथा अन्तःपुर की स्त्रियों ने सम्यग्दर्शन, शोल, दान, प्रोषध और पूजन का नियम लेकर त्रिजगद्गुरु वर्द्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार किया और व्रतादि का अनुष्ठान कर जीवन सफल बनाया । १८ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को प्रातःकाल सूर्योदय के समय अभिजित नक्षत्र, और रुद्र मुहूर्त में भगवान महावीर की प्रथम धर्मदेशना हुई । वह वर्ष का प्रथम मास प्रथम पक्ष श्रीर युग की आदि का प्रथम दिवस था, जिसमें भगवान महावीर के सर्वोदय तीर्थ की बारा प्रवाहित हुई। भगवान महावीर ने इस पावन तिथि में समस्त संशयों की छेदक, दुन्दुभि शब्द के समान गम्भीर और एक योजन तक विस्तृत होने वाली दिव्य ध्वनि के द्वारा शासन की परम्परा चलाने के लिए उपदेश दिया। महावीर का यह धर्मोपदेश एक योजन के भीतर दूर या समीप १. सुता चेटकराजस्व कुमारी चन्दना तदा । ताम्रसंवीता जातार्याणां पुरःसरी ॥ २. वासल्स पढममा साबण खामम्मि बहुल डिवाए । अभिजी क्लत्तम्म व उप्पत्ती श्रम्मतित्थस्स || साहुले पाविरुद्दमुहते सुहोदये रविणो । अभिजस्स पढमजोए जुगस्स श्रादी हमस्स पुढं ।। हरिवंश पु० २७० -तिलो० प० १-६६,७० ३. स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । दुन्दुभिध्वनिधीरे योजनान्तरवायिना ॥ श्रावणस्यासिते पक्ष नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्यह्न पूर्व हे शासनार्थमुदाहरत ॥ - हरिवंश पु० २।९०-९१ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर शासन १६ बैठे हए देव-देवांगनामों, मनुष्य, स्त्रियों, तिथंचों तथा नाना देश सम्बन्धी संज्ञी जीवों की अक्षर अनक्षर रूप अठारह महा भाषा और सात सौ लधुभाषानों में परिणत हुया था। तालु, प्रोष्ठ, दन्त, और कण्ठ के हलन-चलन रूप व्यापार से रहित, तथा न्यूनाधिकता से रहित मधुर, मनोहर और विशद रूप भाषा के अतिशयों से युक्त एक ही समय में भव्य जीवों को ग्रानन्दकारक उपदेश हुमा । उससे समस्त जीवों का संशय दूर हो गया, क्योंकि भगवान महावीर रागद्वेप और भय से रहित थे। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवों के द्वारा तथा नारायण, बलभद्र, विद्याधर, चक्रवर्ती, मनुप्य, तियंच और अन्य ऋषि महर्षियों के द्वारा जिनके चरण पूजित हैं ऐसे भगवान महावीर अर्थागम के कर्ता हुए और गणधर इन्द्रभूति ग्रन्थ कर्ता हुए। महाबीर ने अपनी देशना में बताया कि घणा पाप से करनी चाहिए, पापी जीव से नहीं । यदि उस पर घणा की गई तो फिर उसका उत्थान होना कठिन है। उस पर तो दयाभाव रखकर उसकी भूल सुझाकर प्रेम भाव से उसके उत्थान का प्रयास करना ही पसार है। वीरशासन में शूद्रों. और स्त्रियों को अपनी योग्यतानुसार प्रात्मसाधन का अधिकार मिला। महावीर ने अपने संघ में सबसे पहले स्त्रियों को दीक्षित किया और चन्दना उन सब आयिकामों की गणिनी बनी। महावीर के शासन की महत्ता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय के बड़े-बड़े राजा गण, युवराज, मंत्री, सेठ, साहूकार आदि सभी ने अपने-अपने वंभव का जीर्ण तृण के समान परित्याग किया और महावीर के संघ में दोक्षित हाए, तथा ऋषिगिरि पर कठोर नपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना कर मुक्ति के पात्र बने। उनमें राजा उद्दायन प्रादि का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। राजा उद्दायन की रानी प्रभावती, चेटक की पुत्री ज्येष्ठा, और राजा उदयन की माता मृगावती तथा अन्य नारियां भी दीक्षा लेकर प्रात्म-हित को साधिका हुई। उस समय महावीर के संघ में चौदह हजार मुनि, चन्दनादि बत्तीस हजार प्रायिकाएं, एक लाख श्रावक,और तीन लाख श्राविकाएं, असंख्यात देव-देवियाँ, तथा संख्यात तियंत्रों को अवस्थिति थी। महावीर का यह शासन सर्वोदयतीर्थ के रूप में लोक में प्रसिद्ध हया। यह शासन संसार के समस्त प्राणियों को संसार-समुद्र से तारने के लिए घाट अथवा मार्ग स्वरूप है, उसका प्राधय लेकर संसार के सभी जीव प्रात्म-विकास कर सकते हैं। यह सबके उदय, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति में अथवा प्रात्मा के पूर्ण विकास में सहायक है। यह शासनतीर्थ संसार के सभी प्राणियों की उन्नति का द्योतक है। महाबीर के इस शासनतीर्थ में एकान्त के किसी कदाग्रह को स्थान नहीं है। इसमें सभी एकान्त के विषय प्रवाह को पचाने की शक्ति है-क्षमता है। यह शासन स्याद्वाद के समुन्नत सिद्धान्त से अलंकृत है, इसमें समता और उदारता का रस भरा हुया है। वस्तुतत्त्व में एकान्त की कल्पना स्व-पर के वैर का कारण है, उससे न अपना ही हित होता है और न दूसरे का ही हो सकता है। वह तो सर्वथा एकान्त के प्राग्रह में अनुरक्त हुमा वस्तु तत्त्व से दूर रहता है। महावीर का यह शासन अहिंसा अथवा दया से ओत-प्रोत है। इसके प्राचार-व्यवहार में दूसरों को दुःस्त्रोत्पादन की अभिलाषा रूप अमंत्री भावना का प्रवेश भी नहीं है। पांच इन्द्रियों के दमन के लिए इसमें संयम का बिधान किया गया है, इसमें प्रेम और वात्सल्य की शिक्षा दी गई है, यह मानवता का सच्चा हामी है। अपने बिपक्षियों के प्रति जिसमें रागद्वेष की तरंग नहीं उठती है, जो सहिष्ण तथा क्षमाशोल है ऐसा यह वीरशासन ही सर्वोदय तीर्थ है। उसी में विश्व-बन्धुत्व की लोककल्याणकारी भावना अन्तनिहित है। भगवान महावीर के सिद्धांत गम्भीर और समुदार हैं, वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ की भावना से प्रोत-प्रोत हैं। उनसे मानव जीवन के विकास का खास सम्बन्ध है। उनके नाम हैं अहिंसा, अनेकान्त या स्याद्वाद, स्वतन्त्रता और अपरिग्रह। ये सभी सिद्धान्त बड़े ही मूल्यवान हैं क्योंकि उनका मूल अहिंसा है। इस तरह भगवान महावीर ने ३० वर्ष के लगभग अर्थात २१ वर्ष ५ महीने और २० दिन के केवली जीवन में काशी, कोशल, वत्स, चंपा, पांचाल, मगध, राजगृह, वैशाली, अंग, बंग, कलिंग, ताम्रलिप्ति, सौराष्ट्र, मिथिला, १. देवो, तिलाय पणनी १६० मे १४ तक गाथाए । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २ मथुरा, नालंदा, पुण्तवर्धन, कोशाम्बी, अयोध्या, पुरिमतालपुर, उज्जैनो, मल्लदेश, दशार्ण, केकयदेश, कोलागसन्निवेश, किरात, श्रावस्ती, कुमारगिरि, और नेपाल ग्रादि विविध देशों और नगरों में विहार कर कल्याणकारी सन्मार्ग का उपदेश दिया। असंख्य प्राणियों के अज्ञान-अन्धकार को दूर कर उन्हें यथार्थ वस्तुस्थिति का बोध कराया। प्रात्मविश्वास बढ़ाया, कदाग्रह दूर किया । अन्याय अत्याचार को रोका, पतितों को उठाया, हिंसा का विरोध किया. उनके बहमों को दूर भगाया और उन्हें संयम की शिक्षा देकर प्रात्मोत्कर्ष के मार्ग पर लगाया तथा उनकी अन्धश्रद्धा को समीचीन बनाया। दया, दम, त्याग और समाधि का स्वरूप बतलाते हए यज्ञादि क्रियाकाण्डों में होने वाली भारी सा को दिया...- वास्तविक स्वरूप और उनके रहस्य को समझाया, जिससे विलविलाट करते हुए पशु-कूल को अभयदान मिला । जन समूह को अपनी भूलें ज्ञात हुई, और वे सत्पथ के अनुगामी बने । भगवान महावीर का निर्वाण इस तरह विहार करने हुए भगवान महावीर पावा नगर के मनोहर उद्यान में पाये और तालाब के मध्य एक महामणिमय शिलातल पर स्थित होकर दो दिन पूर्व बिहार से रहित हो कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के व्यतीत होने पर स्वातियाग में तृतीय शुवल व्यान समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति में निरत हो मन-बचन-कायरूप योगत्रय का निरोध कर चतुर्थ शक्लध्यान व्युपरतक्रियानिवृत्ति में स्थित होकर अवशिष्ट अधाति कर्मचतुष्टय का विनाश कर अमावस्या के प्रातःकाल अकेले भगवान महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए' । किन्तु उत्तर पुराण में एक हजार मुनियों के साथ मुक्त होना लिखा है। १. (क) पच्या पावारण्यरे कत्तियमासे किण्ह चोद्दसिए । सादीए रतीए सेसरयं खेन निव्वानो। -जयध भा० १ पृ०६१ (ख) कत्तिय किण्हे चोद्दसि पन्च से सादिशामणक्खत्ते। पावाए गयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धा। (तिलो ५० ४-१२०८) (ग) कत्तियमासकिण्हाक्वचौदसदिवसे च केवलणारेण सह एस्य गमिव रािउनदो। अमावामीए परिरिणवारण पूजा सालदेविदेहि कया। -धव० पु०६ पृ० १२५ २. (घ) क मापावापुरं प्राप्य मनोहरवनान्तरे । बहनां सरसां मध्ये महामरिणशिलातल ।।५०६|| स्थित्वा दिनद्वयं वीजबिहारो बजनिर्जरः । कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ।।५१०|| स्वातियोगे तृतीयेत शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधः समुच्छिन्न क्रियं श्रितः ।।५११।। हत पाति चतुष्कः सन्न शरीरो गुणात्मकः । गन्ता मुनि सहने रण निर्वाणं सर्ववाञ्छितम् ।।५१२।। - उत्तर पुराण पर्व ७६, श्लोक ५० से ५१२ (3) पपवनदीपिकाकुल विविध इमखण्डमण्डिते रम्ये । पावा नगरोद्याने व्युत्सर्गरंग स्थितः स मुनिः ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का निर्वारण उसी समय गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के समय चारों निकायों के देवों ने विधिवत उनके शरीर की पूजा की। उसी समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई दीपकों को पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगर उठा । लिच्छिवि गण, मल्लगणों आदि के अनेक राजाश्रों ने और राजा बिम्बसार (श्रेणिक) ने भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। उसी समय से भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त, संसार के प्राणि भारतवर्ष में प्रतिवर्ष प्रादरपूर्वक दीपमालिका द्वारा भगवान की पूजा करते हैं। उसी दिन से भारतवर्ष में दीपावल पर्व सोत्साह मनाया जाता है । यह महोत्सव अढ़ाई हजार वर्ष से सारे भारतवर्ष में मनाया जाता है । वार निर्वाण सम्वत् भगवान महावीर का निर्वाण ईसवी सन् के ५२७ वर्ष पूर्व हुआ है और महात्मा बुद्ध का परिनिर्वाण महाबीर के निर्वाण से लगभग १७ वर्ष पूर्व अर्थात् ईसवी सन् के ५४४ वर्ष पूर्व में हुआ है। सिंहल आदि देशों में बुद्ध के निर्वाण का यही काल माना जाता है । वीर निर्वाण संवत् के विवाद पर प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक ग्रन्थों के प्रमाण देकर यह प्रमाणित किया कि प्रचलित विक्रम संवत् राजा विक्रम को मृत्यु का संवत् है, जो वीर निर्वाण संवत् से ४७० वर्ष बाद प्रारम्भ होता है। मुनि कल्याण विजय ने अपने वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना' नाम के निबन्ध में भी सप्रमाण यही विवेचन किया है। कार्तिक कृष्णस्यान्ते स्वता निहत्य कर्मरज: 1 प्रवशेषं सम्प्रायजरामर मक्षयं सौख्यम् ॥ ( निर्वाण भ० १६, १७ ) (च) कृत्वा योगनिरोधमुज्झित्समः षष्ठेन तस्मिन्वने । व्युत्सर्गेण निरस्य निर्मलरुचिः कर्माप्यशेषाणि सः ॥ स्थित्वेन्द्रावपि कार्तिकासितचतुर्दश्यां निशान्ते स्थिती स्वाती सन्मतिराससाद भगवासिद्धिप्रसिद्ध श्रियम् ।। ( वर्धमान चरित, असगकृत ५० ४८४ २१ १. जिनेन्द्रवीरोऽपि विवोत्य सन्ततं समन्ततो भव्य समूहसन्ततिम् । प्रपद्य पाया नगरी गरीयसीं मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥ चतुर्थकाले चतुर्थ मासवहीनताविदचतुरब्द शेव । कार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ॥ अधातिकरण निरुद्धयोगको विधूय घातीन्धनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शङ्करो निरन्तरामसुखानुबन्धनम् ॥ स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुविधः । शरीरपूजाविधिना विधानतः सुरैः सनभ्यच्यंत सिद्धासनः ॥ प्रदीपालिका प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितथा प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥ तथैव च श्रेणिकपूर्वभुर्भुजः प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्रजाः । प्रजग्मुरिन्द्राश्य सुरबायथं प्रयाचमाना जिनबोधिमचिनः ।। ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष मादरात्प्रसिद्ध दीपालिकमात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।। - हरिवंशपुराण ७६-१५ से २१ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ महाकवि वीर ने सं० २०७६ में समाप्त हुए जंबुस्वामिचरित की निम्न गाथा में वीर निर्वाण काल और विक्रम काल के वर्षों का अन्तर ४३० वर्ष बतलाया है। यथा : वरिसाण सथ उदकं सत्तरि जुत्त जिनंद वीरस्स । णिवाणा उबवण्णो विक्कमकालस्स उप्पत्ती ।। २२ इससे स्पष्ट है कि बीर निर्वाण काल से ६०५ वर्ष और महीने कान को विक्रम राजा या विक्रम काल कैसे कहा जा सकता है । होने वाले राजा अथवा शक वीर निर्वाण संवत् की प्रचलित मान्यता में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में परस्पर कोई मतभेद नहीं है । दोनों ही वीर निर्वाण मे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक शालिवाहन की उत्पत्ति मानते हैं। दूसरे विक्रम राजा क नहीं, शकारि था - शत्रु था। यह बात दामन शिवराम आप्टे (V. S. Apte ) के प्रसिद्ध कोप में भी इसे specially applied to Salivahan जैसे शब्दों द्वारा शालिवाहन राजा तथा उसके संवत् ( era ) का वाचक बतलाया है । इस कारण विक्रम राजा 'शक' नहीं, किन्तु शकों का शत्रु था । ऐसी स्थिति में उसे शक बतलाना या 'शक' शब्द का अर्थ शक राजा न करके विक्रम राजा करना किसी भूल का परिणाम है । भगवान महावीर के निर्माण के बाद कंबलियों और श्रुतधर आचार्यो की परम्परा का उल्लेख करते हुए उनका काल ६८३ वर्ष बतलाया है। इस ६८३ वर्ष के काल में से ७७ वर्ष ३ महीने घटा देने पर ६०५ वर्ष ५ महीने का काल अवशिष्ट रहता है । वही महावीर के निर्वाण दिवस से शक काल की आदि-शक सं० को प्रवृत्ति तक का काल मध्यवर्ती काल है- महावीर के निर्वाण दिवस से ६०५ वर्ष ५ महीने के बाद शक संवत् का प्रारम्भ हुआ है और बतलाया है कि छह सौ वर्ष पांच महीने के काल में शक काल को - दाक संवत् की वर्षादि संख्या को - जोड़ देने से महावीर के निर्वाण काल का परिमाण या जाता है। "सब्ब काल समासो तेयासोदीए प्रहिय छस्सदमेतो ( ६८३) पुणो एत्थ सत्तमा साहिय सतहत्तरिवासेसु ( ७७-७ ) श्रवणिदेसु पंचमासाहियपंच त्तरछस्स दवासाणि ( ६०५ - ५ ) हवंति, एसो वोरजिनिंदणिवाणगद दिवसादो जाव समकालस्स प्रादि होदि तावदिय कालो । कुरो ? एवम्हि काले संगणरिवकालस्स पविखते वडमाण जिणणिव्वद कालागमणावो - ( धवला० पु० पृ० १३१-२ ) आचार्य वीरसेन ने धवला टीका में वोर निर्माण संवत् को मालूम करने की विधि बतलाते हुए प्रमाण रूप से जो प्राचीन गाथा उद्धृत की है वह इस प्रकार है पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया । सगकालेन य सहिया थावेयव्बो तदो रासी ॥ इस गाथा में बतलाया है कि शक काल की संख्या के साथ यदि ६०५ वर्ष ५ महीने जोड़ दिये जायें तो वीर जिनेन्द्र के निर्वाणकाल की संख्या आ जाती है। इस गाथा का पूर्वार्ध, वोर निर्वाण से शक काल ( संवत् ) की उत्पत्ति के समय को सूचित करता है। श्वेताम्बरों के तिरोगाली पड़न्मय की निम्न गाथा का पूर्वार्ध भी, वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा का उत्पन्न होना बतलाता है । पंच य मासा पंच य वासा छन्खेव होंति वाससया । परिविप्रस्सऽरहितो उप्पन्नो रूमो राया ॥ ६२३ इस गाथा में भी ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा का उत्पन्न होना लिखा है। इससे दोनों सम्प्रदायों में निर्वाण समय की एकरूपता पाई जाती है। इसका समर्थन विचार श्रेणि में उद्धृत श्लोक से भी होता है :श्रीवीरनिवृतेर्वषः षड्भिः पंचोत्तरः शतैः । शाकस' वल्सर स्पेषा प्रवृत्तिर्भरते ऽभवत् ॥ ऊपर के इस कथन से स्पष्ट है कि प्रचलित वीर निर्वाण संवत् ठीक है । उसमें कोई गलती नहीं है। और वि० [सं० ४७० विक्रमादित्य की मृत्यु का संवत् है। मुनि कल्याण विजय आदि ने भी प्रचलित वीर निर्वाण संवत् को ही ठीक माना है 1 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 भगवान महावीर के ग्यारह गणधर इन्द्रभूति श्रादि भगवान महावीर के ग्यारह गणधर हुये। ये सभी गणधर तप्त दोप्त आदि तप ऋद्धि धारक तथर चार प्रकार को बुद्धि ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि, प्राण ऋद्धि, भौषधि ऋद्धि, रस ऋद्धि श्रोर बलमृद्धि से सम्पन्न थे । उनका नाम और परिचय यथाक्रम नीचे दिया जाता है : प्राप्तसप्तद्विसम्पद्भिः समस्तभुतपारगः । गणेन्द्ररिन्द्र भूत्याद्यं रे कावशभिरादितः ॥ ४० इन्द्रभूतिरिति प्रोक्तः प्रथमो गणधारिणाम् । प्रग्निभूतिद्वितीयश्च वायुभूतिस्तृतीयकः ॥। ४१॥ शुचिस्तुरीयस्तु सुधर्मः पञ्चमस्ततः । isot use इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सत्तमः ॥४२॥ अष्टमोऽकम्पनाख्यातिरचलो नवमो मतः । मेदाय दशमोऽन्त्यस्तु प्रभासः सर्वएव ते ||४३ ॥ तप्तदीता दिलपसः सुतुबुद्धिविक्रियाः । श्रमीणो धिलब्धीशाः सदसद्धिबलद्वयः ॥४४॥ - हरिवंश पुराण ३/४०-४४ इन ग्यारह गणधरों की सब मिलाकर गण संख्या ( शिष्य संख्या ) चौदह हजार थो इन चौदह हजार शिष्यों में से तीन सौ पूर्व के धारी, नौ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, तेरही अवधिज्ञानी, सातसौ केवलज्ञानी, विपुलमति गान के धारक, चार सी परवादियों को जीतने वाले वादी, श्रौरनौ हजारती सौ शिक्षक थे। ये सब साधु ग्रात्म-शोधन तथा ध्यान में संलग्न रहते थे और कर्मशृङ्खला को तोड़ने वाली यात्म-सामर्थ्य को बढ़ा रहे थे। वीर शासन के सिद्धान्तों को जीवन में उतार रहे थे। उनमें कुछ ग्रात्म शुद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने का उपक्रम कर रहे थे। इन विद्वान् और मुमुक्षु शिष्यों से महावीर का शासन चमक रहा था। गण के नायक गणधरों का सक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है। इन्द्रभूति के पिता का नाम वसुभूति था, जो अर्थसम्पन्न विद्वान और अपने गाँव का मुखिया या और गॉवर ग्राम का निवासी था। इनको जाति ब्राह्मण और गोत्र गौतम था । वसुभूति की दो स्त्रियाँ थीं। पृथ्वी और केशरी । इनमें इन्द्रभूति को माता का नाम पृथ्वो देवी या । इन्द्रभूति का जन्म ईस्वी पूर्व ६०७ में हुआ था । यह व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलकार, ज्योतिष, सामुद्रिक, वैद्यक बोर वेद वेदांगादि चोदह विद्याओं में पारंगत था । गौतम इन्द्रभूति की विद्वत्ता की धाक लोक में प्रसिद्ध थी । इसके ५०० शिष्य थे, जो अनेक विद्याओं में पारंगत थे । गौतम को अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। अपने से भिन्न दूसरे विद्वानों को वह हेय समझता था । सौधर्म इन्द्र की प्रेरणा से इन्द्रभूति अपने भाइयों और अपने तथा उनके पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ विपुलाचल पर महावीर के समवसरण में आया । समवसरण में प्रविष्ट होते हो उसने समवसरण के वैभव १. देखो, हरिवंश पुराण, सर्ग ३ श्लोक में ४५ से ४६ पृ० २७ ( भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ) २. बिमले गोदमगोत्तं जाणं इंदभूदिरणामेणं । वेदपारगेणं सिस्सेण विशुद्धसीले || -तिलो० प० १७८ २३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ के साथ मानस्तम्भको देखा। उसके देखते ही उसका मान गलित हो गया। उसने बर्द्धमान विशुद्धि से संयुक्त भगवान महावीर का-प्रसंख्यात भवों में अजित महान कर्मों को नष्ट करने वाले जिनदेव का-दर्शन कर तीन प्रदक्षिणायें दी, और पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वन्दना करके हृदय में जिन भगवान का ध्यान किया । इन्द्रभूति का विद्या सम्बन्धी सब अभिमान चला गया, और अन्त:मानस अत्यन्त निर्मल हो गया। हृदय में विनय और विशद्धि का उद्रेक बढ़ा, और वैराग्य की तरङ्गों ने उन्हें झकझोर डाला। इन्द्रभूति ने तत्काल वस्त्रादि ग्रंथों का परित्याग किया और पंच मष्टि से केशों का लोच किया पोर दिगम्बर दीक्षा धारण की। उस समय उन की अवस्था पचास वर्ष के लगभग थी उन्होंने पच महाव्रतों का अनुष्ठान किया, पांच समितियों का प्राचरण किया, और रागडेप रहित हो तीन गुप्तियों से सम्पन्न, निःशल्य, चार कषायों से रहित, पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त. तथा मन-वचन-काय रूप त्रिदण्डों को भग्न करने वाले, पट निकाय जीवों के संरक्षक, सप्तभय रहित, अष्टमद वजित, दीप्त, तप्त और अणिमादि वैफियिक लब्धियों से सम्पन्न, पाणिपात्र में दी गई खीर को प्रमतरूप से परिवर्तित करने और उसे अक्षय बनाने में समर्थ, क्षुधादि बाईस परिषहों के विजेता, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त घी तपोबल से विपुलमति गन पर्ययज्ञान के धारक और सर्वावधि अवधिज्ञान से अशेष पुदगल द्रव्य का साक्षात् करने वाले ऋद्धि सम्पन्न प्रमुख गणधर पद से अलंकृत हुए। यह घटना ग्राषाढी पूर्णिमा के दिन घटित हुई, इसी से उसे गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। उसके पश्चात श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन ब्राह्म मुहुर्त में भगवान महावीर को दिव्य ध्वनि खिरी और गौतम गणधर ने उसे द्वादशांग रूप से निबद्ध किया। केबलज्ञान से विभूषित भगवान महावीर द्वारा कहे गये अर्थ को, उसी काल में और उसी क्षेत्र में भगो. पशमविशेष से उत्पन्न हए चार प्रकार के निर्मल जान से युक्त, वर्ण से जाह्मण, गौतम गोत्री, सम्पूर्ण दधतियों में पारंगत, जीव-जीव विषयक सन्देह को दूर करने के लिये श्री वर्द्धमान के पाद मुल में उपस्थित इन्द्रमति ने पर धारण किया । अनन्तर भावश्रुतरूप पर्याय से परिणत उस इन्द्रभूति ने वर्द्धमान जिन के तीर्थ में श्रावणमा कृष्ण पक्ष में, युग के आदि में, प्रतिपदा के पूर्व दिन में द्वादशाम श्रुत की रचना एक मुहूर्त में की। अतः भावधत १. मानम्तभं तमालोक्य मानं तत्याज गौतमः । निज प्रशोभया येन विस्मितं भुवनत्रयम् ।। -गौतम चरित्र ४-६६ २. ततो जैनेश्वरी दोक्षा भ्रातृभ्यां जग्रेह सह । शिष्यः पंचशतः साई ब्राह्मणकुलसंभवः ।। -गौतम च०४-१०१ ३. महावीर भासियत्यो तस्सिं सेताम्म तत्थ काले य । खामोवममविवचिद्धरमलमईहिं पुणेणं ।। लोपालोयाण तहा जीवाजीवाण विविहविसएसु । सन्देहणासणत्यं उबगदसिरिवीरचलणमूलेण विमले गोदमगोत्ते जादेणं इन्दभूदिणामेण । चउवेदपारगेण सिस्सेण बिसुद्धसीलेग ॥ भावमुदाजयहि परिणदमइणा अवारसंगाणं । चोद्दसपुरवाण तहा एक्कमुहत्तण विरचणा विहिदो ।। -तिलो०प० १७६-७६ 'पुरषो तेरिणदभूदिणा भावसुद-पज्जय-परिणदेण दारहंगाण चोदस-ब्वाणं च ग्रन्थारण मेक्केण चैव मुहतेण कमेणरयणा कदा । तदो भावमुदस्स मत्थपदाणं च तिस्थयरो कत्ता । तित्थय रादो सुद-पज्जाएग गोदमो परियादो नि दच-सुदास गोदमो कत्ता। -पवला. पु०१पृ०६४-६५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के ग्यारह गराघर २५ और अर्थपदों के कर्ती तीर्थकर हैं। तीर्थकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रत पदार्थ से परिणत हुए। प्रतएव द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। इन्द्रभूति ने दोनों प्रकार का थु तज़ान लोहाचार्य (सुधर्म स्वामी) को दिया। जिस दिन (कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातःकाल) भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन गौतम इन्द्रभूति को केबलज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने केवली पर्याय में बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशों में विहार कर धर्मोंपदेश के द्वारा भव्य जीवों का कल्याण किया–वीर शासन का लोक में प्रचार किया 1 और ईस्वी पूर्व ५१५ में राजगृह के विपुलगिरि से निर्वाण प्राप्त किया। अग्निभूति-(द्वितीय गणधर) यह इन्द्रभूति गौतम का मंझला भाई था। पिता का नाम बतुभूति और माता का नाम पृथ्वीदेवी था। वह भी अपने ज्येष्ठ भ्राता इन्द्रभूति के समान ही व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, अलंकार, दर्शन और वेद बेदांग आदि चौदह विद्याओं में कुशल था। वह ४७ वर्ष की वय में अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान महावीर के समवसरण में दीक्षित हुया था और बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में त्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हए अपने गण का पालन किया । पश्चात धाति कर्म का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और १६ वर्ष केवलो पर्याय में रह कर महावीर के जीवन काल में ही लगभग ७४ वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। वायुभूति-(तृतीय गणधर) यह इन्द्रभूति गौतम का छोटा भाई था। इसको माता का नाम केशरी और पिता का नाम वही वसुभृति था। यह वेद वेदांगादि चतुर्दश विद्याओं का पारगामी विद्वान था और व्याकरण छन्दादि समस्त विषयों में निष्णात था। वायुभूति के भी ५०० शिष्य थे। यह भी अपने दोनों भाइयों, उनके शिष्यों तथा अपने शिष्यों के साथ विपुलगिरि पर महाबोर के समवसरण में दीक्षित हुआ और उनका तीसरा गणधर बना। उस समय इन की अवस्था ४२ वर्ष के लगभग थी। इन्होंने १० वर्ष का जीवन प्रात्म-साधना में व्यतीत किया । पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर १८ वर्ष तक कंवली जीवन में बिहार करते रहे और भगवान महावीर के निर्वाण से दो वर्ष पूर्व हो ७० वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। प्रार्य व्यक्त या शुचिदत्त-(चतुर्थ गणधर) भगवान महावीर के चौथे गणधर का नाम प्रायं व्यक्त या शुचिदत्त था। यह मगध देशस्थ संवाहन नामक नगर के राजा थे, इनका नाम सुप्रतिष्ठ था, इनकी पटरानी का नाम रुक्मणि था, इनसे सुधर्म नाम का एक पुत्र हुमा था, जो कुशाग्र बुद्धि था, विद्याओं के परिज्ञान में श्री प्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था। सज्जनों के मन को प्रानन्ददायक और शत्रुपक्ष के कुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन वह विशद्धमति सुप्रतिष्ठ राजा अपनी पत्नी और पुत्र के साथ भव-समुद्र-संतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया और उनकी दिव्य-ध्वनि सुन कर सांसारिक देह-भोगों से विरक्त हो दिगम्बर मुनि हो गया और भगवान महावीर का चतुर्थ गणधर हमारे और तपश्चरण का अनुष्ठान कर केवलज्ञान प्राप्त कर १. गत्वा विपुलशब्दादिगिरी प्रापयामि नि तिम् --उत्तर पुर ०६-५१७ २. अह एत्यु जि वर ममहाविमए, मर रमणि माम वासिय दिमा। जिनमंदिरमंडियधररिंगवले, इन्दीवर-रप-कय मुरहि जले। संवाहण नामु अत्वि नयक, नायरबिलासहासियलयरु ।। मो जाउ पुप्त जण जारिणय है. नरनाहें रुपिणी राणियहे । सउहम्म नामु विज्जा पवरु नोसेससत्थ विष्णाण घरु । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ महावीर के जीवन काल में ही मुक्ति को प्राप्त हआ। वेताम्बर परम्परानुसार आर्य व्यक्त कोल्लाग सन्निवेश के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम बारुणी और पिता का नाम धनमित्र था। इनके मन में यह सन्देह था कि 'ब्रह्म के अतिरिक्त सारा संसार मिथ्या है। भगवान महावीर के समवसरण में उनकी दिव्य वाणी से समाधान पाकर अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ पचास वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक छमस्थ अवस्था में आत्म-साधना कर केवलज्ञान प्राप्त किया। १५ वर्ष तक केवली रहकर महाबीर के जीवन काल में अस्सी वर्ष की अवस्था में मुक्ति पथ के पथिक बनेकर्म बन्धन से मुक्त हुए। सुधर्मस्वामी-(पंचम गणधर) सधर्म स्वामी मगधदेशस्थ संवाहन नगर के राजा सूप्रतिष्ठ और रानी रुक्मणि का पुत्र था। वह कशाग्र बद्धि विद्याओं के परिज्ञान में ज्येष्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था और सज्जनों के मन को आनन्द देने वाला एवं शत्रु पक्ष के राजकुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ सपरिवार भव-समुद्र-संतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया, और उनकी दिव्य ध्वनि सुनकर देहभोगों से विरक्त हो दिगम्बर मुनि हो गया और भगवान का चतुर्थ गणधर हआ। कुमार ने जब देखा कि पिता ने राज्य विभूति का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर लो, तव सूधर्म ने भी अपने जनक की राज्य सम्पदा का परित्याग कर शाश्वत सुख को साधक दीक्षा अंगीकार की और वह महावीर का पंचम गणधर बना और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में तत्पर हुआ। एक दिन वह मूनि संघ के साथ विहार करता हुआ राजगृह के एक उद्यान में पहुँचा। यहाँ जम्बुस्वामी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया और फिर उन्हीं की ओर देखने लगा। उसके मन में उनके प्रति अनुराग हुआ । जम्बू कुमार ने सुधर्म स्वामी से उसका कारण पूछा, तब उन्होंने बतलाया कि 'मैं वही भवदत्त का जीव हूँ, जो राजा बज्रदन्त का सागरचन्द्र नाम का पूत्र था, और मूनि होकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ था और तुम भवदेव के जीव हो, जो महापद्म राजा के शिवकुमार नाम के पुत्र थे और पिता के मोह से दीक्षा न लेकर घर में ही पाणिपात्र में प्राशुक आहार लिया करते थे। वहां से जलकान्त विमान में विद्युन्माली नामक देव हुआ, जो चार देवियों से युक्त था। अब वहाँ से अर्हदास गिक का पूत्र हमा है। यही परस्पर के स्नेह का कारण है। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने एक मुहर्त में द्वादशाँग का अवधारण कर बारह अंग रूप ग्रन्थों की रचना की और अपने गुणों के समान सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। सूधर्म स्वामी का अपर नाम लोहाचार्य भी था। धवला टीका में सुधर्म के स्थान पर लोहाचार्य का उल्लेख किया गया है। .-.-.-.--.-..- - ..- - - .सजण मण नयगाणंदयउ, लाइय पडिवक्ख कुमार डरु | एक्काह दिणे सुप्पइट्ठ निवह, सकलत्तु सनंदणु सुद्धमइ । गउ वंदण भलिए भवतरण, सिरिबोर जिणंद समोसरण । सिंगमुणे वि परमेट्ठिहि दिवझुरिग, पवज्ज लेविहुउ परम मुरिख । गणहर चउत्थु नद-तवियतण, सिद्धबहु निमेसिय विमलमणु ।। -जंडू सामिचरिउ पृ० १५०-१५१ १. प्राचार्य रविषेण ने पद्मचरित के ४१३ पद्य में "मुधर्म धारिणी भवम् द्वारा उन्हें पारिणी का पुत्र प्रकट किया है। २. तेण गोदपेण दुवि हवि सुदरणारा लोहग्जस्स संचारिदं । -धवला०पू०१पृ०६५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर मुनि नन्दि ने भी जम्बूदीपपण्णत्ती में सुधमं का नाम स्पष्ट रूप से लोहाचार्य बतलाया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से स्पष्ट है: तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर सुधम्मणा खलु जम्बूणामस्स णिद्दिट्ठो ॥ (जबू० प० १ १० ) इससे सुधर्म का नाम लोहाचार्य निश्चित है । जब ईस्वी पूर्व ५१५ में इन्द्रभूति गौतम का निर्वाण हुआ, उसी दिन सुधर्म स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। सुधर्म स्वामी ने ३० वर्ष गणधर अवस्था में रहकर पते श्रात्मा का विकास किया और संघ संचालन किया, तथा जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान किया। सुभ्रमं स्वामी ने ३० वर्ष के मुनि जीवन में जो कार्य किया है, सहस्रों को जैनधर्म में दीक्षित किया, उसका यद्यपि कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। किन्तु उनके मुनि जीवन की एक घटना का उल्लेख निम्न प्रकार उपलब्ध होता है। एक समय सुधर्माचार्य ससंघ विहार करते हुए उड़ देश के धर्मपुर नगर में आये और उपवन में ठहरे। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। उसकी अनेक रानियाँ थीं। उनमें धनवती नाम की रानी से गर्दभ नाम का पुत्र और कोणिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी । अन्य रानियों से पांच सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। ये पाँच सौ पुत्र परस्पर प्रेमी, धर्मात्मा और संसार से उदासीन रहते थे। राजमंत्री का नाम दीर्घ था, जो बहुत बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ था । सुधर्माचार्य का श्रागमन जानकर, तथा नगर निवासियों को पूजा की सामग्री लेकर उनकी पूजा-वन्दना को सुनि-निन्दा जाते देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियों की निन्दा करते हुए उनके गया। और ज्ञान के अभिमान से उसके ऐसे तीव्र कर्म का उदय आया कि उसकी सब बुद्धि नष्ट हो गई । उसे अपनी यह दशा देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ । उसने उनकी तीन प्रदक्षिणा दीं और नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश पुना । उससे उसे बहुत कुछ शान्ति मिली। उसने अपने पांच सौ पुत्रों के साथ गर्दभ को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण द्वारा श्रात्म-साधना करने लगा। उनके पुत्र भी आत्म-साधना में संलग्न होकर कठोर तप का आचरण करने लगे । 1 इस तरह सुधर्माचार्य ने सहस्रों को दीक्षा दी, उन्हें सत्मार्ग में लगाया और महावीर वासन का प्रचार किया अन्त में सुधर्मस्वामी ने अपना सब संघभार जम्बूस्वामी को सोंप दिया और घातिकर्मों का विनाश कर केवली (पूर्णज्ञानी) बनें। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशों में विहार कर जनता का कल्याण किया -- महावीर के सर्वोदय तीर्थ का प्रचार किया। अन्त में ईस्वी पूर्व ५०३ में सौ वर्ष की अवस्था में विपुलाचल से निर्वाण प्राप्त किया' । श्वेताम्बर परम्परानुसार पांचवें गणधर सुधर्म का परिचय निम्न प्रकार है। पंचम गणधर सुधर्मा 'कोल्लाग' सन्निवेश के अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम महिला और पिता का नाम धम्मिल था। इन्होंने भी जन्मान्तर विषयक अपने सन्देह को मिटाकर भगवान महावीर के चरणों में पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। ये भगवान महावीर के उत्तराधिकारी हुए, और महावीर निर्वाण के बीस वर्ष बाद तक संघ की सेवा करते रहे। अन्य सभी गणधरों ने इन्हें दीर्घ जीवी समझ कर अपने-अपने गण सम्हलवाए। इनकी थायु सौ वर्ष के लगभग थी । ५० वर्ष की वय में दीक्षा ली और ४२ वर्ष छद्मस्थ पर्याय में १- मन्नि तिदिने लब्धा सुधर्मः श्रुतपारगः ॥ लोकालोकावलोकंकालोकमन्त्यविलोचनम् ॥ - उत्तर पु०, ७६।५२७-५१८ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ और ८ वर्ष केवली रूप में धर्म का प्रचार कर शत वर्ष की आयु में राजगृह नगर से मुक्त हुए । ' माण्डव्य - (छठवें गणधर ) जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यह मौर्यं सन्निवेश के वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम घनदेव और माता का नाम विजया था । इन्होंने भी इन्द्रभूति की तरह अपने ३५० छात्रों के साथ तिरेपन वर्ष की अवस्था महावीर के समक्ष मुनि दीक्षा अंगीकार की। चौदह वर्ष तक आत्मसाधना के मार्ग में रहकर ६७ वर्ष को अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया । लगभग १६ वर्ष केवलो जीवन में रहकर भगवान महावीर के जीवन समय में ही मुक्त हुए । मौर्य पुत्र - ( सातवें गणधर ) सातवें गणधर मौर्य पुत्र हैं, जो मौयं सन्निवेश के निवासी थे। इनका गोत्र काश्यप था । इनके पिता का नाम मौर्य और माता का नाम विजया देवी था। देव और देवलोक सम्वन्धी शंका की निवृत्ति के परिणामस्वरूप लगभग पैंसठ वर्ष की अवस्था में अपने ३५० छात्रों के साथ जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार की। कुछ वर्ष छपस्थ अवस्था में बिताकर ७६ वर्ष की वय में केवल ज्ञान प्राप्त किया। १६ वर्ष केवली पर्याय में रहकर महावीर के जीवन काल में ही मुक्त हुए। कम्पित – (प्राठ गणधर ) आठवें गणधर का नाम प्रकम्पित था। यह मिथिला नगर के निवासी गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम देव और माता का नाम जयन्ती था । इन्हें नरक और नारकीय जीवों के सम्बन्ध में सन्देह था । अपने संशय की निवृत्ति के कारण ४८ वर्ष की अवस्था में अपने तीन सौ शिष्यों के साथ महावीर के चरणों में दंगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। तपश्चरणादि द्वारा छद्मस्थ जीवन बिताकर केवलज्ञान प्राप्त कर २१ वर्ष पर्यन्त केवली पर्याय में रहकर राजगृह से मुक्ति प्राप्त की । प्रचलभ्राता - ( नौवें गणधर ) भगवान महावीर के नौवें गणधर का नाम अचल भ्राता था। जो हारीय गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम वसु और माता का नाम नन्दादेवी था। पुण्य-पाप-सम्बन्धी अपनी जिज्ञासा को निवृत्ति के बाद उन्होंने अपने तीन सौ शिष्यों के साथ छयालीस वर्ष की अवस्था में भगवान महावीर के सन्मुख दिगम्बर दीक्षा ली और कठोर साधना करते हुए उन्होंने केवल बोधि प्राप्त की। लगभग बहत्तर वर्ष की अवस्था में विपुलाचल से निर्वाण प्राप्त किया। मेतार्थ - ( दसवें गणधर ) दशवें गणधर का नाम मेतायं है। ये वत्स देशान्तर्गत तंगिक सन्निवेश के निवासी थे। इनका गोत्र कौडिन्य था। इनके पिता का नाम दत्त और माता का नाम दरुणा था। पुनर्जन्म के सम्बन्ध में इनके मन में संशय था। किन्तु भगवान महावीर के उपदेश से उसका समाधान हो गया । निश्शंक होने पर इन्होंने छत्तीस वर्ष की अवस्था में भगवान महावीर के समक्ष अपने तीन सौ शिष्यों के साथ द्विविध परिग्रह का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले ली । तपश्चरण द्वारा कठोर साधना करते हुए घाति चतुष्टय का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और लगभग बासठ वर्ष की अवस्था में राजगृह से मुक्ति प्राप्त को । प्रभास - ( ग्यारहवें गणधर ) ग्यारहवें गणधर का नाम 'प्रभास' था। ये राजगृह के निवासी थे । इनका गोत्र कौडिन्य था । इनके १. मोक्ष ते महावीरे सुधर्मागणभृवरः । are द्वादशादान तस्मो तीर्थप्रवर्तयन् । ततश्च द्वानवत्यब्दी प्रान्ते सम्प्राप्त केवलः । श्रष्टाब्दी विजहारोव भव्यसत्वान् प्रबोधयत् || प्राप्ते निर्माण समये पूर्ण वर्ष शतायुषा । सुधर्म स्वामिना स्थापि जम्बूस्वामी गणाधिपः ॥ परिशिष्ट पर्व ४-५७, ५८, ५९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर २६ पिता का नाम बल और माता का नाम प्रतिभद्रा था। इनको मोक्ष के सम्बन्ध में शंका थी। भगवान महावीर द्वारा उसका समाधान हो जाने पर उन्हीं के समक्ष उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण की। आठ वर्ष तक कठोर तपश्चरण द्वारा आत्मशोधन किया और घाति चतुष्टय का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। कुछ वर्ष केवली पर्याय में रहकर अविनाशी पद प्राप्त किया । यम मुनि उड़ देश में धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। राजा बड़ा बुद्धिमान् श्रीर शास्त्रज्ञ था । उसकी धनवती रानी से गर्दभ नाम का एक पुत्र और कोणिका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी। इसके अतिरिक्त और भी रानियाँ थीं । जिनसे पांच सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे पांच सौ भाई परस्पर में नमी और धर्मात्मा थे । संसार से उदासीन रहा करते थे। राजा का दीर्घ नाम का एक मंत्री था जो लोक शास्त्र और राजनीति का पंडित था । एक दिन किसी नैमित्तिक ने राजा से कहा कि कुमारी कोणिका का जो पति होगा वह सारी पृथ्वी का भोक्ता होगा | यह सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह पुत्री की बड़े यत्न से रक्षा करने लगा। उसने उसके लिए एक सुन्दर तलघर बनवा दिया, जिससे उसे छोटे-मोटे बलवान राजा न देख सकें। एक समय सुधर्माचार्य विहार करते हुए पाँच सौ मुनियों के संघ सहित धर्मपुर में पधारे, और नगर के बाहर उपवन में ठहरे। उनका एकमात्र लक्ष्य संसार के जीवों का हित करना था। नगर निवासियों को उनकी पूजा, वन्दना के लिये पूजन सामग्री को लेकर जाते हुए देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियों की निन्दा करते हुए उनके पास गया। मुनि निन्दा और ज्ञान का अभिमान करने से उसी समय उसके ऐसे तीव्र पाप कर्म का उदय भाया कि उसकी बुद्धि विनष्ट हो गई, और वह महामूखं बन गया। नीति में भी कहा है कि कुल, जाति, मल, ऋद्धि, ऐश्वर्य, शरीर, तप, पूजा प्रतिष्ठा और ज्ञानादि का मद नहीं करना चाहिये, क्योंकि इनका अभिमान बड़ा दुःखदायी होता है। राजा को अपनी यह दशा देखकर बड़ा माश्चर्य और खेद हुआ । उसने अपने कृत कर्मों का बड़ा पश्चात्ताप किया। मुनिराज को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया, और उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं और उसने उनका भक्तिपूर्वक उपदेश सुना। उससे उसे कुछ शान्ति मिली। उसका प्रभाव राजा पर पड़ा, परिणामस्वरूप राजा का चित्त देह-भोगों से विरक्त हो गया। वे उसी समय गर्दभ नाम के पुत्र को राज्य देकर अपने अन्य पांच सौ पुत्रों के साथ, जो बाल अवस्था से वैरागी थे, मुनि हो गए । मुनि अवस्था में सबने शास्त्रों का खूब अभ्यास किया । श्राश्चर्य है कि पांच सौ पुत्र तो खूब विद्वान् बन गए। किन्तु यम मुनि को पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण करना तक नहीं पाया। अपनी यह दशा देखकर वे बड़े शर्मिन्दा और दुखी हुए। उन्होंने वहाँ रहना उचित न समझ अपने गुरु से तीर्थ यात्रा करने को प्राज्ञा ले ली, और अकेले ही वहाँ से निकल पड़े। एक दिन यात्रा में यम मुनि अकेले ही स्वच्छन्द हो मार्ग में जा रहे थे । उन्होंने गमन करते हुए एक रथ १. एतम्मित सकले नष्टे गर्वहीनो नराधिपः । मुनिपारवं स सम्प्राप्य भक्तिष्टतनूरुहः ।। १४ । प्राय गर्दभाभिख्यं पुर्व प्राप्तं स भूपतिः । राज्यपट्टे बबन्धास्य समस्तनृपसाक्षिकम् ||१५|| शर्त पंचभिरायुक्तः स्वपुत्राणां दुषः सह । अन्यः सुधर्मसामीप्ये राजेन्द्रः स तयोऽग्रहीत् ||१६|| एवं प्रव्रजिते तस्मिस्तत्पुत्रा मुप्तकुञ्जराः । ग्रन्थार्थपारगाः सर्वे बभूवुः स्वल्पकालतः ||१७|| -- हरिषेण कथा कोश, कथा ६१, पृ० १३२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २० देखा जिसमें गधे जुते हुए थे और उस पर एक आदमी बैठा हुआ था । गधे उसे हरे धान के खेत की ओर ले जा रहे थे। रास्ते में मुनि को जाते हुए देख कर रथ में बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया, और उन्हें वह कष्ट पहुँचाने लगा | मुनि के ज्ञान का कुछ क्षयोपशम हो जाने से उन्होंने एक खण्ड गाथा पढ़ी - कहसि पुण णिक्खेवसिरे महा जब पेच्छसि खादिमिति । रे गधो, कष्ट उठाओगे तो तुम जो भी चोहो खा सकोगे । एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे, देवयोग से कोषिका भी वहीं पहुँच गई। उसे देखकर वे बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक श्रीर खण्ड गाथा बनाकर पढ़ी 'त्थ किलोवह तुम्हे पत्थणि वृद्धि या छिड़े अच्छाई कोणि इनि । दूसरी ओर क्या देखते हो ? तुम्हारी पत्थर सरीखी कठोर वृद्धि को छेदने वाली कोणिका तो है । एक अन्य दिन यम मुनि ने एक मेंढक को एक कमल पत्र की आड़ में छुपे हुए सर्प की ओर श्राते हुए देखा। देखकर वे से ढक से बोले- 'अम्हादो पत्थि भयं दोहादो दीसदे भय तुम्हांस मेरे आत्मा को किसी से भय नहीं है, किन्तु भय है तुम्हें । यम मुनि ने जो कुछ थोड़ा-सा ज्ञान सम्पादन कर पाया, वह उक्त तीन खण्ड गाथात्मक ही था। वे उन्हीं का स्वाध्याय करते, इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं जाता था । किन्तु उनका अन्तर्मानस पवित्र था। वे यथाजात मुद्रा के धारक थे, तपश्चरण करते और अनेक तीर्थो की यात्रा करते हुए ये धर्मपुर थाए। वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो ध्यान करने लगे । उनके थाने का समाचार उनके पुत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ । उन्होंने समझा कि ये हमसे गुनः राज्य लेने के लिये आये हैं । श्रतएव वे दोनों मुनि को मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में प्राए और तलवार खींच कर उनके पीछे खड़े हो गए । मुनिवर ने निम्न गाथा पढ़ी - धिक् राज्यं धिङ् मूर्खत्व कातरत्वं च धिक्तराम् । निस्पृहाच्च मुनयन शंका राज्येऽभवत्तयोः 11 --ऐसे राज्य को ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसारत्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छीने जाने का उन्हें भय हुया । यद्यपि गर्दन और दीर्घ दोनों मुनि की हत्या करने को प्राए थे, परन्तु उनकी उन्हें मारने की हिम्मत न पड़ी। उसी समय मुनि ने अपनी स्वाध्याय को पहली गाथा पढ़ी। उसे सुनकर गर्दभ ने मंत्रो से कहा- जान पड़ता है मुनि ने हम दोनों को देख दिया है। पश्चात् मुति ने दूसरी खण्ड गाथा पढ़ी, तब उसने कहा, नहीं जी मुनिराज राज्य लेने नहीं आए हैं। मेरा वैसा समझना भ्रम था श्रज्ञान था। मेरी बहिन कोशिका के प्रेम वश वे कुछ कहने को ये जान पड़ते हैं। अनतर मुनिराज ने तीसरी गाथा भी पढ़ी। उसका अर्थ गर्दभ ने यह समझा कि मंत्री दीर्घ बड़ा दुष्ट है, मुझे मारना चाहता है। अतएव भ्रमवश ही पिता जी मुझे सावधान करने आये हैं । थोड़ी देर में उनका राव सन्देह दूर हो गया। उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ उन मुनिराज को प्रणाम दिया और धर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए, और श्रावक के व्रतों को ग्रहण कर अपने स्थान को लौट गए । यमवर मुनि निर्मल चारित्र का पालन करते हुए अपने परिणामों को वैराग्य से सराबोर करने लगे । उनकी निस्पृह वृत्ति, पवित्र संयम का श्राचरण, और तपश्चरण की निष्ठता, एकाग्रता दिन-पर-दिन बढ़ रही थी। उन्हें तपश्चरण के प्रभाव से सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हुई। वे भगवान महावीर द्वारा अदिष्ट सम्यक्ज्ञान की आराधना में तत्पर हुए। लब्धि संयुक्त वे मुनि अन्य पाँच सौ मुनियों के साथ कुमारगिरि के शिखर से देवलोक को प्राप्त हुए । जैसा कि कथा कोश के निम्नपद्यों से स्पष्ट है १. यमयोगी परिप्राप्य गुरुसामीप्यमादरात्। घोर तपकारे विविधद्धि समन्वितः ।। पादानुसारिंगी बुद्धिः कोष्ठबुद्धिस्तथैव च भिन्न श्रोत्रिकाद्या हि बुद्धयः परिकीर्तिताः ॥ ५६ ॥ उग्रं तपस्तथा दीप्तं तपस्तप्तं महातपः । धोरादीनि विजानन्तु तपांसीमानि कोविदः ||६०|| - हरिषेण कथाकोष पृ० १३६ --- Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम केवली जम्बूस्वामी एताभिलब्धिभियुक्तः श्रामण्यं परिपाल्य च । धर्मादिनगरासन्ने कुमार गिरिमस्तके ।। ६७ । शतैः पञ्चभिरायुक्ता मुनीनां धर्मशालिनाम। पाराधनां समाराध्य यमः साधुदिवं ययौ ।। ६। अन्तिम केवली जम्बूस्वामी मगध देश के राजगृह नगर में अहद्दास नाम का सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम जिनमती या जिनदासी था, जो रूप-लावण्य-संयुक्त और पतियता थी। दोनों हो जैनधर्म के संपालक मोर धर्मनिष्ठ थावक थे। सेठ ग्रहंदास के पिता का नाम धनदत्त और माता का नाम गोत्रवती था । इनकं दो पुत्र थे अहंदास और जिनदास । इनमें ग्रहदास धर्मात्मा था और जिनदास कुसंगति के कारण बूतादि व्यसनों का शिकार हो गया था। वह एक दिन जुए में छत्तीस सहस्र मुद्राए हार गया। घर से मुद्रा लाकर दने का वचन देने पर भी छल नाम के एक जुमारी ने जिनदास के पेट में कटार मार दी। उसकी सूचना मिलने पर अहंदास उसे अपने घर ले आया, और उचित उपचार करने पर भी वह उसे बचा न सका। उसने ग्रहहास से कहा कि मने जीवन में धर्म से विपरीत बुरे कर्म किये हैं, उनका मुझे पश्चात्ताप है । परलोक सुधारने के लिये कुछ धर्म का स्वरूप बतलाइये। तव अहंदास ने उसे धार्मिक उपदेश दिया और पचनमस्कार मंत्र सुनाया, जिससे वह यक्ष योनि में उत्पन्न हुमा । जव उसने यह सुना कि अहंदास सेठ के गृह में अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जन्म होगा, तो वह अपने वंश की प्रशंसा सुनकर हर्ष से नाच उठा। विद्यन्मालो देव का जीव ब्रह्म स्वर्ग से चयकर जब जिनमती के गर्भ में पाया तब जिनमतो ने पांच शुभ स्वप्न देखे--हाथो, सरोवर, चावलों का खेत, घूम रहित अग्नि, और जामुन के फल । नौ महीने बाद ६०७ ई. पूर्व में जम्बुम्वामी का जन्म हुआ और उसका नाम जम्बूकुमार रक्खा गया। जम्बूकुमार दूज के चन्द्र के समान प्रतिदिन बढ़ता गया । वह स्वभावतः सौम्य, सुन्दर, मिष्टभापी, भद्र, दयालु और वैराग्यप्रिय था। वाल अवस्था में उसने समस्त विद्यानों को शिक्षा पाई थी। उसके गुणों को सुरभि चारों तरफ फैलने लगी। वह कामदेव के समान मन्दर रूप का धारक था। उसे देखकर नगर की नारियाँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं मोर काम बाण से पीड़ित हो जाती थीं। किन्तु कुमार पर उसका कोई प्रभाव अकित नहीं होता था, क्योंकि उसका इन्द्रिय विषयों में कोई राग नहीं था और युवावस्था में भी वह निविकार था। उसके प्रात्म-प्रदेशों में वैराग्य रस का उभार जो हो रहा था। वह बज्रवषभनाराच संहनन का धारी और चरम शरीरी था और जैन धर्म का संपालक था। जीवन-घटनाएं एक बार राजा श्रेणिक का बड़ा हाथो कोलाहल से भयभीत होकर सांकल तोड़कर क्रोधयुक्त हो वन में घमने लगा। उसके कपालों से मद कर रहा था जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वह नील पर्वत के समान काला था और अपने दांतों से पृथ्वी को कुरेदता हुमा सूड से पानी फेंकता था। वह जिधर जाता वृक्षों को जड़मूल से उखाड़ देता था। उस वन में ग्राम, जामुन, नारंगी, केला, ताल-तमाल, प्रशोक, कदंब, सल्लकी साल, नीबू, खजर, नारियल, और अनार प्रादि के सुन्दर पेड़ लगे हुए थे। कुछ पौधे खुशबूदार फूलों के समूह से लदे हुए थे, जिनकी महक से वह वन सुरभित हो रहा था। उसमें अनेक प्रकार के फल-फूल और मेवों वाले बहुमूल्य पेड़ थे। उस वन की शोभा देखते ही बनती थी । वह मोरणियों के शब्दों से गुंजायमान था और कोयलों की मधुर ध्वनि से मुखरित हो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३२ रहा था। जनता हाथी की भयंकरता से आकुलित हो रही थी। बड़े-बड़े योद्धा भी उसे बांधने का साहस नहीं कर सके । किन्तु जम्बूकुमार ने श्रचिन्त्य साहस और बल से उस पर सवार होकर उस उन्मत्त हाथी को क्षणमात्र में वश में कर लिया । श्रतएव जनता में जम्बूकुमार के साहस की प्रशंसा होने लगी । लोग कहने लगे- धन्य है कुमार का अद्भुत बल, जिसने देखते-देखते क्षणमात्र में भयानक हाथी को वश में कर लिया। यह सब उसके पुण्य का माहात्म्य हैं, इसलिये यह महापुरुषों द्वारा पूज्य है । गुग्य से ही सम्पदा, दुख सामग्री और विजय मिलती है । जम्बूकुमार ने केरल के युद्ध में जो वीरता दिखलाई बहु श्रद्वितीय थी । रत्नशेखर से युद्ध करते हुए जम्बूकुमार ने उसको बांध लिया। युद्ध कितना भयंकर होता है इसे योद्धा अच्छी तरह से जानते हैं । कहाँ रत्नशेखर की बड़ी भारी सेना और कहाँ अकेला जम्बूकुमार। किन्तु जम्बुकुमार ने अपने बुद्धि कौशल और आत्मबल से शत्रु पर अपनी वीरता का सिक्का जमा लिया, बन्दी हुए केरल नरेश को बन्धन से मुक्त किया उसकी सुपुत्री विलासवती का विम्बसार के साथ विवाह करा दिया; और केरल नरेश मृगांक तथा रत्न शेखर में परस्पर मेल करा दिया। इन सब घटनाओं से जम्बुकुमार की महानता का पता चलता जम्बूकुमार जब केरल से वापिस लौट कर आ रहा था, तब उसे विपुलाचल पर सुधर्म गणधर के आने का पता चला। वह उनके समीप गया, और नमस्कार कर थोड़ी देर एकटक दृष्टि से उनकी ओर देखता रहा। जम्बूकुमार का उनके प्रति आकर्षण बढ़ रहा था। पर उसे यह स्मरण न हो सका कि मेरा इनके प्रति इतना आकर्षण क्यों है? क्या मैंने इन्हें कहीं देखा है, इस अनुराग का क्या कारण है ? तब उसने समीप में जाकर पुनः नमस्कार किया और उनसे अपने अनुराग का कारण पूछा। तब उन्होंने बतलाया कि पूर्व जन्मों में मैं और तुम दोनों भाईभाई थे। हम दोनों में परस्पर बड़ा अनुराग था । मेरा नाम भवदल और तुम्हारा नाम भवदेव था। सागरसेन या सागरचन्द्र पुण्डरीकिणी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर देह-भोगों से विरक्त हो मुनि हो गया मौर त्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करने हुए भाई के सम्बोधनार्थ वीतशोका नगरी में पधारे। वहाँ भवदेव का जीव चन्द्रवती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ था। शिवकुमार ने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उससे उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया और मांगों से उसके मन में विरक्तता का भाव उत्पन्न हुआ । उससे राजप्रासाद में कोलाहल मच गया। शिवकुमार ने माता-पिता मे दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत समझाया, और कहा-तप और व्रतों का अनुष्ठान घर में भी हो सकता | दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है । पिता के अनुरोधवश कुमार ने तरुणी जनों के मध्य में रहते हुए भी विरक्त भाव से ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया । इस प्रसिधारा व्रत का पालन करते हुए शिवकुमार दूसरों के यहाँ पाणिपात्र में प्राशुक बाहार करता था । प्रायु के अन्त में ब्रह्म स्वर्ग में विद्युन्माली देव हुया । मैं भी उसी स्वर्ग में गया। वहाँ से चयकर मैं सुधर्म हुआ हूँ और तुम जम्बूकुमार नाम के पुत्र हुए। यही तुम्हारा मेरे प्रति स्नेह का कारण है । जम्बूकुमार ने सुधर्म स्वामी का उपदेश सुना, उससे उसके हृदय में राज्य का प्रवाह उमड़ पाया, और उसने सुधर्माचार्य से दीक्षा देने के लिए निवेदन किया। तब उन्होंने कहा कि जम्बूकुमार ! तुम अपने मातापिता से आज्ञा लेकर आओ, तब दोक्षा दी जाएगी। कुटुम्बियों ने भी अनुरोध किया और कहा कि कुमार ! अभी दीक्षा न लो। कुछ समय बाद ले लेना । अतः जम्बकुमार घर वापिस आ गया। माता-पिता ने उसे विवाह के बंधन धने का प्रयत्न किया। तब जम्बूकुमार ने विवाह कराने से इनकार कर दिया। सेठ दास ने अपने मित्र सेठों के घर यह सन्देश भिजवा दिया कि जम्बूकुमार विवाह कराने से इनकार करता है। अतः श्राप अपनी पुत्रियों का सम्बन्ध अन्यत्र कर सकते हैं। उनकी पुत्रियों ने कहा कि विवाह तो उन्हीं से होगा, अन्यथा हम कुमारी रहेंगी । वे एक रात्रि हमें दें, उसके बाद उन्हें दीक्षा लेने से कोई नहीं रोकेगा। अतः विवाह हुआ। विवाह के पश्चात् जम्बूकुमार घर प्राया और रात्रि में स्त्रियों के मध्य में बैठकर चर्चा होने लगी । बहुएं अनुरागवर्धक अनेक प्रश्नोत्तरों और कथा कहानियों, दृष्टान्तों द्वारा जम्बूकुमार को निरुत्तर करने या रिझाने में समर्थ न हो सकीं। उन्होंने शृङ्गार परक हाव-भाव रूप चेष्टाओं का अवलम्बन भी लिया, किन्तु जम्बूकुमार पर वे प्रभाव डालने में सर्वथा असमर्थ रहीं । विद्युत चोर अपने साथियों के साथ जिनदास के घर चोरी करने श्राया और छिपकर खड़ा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम केवल जम्बूस्वामी ३३ होगया। वहां जम्बूकुमार और उनकी स्त्रियों की वार्ता हो रही थी। विद्युतचोर बड़ी देर से उनके ग्राख्यानों को सुन रहा था, उसे उसमें रस आने से और जागृति रहने से यह चोरी तो नहीं कर सका, पर वह उनकी बातों में तन्मय हो गया। विद्युतचोर ने भी अनेक दृष्टान्तों और कथानकों द्वारा कुमार को समझाने का यत्न किया, पर विद्युतचोर की वकालत भी उन्हें विषयपाश में न फँसा सकी। उल्टा जम्बूकुमार का प्रभाव विद्युतचोर और उसके साथियों पर पड़ा । भतः विद्युतचोर भी अपने साथियों के साथ चोर कर्म का परित्याग कर दीक्षा लेने के लिये तत्पर हो गया । जम्बूकुमार तो दीक्षा लेने के लिये पहले से ही उत्सुक था। जम्बूकुमार की जिन दीक्षा जम्बूकुमार ने अपने विवाह की इस रात्रि में अपनी उन चार पलियों को बुद्धिबल से जीत लिया । उनकी शृंगारपरक हाव-भाव चेष्टाओं, कथानकों, उपकथानकों श्रादि का जम्बूकुमार पर कोई प्रभाव श्रंकित नहीं हुआ, उन्होंने राग भरी दृष्टि से उनकी ओर झाँका तक भी नहीं। उनकी वैराग्य भरी सौम्य दृष्टि का प्रभाव उन पर पड़ा । विद्य तचोर धौर उसके साथी सब सोचते कि देखो, कुमार पर देवांगनाओं के सदृश प्रत्यन्त सुन्दर इन म युवतियों का और धन वैभव का कोई प्रभाव नहीं है, ऐसी विभूति को छोड़कर यह दीक्षा ले रहा है । हम लोग तो जिंदगी भर पाप कर्म करते रहे, और उसी के लिये यहाँ प्राये थे किन्तु कुमार का जिन-दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय देखकर हमारा विचार बदल गया और हम सब भी दीक्षा लेकर श्रात्म-साधना करेंगे। हमारे इस निश्चय को ग्रब कोई टालने के लिये समर्थ नहीं है। इस प्रकार के विचार विनिमय में ही सब रात्रि चली गयी, और प्रातः काल हो गया । सेठ दास ने प्रातःकाल राजभवन में जाकर सम्राट् से निवेदन किया कि जम्बूकुमार की चारों नवोढ़ा पत्नियाँ भी उसे गृहस्थ के बंधन में न बांध सकीं और वे दीक्षा लेने वन में जा रहे हैं। सम्राट ने कहा – अच्छा उनको जुलूस के रूप में सुधर्म स्वामी के पास ले चलने की व्यवस्था की जाय । जुलूस में दुन्दुभि बाजे बज रहे थे, हाथी, घोड़े, ऊँट, और पैदल जनता सभी उसमें शामिल थे। बीच में एक सजी हुई पालकी में जम्बूकुमार बैठे हुए थे। उनके शरीर पर बहुमूल्य वस्त्राभूषण थे। उनके सिर पर मुकुट बंधा हुआ था, जिसे सम्राट् बिम्बसार ने बांधा था। पालकी को नगर के सम्भ्रांत नागरिक उठाए हुए थे । जनता उत्साह के साथ भगवान महावीर की जय, सुवधर्म स्वामी की जय और जम्बूस्वामी की जय बोल रही थी । जुलूस क्रमश नगर के सभी प्रधान मार्गों से घूमता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। मार्ग में सभी गवाक्ष और छते नर-नारियों से भर गई । सब ओर से उनके ऊपर पुष्प बरसाये जा रहे थे। जिस समय जुलूस श्रहंदास सेठ के मकान की ओर आया, तब जम्बूकुमार की माता जिनमती मोहवश दोड़ती हुई पालकी के पास श्राई । वह मुख से हा पुत्र ! हा पुत्र ! कहकर एकदम मूच्छित हो गई। शीतोपचार से जब वह होश में आई तो मांसू बहाती हुई गद्गद् हो कहने लगी हे पुत्र ! एक बार तू मुझ अभागिनी माता की श्रोर तो देख यह कहकर वह पुनः मूच्छित हो गईं। अपनी सास को मूच्छित हुआ देख जम्बूकुमार की चारों बहुएँ भी अत्यन्त शोकसन्तप्त होकर रुदन करती हुई बोलींनाथ 1 है कामदेव ! हम सबको अनाथ बनाकर श्राप कहाँ जा रहे हैं ? जिस तरह चन्द्रमा के बिना रात्रि की शोभा नहीं, कमल के विना सरोवर की शोभा नहीं, उसी तरह ग्रापके बिना हमारा जीवन भी निरर्थक है । हे कृपानाथ ! आप प्रसन्न हों और थोड़े समय गृहस्थ अवस्था में रहकर बाद में उसका परित्याग कर दीक्षा ले ले। जम्बूकुमार की पत्नियाँ इस प्रकार कह ही रहीं थी कि चन्दनादि के उपचार से माता जिनमती को दुबारा होश भा गया। वह होश में आकर रो-रोकर जम्बूकुमार से कहने लगी हे पुत्र ! कहाँ तो तेरा केले के पत्ते के समान कोमल शरीर और कहाँ वह असिधारा के समान कठोर जिन दीक्षा ! तपदचरण कितना कठिन है । नग्न शरीर, डांस-मच्छर, भंझावात, वर्षा, ठण्ड, गर्मी, आदि को अनेक असा बाधायें कैसे सहन करेगा ? हे बालक ! तू इस ऊबड़-खाबड़ कठोर भूमि में कैसे शयन करेगा और भुजाओं को Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३४ लटकाए हुए तू किस तरह रात्रि भर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करेगा, और उपसर्ग परिषद की भीषण स्थितियों में अपने को कैसे निश्चल रख सकेगा । किन्तु सुदृक संकल्पी जम्बूकुमार माता को रोती-बिलखती देखकर बोले- हे माता ! तू शोक को छोड़कर कायरने का परित्याग कर । तुझें अपने मन में यह सोचना चाहिए कि यह संसार अनित्य और अशरण है । है माता ! मैंने अनेक जन्मों में इन्द्रिय-विषयों के सुख का अनेक वार उपभोग किया और उन्हें जूठन के समान छोड़ा। ऐसे तृप्तकारी विषय सुखों की ओर भला माता ! मैं कैसे जा सकता हूँ । तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि तेरा पुत्र संसार के बंधनों को काटकर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है। इस तरह जम्बूकुमार अपनी माता को सम्बोधित कर पालकी में बैठकर आगे बढ़े और राजगृह के सभी मार्गों से घूमकर नगर के बाहर उपवन में पहुँचे । उपवन में एक वृक्ष के नीचे मुनियों व परिकर सहित महातपोधन सुधर्म स्वामी बैठे हुए थे । जम्बूकुमार गालकी से उतरकर उनके समीप गए। उन्हें नमस्कार थिया, तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। फिर उनके सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो बड़े श्रादर से खड़े हो यह प्रार्थना की हे दयासागर | सम्यक् चारित्र के धारक है मुनिपुंगव ! मैं जन्म मरण रूप दुःखों से भरे हुए कुयोनिरूप समुद्र के आवतों में डूब रहा हूँ । कृपा कर आप मेरा उद्धार करें। आप मुझे संसार के दुःखों की विनाशक, कर्मक्षय करने वाली बैगम्बरी दीक्षा प्रदान करें। जिससे में श्रात्म-साधना द्वारा स्वात्म-निधि को प्राप्त कर सकूं । सुधर्म स्वामी ने कहा- अच्छा मैं तुझें अभी दीक्षित करता हूं । t यह सुनते ही जम्बूकुमार का हृदय कमल खिल उठा, उन्होंने गुरु के सम्मुख अपने शरीर से सभी आभूषण उतार दिये। कुमार ने अपने मुकुट के आगे लटकने वाली माला को इस तरह दूर किया मानों उन्होंने कामदेव के को ही बलपूर्वक दूर किया तो उन्होंने रत्नमयमुकुट को भी इस तरह उतारा मानों उन्होंने मोह रूप राजा को जीत लिया हो। पश्चात् हार आदि प्राभूषणों घोर रत्नमय अंगूठी को भी उतार दिया और अपने शरीर सेयों को इस तरह उतारा मानों चतुर पुरुष ने माया के पटलों को हो फेक दिया हो । समस्त वस्त्राभूषणों का परित्याग कर जम्बूकुमार ने पंचमुट्ठियों से केशों का लोच कर डाला। और 'ओ नमः' मंत्र का उच्चारण कर शुम श्राज्ञा से अट्ठाईस मूल गुणों को धारण किया' – पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचेंद्रियनिरोध, छह श्रावश्यक, केशलोंच, अचेलक (नग्न) ग्रस्नान, भूशयन, प्रदंतधावन, स्थितिभोजन - खड़े होकर ग्राहार लेना और दिन में एक बार भोजन इन २८ मूल गुणों का पालन करना प्रारम्भ किया । जम्बूकुमार ने यह दीक्षा लगभग २५-२६ वर्ष की अवस्था में ग्रहण की होगी। दीक्षा के पश्चात् जम्बू कुमारने आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त ध्यान और अध्ययन में अपना उपयोग लगाया और सुधर्मस्वामी के पास समर का अध्ययन किया तथा अनशनादि [अन्तर्वाह्य दोनों तपों का अनुष्ठान किया। आचाराङ्ग के अनुसार मुनिचयों का निर्दोष पालन करते हुए साम्यभाव को प्राप्त करने का उद्यम किया । कषाय-विष का शोषण करते ह • उसे इतना कमजोर एवं अशक्त बना दिया, जिससे वह प्रात्मध्यानादि में बाधक न हो सके। वे मुनि जम्बूकुमार निस्पृह वृत्ति से मुनि धर्म का पालन करते थे । उसमें प्रमाद नहीं आने देते थे; क्योंकि प्रमाद करने वाला साधु दोपस्थापक होता है १. पंच महल्वाई समिदीओ पंचजिरणवरुहिडा । पंचेदियरोहो छपिय ग्रावास्या लोचो ॥ यच्चेलक मध्हाण खिदिरायण मदतसगं चैव । दिदि भोयणेव भ मूलगुला मढवीसा दु ॥ छेदोवलायगो होदि । २. तेसु पमतो समो - मूलाधार १, २, ३ -प्रत्रवनसार ३-६ F ► Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तिम केवली जम्बू स्वामी मनि अवस्था में एक दिन जम्बूकुमार पाहार के लिये राजगह नगर में गए, और वहाँ जिनदास सेठ में नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। निर्दोष पाहार देने के कारण सेठ के आंगन में दानातिशय से पत्रारचर्य हए। आहार लेकर मुनिराज उपवन में प्रा गए, और ज्ञान-ध्यान में तत्पर हो गए। इन्द्रिय विकारों को जीतने के लिए धे कभी उपवास रखते, और कभी रस का परित्याग करते थे। जम्बूकूमार जितने सुकुमार थे, वे उतने ही सहिष्ण सायीबाहीर निवेको थे। उनकी शान्त मुद्रा और यात्म-तेज देखकर सभी आश्चर्य करते थे । वे यथाजात मुद्रा के धारी तो थे ही, साथ ही मन-वचन और काय को वश में करने के लिए गुप्तियों का अवलम्बन लेते थे। ध्यान और अध्ययन में प्रवृत्ति होने के कारण वे द्वादशांग के पारगामी युतकेवली हो गए और सुधर्मस्वामी केवलज्ञानी हो गए। अब सब संघ का भार जम्बू स्वामी वहन करने लगे । बारह वर्ष बाद मूधर्म स्वामी का विपलाचल से निर्वाण हो गया और जम्बू स्वामी को घाति कर्म के प्रभाव से केवलज्ञान प्राप्त हो गया। जम्ब स्वामी ने केवली अवस्था में ३० वर्ष तक विविध देशों और नगरों में विहार कर वोर शासन का प्रचार व प्रसार किया। अन्त में विपुलाचल से ७५ वर्ग की बय में शुक्ल ध्यान द्वारा कर्म कलंक को दग्ध कर अविनाशी पद प्राप्त किया। जम्बकूमार के दीक्षा लेने के बाद उनके माता-पिता और चारों पत्नियों ने भी दीक्षा लेकर तमचरण किया, और अपने परिणामानुसार उच्च गति प्राप्त की। विद्युतचर ने भी अपने पांच सौ साथियों के साथ चौर कर्म का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले लो और तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शुद्धि करने लगे। वे मुनियों के प्रयोदश प्रकार के चारित्र के धारक तथा पांच समितियों में प्रवृत्ति करते थे। तीन गुप्तियों का भी पालन करते थे, इस तरह वे मुनि प्राचाराङ्ग (मूलाचार) के अनुसार प्रवृत्ति करते हुए अपने शिष्यों के साथ ताम्रलिप्त नगरी में आए। वे नगर के बाहर उद्यान में विराजे। उस समय दिन प्रस्त हो रहा था, तब दुर्गा देवी ने भक्ति से विद्युतचर से कहा कि यहां पांच दिन तक मेरी पूजा होगी उसमें रोद्र भुत सम्प्रदाय ग्रामन्त्रित है, वह तुम्हें असह्य उपसर्ग करेगा। अतएव जब तक यात्रा है तब तक इस पूरी को छोड़कर अन्यत्र चले जाइए। यह कह कर बह चली गई। यतिवर विद्युतचर ने मुनियों से कहा-अच्छा हो प्राप लोग इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जायं। तब उन्होंने कहा-रात्रि व्यतीत हो जाय, तब हम चले जावेगे। रात्रि में गमन करना मुनियों के लिये बजित है। उपसर्ग से डरने वालों को क्या लाभ हो सकता है ? उपसर्ग सहन करना साधुनों के लिए श्रेयस्कर है। अत: सब साधु मौनपूर्वक ध्यान में स्थित हो गए। रात्रि में भयंकर भूतों ने असह्म उपसर्ग किया। बड़े-बड़े डांस मच्छरों की वाधा हुई। शरीर को कष्ट देने वाले घोर उपसर्गए, जिन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसा होने पर वे सब साध स्थिर न रह सके और ध्यान छोड़कर दिवंगत हुए। किन्तु विद्युतचर अदीन मन से घोर उपसर्ग सहते हुए भी बड़े धैर्य के साथ मेम्बत स्वरूप में १. बारह वासारिण कंवलि विहारेण बिहरिय लोहज भडारा गिबुदे मने जंबू भडाग्मो केवलणाणमंताणही जादा । प्रदत्तीसवम्साणि केवलि बिहारेण वित्रिय जंतु भडागा परिगिब्बुदे संते केवलणारण सनारगम वोच्दो जादा भरह पत्तम्मि । -(धवना ए० ए० १३०) २. विउल्लारि सिहरि कम्मदइवत्त, सिहालय मासय सोकर एन ।। -जंतुसामिचरिउ १०-२४ पृ० २१५ ३. पत्ता--यह मवरणसंघमंजुर गवर, एयारमंगया विजुचर। विहरतु लवेश विराइबर, पृरि तामनित्ति संपाइयउ ।। नपराउ नियडे रिसिमंधे धक्क, अस्थवणहो कुक्कए भूरचक्के । • मह पावा तामककाभिधारि, कंचायणि नामें भद्दमारि । . पाहासइ मत्रिणय दिवमपंच, महजत्त हबेसइ सप्पवंच । आमंतियभूयावलिाउद्द, उनसम्पु करेसह तुम्ह खुद्द । इप कज्जे अण्ण हि विहिन ताम, पुनि मेल वि गच्छद जन जाम । गय एम कहे वि जो जपत्ररेण, मरिण भणिय एम विजुच्चरंगा ।। -जम्बू स्वामी चरिउ प० २१६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३६ टोत्कीर्ण और ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले ध्यान न देते हुए, निर्भय हो चार प्रकार का में स्थित रहे और निर्वाण प्राप्त किया ।' निश्चल रहे और अनित्यादि भावनाओं का दृढ़ता से मनन करते हुए शरीर से भिन्न निजात्म तत्वका, चैतन्य आत्म तत्व का चिन्तवन करते हुए, शारीरिक बाधाओं की ओर सन्यास धारण कर व्रत रूपी खड्ग से मोह शत्रु का नाश कर आराधना अन्य साधुओं ने भी परिणामानुसार यथा योग्य स्थान प्राप्त किए। इससे स्पष्ट है कि ताम्रलिप्त नगरी विद्युतचर का निर्वाण स्थल है और उनके साथी साधुनों का समाधि स्थल है। ऐसी स्थिति में मथरा जम्बू स्वामी और विद्युच्चर का निर्वाण स्थल नहीं हो सकता | मथुरा जम्बू स्वामी का निर्वाण स्थल नहीं है | मथुरा एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। इस नगर से जैन, वैष्णव और बौद्धादि भारतीय धमों का प्राचीन काल से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। यह यदुवंशी कृष्ण की लीला भूमि रहा है । कुषाण काल में यहाँ कई बौद्ध विहार थे। उत्तरापथ में यह जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है । महावीरकालीन जनपदों, प्रमुख राज्यों श्रीर राजधानियों में इसकी गणना रही है। दक्षिण के जैनाचार्यों ने दक्षिण मथुरा से भेद प्रकट करने के लिए इसे उत्तर मथुरा नाम से उल्लेखित किया है । निशीय चूर्णी की एक गाथा में "उत्तरावहे धम्मचक्कं मथुराए देव गिम्मियो भो ।" वाक्य में मथुरा के देव निर्मित स्तूप का उल्लेख किया है। २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का यहाँ बिहार हुआ मौर उनकी स्मृति में उक्त स्तूप बनवाया गया था। सम्भवतः सातवीं ग्राठवीं शताब्दी ई० पूर्व उस देवनिर्मित स्तूप को ईंटों से ढक दिया गया था । मथुरा के कंकाली टीले से जैन पुरातत्व की महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है । उसमें अनेक कलाकृतियाँ महत्वपूर्ण हैं । यहाँ दिगम्बर जैनों के ५१४ स्तूप रहे हैं, जिनका जीर्णोद्धार साहू टोडर ने कराया था, जो बादशाह अकबर की टकसाल का अध्यक्ष था, और कृष्णा मंगल चौधरी का मंत्री भी था। उसने द्रव्य खर्च करके सं० १६३१ में उनकी प्रतिष्ठा पाण्डे राजमल्ल से करवाई थी। इन सब कारणों से मथुरा जैन संस्कृति का मौलिक स्थान रहा है । पर वह क्या जम्बूस्वामी का निर्वाण स्थान था ? उस पर यहाँ विचार किया जाता है महराये प्रति वीरं पासं तहेव वंदामि । अम्बु मुणिदो वंदे णिई पत्तो वि जम्बूवणगहणे || दशभक्त्यादि संग्रह में प्रकाशित प्राकृत निर्वाण भक्ति के अनन्तर कुछ पद्य और भी दिये हुए हैं, जो प्रक्षिप्त हैं और बाद को उसमें संग्रहीत कर लिये गए हैं। उनमें से उक्त तृतीय पद्य में मथुरा और ग्रहिक्षेत्र में भगवान महावीर और पार्श्वनाथ की वन्दना करने के पश्चात् जम्बू नाम के गहन वन में अन्तिम केवली जम्बूस्वामी १. ताम्रलिप्त पुरस्यास्य समीपे परिधोरणम् । तस्य पश्चिम दिग्भागे नक्तं प्रतिमया मुनि ॥ एवं स्थिते मुनौ तत्र रात्रौ देवतया तया । एषा देशोत्सर्गोऽयं विहितः करचित्तया || नाना देशोपसर्ग तं सहित्वा मेनिलः । माघातान्निर्वाणमगमद्भुतम् ॥ विद्युच्चरः - हरिषेण कथाकोश कथा १३८ २. 'सावष्टम्भमष्टान्ही मथुरायां चकचरणं परिभ्रमय्यात्प्रतिविम्बाति मेक स्तूपं तथा विष्ठियत् । प्रतएवाद्यापि तत्तीर्थं देवनिर्मितास्या प्रथते । - उपासकाध्ययन प्रे० ९३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा जम्बू स्वामी का निर्वाण-स्थल नहीं है के निर्वाण का उल्लेख किया गया है। परन्तु जम्बू वन किस देश का वन है यह पद्य पर से कुछ भी फलित नहीं होता। मालूम होता है, जम्बू स्वामी ने जिस वन में या स्थान में ध्यानाग्नि द्वारा प्रवशिष्ट प्रघाति कर्मों को भस्म कर कृतकृत्यता प्राप्त की, सम्भवतः उसी बन को जम्ब वन नाम से उल्लिखित करना विवक्षित रहा है। पर यह विचारणीय है कि उक्त स्थान किस नगर या ग्राम के पास है और उसका मथुरा से क्या सम्बन्ध है? इस सम्बन्ध में कोई महत्व के प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं जो मथुरा को सिद्ध क्षेत्र सिद्ध कर सके। मधरा के समीप ही चौरासी नाम का स्थान है, जहां पर एक विशाल जैन मन्दिर बना हुआ है। जिसे मथा मा के सेठ मनीराम ने बनवाया था, और इस समय अजितनाथ तीर्थंकर की ग्वालियर में प्रतिष्ठित मनोज मति विराजमान है। इसी स्थान को जम्ब स्वामी का निर्वाण स्थान कहा जाता है। परन्तु अन्वेषण करने पर भी जम्ब स्वामी के चौरासी पर निर्वाण प्राप्त करने का कोई प्रामाणिक उल्लेख अभी तक मेरे देखने में नहीं पाया है। मालूम नहीं, इस कल्पना का प्राधार क्या है? " डा. हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् ने अपनी पुस्तक 'जैन इतिहास को पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान' के पृ०५० में संयुक्त प्रान्त का परिचय कराते हुए जम्बू स्वामो की निर्वाण भूमि उक्त चौरासी स्थान पर बतलाई है। उनकी इस मान्यता का कारण भी प्रचलित मान्यता जान पड़ती है क्योंकि उसमें किसी प्रमाण विशेष का उल्लेख नहीं है। मथरा जैनियों का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। कंकाली टीने के उत्खनन में जो महत्वपूर्ण सामयी उपलब्ध हुई है, उससे उसकी महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। इसमें किसी को विवाद नहीं है किन्त वः स्वामी का निर्वाण-क्षेत्र है यह कोरी निराधार कल्पना है। दूसरे विद्यतचर और उनके साथियों का भी देवलोक प्राप्ति का स्थल नहीं हैं। क्योंकि विद्यतचर और उनके ५००साथी मुनियों पर होने वाले उपसर्ग का स्थल ताम्रलिप्ति बतलाया गया है, जो जैन संस्कृति और व्यापार का महत्वपुर्ण केन्द्र था। जब ताम्रलिप्ति नगरी समुद्र में बिलोन हो गई तब नगरी के बिनाश के साथ जैनियों की सांस्कृतिक सम्पत्ति भी विनष्ट हो गई 1 इस कारण उनकी स्मृति के लिये मथुरा को चुना गया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जम्ब स्वामी चरित के कर्ता कवि राजमल्ल (१६१२) ने स्वयं जम्बूस्वामी का निर्वाण विपूलाचल से मार है। वीर कधि (१०७६) ने भी विपूलाचल से ही उनके निर्माण प्राप्त करने का उल्लेख किया है। इन उल्लेखों के प्रकाश में मथुरा को जम्ब स्वामी को निर्वाण भूमि नहीं माना जा सकता। हाँ, अन्य कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध हो तो उस पर विचार किया जा सकता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मथुरा जम्बू स्वामी का निर्वाण क्षेत्र माता जाता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद १. द्वादशांग श्रुत और श्रु तकेवली २. विष्णुनन्दि ३. नन्दिमित्र ४. अपराजित ५. गोवर्द्धन ६. भद्र बाहु ७. संघ-भेद 1. जैन संघ-परिचय Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांग श्रुत और श्रुतकेवली श्रुतावरण कर्म के क्षयोपशय होने पर जो सुना जाय बह श्रुत है। यह श्र तज्ञान अमृत के समान हितकारी है, और विषय-वेदना से संतप्त प्राणि के लिये परम औषधि है, जन्म-मरण रूप व्याधि का नाशक तथा सम्पूर्ण दुःखों का क्षय करने वाला है। जैसा कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन पाहुड को निम्न गाथा से प्रकट है : जिण धयण मोसहमिणं विसय-सुहं विरमण प्रमिदमूर्य । जर-मरण वाहि-हरणं खयकरणं सव्यदुक्खाणं । समस्त द्रव्य और पर्यायों के जानने की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों समान है, किन्तु उनमें अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान ज्ञेयों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है, और श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से जानता है। जैसा कि गोम्मटसार की निम्न गाथा से स्पष्ट है : सब केवलं च णाणं दोषण विसरिसाणि होति योहारो। सवणाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं जाणं॥ गोम्मटसार जीव काण्ड गाया ३६० केवलशान और स्याद्वादमय श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों का समान रूप से प्रकाशक है। दोनों में प्रत्यक्ष परोक्ष का अन्तर है। वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी अहंत तीर्थकर के मुखारविन्द से सुना हुमा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। तीर्थकर अपने दिव्य ज्ञान द्वारा पदार्थों का साक्षात्कार करके बीजपदों द्वारा उपदेश देते हैं। उस श्रुत के दो भेद है, द्रव्यश्रत और भावत। गणधर उन बीजपदों का और उनके अर्थ का अवधारण करके उनका यथार्थ रूप में व्याख्यान करते हैं। यही द्रव्य श्रत कहलाता है । प्राप्त की उपदेशरूप द्वादशांग वाणी को द्रव्य श्रत कहा जाता है । और उससे होने वाले ज्ञान को भावश्रुत कहते हैं। जिस तरह पुरुष के शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो जोध, दो उरू, एक पीठ, एक उदर, एक छाती, और एक मस्तक ये बारह अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुत-शान रूप पुरुष के भी बारह अंग है । द्रव्य श्रुत के दो भेद हैं, अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य । अंग प्रविष्ट श्रुत के बारह भेद हैं। १. आचारांग, २. मूत्रकृतांग, ३. स्थानांग ४. समवायांग, ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञात धर्मकथा, ७. उपासकाध्ययनांग, ८. अन्तः कृतदशांग, ६.अनुत्तरोपपादिक, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्रांग, और १२. दृष्टिवादांग। प्राचारांग-इसमें अठारह हजार पदों के द्वारा मुनियों के प्राचार का वर्णन किया गया है। कध घरे कधं चिटुकधमासे कधं सये 1. कधं भुजेज भासेज्ज कधं पावं ण बाई॥ १. इतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरङ्गवहिरङ्गसन्निधाने सति श्रूयते स्मेतिश्रुतम् (-तत्त्वा० वा० १-९, २ पृ.१४ ज्ञानपीठ संस्करण) २. स्याद्वादकेवलगाने सर्वतत्त्व प्रकाशने। भेदः साक्षादसाक्षाच्च वस्तदन्यतमं भवेत् ।। --प्राप्त मीमांसा १०५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ जदं चरे जवं चिट्ठे जवमासे जब सये । जब भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बभई || ( मूला० १०- १२१ ) मुनियों को कैसे चलना चाहिए, कैसे खड़े होना और बैठना चाहिए। कते सोना चाहिए, कंने भोजन करना चाहिए, और कैसे बात-चीत करना चाहिये और कैसे पाप बन्ध नहीं होता है ? इस तरह गणधर के प्रश्नों के अनुसार साधु को यत्न से चलना चाहिये, यत्न पूर्वक खड़े रहना चाहिए, यत्न से बैठना चाहिये, यत्न पूर्वक शयन करना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए और यत्न से सम्भाषण करना चाहिये। इस तरह यत्न पूर्वक श्राचरण करने से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है। इस अंग में पांच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, और पंच आचारों यादि का वर्णन किया गया है । , सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पदों के द्वारा ज्ञान विनय, प्रज्ञापना, कल्प, ग्रकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यव हार धर्म की क्रियाओं का वर्णन करता है। साथ ही स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त का भी कथन करता है । स्थानांग – बयालीस हजार पदों द्वारा एक से लेकर उत्तरोतर एक एक अधिक स्थानों का निरूपण करता है । उसका उदाहरण - यह जीव द्रव्य अपने चैतन्य धर्म को अपेक्षा एक है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है । कर्मफल चेतना, कर्म चेतना और ज्ञान चेतना की अपेक्षा तीन प्रकार का है। अपना उत्पाद व्यय और भव्य को अपेक्षा तीन भेद रूप है । चार गतियों में भ्रमण करने वाला होने से चार भेद वाला है । औदमिक श्रादि पाँच भावों से युक्त होने के कारण पाँच भेद है । भवान्तर में जाते समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ऊपर और नीचे इस तरह छह अप कर्म से युक्त होने से छ: दिशाओं में गमन करने के कारण छह प्रकार का है। अस्ति नास्ति यादि सात अंगों से युक्त होने के कारण सात भेद रूप | ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रास्त्र से युक्त होने की अपेक्षा आठ प्रकार का है। जीव अजीवादि नी पदार्थ रूप परिणमन होने के कारण नौं प्रकार का है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति कायिक, साधारण वनस्पति कायिक, द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति तथा पंचेन्द्रिय जाति के भेद से दस प्रकार का है। चौथा समवायांग - एक लाख चौसठ हजार पदों के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के समदाय का वर्णन करता है । वह समवाय चार प्रकार का है। द्रव्य क्षेत्र काल और भाव । द्रव्य समवाय को अपेक्षा धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान है। क्षेत्र समवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तकविल, मनुष्य लोक, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजुविमान और सिद्ध क्षेत्र इन सबका विस्तार समान है । काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल समान हैं। दोनों का प्रमाण दस कोड़ा कोड़ि सागर है। भाव को अपेक्षा क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यात चारित्र समान है। इस प्रकार समानता की अपेक्षा जीवादि पदार्थों के समवाय का कथन समवायांग में किया गया है । व्याख्या प्रज्ञप्ति प्रंग- दो लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा 'क्या जीव है अथवा नहीं है' इत्यादि रूप से साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है । ज्ञातृधर्मकथा नाम का छठा प्रंग पाँच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा तीर्थंकरों की धर्म देशना का सन्देह को प्राप्ति गणधरदेव के सन्देह को दूर करने को विधि का तथा अनेक प्रकार की कथा उपकथाओं का वर्णन करता है । सातवाँ उपासकाध्ययनांग - ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा श्रावकों के भ्राचार का वर्णन करता है । अन्तकृद्दशांग नाम का आठवां अंग तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थकर कं तीर्थ में दारुण उपसर्मी को सहन कर निर्वाण को प्राप्त हुए दस-दस अन्तकृत केवलियों का कथन करता है । अनुसरोपपादिक दशा - नाम का नौवां अंग बानवे लाख चालीस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसगों को सहन कर विराजमान पांच अनुत्तर विमानों में जन्मे हुए दस-दस मुनियों का वर्णन करता है । जैसे वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में ऋषिदास घन्य सुनक्षत्र- कार्तिकं नन्द-नन्दन- शालिभद्र १. विजय वैजयन्त जयंतापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पंचानुत्तराणि । तत्त्वा० वा० पृ० ५१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांग धुत और अत्तबली अभय-वारिषेण और चिलात पुत्र इन दशमुनियों ने दारुण उपसगों को जीता है और अनुतर बिमान में उत्पन्न हए । प्रश्न व्याकरण-नामक दसवां अंग तिरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा माक्षेप-प्रत्याक्षेप पूर्वक यक्ति पूर्ण प्रश्नों का समाधान करता है । अथवा प्राक्षेपणी विक्षेपणी, सवेदनी और निवदनी इन चार कथाओं का वर्णन करता है। जो एकान्त दृष्टियों का निराकरण करके छ: द्रव्य पोर नौ पदार्थों का निरूपण करती है उसे प्राक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले पर सिद्धान्त के द्वारा स्वसिद्धान्त में दोप बतलाकर पीछे पर समय का खण्डन करके मानसिद्धान्त की स्थापना की जाती है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। पुण्य के फल का वर्णन करने बाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा निबेदनी कहलाती है। प्रान ध्याकरण अंग प्रश्न के अनुसार नष्ट, चिन्ता, लाभ, लाभ, सुख, दुख:, जीवित, मरण, जय, पराजय का भी वर्णन करता है। विपाकसूत्र-नाम का ग्यारहवां अंग एक करोड़ चौरामी लाख पदों द्वारा पुण्य-पाप रूप विवादों काअच्छे बुरे कर्मों के फलों का वर्णन करता है। इन समरत ग्यारह अंगों के पदों का जोड़ चार करोड़, पन्द्रह लाख दो हजार है (४१५०२००० है ।) बारहवां अंग दृष्टि प्रवाद है। इसमें तीन सौ सठ मतों का-क्रियावादियों, प्रक्रियावादियों अज्ञान दष्टियों और बैनयिक दृष्टियों का वर्णन और निराकरण किया गया है। दुष्टिवाद के पाँच अधिकार हैंपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका । उनमें से परिकर्म के पांच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्राप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति, और व्याख्याप्रज्ञप्ति । चन्द्रप्रज्ञप्ति नामक परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और चन्द्रबिम्ब को ऊँचाई मादि का वर्णन करता है। सूर्यप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की प्रायु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, और सूर्य बिम्ब की ऊंचाई, दिन की हानि वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करना है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीप की भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के मनुष्य और तिर्यञ्चों का तथा पर्वत, हृद, नदी, बेदिका, क्षेत्र, पावास, अकुत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है। द्वीपसमुद्रप्राप्ति नाम का परिकर्म बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपल्य के प्रमाण से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीप-सागर के अन्तर्भूत अन्य अनेक बातों का वर्णन करता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम का परिकम चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य का तथा भव्य और अभव्य जीवों का वर्णन करता है। दृष्टिवाद अंग का सूत्र नाम का अर्थाधिकार अठासी लाख पदों के द्वारा जीव प्रबन्धक है, अवलेपक है, अकर्ता है, अभोक्ता है, निर्गण है, व्यापक है, अणप्रमाण है, नास्ति स्वरूप है, अस्तिस्वरूप है, पृथिवी प्रादि पंचभूतों से जीव उत्पन्न हुना है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है. अनित्य ही है, इत्यादिरूप से क्रियावाद, प्रक्रियावाद अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकबाद आदि तीन सौ सठ मतों का वर्णन पूर्वपक्षरूप से करता है। प्रथमानुयोग-नाम का तीसरा अर्थाधिकार पांच हजार पदों के द्वारा चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रर्वी, नौ प्रतिनारायण के पुराणों का तथा जिनदेव विद्याधर, चक्रवर्ती, चारणऋद्धिधारी मुनि और राजा प्रादि के वंशों का वर्णन करता है। चूलिका के पांच भेद है-जलगता, थलगता, मायागता, रूपगता, और आकाशगता । जलगता चूलिका दो, करोड नौ लाख नबासी हजार दो सौ पदों के द्वारा जल में गमन तथा जल स्तम्भन के कारण भूत मंत्र-तंत्र तपश्चर्या १. अनुतरेस्वोपपादिका अनुत्तरोपादिका :--ऋषिदास-पन्य-सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभदअभय--वारिषेण -चिलातपुत्र इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवं वृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थवन्येन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुरसर्गानिजित्य विजयाधुनुत्तरेषूत्पन्न इत्येवमनुत्तरोपपादिकाः दशास्या वय॑न्त इत्यनुत्तरोफ्यादिक दशा। -तत्त्वा० वा. पृ०७३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ W श्रादि का वर्णन करती है। थलगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा पृथिवी के भीतर से गमन करने के कारणभूत मंत्र-तंत्र और तपश्चर्या का तथा वस्तुविद्या और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा मायारूप इन्द्रजाल के कारणभूत मंत्रतंत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है । रूपगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा सिंह, घोड़ा, हरिण आदि का आकार धारण करने के कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। तथा उसमें चित्रकर्म, काष्ठकर्म लेप्यकर्म आदि का भी वर्णन रहता है। आकाशगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा आकाश में गमन करने के कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरणयादि का वर्णन करती है। इन पांचों चूलिकायों के पदों का जोड़ दस करोड़, उनचास लाख छयालीस हजार है। पूर्व नामक अधिकार के चौदह भेद हैं- उत्पादपूर्व प्रग्रायणीपूर्व वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय विद्यानुप्रवाद, कल्याणनामधेय प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार उत्पादपूर्व एक करोड़ पदों के द्वारा जीव, काल पुद्गल श्रादि द्रव्यों के उत्पाद, व्यय और धोव्य का वर्णन करता है । अग्रायणीपूर्व छयानवे लाख पदों के द्वारा सात सौ सुनय और दुर्नयों का तथा छह द्रव्य, नो पदार्थ और पांच अस्तिकायों का वर्णन करता है। वीर्यानुप्रवाद नाम का पूर्व-सत्तर लाख पदों के द्वारा आत्म वीर्यं परवीर्य उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य तपवीर्य का वर्णन करता है । अस्ति नास्तिप्रवादपूर्व - साठ लाख पदों के द्वारा स्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा सत्र द्रव्यों के ग्रस्तित्व का वर्णन करता है। जैसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकार और स्वभाव की अपेक्षा जीव कथंचित् सत्स्वरूप है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव को अपेक्षा जीव कथंचित् नास्ति स्वरूप है। स्वचतुष्टय प्रौर परचतुष्टय की एक साथ विवक्षा होने पर जीव कथंचित् अवक्तव्य स्वरूप है । स्वद्रव्यादिचतुष्टय और परद्रव्यादिचतुष्टय की क्रम से विवक्षा होने पर जोव कथंचित् श्रस्ति नास्तिरूप है । इसी तरह अन्य अजीवादि का भी कथन कर लेना चाहिये । ज्ञान प्रथा पूर्व -- एक कम एक करोड़ पदों के द्वारा मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानों का तथा कुमति ज्ञान आदि तीन अज्ञानों का वर्णन करता है । सत्यप्रवाद नाम का पूर्व एक करोड़ छह पदों के द्वारा दस प्रकार के सत्य वचन अनेक प्रकार के असत्य वचन, और बारह प्रकार की भाषाओं आदि का वर्णन करता है। श्रात्मप्रवादपूर्व छब्बीस करोड़ पदों के द्वारा जीव-विषयक दुर्नयों का निराकरण करके जीव द्रव्य की सिद्धि करता है— जीव है, उत्पाद व्यय - ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण से युक्त है, शरीर के बराबर है, स्व-पर प्रकाशक है, सूक्ष्म है, अमूर्त है, व्यवहारनय कर्मफल का और निश्चयनय से अपने स्वरूप का भोक्ता है, व्यवहारनय से शुभाशुभकर्मो का और निश्चयनय से अपने चैतन्य भावों का कर्ता है। अनादिकाल से बन्धनबद्ध है, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है, ऊर्ध्व गमन स्वभाव है, इत्यादि रूप से जीव का वर्णन करता है। कुछ आचार्यों का मत है कि श्रात्मप्रवादपूर्व सब द्रव्यों के आत्मा अर्थात् स्वरूप का कथन करता है। कर्म प्रवादपूर्व - एक करोड़ ग्रस्सी लाख पदों के द्वारा आठों कर्मों का वर्णन करता है। प्रत्याख्यानपूर्व चौरासी लाख पदों के द्वारा प्रत्यास्थान अर्थात् सावद्य वस्तु त्याग का, उपवास की विधि और उसकी भावना रूप पाँचसमिति तीन गुप्ति आदि का वर्णन करता है। विद्यानुप्रवाद पूर्व एक करोड़ दशलाख पदों के द्वारा सात सौ अल्प विद्याओं का, पाँच सी महाविद्यायों का और उन विद्याओं की साधक विधि का और उनके फल का एवं आकाश, भौम, अंग, स्वर स्वप्ण, लक्षण, व्यंजन, चिह्न इन ग्राठ महानिमित्तों का वर्णन करता है। कल्याणवाद पूर्व छब्बीस करोड़ पदों के द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह नक्षत्र और तारागणों के चार क्षेत्र, उपपाद स्थान, गति, विपरीत गति और उनके फलों का तथा तीर्थङ्कर, बलदेव, बासुदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भा वतार आदि कल्याणकों का वर्णन करता है। प्राणावाय पूर्व तेरह करोड़ पदों के द्वारा अष्टांग प्रायुर्वेद, भूतिकर्म ( शरीर आदि की रक्षा के लिये किये गए भस्मलेपन, सूत्रबन्धन आदि कर्म ) जांगुलि प्रथम (विषविद्या) और स्वासोच्छ्वास के भेदों का विस्तार से वर्णन करता है । fearfare पूर्व नौ करोड़ पदों के द्वारा वहत्तर कलाओं का स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणों का, शिल्पकला का, काव्य-सम्बन्धी गुण-दोष का और छन्दशास्त्र का वर्णन करता है। लोक बिन्दुसार पूर्व बारह करोड़ पचास लाख Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांग सूत्र और श्रुतकेवली YK पदों के द्वारा पाठ प्रकार के व्यवहारों का, चार प्रकार के बीजों का, मोक्ष को ले जाने वालो क्रिया का और मोक्ष के सुखों का वर्णन करता है । अङ्ग बाह्यश्रुत बाह्य श्रुतज्ञान के चौदह भेद हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । सामायिक नाम का यङ्ग बाह्य, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह भेदों के द्वारा समताभाव के विधान का वर्णन करता है। चतुर्विंशतिस्तव उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थकरों की वन्दना का विधान और उसके फल का वर्णन करता है । वन्दना नाम का अङ्गबाह्य एक तीर्थंकर और उस एक तीर्थकर के जिनालय सम्बन्धी वन्दना का निर्दोष रूप से वर्णन करता है। जिसके द्वारा प्रमाद से लगे हुए दोषों का निराकरण किया जाता उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। वह देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईर्यापथिक और प्रोतमाथिक के भेद से सात प्रकार का है। प्रतिक्रमण नाम का अङ्ग बाह्य दुषमादिकाल और छह संहननों में से किसी एक संहन से युक्त स्थिर तथा अस्थिर स्वभाव वाले पुरुषों का आश्रय लेकर इन सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का वर्णन करता है। वैनयिक नामक श्रंग बाह्य ज्ञानविनय दर्शनविनय, चारित्रविनय, तप विनय और उपचार विनय इन पांच प्रकार विनयों का वर्णन करता है। कृतिकर्म - नामक अंग बाह्य, अरहंत, सिद्ध, ग्राचार्य उपाध्याय और साधु की पूजा विधि का कथन करता है । देश वैकालिक अनंग साधुओं के आचार और भिक्षाटन का वर्णन करता है। उत्तराध्ययन चार प्रकार के उपसर्ग और बाईस परीषहों के सहने के विधान का और उनके सहन करने के फल का तथा इस प्रश्न का यह उत्तर होता है। इसका वर्णन करता है। ऋषियों के करने योग्य जो व्यवहार हैं उनके स्खलित हो जाने पर जो प्रायश्चित होता है उन सबका वर्णन कल्प व्यवहार करता है। साधुओं के और साधुओं के जो व्यवहार करने योग्य हैं और जो व्यव हार करने योग्य नहीं हैं-प्रकरणीय हैं। उन सब का द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर कल्प्पाकल्प्य कथन करता है। दीक्षा ग्रहण, शिक्षा, आत्म संस्कार, सल्लेखना और उत्तम स्थापना रूप आराधना को प्राप्त हुए साधुओं के जो करने योग्य है, उसका द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर महाकल्प्य कथन करता है । पुण्डरीक अंग बाह्य भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी, और वैमानिक सम्बन्धी देव, इन्द्र, सामानिक, आदि में उत्पत्ति के कारण भूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व और श्रकाम निर्जरा का तथा उनके उपपाद स्थान और भवनों का वर्णन करता है। महापुण्डरीक उन्हीं भवनवासी आदि देवों और देवियों में उत्पत्ति के कारणभूत तप और उपवास प्रादि का वर्णन करता है। निषिद्धिका अनेक प्रकार की प्रायश्चित विधि का वर्णन करता है । भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद तीन अनुबद्ध केवली और पांच श्रुत केवली हुए हैं। इनमें भद्र बाहु अन्तिम त केवल थे। उस समय तक यह अंग त घपने मूलरूप में चला आया है। इसके पश्चात् बुद्धि बल मौर धारणा शक्ति के क्षीण होते जाने से तथा श्रंग श्रुत को पुस्तकारूढ़ किये जाने की परिपाटी न होने से क्रमशः वह विच्छिन्न होता गया । इस इरह एक ओर जहाँ यंग श्रुत का प्रभाव होता जा रहा था, वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्परा को अवच्छिन्न बनाये रखने के लिये और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान महावीर की वाणी से बनाये रखने के लिए भी प्रयत्न होते रहे हैं। अंग श्रुत के बाद दूसरा स्थान अंग बाह्य श्रुत को मिलता है। इनके भेदों का संक्षिप्त परि चय पहले लिख आये हैं । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच श्रुत केवली १. विष्णुनन्दि (प्रथम श्रुत केवली) जम्बूस्वामी ने केवली होने से पहले विष्णुनन्दि आदि प्राचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया। और केवली होकर अड़तीस वर्ष पर्यन्त जिन शासन का उद्योत किया । अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के निर्वाण प्राप्त करने पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता विष्णु प्राचार्य हुए। जो चतुर्दश पूर्वधारी और प्रथम श्र न केवली थे । तप के अनुष्ठान से जिनका शरीर कृश हो गया था। और क्रोध, मान, माया और लोभादि चारों कषाएं जिनकी उपसमित हो गई थीं । जो ज्ञान-ध्यान और तप में निष्ठ रहते हुए भी संघ का निर्वहन करते थे। पाप में संघ के संचालन की अगवं शक्ति थी। आपके तप और तेज का प्रभाव भी उसमें सहायक था। आपकी निर्मलता और सौम्यतादि गुण स्पर्धा की वस्तु थे । साधुनों के निग्रह-अनुग्रह में प्रवीण, कठोर तपस्वी थे। संघस्थ मुनियों पर आपका प्रभाव उन्हें अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होने देता था। पापको प्रशान्त मुद्रा और हंस मुख साधु संघ पर अपना प्रभाव अंकित किये हुए था।आपने बीस वर्ष तक विभिन्न देशों में ससंघ विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जगत का कल्याण किया । और अन्त में नन्दिमित्र को द्वादशांगध त और संघ का सब भार समर्पण कर देव लोक प्राप्त किया। २. मन्दिमित्र-(द्वितीय श्रुत केवली) महामुनि नन्दिमित्र कठोर तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। ध्यान और अध्ययन दोनों कार्यों में अपना समय व्यतीत करते थे। से गमागत उपसर्ग और परिष हों से नहीं घबराते थे। प्रत्युत अपने प्रात्मध्यान में अत्यन्त संलग्न हो जाते थे। संघ में वे अपने सौम्यादि गुणों के कारण महत्ता को प्राप्त थे। प्राचार्य विष्णुनन्दि के दिवंगत होने से पूर्व द्वादशांग का व्याख्यान नन्दिमित्र को किया था और संघ का कुल भार पापको सौंप दिया था। नन्दिमित्र चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकंवली हुए। आपने २० वर्ष तक संघ सहित विविध देशों तथा नगरों में विहार कर वीर शासन का प्रचार किया। और जनता को धर्मोपदेश द्वारा कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। अन्त में आपने अपना संघ भार अपराजिताचार्य को सौंपकर देव लोक प्राप्त किया। ३. प्राचार्य अपराजित (तृतीय श्रुत केवली) ___ आचार्य अपराजित ने तपश्चरण द्वारा जो प्रात्म-शोधन किया, उससे कषायमल का उपशम हो गया। आपकी सौम्य प्रकृति और मिष्ट संभाषण संघ में अपनी खासविशेषता, रखता था। ध्यान, अध्ययन और अध्यापन ही पाप के सम्बल थे। यद्यपि आप शरीर से दुर्बल थे, किन्तु आत्मबल बढ़ा हुआ था। वे पंच प्राचारों का स्वयं पाचरण करते थे, और अन्य माधुमों से कराते थे। निग्रह और अनुग्रह में चतुर थे । नन्दिमित्राचार्य ने देवलोक प्राप्त करने से पूर्व ही संघ का सब भार अपराजित को सौंप दिया था। पश्चात् वे दिवंगत हुए। प्राचार्य अपराजित वाद करने में प्रत्यन्त निपुण थे, कोई उनसे विजय नहीं पा सकता था। अतएव वे सार्थक नाम के धारक थे। और द्वादशांग के वेत्ता थु त केवली थे। संघ का सब भार वहन करते हुए उन्होंने संघ सहित विविध देशों, नगरों, और ग्रामों में विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जनता का कल्याण और वीर शासन के प्रचार एवं प्रसार में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया। अन्त में आपने अपना सब संघ भार गोवर्द्धनाचार्य को सौंप कर दिवंगत हुए। ४. गोवनाचार्य (चतुर्दश पूर्वधर) चतुर्थश्रुतकेवली यह अपराजित श्रतकेवली के शिष्य थे। अन्तर्वाह्य ग्रन्थि के परित्यागी, महातपस्वी और चतुर्दश पूर्वपर, तथा अष्टांग महा निमित्त के वेता थे। वे एक समय ससंघ विहार करते हुए ऊर्जयन्तगिरि या रैवतक पर्वत के १. विष्णु पाइरियो सयल सिद्धतिप्रो उपसमिय चउकसायो रादिमित्ताइरियस समिप्पय दुबालसंगो देवलोअंगदो। --जय घवला पु०१पृ० ८५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ --- - - पोच पुलकेवली भगवान नेमिनाथ जिनकी स्तुति वंदनादि कर बिहार करते हुए देवकोट्ट नगर में पाए। जो पोड़वधन देश में स्थित था। वहां उन्होंने मार्ग में कुछ बालकों को गोलियों से खेलते हुए देखा, उन बालकों में एक बालक तेजस्वो मोर प्रखर बुद्धि का था। उसने एक के ऊपर एक इस तरह चौदह गोलियां चढ़ा दी, उसे देख आचार्य श्री ने निमित ज्ञान से जान लिया कि यही बालक चतुर्दश पूर्वधर (अन्तिम श्रुतकेवली) होगा। उन्होंने उसका नाम और पिता का नामादि पूछा, बालक ने अपना नाम भद्रवाह और पिता का नाम सोमशर्मा बतलाया। प्राचार्य श्री ने पूछा, वत्स, तुम हमें अपने पिता के घर ले जा सकते हो, वह बालक तत्काल उन्हें अपने घर ले गया। सोमशमी ने प्राचार्य महाराज को देखकर बिनय से नमस्कार कर उच्चासन पर बैठाया। प्राचार्य श्री ने कहा कि तुम अपने इस पुत्र को मुझे विद्या पढ़ाने के लिए दे दोजिए। सोम शर्मा ने उनकी बात स्वीकार कर बालक को प्राचार्य श्री के साथ भेज दिया। गोवर्द्धनाचार्य ने भद्रबाह को अनेक विद्याएं सिखाई। और उसे निपुण विद्वान बना दिया। और कहा कि अब तुम विद्वान हो गए हो। अपने माता-पिता के पास जामो। भद्रबाहु अपने पिता के पास गया, उसे विद्वान देखकर वे हर्षित हुए। भद्रबाहु उनको अाज्ञा लेकर पुनः संघ में आ गया। और गुरु महाराज से दैगम्बरो दाक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया। प्राचार्य श्री ने भद्रबाहु को द्वादशांग का वेत्ता श्रुतविली बना दिया। और संघ का सव भार भद्रबाहु को सौंप दिया। गोवर्द्धनाचार्य ने स्वयं प्रात्म-साधना करते हुए अन्त में समाधि पूर्वक देवलोक प्राप्त किया। भद्रबाह श्रुतकेवली के स्वर्गवास के पश्चात् भरतक्षेत्र में श्रनज्ञान रूप पूर्णचन्द्र प्रस्तमित हो गया। किन्तु उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अग के भी धारक विशाखाचार्य हुए। उन के बाद कालदोष से प्राग के चार पूर्वो के धारक भी व्युच्छिन्न हो गए। प्रस्तुत विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्वादि दश पूर्वो के घारक हुए । तथा प्रत्याख्यान प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वो के एक देश धारक हुए। इन्हीं को अध्यक्षता बारह हजार मुनियों का संघ भद्रबाहु के निर्देश से पाण्यादि देश की ओर गया था। और बारह वर्ष बाद दुभिक्ष की समाप्ति के बाद पुनः वापिस पा गया था। ५. भवबाहु पंचम श्रुतकेवलो अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के निर्माण के बाद दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों की गुर्वावलियां भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। किन्तु श्रुतकेवली भद्रवाह के समय ये गंगा-यमुना के समान पुनः मिल जाती हैं। तथा भद्रबाह श्रुतकेवली के स्वर्गवास के पश्चात् जैन परम्परा स्थायी रूप से दो विभिन्न श्रोतों में प्रवाहित होने लगती है। अतएव भद्रवाह श्रुत केवली दोनों ही परम्परागों में मान्य हैं। १ गोवर्धनश्वत पो.सावा चतुर्दशपूर्विरपाम् । निर्मनीकृतसाशो जानचन्दकरोकर : ॥ ऊजंपन्तं गिरि नेमि स्तोतुकामो महातपाः। बिहरन बनाम माग बोटीनगर मुदत्व जम् ।।१० भद्रबाहुकुमारं च म दृष्टया नगरे पुन : । उपयु परि कृर्षणं ताश्चतुर्दशवट्टकान् ॥ ११ पूर्वोक्तविणां मध्ये पञ्चमः श्रुतकेवली । समम्नपूर्वधारी च नानदिनमाभाजनः ।।१२॥ हरिषेण कथा. पृ० ३१७ २ नाना विषं ताः कृत्वा गोवर्धनगुरु स्तदा । सुरलोक जगामाशु देवीगीत मनोहरम् ॥२२ हरिषेण कथा० पृ० ३१७ १ गरि वसाहारियो तक्काले मायारादीण मेक्कारसाहमंगाणमुप्पायपुबाईणं दसहं पुवाणं च पञ्चरखामपाणवात्र-किरिया विशाल लोबिंदुसार पुन्नागसमेगदेसाणं च धारयो जादो। जयपवना पु० १५०८५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भवबाहरनिमः समप्रवद्धिसम्पया, सु शरद सिशासनं सुशग्द-बन्ध-सुन्धरम् । इन-वृत्त-सिद्धिरन्नबद्ध कर्मभित्तपो, वृद्धि-वधिन-प्रकीतिकद्दधे महधिक ।। यो भन्नवाह श्रुसकेबलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विखुषां विनेता, सर्वश्रुतार्थप्रतिपावनेन ।। श्रवण बेलगोल शिला० १०८ पुण्डवर्धन देश में देवकोट्ट नाम का एक नगर था, जिसका प्राचीन नाम 'कोटिपुर' था। इस नगर में सोम शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री था, उससे भद्रबाहु का जन्म हुआ था। बालक स्वभाव से ही होनहार और कुशाग्रबुद्धि था। उसका क्षयोपशम और धारणा शक्ति प्रवल थी। प्राकृति सौम्य और सुन्दर थी। वाणी मधुर और स्पष्ट थो । एक दिन वह बालक नगर के बाहर अन्य बालकों के साथ गंटों (गोलियों) से खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह गोलियों को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। अर्जयन्तगिरि (गिरनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा से वापिस प्राते हुए चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धन स्वामी संघ सहित कोटि ग्राम पहुंचे। उन्होंने बालक भद्रबाहु को देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनों में अन्तिम श्रुतकेंबली और घोर तपश्वी होगा। प्रतः उन्होंने उस बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके पूत्र हो। तब भद्रबाह ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र हूं। और मेरा नाम भद्रबाह है। प्राचार्य श्री ने कहा, क्या तुम चसकर अपने पिता का घर बतला सकते हो? बालक तत्काल प्राचार्य श्री को अपने पिता के घर ले गया। प्राचार्यश्री को देखकर सोम शर्मा ने भक्ति पूर्वक उनकी वन्दना की। और बैठने के लिए उच्चासन दिया। प्राचार्य श्री ने सोम शर्मा से कहा कि प्राप अपना बालक हमारे साथ पढ़ने के लिए भेज दीजिए । सोम शर्मा ने प्राचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को प्राप खुशी से ले जाइए । और पढ़ाइए। माता-पिता की प्राज्ञा से प्राचार्यश्री ने बालक को अपने संरक्षण में ले लिया। और उसे सर्व विद्यायें पढ़ाई। कुछ ही वर्षों में भद्रबाह सब विद्याओं में निष्णात हो गया। तब गोवर्द्धनाचार्य ने उसे अपने माता-पिता के पास भेज दिया। माता-पिता उसे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर अत्यन्त हर्षित हुए। भद्रबाहु ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी, और वह माता-पिता की प्राज्ञा लेकर अपने गुरु के पास वापिस पा गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहुँ ने महा वैराग्य सम्पन्न होकर यथा समय जिन दीक्षा ले ली। और दिगम्बर साधु बनकर प्रात्म-साधना में तत्पर हो गया। एक दिन योगी भद्रबाह प्रातःकाल कायोत्सर्ग में लीन थे कि भवितवश देव असुर और मनुष्यों से पजित हए। गोवर्द्धनाचार्य ने उन्हें अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित कर, संघ का सब भार भद्रबाहु को सौंप कर निःशल्य हो गए। और कुछ समय बाद गोवर्द्धन स्वामी का स्वर्गवास हो गया। गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भद्रबाहु सिद्धि सम्पन्न मुनि पुंगव हुए। कठोर तपस्वी और प्रात्म-ध्यानी हुए । और संघ का सब भार वहन करने में निपुण थे। वे चतुर्दश्च पूर्वधर और अष्टांग महानिमित्त के पारगामी श्रुतकेवली थे। अपने संघ के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहार धर्मोपदेश द्वारा जनता का महान कल्याण किया। भद्रबाहु श्रुतकेवली यत्र-तत्र देशों में अपने विशाल संघ के साथ विहार करते हुए उज्जैन पधारे, और सिपा नदी के किनारे उपबन में ठहरे। वहां सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने उनकी बन्दना की, जो उस समय प्रांतीय उप राजधानी में ठहरा हुआ था ! एक दिन भद्रबाहु आहार के लिए नगरी में गए। वे एक मकान के प्रांगन में प्रविष्ठ हए। जिसमें कोई मनुष्य नहीं था; किन्तु पालना में भूलते हुए एक बालक ने कहा, मुने ! तुम यहां से शीघ्र चले जामो, चले जाओ। तब भद्रबाहु ने अपने निमित्तज्ञान से जाना कि यहां बारह वर्ष का भारी दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। बारह वर्ष तक वर्षा न होने से मन्नादि उत्पन्न न होंगे। और धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जाएगा और भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जाएगा। यह देश राजा, मनुष्य और तस्करादि से विहीन हो जाएगा। ऐसा जानकर याहार लिए बिना लोट पाए और जिन मंदिर में प्राकर पावश्यक क्रियाएं सम्पन्न की। और अप Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच श्रुत केवली राण्ह काल में समस्त संघ में घोषणा की कि यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष होने वाला है। अतः सब संघ को समुद्र के समीप दक्षिण देश में जाना चाहिए। सम्राट चन्द्रगुप्त में रात्रि में सोते हुए सोलह स्वप्न देखे। वह प्राचार्य भद्रबाहु से उनका फल पूछने पोर धर्मोपदेश सुनने के लिये उनके पास आया और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, अपने स्वप्नों का फल पूछा। तब उन्होंने बतलाया कि तुम्हारे स्वप्नों का फल अनिष्ट संसूचक है। यहाँ बारह वर्ष का घोर भिक्ष पड़ने वाला है, उससे जन-धन की बड़ी हानि होगी। चन्द्रगुप्त ने यह सुनकर और पुत्र को राज्य देकर भद्रबाहु से जिन-दीक्षा ले लो। जैसा कि तिलोयपणती को निम्न गाथा से स्पष्ट है - मउडघरेसु चरिमो जिणविक्खं धरदि चन्द्रगुत्तो य । तत्तो मउउधरा पव्वज्जं व गेहति ।। -तिलो०प०४-१४-१ भद्रबाहु वहाँ से ससंघ चलकर श्रवणबेलगोल तक पाये। भद्रबाहु ने कहा-मेरा प्रायुप्य अल्प है, अतः मैं यहीं रहूँगा, और संघ को निर्देश दिया कि वह विज्ञानाचार्य के नेतृत्व में आगे चला जाये। भद्रवाह श्रुतकेवलो होने के साथ अष्टांग महानिमित्त के भी पारगामो थे, उन्हें दक्षिण देश में जैनधर्म के प्रचार की बात ज्ञात थी, तभी उन्होंने बारह हजार साघुत्रों के विशाल संघ को दक्षिण की ओर जाने की अनुमति दी। भद्रबाह ने सब संघ को दक्षिण के पाण्ड्यादि देशों को ओर भेजा, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वहाँ जन साघमों के प्राचार का पूर्ण निर्वाह हो जायगा। उस समय दक्षिण भारत में जैनधर्म पहले से प्रचलित था। यदि जैनधर्म का प्रसार वहाँ न होता, तो इतने बड़े संघ का निवांह वहाँ किसी तरह भी नहीं हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि वहाँ जैनधर्म प्रचलित था । लंका में भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में जैनधर्म का प्रचार था, और संघस्य साधुनों ने भी वहाँ जनधर्म का प्रचार किया। तमिल प्रदेश के प्राचीनतम शिलालेख मदुरा और रामनाड जिले से प्राप्त हुए हैं जो अशोक के स्तम्भों में उत्कीर्ण लिपि में है। उनका काल ई० पूर्व तीसरी शताब्दी का अन्त और दूसरी शताब्दी का प्रारंभ माना गया है। उनका सावधानी से अवलोकन करने पर 'पल्लो', 'मदुराई' जसे कुछ तमिल शब्द पहचानने में आते हैं। उस पर विद्वानों के दो मत है। प्रथम के अनुसार उन शिलालेखों की भाषा तमिल है, जो अपने प्राचीनतम अविकसित रूपों में पाई जाती है। और दूसरे मत के अनुसार उनको भापा पंशाची प्राकृत है जो पाण्ड्य देश में प्रचलित थी। जिन स्थानों से उक्त शिला लेख प्राप्त हुए हैं, उनके निकट जैन मन्दिरों के भग्नावशेष और जैन तीर्थकरों की मूर्तियां पाई जाती हैं, जिन पर सा का फण या तीन छत्र अंकित हैं । बौद्ध ग्रन्थ महावंश को रचना लंका के राजा धंतुसेणु (४६१-४७९ ई.) के समय हुई थी। उसमें ५४३ ई० पूर्व से लेकर ३०१ ई० के काल का वर्णन है। ४३० ई० पूर्व के लगभग पाण्डुगाभय राजा के राज्यकाल में अनुराधापुर में राजधानी परिवर्तित हुई थी। महाबंश में इस नगर की अनेक नई इमारतों का वर्णन है। उनमें से एक इमारत निर्ग्रन्थों के लिये थी, उसका नाम गिरि था और उसमें बहुत से निर्ग्रन्थ रहते थे। राजाने निर्ग्रन्थों के लिये एक मन्दिर भी वनवाया था। इससे स्पष्ट है कि लंका में ईसा पूर्व ५वीं शती के लगभग जैनधर्म का प्रवेश हाना होगा। १. भावाबवः अरवा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अम्यंत्र शोगितः पावं दधी जनेश्वर तपः ।। चन्द्रगुप्तनुनिः शीन प्रथमो दाविणाम् । सर्वगंधाभिषा जातो विसवाचार्य संजकः ।।-हरिपेण कथाकोण १३१ (क) - चरिमो मउड वरीमो सारवइणा चन्द्रगुलणामाए । पंचमहन्वयगहिया प्ररि रिक्वा (म) बोच्छिण्णा ॥ श्रुतस्कन्ध ब० हेमचन्द्र (ख)तदीपशिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समपशीलानतदेववृद्धः । विवेश यस्तीवतपः प्रभाव-प्रभूत-कीति बनान्तराणि ॥ - श्रवणबेलगोल शि०११०२१. २. स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म प० ३२ प्रादि ३. देखें, जैनिज्म इन साउथ इण्डिया, पृ० ३१ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ -- - भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त वहीं रह गए। चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का दीक्षा नाम 'प्रभाचन्द्र' था, वे भद्रबाहु के साथ कटवा पर ठहर गए, और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया । भद्रबाहु की समाधि का भगवती पाराधना की निम्न गाथा में उल्लेख है प्रोमोदरिये घोराए भवाह य संकि लिटुमदी। घोराए तिगिन्छाए पडिवण्णो उत्तम ठाणं ॥ १५४४ इस गाथा में बतलाया गया है कि भद्रबाहु ने अवमोदयं द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की खूब सेवा की। भद्रवाहु के दिवंगत होने के बाद श्रुतकेवली का प्रभाव हो गया', दयोंकि समितम भूत के नली थे। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु के जन्मादि का परिचय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष और भद्रबाह चरित ग्रादि में मिलता है। और भद्रबाहु के बाद उनकी शिष्य परम्परा अंग-पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है, जिसका परिचय प्रागे दिया जायगा। श्वेताम्बर परम्परा में कल्पमूत्र, श्रावश्यकसूत्र, नन्दिसूत्र, ऋषिमंडलसूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में भद्रबाह की जानकारी मिलती है। कल्पसूत्र की स्थदिरावली में उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है। पर वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए । अतएव भद्रबाहु की शिष्य परम्परा प्रागे न बढ़ सकी। किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाहु के गुरुभाई संभूति विजय के शिष्य स्थूलभद्र से आगे बढ़ी। वहाँ स्थूलभद्र को अन्तिम श्रुतकवली माना गया है। महावीर के निर्माण से १७०वें वर्ष में भद्रबाहु का स्वर्गवास हुअा है और स्थलभद्र का स्वर्गवास वोर निर्वाण सं० १५७ से २५७ तक अर्थात् ईस्वी पूर्व २७० में या उसके कुछ पूर्व हमा। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु का पटकाल २१ वर्ष माना जाता है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाया है। तथा व्यवहार सूत्र, छेदमूत्रादि प्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा रचित कहे जाते हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर नि० संवत् के १६वें वर्ष अर्थात् ३६५ ई० पूर्व माना जाता है। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाह श्रुतवली द्वारा रचित साहित्य नहीं मिलता। इसमें पाठ वर्ष का अन्तर विचारणीय है। धीर निर्वाण के बाद की श्रुत परम्परा लिलोयपण्णसी में भगवान महावीर के बाद के इतिहास की वहत सामग्री मिलती है, उसमें से यहाँ थुत परपरा दी जा रही है। जिस दिन भगवान महावीर ने मुक्ति पद प्राप्त किया, उसी दिन गौतम गणधर को परमज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त हुआ । इन्द्रभूति के सिद्ध होने पर सुधम स्वामी केयली हुए। उनके कृत कर्मों का नाश कर चुकने पर जम्बू स्वामी के बली हुए। उनके बाद कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ। इन तीनों का धर्म प्रवर्तनकाल वासठ वर्ष है। केवलज्ञानियों में अन्तिम श्रीधर हुए, जो कुण्डलगिरि से मुक्त हए और चारण ऋषियों में अन्तिम सुपावचन्द्र हुए। प्रज्ञा श्रमणों में अन्तिम बइर जस या बज्रयश, और प्रदधिज्ञानियों में अन्तिम श्रुत, विनय एवं सुशोलादि से सम्पन्न श्री नामतं ऋपि हए । मुकुटधर राजाओं में अन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा धारण को। इसके बाद मकूटधरों में किसी ने प्रवज्या या दीक्षा धारण नहीं की। नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रवाह ये पांच न केवली द्वादश अंगों के धारण करनेवाले हुए। इनका एकत्र काल सौ वर्ष है। पंचम काल में इनके बाद में कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ। भद्रवाह श्रतकेबली के जीवन के अन्तिम समय के निर्देश से विशाखाचार्य संघस्थ साधनों को दक्षिणापथ की ओर ले गये । और भद्रबाह ने स्वयं भी नव दीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि के साथ कटवप्र गिरि पर समाधि धारण की। -जयध० पृ. ११०५ १. तदो भद्रबाहु सग्गंगते सयल मुदसारपस्स दोच्छेदो जादो। २. सर्वपूर्वधरोऽथासीरस्थूलभद्रो महामुनिः । न्यवेशि वाचायं पदे श्रीमता भद्रबाहुना ।।१११॥ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६, पृ०१० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघभेव प्रस्तुत विशाखाचार्य प्राचारांगादि ग्यारह अंगों के तथा उत्पाद पूर्व प्रादि दश पूों के ज्ञाता और प्रत्या प्रस्तुत ख्यान पूर्व प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वो के एकदेश धारक हए । इन्हीं विशाखाचार्य के आदेश ब निर्देश से वारह हजार मुनियों ने दक्षिण देश में वीर शासन का प्रचार प्रसार करते हुए पांड्य देशों में विहार किया और अपनी साधुचर्या का निर्दोष रूप से अनुष्ठान किया। विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल्ल, क्षत्रिय, जय सेन, नाग सेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और सुधर्म (धर्मसेन) ये ग्यारह भाचार्य दशपूर्व के धारी हुए। परम्परा से प्राप्त इन सबका काल १८३ वर्ष है। धर्मसेन के स्वर्ग वासी होने पर दशपूर्वो का विच्छेद हो गया ।' किन्तु इतनी विशेषता है कि नक्षत्र, जयपाल, पाण्ड, ध्रुवमेन और कस ये पांच प्राचार्य ग्यारह प्रग और चौदह पूर्वो के एकदेशधारक हुए। इनका एकत्र परिमाण २२० वर्ष है। मेरी राय में यह काल अधिक जान पड़ता है। एकादश अंगवारीसामी के दिगल हो जाने पर भरतक्षेत्र का कोई भी प्राचार्य ग्यारह अंगधारी नहीं रहा । किन्तु उस काल में पुरुष परम्परा क्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाह और लोहार्य ये चार प्राचार्य प्राचार्यांग के धारी और शेष अंग पूों के एकदेश धारक हुए। संध-भेद भगवान महावीर के संघ की अविच्छिन्न परम्परा भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय तक रही। इसमें किसी को भी विवाद नहीं है। किन्तु दिगम्बर श्वेताम्बर पट्टावलियाँ जम्वू स्वामी के समय से भिन्न भिन्न मिलती है। यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय में श्रुत परम्परा ६८३ वर्ष तक अविच्छिन्न धारा में प्रवाहित रही है। प्रस्तु श्रत केवली भद्रबाहु अपने जीवन के अन्तिम समय में जब वे ससंघ उज्जैनी में पधारे और सिप्रानदी के किनारे उपवन में ठहरे, उस समय उन्हें वहाँ वदि के न होने से द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के पड़ने का निश्चय हुा । तब भद्रवाह के निर्देशानुसार संघ दक्षिण के चोल पाण्ड्यादि देशों की ओर गया । चन्द्रगुप्त ने भी १६ स्वप्न देखे, जिनका फल उन्होंने भद्रबाहु से पूछा, उन स्वप्नों का फल भी शुभ नहीं था। अतार चन्द्रगुप्त मौर्य भद्रवाह से दीक्षा लेकर उन्हीं के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गए। इस दुभिक्ष का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा भी करती है और साधु संघ के समुद्र के समीप जाकर बिखर जाने को वात भी स्वीकृत करती है । भद्रबाहु संघ के साथ . . .- . - - -- - विसाहाइन्धिी समकान मायापही मकानण्ह मंगाणमुपायल्याण दनह पृथ्वाण पच्चदवाण पाणवाय किरिया बिसाल लोफविनुसार गुध्वाग मगदमागं च धारयो जादो। (जय धवला पु. १५० ८५) पठमो सभहरणानो जमभद्दो तह य दोदि जसबाह । रमो ८ लोरमामा गई आवारनंगधरा ।। नेमकमग्नंगा चोदब्धारामदेमधग। कमयं अदाग्यवास दारण परिमाण ।। तन पदीदेगु नद्रा प्राचारधन राहात अहम्मि। गोदनमुगिपहुदी ग धानाण्ड एम्मदारिंग मेमीदी ॥-तिलो०४ गाथा १४६० से १४६२ धम्ममोनयन सायं गद भारत से दमोह पृथ्घाण वाच्छदो जादा । रिणवत्ताग्यो जसपालो पाड वसेको कमाइरियो दि परे पच जनो जहाकमेण एक्कारसंगधारिणो चांदमहं पृनवारामगदेसधारिणो जादा । गुदेसि कालो बोमुत्तर वि तदवासमत्ता २२० । जयप. पु. १५०५ ३. पुरणो एक्कारसंगधागए कनाइरिए मग्गं गदे एत्थ भरखेने रणस्थि कोइव एक्कारसंगधारमो। ४. देखो वही पृ. ८६ जयध० पु. १ पृ.८६ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ५२ दक्षिण की ओर चलते चलते जब वे कलबप्पू या कटवत्र गिरि पर पहुँचे, तब उन्हें अपनी आयु के अन्त समय का आभास हुआ, तब उन्होंने सब को विशाखाचार्य के नेतृत्व में आगे जाने का निर्देश किया, और वे वहीं रह गए। चन्द्रगुप्त भी उन्हीं के साथ रहा। भद्रबाहु ने समाधि ले ली और उसी पर्वत की गुफा में समभावों से दिवंगत हुए । चन्द्रगुप्त ने जिनका दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र लेख में उल्लिखित है, उन्होंने भद्रबाहु की वैयावृत्य को, और उनके निर्देशानुसार ही सब कार्य सम्पन्न किये। किन्तु जो साधु श्रावकों के अनुरोधवश उत्तर भारत में ही रह गए थे, उन्हें दुभिक्ष की भीषण परिस्थितिवश वस्त्रादि को स्वीकार करना पड़ा, और मुनि प्रचार के विरुद्ध प्रवृत्ति करनी पड़ी। यह शिथिल प्रवृत्ति हो जागे जाकर सबभेद में सहायक होती हुई श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति का कारण वनी । जब बारह वर्ष का दुर्भिक्ष समाप्त हुआ और लोक में सुभिक्ष हो गया, तब जो संघ दक्षिण की ओर गया था, वह विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ से मध्यदेश में लौटकर आया । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु उस समय नेपाल की तराई में थे, और वह १२ वर्ष की तपस्या 'विशेष में निरत थे। महाप्राण नामक ध्यान में संलग्न थे । साधु संघ ने उन्हें पटना बुलाया, किन्तु वे नहीं आये, जिससे उन्हें संघ बाह्य करने को धमकी दी गई और किसी तरह उन्हें पढ़ाने के लिये राजी कर लिया गया । स्थूलभद्र ने उन्हीं से पूर्वों का ज्ञान प्राप्त किया ।" यदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस कथन को सत्य मान लिया जाय तो भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय को अपनी परम्परा स्थूलभद्र से माननी होगी। दूसरे भद्रबाहु का पटना वाचना में सम्मिलित न होना, ये दोनों बाते उस समय जैन संघ में किसी बड़े भारी विस्फोट की ओर संकेत करती हैं। और भद्रबाहु के वाचना में शामिल न होने से वह समस्त जैन संघ की न होकर एकान्तिक कही जायगी। वह बाचार-विचार शैथिल्य वाले उन कुछ साधुओं की होगी । अतः उसे अखिल जैन संघ का प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जब भद्रबाहु के काल में प्रथम वाचना पटना में हुई, तब उसी समय श्रुत को पुस्तकारूढ़ कर संरक्षित क्यों नहीं किया गया ? घटनाकम से ज्ञात होता है कि उस समय श्राचार-विचार थिल्य वाले सच के भीतर बड़ा मत-भेद रहा होगा। एक दल कहता होगा कि संघ भेद की स्थिति में अग साहित्य में परिवर्तन इष्ट नहीं है । यदि उस समय श्वेताम्बर श्रग साहित्य संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया जाता तो संभव है उसका वर्तमान रूप कुछ और ही होता । दक्षिण से जब सध लौट कर आया, तब उन्होंने यहाँ रह जाने वाले साधुओं के शिथिलाचार को देख कर चहुत दुःख व्यक्त किया, उन्हें समझाया और कहा कि थाप लोगों को दुर्भिक्ष की परिस्थितिवश जो विपरीत श्राचरण करना पड़ा, ग्रथ उसका परित्याग कर दीजिये और प्रायश्चित्त लेकर बीर शासन के प्राचार का यथार्थ रूप में पालन कीजिये, जिससे जैन श्रमणों की महत्ता बराबर बनी रहे। किन्तु श्राचार और विचार थिल्य बाले उन साधुओं ने इसे स्वीकार नहीं किया; क्योंकि मध्यम मार्ग में जो सुख-सुविधा उन्हें १२ वर्ष तक दुर्भिक्ष के समय मिली, वह उन्हें कठोर मार्ग का आचरण करने से कैसे मिल सकती थी। दूसरे उस समय देश में बौद्धों के मध्यम मार्ग का प्रचार एवं प्रसार हो रहा था – वे वस्त्र पात्रादि के साथ बौद्ध धर्म का अनुसरण कर रहे थे। उसका प्रभाव भी उन पर पड़ा होगा ऐसा लगता है। आचार और वैचारिक शिथिलता ने उन्हें मध्यम मार्ग में रहने के लिए बाध्य किया। यदि उन्हें वस्त्र पात्रादि रखने का कदाग्रह न होता, तो वे प्रायश्चित्त लेकर अपने पूर्ववर्ती मुनि धर्म पर आरूढ़ हो जाते । पर दथित्य प्रवृत्ति के संयोजक स्थूलभद्र जैसे साधु उस मार्ग को कैसे स्वीकार कर सकते थे ? ये दोनों ही साधन संघ भेद-परम्परा के जनक हैं। ग्राचार दशैथिल्य ने साधुओं को वस्त्र और पात्र आदि रखने के लिये विवश किया और विचार शैथिल्य ने अपने अनुकूल सैद्धान्तिक विचारों में कान्ति लाने में सहयोग दिया। वे उसे पुष्ट करने के लिए ठोस आधार ढूंढ़ने का प्रयत्न करने लगे, क्योंकि शिथिलाचार को पुष्ट करने के लिए उन्हें उसकी महती आवश्यकता थी । इसीलिए उन्होंने खूब सोच-विचार के साथ बौद्धों के अनुसरण पर पाटलिपुत्र (पटना) १. देखो, परिशिष्ट पर्व सर्ग ६ श्लोक ७२ से ११० पृ० ८६ २. सफेल दल के भीतर तीव्र मदभेद की बात प्रज्ञाचक्षु, पं० सुखलाल जी भी स्वीकार करते हैं। मथुरा के बाद वलभी में 'पुनः श्रुत संस्कार हुआ, जिसमें स्थविर या सचल दल का रहा सहा मतभेद भी नाम शेष हो गया । --तत्त्वार्थ सूत्र प्रस्तावना पृ० ३० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-भेव मथुरा और वलभी में वाचनाएं कराई। जिसका उद्देश्य प्रागमों द्वारा वस्त्र और पात्र को पुष्ट करना रहा है। श्वेताम्बरोय वर्तमान पागम तृतीय वाचना का फल है, जो बलभी में वोरात् १८० (सन् ४५३ ई.) में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में हुई, और उसमें विच्छिन्न होने से अवशिष्ट रहे त्रुटित-अत्रुटित, भ्रष्ट परिवर्तित और परिबद्धित तथा स्वमति से कल्पित पागमों को अपनी इच्छानुसार पुस्तकारूढ़ किया गया । ये वाचनाएं बौद्ध परम्परा की संगीतियों का अनुकरण करती हैं। पुस्तकारुढ़ किये जाने वाले पागम साहित्य में वस्त्र और पात्र रखने के जगह-जगह उल्लेख पाये जाते हैं। सचेल परम्परा की स्थिति को कायम करने के लिए ये सब उल्लेख सहायक एवं पुष्टिकारक हैं। इनसे मध्यम मार्ग की स्थिति को बल मिला है। तीर्थकरों की दीक्षा में भी इन्द्र द्वारा 'देवदूष्य' वस्त्र देने की कल्पना की गई है, और आदिनाथ तथा अन्तिम तीर्थकर का धर्म प्रचेलक बतलाते हुए भी देव दृष्य वस्त्र को कंधे पर लटकाने की कल्पना गढ़ी गई है और शेष २२ तीर्थकरों का धर्म सचेल और अचेल बतलाया गया है। प्राचारांम सूत्र की टीका में प्राचार्य शीलाक ने अपनी ओर से अचेलता को जिनकल्प का और सचेलता को पविर मला का आभार तुलाया है । चनांचे श्वेताम्बरीय प्राचारांग में यहाँ तक विकार मा गया है कि वहाँ पिण्ड एषणा के साथ पात्र एषणा और वस्त्र एषणा को भी जोड़ा गया है, जिससे यह साफ ध्वनित होता है कि मूल निर्ग्रन्थ प्राचार में द्वादश वर्षीय भिक्ष के कई शताब्दी बाद वस्त्र और पात्र एषणा की कल्पना कर उन्हें एषणा समिति के स्वरूप में जोड़ दिया है। गणधर इन्द्रभूति रचित प्राचारांग में इनका होना सम्भव नहीं है। मूल प्राचारांग को रचना इन सब कल्पनामों से पूर्व की है, जिसमें यथाजातमुद्रा का वर्णन था। पार्श्वनाथ की परम्परा को सचेल बतलाने के लिए केशी-गौतम संवाद की कल्पना की गई है और उसे महावीर तीर्थंकर-काल के १६वं वर्ष में बतलाया है। यहाँ यह विचारने की बात है कि निर्ग्रन्थ तीर्थंकर महावीर मरने शासन के विरुद्ध वस्त्रादि की कल्पना को अपने गणधर द्वारा कैसे मान्य कर सकते थे? फिर उस समय के साधनों को नग्न रहने की क्या आवश्यकता थी और उस समय साधुओं को वस्त्रादि रहित निन्य दीक्षा क्यों दी जातो रही। इतना ही नहीं किन्तु सवस्त्र मुक्ति, स्त्री मुक्ति और केवलि भुक्ति प्रादि को मान्यता सूचक कथन भी लिखे गये। पौर १६वें तीर्थकर मल्लिनाथ को स्त्री तीर्थकर बतलाया गया। 'मल्लि' शब्द के साथ नाथ शब्द का प्रयोग भी किया जाता है, जो उचित प्रतीत नहीं होता । अस्तु, यह बात सुनिश्चित है कि मूल सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन नहीं होता-वे अपरिवर्तनीय ही होते हैं। नग्नता चूंकि मूलभुत सिद्धांत है, अतः उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं। इतना ही नहीं किन्तु विशेषावश्यक के कर्ता जिनदास गणि क्षमाश्रमण ने तो जिनकल्प के उच्छेद की भी घोषणा कर दो । ये सब बातें वस्त्रादि की कट्टरता को सूचक हैं, और संघ-भेद की खाई को चौड़ा करने वाली हैं। १. जैसा कि समय सुन्दरगणि के समाचारी शतक से स्पष्ट है :-"श्रीदेवद्धि गणि क्षमाश्रमणेन श्रीवीरान प्रशीयधिक नव शतकवर्षे जातेन द्वादशवर्षीयदुभिक्षवशात् बहुतरसाधुव्यापत्यो च जातायां .."भविष्यद् भव्यलोकोपकाराम श्रुत भक्तए च श्रीसंधाग्रहा। मृतावशिष्टादाकालीम सर्वसाधून वलभ्यामाकार्य मुन्तखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिता-बुटितान् पागमालोकान् अनुक्रमेण स्वममा संकलय्य पुस्तकारूढ़ान कृताः । ततो मूलतो गरापर भाषितानामपि तत्सकसनानन्तरं सर्वेषामपि पागमान् कर्ता धीदेवधिगरिण क्षमाश्रमण एव जातः ।" -समयसुन्दर मरिण रचित सामाचारी शतके २. आवेलको धम्मो पुरिमरस य पच्छिमस्स जिस्म । मज्झिमगाण जिणाणं होई सचेलो अपलो य ।। -पंचाशक ३. मरणपरमोहि पुलाए, माहारय-नवग उबसमे कप्पे ॥ संजमतिय केवलि सिझरणा य जंबुम्मि बुच्छिण्णा ।। -विशेषावश्यक भाष्य २५६३ इस घोषणा के सम्बन्ध में प० बेचरदास जी ने लिखा है-"गाथा में लिखा है कि जम्बू के समय में इस बातें विश्छेद हो गई । इस प्रकार का उल्लेख तो वही कर सकता है जो जम्बूस्वामी के बाद हुआ हो। यह बात में विचारक पाठकों से पूछता हूँ कि जम्बू म्वामी के बाद कौन-सा २५वां तीर्थकर हुआ है जिसका वचन रूप यह उल्लेख माना जाम? यह एक नहीं किन्तु ऐसे संख्याबद्ध उल्लेख हमारे कुल गुरुयों ने पवित्र तीर्थंकरों के नाम पर चढ़ा दिये हैं।" --जंन सा०वि० धवा थयेली हानि पृ.१.३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है और वह यह कि महावीर की बीज पद रूप वाणी को इन्द्रभूति गौतम ने द्वादशांग सूत्रों में प्रथित किया और उसका व्याख्यान उन्होंने सुधर्म स्वामी को किया, जो समान बुद्धि के धारक थे । द्वादशांग की यह रचना भ० महावीर के जीवन काल में और उसके बाद गणधर और साधु परम्परा में कण्ठस्थ रही, उस समय उनमें वस्त्र पात्रादि पोषक कोई नहीं क्योंकि महावीर की परम्परा के सभी शिष्यप्रशिष्यादि अन्तर्बाह्य परिग्रह के त्यागी नग्न दिगम्बर थे। वे सब उसी यथाजात मुद्रा में विहार करते थे। महावीर के निर्वाण के पश्चात् जब इन्द्रभूति केवल ज्ञानी हुए तब उन्होंने उस सब विरासत को सुधर्म स्वामी को सौंपा, जो यथाजात मुद्रा के धारक थे । इन्द्रभूति के निर्वाण के बाद सुधर्म स्वामी केवली हुए। उन्होंने बीर शासन की उस विरासत या धरोहर को जम्बूस्वामी को सौंपा, जो दिगम्बर मुद्रा के धारक थे। और जम्बु स्वामी के केवली और निर्वाण होने पर वह विरासत ५ श्रुतके वलियों में रही । तथा उन्होंने अन्य आचार्य को द्वादशांग की प्ररूपणा की है चार श्रुत केवलियों तक वह विरासत अविच्छिन्न रही उस समय में कोई भेदजनक घटना न घटी। किन्तु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के कारण परिस्थितिवश उत्तर भारत में रहने वाले साधुओं को 'मूल परम्परा के विरुद्ध आचरण करना पड़ा, उससे उन्हें मोह हो गया, वह उन्हें सुखकर प्रतीत हुई, इसलिए सुभिक्ष होने पर भी उन्होंने छोड़ना न चाहा। जिन्होंने छोड़ दिया उन्होंने प्रायश्चित्त लेकर पूर्व श्रमण परम्परा को अपना लिया, वे साधु श्रवश्य धन्यवाद के पात्र हैं। किंतु अधिकांश साधुओं ने आचार-विचार की शिथिलता को जो मध्यम मार्ग की जनक थी, अपना लिया, और कदाग्रहवश उसे छोड़ना न चाहा। उन्हीं के प्राचार विचार की शिथिलता से संघ भेद पनपता हुआ संघर्ष का कारण बना। इस तरह महावीर का निर्मल शासन दो भेदों में विभाजित हुमा। उसके बाद साधु परम्परा में बराबर शिथिलता बढ़ती ही रही और प्राज उसकी भीषणता पहले से भी अधिक बढ़ गयी है । दिगम्बर श्वेताम्बर संघ में भी अनेक संघ गण-गच्छादि के कारण अनेक संघ बनते-बिगड़ते रहे । प्राज भी इन दोनों सम्प्रदायों में संघ गण गच्छादि की विभिन्नता कटुता का कारण बनी हुई है। और उसके कारण सम्प्रदायों में वात्सल्य का भी प्रभाव हो गया है। अपने-अपने संघ के विभिन्न गण- गच्छादि में भी वैसा वात्सल्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसमें कलिकाल के स्वभाव के साथ कलुषाशय वाले व्यक्तियों का सद्भाव भी एक कारण हैं। जनसङ्घ- परिचय ५४ इन्द्रनन्दि के श्रुतावतारानुसार पुण्ड्रवर्धन पुरवासी ग्राचार्य दुबली प्रत्येक पांच वर्षों के अन्त में सौ योजन में बसने वाले मुनियों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक समय उन्होंने ऐसे प्रतिक्रमण के अवसर पर समागत मुनियों से पूछा- क्या सब आ गए। मुनियों ने उत्तर दिया- हां, हम सब अपने संघ के साथ आ गये । इस उत्तर को सुनकर उन्हें लगा कि धर्म व गण पक्षपात के साथ ही रह सकेगा। श्रतः उन्होंने संघों की रचना की। जो मुनि गुफा से आये थे उनमें से किसी को 'नन्दि' नाम दिया, और उनको 'वीर' जो अशोकवाट से आये थे । उनमें से कुछ को 'अपराजित' और कुछ को 'देव' नाम दिया। जो पंचस्तूप निवास से प्राये थे उनमें से कुछ को 'सेन' नाम दिया और कुछ को 'भद्र' । जो शाल्मलि वृक्ष मूल से प्राये थे, उनमें से किन्हों को 'गुणधर' और किन्हीं को 'गुप्त'। जो खण्डकेसरवृक्ष के मूल से प्राये थे उनमें से कुछ को 'सिंह' नाम दिया और किन्हीं को 'चन्द्र' । इन्द्रनन्दि ने अपने इस कथन की पुष्टि में एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है : "प्रायातो नन्दिवोरों प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटा६ वाश्चान्योऽपराविजित इति यतयो सेन भब्राह्वयौ च । पञ्चस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभः शाल्मली वृक्षमूलात्, निर्यातौ सिहचन्द्रौ प्रथितगुणगणौ केसराखण्डपूर्यात् ।। ६६ प्राचार्य देवसेन ने दर्शनसार में श्वेताम्बर, थापनीय, द्रविड़, काष्ठा संघ, और माथुर संघ इन पांचों संघों को जैनाभास बतलाया है । १. देखो, इन्द्रनन्दिश्रुतावतार श्लोक ६१ से १५ तक २. दर्शनसार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संव-भेद भट्टारक इन्द्रनन्दि ने अपने नीतिसार में महबली प्राचार्य द्वारा संघ निर्माण का उल्लेख किया है। उन संघों के नाम सिंह, सत्र, नन्दि संघ, सेन संघ और देव संघ बतलाये हैं। और यह भी लिखा है कि इनमें कोई भेट नहीं है। इसमें भी निम्न संघों को जैनाभास बतलाया है। उनकी संख्या पांच है-गोपूच्छिक, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय और निः पिच्छ । इन्द्रनन्दि ने कहीं भी काष्ठासंघ को जैनाभास नहीं बतलाया। भगवान महावीर का संघ, जो उनके समय और उनके बाद निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के रूप में प्रसिद्ध या. भद्रबाह श्रत केवलो के समय दक्षिण भारत में गया था। वह निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ ही था। वह निग्रंथ संघही बाद में मूल संघ के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ । इसी महाश्रमण संघ का दूसरा भेद श्वेताम्बर महाश्रमण संघ के नाम से ख्यात हुना। कुछ समय बाद पही निग्रन्थ मूल संघ विचार-भेद के कारण अनेक अंतभदों में विभक्त हो गया। यापनीय संघ, कर्चकसंघ, द्रविडसंघ, काष्ठासंघ और माथुरसंघ भादि के नामों से विभक्त होता गया, पोर गण-गच्छ भेद भी अनेक होते गये। किन्तु मूल संघ इन विषम परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व को कायम रखते हुए, मोर राज्यादि के संरक्षण के अभाव में, तथा शंवादि मतों के आक्रमण आदि के समय भीमपने अस्तित्व के रखने में समर्ष रहा है। अन्तभेद केवल निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ में ही नहीं हुए किन्तु श्वेतपट महाश्रमण संघ भी अपने अनेक प्रन्तर्भदों में विभक्त हुथा विद्यमान है। पार पाम संप के दो भेदों में विभक्त होने के समय जो स्थिति बनो वह अपने मन्तमदों के कारण और भी दुर्बल हो गया, किन्तु अपनी मूल स्थिति को कायम रखने में समर्थ रहा । मूलसंध मूल संघ कब कायम हुआ और उसे किसने कहाँ प्रतिष्ठित किया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिला । अहंद्वलि द्वारा स्थापित संघों में मूलसंघ का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सिंह, नन्दि, सेन और देव इन संघों को किसी ने जैनाभास नहीं बतलाया। ये संघ मूलसंध के ही अन्तर्गत हैं। इस कारण ये मूलसंघ नाम से उल्लेखित किये गये हैं। मलसंघ का सबसे प्रथम उल्लेख 'नोण मंगल' के दान पत्र में पाया जाता है,जो जैन शि०सं०भा०२१० ६०-६१ में मुद्रित है । यह शक सं० ३४७ (वि० सं० ४८२) सन् ४२५ के लगभग का है । जिसे विजयकीति के लिये उरनर के जिन मन्दिरों को कोंगणि वर्मा ने प्रदान किया था। दूसरा उल्लेख पाल्तम (कोल्हापुर) में मिले शक सं०४११ (वि० सं० ५१६) के दान पत्र में मिलता है, जिसमें मूलसंघ काकोपल प्राम्नाय के सिंहनन्दि मुनि को प्रलक्तक नगर के जैन मन्दिर के लिए कुछ ग्राम दान में दिये हैं। दानदाता थे पुलकेशी प्रथम के सामन्त सामियार । इन्होंने जंन मदिरों की प्रतिष्ठा कराई थी, और गंगराजा माधव द्वितीय तथा प्रविनीत ने कुछ और ग्रामादि दान में दिये थे। कोण्डकुन्दान्वय का उल्लेख वदन गुप्पे के लेख न०५४ भा०४१०२८ में पाया जाता है। जो शक से. ७३० सन् ५०८ का है और उत्तरवर्ती अनेक लेखों में मिलता है। कौण्डकुन्दान्वय का उल्लेख मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक सं० ३८८ है, पर उसे सन्देह की कोटि में गिना जाता है। इसमें कोण्हकुन्दान्वय के साथ देशीयगण का उल्लेख मिलता है। कुन्दकुन्द का वास्तविक नाम पयनन्दि था। किन्तु कोण्डकुन्द स्थान से सम्बद्ध होने के कारण पे कुन्दकुन्द के नाम से प्रासद्ध हुए। शिलालेख संग्रह के दूसरे भाग में प्रकाशित १० और १४ नम्बर के लेखों में मूलसंघ के वीरदेव' मोर चन्द्रनन्दि नामक दो प्राचार्यों के नाम उल्लिखित हैं। मूलसंघ में अनेक बहुश्रुत तार्किकशिरोमणि योगीश विद्वान प्राचार्य हुए हैं जिन्होंने वीर शासन को मोक में चमकाया। उनमें कुछ नाम प्रमुख हैं-कुन्दकुन्द, उमास्वाति (गृपिच्छाचार्य) बताकपिच्छ, समन्तभद्र, देवनन्दी, पात्रकेसरी, सुमतिदेव, श्रीदत्त, अकलंक देव, और विद्यानन्द प्रादि। १. नीतिसार श्लोक ६-७, तत्त्वानुशासनादि संग्रह पृ० ५५ २. देखो, जन लेख सं० भाग २, पृ० ५५ और ६० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २ इस संघ के अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं-देवगण, सेनगण, देशोगण, सूरस्थ गण, बलात्कारगण, काणूरगण और निगमान्वय । इन गणों का नामकरण मुनियों के नामान्त शब्दों से, तथा शान्त और स्थान विशेष के कारण हुए हैं। देवगण-इनमें देवगण सबसे प्राचीन है। इस गण का अस्तित्व लक्ष्मेश्वर से प्राप्त चार लेखों में (१११, ११३, ११४ पोर १५६) से, तथा कडवन्ति से प्राप्त ११वीं शताब्दी के एक लेख १९३ से मालूम होता है। इसके पश्चात अन्य लेखों में इसका उल्लेख नहीं मिलता। इसका देवगण नाम केसे पड़ा, यह तत्कालीन लेखों से कुछ ज्ञात नहीं होता । संभव है देवान्त नाम होने से देवगण संज्ञा प्राप्त हुई हो। जैसे उदयदेव, (११३) लाभदेव, जयदेव विजयदेव महादेव, महीदेव और अकलंकदेव मादि। कुछ विद्वान् अकलंकदेव को इस गण का प्रतिष्ठापक मानते हैं । सेनगण-यह गण भी प्राचीन है। यद्यपि इसका सबसे पहला उल्लेख मुलगण्ड से प्राप्त लेख नं० १३७ (सन् ६०३) में हुमा है। पर उत्तरपुराण के रचयिता गुणभद्र ने अपने गुरु जिनसेन पीर दादा गुरु वीरसेन को सेनान्वय का विद्वान माना है। किन्तु वीरसेन जिनसेन ने अपनी धवला जयघवला टीका में अपने वंश को पंचस्तपान्वय लिखा है। पंचस्तुपान्वय ईसा की ५वीं शताब्दी में होने वाले निग्रन्थ सम्प्रदाय के साधुनों का एक संघ था। यह बात पहाड़पुर जि० राजशाही, बंगाल से प्राप्त एक लेख से जानी जाती है। पंचास्तूपान्वय का सेनान्वय के रूप सबसे पहला उल्लेख संभवतः गुणभद्र ने उत्तरपुराण में किया है । इससे यह कहा जा सकता है कि जिनसेन इस गच्छ के प्रथम प्राचार्य थे। इसके बाद के किसी प्राचार्य ने पंचस्तूपान्वय का उल्लेख नहीं किया। सेनगण तीन उपभेदों में विभक्त हुप्रा । पोगरी या होगिरी गच्छ, पुस्तकगच्छ और चन्द्रकपाट । पोगरीकच्छ का प्रथम उल्लेख' शक सं०८१५ सन् ८९३ (वि० सं० १५०) के लेख में 'मूलसंघ सेनान्वय' पोगरीगण के प्राचार्य विजयसेन के शिष्य कनकसेन को ग्रामदान देने का उल्लेख है। देशीगण-कोण्डकुन्दान्वय के साथ प्रयुक्त होने वाले देशीयगण का मूलसंघ के साथ प्रयोग सन् ८६०ई० के एक लेख में पाया जाता है। जो पहले ताम्रपत्र के रूप में था और बहुत समय बाद मुनि मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य वीरनन्दी मुनि ने कुछ लोगों के साग्रह से पाषाणोत्कीर्ण कराया था। मेषचन्द्र विद्य देव और वीरनन्दी की गुरु परम्परा का उल्लेख लेख नं०४१ में पाया जाता है। अनेक शिलालेखों में देसिय, देशिक, देसिग और देशीय मादि नामों से इस गण का उल्लेख मिलता हैं। देशिय शब्द देश शब्द से बना है, देश का सामान्य अर्थ प्रान्त होता है। दक्षिण भारत में कन्नड़ प्रान्त के उस भू-भांग को, जोकि पश्चिमी घाट के उच्च भूमिभाग (बालाघाट) और गोदावरी नदी के बीच में है, देश नाम से कहा जाता था। वहाँ के निवासी ब्राह्मण अब भी देशस्थ कहलाते हैं। इस गण के मादिम प्राचार्यों के नाम के साथ 'भट्टारक' पद जुड़ा हमा है। वीं शताब्दी के अनेक लेखों में मुनियों की उपाधि भद्रार या भद्रारक दी गई है। पश्चाद्वर्ती लेखों में इस गण के प्राचार्यों की उपाधि सिद्धान्तदेव, संद्धान्तिक या विद्य पाई जाती है। शिलालेखों के अवलोकन से जाना जाता है कि कर्नाटक प्रान्त के कई स्थानों में इस गण के अनेक केन्द्र थे। उनमें हनसोगे (चिकहनसोगे) प्रमुख था। यहां के प्राचार्यों से ही आगे चलकर इस गण के हनसोगे बलि या गच्छ का उद्भव हुआ है। गच्छ का अर्थ शाखा या बलि होता है। कन्नड़ शब्द बलय या बलग का अर्थ परिवार होता है। चिक हनसोगे के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि वहाँ इस गण की मनेक वसदियां (मंदिर) यों, जिन्हें चंगाल्व नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त था। देशीगण का प्रमुख गच्छ पुस्तकगच्छ है। इसका उल्लेख अधिकांश लेखों में मिलता है । हनसोगेबलि पुस्तकगच्छ का ही एक उपभेद है। इस गण को एक शाखा का नाम 'इंगुलेश्वर बलि है। जिसके प्राचार्य गण प्रायः कोल्हापुर के पास-पास रहते थे। १. जैनलेख सं० भा०४ लेख नं०६१५० ३६ । २. देखो, जैन शिलालेख सं० भा० ४ लेख नं०६४ । ३. जैन लेख सं० भा० ४ ले० नं० ६१ पृ. ३१ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-सघ परिपथ सरस्थगण-मूलसंघ का एक गण सूरस्थ नाम से प्रसिद्ध है । लेख नं०१८५, २३४, २६६, ३१८,४६० और ५४१ से ज्ञात होता है कि इन लेखों में सूरस्त, सुराष्ट्र प्रथवा सूरस्थ नाम से उल्लेख है। इनमें अन्वय और गच्छ आदि का कोई उल्लेख नहीं है। इसका मूरस्थ नाम से पड़ा, इसका इतिवृत्त ज्ञात नहीं। इस गण का पहला उल्लेख नं० १८५ में है जिसमें मूलसंघ को द्रविड़ान्बय से युक्त लिखा है। जान पड़ता है, सूरस्थगण पहले मूलसंघ के सेनगण से सम्बन्धित था। अथवा उस संघ के साघुगण मूल संघ सुरस्थ गण में सम्मिलित रहे हों। इस गण के ११वों सदी के पूर्वार्ध से लेकर १३वीं शताब्दी तक के लेस्त्र हैं। लेख नं. २६६ में जो शक सं०१०४६ का है, सूरस्थगण के विद्वानों का उल्लेख किया है। अनन्तवीर्य, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र, कल्नेलेयदेव (रामचन्द्र ) अष्टो पत्रासि हेमनन्दि, विनयनन्दि, एकवीर और उनके सधर्मा पल्ल पंडित (अभिमानदानिक)। इसमें हेमनन्दि मुनोश्वर को राधान्तपारग और सूरस्थगण भास्कर बतलाया है। और पल्ल पंडित की बड़ी प्रशंसा की है। हेमनन्द के शिष्य विनयनन्दि थे। बलात्कारगण -का उल्लेख लेख नं०२०८ (सन् १०७५) के लगभग मिलता है, जिसमें इस गण के चित्रकूटाम्नाय के मुनि मुनिचन्द्र और उनके शिष्य अमन्तकोति का उल्लेख है। लेख नं० २२७ (सन् १०७ ई.) में इस गण के कतिपय मुनियों की परम्परा दी गई है। उनके नाम इस प्रकार हैं-नयनन्दि, श्रीधर, श्रीधर के चन्द्रकीति, श्रुतकीर्ति और वासुपूज्य। चन्द्रकीति के नेमिचन्द्र और वासुपूज्य के पद्मप्रभ । लेख के अन्त में इस गण का नाम बलात्कारगण दिया गया है। समागम लामार गण कब और कैसे पड़ा, इसका कोई इतिवृत्त मेरे देखने में नहीं पाया। डा. गुलाबचन्द चौधरी ने जैन शिलालेख सं० तीसरे भाग की प्रस्तावना के प०६२ पर लिखा है कि नाम साम्य को देखते हए यापनियों के बलहारि या बलगार गण से निकला है। क्योंकि दक्षिणापथ के नन्दि संघ में 'बलिहारिया बलगार' गण के नाम पाए जाते हैं, किन्तु उत्तरापथ के नन्दि संघ में सरस्वतो गच्छ और बलात्कार मण ये दो ही नाम मिलते हैं। 'वलगार' शब्द स्थान विशेष का द्योतक है। लगता है बलगार नामक स्थान से निकलने के कारण 'बलगार' नाम ख्यात हुअा होगा । 'बलगार' नाम का एक ग्राम भी दक्षिण भारत में है। 1 बलगार गण का पहला उल्लेख सन् १०७१ का है। इसमें मूलसंघ नन्दिसंघ का बलगार गण ऐसा नाम दिया है। इसमें वर्षमान महावादी विद्यानन्द उनके गुरुबन्धु तार्किकार्क माणिक्यनन्दि-गुणकीति-विमलचन्द्रगुणचन्द गण्ड विमुक्त उनके गुरु बन्धु अभयनन्दि का नामोल्लेख है। और कम नं० १५५ में अभयनन्दि-सकलचन्द-गण्ड विमुक्त त्रिभुवनचन्द्र । इनमें गुणकीति और त्रिभुवनचन्द्र को मिले दानों का वर्णन है। किन्तु बलात्कार शब्द स्थानवाची नहीं है प्रत्युत जबरदस्ती क्रियानों में अनुरक्त होने या लगने आदि के कारण इसका नाम बलात्कार हुआ जान पड़ता है। १४वीं १५वीं शताब्दी के विद्वान भट्टारक पद्यनन्दी, जो भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे और जो इस गण के नायक थे, सरस्वती की पापाण मूति को बलात्कार से मंत्र शक्ति द्वारा बुलवाया था, इस कारण उसे बलात्कार कहा जाता है, और गच्छ 'सारस्वत' नाम से ख्यात हुआ है। परन्तु यह बात भी जी को नहीं लगती, क्योंकि यह घटना अर्वाचीन है। ये पद्मनन्दि विक्रम की १४-१५वीं शताब्दी के विद्वान हैं और बलात्कार गण १. तन्मोखो (?) विबुधाधीशो हेमनन्दि मुनीश्वरः । राद्धान्त-पारगो जातस्सूरस्थ-मरण-भास्करः ।। --जैन ले० सं० मा०२ १०.४०० २. देखो, मिडियावल जैनिज्म १० ३२७ ३. पद्मनंदी गुरुज तो बलात्कारगणागणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ।। ऊर्जयन्तगिरी तेन गाठः सरस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्दाय नमः श्री पद्मनन्दिने ॥२ ४. जन लेख सं०भा० ४ ले० १५४, १५५, ५० १०२, पृ. १११ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ का उल्लेख वि० स०१०९७ (सन् १०३०) में श्रीनन्दो के शिष्य धीचन्द्र ने किया है। श्रीनन्दो का समय श्रीचन्द्र से २० वर्ष पूर्व माना जाय तो सन् १०१० में बलात्कार गण का उल्लेख हुमा है। ऐसी स्थिति में उक्त पदमनन्दि को बलात्कारगण का संस्थापक नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह घटना चार सौ-पांच सौ वर्ष पूर्व को है। बलात्कार गण में अनेक विद्वान भट्टारक हुए हैं और उनके पट्ट भी अनेक स्थानों पर रहे हैं। इस कारण बलात्कार गण का विस्तार अधिक रहा है। इस गण के भट्टारकों ने जैनधर्म को सेवा भी की है। महाराष्ट्र में मलखेड का पीठ बलात्कारगण का केन्द्र था। उसकी दो शाखाएँ कारंजा और लातूर में स्थापित हुई थीं। सूरत में भी बलारकार गण की गही थी। ग्वालियर और सोनागिरि माथुर गच्छ और बलात्कारगण के केन्द्र थे और हिसार मायुर गच्छ का समान पीठ था। बलात्कारगण के साथ सरस्वती गच्छ का उल्लेख चौदहवीं सदी से मिलता है। यह लेख शक सं० १२७७ मन्मथ संवत्सर का है। इसमें कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, मूलसंघ के अमरकोति प्राचार्य के शिष्य, माधनन्दि व्रती के शिष्य भोगराज द्वारा शांतिनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है। जैन शिलालेख सं० भा० ४ पृ०२८८ पर क्रम नं० ४०३, ४०४ और पु० ३०५ में क्र० ४३४ न० के लेखों में कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा में राजा हरिहर के समय इरुग दण्ड नायक द्वारा जिन मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है । मुल संघ बलात्कारगण के भट्टारक धर्मभूषण के उपदेश से इम्मडि बुक्क मंत्री द्वारा कुन्दन बोलु नगर में कून्यनाथ का चैत्यालय बनवाये जाने का उल्लेख है। और मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतो गच्छ के वर्धमान भट्रारक की प्रार्थना पर राजा देवराय द्वारा वरांग नामक ग्राम नेमिनाथ मंदिर को दिये जाने का उल्लेख है। काणरगण-इस गण के तीन उपभेदों का उल्लेख मिलता है—तिन्त्रिणी गच्छ, मेषपाषाण गच्छ और पुस्तक गच्छ । इस गण का पहला उल्लेख दसवीं शताब्दी के लेख (जैन शि० सं० भा० ४ क्रमांक न.८६) में मिलता है। तथा १४वीं शताब्दी के अन्त तक के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । मूल संघ के देशिय गण और क्राणर गण की अपनी वसदियां (मन्दिर) होती थीं। दडिग से प्राप्त एक लेख में लिखा है कि होयसल सेनापति मरियाने और भरत ने दडिगणकेरे स्थान में पांच सदियां बनवायी थों उनमें चार बसदियां देशियगण के लिये और एक क्राणूर गण के लिए'। १४वीं शताब्दी के बाद काणूरगण का प्रभाव बलात्कारगण के प्रभावक भट्टारकों के समय प्रभावहीन हो गया। कल्लूर गुड्ड के लेख में क्राणूरगण के प्राचार्या की वंशावली निम्न प्रकार दी है-दक्षिण देशवासो, गङ्गराजानों के कुल के समुद्धारक श्री मूलसंघ के नाथ सिंहनन्दि नाम के मुनि थे। उसके पश्चात् पहंदल्याचार्य, बेमुददाम मन्दि भट्टारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेधचन्द्र विद्यदेव, गुणचन्द्र, पण्डित देव । इनके बाद शब्दब्रह्म, गुणन्दिदेव हुए। इनके बाद महान तार्किक एवं वादी प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव हुए, जो मूलसंघ कोण्डकुन्डान्वय क्राणूरगण तथा मेषपाषाण गच्छ के थे। उनके शिष्य माधनन्दि सिद्धान्तदेव, और उनके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए। इनके सधर्मा अनन्त वीर्य मुनि, मुनिचन्द्र मुनि, उनके शिष्य श्रुतकीर्ति, उनके शिष्य कनकनन्दि विद्य हुए, जिन्हें राजाओं के दरबार में त्रिभुवन-मल्ल-वादिराज कहा जाता था इनके सधर्मा माधवचन्द्र, उनके शिष्य बालचन्द्र विद्य थे। काणूरगण की तिन्त्रिणी गच्छ की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख लेख न० ३१३, ३७७, ३०९, ४०८ और ४३१ में पाया है। रामणन्दि, पद्मणन्दि, मुनिचन्द्र मुनिचन्द्र, के भानुकोति और कुलभूषण (४३१ ले०) भानुकोति के नयकीर्ति और कुलभूषण के सकलचन्द्र हुए। यापनीय संघ की स्थापना दर्शन सार के कर्ता देवसेन सूरि के कथनानुसार वि. स. २०५ में श्री कलश नाम के श्वेताम्बर साधु ने की थी। अर्थात् यह संघ श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद की उत्पत्ति से लगभग ७० वर्ष १. जैन एण्टीक्वेरी भा०६, प्रक२१०६६ नं. ५८ २. जन शि० ले० सं० मा० २५० ४१६ ३. कल्लाणे बरणयरे दुण्णिसए पंरउत्तरे जादे। जावणिय संघभावो सिरिकलसादो वडदो।। -दर्शनसार २६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-सघ-परिचय ५६. बाद को उत्पन्न हुआ है। इससे यह तो निश्चित है कि यह संन, संघ भेद के पश्चात् स्थापित हुआ था । यह संघ दक्षिण भारत की देन है, क्योंकि जो साधु भगवान महावीर के कठोर शासन का पालन करते थे, दिगम्बर साधुओं के समान नग्न रहते थे, मयूर पिच्छी रखते थे, पाणिपात्र (हाथ) में भोजन करते थे, और भग्न मूर्तियों के पूजक थे। किन्तु श्वेताम्बरों के समान स्त्रियों को उसी भव से मुक्ति मानते थे। सवस्र मुक्ति और केवलिभक्ति (कवलाहार) भी स्वीकार करते थे। श्वेताम्बर मान्य प्रागमों को मानते थे, और वन्दना करने वालों को 'धर्मलाभ' देते थे। यद्यपि इनके द्वारा मान्य आगमों में कुछ पाठ भेद थे। यह सम्प्रदाय दिगम्बर-श्वेताम्बरों के बीच को एक कड़ी था। इस संघ में अनेक प्रभावशाली विद्वान आचार्य हुए हैं। उन विद्वानों में शिवार्य, अपराजित, पाल्यकीर्ति (शाकटायन) महाबीर और स्वयंभू आदि प्रमुख हैं। संभवतः पउमचरिय के कर्ता विमलसूरि भी यापनीय थे। ___ यह सम्प्रदाय राज्य मान्य था । कदम्ब', चालुक्य, गंग, राष्ट्रकूट' और रट्ट वंश के राजाओं ने इस संघ के साधुओं को अनेकों भूमिदान दिये थे। कदम्ब बंश के लेख नं. ६६, १०० और १०५ से ज्ञात होता है कि उस वंश के प्रारम्भिक राजाओं के काल में यह संघ बड़ा ही प्रभावक था। कदम्ब नरेश मगेश वर्मा (सन ४७०४६०) ने पलासिका स्थान में इस संघ को और अन्य दूसरे संघों-निर्ग्रन्थ और कुर्चकों के साथ भूमिदान द्वारा सत्कृत किया था। इस राजा के पुत्र रविवर्मा ने इस संघ के प्रमुख आचार्य कुमारदत्त को 'पुरुखेटक' गांव दान में दिया था।(१००)। इसी वंश की दूसरी शाखा के युवराज देवशर्मा ने भी यापनीय संघ को कुछ क्षेत्रों का दान देकर सम्मानित किया था। र नरेशों के लेखों से इस सम्प्रदाय के दो नये गणों का पता चलता है। कारेयगण और कन्डरगण का । लेखन० १३० से विदित होता है कि रट्ट वंश के प्रथम नरेश पृथ्वीराय के गुरु इन्द्रकीति (गुणकोति) के शिष्य मैलापतीर्थ कारेय गण के थे ! कारेयगण निश्चित रूप से यापनाम था। यह जन एण्टोक्वेरो से ज्ञात होता है। १५२ न० के लेख में भी कारेयगण का उल्लेख है। इस सम्प्रदाय के कण्डरगण का उल्लेख रट्ट राजाओं के लेख न०१६. और २०५ से जाना जाता है। लेख नं० १६० में यापनीय संघ के कन्डरगण की गुरुपरम्परा निम्न प्रकार प्राप्त होती है:--देवचन्द्र, देवसिंह, रविचन्द्र, अहणन्दि, शुभचन्द्र, मोनिदेव और प्रभाचन्द्र । लंख नं० २०५ में कण्डरगण के रविचन्द्र और अर्हणन्दि का उल्लेख है। यापनीय संघ ने दक्षिण भारत के जैनधर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण भाग लिया था। इस संघ का प्रभुत्व कर्नाटक के उत्तरीय प्रदेश में होने का अनुमान किया गया है। कारण कि कर्नाटक प्रदेश के शिलालेखों में यापनियों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख पाए जाते हैं। जबकि अन्य प्रदेशों के लेखों में उनका अभाव है। इस संघ ने कर्नाटक प्रदेश में जन्म लेकर धीरे-धीरे अपनी शक्ति को बढ़ाया। और कर्नाटक के अनेक प्रदेशों में राजकीय तथा जनता का संरक्षण प्राप्त किया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कर्नाटक के दक्षिणी भाग में, जिसमें मैसूर भी शामिल है, शिलालेखों में भी यापनियों का उल्लेख विरस है। श्रवण बेल्गोल के लेखों में यापनियों का एक भी उल्लेख नहीं मिलता। अन्वेषणों के परिणाम स्वरूप जान परता है कि हम्तिकेरी, फलभावी, सौवन्ति, बेलगांव, बीजापुर, धारवार और कोल्हापुर पादि प्रदेशों के कुछ स्थानों में मापनियों का जोर रहा है। कर्नाटक के समान तमिल प्रान्त में भी यापनीय सम्प्रदाय का प्रचार रहा है ऐसा लेनमे०१४३-१४ से ज्ञात होता है। लेखन. १४३ में यापनीय सम्प्रदाय के नन्धि गच्छ (संष) के कोटि मजयगण का उल्लेख है पौर उसके प्राचार्यो-जिननन्दि, दिवाकर, श्रीमन्दिरदेव का नाम दिया गया है। श्रीमन्दिरदेव करकाभरणजिनालय के अधिष्ठाता थे। उस जिनालय के लिये पूर्वीय पालुक्य वंश के मम्मराज द्वितीय ने सेनापति (फटकराण) दुर्गराज की १. करवंशी राजाभों के दान पत्र, जनहितंथी भाग १४मक ७-८।। २. ए.१२ पृ. १३-१६ में राष्ट्र कटराजा प्रभूत वर्ष का दान पत्र ३. जैन एण्टीक्वेरी भाग १, मक २९.६८,६९ में अंकित को लेण-(५१-५५) । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्रार्थना पर उक्त संघ के लिये सलिमपुण्डि नाम का एक गांव दान में दिया था। श्री मन्दिरदेव यापनीय संघ, कोटि मडुव या मवगण और नन्दिगच्छ के जिननन्दि के प्रशिष्य और दिवाकरनन्दि के शिष्य थे। उसी राजा के दूसरे लेख नं० १४४ में अड़क लिगच्छ बलहारिगण के आचार्यों की पंक्ति सकलचन्द्र श्रव्यपोटि, अर्हन्दि । श्रर्हनन्दि मुनि को अम्मराज द्वितीय ने सर्वलोकाश्रय जिनालय की भोजनशाला की मरम्मत कराने के लिये प्रत्तलिपाण्ड प्रान्त के कलुचुम्बरू नाम का गांव दान में दिया था । यद्यपि इस लेख में स्पष्ट रूप से यापनीय संघ का उल्लेख नहीं है । किन्तु अडकलि गच्छ पीर बलिहारिगण का उल्लेख अन्यत्र न मिलने से वे यापनीय सम्प्रदाय के थे । यापनीय संघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ एक महत्वपूर्ण शाखा थी, जो मूलसंघ के नन्दिसंघ से भिन्न थी । यह नन्दि संघ कई गांवों में विभाजित था। जान पड़ता है संघ व्यवस्था की दृष्टि से उसे कई भेदों में बांट दिया गया था। उनमें कनकोपल सम्भूत वृक्षमूलगण (१०६) श्री मूलमूलगा ( १२१ ) और पुन्नागवृक्ष मूलगण ( ११४) इनमें पुन्नागवृक्ष मूलगण प्रधान था और वह उसको प्रसिद्ध शाखा रूप में ख्यात था। गणों के नाम कतिपय वृक्षों के नाम से सम्बन्धित हैं। सन् ११०८ के २५० वें लेख से ज्ञात होता है कि उक्त पुन्नागवृक्ष मुलगण को मूलसघ के अन्तर्गत पाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि वह बाद में मूलसंघ में अन्तर्भुक्त हो गया है। शिलालेखों में निर्दिष्ट बहुत से साधु इसी गण से सम्बद्ध थे। इसके अतिरिक्त यापनियों के भी अनेक गण थे। दो लेखों (७० और १३१) में कुमुदिगण का उल्लेख मिलता है। इनमें से पहला लेख नवीं शती का है और दूसरा १०४५ ई० का है । दोनों में जिनालय के निर्माण का उल्लेख है। इस सब विवरण से यापनीयसंघ की ख्याति और महत्ता का स्पष्ट बोध होता है । यह संघ ध्वीं १०वीं शताब्दी तक सक्रिय रहा जान पड़ता है । पर बाद में उसका प्रभाव क्षीण होने लगा। इस संघ के मुनियों में कीर्ति नामान्त और नन्दि नामान्त नाम अधिक पाये जाते हैं, विजयकोति, अर्ककीर्ति, कुमारकीति, पाल्यकीति श्रादि, चन्द्रनन्दि कुमारनन्दि, कीर्तिनन्दि, सिद्धमन्दि, अर्हनन्दि आदि । किन्तु यह संघ जिस 'उद्देश्य को लेकर बना वह अपने उस मिशन में सफल नहीं हो सका। और अन्त में अपनी हीन स्थिति में दिगम्बर संघ के अन्दर अन्तभु नत हो गया जान पड़ता है । बेलगांव 'दोड्डवस्ति' नाम के जैन मन्दिर की श्री नेमिनाथ की मूर्ति के नीचे एक खडित लेख है, जिसस ज्ञात होता है कि उक्त मंदिर यापनीय संघ के किसी पारिसय्या नामक व्यक्ति ने शक ९३५ सन् २०१३ (वि. सं. १०७०) में बनवाया था और उक्त मंदिर की यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा इस समय दिगम्वरियों द्वारा पूजी जाती है' । यापनियों का साहित्य भी दिगम्बर सम्प्रदाय में अन्तर्भुक्त हो गया । 1 मावि संघ -- द्राविड देश में रहने वाले जैन समुदाय का नाम द्राविड संघ है। लेखों में इसे द्रविड़, द्रविड, द्रविण द्रमिल, द्रविल, द्राविड मादि नामों से उल्लेखित किया गया है । द्रविड़ देश वर्तमान में आन्ध्र श्रौरमद्रास प्रान्त का कुछ हिस्सा है। इसे तमिल देश में भी होना कहा जाता है। इस देश में जैन धर्म के पहुंचने का काल बहुत प्राचीन है । इस देश में साधुओं का जरूर कोई प्राचीन संघ रहा होगा। प्राचार्य देवसेन ने दर्शनसार में द्राविड संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि के द्वारा दक्षिण मथुरा में वि० सं० ५२६ में हुई लिखा है। वचनन्दि के सम्बन्ध में लिखा है कि उस दुष्ट ने कछार खेत वसदि ओर वाणिज्य से जीविका करते हुए शीतल जल से स्नान कर प्रचुर पाप का संचय किया । किन्तु शिलालेखों में इस संघ के अनेक प्रतिष्ठित आचार्यों के नाम मिलते हैं। श्रतः देवसेन के उक्त कथन में सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मन्दिर बनवाने और खेती बाड़ी करने के कारण इस संघ को दर्शन सार में जैनाभास कहा गया है। वादिराज भी द्राविड संघ के थे । उनको गुरु परम्परा मठाधीशों की परम्परा १. देखो, जैनदर्शन वर्ष ४ क ७ २. सिरिपुज्ञपादसीसो दाविडसंस् कारगो दुहो । नामेरा वज्जपदी पाडवेदी महात्यो । २५ पचये बीसे विक्कमरामा नरपतस्स । दक्षिण महराजादो दाविवसंघ महामोहो ||२६ कच्छ खेतं वसहि वाणिज्जं कारिकरण जीवन्तो । व्हती सीयस हीरे पावं परं च संवेदि ॥ २७ (दर्शनसार) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-संघ-परिचय थी। वे मन्दिर बनवाने थे, उनका जीर्णोद्धार कराते थे, मुनियों के प्राहार की व्यवस्था करते थे। इन्हीं वादिराज के समसामयिक मल्लिपण थे । इनके मंत्र-तत्र विश्यक ग्रन्थों में मारण-उच्चाटन, वशीकरण, मोहन, स्तम्भन आदि के अनेक प्रयोग निहित हैं। ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दियोगीन्द्र भी द्राविड़ संघ के थे । इस ग्रन्थ की उत्थानिका में लिखा है कि दक्षिण के मलय देश के हेमग्राम में द्राविडसंघ के अधिपति हेलाचार्य थे। उनकी शिष्या को ब्रह्मराक्षस लग गया था। इसकी पीड़ा दूर करने के लिये हेलाचार्य ने ज्वाला मालिनी की सेवा की थी। देवी ने उपस्थित होकर पुछा-बया चाहते हो ! मुनि ने कहा- मुझे कुछ नहीं चाहिये, मेरी शिष्या को ग्रह मुक्त कर दो। देवी के मंत्र से शिष्या स्वस्थ हो गई। फिर देवी के आदेश से हेलाचार्य ने ज्वालिनीमत को रचना को। इस संघ के अधिकांश लेख होयसल नरेशों के हैं। इस संघ के प्राचार्यों ने पद्मावतो देवो को पूजा, प्रतिष्ठा में बड़ा योगदान किया था । इस संघ के प्राय: सभी गाधु वसदियों में रहते थे । दान में प्राप्त जागीर आदि का प्रबन्ध करते थे। चल ग्राम के वमिरे देवमन्दिर में शक सं० १०४७ का एक शिलालेख है जिसमें द्राविड संघीय इन्हीं वादिराज के वंशज श्रीपालयोगीश्बर को होय्यसल वंश के विष्ण वर्द्धन पोय्यसल देव ने वसतियों या जैन मन्दिरों के जीणोद्धारार्थ और ऋषियों के माहार-दान के लिये शल्य नामक ग्राम दान में दिया । वि० सं० ११४५ के दुबकण्ड के शिलालेख में कछवाहा वश के राजा बित्रमसिंह ने पूजन संस्कार, कालान्तर में टूटे फटे की मरम्मत के लिये कर जमीन, वापिका सहित एक बगीचा और मुनि जनों के शरीराभ्यंजन (तल मर्दन) के लिये दो करघटिकाएं दी ये सब बातें भी चैत्यवास के प्राचार का उद्धावन करती हैं। कचकसंघ-कर्नाटक प्रान्त में ईसा की पांचवों शताब्दी या उसके पहले जैनियों का एक सम्प्रदाय कचंक नाम से ख्यात था। जिसका अस्तित्व तथा कुर्चक नाम कदम्बवंशी राजाओं के लेखों (६८-६६) से ज्ञात होता है। यह साधुओं का ऐसा सम्प्रदाय था, जो दाड़ी मूंछ रखता था। उसके साथ यापनीय और श्वेतपट संघ का नामोल्लेख है । प्राचीन काल में जटाधारी और नन्न आदि अनेक प्रकार के अजैन साधु थे। इसी तरह जैनियों में भी ऐसे साधुनों का सम्प्रदाय या जो दाड़ो मूंछ रखने के कारण कूर्चक कहलाता था । गोड संघ-पौड़ संघ का उल्लेख एक ही लेख में मिलता है। इस सम्बन्ध में अन्य लेख देखने में नहीं प्राया। मौड़ संघ के प्राचार्य सोमदेव के लिये चालुक्य राजा बद्दिग द्वारा शुभधाम जिनालय के बनवाने का उल्लेख है। (रि० इ० ए० १६४६-७ क्र-१५८) काष्ठासंघ-माथुरगच्छ देवसेन ने दर्शनसार में काष्ठासंघ की उत्पत्ति दक्षिण प्रान्त में, प्राचार्य जिनसेन के सतीर्थ विनयसेन के शिष्य कुमारसेन द्वारा जो नन्दि तट में रहते थे वि० सं० ७५३ में हई बसलाई है। और कहा है कि उन्होंने कर्कश केश अर्थात गौ को पूंछ की पीछी ग्रहण करके सारे बागड़देश में उन्मार्ग चलाया! किन्तु काष्ठासंघ के संस्थापक कुमारसेन का समय सं०७५३ बतलाया है। वह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि विनयसेन के लघु गुरु बन्धु जिनसेन ने 'जयघवला' टीका शक सं०७५६ सन् ८३७ में बनाकर समाप्त की है। अत: उसे विक्रम संवत् न मानकर शक संवत मानने से संगति ठीक बैठ जाती है। और उसके दो सौ वर्ष बाद अर्थात् वि० संवत १५३ के लगभग मथुरा में माथरों के गुरु रामसेन ने नि:पिच्छिक रहने का उपदेश दिया और कहा कि न मयूरपिच्छी रखने की आवश्यकता है और न गोपिच्छी की। सभी संघों, गणों और गच्छों के नाम प्रायः देशों या नगरों के नाम पर पड़े हैं। जैसे मथुरा से माषरसंघ, काष्ठा नाम के स्थान से काष्ठासंघ । बुलाकीदास ने अपने वचन कोश में उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहाचार्य द्वारा काष्ठासंघ की स्थापना १. जैन शिलालेख संग्रह भाग ४६३ नं का लेख २. जैन ग्रन्थ प्रयास्ति संग्रह प्रथम भाग तथा धवला पु. १ प्रस्तावना पु० ३५-३६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ६२ अग्रोहा नगर में की थी ऐसा लिखा है। पर इसका कोई प्राचीन उल्लेख मेरे अवलोकन में नहीं याया । किन्तु १६वीं २०वीं शताब्दी के लेखों में लोहाचार्य के अन्वय का उल्लेख मिलता है। ऐसी स्थिति में बुलाकीदास का लिखना विश्वसनीय नहीं जान पड़ता । काठ की प्रतिमा के पूजन से काष्ठासंघ नाम पड़ा, यह कल्पना तो निराधार है ही, काठ की प्रतिमा के पूजन का निषेध भी मेरे देखने में नहीं आया । काष्ठा नाम का स्थान दिल्ली के उत्तर में जमुना नदी के किनारे बसा था। जिस पर नागवंशियों की टांक शाखा का राज्य था। १४वीं शताब्दी में 'मदन पारिजात' नाम का निबन्ध यहीं लिखा गया था। काष्ठासंघ की पट्टावली में भी लोहाचार्य का नाम है। ऐसी प्रसिद्धि है कि लोहाचार्य ने ही अग्रवालों को दि० जैन धर्म में दीक्षित किया था । अग्रवालों का उल्लेख करने वाले लेखों में काष्ठासंघ मोर लोहाचार्यान्वय का निर्देश है । इस संघ के आचार्य श्रमितगति द्वितीय ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है, उसमें देवसेन, अमितगति प्रथम, नेमि पेण, माधवसेन और श्रमितगति द्वितीय हैं। अमितगति द्वितीय ने अपनी रचनाएं सं० १०५० से १०७३ तक बनाई हैं । इसी संघ के अन्तर्गत अमरकीर्ति ने जो गुरु परम्परा दी है वह इन्हीं अमितगति से शुरू की है, अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीषेण, चन्द्रकीर्ति, धमरकीर्ति । भ्रमरकीर्ति को रचनाएं सं० १२४४ से १९४७ तक की उपलब्ध हैं । इन्हीं अमरकी के शिष्य इन्द्रनन्दि ने श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के योग शास्त्र की टीका शक सं० १९८० वि० सं० १३१५ में बनाकर समाप्त की थी। इससे स्पष्ट है कि काष्ठासंघ के माथुरसंघ की यह परम्परा १०५० से १३१५ तक चलती रही है। उसके बाद इसी परम्परा में उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र हुए। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा अपभ्रंश साहित्य को वृद्धिगत किया है। उदयचन्द्र ने गृहस्थ अवस्था में सुगन्ध दशमी कथा की रचना लगभग ११५० ई० में की थी। उसके बाद वे मुनि हो गए थे। htoris में नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाल बागढ़ ये चार गच्छ प्रसिद्ध थे। जैसा कि भट्टारक सुरेन्द्रकीति की पट्टावली से स्पष्ट है। ये चारों नाम स्थानों और प्रदेशों के नामों पर रक्खे गए हैं । कुमारसेन नन्दि तट गच्छ के थे। और रामसेन माथुर संघ के, जिसका विकास मथुरा से हुआ है। बागड़ से वागड़गच्छ, और लाट गुजरात और भागड़ से लाल बागड़गच्छ । लाट और बागड़ बहुत समय तक एक हो राजवंश के भाधीन रहे हैं। माथुर संघ को जैनाभास, जीव रक्षा लिये किसी तरह की पीछी न रखने के कारण कहा गया है। आचार्य श्रमितगति द्वितीय के ग्रन्थों से ऐसा कोई भी भेद नजर नहीं पाता जिससे उन्हें जैनाभास कहा जाय । दर्शनसार की रचना वि० सं० ६६० में हुई है। मविद - इसमें अनेक विद्वान आचार्य और भट्टारक हुए हैं। रामसेन नरसिंह जाति के संस्थापक कहे गये हैं। इनके शिष्य नेमिसेन ने भट्टपुरा जाति की स्थापना की है। भीमसेन के शिष्य सोमकीर्ति ने संवत् १५३२ में बीरसेम गुरु के साथ शीतलनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा को सोमकीर्ति मे स० १५२६-१५३१ और १५३६ में प्रद्युम्नचरित, सप्तम्यसन कथा और यशोधरचरित की रचना की। सं० १५४० में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। मीर सुलतान फिरोजशाह के राज्यकाल में पावागढ़ में पद्मावती की सहायता से आकावा गमन का चमत्कार दिख लाया। इनके बाद अन्य अनेक भट्टारक हुए, जिन्होंने जैनधर्म की सेवा की । माथुर गच्छ इस गच्छ में अनेक ग्रन्थकर्ता विद्वान हुए हैं। इस गछ के दिया जा चुका है। नैमिषेण के शिष्य अमितगति प्रथम ने योगसार की रचना की। १. वेली, पभोसा का स० १६८१ सन् १८२४ का लेख, जैन लेख सं० भा० धर्मपुरा के जैन मूर्ति लेल मनेकान्त वर्ष १६. किरा ३ लेख मं० १० ११ १२ में लोहा २. काष्ठासं भुविषयात जानन्ति सुरासुराः । तत्र गाश्च चत्वारो राजन्ले विश्रुताः श्री नन्वित संज्ञा च माथुरो साल- हरये के विख्याताः जिसी || बागाभिषः । क्षितिमण्डले । अनेक विद्वानों का उल्लेख ऊपर माघवसेन के शिष्य प्रमितगति पू० ५७१-५८० तथा गया मन्दिर का उल्लेख है । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-सध-परिचय ६३ द्वितीय ने सुभाषित रत्नसंदोह धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, तत्व भावना, उपासकाचार, द्वात्रिंशतिका और माराधना ग्रन्थ की रचना की । इस संघ के दूसरे आचार्य नं १०६६ में परमार राजा विजयराज के राज्यकाल में ऋषभनाथ का मन्दिर बनवाया। गुणभद्र ने सं० १२२६ में विजोल्या के पार्श्वनाथ मन्दिर की विस्तृत प्रशस्ति लिखो । इस परम्परा के अन्य अनेक भट्टारकों ने ग्वालियर किले में मूर्ति निर्माण और यशःकोर्ति, मलय कीर्ति, गुणभद्र और रघू आदि ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इनमें यशः कीर्ति के गुरु गुणकीर्ति बहुत प्रभावशाली ये जिन्होंने राजा डूंगरसिंह आदि को जैनधर्म का श्रद्धाशील बनाया। इन तोमर वंश के शासकों के समय जहां जैन धर्म का विस्तार और प्रभाव रहा, वहाँ जैनधर्म का प्रभाव भी जनता पर रहा। बागडगच्छ-लाडवागड वागड का कोई स्वतन्त्र उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ । लाड गुजरात और बागड़ दोनो मिलकर लाडवागड गच्छ हुआ। इसका संस्कृत नाम लाटवर्गट है। जयसेन (१०५५) ने इसको सम्बन्ध भगवान महावीर के गणधर मेतार्थ के साथ जोड़ा है। इससे यह संघ १०वीं शताब्दी से भी पूर्व का जान पड़ता है। इसका प्रभाव गुजरात और बागड प्रदेश में रहा है। किन्तु बाद में मालवा और धारा और उसके आस-पास के प्रदेशों में अंकित रहा है। लाट नागड सौर पुन्नाट संत्रों की एकता का आभास ले० न० ६३१ से प्रतीत होता है। और लाड वागड गच्छ के कवि पामों के उल्लेख से उसकी पुष्टि होती है। पुन्नाट संघ के आचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०५ में वर्धमान पुर के पार्श्वनाथ तथा दोटिका के शान्तिनाथ मन्दिर में रह कर हरिवंश पुराण की रचना की थी। संभव है दक्षिण के माननीय नन्दि संघ तथा पुन्नागवृक्ष मूलगुण को अर्ककीर्ति ने अपना संघ बतलाया है। इससे लगता है कि पुत्राग वृक्षमूलगण पुन्नाट का ही रूपान्तर हो । गुम्माट संघ के प्राचार्य हरिषेण ने सम्वत् ६८६ में वर्धमान पुर में बृहत्कथा कोष की रचना की है । श्रीचन्द्र ने लाइबागड संघ का उल्लेख किया है। महासेन ने भी अपने का लाडवागड़ संघ का विद्वान सूचित किया है। प्रद्युम्न चरित में इन्होंने जयसेन, गुणाकर सेन, महासेन के नामोल्लेख से अपनी गुरु परम्परा दी है ! सं० ११४५ के द्रुवकुण्ड' के लेख में विजयकीर्ति ने देवसेन कुलभूषण दुर्लभसेन, श्रम्वरसेन आदि वादियों के विजेता शान्तिषेण और विजयकोति के नाम दिये हैं। इससे यह संघ भी प्रभावक रहा है। शिलालेख, मूर्ति लेख, ताम्र पत्र और प्रशस्तियों पर से और भी संघ, गण-गच्छादि का पता चल सकता है । इस परिचय द्वारा वि० जैनाचार्यों के गण गच्छादि पर संक्षिप्त प्रकाश पड़ता है। श्रागे जिन प्राचार्यों, विद्वानों और भट्टारकों आदि का परिचय दिया जायगा, वे सव माचार्य इन्हीं संघों और गण- गच्छों के थे । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय २ ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी से लेकर ईशा की चतुर्थ शताब्दी तक के विद्वान आचार्य प्राचार्य दोलामस (धृतिसेन) मुनि कल्याण प्राचार्य गुणधर अर्हबली धरसेन माघनन्दी सैद्धान्तिक पुष्पदन्त भूतवली मद्रबाहु (द्वितीय) कुन्दकुन्दाचार्य गुणवीर पण्डित उमास्वाति समन्तभव शिवार्य Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य दौलामस (धृतिसेन) और मुनि कल्याण ईसवी पूर्व ३२६ सन् के नवम्बर महीने में सिकन्दर (Alezander) ने अटक के निकट सिन्धु नदी को पार किया पीर वह तक्षशिला में आकर ठहरा। उस समय तक्षशिला का राजा अम्भि था। उसने सिकन्दर से बिमा युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसी की सहायता से सिकन्दर की सेना ने सिन्धु नदी को पार किया और तक्षशिला में पहुँच कर अपनी थकान उतारी। उस समय सिकन्दर ने दिगम्बर जैन श्रमणों (मुनियों) के उच्च चरित्र, तपस्वी जीवन, उन्नत ज्ञान और कठोर साधना के सम्बन्ध में अनेक लोगों से प्रशंसा सुनी थी। इससे उसके मन में दिगम्बर जैन मुनियों के दर्शन करने की प्रबल आकांक्षा थी। जब उसे यह ज्ञात हमा कि नगर के बाहर अनेक नग्न जन मान एकान्त तपस्या कर रहे हैं, तब उसने अपने एक अमात्य मोनेसीक्रेट्स (Onesicrates) को आदेश दिया कि तुम जानो और एक जिम्नोसाफिस्ट (Gymnosophyst) दिगम्बर जैन मुनि को प्रादर सहित लिवा लाओ। प्रोनेसीक्रेट्स बहाँ गया, जहाँ जंगल में जैन मुनि तपस्या कर रहे थे। वह जैन संघ के प्राचार्य के पास पहुंचा और कहा-प्राचार्य ! प्रापको बधाई है, आपको परमेश्वर का पुत्र सम्राट सिकन्दर, जो सब मनुष्यों का राजा है, अपने पास बुलाता है। यदि आप उसका निमन्त्रण स्वीकार करके उसके पास चलेंगे तो वह पापको बहुत पारितोषिक देगा और यदि आप निमन्त्रण अस्वीकार करके उसके पास नहीं जायेंगे तो सिर काट लेगा। उस समय श्रमण साधु संघ के प्राचार्य दौलामस (Daulamus) (सम्भवतः धृतिसेन) सूखी घास पर लेटे हुए थे। उन्होंने लेटे हुए ही सिकन्दर के अमात्य की बात सुनी और मुस्कराते हुए बोले-सबसे श्रेष्ठ राजा बलात् किसी की हानि नहीं करता । वह प्रकाश, जीवन, जल, मानव शरीर और प्रात्मा का बनाने वाला नहीं है, और न इनका संहारक है। सिकन्दर देवता नहीं है, क्योंकि उसकी एक दिन मत्यु अवश्य होगी। वह जो पारितोषिक देना चाहता है वे सभी पदार्थ मेरे लिये निरर्थक हैं। मैं तो घास पर सोता है। ऐसी कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता जिसकी रक्षा की मूझे चिन्ता करनी पड़े, जिसके कारण अपनी शांति की नींद भंग करनी पड़े। यदि मेरे पास सुवर्ण या अन्य कोई सम्पत्ति होती तो मैं ऐसी निश्चिन्त नींद न ले पाता। पृथ्वी मुझे मावशक पदार्थ प्रदान करती है, जैसे बच्चे को उसकी माता सुख देती है। मैं जहाँ कहीं जाता हूँ वहाँ मुझे अपनी उदर-पूर्ति के लिये कभी नहीं । आवश्यकतानुसार सब कुछ (भोजन) मुझे मिल ही जाता है, कभी नहीं भी मिलता तो मैं उसकी कुछ चिन्ता नहीं करता। यदि सिकन्दर मेरा सिर काट डालेमा, तो वह मेरी प्रात्मा को तो नष्ट नहीं कर सकता। सिकन्दर अपनी धमकी से उनको भयभीत करे जिन्हें सुवर्ण, धन मादि की इच्छा हो, या जो मृत्यु से डरते हों। सिकन्दर के ये दोनों अस्त्र-प्राधिक लोभ-लालच तथा मत्यू-भय हमारे लिये शक्तिहीन है-व्यर्थ हैं। क्योंकि हम न सुवर्ण (सोना) चाहते हैं और न मृत्यु से डरते हैं। इसलिए जागो और सिकन्दर से कह दो कि दौलामस को तुम्हारी किसी भी वस्तु की अावश्यकता नहीं है । अत: वह (दौलामस )तुम्हारे पास नहीं प्रावेगा। यदि सिकन्दर मुझसे कोई वस्तु चाहता है तो वह हमारे समान बन जाये। प्रोनेसीक्रेट्स ने सारी बातें सम्राट से कहीं। सिकन्दर ने सोचा जो सिकन्दर से भी नहीं बरता, वह महान् है, उसके मन में प्राचार्य दौलामस के दर्शनों की उत्सुकता जागत हई। उसने बाकर प्राचार्य महाराज के दर्शन किये। वह ज नयों के आचार-विचार, ज्ञान और तपस्या से बड़ा प्रभावित हमा। उसने अपने देश में ऐसे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ किसी साधु को ले जाकर ज्ञान प्रचार करने का निश्चय किया। वह कल्याण ( Klas ) मुनि से मिला और उनसे यूनान चलने की प्रार्थना की। मुनि कल्याण आचार्य दीलामस के संघ के एक शिष्य साधु थे। उन्होंने उसको प्रार्थना स्वीकार कर ली । परन्तु आचार्य महोदय को कल्याण का यूनान जाना सम्भवतः पसन्द न था । जब सिकन्दर तक्षशिला से अपनी सेना के साथ यूनान को लौटा, तब कल्याण मुनि भी उसके साथ विहार कर रहे थे। मुनि कल्याण ने एक दिन मार्ग में ही सिकन्दर की मृत्यु की भविष्यवाणी की। मुनि के वचनों के अनुसार ही लोन पहुँचने पर ई० पू० ३२३ में अपरान्ह वेला में सिकन्दर की मृत्यु हो गई । मृत्यु से पहले सिकन्दर ने मुनि महाराज के दर्शन किये और उनसे उपदेश सुना । सम्राट् की इच्छानुसार यूनानी कल्याण मुनि को आदर के साथ यूनान ले गये। कुछ वर्षों तक उन्होंने यूनानियों को उपदेश देकर धर्म प्रचार किया । अन्त में उन्होंने समाधिमरण किया। उनका शव राजकीय सम्मान के साथ चिता पर रख कर जलाया गया । कहते हैं, उनके पाषाण चरण एथेन्स में किसी प्रसिद्ध स्थान पर बने हुए हैं । उस समय तक्षशिला में अनेक दिगम्बर मुनि रहते थे। इस बात की पुष्टि अनेक इतिहास ग्रन्थों से होती है। सिकन्दर ने जब श्रोनेसीक्रेट्स को दिगम्बर मुनियों के पास भेजा, उसका कहना है कि उसने तक्षशिला में २० स्टैडीज दूरी पर १५ व्यक्तियों को विभिन्न मुद्राओं में खड़े हुए बैठे हुए या लेटे हुए देखा, जो बिल्कुल नग्न थे । वे शाम तक इन ग्रासनों से नहीं हिलते थे। शाम के समय शहर में आ जाते थे। सूर्य का ताप सहना सबसे कठिन कार्य है । परन्तु श्रातापन योग का अभ्यास करने वाले मुनिजन इसको शान्ति के साथ सहन करते थे । परिषह सहिष्णु बन कर ही मुनिजन कर्मक्षय के योग्य ग्रात्म-शक्ति को संचित करते थे । श्राचार्य गुणधर- -Plutarch-A.I-P. 71 - ( प्लूटार्च, एंशियंण्ट इंडिया पृ० ७१ ) जे काय पाहुणे य-जय मुज्जलं श्रणं तत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर भट्टारयं वंदे । treaलायां वीर सेनः से वे अपने समय के विशिष्ट शानी विद्वान् थे । वे पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व स्थित दशमवस्तु के तीसरे पेज्जदोस पाहुड के पारगामी थे। उन्हें पेज्जदोस पाहुड के अतिरिक्त महाकम्मपयडि पाहुड का भी ज्ञान था। उक्त पाहुड सम्बन्ध रखने वाले विभक्ति, बन्ध, संक्रमण और उदय उदीरणा जैसे पृथक् प्रधिकार दिये हैं। इनका महाकम्म पर्या पाहुड के चौबीस अनुयोग द्वारों से क्रमश: छठे, दशवें और बारहवें अनुयोग द्वारों से सम्बन्ध है। महाकर्म प्रकृति पाहुड कि गुणधर का २४ व अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार भी कसाय पाहुड के अधिकारों में व्याप्त है। इससे स्पष्ट महाकर्म प्रकृति के भी ज्ञाता थे । इन्होंने अंगज्ञान का दिन-प्रतिदिन लोप होते देखकर श्रुतविच्छेद के भय से और प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर १८० गाथा सूत्रों में उसका उपसंहार किया और उस विषय को स्पष्ट करने के लिए ५३ विवरण गाथाओं का भी निर्माण किया । अतः ५३ विवरण गाथाओं सहित उसकी संख्या २३३ गाथाओं के परिमाण को लिये हो गई । प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम पेज्जदोस पाहुड है। पेज्ज का अर्थ राग श्रीर दोस का श्रयं द्वेष है। अतः इसमें राग-द्वेष-मोह का विवेचन करने के लिये कर्मों की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया गया है। राग-द्वेष क्रोध, मान, माया और लोभादिक दोषों की उत्पत्ति, स्थिति, तज्जनित कर्मबन्ध और उनके फलानुभवन के साथसाथ उन रागादि दोषों को उपशम करने — दवाने, उनकी शक्ति घटाने, क्षीण करने ग्रात्मा में से उनके अस्तित्व को मिटा देने, नूतन अंध रोकने और पूर्व में संचित कषाय मल चक्र को क्षीण करने- उसका रस सुखाने - पोर श्रात्मा के शुद्ध एवं सहज विमल अकषाय भाव को प्राप्त करने का सुन्दर विवेचन किया गया है । मोह कर्म मात्मा का सबसे प्रबल शत्रु है, राग-द्वेषादिक दोष मोह कर्म को ही पर्याय हैं। कर्म किस स्थिति में और किस कारण से आत्मा के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, उनके सम्बन्ध से आत्मा में कैसे सम्मिश्रण होता है और उनमें किस - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरगपर पतलायेपाल विविस्तार तरह फलदान की शक्ति उत्पन्न होती है और कर्म कितने समय तक प्रात्मा के साथ संलग्न रहते हैं आदि का विस्तत. और स्पष्ट विवेचन किया गया है । ग्रन्थ सोलह अधिकारों में विभक्त है-१. पेज्जदोस विभक्ति - इस अधिकार में संसार में परिभ्रमण का कारण कर्म बन्ध बतलाया है और उस कर्मबन्ध का कारण है राग-द्वेष । रागद्वेष का ही दूसरा नाम कषाय है। इसके स्वरूप और भेद-प्रभेदों का इसम विस्तार पूर्वक कथन किया गया है। २. स्थिति विभक्ति-प्रथम अधिकार में प्रकृति विभक्ति, स्थिति विभक्ति प्रादि छह अवान्तर अधिकार बतलाये हैं। उनमें प्रकृति विभक्ति का वर्णन प्रथम अधिकार में दिया है । और कर्मप्रकृति का स्वरूप, कारण एवं भेद-प्रभेदों का इसमें वर्णन है। ३. अनुभाग विभक्ति-कर्मों की फल-दान-शक्ति का प्रतिपादन इस अधिकार में किया गया है। इसमें प्रदेशा, क्षीणाक्षीण पौर स्थित्यन्तक ये तीन अवान्तर अधिकार हैं। ४. बन्ध अधिकार- जीव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से पुद्गल परमा. णुनों का कर्मरूप से परिणमन होकर जीव के प्रदेशों के साथ एकक्षेत्र रूप से बंधने को बंध कहते हैं। इस अधिकार में कर्मबन्ध का निरूपण किया गया है। ५. संक्रम अधिकार-बंधे हुए कर्मों का यथासम्भव अपने अवान्तर भेदों में संक्रान्त या परिवर्तित होने को संक्रम कहते हैं । बन्ध के समान संक्रम के भी चार अवान्तर अधिकार हैं। प्रकृति संक्रम, स्थिति संक्रम, अनुभाग संक्रम और प्रदेश संक्रम। ६, बेवक अधिकार मोहनीय कर्म के फलानुभवन का वर्णन इस अधिकार में किया गया है। कर्म अपना फल उदय और उदीरणा से भी देते हैं। स्थिति के अनुसार निश्चित समय पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं । और उपाय विशेष से असमय में ही निश्चित समय के पूर्व फल देने को उदीरणा कहते हैं । यथा--पान का समय पर पक कर स्वयं गिरना उदय है, और पकने से पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदि में पका देना उदीरणा है। उदय और उदीरणा का अनेक अनुयोग द्वारों से विवेचन किया गया है।। ७. उपयोग अधिकार- जीव के क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामों के होने को उपयोग कहते हैं। इस अधिकार में क्रोधादि चारों कषायों के उपयोग का वर्णन किया गया है। और बतलाया गया है कि एक जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है । कषाय और जीव के सम्बन्धों का विभिन्न दृष्टिकोणों से विवे. चन किया है। ८. चतुःस्थान अधिकार इस अधिकार में शक्ति की अपेक्षा कषायों का वर्णन किया गया है। क्रोध चार प्रकार का है-पाषाण रेखा के समान । जिस तरह पाषाण पर खींची गयी रेखा बहुत समय के बाद मिटती है, उसी प्रकार जो क्रोध तीव्र रूप में अधिक समय तक रहने वाला हो, वह पाषाण रेखा के तुल्य है। यही क्रोध कालान्तर में शत्रुता के रूप में परिणत हो जाता है। पृथ्वी, धूली और जल रेखायें उत्तरोत्तर कम समय में मिटती हैं। इस प्रकार श्रोध भी उत्तरोत्तर कम समय तक रहता है तथा उसकी शक्ति में भी तारतम्य निहित रहता है। उसी तरह अन्य कषायों का भी निरूपण किया गया है। १. व्यंजन अधिकार- व्यंजन शब्द का अर्थ 'पर्यायवाची शब्दों का निरूपण करना है। इस अधिकार में क्रोध के पर्यायवाची रोष, अक्षमा, कलह, विवाद, कोप, संज्वलन, द्वेष, झंझा, बुद्धि और क्रोध ये दश शब्द हैं । गुस्सा को क्रोध या कोप कहते हैं। क्रोध के ग्रावेश को रोष, शान्ति के प्रभाव को प्रक्षमा, स्व और पर दोनों को जलावेसन्ताप उत्पन्न करे उसे संज्वलन, दूसरे से लड़ने को कलह, पाप, अपयश और शत्रुता की वृद्धि करने को वृद्धि प्रत्यन्त संक्लेश परिणाम को झझा, ग्रान्तरिक अप्रीति या कलुषता को द्वेष, एवं स्पर्धा या संघर्ष को विवाद कहा है। मान के मान, मद, दर्प स्तम्भ और परिभव प्रादि । माया के माया, निकृति वंचना, सातियोग पौर मनुजूता प्रादि, लोभ के लोभ, राग, निदान. प्रेयस, मूछी मादि । कषाय के विविध नामों द्वारा अनेक ज्ञातव्य बातों पर नया प्रकाश पड़ता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १०. दर्शन मोहोपशमना अधिकार- दर्शन मोहनीय कर्म जीव को अपने स्वरूप का दर्शन, साक्षात्कार या यथार्थ प्रतीति से रोकता है। अतः उसके उपनाम होने पर कुछ समय के लिये उसकी शक्ति के दब जाने पर जीव अपने वास्तविक ज्ञान-दर्शन स्वरूप का अनुभवता है जिससे ह नाली शामद की उपलब्धि होती है। इस प्रधिकार में दर्शनमोह को उपशम करने की प्रक्रिया वर्णित है। ११. वर्शनमोहक्षपणा अधिकार-दर्शनमोह का उपशम होने पर भी कुछ समय के पश्चात् उसका उदय माने से जीवात्मा ग्रात्मदर्शन से वंचित हो जाता है। प्रात्म साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिये दर्शनमोह का क्षय करना मावश्यक है। दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है किन्तु उसको पूर्णता चारों गतियों में हो सकती है । प्रस्तुत अधिकार में दर्शनमोह के क्षय करने की प्रक्रिया का वर्णन है। १२. संयमासंयम लम्धि-अधिकार-आत्मस्वरूप के साक्षात्कार के पश्चात् जीव मिथ्यात्व रूपी कीचड़ से निकल आता है और विषय-वासना रूपी पंक में पुनः लिप्त न हो इस कारण देश संयम का पालन करने लगता है। इस अधिकार में देश संयम को प्राप्ति, सम्भावना और उसकी विघ्न-बाधामों का वर्णन किया गया है। प्रात्मशोधन के मार्ग में अग्रसर होने के लिए इस अधिकार की उपयोगिता अधिक है। संयमासंयमलब्धि के कारण हो जीव प्रतादि के धारण करने में समर्थ होता है। १३. संचमलब्धि प्रधिकार-यात्मा की प्रवृत्ति हिंसा, असत्य, चौर्य, प्रब्रह्म और परिग्रह से हट कर अहिंसा, सत्य प्रादि प्रतों के अनुष्ठान में संलग्न हो सके। क्योंकि प्रात्मोत्थान का साधन संयम ही है। इसका विवेचन प्रस्तुत अधिकार में किया गया है। १४. चारित्र मोहोपशमना अधिकार-इसमें चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम का विधान बतलाते हुए उपशम, संक्रमण और उदीरणादि भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है। १५. चारित्र मोहक्षपणा अधिकार-चारित्र मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों का क्षय क्रम, क्षय की प्रक्रिया में होने वाले स्थितिबन्ध और सभी तत्त्वों का विवेचन किया गया है। "इस कषाय पाहड पर प्राचार्य यतिबषभ ने छः हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्रों की रचना की। जो कषाय पाहुड सुत्त के साथ वीर शासन संघ कलकत्ता से प्रकाशित हो चुके हैं। इस ग्रन्थ पर और भी अनेक टीकाएं रही हैं, किन्तु वे इस समय उपलब्ध नहीं हैं ! हाँ, वीरसेन जिनसेन द्वारा लिखित जयधवला टीका प्राप्त है, जो पाक संवत् ७५६, सन् ८३७ में रची गई है और जिसका प्रकाशन भा० दि. जैन संघ मथुरा से हो रहा है । समय विचार प्राचार्यप्रवर गुणघर में अपनी गुरु-परम्परा का कोई उल्लेख नहीं दिया और न ग्रन्थ का रचना-काल ही दिया है। अन्य किसी पट्टावली आदि से भी गणधर की गुरु-परम्परा का बोध नहीं होता। अर्हवली या गुप्तिगुप्त द्वारा स्थापित संघों में एक संघ का नाम गुणधर संध होने से गुणश्वर का समय अहंवली से पूर्ववर्ती है, क्योंकि महंबली को गुणधर की उस परम्परा का ज्ञान नहीं था। प्राकृत पट्टावली में अहंवली का समय वोर-निर्वाण संवत् ५६५ सन् ३८ है। घरसेनाचार्य तो महंबली के समसामयिक हैं, क्योंकि युग प्रतिक्रमण के समय दो सुयोग्य विद्वान् साधुनों को जो ग्रहण-धारण में समर्थ थे धरसेन के पास भेजा था। यदि अर्हबली को गुणधर की गुरुपरम्परा का ज्ञान होता तो वे अपने शिष्यों से उसका उल्लेख अवश्य करते । अधिक समय बीत जाने के कारण उनकी परम्परा का ज्ञान नहीं रहा, पर उनके प्रति बहुमान अवश्य रहा। किन्तु गुणधर की परम्परा को पर्याप्त यश मर्जन करने पर ही 'गुणघरसंघ' संज्ञा प्राप्त हुई होगी। यदि उस यश अर्जन का काल सौ वर्ष माना जाय तो गुणधर का समय ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दि सिद्ध होता है। बहबली-- इनका दूसरा नाम भूप्तिगुप्त भी था । ये अंग पूर्वी के एकदेशपाठी और आरातीय प्राचार्यों के बाद हए हैं। ये पूर्व देश में स्थित पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी, और अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता, संघ के १. श्रीमानशेषनरनायकवन्दिताधि श्रीगुप्तिगुप्त इति बिधुत नामधेयाः ।।जन्दि संघ पट्टावली Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ अर्हवली तपस्वी, विद्वान और निग्रह अनुग्रह करने में समर्थ प्राचार्य थे । उस समय पुण्ड्रवर्धन नगर के जैन श्रमण संघ नायक के रूप में प्रसिद्ध थे। उस समय संघ में अनेक विद्वान तस्वरे विद्यमान थे, जो ध्यान और अध्ययन आदि में तत्पर रहते थे । इनके समय तक मूल दिगम्बर परम्परा में प्रायः संघ-भेद प्रकट रूप में नहीं हुआ था। उस समय देश में स्थित वेण्णा नदी के किनारे बसे हुए वैष्णा नगर में पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा यति सम्मेलन हुआ था, जिसमें सौ योजन तक के मुनि गण ससंघ सम्मिलित हुए थे। उस समय चन्द्रगुहा निवासी आचार्य धरसेन ने अपनी श्रायु अल्प जान ग्रन्थ- व्युच्छित्ति के भय से एक पत्र ब्रह्मचारी के हाथ उक्त सम्मेलन में जिसे पढ़कर आदर्श बली ने ग्रहण धारण में समर्थ दो मुनियों को धरसेनाचार्य के पास भेजा था जो प्रायणी पूर्व स्थित पंचम वस्तुगत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभृतज्ञ थे, और वृद्ध तपस्वी थे। अंग पूर्वो का एक देश ज्ञान उन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था। सम्भवत वली उन मुनियों के दीक्षा गुरु रहे हों 1 आचार्य धरसेन ने उन दोनों मुनियों को शुभ वार श्रीर शुभ नक्षत्र में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया था । विविध संघों की स्थापना आचार्य अर्हद्बली ने उक्त सम्मेलन में समागत साधुकों से पूछा आप सब लोग श्रा गये। तब उन्होंने कहा— हम अपने-अपने संघ सहित या गए। उन साधुओं की भावनाओं से पक्षपात एवं श्राग्रह की नोति जानकर, 'नन्दि', 'वीर', 'अपराजित', 'देव', 'पंचस्तूप', 'सेन', 'भद्र', 'गुणधर', 'गुप्त', 'सिंह' और 'चन्द्र' आदि नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये। जिससे उनमें एकता तथा अपनत्व की भावना, धर्मवात्सल्य और प्रभावना को अभिवृद्धि बनी रहे। इससे अली मुनि संघ प्रवर्तक, कहे जाते हैं। वे पंचाचार के स्वयं पालक थे । श्रहंली से पूर्व सम्भवतः संघों के विविध नाम नहीं थे। विविध संघों की स्थापना अंबली के समय से हुई है। उनसे पूर्व वह जैन निर्ग्रन्थ संघ के नाम से विधुत था । प्राकृत पट्टावली के अनुसार इनका समय वीर निर्वाण संवत् ५६५ ( वि० सं० १५ ) ईस्वी सन् ३८ हैं । और यह काल २८ वर्ष बतलाया है। यहाँ यह बात खास तौर से विचारणीय है कि प्राचार्य अर्हवली को धरसेन और गुणधर की गुरु परम्परा का ज्ञान न था, किन्तु उनके प्रति हृदय में बहुमान अवश्य था । सम्भव है, उनकी कृति 'कसायपाहूड' उस समय विद्यमान थी । इसीसे उन्होंने 'गुणघर' नाम का संघ भी कायम किया था। गुणधर का समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है । तिलोय पण्णत्ती और धवलादि ग्रन्थों में जो श्रुत परम्परा दी है, वह लोहार्य तक है। उनमें महंदु बलि, धरसेन, माधनन्दि और पुष्पदन्त भूतबली का उल्लेख नहीं है। इनके अनुसार इनका समय लोहार्य के बाद पड़ता है। १. सर्वाङ्ग देशक देशवित्पूर्व देश मध्यगते । श्री पुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽहंदुवत्याख्यः ॥ ८५ स चतत्प्रसारणा धारणा विशुद्धाति सत्कियो युक्तः । अष्टांग निमित्तज्ञः संधानुग्रह निग्रह समर्थ: ॥ ५६ आस्त संवत्सरपञ्चकावसाने युग प्रतिक्रमणम् । कुर्वन्योजनशतमात्रतमुनिजनसमाजस्य ॥ ८७ अथ सोऽयदा युगान्ते कुर्वन् भगवान्युगप्रतिक्रमणम् ।। मुनिजनवृन्दमपृच्छतिक सर्वेऽप्यागता यत ॥ ८८ - इन्द्रनदि श्रुतावतार २. क्योंकि श्रवणबेलगोल के शिलालेख १०५ में पुष्पदन्त और भूतजलि को स्पष्ट रूप से संभभेदको अवलो शिष्य कहा है । ४. इन्द्रनन्दिनावतार - ६१ श्लोक से ६६ श्लोक तक के पथ--- इन्द्रनन्दि श्रुतावतार | २. इन्द्रनदि श्रुतावतार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्राचार्य धरसेन पसियउ मह धरसेणो पर-वाइ-गमोह-वाण-बरसीहो। सिद्धनामिय-सायर-तरंग-संधाय-धोय-मणो।।। मुनि पुंगव धरसेन सौराष्ट्र (गृजरात काठियावाड़) देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी, अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान थे। उन्हें अंग प्रार पूर्वो का एकदेश ज्ञान प्राचार्य परम्परा से प्राप्त हुमा था। प्राचार्य घरसेन अग्रायणी पूर्व स्थित पचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभूत के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित हो अंग-श्रुत के विच्छेद हो जाने के भय से किसी ब्रह्मचारी के हाथ एक लेख दक्षिणापथ के प्राचायों के पास भेजा। लेख में लिखे गए धरसेनाचार्य के वचनों को भली भांति समझ कर उन्होंने ग्रहणधारण में समर्थ, देश-कुल-जाति से शुद्ध और निर्मल बिनय से विभूषित, समस्त कलाओं में पारंगत दो साधनों को प्रान्घ्र देश में बहने वाली वेणा नदी के तट से भेजा।। मार्ग में उन दोनों साधुनों के प्राते समय, जो कुन्द के पूष्प, चन्द्रमा और शंख के समान सफेद वर्ण वाले हैं, समस्त लक्षणों से परिपूर्ण हैं, जिन्होंने प्राचार्य धरसेन की तीन प्रदक्षिणा दी हैं, और जिनके अंग नम्रीभूत होकर प्राचार्य के चरणों में पड़ गए हैं ऐसे दो बैलों को धरसेन भट्टारक ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में देखा। इस प्रकार के स्वप्न को देख कर सन्तुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने 'श्रुत देवता जयवन्त हो ऐसा वाक्य उच्चारण कियः । .. उसी दिन दक्षिणा पथ से भेजे हुए दोनों साधु धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। धरसेनाचार्य की पाद वन्दना मादि कृति' कर्म करके तथा दो दिन बिता कर तीसरे दिन उन दोनों साधनों ने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि इस कार्य से हम दोनों आपके पादमुल को प्राप्त हुए हैं। उन दोनों साधनों के इस प्रकार निवेदन करने पर 'अच्छा है, कल्याण हो, इस प्रकार कह कर धरसेनाचार्य ने उन दोनों साधुनों को आश्वासन दिया। धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा ली, एक को अधिकाक्षरी और दूसरे को होनाक्षरी विद्या बता कर उन्हें षष्ठोपवास से सिद्ध करने को कहा । जब विद्याएं सिद्ध हई तो एक बड़े दांतों वाली और दूसरी कानी देवी के रूप में प्रकट हुई। उन्हें देख कर चतुर साधकों ने मन्त्रों की त्रुटि को जानकर अक्षरों की कमी-वेशी को दूर कर साधना की तो फिर देवियां अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुई। उक्त दोनों मुनियों ने घरसेन के समक्ष विद्या-सिद्धि सम्बन्धी सब बत्तान्त निवेदन किया, तब धरसेनाचार्य ने कहा - बहुत अच्छा । इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया । धरसेन का अध्यापन कार्य प्राषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वाह काल में समाप्त हुमा। अतएव सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यन्तर देवों ने उन दोनों में एक की पुष्पावली से तथा शंख और तूर्य जाति १. नदो सम्बेसि -पुब्वाणमेगदेशो आइरियपरम्पराए मागच्छमायो धरसेरणाहरियं संपत्तो। -धवला. पु० १ ० ६३ । २. सोरठ्ठ-विसर-गिरिणयर-पट्टण-चंदगृहा-टिएण अटठंग-मानिमित-पाराण गंथ वोटोदो हो हदिति जति भाग पवयण-वच्छलेरा दक्षिणावहारियाणं महिमा मिलिमाण नेहो पेसिदो। लेटिट्य-बरसेग-वयरामवधारिय ते हि दि आइरिएहि वे माह गहण-धारण-समत्था धवलामलबहुविह-विशय-दिहसियगा सोलमालाहा गुरु पेमणासतित्ता देस-कुल-जाइ-सुद्धा सयलकसा-पारमा तिख़त्ता बुच्छियाइरिया अंध विमय-वरणाबडादो पेसिदा । (घवला पृ० १ पृ० ६७) उज्जिते गिरि सिहरे परमेषो धरइ वय समिदिगुत्ती। चंदगुहाइ लिबासी भवियह तसु समहु पय जुयलं ।। ८१ अग्गायणीय णाम पंचम वत्युगद कम्मपाहुडया । पडिट्टिदिअणुभागो जागति पदेसबंधो वि ।। ६२ (श्रुन कंध बाहेमचन्द्र) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 19 माधनन्दि के वाद्यविशेष के नाद से बड़ी भारी पूजा की। उसे देख कर धरसेन भट्टारक ने उनका भूतबलि नाम रक्खा | और जिनको भूतों ने पूजा को और अस्त व्यस्त दन्तपंक्ति को दूर कर उनके दांत समान कर दिये, अतः धरसेन भट्टारक ने दूसरे का नाम गुष्पदन्त रक्खा । पश्चात् दूसरे दिन वहां से उन दोनों ने गुरु की ग्राज्ञा से चल कर अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षाकाल बिताया। धरसेनाचार्य ने दोनों शिष्यों को इस कारण जल्दी वापिस भेज दिया, जिससे उन्हें गुरु के दिवंगत होने पर दुःख न हो। कुछ समय पश्चात् उन्होंने साम्य भाव से शरीर का परित्याग कर दिया। आचार्य धरसेन की एकमात्र कृति 'योनि पाहुड' है, जिसमें मन्त्र-तन्त्रादि शक्तियों का वर्णन है । यह ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आया। कहा जाता है कि वह रिसर्च इन्स्टिट्यूट पूना के शास्त्र भण्डार में मौजूद है । माघनन्दि सिद्धान्ती - नन्दि संघ को पट्टावली में मबली के बाद माघनन्दि का उल्लेख किया है और उनका काल २१ वर्ष बतलाया है। जम्बूद्वीप पण्णत्ती के कर्ता पद्मनन्दी ने माघनन्दि का उल्लेख करते हुए बतलाया है कि वे राग-द्वेष और मोह से रहित, श्रुतसागर के पारगामी, मतिप्रगल्भ, तप और संयम से सम्पन्न, लोक में प्रसिद्ध थे । श्रुतसागर पारगामी पद से उन माघनन्दि का उल्लेख ज्ञात होता है जो सिद्धान्तवेदी थे। इनके सम्बन्ध में एक कथानक भी प्रचलित है। कहा जाता है कि माघनन्दि मुनि एक बार चर्या के लिये नगर में गए थे। वहाँ एक कुम्हार की कन्या ने इनसे प्रेम प्रगट किया और वे उसी के साथ रहने लगे। कालान्तर में एक बार संघ में किसी सैद्धान्तिक विषय पर मतभेद उपस्थित हुआ और जब किसी से उसका समाधान नहीं हो सका, तब संघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनन्दि के पास जाकर किया जाय । अतएव साधु माघनन्दि के पास पहुँचे और उनसे ज्ञान की व्यवस्था मांगी। तब माघनन्दि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी यह सत्कार देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया- आपके श्रुतज्ञान का सदैव श्रादर होगा ।' यह सुनकर माघनन्दि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर संघ में मा मिले और प्रायश्चित किया । माधनन्दि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे घड़ों पर थाप देते समय गाते हुए एक ऐतिहासिक स्तुति बनाई थी, जो अनेकान्त में प्रकाशित हो चुकी है। पर वह इन्हीं माधनन्दि की कृति है, इसके जानने का कोई प्रामाणिक साधन देखने में नहीं भाया । शिला लेख नं० १२६ में बिना किसी गुरु शिष्य सम्बन्ध के माघनन्दि को प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है । यथा नमो नम्रजनानन्वस्यन्विने माघनन्दिने । जगप्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने विप्रमेदिने ॥ माघनन्दि नाम के और भी सैद्धान्तिक विद्वान हुए हैं। पर वे इनसे पश्चाद्वर्ती हैं, जिनका परिचय प्रागे दिया जायेगा । प्रस्तुत माघनन्दि के शिष्य 'जिनचन्द्र' बतलाए गए हैं। पर उनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता । पुष्पदन्त और भूतबली- ये दोनों महेंदुली के शिष्य थे। दक्षिण भारत के प्रान्ध्र देश के वेणातट नगर प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा मुनि सम्मेलन हुआ था। उस समय सौराष्ट्र देश के गिरिनगर ( वर्तमान जूनागढ़) हा निवासी मात्रायें घरसेन ने जो ममायणी पूर्व के पंचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभूत के में युग में स्थित १. पुरणो तद्दिवसे चैव पेसिदा संतो 'गुरु-जवण मलपरिज्ज' इविचितिणामयेहि अंकुलेसर वरिसाकाली कमी। जोगे समानीय जिवालिये बहूण पुप्फयंताइरियो बगवास विसयं गयो । भूदवलि-भारमो वि दमिलदेस गयो । २. जोणि पाहुडे भणिद-मंत संत सतीष पोषणलाणुभागी लि येतो' -- अनेकान्त वर्ष २ जुलाई ३. यः पुष्पदन्तेन च भूतस्यास्येनावविष्यद्वितीयेन रेजे। फल प्रदानाय जगज्जननी प्राप्तोऽङ्कुराभ्यामिव कल्पभूजः ॥ — जैन विलालेख सं० भा० १ लेल १०५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ज्ञाता थे । वे उस समय के साधुओं में बहुश्रुत विद्वान तथा अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन वात्सल्य एवं श्रुतविच्छेद के भय से एक लेखपत्र देण्यातट नगर के मुनि सम्मेलन में दक्षिणापथ के आचार्यो के पास भेजा । जिसमें देश, कुल, जाति से विशुद्ध शब्द अर्थ के ग्रहण - धारण में समर्थ, विनयी दो विद्वान साधुओं को भेजने की प्रेरणा की गयी। संघ ने पत्र पढ़कर दो योग्य साधुओं को उनके पास भेजा।' इस सम्मेलन में ही सर्वप्रथम निग्रं न्य दिगम्बर संघ में नन्दि सेन, सिंह, भद्र, गुणषर, पंचस्तूप प्रादि उपसंघ उत्पन्न हुए थे और उनके कर्ता ग्रहंबली थे । यह सम्मेलन संभवतः सन् ६६ ई० पू० में हुआ था । उन विद्वानों के थाने पर आचार्य धरसेन ने उनकी परीक्षा कर 'महा कर्म प्रकृति प्राभूत' नाम के ग्रन्थ को शुभ तिथि शुभ नक्षत्र और शुभ वार में पढ़ाना प्रारम्भ किया अ.र उसे कम से व्याख्यान करते हुए प्राषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वाह काल में समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त होने से सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक की पुष्पावली तथा शंख और तू जाति के वाद्य विशेष के नाद से व्याप्त बड़ी पूजा की । उसे देखकर प्राचार्य धरसेन ने उनका भूतबलि नाम रक्खा । श्रीर दूसरे की प्रस्त-व्यस्त दन्त पंक्ति को दूर किया, अतएव उनका नाम पुष्पदन्त रक्खा । ७२ . ये दोनों ही विद्वान गुरु की प्राज्ञा से चलकर उन्होंने अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षा काल बिताया। वर्षा योग को समाप्त कर और जिनपालित को लेकर पुष्पदन्त तो उसके साथ वनवास देश को गये। और भूतबलि भट्टारक मिल देश को चले गए। पश्चात् पुष्पदन्ताचार्य ने जिनालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर, पश्चात् उन्हें भूतबलि याचार्य के पास भेजा। उन्होंने निमोलित के पास वीसप्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्र देखे और पुष्पदन्त को अल्पायु जानकर महाकर्म प्रकृति प्राभूत के विच्छेद होने के भय से द्रव्य प्रमाणानुगम से लेकर जीवस्थान, क्षुद्रक बन्ध, बन्ध स्वामित्वविचय, वेदना, afer atर महाबन्ध रूप षट् खण्डागम की रचना की। ये दोनों ही प्राचार्य राग-द्वेष-मोह से रहित हो जिन वाणी के प्रचार में लगे रहे। इन्द्रनन्दि और ब्रह्म हेमचन्द्र के श्रुतावसार से ज्ञात होता है कि जब षट्खण्डागम की रचना पूर्ण हुई, तब चतुविध संघ सहित पुष्पदन्त भूतबलि प्राचार्य ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को ग्रंथराज की बड़ी भक्तिपूर्वक पूजा की । उसी समय से श्रुतपंचमी पर्व लोक में प्रचलित हुम्रा । षट् खण्डागम की महत्ता इसलिये भी है कि उसका सीधा सम्बन्ध द्वादशांग वाणी से है। क्योंकि अग्रायणी पूर्व के पाँचवें अधिकार के चतुर्थ वस्तु प्राकृत का नाम महाकमंप्रकृति प्राभृत है, उससे षट्खण्डागम की रचना हुई है। जैसा कि घवला पुस्तक ९ पृष्ठ १३४ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :- पियस्स पुध्वस्त पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्म पयड़ीणाम । अतएव द्वादशांग वाणी से उसका सम्बन्ध स्पष्ट ही है । षट् लण्डागम परिचय १ जीवस्थान – में गुणस्थान और मार्गणा स्थानों का आश्रय लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, १. सो विसगिरियर, पट्टण- चंदगुहा- ट्टिए मणिमत्तवारएण गंध-वोच्छेदो होदिति जात भएण पववरण वच्छलेखा दविरगावहाइरियाणं महिमाए मिलिया हो पेसिदो लेहट्टिय- घर से रण वयरणमवधारय तेहि वि आइरिएहि ये साहू ग्रहण-धारण समत्या घवसामल-बहुविहविलय विसियंगा सीलमालाहरा गुरुसरणास पतित्ता देस कुलजाइ सुद्धा सरकला पारवा तिषखुतावुच्छपादरिया अन्धविसयवेणायडादो पेसिदा । - धव० पु० १ पृ० ६७ २. भूदल भयव वा जिरणवासिद पासे दिवीसदि सुत्ते अप्पाउओ कि अवगय जिस वालिदेश महाकम्मपय पाहूउस्स वोच्छेदो होहदिति समुप्पण्ण बुद्धि या पुणो दब्वपमा गुणुगमादि काऊरा गंथरचना कदा | -- धवला० पुस्तक १ पृ० ७१ ज्येष्ठ सितपक्ष पञ्चभ्यां चतुर्वर्ण्य संघसमवेतः । तत्पुम्तकोपकर व्यंधात् क्रिया पूर्वक पूजाम् । श्रुतपंचमीति तेन तस्माति तिथिरिमं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजा कुर्वते जनाः ॥ इंद० ० १४३, १४४ । ब्रह्महेमचन्द्र श्रुतस्कन्ध गा० ८६ ८७ ३. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुणदन्त और भूतबनि भाव और अल्प बहुत्व इन पाठ अनुयोगद्वारों में से तथा प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थान समुत्कीर्तन, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति प्रागति इन नौ चलिकानों द्वारा संसारी जीव की विविध अवस्थानों का वर्णन किया गया है। खुद्दाबग्ध--इस द्वितीयखण्ड में बन्धक जीवों की प्ररूपणा स्वामित्वादि म्यारह अनुयोगों द्वारा गति आदि मार्गणा स्थानों में की गई है और अम्स में ग्यारह अनुयोग द्वारा चूलिका रूप 'महादण्डक' दिया गया है। [स्वामित्य-नामक ततीय खण्ड में बन्ध के स्वामियों का विचार होने से इसका नाम बन्ध स्वामित्व दिया गया है। इसमें गुणस्थानों और मार्गणा स्थानों के द्वारा सभी कर्म प्रकृतियों के बन्धक स्वामियों का विस्तार से विचार किया गया है। किस जोव के कितनी प्रकृतियों का बंध कहाँ तक होता है, किसके नहीं होता है, कितनी प्रकृतियों किस-किस गुणस्थान में ब्युच्छिन्न होती हैं, स्वोदय बन्ध रूप प्रकृतियाँ कितनी हैं और परोदय बाध रूप कितनी हैं । इत्यादि कर्म सम्बन्धी विषयों का बन्धक जीव की अपेक्षा से कथन किया गया है। वेदना-महाकम प्रकृति प्राभूत के २४ अनुयोगद्वारों में से जिन छह अनुयोगद्वारों का कथन भूतबलि प्राचार्य ने किया है उसमें पहले का नाम कृति और दूसरे का नाम वेदना है। बेदना का इस खण्ड में विस्तार से विवेचन किया गया है। वर्गणा - इस वर्गणा खण्ड में स्पर्श कर्म और प्रकृति अनुयोग द्वारों के साथ छठे बन्धन अनुयोग द्वार के अन्तर्गत बन्धनीय का अवलम्बन लेकर पुद्गल' वर्गमामा का कायन किया गया है, इस कारण इसका नाम वर्गणा दिया है। इन पार खंडों के प्रतिरिक्त भूतबलि आचार्य ने महाबन्ध नाम के छठवें खण्ड में प्रकृति बन्ध, स्थितिबंध अनुभाग बंध और प्रदेशबंध रूप चार प्रकार के बंध के विधान का विस्तार के साथ कथन किया है जिसका प्रमाण ब्रह्म हेमचन्द ने बालीस हजार श्लोक प्रमाण बतलाया है। और पांच खण्डों का प्रमाण छह हजार श्लोक प्रमाण सूत्र ग्रन्थ है । षट् खण्टागम महत्वपूर्ण प्रागम ग्रन्थ है। उसका उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों गौर ग्रन्थों पर प्रभाव मंकित है । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थदातिकादि ग्रन्थों में उसका अनुकरण देखा जाता है। पुष्पदन्त भूतबलि कौन थे? जैन अनुश्रुति में नहाण, नहपान और नरवाहन आदि नाम मिलते हैं। नहपान वमिदेश में स्थित बसुन्धरा नगरी का क्षहरात घंश का प्रसिद्ध शासक था। इसको रानी का नाम सरूपा था। नहपान अपने समय का एक वीर और पराक्रमी शासक था और वह धर्मनिष्ठ तथा प्रजा का संपालक था। नहपान के प्रपने तथा जामाता उषभदत्त या ऋषभदत्त और मंत्रो अयम के अनेक शिलालेख मिलते हैं, जो वर्ष ४१ से ४६ तक के हैं। नहपान के राज्य पर ईस्वी सन् ६१ के लगभग गौतमी पुत्र शातकर्णी ने भृगुकच्छ पर माक्रमण किया था। घोर युद्ध के बाद नहपान पराजित हो गया और युद्ध में उसका सर्वस्व विनष्ट हो गया। उसने संधि कर लो। १-जुनार के प्रभिलेख में नहपान की मन्तिम तिथि ४६ का उल्लेख है । यह शक संवत् की तिथि है। इससे स्पष्ट कि वह शक सं० ४६+७८ -१२४ ईस्वी में राज्य करता था। इसके बाद उसके राज्य पर गोतम पुत्र शातकर्णी ने पोर मुख के बाद अधिकार कर लिया था। शातकर्णी का एक लेख उसके राज्य के १८ वर्ष का मिला है। यह १०६ ईस्वी के लगभग सिंहासन पर बैठा होगा । दूसरा लेख नासिक मे २४वें वर्ष का मिला है। -देखो, प्राचीन भारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास १० ५२९ नासिक के दो अभिलेखों से स्पष्ट है कि उसने (गौतमी पुत्र शातकर्णी ने) छहरातवंश को पराजित कर अपने बंश का राज्य स्थापित किया था। जो गलबम्भी-मुद्राभाण्ड-से भी इस कथन की पुष्टि होती है। इस भाण्ड में तेरह हजार मुद्राए हैं जिन पर नहपान और गौतमी पुत्र दोनो के नाम अंकित हैं। इससे स्पष्ट है कि नहपान को पराजित करने के पश्चात् उसने उसकी मुद्राओं पर अपना नाम अंकित करने के बाद फिर से उन्हें प्रसारित किया । -देखो प्राचीन भारत का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पु०५२७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सातवाहन ने इस विजय के उपलक्ष्य में नहपान के सिक्कों को प्राप्त कर और उन पर अपने नाम की मुहर अंकित कर राज्य में चालू किया। वह उस समय वहाँ आया हुआ था। उसमें नहपान ने अपने मित्र मगध नरेश को मुनि रूप में देखकर और उनके उपदेश से प्रेरित हो अपने जगता समदत्त को राज्यभार सौंप कर अपने राज्य श्रेष्ठि सुबुद्धि के साथ मुनि दीक्षा ले ली। इन दोनों साधुओं ने संघ में रहकर तपश्चरण तथा आवश्यकादि क्रियानों के अतिरिक्त ध्यान प्रध्ययन द्वारा ज्ञान का अच्छा अर्जन किया, यह अत्यन्त बिनयी विद्वान और ग्रहण धारण में समर्थ थे । इन दोनों साधुपों को भाचार्य धरसेन के पास गिरि नगर भेजा गया था। प्राचार्य धरसेन ने इनकी परीक्षा कर महाकर्मप्रकृति प्राभूति पढ़ाया था। इनमें एक का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदन्त रक्खा गया था। उनका दीक्षा नाम क्या था, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। नरवाहन या नहपान राजा भूतिबलि हुआ। और राजश्रेष्ठि सुबुद्धि पुष्पदन्त के नाम से ख्यात हुए। बिबुध श्रीपर के श्रुतावतार में इनका उल्लेख है। और नरवाहन को भूतबलि और सूबुद्धि सेठ को पुष्पदन्त बतलाया गया है। कुन्दकुन्दाचार्य भारतीय जन श्रमण परम्परा में मुनिपुंगव कुन्दकुन्दाचार्य का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। वे उस परम्परा के प्रवर्तक पाचार्य नहीं थे। किन्तु उन्होंने माध्यात्मिक योग शक्ति का विकास कर अध्यात्मविद्या की उस अवच्छिन्न धारा को जन्म दिया था। जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति प्रास्मानन्द की जनक थी और जिसके कारण भारतीय श्रमणपरम्परा का यश लोक में विश्रुत हुया था। श्रमण-कुल-कमल-दिवाकर प्राचार्य कुन्दकुन्द जैन संघ परम्परा के प्रधान विद्वान एवं महर्षि थे। वे बड़े भारी तपस्वी थे। क्षमाशील और जैनागम के रहस्य के विशिष्ट ज्ञाता थे। वे मुनि-युगव रत्नत्रय से विशिष्ट पौर संयम निष्ठ थे । उनकी पात्म-साधना कठोर होते हुए भी दुःख निवृत्ति रूप सुखमार्ग की निदर्शक थी। वे प्रहकार ममकार रूप कल्मष-भावना से रहित तो थे ही। साथ ही, उनका व्यक्तित्व असाधारण था। उनकी प्रशान्त एवं यथाजात मुद्रा तथा सौम्य प्राकृति देखने से परम शान्ति का अनुभव होता था। वे भारम-साधना में कभी प्रमादी नहीं होते थे। किन्तु मोक्षमार्ग की वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । वास्तव में कुन्दकुन्द श्रमण-ऋषियों में मपणी थे। यही कारण है कि-'मंगलं भगवान वीरो' इत्यादि पब में निहित 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' वाक्य के द्वारा मंगल कार्यों में पापका प्रतिदिन स्मरण किया जाता है। कुन्दकुन्द.का दीक्षा नाम पपनन्दीपा। वे कोण्डकुण्डपुर के निवासी थे। गुण्टकल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की मोर लगभग पार मील पर कौण्ड कुण्डल नाम का स्थान है, जो अनन्तपुर जिले के गुटी तालुके में स्थित है। शिलालेख में उसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँ के निवासी इसे मान भी कोशकुन्दि कहते हैं । संभव हैकुम्बकुन्द का यही जन्म स्थान रहा हो । मतः उस स्थान के कारण उनको प्रसिद्धि कोयत्वाचार्य के नाम से हुई थी। जो गाव में कुन्दकुन्द इस अति मधुर नाम में परिणत हो गया था। मौर उनका संघ मूलसंप पौर 'कुम्बकुवाचार्य के नाम से लोक में प्रसिद्धि को प्राप्तामा और पाज भी वह उसी नाम से प्रचार में पा रहा है। १. तस्यान्वये भूपिदिते पमूव यः पानन्विप्रथमाभिवामः । श्रीकाशकुन्धादि मुनीश्वरस्परसंयमानुषगत बारादि। -जैन लेख सं. मा०११०२४ (क) श्री पचनन्दीत्यनबचनामा झाचार्य शाम्दोत्तरकोण्डकुन्दः ।। -जन लेख सं० प्रा० १ . ३४ २. देखो इंद्रनन्दि भुताचतार 1. जैनिज्म इन साउथ इंडिया Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दाचार्य वे मलसंध के अद्वितीय नेता थे । यद्यपि उन्होंने अपनी रचनामों में अपने संघका कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने अपनी गुरु परम्परा के रूप में या अन्य प्रकार से उनकी पवित्र कृतियों की मौलिकता के कारण या अपने संघ को 'मूलसंध' और अपनी परम्परा को 'कुन्दकुन्दाम्बव' सूचित किया है। वे ऐसा करने में अपना गौरव समझते थे। क्योंकि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट समीचीन मार्ग का अनुपम उपदेश दिया था। साथ ही, उसे अपने जीवन में उतारकर भरत क्षेत्र में श्रत की प्रतिष्ठा को थी' । उन्होंने पारमानुभूति के द्वारा धत केवलियों द्वारा प्रदर्शित आत्ममार्ग का उद्भावन किया था, जिसे जनता भूल रही थी। यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन श्रमणों में प्रधान थे। अापको प्राध्यात्मिक कृतियां अपनो सानी नहीं रखती, और वे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से यावरणीय मानी जाती हैं। उनकी मात्मा कितनी विमल थी, और उन्होंने कल्मष परिणति पर किस प्रकार विजय पाई थी, यह उनके तपस्वी जीवन से सहज ही ज्ञात हो जाता है। प्रटल नियम पालक मुनि-पुगव कुदकुन्द जैन श्रमण परम्परा के लिये आवश्यकीय मूलगुण और उत्तर गुणों का पालन करते थे और अनशनादि बारह प्रकार के अन्तर्वाश्य तपों का अनुष्ठान करते हुए तपस्वियों में प्रधान महर्षि थे। उन्होंने प्रवचनसार में जैन श्रमणों के मूलगुण इस प्रकार बतलाये हैं वव समिदिवियरोधो लोचावस्सय मचेलमण्हाणं । खिबिसयणमदंतवणं ठिविभोयण-मेगभरी ॥ एवं खलु मूलगुणा समणावं जिणवरेहि पणत्त। तेसु पमत्तो समणो छेदीवडावगो होदि । (३-७-८) पांचमहाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का निरोध, केशलोंच, षट् यावश्यकक्रियाएं, अचेलक्य (नग्नता अस्नान, क्षितिशयन, अदन्त-धावन, स्थिति भोजन और एक भुक्ति (एकासन) ये जैन श्रमणों में अदठाईस मलगण जिनेन्द्र भगबान ने कहे हैं । जो साधु उनके प्राचरण में प्रमादी होता है वह छेदोपस्थापक कहलाता है।" ग्रामों नगरों में ससंघ भ्रमण दे यथाजात रूपधारी महाश्रमण अनेक ग्रामों, नगरों में ससंघ भ्रमण करते थे, और अनेक राजारों, महाराजाओं, महात्मानों, राजथे प्टियों, श्रावक-श्राविकाओं और मुनियों के समूह से सदा मभिवन्दित थे, परन्तु उनका किसी पर अनुराग और किसी पर बिद्वेष न था। रिकारी कारणों के रहने पर भी उनका चित कभी विकत नहीं होता था, वे समदर्शी अमण जब गुप्ति रूप प्रवृत्ति में असमर्थ हो जाते थे, तव समिति में सावधानी से प्रवृत्त होते थे। क्योंकि उस समय भी वे अपने उपयोग की स्थिरता के कारण शुद्धोपयोग रूप संयम के संरक्षक थे, इसलिये समिति रूप प्रवृत्ति में सावधान साधु-के बाह्य में कदाचित् किसी दूसरे जीव का घात हो जाने पर भी वह प्रमत्तयोग के प्रभाव में हिंसक नहीं कहलाता, क्योंकि शुभोपयोग प्रवृत्ति संयम का घात करने वाली अन्तरंग हिंसा ही है, उससे ही बग्ध होता है, कोरी द्रव्य हिसा हिंसा नहीं कहलाती, किन्तु प्रयत्नाचार रूप प्रवृत्ति करने वाला साधु रागादि भाव के कारण षटकाय के जीवों का विगषक होता है। परन्तु जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान हैं-रागादिभाव से उनकी प्रवृत्ति अनुरंजित नहीं है, तब उसकी हलन-चलनादि क्रियामों से जीव की विराधना होने पर भी वह हिंसक नहीं कहलाता-- वह जल में कमल की तरह उस कर्मबन्धन से निलेप रहता है-शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भावना के बल १. बन्यो विउविन कैरिह कोण्डकुन्दः कुन्दप्रभारिणय-कीति-विभूषिताशः । यश्चारु-पारण-कगम्बुज चञ्चरोकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।। -जैन लेख सं० भा० ११.१०२ २. यही मूलगुण मूलाचार में भी बतलाए गए है। जो लोक में आचारंग रूप में प्रसिद्ध है। -- - - - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ से उसका अन्तःकरण बिमल एवं सर्वथा अदापण बना रहता है। __इस तरह महामुनि कुन्दकुन्द नगर से वाह्य उद्यानी, दुर्गम अटवियों, सघन वनों, तरु कोटरों, नदी पुलिनों गिरि शिखरों, पार्वतीय कन्दरामो में तथा भशान भूमियों (मरघटों) में निवास करते थे। जहां अनेक हिंसक जाति-विरोधी जीवों का निवास रहता था। शीत उष्ण डांस, मच्छर प्रादि को अनेक असह्य वेदनाओं को महते हुए भी वे अपने चिदानन्द स्वरूप से जरा भी विचलित नहीं होते थे । आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्त होते हुए भी वे महामुनि अपने जान दर्शन चारित्र रूप आम-गणों में स्थिर रहने के लिये एकान्त प्राशुक स्थानों में प्रात्म समाधि के द्वारा उस निजानन्द रूप परमपीयूष का पान करते हुए प्रात्म-विभोर हो उठते थे। परन्तु जब समाधि को छोड़कर ससारस्थ जीवों के दुःखों और उनकी उच्च नीच प्रवृत्तियों का विचार करते, उसी समय उनके हृदय में एक प्रकार की टीस एवं बेदना उत्पन्न होती थी, अथवा दया का स्रोत बाहर निकलता था। चारण अदि मौर यिदेह गमन इस तरह सम्यक तप के अनुष्ठान से आचार्य कुन्दकुन्द को चारण ऋद्धि की प्राप्ति हो गई थी जिसके फलस्वरूप वे पृथ्वी से चार अगुल ऊपर अन्तरिक्ष में चला करते थे । प्राचार्य देवसेन के 'दर्शनसार' से मालूम होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विदेह क्षेत्र में सीमधर स्वामी के समवशरण में गए थे और वहाँ जाकर उन्होंने दिव्य ध्वनि द्वारा आत्मतत्त्व रूपी सुधारस का साक्षात पान किया था। और वहां से लौटकर उन्होंने मुनिजनों के हित का मार्ग बतलाया था। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों से तो यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने चरणऋद्धि की प्राप्ति के साथ, भरत क्षेत्र में शतकी प्रतिष्ठा की थी-उन्होंने उसे समुन्नत बनाया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब तपश्चरण की महत्ता से मात्मा से निगड कर्म का बन्धन भी नष्ट हो जाता है तब उसके प्रभाव से यदि उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त हो गई तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्योंकि कुन्दकुन्द महामुनिराज थे, अतः जन जैसे असाधारण यक्ति के सम्बन्ध में जिस घटना का उल्लेख किया गया है उसमें सन्देह का कोई कारण नहीं है। और देवसेनाचार्य के उल्लेख से इतना तो स्पष्ट ही है कि विक्रम सं० १६० में उनके सम्बन्ध में उक्त घटना प्रचलित थी। अध्यात्मवाव और प्रात्मा का त्रैविध्य अध्यात्मवाद वह निर्विकल्प रसायन है। जिसके सेवन अथवा पान से प्रात्मा अपने स्वानुभवरूप प्रात्मरज में लीन हो जाता है, और जो प्रात्म सुधारस की निर्मल धारा का जनक है। जिसकी प्राप्ति से प्रात्मा उस ग्रात्मा नन्द में निमग्न हो जाता है, जिसके लिये वह चिरकाल से उत्कंठित हो रहा था। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रात्मानुभव की उस विमल सरिता में निमग्न होकर भी, संसारी जीवों की उस यात्मरस शून्य अनात्मरूप मिथ्या परिणति का १, सुषहरे तर हिट्ठ उजागो तह माण वासे वा।। गिरि-गुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ।। -वोध प्राभूत २. रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यंजयितु' यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।। -श्रवण वेल गोल लेख नं० १०५ ३. जह पपगंदिरशाहो सीम धरसामि-दिगणाणेरा। ण वि योहा तो समगा कहं सुमग पगाणंति ।। -दर्शनसार ४. वयो विभुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा प्रायकोति विभूषिताशः । यश्चारुच्चारण-कराम्बुजचंचरीश्चके श्रुतम्य भरते प्रयत: प्रनिमामः ।। -ववरण लेख नं.५४ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दाचार्य परिज्ञान किया। साथ ही, चाह-वाहरूप दु:ख-दावान से भुलसित श्रात्मा का अवलोकन कर उनका चित्त परम करुणा से माई हां गया. और उनके समुद्धार की कल्याणकारी पात्र भावना ने जोर पकड़ा। अतः उन्होंने स्वबर के भेद विज्ञानरूप ग्रात्मानुभव के बल से उस आत्मतत्व का रहस्य समझाने एवं आत्म-स्वरूप का बोध कराने के लिये 'सार' जैसी महत्वपूर्ण कृतियों का निर्माण किया । और उनमें जीव और बजीब के संयोग सम्बन्ध से होने वाली विविध परिणतियों का कर्मोदय से प्राप्त विचित्र अवस्थामों का उल्लेख किया और बतलाया कि 3 - हे श्रात्मन् ! पर द्रव्य के संयोग से होने वाली परिणतियां तेरी नहीं हैं और न तू उनका कर्त्ता त्त है। ये सब राग-द्वेष-मोह रूप विभाव परिषति का फल है । तेरा स्वभाव ज्ञाता द्रष्टा है, पर में ग्रान्म कल्पना करना तेरा स्वभाव नहीं है। तूं सच्चिदानन्द है, तू अपने उस निजानन्द स्वरूप का भोक्ता वन, उस श्रात्म स्वरूप का भक्ता बनने के लिये तुझे अपने स्वरूप का परिज्ञान होना मावश्यक है। तभी तेरा अनादि कालीन मिथ्या वासना से छुटकारा हो सकता है । इस श्रात्मा को तीन यवस्थाएं अथवा परिणतियां हैं बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमें से यह आत्मा प्रथम अवस्था से इतना रोगी हो गया है कि यह अनादिसे अपनी ज्ञान वर्णनादिरूप यानिधि को भूल रहा है और अचेतन (जड़) शरीरादि पर वस्तुनों में अपने श्रात्मस्वरूप की कल्पना करता हुआ चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमणकर असह्य एवं घोर वेदना का अनुभव कर रहा है, वह दुःख नहीं सहा जाता; किन्तु अपने द्वारा नाजि त कर्म का फल भोगे बिना नहीं छूट सकता, इसीसे उसे विलाप करता हुआ सहता है। जीव की यह प्रथम अवस्था ही संसार दुःख की जनक है, यही वह अज्ञान धारा है जिससे छुटकारा मिलते ही श्रात्मा अपने स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है । म्रात्मा की यह दूसरी अवस्था है जिसे अन्तरात्मा कहते है, वह आत्मज्ञानी होता हैउसे स्व स्वरूप और पररूप का अनुभव होता है। वह स्वपर के भेद - विज्ञान द्वारा भूली हुई उस श्रात्म-निधि का दर्शन पाकर निर्मल आत्म-समाधि के रस में तन्मय हो जाता है और सद्दृष्टि के विमल प्रकाश द्वारा मोक्षमार्ग का पथिक दन जाता है, और अतिम परमात्म अवस्था की साधना में तन्मय हुआ अवसर पाकर उस कर्म-श्रृंखला को नष्ट कर देता है- ग्रात्म-समाधि रूप चित्त की एकाग्र परिणति स्वरूप ध्याताग्नि से उसे भस्मकर अपनी अनन्त चतुष्टयरूप भ्रात्मनिधि को पा लेता है । - प्राचार्य कुम्कुभ्द की देन आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस ग्रात्मा के वैविध्य की कल्पना की है और उसके स्वरूप का निदर्शन करते हुए उसकी महत्ता एवं उसके अन्तिम लक्ष्य प्राप्ति की जो सूचना की है उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द की उस देन को उनके बाद के आचार्य ने अपने-अपने ग्रन्थों में आत्मा के चैविध्य को चर्चा की है और बहिरात्म अवस्था को छोड़कर तथा अन्तरात्मा बनकर परमात्म अवस्था के साधन का उल्लेख किया है। यच्छेवाङ मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञानमात्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेतचछेच्छान्त मात्मनि ॥ इस तरह भारतीय श्रमण परम्परा ने भारत को उस अध्यात्म विद्या का ग्रनुपम आदेश दिया है। इसीस श्रमण परम्परा की अनेक महत्वपूर्ण बातें वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में पाई जाती हैं। और वैदिक परम्परा की अनेक रूढ़ि सम्मत बातें श्रमण परम्परा के आचार-विचार में समाई हुई दृष्टिगोचर होती है; क्योंकि दोनों संस्कृतियों के समसामायिक होने के नाते एक दूसरी परम्परा के श्राचार-विचारों का परस्पर में आदान-प्रदान हुआ है। यही कारण है कि श्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रायः समान अथवा उससे मिलते जुलते रूप में आत्मा के वैविध्य की कल्पना का वह रूप कठोपनिषद के निम्न पद्य में पाया जाता है जिसमें ग्रात्मा के ज्ञानात्मा महदात्मा और शांतात्मा ये, तीन भेद किये गये हैं । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ छान्दयोग उपनिषद् में जो ग्रात्म-भेदों का उल्लेख किया गया है। उसके आधार पर डायरान ने भी आत्मा के तीन भेद किये हैं। शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा । इस तरह यह आत्म त्रैविध्य की चर्चा अपनी महत्ता को लिये हुए है । रचनाएँ ७६ आचार्य कुन्दकुन्द की निम्न कृतिय उपलब्ध हैं। पंचास्तिकाय प्राभृत, समयसार प्राभृत, प्रवचनसार प्राभृत, नियमसार, श्रष्टपाहुड - (दसणपाहुड, चरित पाहुड, सुत्त पाहुड, बोध पाहुड, भव पाहुड, मोक्ख पाहुड, सील पाहुड, लिङ्ग पाहुड) - वारस अणुवेक्खा और भक्तिसंगहो । इन रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग में पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, और समयसार आते हैं। और दूसरे भाग में अभ्य अष्ट प्राभृत आदि । इनमें प्रथम भाग कुन्दकुन्दाचार्य के जनतन्त्रानविषयक प्रौढ पाण्डित्य को लिये हुए हैं। और दूसरा भाग सरल एवं उपदेश प्रधान, आचार मूलक तत्त्व चिन्तन की धारा को लिये हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्य को शैली गम्भीर और सरस है, किन्तु विषय का प्रतिपादन सरलता से किया है। व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग का कथन कि जिसके हृदय मं करते दोनों का सामंजस्य बैठाया है। स्व समय पर समय का वर्णन करते हुए बतलाया अरहंत आदि विषयक अणुमात्र भी अनुराग विद्यमान है वह समस्त श्रागम का धारी होकर भी स्व-समय को नहीं जानता है। हुए 1 पंचास्तिकाय - इस ग्रन्थ का नाम पंचास्तिकाय प्राभृत है, क्योंकि इसमें मुख्यतया जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश रूप पांच अस्तिकाय द्रव्यों का वर्णन है । क्योंकि यह अणु अर्थात् प्रदेशों की अपेक्षा महान् हैबहुप्रदेशी है, इसी से इन्हें अस्तिकाय कहा है। ये समस्त द्रव्य लोक में प्रविष्ट होकर स्थित हैं, फिर भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं । इस ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ग्रन्थ के आदि में 'समय' कहने की प्रतिज्ञा की है। श्रीर जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म प्रकाश के समवाय को समय कहा है। इन पांचों द्रव्यों को पंचास्तिकाय कहा है। इन्हीं का इस ग्रन्थ में विशेष कथन किया गया है। सत्ता का स्वरूप बतला कर द्रव्य का लक्षण दिया है, और द्रव्य पर्याय और गुण का पारस्परिक सम्बन्ध बतलाते हुए सप्त भङ्ग के नामों का निर्देश किया है । काल द्रव्य के साथ पांच श्रस्तिकाय मिला कार द्रव्य छह होती है । षट् द्रव्य कथन के पश्चात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र को मोक्ष मार्ग बतलाते हुए सम्यग्दर्शन के प्रसंग से सप्त तत्वों का कथन किया है । ग्रन्थ के अन्त में निश्चय मोक्षमार्ग का बड़ी सुन्दरता स्वरूप बतलाया है । से इस ग्रन्थ पर दो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध हैं। जिनमें एक के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र हैं और दूसरी के कर्त्ता जयसेन । अमृतचन्द्र की टीकानुसार गाथाओं की संख्या १७३ है । और जयसेन की टीका के अनुसार १८१ है । प्रवचनसार - यह ग्रन्थ महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा का मौलिक ग्रन्थ है। इसमें २७५ गाथाएं हैं। और वे तीन श्रुतस्कन्धों में विभाजित हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञान की चर्चा ६२ गाथाओं में अंकित है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में ज्ञेय तत्व की चर्चा १०८ गाथाओं में पूर्ण हुई है। और तीसरे श्रुतस्कन्ध में ७५ गाथाओं द्वारा चारित्र तत्व का कथन किया गया है । श्राचार्य कुन्दकुन्द की यह कृति बड़ी ही महत्वपूर्ण है। यह कृति उनकी तत्वज्ञता, दार्शनिकता श्रीर आचार की प्रवणता से ओत-प्रोत है। इसके अध्ययन से उनकी विद्वत्ता, तार्किकता और आचार निष्ठा का यथार्थ रूप दृष्टिगोचर होता हैं। इसमें जैन तत्व ज्ञान का यथार्थ रूप बहुत ही सुन्दरता से प्रतिपादित है । ग्रन्थ के प्रथम श्रुतस्कन्ध में इन्द्रिजन्य ज्ञान और इन्द्रियजन्य सुख को हेय बतलाते हुए। अतीन्द्रियज्ञान श्रीर अतीन्द्रिय सुख को उपादेय बतलाया है। और भतीन्द्रिय ज्ञान तथा प्रतीन्द्रिय सुख की सिद्धि करते हुए हृदयग्राही युक्तियों से आत्मा की सर्वज्ञता को सिद्ध किया गया है । दूसरे श्रुतस्कन्ध में द्रव्यों की चर्चा की है, वह पंचास्तिकाय Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ कुन्दकुन्दाचार्य की चर्चा से मौलिक और विशिष्ट है। इसमें द्रव्य के सत् उत्पाद व्यय श्रीव्यात्मक और गुण पर्यायात्मक रूप लक्षणों का प्रतिपादन तथा समन्वय आत्मा के कर्तृत्वाकर्तृत्व का विचार तथा कालाणु श्रप्रदेशित्व का महत्वपूर्ण कथन किया गया है। तृतीय शुतस्कन्ध में चारित्र का वर्णन किया है। आत्मा की मोहादिजन्य विकारों से रहित परिणति चारित्र है, वही चारित्र धर्म है। चारित्र रूप धर्म से परिणत बात्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त है तो वह निर्वाण 'सुख को पा लेता है। निर्माण सुख अतीन्द्रिय है। वह कर्मक्षय के प्रभाव से मिलता है। आत्मोत्थ है, विषयों से रहित है, अनुपम है, और अनन्त है, उसका कभी विनाश नहीं होता । किन्तु इन्द्रिय जन्य सांसारिक सुख पराधीन है, बाधा सहित है-- उसमें क्षुधा तृपादि की बाधाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। वह विषम है और बन्ध का कारण है । ग्रन्थ में श्रमणों के आचार को महत्वपूर्ण बतलाया गया है। श्रमण का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है। कि - जिसके शत्रु और मित्र एक समान हैं। सुख और दुःख में समान है, प्रशंसा और विकारों में समान है, लोह और कंचन में समान है । जो जीवन और मरण में समता-समान भाव वाला है, वही श्रमण है। मोह से रहित ग्रात्मा के सम्यक् स्वरूप को प्राप्त हुग्रा जीव यदि राग और द्वेष का परित्याग करता है तो वह शुद्धात्मा को प्राप्त करता है । आज तक जितने अरहंत हुए हैं वे भी इसी विधि से कर्मों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त हुए हैं । समय प्राभूत इस ग्रन्थ पर आचार्य अमृतचन्द्र को 'तत्वप्रदीपिका' टीका और जयसेन की तात्पर्यवृत्ति, और बालचन्द्र अध्यात्मीकी टीकाएं उपलब्ध हैं, जिनमें ग्रन्थ के दिव्य सन्दर्भ का सुन्दर विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ का नाम समय प्राभृत है। इसमें शुद्ध आत्मतत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसके विषय का प्रतिपादक ग्रन्थ अनिल वाङमय में दूसरा नहीं है । इसमें सबसे पहले सिद्धों को नमस्कार किया गया है, जो पदार्थों को एक साथ जाने अथवा गुण पर्याय रूप परिणमन करे वह समय है। समय के दो भेद हैं- स्वसमय और परसमय । जो जीव अपने दर्शन ज्ञान चारित्र रूप स्वभाव में स्थित हो वह स्व समय है । और जो पुद्गल कर्मों की दशा को बतलाया है कि एकत्व विभक्त वस्तु ही लोक में सुन्दर अपनी दशा माने हुए है वह परसमय है। तीसरी गाथा होती है | अतः जीव के बन्ध की कथा से विसंवाद उत्पन्न होता है । काम भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा तो सब लोगों की सुनी हुई है, परिचय में श्राई है अतएव अनुभूत है किन्तु बन्ध से भिन्न श्रात्मा का एकत्व न कभी सुना, न कभी परिचय में भाया है और न अनुभूत ही है । अतः वह सुलभ नहीं है । उसी एकत्व विभक्त आत्मा का कथन निश्चय नय और व्यवहारनय से किया गया है। किन्तु निश्चयनय भूतार्थ, और व्यवहारतय अभूतार्थ है। इस बात को श्राचार्य महोदय ने उदाहरण देकर समझाया है । ग्रन्थ दश अधिकारों में विभाजित है -१. पूर्व रंग, २. जीवाजीवाधिकार, ३. कर्तृ कर्माधिकार, ४. पुष्य पापाधिकार, ५. आस्त्रवाधिकार, ६. संकाराधिकार ७. निर्जराधिकार, ८. बन्धाधिकार, ९. मोक्षाधिकार, १०. और सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार । कि भूतार्थनय से जाने गये जीव, अजीव, आस्रव, संवर, समय प्रामत की १३ वी गाथा में बतलाया निर्जरा, बन्ध और माक्ष सम्यक्त्व है । श्रतएव भूतार्थनय से ही इनका विवेचन ग्रन्थ में किया गया है । जीवा जीवाधिकार में जीव अजीव के भेद को दिखलाते हुए दोनों के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया है। योर बतलाया है कि जीव के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नहीं हैं और न वह शब्द रूप ही है । उसका लक्षण चेतना है, उसका आकार भी नियत नहीं है। और इन्द्रियादिक से उसका ग्रहण नहीं होता। किन्तु श्रात्मा को न जानने वाले आत्मा से भिन्न परभावों को भी संयोग सम्बन्ध के कारण आत्मा समझ लेते हैं। कोई राग-द्वेष की, कोई कर्म को, कोई कर्म फल को, शरीर को और कोई श्रध्यवसानादि रूप भावों को जीव कहते हैं। पर ये सब जीव नहीं है । क्योंकि ये सब कर्म रूप पुद्गल द्रव्य के निमित्त से होने वाले भाव हैं। अतः वे पुद्गल द्रव्य रूप हैं । जीव स्थानों और गुण स्थानों आदि को जीव कहा गया है वह व्यवहार से कहा गया है। क्योंकि व्यवहार का आश्रय लिये बिना परमार्थ का कथन करना शक्य नहीं है। अतएव इन सब श्रागन्तुक भावों से ममत्व बुद्धि का परित्याग कर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम-भागर नानी ऐसा मानता है कि एक उपयोग मात्र शाा शेम रूप हूँ। इनके अतिरिक्त अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है। दूसरे कत कर्माधिकार में बतलाया है कि यद्यपि जीव और अजीव दोनों द्रव्य स्वतन्त्र हैं। तो भी जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल कम वर्गणाएं स्वयं कर्म रूप परिणत हो जाती हैं। और पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव भी परिणमन करता है। तो भी जीव और पुद्गल का परस्पर में कर्ता कमपना नहीं है। कारण कि जीव पद्गल कर्म के किसी गुण का उत्पादक नहीं है, और न पुद्गल जीब के किसी गृण का उत्पादक है। केवल अन्योन्य निमित्त से दोनों का परिणमन होता है। अतएव जीव सदा स्वकीय भावों का कर्ता है। बह कर्मकृत भावों का कर्ता नहीं है। किन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण आवहारनय से जीव का पुद्गल कर्मों का, और पुदगल को जीद के भावों का कर्ता कहा जाता है। परन्तु निश्चयनय से जीव न पुद्गल कर्मों का कर्ता है और न भोक्ता है। अब रह जाते हैं मिथ्यात्य, प्रज्ञान, प्रविरति, योग, मोह और क्रोधादि उपाधि भाव, सो इन्हें कन्दकन्दाचार्य ने जीव-मजीव रूप दो प्रकार का बतलाया है। आत्मा जब प्रज्ञानादि रूप परिणमन करता है, तब राग-द्वेष रूप भावों को करता है और उन भावों का स्वयं कर्ता होता है। पर मज्ञानादि रूप भाव पुद्गल कर्मों के निमित्त के बिना नहीं होते। किन्तु अज्ञानी जीव परके और आत्मा के भेद को न जानता हुमा क्रोध को अपना मानता है, इसी से वह अज्ञानी अपने चैतन्य विकार रूप परिणाम का कर्ता होता है। और क्रोधादि उसके कर्म होते हैं। किन्तु जो जीव इस भेद को न जान कर कोधादि में प्रात्मभाव नहीं करता, वह पर द्रव्य का कर्ता भी नहीं होता। तीसरे पुण्य-पापाधिकार में पाप की तरह पुण्य को भी हेय बतलाते हए लिखा है कि---सोने की बेडी भी बांधती है और लोहे की बेज़ी भी बांधती है। प्रतः शुभ-अशुभ रूप दोनों ही कर्म बन्धक है। इसलिये उनका परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। जिस तरह कोई पुरुष खोटी पादत वाले मनुष्य को जानकर उसके साथ संसर्ग और राग करना छोड़ देता है। उसी तरह अपने स्वभाव में लीन पुरुष कर्म प्रकृतियों के शील स्वभाव को कुत्सित जानकर उनका संसर्ग छोड़ देता है . उनसे दूर रहने लगता है। रागी जीव कर्म बांधता है और विरागी कर्मों से छुट जाता है । अत: शुभ-अशुभ कर्म में राग मत करो-राग का परित्याग करना आवश्यक है। - चतुर्थ अधिकार में बतलाया है कि जीव के राग-द्वेष और मोहरूप भाव, मानव भाव हैं। उनका निमित्त पाकर पौदगलिक कर्माण बर्गणामों का जीव में पारद होता है। रागादि प्रज्ञानमय परिणाम हैं। प्रज्ञानमय परिणाम अज्ञानी के होते हैं। और ज्ञानी के ज्ञानमय परिणाम होते हैं। ज्ञानमय परिणाम होने से अज्ञानमय परिणाम रुक जाते हैं । इसलिये ज्ञानी जीव के कर्मों का मानव नहीं होता। प्रतएव बंध भी नहीं होता। पांचवे अधिकार में संवर सत्व का प्रतिपादन है। रागादि भावों के निरोध का नाम संबर है। रागादि भावों का निरोध हो जाने पर कर्मों का पाना रुक जाता है। संवर का मूल कारण भेद विज्ञान है। उपयोग ज्ञान स्वरूप है, और क्रोधादि भाव जड़ है। इस कारण उपयोग में क्रोधादिभाव और कर्म नोकर्म नहीं हैं । और न क्रोधादि भावों में तथा कर्म नोकर्म में उपयोग है। इस तरह इनमें परमार्थ से अत्यन्त भेद है । इस भेद तथा रहस्य को समझना ही भेद विज्ञान है । भेद विज्ञान से ही शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है । और शुद्धात्मा की प्राप्ति से ही मिथ्यात्वादि प्रध्यवसानों का प्रभाव होता है। और प्रध्यवसानों का प्रभाव होने से प्रास्त्रव का निरोध होता है। प्रास्रव के निरोध से कर्मों का निरोध होता है। पौर कर्म के अभाव में नो कर्मों का निरोध होता है और नो कर्मों के निरोध से संसार का निरोष हो जाता है। छठे निर्जरा अधिकार में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव, इंद्रियों के द्वारा चेतन और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह निर्जरा का कारण है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्य की अद्भुत सामर्थ्य होती १. रत्तो बंधादि कम्मं मुपदि जीवो विरागसंपण्यो । ऐसो जिणोक्देसो, तम्हा कम्मेसु मा रज ।।१५० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दाचयं ८१ है । जिस तरह वैध विष खाकर भी नहीं मरता, उसी तरह ज्ञानी भी पुद्गल कर्मों के उदय को भोगता है । किन्तु कर्मों से नहीं बंधता क्योंकि वह जानता है कि यह राग पुद्गल कर्म का है। मेरे अनुभव में जो रागरूप बास्वाद होता है वह उसके विपाक का परिणाम एवं फल है। वह मेरा निजभाव नहीं है । मैं तो शुद्ध ज्ञायक भाव रूप हूँ । अतएव सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञायक स्वभावरूप आत्मा को जानता हम्रा कर्म के उदय को कर्म के उदय का विपाक जानकर उसका परित्याग कर देता है। वाधिकार में बन्ध का कथन करते हुए वतलाया है कि आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र द्रव्य हैं। दोनों में चेतन अचेतन की अपेक्षा पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है। फिर भी इनका अनादिकाल से संयोग बन रहा है। जिस तरह चुम्वक में लोहा खींचने और लोह में खिंचने की योग्यता है । उसी प्रकार श्रात्मा में कर्मरूप पुद्गलों को खींचने की भौर कर्मरूप पुद्गल में खिंचने की योग्यता है। अपनी-अपनी योग्यतानुसार दोनों का एक क्षेत्रागाह हो रहा है। इसी एक क्षेत्रावगाह को बन्ध कहते हैं। प्राचार्य महोदय ने एक दृष्टान्त द्वारा बन्ध का कारण स्पष्ट किया है। जैसे कोई मल्ल शरीर में तेल लगा कर धूल भरी भूमि में खड़ा होकर शस्त्रों से व्यायाम करता है । के श्रादि के पेड़ों को काटता है तो उसका शरीर धूलि से लिप्त हो जाता है। यहां उसके शरीर में जो तेल लगा है-चिक्कणता है उसी के कारण उसका शरीर धूल से लिप्त हुआ है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव इंद्रिय विषयों में रागादि करता हुआ कर्मों से बंधता है, सो उसके उपयोग में जो रागभाव है वह कर्मबन्ध का कारण है । परन्तु जो ज्ञानी ज्ञानस्वरूप में मग्न रहता है, वह कर्मों से नहीं बंधता । आठवें मोक्षाधिकार में बतलाया है कि जैसे कोई पुरुष चिरकाल से बन्धन में पड़ा हुआ है और वह इस बात को जानता है कि मैं इतने समय से बंधा हुआ पड़ा हूँ। किन्तु उस बन्धन को काटने का प्रयत्न नहीं करता, तो वह कभी बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। उसी तरह कर्म बन्धन के स्वरूप को जानने मात्र से कर्म से छुटकारा नहीं होता । परन्तु जो पुरुष रागादि को दूर कर शुद्ध होता है वही मोक्ष प्राप्त करता है। जो कर्मबन्धन के स्वभाव मोर ग्रात्म स्वभाव को जानकर बन्ध से विरक्त होता है वही कर्मों से मुक्त होता है। श्रात्मा श्रर बन्ध के स्वभाव को भिन्न भिन्न जानकर बन्ध को छोड़ना और श्रात्मा को ग्रहण करना ही मोक्ष का उपाय है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि श्रात्मा को कैसे ग्रहण करे, इसका उत्तर देते हुए आचार्य ने कहा है कि प्रज्ञा ( भेद विज्ञान ) द्वारा जो चैतन्यात्मा है वही मैं हूं । दोष अन्य सब भाव मुझसे पर हैं - वे मेरे नहीं हैं। इत्यादि कथन किया गया है। सर्व विशुद्धि अधिकार में एक तरह से उन्हीं पूर्वोक्त बातों का कथन किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विषय शुद्ध प्रात्म तत्व है । वह शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वविशुद्धज्ञान का स्वरूप है। न वह किसी का कार्य है, और न किसी का कारण है, उसका पर द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इस विचार से मात्मा और परद्रव्य में कर्त्ता कर्मभाव भी नहीं है । ग्रतएव श्रात्मा पर द्रव्य का भोक्ता भी नहीं है। अज्ञानो जीव अज्ञानवश ही आत्मा को परद्रव्य का कर्त्ता भोक्ता मानता है । इस ग्रन्थ पर श्राचार्य अमृतचन्द्र की श्रात्मख्याति, जयसेन की तात्पर्यवृत्ति और बालचन्द्र श्रध्यात्मी की टीकाएं उपलब्ध हैं। नियमसार - प्रस्तुत ग्रन्थ में १८७ गाथाएं हैं। जिन्हें टीकाकार मलधारि पद्मप्रभदेव ने १२ अधिकारों में विभक्त किया है। किन्तु यह विभाग ग्रन्थ के अनुरूप नहीं है । ग्रन्थकार ने इसमें उन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है और प्राप्त आगम का स्वरूप बतलाकर तत्त्वों का कथन किया है, पश्चात् छह द्रव्यों और पंचास्तिकाय का कथन है । व्यवहारनय से पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति यह व्यवहार चारित्र है। ग्रागे निश्चयनय के दृष्टिकोण से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परम भक्ति इन छह आवश्यकों का वर्णन किया है और बतलाया है कि निश्चयनय से सर्वज्ञ केवलं आत्मा को जानता है, और व्यवहारनय से सबको जानता है। इसी प्रसंग में दर्शन और ज्ञान की महत्वपूर्ण चर्चा दी । रचना महत्वपूर्ण और उपयोगी है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ दंसण पाहुड - इसमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप श्रीर महत्व ३६ गाथाओं द्वारा बतलाया गया है। दूसरी गाया में बताया है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है । श्रतः सम्यग्दर्शन से हीन पुरुष वन्दना करने के योग्य नहीं है । तीसरी गाथा में कहा है कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वह भ्रष्ट ही है, उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती । सम्यग्दर्शन से रहित रामी वालों को धोर तप करें तो भी उन्हें बोधि लाभ नहीं होता । इत्यादि अनेक तरह से सम्यग्दर्शन का स्वरूप और उसकी महत्ता बतलाई गई है। चरित पाहू - इसमें ४४ गाथाओं द्वारा चारित्र का प्रतिपादन किया गया है। चारित्र के दो भेद हैं-समयक्त्वाचरण और संयमाचरण । निःशंकित यादि म्राठ गुणों से विशिष्ट निर्दोष सम्यक्त्व के पालन करने को सम्यक्त्वा चरण चारित्र कहते हैं। संयमाचरण दो प्रकार का है-सागार और अनगार । सागाराचरण के भेद से ग्यारह प्रतिमाओं के नाम गिनाये हैं। तथा पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को सागार संयमाचरण वतलाया है। पांच अणुव्रत प्रसिद्ध ही हैं, दिशा विदिशा का प्रमाण, अनर्थ दण्ड त्याग ओर भोगोपभोग परिमाण ये तोन गुणव्रत, सामादिक, प्रोषध, अतिथि पूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत बतलाये हैं। किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र में भोगोपभोग परिमाण को शिक्षावतों में गिनाया है और सल्लेखना को अलग रखा है। तथा देश विरति नाम का एक गुणव्रत बतलाया है । अनगार धर्म का कथन करते हुए पांच इंद्रियों का वश करना, पंच महाव्रत धारण करना, पांच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना भनगाराचरण है। अहिंसादि व्रतों की पांच पांच भावनाएं बतलाई हैं। सुत पाहुड – इसमें २६ गाथाएं हैं जिसमें सूत्र की परिभाषा बताते हुए कहा है कि जो अरहंत के द्वारा अर्थरूप से भाषित और गणधर द्वारा कथित हो, उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र में जो कुछ कहा गया है उसे आचार्य परम्परा द्वारा प्रवर्तित मार्ग से जानना चाहिए। जैसे सूत्र ( धागे) से रहित सुई खो जाती है, वैसे ही सूत्र को ( श्रागम को ) न जानने वाला मनुष्य भी नष्ट हो जाता है । उत्कृष्ट चारित्र का पालन करने वाला भी मुनि यदि स्वच्छन्द विचरण करने लगता है तो वह मिथ्यात्व में गिर जाता है । गाथा १० में बतलाया गया है कि नग्न रहना और करपुट में भोजन करना यही एक मोक्षमार्ग है। शेष सब श्रमार्ग हैं। भागे बतलाया है कि जिस साधु के बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह नहीं है, और पाणिपात्र में भोजन करता है, वही साधु है। इस पाहुड में स्त्री प्रव्रज्या और साधुम्रों के वस्त्र धारण करने का निषेध किया गया है। Tags में ६२ गाथाओं द्वारा आयतन चैत्यग्रह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रवज्या का स्वरूप बतलाया है। अंतिम गाथाओं में कुन्दकुन्द ने अपने को भद्रबाहु का शिष्य प्रकट किया है। भाव पाहुड में १६३ गाथाश्रों द्वारा भाव की महत्ता बतलाते हुए भाव को ही गुण दोषों का कारण बतलाया है और लिखा है कि भाव की विशुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसका अंतःकरण शुद्ध नहीं है उसका बाह्य त्याग व्यर्थ है। करोड़ों वर्ष पर्यन्त तपस्या करने पर भी भाव रहित को मुक्ति प्राप्त नहीं होती । भाव से ही लिंगी होता है द्रव्य से नहीं । अतः भाव को धारण करना आवश्यक है । भव्यसेन ग्यारह अंग चौदह पूर्वो को पढ़कर भी भाव से मुनि न हो सका। किन्तु शिवभूति ने भाव विशुद्धि के कारण 'तुष मास' शब्द का उच्चारण करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया। जो शरीरादि बाह्य परिग्रहों को और माया कषायआदि अन्तरंग परिग्रहों को छोड़कर श्रात्मा में लीन होता है वह लिंगी साधु है। यह पूरा पाहुड ग्रन्थ सदुपदेशों से भरा हुआ है। मोक्ख पाहुड की गाथा संख्या १०६ है । जिसमें ग्रात्म द्रव्य का महत्व बतलाते हुए ग्रात्मा के तीन भेदों को - परमात्म्य, अंतरात्मा और बहिरात्मा की चर्चा करते हुए बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा के ध्यान की बात कही गई है। पर द्रव्य में रत जीव कर्मों से बंधता है और परद्रव्यसे विरत जीव कर्मों से 'छूटता है। संक्षेप में बन्ध और मोक्ष का यह जिनोपदेश है । इस तरह इस प्राभृत में मोक्ष के कारण रूप से परमात्मा के : Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्दकुन्दाचार्य ध्यान की आवश्यकता और महत्ता बतलाई है। इन छह प्राभृतों पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है, जो प्रकाशित हो चुकी है। सील पाह-इसमें ४० गाथाएं हैं जिसके द्वारा शील का महत्व बतलाया गया है और लिखा है कि शील का ज्ञान के साथ कोई विरोध नहीं है। परन्तु मील के विना विषय-वासना से ज्ञान नष्ट हो जाता है। जो ज्ञान को पाकर भी विषयों में रत रहते हैं, वे चतुर्गतियों में भटकते हैं और जो ज्ञान को पाकर विषयों से विरक्त रहते हैं, वे भव-भ्रमण को काट डालते हैं। बारसाणपेक्खा (द्वादशानुप्रक्षा)- इसमें ११ गाथाओं द्वारा वैराग्योत्पादक द्वादश अनुप्रेक्षायों का वहत ही सुन्दर वर्णन हुआ है। वस्तु स्वरूप के बार-बार चिन्तन का नाम अनुप्रेक्षा है। उनके नामों का क्रम इस प्रकार प्रध्र वमसरणमेगत्तमाणसंसारलोगमसुचित्तं । पासवसंवरणिज्जरधम्मं घोहि च चितेज्जो।। अध व, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, असुचित्व, प्रास्रब, संबर, निर्जरा, धर्म और बोधि । तत्वार्थ सूत्रकार ने अनुप्रक्षामों के क्रम में कुछ परिवर्तन किया है। अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानचिन्तनमनप्रक्षाः'। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इन बारह भावनाओं के चिन्तन द्वारा श्रमणों के वैराग्य भाव को सुदृढ़ किया है। देवनन्दी (पूज्यपाद) की सर्वार्थसिद्धि के दूसरे अध्याय के 'संसारिणो मुक्ताश्च' की टीका में वारस अनुप्रक्षा की पांच गाथाएउत की हैं! रयणसार भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति कही जाती है, परन्तु उस रचना में एकरूपता नहीं है-गाथाओं को क्रम संख्या भी बड़ी हुई है, अनेक गाथाएं प्रक्षिप्त हैं। ऐसी स्थिति में जब तक उसकी जांच द्वारा मूलगाथाओं की संख्या निश्चित नहीं हो जाती और गण गच्छादि की सूचक प्रक्षिप्त गाथानों का निर्णय नहीं हो जाता, तब तक उसे कुन्दकुन्दाचार्य की कूति नहीं माना जा सकता। अब रही मूलाचार और थिस्कुरल के रचयिता की बात, सो मूलाचार को कुन्द कुन्दाचार्य की कृति कहना या मानना अभी तक विवादास्पद बना हुआ है। यद्यपि मूलाचार में कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों की अनेक गाथाएं भी पाई जाती हैं और उसका पांचवीं शताब्दी के 'तिलोय पण्णत्ति' ग्रन्थ में उल्लेख होने से वह रनमा पुरातन है। परन्तु उसका कर्ता वसुनन्दि ने 'वट्टकेर' सूचित किया है । यद्यपि वट्ट केराचार्य का कोई अन्य उल्लेख प्राप्त नहीं है, और न उनको गुरु परम्परादि का कोई उल्लेख उपलब्ध ही है। ग्रन्थ में 'संघवट्ट मो' जैसे शब्दों का उल्लेख है, जिसका अर्थ संघ का उपकार करने वाला टीकाकार ने किया है। उसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानने के लिए कुछ ठोस प्रमाणों की आवश्यकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह मूलसंध की परम्परा का ग्रन्थ है। . थिरुकुरल-जंन रचना है, यह निश्चित है। परन्तु वह कुन्दकुन्दाचार्य की कृति है, और कुन्दकुन्दाचार्य का दूसरा नाम 'एलाचार्य' था. इसे प्रमाणित करने के लिये अन्य प्राचीन प्रमाणों की आवश्यकता है। उसके प्रमाणित होने पर थिस्कुरल को कुन्दकुन्द की रचना मानने में कोई संकोच नहीं हो सकता। स्व. प्रो० चक्रवर्ती ने इस दिशा में जो शोध-खोज की है, वह अनुकरणीय है। अन्य विद्वानों को इस पर विचार कर अन्तिम निर्णय करना आवश्यक है। बहुत सम्भव है कि वह कुन्दकुन्दाचार्य की ही रचना हो। भक्ति संग्रह प्राकृत भाषा की कुछ भक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानी जाती हैं । भक्तियों के टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य ने लिखा है कि-'संस्कृता सर्वा भक्तयः पादपूज्य स्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः।' अर्थात् संस्कृत Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ की सब भक्तियाँ पूज्यपाद की बनाई हुई हैं और प्राकृत की सब भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्य कृत हैं। दोनों भक्तियों पर प्रभाचन्द्राचार्य की टीकाएं हैं। कुन्दकुन्दाचार्य की आठ भक्तियाँ हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं । १ सिद्धभक्ति २ श्रुत भक्ति, ३ चारित्रभक्ति, ४ योगि (अनगार) भक्ति, ५ आचार्य भक्ति, ६ निर्वाण भक्ति, ७ पंचगुरु (परमेष्ठि) भक्ति, ८ थोस्मामि बुदि (तीर्थंकर भक्ति ) । सिद्ध भक्ति- इसमें १२ गाथाओं द्वारा सिद्धों के गुणों, भेटों, सुख, स्थान, आकृति, सिद्धि के मार्ग तथा क्रम का उल्लेख करते हुए प्रति भक्तिभाव से उनकी वन्दना को गई है। श्रुतभक्ति एकादश गाथात्मक इस भक्ति में जैन श्रुत के आचारांगादि द्वादश अंगों का भेद-प्रभेद - सहित उल्लेख करके उन्हें नमस्कार किया गया है। साथ ही, १४ पूर्वी में से प्रत्येक कीवस्तु संख्या और प्रत्येक पाहुडों (प्राभृतों) की संख्या भी दी है। के वस्तु चारित्र भक्ति - दश अनुष्टुप् पद्यों में श्री वर्धमान प्रणीत सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात नाम के पांच चारित्रों, श्रहिंसादि २८ मूलगुणों, दशधर्मो, त्रिगुप्तियों, सकल शीलों, परिषह्जयों और उत्तर गुणों का उल्लेख करके उनकी सिद्धि और सिद्धि फल ( मुक्ति सुख ) को कामना की है। ८५४ योगी (नगर) भक्ति - यह भक्ति पाठ २३ गाथात्मक है। इसमें जैन साधुओं के प्रादर्श जीवन और उनकी चर्या का सुन्दर अकन किया गया है। उन योगियों की अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियों, सिद्धियों तथा गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें भक्तिभाव से नमस्कार किया गया है। और उनके विशेषण रूप, गुणों का - दो दोसविप्पमुक् तिदंडविरत. तिसल्लपरिसुद्ध, चउदसगंथपरिसुद्ध, चउदसपुण्यपगम्भ और चउदसमलविवज्जिद - वाक्यों द्वारा उल्लेख किया है, जिससे इस भक्तिपाठ की महत्ता का पता चलता है । आचार्य भक्ति- इसमें दस गाथाम्रों द्वारा आचार्य परमेष्ठी के खास गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। निर्माण भक्ति - २७ गाथात्मक इस भक्ति में निर्वाण को प्राप्त हुए तीर्थकरों तथा दूसरे पूतात्म पुरुषों के नामों का उन स्थानों के नाम सहित स्मरण तथा वन्दना की गई है जहाँ से उन्होंने निर्वाण पद की प्राप्ति को है । इस भक्ति पाठ में कितनी ही ऐतिहासिक और पौराणिक बातों एवं अनुभूतियों की जानकारी मिलती है। (परमेष्ठि) भक्ति - इसमें सृग्विणी छन्द के छह पद्यों में ग्रर्हत्, सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय और साधु ऐसे पांच पुरुषों का -- परमेष्ठियों का स्तोत्र और उसका फल दिया है और पंच परमेष्ठियों के नाम देकर उन्हें नमस्कार करके उनसे भव भव में सुख की प्रार्थना की गई है। पंच स्तामि बुद्धि (तीर्थकर भक्ति ) - यह 'थोरसामि' पद से प्रारम्भ होने वाली अष्ट गाथात्मक स्तुति है जिसे 'तित्थयरभत्ति' कहते हैं। इसमें वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुविशति तीर्थकरों की उनके नामोल्लेख पूर्वक वन्दना की गई है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी कोई गुरु परम्परा नहीं दी और न अपने ग्रन्थों में उनके नामादि का तथा राजादि का उल्लेख ही किया है। किन्तु बोध पाहुड की ६१ नं० की गाथा में अपने को भद्रबाहु का शिष्य सूचित किया है' । और ६२ नं० की गाथा में भद्रबाहु श्रुत केवली का परिचय देते हुए उन्हें अपना गमक गुरु बतलाया है। मौर लिखा है कि- जिनेन्द्र भगवान महावीर ने अर्थ रूप से जो कथन किया है वह भाषा सूत्रों में शब्द विकार को प्राप्त हुआ है- अनेक प्रकार से गूंथा गया है । भद्रबाहु के मुझ शिष्य ने उसको उसी रूप से जाना है और कथन किया है। दूसरी गाथा में बताया है कि-- बारह श्रंगों और चौदह पूर्वो के विपुल विस्तार के वेत्ता गमक गुरु भगवान श्रुतज्ञानी तकेवली भद्रबाहु जयवन्त हों । १. सद्वियारो हुओ भासासुतं जं जिणे कहिये । सो वह कहियं पायं सीसेराय भदवास ।। ६१ वारस गवियारणं चउदसगुडदंग विउ वित्यरणं । सुवासी भवाह गमयगुरु भगवओ जयभो ॥६२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दाचार्य ये दोनों गाथाएं परस्पर सम्बद्ध हैं। पहली गाथा में कुन्दकुन्द ने अपने को जिस भद्रबाहु का शिष्य कहा है, दूसरी गाथा में उन्हीं का जयकार किया है और वे भद्रबाहु धुत केवली ही हैं। इसका समर्थन समय प्राभूत की प्रथम गाथा' से भी होता है। उन्होंने उस गाथा के उत्तरार्ध में कहा है कि -श्रत केवली के द्वारा प्रतिपादित समय प्राभूत को कहूंगा । यह श्रुतकेवली भद्रबाहु के सिवाय दूसरे नहीं हो सकते । श्रवणबेलगोल के अनेक शिलालेखों में यह बात अंकित है कि-अपने शिथ्य चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ भद्रबाहु वहाँ पधारे थे, और वहीं उनका स्वर्गवास हमा था । इस घटना को अनेक ऐतिहासिक विद्वान तथ्यरूप में मानते हैं। अतः कुन्दकुन्द के द्वारा उनका अपने गुरु रूप में स्मरण किया जाना उक्त घटना की सत्यता को प्रमाणित करता है। किन्तु कुन्दकुन्द भद्रबाहु के समकालीन नहीं जान पड़ते, क्योंकि अंगज्ञानियों की परम्परा में उनका नाम नहीं है। किन्तु वे उनकी परम्परा में हए अवश्य हैं । पर इतना स्पष्ट है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली दक्षिण भारत में गए थे, और वहां उनके शिष्य-अशिष्यों द्वारा जन धर्म का प्रसार हुआ था। अतः कुन्दकुन्द ने उन्हें गमक गुरु के रूप में स्मरण किया है। वे उनके साक्षात शिष्य नहीं थे। परम्परा शिष्य अवश्य थे। उनका समय छह सौ तिरासी वर्ष की कालगणना के भीतर हो पाता है। में कोंगणि वनाकिन्तु इसम व मूलसंघ मोर कुन्यकुन्दान्वय भगवान महावीर के समय में जैन साधु सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ' सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध था। इसो कारण बौद्ध त्रिपिटकों में महावीर को 'निर्गठ नाटपुन लिदा मिलता है। प्रशोक के शिलालेखों में भी 'निर्गठ' शब्द से उस का निर्देश किया गया है। __ कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघ के प्रादि प्रवर्तक माने जाते हैं । कुन्दकुन्दान्वय का सम्बन्ध भी इन्हों से कहा गया है। वस्तुतः कौण्डकुण्डपुर से निकले मुनिबंश को कुन्दकुन्दान्वय कहा गया है । कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख शक सं. ३८ के मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है। मर्करा का ताम्र पत्र शिलालेख नं०६४ से बिल्कूल मिलता है। शिलालेख नं०६४ वे में कोंगणि वर्मा ने जिस मूलसंघ के प्रमुख चन्द्रनन्दि प्राचार्य को भूमिदान दिया है उसी को दान देने का उल्लेख मर्करा के दान पत्र में भी है। किन्तु इसमें चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा भी दी है और उन्हें देशोगण कुन्दकुन्दान्वय का बतलाया है। लेख नं०६४ का अनुमानित समय ईसा की ५वीं शताब्दी का प्रथम चरण है पौर मर्करा के ताम्रपत्र में प्रकित समय के अनुसार उसका समय ई. सन् ४६६ होता है। कोणि वर्मा के पत्र विनीत का समय ४८०ई० से ५२०ई० के मध्य बैठता है। अत: ताम्रपत्र के अंकित समय में कोंगणि वर्मावर्त. मान था, जिसने चन्द्रनन्दि को दान दिया। चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा में गुणचन्द्र, अभयनन्दि, शीलभद्र, जयनाटि गणमन्दि, चन्द्रनन्दि प्रादि का नामोल्लेख है। इसमें नन्द्यन्त नाम अधिक पाये जाते हैं। मूलसंघ की परम्परा भी प्राचीन है। मूलाचार का नाम निर्देश प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपणत्ति में है। तिलोयपण्णत्ति ईसा की ५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में निष्पन्न हो चुकी थी। अतः मूलाचार चतुर्थ शताब्दी से पूर्व रचा गया होगा। मूलाचार मूलसंघ से सम्बद्ध है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कर्नाटक प्रान्त के साघुपों पर बहत बड़ा प्रभाव था। सा की ५ वीर कुन्दकुन्द का समय नन्दिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि० सं० ४६ में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें प्राचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पद पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी कुल मायु ६५ वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी। १. बंदिस सबसिद्ध घुवमवलमणोक्यं गई पत्ते । बोक्छामि समयपाहुड मिणमो सुयकेवली भरिणयं ॥१ २. शिलालेख सं. भा. १ लेख नं. १,१७, १८, ४०, ५४, १०८ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्रो० हार्नले द्वारा सम्पादित नन्दिसंघ की पट्टावलियों के आधार से प्रो० चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में कुन्दकुन्द को पहली शताब्दी का विद्वान माना है । कुन्दकुन्दाचार्य के समय के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने विचार किया है। उन सबके विचारों पर प्रवचनसार की विस्तृत प्रस्तावना में विचार किया गया है। अन्त में डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने जो निष्कर्ष निकाला है, उसे नीचे दिया जाता है :-- ८६ वे लिखते हैं- 'कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में की गई इस लम्बी चर्चा के प्रकाश में जिसमें हमने उपलब्ध परम्पराओं की पूरी तरह से छानबीन करने तथा बिभिन्न दृष्टिकोणों से समस्या का मूल्य ग्रांकने के पश्चात् केवल संभावनाओं को समझने का प्रयत्न किया है हमने देखा कि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्धं श्रर ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का पूर्वाधं बतलाती है । कुन्दकुन्द से पूर्व पट् खण्डागम की समाप्ति की सम्भावना उन्हें ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य के पश्चात् रखती है। मर्करा के ताम्रपत्र में उनको अन्तिम कालाafa तीसरी शताब्दी का मध्य होना चाहिए । चर्चित मर्यादायों के प्रकाश में ये सम्भावनाएं कि कुन्दकुन्द पल्लव वंशी राजा शिवस्कन्द के समकालीन थे और यदि कुछ और निश्चित प्राधारों पर यह प्रमाणित हो जाय कि वही एलाचार्य थे तो उन्होंने कुरल को रखा मा सुचित करती है कि प्रमाणों के प्रकाश में कुन्द के समय की मर्यादा ईसा की प्रथम दो शताब्दियों होनी चाहिए। उपलब्ध सामग्री के इस विस्तृत पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं विश्वास करता हूँ कि कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है ।। (प्रवचन० प्र० पृ० २२) इससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम शताब्दी के आरम्भ के विद्वान हैं। गुणवीर पंडिल 'कुन्द यह कलन्देके वाचानन्द मुनि के शिष्य थे। इन्होंने मलयपुर के नेमिनाथ मन्दिर में बैठकर 'नेमिनाथम्' नामक विशाल तमिल व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी । ग्रन्थ के प्रारम्भ के पद्यों में बतलाया है कि जल-प्रवाह के द्वारा मलयपुर जैन मन्दिर के विनाश होने के पूर्व यह ग्रन्थ रचा गया था। यह ग्रन्थ प्रसिद्ध वेणवा छंद में है। मदुरा के तमिल संगम के अधिकारियों ने इसे थेन तमिल नाम के पत्र में पुरातन टीका के साथ छपाया था। गुणवीर पण्डित का समय ईसा की प्रथम शताब्दी है । इसी से इनकी यह रचना ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल की कही जाती है। तोलकप्पिय यह तमिल भाषा के व्याकरण का वेत्ता और रचयिता था । यह प्रसिद्ध वैयाकरण था । इसके रचे व्याकरण का नाम तोल कप्पिय है। यह जैनधर्म का अनुयायी था । हुए इन्द के संस्कृत व्याकरण में" तोलकप्पिय का निर्देश है । इन्द्र का समय ३५० ई० पूर्व है। अतः प्राचीन व्याकरण तोलकल्पिय के समय की उत्तरावधि ३५० ई० पूर्व निश्चित होती है। मदुरा तमिल की पत्रिका की 'सेनतमिल ( जि० १८, १९१६-२० पृ० ३३६ ) में श्री एस क्यापुरिपिल्ले का एक लेख प्रकाशित हुआ था, उसमें उन्होंने लिखा था कि- 'तोलकप्पिय जैनधर्मानुयायी था और इस सम्बन्ध में उनकी मुख्य दलील (युक्ति ) यह थी कि तोलकपिय के समकालीन पनयारनार ने तोलकप्पिय को महान् और प्रख्यात् 'पडिमइ' लिखा है । पडिमइ प्राकृत भाषा के 'पडिमा ' शब्द से बनाया गया है । पडिमा (प्रतिमा) एक जैन शब्द है, जो जंनाचार के नियमों का सूचक है। श्री पिल्ले ने तोल कप्पियम् के सूत्रों का उद्धरण देकर लिखा है कि मरवियल विभाग में घास और वृक्ष के 1 १. मेकडोनल - हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर पू० ११ २. स्टेडीज सा० इ० जैनिज्म पृ० ३६ 1 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वाति (पिच्छाचार्य समान जीवों को एकेन्द्रिय, घोंघे के समान जीवों को दो इन्द्रिय, चोंटी के समान जीवों को तीन इन्द्रिय, कंकड़े के समान जीवों को चौइन्द्रिय और बड़े प्राणियों के समान जीवों को पंचेन्द्रिय बताया है तथा मनुष्य के समान अन्य जीवों का यह विभाग अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता । अतः यह तमिल व्याकरण ग्रन्थ एक प्रामाणिक जैन विद्वान की कृति है। उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामि (ति) चालीस बर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे। श्रवणबेलगोल के ६५वे शिलालेख में लिखा है तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पचनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कुन्दकुन्दादिमुनीश्वरात्यः सत्संयमादुद्गतचारणखिः ।।५ अभवमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगरपिछः । तदन्वये तत्सदशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी ।।६ अर्थात् जिनचन्द्रस्वामी के जगत् प्रसिद्ध अन्वय में 'पद्मनन्दी' प्रथम इस नाम को धारण करने वाले श्रो कुन्दकुन्द नाम के मुनिराज हुए। जिन्हें सत्संयम के प्रभाव से चारणऋद्धि प्राप्त हुई थी। उन्हीं कुन्दकुन्द के मन्वय में उमास्वाति मुनिराज हुए, जो गृपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध थे उस समय गृपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला कोई दूसरा विद्वान नहीं था। श्रवणबेलगोल के २५८ शिलालेख में भी यही बात कही गई है। उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूपरत्नों की माला प्रकट हुई। उसी मुनिरत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध मोजस्वी प्राचार्य हए। उन्हीं के पवित्र वश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामि मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया। यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयुरपिच्छ के गिर जाने पर गुद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। और गद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्वार्थसूत्र के कर्ता को गद्धपिच्छाचार्य लिखा है। प्राचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोक वार्तिक में उनका उल्लेख किया है। प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में जो वर्णन किया है वह अत्यन्त मार्मिक है : "मनिपरिषण्मध्ये सम्निषष्णं मर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागम कुशलं परहित प्रतिपावनककार्यमार्य निषेव्यं निग्रन्थाचार्यवयंम् ।" १. तदीयवंशा करतः प्रसिद्धादभूददोषा यति रत्नमाला । बभौ वदन्तमं रिणवन्मुनीन्द्रः स कुन्दकुन्दोदितचण्डदण्टः ।।१० अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्र वैशे तदीये सकलाधंवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥११ स प्राणिसंरक्षणेऽवधानो बभार योगी किल गडपिछद्रान् । तदा प्रभुत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम् ॥१२ २. तह गद्धपिच्छाइरियप्पयासिद तच्चत्वमुत्त वि-"वर्तना परिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ।" (धवला. पु. ४ १० ३१६) ३. "एतेन गद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनिमूत्रए व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृत सूत्रे"। तत्वार्थ श्लोक वा.पु.६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ वे मुनिराज सभा के मध्य में विराजमान थे जो बिना वचन बोले अपने शरीर से ही मानो मूतिधारी मोक्ष मार्ग का निरूपण कर रहे थे। युक्ति और पागम में कुशल थे, परहित का निरूपण करना ही जिनका एक कार्य था, तथा उत्तमोत्तम मार्य पुरुष जिनकी सेवा करते थे, ऐसे दिगम्बराचार्य गद्धपिच्छाचार्य थे। मैसूर प्रान्त के मगरताल्लुक के ४६३ शिलालेख में लिखा है तस्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वाति मुनीश्वरम् । श्रुतमे शामितीय जनतो गुणमविरम्।' मैं तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली के तुल्यं श्री उमास्वाति मुनिराज को नमस्कार करता हूँ। तत्त्वार्थसूत्र की मूल प्रतियों के अन्त में प्राप्त होने वाले निम्न पद्य में तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता, गद्धपिच्छोपलक्षित उमास्वामि या उमास्वाति मनिराज की बन्दना की गई है। 'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृज पिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्र संजात मुमास्वामि (ति) मुनीश्वरम् ।। इस तरह उमास्वाति प्राचार्य, उमास्वामी प्रौर गद्धपिच्छाचार्य नाम से भी लोक में प्रसिद्ध रहे हैं। महा कवि पम्प (४१) ई० ने अपने प्रादि पुराण में उमास्वाति को 'पार्यनुत गद्रपिच्छाचार्य' लिखा है। इसी तरह चामुण्डराय (वि० सं०१०३५) ने अपने त्रिषष्ठिलक्षण पुराण में तत्वार्थसुत्रकर्ता को गडपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य वादिराज (शक सं०६४७–वि० सं० १०६२) ने अपने पार्श्वनाथचरित में प्राचार्य गुपिच्छ का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है : पतुच्छ गुणसंपात गडपिच्छ नतोऽस्मि तम् । पक्षी कुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोस्पतिष्णवः ।। मैं उन गद्धपिच्छ को नमस्कार करता है, जो महान गुणों के पाकर हैं, जो निर्वाण को उड़कर पहंचने की इच्छा रखने वाले भव्यों के लिए पंखों का काम देते हैं। अन्य अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी तस्वार्थसूत्र के कर्ता का गद्धपिच्छाचार्य रूप से उल्लेख किया है। श्रवणबेलगोल के १०५वें शिलालेख में लिखा है कि--प्राचार्य उमास्वाति ख्याति प्राप्त विद्वान थे। यतियों के अधिपति उमास्वाति ने तत्स्वार्थ सूत्र को प्रकट किया है, जो मोक्षमार्ग में उद्यत हुए प्रजाजनों के लिए उत्कृष्ट पाथेय का काम देता है। जिनका दूसरा नाम गृपिच्छ है। उनके एक शिष्य बलाकपिच्छ थे, जिनके सूक्ति-रत्न मुक्त्यंगना के मोहन करने के लिए माभूषणों का काम देते हैं। इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि उनका गृद्धपिच्छार्य नाम बहुत प्रसिद्ध था। वे जिनागम के पारगामी विद्वान थे। इसी से तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द प्रादि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया है। १. बसुमतिगे नेगले तत्वार्थसूत्रमवेटदगुदापिच्छाचार्या । जसदि-दिगम्तमं मुद्रिसि जिनशासनवमतिमेयं प्रकटसिदर ३ २. विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान बालचन्द मुनि ने तत्त्वार्थसूत्र की कनड़ी टीका में जमास्वाति नाम के साथ गहपिच्छाचार्य का भी नाम दिया है। ३. श्रीमानुमास्वातिरय यतीशस्तत्त्वार्थ सूत्र प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमर्थ्य भवति प्रजानाम् ॥१५ तस्पैद शिष्योऽजनि गद्धपिच्छ द्वितीय संजस्य बनाकपिच्छः । यसूक्तिररनानि भवन्ति लोके मुकत्यंगनामोहनमण्डनानि ॥१६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वाति (गुद्धपिच्छाचार्य) रचना गृद्ध पिच्छाचार्य की इस रचना का नाम 'तत्त्वार्थसूत्र' है। प्रस्तुत ग्रन्थ दश अध्यायों में विभाजित है। इसमें जीवादि सप्ततत्त्वों का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में यह संस्कृतभाषा का एक मौलिक प्राद्य सूत्र ग्रन्थ है। इसके पहले संस्कृतभाषा में जन साहित्य की रचना हुई है, इसका कोई आधार नहीं मिलता। यह एक लघुकाय सूत्र ग्रन्थ होते हुए भी उसमें प्रमेयों का बड़ी सुन्दरता से कथन किया गया है । रचना प्रौढ़ और गम्भीर है । इसमें जैनदाङ्मय का रहस्य अन्तनिहित है । इस कारण यह अन्य जैन परम्परा में समानरूप से मान्य है। दार्शनिक जगत में तो यह प्रसिद्ध हया ही है। किन्तु प्राध्यात्मिक जगत में इसका समादर कम नहीं है। हिन्दुना में जिस तरह गीता का, मुसलमानों में कुरान का, और ईसाइयों में चाइबिल का जो महत्त्व है वही महत्व जैन परम्परा में तत्त्वार्थ सूत्र को प्राप्त है। ग्रन्थ के दश अध्यायों में से प्रथम के चार अध्यायों में जीव तत्त्व का, पांचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठवें और सातवें अध्याय में प्रास्त्रवतत्त्व का, पाटवें अध्याय में बन्धतत्त्व का, नवमें अध्याय में संबर और निर्जरा का और दश अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र का निम्न मंगल पद्य सूत्रकार की कृति है। इसका निर्देश प्राचार्य विद्यानन्द ने किया है। मोक्षमार्गस्य नेतारं भेसारं कर्मभभुताम् । ज्ञातारं विश्यतत्वानां यन्ये तद्गुण लम्धये ।। अन्य कुछ विद्वान इसे सुत्रकार की कृति नहीं मानते। उसमें यह हेतु देते हैं कि पूज्यपाद ने उसकी टीका नहीं की, अतएव वह पद्य सूत्रकार की कृति नहीं है, किन्तु यह कोई नियामक नहीं है कि टीकाकार मगल पद्य की भी टीका करे ही करे। टीकाकार की मर्जी है कि वह मंगल पद्य की टीका करे या न करे, इसके लिए टीकाकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है। फिर इस मंगल पद्य में वही विषय वणित है जो तत्त्वार्थ सूत्र के दश अध्यायों में चचित है। मोक्षमार्ग का नेतृत्व, विश्वतत्व का ज्ञान, और कर्म के विनाश का उल्लेख है। इससे मंगल पद्य सूत्रकार की कृति जान पड़ता है। प्राचार्य विद्यानन्द ने स्पष्ट रूप से 'स्वामिमीमांसितम्, वाक्य द्वारा समन्तभद्र को प्राप्तमीमांसा का उल्लेख किया है। अतएव विद्यानन्द की दृष्टि में उक्त पद्य सूत्रकार का ही है। तत्वार्थ सूत्र की महिमा प्रसिद्ध है : दशाध्याये परिच्छन्ने तत्वार्थ पठते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवः ।। दशाध्याय प्रमाण तत्वार्थसूत्र का पाठ और अनुगमन करने पर मुनि पुंगवों ने एक उपवास का फल बतलाया है । एक उपवास करने पर कर्म की जितनी निर्जरा होती है, उतनी निर्जरा अर्थ समझते हए तत्वार्थ सत्र के पाठ करने से होती है। इसी कारण से दिगम्बर सम्प्रदाय में तो प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को स्त्रियां और पुरुष उसका पाठ करते और सुनते है । दश लक्षण पर्व के दिनों में इसके एक एक अध्याय पर प्रतिदिन प्रवचन होते हैं और जनता इन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण करती है। इसकी महत्ता इससे भी ज्ञात होती है कि दोनों सम्प्रदायों में इस सूत्र ग्रन्थ पर महत्वपूर्ण टीका-टिप्पणी लिखे गए हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में इस पर गन्धहस्ति महाभाष्य, तत्वार्थवृत्ति, सर्वार्थ सिद्धि, तत्वार्थराजवातिक, तत्वार्थश्लोकवातिक तत्वार्थवत्ति (श्रुतसागरी) और भास्करनन्दि की सुखबोधवृत्ति प्रादि अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गए हैं। दशवीं शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त तत्वार्थ सूत्र का संस्कृत पद्यानुवाद किया है। श्रवण बेलगोल के शिलालेख से ज्ञात होता है कि शिवकोटि ने भी तत्वार्थसूत्र की कोई टीका लिखी है, जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से स्पष्ट है। "शिष्यो तदीयो शिक्षकोटिसरिस्तपोलतालम्बन देहयष्टिः। 'संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदतंचकार ॥" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ यद्यपि यह टीका अनुपलब्ध है इस कारण इसके सम्बन्ध में कुछ लिखना सम्भव नहीं है, परन्तु यह पद्य उस टीका पर से लिया गया जान पड़ता है। वर्तमान में तत्त्वार्थ सूत्र के दो पाठ प्रचलित हैं-एक सर्वार्थसिद्धिमान्य दिगम्बर सुत्रपाठ, और दसरा भाष्यमान्य श्वेताम्बर सुत्रपाठ । श्वेताम्बर सम्प्रदाय तत्त्वार्थाधिगम भाष्य को स्वोपज्ञ मानती है, पर उस पर विचार करने से उसकी स्वोपज्ञता नहीं बनती। क्योंकि मूलसूत्र और भाष्य एक कर्ता ही को कृति नहीं मालूम होते । तत्त्वार्थ सूत्र प्राचीन है और भाष्य अर्वाचीन है, भाध्य लिखते समय सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ था । इसके लिए प्रथम अध्याय के २०वें सूत्र की टीका दृष्टव्य है । कहा जाता है कि मूलसूत्र और उसका भाष्य ये दोनों विल्कुल श्वेताम्बरीय श्रुत के अनुकूल हैं, अतएव सूत्रकार उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान हैं। पर ऐसा नहीं है, भाष्यकार श्वेताम्बर विद्वान हैं, किन्तु सूत्रकार दिगम्बर विद्वान हैं। यह तत्त्वार्थ सूत्र के कतिपय मूलसूत्रों पर से स्पष्ट है, वे दिगम्बर परम्परा सम्मत हैं, श्वेताम्बर परम्परा सम्मत नहीं हैं। उदाहरण स्वरूप सोलहकारण भावनाओं याला सूत्र, और २२ परीषहों का कथन करने वाले सुत्र में 'नान्य' शब्द ।। यदि भाष्यकार और सूत्रकार एक होते तो भाष्य का मल सत्रों के साथ विरोध, मतभेद, अर्थभेद, तथा अर्थ की प्रसंगति न होती, और न भाष्य का प्रागम से विरोध ही होता किन्तु भाष्य में अर्थ की प्रसंगति और प्रागम से विरोध देखा जाता है। 1 ऐसी स्थिति में वह मूल सूत्रकार को कृति कैसे हो सकता है ? सूत्र और भाष्य का अागम से भी बिरोध उपलब्ध होता है। श्वेताम्बरीय उत्तराध्ययन के २८३ अध्ययन में मोक्षमार्ग का वर्णन करते हुए उसके चार कारण बतलाये हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । जब कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के पहले सूत्र में तीन कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र बतलाये हैं। श्वेताम्बरीय प्रागम में सत् प्रादि अनुयोग द्वारों की संख्या ६ मानी है। जब कि भाष्य में पाठ अनुयोग द्वारों का उल्लेख है। श्वेताम्बरीय सूत्र पाठ के दूसरे अध्याय में 'निर्वत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' नाम का जो १७वां सूत्र है, उसके भाष्य में उपकरण बाह्याभ्यान्तर इस वाक्य के द्वारा उपकरण के वाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भेद बाह्य किये गये हैं। परन्तु श्वे० आगम में उपकरण के ये दो भेदनहीं माने गये हैं। इसी से सिद्धसेन गणी अपनी टीका में लिखते हैंमागमे तु नास्ति कविचवन्त हि व उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति।" पागम में उपकरण का कोई अन्तर्वाह्य भेद नहीं है। प्राचार्य का ही कहीं से कोई सम्प्रदाय है। भाष्यकार ने किसी मान्यता पर से उसे अंगीकृत किया है। उपकरण के इन दोनों भेदों का उल्लेख पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि २-१७की वृत्ति में किया है। इससे भाष्यकार ने उक्त दोनों भेद सर्वार्थसिद्धि से लिये हैं। इससे भी भाष्यकार पूज्यपाद के बाद के विद्वान हैं। जब मूलसूत्रकार और भाष्यकार जुदे जुदे विद्वान हैं तब उनका समय एक कैसे हो सकता है ? साथ ही सूत्रकार प्राचीन और भाष्यकार अर्वाचीन ठहरते हैं । अतः भाष्य की स्वोपज्ञता संभव नहीं है। समय तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति (गृपिच्छाचार्य) चूंकि कुन्दकुन्दान्वय में हुए हैं, इनके तस्वार्थसूत्र के मंगल पद्य को लेकर विद्यानन्द के अनुसार स्वामी समन्तभद्र ने आप्त की मीमांसा की है। समन्तभद्राचार्य का समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी माना जाय तो उभास्वाति उनसे पूर्व दूसरी शताब्दी के विद्वान होने चाहिये। शिलालेखानुसार इनके शिष्य का नाम बलाकपिच्छ था। श्वेताम्बरीय मान्य विद्वान पं० सुखलाल जी ने उमास्वाति का समय तस्वार्थसत्र की प्रस्तावना में विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी बतलाया है। यह समय भाष्य की स्वोपज्ञता को दृष्टि में रखकर बतलाया गया है। १.से कि त अरणगमे ? नव बिहे पण तें । अनुयोग द्वार सूत्र ८० २. सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन कालः अन्तरभाकः अल्पबहत्व मिरपेतेश्च समतपद प्ररूपणादिभिरष्टाभिरनुयोगद्वारः सर्वभावाना (तरवाना) विकल्पशो विस्तराषियमो भवति ।" . ३. श्वेताम्बर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की जांच नाम का लेख । अनेकान्त वर्ष ५ कि० ३-४ पू. १०७, कि.५५. १७३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --. .- ----- - - बलाकपिच्छ बलापिच्छ कोण्ड कून्दान्वयोगपिच्छाचार्य (उमास्वाति) के शिष्य थे। ये बड़े विद्वान तपस्वी थे। उनकी कीति भुवनत्रय में व्याप्त थी। उनके गुणनन्दी नाम के शिष्य थे, जो चारित्र चक्रेश्वर और तर्क व्याकरणादि शास्त्रों में निपुण थे। इनका समय संभवतः दूसरी-तीसरी शताब्दी है। दूसरी सदी के प्राचार्य ल्लंगोवाडिगल यह चेर राजकुमार मंगोट्टवन का भाई था और जैनधर्म का अनुयायी था पर इसका भाई शेंगोट्टवन शवधर्म अनुयायी था । इसकी रचना तमिल भाषा का प्रसिद्ध ग्रन्थ शिलप्पदि कारम्' है । उस समय वहां धार्मिक सहनशीलता थी और राजघरानों तक में जैनधर्म का प्रवेश हो चुका था। इस ग्रन्थ का रचना काल ईसा की दूसरी शताब्दी है। इस ग्रन्थ में तथा मणिमेखले में तत्कालीन द्रविड़ संस्कृति का स्पष्ट चित्र देखा जा सकता है। इस काव्य में जैन आचार विचारों के तथा जैन विद्या केन्द्रों के उल्लेख से पाठकों के मन पर निस्सन्देह प्रभाव पड़े विना नहीं रहता, कि द्रविड़ों का बहभाग उस समय जैन धर्म को अपनाये हुए था। शिलप्पादि कार की कथा बड़ी रोचक मार्मिक और ऐतिहासिक है। शिलप्पदिकारम की प्रमुख पात्रा कौन्ती एक जैन साध्वो है, और जैन धर्म को संपालिका है, जिन देव और उनके सिद्धान्तों पर उसकी बड़ी प्रास्था है, वह एक स्थान पर कहती है: जिसने राग, द्वेष और मोह को जीत लिया है, मेरे कर्ण उसके अतिरिक्त अन्य किसी का भी उपदेश नहीं सुनना चाहते, मेरी जिह्वा काम जेसा भगवान के १ हजार पाठ १००८ नामों के सिवाय अन्य कुछ भी कहना नहीं चाहती। मेरी प्रांखें उस स्वयम्भू के चरण युगल के सिवा अन्य कुछ नहीं देखना चाहतीं । मेरे दोनों हाथ अर्हन्त के सिवा किसी अन्य के अभिवादन में कभी नहीं जुड़ सकते । मेरा मस्तक फूलों के ऊपर चलने वाले प्रहन्त के सिवाय अन्य कोई फूल धारण नहीं कर सकता । मेरा मन अर्हन्त भगवान के वचनों के सिवा अन्य किसी में भी नहीं रमता । कर्ता ने अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भी अच्छा कहा है । यद्यपि ग्रन्थ में विविध संस्कृतियों और धर्मों का चित्रण है, किन्तु उसका पक्षपात जैनधर्म की पोर है। ग्रन्थ में अहिंसादि सिद्धान्तों की प्रच्छी विवेचना को है। कर्ता का दृष्टिकोण उदार मौर शैली सुन्दर है। इस कारण यह अन्य सभी को रुचिकर है। १. श्री गृपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छः शिष्योऽजनिष्ट भुवनश्यतिकीति । चारिपचर खिलावनिपात मौलि-मालाशिलीमुखविराजितपादपद्यः ।। ---जैनलेख सं०माग १पृ०७२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समन्तभद्र जीवन-परिचय श्राचार्य समन्तभद्र विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे। वे असाधारण विद्या के धनी थे, और उनमें कवित्व एवं वाग्मित्वादि शक्तियाँ विकास को चरमावस्था को प्राप्त हो गई थीं । समन्तभद्र का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। वे एक क्षत्रिय राजपुत्र थे। उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरखपुर के राजा थे । उनका जन्म नाम शान्तिव था। उन्होंने कहां और किसके द्वारा शिक्षा पाई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनकी कृतियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनको जैनधर्म में बड़ी श्रद्धा थी, और उनका उसके प्रति भारी अनुराग था। वे उसका प्रचार करना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने राज्य वैभव के मोह का परित्याग कर गुरु से जैन दीक्षा ले ली, और तपश्चरण द्वारा आत्मशक्ति को बढ़ाया। समन्तभद्र का मुनि जीवन महान् तपस्वी का जीवन था। वे ग्रहिंसादि पंच महाव्रतों का पालन करते थे और ईर्ष्या-भाषा एवणादि पांच समितियों द्वारा उन्हें पुष्ट करते थे। पंच इन्द्रियों के निग्रह में सदा तत्पर, मन-वचन-कायरूप गुप्तिश्रय के पालन में धीर, और सामायिकादि षडावश्यक ोिं के अनुष्ठान में सदा सावधान रहते थे और इस बातका सदा ध्यान रखते थे कि मेरी दैनिकचर्या या कषायभाव के उदय से कभी किसी जीव को कष्ट न पहुँच जाय । अथवा प्रमादवश कोई बाधा न उत्पन्न हो जाय । इस कारण वे दिन में पदमदित मार्ग से चलते थे। चलते समय वे अपनी दृष्टि को इधर उधर नहीं घुमाते थे; किन्तु उनकी दृष्टि सदा मागंशोधन में अग्रसर रहती थी। वे रात्रि में गमन नहीं करते थे और निद्रामैं भी ये इतनी सावधानी रखते थे कि जब कभी कर्वट बदलना ही श्रावश्यक होता तो पीछी से परिमार्जित करके ही बदलते थे । तथा पीढी, कमंडलु मीर पुस्तकादि वस्तुओं को देख भालकर उठाते रखते थे, एवं मल-मूत्रादि भी प्राशुक भूमि में ही क्षेपण करते थे । वे उपसर्ग परिषहों को साम्यभाव से सहते हुए भी कभी चित्त में दिलगीर या खेदित नहीं होते थे। उनका भाषण हित-मिल और प्रिय होता था। वे भ्रामरी वृत्ति से ऊनोदर भाहार लेते थे। पर उसे जीवन-यात्रा का मात्र अवलम्बन (सहारा) समझते थे और ज्ञान-ध्यान एवं संयम की वृद्धि और शारीरिक स्थिति का सहायक मानते थे । स्वाद के लिए उन्होंने कभी श्राहार नहीं लिया। इस तरह वे मूलाचार ( भाचारांग ) में प्रतिपादित चर्या के अनुसार व्रतों का अनुष्ठान करते थे। मट्ठाईस मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करते हुए उन की विराधना न हो, इसका सदा ध्यान रखते थे । भस्मकव्यापि मौर उसका शमन मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए भी कर्मोदयवश उन्हें भस्मक व्याधि हो गई। उसके होने पर भी कभी अपनी चर्या से चलायमान नहीं हुए। जब जठराग्नि की तीव्रता भोजन का तिरस्कार करती हुई उसे क्षणमात्र में भस्म करने लगी; क्योंकि वह भोजन सीमित मौर नीरस होता था, उससे जठराग्नि की तृप्ति होना संभव नहीं था। उसके लिये तो गुरु, स्निग्ध, शीतल मौर मधुर मन्नपान जबतक यथेष्ट परिमाण में न मिले, तो वह जठरा'ग्मि शरीर के रक्त मांसादि धातुओं को भस्म कर देती है। शरीर में दौर्बल्य हो जाता है, तृषा, दाह मौर मूर्छादिक अन्य अनेक बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं। बढ़ती हुई क्षुधा के कारण उन्हें प्रसह्य वेदना होने लगी, कहा भी है"शुभा सभा नास्ति शरीर वेदना' भूख को बड़ी वेदना होती है। समन्तभव ने जब यह अनुभव किया कि रोग इस तरह are नहीं होता, किन्तु दुर्बलता निरन्तर बढ़ती जा रही है, अतः मुनि पद को स्थिर रखते हुए इस रोग का प्रतीकार होना संभव नहीं है, दुर्बलता के कारण जब मावश्यक क्रियामों में भी बाघा पड़ने लगी, तब उन्होंने गुरु श्री से अस्मक व्यामि का उल्लेख करते हुए निवेदन किया कि भगवन् ! इस रोग के रहते हुए निर्दोष चर्या का पालन करना अब मवाय हो गया है। अतः मुझे समाजिभरण की मामा दीजिए। परन्तु गुरु बड़े विद्वान, तपस्वी, भीर-वीर १२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समन्तभद्र एवं साहसी थे। वे समन्तभद्र की जीवनचर्या से अच्छी तरह परिचित थे, निमित्त ज्ञानी थे, और यह भी जानते थे कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं हैं ! और भविष्य में इनसे जनधर्म का विशेष प्रचार एवं प्रभाव होने की संभावना है। ऐसा सोचकर उन्होंने समन्तभद्र को आदेश दिया कि समन्तभद्र ! तुम समाधिमरण के सर्वथा अयोग्य हो। इस वेष को छोड़कर पहले भस्मक व्याधि को शान्त करो। जब व्याधि शान्त हो जाय, तब प्रायरिंचस लेकर मुनि पद ले लेना । समन्तभद्र ! तुम्हारे द्वारा जैनधर्म का अच्छः प्रचार होगा। गुरु आज्ञा से समन्तभद्र ने मुनि जीवन तो छोड़ दिया, किन्तु उसका परित्याग करने में उन्हें जो कष्ट और खेद हुआ वह वचन अगोचर है क्योंकि उन्हें मुनि जोवन से अनुराग हो गया था। वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे अतः उसे छोड़ने में दुःख होना स्वाभाविक है, पर गुरु की प्राज्ञा का उलंघन करना समुचित नहीं है ऐसा सोचकर मुनिवेष का परित्याग कर दिया। मुनिपद छोड़ने के बाद वे शरीर को भस्म से प्राच्छादित कर, और संघ को अभिवादन कर एक वीर योद्धा की सरह 'मणुवकहल्लों से चले गये और काञ्ची (कांजी वरम) पहुंचे। उन्होंने वहां के राजा को पाशीर्वाद पिला रामा द लि . देश में विस्मित हुए, और उसने उन्हें शिव समझकर प्रणाम किया। राजकीय शिवमन्दिर में जो भोग लगता था, उससे उनकी भस्मक व्याधि शान्त हो गई। राजा ने समन्तभद्र से शिवपिण्डो कोणाम करने का आग्रह किया। तब समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र की रचना की, और पाठवे तीर्थकर की स्तुति करते हुए चन्द्रप्रभ भगवान की वंदना को । उसी समय पिण्डो फटकर उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान को मूर्ति प्रकट हई।' और उससे राजा भोर प्रजा में जैनधर्म का प्रभाव अंकित हमा। भस्मक ध्याधि के शान्त होने पर समन्तभद्र प्रायश्चित लेकर पुनः मुनि पद में स्थित हो गए। उन्होंने वीर शासन का उद्योत करने के लिए विविध देशों में विहार किया। ल वाद-विजय स्वामी समन्तभद्र के प्रसाधारण गुणों का प्रभाव तथा लोकहित की भावना से धर्मप्रचार के लिए देशाटन का कितना ही इतिवृस ज्ञात होता है । उससे यह भी जान पड़ता है कि वे जहाँ जाते थे, वहाँ के विद्वान उनकी वाद घोषणाओं और उनके तात्विक भाषणों को चुपचाप सुन लेते थे। पर उनका विरोध नहीं करते थे। इससे उनके महान् व्यक्तित्व का कितना ही दिग्दर्शन हो जाता है। जिन स्थानों पर उन्होंने वाद किया, उनका उल्लेख श्रवण बेल्गोल के शिलालेख के निम्न पद्य में पाया जाता है : "पूर्व पाटलिपुत्र मध्य नगरे मेरी मया ताडिता, पश्चाम्मालव-सिन्धु-ठक्का-विषयेकाचीपुरे विशे। प्राप्तोऽहं करहाटक बहुभट वियोस्कटं संकट वावार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूल विकीरितम् ॥" माचार्य समन्तभद्र ने करहाटक पहुंचने से पहले जिन देशों तथा नगरों में वाद के लिए विहार किया था उनमें पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्ध, ठक्क (पंजाब) देश, कांबीपुर (कांजीवरम) और विदिशा (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे, जहां उन्होंने वाद-भेरी बजाई थी। "कांच्या नामाटकोऽहं मलमलिनतनु लम्पिो पापिया, पुण्डोंडे शास्यभिक्षुः पशपुर नगरे मिष्टभोजी परिवाट । वाराणस्थामभूषं शशधरपवलः पाण्डुरागस्तपस्वी, राणम् पस्यास्ति गाविसः स बातु पुरतो म नियवाची।।" .. - १. पामें समंतभा दि मुरिणा, आरिणम्मनु पुष्णमहिषु । विधरंजित राहि कोहि जिणति-मिसिसिर पिशिफोरि॥ -पापारिक प्रचास्ति Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ समन्तभद्र जहां जिस भेष में पहुंचे उसका उल्लेख इस पञ्च में किया गया है। साथ में यह भी व्यक्त कर दिया है कि मैं जैन निग्रन्थ वादी हैं। हे राजन् ! जिसकी शक्ति हो सामने प्राकर बाद करे। पाचार्य समन्तभद्र के वचनों की यह खास विशेषता थी कि उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में नपेतुले होते थे। चूंकि समन्तभद्र स्वयं परीक्षा प्रधानी थे, प्राचार्य विद्यानन्द ने उन्हें 'परिवेक्षण' परीक्षा नेत्र से सत्रको देखने वाला लिखा है। वे दूसरों को भी परीक्षा प्रधानी बनने का उपदेश देते थे। उनकी वाणी का यह जबर्दस्त प्रभाव था कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके समक्ष मदुभाषी बन जाते थे । महान व्यक्तित्व प्राचार्य समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के विषय में पंचायतो मन्दिर दिल्ली के एक जीर्ण-शीर्ण गुच्छक में स्वयम्भू स्तोत्र के अन्त में पाये जाने वाले पद्य में दश विशेषणों का उल्लेख किया गया है : प्राचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं। जनतोनिमा मांत्रिभरनांत्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलायाम् । प्राशासिद्धिः किमिति बहना सिद्ध सारस्वतोऽहम् ।। इस पद्य के सभी विशेषण महत्वपूर्ण हैं। किन्तु इनमें प्राज्ञासिद्ध पौर सिद्ध सारस्वत ये दो विशेषण समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के द्योतक हैं । वे स्वयं राजा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि-हे राजन् ! मैं इस समुद्र बलया पृथ्वी पर माज्ञा सिद्ध है-जो प्रादेश देता है वही होता है। और अधिक क्या कहूं मैं सिद्ध सारस्वत हूँ-सरस्वती मुझे सिद्ध है । सरस्वती की सिद्धि में ही वादशक्ति का रहस्य सन्निहित है। गुण-गौरव स्वामी समन्तभद्र को प्राद्य स्तूतिकार होने का गौरव भी प्राप्त है। श्वेताम्बरीय प्राचार्य मलयगिरि ने 'आवश्यक सूत्र' की टीका में 'प्राद्यस्तुतिकारोऽप्याह-वाक्य के साथ स्वयंभूस्तोत्रका 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छन (ज्छिता) इमे' नाम का श्लोक उद्धृत किया है। प्राचार्य समन्तभद्र के सम्बन्ध में उत्तरवर्ती प्राचार्यों, कवियों, विद्वानों ने और शिलालेखों में उनके यश का खुला गान किया गया है।। प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें कवियों को उत्पन्न करने वाला विधाता (ब्रह्मा) बतलाया है, और लिखा है कि उनके दजपातरूपी वचन से कुमतिरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये थे ।' कवि वादीभसिंह सूरि ने समन्तभद्र मुनीश्वर का जयघोष करते हुए उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द विहार भूमि बतलाया है । और लिखा है कि उनके वचनरूपी वनिपात से प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूप पर्वतों की चोटियां खण्ड-खण्ड हो गई थी। समन्तभद्र के पागे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों का कोई गौरव नहीं रह गया था । आचार्य जिमसेन ने समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान के वचनों के समान बतलाया है। १. नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे । पद्वचो वचपातेन निभिन्ना कुमलाद्रयः ।। २. सरस्वती-स्वैर-विहारभूमयः समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज-निपात-पारित-प्रतीप राधान्त महीध्रकोटय: ।। -गद्यचिन्तामणि ३. मनः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज भते ।।। ---हरिवंश पुराण Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य ने 'चन्द्रप्रभ चरित्र न भषण बनी हुई हारयष्टि का कोणा लेना कठिन है। आचार्य समन्तभद्र शक संवत् १०५६ के एक शिलालेख में तो यहां तक लिखा है कि स्वामो समन्तभद्र वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ की सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदय को प्राप्त हुए।" वीरनन्दि प्राचार्य ने 'चन्द्रप्रभ चरित्र' में लिखा है कि-गणों से-सूत के धागों से गूंथो गई निर्मल गोल मोतियों से युक्त और उत्तम पुरुषों के कण्ठ का विभूषण बनी हुई हारयष्टि को-धंष्ठ मोतियों को माला को-प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितगति समापट दो भाजीनाणो! कोपा लेना कठिन है, क्योंकि वह वाणी निर्मलवृत्त (चारित्र) रूपो मुक्ताफलों से युक्त है और बड़े बड़े मुनि पुंगवों-प्राचार्यों ने अपने कण्ठ का आभूषण बनाया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: गुणाविन्ता निर्मलवृत्त मौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठ विभूषणी कृता। न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादि भवा च भारतो॥ इस तरह समन्तभद्र की वाणी को जिन्होंने हृदयंगम किया है वे उसको गंभोरता ओर गुरुता से वाकिफ़ हैं। आचार्य समन्तभद्र की भारती (वाणी) कितनी महत्वपूर्ण है इगे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। स्वामी समन्तभद्र ने अपनी लोकोपकारिणी वाणी से जनमार्ग को सब ओर से कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न किया है । जिन्होंने उनकी भारती का अध्ययन और मनन किया है वे उसके महत्व से परिचित हैं। उनको वाणो में उपेय और उपाय दोनों तत्त्वों का कयन अंकित है जो पूर्व पक्ष का निराकरण करने में समर्थ है,जिसमें सप्तभंगों और सप्तनयों द्वारा जीवादि तत्त्वों का परिज्ञान कराया गया है और जिसमें पागम द्वारा बस्तु धर्मों को सिद्ध किया गया है, जिसके प्रभाव से पात्रकेशरी जैसे ब्राह्मण विद्वान जैनधर्म की शरण में पाकर प्रभावशाली आचार्य बनें, जो अकलंक और विद्यानन्द जैसे मुनि पुंगयों के भाष्य और टीकाग्रन्थ से अलंकृत है वह समन्तभद्र वाणी सभी के द्वारा अभिनन्दन नीय, पन्दनीय और स्मरणीय है। कृतियाँ - इस समय प्राचार्य समन्तभद्र की ५ कृतियां उपलब्ध हैं। देवागम (प्राप्तमीमांसा) स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिन शतक (स्तुतिविद्या) और रत्नकरण्डश्रावकाचार। इनके अतिरिक्त जीवसिद्धि नाम की कृति का उल्लेख तो मिलता है पर वह सभी तक कहीं से उपलब्ध नहीं हुई । यहाँ उपलल्ध कृतियों का परिचय दिया जाता है। देवागम-जिस तरह आदिनाथ स्तोत्र और पार्श्वनाथ स्तोत्र 'भक्तमर और कल्याणमन्दिर' जैसे शब्दों से प्रारम्भ होने के कारण भक्तामर और कल्याण मन्दिर नाम से उल्लेखित 'भक्तामर' प्रोर कल्याण" मन्दिर' कहा जाता है । उसी तरह यह ग्रन्थ भी 'देवागम' शब्दों से प्रारम्भ होने के कारण देवागम कहा जाने लगा। इसका दूसरा नाम आप्तमीमांसा है । ग्रन्थ में दश परिच्छेद और ११४ कारिकाएं हैं । ग्रन्थकार ने वीर जिन की परीक्षा कर उन्हें सर्वज्ञ और आप्त बतलाया है, तथा युक्तिशास्त्र विरोधी वाकहेतु के द्वारा प्राप्त की परीक्षा की गई है--अर्थात जिनके वचन यूक्ति और शास्त्र से अविरोधि पाये गये उन्हें ही प्राप्त बतलाया है। और जिनके वपन युक्ति पौर शास्त्र के विरोधी पाये गये और जिनके वचन बाधित हैं, उन्हें प्राप्त नहीं बतलाया। साथ में यह भी बतलाया कि हे भगवन ! आपके शासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं, वे प्राप्त नहीं है, किन्तु आप्त के अभिमान से १. देखो बेलूरताल्लुके का शिलालेख न०.१७, जो सौम्यनाय के मन्दिर की छत के एक पत्थर पर उत्कीरणं है। -स्वामी समन्तभद्र पृ० ४६ २. जनवम समन्तभदमभवद्भद्र समन्तात्मुहुः । -मलिषेण प्रशस्ति ३. जीव सिद्धि विषायीह कृतयुक्त्यनु शासनम् । बचः समन्तभवस्य वीरस्येव विजुम्भते ॥ -हरिवंश पुराण १-३० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ दग्ध हैं। क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है। इस कारण भगवान प्राप ही निर्दोष हैं। पश्चात् उन एकान्तवादों की--भावकान्त, अभावंकान्त, उभयकान्त, प्रवाच्यतकान्त, द्वेतकान्त, प्रवतकान्त, पृथकान्त, नित्यकान्त, भविस्यकान्त, क्षणिकान्त, देवैकान्त, पौरुषकान्त, मादि की-समीक्षा की गई है। मौर बतलाया है कि इन एकान्तों के कारण लोक परलोक, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, धर्म अधर्म, देव पुरुषार्थ पादि की व्यवस्था नहीं बन सकती। प्राचार्य महोदय ने एकान्त वादियों को-जो सर्वथा एक रूप मान्यता के प्राग्रह में अनुरक्त हैं। उन्हें स्व-पर-बैरी बतलाया है। वे एकान्त पक्षपाती होने के कारण स्व-पर वरी है। क्योंकि उनके मत में शुभ अशुभ कर्मों, लोक परलोक आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती। कारण वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसमें अनन्त धर्म गुण स्वभाब मौजूद हैं । वह उन में से एक ही धर्म को मानता है। अतएव अनेकान्त दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है। और एकान्तदृष्टि मिथ्यादृष्टि है। इनकी सिद्धि स्याद्वाद से होती है। स्थाद्वाद का कथन करते हुए बतलाया है कि स्याद्वाद के विना उपादेय तत्त्वों की व्यवस्था भी नहीं बनती। क्योंकि स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा लिये रहता है। सापेक्ष और निरपेक्ष नयों का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सम्यक हैं और वस्तुतत्व की सिद्धि में सहायक होते हैं । इस सबके विवेचन से ग्रन्थ की महत्ता का सहज ही बोध हो जाता है। ग्रन्थकार ने लिखा है कि यह ग्रन्थ हिताभिलापी भव्य जीवों के लिये सम्यक् और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष की प्रतिपत्ति के लिये रचा गया है। इस ग्रन्थ पर भट्टाकलंक देव ने 'अष्टशती' नाम का भाष्य लिखा है जो पाठ सौ श्लोक प्रमाण है । और विद्यानंदाचार्य ने 'प्रष्ट सहस्री' नाम की एक बड़ी टीका लिखी है, जो आज भी गढ़ है जिसके रहस्य को थोड़े ही ध्यक्ति जानते हैं, जिसे देवागमालकृति तथा प्राप्त मीमांसालंकृति भी कहा जाता है। देवागमाल कृति में प्रा. विद्यानन्द ने प्रष्टक्षती को पूरा प्रात्मसात् कर लिया है। अष्टसहस्री पर एक संस्कृत टीका यशोविजय नामक श्वेताम्बरीय विद्वान की है और एक संस्कृत टिप्पणी भी अभिनव समन्तभद्र कृत है चौथी टीका देवागमवृत्ति है, जिसके कर्ता प्राचार्य वसुनन्दि है। पं० जयचन्द जी छाबड़ा जयपुर ने भी इसकी हिन्दी टीका लिखी है, जो अनन्तकोति ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी देवागम की टीका लिखी है, जो दीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट से प्रकाशित है। स्वयंभूस्तोत्र-प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'स्वयंभूस्तोत्र' या 'चतुर्विशति जिन स्तुति' है जिस तरह कल्याण मन्दिर एकीभाव, भक्तामर और सिद्धिप्रिय स्तोत्रों के समान प्रारंभिक शब्द की दृष्टि से स्वयंभूस्तोत्र भी सुघठित है। इसमें वृषभादि चविशति तीर्थकरों की स्तुति की गई है। दूसरों के उपदेश के बिना ही जिन्होंने स्वयं मोक्षमार्ग को जानकर और उसका अनुष्ठान कर अनन्तचतुष्टय स्वरूप-अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त वीर्यरूप मात्म विकास को प्राप्त किया है उन्हें स्वयंभू: कहते हैं। वृषभादि वीर पर्यन्त चतुविशति तीर्थकर अनन्त चतुष्ट. यादि रूप आत्म-विकास को प्राप्त हुए हैं, प्रतः स्वयंभू पद के स्वामी हैं। प्रतएव यह स्वयंभू स्तोत्र सार्थक संज्ञा को प्राप्त है। प्रस्तुत ग्रन्थ समन्तभद्र भारती का एक प्रमुख अंग है। रचना अपूर्व और हृदयहारिणी है। यद्यपि यह ग्रन्थ स्तोत्र की पद्धति को लिये हुए है इस कारण वह भक्तियोग की प्रधानता से ओत-प्रोत है। गुणानुराग को १. स त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यविष्ट ते प्रसिद्धेन न बध्यते ॥ स्वम्मतामतबाह्यानां सर्वथकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमान दग्धानां स्वष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥ -प्राप्तमीमांसा ६-७ २. 'एकालग्रह स्तेषु नाथ ! स्व-पर-वैरिषु, देवागम का०८ ३. इतीयामाप्तमीमांसा विहिताहितमिच्छता । सम्यग्मियोपदेशार्थ-विदोष-प्रतिपत्तये ।। –देवागम का० ११४ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समन्तभद्र भक्ति कहते हैं। जब तक मानव का अहंकार नहीं मरता तब तक उसकी विकास भूमि तैयार नहीं होती। पहने से यदि कुछ विकास होता भी है तो वह अहंकार पाते हो विनष्ट हो जाता है, कहा भी है -"किया कराया सब गया जब पाया हुंकार'। इस लोकोक्ति के अनुसार वह दूषित हो जाता है। भक्तियोग से जहां अहंकार मरता है वहां विनय का विकास होता है। इसो कारण विकास मार्ग में सबसे प्रथम भक्तियोग को अपनाया गया है। प्राचार्य समतभद्र विकास को प्राप्त शुद्धात्माओं के प्रति कितने विनम्र और उनके गुणों में कितने अनुरक्त थे, यह उनके स्तुति पन्धों से स्पष्ट है। उन्होंने स्वयं स्तुति विद्या में अपने विकास का प्रधान श्रेय भक्तियोग को दिया है। और भगवान जिनेन्द्र के स्तवन को भव-वन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है। और उनके स्मरण को दुख द्र से पकने वार जोगा लिया। जनके भजन को लोह से पारस मणि के स्पर्श समान कहा है। विद्यमान गुणों की अल्पता का उल्लंघन करके उन्हें बढ़ा चढ़ा कर कहना लोक में स्तुति कही जाती है । किन्तु समन्तभद्राचार्य की स्तुति लोक स्तुति जैसी नहीं है। उसका रूप जिनेद्र के अनन्त गुणों में से कुछ गुणों का अपनी श वत अनुसार प्रांशिक कीर्तन करना है। जिनेद्र के पुण्य गणों का स्मरण एवं कीर्तन प्रात्मा की पाप-परिणति को छुड़ाकर उसे पवित्र करता है और ग्राम विकास में सहायक होता है फिर भी यह कोरा स्तुति ग्रन्थ नहीं है। इसमें स्तुति के बहाने जैनागम का सार एवं तत्वज्ञान कट कट कर भरा हमा है। टीकाकार प्रभाचन्द्र ने-'नि: शेष जिनोक्त धर्म विषयः और 'स्तवोयमसमः' विशेषणों द्वारा इस स्तवन को अद्वितीय बतलाया है। समन्तभद्र स्वामी का यह स्तोत्र ग्रन्थ अपूर्व है। उसमें निहित वस्तु तत्व स्व-पर के विवेक कराने में सक्षम है। - यद्यपि पूजा स्तुति से जिनदेव का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि वे वीतराग हैं-राग द्वेषादि से रहित हैं। मतः किसी की भक्ति पूजा से वे प्रसन्न नहीं होते, किन्तु सच्चिदानन्दमय होने से वे सदा प्रसन्न स्वरूप है। निन्दा से भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि वे वर रहित हैं। तो भी उनके पुण्य गुणों के स्मरण से पाप दूर भाग जाते हैं और पूजक या स्तुति कर्ता की प्रात्मा में पवित्रता का संचार होता है समाचार्य महोदय ने इसे पोर भी स्पष्ट किया है : स्तुति के समय उस स्थान पर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो फल की प्राप्ति भी चाहे सीधी होती हो या न हो परन्तु प्रात्म-साधन में तत्पर साधु स्रोता की विवेक के साथ भक्ति भार पूर्वक की गई स्तुति कुशस परिणाम की-पुण्य प्रसाधक पवित्र शुभभावों की-कारण जरूर होती है और वह कुशल परिणाम श्रेय फल का दाता है । जब जगत में स्वाधीनता से श्रेयोमार्ग इतना सुलभ है, तब सर्वदा अमिपूज्य हे नमि-जिन ! ऐसा कौम विहान अथवा विवेकी जन है, जो आपकी स्तुति न करें? अर्थात् अवश्य ही करेगा। स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तवा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किवं स्वाधीन्याजगति सुलभ बायस-पथे, स्तुया न त्वा विद्वानसततमभिपुज्यं नमिजिनम् ॥११६ इन चतुर्विशति तीर्थकरों के स्तवनों में गृणकीर्तनादि के साथ कुछ ऐसी बातों का अथवा घटनामों का भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास तथा पुराण से सम्बन्ध रखती हैं। और स्वामी समन्तभद्र की लेखनी से प्रसूत होने के " "- - १. "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमव बुध्या अनुष्ठाय वाजन्त चतुष्टयतया भवतीति स्वयंभूः ।" स्वयंभूस्तोत्रटीका २. यायात्म्यमुल्लंघगुणोदयाख्या, लोके स्तुति भू रिगुरसीवरेस्ते । भरिणष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तं जिन ! त्यां किमिव स्तुयाम ।। ---युस्मनु शासन २ ३. न पूज यार्थस्त्वपि वीतराने न निन्दया नाय! विवान्त रे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनं पुनातु चित्त दुरितात्र जनेभ्यः ।। +स्वयंभू स्तोत्र ५० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ कारण उनका अपना खास महत्व है। जब भगवान पार्श्वनाथ पर केवल ज्ञान होने से पूर्व कमठ के जीव सम्बर नामक देव ने उपसर्ग किया था और घरणेन्द्र पद्मावती ने उन को संरक्षा का प्रयत्न किया था, तब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । और वह संवर देव भी काल लब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यकत्व की विशुद्धता प्राप्त कर ली। प्राचार्य महोदय ने भगवान पार्श्वनाथ के कैवल्य जीवन की उस महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है -- जब भगवान पार्श्वनाथ को विधूत कल्मष और शमोपदेश ईश्वर के रूप में देखकर वे वनवासी तपस्वी भी शरण में प्राप्त हुए थे, जो अपने श्रमको पंचाग्नि साधनादि रूप प्रयास को विफल समझ गए थे, और भगवान जैसे विधूत कल्मष घातिकर्म चतुष्टयरूप पाप से रहित ईश्वर होने की इच्छा रखते थे, उन तपस्वियों को सख्या सात सौ बतलाई गई है १ । यथा: वरं वीक्ष्य विधूत कल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । - शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥४ इस तरह यह स्तोत्र ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है, इसमें स्तवन के साथ दार्शनिकता का पुट भी अंकित है। स्तुतिविद्या - इस ग्रन्थ का मूल नाम 'स्तुतिविद्या' है, जैसा कि प्रथम मंगल पद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुति विद्यां प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है। यह शब्दालंकार प्रधान काव्य ग्रन्थ है । इसमें चित्रालंकार के अनेक रूपों को दिया गया है, उन्हें देखकर श्राचार्य महोदय के अगाध काव्यकौशल का सहज ही भान हो जाता है । इस ग्रन्थ के कवि नाम गर्भवाने 'गत्वक स्तुतमेव' ११६ वें पद्य के सातवें वलय में 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे वलय में 'जिनस्तुतिशत, निकलता है । ग्रन्थ में कई तरह के चत्रवृत्त दिये हैं। आचार्य ने अपने इस ग्रन्थ को 'समस्त गुणगणोपेता' और सर्वालंकार भूषिता बतलाया है। यह ग्रन्थ इतना गृह है कि विना संस्कृत टीका के लगाना प्रायः अशक्य है। इसी से टीकाकार ने 'योगिनामपि दुष्करा' विशेषण दिया है और उसे योगियों के लिए भी दुष्कर बतलाया है। आचार्य महोदय ने ग्रन्थ रचना का उद्देश्य प्रथमं पद्य में 'आगमां जये' वाक्य द्वारा पापों को जीतना बतलाया है। इससे इस ग्रन्थ की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है। वास्तव में पापों को कैसे जीता जाता है, यह बड़ा ही रहस्यपूर्ण विषय है। इस विषय में यहां इतना लिखना ही पर्याप्त होगा कि जिन तीर्थकरों की स्तुति की गई है - वे सब पापविजेता हुए हैं। उन्होंने काम-क्रोधादि पाप प्रकृतियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है, उनके चिन्तन, नन्दन और अराधन से अथवा पवित्रहृदय - मन्दिर में विराजमान होने से पाप खड़े नहीं रह सकते । पापों के बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते हैं जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर मोर के आने से उससे लिपटे हुए भुजंगों (सर्पों) के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं२ । वे अपने विजेता से घबराकर अन्यत्र भाग जाने की बात सोचने लगते हैं। अथवा उन पुण्य पुरुषों के ध्यानादिक से श्रात्मा का वह निष्पाप वीतराग शुद्ध स्वरूप सामने आ जाता है। उस शुद्धस्वरूप के सामने श्राते ही आत्मा में अपनी उस भूसी हुई निजनिधि का स्मरण हो जाता है और उसकी प्राप्ति के लिए अनुराग जाग्रत हो जाता है, तब पाप परिणति सहज ही छूट जाती है। अतः १. प्रापत्सम्यक्त्वशुद्धि च दृष्ट्वा लवनवासिनः । तापसास्त्यक्त मिथ्यात्वाः शतानां सप्त संयमम् ॥ २. हृदतत्व विभो ! शिथलीभवन्ति, जन्तोः क्षरण निविडा' अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग --: मभ्यागते व शिखण्डिनि चन्दनस्य || --- उत्तर पुराण ७३ – १४६ - कल्याण मन्दिर स्तोत्र ' Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EE आचार्य समन्तभद्र जिन पवित्रात्मानों में वह शुद्ध स्वरूप पूर्णतः विकसित हुआ है, उनकी उपासना करता हुआ भव्य जीव अपने में उस शुद्ध स्वरूप को विकसित करने के लिए उसी तरह समर्थ होता है, जिस तरह तैलादिविभूषित वत्ती दीपक की उपासना करती हुई उसमें तन्मय हो जाती है- वह स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठती है। यह सब उस भक्तितयोग का ही माहात्म्य है। भक्त के दो रूप हैं सकामाभक्ति और निष्कामाभक्ति । सकामा भक्ति संसार के ऐहिक फलों की बांधा की लिए हुए होती है। वह संसार तक ही सीमित रखती है। यद्यपि वर्तमान में उसमें कितना ही विकार ग्रागया है। लोग उस व्यक्ति के मौलिक रहस्य को भुलगए हैं, और जिनेन्द्र मुद्रा के समक्ष लौकिक एवं सांसारिक कार्यों की याचना करने लगे हैं । बहां प्रजजन भक्ति के गुणानुराग से व्युत होकर संसार के लौकिक कार्यों की प्राप्ति के लिये भक्ति करते देखे जाते है। किन्तु निष्कामाभक्ति में किसी प्रकार की चाह या अभिलाषा नहीं होती, वह अत्यन्त विशुद्ध परिणामों की जनक है। उससे कर्म निर्जरा होती है, और आत्मा उससे अपनी स्वात्मस्थिति को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है । श्रतः निष्काम भक्ति भद-समुद्र से पार उतारने में निमित्त होती है । शुभाशुभ भावों की तरतमता और कपायादि परिणामों की तीव्रता मन्दतादि के कारण कर्म प्रकृतियों में बराबर संक्रमण होता रहता है। जिस समय कर्म प्रकृतियों के उदय की प्रबलता होतो है उस समय प्रायः उनके अनुरूप ही कार्य सम्पन्न होता है। फिर भी वीतरागदेव की उपासना के समय उनके पुण्यगुणों का प्रेम पूर्वक स्मरण और चिन्तन उनमें अनुराग बढ़ाने से शुभपरिणामों की उत्पत्ति होती है जिससे पाप परिणति छूटती है और पुण्य परिणति उसका स्थान ले लेती है, इससे पाप प्रकृतियों का रस सूख जाता है और पुण्य प्रकृतियों का रस बढ़ जाता है। पुण्य प्रकृतियों के रस में अभिवृद्धि होने से अन्तरायकर्म जो मूल पाप प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग र वीर्य में विघ्न करती है-- उन्हें नहीं होने देती वह भग्नरस होकर निर्बल हो जाती है, फिर वह हमारे दृष्ट कार्यों में बाधा पहुंचाने में समर्थ नहीं होती । तब हमारे लौकिक कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं । जैसा कि तत्वार्थश्लोकवार्तिक में उद्धत निम्न पद्य से स्पष्ट है : --: "नेष्टं विहन्तुं शुभभाव भग्न रस प्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुरागन्नुस्थाविरिष्टार्थ कदावाः ॥" अतएव वीतरागदेव की निर्दोष भक्ति ग्रमित फल को देने वाली है इसमें कोई बाधा नहीं आती । यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती का मंगरूप है। इसमें वृषभादि चतुविशति तीर्थंकरों को अलंकृत भाषा में कलात्मक स्तुति की गई है। इसका शब्द विन्यास अलंकार की विशेषता को लिये हुए है। कहीं श्लोक के एक चरण को उलटकर रख देने से दुसरा चरण बन जाता है। और पूर्वार्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्ध, और समूचे श्लोक को उलट कर रखने से दूसरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी उनका अर्थ भिन्न-भिन्न है, इस ग्रन्थ के अनेक पद्य ऐसे हैं, जो एक से अधिक अलंकारों को लिये हुए है। और कुछ ऐसे भी पद्य हैं, जो दो-दो अक्षरों से बने हैं--दो व्यंजनाक्षरों में ही जिनके शरीर की सृष्टि हुई है । स्तुतिविद्या का १४वां पद्य ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद निम्न प्रकार के एक एक अक्षर से बना है । या याया यये पाय नानानूना ननानन । नमा ममा ममा मामिता तती तिततीतितः ॥ यह ग्रन्थ कितन महत्वपूर्ण है यह टीकाकार के 'घन कठिन घाति कर्मेन्धन दहन समर्था, वाक्य से जाना जाता है जिसमें घने कठोर घातिया कर्मरूपी ईन्धन को भस्म करने वाली समर्थ यग्नि बतलाया है । युक्त्यनुशासन प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन है। यह ६४ पद्यों की एक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । यद्यपि श्राचार्य समन्तभद्र ने ग्रन्थ के यादि और अन्त के पद्यों में युक्त्यनुशासन का कोई नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु १. देखो, ५१, ५२ और ५५वी पद्य Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उनमें स्पष्ट रूप से वीर जिन स्तवन की प्रतिक्षा गार उसी की परिशनास्ति का उल्लेख है। इस कारण ग्रन्थ का प्रथम नाम 'बीर जिन स्तोत्र' है। माचार्य समन्तभद्र ने स्वयं ४८व पद्य में 'युक्त्यनुशासन' पद का प्रयोग कर उसकी सार्थकता प्रदर्शित कर दी है और बतलाया है कि युक्त्यनुशासन शास्त्र प्रत्यक्ष और पागम से अविरुद्ध प्रथं का प्रतिपादक है। "दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।" अथवा जो युक्ति प्रत्यक्ष प्रौर आगम के विरुद्ध नहीं है, उस वस्तु की व्यवस्था करने वाले शासन का नाम युक्त्यनुशासन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुतत्त्व का जो कथन प्रत्यक्ष और पागम से बिरुद्ध है वह युक्त्यनुशासन नहीं हो सकता। साध्या बिनाभावी साधन से होने वाले साध्यार्थ का कथन युक्त्यनुशासन है।' इस परिभाषा को बे उदाहरण द्वारा पुष्ट करते हुए कहते हैं कि वास्तव में वस्तुस्वरूप स्थिति, उत्पत्ति पौर विनाश इन तीनों को प्रति समय लिए हए ही व्यवस्थित होता है । इस उदाहरण में जिस तरह वस्तुतत्त्व उत्पादादि त्रयात्मक युक्ति द्वारा सिद्ध किया गया है, उसी तरह वीरशासन में सम्पूर्ण पर्य समूह प्रत्यक्ष और पागम पविरोधी युक्तियों से प्रसिद्ध है। पुन्नाट संघी जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में बतलाया है कि प्राचार्य समन्तभद्र ने 'जीवसिद्धि' नामक ग्रन्थ बनाकर युक्त्यनुशासन की रचना की है । चुनाचे टीकाकार प्राचार्य विद्यानन्द ने भी ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन बतलाया है। ग्रन्थ में दार्शनिक दृष्टि से जो वस्तु तत्व पचित हना है वह बड़ा ही गम्भीर और तात्त्विक है। इसमें स्तवन प्रणाली से ६४ पद्यों द्वारा स्त्रमत-परमत के गुण दोषों का सूत्र रूप से बड़ा मार्मिक वर्णन दिया है। और प्रत्येक विषय का निरूपण प्रबल यूक्तियों द्वारा किया गया है। प्राचार्य समन्तभद्र ने 'युक्तिशास्त्राऽविरोधि वास्त्व हेतु से देवागम में आपकी परीक्षा की है, और जिनके वचन युक्ति मोर शास्त्र से अविरोध रूप है उन्हें ही प्राप्त बतलाया है और शेष का प्राप्त होना बाधित ठहराया है। भौर बतलाया है कि प्रापके शासनामृत से वाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं वे माप्त नहीं हैं किन्तु प्राप्तभिमान से दग्ध है; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्टतत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से वाधित है। प्रन्थ में भगवान महावीर की महानता को प्रदर्शित करते हुए बतलाया है कि-'वे अतुलित शान्ति के साथ १. 'स्तुति गोचरत्वं निनीषवः स्मो वयमद्यवीर ।। " 'स्तुतिः शपरपाथेयः पदमधिपतस्त्वं जिन ! मया, महावीरो पीरो दुरितपरसेनाऽभि विजये ।।४।। २. "अन्यथानुपपन्नत्य नियमनिश्चयलक्षणात् साधनात्साध्या प्ररूपणं युक्त्यनुशासनमिति' -पुक्त्यनुशासन टीका पृ. १२२ ३. युक्त्यनुशासन प्रस्तावना पृ०२ ४. 'जीवसिद्धि विघापोह कृतयुक्त्यनुशासनम् । -हरिवंश पुराण ५. 'जीवात् समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्तमनुशासनम् ।' (१) 'स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपते वीरस्य नि:शेषतः' । (२) "श्रीमदीरजिनेश्वरामसगुणस्तोत्रं परीषोमणः । साक्षात्स्वामिसमन्तभवगुरुभिस्तत्वं समीक्ष्याखिनम् । प्रोक्तं पुस्तमनु शासनं विजयभिःस्पाढादमार्गानुर्गः ॥" (४) ६. स्वनमाऽमृतवालाना सरंयकान्त-बादिनाम् । माप्ताभिमानन्दग्धानो स्पेष्टं दृष्टेन बाध्यते ।। देवागम का०७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } आचार्य समन्तभद्र - शुद्धि और शक्ति की पराकाष्ठा को — चरमसीमा को प्राप्त हुए हैं। और शान्ति सुखस्वरूप हैं - आप में ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप कर्ममल के क्षय से अनुपम ज्ञान दर्शन का तथा अन्तराय कर्म के प्रभाव से अनन्त वीर्य का ग्राविभवि 'हुआ है। और मोहनीय कर्म के विनाश से अनुपम सुख को प्राप्त हैं। आप ब्रह्म पथ के मोक्षमार्ग के नेता हैं । और महान् हैं । श्राप का मत अनेकात्मक शासन- दमादम त्याग और समाधि की निष्ठा को लिये हुए है ओत-प्रोत है। नयों और प्रमाणों द्वारा सम्यक वस्तु तत्व को सुनिश्चत करने वाला है, और सभी एकान्त वादियों द्वारा अबाध्य है । इस कारण वह अद्वितीय हैं। इतना ही नहीं किन्तु वीर के इस शासन को 'सर्वोदय तीर्थ' बतलाया है - जो सबके उदय उत्कर्ष एवं आत्मा के पूर्ण विकास में सहायक है, जिसे पाकर जीव संसार समुद्र से पार हो जाते हैं । वही सर्वोदय तीर्थ है, जो सामान्य- विशेष, द्रव्य पर्याय विधि-निषेध और एकत्व अनेकत्वादि सम्पूर्ण धर्मों को अपनाए हुए है, मुख्य गौड़ की व्यवस्था से सुव्यवस्थित है, सब दुखों का अन्त करने वाला है, और अविनाशी है, वही सर्वोदय तीर्थ कहे जाने के योग्य है; क्योंकि उससे समस्त जीवों को भवसागर से तरने का समोचीन मार्ग मिलता है । वीर के इस शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शासन से यथेष्ट द्वेष रखने वाला मानव भो यदि समदृष्टि हुआ उपपत्ति चक्षु से - मात्सर्य के त्याग पूर्वक समाधान की दृष्टि से - वीरशासन का अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही कामान हो जाता है- सर्व एकान्त रूप मिथ्या प्राग्रह छूट जाता है, वह अभद्र ( मिथ्यादृष्टि) होता हुआ भी सब मोर से भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से प्रकट है: hi मयुपपचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टि रिष्टम् । स्वयि ध्रुवं पण्डित-मान शृङ्गो भवत्यभवोऽपि समन्तभद्रः ।। ६२ ग्रन्थ सभी एकान्त वादियों के मत की युक्ति पूर्ण समीक्षा की गई है, किन्तु समीक्षा करते हुए भी उनके प्रति विद्वेष को रंचमात्र भी भावना नहीं रही है । और न वीर भगवान के प्रति उनको रागात्मिका प्रवृत्ति ही रही है। ग्रन्थ में संवेदनाद्वैत, अद्वैतवाद, शून्यबाद श्रादि वादों और चार्वाक के एकान्त सिद्धान्त का खंडन करते हुए fafe, free or वक्तव्यता रूप सप्तभंगों का विवेचन किया है, तथा मानस प्रहिसा की परिपूर्णता के लिये farari का वस्तुस्थिति के आधार से यथार्थं सामंजस्य करने वाले अनेकान्तदर्शन का मौलिक विचार किया गया है। साथ ही वीर शासन की महत्ता पर प्रकाश डाला है । ग्रन्थ निर्माण के उद्देश्य को अभिव्यक्त करते हुए ग्राचार्य कहते हैं कि हे भगवान् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभाव से नहीं रचा गया है। क्योंकि ग्राप ने भव-पाश का छेदन कर दिया है। और दूसरों के प्रति द्वेष भाव से भी नहीं रखा गया है; क्योंकि हम तो दुर्गणों की कथा के अभ्यास को खलता समझते हैं । उसप्रकार का अभ्यास न होने से वह खलता भी हम में नहीं है। तब फिर इस रचना का उद्देश्य क्या है ? उद्देश्य यही है कि लोग न्यायअन्याय को पहचानना चाहते हैं और प्रवृत पदार्थ के गुण दोषों के जानने की इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र हिता ७. "त्वं शुद्धिशक्त्यो रुदयस्काष्ठां तुला पतीतां जिनः शान्तिरूपाम् । अवापि ह्यपथस्य नेता, महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥ ४ ८. दम-याग समाधि-निष्ठ नय-प्रमाण प्रकृताऽऽञ्ज सार्थम् । अधुष्प मन्येरखिलं प्रवाद जिन ! त्वदीयं मत मद्वितीयम् । ६ १०१ ६. सर्वोवतद्गमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोन पेक्षम् । सर्वापदाम तक निरन्त सर्वोदय तीर्थमिदं तव ।। ६२ युवश्यनुशासन — युवत्यनुशः सन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहाग-भाग २ न्वेषण के उपाय स्वरूप प्रापकी गुण कथा के साथ कहा गया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है : न रागान्नः स्तोत्र भवति भव-पासच्छिदिमुनी, न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाऽभ्यास-खलता। किमु न्यायाऽन्याय-प्रकृत-गुणदोषज-मनसां, हितान्वेषोपायस्तवगण-कथा-संग-गवितः ।।६३ इस तरह इस ग्रन्थ की महत्ता और गंभीरता का कुछ प्राभास मिल जाता है। किन्तु ग्रन्थ का पूर्ण अध्यपन किये बिना उसका मर्म समझ में नहीं पा सकता। रस्नकरण्ड श्रावकाचार-इस ग्रन्थ में श्रावकों को लक्ष्य करने समीचीन धर्म का उपदेश दिया गया है। जो कर्मों का विनाशक और संसारी जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में स्थापित करने वाला है, वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप है। और दर्शनादिक को जो प्रतिकाल या विपरीत स्थिति है वह सम्यक् न होकर मिथ्या है अतएव वह अधर्म है, और संसार परिभ्रमण का कारण है। आचार्य समन्तभद्र ने इस उपासकाध्ययन ग्रंथ में श्रावकों के द्वारा अनुष्ठान करने योग्य धर्म का व्यवस्थित एवं हृदयग्राही वर्णन किया है । जो प्रात्मा को समुन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है । ग्रन्थ की भाषा प्राञ्जल मधुर प्रौढ़ और पर्थ गौरव को लिये गए है। यह ग्रन्य धर्मगन ना होगा सा पिटारा हो है। इस कारण इसका रत्नकरण्ड नाम सार्थक है और समीचीन धर्म को देशना को लिये हुए होने के कारण समोचीन धमशास्त्र है। उसका प्रत्येक स्त्री पुरुष को मध्ययन या मनन करना आवश्यक है और तदनुकूल आचरण तो कल्याण का कर्ता है हो । समन्तभद्र से पहले धावक धर्म का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन करने वाला दूसरा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। और पश्चातवर्ती ग्रत्यकारों में भी इस तरह का श्रावकाचार दृष्टि गोचर नहीं होता। वे प्राय: उनके अनुकरण रूप है । यद्यपि परवर्ती विद्वानों के द्वारा रचे हुए श्रावकाचार-विषयक ग्रन्थ अवश्य हैं, पर इसके समकक्ष का अन्य कोई ग्रन्थ देखने में नहीं पाया । प्रस्तुत ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है, जिसकी श्लोक संख्या १५० डेढ़सी है। प्रत्येक अध्याय में दिये हुए वर्णन का संक्षिप्तसार इस प्रकार है: प्रथम अध्याय में सच्चे प्राप्त प्रागम और तपोभृत का त्रिमूढता रहित, अष्ट मदहीन और आठ अंग सहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। इन सबके स्वरूप का कथन करने हुए बतलाया है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्म सन्तति का विनाश करने में समर्थ नहीं होता । शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, प्राशा और लोभ से कुलिगियों को प्रणाम और विनय भी नहीं करता । शान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतया उपासनीय है । सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान है उसके, बिना ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय उसो तरह नहीं हो पाते, जिस तरह बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति आदि नहीं होती। समन्तभद्राचार्य ने सम्यग्दर्शन की महत्ता का जो उल्लेख किया है, वह उसके गौरव का द्योतक है। दुसरे अधिकार में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके विषयभूत चारों अनुयोगों का सामान्य कथन दिया है। तीसरे अधिकार में सम्यक चारित्र धारण करने की पात्रता का वर्णन करते हुए हिसादि पाप प्रणालिकाप्रों से विरति को चारित्र बतलाया है। और वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है, सकल चारित्र मुनियों के और विकल चारित्र गृहस्थों के होता है, जो अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप है। चतुर्थ अधिकार में दिक्त, अनर्थदण्डव्रत और भोमोपभोग परिमाण व्रत इन तीन गुण व्रतों का, अनर्थदण्ड व्रत के पांच भेदों का और उनके पांच-पांच प्रतिचारों का वर्णन किया है। पांचवें अधिकार में ४ शिक्षावतों का और उनके अतिचारों का वर्णन किया गया है। सामायिक के समय गृहस्थ को चलोपसृष्ट मुनि की उपमा दी है। छठे अधिकार में सल्लेखना का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके पांच प्रतिचारों का वर्णन दिया है। व का घोतक माद नहीं होतात, वृद्धि और Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समन्तभद्र सातवें अधिकार में श्रावक के उन ग्यारह पदों का प्रतिमानों का स्वरूप दिया है और बतलाया है कि उत्तरोत्तर प्रतिमाओं के गुणपूर्वकपर्व की प्रतिमाओं के सम्पूर्ण गुणों लिये हुए हैं। इस तरह इस ग्रन्य में श्रावक के अनुष्ठान करने योग्य समीचीन धर्म का विधिवत कथन दिया हआ है। यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती के अन्य ग्रन्थों के समान ही प्रामाणिक है और मनन करने के योग्य है। प्राचार्य समन्तभद्र की उपलब्ध सभी कृतियां महत्वपूर्ण और अपने अपने वैशिष्टय को लिये हुए हैं। समय प्राचार्य समन्तभद्र के समय के सम्बन्ध में स्व०५० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक प्रमाणों के साथ विचार किया है और उनका समय वित्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाया है। बे तत्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) के बाद किसी समय हुए हैं। गृद्धपिच्छाचार्य विश्राम की दूसरी शताब्दी के आचार्य माने जाते हैं। समन्तभद्र उन्हीं के बाद और देवनन्दी ( पूज्यवाद )से बहुत पूर्ववर्ती हैं। वे सम्भवतः विक्रम को दूसरी शताब्दी के विद्वान होने चाहिये । कोंगणि वंग के प्रथम राजा, जो गंग वश के संस्थापक सिंहनन्याचार्य से भी पूर्ववर्ती हैं। कोंगणिवर्मा का एक प्राचीन शिलालेख शक सं० २१ का उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि कोंगणि बर्मा वि० सं० १६० (ई. सन् १०३) में राज्याशासन पर प्रारूद हुए थे। अतः प्रायः वही समय प्राचार्य सिंहनन्दी का है। समन्तभद्र उससे पहले हए है। क्योंकि मल्लियेण प्रशस्ति में सिंहनन्दि में पूर्व समन्तभद्र का स्मरण किया गया है। अतः उनका समय दिन की सीमान्ती कर रही है जो मुख्तार साहब ने निश्चित किया है। वह प्रायः ठीक है। सिंहनन्दि मलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य काणरगण श्रीर मेप पाषाण गच्छ के विद्वान थे। वे दक्षिण देश के निवासी थे। सिद्धेश्वर मन्दिर के शिलालेख में उन्हें दक्षिण देशवाशी और गंगमही मण्डल का समुद्धारक बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैं दक्षिण-घेश-निवासी गंगमही-मण्डलिक-कुल-समुखरणः । श्रीमलसंघनाथो नाम्नः श्रीसिहनन्विमुनिः ।। मुनि सिंहनन्दि गंगवंश के संस्थापक के रूप में स्मुत किये जाते हैं। सिंहनन्दि ने गंगराजा को जो सहायता दी उसके परिणामस्वरूप गंगराजाओं ने जैनधर्म को बराबर संरक्षण दिया । गंग राजवंश दक्षिण भारत का प्रमुख राज्य रहा है। चौथी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक के शिलालेखों से प्रमाणित है कि गंगवंश के शासकों ने जैन मन्दिरों का निर्माण कराया, जैन मूर्तियां प्रतिष्ठित कराई । जैन साधुओं के निवास के लिए गुफाएं निर्माण करायों और जैनाचार्यों को दान दिया। कल्लरगुड के शिलालेख में बतलाया हैं कि पद्मनाभ राजा के ऊपर उज्जैन के राजा महीपाल ने माक्रमण किया। तब उसने दडिग और माधव नाम के दो पुत्रों को दक्षिण की ओर भेज दिया। वे यात्रा करते हुए 'पेरूर' नाम के सुन्दर स्थान में पहुँचे। उन्होंने वहीं अपना पड़ाव डाल दिया और तालाब के निकट चैत्यालय को देखकर उसकी तीन प्रदक्षिणा दी। वहीं उन्होंने आचार्य सिंहनन्दि को देखा, और उनकी वन्दना कर अपने पाने का कारण बतलाया। उसे सुनकर सिहन्दि ने उन्हें हस्तावलम्ब दिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी पावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार और राज्य प्रदान किया। जब उन्होंने सम्पूर्ण राज्य पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया तब प्राचार्य सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार शिक्षा दी-'यदि तुम अपने बचन को पूरा न करोगे, या जिन शासन को सहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का यदि अप १. देखो, जनासाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ०६६५ २. शिलालेख का आद्य अश इस प्रकार है : ___ "स्वस्ति श्रीमत्कोंगरिंणवर्म धर्भ महाधिराज प्रयम गंगस्य दत्तं शक वर्ष गतेषु पंचविशति २५नेय शुभ किंतुसंवत्सरमु फाल्गुग शुद्ध पंचमी शनि रोहिरिण...'' -देखो, मजन गूह ताल्लुके (मैसूर) के शिलालेख नं ११०, सन् १८६४ (E. C. Im) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ हरण करोगे, मद्य-मांस मधु का सेवन करोगे या नीचों को संगति में रहोगे, आवश्यकता होने पर भी दूसरों को अपना धन नहीं दोगे, और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायगा।' उक्त शिलालेख में सिहनन्दि के द्वारा दिये गए राज्य का विस्तार भी लिखा है। उच्च नन्दिगिरि उनका किला था, कुवलाल राजधानी थी, ६६ हजार देशों पर प्राधिपत्य था। निर्दोष जिनदेव उनके देवता थे। युद्ध में विजय ही उनका साथी था। जैन मत उनका धर्म था । और दडिग तथा माधव बड़ी शान के साथ पृथ्वी का गासन करते थे। ईस्वी सन १९२६ के शिलालेख में लिखा है कि सिंहनन्दि मुनि ने अपने शिष्यों को प्रहन्त भगवान की ध्यानरूपी वह तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो घाति कर्मरूपी शत्रुसैन्य की पर्वतमाला को काट डालती है। यदि ऐसा न होता तो देवी के प्रवेश मार्ग को रोकने वाले पत्थर के स्तम्भ को माधव अपनी तलवार के एक ही बार से कैसे काट डालता ११७६ ई० के एक शिलालेख में भी सिंहनन्दि के द्वारा गणराज्य की स्थापना का निर्देश है । सिंहनन्दि का समय ईसा को द्वितीय शताब्दी है। आचार्य शिवकोटि (शिवार्य) प्राचार्य शिवकोटि या शिवार्य अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इन्होंने अपनी कृति प्राराधना की अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार हैं प्रजजिणणंवि गणि सव्वगुत्तगणि प्रपमित्तबीणं । । पापियवसले सम्म सुतं मत्थं ॥२१६५|| पुण्यायरियणिबना उबजीरित्ता इमास सत्तीए । मारामचा सिजेग पाणिवलभोरणा सदा ॥२१६६|| इन दोनों गापामों में बतलाया है कि-'मार्य जिननन्दिगणी, मार्य मित्रन दिगणी के चरणों के निकट भले प्रकार सूत्र और पर्व को समझ करके तथा पूर्वाचार्यों द्वारा निबंड हुई पाराषनामों के कपन का उपयोग करके पाणितल भोजी-करतल पर लेकर भोजन करने वाले-शिवार्य ने यह माराधना अन्य अपनी शक्ति के अनुसार इस प्रशस्ति में मार्य जिनमन्दिगणी आदि जिन तीन गुरुमों का नामोल्लेख किया है वे कौन हैं और कब हुए हैं। उनकी गुरुपरम्परा मोर गण-गच्छादि क्या है? इत्यादि बातों के जानने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। हो, द्वितीय गाथा में प्रयुक्त हुए प्रत्यकार के पाणिदलभोइणा' इस विशेषण पद से इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचार्य शिवकोटि ने इस अन्य की रचना उस समय की जब जैनसंध दिगम्बर श्वेताम्बर दो विभागों में विभक्त हो घका था। उसी भेद को प्रदर्शित करने के लिए अन्यकत्ता ने उक्त विशेषण पद का लगाना उचित समझा है। फलतः वे उक्त भेद से सम्भवतः सौदसौ वर्ष बाद हुए हों। क्योंकि पाराधना अन्य में प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की कुछ गाथाएं ज्यों के स्यों रूप में पाई जाती है उसके एक दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं समभट्टाभट्टा सणभहस्स गरिय मिष्या। सिम्झंतिपरियभट्टा सणभट्ठा व सिझति ॥ माराधना की नं०७३८ पर पाई जानेशली यह गाथा कुन्दकुम्व के दर्वानप्राभूत की तीसरी गाया है। इसी तरह कुन्दकुन्ध केमियमसार की दो पाषाएँ ६१,७०माराधना में ११७, ११मसम्बरो परसपा परित्र पाहरकीबी गाथा आराधना में १२११पर पाईजातीहै। पौरपारस प्रवक्ता की दूसरी गापा मारापना १५पर ज्यों के त्यों रूप में उपलब्ध होती है। इनके अतिरिक्त कुछ पापाएँ ऐसी भी है जो पोडेसे पाठभेडया परिणतनापि के साथ एपलब्ध होती है। ऐसी गापामों का एक नमूना इस प्रकार है Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य शिवकोदि (गिनाय) जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्स कोडोहिं । तं जाणी तिहिगतो खवेवि उस्सासमेतण ।। --प्रवचनसार ३१३८ जं अण्णाणी कम्म खबेदि भवसथसहस्सको डिहि । तं णाणी तिहिगत्तो खवेथि अन्तो मुहत्तेण ॥ -पारा० १०८ इसी तरह चारित्र प्राभूत की गाथा नं० ३५, ३२, ३३, ३५, पाराधना में कुछ परिवर्तन तथा पाठ भेद के साथ गाधा नं० ११८४, १२०६, १२०७, १२१०, १८२४ उक्त स्थिति में उपलब्ध होती है। इससे स्पष्ट है कि पाराधना के कर्ता शिवार्य कन्दकन्दाचार्य के बहत बाद हुए हैं। इनाही नहीं किन्तु शिवकोटि के सामने समन्तभद्र के ग्रन्थ भी रहे है। क्योंकि इस ग्रन्थ में बहत स्वयंभ स्तोत्र के कुछ पद्यों के भाव को अनुवादित किया गया है। संस्कृत टीकाकार ने भी उसके समर्थन में स्वयंभू स्तोत्र के वाक्यों को उद्धृत करके बतलाया है : अह अह भंजइ भोगे तह तह भोगेसु वय त भ मा. गा० १२६२ तरुणाविषः परिवहन्ति न शाप्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थ विभः परिवरिष" -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८२ बाहिरकरणविसुझो अभंतर करणसोधणस्थाए। भ०मा० मा० १३४८ बाह्य तपः परमवुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवहनार्थम् ।, -हस्वयंभूस्तोत्र, ३ इससे भी स्पष्ट है कि शिवार्य समन्तभद्र के बाद किसी समय हुए हैं। पौर पूज्यपाद-देवनन्दी से पूवं. पतीं हैं, क्योंकि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थ सूत्र के वें अध्याय के २वें सूत्र की टीका करते हुए माराधना की ५६२ नं. की निम्न गाथा उद्धृत की है : माकंपिय अणुमाणि य जंबिठंबावरंब महमं। छण सहा उलयं बहुजणप्रवस तस्सेवी ।। (१४-८१५) का।। इसके अतिरिक्त निम्न दो गाथानों का भाव भी अध्याय ६ सूत्र ६ को टीका में लिया है सहसाणाभोगियाप्पमाजिब अपस्चवेक्षणिखेवे। केहो दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिवित्ति || संजोयण मं बकरणाणं व तहा पाणभोयणाणं । बुट्ठ णिसिहा मणवचकाया भेवा णिसग्गस्स ॥ "निक्षेपामतुषिषः अप्रत्यानिक्षेपाधिकरण, प्रमष्टनिक्षेपाधिकरणं तहसानिक्षेषाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरण चेति । संयोगो विविध:-भक्तपानसंयोगाधिरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति । निसर्गस्त्रिविधः काय निसर्गाधिकरणं, बानिसाधिकरण मनोनिसर्गाधिकरणं वेति । सर्वा० सिप्र०६ सूत्र की टीका इस सब तुलना पर से शिवाय या शिवकोटि के रचना काल पर मच्छा प्रकाश पड़ता है और वे समन्तभद्र पौर पूज्यपाद के मध्यवर्ती किसी समय हुए है। इनका समय देवमन्दी (पूण्यपाव) से पूर्ववर्ती है। माराममा प्रस्तुत ग्रन्थ में २१७० के लगभग गाभाएं हैं जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् भारित और सम्यक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १०६ तप रूप चार पाराधनामों का ग्थन किया गया है। आराधना के कथन के साथ अनेक दृष्टान्तों द्वारा उस विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मरण के भेद-प्रभेदों का अच्छा वर्णन किया है और समाधि मरण करनेवाले क्षपक की परिचर्या में लगनेवाचे साधुओं की संख्या ४४ बतलाई गई है। १६२१ नम्बर की गाथा से १८९१ नं को २७० गाथानों द्वारा ग्रात, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। ग्रन्थ में कुछ ऐसी प्राचीन गाथाएं मिलती हैं, जिनका उल्लेख श्वेताम्बरीष पावश्यक निशिादि प्रन्थों में पाया जाता है। परन्तु यह अवश्य विचारणीय है कि आवश्यक नियुक्ति प्रादि ग्रन्थ छठवीं शताब्दी में लिखे गए हैं। प्रावश्यक नियुक्ति को मुनिपुण्यविजयजी छठवी शताब्दी का मानते हैं। परन्तु भगवती माराधना उसके कई दाताब्दी पूर्व की रचना है। यद्यपि इस ग्रन्थ में स्त्री मुक्ति और कवलाहार प्रादि की मान्यता का उल्लेख नहीं है, तो भी दशस्थिति कल्पवाली गाथा के कारण प्रेमीजी ने पाराधना के कर्ता को यापनीय सम्प्रदाय का बतलाया है। लगता है, कल्पवाली गाथाएं दोनों सम्प्रदायों में पूर्व परम्परा से आई हैं। वे श्वेताम्बरीय ग्रन्थों से ली गई यह कल्पना समूचित नहीं है। यह ग्रन्थ बड़ा लोकप्रिय रहा है। इस पर अनेक टीका-टिप्पण लिखे गये हैं। इस प्रन्थ पर बिजयोदया और मूलाराधना टीका के अतिरिक्त एक प्राकृत टीका और छोटे-छोटे टिप्पण भी रहे हैं, जिनसे उसकी महत्ता का स्पष्ट भान होता है। अपराजित सुरिया धीविजय द्वारा रचित संस्कृत टीका प्रकाशित हो चुकी है। जिसमें गाथामों के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए अन्य अनेक उपयोगी वस्तुओं पर विचार किया गया है। प्राचार्य शिवकोटि ने इस ग्रंथ की रचना पूर्वाचायौ के सूत्रानुसार की है। श्रीचन्द्र और जयनन्दी ने भी इस पर टिप्पण लिखे हैं। आराधना पञ्जिका और भावार्थ-दीपिका टीका, पं० शिवाजी लाल की भी उपलब्ध है, जो संवत १८१८ को जेठ सुदी १३ गुरुवार को समाप्त हई है। संस्कृत पाराधना प्राचार्य अमितगति द्वितीय ने लिखी है, जो संस्कृत के पद्यों में अनुवाद रूप में है। अन्ध के अन्त में बालपण्डित मरण का कथन करते हुए, देशव्रती श्रावक के व्रतों का भी कुछ विधान २०७६ से २०५३ तक की ५ गाथाओं में पाया जाता है। समन्तभद्र का शिष्यत्व श्रवण बेलगोल के शिलालेख न.१०५ में जो शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) का लिखा हुआ है, शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य मीर तत्त्वार्थ सूत्र की टीका का कर्ता घोषित किया है। यथा-- तस्यैव शिष्यः शिवकोटिस रिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः । संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसत्र सदलंचकार ॥ प्रभाचन्द्र के प्राराधना कथाकोश पौर देवचन्द्र कृत 'राजावलीकथे' में शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य कहा गया है। विक्रान्त कौरव नाटक के कर्ता आचार्य हस्तिमल्ल ने भी, जो विक्रम की १४वीं शताब्दी में हुए हैं अपने निम्न श्लोक में समन्तभद्र के दो शिष्यों का उल्लेख किया है । एक शिवकोटि, दूसरे शिवायन : शिष्यो तबीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यो। कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपारमूले हधीतवन्तौ भवतः कृतार्थी । उक्त आराधना ग्रंथ के कर्ता ने समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं किया। चूंकि समन्तभद्र का दीक्षा नाम अज्ञात है, इस कारण इस सम्बन्ध में कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता । समन्तभद्र शिवकोटि के गुरु हैं इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण मिल जाय तो यह समस्या हल हो सकती है। ग्रंथकार द्वारा उल्लिखित गुरुओं के नामों में जिननन्दि का नाम पाया है। यदि जिननन्दि समन्तभद्र का दीक्षा नाम हो तो उस हालत में शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य हो सकते हैं। पर इसमें सन्देह नहीं कि शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य जरूर थे और वे सम्भवतः काञ्ची के राजा थे--बनारस के नहीं । वे यही हैं या अन्य कोई, यह विचारणीय और अन्वेषणीय है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन १०७ सिद्धसेन सिद्धसेन की गणना दर्शन प्रभावक आचार्यों में की जाती है। वे अपने समय के विशिष्ट विद्वान्, वादी और कवि थे और तर्क शास्त्र में अत्यन्त निपुण थे । दिगम्बर दवेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में इनकी मान्यता है । उपलब्ध साहित्य में सिद्धसेन का सबसे प्रथम उल्लेख आचार्य अकलंक देव के तत्त्वार्थवानिक में पाया जाता है । कलंक देव ने उसमें इति शब्द के अनेक अर्थो का प्रतिपादन करते हुए इति शब्द का एक अर्थ शब्द प्रादुर्भाव भी किया है । उसके उदाहरण में श्रीदत्त और सिद्धसेन का नामोल्लेख किया है । ववचिच्छद प्रादुर्भाव वर्तते इति श्रीदत्तमिति सिद्धसेनमिति । इनमें श्रीदत्त को प्राचार्य विद्यानन्द ने त्रेसठ वादियों का विजेता और जल्पनिर्णय नामक ग्रन्थ का कर्ता बतलाया है। प्रस्तुत सिद्धमेन वही प्रसिद्ध सिद्धसेन जान पड़ते हैं, जिनका उल्लेख पूज्यपाद (देवनदी) ने जैनेन्द्र व्याकरण में किया है और जिनका प्रभाव अकलंक देव की कृतियों पर परिलक्षित होता है । दिगम्बर परम्परा के धवला-जवधनला जैसे टीका ग्रन्थों में 'सन्मति सूत्र' के अनेक पद्य उद्धत हैं । सिद्धसेन विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इसी से उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों द्वारा उनका स्मरण किया गया है। हरिवंशपुराण के कर्ता पुन्ना संघीय जिनसेन ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों का स्मरण करते हुए पहले समन्तभद्र का और उसके वाद सिद्धसेन का स्मरण किया है । जान पड़ता है कि उन्होंने ऐतिहासिक कमानुसार याचार्यों का स्मरण किया है। सिद्धसेन के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जगत्प्रसिद्धस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ - जिनका ज्ञान जगत में सर्वत्र प्रसिद्ध है उन सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियाँ ऋषभदेव जिनेन्द्र की सूक्तियों के समान सज्जनों की बुद्धि को प्रबुद्ध करती हैं। इससे पहले जिनसेन ने समन्तभद्र के स्मरण में उनके वचनों को वीर भगवान के वचन तुल्य बतलाया है। पश्चात् सिद्धसेन की सूक्तियों को ऋषभदेव के तुल्य बतलाकर उनके प्रति समन्तभद्र से भी अधिक आदर प्रगट किया है। किन्तु उनकी किसी रचना विशेष का कोई उल्लेख नहीं किया । परन्तु भगवज्जिनसेन ने अपने महापुराण में उनके 'सन्मति सूत्र' का जरूर संकेत किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रगट है: प्रवादिकरियूथानां केसरी - नयकेसरः । सिद्धसेनक विजयाद्विकल्पनस्वरांकुरः ।। - वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादरूपी हस्तियों के यूथ ( झुण्ड ) के लिए सिंह के समान हैं । नय जिसके केसर (गर्दन के बाल) हैं, और विकल्प पैने नाखून हैं । सिद्धसेन का सन्मति सूत्र तर्क प्रधान ग्रन्थ है । इसमें तीन काण्ड या अध्याय हैं । उनमें से प्रथम काण्ड में कान्तवाद की देन नय और सप्त भंगी का मुख्य कथन है। दूसरे काण्ड में दर्शन और ज्ञान की चर्चा है, इसी में केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रभेद स्थापित किया गया है और तीसरे काण्ड में पर्याय और गुण में अभेद की नई स्थापना की गई है। इस तरह यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । आगम का अवलम्बन होते हुए भी तर्क को प्रश्रय दिया गया है। क्योंकि तर्कवाद में विकल्प जाल की ही प्रमुखता होती है, जिसमें प्रतिवादी को परास्त किया जाता है | सन्मति सूत्र का प्रथम काण्ड जहाँ सिद्धसेन रूपी सिंह के नयकेसरत्व का बोधक है, वहाँ दूसरा tetus उनका विकल्प रूपी पैने नखों का अवभासक है । केवली के दर्शन और ज्ञान में प्रभेद सिद्ध करने के लिए उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, प्रतिपक्षी भी उनका लोहा माने बिना नहीं रह सकता। ऊपर के इस विवेचन से स्पष्ट है कि 1 १. द्विप्रकारं जग जल्पं तत्द प्रातिभगोचरम् । विवादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ ( तत्वा० श्लो० पृ० २८० ) २. देखो, तत्वाधं वार्तिक १– १३ पृ० ५७ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ मज्जनसम्म पका ध्यान करके ही सिद्धसेन सिंह के स्वरूप का साक्षात् परिचय प्राप्त किया था जिसका चित्रण उनके स्मरण पद्य में पाया जाता है। १०८ वीरसेन जिनसेन ने घवला - जयघवला टीका में नयों का निरूपण करते हुए सन्मतिसूत्र की गाथाओं को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है और बागम प्रमाण के रूप में मान्य किया है। सन्मति सूत्र के दूसरे काण्ड में जीव के प्रधान लक्षण ज्ञान और दर्शन का विस्तृत विवेचन किया है, और ज्ञान दर्शन के यौगपद्य और क्रमशः दोनों पक्षों को अनुचित बतलाकर लिखा है कि केवल ज्ञानी के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। अतः उनके एक साथ या क्रमशः होने का प्रश्न ही नहीं उठता। दिगम्बर परम्परा में केवल ज्ञानी के ज्ञान और दर्शन प्रतिक्षण युगपद् माने गये है । और श्वेताम्बर परम्परा में उनका उपयोग क्रमशः माना है। सिद्धसेन ने दोनों पक्षों को न मानकर प्रभेदवाद को स्थापित किया है। केवल ज्ञान श्रीर केवल दर्शन के अभेदवाद की स्थापना की गई है, इसी में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में उसकी कड़ी आलोचना की है। उसी तरह श्रभेदवाद की मान्यता युगपदवादी दिगम्बर परम्परा के भी प्रतिकूल है । इसीलिए आचार्य वीरसेन ने भी उसे मान्य नहीं किया है। कलंक के ग्रन्थों पर प्रभाव 乖 सिद्धसेन ने सन्मति तर्क में गुण और पर्याय में अभेद की स्थापना की है। उन्होंने पर्याय से गुण को भिन्न नहीं माना है | अकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक के पाँचवें अध्याय के 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' (५-३७ पृ. ५१ ) सूत्र भाष्य में उक्त चर्चा का समाधान तीन प्रकार से किया है। पहले तो आगम प्रमाण को देकर गुण की सत्ता सिद्ध की है। फिर 'गुण एव पर्यायाः इति वा निर्देश:' समास करके गुण को पर्याय से अभिन्न बतलाया हैं। सिद्धसेनाचार्य की यही मान्यता है । इस पर यह शंका की गई कि यदि गुण ही पर्याय है तो केवल गुणवद् द्रव्यं या पर्यायवत् द्रव्यं कहना चाहिए था । गुण पर्ययवत् द्रव्य का लक्षण क्यों कहा ? इसके उत्तर में यह समाधान दिया है कि जनेतरे मत में गुणों को द्रव्य से भिन्न माना गया है। अतः उसकी निवृत्ति के लिए दोनों का ग्रहण करके द्रव्य के परिवर्तन को पर्याय कहा गया है, उसी के भेद गुण हैं। गुण भिन्न जातीय नहीं है। इस विवेचन में प्रकलंकदेव ने सिद्ध सेन के मत को मान्य किया है। इससे सिद्धसेन का अकलंक पर प्रभाव स्पष्ट है। अकलंकदेव ने लधीयस्त्रय की ६७ वीं कारिका में सम्मति सूत्र की १-३ गाथा का संस्कृतीकरण किया है : तिस्थय रवयण संगह विसेस पत्थार मूल बागरणी । वट्टियो य पज्जवणश्रो य सेसा विथप्पालं ।। १- ३ सतः तीर्थकर वचन संग्रह विशेष मूल व्याकरणौ द्रव्य पर्यायार्थिको निश्चेतव्यौ । (लघीयस्त्रय स्व. वू. श्लोक ६७) तथा तत्त्वार्थ वार्तिक पृ. ८७ में सम्मति की ) 'पण्णवणिज्जाभावा' नाम की गाथा उद्धृत की है और इसी में सिद्धसेन के अनेक मन्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। समय प्रस्तुत सिद्धसेन सन्मतिसूत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकाओं के कर्ता थे। वे पूज्यपाद (देवनन्दी ) हरिभद्र ७५०-८०० ई० जिनदासगणी महत्तर और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद ने जैनेंद्र व्याकरण में वेत्तेः सिद्धसेनस्य', वाक्य में सिद्धसेन के मत विशेष का उल्लेख किया है। उनके मतानुसार 'विद्' धातु' के 'र' का श्रागम होता है भले ही वह सकर्मक हो । उनकी नौमी द्वात्रिंशतिका के २२वें पद्य के 'विद्वते' वाक्य में 'र' श्रागम वाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण 'सम' उपसर्गपूर्वक अकर्मक 'विद्' धातु के 'र' का आगम स्वीकार करते हैं । परन्तु सिद्धसेन ने सकर्मक 'विद्' धातु का प्रयोग बतलाया है। देवनन्दी ने 'तस्वार्थवृत्ति में सात श्रध्याय के १३वे सूत्र की टीका में --- वियोजयति षाभिनं च बधेन संयुज्यते' पद्यांश को जो तीसरी द्वात्रिंशतिका के १६वे पथ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन का प्रथम चरण है। उद्धत किया है इससे स्पष्ट है दि सिद्धसेन पूज्यपाद से भी पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद का समय ईसा की ५वीं शताब्दी है । प्रतः सिद्धसेन ईसा की ५वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान जान पड़ते हैं। जा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने सिद्धगेन के न्यायावतार का सम्पादन किया है। उन्होंने उसके प्राक्कथन प्र.XXU में लिखा है कि-'यह बहुत संभव है कि यह सिद्धसेन गुप्त काल के विद्वान हों। चन्द्रगप्त द्वितीय जो विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध है, और जिसका समय ३७६ से ४६४ ई० है, यही समय सिद्धसेन दिवाकर का होना संभव है। डा० सा० ने इन्हें यापनीय सम्प्रदाय का विद्वान बतलाया है। न्यायावतार के कर्मा सिद्धसेन इनसे भिन्न और बाद के विद्वान् हैं, और बे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान हैं। इनका समय सातवों शताब्दी है। १. विधी जयति चासभिनं च वधेन संयुज्यते शिवं च न परोगमदं पुरुष स्मृतविद्यते । वधाय नपमन्युगति - परान्न निघ्नन्न । स्वराय मनि दुर्गमः प्रथम हेतुरुवातितः ।। १६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुहनन्दि पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य प्रकलंक नाम के मन्य विद्वान तुम्बुलुराचार्य रविषेणाचार्य वीर देव शामकुण्डाचार्य चन्द्रनन्दि वायननन्दि मुनि श्रीदत्त, श्रीवत्त यशोभत्र देवसेन देवनन्वि(पूज्यपाद) बलदेवगुरु प्रायमक्ष और नामहस्ति उग्रसेन गुरु मुनि सर्वनन्दि गुणसेन मुनि यतिवृषभ नागसेन गूरु सिद्धन्धि सिंहनदि गह चितकाचार्य गुणदेवसूरि वचनन्दि गुणकीति नागसेन गुरु तेलमोलिदेवर (तोलामोलितेरव) स्वामि कुमार चन्द्रमन्दि जोइन्दु (योगीन्द्रेव) जयदेव पंडित पात्रकेशरी विजयकोति अनन्तवीर्य वृद्ध विमलचन्द्राचार्य मानतंगाचार्य कोतिनन्दि जटासिंहनन्दि विशेषवाधि शुभनन्दी-रविनन्दि चन्द्रसेन महाकवि धनंजय मार्यनन्दि सुमतिदेव (सन्मति) एलाचार्य सुमतिदेव (द्वितीय) कुमारनन्दि कुमारसेन उदयवेव कविपरमेश्वर(कविपरमेष्ठी) सिद्धान्त कीति काणभिक्षु एलवाचार्य घउमुह (चतुर्मख) चन्तनन्दि अकलंक देव रविकोति Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुहनन्दि रे चस्पालय के प्रसिद्ध विद्वान थे। पंचस्तुपान्बय की स्थापना ग्रहदवली ने की थी जो पुण्यवर्धन के निवासी थे । पुण्यवर्धन जैन परम्परा का केन्द्र रहा है। अतः गुहनन्दि का समय गुप्तकालीन ताम्रशासन से पूर्ववर्ती है। उक्त ताम्रशासन के अनुसार गुप्त वर्ष १५९ (सन् ४७८-७६) में, एक ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी भार्या राम्नी द्वारा बटगोहाली ग्राम में पंचस्तूपान्वय निकाय के निर्ग्रन्थ (श्रमण) आचार्य गुहनन्दी के शिष्य-प्रशियों द्वारा अधिष्ठित विहार में भगवान प्रहन्तों (जैन तीर्थकरों) की पूजा सामग्री (गन्ध-धप) आदि के निर्वाहाथं तथा निग्रंथाचार्य महनन्दि के बिहार में एक विश्राम स्थान निर्माण करने के लिए यह भूमि सदा के लिए इस बिहार के अधिष्ठाना बनारस के पंचस्तुप निकाय संघ के प्राचार्य गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों को प्रदान की गई थी। इससे गृहन्दि का समय संभवतः ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी होना चाहिये । तुम्बुलूराचार्य यह तुम्बुलर नामक सुन्दर ग्राम के निवासी थे। ये तुम्बुलर ग्राम के बासी होने के कारण तुम्बुलराचार्य कहलाये। जैसे कुन्दकुन्दपुर में रहने के कारण पचनन्दि आचार्य कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने पटखण्डागम के प्रथम पांच खण्डों पर 'चड़ामणि' नाम की एक टीका लिखी थी, जिसका प्रमाण चौरासी हजार श्लोक प्रमाण बतलाया गया है। छठवें खण्ड को छोड़कर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर एक महती व्याख्या कनड़ी भाषा में बनाई थी। इनके अतिरिक्त छठवें खण्ड पर सात हजार प्रमाण पञ्जिका' लिखी। इन दोनों रचनामों का प्रमाण ६१ हजार श्लोक प्रमाण हो जाता है। महापवल का जो परिचय धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों के 'प्रशस्ति संग्रह में दिया गया है, उसमें पंजिका रूप विवरण का उल्लेख पाया जाता है यथा घोच्छामि संतकम्मे पंत्रियरूपेण विवरणं सुमहत्यं ।।"""""पुणो तेंहितो सेसट्ठारसणियोगहाराणि संतकम्म सध्वाणि परविदाणि । तो वितस्सइगंभीरतावो, प्रत्य विसम पदाणमत्थे योसद्धर्मण पंचिय-हवेण भणिस्सामो। तुम्बुलूराचार्य के समय के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक इतिवृत्त नहीं मिलता, जिससे उनका निश्चित समय बताया जा सके। डा. हीरालाल जी ने धवला के प्रथम भाग की प्रस्तावना में इनका समय चौथी शताब्दी बतलाया है। जब तक उनके समय के सम्बन्ध में कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, तब तक डा. हीरालाल जी द्वारा मान्य समय ही मानना उचित है। वीरदेव पोरवेव मलसंघ के विद्यान माचार्य थे जो सिद्धान्त शास्त्र में प्रवीण थे। इनके उपदेश से गंग वंश के राजा माधव वर्मा ने अपने राज्य के १३वें वर्ष में फाल्गुण सुदिपंचमी को भूलसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय को 'कुमारपुर' नाम का एक गाँव दान में दिया था यह ताम्र लेख गुप्त काल से पूर्व संभवतः ई० सन् ३७० का है। प्रस्तुत वीरदेव के राजगृह की सोनभण्डार गुफा के लेख में उत्कीर्ण वैरदेव के साथ एकत्व की संभावना हो सकती है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इनिहाग-- भाग २ चन्द्रनन्दि ये मूलसंघ के विद्वान थे। इन्हें परमात उपाध्याय विजयकीति को सम्मति से चन्द्रनन्दि मादि द्वारा प्रतिष्ठा. पित उरनर के जैन मन्दिर के लिये माधववर्म के पुत्र कोंगुणि वर्म धर्म महाराजाधिराज (अविनीत) ने, जो जैनधर्म का अनुयायी था और कलियुगो युधिष्ठिर कहलाता था। अपने कल्याण के लिये अपने बढ़ते हए राज्य के प्रथम वर्ष की फाल्गुन सूदी पंचमी को-कोरिवन्द देश में 'वेन्नेलकरनि' नाम का गांव प्रदान किया था। और पेरूर एवा नियडिगल-जिनालय को बाह्य चगी का चीथाई कापिण दिया था। यह लेख गुप्त काल से पूर्ववर्ती है---और नोणमंगल (लक्कर परगना) में ध्वस्त जैन वस्ति के ताम्र पत्रों पर अंकित है, जो जमीन में मिले हैं। लेख समय रहित है। राईस सा. इसे ४२५ ईस्वी का मानते हैं। श्रीदत्त श्रीदत्त नाम के दो विद्वान प्राचार्यों का नामोल्लेख मिलता है । एक श्रीदत्त वे हैं जिनका नाम चार बारातीय प्राचार्यों में से एक है। वे बड़े भारी विद्वान और तपस्वी थे। प्राचार्य देवनन्दि की तत्त्वार्थ वृत्ति के अनुसार भगवान महावीर के साक्षारिशष्य गणधर और श्रुतके वलियों के बाद अंग-पूर्वाधि के पाठी जो प्राचार्य हुए है, भौर जिन्होंने दशवकालिकादि सूत्र उपनिबद्ध किये वे प्रारातीय कहलाते हैं। विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त पौर प्रहदत ये चार ग्रारातीय पाचार्य हए हैं। इन्हें इन्द्रनन्दि ने अंग-पूर्वधारी बतलाया है। इन चारों में से श्रीदत्त को छोड़ कर अन्य तीन का भी यही परिचय जानना चाहिये। वे सब मंग-पूर्वधारी थे। दूसरे श्रीवत्त दूसरे श्रीदत्त वे हैं जो दार्शनिक विद्वान के रूप में लोक प्रसिद्ध रहे हैं। वे दीप्तिमान सपस्वी और प्रेसठ वादियों के विजेता थे। देवनन्दि ने जनेन्द्र ध्याकरण के 'श्रीदत्तस्य स्त्रियाम' (१।४।३४) सूत्र में श्रीदत्त का स्मरण किया है। इस सूत्र में श्रीदत्त के मत का उल्लेख किया है, और बतलाया है कि श्रीदस प्राचार्य के मत से गुणहेतुक पञ्चमी विभक्ति होती है। परन्तु यह कार्य स्त्रीलिङ्ग में नहीं होता। प्रस्तु, ---.- ....-.--..- .--.. १. देखो, जन लेखसंग्रह भा० २ लेख नं० ६० पू०५५ २. देखो मकरा का ताम्र पत्र, जैन लेख संग्रह भाग २ पु०६०१ ३. आरातीयः पुनराचार्यः कालदोषासंक्षिप्तायुर्बलशिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकापनिबद्ध तत्प्रभारणमतस्यवमिति क्षीरार्णव जसं घट गृहीतमिव । (तत्त्वा० ००१ सूत्र २०) ४. विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तो ऽन्योऽर्हदत्त नामैते। आरातीयाः यतयः सतोऽभवन्न पूर्वधराः ।। २४ –इन्द्रनन्दि श्रुतावतार २४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ आचार्य. अकलकदेव ने अपने तत्त्वार्थ वार्तिक पृ० ५७ में शब्द प्रादुर्भाव अर्थ में इति शब्द के प्रयोग की चर्चा के प्रसङ्ग में 'इति श्रीदत्तम्' का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि ये कोई शब्द शास्त्र निष्णात प्राचार्य थे, और उनका समय पूज्यपाद (देवनन्दि) से पूर्ववर्ती है। ११४ जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में उनका स्मरण करते हुए उन्हें तपः श्रीदीप्त मूर्ति और वादिरूपी गजों का प्रभेदक सिंह बतलाया है। इससे वे बड़े दार्शनिक और किसी दार्शनिक ग्रन्थ के कर्ता रहे हैं ।" आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में उन्हें सठवादियों का विजेता कहा है और उनके 'जल्प निर्णय' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रकट है । हिप्रकारं जगी जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् । त्रिषष्ठेर्यादिनां जेता श्रीवत्तो जल्पनिर्णये ॥४५ - स्वा० इलो० वा० पृ० २८० जल्प निर्णय ग्रन्थ जय-पराजय की व्यवस्था का निर्णायक जान पड़ता है। अकलंक देव के सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण आदि में संभवतः उसका उपयोग किया गया हो । अक्षपाद गौतम के 'न्याय सूत्र' में जिन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष माना गया है, उनमें वाद, जल्प और वितण्डा भी है । वादी को प्रतिवादी के मध्य होने वाले शास्त्रार्थ को वाद कहते हैं। जल्प और वित्तडा भी उसी के प्रकार हैं। आचार्य श्रीदत्त ने उसमें से जल्प का निर्णय करने के लिए जल्प निर्णय ग्रन्थ रचा होगा। चूंकि श्रीदत्त ने त्रेसठ बादियों को जीता था, इस कारण वे दाद शाखा के निष्णात पंडित थे । वे बड़े भारी तपस्वी और दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। अभयनन्दि की महावृत्ति से सूचित होता है कि श्रीदत्त अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जो लोक में प्रमाण माना जाता है। 'इति श्रीदत्तम्' यह प्रयोग 'इति पाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था । इसी प्रकार - तच्छ्री दत्तम्' श्रहो श्रीदत्त' प्रादिप्रयोग भी श्रीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता को अभिव्यक्त करते हैं सूत्र | ३ | ३|७६ पर 'तेन योक्तम् के उदाहरण में अभयनन्दी ने श्रीदत्त विरचित सूत्र ग्रन्थ को श्रीदत्तीयम्' कहा है। इससे स्पष्ट है कि श्रीदत्त का बनाया कोई ग्रन्थ श्रवश्य था ? | बहुत संभव है कि प्राचार्य जिनसेन और देवनन्दी द्वारा उल्लिखित श्रीदत्त एक ही हो और यह भी हो सकता है कि भिन्न हों। आदि पुराणकार ने चूँकि श्रीदत्त को तपः श्री दीप्त मूर्ति और वादिरूपगज गणों का प्रभेदक सिंह बतलाया है। इससे श्रीदत्त दार्शनिक विद्वान जान पड़ते हैं । यशोभद्र ये प्रखर तार्किक विद्वान् थे। उनके सभा में पहुंचते ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता था । आचार्य देवनन्दी ने भी अपने जैनेन्द्र व्याकरण में 'क्ववृषिजां यशोभद्रस्य ११४ | ३४' सूत्र में यशोभद्र का उल्लेख किया है। इनकी किसी भी कृति का उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया । देवनन्दी द्वारा जैनेन्द्र व्याकरण में उल्लेखित और जिनसेन द्वारा स्मृत यशोभद्र दोनों एक ही हैं, तो इनका समय ईसा की ५वी तथा वि० की छठी शताब्दी या उससे कुछ पूर्ववर्ती जान पड़ता है । १. श्रीदत्ताय नमस्तस्मं तपः श्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवामितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥ ४५. २. विदुष्वणीषु सत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । निखर्वयति तद्गर्वं यतोभद्रः स पातु नः ।। आदि पु० १,४६ : Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य देवनंदि ( पूज्यपाद ) भारतीय जैन परम्परा में जो लब्धप्रतिष्ठ ग्रन्थकार हुए हैं, उनमें आचार्यं पूज्यपाद ( देवनन्दि ) का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। इन्हें विद्वत्ता और प्रतिभा का समान रूप से वरदान प्राप्त था। जैन परम्परा में स्वामी समन्तभद्र और सन्मति के कर्ता सिद्धसेन के बाद पूज्यपाद या देवनन्द को ही महत्ता प्राप्त है। आपकी अमर कृतियों का प्रभाव दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराम्रों में समान रूप से दिखाई देता है। इस कारण उत्तरवर्ती विद्वान इतिहासज्ञों और साहित्यकारों ने इनकी महत्ता और विद्वत्ता को स्वीकार किया है और उनके चरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित किये हैं । आचार्य देवनन्दि अपने समय के प्रसिद्ध तपस्वी मुनिपुंगव थे । वे साहित्य जगत के प्रकाशमान सूर्य ये जिनके आलोक से समस्त वाङ्मय आलोकित रहेगा। इनका दीक्षा नाम देवनन्दि था। बुद्धि की प्रखरता के कारण जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये, और देवों द्वारा उनके चरण युगल पूजे गए थे, इस कारण वे लोक में पूज्यपाद नाम से ख्यात थे। जैसा कि श्रवणबेलगोल के शिलालेख ( नं० ४० ) के निम्न पद्य से स्पष्ट है :--- यो वेवनन्दि प्रथिमाभिधानो बुद्ध्या महत्या से जिनेन्द्र बुद्धिः । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यस्पूजितं पावयुगं यदीयम् ॥ नन्दि संघ की पट्टावली में भी देवनन्दि का दूसरा नाम पूज्यपाद बतलाया है। ये व्याकरण, काव्य सिद्धान्त, वैद्यक, और छन्द आदि विविध विषयों के मर्मज्ञ विद्वान थे। जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता के नाम से ही इनकी प्रसिद्धि है । ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ के प्रधान प्राचार्य थे। वादिराज ने भी उनका स्मरण किया है' । आदि पुराण के कर्ता जिनसेन इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं। "कवीनां तीर्थकृद्देवः किं तरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् || " - जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे और जिनका वचन रूपी तीर्थ विद्वानों के वचन मल को धोने वाला है। उन देवनन्दि आचार्य की स्तुति करने में कौन समर्थ है। देवनन्दि ने जिस तरह अपनी कृतियों द्वारा मोक्षमार्ग का प्रकाश किया है, उसी प्रकार उन्होंने शब्द शास्त्र पर भी अपनी रचनाएं लोक में भेंट की हैं, और शरीर शास्त्र जैसे लौकिक विषय पर भी अपनी रचना प्रदान की हैं । इसी से श्राचार्य शुभचन्द्र भी ज्ञानार्णव में उनके गुणों का उद्भावन करते हुए कहते है अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाश्चित्तसम्भवम् । कलमङ्गिनां सोज्यं देवनन्दी नमस्यते ॥ १-१५ । - जिनकी शास्त्र पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के मैल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दी को मैं प्रणाम करता हूँ । श्राचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों का आश्रय लेकर जैनेन्द्र प्रक्रिया की रचना की है वे उनका गुणगान करते हुए कहते हैं १. महिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा । शब्दाच्च न मिति साधुत्वं प्रतिलम्भितः ॥ पार्श्वनाथ चरित Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ नमः श्री पूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । देवा तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तरक्वचित् ॥ • जिन्होंने लक्षण शास्त्र की रचना की, मैं उन पूज्यपाद आचार्य को प्रणाम करता हूँ । इसीसे उनके लक्षण शास्त्र की महत्ता स्पष्ट है कि जो इसमें है वही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं हैं। इनके सिवाय उत्तरवर्ती धनंजय, वादिराज, और पद्मप्रभ आदि अनेक विद्वानों ने उनका स्तवन कर उनकी गुण परम्परा को जीवित रक्खा है । इससे पूज्यपाद की महत्ता का सहज हो भान हो जाता है । इनके पूज्यपाद और जिनेन्द्र बुद्धि इन नामों को सार्थकता व्यक्त करने वाले शिला वाक्यों को देखिये जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ श्री पूज्यपादधृत धर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वर पूज्यपाद: । यदी दुष्य गुणानिदानों वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि || धृत विश्व बुद्धिरयमयोगिभिः कृत्कृत्यभावमनुविबुच्चकैः । जिनवद् बभूव यवनङ्गचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ।। ये दोनों श्लोक शक सं० १३५५ में उत्कीर्ण शिलालेख के हैं जिनमें बतलाया गया है कि आचार्य पूज्यपाद ने धर्मराज का उद्धार किया था। इससे आपके चरण इन्द्रों द्वारा पूजे गए थे। इसी कारण श्राप पूज्यपाद नाम से सम्बोधित किये जाने लगे । आपके विद्या विशिष्ट गुणों को आज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए रनं हुएशास्त्र बतला रहे हैं | आप जिनेन्द्र के समान विश्व वृद्धि के धारक - समस्त शास्त्र विषयों में पारंगत थे, कृतकृत्य थे और कामदेव को जीतने वाले थे। इसीलिये योगी जन उन्हें 'जिनेन्द्र बुद्धि' नाम से सम्बोधित करते थे । आप नन्दि संघ के प्रधान आचार्य थे । महान दार्शनिक, अद्वितीय वैयाकरण अपूर्व वैद्य, धुरंधर कवि बहुत बड़े तपस्वी, सातिशय योगी और पूज्य महात्मा थे । जीवन-परिचय- आप कर्नाटक देश के निवासी और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। पूज्यपाद चरित ओर राजाबली कथे नामक ग्रंथ में ग्रापके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी दिया है। श्रापका जन्म कोले नाम के ग्राम में हुआ था । जीवन घटना- आपके जीवन को अनेक घटनाएँ है - ( १ ) विदेहगमन ( २ ) घोर तपश्चरणादि के कारण प्रांखों की ज्योति का नष्ट हो जाना तथा शान्ताष्टक के निर्माण और एकाग्रता पूर्वक उसका पाठ करने से उसकी पुनः सम्प्राप्ति । (३) देवताओं द्वारा चरणों का पूजा जाना, (४) श्रौषधि ऋद्धि की उपलब्धि ( ५ ) पाद स्पृष्ट जल के प्रभाव से लोहे का सुवर्ण में परिणत हो जाना । इस सबके विचार का यहाँ अवसर नहीं है । यह विशेष अनुसन्धान के साथ योग की शक्ति की विशेषता और महत्ता से सम्बन्धित है । साथ में अडोल श्रद्धा भी उसमें कारण है । आपकी निम्न रचनाएँ हैं - तत्त्वार्थ वृत्ति ( सर्वार्थ सिद्धि) समाधितंत्र, इष्टोपदेश, देश भक्ति, जैनेन्द्र व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, छन्द ग्रंथ, शान्त्यष्टक, सारसंग्रह और जैनाभिषेक । तत्वार्थ वृत्ति - उपलब्ध जैन साहित्य में गृद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थ सूत्र पर लिखी गई यह प्रथम टीका है । पूज्यपाद ने प्रत्येक अध्याय के अन्त में समाप्ति सूचक जो पुष्पिका दो है उसमें इसका नाम सर्वार्थ सिद्धि व्रतइसे वृत्ति ग्रन्थ रूप से स्वीकार किया है। जैसा कि टीका प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : लाते हुए १. शक संवत् १३५५ के निम्न शिला वाक्य में श्रीषधऋद्धि, और विदेह के जिन दर्शन से शरीर की पवित्रता तथा उनके पादधीत जल के स्पर्श के प्रभाव से लोहे के सुवर्ण होने का उल्लेख किया गया है : श्री पूज्य मुनिरप्रतिमर्थाद्धः जोयाद्विदेह जिनदर्शन पूतगात्रः । गत्पादधीत जलसंस्पर्श प्रभावात्काला किल तथा कनकीचकार ।। १७ २. इति सर्वार्थ सिद्धिसंज्ञकायां तत्त्वार्थवृत्तौ प्रथमोऽध्यायः समाप्तः । 1 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शनाब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य स्वर्गापवर्गसुखमाप्त मनोभिरायः जैनेन्द्र शासनवरामृतसारभूता। सर्वार्थसिद्धिरिति सद्धिरुपात्त नामा तत्त्वार्थ वृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ।। जो स्वर्ग और मोक्ष-सुख के इच्छेक हैं, वे जिनेन्द्र शासन रूपो उत्कृष्ट अमृत में सारभूत और सज्जन पुरुषों द्वारा रखे गये मार्थ सिद्धि इस नाम से प्रख्यात इस नत्त्वार्थ वृत्ति को निरन्तर मन पूर्वक धारण करें। वे उसकी महत्ता बतलाते हुए कहते हैं --.. तत्त्वार्थवत्तिमदितां विरितार्थतत्त्वा: अण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या । हस्ते कृतं परमसिजिसुखामृतं तैर्मामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम् ।। सब पदार्थों के जानकार जो इस तत्त्वार्थ वृत्ति को धर्म भक्ति से सुनते हैं, और पढ़ते हैं मानो उन्होंने परम सिद्ध सुख रूपी प्रमत को अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख के विषय में तो कहना ही क्या है? इस कारण इस वृत्ति का नाम 'सर्वार्थसिद्धि' सार्थक है। रचना शैली कि सूत्र का विषय तस्वार्थ है, अतः वृत्तिकार ने जीव, अजीव, पालव, बंध संवर निर्जरा और मोक्ष रूप सात तस्वों का महत्त्वपूर्ण विवेचन किया है। टीकाकार ने इसे वृत्ति कहा है। जिसमें सूत्रों के पदों का पाश्रय लेकर प्रत्येक पद की विवेचना की जाती है उसे वृत्ति कहते हैं। वृत्ति का यह लक्षण सर्वार्थसिद्धि में संघटित है। इसमें सूत्र के प्रायः सभी पदों का व्याख्यान किया गया है। उदाहरण के लिये प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र में 'तत्त्वार्थ' पद रखा है। इसका विवाद विवेचन दर्शनान्तरों का निर्देश करते हुए दिया है । इससे पूज्यपाद की रचना शैली का सहज ही प्राभास हो जाता है। उन्होंने सूत्रगत प्रत्येक पद का विचार किया है और सूत्रपाठ में जहां मागम से विरोध दिखाई देता है, वहां सूत्र पाठ की रक्षा करते हुए उन्होंने उसकी सङ्गति विठलाने का प्रयत्न किया है। टीका में उनकी कुशलता का सर्वत्र दर्शन होता है। पूज्यपाद एक प्रामाणिक टीकाकार हैं। उनकी शैली गतिशील एवं प्रवाहयुक्त है। वृत्तिकार ने वृत्ति लिखते समय भाषा सौष्ठव का बराबर ध्यान रखा है, और मागम परम्परा का भी पूरा निर्वाह किया है। प्रथम अध्याय के सातवें पाठवें सूत्र की वृत्ति लिखते हुए उन्होंने षट खण्डागम के सूत्रों का संस्कृत अनुवाद दे दिया है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनंदि षट्खण्डागम के अभ्यासी थे, उसके रहस्य से परिचित थे। इस कारण उसमें विशिष्ट कथन किया गया है। वे बहश्रत विद्वान थे। उन्होंने वस्तूतत्त्व का दृढ़ता से प्रतिपादन करने का साहस किया है। उनकी शैली विशद् और विषय स्पर्शो है। वत्ति लिखते समय जो छोटे-बड़े पाठ भेद मिले। उनकी उन्होंने यथास्थान चर्चा की है, और उनका उल्लेख किया है। उससे स्पष्ट है कि पूज्यपाद के सामने कुछ टीका ग्रन्थ अवश्य थे। इसी से उन्होंने अपरेषां क्षिनिःसूत इति पाउ:" का उल्लेख करते हुए बतलाया है कि अन्य प्राचार्यों के मत से क्षिप्र के बाद अनिःसतं के स्थान पर निःसत पाठ है। देवनन्दि ने तत्त्वार्थसूत्र की बहुमूल्य टीका बनाकर पाठकों को ज्ञान की विपुल सामग्री प्रस्तुत की है। समाधितन्त्र-दुसरी कृति समाधि तंत्र है। इसकी श्लोक संख्या १०५ है, श्रवण वेलगोल के ४०वें शिलालेख में इसका नाम समाधि शतक दिया है। यह एक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसमें मध्यात्म विषय का बड़ी ही सुन्दरता से प्रतिपादन किया गया है। अध्यात्म से गढ़ विषय का इतना सरल और सरस कथन सूत्ररूप में करना मपनी खास विशेषता रखता है। विषय के प्रतिपादन की शैली सुन्दर और हृदयग्राहिणी है। भाषा सौष्ठव देखते ही बनता है। पद्य रचना प्रसादादि गुणों से विशिष्ट है। जान पड़ता है, देवनन्दी ने अध्यात्म शास्त्र समुद्र का दोहन करके जो अमृत निकाला, वह इसमें भरा हुआ है। इसके अध्ययन से चित्त प्रसन्न हो जाता है और उससे अपनी भूल का बोध होता चला जाता है। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है कि मैंने इसका निर्माण प्रागम, युक्ति और पन्तःकरण की एकाग्रता द्वारा सम्पन्न स्वानुभव के द्वारा किया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है: Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ अतेन लिन पक्षात्मशाषित समादितान्त करणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्य सुखस्य हाणां विविक्तमारमानमथाभिधास्ये ।। ग्रन्थ का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट जान पड़ता है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों को आत्मसात् करके इसकी रचना की है। यहां नमूने के तौर पर दो पद्यों की तुलना नीचे दी जा रही है : - तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो हु वेहोणं । तत्थ परो भाइज्जइ घेतोबाएण चयदि बहिरप्पा ।। मोक्ष प्रा० बहिरन्तः परश्चेति विधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद बहिस्स्यजेत ।। समाधितंत्र णियभावं ण यि मंचइ परभावं व गिरोहये केई । जाणदि पस्सवि सव्वं सोहं इदि चितएणाणी ।।७ नियमसार यवग्राह्य न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्व संवेद्यमसम्यहम् ।। १३० समाधितंत्र ग्रन्थ के पढ़ने से ऐसा लगता है कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना उस समय की, जब उनको दृष्टि बाह्म से हटकर अन्तर्मुखी हो गई थी। तीसरी रचना इष्टोपदेश है । यह ५१ पद्यों का छोटा सा लघकाय ग्रन्थ है, जो माध्यात्मिक रस से सरावोर है। इस ग्रन्थ पर पं० प्रवर आशाघर जी की एक संस्कृत टीका है, जो प्रकाशित हो चुकी है। यह भी अध्यात्म की अनुपम कृति है, और कंठ करने के योग्य है। इन ग्रन्थों के निर्माण करते समय ग्रन्थकर्ता को एक मात्र यही दृष्टि रही है कि संसारी प्रात्मा अपने स्वरूप को कैसे पहचाने, तया देहादि पर पदार्थो से अपनत्व का परित्याग कर प्रात्म-कार्यों में सावधान रहे। वशभक्ति-प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका में –'संस्कृताः सर्वाभक्तयः पूज्यपाद स्वामी कृताः प्राकृतास्त कन्दकन्दाचार्य कृत्ताः' संस्कृत की सभी भक्तियों को पूज्यपाद की बतलाया है। इनमें सिद्ध भक्तिह पद्यों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें सिद्धि, सिद्धि का मार्ग और सिद्धि को प्राप्त होने वाले यात्मा का रोचक कथन दिया हुआ है। इसी तरह श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, प्राचार्य भक्ति और निर्वाण भक्ति तथा नन्दीश्वर भक्ति का संस्कृत पद्यों में स्वरूप दिया हुमा है। इन सभी भक्तियों की रचना प्रौढ़ है। जनेन्द्र व्याकरण-आचार्य पूज्यपाद की यह मौलिक कृति है। यह पांच अध्यायों में विभक्त है। इसकी सूत्र संख्या तीन हजार के लगभग है। इसका सबसे पहला सूत्र सिद्धिरने कान्तात् है। इस में बतलाया है कि शब्दों की सिद्धि और शप्ति अनेकान्त के आश्रय से होती है। क्योंकि शब्द अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, और विशेषण-विशेष धर्म को लिये हुए होते हैं। इसमें भूतबलि श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, समन्तभद्र और सिद्धसेन नाम के छह आचार्यों के मतों का उल्लेख किया गया है। "रादभूतबले: ३, ४, ८३ । आचार्य श्रीदत्त मत का प्रतिपादन करने वाला सूत्र-"गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम्, १, ४, ३४। प्राचार्य यशोभद्र के प्रतिपादक सूत्र है-'कृषिम् । यशोभद्रस्य । है, २,१, १२ 1 और प्रभाचन्द्र के प्रतिपादक सूत्र है-'रात्रः कृति प्रभाचन्द्रस्य, ४,३,१८० । प्राचार्य समन्तभद्र के मत को अभिव्यक्ति करने वाला सुत्र-'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, ५, ४, १४० । सिद्धसेन के मत का प्रतिपादक सूत्र-'वेत्र: सिद्धसेनस्य । ५.२.७ इन अल्लेखों से स्पष्ट हैं कि ये सब ग्रन्थ और ग्रन्थकार प्राचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं।' जैनेन्द्र व्याकरण की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जिनके कारण उसका स्वतन्त्र स्थान है। जैनेन्द्र व्याकरण का असली सत्र पाठ प्राचार्य प्रभयनन्दि कृत महावृत्ति में उपलब्ध होता है। जैन साहित्य और इतिहास में इसकी विशेषतापों का उल्लेख किया गया है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16 नगर तहसील के ४६ में शिलालेख में इस बात का 'जैनेन्द्र' नामक न्यास लिखा था और दूसरा पाणिनि पांचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य जैनेन्द्र और शब्दावतार व्यास- शिमोगा जिले के उल्लेख है कि श्राचार्य पूज्यपाद ने अपने उक्त व्याकरण पर व्याकरण पर 'शब्दावतार' नाम का न्यास लिखा था । यथान्यासं जनेन्द्र संजं सकल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यासं शब्दावतारं मनुजतिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ॥ यस्तस्वार्थस्य टीकां व्यरचदिहतां भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपाल वन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोध वृत्तः ॥ ये दोनों ग्रंथ श्रभी उपलब्ध नहीं हुए हैं । ग्रन्थ भंडारों में इनके अन्वेषण करने की जरूरत है । शान्त्यष्टक - क्रिया कलाप ग्रन्थ में संग्रहीत है। इस पर पं० प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका भी है। कहा जाता है कि पूज्यपाद की दृष्टि तिमिराच्छन्न हो गई थी, उसे दूर करने के लिये उन्होंने 'शान्त्यष्टक' की रचना की हो। क्योंकि उसके एक पद्य में दृष्टि प्रसन्नां कुरु वाक्य माता है । सार संग्रह - प्राचार्य पूज्यपाद ने 'सार संग्रह' नाम के ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि घवला टीका के निम्न वाक्य से स्पष्ट है "सार संग्रहेऽप्युक्त पूज्यपाद: अनन्त पर्यात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्य प्रयोगो नय इति ।" सर्वार्थ सिद्धि में पूज्यवाद ने जो नय का लक्षण दिया है उससे इसमें बहुत कुछ समानता है । चिकित्सा शास्त्र — की रचना पूज्यपाद ने की हां, इसके उल्लेख तो मिलते है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ । उग्रदित्याचार्य ने अपने कल्याण कारक वैद्यक ग्रन्थ में उसका उल्लेख निम्न शब्दों में किया है 'पूज्यपादेन भाषितः, शालाक्यं पूज्यपाद प्रकटितमधिकम् ।' प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' में उसका उल्लेख किया है और बतलाया है कि जिनके वचन प्राणियों के काय, वाक्य और मन सम्बन्धी दोषों को दूर कर देते हैं उन देवनन्दी को नमस्कार है। इसमें पूज्यपाद के दूर करने तीन ग्रन्थों का उल्लेख संनिहित है :- वाग्दोषों को दूर करने वाला जैनेन्द्र व्याकरण, प्रोर चित्त दोषों को वाला ग्रापका मुख्य ग्रन्थ 'समाधितंत्र' है। तथा काय दोषों को दूर करने वाला किसी वैद्यक ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो इस समय अनुपलब्ध है । 'अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कार्यवाक् चित्त संभवम् । कलंक मंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।।' यह वैद्यक ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है । शिमोगा नगर ताल्लुका के ४६ वें शिलालेख में भी उन्हें मनुष्य समाज का हितैषी और वैद्यक शास्त्र का रचयिता बतलाया है । जनाभिषेक- श्रवण वेलगोल के शक सं० २०८५ के ४० नवम्बर के एक पद्य में अन्य ग्रन्थों के उल्लेख के साथ अभिषेक पाठ का उल्लेख किया है। छन्द ग्रंथ - प्राचार्यं पूज्यपाद ने छन्द ग्रन्थ की रचना भी की थी। छन्दोऽनुशासन के कर्ता जयकीति ने के 'छन्द ग्रन्थ का उल्लेख किया ।" पूज्यपाद समय श्राचार्य पूज्यपाद के समय के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है; क्योंकि पूज्यपाद के उत्तरवर्ती प्राचार्य जिन मद्रगणि क्षमाश्रमण (वि० सं० ६६६) ने विशेषावश्यक में सर्वार्थसिद्धि के वाक्यों को अपनाया है, जैसा कि उसकी तुलना पर से स्पष्ट है। इससे स्पष्ट है कि पूज्यपाद सं० ६६६ से पूर्व हैं। प्रकलंकदेव ने भी सर्वार्थसिद्धि को वार्तिकादि के रूप में तस्वार्थ वार्तिक' में अपनाया है । तुलना १. देखो वन्दोनुशासन, जयकीर्ति २. सर्वार्थ सिद्धि अ० १ पृ० १५ में धारणा यति ज्ञान का लक्षण निम्न रूप में दिया है : Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूज्यपाद के ग्रन्थों पर समन्तभद्र का प्रभाव स्पष्ट है। और जनेन्द्र व्याकरण में पूज्यवाद ने 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र द्वारा उनका उल्लेख भी किया है। पूज्यपाद ने तत्त्वार्थवृत्ति में सिद्धसेन की द्वात्रिंशिका के निम्न पद्यांश को उद्धत किया है-"वियोजयति चासुभिनं च वधेन संयुज्यते" सन्मति में सुत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकामों के कर्ता सिद्धसेन का समय चौथी-पांचवीं शताब्दी है अतएव पूज्यपाद भी इसी समय के विद्वान हैं। पूज्यपाद गंगवंशीय राजा अविनीति (वि० सं० ५२३) के पुत्र विनीति (वि० सं०५३८) के शिक्षा गुरु थे। अवनीत के पुत्र दुविनीत ने शब्दाशार गायक यश की जन प्रेमीजी ने लिखा है-शिमोगा जिले की नगर तहसील के शिलालेख में देवनन्दी को पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यास का कर्ता लिखा है। इससे अनुमान होता है कि दुविनीत के गुरु पूज्यपाद ने वह ग्रंथ रचकर अपने शिष्य के नाम से प्रचारित किया था।' विनीत का राज्य काल सन् ४८० ई० से ५२० ई. के मध्य का माना जाता है। इससे पूज्यपाद ५वों के उत्तरार्द्ध और छठी के पूर्वार्द्ध के विद्वान् ठहरते हैं। पूज्यपाद के एक विद्वान् शिष्य वचनन्दि ने वि० सं० ५२६ (४६६ ई०) में द्रविड़ संघ की स्थापना की थी। इससे भी पूज्यपाद का उक्त समय निश्चित होता है। व्याकरण में ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणों के साथ स्व-समयकालिक घटनायों का भी निर्देश करते हैं। जैसे 'प्रदहदमोघवर्षोऽरातीन् शाकटायन (४/३/२०८) 'अरुणत् सिद्धराजोऽवन्तीम् हैम (५/२/८) इसी तरह जैनेन्द्र व्याकरण का 'अरुणन्मेहेन्द्रो मथुराम्' (२/२/१२) इसका अर्थ है महेन्द्र द्वारा मथुरा का विजय। यह महेन्द्र गुप्तवंशी कुमार गुप्त है। इनका पूरा नाम महेन्द्र कुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तर पदयो वा त्वं वक्त व्यम्' (४/१/१३६) अथवा पदेषु पदक देशान' नियम के अनुसार उसी को महेन्द्र अथवा कुमार कहते हैं। उसके 'अवेस्तस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणम् ।' विशेषावश्यक भाष्य में इन्हीं शब्दों को दुहराते हुए कहा हैकालंतरं च जं पुणरणुसरणं धारणासाउ || गा० २६१ चाक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी बतलाते हुए सर्वार्थ सिद्धि अ० १ सूत्र १९ में कहा है-'मनोवद् प्राप्यकारीति' विशेषावश्यक भाष्य में उसे निम्न शब्दों में व्यक्त किया है । 'लोयणमपत्तविषयं मणोच ॥" गाथा २०६ सर्वार्थ सिद्धि अ०१ सूत्र २० में यह शंका की गई है कि प्रथम सभ्यकत्व की उत्पत्ति के समय दोनों शानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतएव धुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । यह नहीं कहा जा सकता। आह-प्रथम सम्यक्त्वोत्पती युगपज्ज्ञान परिणामान्मति पूर्वकत्वं श्रुतस्यनोलायत इति ।' इसके प्रकाश में विशेषावश्यक की निम्न गाथा को देखियेगाणाणाणिय सम कालाई जो मइसुआई। तो न सुयं मइ पुवं महणाणे वा सुयन्नारगं ॥ गा० १०७ १. देखो, सर्वार्थ सिद्धि समन्तभद्र पर प्रभाव शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष-५ पृ० ३४५ २. श्रीमरकों करणं महाराजाधिराजस्याविनीत नाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारती निबद्ध बहत्कथेन किरातार्जुनीय पंचदश मर्ग टीकाकारेण दुर्थिनीतिनामधेयेन३. सिरि पूज्यपाद सीसो दाविड संघस्स कारगो दुट्ठो । रामेण वज्जरमंदी पाहुइवेदी महासत्तो ।।। पंचसये छम्चीसे विक्कम रायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिरण महुराजादो दाविउसंघा महामोहो ।। -दर्शनमार Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी के आचार्य सिक्कों पर महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्र वर्मा, महेन्द्र कुमार आदि नाम उपलब्ध होते हैं।" तिब्वतीय ग्रन्थ चन्द्र गर्भ सूत्र में लिखा है- "भवन पत्हिकों शकुनों (कुशनों) ने मिलकर तीन लाख सेना से महेन्द्र के राज्य पर आक्रमण किया। गंगा के उत्तर के प्रदेश जीत लिये। महेन्द्रसेन के युवा कुमार ने दो लाख सेना लेकर उस पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। लोटने पर पिता ने उसका अभिषेक कर दिया। इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद ने इसी घटना का उल्लेख किया है। उसने गया के आस-पास का प्रदेश जीतकर मथुरा को अपना केन्द्र बनाया था। कुमार गुप्त का राज्य काल वि० स० ४७० से ५१२ ( सन् ४१३ से ४४५ ई० है। ग्रतः यही समय पूज्यपाद का होना चाहिए । पं० युधिष्ठिर जी का यह मत ठोक नहीं है, क्योंकि 'अरुणत् महेन्द्रो मथुराम्' यह वाक्य पूज्यपाद का नहीं है किन्तु महावृत्तिकार भयनन्दि का है। इसलिये यह तर्क प्रमाणित नहीं हो सकता । आर्यमंक्षु और नागहस्ति और नागस्ति- इन दोनों प्राचार्यों की गुरु परम्परा और गण- गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं मिलता । ये दोनों प्राचार्य यति वृषभ के गुरु थे । आचार्य वीरसेन जिनसेन ने घवला जयधत्रला टीका में दोनों गुरुओं का एक साथ उल्लेख किया है। इस कारण दोनों का अस्तित्व काल एक समय होना चाहिये, भले ही उनमें ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व हो । इन दोनों आचार्यों के सिद्धान्त विषयक उपदेशों में कुछ सूक्ष्म मत भेद भी रहा है। जो वीरसेनाचार्य को उनके ग्रंथों अथवा गुरु परम्परा से ज्ञात था जिनका उल्लेख धवला - जयधवला टीका में पाया जाता है और जिसे पवाइज्जमाण ग्रपवाइज्जमाण या दक्षिण प्रतिपत्ति और उत्तर प्रतिपत्ति के नाम से उल्लेखित किया है। " जयघवला में उन्हें 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है, जो उनकी महत्ता के द्योतक हैं । श्वेताम्बरीय पट्टावलियों में ग्रज्जमंगु और अज्ज नाग हत्थी का उल्लेख मिलता है । नन्दि वली में अज्जमंग को नमस्कार करते हुए लिखा है घवला सूत्र की 'पट्टा भगं करगं झरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं । बंदामि श्रज्जमं सुयसायरपारगं धीरं ॥ २८ सूत्रों का कथन करने वाले, उनमें कहे गए बाचार के संपालक, ज्ञान चोर दर्शन गुणों के प्रभावक, तथाश्रुतसमुद्र के पारगामी वीर ग्राचार्य मंगु को नमस्कार करता हूँ । इसी प्रकार नागहस्ति का स्मरण करते हुए लिखा है १. भूमिका जैनेन्द्र महावृत्ति पृ० ८ २. पं० भगवत का भारतवर्ष का इतिहास सं० २००३ पृ० ३५४ ३, जो अज्जम सीतो अवेदासी वि लागहत्यिस्स । - जयघवला भा० १०४ ४: सव्वाइरिय सम्म दो चिरकालभवोच्चिसंपदायकमेणागच्यमाणो जो शिष्यपरम्परा वाज्जदेसो पाहणंतो एसोति भण्गदे । अथवा अज्जमखु भवतामुसो एत्थापवाइज्यमाणो साथ | arastथ खरगाणमुवएसो पवाइज्यंतबोलि - ( जयधवला प्रस्तावना टि० पृ० ४३ घेतव्यो । ५. "कम्मत अणियोगद्वारेहि भग्नमाणे वे उबएमा होंति जहग्गामुक्कस्रा दिउदीरणं पमाण पणा कम्मदिदि परूदवृत्ति गुगह देव मागवणा भाति । अज मंखु समासमणा पुरण कम्मर्याद पन्ति भरति । एवं दोहि उबरसे हि कम्म 'महावाचयाशुमज्जमखु वराणामुवासेण लोगरिदे आउ सगाणं गामा गोदपरूपणा काव्या । एत्थ दुवे उबरसा वेदणीराणं दिवदि संतकम्म ठवेदि । महावाचयाणं गागहत्थि सवगाण मुबएसंग लांगे पूरिंदे नामा-गोद वेदीया दिउदिगंत कम्म तो मुद्दतमा होदि । -धवला टीका Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग --२ बउ बायगवंसो जस वंसो प्रमाणागहत्थीणं । सागरण करण भंगिय कम्म पयडी पहाणाणं ॥३० इसमें बताया है कि व्याकरण, करण चतुर्भगी मादि के निरूपक शास्त्र तथा कर्म प्रकृति में प्रधान प्रार्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धि को प्राप्त हो । नन्दि सूत्र में आर्य मंग के पश्चात् आर्य नन्दिल का स्मरण किया है और उसके पश्चात् नागहस्ति का। नन्दिसूत्र चूर्णी और हारिभद्रीय वृत्ति में भी यही क्रम पाया जाता है। दोनों में आर्य मंगु का शिष्य आर्य नन्दिल और आर्य नन्दिल का शिष्य नागहस्ती बतलाया है। "मार्य मंगु शिष्य प्रार्य नन्दिल क्षपणं शिरसा वंदे । -.-.""प्रार्य नन्दिल क्षपण शिष्याणां प्रार्य'नागहस्तिीण। इससे पार्य मंगु के प्रशिष्य पार्य नागहस्ति थे, ऐसा प्रमाणित होता है। नागहस्ति को कर्म प्रकृति में प्रधान बताया है और बाचकवंश की वृद्धि की कामना की गई है। श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में प्रार्य मंगु की एक कथा मिलती है। उस में लिखा है कि ये मथुरा में जाकर भ्रष्ट हो गये थे। नागहस्तिी को बाचक वंश का प्रस्थापक भी बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वे वाचक थे, इस कारण उनके शिष्य वाचक कहलाये। इन सब बातों पर विचार करने से यह संभाव्य लगता है कि श्वेताम्बर परम्परा के आर्य मंगु और महाबाचक नागहस्ती और धवला जय धवला के महावाचक आर्य मंक्षु और महावाचक नागहस्ति एक हों। पार्य मंगु का समय तपागच्छपट्टावली पृ० ४७ में वीरनिर्वाण से ४६७ वर्ष मौर सिरि दुसमाकलसमणसंघययं की प्रवचरि १०.१६ में वीर नि० ६२०-६८९ बतलाया है। किन्तु दोनों का एक समय किसी भी श्वेताम्बर पद्रावली में उपलब्ध नहीं होता। किन्तु दिगम्बर परम्परा में दोनों को यतिवृषभ का गुरु बतलाया है। मथुरा के लेख नं० ५४ प्रौर ५५ के प्रार्य घस्तु हस्त तथा हस्ति हस्ति तो काल को दृष्टि से पट्टावली के १६ वें पद्रधर नागहस्ती जान पड़ते हैं । लेखों के ज्ञात समय से पट्टावली में दिये गये समय के साथ कोई विरोध नहीं पाता। लेखों के कुषाण संवत् ५४ और ५५ (वीर नि० सं० ६५७ और ६५६) पट्टावली में दिये गए नागहस्ती के समय वीर नि० सं० ६२०-६० के अन्तर्गत पा जाते हैं। अर्थात् नाग हस्ती ६५६, ४७०=१८९ वि०सं० में विद्यमान थे। उसी समय के लगभग षट्खण्डागम की रचना हुई है । उस समय कर्म प्रकृति प्राभूत मौजूद था। उसी के लोप के भय से धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त भूतबलि को पढ़ाया था। प्रतः लेखगत यह समकालीनता आश्चर्यजनक है। यह बात खास तौर से उल्लेखनीय है कि लेख नं. ५४ में आर्य नागहस्ति वस्तु हस्ति और मंगुहस्ति का तथा लेख नं० ५५ में नागहस्ति (हस्त हस्ति) और माघ हस्ति का एक साथ उल्लेख है। माघहस्ति संभवत: मंगु मंख या मक्ष का नामान्तर हो, और शिल्पी की असावधानी से ऐसा उत्कीर्ण हो गया हो। दोनों लेखों में दोनों का एक साथ उल्लेख होना अपना खास महत्व रखता है। पर इससे यतिवृषभ को और पहले का विद्वान मानना होगा। तब इस समय के साथ उनकी संगति ठीक बैठ सकेगी। यतिवृषभ का वर्तमान समय ५वीं शताब्दी तो तिलोयपण्णत्ती के कारण है। प्राचीन तिलोयपण्णत्ती के मिल जाने पर उस पर विचार किया जा सकता है। मुनि सर्वनन्दी (प्राकृतलोक विभाग के कर्ता) मुनि सर्वनन्दी विक्रम की छठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् थे । और प्राकृत भाषा के अच्छे विद्वान थे। उनकी एक मात्र कृति 'लोकविभाग का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में पाया जाता है। परन्तु निश्चय पूर्वक यह कहना कठिन है कि जिस लोक विभाग का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती कार' ने किया है. वह इन्हीं सवनन्दी की रचना है। सिहसरि ने इसका संस्कृत में अनुवाद किया है। उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से ज्ञात होता है कि सर्वनन्दी ने उसे शक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं दाताब्दी से आठवी शताब्दी नक के आचार्य १२३ सं०३८० (वि० सं०५१५) में कांची नरेश सिंहवा के २२वं संवत्सर में, जब उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनैश्चर, दृषभ में बृहस्पति, और उत्तरा फाल्ग नि में चन्द्रमा अवस्थित था, तथा सवल पक्ष था। पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राम में पुराकाल में सत्रनन्दि ने लोषा विभाग की रचना की थी। सिंह बम पल्लव वंश के राजा थे। मोर काँची उनको राजधानी थी। संस्कृत लोक विभागको वे प्रशस्ति पछ इस प्रकार : वेबबे स्थिो भिसुते वयच जीथे। राजोत्तरेषु सितपाल गुपेत्य चन्द्र । ग्रामे च पाटलिक नामनि पाणराष्ट्र, शास्त्र' पुरालिसिसामूनि सर्वनन्दी। संघत्सरे तु द्वाविशे काञ्चीश-सिह वर्मणः अशोत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छत त्रये ॥४॥ तिलोयपणती में 'लोक विभागाइरिया' वाजप के साथ सर्वनन्दी के अभिमत का उल्लेख किया गया है। आचार्य यतिवृषभ यह पायं मक्ष के शिय्य योर नागहस्तक्षमायना के सन्तबासी से । उक्त दोनों पात्रायों को कसाय पाहड की गाथा आचार्य परम्परा मे ग्राती प्राप्त ईशी सोर जिनका उन्ह अच्छा परिज्ञान था। यन्निवपम ने उक्त दोनों गुरुयों के समीप गुणधराचार्य के कसाय पाहडसन को उन गाथानों का अध्ययन किया, और वह उनके रहस्य से परिचित हो गया था। अतएब उसने उन मुत्र गाथाओं का सम्यक् अर्थ अवधारण करके उन पर सर्वप्रथम छह हजार चूर्णि-सूत्रों की रचना की। प्राचार्य वी रमन ने उन्हें 'वृत्ति सुत्र' का कता बतलाया है।' और उन से वर भी चाहा है। जिनको रचना संक्षिप्त हो और जिनमें सूत्र के समस्त प्रों का संग्रह किया गया हो, सूत्रों के ऐसे विवरण को वृत्ति सूत्र कहते हैं । चूणि-सूत्रों के अध्ययन करने से जहां आचार्य यति बुपम के अगाध पाण्डित्य और विशाल प्रागम ज्ञान का का पता चलता है। वहां उनकी स्पष्टवादिता का भी बोध होता है। चारित्र मोह क्षपणा अधिकार में क्षपक की प्ररूपणा करते हुए यव मध्य की प्ररूपणा करना आवश्यक था। पर वह यव मध्य प्ररूपणा करने का उन्हें ध्यान नहीं रहा, किन्तु प्रकरण की समाप्ति पर चणिकार लिखते हैं-"जब मम्झ कायव्वं, विस्तरिद लिहिदु' (.६७६, पृ. ६४०)। यहां पर यव मध्य की प्ररूपणा करना चाहिए थी। किन्तु पहले क्षपण-प्रायोग्य प्ररूपणा के अवसर में हम लिखना भूल गए । यह प्राचार्य यति बषभ की स्पष्टवादिता और वीतराग वृत्ति का निर्देशन है। १. जो अज्ज मंडू सीगो अनेवापी विरणागहत्यिस्स | जय ध० ० १ २ ४ २. पुगो ताम्रो चेव मुत्त गाहाओ आइरिय परंपराए पागच्छमाणीओ अज्जमखू णामहत्वीणं पत्ताओ। पुणो तेसि दोह पि पाद भूने असीदिलद गाहागं गुणहरमुक मलविरिणग्गयाणमत्थं सम्म मोऊण जयिवसहभडारएस पवपरगवच्छलेण चुणि सुत कयं ।'-(जय० पू०१ १०५८) ३. पावं तयोमोगप्यधीस्वसूत्रापि तानि यतिवृषभः । यतिवृषभनामधेयो बभूवशास्त्रार्थनिपुणमतिः ।। तेन ततो मतिपतिता तद गाथा वृत्ति सूत्ररूपेण । रचितानि षट् सहमग्रन्थान्ययचूणिसूत्रारिण।" –इन्द्रनन्दि श्रुतावतार–१५५, १५६ ४. 'सो विसि सुत्त कत्ता जइवसहो मे वर देऊ ।' -(जय० प० पु० १९०४) ५. सुत्त पेव विवरण सखित्त सद्दरपणाए संगहिर सुत्तासे सत्याए वित्ति सुत्तवयएमादो।। जयपवला अ० ५० ५२ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग-२ जय धवलाकार प्राचार्य यतिवृषभ के यचनों को राग-द्वेष-मोह का प्रभाव होने से प्रमाण मानते हैं। यति वषभ को वीतरागता और उनके वचनों क भगवान महावीर को दिव्यध्वनि के साथ एकरसता बतलाने से यह स्पष्ट है कि भाचार्य परम्परा में यतिवृषभ के व्यक्तित्व के प्रति कितना समादर और महान प्रतिष्ठा का बोध होता है। प्राचार्य यति वषभ विशेषावश्यक के कस जिनभागभिक्षभायम और पूज्यपाद से पूर्ववर्ती है। क्यों कि उन्होंने यतिवषभ के मादेसकसाय विषयक मत का उल्लेख किया है। चणि सुत्रकार ने लिखा है कि-'आदेस कसाएण जहा चित्त कम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिद णिडालो भिडि काऊण। यह कसाय पाहुड के पेज्जदोस विहत्ती नामक प्रथम अधिकार का ५६वां सूत्र है। इसमें बताया है कि क्रोध के कारण जिसकी भटि चढ़ी हुई है और ललाट पर तीन बली पड़ी हुई हैं, ऐसे क्रोधी मनुष्य का चित्र में लिखित आकार मादेशकषाय है। किन्तु विशेषावश्यक भाष्यकार कहते हैं कि अन्तरंग में कषाय का उदय न होने पर भी नाटक प्रादि में केवल अभिनय के लिये जो कृत्रिम क्रोष प्रकट करते हुए क्रोधी पुरुष का स्वांग धारण किया जाता है, वह प्रादेश कषाय है। इस तरह से प्रादेश कषाय का स्वरूप बतलाते हुए भाष्यकार कसाय पाहडणि में निर्दिष्ट स्वरूप का 'केई' शब्द द्वारा उल्लेख करते हैं: पाएसमो कसाम्रो कइयव कय भिडि भंगुराकारो। केई चिसा गहनो ठवणा णत्यंतरो सोऽयं ॥२६८१ इसमें बताया है कि-कितने ही प्राचार्य क्रोधी के चित्रादि गत आकार को प्रादेशकषाय कहते हैं, परन्तु यह स्थापना कषाय से भिन्न नहीं है, इसलिये नाटकादि नकली क्रोधी के स्वांग को ही मादेशकषाय मानना चाहिये। प्राचार्य यतिवृषभ का पूज्यपाव (देवनन्दी) से पूर्ववर्तित्व' होने का कारण यह है कि पुज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में एक मत विशेष का उल्लेख किया है :'अथवा एषां मते सासारन एकेन्द्रियेषु नोल्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वावशभागा न दत्ता।' (सर्वा०सि० ११० ३७, पाव टिप्पण) जिन प्राचार्यों के मत से सासादन गुण स्थानवर्ती जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा वारह वेद चौदह भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है। सासादन गुण स्थानवी जीव यदि मरण करता है तो वह एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु नियम से देव होता है जैसा कि यतिवृषभ के निम्न णिसूत्र से स्पष्ट है: प्रासाणं पूण गवो जवि मरदि, ण सक्को जिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसगदि वा गंव। णियमा देव गदि गच्छवि । (कसा० अधि०१४ सूत्र १४४ पृ० ७२७) प्राचार्य यतिवृषभ के इस मत का उल्लेख नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने लब्धिसार-क्षपणासार की निम्न गाथा में किया है : जवि मरवि सासणो सो णिरय-तिरिक्ख णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं • गच्छदि अइवसह मुणिदवयणं ।।। इस कथन से स्पष्ट है कि यतिवृषभ पूज्यपाद के पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दिने वि० सं० ५२६ में द्रविड संघ की स्थापना की थी। अतः यतिवृषभ का समय ५२६ से पूर्ववर्ती है। अर्थात् वे ५वीं शताब्दी के विद्वान है। १. एदम्हादो बिजलगिरिमस्थयस्थं बड्नमाणदिवापरादो विरिणामय गोदमलोहाजजम्बुमाभियानिआइरियपरंपराए यागंग गुणहराइरिय पाविय गाहासरूवेग परिणमिय अज्जम गामहत्थीहितो ज.वसह मुह निमिय चुणिमुत्ताबारेण परिणददिवाणिकिरणादो ब्वदे। --जय धव० भा० १ प्रस्ताzि० १०४६ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १२५ यतिवृषभं की दूसरो रचना पंतलोयपण्णत्तो' है। इसके अन्त में दो गाथाएं निम्न प्रकार पाई जाती हैं । जिनवर वृषभ को, गुणों में श्रेष्ठ गणधर वृषभ को, तथा परिषहों को सहन करने वाले और धर्मसूत्रों के पाठकों में श्रेष्ठ ऐसे यतिवृषभ को नमस्कार करो। भूणिस्वरूप और षटकरणस्व रूप का जितना प्रमाण है त्रिलोकप्रज्ञप्ति का उतना ही, आठ हजार श्लोक प्रमाण है । पणमह जिणवर बसहं गणहर बसहं सहेष गुणहर वस । वरुण परिसवसहं अविवसहं धम्यमुत्त पाढर वसह ॥ चुष्णि सरूवस्थं करण सरुव पमाण होइ कि जसं । घट्टसहस्स पाणं तिलोयपण्ण तिणामाए ॥८१ इससे स्पष्ट है कि तिलोयपष्णत्ति के कर्ता और चूर्णि सूत्रों के कर्ता प्रस्तुत यतिवृषभ ही हैं। जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दि ने किया है । तिलोपणत्ति एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, उसमें महावीर के बाद के इतिहास की बहुत सो सामग्री दो हुई है जो काल गणना (श्रुत परम्परा - राजवंश गणना) दी है वह प्रामाणिक हैं। उसे यहां संक्षेप में दिया जाता है, पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारों ने उसका अनुसरण किया है । जिस दिन भगवान महाबोर का निर्माण (मोक्ष) हुआ, उसो दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान हुआ, श्रीर उनके सिद्ध होने पर सुधर्मस्वामी केवली हुए । उनके मुक्त होने पर जंबूस्वामी केवलो हुए । जंबूस्वामी के मोक्ष जाने के बाद कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ । इनका धर्मप्रवर्तन काल ६२ वर्ष है । केवलज्ञानियों में अंतिम श्रीधर हुए, जो कुण्डलगिरि से मुक्त हुए। श्रीर चारण ऋषियों में अन्तिम सुपार्यचन्द्र हुए। प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम बहरजस या वज्रयश, और अवधिज्ञानियों में अन्तिम श्री नामक ऋषि और मुकुटधर राजानों में ग्रन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा ली। इसके बाद कोई मुकुटधर राजा ने दीक्षा ग्रहण नहीं की। नन्दि (विष्णु नदि) नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच चौदह पूर्वी और बारह अंगों के धारण करने वाले हुए। इनका समय सौ वर्ष है । इनके बाद श्रौर कोई श्रुत केवलो नहीं हुआ । विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और सुधमं ( धर्मसेन) ये ग्यारह श्रंग और दश पूर्व के धारी हुए। परम्परा से प्राप्त इन सबका काल १८३ वर्ष है । नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, और कंस ये पांच आचार्यं ग्यारह अंग के धारी हुए, इनका काल २२० वर्ष होता है । इनके बाद भरत क्षेत्र में कोई मांगों का धारक नहीं हुआ । सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्यं ये आचारांग के धारक हुए। इनके अतिरिक्त शेष ग्यारह प्रग चौदह पूर्व के एक देश धारक थे। इनके पश्चात् भरत क्षेत्र में कोई ग्राचारांगधारी नहीं हुआ । राज्यकाल गणना का भी उल्लेख किया है। यद्यपि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में कुछ भ्रंश प्रक्षिप्त है । जिसके लिये उसकी प्राचीन प्रतियों का अन्वेषण आवश्यक है। फिर भी उपलब्ध संस्करण को दृष्टि से उसका रचना काल ५वीं शताब्दी का मानने में कोई हानि नहीं हैं। विषय वर्णन की दृष्टि से ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है । यतिवृषभ के सामने कितना हो प्राचीन साहित्य रहा है, जो अब अनुपलब्ध है । प्रकट सिद्धनन्दी यह मूल संघ कनकोपल संभूत वृक्ष मूलगुणान्वय के विद्वान् थे। जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से : कनकोपलसम्भूत वृक्षमूलगुणान्वये । भूतस्स समग्र राजान्सः सिद्धिनन्दि मुनीश्वरः । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इनके प्रथम शिष्य का नाम चिकार्य था। जिनके नागदेव' और जिननन्दि प्रादि पांच सौ ५०० शिष्य थे। प्लकेशी (प्रथम) चालुक्य के सामन्त सामियार थे, जो कुहाडी जिले का शामकथा, उसने अलक्तक नगर में, जो उस जिले के ७०० सात सौ गांवों के समूहों में एक प्रधान नगर था, एक जिन मन्दिर बनवाया, और राजा को आज्ञा लेकर विभव संवत्सर में जवकि शक वर्ष ४११ (वि० सं० ५४६) व्यतीत हो चुका था वैशाख महीने की पूर्णिमा के दिन चन्द्र ग्रहण के अवसर पर कुछ जमीन और गांव प्रदान किये। सिद्धिनन्दि का उल्लेख शाकटायन व्याकरण के सूत्र पाठ में मिलता है। इससे यह यापनीय सम्प्रदाय के विद्वान जान पड़ते हैं। पुलकेशा प्रथम के शक सं०४११ के दानपान में सिद्धिनन्दि का उमेस है।' अतएव इनका समय शक सं० ४११ सन् ४.८ तथा विक्रम सं० ५४६ हैं। चितकाचार्य यह मूल संध कनकोपलाम्नाय के विद्वान भाचार्य सिद्धनन्दि मुनीश्वर के प्रथम शिष्य थे। यह उक्त आम्नाय में बहत प्रसिद्ध थे। और नागदेव' चितकाचार्य द्वारा दीक्षित थे । अर्थात् चितकाचार्य उनके दीक्षा गुरु थे। नागदेव के गुरु जिननन्दि थे। जैसा कि अल्तम शिलालेख के निम्न पद्यों से जाना जाता है : तस्यासीत् प्रथम शिष्यो वेवताविनुतक्रमः । शिष्यः पञ्चशत युक्तश्चितकाचार्यदीक्षितः ॥ नागदेव गुरोशिष्यः प्रभूतगुणयारिधिः। समस्तशास्त्र सम्बोधी जिननन्दि प्रकोतितः॥ (जैन लेख सं०भा०२१०७७) सिद्धिनन्दि मुनिराज का समय ईसा की ५वीं सदी ४८ ई० है। अतः चितकाचार्य का समय भी ईसा की पांचवीं पीर विक्रम को छठी शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिए। वजनन्दि बच्चनधि देवनन्दि (पूज्यपाद) के शिष्य थे। बड़े विद्वान थे। इन्होंने दर्शनसार के अनुसार सं० १२४में द्रविड संघ की स्थापना की थी। देवसेन ने दर्शनसार में उन्हें नामास बतलाया है और लिखा है कि-"उसने कछार, खेत, वसति (जैन मन्दिर) पौर वाणिज्य से जीविका निर्वाह करते हुए और शीतल जल से स्नान करते हए प्रचुर पाप का संग्रह किया।"२ । मल्लिाषेण प्रशस्सि में वचनन्दि के 'नवस्तोत्र' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है, जिसमें सारे प्रवचन को अन्तर्भुक्त किया गया है और जिसकी रचना शंली बहुत सुन्दर है : ------- १.देखो, इं० १० जि०७ पृष्ठ० २०५-१७ तथा जैन लेख संग्रह भाग २ अल्तेम का लखनं०१०६ पृ०६५ २. सिरिपुजपाद सीसो दाविडसंघस्स फारगो वुहो। णामेण बज्जणदी पाहुवेदी महासत्तो।। पंचसये हुव्वीस शिकामराय स्म मरण पत्तस्स । दक्षिण महरा-जादो दाविद संघो महामोहो ॥ शनसार अर्थात् विक्रम राजा के ५२६ वर्ष बीतने पर द्राविध संघभी स्थापना की। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शतावरी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथपि प्रमाणं वज्रादो रचयत परन्निदिनि मुनी aarata पेन व्यरचि सकलहंसप्रवचन प्रपंचान्तर्भाव प्रचणदर सन्दर्भ सुभगम् ॥११॥ पुन्नाट संधी जिनगेन ने हरिवंश पुराण में वज्रसूरि की स्तुति करते हुए लिखा है-वज्रसूरे विचारण्यः सहेत्यानंन्धमोक्षयोः । प्रमाणं धर्मशास्त्राणं प्रवक्तृणामिवोक्तयः ॥ ३६॥ १२७ अर्थात् वज्रसूरि को सहेतुक बन्ध-मोक्ष की विचारणा में धर्मशास्त्रों के प्रवक्ताओंों की - गणधरदेवों की उक्तियों के समान प्रमाणभूत है। इससे स्पष्ट है कि उनके किसी ऐसे अन्य की ओर संकेत है जिसने दत्व, मोक्ष, उनके कारण राग-द्वेष तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि की चर्चा है। महाकवि धवल ने भी अपने हरिवंश पुराण में लिखा है कि वज्जसूरि सुपसिद्ध मुणिवस, जेण पमाणगंथ कि चंन । वज्रसूरि नाम के सुप्रसिद्ध मुनिवर हुए जिन्होंने सुन्दर प्रमाण ग्रन्थ बनाया । दोनों विद्वान यदि एक हैं तो नवस्तोत्र के अतिरिक्त उनका कोई प्रमाण ग्रन्थ भी होगा। धर देवों के समान प्रामाणिक मानते हैं। और देवसेन ने उन्हें जैनाभास बतलाया है ।" नन्दी और वरि जिनसेन तो उन्हें गण नागसेन गुरु नरगसेन गुरु- ऋषभसेन के शिष्य थे। जिन्होंने सन्यास विधि से श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर देह त्याग किया था। जिसका श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० २४ (३४) में उल्लेख है। और उसमें महत्व के सात विशेषणों के साथ उनकी स्तुति को लिये हुए निम्न श्लोक दिया हुआ है : मागसेनमनधं गुणाधिकं नाग नामक जितारि मंडलं । राज्यपूज्यममल श्रियास्पदं कामदं हतमदं नमयाम्यहं । इस शिलालेख का समय शक सं० ६२२ (वि० सं० ७५७) सन् ७०० के लगभग अनुमान किया गया है, परन्तु उसका कोई आधार नहीं दिया । स्वामी कुमार स्वामी कुमार ने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया । किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा की मन्तिम ४८९ नं० की गाथा में वसुपूज्यसुत-वासुपूज्य, मल्लि और अन्त के तीन नेमि, पार्श्व और वर्द्धमान ऐसे पांच कुमार श्रमण तीर्थंकरों की वन्दना की गई है। जिन्होंने कुमारावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोक के प्रधान स्वामी हैं। इससे यह बात निश्चित होती है कि प्रस्तुत ग्रन्थाकार कुमार श्रमण थे, बाल ब्रह्मचारी थे। और उन्होंने बाल्यावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है। इसी से उन्होंने अपने को विशेष रूप में इष्ट पांच कुमार तीर्थंकरों की स्तुति की है । स्वामि-शब्द का व्यवहार दक्षिण देश में अविक प्रचलित है और वह व्यक्ति विशेषों के साथ उनकी प्रतिष्ठा का द्योतक होता है। कुमारसेन कुमार नन्दी श्रौर कुमार स्वामी जैसे नामधारी प्राचार्य दक्षिण देश में 'हुए १. देवी दर्शनसार गाया २७ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन धर्म का प्रचीन इतिहास - भाग २ हैं। दक्षिण देश में प्राचीन समय से क्षेत्रपाल की पूजा का प्रचार रहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाया नं० २५ में 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट नामोल्लेख है और उसके विषय में फैली हुई रक्षा सम्बन्धो मिथ्या धारणा का प्रतिषेध किया है। इससे लगता है कि ग्रन्थकार कुमार स्वामी दक्षिण देश के विद्वान थे । डा० ए० एन० उपाध्ये का यह अनुमान सही प्रतीत होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में ४८६ गाथाओं में द्वादश भावनाओं का सुन्दर विवेचन किया गया है। भावनाओं का क्रम गृद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थ सूत्रानुसार ही है। जैसा कि दोनों के उद्धरण से स्पष्ट है : - मद्भुवमसरण मेगश्रमण संसार लोगमसुचितं प्रासव संवर- णिज्जर-धम्मं बोहि च चितेज्जो || । - वारस प्रणुवेक्खा - अनित्याशरण संसारकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्याऽऽस्रव संवर- निर्जरा लोक बोधिदुर्लभ - धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तन - तत्वार्थ सूत्र ६-७ मनुप्रेक्षाः । प्रद्भुव प्रसरण भणिया संसारामेगन्ण मसुइत्तं । श्रासव संवरणामा णिज्जर लोयाणु पेहाथो ॥ भावनाओं का है। जब कि तस्वार्थ सूत्र यह क्रम - मूलाचार, भगवती ग्राराधना और वारस श्रणुवेक्खा में एक हो क्रम पाया जाता और कार्तिकेयानु प्रेक्षा का क्रम उनसे भिन्न एक रूप है। दूसरे भावनाओं के वर्णन के साथ श्रावकाचार का भी सुन्दर वर्णन किया है। इससे स्वामी कुमार उमास्वाति ( मद्रपिच्छचार्य ) के बाद के विद्वान होने चाहिये । इय जाणिऊण भावह बुल्लह-धम्माणु भावणा । free मण वयण काय सुद्धी एदा दस दोय भणिया हु || जोइन्दु जोइन्दु ( योगीन्द्र देव ) - यह अध्यात्मवादी कवि थे। उनकी कृतियों में श्रात्मानुभूति का रस है । यह अपभ्रंश भाषा के विद्वान थे । जोइन्दु का संस्कृत रूपान्तर गलत रूप में योगीन्द्र प्रचलित हैं । किन्तु योगसार में 'जोगिचन्द्र' नाम का उल्लेख है : संसारह भय - भीयएण, जोगिचन्द मुणिएण अप्पा संमोहनका दोहा हक्क- मणेण ॥ १०८ ॥ डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार 'योगेन्दु' पाठ है, जो योगिचन्द्र का समानार्थक है। यह श्रध्यात्म रस के रसज्ञ थे । प्राकृत संस्कृत के विद्वान न होते हुए भी उनकी रचना सरल अपभ्रंश में है। जोइन्दु की निम्न रचनायें उपलब्ध हैं । परमात्मप्रकाश, योगसार, निजात्माष्टक और अमृताशीति । ये सभी रचनायें अध्यात्मवाद के गूढ़ रहस्य से युक्त हैं । परमात्म प्रकाश - इस ग्रन्थ में टीकाकार ब्रह्मदेव के अनुसार ३४५ पद्य हैं। दो अधिकार हैं, उनमें पांच प्राकृत गाथाएँ, एक स्रग्धरा, एक मालिनो, और एक चतुष्पदिका है। यद्यपि परमात्मप्रकाश में दोहे का कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु योगसार में दोहा शब्द का उल्लेख मिलता है । दोहे में दोनों पंक्तियों समान होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में दो चरण होते हैं। प्रथम चरण में १३ और दूसरे में ११ मात्रायें होती हैं । विरहांक और हेमचन्द्र के अनुसार दोहे में १४ और १२ मात्राएं होती हैं; किन्तु परमात्म प्रकाश के दोहों में दीर्घ उच्चारण करने पर भी प्रथम चरण में १३ मात्राएं पाई जाती हैं और दूसरे में ग्यारह । ग्रन्थ के प्रथम अधिकार में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करने के बाद आत्मा के तीन भेदों का बहि १. दो पाया भव्य दुनिहड, विरहॉक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य १२६ रात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप वतलाया गया है। आत्मा के त्रैविद्य की यह चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों, और पूज्यपाद देवनन्दी के ग्रन्थों से ली गई है। और उनका विस्तृत स्वरूप भी दिया है। बहिरात्मा अवस्था को छोड़ कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा होने की प्रेरणा की है। परमात्मा के सकल विकल भेदों का स्वरूप ३४ दोहों में दिया गया है। जीव के स्वशरीर प्रमाण होने की चर्चा, द्रव्य-गुण, पर्याय, कर्म, विनय सम्ययवराव किया गया है। दूसरे अधिकार में मोक्ष का स्वरूप मोक्ष का फल, मोक्ष मार्ग, ग्रभेद रत्नत्रय, समभाव पुण्य-पाप की समानता और परम समाधि का कथन दिया हुआ है। परमात्म प्रकाश के दोहा प्रत्यन्त सुन्दर, रमणीय और शुद्ध स्वरूप के निरूपक हैं, उनके पढ़ने में मन रम जाता है, क्योंकि वे सरस और भावपूर्ण हैं । रहस्यवाद – मुनि जोगचन्द ने प्राध्यात्मिक गूढ़वाद और नैतिक उपदेशों को सहज ढंग से व्यक्त किया है । उन्होंने अपने पद्मों में योगियों को अनेक बार सम्बोधित किया है, और गृह निवास को पाप निवास भी बतलाया है। परमात्म प्रकाश के दोहों में गूढ़ वादियों के सदृश कहीं अस्पष्टता का आभास नहीं होता। उन्होंने पंचेन्द्रियों को जीतने और विषयों से पराङ्ग मुख रहने, अथवा उनका त्याग कर श्रात्म-साधना करने का स्पष्ट संकेत किया है। मानव देह पाकर जिन्होंने जीवन को विषय कषायों में लगाया, और काम कोधादि विभाव भावों का परित्याग न कर, वीतराग परम प्रानन्द रूप अमृत पाकर भी अनशनादि तप का अनुष्ठान नहीं किया, वे श्रात्मघाती हैं, क्योंकि ध्यान की गति महा विषम है । चित्तरूपी बन्दर के चंचल होने से शुद्धात्मा में स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती, और ध्यान की स्थिरता के प्रभाव में तो कर्म कलंक का विनाश नहीं होता। तब शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? योगोन्द्र देव जैन गूढ़वादी हैं, उनकी विशाल दृष्टि ने ग्रन्थ में विशालता ला दी हैं, अतएव उनका कथन साम्प्रदायिक व्यामोह से ग्रलिप्त है। उनमें बौद्धिक सहन-शीलता कम नहीं है। वेदान्त में श्रात्मा को सर्वगत माना है, और मीमांसक मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानते । बौद्धों का कहना है कि वहां शून्य के अतिरिक्त मौर कुछ नहीं है । योगीन्द्र देव इन मतभेदों से प्राकुलित नहीं होते। क्योंकि उन्होंने अध्यात्म के प्रकाश में नयों की सहायता से शांकिक जाल का भेदन किया है और परमात्मस्वरूप की निश्चित रूप-रेखा स्वीकृत की है, वह मौलिक है। वे परमात्मा को जिन, ब्रह्म, शान्त, शिव और बुद्ध प्रादि संज्ञायें देते हैं । उन्होंने परमात्मस्वरूप के प्रकाशित करने का यथेष्ट उद्यम किया है। और अन्त में मोक्ष और मोक्ष का फल बतलाया है। वस्तु के स्वरूप वर्णन में उनकी दृष्टि मिल रही है। उनके दो चार दोहों का भी प्रास्वाद कीजिये, वे सुन्दर भावपूर्ण और सरस हैं। जो समभाव-परिट्ठियहं जो इहं कोई पुरेद्र परमानंद जणंतु फुड सो परमप्पु हवेई ॥१-३५ जो योगी समभाव में - जीवन-मरण - लाभ - प्रलाभ सुख-दुख, शत्र और मित्रादि में समरूप परिणत है, और परम आनन्द को प्रकट करता है वही परमात्मा है । भवतणु-भय- विरस - मणु जो अप्पा झाएह । तासु गुरुक्की बेल्लड़ी संसारिणी तुट्टई ॥१-३२ जो जीव संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मन हुआ शुद्धात्मा का चिन्तवन करता है उसकी संसार रूपी मोटी बेल नाश को प्राप्त हो जाती है । कम्म- वि वि जोइया देह वसंतु वि जोजि । होइ ण सय कया वि कुष्ठु मुणि परमप्पड सौ जि ॥१-३६॥ हे योगी ! यद्यपि आत्मा कर्मों से सम्बद्ध है, और देह में रहता भी है परन्तु फिर भी वह कभी देह रूप नहीं होता, उसी को तू परमात्मा जान Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० विवेकी है ! परको जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ बेह - विभिष्णउ णाणमउ जो परमप्पु शिएड 1 परम समाधि--परियड पंडिउ सो जि हवेइ ॥१-१४॥ पता है, वही समाधि में स्थित हुआ पंडित है-अन्तरात्मा जित् इंदिय- सुह-दुहाँ जित्यु ण मनवायारु । सो पप्पा मुणि जीव तुहं पण परि श्रवहारु ॥ १- २८ ॥ जिस 'शुद्ध आत्म-स्वभाव में इन्द्रिय जनित सुख-दुख नहीं हैं, और जिसमें संकल्प-विकल्प रूप मन का व्यापार नहीं है, हे जीव ! उसे तू ग्रात्मा मान, और ग्रन्य विभावों का परित्याग कर । इस तरह परमात्म प्रकाश के सभी दोहा श्रात्म स्वरूप के सम्बोधक तथा परमात्मा स्वरूप के निर्देशक हैं । इनके मनन और चिन्तन से मात्मा मानन्द को प्राप्त होता है । योगसार - में १०८ दोहा हैं जिनमें अध्यात्म दृष्टि से आत्मस्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है। दोहा सरस और सरल हैं। और वस्तु स्वरूप के निर्देशक है । यथा प्राउ गलङ्क णषि मण, गलइ णवि श्रासाहु गलेछ । मोहू कुरणविप्रहिउ इम संसार भमेई ||४ श्रायुगल जाती है, पर मन नहीं गलता और न माशा ही गलती, मोह स्फुरित होता है, पर श्रात्महित का स्फुरण नहीं होता--इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है । धं पश्यि समलु जगि गवि श्रध्या हु सुणंति । तहि कारण ए जीव फुड गहू निव्वाण लहंति राष्ट्र संसार के सभी जीव धंधे में फंसे हुए हैं, इस कारण वे अपनी आत्मा को नहीं पहिचानते । अतएव वे निर्वाण को नहीं पा सकते । इस तरह योगसार ग्रन्थ भी आत्म सम्बोधक है। इसका अध्ययन करने से आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है । अमृताशीति – यह एक उपदेश प्रद रचना है। इसमें विभिन्न छन्दों के ८२ पद्य हैं। उनमें जैन धर्म के अनेक विषयों की चर्चा की गई है। यथापि पद्मप्रभमलधारि देव ने नियमसार की टीका में योगीन्द्रदेव के नाम से जो पद्य उद्धृत किया है, वह भ्रमृताशीति में नहीं मिलता। श्रतएव पं० नाथूराम जी प्रेमी का अनुमान है कि वह पद्य उनके अध्यात्मसन्दोह ग्रन्थ का होगा । निजात्माष्टक - यह भाठ पद्यात्मक एक स्तोत्र है। इसकी भाषा प्राकृत है जिनमें सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाया गया है । पर किसी भी पथ में रचयिता का नाम नहीं है । ऐसो स्थिति में इसे योगीन्द्र देव की रचना कैसे माना जा सकता है। इस सम्बन्ध में अन्य प्रमाणों की प्रावश्यकता है। इसका कहीं अन्यत्र उल्लेख भी मेरे अवलोकन में नहीं आया । सम्भव है वह इन्हीं की रचना हो, अथवा अन्य किसी की । योगेन्द्र का समय योगेन्दु के परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव और बालचन्द की टीकायें उपलब्ध | बालचन्द्र की टीका पर ब्रह्मदेव का प्रभाव है, इस कारण बालचन्द्र ब्रह्मदेव के बाद के विद्वान हैं। ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य है । जयसेन भी उनसे बाद के विद्वान हैं, क्योंकि जयसेन ने उनकी वह द्रव्य संग्रह की टीका का उल्लेख किया है। पं० कैलाशचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री राजा भोज के समय द्रव्यसंग्रह की टीका का वर्तमान होना मानते हैं, जो १२ शताब्दी का प्रारम्भ है। योगेन्दु ने परमात्म प्रकाश में आचार्य कुन्दकुन्द और पूज्यपाद ( ईसा की ५वीं सदी) के विचारों को निबद्ध किया है। अतएव उनका समय ईसा की छठी शताब्दी हो सकता है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना में जोइन्दु का समय ईसा की छठी शताब्दी माना है; क्योंकि गुणे ने चण्ड के Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! से आठवीं शताब्दी के आचार्य १३१ व्याकरण के व्यवस्थित रूप का समय ईसा की छठी शताब्दी के बाद ईसा की सातवीं शताब्दी के लगभग रखा जा सकता है ऐसा लिखा है। चण्ड के प्राकृत लक्षण में योगेन्दु का एक दोहा उबूत है— काल लहेबिणु जोइया जिम जिम मोहु गले तिम तिम दंसणु ल जो जिय में अप्पु मृणे ॥ इस कारण योगेन्दु का समय छठी शताब्दी मानना उपयुक्त है । सम्भव है वे छठी के उपान्त्य समय और सातवीं के प्रारम्भ समय के विज्ञान हों। पात्रकेसरी पात्रकेसरी - एक ब्राह्मण विद्वान थे, जो हिच्छत्र के निवासी थे। यह वेद वेदांग आदि में अत्यन्त निपुण थे। उनके पांच सौ विद्वान शिष्य थे, जो अवनिपाल राजा के राज्य कार्य में सहायता करते थे। उन्हें अपने कुल का (ब्राह्मणत्व का) बड़ा अभिमान था। पात्र केसरी प्रातः सौर सायंकाल सन्ध्या वन्दनादि नित्य कर्म करते थे और राज्य कार्य को जाते समय कौतूहल वश वहाँ के पार्श्वनाथ दि० मन्दिर में उनकी प्रशान्त मुद्रा का दर्शन करके जाया करते थे। १. अहिच्छत्र किसी समय एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था। इस पर अनेक वंशों के राजाओं ने शासन किया है। इसके प्राचीन इतिवृत्त पर दृष्टि डालने से इसकी महत्ता का सहज ही भान हो जाता है। यह उत्तर पांचाल की राजधानी रहा है । इसका प्राचीन नाम 'संखावती' था, और वह कुरु जांगल देश की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध था। जब भगवान पार्श्वनाथ यहाँ आये और किसी उच्च शिक्षा पर ध्यानस्थ थे। उस समय कमठ का जीव संवर, देवविमान में कहीं जा रहा था। उसका विमान इकाइक समजा, उसने नीचे उतर कर देखा तो पार्श्वनाथ दिखाई पड़े। उन्हें देखते ही उसका पूर्व भव का र स्मृत हो उठा। पूर्व र स्मृत होते ही उसने क्षमाशील पारनाथ पर घोर उपसने किया इतनी अधिक वर्षा की कि पानी पारगाय की प्रीवा तक पहुंच गया, किन्तु फिर भी पार्श्वनाथ अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। तभी धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ और उसने अवधिज्ञान से पा नाथपरक उपसर्ग होता जानकर तत्काल धरणेन्द्र पद्मावती सहित आकर और उन्हें ऊपर उठाकर उनके सिर पर फह का छत्र तान दिया। उनसर्ग दूर होते ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। पश्चात् उस सम्बरदेव ने भी उनकी शरण में सम्यकत्व प्राप्त किया। और अन्य मत्त सो तपस्वियों ने भी जिनदीक्षा लेकर आत्म काण किया। उसी समय से यह स्थान अहिच्छत्र नाम से रुपात हुआ है। वहाँ राजा वसुपाल ने सहस्रकूट वंश्यालय का निर्माण कराया था। और पाश्र्श्वनाथ की एक सुन्दर सातिशय प्रतिमा भी निर्माण कराया था। यह दिम्बर जैनियों का तीर्थ स्थान है। यहां की खुदाई में पुरातत्व की सामग्री भी उपलध पी है। --देखो, उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र अनेकान्स वर्ष २४ किरण ६ पुगि पवित्र पावेसरी। म जीवाज्जिन पाद(रज मे वर्न कम चुवतः ॥ २) - सुदर्शन चरित्र सदावर्ती राजसेवा परा॑मुषः । घ मोक्षार्थी वापसी पार्कसरो ॥ (क) पदे श्री -नगर तालुका का शिलालेख भ अहिले जग नागरे नगरे बरे ।।१८ पुण्यादवनिपालाख्यो राजा राज कलान्वितः । प्रान्तं राज्यं करोत्युच्य विप्रैः पञ्चशतं तः ॥ १e विप्रास्तं वेद वेदाङ्ग पारगाः कुलविताः । कृत्वा सन्ध्या वन्दनां वयं सन्ध्या च निरन्तरम् ॥२० (राम्रा कथाकोष) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ एक दिन उस मन्दिर में चारित्र भूषण नाम के मुनि भगवान पार्श्वनाथ के सन्मुख 'देवागम स्तोत्र' का पाठ कर रहे थे । पात्र केसरी सन्ध्या वन्दनादि कार्य सम्पन्न कर जब वे पार्श्वनाथ मन्दिर में पाए, तब उन्होने मुनि से पूछा कि आप अभी जिस स्तवन का पाठ कर रहे थे, क्या प्राप उसका अर्थ भी जानते हैं ? तब मुनि ने कहा मैं इसका अर्थ नहीं जानता । तब पात्र केसरी ने कहा, आप इस स्तोत्र का एक बार पाठ करें। मुनिवर ने पाठ पुनः धीरे-धीरे पढ़ कर सुनाया। पात्र केसरी की धारणा शक्ति बड़ी विलक्षण थी। उन्हें एक बार सुन कर ही स्तोत्रादि कंठस्थ हो जाया करते थे। अतः उन्हें देवागम स्तोत्र कंठस्थ हो गया। वे उसका अर्थ विचारने लगे । उससे प्रतीत हुआ कि भगवान ने जीवादिक पदार्थों का जो स्वरूप कहा है, वह सत्य है । पर अनुमान के सम्बन्ध में उन्हें कुछ सन्देह हुआ। वे घर पर सोच ही रहे थे कि पद्मावती देवी का प्रासन कम्पायमान हुा । वह वहां पाई और उसने पात्र केसरी से कहा कि प्रापको जैन धर्म के सम्बन्ध में कुछ सन्देह है। आप इसकी चिन्ता न करें। कल पापको सब ज्ञात हो जावेगा। वहाँ से पद्मावती देवी पार्श्वनाथ के मन्दिर में गई, और पार्श्वनाथ की मूर्ति के फण पर निम्न श्लोक अंकित किया। "मन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । प्रातः काल जब पात्र केसरी ने पार्श्वनाथ मन्दिर में प्रवेश किया तब वहाँ उन्हें फण पर मांकित वह श्लोक दिखाई दिया। उन्होंने उसे पढ़ कर उस पर गहरा विचार किया, उसी समय उनकी शंका निवृत्त हो गई। और संसार के पदार्थों से उनकी उदासीनता बढ़ गई। उन्होंने विचार किया कि प्रात्महित का साधन वीतराग मुद्रा से ही हो सकता है। और वही प्रात्मा का सच्चा स्वरूप है । जैनधर्म में पात्र केसरी की प्रास्था अत्यधिक हो गई। और उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली । आत्म-साधना करते हुए उन्होंने विभिन्न देशों में विहार किया और जैनधर्म की प्रभावना की। पात्रकेसरी दशन शास्त्र क प्रोढ़ विद्वान थे। उनकी दो कृतियों का उल्लेख मिलता है। उनमें पहला ग्रन्थ 'विलक्षण कदर्थन' है । जिसे उन्होंने बौद्धाचार्य दिङ्गनाग द्वारा प्रस्थापित अनुमान-विषयक हेतु के रूप्यात्मक लक्षण का खण्डन करने के लिए बनाया था, इससे हेतु के रूप्य का निरसन हो जाता है। हेतु पक्ष में हो या सपक्ष में हो और विपक्ष में न हो, ये तीन लक्षण बौद्धों ने माने थे । इनके स्थान में 'अन्यथानुपपन्नत्व'-को दूसरे किसी प्रकार से उपपत्ति न होना-यह एक ही लक्षण प्राचार्य ने स्थिर किया । इसकी मुख्यकारिका उन्हें पपावती देवो से प्राप्त हुई थी ऐसी पाख्यायिका है। बौद्धाचार्य शान्तरक्षित ने तत्त्व संग्रह (१३६४-७६) में इस कारिका के साथ कुछ अन्यकारिकायें भी पात्रस्वामी के नाम से उद्धत की हैं। किन्तु मूलग्रंथ 'त्रिलक्षणकदर्थन इस समय अनुपलब्ध है । पर यह ग्रन्थ बौद्ध विद्वान शान्तिरक्षित और कमलशील के समय उपलब्ध था। और पकलंक देवादि के समय भी रहा था । तत्त्व संग्रहकार शान्तिरक्षित ने पृष्ठ ४०४ में खण्डन करने का प्रयत्न किया है। पात्रकेसरी ने उक्त 'त्रिलक्षणकदर्थन' में हेतु के रूप्य का युक्ति पुरस्सर खण्डन किया था इस कारण यह ग्रंथ एक महत्त्वपूर्ण कृति था। मापकी दूसरी कृति ५० श्लोकों को लिए हुए एक बहुत छोटी-सी रचना है, जिसका नाम 'जिनेन्द्र गुण संस्तुति' है, और जिसका अपर नरम पात्रकेसरी स्तोत्र प्रसिद्ध है। जो स्तुति ग्रन्थ होते हुए भी एक महत्वपूर्ण कृति है। इसमें वेद का पुरुष कृत होना, जीव का पुनर्जन्म, सर्वज्ञ का अस्तित्व, जीब का कर्तृत्व, क्षणिकवाद निरसन, ईश्वर का निरसन, मुक्ति का स्वरूप, तथा मुनि का सम्पूर्ण अपरिग्रह व्रत इन दश प्रमुख विषयों का विवेचन दार्शनिक दृष्टि से किया गया है। और अर्हन्त के गुणों को अनेक युक्तियों से पुष्ट किया गया है। इस पर एक अज्ञात कर्तृक संस्कृत टीका भी है। इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य पात्रकेसरी प्रपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। शिलालेखों में समति या सन्मति देव से पहले पात्रस्वामी का नाम प्राता है। उनका सबसे पुरातन उल्लेख बौद्धाचार्य शान्तिरक्षित का समय (ई० ७०५-७६३) है । और कर्णगोमी का समय ७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और वों का पूर्वाध है। अतः पात्रस्वामी का समय बौद्धाचार्य दिग्नाग (ई० ४२५) के बाद और शान्ति रक्षित के मध्य होना चाहिए। अर्थात् Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म का प्राचीन इतिहास पात्रस्वामी ईसा की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध और ७वीं शताब्दी के पूर्वार्ष के विद्वान होना चाहिए। अनन्तवीर्य मनन्तवीर्य (प्रतिवद्ध)-इनका उल्लेख अकलंक देव ने तत्त्वार्थवातिक पृष्ठ १५४ में वैक्रियिक मौर आहारक शरीर में भेद बतलाते हुए किया है,-पोर बतलाया है कि-'क्रियिक शरीर का क्वचित प्रतिधात भो देखा जाता है। इसके समर्थन में उन्होंने अनन्तवीर्य यति के द्वारा इन्द्र को शक्ति का प्रतिघात करने की घटना का उल्लेख किया है...(अनन्त वीर्य यतिना चेन्न-वीर्यस्य प्रतिघात श्रुतेः स प्रतिघात सामर्थ्य वैक्रिमिकम् । (तत्वा० वा. पृ० १५४) सम्भवतः इनका समय छठवी-सातवीं शताब्दी हो; क्योंकि प्रस्तुत अनन्तवीर्य अकलंक देव से तो पूर्ववर्ती हैं ही। प्रकलंक देव का समय पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने सिद्धि-विनिश्चय की प्रस्तावना में ई० ७२० से ७८०वि० सं० ६३७ सिद्ध किया है। (देखो, उक्त प्रस्तावना) मानतुंगाचार्य मानतुगाचार्य-अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे। प्रभावक चरित में इनके सम्बन्ध में लिखा है कि यह काशी देश के निवासी मोर पनदेव के पुराहो इन्होने दिगम्बर मुनि से दीक्षा ली थी, और इनका नाम चारुकीति महाकीर्ति रखा गया । अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अनुयायिनो श्राविका ने उनके कमण्डलु के जल में त्रस जीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्या से विरक्ति हो गयो और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्य के निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गए। और उसी अवस्था में भक्तामर की रचना की। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका के अन्तर्गत भक्तामर स्तोत्र टीका की उत्थानिका में लिखा है मानतुग नाभा सिताम्बरो महाकविः निर्गन्याचार्यवयरपनीतमहाव्याधि प्रतिपन्न निर्ग्रन्थ मार्गो भगवन कि क्रियतामितिब्वाणो भगवता परमात्मनो गुणगण स्तोत्र विधीयतामित्याविष्टः भक्तामरेत्यादि ।" इसमें कहा गया है कि-मानतुग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्य ने उनको व्याधि से मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा-भगवन् ! अब क्या करूं? प्राचार्य ने माज्ञा दी कि परमात्मा के गुणों का स्तोत्र बनायो, फलतः मादेशानुसार भक्तामर स्तोत्र का प्रणयन किया गया। इस तरह परस्पर में विरोधी आख्यान उपलब्ध होते हैं । यह विरोध सम्प्रदाय व्यामोह का ही परिणाम है, वस्तुतः मानतुंग दोनों ही सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इनके समय-सम्बन्ध में भी दो विचार धाराएं प्रचलित हैं-भोजकालोन और हर्षकालोन । किन्तु ऐतिहासिक विद्वान मानतुंग को स्थिति हर्षवर्धन के समय की मानते हैं । डा. ए. बी. कोथ ने मानतुग को वाण कवि के समकालोन अनुमान किया है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान पं० नाथूराम प्रेमी ने भा मानतुंग को हर्षकालीन माना है। इस सब कथन पर से भक्तामर' स्तोत्र ७वीं शताब्दी की रचना है।" १. प्रभावक चरित, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद तथा कलकत्ता सन् १९४० मानतुग सूरि चरितम् पृ० ११२-११७ । २. क्रिया कलाप संपन्नालाल सोनी दि० जैन सरस्वती भवन झालरापाटन, वि० सं० १६६३ भक्तामर स्तोत्र को उत्थानिका । ३, ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, लन्दन १६४१ पृ० २१४-१५ । ४. भक्तामर स्तोत्र, जैन वन्थ लाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९१६ पृ. १२॥ ५. देखो, स्मारिका, भारतीय जन माहित्य संसद १६६५ ई०, मामतुग शीर्षक डालनेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य का निबन्ध । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ मानतुंग सूरि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं । भक्तामर स्तोत्र और भयहर स्तोत्र । इनमें से प्रथम रचना संस्कृत के बसन्ततिलका छन्द में रची गई है। इस स्तोत्र में उसका आदि पद 'भक्तामर' होने से इसका यह नाम रूढ़ हो गया है। इसी तरह कल्याण मन्दिर और विषापहार स्तोत्र भी अपने उक्त यादि पद के कारण कल्याण मन्दिर और विषापहार नामों से ख्यात है । भक्तामर स्तोत्र में ४८ पद्य हैं। प्रत्येक पद्म में काव्यत्व रहने के कारण ये ४८ पद्य काव्य कहलाते हैं । किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ४४ पद्य हो माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्रत्रय और नातियों के दोनों तो ग्रहण कर लिया है। किन्तु पुष्पवृष्टि, भामण्डल, दुन्दुभि श्रौर दिव्यध्वनि इन चार प्रतिहार्थी के ज्ञापक पद्यों को निकाल दिया है । किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निष्कासित और प्रतिहार्य सम्बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये हैं । इस कारण पद्मों की कुल संख्या ५२ हो गई है। जो ठीक नहीं है । वास्तव में इस स्तोत्र में ४८ ही पद्य हैं, जो मुद्रित और हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में मिलते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में भक्तामर स्तोत्र के पठन-पाठन का खूब प्रचार है। इस स्तवन में श्रादि ब्रह्मा आदिनाथ को स्तुति को गई है। इसीलिए इसका नाम आदिनाथ स्तोत्र प्रचलित है । कवि अपनी नम्रता दिखाते हुये कहता है कि- 'हे प्रभो ! अल्पज्ञ और बहुतज्ञ विद्वानों द्वारा हंसी का पात्र होने पर ही तुम्हारी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्त में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत श्राश्रमंजरी ही उसे बलात् कूजने का निमन्त्रण देती हैं यथा अल्प भुतं श्रुतवतt परिहासधाम, त्वक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । rathe feast मधुरं विरौति तचाचूतकलिका निकरक हेतुः ।। ६ या मानगाचार्य कहते हैं कि हे जगत के भूषण ! हे जोवों के नाथ ! आपके यथार्थ गुणों से श्रापका स्तवन करते हुये भक्त यदि आपके समान हो जाय तो इसमें कोई श्राश्चर्य नहीं है ऐसा होना ही चाहिये। क्योंकि स्वामी का यह कर्तव्य है कि वह अपने सेवक को समान बना ले। नहीं तो उस स्वामी से क्या लाभ है जो अपने प्राश्रितों को अपने वैभव से अपने समान नहीं बना लेता । " afa श्रपने प्राराध्य देव की जितेन्द्रियता का चित्रण करते हुए कहता है कि-प्रलयकाल की वायु से बड़ेबड़े पर्वत चलायमान हो जाते हैं पर सुमेरु पर्वत जरा भी चलायमान नहीं होता। इसी प्रकार देवांगनाओं के सुन्दर रूप लावण्य को देखकर ऋषि-मुनि देव-दानव आदि के चित्त चलायमान हो जाते हैं, पर आपका चित्त रंचमात्र भी विकार युक्त नहीं होता । श्रतः श्राप इन्द्रियविजयी होने से महान् बोर हैं। चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिनतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुता चलिता चलेन किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।। १५ कवि आराध्य देव का महत्व स्थापित करते हुए कहता है कि जो ग्रापके इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके मत्त हाथी, सिंह, वनाग्नि, साँप, युद्ध, समुद्र, जलोदर और बंधन यादि से उत्पन्न हुआ भय नष्ट हो जाता है --- आपके भक्त को यघ बन्धन जन्य कष्ट नहीं सहन करना पड़ता। बड़ी से बड़ी बेड़ियां और विपत्तियां भी नष्ट हो जाती हैं। मत द्विपेन्द्रमृगराज दवानलाहि संग्राम वारिधि महोवर बन्धनोत्थम् ।। तस्याशुनाशमुपयाति भयंभियेव वस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४७ इस स्तोत्र की रचना इतनी लोकप्रिय रही है कि उसके प्रत्येक पद्य के श्राद्य या अन्तिम चरण को लेकर समस्या पूर्यात्मक स्त्रोत रचे जाते रहे हैं। इस स्तोत्र की महत्ता के सम्बन्ध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं । और अनेक १. नात्यद्भुतं भुवन भूषण ! भूतनाथ ! भूतं भुविभवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतोननु तेन किं वा भूस्वाश्रितं यह नात्मसमं करोति ॥ ६ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य १३५ पद्यानुवाद हिन्दी में रचे गये हैं। संस्कृत में भी पद्यानुवाद तथा अनेक टीकाएं रची गई हैं। यह प्राचीन महत्त्वपूर्ण स्तोत्र हैं। कल्याण मन्दिर स्तोत्र और भक्तामर स्तोत्र इन दोनों स्तोत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने से कल्याण मन्दिर की अपेक्षा भक्तमर स्तोत्र में कल्पनाओं का नवीनीकरण और चमत्कारात्मक शैली पाई जाती है। भवता. मर स्तोत्र में बतलाया है कि-सूर्य तो दूर रहा, जब उसकी प्रभा ही तालाबों में कमलों को विकसित कर देती है उसी प्रकार हे प्रभो! प्रापका यह स्तवन तो दूर ही रहे, पर आपके नाम का कथन ही समस्त पापों को दर कर देता है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है : प्रास्ता तवस्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्संकथापि जगतां वरतानि हन्ति दूरे सहस्रकिरणः कुरुते, प्रभव पाकरेषु जलजानि विकासभाफिज ।। कल्याण मन्दिर स्तोत्र में बीजरूप उक्त कल्पना का विस्तार पाया जाता है। कवि कहता है कि जब निदाघ (ग्रीष्मकाल) में कमल से युक्त तालाब की सरसवायु ही तीव्र आताप से संतप्त पथिकों की गर्मी से रक्षा करती हैं, तब जलाशय की बात ही क्या ? इसी तरह जब आपका नाम ही संसार के ताप को दूर कर सकता है तव पापके स्तवन की सामथ्र्य का क्या कहना ? प्रास्तामचिन्त्यमाहिमा जिनांस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो अगन्ति । तीव्रातपोपहतकान्थजनान्निदाधे प्रीणाति पद्यसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७ संभव है कवि ने इसे सामने रखकर कल्याण मन्दिर की रचना की हो। यदि यह कल्पना ठोक है तो कल्याण मन्दिर इसके बाद की रचना होगी । मानतुग की दूसरी रचना 'भयहर' स्तोत्र है। जो प्राकृत भाषा के २१ पद्यों में रचा गया है पौर जिसमें भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। डा० विण्टरनित्स ने इसका समय ईसा की तोसरी शताब्दी माना है। परन्तु मूनि चतुर विजय ने इनका समय विक्रम की सातवीं सदी बतलाया है। ब्रह्मचारी रायमल्ल कृत 'भक्तामरवृत्ति' में लिखा है--कि मानतू ग ने ४६ सांकलों को तो तोड़कर जैन धर्म की प्रभावना की 1 तथा राजा भोज को जैन धर्म का श्रद्धालु बनाया। दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषण के भक्तामर चरित में है। इसमें भोज, भत हरि, शुभ्रचन्द्र, कालिदास, धनंजय, वररुचि और मानतुग को समकालीन लिखा है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तनीय है। मानतुग को श्वेताम्बर आख्यानों में पहले दिगम्बर और बाद में श्वेताम्बर बतलाया है। इसी परम्परा के माधार पर दिगम्बर लेखकों ने पहले उन्हें श्वेताम्बर और बाद में दिगम्बर लिखा है। चरित भी १४वीं शताब्दी से पूर्व का मेरे देखने में नहीं पाया। ऐसी स्थिति में इस विषय पर विशेष अनुसन्धान की पावश्यकता है। जिससे उसका सही निर्णय किया जा सके। क्योंकि स्तोत्र पुराना और गम्भीर अर्थ का द्योतक है, पर सातवीं शताब्दी का समय 'भयहर स्तोत्र' के कारण बतलाया गया जान पड़ता है। १ History of Indian Literature Vo1 11 Po. 549 २. जैन स्तोत्र सन्दोह, द्वितीय भाग की प्रस्तावना पृ० १३ ३. ?सका अनुवाद पं. उदयलाल काशलीलाल द्वारा प्रकाशित हो चुका है। ४. यह कथा पं नाथूराम जी प्रेमी द्वारा बम्बई से १६१६ में प्रकाशित भक्तामर स्तोत्र की भूमिका में लिखी है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जटासिंह नन्दी सिंह नन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें वे सिंहनन्दो सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख बाद के शिलालेखों में मिलता है और जिनका कर्नाटक की इतिहास परम्परा के साथ घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। जिन्होंने ईसा की दूसरी शताब्दी में गंगवंश की नींव डालने में दो अनाथ राजकुमारों की सहायता की थी। एक सिहनन्दि की समाधि का उल्लेख श्रवण वेलगोल के शिलालेख में उत्कीर्ण है, जो शक सं०६२२ ई. सन् ७०० के लगभग हए हैं। पर इन दो सिंहनन्दियों और अन्य पश्चाद्वर्ती सिंह नन्दियों से प्रस्तुत सिंहनन्दी भिन्न विद्वान ही जान पड़ते हैं। क्योंकि उनके साथ 'जटा' विशेषण लगा, होने के कारण वे इनसे बिल्कुल जूदे हैं। यह कर्नाटक के मादिवासी थे। पर वे कर्नाटक में किस प्रान्त के अधिवासी थे। यह कुछ ज्ञात नहीं हया। प्राचार्य जिनसेन ने उनका स्मरण करते हुए लिखा है कि जिनकी जटारूप प्रबल युक्तिपूर्ण वृत्तियां-टीकाय काव्यों के अनूचिन्तन में ऐसी शोभायमान होती थीं, मानों हमें उन काव्यों का अर्थ ही बतला रही हों। ऐसे बे जटासिंह नन्दी प्राचार्य हम लोगों की रक्षा करें।' आदिपुराणकार ने उनका केवल स्मरण ही नहीं किया किन्तु उनके बरांगचरित से भी कुछ सामग्री ली है। जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख पाद आदि अंगों के द्वारा अपने पापके विषय में अनुसरण उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार वरांगचरित की अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार रीति आदि अंगों से अपने प्रापके विषय में किस मनुष्य के गाव अनुराग को उत्पन्न नहीं करती। कवि की एकमात्र कृति वरांगचरित उपलब्ध है,, कर्ता ने उसे चतुर्वर्ग समन्वित सरल शब्द और अर्थ गम्फित धर्म कथा कहा है। यह एक सुन्दर काव्य-ग्रन्थ है, ग्रन्थ में ३१ सर्ग हैं और श्लोकों की संख्या १८०५ है । (रचना प्रसाद गुण से युक्त है इस काव्य में तीर्थकर नेमिनाथ तथा कृष्ण के समकालिक 'वरांग' नामक पुण्य पुरुष को कथा का अंकन किया गया है। काव्य में नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक युद्ध, विजय आदि का वर्णन महाकाव्य के समान किया है। कथा का नायक धीरोदत्त है। तत्त्व निरूपण और जैन सिद्धान्त के विभिन्न विषयों का प्रतिपादन इतना अधिक किया गया है कि उससे पाठक का मन ऊब जाता है। कवि ने काव्य को सर्वांग सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रस और प्रलंकारों की पूट ने उसे अत्यन्त सरस बना दिया है। कवि ने तेरहवं सर्ग में बीभत्स रस का और चौदहवें सर्ग में वीर रस का सुन्दर एवं सांगोपांग वर्णन किया है। २३३ सर्ग में जिन मन्दिर और जिन बिम्ब निर्माण, पूजा और प्रतिमा स्थापना, पूजा का फल और दानादि का वर्णन किया है। २५वें, २६वें सर्ग का मुख्य कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है । कवि पर अश्वघोष की रचनामों का प्रभाव-सा दृष्टिगोचर होता है। वरांगचरित में दक्षिण भारत की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति का अच्छा चित्रण किया गया है। और जनेतर देवी-देवतामों, वेदों के याज्ञिक धर्म की और पुरोहितों के विधि विधान की खूब खबर ली है। राजामों पर उनका क्रोध कुछ प्रभाव अंकित नहीं करता। जैन मंदिरों, मूर्तियों और जैन महोत्सवों का भी अच्छा चित्रण किया है। इस काव्य में वसन्ततिलका, पुष्पित ग्रा, प्रहर्षिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप, माल १. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः । अर्थात् रसानुवदन्तीय जटाचार्यः स नोऽवदात् ।। (आदि पु० १-५०) २. वरांगणेव सर्वाङ्गवरान चरितार्थवाक् । कस्वनोत्पादयेद गाळमनुराग स्थगोचरम् ॥ हरिवंशपुराण १-३५ ३. कायके प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका-इति धर्म कथोद्देश चतुर्वर्ग समन्विते, स्फुट शब्दार्थ संदर्भ वसंग परिताविते । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य भारिणी, और द्र तविलम्बित आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कबि को उपजाति छन्द अधिक प्रिय रहा है। इस काव्य के प्रारम्भिक तीन सर्ग बहुत ही गरम हैं। रखना स्थल और रचना काल निजाम स्टेट का कोप्पल ग्राम जिसे कोपण भी कहा जाता है, जैन संस्कृति का केन्द्र था। मध्यकालीन भारत के जैनों में इसकी अच्छी ख्याति थी। और प्राज भी यह स्थान पुरातत्त्वविदों का स्नेहभाजन बना हुआ है। इसके निकद पल्लन को गुण्डु नाम को पहाड़ी पर अशोक के शिलालेख के समीप में दो पद चिन्ह अंकित हैं। उनके नोचे पुरानी कनडी भाषा में दो लाइन का एक शिलालेख है। जिसमें लिखा है कि 'चावय्य ने जटासिंह नन्द्याचार्य के पदचिन्हों को तैयार कराया था। किसी महान व्यक्ति की स्मृति में उस स्थान पर जहां किसी साधु वगैरह ने समाधिमरण किया हो। पद चिन्ह स्थापित करने का रिवाज जैनियों में प्रचलित है। कुवलय माला के कर्ता उद्योतन सूरि (७७८ ई.) ने और पुन्नाट संघी जिनसेन (शक सं० २०५) ने वि० सं०८४० के जटिल कवि का और उनके ग्रन्थ का उल्लेख किया है। १७८ ई० में चामुपडराय ने भी उल्लेख किया है। और ईसा की ११वीं शताब्दी के कवि धक्लि ने जटिल मुनि और वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त पम्प (६४१ ई.) ने, नयसेन (१११२ ई०) पाच पंडित (१२०५ ई०) जनाचार्य (१२०९ ई०), गुणवर्म (१२३० ई.) पुष्पदन्त पुराण के कर्ता कमल भव' (१२३५ ई०) और महावल (१२४५) ई० प्रादि ग्रन्थकारों ने अपने अपने ग्रन्थों में जटिल कवि और वराँगचरित का उल्लेख किया है इससे कवि की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है। साथ ही इन सब उल्लेखों से उनके समय पर भी प्रकाश पड़ता है । डा० ए० एन० उपाध्याय ने बरांगचरित की प्रस्तावना में जटासिंह नन्दि का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्त निर्धारित किया है, क्योंकि शकसं०७०५ में हरिवंश पुराणकार ने उसका उल्लेख किया है। शुभनन्दी-र विनन्दी यभनन्दी-रविनन्दी नामक दोनों मुनि अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि मुनि और सिद्धांत शास्त्र के परिज्ञानी थे। बप्पदेव गुरु ने समस्त सिद्धान्त का विशेष रूप मे अध्ययन किया था। यह व्याख्यान भीमरथि और कृष्ण मेख नदियों के बीच प्रदेश उत्कलिका ग्राम के समीप मगणवल्ली ग्राम में हुआ था। भीमरथि कृष्णानदो की शाखा है और इनके बीच का प्रदेश अब बेलगांव व धारवाड कहलाता है। वहीं बप्पदेव गुरु का सिद्धान्त अध्ययन हना होगा। इस अध्ययन के पश्चात उन्होंने महाबंध को छोड़ कर शेष पांच खंण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम को टीका लिखी। पश्चात् उन्होंने छठे खण्ड को संक्षिप्त पाख्या भी लिखी। वीरसेनाचार्य ने बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति को देखकर १. जटासिंह नन्दि आचार्य रदब चावयं गाडिसिदो। हैदराबाद आत्कयोलाजिकल सीरीज सं० १२ (मन् १९३५) में सी. आर कृष्णन् चारलू लिखित कोपवल्ल के कन्नड़ शिलालेख । २. एवं व्यापान क्रममावान् परमगुरु परम्परया। गच्छन सिद्धान्तो द्विविधोरपति निशितबुद्धिभ्याम् । १७१ शुभ-रवि-नन्दि मुनिभ्वा भौमथि-कृष्णमेखयोः मरितोः । मध्यमविषयगमणीयो कलिकानाम सामीप्यम् ॥१७२ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ही धवलाटीका का लिखना प्रारम्भ किया था। जयधवला कार ने एक स्थान पर वप्पदेव का नाम लेकर अपने और उनके मध्य के मतभेद को बतलाया है : णि सुत्तम्मि बध्यदेवा हरिय लिहिदुच्चारणाए अंतोमुहुत्त मिदि भणिदो । म्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जहष्ण एगसमयो, उ० संखेज्जा समवाप्ति परुविदो ( जयध० १८५ ) धवला में व्याख्या प्रज्ञप्ति के दो उल्लेख निम्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं । "लोगोवाद पदिद्विदोत्त विवाह पत्ति वयणादो" टीकाकार ने इस अवतरण से अपने अभिमत को पुष्ट किया है। धवला १४३ एक स्थान पर धवलाकार ने उससे अपने मत का विरोध दिखलाया है एदेण वियाह पण्णत्ति सुसेण सह कथं ण विरोहो ? ण एवम्हादो तस्स पुधसुदस्स प्रायरियमेएण भेदमा वण्णस्स एयत्ताभावावो ॥" ( धवला ८०८) इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि बप्पदेव और उनकी टीका व्याख्या प्रज्ञप्ति का अस्तित्व स्पष्ट है। टीका की भाषा प्राकृत थी । बप्पदेव ने अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया। खेद हैं कि ग्रन्थ अनुपलब्ध है। फिर भी अनुमान से डा० हीरालाल जी ने बप्पदेव का समय विक्रम की छठवीं शताब्दी बतलाया है। धवलाटीका से तो वह पूर्ववर्ती है ही । संभव है, वह सातवीं शताब्दी की रचना हो । महाकवि धनंजय महाकवि धनंजय - वासुदेव श्रीर श्रीदेवी के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था । ये दशरूपक के लेखक से भिन्न हैं । ये गृहस्थ कवि थे। इनकी कविता में वैशिष्ट्य है। द्विसन्धान काव्य बनाने के कारण ये सि धान कवि कहलाते हैं। इस द्विसन्धान काव्य को राघव पाण्डवीय काव्य भी कहा जाता है क्योंकि इसमें रामायण और महाभारत की दो कथाओं का कथन निहित है । भोज (११वीं शती ईसवी के मध्य ) के अनुसार द्विसन्धान उभयालंकार के प्रकार का है - वाक्य प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय भनेकार्थं पाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथाओं का कहने वाला है। विख्यात मगणवल्ली प्रामेऽथ विशेष रूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पावें तमशेषं बप्पदेवगुरुः । १७३ अपनीय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेष पंच खंडे तु । व्यारूपा प्रशांत च पण्ठं खंड च ततः संक्षिप्य ॥ १३४ षष्णां खंडानामिति निष्पन्नानां तथा कषायास्यप्राभृतकस्य च षष्ठि सहस्रप्रन्यप्रमाणयुताम् ॥ १७५ ध्यानि प्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातन व्याख्याम् । अष्टसहस्र में थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे || १७६ २. देखो, षट्खंडागम धवला० पु० १ प्रस्तावना पृ० ५३ २. नीत्वा यो गुरुणादिशो दशरथे नोपात्तवान्नन्दनः । श्रीवेच्या वसुदेवतः प्रतिजगन्यायस्य मार्गे स्थितः । तस्य स्थायि धनंजयस्य कृतितः प्रादुष्य दुच्यंशो गाम्भीर्यादिगुणापनोदविधिनेशम्भो निधल्लङघते ।। १४६ ।। कारण होता है। यह तीन स्थिति है, तीसरा राघव Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य धनंजय कविका द्विसन्धान काव्य संस्कृत साहित्य में उपलब्ध द्विसन्धान काव्यों में प्राचीन और महत्वपूर्ण काव्य है । इसके प्रत्येक पद्य दो ग्रर्थों को प्रस्तुत करते हैं। पहला श्रथं रामायण से सम्बद्ध है और दूसरा अर्थ महाभारत से। इसी कारण इसे राघव पाण्डवीय भी कहा जाता है। ग्रन्थ में १८ सर्ग और प्राठ सौ श्लोक हैं। यह इन्द्रवज्रा, उपजाति, द्रुतविलम्बित, पुष्पिताग्रा, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, रथोद्धता, वसन्ततिलका और शिखरिणी श्रादि विविध छन्दों में रचा गया है। ग्रन्थगत कथानक संक्षिप्त और सुरुचिपूर्ण है। इस ग्रन्थ पर दो टीकाएँ उपलब्ध हैं जिनमें एक का नाम ' पदकौमुदी' है जिसके कर्ता नेमिचन्द्र है, जो पद्मनन्दि के प्रशिष्य और विनयचन्द्र के शिष्य थे । दूसरी टीका राघव पाण्डवीय प्रकाशिका है, जिसके कर्ता परवादि घर रामभट्ट के पुत्र कवि देवर हैं। दोनों टीकाएँ धारा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद हैं। राजशेखर ने धनंजय कवि की बड़ी प्रशंसा की हैं। राजशेखर प्रतिहार राजा काव्य मीमांसा के कर्ता महेन्द्रपाल के उपाध्याय थे | वादिराज ने १०२५ ई० में लिखे गये अपने पार्श्वनाथ चरित्र में धनंजय तथा एक से अधिक सन्धान में उनकी प्रवीणता का उल्लेख किया है :-- नेक भेदसंधाना खनन्तो हृदये मुहुः । बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥ कवि की दूसरी कृति १ 'धनंजय' नाममाला नाम का छोटा-सा दो सो पद्यों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द कोष है ? इसके साथ में ४६ पथों की एक अनेकार्थं नाममाला भी जुड़ी हुई है। कोष में १७०० शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। इस छोटे से कोष में संस्कृत भाषा की आवश्यक पदावली का चयन किया गया है। कोष की सबसे बड़ी विशेषता शब्द से शब्दान्सर बनाने की प्रक्रिया है जो अन्यत्र देखने में नहीं भाई शब्द जोड़ देने से पर्वत के नाम हो जाते हैं। और राजा के नामों के सागे 'रूह' शब्द जाते हैं। इस पर श्रमरकीर्ति श्रविद्य का नाम माला भाष्य है, जो भारतीय ज्ञानपीठ से इनकी तीसरी कृति 'विषापहार स्तोत्र' है जो ३६ इन्द्रवजा वृत्तों का स्तुति ग्रन्थ है। इसमें आदि ब्रह्मा ऋषभदेव का स्तवन किया गया है । यह स्तवन अपनी प्रौढता, गम्भीरता और अनूठी उक्तियों के लिये प्रसिद्ध है । इस पर अनेक संस्कृत टीकाएं मिलती हैं, जिनमें सोलहवीं शताब्दी के विद्वान पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्र की है, दूसरी टीका चन्द्रकीर्ति की है। जैसे पृथ्वी के आगे 'घर' जोड़ने से वृक्ष के नाम हो प्रकाशित हो चुका है । श्रगाधतान्धेः स यतः पयोधिमेरोश्च तुङ्गाः प्रकृतिः स यत्र । द्यावा पथिव्योः पृथुता तथैव व्यापत्वदीया भुवनान्तराणि ॥ १३० इस पद्य में कवि ने ऋषभ देव की गम्भीरता समुद्र के समान, उन्नत प्रकृति मेरु के समान और विशालता श्राकाश-पृथ्वी के समान बतलाकर उनकी लोकोसर महिमा का चित्रण किया है । १६ वें पद्य में कवि ने भगवान की तुङ्ग प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। धौर आराध्य देव के श्रदार्य गुणका विश्लेषण करते हुए कवि कहता है कि हे प्रभो ! आप भक्तों को सभी पदार्थ प्रदान करते हैं। उदार चित्तवाले दरिद्र मनुष्य से भी जो फल प्राप्त होता है, वह सम्पत्ति शाली कृपण धनाढ्यों से नहीं । क्योंकि पानी से शून्य १. विसन्धाने निपुणता सतां च धनंजयः । यया जातं फलं तस्य सप्त चक्रे धनंजयः || -- राजशेखर २. कवेर्धनं जयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः । प्रमाण नाममालेति श्लोकानामहि शतद्वयम् ॥ २०२॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रहने पर भी पर्वत से नदियाँ प्रवाहित होती हैं । परन्तु जल से लबालब भरे हुए समुद्र से एक भो नदो नहीं निकलतो तुंगात् फलं यत्तव किंचनाच्च, प्राप्य समधान्न धनेश्वरावः। निरम्भसोऽप्युश्चतमाविवारे मकाऽपि निर्यात धुनी पयोधेः ।।१६॥ इस तरह स्तुति कर कवि दीनता से वर की याचना नहीं करता। क्योंकि भगवान उपेक्षक हैं. राग द्वेष से रहित हैं । वृक्ष का पाश्रय करने वालों को स्वयं छाया प्राप्त होती है। छाया की याचना करने से क्या लाभ । यदि देने की माप की इच्छा ही हो तो मैं प्रापसे यही चाहता हूं कि पाप में मेरो भक्ति बनी रहे। मुझे विश्वास है कि माप इतनी कृपा अवश्य करेंगे; क्योंकि विद्वान पुरुष अपने आश्रितों की इच्छानों को पूर्ण करते ही हैं। इति स्तुति देव विषाय बन्मावर न याचे श्वमपेक्षकोऽसि । छायात संभयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥३८॥ प्रथास्ति विरसा यदि वोपरोधस्त्वम्यव सक्ता विश भक्तिद्रसिम् । करिष्यते देव तथा कृपा मे को वात्मपोष्ये सुमुखो म सुरिः।।३।। समय नाममाला के अन्त में एक पद्य मिलता है जिसमें प्रकलंक देव का प्रमाण शास्त्र, पूज्यपाद या देवनन्दि का लक्षण शास्त्र (व्याकरण और धांजर का हिसन्धाः , ये तीन अपश्चिम रत्न हैं। यह श्लोक धनंजय द्वारा रचा नहीं जान पड़ता। उससे इसकी महत्ता का भान होता है। चूंकि राजशेखर प्रतीहार राजा महेन्द्रपाल देव के उपाध्याय थे। महेन्द्रपाल का समय वि० सं० १६० के लगभग है। अत: धनंजय ९६० से पूर्ववर्ती हैं। बीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका शक सं०७३८ में समाप्त की है। उसकी जिल्द, ६१०१४ में इति शब्द को व्याख्या में धनंजय की भनेका नाममाला का ३६वां पद्य उद्धत किया है : हेता वेवम्प्रकाराची व्यवच्छेदे विपर्यये ।। प्रादुर्भाव समाप्तेष इति शम्य विधाः ॥ इससे धनंजय कवि का समय ८०० ईसवी निर्धारित किया जा सकता है। सुमति (सन्मति) सुमतिवेष (सन्मति) अपने समय के प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य थे। पाठवीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान शान्तर. क्षित ने 'तत्त्वसंग्रह' में 'स्याद्वादपरीक्षा (कारिका १२६२ प्रादि) और वहिरर्थ परीक्षा (कारिका १९४० आदि) में सुमति नामक दिगम्बराचार्य के मत की समालोचना की है। इनके दो ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। वादिराज सरि ने पार्श्वनाथ चरित के प्रारम्भ में कवियों का स्मरण करते हुए लिखा है कि नमः सन्मतये तस्मै भवकपनिपातिनाम् । ___ सन्मति विवृता येन सुखधाम प्रवेशिनी ॥२२।। उन सन्मति (प्राचार्य और भगवान महावीर) को नमस्कार हो जिन्होंने भवकप में पड़े हुए लोगों के लिये सुखधाम में पहुंचाने वाली सन्मति को विवृत किया-सन्मति की बत्ति या टीका लिखी। दूसरा उल्लेख श्रवण वेल्गोल की मल्लिषेण प्रशस्ति में 'सूमति देव' नामक विद्वान का उल्लेख है जिन्होंने 'सुमति सप्तक' नाम का ग्रन्थ बनाया था "समति देय मम स्तुतयेन वस्समतिसप्तकमाप्तनयाकृतं । परिहृता पथतस्थपथापिना समति कोटिविवतिभवातिहत् ।।" Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य T ये सुमति मौर सन्मति एक ही हैं। वादिराज ने 'सन्मति' की टीका के कर्ता का नाम 'सुमति के स्थान में सन्मति इस कारण दिया होगा क्योंकि यह नाम उन्हें प्राकर्षक लगा होगा। तत्त्व संग्रह के टीकाकार कमी प.367 में निम्नतियां दी : "सत्र समतिः कुमारिलायभिमतालोचनामात्र प्रत्यक्ष विचारणार्थमाह'-सुमति देव ने कुमारिल के पालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण किया है। इससे सुमति देव का समय कुमारिल के बाद होना चाहिये । डा. भट्टाचार्य ने सुमति का समय सन् ७२० के आस-पास का निर्धारित किया है । कर्कराज सुवर्ण के दान पत्र (तामपत्र) में मल्लबादी के शिष्य सुमति और सुमति के शिष्य अपराजित का उल्लेख है, जो मूलसंघ के सेनान्वय के थे। शक सं०७४३ (वि० सं०८७८) में अपराजित को नवसारी की एक जैन संस्था के लिये यह दान दिया गया था । संभव है यही सुमति सन्मति-टीका के कर्ता हों ऐसा प्रेमी जी ने जैन साहित्य और इहिास के पृष्ठ ४१६ में लिखा है। पर मेरी राय में अपराजित के गुरू सुमति देव से शान्तरक्षित द्वारा पालोचित सुमति देव भिन्न ही हैं। क्योंकि शान्त रक्षित का समय सन् ७०५ से ७६२ तक माना जाता है। इन्होंने सन् ७४३ में तिव्वत की यात्रा की थी। इसके पूर्व ही वे अपना तत्त्व संग्रह बना चुके होंगे। यदि यह विचार सही है तो दोनों सूमति देव एक नहीं हो सकते । तत्त्व संग्रह में उल्लिखित सुमति पूर्ववर्ती हैं और अपराजित के गुरु सुमति देव का समय सन् ८५३ के लगभग होता है। सुमति देव समति देव-यह मूल संघ सेनान्वय के विद्वान मल्लबादि के शिष्य थे। सुमति देव के शिष्य अपराजित जिन्हें शक सं०७४३ (वि० सं०८८७) में नवसारी जि. सूरत के जैन मन्दिर के लिये एक जमीन दान की गई थी। अतएव सुमति देव का समय अपराजित के समय से २५ वर्ष कम, वि० सं० ८५३ होना चाहिये । अर्थात प्रस्तुत सुमति देव हवीं शताब्दी के विद्वान जान पड़ते हैं। . कुमारसेन इनका स्मरण पुन्नाटसंघीय जिनसेन ने (शक सं० ७०५ ई० ७५३) हरिवंशपुराण में निम्न शब्दों में • किया है। माकुपार यशो लोके प्रभाषन्द्रोवयोम्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितारमकम् ॥ चन्द्रोदय के रचयिता प्रभाचन्द्र के पाप गुरू थे। प्रापका निर्मल सुयश समुद्रान्त विचरण करता था । चामुण्डराय पुराण के १५वे पद्य में भी इनका स्मरण किया गया है। डा. ए. एन उपाध्याय ने लिखा है कि ये मल गुण्ड नामक स्थान पर प्रात्म त्याग को स्वीकार करके कोपणाद्रि पर ध्यानस्य हो गये तथा समाधि पूर्वक मरण किया। प्राचार्य विद्यानन्द ने अपनी अष्ट सहस्त्री की अन्तिम प्रशस्ति के दूसरे पद्य में अष्टसहस्त्री को कष्ट मस्त्री बतलाते हुए कुमार सेन की उक्तियों से प्रष्ट सहस्त्री को प्रवर्धमान बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि कुमार १. कष्ट सहस्त्री सिद्धा साष्ट सहस्रीयमन मे पुष्पात् । अश्वदभीष्ट सहरूलीं कुमारसनोक्ति वर्षमानार्थी ॥२॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सेन विद्यानन्द से भी पूर्ववर्ती हैं। संभवतः उनका कोई दार्शनिक ग्रंथ रहा है जिसकी उक्तियों से उन्होंने उक्त ग्रंथ को वर्धमान बतलाया है। मल्लिषेण प्रशस्ति में अकलंक से पहले और सुमति देव के बाद कुमार सेन का उल्लेख किया गया है उदेश्य सम्यग्विशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मनिरस्तमापत् । तव चित्र जगबैंकभानोंस्तिष्ठत्यसौ तस्य तथा प्रकाशः ॥१४॥ डा. महेन्द्र कुमार जी ने कुमार सेन का समय ई०७२०-से ८०० तक बतलाया है। चूंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाट संघीय जिनसेन ने किया है जिनका समय शक सं० ७०५ ई० सन् ७५३ है। इससे कुमारसेन सन् ७८३ से पूर्ववर्ती हैं। कवि परमेश्वर (कवि परमेष्ठी) प्राचार्य जिन सेन ने इन्हें (कवि परमेश्वर को) कवियों द्वारा पूज्य तथा कवि परमेश्वर प्रकट करते हुए उन्हें शब्द और अर्थ के संग्रह रूप (बागर्थसंग्रह) पुराण का कर्ता बतलाया है। और जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने उक्त वागर्थसंग्रह पुराण को गद्यकथामात्र, सभी छन्द और अलकार का लक्ष्य, सूक्ष्म अर्थ और गढ़ पद रचना वाला बतलाया है। चामुण्डराय ने अपने पुराण में कवि परमेश्वर के अनेक पद्य उद्धृत किये हैं जिससे डा. ए. एन. उपाध्ये एम० ए० डीलिट् कोल्हापुर ने उसे गद्य-पद्यमय चम्पू होने का अनुमान किया है। यह अनुमान प्रायः ठीक जान पड़ता है। जिनसेन और गुणभद्र ने उसका प्राश्रय जरूर लिया होगा। कवि परमेश्वर का मादि पंप. अभिनव पंप, नयसेन, अग्गल देव भौर कमलभव प्रादि अनेक विद्वानों ने पादर के साथ स्मरण किया है, जिससे वे बडे विद्वान जान पड़ते हैं। परन्तु उनकी गुरु परम्परा प्रौर गणनाच्छादि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हया। इस कारण उनका निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है, किन्तु इतना अवश्य है कि वे आदि पुराणकार जिनसेन से पूर्ववर्ती हैं । संभवत: उनका समय वि. की ८वीं शताब्दी जान पड़ता है। काणभिक्षु काभिक्ष-कथालंकारात्मक ग्रन्थ के रचयिता थे। प्राचार्य जिनसेन ने इनके ग्रन्थ का उल्लेख करते हए लिखा है कि-धर्मरूप सूत्र में पिरोये हुए जिनके मनोहर वचन रूप निर्मल मणि कथा शास्त्र के अलंकार बन गये । उन काण भिक्षु की जय हो। "धर्मसूत्रानुगा हवा यस्य वाड.मणयोऽमलाः । कथालंकारतां भेजुः काणभिक्षु जयत्यसौ ।।" (आदि पुराण १-५-५१) १.स पूज्यः कविभिलौके कवीनां परमेश्वरः । वागर्थसंग्रह कृत्स्नं पुराणं यः समनहोत् ।।आदि पु. १,६० २. कविपरमेश्वर निगदित गद्यकथामातृमं पुरोषचरितम् । सकलच्छन्दोलकृति लक्ष्यं मूक्ष्मार्थगूढ पद रचनम् ॥ -उत्तर पुराण प्रश०१७ ३. देखो, जैन सिद्धान्त भास्कर भा.१३ किरण २ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताध्दी तक के आचार्य इससे स्पष्ट जाना जाता है कि काणभिक्षु ने किसी कथा ग्रन्थ अथवा पुराण की रचना की थी। खेद है कि वह अपूर्व ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध है। इनकी गुरु परम्परा भी अज्ञात है। इनका समय जिनसेनाचार्य से पूर्ववर्ती है, क्योंकि उन्होंने इनका स्मरण किया है। गंगराज के सहामात्य चामडराय ने भी अपने पुराण में इनका स्मरण किया है। काणभिक्षु कथा अन्य के कर्ता हैं। इनका समय वि. की दवों शताब्दी होना चाहिये । चउमुह (चतुर्मुस) ये अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। इनकी तीन कृतियां थीं, पउमचरिउ, रिद्रणेमिचरिउ और पंचमी परिउ । परन्तु खेद हैं कि उनमें से एक भी कृति उपलब्ध नहीं है । अपभ्रंश भाषा के कवि धवल ने अपने हरिवंश पुराण में, जो अभी अप्रकाशित है, चउमुह की 'हरि पाण्डवानां कथा' का उल्लेख किया है : हरिपंडुवांण कहा चउमुह-वासे हि भासियं जम्हा। तहविरयमि लोयपिया जेण ण णासेड सणं परं ।। इस पद्य में 'उमुह वासेहि' (चतुर्मखब्या) पद शिलस्ट है। पउमचरिउ के प्रारम्भ के चौथे पद्य में कहा है कि स्वयंभु की जलक्रीड़ा वर्णन में, और चतुंमुख देव को गोग्रह कथा वर्णन में आज भी कोई कवि नहीं पा सकता। हरिवंश में गो ग्रह कथा का वर्णन है ।' स्वयंभू छन्द में चउमुह के पद्य उदाहरण स्वरूप उद्धत है। उनमें से ४, २, ६, ८३, १९२ पद्यों से ज्ञात होता है; कि उनका पउमचरिउ भी उनके सामने रहा होगा। क्योंकि उसमें रामकथा के वर्णन का प्रसंग है। इसके अतिरिक्त हरिवंश श्रीर पंचमीचरिउवे दोनों कृतियां भी चउमुह को थौं। किन्तु वे अब उपलब्ध नहीं हैं। कवि का समय विक्रम की पाठवीं शताब्दी है। यह स्वयंभूदेव से पहले हए है । क्योंकि स्वयंभू और त्रिभुवन स्वयंभू ने उनकी रचना का उल्लेख किया है। हरिषेण (वि. सं. २०४४) अपनी धर्म परीक्षा में, और वीर कवि ने (१०७६) जम्बूस्वामी चरित में चउमुह का स्मरण किया है। अतः वे स्वयंभू, त्रिभुवन स्वयंभू आदि से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय वही पाठवीं शताब्दी है, जिसका ऊपर निर्देश किया गया है। अकलदेव इस्थं समस्त मतवादि करीन्द्रवर्षमुन्मल यम्ममलमानबढ़प्रहारः। स्याद्वारकेसरसटाशततीवमूतिः पञ्चाननो जयत्यकलवेवः ।। -न्या० कु. पृ०६०४ मेनाशेषकुतर्क विभ्रमतमो निमलमुम्मीलितम, स्फारागाष कुनीति सार्य सरितो निःशेषतः शोषिताः। ल्यावावा प्रतिमप्रभूतकिरणः व्याप्तं जगत् सर्वतः, स श्रीमानकलङ्कभानुरसमो जोयाग्जिनेन्द्रःप्रभुः ।। -क्या० कु. पृ० ४७२ तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलङ्क धोः ।। जगद् द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यवस्ययः॥ -वादिराज पा० च. १. पउमुह एव च गोगह कहाए । पजमचरिउ, स्वयम्भुदेव । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अकलंकदेव प्रतिभा सम्पन्न महान् वादी, ग्रन्थकार और युगप्रवर्तक विद्वान् प्राचार्य थे। शिलालेखों में उनका गुणगान उनके निर्मल व्यक्तित्व का संद्योतक है। शिलावाक्यों में उन्हें तकभूवल्लभ, महधिक, समस्तबादि. करीन्द्र दर्पोभूलक, अकलङ्कधी, बौद्ध बुद्धि वैधव्यदीक्षागुरु, स्पाद्वादकेसरसटा शततीनमुर्तिपञ्चानन, अशेष कुतर्क विभ्रमतयो निर्मू लोन्मूलक, प्रकलङ्कभानु, अचिन्त्य महिमा, और सकल ताकिकचक चूडामणि मरीचि मेचकित नखकिरण आदि महान् विशेषणों से विभूषित किया है । यह जैन न्याय या दर्शन के उन प्रतिष्ठापक विद्वानों में से हैं। जिन्होंने दार्शनिक क्रान्ति के समय समन्तभद्र और सोन के दमन से प्राप्त किया चापागम की परिभाषानों को दार्शनिक रूप देकर अकलंक न्याय का प्रतिष्ठापन किया है। ये जैन दर्शन के तल दृष्टा पौर भारतीय दर्शनों के प्रकाण्ड पंडित थे। बौद्ध साहित्य म धर्मकोति' का जो महत्त्व है, दार्शनिक क्षेत्र में अकलंकदेव का उससे कम महत्व नहीं है। दार्शनिक युग में विभिन्न धर्म संस्थापकों ने अपने अपने धर्म का समद्योत किया है। बौद्ध विद्वान धर्मकीति, भट्ट कुमारिल्ल, प्रभाकर मिश्र, उमोतकर और व्योमशिव श्रादि दार्शनिक विद्वानों का लोक में जो विशिष्ट स्थान था, बही स्थान जैन सम्प्रदाय में अकलंक देव का था। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। इसी से अनेक कवियों ने अपने ग्रन्थों में उनका जयघोष किया है। अकलंकदेव का कोई पुरातन एवं प्रामाणिक जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं है और न उनके समकालीन तथा प्रतिनिकट उत्तरवर्ती लेखकों के ग्रन्थों में अंकित मिलता है। जीवन परिचय मान्यखेट नगर के राजा शुभतुग के पुरुषोसम नाम का मंत्री था । उसके दो पुत्र थे-एक अकलंक और दसरा निकलक । एक बार अष्टान्हिका पर्व में माता-पिता के साथ वे दोनों भाई जैन गुरु रविगुप्त के पास गए। माता-पिता ने उक्त पर्व में ब्रह्मचर्ग व्रत लिया और अपने बालकों को भी दिलाया। जद वे युवा हुए तब अपने पराने ब्रह्मचर्य व्रत को यावज्जीवन व्रत मानकर उन्होंने विवाह नहीं करवाया। पिता ने समझाया कि वह प्रतिज्ञा तो पर्व के लिए थी। पर वे कुमार अपनी बात पर दृढ़ रहे और उन्होंने आजन्म ब्रह्मचारी रह कर अपना समय शास्त्राभ्यास में लगाया । अकलंक एक सन्धि और निकलंक द्वि सन्धि थे उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि अकलंक को एक बार सुनने मात्र से स्मरण हो जाता था और उसोपाठ को दो बार सुनने से निकलंक को स्मरण हो जाता था। उस समय जैन धर्म पर होने वाले बौद्धों के प्राक्षेपों से उनका पिस्त विचलित हो रहा था और वे इसके प्रतीकारार्थ बोट शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये बाहर निकल पड़े। वे अपना धर्म छिपा कर एक बौद्धमठ में विद्याध्ययन करने लगे । एक दिन गुरु जी को दिग्नाग के अनेकान्त खण्डन के पूर्वपक्ष का कुछ पाठ अशुद्ध होने के कारण नहीं लग रहा था। उस दिन पाठ बन्द कर दिया गया। रात्रि को अकलंक ने वह पाठ शुद्ध कर दिया । दसरे दिन जब गुरु ने शुद्ध पाठ देखा तो उन्हें सन्देह हो गया कि कोई जैन यहां छिप कर पढ़ रहा है। इसी की खोज के सिलसिले में एक दिन गुरु ने जनमूर्ति को लाँघने की सब शिष्यों को प्राज्ञा दी। अकलंक देव मूर्ति पर एक धागा डाल कर उसे लांच गये पीर इस संकट से बच गये। एक रात्रि में गुरु ने अचानक कांसे के बर्तनों से भरे बोरे को छत से गिराया। सभी शिष्य उस भीषण आवाज से जाग गये और अपने इष्टदेव का स्मरण करने लगे। इस समय अकलंक के मुख से 'णमो प्ररहंताणं' प्रादि पंच नमस्कार मंत्र निकल पड़ा। बस फिर क्या था, दोनों भाई पकड़ लिये गये । दोनों भाई मठ की ऊपरी मंजिल में कैद कर दिये गये। तब दोनों भाई एक छाते की सहायता से कूद कर भाग निकले ज्ञात होने पर राजाज्ञा से उन्हें पकड़ने दो अश्वारोही सैनिक भेजे गये सैनिकों को प्राते देखकर छोटे भाई निकलंक ने बड़े भाई से प्रार्थना की कि आप एक सन्धि और महान विद्वान हैं। आपसे जिन शासन की महती प्रभावना होगी । अतः माप निकटवर्ती तालाब में छिप कर अपने प्राण बचाइये, शीघ्रता कीजिए, समय नहीं है। वे हत्यारे हमें पकड़ने के लिए शीघ्र ही पीछे पा रहे हैं। प्राखिर दुःखी चित्त से १. यह परिचय ब्र नेमिदत्त के कथाकोश से लिया गया है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १४५ अकलंक ने तालाब में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा की । निकलंक लागे भागे। वहीं एक धोबी ने निकलंक को भागते देखा । वह भी पीछे पाते हुए घुड़सवारों को देख किसी अज्ञात भय की आशंका से निकलंक के साथ ही भागने लगा। घुड़सवारों ने पाकर दोनों को तलवार के घाट उतार कर अपनी रक्त पिपासा शान्त की। "अकलंक वहां से चल कर कलिंग देश के रत्न संचयपुर में पहुंचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदन मुन्दरी ने अष्टान्हिका पर्व के दिनों में जैन रथ यात्रा निकलवाने का विचार किया। किन्तु बौद्धगुरु संघ श्री के बहकाने में आकर राजा ने रथ यात्रा निकालने की यह शतं रखी कि यदि कोई जैनगुरु बौद्ध गुरु को शास्त्रार्य में हरादे तब ही जैन रथ यात्रा निकल सकती है। इससे रानी बड़ी चिन्तित हुई और धर्म में विशेष रूप से संलग्न हुई । अकलंक देव वहां आये और राजा हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वान से शास्त्रार्थ हुआ। संघश्री बीच में परदा डालकर उसके पीछे बैठकर शास्त्रार्थ करता था। शास्त्रार्थ करते हुए छह महीने बीत गये, पर किसी की हारजीत नहीं हो पाई। एक दिन रात्रि के समय चक्रेश्वरी देवी ने अकलंक को इसका रहस्य बताया कि परदे के पीछे घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ करती है। तुम उससे प्रातःकाल कहे गये वाक्यों को दुबारा पूछना, इतने से ही उसकी पराजय हो जायेगी। अगले दिन अकलंक ने चक्रेश्वरी देवी की सम्मति के अनुसार प्रातः कहे गये वाक्यों को फिर दुहराने को कहा तो उत्तर नहीं मिला। उन्होंने तुरन्त प्रदा खींच कर घड़े को पैर की ठोकर से फोड़ डाला।' इससे जैनधर्म की विजय हुई और रानी के द्वारा संकल्पित रथयात्रा धूमधाम से निकाली गयी।" उस समय जैन धर्म की महती प्रभावना हुई। जनता के हृदय में जैनधर्म के प्रति प्रास्था बढ़ी। पौर रानी का दृढ़ संकल्प पूरा हुआ। कथा कोश में राजा शुभतुग की राजधानी मान्यखेट और अकलंक देव को उसके मन्त्री पुरुषोत्तम का पुत्र बतलाया है तथा राजा हिमशीतल की सभा में बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित करने का भी उल्लेख किया है। राष्ट्रकूट राजा कृष्धारा प्रथम की उपाधि भतुग' थी। उसका समर्थन शिलालेखों में उत्कीर्ण प्रशस्तियों से भी होता है । शुभतुग दन्तिदुर्ग के चाचा थे। युवावस्था में दन्तिदुर्ग की मृत्यु हो जाने के बाद वे राज्याधिरून हए थे। दन्तिदुर्ग का ही नाम साहसतुग था। इसने कांची, केरल, चोल और पाण्ड्य देश के राजाओं को तथा राजा हर्ष और बजट को जीतने वाली कर्णाटक की सेना को हराया था ।' कर्णाटक की सेना का अर्थ चालुक्यों की सेना से है । क्योंकि चालुक्य राज पुलकेशी द्वितीय ने बेष वंशी राजा हर्ष को जीता था। भारत के प्राचीन राजवंश' ग्रन्थ में दन्तिदुर्ग की उपाधियों में 'साहस'ग' उपाधि का भी उल्लेख किया है। ___ डा० ए० वी० सालेतोर ने रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भ लेख से सिद्ध किया है कि साहसतुग दन्तिदुर्ग का १. मल्लिषेण प्रशस्ति के निम्न पद्म से भी राजा हिनशीतल की सभा में शास्त्रार्थ के समय घर फोड़ने की बात का समर्थन होता है :-मलिलषेण प्रशस्तिका का समय शक सं० १०५० (सन, ११२८) है। "नाहङ्कारवगीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं, रात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य बुद्धया मया । राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो, बौद्धोधान् सकलान्विजित्य सुगत : (सघट:) पादेन विस्फोटितः ॥२३॥ २........."श्रीकृष्ण राजस्य शुभतुङ्ग तुगतुरग प्रबुद्ध रेवर्धक्रविकिरणम्"-ए००३ पृ० १०६ ३. कांचीश केरलनराधिपचोलपाणय- श्री हर्षवाट विभेद विधानवक्षम् । कराटकं बलमनन्तमजेपरण्यं मुंत्यः किहिमपि यः सहसा जिगाय ।। -शामन गढ (कोल्हापुर) का शक सं० ६७५ का दानपत्र, इ० ए०भा०१ पृष्ठ १११ ४. देखो ए होल का शिलालेन । ५. भाग 3 पृ. 2६ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जिन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ नाम था । उसने चालुक्य रूपी समुद्र का मथन कर उसकी लक्ष्मी को चिरकाल तक अपने कुल की कान्ता बनाया था, जैसा कि लेख के निम्न वाक्यों से प्रकट हैं : तत्रान्वयेऽप्यभवदेकपतिः [पृ । थिव्याम् । श्री दन्तिदुर्ग इतिदुर्धर बाहुबीर्यो । चालुक्य सिन्धुमथनो भव राजलक्ष्मीम्, यः संबभार विरमात्कुलैककान्ताम् ||५|| तस्मिन् साहससुरंग नाग्नि नृपतौ स्वः सुन्दरी प्रार्थिते ।। मलिषेण प्रशस्ति से भी साहसग और हिमशीतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ का समर्थन होता है । इस कथन से कथाकोश और मल्लिषेणप्रशस्ति को भी प्रामाणिकता सिद्ध होती है । प्रकलङ्क देव का व्यक्तित्व इसमें सन्देह नहीं कि अकल कदेव का व्यक्तित्व महान था। शिला वाक्यों और ग्रन्थोल्लेखों के अनुसार समकालीन और परवर्ती भाचार्यो पर उनका प्रभाव ग्रांकित है । वे अपने समय के युगनिर्माता महापुरुष थे। वे भनेक शास्त्रार्थी के विजेता कवि और वाग्मी थे । और थे घटवाद के विस्फोटक सभा चतुर पंडित बौद्धों के साथ होने वाले प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में, जो घटावतीर्ण तारादेवी के साथ छह महीने तक किया गया था। उसकी विजय इतनी महान थी कि कलंक जैसे वाचंयमी के मुख से निरवद्य विद्या के विभव को उद्घोषित करा सकी। प्रशस्ति के वे पद्य इस प्रकार है चूर्णि - यस्येवमात्मनोऽनन्यसामान्य निरवद्यथिया विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते । राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किन्तु स्वत्सदृशार विजयिनः त्यागोग्नता दुर्लभाः । तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मितो | नाना शास्त्रविचार चातुरधियः काले कलौ महिषाः ॥ २१ ॥ (पूर्वमुख)-- राजन् सर्वारिवर्प प्रविवलन पदुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तरख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिल-मवोत्पाटनः पण्डितानाम् । नोवेषोऽहमेते तव सदसि सदासन्ति सन्तो महानतो । art स्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेष-शास्त्री यदि स्यात् ||२२|| नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यतिजने कारुण्यबुद्धया मया । राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो aratघान्सका नियजित्य स गतः (स घटः ) पावेन विस्फोटितः ||२३|| इन पद्यों में ग्रकलंक देव की निरवद्य विद्या का विभव प्रकट करते हुए बतलाया है कि हे साहसतुंग राजन् ! श्वेत आतपत्र ( छत्र) वाले राजा बहुत हैं, परन्तु तुम्हारे सदृश रण विजयी और त्यागोन्नत राजा दुर्लभ हैं। उसी तरह अनेक विद्वान हैं; पर कलिकाल में मेरे समान नाना शास्त्रों के विचारों में चतुर बुद्धि वाले कवि चादीश्वर और वाग्मी विद्वान् नहीं हैं । १. देखो; जर्नेल आफ वम्बई हि० सो० भाग ६ पू० 29 - 'दी एज आफ गुरु अकलङ्क तथा सिद्धिविनिश्चय की प्रस्तावना पृ० ४६ | Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य जिस तरह सर्व शत्रयों के मान मर्दन में ग्राप प्रसिद्ध हैं, उसी तरह इस पृथ्वी मंडल में, मैं पंडितों के समस्त मद को नष्ट करने में प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा न हो तो, यह मैं हूं और प्रापकी सभा में सदा रहने वाले पंडित हैं । इनमें जिसकी शक्ति हो वह निखिल शास्त्रवेत्ता मेरे सामने बोले। मने अहंकार के वश अथवा मन के द्वेष से ऐसा नहीं कहा । किन्तु नैरात्म्यवाद के कारण मनुष्यों के विनाश को जानकर लोगों पर करुणा बुद्धि से मैंने कहा है। राजा हिमशोतल की सभा में मैंने विदग्धात्मा बौद्धों को जीत कर पादसे घड़े का विस्फोटन किया है। यह वह समय था, जब बौद्धविद्वान धर्मकीति के शिष्यों का समुदाय भारतीय दर्शन के रंग मंच पर छाया हुया था। उसके नैरात्म्य वाद के नारों से प्रात्मदर्शन हिल उठा था। उस समय से अफलंकदेव ने भारतीय दर्शन की हिलती हुई दीवालों को थामा और इसी प्रयत्न में अकलाइयाय का जन्म हुमा। अकलकूदेव के टीका ग्रन्थ और उनकी मौलिक कृतियां उनके गहनतत्त्व विचार, उनकी सूक्ष्म तर्क प्रवणता और स्वतत्त्व निष्ठा का पग पग पर दर्शन कराती है। कृतियां गढ़ और गंभीर प्रथं की घोतक हैं। प्रकलंकने धर्म कीति की परिहास और अश्लील कक्तियों का उत्तर भी बड़े मजे से दिया है। अकलंक देव बाल ब्रह्मचारी और निम्रन्थ तपस्वी थे। उनके मन में अपने प्यारे भाई के बलिदान की आग बराबर जल रही थी। इससे भी अधिक उनके मानस में बौद्धों के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों के प्रचार से और प्रात्मवाद के लुप्त हो जाने से उथल-पुथल मची हुई थी। शिलालेख में उन्हें महधिक लिखा है। इस तरह उनका व्यक्तित्व महान और चरित्र सम्पन्न था। उनकी अकलंक प्रभा से जैन शासन पालोकित हना है, और होता रहेगा। तत्वार्थ राज वार्तिक के 'लघुहव्यनृपतिवरतनयः पद्य के 'बरतनयः' से अकलंक के लधु भ्राता होने की सूचना मिलती है। अकांक देव का समय अफलंक देव यतिवृषभ, श्रीदत्त, सिद्धसेन, देवुनन्दी, पात्र केसरी और सुमति देव के बाद हुए हैं। उन्होंने यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति के प्रथम अधिकार को दो गाथानों का संस्कृतिकरण कर उन्हें लघीयस्त्रय में शामिल कर लिया है। यतिवृषभ का समय ईसा को ५वी सदी है। श्रीदत का उल्लेख देवनन्दी ने किया है । अकलंक देव ने प्रवचन प्रवेश के पष्ठ २३ में सिद्धसेन के 'सन्मतिसूत्र की निम्नगाथा का संस्कृत रूपान्तर किया है: तित्थयर बयणसंगहविसेसपस्थारमूलवागरणी।। बग्वाट्रिनो य पज्जवणम्रो य सेसा बियप्पासि ॥१-३ "ततः तीर्थकर वचन संग्रह विशेष प्रस्तार मूलध्याकारिणौद्रव्यपर्यायाथिको निश्चेतव्यो ।" लघीयस्त्रयस्वो० वृ० श्लोक ६७ आपने देवनन्दी की तत्त्वार्थवति । सर्वार्थ सिद्धि) की पंक्तियों को दातिक बनाकर तत्वार्थवातिक की रचना की है। देवनन्दी का समय ईसा की ५वीं शताब्दी है। अकलंक ने पात्र केसरी के 'विलक्षणकदर्थन' को 'अन्य थानुपपन्नत्व" कारिका को न्यायविनिश्चय के मूल में शामिल कर लिया है। इनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी है। सुमति देव का उल्लेख शान्ति रक्षित के तत्त्वसंग्रह की पंजिका में पाया जाता है। पंजिका के कर्ता कमलशील हैं, जो नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे। शान्तिरक्षित का समय सन् ७०५ से ७६२ माना जाता है। सन् ७४३ में शान्ति रक्षित ने तिब्बत की यात्रा की थी। उससे पहले ही उन्होंने तत्त्व संग्रह की रचना की है। कमलशील शान्तिरक्षित के समकालीन जान पड़ते हैं। इन उल्लेखों से 'अकलंक का समय ईसा की ७वीं शताब्दी से बाद का जान पड़ता है। - - - -- - - - - १ जीयात् समन्तभद्रस्य देवागमनः संजिनः । स्तोत्रस्य भाज्यं कृतवानकलको महधिकः जन लेख संग्रह भा० ३ ले नं० ६६७ १०५१५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ डा० महेन्द्र कुमार जी ने अकलंक का समय ईसाकी देवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध करते हुए जो साधक प्रमाण दिये हैं। उन्हें यहां दिया जाता है: १- दन्तिदुर्ग द्वितीय उपनाम साहस तुरंगकी सभा में अकलंक का अपने मुख से हिमशीतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ की बात कहना । दन्तिदुर्गका राज्य काल ई० ७४५ से ७५५ है, और उसी का नाम साहस तुंग था । यह रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भलेख से सिद्ध हो गया है। १४८ २- प्रभाचन्द के कथाकोश में अकलंक को कृष्णज के मंत्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताना । कृष्ण का राज्य काल ई० ७५६ से ७७५ तक है । ३ - प्रकलंक चरित में प्रकलंक के शक सं० ७०० ( ई० ७७८) में बौद्धों के साथ हुए महान वाद का उल्लेख होना । 1 ४ – प्रकलंक के प्रत्थों में निम्नलिखित आचार्यों के ग्रन्थों का उल्लेख या प्रभाव होना । भर्तृहरि (ई०४ श्री ५वीं सदी) कुमारिल ( ई० ७वों का पूर्वार्ध), धर्मकीति ( ई० ६२० से ६९०), जयराशि भट्ट ( ई०७वीं सदी), ), प्रज्ञाकर गुप्त ( ई० ६६० से ७२० ), धर्माकरदत्त (अचंट ) ( ई० ६८० से ७२०), शान्तभद्र ( ई० ७०० ) धर्मोत्तर ( ई० ७०० )' कर्णगोमि ( ई० ८वीं सदी), शांत रक्षित ( ई० ७०५ से ७६२ ) । ५- कविवर धनंजय के द्वारा नाममाला में 'प्रमाणमकलंकस्य' लिखकर कलंक का स्मरण किया जाना । धनंजय की नाम माला का अवतरण धवला टीका में है। अतः धनंजय का समय ई० ८१० है । ६ - जिनसेन के गुरु वीरसेन की धवलाटीका ( ई० ८१६) में तस्वार्थ वोतिक के उद्धारण होना । ७ - प्रादि पुराण में जिनसेन द्वारा उनका स्मरण किया जाना । जिनसेन का समय ई० ७६० से ८१३ है । - हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संघीय जिनसेन के द्वारा वीरसेन की कीर्ति को 'अकलंक' कहा जाना । ६ - विद्यानन्द आचार्य द्वारा प्रकलंक की अष्टशती पर भ्रष्ट सहस्री टीका का लिखा जाना। विद्यानन्द का समय ई० ७७५–८४० है । १०–शिलालेखों में अकलंक का स्मरण सुमति के बाद थाना" गुजरात के कर्क सुवर्णका मल्लवादि के प्रशिष्य और सुमति के शिष्य अपराजित को दिये गए दान का एक ताम्रपत्र शक, सं० ७४३ ई० ८२१ का मिला २ | 3 तस्त्वसंग्रह' में सुमतिदेव दिगम्बर के मत का उल्लेख श्राता है । तत्त्वसंग्रह पंजिका में बताया है कि सुमति कुमारिल के प्रालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण करते हैं । श्रतः सुमति का समय कुमारिल के बाद होना चाहिये। डा० भट्टाचार्य ने सुमति का समय ई० ७२० के पास पास निर्धारित किया है १४ । यदि ताम्रपत्र में उल्लिखित सुमति ही तत्त्वसंग्रहकार द्वारा उल्लिखित सुमति है तो इनके समय की संगति बैठानी होगी; क्योंकि ताम्रपत्र के अनुसार सुमति के शिष्य अपराजित ई० ८२१ में हुए हैं और इस तरह गुरु शिष्य के समय में १०० वर्ष का अन्तर होता है । प्रो० दलसुख मालवणिया ने इसका समाधान इस प्रकार किया है कि सुमति की ग्रन्थ रचना का समय ई० १. सिद्धि विनश्चय प्र० पृष्ठ ४६ । ४. वही पृष्ठ ४१ – ३६ । ७. वही पृ० ३७ । १०. वही पु. ३६ । २. वही पृ. ४९ ॥ ५. वही पृ० ४९ ॥ ८. प्रस्तावना पृ० ३८१ ११. वही प्र० पृ० ३८ ॥ १५. तस्व [सं० प्रस्ता पृ० १२। १६. धर्मोत्तर प्रस्ताव पृ० ५५ । ३. वही पृ. ११ । ६. जैन सा. इ० पृष्ठ १११ १ ९. हरिवंश पुराण १-३६ १२. धर्मोत्तर प्रस्तावना पृ० ५५ । १३. तत्व सं० पृ० ३७९, ३०२, ३०३ ३८१, ४६६ । १४. " तत्र सुमतिः कुमारिला द्याभिमता लोचनामा प्रत्यक्ष विचारणार्थमाह" तत्त्व सं० पं० पृष्ठ २७९ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १४६ ९५० के पास-पास माना जाय तो पूर्वोक्त असंगति नहीं होगी। शान्ति रक्षित ने तिब्बत जाने से पूर्व ही तस्व संग्रह की रचना की है। अतएव बह ई०७४५ के पूर्व रचा गया होगा, क्योंकि शान्त रक्षित ने तिब्बत जाकर ई० ७४६ में बिहार की स्थापना की थी। सुमति को यदि शान्ति रक्षित का समवयस्क मान लिया जाय तो उनको भी उतरावधि ई०७६२ के पास-पास होगी। ऐसी स्थिति में सुमति के शिष्य अपराजित की सत्ता ई०८२१ में होना असम्भव नहीं है।" यह समाधान सयुक्तिक है। ऐसी दशा में सूमति से २३ प्राचार्यों के बाद होने वाले प्रकलंक का समय ई०८ वीं का उत्तरार्ध ही सिद्ध होता है। इस तरह विप्रतिपत्तियों के निराकरण तथा सुनिश्चित साधक प्रमाणों के आधार से अकलंक देव का समय ई०७२० से ७८० सिद्ध होता है। प्रकला के ग्रन्थ प्रकलक देव की उपाधि 'भट्ट' थी। इसी से वे भट्ट कहलाते थे। उनकी निम्न कृतियां उपलब्ध हैं-१ तत्त्वार्थवातिक सभाष्य, २ अष्टशती, ३ लघीयस्त्रय सविवृत्ति, ४ न्यायविश्चिय सवृत्ति, ५ सिद्धिविनिश्चय, ६ प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ। १-तत्त्वार्थवातिक सभाष्य-प्रस्तुत ग्रन्य गृध्द्रपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र के ३५५ सूत्रों में सरलतम २७ सूत्रों को छोड़ कर शेष ३२८ सूत्रों पर गद्यवार्तिकों को रचना की गई है, जिनको संख्या दो हजार छह सो सत्तर है। इन वार्तिकों द्वारा सूत्रकार के सूत्रों पर संभावित विप्रतिपत्तियों का निराकरण कर ग्रन्थकार के सूत्रों के मर्म का उदघाटन किया है । यह बार्तिक शैली पर लिखा गया प्रथम भाष्य ग्रन्थ है। इसमें जीव, प्रजीव, आस्रव, बन्ध, संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का सांगोपांग विवेचन ऊहापोह पूर्वक किया गया है । इसमें वार्तिक जुदे हैं पौर उनकी व्याख्या भी जुदी है । इस व्याख्या का भाष्य रूप से उल्लेख किया गया है। अन्य की पुष्पिकानों में इसका नाम तत्त्वार्थवार्तिक व्याख्यानालंकार दिया गया है । देवन्दी (पूज्यपाद) की तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थ सिद्धि) का बहुभाग इसमें भूलबातिक रूप में समाविष्ट हो गया है। अकलंक देव के इस भाष्य ग्रन्थ को भाषा अत्यन्त सरल है। जब कि अन्य अष्ट शतो, न्याविनिश्चय, प्रमाण संग्रहादि ग्रन्थों की संस्कृत भाषा अत्यन्त क्लिष्ट है। यदि अष्टशतो पर अष्ट सहस्रो टीका न होता तो उसका अर्थ समझना अत्यन्त कठिन होता । प्रस्तुत भाष्य में द्वादशांम के निरूपण में क्रियावादी प्रक्रियावादी और आज्ञानिक आदि में जिन साकल्य, बाष्कल, कुथुमि, कठ माध्यन्दिन, मौद, पैप्पलाद, गाग्यं मौद्गल्यायन, आश्वलायन, आदि ऋषियों के नाम दिये हैं । वे सब ऋग्वेदादि के शाखाऋषि हैं। इस वार्तिक भाष्य के अनेक स्थलों में षट्खण्डागम के सूत्र और महाबन्ध के वाक्य उद्धृत किये गये हैं और उनसे संगति बैठाई गई है। यह एक ऐसा पाकरग्रन्थ है जिसमें सैद्धान्तिक, भौगोलिक और दार्शनिक सभी चर्चाए यथास्थान मिलती हैं। अन्य में सर्वत्र अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग होने से ऐसा जान पड़ता है, जैसे सैद्धान्तिक तत्त्व प्ररोहों की रक्षा के लिये अनेकान्त को बाड ही लगाई गई हो, सर्वत्र भेदाभेद, नित्यानित्यत्व और एकानेकत्व के समर्थन का क्रम अनेकान्त प्रक्रिया से युक्त दृष्टिगोचर होता है। स्वरूप चतुष्टय के ग्यारह बारह प्रकार, सकलादेश विकलादेश का विस्तृत प्रयोग तथा सप्त भंगीका विशद और विविध विवेचन इसी ग्रन्थ में अपनी विशिष्ट शैली से मिलता है। योनिप्राभूत, व्याख्याप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डक ग्रादि का उसमें उल्लेख किया गया है। जिससे स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि प्रकलंक देव विद्याके क्षेत्र में अधिक से अधिक संग्राहक भी थे। तत्त्वार्थाधिगम नामक भाष्य भी प्रकलंक देव के सामने रहा है। और भी कई टीका ग्रन्थ सामने रहे हैं। ग्रन्थ में दिग्नाग के प्रत्यक्ष लक्षण-कल्पनापोढ़ का खण्डन है पर धर्मकीर्तिकृत 'प्रभ्रान्त' पद विशिष्ट प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं । यद्यपि धर्मकीर्ति की 'सन्तानान्तर सिद्धि' का प्राद्यश्लोमा बुद्धिपूर्वा क्रिया' उदधत १. धवलाटीका, न्याय कुमुद पृ० ६४६ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ समय धर्मकीति के अन्य प्रकरण अकलंक देव के प्रथम ग्रन्थ जान पड़ता है । यह अच्छे वैय्या १५० है फिर भी ऐसा जान पड़ता है जैसे तत्त्वार्थं बार्तिक की रचना के हों। इसी कारण यह ग्रन्थ उनका मन में करण भी थे। सूत्रों में शब्दों की सार्थकता तथा व्युत्पत्ति करने में उनके इस रूप के खूब दर्शन होते हैं । यद्यपि वे सर्वत्र पूज्यपाद के जैनेन्द्र व्याकरण का उद्धरण देते हैं। परन्तु पाणिनि और पतंजलि के भाष्य को भी भूले नहीं हैं। भूगोल और खगोल के विवेचन में तिलोय पण्णत्ती उनके सामने रही है। दोनों में कितना ही कथन समान मिलता है । वास्तव में यह भाष्य तत्त्वार्थ सूत्र की उपलब्ध टीकाओं में मूर्धन्य और आकर ग्रन्थ है। अकलंक देव की प्रशा के इसमें विशिष्ट दर्शन होते हैं । इस भाष्य में जनेतर ग्रन्थों के अनेक उद्धरण मिलने हैं। इससे उसकी महत्ता क सहज ही अनुभव हो जाता है । तत्त्वार्थसूत्र पर ऐसा ग्रन्य कोई दूसरा भाग्य उपलब्ध नहीं है प्रष्टशती यह श्राचार्य समन्तभद्र कृत 'आप्त मीमांसा' अपरनाम' 'देवागम स्तोत्र' की संक्षिप्त वृत्ति है। जैन दर्शन मीमांसा का विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान हैं। इसमें अनेकान्त और सप्तभंगी का अच्छा विवेचन है। इसका प्रमाण ८०० श्लोक जितना है इसी से इसे अष्टशती कहा जाता है । इस अष्टशती पर प्राचार्य विद्यानन्द की 'भ्रष्ट सहस्री' नाम की टीका है। जो सुवर्ण में मणिवत् आगे-पीछे के व्याख्या वाक्यों में अष्टशती को जड़ती चली जाती है। विद्यानन्द ने स्वयं अपनी उस अष्टशतः गर्भित अष्ट सहस्त्रों में लिखा है कि यह ग्रष्ट सहस्री कष्ट सहस्री से बनाई है। जैसा कि उनके वाक्य से स्पष्ट है 'श्रोतव्या भ्रष्ट सहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । इसमें मूल आप्तमीमांसा में श्राये हुए सदेकान्त असदेकान्त, भेदकान्त, अभेदेकान्त, नित्यैकान्त, क्षणिककान्त afe एकान्तों की आलोचना करते हुए पुण्य-पाप बन्ध की चर्चा को है। इन सब एकान्तों की मालोचना में भ्रष्टशती में उन उन एकान्तवादियों के मन्तव्य पूर्वपक्ष में साधार दिये है । श्रौर श्राज्ञा प्रधानियों के देवागम और प्राकाशगमन आदि के द्वारा ग्राप्त के महत्व ख्यापन की प्रणाली की आलोचना कर भाप्तमीमांसा के आधार से वीतराग सर्वज्ञ को प्राप्त सिद्ध किया है, और युक्ति से श्रागम अविरोधी वचन वाला बतलाया है। इसी कथन में श्रन्य आप्तों के एकान्तवाद की चर्चा भी निहित है । और अन्त में प्रमाण और नय की चर्चा की है । यस्त्रय सविवृति यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह है। इस ग्रन्थ में तीन प्रवेश हैं। प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश और प्रव वन प्रवेश | इसमें कुल ७८ मूल कारिकाएं हैं। अकलंक देव ने लघोस्त्रय पर एक विवृत्ति लिखी है। यह विवृत्ति कारिकाओं की व्याख्या रूप न होकर उसमें सूचित विषयों को पूरक है। उन्होंने यह विवृत्ति कारिकाओं के साथ ही लिखी है क्योंकि वे जो पदार्थ कहना चाहते हैं उसके अमुक ग्रंश को श्लोक में कहकर शेष को विवृत्ति में कहते हैं । अतः उसका नाम वृत्ति न होकर विवति विशेष विवरण ही उपयुक्त है। विषय की दृष्टि से पद्य और गद्य मिल कर ही ग्रन्थ की अखण्डता बनाते हैं । लघीस्त्रय में छह परिच्छेद हैं, जिनमें चर्चित मुख्य विषय निम्न प्रकार हैं। प्रथम परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्ष के लक्षण, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य दो भेद, सांव्यवहारिक के इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद और मुख्य के अवग्रहादि भेद, पूर्व पूर्वज्ञानी की प्रमाणता आदि का विवेचन है । द्वितीय परिच्छेद में द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु की प्रमेयरूपता, नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्त में अर्थक्रिया का प्रभाव आदि प्रमेय सम्बन्धी चर्चा है । ततीयपरिच्छेद में मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध आदि का शब्द योजना से पूर्व अवस्था में, तथा शब्द योजना के बाद श्रुतव्यपदेश, स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान का परोक्षत्व, प्रत्यभिज्ञान में उपमान Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी तक के आचार्य का अन्तर्भाव, कारण पूर्वचर और उत्तरगर हेतूमों का समर्थन, प्रदश्यानुपलब्धि से भी प्रभाव को सिद्धि और विकल्प बुद्धि को बास्तविकता यादि परोक्ष प्रमाण सम्बन्धी विषयों की चर्चा है। चौथे परिच्छेद में ज्ञान की कान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणता का निषेध करके प्रमाणाभास का स्वरूप, श्रुत की प्रमाणता, और आगम प्रमाण आदि विषयों का विचार किया गया है। पांचवें परिच्छेद में नय दुर्नब के लक्षण, नयों के द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आदि भेद, और नैगमादि नयों में अर्थनय शब्दनय आदि के विभाग का विवेचन है। ठे परिच्छेव में प्रमाण पोर नय का विचार करते हए अर्थ और आलोक की ज्ञान कारणता का खंडन तथा सकलादेश विकलादेश का विचार और प्रमाण नयादि का निरूपण किया गया है । इस तरह यह ग्रन्थ अकलंक देव की पहली मौलिक दार्शनिक कृति है। न्याय विनिश्चय सवृत्ति प्रस्तुत ग्रन्थ में ४८० श्लोक हैं । और तीन परिच्छेद है--प्रत्यक्ष, अनुमान, और प्रवचन । सम्भव है, प्रकलंक देव मे इस पर भी कोई चणि या ति लिखी होगी । डा. महेन्द्र कुमार जी ने उसके प्राप्त करने का प्रयत्न किया था, किन्तु खेद है कि वह उपलब्ध नहीं हुई। प्रथम परिच्छेद में प्रत्यक्ष का लक्षण लिख कर प्रत्यक्ष के दो भेद इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के लक्षणादि का विवेचन किया गया है ! धर्मशीति गमाटायच लक्षा को समालोचना, तथा बौद्धकल्पित स्वसंवेदनयोगि मानस प्रत्यक्ष का निराकरण करते हुए सांस्य और नैयायिक सम्मत प्रत्यक्ष लक्षण का निराकरण किया गया है। दूसरे परिच्छेद में अनुमान का लक्षण, साध्य-साध्याभास और साधन साधनाभास के लक्षण, हेतु के रूप्य का खंडन करते हुए अन्यथानुपपत्ति का समर्थन, प्रसिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक पौर अकिश्चितकर हेत्वाभासों मादि का विवेचन किया गया है। और अनुमान से सम्बन्धित विषयों का कथन किया गया है। तीसरे प्रवचन प्रस्ताव में प्रवचन का स्वरूप, सुगत के प्राप्तत्व का निराकरण, सुगत के करुणावत्य तथा चतुरार्थ प्रतिपादकत्व का परिहास, पागम के अपौरुषेयत्व का खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, मोक्ष और सत्तभंगी का निरूपण, स्याद्वाद में दिये जाने वाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मृति प्रत्यभिज्ञान यादि का प्रामाण्य और प्रमाण के फलादि विषयों का कथन किया गया है। ___ इस ग्रन्थ पर प्राचार्य वादिराज का विस्तृत विवरण उपलब्ध है, जो न्याय विनिश्चय विवरण के नाम से प्रसिद्ध है, और जो भारतीय ज्ञानपीठ काशी से दो भागों में प्रकाशित हो चुका है । वादिराज ने उसके रचना काल का उल्लेख नहीं किया । वादिराज का परिचय अन्यत्र दिया है। उनका समय शक सं०६४७ (सन् १०२५) है। सिसिमिनियचय-अकलंकदेव की यह महत्वपूर्ण कृति है। इसमें १२ प्रस्ताव हैं जिनमें प्रमाणनय और निक्षेप का विवेचन किया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-१. प्रत्यक्षसिद्धि (२) सविकल्प सिद्धि (३) प्रमाणान्तर सिद्धि (४) जयसिद्धि (५) जल्पसिद्धि (६) हेतुलक्षण सिद्धि (७) शास्त्रसिद्धि (८) सर्वशसिद्धि (6) शब्दसिद्धि (१०) अर्थनयसिद्धि (११) शन्दनयसिद्धि (१२) और निक्षेपसिद्धि । इन प्रस्तावों के नामों से उनके विषयों का परिज्ञान हो जाता है । डा. महेन्द्र कुमार जी ने क्रमिक विकास की दृष्टि से इन्हें चार विभागों में बांटा है(१) प्रमाण मीमांसा, (२) प्रमेय मीमांसा, (३) नय मीमांसा और (४) निक्षेप मीमांसा। प्रमाण मीमांसा-इसमें प्रमाण और उसके भेद-प्रभेदों का तथा प्रत्यक्ष सिद्धि, सविकल्प सिद्धि, सर्वसिद्धि प्रमाणान्तर सिद्धि, और हेतु लक्षण सिद्धि, इनमें प्रतिपादित प्रमाण सम्बन्धी विषयों का सार दिया गया है। और दर्शनान्तरीय ग्रन्थों में माने जाने वाले प्रमाण की मीमांसा की गई है। प्रमेय मीमांसा-इसमें जीवसिद्धि और शब्द सिद्धि में प्रतिपादित प्रमेय सम्बन्धी सामान्य स्वरूप का कथन किया गया है। जैन परम्परा में प्रमेय-द्रव्यों के दो भेद हैं--चेतनद्रव्य और अचेतन द्रव्य । चेतनद्रव्य प्रात्मा या जीव है उसका लक्षण ज्ञाता दृष्टा है। और अचेतन द्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से पांचप्रकार के हैं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ चहा पुद्गल तव्य-रूप-रस, गन्ध और स्पर्श बाले परमाणु पूगल द्रव्य हैं । वे अनन्त हैं। पुद्गल परमाणु जब स्कन्ध बनते हैं तब उनका रासायनिक बन्ध हो जाता है। उस स्कन्ध में जितने पुद्गल परमाणु सम्बद्ध हैं उन सबका एक जैसा परिणमन हो जाता है। और उसी परिणमन के अनुसार स्कन्ध में रूप विशेष प्रौर रस विशेष का व्यवहार होता है । समस्त जगत इन्हीं पुद्गल परमाणुनों से निर्मित हुना। प्रति समय कोई न कोई परिणमन करने का उनका स्वभाव है । पुद्गल' शब्द का अर्थ ही पूरण और गलन है। धर्मव्य-यह एक लोकव्यापी प्रमुर्त द्रव्य है जो गमनशील जीव और पुद्गलों की गति में सहायक होता है। यह प्रेरक निमित्त नहीं किन्तु उदासीन निमित्त है। अधर्म द्रव्य-यह एक लोक व्यापी अमूर्त द्रव्य है जो स्थितिशील जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है । यह भी उदासीन निमित्त है। प्राकाश द्रव्य-यह एक अनन्त अमूर्त द्रव्य है, जिसमें समस्त द्रव्यों का प्रवगाह होता है । द्रव्यों के प्रवस्थान को अपेक्षा इसके दो भेद हैं । जहाँ तक जीवादिक पाये जायें वह लोकाकाश है और जहां केवल प्राकाश ही आकाश है वह पालोकाकाश है। ___ काल द्रव्य–लोकाकाश व्यापी असंख्य कालाणु द्रव्य है, जो स्वयं तो परिणमन करते ही हैं किन्तु अन्य द्रव्यों के परिणमन में भी निमित्त होते हैं । घड़ी, घण्टा दिन प्रादि काल व्यवहार इन्हीं के निमित्त से होता है। जीव द्रव्य-उपयोग रूप है, अमूर्त है, कर्ता है, और भोक्ता है, स्वदेह परिमाण है ससारी और सिद्धि हो जाता है । स्वभाव से ऊध्वंगमनशील है। जीव का स्वभाव चैतन्य है, वही चंतन्य ज्ञान और दर्शन अवस्थाओं में परिणत होता है। जीव को सभी जीववादी अमूर्त मानते हैं । जीव के दो भेद हैं संसारी और मुक्त । किन्तु जैन परम्परा में संसारी अवस्था में सदा कर्म पुद्गलों से बंधे रहने के कारण उसे व्यबहार दृष्टि से मूर्त माना जाता है। संसारी अवस्था में जब उसकी वैभाविक शक्ति का विकार परिणमन होता है तब प्रात्मा को कथंचित् मूर्त भी माना गया है। उसे स्वयं कर्ता और भोक्ता भी माना है। जोय अनादि काल से कम पुद्गलों से बद्ध चला पा रहा है । इसी कारण वह कथंचित् मूर्त है। और कर्मानुसार प्राप्त छोटे-बड़े शरीर के अनुसार संकोच और विकास करके उस शरीर के प्रमाण प्राकार वाला होता है। वह स्वभावत: प्रमूर्त द्रव्य है और पूदगल से भिन्न है। और वासनामों के कारण संसार अवस्था में विकृत हो रहा है। प्रतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र प्रादि प्रयत्नों से धीरेघीरे शुद्ध होकर कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस समय उसका प्राकार अन्तिम शरीर जैसा ही रह जाता है; क्योंकि जीव के प्रदेशों में संकोच और विकास दोनों ही कर्म के सम्बन्ध से होते थे। जब कर्मबन्धन छूट गया तब जीव के प्रदेशों के फैलने का कोई कारण नहीं रहता । अत: वह मन्तिम शरीर से कुछ न्यून प्राकारवाला रह जाता है। नय मीमांसा-में नय के स्वरूप का कथन करते हुए, उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की गई है। अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक अंश को विषम करने वाले अभिप्राय विशेष प्रमाण को सन्तान हैं, उनमें यदि परस्पर प्रोति पौर अपेक्षा है तो वे सुनय हैं । अन्यथा दुर्नय । अनेकात्मक वस्तु के अमुक अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भो अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता किन्तु उसके प्रति तटस्थभाव रखता है। जैसे पिता की सम्पत्ति में उसके सभी पुत्रों का समान हक होता है । सपूत वही कहा जाता है, जो अपने भाइयों के हक को ईमानदारी से स्वीकार करता है। उनके हड़पने की चेष्टा नहीं करता। किन्तु उनके साथ सद्भाव रखता है। उसी तरह अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सभी नयों का समान मधिकार है, उनमें सुनय वही कहा जायेगा, जो अपने अंश को मुख्य रूप से ग्रहण करके भी अन्य के अशों को गौण करे, पर उनका निराकरण न करे, उनकी अपेक्षा को और उनके अस्तित्व को स्वीकार करता है। किन्तु जो दूसरे का निराकरण करता है, और अपना ही अधिकार जमाता है वह कुपूत की तरह दुर्नय कहलाता है । इसी से प्राचार्य समन्तभद्र ने निरपेक्ष नय को मिथ्या और सापेक्ष नय को सम्यक बतलायाया है। १. निरपेक्ष, नयामिम्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत । आप्तमीमांसा श्लोक १८ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य जिस तरह पट के ताना पोर बाना दोनों ही अलग-अलग निरपेक्ष रह कर शीत निवारण नहीं कर सकते। किन्तु जब ताना बाना सापेक्ष होकर पट का रूप धारण कर लेते हैं, तब वे शीत के निवारण में समर्थ हो जाते है उसी तरह नियतवादों का आग्रह रखने वाले परस्पर निरपेक्ष नय सम्यक्तत्व को नहीं पा सकते। किन्त बहमूल्य मणियां यदि एक सूत्र में न पिरोई गई हों, और न परस्पर घटक हों, तो वे रत्नावली नहीं कहला सकती। जिस तरह एक सूत्र में पिरोई गई मणियां रत्नावली हार बन जाती हैं। उसी तरह सभी नय सापेक्ष होकर सम्यकपने को प्राप्त हो जाते हैं। निक्षेप मोमोसा-में निक्षेप का स्वरूप और उसके भेदों का विचार किया गया है। निक्षेप के चार भेद है, नाम स्थापना, द्रव्य पौर भाव । उनका प्रयोजन अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का निरूपण, संशय का विनाश मौर तत्वार्थ के निश्चय करने में निक्षेप की सार्थकता है।' अनन्त धर्मात्मक वस्तु को व्यवहार में लाने के लिये निक्षेप का प्रयोजन प्रावश्यक है। गुण रहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा नाम है। काष्ट कर्म, पुस्तकर्म, चित्र कर्म और अक्षनिक्षेप में यह वही है इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं। जो गुणों द्वारा प्राप्त किया जायेगा या प्राप्त होगा वह द्रव्य है जैसे राजपुत्र को राजा कहना । भविष्यत पर्याय की योग्यता या अतीत-पर्याय के निमित्त से होने वाले व्यवहार का आधार द्रव्य निक्षेप है। जैसे जिसका राज्य चला गया, उसे वर्तमान में राजा कहना अथवा युवराज को अभी राजा कहना। वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्य में तत्पर्याय मलक का व्यवहार का आधार भाव निक्षेप है। इस सब संक्षिप्त कथन से ग्रन्थ की महत्ता का आभास मिल जाता है । इस तरह अकलंक देव की कृतियां जैन शासन की महत्वपूर्ण और मूल्यवान कृतियां हैं। प्रमाण संग्रह-इस ग्रन्थ का जैसा नाम है तदनुसार उसमें प्रमाणों, युक्तियों का संग्रह है। इस ग्रन्थ की भाषा और विषय दोनों ही जटिल और दुरूह हैं। यह लघीस्त्रय और न्यायविनिश्चय से कठिन है। ग्रन्थ प्रमेय बहल है। लगता है इसकी रचना न्याय विनिश्चय के बाद की गई है, क्योंकि इसके कई प्रस्तावों के अन्त में न्याय विनिश्चय की अनेक कारिकाएं विना किसी उपक्रम वाक्य के पाई जाती हैं । इस ग्रन्थ की नोमि कारिका में प्रयत'प्रकलंक महीयसाम्' वाक्य तो प्रकलंक देव का सूचक है ही, किन्तु इसकी प्रौढ़ शैली भी इसे प्रकलंक देव की अन्तिम कृति बतलाती है, कारण कि इसकी विचारधारा गहन हो गई है। जान पड़ता है इसमें उन्होंने अपने अब शिष्ट विचारों को रखने का प्रयास किया है। इसमें हेतुओं को उपलब्धि अनुपलब्धि आदि अनेक भेदों का विस्तत विवेचन किया गया है। जान पड़ता है इस पर प्राचार्य अनन्तवीर्य कृत प्रमाण संग्रहालंकार नाम को कोई टीका रही है जिसका उल्लेख अनन्तवीर्य ने स्वयं किया है। प्रमाण संग्रह में प्रस्ताव और साढ़े सतासी ८७१ कारिकाएं हैं। इस पर प्रकलंक देव ने कारिकामों के अतिरिक्त पूरक वृत्ति भी लिखी है। इस तरह गद्य-पद्यमय इस ग्रंथ का प्रमाण लगभग अष्टशती के बराबर हो हो जाता है। प्रथम प्रस्ताव में कारिकायें हैं। जिनमें प्रत्यक्ष का लक्षण श्रुत का प्रत्यक्ष अनुमान और भागमपूर्वक, और प्रमाण का फल आदि का निरूपण है। दूसरे प्रस्ताव में भी कारिकायें हैं, जिनमें परोक्ष के भेदस्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क प्रादि का निरूपण है। तीसरे प्रस्ताव में १० कारिकायों द्वारा अनुमान के अवयव, साध्य साधन साध्याभास का लक्षण, सदसदेकान्त में साध्य प्रयोग की प्रसम्भयता, सामान्य विशेषात्मक वस्तु की साध्यता और उसमें दिये जाने वाले संशयादि पाठ दोषों के निराकरण प्रादि का कथन है। १. अवगयणि वारण पयदस्य परूवणा णि मित्त च । संशयविणासरण? तच्चत्यवधारणट्ट च ॥ -धवला. पु.१पृ०३११ २. सिद्धि विनिश्चय टीका पु०८, १०, १३० आदि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग-२ चौथे प्रस्ताव में साड़े ग्यारहकाओं द्वारा त्रिरूप का निराकरण, अन्यथा नुपपत्तिरूप हेतु का समर्थन, और हेतु के उपलब्धि अनुपलब्धि प्रादि भेदों का विवेचन तथा कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, और सहचर हेतुनों समर्थन पांचवें प्रस्ताव में साड़े दशकारिकामों में विरुद्धादि हेत्वाभासों का निरूपण किया गया है। छठे प्रस्ताव में १२ कारिकानों द्वारा वाद का लक्षण, जय-पराजय व्यवस्था का स्वरूप, जाति का लक्षण प्रादि याद सम्बन्धि कथन दिया है । और अन्त में धर्मकीर्ति आदि द्वारा प्रतिवादियों के प्रति जाड्यादि अपशब्दों के प्रयोग का सबल उत्तर दिया है। सातवें प्रस्ताव में १० कारिकामों में प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञता का समर्थन, अपौरुषेयत्व का खंडन, तत्त्वज्ञान चारित्र की मोक्ष हेतृता प्रादि प्रवचन सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया है। आठवें प्रस्ताव में १३ कारिकानों में सप्तभंगी का निरूपण और नैगमादिनयों का कथन है। नौवें प्रस्ताव में २ कारिकाओं द्वारा प्रमाण मय और निक्षेप का उपसंहार किया गया है। इस तरह यह ग्रंथ अपनी खास विशेषता रखता है । स्व० न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमार जी ने अकलंक देव की इस महत्वपूर्ण कृतिका सम्पादन कर जैन संस्कृति का बड़ा उपकार किया है। यह गंथ अकलंक नन्थत्रय में प्रकाशित है। इस तरह प्रकलंक देव की सभी कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं । और अकलंक की यह जैन न्याय को अपूर्व देन है। अकलङ्क नाम के अन्य विद्वान प्रकलंक नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। जैन साहित्य में अकलंक नाम के अनेक विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनका यहां संक्षिप्त परिचय दिया जाता है : प्रकलंकचन्द्र-मन्दि संघ-सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण, और कुन्दकुन्दान्वय की पदावली के ७३वें गह, वर्षमान की कीति के पश्चात् और ललित कीतिके पूर्व उल्लिखित उक्त पट्टायली के अनुसार इनका समय ११९४१२०० ईस्वी है। -(ग्वालियर पट्टान्तर्गत) प्रकल विद्य-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्ड कुन्दान्वय के कोल्हापुरीय माघनन्दि के प्रशिष्य, देवकीति, (जिनका वास ११६३ ई० में हुमा) के शिष्य, शुभचन्द्र विद्यदेव और गुण्डविमुक्तवादि चतूं मुख रामचन्द्र विद्य के सघर्मा, माणिक्य भंडारि मरियाने, महाप्रधान दण्डनायक भरत भौर श्रीकरण हेग्गडे चिमय्य के गुरुवादि वांकुश मकलंक विद्य थे 1' इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। प्रककलं पण्डित-इनका उल्लेख श्रवण बेलगोलस्थ चन्द्रगिरि शिलालेख नं० १६६ में, जो ईस्वी सन १०९८ में उत्कीर्ण हुमा है पाया जाता है। अकसंकदेव-इन्होंने दबिड़ संघ नन्द्यान्वय के वादिराज मुनि के शिष्य महामण्डलाचार्य राजगुरु पुष्पसेन मनि के साथ शक सं० ११७८ (सन् १२५६) में हुम्मच में समाधि मरण किया था। यह सम्भवतः मुनि पुष्पसन के सषर्मा थे। और इनके शिष्य गुणसेन सैद्धान्तिक थे। प्रकलंकमुलिप-नन्दिसंघ-बलात्कारगण के जयकीर्ति के शिष्य, चन्द्रप्रभ के सधर्मा, विजयकोति, पाल्यकीति विमलकीप्ति, श्रीपालकीति और मायिका चन्द्रमती के गुरु ये । संगीतपुर नरेश सालुवदेवराय इनका भक्त पाबंकापुर में इन्होंने नप मापन एल्लप के मदोन्मत्त प्रधान गजेन्द्र को अपने तपोबल से शान्त किया था। इनका स्वर्गवास शक सं० १४१७ (सन् १५३५ ई.) में हुआ था। १. श्रवण बेलगोल शि० नं० (६४) १० २८, न्याय कुमुवचन्द भा. १ प्रस्ता० पू० २५ । २. श्रवण वेलगोल शि.नं. १६६ १. ३०६। ३. एपीमाफिया, कण टिका, ८, नागर (४) ४. प्रशस्ति संग्रह आरा पृ० १२६, १३० । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १५५ कलंक देव-मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्द- कुन्दान्वय में श्रवण बेल्गोल मठ के चारुकीति पंडित को शिष्य परम्परा में उत्पन्न तथा संगीतपुर (हाडहल्लि दक्षिण कनाराजिला ) के मठाधीश भट्टारक थे। यह कर्णाटक शब्दानुशासन के कर्त्ता भट्टाकलंक देव के गुरु और सम्भवतया अलक युनिप के प्रशिष्य थे। इनका (देखो अग्रेजी जैन गजट १६२३ ई० पृ० २१७ ) समय सन् १५५० – ७५ ई० के लगभग है । कलंकदेव (भट्टाकलंक देव ) – यह मूलसंघ देशीगण के विद्वान सुधापुर के भट्टारक, विजय नरेश वेंकटपतिराय (१५८६ – १६१५ ई०) से समाद्भुत तथा कर्णाटक शब्दानुशासन नामक प्रसिद्ध कड़ी व्यकरण और मेमरी करग्रोमकृत १९१६ गन् १६०४ ई० में समाप्त किया) के रचयिता थे। राय बहादुर चार नरसिंहाचार्य के कथनानुसार यह विभिन्न सम्प्रदाय के न्यायशास्त्र में निष्णात थे। एक निपुण टीकाकार तथा संस्कृत और कन्नड़ उभय भाषाओं के व्याकरण के महा पण्डित थे । तत्कालीन अनेक राजाओं की सभाओं में बाद में विजय प्राप्त कर जैनधर्म को महतो प्रभावना की थी। राजावलो कथा के कलां देवचन्द्र के अनुसार इन्होंने सुधापुर में ही विविधज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी। यह छह भाषाओं में कविता कर सकते थे । यह कर्णाटक शब्दानुशासन की रचना द्वारा लोकप्रिय थे। इनका समय विक्रम की १७औँ शताब्दी का अन्तिम चरण (१६७२ ) है । (देखो, चार० नरसिंहाचार्य कर्णाटक शब्दानुशासन की भूमिका, कर्णाटक विचरिते, और राजावलि कथे ।) unis मुनिप - देशीगण पुस्तकगच्छ के कनकगिरि (काल) के भट्टारक थे। शक सं० १७३५ (वि० सं० १८७०) सन् १८१३ ई० में इन्होंने समाधिमरण किया था । (एपि कर्णा टिका ४ चामराजनगर १४६ और १५० ) अंकदेव – इन्हें प्रकलंक प्रतिष्ठा पाठ या प्रतिष्ठाकल्प के रचयिता कहा जाता है। इस अन्य में वां शताब्दी से लेकर सोमसेन के त्रिवर्णाचार (उपलब्ध प्राचोनतम प्रति ) १७०२ ई० के उल्लेख या उद्धरण आदि पाये जाते हैं। अतः इनका समय १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है । ( प्रशस्ति सं० श्रारा पृ० १६५,१६८, १८० ॥ ) अकलंक-- 'परमागमसार' नामक कन्नड़ ग्रन्थ के रचयिता । (देखो, जैन सि० भ० आरा की ग्रन्थ सूची पृ० १८ ) अकलंक — चयवन्दनादि प्रतिक्रमण सूत्र, साधु श्राद्ध प्रतिक्रमण और पदपर्याय मंजरी आदि के कर्ता । न्याय कुमुदचन्द प्रस्तावना पु० ५० परवादिमल्ल यह अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। इनकी गुरु परम्परा ज्ञात नहीं हुई। पर यह परवादिमल्ल के रूप में प्रसिद्ध थे । मल्लिषेण प्रशास्ति में पत्रवादी विमलचन्द्र मौर इन्द्रनन्दि के वर्णन के पश्चात् घटवाद घटा कोटिकोविंद परवादि मल्लदेव का स्तवन किया गया है। और राजा शुभतुंग की सभा में उन्हीं के मुख से अपने नाम की सार्थकता इस प्रकार बतलाई गई है :--- घटाव घटा कोटि-कोषिवः कोषियां प्रवाक् : परवा विमल्ल- बेबो वेब एष न संशयः ॥२८ श्रूणि - येनेयमात्मनामधेयनर तिरुक्तानाम] पृष्ठवन्तं कृष्णराजं प्रति । गृहीत पक्षः दितरः परः स्यात् तद्वाविनस्ते पर वादिनः स्युः । तेषां हो मल्लः परवाविमल्लः तन्नाम मन्नाम वदन्ति सन्तः ॥ २६ इस उल्लेख पर से स्पष्ट है कि ईसा की १२वीं शताब्दी के प्रारम्भ में परवादिमल्ल की गणना महानवादी और प्राचीन प्राचार्यों में की जाती थी । परन्तु उस समय लोग उनके मूल नाम को भूल चुके थे। परवादीमल्ल कलंक देव की परम्परा के विद्वान जान पड़ते हैं । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ परवादिमल्ल के समकालीन राजा, जिसकी सभा में उन्होंने ग्रपने नाम की सार्थकता प्रकट की थी, राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम शुभतुरंग (७५७ – ७७३ ) था । संभव है इन्हीं परवादिमल्ल ने धर्मोत्तर कृत न्यायविन्दु टिप्पण पर टीका लिखी हो। प्रतएव इन परवादि मल्ल प्रथम का समय ७:३० से ८०० के लगभग हो सकता है। 家 यह प्रशस्ति मल्लिषेण मुनि के शक सं० १०५० (सन् १९२८) में उनके शरीर त्याग करने की स्मृति में उत्कीर्ण की गई थी। उक्त प्रशस्ति में कलंक का साहसतुरंग की सभा में वादियों को अपने नाम के अर्थ का करना इस बात का साक्षी है कि प्रशस्तिकार इन दो राजाओं को पृथक् समझते थे । इस प्रशस्ति में अनेक प्राचीन प्राचार्यो के नामों का उल्लेख किया गया है। महावादी समन्तभद्र, महाध्यानी सिंहनन्दि, षण्मासवादी वक्रयीव, नवस्त्रोतकारी वचनन्दि, त्रिलक्षणकदर्शन के कर्ता पात्रकेसरी गुरु, सुमति सप्तक के रचयिता सुमतिदेव, महाप्रभावशाली कुमारसेन, मुनि श्रेष्ठ चिन्तामणि, दण्डि कवि द्वारा स्मृत कवि चूड़ामणि श्री वर्धदेव और सप्ततिवाद विजेता महेश्वर मुनि के बाद घटावतीर्ण लारादेवी के विजेता अकलंक देव का स्तवन किया गया है। इससे इस प्रशस्ति की महत्ता स्पष्ट है । रविषेणाचार्य रविषेणाचार्य ने अपने संघ और गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु सेनान्त नाम होने से वे सेनसंघ के विद्वान जान पड़ते हैं । इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार प्रकट किया हैसविन्द्रगुरो दिवाकर यतिः शिष्योऽस्य चान्मुनिस्तस्मालक्ष्मणसेन सन्मुनिरवः शिष्यो रबिस्तु स्मृतम् ॥ इन्द्र गुरु के दिवाकर यति, दिवाकर यति के प्रन्मुनि, पन्मुनि के लक्ष्मणसेन, और लक्ष्मणसेन के शिष्य रविषेण थे। इसके सिवाय इन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। और न यही सूचित किया कि वे किस प्रान्त के निवासी थे । इनके मातापिता कौन थे, उनका गृहस्थ जीवन कैसा रहा? और मुनिजीवन कब धारण किया और उसमें क्या कुछ कार्य किया । इसका कोई उलेल्ख उपलब्ध नहीं होता। आपकी एक मात्र कृति पद्मचरित या बलभद्र चरित्र है। जो संस्कृत भाषा का एक सुन्दर चरित्र ग्रन्थ है। इसमें १२३ पर्व हैं जिनकी श्लोक संख्या बोस हजार के लगभग है । ग्रन्थ में वोसवें तोयंकर मुनिसुव्रत के तीर्थ में होने वाले बलभद्र या राम का चरित वर्णित है। मर्यादा ७रुषोत्तम रामचन्द्र इतने अधिक लोक प्रिय हुए हैं कि उनका वर्णन भारतीय साहित्य में ही नहीं किन्तु भारत से बाहर के साहित्य में भी पाया जाता है। और संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं में भोर प्रान्तीयभाषाओं में भी उनका जीवन परिचय निबद्ध मिलता है । आचार्य रविषेण ने लिखा है कि तीर्थंकर वर्द्धमानने पद्म मुनि का जो चरित कहा था वही इन्द्रभूतिगणधर ने धारिणी पुत्र सुधर्मको कहा, और सुधर्म ने जंबू स्वामी से कहा । और वही प्राचार्य परम्परा से आता हुआ उत्तर वाग्मी और श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर श्राचार्य को प्राप्त हुआ। उनके लिखे हुए चरित्र को पाकर रविषेण ने यह प्रयत्न किया है।' इतना ही नहीं किन्तु अन्तिम १२३वें पर्व के १६६ वें श्लोक में उन्होंने इसी प्रकार उल्लेख किया १. वर्द्धमान जिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थी गणेश्वरम 1 इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधः धारिणी भवम् ॥४१ प्रभवं कमलः कीर्ति ततोऽनुत्तर वाग्मिनम् । लिखतं तस्य सम्प्राप्य रवेयंस्नोऽयमुदगतः ॥४२॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १५७ निदिष्टं सकलमतेन भुवनः श्रीवर्द्धमानेन यत् । तत्वं वासव भूतिना निगवितं जम्बोः प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्सर वाग्मिना प्रकटितं पयस्य वसं मुनेः । श्रेयः साधु समाधि वृद्धि करणं सर्वोत्तम मङ्गलम् ॥१६६ अपभ्रंश भाषा के कति स्वयंभने पम चरित के आधार से "कित्तिहरेण अनुत्तरवाएं" वाक्य के साथ अनुत्तर वाग्मी श्रेष्ठ बक्ता कीतिधर का उल्लेख किया है । परन्तु प्रेमी जी ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि रविषेण ने पद्ममुनि का चरित कीर्तिधर नाम के प्राचार्य के द्वारा लिखित किसी ग्रन्थ पर से ले लिया है और उसी के अनुसार इसकी रचना की गई है। पर कीतिघर आचार्य का अन्य कोई उल्लेख इस समय उपलब्ध नहीं है । और न अन्यत्र से उसका समर्थन होता है। जान पड़ता है उनका यह ग्रन्थ विनष्ट हो गया है। इस तरह बहुत सा प्राचीन साहित्य सदा के लिये लुप्त हो गया है। यहां यह अवश्य विचारणीय है कि बिमल सूरि के 'पउमचरित' के साथ रविषेण की इस रचना का बहुत कुछ साम्य अनेक स्थलों पर दिखाई देता है । इधर पउमचरिय का वह रचना काल भी संदिग्ध है। वह उस काल की रचना नहीं है। प्रशस्ति में जो परम्परा दी गई है उसका भी समर्थन अन्यत्र से नहीं हो रहा है। प्रन्थ की भाषा और रचना शैली को देखते हुए वह उस काल की रचना नहीं जान पड़ती। उस समय महाराष्ट्रीय प्राकृत का इतना प्रांजल रूप साहित्यिक रचना में उपलब्ध नहीं होता। और अन्य के प्रत्येक उद्देश्य के अन्त में गाहिणी, शरभ प्रादि छन्दों का, गोति में यमक और प्रत्येक सर्गान्त में विमल शब्द का प्रयोग भी इसको अर्वाचीनता का ही द्योतक है। इस सम्बन्ध में अभी और गहरा विचार करने तथा अन्य प्रमाणों के अन्वेषण करने को आवश्यकता है । पर कुवलय माला' (वि० सं० ८३५ के लगभग) में दोनों का उल्लेख होने से यह निश्चित है कि पउमचरित और पनवरित दोनों हो उससे पूर्व की रचना हैं इससे पूर्व का अन्य कोई उल्लेख मेरे देखने में ही नहीं पाया। अतः बह महावीर निर्वाण से ५३० (वि० सं०६०) की रचना नहीं हो सकती। पुन्नाट संघी जिनसेन (शक सं० ७०५) ने रविषेण और उनके पधचरित का उल्लेख किया है। पक्षचरित एक संस्कृत पद्मबद्ध चरित काव्य है । इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण मौजुद हैं। ग्रन्थ की पर्व संख्या १२३ है। इसमें पाठवें बलभद्र राम, और आठवें नारायण लक्ष्मण, भरत सीता, जनक, मंजना पदनंजय, भामंडल, हनुमान, और राक्षसवंशी रावण, विभीषण और सुग्रीवादिक का परिचय अंकित किया गया है और प्रसंगवश अनेक कथानक संकलित हैं। राम कथा के अनेक रूप हैं । जैन ग्रन्थों में इसके दो रूप मिलते हैं। अन्य में सीता के प्रादर्श की सुन्दर झांको प्रस्तुत की गई है । और राम के जीवन की महत्ता का दिग्दर्शन कराया गया १. पंचेवयवासमया दुसमाए तीसवरिस संजुत्ता । वीरे सिद्धमुवमए तओ निबद्ध हम चरिय ॥१०३ -पउम चरिय प्रशस्ति २. देखो, पउमचरिउ का अन्तः परीक्षण, अनेकान वर्ष ५ किरण १०-११ पृ. ३३७ ३. जारसियं विमलको विमलको तारिस लहइ अत्थं । अमयमइयं च सरसं सरसं चिय पाइभ जस्स ।। जेहि कए रमणिज्जे वरंगप उमाणचरियवित्थारे । कहघ ण सलाह णिज्जे ते कइणो जड़िय-रविसेणो । -कुवलयमाला ४. कृतपद्योदयो द्योता प्रत्यहं परिवर्तिता ! मत: काव्यमयी लोकेरवे रिव रवे: प्रिया ।।३४ हरिवंश पुराण १-३४ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ है । रूप सौन्दर्य के चित्रण में कवि ने कमाल कर दिखाया है। ग्रन्थ में चरित के साथ वन, पर्वत, नदियों और ऋतु प्रादि के प्राकृतिक दृश्यों, जन्म विवाहादि सामाजिक उत्सवों, शृंगारादि रसों, हाव-भाव विलासों तथा सम्पत्ति विपत्ति में सुख-दुखों के उतार चढ़ाव का हृदयग्राही चित्रण किया गया है। धार्मिक उपदेशों का यथास्थान वर्णन दिया हुआ है । प्रसंगानुसार अनेक रोचक कथाओं को जोड़कर ग्रन्थ को श्राकर्षक और रुचि पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है । ग्रन्थकर्ता ने प्राणियों के कर्मफलों को दिखलाने में अधिक रस लिया है। क्योंकि उनके सामने नैतिकता का शुष्क आदर्श नहीं था । छन्दों कि दृष्टि से ग्रन्थ में आर्या, वसन्ततिलका, मन्दाक्रान्ता, हुतविलम्बित, रथोद्धता, शिखरिणी, दोधक वंशस्थ, उपजाति, पृथ्वी, उपेन्द्रवज्रा स्रग्धरा, इन्द्रवचा, भुजंगप्रयात, वियोगिनी, पुष्पिताग्रा, तोटक, विद्युन्माला हरिणी, चतुष्पदिका और कार्यगीति आदि छन्दों का उपयोग किया गया है। इस सब विवेचन से पद्मचरित की महत्ता का सहज प्रनुभव हो जाता है । रविषेणाचार्य ने पद्मचरित का निर्माण भगवान महावीर के निर्माण से १२०३ वर्ष छह महीने व्यतीत होने पर वि० सं० ७३४ (सन् ६७७६०) के लगभग किया है। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है। द्विशतान्यधिके समासहस्र समतीतेऽर्धचतुर्थ वर्ययुक्ते । जिन भास्कर वर्द्धमान सिद्धे चरितं पचमुनेरिदं निवचम् ॥११८५ शामकुण्डाचार्य शामकंडाचार्य अपने समय के बड़े विद्वान थे। इन्होंने पद्धति रूप टीका का निर्माण किया था । यह टीका षट्खंदागम के छठवें खण्ड को छोड़कर आदि के पांच खंडों पर तथा दूसरे सिद्धान्तग्रन्थ कषाय प्राभृत पर थी । यह टीका पद्धति रूप थी । वृत्ति सूत्र के विषम पदों के भंजन को विश्लेषणात्मक विवरण को पद्धति कहते हैं- "वित्ति (जय ध० प्रस्ता० सुत्तविसम - - पदभंजियाए विवरणाए पंजियाववएसादो सुत्त वित्ति विवरणाए पढाई व एसादो", पृ० १२ टि०) इससे जान पड़ता है कि शामकुण्डाचार्य के सम्मुख कोई वृद्धि सूत्र रहे हैं। जिनकी उन्होंने पद्धति farari | संभव है कि शामकुण्डाचार्य के समक्ष यतिवृषभाचार्य कृत वृत्ति सूत्र ही रहे हों, जिन पर बारह हजार श्लोक प्रमाण पद्धति रची हो । इन्द्र नन्दि ने श्रुतावतार में उसका उल्लेख किया है : सकता । काले ततः किमपि गते पुनः शामकुण्डसंशेन । प्राचार्येण शास्वा द्विमेव मध्यागमः कारयत् ।। १६२ वावा गुणित सहस्रं ग्रन्थं सिद्धान्तयोरभयो । वष्ठेन विना खण्डेन पृथु महाबन्ध संशेन ।। १६३ शामकुण्डाचार्य का समय संभवतः सातवीं शताब्दी हो, इस विषय में निश्चयतः कुछ नहीं कहा जा बावननन्विमुनि यह तमिल व्याकरणों- तोलकापियम, भगतियम् तथा अविनयम् नामक व्याकरण प्रन्थों के ज्ञाता हो नहीं थे किन्तु संस्कृत व्याकरण जैनेन्द्र में भी प्रवीण थे । इन्होंने शिव गंग नाम के सामन्त के मनुरोध पर 'नन्नू लू' नाम के व्याकरण की रचना की थी। यह ग्रन्थ सबसे अधिक प्रचलित है, इस ग्रंथ पर अनेक टीकाए हैं। उनमें मुख्य टीका मल्लिनाथ की है। यह ग्रंथ स्कूल और कालेजों में पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित है। जैनेन्द्र व्याकरण के ज्ञाता होने के कारण इनका समय पूज्यपाद के बाद होना चाहिये। अर्थात् यह ईसा की सातवीं शताब्दी के विद्वान हैं । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य यह दिवाकर यति के शिष्य थे। पपचरित के कर्ता रविषेण भी इन्हीं की परम्परा में हएरविषेण ने पद्यचरित की रचना वीर नि० संवत १२०३ सन् ६४७ में की है मतः इन्द्र गुरु का समय ईसाकी ७वीं सदीका पूर्वाध होना चाहिये। देवसेन इस नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रथम देवसेन के हैं, जिनका उल्लेख शक सं० ६२२ सन ११ .वि० सं०७५७) के चन्द्रगिरि पर्वत के एक शिलालेख में पाया जाता है। महामनि देबसेन व्रतपाल कर स्वर्गवासी हुए। ... (जैन लेख सं० भा० श्लेस नं. ३२ (११३) बलदेव गुरु मह कित्तर में वेल्लाद के धर्मसेन मुरु के शिष्य थे। इन्होंने सन्यासव्रत का पालन कर शरीर का परित्याग किया था, यह लेख लगभग शक सं०६२२ सन् ७०० का है। मत: इनका समय सातवीं शताब्दीका अन्तिम चरण (जैन लेख सं० भा० १ लेख नं०७ (२४) पृ० ४) उपसेन गुष यह मलनूर के निगुरु के शिष्य थे। इन्होंने एक महीने का सन्यास व्रत लेकर समताभाव से शरीर का परित्याग किया था। लेख का समय शक सं० ६२२ सन् ७०० है। अत: इनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है। (बैन लेख संग्रह मा० १. पृ० ४) पुनतेन भुनि ये प्रगलि के भांति गुरु के शिष्य गुणसेन ने वृताचरण कर स्वर्गवासी हुए। यह लेख शक सं०६२२ सन् ७०० ईस्वी का है। (जेन लेख संग्र० मा १ पृ० ४) नागसेनगुरु यह ऋषभसेन गुरु के शिष्य थे। इन्होंने संन्यास---विधि से शरीर का परित्याग कर देवसोक प्राप्त किया। लेख का समय लगभग शक सं०६२२ सन् ७००है। {जैन लेस सं.भा.१ पृ. ६) सिंहलन्तिगुरु यह वेट्ट ने गुरु के शिष्य थे। इन्होंने भी सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया था। यह लेख भी सक सं०६२२ सन ७०० का उल्कीर्ण किया. सुधा है। पत: सिंहनन्दि गुरु,ईसा की सातवीं शताब्दी के विद्वान है। (जैन लेख सं० भ.१ पृ०.७) ----- -..-.. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ गुणदेव सूरि ये शास्त्र वेदी थे। बड़े तपस्वी और कष्ट सहिष्णु थे । इन्होंने कलवप्प पर्वत के शिखर पर समाधिमरण पूर्वक प्राराधनाओं का माराधन कर वेह त्याग किया था। इनका समय अनुमानतः लगभग शक स० ६२२ सन् (-जैन लेख सं० भा० १ ले. १६० पृ० ३०८) गुण कोतिइन्होंने चन्द्रगिरि पर देहोत्सर्ग किया था। यह शिलालेख शक सं० ६२२ सन् ७०० ई० का है। जन लेख सं भा० १ ले० ३०११०५) पृ. १३ तेल मोलि देवर (तोलामोलित्तेरव) तेल मोलि देवर (तोला मोलि तेरव)- ये तमिल भाषा के कवि थे। इन्होंने 'चूड़ामणि' नाम का एक तमिल जैन ग्रन्थ राजा सेकत (६५०ई०) के राज्य काल में उनके पिता राजा मार वर्मन अवेतीचलमन की स्मति में बनाया था। यह एक लघु काव्य ग्रन्थ है, इसकी रचना शैली 'जीवक चिन्तामणि' के ढग की है। तमिलनाड में पुरातन समय से भावी बातों की सूचना देने वाले ज्योतिषयों की एक जाति रही है, जिसे 'नादन' कहते हैं । इसमें भविष्यवक्ता का प्रभाव, बघू द्वारा वर का चुनाव । युद्ध में वीरों के प्राचरण, बहुविवाह की प्रथा आदि का वर्णन है। इसकी कथा भू-लोक और स्वर्ग लोक दोनों से सम्बन्ध रखती है। प्रभापति राजा की दो पत्नियां थीं, दोनों से उसके दो पुत्र हुए । एक का नाम विजयंत, जो गौर वर्ण था। दूसरे का नाम तिविट्टन था, जो कृष्ण वर्ण था। दोनों बालक अत्यन्त सुन्दर थे। एक दिन भविष्यवक्ता ने आकर कहा कि तिवट्टन का विवाह स्वर्ग लोक की एक अप्सरा से होगा । उसी समय अप्सरात्रों की रानी को भी अपनी कन्या के विवाह के सम्बन्ध में ऐसा ही स्वप्न हुा । अन्त में दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया। इसमें तिविट्टन की कथा पौर अप्सरा की कन्या के साथ विवाह आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। और कथा के अन्त में राजा का राज्य परित्याग कर सन्यासी होने का उन्लेख है। साथ में जैन धर्म के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। कवि का समय भी ६५० ईस्वी है। चन्द्रनन्दि चन्द्रनन्दि:-शिष्य कुमारनन्दि का उल्लेख श्री पुरुष के दान-पत्र में पाया जाता है, जो शक सं०६७८ सन् ७७६ (वि० सं०८३३) का उत्कीर्ण किया हुआ है। और जो श्रीपुर के जिनालय को दिया गया था। इसमें चन्द्रनन्दि का समय ईसा की 5वीं शताब्दी का मध्यकाल सुनिश्चित है। जयवेब पंडिन जयदेव पंडित-मूलसंघाम्बय देवगण शाखा के रामदेवाचार्य के शिष्य थे। इनके शिष्य विजयदेव पंडिताचार्य को शंख वस्ति के धबल जिनालय के लिए शक सं०६५६ (वि० सं० ७६१) में विजय संवत्सर द्वितीय में माघ पूर्णिमा को कुछ भूमि पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय ने दी थी। जैन लेख सं० भा०२ लेख नं०११५ विजयकोति-मुनि यापनीय नन्दिसंघ पुंनागवृक्ष मूलगण के विद्वानों की परम्परा में कूविलाचार्य के शिष्य थे। इनके शिष्य Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य अर्ककीति को शक सं. ७३५ (सन् ११३) में जेठ महीने के शक्ल पक्ष की दशमी चन्द्रवार के दिन शिलाग्राम के जिनेन्द्र भवन को जाल मंगल नाम का गांव सक्त अर्ककीति को दान में दिया गया था । अतः विजयकीर्ति का समय ईसा की ८वीं शताब्दी है। (जैन लेख सं० भा०२ पृ० १३७) विमलचंद्राचार्य मूलसंघ के मन्दिसंघान्वय में एरेगित्त नामक गण में और पुलिकल गच्छ में चन्द्रनन्दि गुरु हए। इनके शिष्य मूनि कुमारनन्दि थे, जो विद्वानों में अग्रणी थे। इन कुमारनन्दि के शिष्य जिनवाणी द्वारा अपनी कोर्ति को अर्जन करने वाले कीर्तिनन्द्याचार्य हुए। कोतिनन्धाचार्य के प्रिय शिष्य बिमल चन्द्राचार्य हए। जो शिष्यजनों के मिथ्याज्ञानान्धकार के विनाश करने के लिए सूर्य के समान थे। महर्षि विमलचन्द्र के धर्मोपदेश से निगुन्द्र युवराज जिनका पहला लाम 'दुण्डु' था और जो बाण कुलके नाशक थे। इनके पुत्र पृथिवी निर्गुन्द्रराज हए । इनका पहला नाम परभगूल था इनकी पत्नी का नाम कुन्दाच्चि था। जो सगर कुलतिलक मरुवर्मा की पुत्री थी, मोर इनकी माता पल्लवाधिराज की प्रिय पुत्री थी जो मरुवर्मा की पत्नी थी। कुन्दाच्चि ने श्रीपुर की उत्तर दिशा में लोकतिलक नाम का जिनमन्दिर बनवाया था। उसकी मरमत नई वृद्धि, देवपूजा और दान धर्म मादि की प्रवृत्ति के लिये पथिवी निर्गुन्द्रराज के कहने से महाराजाधिराज परमेश्वर थी जसहितदेव ने निगुन्द्र देश में आने वाले पोन्नल्लि ग्राम का दान सब करों और बाधाओं से मुक्त करके दिया। लेख में इस गांव की सीमा दी हुई है। चूंकि यह लेख शक सं०६८ सन् ७७६ ई० में उत्कीर्ण किया गया था। अतः विमल चन्द्राचार्य का समय ७७६ ईस्वी है। (जन लेख संग्रह भा०२१० १०६) इस लेख में विमल चन्द्राचार्य की गुरु परम्परा का उल्लेख दिया हुपा है । जिनके नाम ऊपर दिये हए हैं। कीसिनन्दि-यह विमल चन्द्राचार्य के गुरु थे। इनका समय उक्त लेखानुसार सन् ७५६ होना चाहिए। विशेषवादि यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इसी से जिनसेन और वादिराज ने उनका स्मरण किया है। पुन्नाटसंघी जिनसेन ने हरिवंशपुराण में उनका स्मरण निम्न रूप में किया है: योऽशेषोक्ति विशेषेषु विशेषः पद्यगद्ययोः। विशेषवाषिता तस्य विशेषत्रयवादिनः॥३७ जो गद्य पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियों के विषय में विशेष—तिलकरूप हैं, तथा जो विशेषत्रय (ग्रंथ विशेष) का निरूपण करने वाले हैं। ऐसे विशेषवादी कवि का विशेष वादीपना सर्वत्र प्रसिद्ध है। शाकटायन में अपने एक सूत्र में कहा है कि–'उप विशेषवादिनं कवयः' । (१३१०४) सारे कवि विशेष बादि से नीचे हैं। प्राचार्यवादिराज ने भी पार्श्वनाथचरित में उनके 'विशेषाभ्युदय' काव्य की प्रशंसा की है १ जो गद्य पदा मय महाकाव्य के रूप में प्रसिद्ध होगा । शाकटायन यापनीय संघ के विद्वान थे प्रेमीजी ने विशेषवादी को यापनीय लिखा है 1 इनका समय शक सं० ७०५ (वी० सं०८४०) सन् ७८३से पूर्ववर्ती है। संभवतः विशेषवादी पाठवीं शताब्दी के विद्वान हों। १. विशेष वादिगीमुम्फश्रवणासक्तबुद्धयः । अक्लेशादधि गच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ।। -दादिराज पार्श्वनाथ चरित Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ चंद्रसेन यह पंच स्तूपान्वय के विद्वान मुनि थे । यह वीरसेन के दादा गुरु और भार्यनन्दि के गुरु थे। इनका समय ईसा की बीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । १६२ श्रार्यनंदि यह पंच स्तूपान्वय के विद्वान थे और वीरसेन के दीक्षा गुरु थे। और चन्द्रसेन के शिष्य थे । १ इनका समय भी ईसा की वीं शताब्दी होना चाहिए । एलाचार्य एलाचार्य किस अन्वय या गण- गच्छ के विद्वान श्राचार्य थे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता विद्वान थे, मौर महान तपस्वी थे । और चित्रकूटपुर (चित्तौड़) के निवासी थे । इन्हीं से वीरसेन ने सकल सिद्धान्त प्रत्थों का अध्ययन किया था। इसी कारण एलाचार्य वीरसेन के विद्या गुरु थे । वीरसेन ने इनसे पट् खण्डा गम और कसा पाहुड का परिज्ञान कर धवला सौर जय धवला टीकाक्षों का निर्माण किया। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका प्रशस्ति में एलाचार्य का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है :-― जस्स पसाएण मए सिद्धंत मिदं हि श्रहिलयं । महुसो एलाइरियो पसियउ वर वीरसेणस्स ॥ १ ॥ वीरसेनाचार्य ने अपनी धवलाटीका शक सं० ७३८ सन् ८११ में बनाकर समाप्त की । श्रतः इन एलाचार्य का समय सन् ७७५ से ८०० के मध्य होना चाहिए। कुमारनन्दी ये अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण परीक्षा में इनका उल्लेख किया है । तत्वार्थं श्लोक वार्तिक पृ० २८० में कुमारनन्दि के वादन्याय का उल्लेख किया है :कुमारनन्दिनचाहुर्वादिन्याय विचक्षणाः । पत्र परीक्षा के पृष्ठ ३ में 'कुमारनन्दिभट्टारके रपिस्ववादन्याये निगदितत्वात्" लिखकर निम्न कारि का उद्धृत की हैं " प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्ययः । प्रतिज्ञा प्रोच्यते : तयोदाहरणादिकम् ॥१ न चैवं साधनस्यैक लक्षणत्वं विरुध्यते । हेतुलक्षणतापायादन्यांशस्य तथोदितम् ॥२ १. अज्जज्जदि सिम्सेराज्जुब कम्मरस चंदसे रास्स । तह सुवेण पंचस्हृष्यं भागणा मुशिरा || घवला प्रशस्ति २. काले गते कित्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमालाचार्या अभूव सिद्धान्ततत्त्वतः ।। १७७ der समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितम निबन्धनाद्यधिकारातष्ट च लिलेख ||१७८ इन्द्रनन्दि श्रुतावता Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं पाताब्दी तक के आचार्य अन्यथानुपपरोक लक्षणं लिङ्ग मङ्यते। प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपाद्यामुरोषतः॥३ ये कारिकाए' कुमारनन्दि के वादन्याय की हैं। खेद है कि यह ग्रन्थ अप्राप्य है। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कुमारनन्दि का वादन्याय नाम का कोई महत्वपूर्ण तर्क ग्रन्ध प्रसिद्ध रहा है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कुमारनन्दि भट्टारक विद्यानन्द से पूर्ववर्ती है। और पात्रकेसरी से बाद के जान पड़ते हैं क्योंकि वादन्याय के उक्त पद्य में हेतु के अन्यथानुपपत्येक लक्षण का उल्लेख है। गंगवंश के पृथ्वीकोंगणि महाराज के एक दानपत्र में जो शकसं० ६६८ ई० सन् ७७६ में उत्कीर्ण हुमा है, उसमें मूलसंघ के नन्दिसंघस्थित चन्द्र-नन्दि को दिये गए दान का उल्लेख है। उसमें कुमारनन्दि की गुरु परम्परा कलदेव के पास-पास के विद्वान हैं, क्योंकि इनके दादन्याय पर सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण का प्रभाव है। उदयदेव यह मूल संघान्वयी देवगणशाखा के विद्वान थे। इन्हें 'निरवद्य पंडित' भी कहते थे । यह प्राचार्य पूज्यपादके शिष्य थे। इन्हें शक सं० ६५१ सन् ७५६ (वि० सं० ७०६) के फाल्गुन महीने को पूर्णिमा के दिन नेरूरगांव से प्राप्त ताम्रपत्र के अनुसार महाराजाधिराज विजयादित्य ने अपने राज्य के ३४ वे वर्ष में जब कि उसका विजय स्कान्धाबार रक्तपुर नगर में था पुलिकर नगर की दक्षिण सीमा पर बसे हुए कर्दम गांव का दान' अपने पिता के पुरोहित उदयदेव पंडित को, जो पूज्यपादके शिष्य थे, पुलिकर नगर में स्थित शह जिनेन्द्र मन्दिर के हितार्थ दिया था। सिंहातकीति यह कन्द कुन्दान्वय नन्दि संघ के विद्वान थे। जो सिद्धान्तवादी थे मोर दिजनों से वन्धनीय तथा हुम्मच के राजा जिनदत्तराय के गुरु थे। जिनका समय सन् ७३० बतलाया गया है । (जैन लेख सं० भा०३ १०५१) एलवाचार्य कोण्ड कन्दान्वय के भद्रारक कुमारनन्दि के हित थे। इनके शिष्य वर्धमान गुरु थे जिन्हें सन में 'वदणे गुप्पे' ग्राम श्री विजय जिनालय के लिए दिया गया था। अतएव इनका समय भी वही अर्थात सन ..से ५२० तक हो सकता है। १. विद्यनन्द ने इस पद्य को “तथा चाभ्याधायि कुमारनन्दि भट्टारकः" वाक्य के साथ उद्धृत किया है। २. देखो, जैन लेख संग्रह भा० २ लेखन० १२१ १० १०६ ३. “एक पञ्चाशदुत्तर पट्छतेषु शकवस्वातीतेषु प्रवर्तमान विजय-राज्य संवत्सरे चनुस्त्रिशे वर्तमान श्री --रक्तपुरमधिवसति-विजय-स्कन्धावोर फाल्गुनमासे पौणमास्याम्" दिया हुआ है। (-इ.ए. ७ प्र० ११ नं. ३६ द्वितीयमाग ४. श्री कुन्द-कुन्दान्वय-नन्दि-संघे योगीश-राज्येन मला......। जाता महान्तो जित-वादि-पक्षाः चारित्र वेषागुणरत्न भूषाः 1) सिद्धान्तीति जिनदत्तराय प्रणूत पादो जयतीय योमः । सिद्धान्तवादी जिन वादी बन्धः ।। जनलेख सं० भा. ३१.५१५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ३ विजय देव पंडिताचार्य महासेन (सुलोचनाकथा के कर्ता) सर्वनन्दि कविलाचार्य वावीसिंह अकंकीति वीरसेन (धवलाटीका के कर्ता) जयसेन अमितसेन कोतिषण श्रीपालदेव जिनसेनाचार्य (पुन्नाट संधी) जिनसेनाचार्य धारथगुरु गुणभद्राचार्य लोकसेन शाकटायन (पाल्य कीति) उपवित्याचार्य महावीराचार्य अपराजितगुरु श्रीदेव स्वयंमूकवि अभयनन्धि अनन्तवीर्य देवेन्द्रसैद्धान्तिक कलधौत नन्दि सिद्धभूषण सर्वनन्दि हवीं और १०वीं शताब्दी के प्राचार्य गुरुकीतिमुनीश्वर इन्द्रकीति अपराजितसरि (श्री विजय) अमितगति प्रथम विनयसेन अमृतचन्द्र ठाकुर रामसेन इन्द्रनन्दि (ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता) गुरुदास बाहुबलि देव कनकसेन सर्वनन्दि भट्टारक नागवर्म प्रथम नागवर्म द्वितीय आचार्य महासेन पादिपंप कवि पौन्न महाकवि रत्न गुणन्दि यशोदेव नेमिदेवाचार्य महेन्द्र देव सोमदेव त्रैकाल योगीश कधि प्रसग विमलचन्द्र मुनीन्द्र महामुनि घऋग्रीव हेलाचार्य Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्राचार्य विद्यानन्द श्रानन्दी जयकीर्ति बध्नन्वी बन्धुषेण एलाचार्य गुणचन्द्र पंडित अनंत कीर्ति अनन्तकीर्ति नामके अन्य विद्वान मौनिभट्टारक हरिषेण भरतसेन हरिषेण कवि हरिषेण अनन्तवीर्य देवसेन (भट्टारक) बेवसेन तोरणाचार्य देवाचार्य श्रायसेन कुमारसेन कनकसेन अजित सेनाचार्य नागनन्दी जयसेन गोल्लाचार्य अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य इन्द्रनन्दी प्रथम वासवनन्दी रबिन्द्र रामसिंह पद्मकत जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदेव पंडिताचार्य विजयदेव पण्डिताचार्य मूलसंधान्बय देवगण के विद्वान रामदेवाचार्य के प्रशिष्य और जयदेव पंडित के शिष्य थे । इन्हें पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय ने शक सं० ६५६ (वि० सं०७६१) में द्वितीय विजय राज्य संवत्सर में माघ पूर्णिमा के दिन पूलिकनगर के शंखतीर्थवस्ति के तथा धवल जिनालय का जीर्णेद्धार करने और जिनपूजा वृद्धि के लिये दान दिया। देखो, जन लेख सं० भा० २ १० १०४ महासेन-(सुलोचना फया के वर्ता) सुलोचना कथा के कर्ता महासेन का कोई परिचय उपलब्ध नहीं है। और न उनकी पावन कृति सलोचना नाम की कथा ही उपलब्ध है। हरिवंश पुराणकार (शक सं०७०५) ने ग्रन्थ की उत्थानिका में महासेन की सलोचना कथा का उल्लेख किया है, और बतलाया है कि 'शीलरूप प्रलंकार धारण करने वाली, सुनेत्रा और मधुरा वनिता के समान महासेन की सुलोचना-कथा की प्रशंसा कसने नहीं की। महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी। कथा न वणिता केन बनितेव सुलोचना ।। कुवलय माला के कर्ता उद्योतन सूरि (शक सं०७००) ने भी सुलोचना कथा का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है: सणिहिव जिणवरिया धम्मकहावविक्षम रवा। कहिया जेण सु कहिया सुलोयणा समवसरणं व ॥३६ जिसने समवसरण जैसी सुकथिता सुलोचना कथा कही। जिस तरह समवसरण में जिनेन्द्र स्थित रहते है और धर्म कथा सुनकर राजा लोग दीक्षित होते हैं, उसी तरह सुलोचना कथा में भी जिनेन्द्र सन्निहित है और उसमें राजा ने दीक्षा ले ली है। हरिवंश पुराण के कर्ता धवल कवि ने भी सुलोचना कथा का मुणि महसेणु-सुलोयण जेण' वाक्यों के साथ उल्लेख किया है। इन सब उल्लेखों से सुलोचना कथा की महत्ता स्पष्ट है । यह किस भाषा में रची गई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कथा शक सं०७०५ (वि० सं०८३५) से पूर्वरची गई है । उस समय उसका मस्तित्व था, पर बाद में कब विलुप्त हुई, इसका कोई स्पष्ट निर्देश प्राप्त नहीं है। संभव है, यह किसी अन्य भण्डार में हो। सर्वनन्दि सर्वनन्दि भट्टारक शिवनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे। प्रस्तुत सर्वनन्दि देवको शक सं० Eve (८७१ A.D) में पश्चिमी गंगवंशीय सत्य वाक्य कोगुनी वर्मन की पोर से एक दान दिया गया। Ep. c. Coorg Inscriptions (Edi 1914) No. 2 विलियूर का यह शिलालेख (Biliur Stone Inscription) का समय शक सं०८०६ (सन् ८८७) ईस्वी का है । सत्य वाक्य कोगुनी वर्मन (पश्चिमी गंग राचमल प्रथम) ने विलियर के १२ छोटे गांव hamlets शिवनन्दि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि को पेने कडंग ( Pannekadonga) के सिद्धान्त सत्यवाक्य जिन मन्दिर के लिये दिये थे । जैन लेख सं० भा. २ पृ. १५४ कूविलाचार्य मह यापनीय नन्दि संघ पुन्नाग वृक्ष मूलगणशास्त्रा के विद्वान थे। जो व्रत, समिति, गुप्ति में दृढ़ थे और मुनिवृन्दों के द्वारा वंदित थे | इनके शिष्य विजयी थे, और विकदि के शिष्य थे। शक मं० ७२५ सन् ८०३ (वि० सं० ८००) के राजप्रभूत वर्ण ने (गोविन्द तृतीय ने ) जब वे मयूर खण्डी के अपने विजयी विश्राम स्थल में ठहरे हुए थे। चाकिराज की प्रार्थना से 'जालमंगल' नाम का गांव मुनि कीर्ति को शिलाग्राम में स्थित जिनेन्द्र भवन के लिये दिया था । देखो, जैन लेख सं० भा. २ नं० १० २३९ वाह कवि का मूल नाम नहीं है किन्तु एक उपाधि है, जो वादियों के विजेता होने के कारण उन्हें कारण ही उन्हें वादीभ सिंह कहा जाने लगा। मूल नाम कुछ और ही होना चाहिये । वादी सिंह का स्मरण जिनसेनाचार्य ( ई. ८३८) ने अपने आदिपुराण में किया है और उन्हें उत्कृष्ट कोटि का कवि, वाग्मी और गमक बतलाया है यथा प्राप्त हुई थी । उपाधि 1 कवित्वस्य परासीमा वाग्मितस्य परं पदम् । reeteer पर्यन्तो वाविसिहोर्व्यते न केः ॥ पार्श्वनाथ चरित के कर्ता वादिराजसूरि ( ई० १०२५) ने भी वादिसिंह का उल्लेख किया है और उन्हें स्याद्वाद की गर्जना करने वाला तथा दिग्नाग और धर्मकीर्ति के अभिमान को चूर-चूर करने वाला बतलाया है । स्याद्वाव गिरिमाश्रित्य बाविसिहोस्य गजिते । fasनागस्य मदध्वंसे कीर्तिभंगों न दुर्घटः ॥ इन उल्लेखों से वादीभसिंह एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान ज्ञात होते हैं । उनकी स्याद्वादसिद्धि उनके दार्श निक होने को पुष्ट करती है । पर श्रादिपुराणकार ने उन्हें कवि और वाग्मी भी बतलाया है। इससे उनकी कोई काव्य कृति भी होनी चाहिये । गद्य चिन्तामणि के प्रशस्ति पद्य में उन्होंने अपने गुरु का नाम पुष्पसेन बतलाया है, और लिखा है कि उनकी शक्ति से ही मेरे जैसा स्वभाव से मूढ बुद्धि मनुष्य वादीभसिंह, श्रेष्ठ मुनिपने को प्राप्त हो सका । श्री पुष्पसेन मुनि नाय इति प्रतीतो, दिव्यो मनुहं वि सवा मम संविध्यात । छविततः प्रकृति मूक्ष्मतिर्जनोऽपि वदर्भासह मुनिपुङ्गवतामुपैति । महिलषेण प्रशस्ति में मुनि पुष्पसेन को अकलंक का सधर्मा गुरुभाई लिखा है, ' और उसी में वादीभित उपाधि से युक्त एक याचार्य श्रजितसेन का भी उल्लेख किया है । १. श्री पुष्प मुनिरेव पदमहिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान सधर्मा | श्री विभ्रम भवनं पद्ममेव पुष्येषु मिश्रमिह यस्य सहस्रधामा || २. सकलभुवनपालानामूर्भावबद्धस्फुरित मुकुटचूडालीढपादारविन्दः । यदवदखिलवादी भेन्द्रकुम्भप्रभेदी गणभूद्रजितसेनो भातिवादीभसिंह, ।। - मल्लिदेश प्रशस्ति -- शिलालेख ५४, पद्य ५७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दहावी पानाब्दी के आचार्य गद्य चिन्तामणि के अन्तिम दो पद्यों से स्पष्ट है कि उसका नाम प्रोडयदेव था और वे वादी रूपी हाधियों को जीतने के लिये सिंह के समान थे। उनके द्वारा रचा गया गद्य चिन्तामणि ग्रन्थ सभा का भूषण स्वरूप था। प्रोडय देव वादीभसिंह पद के धारक थे। यद्यपि वादोभसिंह के जन्म स्थान का कोई उल्लेख नहीं मिलता तो भी प्रोष्डय देव नाम से पं० के० भुजबली शास्त्री ने अनुमान लगाया है कि वे उन्हें तमिल प्रदेश के निवासी थे और बी. शेषगिरिराव एम.ए. ने कलिंग के गंजाम जिले के ग्रास-पासका निवासी होना सूचित किया है। गंजाम जिला मद्रास के एकरम उसर में है जिसे अब उड़ीसा में जोड़ दिया गया है। वहां राज्य के सरदारों को ओडेय और गोडेय नाम की दो जातियां हैं, जिनमें पारस्परिक सम्बन्ध भी है। अतएव उनकी राय में वादीभसिंह जन्मतः प्रोडेय या उड़िया सरदार होंगे। समय चूंकि मल्लिषेण प्रशस्ति में मुनि पुष्पसेन को प्रकलंक का सघर्मा लिखा है, और वादीभसिंह ने उन्हें अपना गुरु बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वादीभसिंह अकलंक के उत्तरवतीविद्वान हैं। प्रकलंक के न्याय विनिश्चयादि ग्रन्थों का भी स्याद्वादसिद्धि पर प्रभाव है। अतएव उन्हें अकलंक देव के उत्तरवती मानने में कोई हानि नहीं है। गद्य चिन्तामणि की प्रस्तावना में पं० पन्नालाल जी ने लिखा है कि गद्य चिन्तामणि के कुछ स्थल वाणभद्र के हर्ष चरित के वर्णन के अनुरूप है। वादीमसिंह की गद्य चिन्तामणि में जीवंघर के विद्यागुरु द्वारा जो उपदेश दिया गया, वह बाण की कादम्बरी के शुकनासोपेदेश से प्रभावित है-इससे बादीभसिंह बाणभट्ट के उत्तर वती हैं। ___ स्याद्वाद सिद्धि के छठे प्रकरण की ११ वीं कारिका में भट्ट और प्रभाकर का उल्लेख है और उनके अभि मत भावना नियोग रूप वेद वाक्यार्थ का निर्देश किया गया है। वादी सिंह ने कुमारिल्ल के श्लोक वातिक से कई कारिकाएं उद्धृत कर उनकी आलोचना की है। उनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी माना जाता है। इससे वादीभसिंह का समय ईसा की ८ वीं शताब्दी का अन्त और वीं का पूर्वार्ध जान पड़ना है। इस समय के मानने में कोई बाधा नहीं पाती। विशेष के लिये स्याद्वादसिद्धि की प्रस्तावना देखनी चाहिये। रचनाएं वादीसिंहगो समय के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान प्राचार्य थे। उनके कवित्व और गमकत्वादिको प्रशंसा भागवज्जिन सेन ने की है। वादीभसिंह उनकी उपाधि थी, वे ताकिक विद्वान थे। उनकी तीन रचनाएं प्रसिद्ध हैस्याद्वादसिद्धि, क्षत्रचूड़ामणि और गद्य चिन्तामणि । स्थाद्वाव सिद्धि-यद्यपि यह ग्रन्थ अपूर्ण है फिर भी ग्रन्थ में १४ अधिकारों द्वारा अनुष्टुप छन्दों में प्रतिपाद्य विषय का अच्छा निरूपण किया गया है ।--जीवसिद्धि, फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि, युगपदनेकान्त सिद्धि श्रमानेकान्त सिद्धि, मोक्तुत्वाभावसिद्धि, सर्वज्ञाभावसिद्धि, जगत्कर्तृत्वाभावसिद्धि, अर्हत्सर्वज्ञ सिद्धि, अर्थापत्ति प्रामाण्य सिद्धि, वेद पीरुषेयत्वसिद्धि, परतः प्रामाण्य सिद्धि, प्रभाव प्रमाणदूषणसिद्धि, तर्क प्रामाण्य सिद्धि, और गुणगणी अभेदसिद्धि। इनके बाद अन्तिम प्रकरण की साड़े छह कारिकाएँ पाई जाती हैं। इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि ग्रन्थ अपूर्ण है। इस प्रकरण की अपूर्णता के कारण कोई पुष्पिका वाक्य भी उपलब्ध नहीं होता। जैसा कि अन्य प्रकरणों में पुष्पिका वाक्य उपलब्ध हैं यथा-"इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरि विरचितायां स्याद्वाद सिद्धो चार्वाकं प्रति जीव सिद्धिः ।" क्षत्रचूडामणि-यह उच्च कोटि का नीति काव्य ग्रन्थ है । भारतीय काव्य साहित्य में इस प्रकार का महत्व १. जैन साहित्य और इतिहास दूसरासं० पृ० ३२४ । २. देखो, स्यावाद सिद्धिकी प्रस्तावना पृ० १९-२० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पूर्ण नीति काव्य ग्रन्थ ग्रन्यत्र देखने में नहीं आया । इसको सरस सूक्तियां और उपदेश हृदय स्पर्शी हैं। यह पद्यात्मक सुन्दर रचना है । इसमें महाकवि वादी सिंह ने क्षत्रियों के चूड़ामणि महाराज जीवंधर के पावन चरित्र का अत्यन्त रोचक ढंग से वर्णन किया है। कुमार जीवंधर भगवान महावीर के समकालीन थे। उन्होंने शत्रु से अपने पिता का राज्य वापिस ले लिया और उसका उचित रीति से पालन कर अन्त में संसार के देह, भोगों से विरक्त हो भगवान महावीर के सम्मुख दौक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा आत्म-शुद्धि कर अविनाशी पद प्राप्त किया। ग्रंथ का कथानक आकर्षक और भाषा सरल संस्कृत है । ग्रन्थ प्रकाशित है । गद्य चिन्तामणि- क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि का कथानक एक और कथा नायक पात्र भी वहीं है । सर्ग या लम्ब भी दोनों के ग्यारह ग्यारह हैं। घटना सादृश्य भी दोनों का मिलता-जुलता है। गद्यचिन्तामणि गद्यकाव्य है । भाषा प्रौढ़ और कठिन है। इसके काव्य पथ में पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों की रचना, सरल कथासार, चित्ताकर्षक विस्मयकारी कल्पनाएं। हृदय में प्रसन्नोत्पादिक धर्मोपदेश, धर्मसे श्रविरुद्ध नीतियां एवं रस और अलंकारों की पुटने उसमें चार चांद लगा दिये हैं। प्रकृति वर्णन सरस और सुन्दर है । कथानक में सादृश्य होते हुए भी पाठक को वह नवीन सा लगता है और कवि की अद्भुत कल्पनाएं पाठक के चित्त में विस्मय उत्पन्न कर देती हैं। गद्यकाव्यों की श्रृंखला में गद्यचिन्तामणि का महत्व पूर्ण स्थान है । अर्ककीर्ति यह यापनीय नन्दिसंघ पुनांग वृक्ष मूलगण के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम विजय कीति और प्रगुरु का नाम कू बिलाचार्य था जो व्रत समिति गुप्ति गुप्त मुनि वृन्दों से वंदित थे, और श्री कीर्त्याचार्य के प्रन्वय में हुए थे । वर्ष (प्रथम) के पिता प्रभूत वर्ष या गोविन्द तृतीय का जो दान पत्र कडंब (मैसूर) में मिला है, वह शक सं० ७३५ सन् ८१२ का है। जिसमें शक संवत ७३५ व्यतीत हो जाने पर ज्येष्ठ शुक्ला दशमी पुष्य नक्षत्र चन्द्रवार के दिन अकीर्ति मुनि के लिये जालमंगल नाम का एक ग्राम मान्यपुर ग्राम के शिलाग्राम नाम के जिनेन्द्र भवन के लिये दान में दिया था। क्योंकि मुनि प्रकीर्ति ने जिले के शासक विमलादित्य को शनैश्चर की पीड़ा से उन्मुक्त किया था । (जेन लेख सं० भाग २ पू० १३७ ) वीरसेन बीरसेन -- मूल संघ के 'पंचस्तूपान्वय' के विद्वान थे । यह पंचस्तूपान्वय बाद में सेनान्वय या सेन- संघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । वीरसेन ने अपने वंश को 'पंचस्तूपान्वय' ही लिखा है । माचार्य वीरसेन चन्द्रसेन के प्रशिष्य और प्रार्यनन्दी के शिष्य थे । उनके विद्या गुरु एलाचार्य और दीक्षा गुरु आर्यनन्दी थे। काचार्यवीरसेन १. अज्जज्जदि सिरसेणु ज्जुब - कम्मस्स चंदमेणस्य । तह तुबेरा पंचत्थूणयं भारषरमा मुरिगणा ॥ ४ यस्तपदीप्त किरणव्याम्भोजानि वोषयन् । अद्योतिष्ठ सुनीनः पञ्चस्तूपाच्याम्बरे । २० प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योऽप्यायनन्दिनाम् । कुलं गणं च सन्तानं स्वगुरुदजिज्वलत् ॥ २१ -धवला प्रशस्ति — जय धवला प्रशस्ति २ पंचस्पा की दिगम्बर परम्परा बहुत प्राचीन है। आचार्य हरिषेण कथाकोश में बंर मुनि के कथा के निम्न पद्म में मथुरा में पंचस्तूपों के बनाने जाने का उल्लेख किया है महाराजन निर्माणन् खचितान् मणिनाम् कः । पाधिमा समुच्चजिन वेश्मनाम् ॥ आचार्य वीरसेन ने धमला टीका में और उनके प्रधान शिष्य जिनसेन ने जयघवला टीका प्रशस्ति में पंचस्तूपान्वय के Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य ने अपने को गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण मोर प्रमाण शास्त्रों में निपुण, तथा सिद्धान्त एवं छन्द शास्त्र का ज्ञाता बतलाया है । प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें वादि मुख्य, लोकवित, बाग्मी, और कवि' के अतिरिक्त श्रुतकेवली के तुल्य बतलाया है और लिखा है कि --'उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देख कर बुद्धिमानों को सर्वज्ञ को सत्ता में कोई शंका न ही रही थी। सिद्धान्त का उन्हें तलस्पर्शी पाण्डित्य प्राप्त था । सिद्धान्त-समुद्र के जल में धोई हई अपनी शुद्ध बुद्धि से वे प्रत्येक बुद्धों के साथ स्पर्धा करते थे। पून्नाट संघीय जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती और निर्दोष कीति वाला बतलाया है ५ । जिनसेन के शिष्य गुणभद्रने तमाम वादियों को प्रस्त करने वाला और उनके शरीर को ज्ञान और चारित्र की सामग्री से बना हुया कह है। इससे स्पष्ट है कि वीरसेन अपने समय के महान विद्वान थे । उन्होंने चित्रकूट में जाकर एलाचार्य से सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। पश्चात् वे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर वाट पाम आये, और वहां मानतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में टहरे वहां उन्हें बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम की टीका प्राप्त हुई । इस टीका के अध्ययन से वीरसेन ने यह अनुभव किया कि इसमें सिद्धान्त के अनेक विषयों का विवेचन स्खलित है--छूट गया है और अनेक स्थलों पर सैद्धान्तिक विषयों का स्फोटन अपेक्षित है। छठे खण्ड पर कोई टीका नहीं लिखी गई । अतएव एक वृहत्टीका के निर्माण की प्रावश्यकता है । ऐसा विचार कर उन्होंने धवला और जय धवला टीका लिखो। दला दीना-गह पद प्रादागम नेमाटा पांच खण्डों की सबसे महत्वपूर्ण टीका है । टीका प्रमेय बहुल है। टोका होने पर भी यह एक स्वतत्र सिद्धान्त ग्रंथ है इसमें टीका की शैलीगत विशेषताएं है हो, पर विषय विवेचन ----------- . :-.--- .-. . .चन्द्रसेन और आर्यनन्दी नाम के दो आचार्यों का नामोल्लेख किया है, जो आचार्य वीरसेन के गुरु-गुरु थे। इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि पंचस्तूपान्वय की परम्परा उस समय चल रही थी, और वह बहुत प्राचीन काल से प्रसार में आ रही थी। पंचस्तूपान्वय के संस्थापक अहंदवली थे, जिन्होंने युग प्रतिक्रमणों के समय पण नदी के किनारे विविधि संघों की स्थापना की थी। पंचस्तप णि काय के आचार्य गुहनन्दी का उल्लेख पहाड़पुर के ताम्रपत्र में पाया जाता है। जिसमें गुप्त संवत् १५६ सन् ४५८ में नाथ शर्मा ब्राह्मण के द्वारा गुहनन्दी के बिहार में अर्हन्तों की पूजा के लिए ग्रामों और अशफियों के देने का उल्लेख है । (एमिग्राफिया इंडिका ना २० पेज ५१) १. सिद्धान्त-छंद-जोइसु वायरण-प्रमाण सस्थणिउएण । -धवला प्रशस्ति २. लोकवित्वं कवित्व प स्थितं भट्टारके द्वयं । वारिमता वाग्मिनो यस्य बाचा वाचस्पत्तेरपि ॥ ५६ ---मादि पुराण ३. यस्य नैसर्गिककी प्रज्ञा पुष्टवा सर्वागामिनी । जाताः सर्वज्ञसम्दावे निरारेका मनीषिणः ।। --जय धवला प्र०२१ ४. प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तबाधिवाषर्षातशुद्धधीः । साई प्रत्येक बुखमः स्पर्धते घोदबुद्धिभिः ।। जयथ० प्र० २३ ५. जितात्मपरलोकस्य कबीनां चकबतिनः। वीरसेन गुरुः कीतिरकलका बभासते || ३९ हरिवंश प. ६. तत्रवित्रासित्ता शेष प्रवादि मदवारणः । वीरसेनाग्रणी घोरसेन भट्टारको बभौ ॥ ३ ज्ञानचारित्र सामग्री ममहीदिविग्रहम् ।। ४ ।। उत्तर पुराण प्र० ७. आगत्य चित्रकूटाप्ततः सभगवान्गुरोरनुज्ञानात् । वाटपामे चात्राऽनतेन्द्र कुत जिनगहे स्थिरवा ।। १७६ (इन्दनन्दि श्रुता .) ... -..- -- - - - - .. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग की दृष्टि से यह टीका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें वस्तुतत्त्व का ममं प्रश्नोत्तरां के साथ उद्घाटित किया गया है। और अनेक प्रचीन उद्धरणों द्वारा उसे पुष्ट किया गया है। जिससे पाठक षट् खण्डागम के रहस्य से सहज ही परिचित हो जाते हैं। आचार्य वीरसेन ने इस टीका में अनेक सांस्कृतिक उपकरणों का समावेश किया है। निमित्त, ज्योतिष और न्याय शास्त्र की अगणित सूक्ष्म बातों का यथा स्थान कथन किया है। टीका में दक्षिण प्रतिपति श्रीर उत्तर प्रतिपत्ति रूप दो मान्यताओं का भी उल्लेख किया है। टीका की प्राकृत भाषा प्रौढ़, मुहावरेदार और विषय के अनुसार संस्कृत की तर्क शैली से प्रभावित है । प्राकृत गद्य का निखरा हुम्रा स्वच्छ रूप वर्तमान है। सन्धि और समास का यथा स्थान प्रयोग हुआ है और दार्शनिक शैली में गम्भीर विषयों को प्रस्तुत किया गया है। टीका में केवल षट्खण्डागम के सूत्रों का ही नर्म उद्घाटित नहीं किया, किन्तु कर्म सिद्धान्त का भी विस्तृत विवेचन किया गया है । पौर प्रसंगवश दर्शन शास्त्र की मौलिक मान्यताओं का भी समावेश निहित है । लोक के स्वरूप विवेचन में नये दृष्टिकोण को स्थापित किया है। अपने समय तक प्रचलित वर्तुलाकार लोक की प्रमाण प्ररूपणा करके उस मान्यता का खण्डन किया है; क्योंकि इस प्रक्रिया से सात राजू घन प्रमाणक्षेत्र प्राप्त नहीं होता तब उसे भायतचतुरस्त्राकार होने की स्थापना को है और स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्यवेदिका से परे भी असंख्यात योजन विस्तृत पृथ्वी का अस्तित्व सिद्ध किया है। सम्यक्त्व के स्वरूप का विशेष विवेचन किया गया है। सम्यक्त्वोन्मुख जीव के परिणामों की बढ़ती हुई विशुद्धि और उसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद, सत्वविच्छेद मोर उदय विच्छेद का कथन किया है। और जीव के सम्यक्त्वोन्मुख होने पर बंधयोग्य कर्म प्रकृतियों का निरूपण किया है । प्राचार्य वीरसेन गणित शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। इसीलिए उन्होंने वृत्त, व्यास, परिधि, सूचीव्यास, धन, श्रर्द्धच्छेद घातांक, वलय व्यास घोर चाप आदि गणित की अनेक प्रक्रियाओं का महत्वपूर्व विवेचन किया है। गणित शास्त्र की दृष्टि से यह टोका बड़ों महत्वपूर्ण है । उन्होंने ज्योतिष र निमित्त सम्बन्धा प्राचीन मान्यताओं का स्पष्ट विवेचन किया है। इसके प्रतिरिक्त नक्षत्रों के नाम, गुण, भाव, ऋतु, प्रयन ओर पक्ष आदि का विवेचन भो अ ंकित है। नय, निपेक्ष, और प्रमाण आदि की परिभाषाएं तथा दर्शन के सिद्धान्तों का विभिन्न दृष्टियों से कथन किया है। टीका में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का भी उल्लेख किया गया है। और अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरणों से टीका को पुष्ट किया गया है। इससे आचर्य वोरसेन के बहुश्रुत विद्वान होने के प्रमाण मिलते हैं। सिद्धपद्धति टीका-भाचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण की प्रशस्ति में इस टीका का उल्लेख किया है और बतलाया है कि सिद्धभूपद्धति ग्रन्थ पद-पद पर विषम था, वह वोरसेन को टोका से भिक्षुग्रों के लिये अत्यन्त सुगम हो गया ।" यह ग्रन्थ मप्राप्य है । वीरसेन के जिनसेन के अतिरिक्त दशरथ और विनयसेन दो शिष्य और थे। और भी शिष्य होंगे, पर उनका परिचय या उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । वीरसेन ने जयधवला टीका कषाय प्राभूत के प्रथम स्कन्ध को चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोक प्रमाण बनाई थी। उसी समय उनका स्वर्गवास हो गया । और उसका अवशिष्ट भाग उनके शिष्य जिनसेन ने पूरा किया। रचना काल माघार्य वीरसेन ने अपनी यह धवला टीका विक्रमांक शक ७३८ कार्तिक शुक्ला १३ सन् ८१६ बुधवार के दिन प्रातः काल में समाप्त की थी। उस समय जगतुंगदेव राज्य से रिक्त हो गये थे, और अमोघवर्ष प्रथम राज्य १. सिद्धभूपतिर्यस्य टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः । टोक्यते हेलयान्येषां विषमापि पदे पदे ।। - उत्तरपुराण प्रश० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य सिंहासन पर मारूढ हो राज्य संचालन कर रहे थे । जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है अठतीसम्हि सतसए क्किम रायंकिए मु-सगणामे । वासे सुतेरसीए भाणु बिलागे धवल पक्खे ॥ ६॥ जगदेव-रज्जे रियम्हि कुंभ म्हि राहणा करणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुल बिल्लए होते।। ७ ।। पावम्हि तरणिषुत्ते सिधे सुक्काम्म मीणे चंबम्मि । कत्तिय मासे एसा टीका हु समाणि या धवला ॥८॥ जयसेन जयसेन-बड़े तपस्वी, प्रशान्तमूर्ति, शास्त्रज्ञ और पण्डित जनों में अग्रणी थे । हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संघी जिनसेन ने शत वर्ष जीवी अमितसेन के गुरु जयसेन का उल्लेखकिया है और उन्हें सद्गुरु, इन्द्रिय व्यापार विजयी, कर्मप्रकृतिरूप आगम के धारक, प्रसिद्ध वयाकरण, प्रभावशालो और सम्पूर्ण शास्त्र समुद्र के पारगामी बतलाया है २ जिससे वे महान योगी, तपस्वी और प्रभावशाली याचार्य जान पड़ते हैं। साथ ही कर्मप्रकृतिरूप आगमके धारक होने के कारण सम्भवत: बे किसी कर्मग्रन्थ के प्रणेता भी रहे हों तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं है। परन्तु उनके द्वारा किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई प्रामाणिक उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। इन उभय जिन सेनों द्वारा स्मृत प्रस्तुत जयसेन एकही व्यक्ति जान पड़ते हैं । हरिवंश पुराण के कर्ता ने जो अपनी गुरु परम्परा दी है उससे स्पष्ट है कि उनके शतवर्ष जीवी अमितसेन ३ और शिष्य कोतिषण का समय यदि २५–२५ वर्ष का मान लिया जाय जो बहुत ही कम है और हरिवंश के रचनाकाल शक सं०७०५ (वि. सं.60) से कम किया जाय तो शक सं. ६५५ विः सं० ७६० के लगभग जयसेन का समय हो सकता है । अर्थात् जयसेन विक्रमी की आठवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य थे। अमितसेन अमितसेन-पुन्नाट संघ के अग्रणी प्राचार्य थे। यह कर्मप्रकृति श्रुति के धारक इन्द्रिय जयो जयसेनाचार्य के शिष्य थे। प्रसिद्ध वैयाकरण और प्रभाव शाली विद्वान थे। समस्त सिद्धान्तरूपी सागर के पारगामो ये । जैन शासन से बात्सल्य रखने वाले, परम तपस्वी थे। उन्होंने शास्त्र दान द्वारा पृथ्वी में वदान्यता-दानशीलता -प्रकट की थी। वे शतवर्ष जीवी थे। इन्होंने जैन शासन की बड़ी सेवा की थी। इस परिचय पर से उनकी महत्ता का सहजही बोध हो जाता है। जैसा कि हरिबंश पुराण के निम्न पद्यों से प्रकट है: "प्रसिद्धयाकरणप्रभाववानशेषरावान्तसमुद्रपारगः ॥३० तबीय शिष्यो ऽमितसेन सदगुरः पवित्र पुन्नाट गणाग्रणी गणी। जिनेन्द्र सच्छासनवत्सलात्मना तपोभूता वर्षशताधि जीविना ।। ३१ सुशास्त्र वानेन बचान्यतामना वदान्य मूख्येन भुधिप्रकाशिता।" ऐसा जान पड़ता है कि संभवत: पुन्नाट देश के कारण इनका संघ भी पुन्नाट नाम से प्रसिद्ध हया है। यह उस संघ के विशिष्ट विद्वान थे । और वे अपने संघ के साथ आये हों। संभवतः जिनसेन उनसे परिचित हों, इसी १. जन्मभूमि स्तपो लक्ष्म्याः श्रुतप्रपामयोनिधिः । जयसेन गुरुः पातु बुधबन्दाप्रपी: सनः ।। आदिपुराण १,५६ २. दधार कर्म प्रकृति र श्रुति व यो जिताक्षवृत्तिर्जयसेन सद्गुरुः । प्रसिद्धबयाकरणप्रभाववानशेषगद्धान्तसमुद्रपारगः ।। ३० ३. तदीय शिष्यो ऽमितमेन सद्गुरुः पवित्र पुत्लाद गणागी गणी। जिनेन्द्रसमद्रासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्ष शताधिजीविना ॥ ३१-हरिबंशपण Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ से वे उनका उक्त परिचय दे सके हैं। वे जिनसेन से संभवतः ३०-४० वर्ष ज्येष्ठ रहे हों। इनका समय विक्रम की ८वीं शताब्दी का उपान्त्यभाग, तथा हवीं का पूर्वाधं होना चाहिए। क्योंकि कीर्तिपेण के शिष्य जिनसेन ने अपना हरिवंश पुराण शक सं०७०५ (वि.सं.८४० में समाप्त किया था। चूंकि अमितसेन और कोतिषण दोनों ही जयसेनाचार्य के शिष्य थे। कोतिषण कोतिषण-यह पुन्नाट संघ के प्राचार्य जयसेन के शिष्य थे। और शतवर्ष जीवो अमितसेन गरु के ज्येष्ठ गुरुभाई थे। और महान तपस्वी और विद्वान थे। शान्त परिणामी थे। उग्र तपश्चरण से सब दिशाओं में इनकी कोति विश्रुत हो गई थी। इन्हीं के शिष्य हरिवंश पुराण के कर्ता जिनसेन थे। जिनसेनाचार्य ने अपना हरिवंश पुराण शक सं०७०५ (वि.सं.८४०) में समाप्त किया था। इनके समय की अवधि २०वर्ष को मान लें, तो इनका समय विक्रम की हवीं शताब्दीका पूर्वाध होगा श्रीपाल देव यह पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के शिष्य थे। बड़े भारी सैद्धान्तिक विद्वान थे। जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में श्रीपाल का स्मरण किया है साथ में भट्टाकलंक और पात्रकेसरी का। जिनसेन ने अपनी जयधवला टीका दही श्रीपाल द्वारा संपादित अथवा पोषक बतलाया है। इनका समय विक्रम की वो शताब्दी है। पयसेन और देवसेन भी इन्हीं के समय कालीन थे। ___ जिनसेनाचार्य (पुन्नासंघो) जिनसेना-प्रस्तुत पुन्नाट संघ के विद्वान प्राचार्य थे। इनके दादागुरु का नाम, जयसेन था, जो पखण्ड मर्यादा के धारक, षद खण्डागमरून सिद्धान्त के ज्ञाता, कर्म प्रकृति रूप अति के धारक, इन्द्रियों को वत्ति को जीतने वाले जयसेन गुरु थे। इनके शिष्य अमितसेन गुरु थे। जो प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशालो समस्त सिद्धान्त रूपी सागर के पारगामी, पुन्नाटगण के अग्रणी आचार्य थे। और जिनशासन के स्नेही, परमतपस्वी, तथा शतवर्ष जीवी थे। और शास्त्र दान द्वारा जिन्होंने पृथ्वी में वदान्यता-दानशीलता--प्रकट की थी। इनके अग्रज धर्म बन्ध 'कोतिषण मुनि थे। जो बहुत ही शान्त और बुद्धिमान थे। और जो अपनी तपोमयी कीति को समस्त दिशामों में प्रसारित कर रहे थे । इन्हीं कोतिषण के शिष्य प्रस्तुत जिनसेन थे । जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है : "पखण्ड षट्खण्डमखण्डत स्थितिः समस्तसिद्धान्तमधत्तयोऽयं तः ।।२६ दधार कर्म प्रकृति च श्रुति च यो जिताक्षवृत्तिजयसेनसद्गुरुः । प्रसिद्ध याकरणप्रभाववानशेषशद्धान्तसमुद्रपारगः ॥३० तबीय शिष्यो ऽमितसेन सद्गुरुः पवित्र पुम्नाटगणापणी गणी। जिनेन्द्र सच्छासन वस्सलात्मना तपोभूता वर्षशताधि जीविना ॥३१ सुशास्त्र बानेन बदाम्यतामुना क्वात्यमत्येन भुवि प्रकाशिता । यवनजो धर्मसहोदरः शमी समग्रधीधर्म इवात्तविग्रहः ।। ३२ तपोमयों कीतिमशेष दिस यः क्षिपन् बभौ कीर्तित कोतिषणकः । तस्मशिष्येण शिवाप्रसौख्यभागरिष्टनेमोश्चरभक्तिभाविना ॥ स्वशक्ति भाजा जिनसेनसूरिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः ॥३३॥ पून्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। हरिषेण कथा कोश में लिखा है कि--भद्रबाहु स्वामो के निर्देशानसार १. तपोमयीं कीतिमशेषविक्षु यः क्षिपन्यमो कीर्तित कीतिषणकः । -हरिवंश० प्र० २. टीका श्री जय चिन्हितो ऽरुधवला सूत्रार्थ संद्योतिनी। स्थेया दारविचन्द्र मुज्ज्वलतपः श्रीपालसंपालिता ।। -जयधवल । पृ०४३ गुरु थ । जो प्रसिद्ध वैयाकरण शन्द्रयों को वृत्ति सा सागर के पारगामी, पुन्नाटगण के Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्थं १७४ उनका समस्त संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के नेतृत्व में दक्षिणापथ के पुन्नाट देश में गया ।' प्रतएव दक्षिणापथ का यह पुनाट कर्णाटक ही है । कन्नड़ साहित्य में भी पुन्नाद राज्य के उल्लेख मिलते हैं। भूगोलवेत्ता टालेमी ने 'पोट' नाम से इसका उल्लेख किया है । इस देश के मुनि संघ का नाम 'पुन्नाट' संघ था । संघों के नाम प्रायः देशों और अन्य स्थानों के नामों से पड़े हैं 1 श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १६४ में, जो शक संवत ६२२ के लगभग का है एक 'कित्तूर' नाम के संघका उल्लेख है । कित्तूर पुन्नाट की राजधानी थी, जो इस समय मंसूर के 'हैग्गडे वन्कोटे ताल्लुके में हैं । जिनसेनाचार्य की एक मात्रकृति 'हरिवंश पुराण है। इसमें हरिवंश की एक शाखा यादव कुल और उसमें उत्पन्न हुए दो शलाका पुरुषों का चरित्र विशेष रूप से वर्णित है। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और दूसरे नव नारायण श्रीकृष्ण का ये दोनों परस्पर में चचेरे भाई थे। जिनमें से एक ने अपने विवाह के अवसर पर पशुओं की रक्षाका निमित्त पाकर सन्यास ले लिया था । और दूसरे में कौरवपाल कोश दिखलाया । एक ने प्राध्यात्मिक उत्क का प्रदर्श उपस्थित किया तो दूसरे ने भौतिक लीला का दृश्य । एक ने निवृत्ति परायण मार्ग को प्रशस्त किया तो दूसरे ने प्रवृत्ति को प्रश्रय दिया । इस तरह हरिवंशपुराण में महा भारत का कथानक सम्मिलित पाया जाता है । ग्रन्थका कथाभाग श्रत्यन्त रोचक है। भगवान नेमिनाथ के वैराग्य का वर्णन पढ़कर प्रत्येक मानवका हृदय सांसारिक मोह-ममता से विमुख हो जाता है। और राजुल या राजीमती के परित्याग पर पाठकों के नेत्रों से जहां सहानुभूति की अश्रुधारा प्रवाहित होती है वहां उसके आदर्श सतीत्व पर जन मानस में उसके प्रति अगाष श्रद्धा उत्पन्न होती है । आचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ के छयासठ सर्गो में नेमिनाथ और कृष्ण के चरित के साथ प्रसंगवश धार्मिक सिद्धान्तों का सुन्दर वर्णन किया है। लोक का वर्णन मीर शलाका पुरुषों का चरित प्राचार्य यतिवृषम की तिलोय पणती से अनुप्राणित है । प्रसंगवंश कवि ने महाकाव्यों के विषय वर्णनानुसार ग्राम, नगर, देश, पत्तन, खेट, मंटब पर्वत, नदी अरण्य आदि के कथन के साथ शृंगारादि रसों और उपमादि अलकारों, ऋतु व्यावर्णनों, और सुन्दर सुभाषितों से भूषित किया है। रचना प्रौढ़, भाषा प्रांजल और प्रसादादि गुणों से अलंकृत है। ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के आदि में अपने से पूर्ववर्ती अनेक विद्वानों का स्मरण किया है। कुछ विद्वानों की रचनाओं का भी उल्लेख किया है। जिन विद्वानों का स्मरण किया है उनके नाम इस प्रकार है: (१) समन्तभद्र (२) सिद्धसेन (३) देवनन्दी, (४) वज्रसूरि (५) महासेन ( ६ ) रविषेण ( ७ ) जटासिंह नन्दि, (८) शान्तिषेण, (६) विशेषवादि (१०) कुमारसेन (११) वीरसेन, और १२ जिनसेन इन सब विद्वानों क परिचय यथास्थान दिया गया है, पाठक वहां देखें । इसी कारण उसे यहाँ नहीं लिखा । ग्रन्थकर्ता की प्रविच्छिन्न गुरुपरम्परा हरिवंश पुराण के अन्तिम छयासठवें सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की वही प्राचायं परम्परा दी है जो तिलोय पण्णत्ती घवला जयववला और श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में मिलती है । ६२ वर्ष में तीन केवली गौतम गणधर, सुधर्म स्वामी और जम्बू, १०० वर्ष में पांच श्रुत केवली - विष्णु ( नदि), नन्दि मित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु, १८३ वर्ष में ग्यारह अंग दश पूर्व के पाठी- विशाल, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, सिद्धार्थ सेन, घृतिसेन, विजयसेन, बुद्धिल्ल गंगदेव, धर्मसेन – २२० वर्ष में पांच ग्यारह अंगधारी - नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, और फिर ११८ वर्ष में- सुभद्र जयभद्र, यशोबाहु और लोहाचायें ये चार प्राचारांगधारी हुए। वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष बाद तक की श्रुताचार्य परम्परा के बाद निम्न परम्परा चलीविनयधर, तिगुप्त ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, (जिन्होंने अपने गुणों से यहंलि पद प्राप्त किया), मन्दराये १. अनेन सह संचो ऽपि समस्तो गुरु वाक्यः । दक्षिणापथ देशस्थ पुन्नाट विषयं ययौ । हरिषेण कथा कोश Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनधर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ मित्रवीर्य, बलदेव, बलमित्र, सिंहवल, वीरवित, पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपमेन धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन, नन्दिषेण, प्रभयसेन सिद्धसेन अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन शान्तिषेण, जयसेन, अमितसेन (पुन्नाट गण के अगुवा और शतवर्ष जीवी) इनके बड़े गुरुभाई कीर्तिषेण, और उनके शिष्य जिनसेन थे । ग्रन्थ का रचना स्थल हरिवंश पुराण की रचना का प्रारम्भ वर्द्धमानपुर में हुआ और समाप्ति दोस्तटिका के शान्तिनाथ जिनालय में हुई। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का 'वढवाण' जान पड़ता है। क्योंकि उक्त पुराण ग्रन्थ की प्रशस्ति में बतलाई गई भौगोलिक स्थित से उक्त कल्पना को बल मिलता है । हरिवंश पुराण की प्रशस्ति के ५२ और ५३ वें श्लोक में बताया है कि शकसंवत् ७०५ में, जब कि उत्तर दिशा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व की अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम की सोरों के श्रधिमंडल सौराष्ट्र की वीर जयवराह रक्षा करता था। उस समय अनेक कल्याणों से अथवा सुवर्ण से बढ़ने बाली विपुल लक्ष्मी से सम्पन्न बर्धमानपुर के पाश्र्व जिनालय में जो नन्नराजवसति के नाम से प्रसिद्ध था. कर्कराज के इन्द्र, ब, कृष्ण और नन्तराज चार पुत्र थे। हरिवंश को नन्नराज वसति इन्हीं नन्नराज के नामसे होगी। यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया, पश्चात् दोस्तटिका की प्रजा के द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त वहां के शान्ति जिनेन्द्र शान्ति गृह में रचा गया । वढबाण से गिरि नगर को जाते हुए में कान मिलता है। प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह ( गायकवाड सीरीज ) में श्रमलुकृत चर्चरिका प्रकाशित हुई है। उसमें एक यात्री की गिरनार यात्रा का वर्णन है। वह यात्री सर्वप्रथम वढवाण पहुंचता है, फिर क्रमसे रंन बुलाई, सहजिगपुर, गंगिलपुर पहुंचता है और लखमीषरु को छोड़कर फिर विषम दोतडि पहुँचकर बहुतसी नदियों और पहाड़ों को पार करता हुआ करि वंदियाल पहुंचता है । करिवंदियाल और अनन्तपुर में जाकर डेरा डालता है, बाद में भालण में विश्राम करता है, वहां से ऊँचा गिरनार पर्वत दिखने लगता है। यह विषम दोत ही दोस्तटि का है । वर्धमानपुर (बाण) को जिस प्रकार जिनसेनाचार्य ने अनेक कल्याणकों के कारण विपुलश्री से सम्पन्न लिखा है उसी प्रकार हरिषेण ने भी 'कथा कोश' में उसे 'कार्तस्वरापूर्णजिनाधिवास' लिखा है। कार्त्तस्वर श्रीर कल्याण दोनों ही स्वर्ण के वाचक हैं इससे सिद्ध होता है कि वह नगर अत्यधिक श्री सम्पन्न था, और उसकी समृद्धि जिनसेन से लेकर हरिषेण तक १४८ वर्ष के लम्बे अन्तराल में भी अक्षुण्ण बनी रही। हरिषेण ने अपने कथाकोश की रचना भी इसी वर्द्धमानपुर (बढवाण) में शक सं०८५३ (वि०सं० ६८८) में पूर्ण की थी । जिनसेन यद्यपि पुन्नाट (कर्नाटक) संघ के थे तो भी बिहार प्रिय होने से उनका सौराष्ट्र की ओर भागमन होना युक्ति सिद्ध है। सिद्धक्षेत्र गिरनार पर्वत की बन्दना के अभिप्राय से पुन्नाट संघ के मुनियों ने इस पोर विहार किया हो, यह कोई श्राश्चर्य की बात नहीं। जिनसेन ने अपनी गुरु परम्परा में श्रमित सेन को पुन्नागण के अग्रणी और शतवर्ष जीव लिखा है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह संघ अमितसेन के नेतृत्व में कर्नाटक से १. शाकेन्द धतेयु रूपासु दिशं पज्योते रषूत्तरां, पातीन्द्रायुधनानि इष्टपजे श्री वलयभे दक्षिणाम् । पूर्वा श्रीमतिभूभृति नृपे वत्सादि राजे परा सौराणामधिमण्डलं जययुते चीरे वाराहे ज्वति ॥५२ कल्याणैः परिवर्धमानविपुलः श्रीवमाने पुरे श्री पालिय नम्मराजत्रसतो पर्याप्तशेषः पुरा । परवाड़ी स्वटिका प्रजाप्रजनित प्राज्याचं नावर्जन, शाः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ।। ५३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवों शताथ्दी के प्राचार्य उत्तर भारत की ओर आया होगा। और गिरिनार क्षेत्र के नमिजिन की वन्दना के निमित्त सोराष्ट्र (काठियावाड़) में गया होगा। जिनसेन ने गिननान की सिंहवाहिना या अन्या देवी का उलोख किया है और उसे विनों को नाश करने वाली बतलाया है। प्रशस्तिगत वर्द्धमानपुर के चारों दिशाओं ने राजायों का वर्णन निम्न प्रकार : इंद्रायुध स्व. हीराचन्द्र जी ओका ने लिखा है कि इन्द्रायुध और चन्द्रायुध किस वंश के थे, यह ज्ञात नहीं हुमा । परन्तु संभव है वे राठोड़ हों। स्व. चिन्तामणि विनायक वंद्य के अनुसार इन्द्रायुध भण्डिकुल का था और उक्तवंश को वर्म वंश भी कहते थे। इसके पुत्र चक्रायुध को परास्त कर प्रतिहार वंशी राजा वत्सराज के पुत्र नागभट द्वितीय ने जिसका कि राज्य काल विन्सेन्ट स्मिथ के अनुसार वि० सं०८५७-८८२ है । कन्नौज का साम्राज्य उससे छीना था। बढाण के उत्तर में मारवाड़ का प्रदेश पड़ता है-इससे स्पष्ट है कि कन्नौज से लेकर मारवाड़ तक इन्द्रायुध का राज्य फैला हुआ था । श्रीवल्लम दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण (प्रथम) का पुत्र था। इसका प्रसिद्ध नाम गोविन्द (द्वितीय) था। कावी में मिले हुए ताम्रपट में इसे गोविन्द न लिखकर दस्लम ही लिखा है, अताब इस विषय में सन्देह नहीं रहा कि यह गोविन्द द्वितीय) ही था और बधमानपुर की दक्षिण दिशा में उसी का राज्य था। कावी भी बढवाण के प्रायः दक्षण में है। शक स० ६७२ (वि० सं०८२७) का उसका एक ताम्रपत्र मिला है। अवस्तिभूभृत् वत्सराज यह प्रतिहार वंश का राजा था और उस नागावलोक या नागभट (द्वितीय) का पिता था। जिसने चक्रायुध को परास्त किया था। वत्सराज ने गौड़ और बंगाल के राजानों को जीता था और उनसे दो श्वेतछत्र छीन लिए,थे । आगे इन्ही छत्रों को राष्ट्रकूट गोबिन्द (द्वितीय) या श्रीवल्लभ के भाई ध्रुवराज ने चढ़ाई करके उससे छीन लिया था। और उसे मारवाड़ की प्रगम्य रेतीली भूमि की प्रोर भागने को विवश किया था। मोझा जी ने लिखा है कि उक्त वत्सराज ने मालवा के राजा पर चढ़ाई की पौर मालव राज को बचाने के लिए ध्रुवराज उस पर चढ़ दौड़ा। शक सं०७०५ में तो भालवा वत्सराज के ही अधिकार में था क्यों कि ध्रुवराज का राज्यारोहण काल शक सं०७०७ के लगभग अनुमान किया गया है। उसके पहले ७०५ में तो गोविन्द (द्वितीय) श्री बल्लभ ही राजा था और इसलिये उसके बाद ही ध्रुवराज की उक्त चढ़ाई हुई होगी। उद्योतन सुरि ने अपनी कुवलय माला जाबालिपुर (जालोर मारवाड़) में तब समाप्त की थी जब शक सं०७०० के समाप्त होने में एक दिन बाकी था। उस समय वहां वत्सराज का राज्य या' अर्थात् हरिवंश को रचना १. गहीत चक्रा प्रतिचक्र देवता तयोर्जयन्ताल य सिंह बाहिनी । शिवाय पस्मिन्तिह सन्तिधीमते क्वातन्त्र विघ्नाः प्रभवन्ति शावते ।। ४ २. देखो, सी. पी. वैद्य का हिन्दूभारत का उत्कर्ष' पू. १७५ ३. म०मि. ओझा जी के अनुसार नागभट का समय वि० सं० ८७२ ८६० तक है। ४. इण्डियन एण्टिक्वेरी: जिल्द ५ पु० १४६ । ५. एपिग्राफिया इण्डिकाः जिल्द ६, पृ० २७६ । १. सग काले बोलीणे परिसारण सरहिं सत्तहिं गएहि । एक दिणेणणेहि रझ्या अबरण्ड वेलाए । परभद्रभिउडी भंगो पणईपण रोहिणी कला चंद्रो। सिरिवच्छ रावणामो परहत्यी पस्थिवो जहमा ।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २ के समय (शक सं० ७०५ में) तो (उत्तर दिशा का) मारवाड़ इन्द्रायुध के माधीन था और (पूर्वका) मालवा वत्सराज के अधिकार में था । परन्तु इसके ५ वर्ष पहले (शक सं० ७००) में वत्सराज मारवाड़ का अधिकारी था इससे अनुमान होता है कि उसने मारवाड़ से ही आकर मालवा पर अधिकार किया होगा और उसके बाद धूवराज की चढ़ाई होने पर वह फिर मारवाड़ की ओर भाग गया होगा। शक सं० ७०५ में वह अवन्ति या मालवा का शासक होगा । अवन्ति बढ़वाण की पूर्व दिशा में है ही। परन्तु यह पता नहीं लगता कि उस समय अवन्ति का राजा कौन था, जिसकी सहायता के लिए राष्ट्रकूट ध्रुवराज दौड़ा था। ध्रुवराज (श०सं०७०७) के लग-भग गद्दी पर प्रारूढ़ हुआ था। इन सब बातों से हरिवंश की रचना के समय उत्तर में इन्द्रायष, दक्षिण में श्री वल्लभ और पूर्व में वत्सराज का राज्य होना ठीक मालूम होता है । वीर जयवराह यह पश्चिम में सौरों के अधिमण्डल का राजा था । सौरों के अधिमण्डल का अर्थ हम सौराष्ट्र ही समझते हैं जो काठियावाड़ के दक्षिण में है। सौर लोगों का सोसौर राष्ट्र या सौराष्ट्र । सौराष्ट्र से बढ़वाण और उसो पश्चिम की ओर का प्रदेश ही ग्रन्थकर्ता को अभीष्ट है। यह राजा किस वंश का था, इसका ठीक पता नहीं चलता। प्रेमीजीका अनुमान है कि यह चालुक्य वंश का कोई राजा होगा और उसके नाम के साथ वराह शब्द का प्रयोग उसी तरह होता होगा, जिस तरह कि कीति वमी (द्वितीय) के साथ 'महावराह का, राष्ट्रकूटों से पहले चौलुक्य सार्वभौम-राजा थे । और काठियावाड़ पर भी उनका अधिकार था। उनसे यह सार्वभौमत्व शक सं० ६७५ के लगभग राष्ट्रकूटों ने ही छीन लिया था। इसलिए बहुत संभव है कि हरिवंश की रचना के समय सौराष्ट्र पर चौलुक्य वंश की किसी शाखा का अधिकार हो और उसी को जयवराह लिखा हो । संभवतः पूरा नाम जयसिंह हो और वराह विशेषण । प्रतिहार राजा महीपाल के समय का एक दान पत्र हवाला गांव (काठियावाड़) से शक सं० ८३६ का मिला है। उससे मालूम होता है कि उस समय बढ़वाण में घरणी वराह का अधिकार था, जो चावड़ा वंश का था और प्रतिहारों का करद राजा था। इससे एक संभावना यह भी हो सकती है कि उक्त धरणी वराह का ही कोई ४-६ पीढ़ी पहले का पूर्वज उक्त जयवराह हो। प्राचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण की रचना शक सं०७०५ (वि० सं०८४.) में की है। उसके बाद कितने वर्ष तक वे अपने जीवन से इस भूतल को अलंकृत करते रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। जिनसेनाचार्य पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के प्रमुख शिष्य थे । जिनसेन विशाल बुद्धि के धारक कवि, विद्वान मौर वाग्मी थे। इसी से आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि जिस प्रकार हिमाचल से गंगा का, सकल से (सर्वज्ञ से) दिव्य ध्वनि का और उदयाचल से भास्कर का उदय होता है उसी प्रकार वीरसेन से जिनसेन उदय को प्राप्त हुए हैं। जिनसेन वीरसेन के वास्तविक उत्तराधिकारी थे। जय धवला प्रशस्ति में उन्होंने अपना परिचय बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया है। और लिखा है कि-'वे अविद्धकर्ण थे- कर्णवेध संस्कार से पहले ही वे दीक्षित हो गए थे। और बाद में उनका कर्णवेध संस्कार ज्ञान शलाका से हुमा था । वे शरीर से दुबले पतले थे, परन्तु तप गुण से ये कुश नहीं थे । शारी १. प्रभवदिवाहिमाद्रे देवसिन्धु प्रवाहो, ध्वनिरिष सकलजात्सर्वशास्त्रकमूतिः । उदयगिरि तटावा भास्करो भासमानो, मुगिरनुजिनसेना बीरसेनादमुष्यात् ।। -उत्तर पुराण प्रथस्ति २. तस्य शिष्योभवच्छीमान जिनसेनः समिधीः । अविद्यावपि यत्कणों विदो ज्ञानवालाकया ॥२२-जयधव० प्र० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य १७९ रिक दुर्बलता सच्ची कृशता नहीं है, जो गुणों से कृश होता है वास्तव में वही कृश है, जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्य शास्त्र और पक्ष में तैरने का घड़ा) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन किया, फिर भी अध्यात्म विद्या रूप सागर के पार पहुंच गये। वे बड़े साहसी, गुरु भक्त और विनयी थे। और बाल्यावस्था से ही जीवन पर्यन्त प्रखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के धारक थे। वे न तो अधिक सुन्दर थे, और न बहुत चतुर, फिर भी अनन्य शरण होकर सरस्वती ने उनकी सेवा की थी। स्वाभाविक मृदुता और सिद्धान्त मर्मज्ञता गुण उनके जीवन सहचर थे । उनकी गंभीर मौर भावपूर्ण सूक्तियां बड़ी ही सुन्दर और रसोली है। कविता सरस और अलंकारों के विचित्र आभूषणों से अलंकृत है। बाल्यावस्था से ही उन्होंन ज्ञान की सतत आराधना में जीवन बिताया था। सैद्धान्तिक रहस्यों के मर्मज्ञ तो वे थे ही, किन्तु उनका निर्मल यश लोक में सर्वत्र विश्रुत था। वे उच्कोटि के कवि थे, कविता रसोली और मधुर थी। आपकी इस समय तीन कृतियां उपलब्ध हैं। पार्वाभ्युदयकाव्य, मादि पुराण और जयधबला टीका, जिसे उन्होंने अपने गुरु वीरसेनाचार्य के स्वर्गवास के बाद बना कर पूर्ण की थी। पाभ्युदय काव्य-यह अपने ढंग का एक ही अद्वितीय समस्या पूर्तिक खण्ड काब्ध है । दीक्षा धारण करने के पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ प्रतिमायोग में विराजमान हैं पूर्व भव का वैरी कमठ का जीव शंवर नामक ज्योतिष्कदेव प्राधि से गगनेजा गरिहान कर नाना प्रकार के उपसर्ग करता है। परन्तु पार्श्वनाथ अपने ध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं होते। उनके घोर उपसर्ग को दूर करने के लिये धरणेन्द्र और पद्यावती पाते हैं। शम्बर भय-भीत हो भागने की चेष्टा करता है किन्तु धरणेन्द्र उसे रोकते हैं और उसके पूर्व कृत्यों को याद दिलाते हैं। उपसर्ग दूर होते ही भगवान पार्श्वनाथ को केवलज्ञान हो जाता है। इन्द्रादिक देव केवलज्ञान की पूजा करते है 1 शवरपाश्वनाथ के धैर्य, सौजन्य, सहिष्णुता, अोर अपार शक्ति से प्रभावित होकर स्वयं वर भाव का परित्याग कर उनकी शरण में पहुंचता है और पश्चाताप करता हुआअपने अपराध की क्षमा याचना करता है, वह जिनधर्म ग्रहण करता है, देव पुष्पवृष्टि करते हैं, कवि ने काव्य में 'पापापाये प्रथम मुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी मूक्तियों की भी संयोजना की है। इसीसे कथावस्तु की अभिव्यंजना पाश्र्वाभ्युदय में की गई है। श्रृंगार रस से प्रोत-प्रोत मेघद्रत को शान्त रस में परिवर्तित कर दिया है । साहित्यिक दृष्टि से यह काव्य बहुत ही सुन्दर और काव्य गुणों से मंडित है। इसमें चार सर्ग हैं। उनमें से प्रथम सर्ग में ११८ पद्य, दूसरे में भी ११८, तीसरे में ५७, और चौथे में ७१ पद्य हैं। काव्य में कुल मिलाकर ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं। काव्य में (कमठ) यक्ष के रूप में कल्पित है। कविता अत्यन्त प्रौढ और चमत्कार पूर्ण है। मेघदूत के अन्तिम चरण को लेकर तो अनेक काव्य लिखे गये। परन्तु सारे मेघदूत को वेष्टित करने वाला यह एक ही काव्य ग्रन्थ है। इस काव्य की महत्ता उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब पार्श्वनाम चरित की कथा और मेघदूत के विरही यक्ष की कथा में परस्पर में भारी असमानता है। ऐसौ कठिनाई होते हुए भी काव्य सरस और सुन्दर बन पड़ा है। इस काव्य की रचना जिनसेन ने प्ररने सघर्मा गुरू भाई बिनयसेन की प्रेरणा से की थी। १. यः कृशोपिशरीरेण न कृशोभूतपोगुणः। न कुशव हि शारीरं गुणरेव कृशः कृशः १२७ यो न गृहीत्कापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । तथाप्यध्यात्मविद्यान्धेः पारं पारमशिनियत् ।।२८ -जयधव० प्रश २. यो नाति सुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः । तथाप्यनन्य शरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥२५--जयध० प्र० ३. श्री वीरसेन मुनिपादपयोजनभूग, श्रीमानभूविनयसेन मुनिगरीयान् । तपोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण, काव्यं व्यधायि परिवेष्टित मेघदूतम् ।। -पाभ्युिदय Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इस काव्य पर योगिराट पंडिताचार्य नाम के किसी विद्वान को एक संस्कृत टीका है। जो संभवत: १५वी शताब्दी के अन्तिम चरण का विद्वान था। टीका में जगह जगह 'रत्नमाला' नामक कोष के प्रमाण दिये हैं। रत्नमाला का कर्ता इरुगदण्डनाथ विजय नगर नरेश हरिहरराय के समय शक सं. १३२१ (वि. सं. १४५६) के लगा है। शत: पिलनाचार्ग उसके बाद के विद्वान होना चाहिये । काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु बतलाया गया है। पुन्नाट संघीय जिनसेन ने शक सं. ७०५, (सन् ७८३) में पार्वाभ्युदय काश्य का हरिवंशपुराण के निम्न पद्य में उल्लेख किया है : यामिताभ्युदये पाय जिनेन्द्रगणसंस्तुतिः । स्वामिनों जिनसेनस्य कीति संङ्गीतयत्यसौ ॥ अतः पाश्र्वाभ्युदय काव्य शक सं० ७०५ (वि० सं०८४०) से पूर्व रचा गया है। अर्थात् शक सं० ७०० में इसकी रचना हुई है। प्रादिपुराण-प्राचार्य जिनसेन ने प्रेसठशाला का पुरुषों के चरित्र लिखने की इच्छा से 'महापुराण' का प्रारम्भ किया था। किन्तु बीच में ही स्वर्गवास हो जाने के कारण उनकी वह अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी। पौर महापुराण अधूरा ही रह गया । जिसे उनके शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया। महापुराण के दो भाग हैं । प्रादि पुराण और उत्तर पुराण । प्रादि पुराण में जैनियों के प्रथम तीर्थकर आदि नाथ या ऋषभ देव का चरित वर्णित है । और उत्तर पुराण में प्रवशिष्ट २३ तीर्थकरों और शलाका पुरुषों का । प्रादि पुराण में ४७ पर्व और बारह हजार श्लोक हैं। इनमें जिनसेन ४२ पर्व पूरे और ४३ व पर्व के ३ श्लोक ही बना सके थे कि उनका स्वर्गवास हो गया। तब शेष चार पर्दो के १६२० श्लोक उनके शिष्य गुणभद्र के बनाये हुए हैं।। आदि पुराण उच्च दर्जे का संस्कृत महाकाव्य है। प्राचार्य गुणभद्र में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-'यह सारे छन्दों और अलंकारों को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है। इसकी रचना सुक्ष्म अर्थ और गूढ़ पद वाली है। उसमें बड़े बड़े विस्तृत वर्णन हैं जिनके अध्ययन से सब शास्त्रों का साक्षात् हो जाता है। इसके सामने दूसरे काव्य नहीं ठहर सकते, यह उदय है, और व्युत्पन्न बुद्धिवालों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है और कवियों के मिथ्या अभिमान को दलित करने वाला है, अतिशय ललित है। जिनसेन का यह आदि पुराण सुभाषतों का भंडार है। जिस तरह समुद्र बहुमूल्य रत्नों का उत्पत्ति स्थान है, उसी तरह यह पुराण सूक्त रत्नों का भंडार है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं ऐसे सुभाषित इसमें सुलभ हैं। और स्थान स्थान से इच्छानुसार संग्रह किये जा सकते हैं। प्राचार्य जिनसेन ने आदि पुराण' की उत्थानिका में अपने से पूर्ववर्ती भनेक प्रसिद्ध कवियों और विद्वानी का अनेक विशेषणों के साथ स्मरण किया है। १. सिद्धसेन २. समन्तभद्र ३. श्रीदत्त ४. प्रभाचन्द्र ५. शिवकोटि ६. जटाचार्य ७. काणभिक्ष-८. देव (देवनन्दि) ६. भट्टाकलंक १०. श्रीपाल ११. पात्र केशरी १२. वादिसिंह १३. वोर सेन १४. जयसेन १५. कवि परमेश्वर । इन सब विद्वानों का परिचय यथा स्थान दिया गया है। जयधवलाटीका कसाय प्राभत के प्रथम स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर 'जयघवला नाम की बीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिख कर प्राचार्य वीरसेन का स्वर्गवास हो गया। अतः उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने प्रवशिष्ट भाग पर २. 'सकसच्छदोलंकृति सक्ष्यं सूक्ष्मार्थ गूढपदरचनम् ॥१७ 'ध्यावर्णनोइसारं साक्षात्कृतसर्वशास्त्रसद्भावम् । अपहस्तितान्य काव्य श्रव्यं व्युत्पन्नमतिभिरादेयम् ॥१८ 'जिनसेन भगवतोबतं मिथ्याकषि दर्पदलनमति ललितम् ॥१६ - उत्तर पुराण प्रवास्ति Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य १८१. चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे शक संवत् ७५६ में पूरा किया। यह टीका वीरसेन स्वामी की शैली में मणि-प्रवाल (संस्कृत मिश्रित प्राकृत) भाषा में लिखी गई है । टीका को भाषा प्रावाहपूर्ण है। टीकाकार ने स्वयं ही शंकाएं उठा कर विविध विषयों का स्पष्टीकरण किया है। भाचार्य जिनसेन ने कसाय प्राभूत की जयधयला टीका में चणिसूत्र और उच्चारणा मादि के द्वारा वस्तु तत्व का यथार्थ विवेचन किया है । कषाय के उपशम और क्षपणा का सुन्दर, सरस एवं हृदयमाही विवेचन किया गया है। मोह के दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय रूप दो भेद हैं। उनमें दर्शन माहनीयके भेद राग, द्वेष मोहरूप विपटिका तथा चारित्र मोहनीय के मूलतः कषाय और नो कषायों में विभाजन किया हैं 1 ये कषायें राग-द्वेष में विभाजित होकर एक मोहं कर्म की राग-द्वेष मोहल्प विस्ताका बोध कराती हैं। प्रात्मा इन सबकी शक्ति को उपशमाने या क्षोण करने का उपक्रम करता है। उन की शक्ति को निर्बल करने के लिये ध्यानादि का मनुष्ठान करता है।ौर ग्रन्थ में कषायों के रस को सुखाने, निर्जीर्ण करने आदि का विस्तृत कथन दिया है । जिसका परिणाम घाति कर्म क्षय रूप कैवल्य की प्राप्ति है । उससे प्रात्मा कर्म के मोहजन्य संस्कार के प्रभाव से हलका हो जाता है। पश्चात् वह योग निरोधादि द्वारा अघाति रूप कर्म-कालिमा का अन्त कर स्वात्म लब्धि का पथिक बन जाता है। और जन्म मरणादि से रहित अनन्तकाल तक प्रात्म-सुख में निमग्न रहता है। यह टोका प्रमेय बहल पोर सैद्धान्तिक चर्चा से प्रोत-प्रोत है। इसका अध्ययन और मनन करना श्रेयस्कर है। इस सब विवेचन पर से जयपवला टीका की महत्ता का बोध सहज ही हो जाता है, और उससे जिनसेनाचार्य की प्रज्ञा एवं प्रतिभा का अच्छा माभास मिल जाता है। आचार्य जिनमेन ने जयधवला टीका में श्रीपाल, पग्रसेन और देवसेन नामके तीन विद्वानों का उल्लेख किया है। संभवतः ये उनके सघर्मा या गुरु भाई थे। धीपाल को तो उन्होंने जयधवला का संपालक कहा है। - - - . . . समय जिनसेन अपनी प्रविद्धकर्ण बाल्य अवस्था में ही वीर सेन के चरणों में आ गए थे। बीरसेन ही उनके विद्या गुरु और दीक्षा गुरु थे। उन्हीं की शिक्षा द्वारा तपस्वी और विद्वान आचार्य बने । उन्हीं के पादमूल में उनके जीवन का प्रधिकाश भाग व्यतीत हुआ है । इसी से उन्होंने अपने गुरु का बहुत ही प्रादरपूर्ण शब्दों में स्मरण किया है। दोर सेन ने अपनी धवला टीका शक सं०७३८ सन् ८१६ में समाप्त को है। और जय धवला टीका को समाप्ति उससे २१ वर्ष बाद शक संवत ७५६ (सन् ८३७) में मुर्जरनरेन्द्र अमोघवर्ष के राज्य काल में वाट ग्राम हुई है। कि - - -- - १. प्रायः प्राकृत भारत्या क्वचित्संस्कृतमिश्रया। मरिण-प्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽग्रन्य विस्तरः ॥३२ -(जपधवला प्रशारत) २. ते नित्योज्वलपद्मसेनपरमाः श्रीदेवसेनाचिताः । भासन्ते रविचन्द्रभासि सुतपाः श्रीपाल सत्कोर्तयः ॥३६ -जय धवला प्रशति । ३. इतिश्री वीर सेनीया टीका सूत्रार्थ-दशिनी। बाट ग्राम पुरे श्रीमद् गुर्जरार्यानुपालिते ।। ६ फाल्गुणे मासि पूर्वान्हे दशम्या शुक्लपक्षके । प्रवर्षमान--पूजोर-नन्दीश्वर- महोत्सवे ॥७ अमोघवर्ष राजेन्द्र-राज्य प्राज्य गुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका 11-(जयधवला प्रशस्ति)। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पाभ्युदय काव्य का उल्लेख शकसं० ७०५ में हरिवंश में पुन्नाट संधी जिनसेनने किया है। और लिखा है कि भगवान पार्श्वनाथ के गुणों की स्तुति उनको कीर्तिकासकर्तन करती है। इससे स्पष्ट है कि जिनसेन ने शक सं० ७०५ से पूर्व ही ग्रन्थ रचना शुरू कर दी थी। अतः उक्त पाश्वभ्युदय काव्य शक सं० ७०० लगभग की रचना है, क्योंकि शक सं० ७०५ में उसका उल्लेख मिलता है। इस रचना के समय जिनसेन को आयु कम से कम १५ और २० वर्ष के मध्य रही होगी। पाश्र्वभ्युदय काव्य की रचना से ५६ वर्षबाद उन्होंने जयघबला को शक़ सं० ७५६ सन् ८३७ में पूर्ण किया है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि आचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०० से ७३८ के मध्यवत समय में क्या कार्य किया । इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि जब गुरु वीरसेन ने घवला और जबधवला टीका बनाई, तब उसमें उन्होंने अपने गुरु को अवश्य सहयोग दिया होगा । और यदि उन्होंने उस कान में ग्रन्य किसी ग्रन्थ की रचना की होती तो वे उसका उल्लेख अवश्य करते । उसके बाद उन्होंने आदि पुराण को रचना की है। और वे महापुराण की रचना करते हुए बीच में ही स्वर्गवासी हो गए। उनके इस अधूरे पुराण को उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्ण क्रिया है। श्रादि पुराण के दश हजार श्लोंकी रचना करने में ५-६ वर्ष का समय लग जाना अधिक नहीं है। इससे जिवसेना चार्य दीर्घ जीवी थे । और उनका स्वर्गवास ८० वर्ष की अवस्था में हुआ होगा । १८२ दशरथ गुरु दवारथ गुरु — पंचस्तूपान्वयी वोरसेन के शिष्य थे, और जैन सेनाचार्य के सधर्मा बन्धु-गुरुभाई थे। जो बड़े विद्वान थे - जिस तरह सूर्य अपनी निर्मल किरणों से संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है । उसी प्रकार वे भी अपने वचन रूपी किरणों से समस्त जगत को प्रकाशमान करते थे। जिनसेनाचार्य का जो समय है, वही दशरथ गुरु का है, जिनसेनाचार्य ने मपनी जयधवला टीका शक सं० ७५६ (सन् ६३७) में पूर्ण की है। प्रतएव दशरथगुरु का समय भी सन् ८०० से ८३७ होना चाहिये । गुणमत्र- मूलगंध सेनान्वय के विद्वान थे (गुरुभाई) दशरथ गुरु के शिष्य थे । सिद्धान्त शास्त्र तथा देदीप्यमान ( तीक्ष्ण) थी, जो अनेक नय और जगत में प्रसिद्ध थे । जो तपोलक्ष्मी से भूषित थे। गुणभद्राचार्य और पंचस्तूपान्वय के विद्वान आचार्य जिनसेन के सधर्मा रूपी समुद्र के परिगामी होने से जिनकी बुद्धि अतिशय प्रगल्भ प्रमाण के ज्ञान में निपुण, अगणित गुणों से विभूषित, समस्त उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, पक्षोपवासी, तपस्वी तथा भावलिंगी १. यामिताभ्युदये पाए जिनेन्द्रगुरण संस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीतिः संकीर्तयत्वसौ ॥४० - हरिवंशपुराण २. दारवगुरुरासीत्तस्य धीमान्मधर्मा शशिन इव दिनेशो विदवलोकंक चक्षुः । निखिलमिद मदोरि व्यापितद्भाङ्मयूखः । प्रकटितनिजभाव निर्मधर्मसार: ॥ १२ - उत्तर पुराण प्रशस्ति ३. प्रत्यक्षीकृत लक्ष्य लक्षण विधि विश्वविद्यां गतः । सिद्धान्ताविवसानयान जनित प्रागसम्भा बुद्धी; । नानाभूननयप्रमाणनिपुणोत्राण्ये गुंभूषित: । शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोरासीज्जगद्विश्रुतः ॥ -० पु० प्रशस्ति १४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवभी-पदवीं शताब्दी के आचार्य मुनिराज थे। राष्टकूट राजा अमोघवर्ष ने गुणभद्राचार्य को अपने द्वितीय पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने जिनसेनाचार्य के दिवंगत हो जाने पर उनके प्रपूर्ण प्रादि पुराण को १६२० श्लोकों की रचना कर उसे पूरा किया था। उसके बाद उन्होंने पाठ हजार श्लोक प्रमाण 'उत्तर पुराण' की रचना की। उसकी रचना में गुणभद्राचार्य ने कवि परमेष्ठी के 'वागर्थ संग्रह' पुराण का आश्रय लिया था। उत्तर पुराण में द्वितीय तीर्थकर अजितनाव से लेकर २३ तीर्थकरों, ११ चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र मौर। प्रतिनारायण तथा जीवंधर स्वामी प्रादि विशिष्ट महापुरुषों के कथानक दिये हुए हैं। इस पुराण को कवि ने संभवत: बंकापुर में समाप्त किया था। प्रस्तुत बंकापुर अपने पिता वोर बंकेय के नाम से लोकादित्य द्वारा स्थापित किया गया। प्रपितामह मुकुल के वंश को विकसित करने वाले सूर्य के प्रताप के साथ जिसका प्रताप सर्वत्र फैल रहा था, और जिसने प्रसिद्ध शत्रुरूपी अंधकार नष्ट कर दिया था, जो चेल्ल पताका वाला था जिसकी पताका में मयूर का चिन्ह था । चेलध्वज का अनुज था और चेल्ल केतन बकेय का पुत्र था, जैनधर्म की वृद्धि करने वाला, चन्द्रमा के समान उज्वल यश का धारक लोका दित्य बंकापुर में वनवास देश का शासन करहा था। उस समय बंकापुर वनवासि प्रान्तकी राजधानी था। और अनेक विशाल जिन मन्दिरों से सुशोभित था। यह नपतगका सामन्त था, पौर वीर योद्धा था। इसने गंगराज राजमल को युद्ध में पराजित कर बन्दी बनाया था। इस विजयोपलक्ष्य में भरी सभा में वीर बंकेय को नृपतुग द्वारा अभीष्ट वर मांगने की माज्ञा हई। तब जिनमरत बकेय ने गदगद हो नृपतुंग से यह प्रार्थना की, कि अब मेरो कोई लौकिक कामना नहीं है। यदि आप देना ही चाहें तो कोलनूर में मेरे द्वारा निर्मित जिनमंदिर के लिये पूजादि कार्य संचालनार्य एक भूदान प्रदान कर सकते हैं। उन्होंने वैसा ही किया। बकेय को पत्नी विजयादेवी बड़ी विदुषी थी। इसने संस्कृत में काव्य रचना की है। । इनका पुत्र लोकादित्य भी अपने पिताके समान ही वीर और पराक्रमी था। लोकादित्य शत्रु रूपी पन्धकार को मिटाने वाला एक ख्याति प्राप्त शासक था। लोकादित्य पर गुणभद्राचार्य का पर्याप्त प्रभाव था । लोकादित्य जैन धर्म का प्रेमी था, और समूचा चमवासि प्रान्त लोकादित्य के वस में या । प्राचार्य जिनसेन की इच्छा महापुराण को विशाल ग्रन्थ बनाने की थी। परन्तु दिवंगत हो जाने से वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । ग्रन्थ का जो भाग जिनसेन के कथन से अवशिष्ट रह गया था, उसे निर्मल बुखि के धारक गुण भद्रसूरि ने हीनकाल के अनुरोध से तवा भारी विस्तार के भय से संक्षेप में ही संग्रहीत किया है। उत्तर पुराण को यदि गुणभद्राचार्य प्रादि पुराण के सदृश विस्तृत बनाते तो महापुराण एक उत्कृष्ट कोटि का महाभारत जैसा एक विशाल ग्रन्थ होता। किन्तु प्राय काय प्रादि की स्थिति को देखते हुए वे उसे जल्दी पूर्ण करना चाहते थे। इसी से उसमें बहुत से कयन मौलिक प्रौर विस्तृत नहीं हो पाये हैं, और कितने ही कयानकों से मुख मोड़ना पड़ा है। कुछ कथानकों में वह विशदता भी शीघ्रता के कारण नहीं लासके हैं। फिर भी उनका उक्त प्रयत्न महान और प्रशंसनीय है। १. तस्सय सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाण परिपुष्णा । पक्खोवधास मंडी महातवो भावसिंगो व॥ ---दर्शनसार २. देखो, डा. अल्तेकर का राष्ट्रकूटाज और उनका समय १० ३. चेल्सपताके चेल्लध्दजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेन्द्रधर्मवद्ध विधापिनिविधुवीन पृयु यशसि ।। - उत्त० पु० प्रशस्ति ३३ ४. "सरस्वती व कर्णाटी विजयांका जयत्यसौ। या वक्ष्मा गिरी बासः कालिदासादनन्तरम् ।।' ५. अति विस्तर भीरुत्वादवशिष्ट सङग होत ममलधिया । गुणभद्र सूरिणेदं--प्रहोणकालानुरोधेन ॥ -उत्तर० पु० प्रश० २० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ भाग २ जिन सेनाचार्य को यह विश्वास हो गया कि अब मेरा जीवन समाप्त होने वाला है और मैं महापुराण को पूरा नहीं कर सकूंगा । तब उन्होंने अपने सबसे योग्य शिष्यों को बुलाया और उनसे कहा कि सामने जो यह सूखा वृक्ष खड़ा है, इसका काव्यवाणी में वर्णन करो। गुरु वाक्य सुनकर उनमें से एक शिष्य ने कहा 'शुष्क काष्ठं तिष्ठत्यने । फिर दूसरे शिष्य ने कहा- "नीरसतहरिहविलसति पुरतः " । गुरु को द्वितीय वाक्य सरस ज्ञात हुआ । अतः उन्होंने उसे श्राज्ञा दी कि 'तुम महापुराण को पूरा करो। गुणभद्र ने गुरु श्राज्ञा को स्वीकार कर महापुराण को पूरा किया। प्राचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि इस ग्रन्थ का पूर्वार्ध ही रसावह है, उत्तरार्ध में तो ज्यों-त्यों करके ही रस की प्राप्ति होगी। गन्ने के प्रारम्भ का भाग ही स्वादिष्ट होता है ऊपर का नहीं। यदि मेरे वचन सरस या सुस्वादु हों तो इसे गुरु का माहात्म्य ही समझना चाहिये। यह वृक्षों का स्वभाव है कि उनके फल मोठे होते हैं? | वचन हृदय से निकलते हैं और हृदय में मेरे गुरु विराजमान हैं। वे वहां से उनका सस्कार करेंगे ही। इसमें मुझे परिश्रम न करना पड़ेगा | गुरुकृपा से मेरी रचना संस्कार की हुई होगी। जिनसेन के अनुयायी पुराण मार्ग के आश्रय से संसार समुद्र के पार होना चाहते हैं फिर मेरे लिये पुराण सागर के पार पहुंचना क्या कठिन है । उतर पुराण की रचना काल प्राचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण में उसका कोई रचना काल नहीं दिया । उनकी प्रशस्ति २७ व पच तक समाप्त हो जाती है। पांच-छह श्लोकों में ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन करने के अनन्तर २७ व पद्म में बताया है कि भव्यजनों को इसे सुनना चाहिये, व्याख्यान करना चाहिये, चिन्तवन करना चाहिये, पूजना चाहिये, और भक्तजनों को इसकी प्रतिलिपियाँ लिखना लिखाना चाहिये । यहीं गुणभद्राचार्य का वक्तव्य समाप्त हो जाता है। जान पड़ता है उन्होंने उसका रचनाकाल नहीं दिया। उनका समय शक सं० २० से पूर्ववर्ती है । उस समय अकाल वर्ष के सामन्त लोकादित्य बंकापुर राजधानी से सारे वनवास देशका शासन कर रहे थे। तब शक सं० २० पिंगल नाम के संवत्सर में पंचमी (श्रावण वदी ५) बुधवार के दिन भव्य जीवों ने उत्तर पुराण की पूजा को थी । गुणभद्राचार्य के शिष्य मुनि लोकसेन ने उत्तरपुराण की रचना करते समय अपने गुरु को सहायता की. 1 श्रात्मानुशासन - में २६६ श्लोक हैं। जिनमें आत्मा के अनुशासन का सुन्दर विवेचन किया गया है । यह गुणभद्राचार्य की स्वतंत्र कृति है। इसमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तपरूप चार आराधनाओं का स्वरूप सरल रीति से दिया है। ग्रन्थ में चर्चित विषय उपयोगी श्रीर स्व-पर-सम्बोधक है। ग्रंथ मनन करने योग्य है। इस पर पंडित प्रभाचन्द्र की एक संस्कृत टीका है जो संक्षिप्त और सरल है । ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत टीका के साथ जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर से प्रकाशित हो चुका है। इसमें अनुष्टुप सहित आर्या, शिखरिणो, हरिणी, मालिनी, पृथ्वी, मन्द्राक्रान्ता वंशस्थ, उपेन्द्रा, रथोद्धता, गीति, वसन्ततिलका, स्त्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित और १. इक्षी रिवास्य पूर्वाद्धं मेवाभावि रसावहम् । यथातथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ॥ १४ २. गुरुणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः । तरूणां हि स्वभावोsसी यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७ ३. निर्धान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः । संस्कारिभ्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥१८ ४. पुराणं मागंमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् । भवान्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥ १६ ५. कप कालाभ्यन्तर विधारयधिकाष्ट शतमिताब्दान्ते । मंगलमहार्थकारिणि पिंगल नामिनि समस्त जन सुखदे || ३५ 1 H Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम और दशवीं शताब्दी के आचार्य १८५ वेताली श्रादि छन्दों का उपयोग किया गया है । कविता प्रभावशालिनी और सरस तथा अलंकार सहित है, उसमें सुभाषितों की कमी नहीं है । और काव्य के गुणों से युक्त है । freeरित भी इनकी कृति बतलाया जाता है। वह संस्कृत का एक काव्य ग्रन्थ है। जिसमें जिनदत्त का जीवन परिचय अंकित है। और जो माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से मूल रूप में प्रकाशित हो चुका है । शाकटायन शाकटायन (पाल्य कीर्ति) -- यापनीय संघ के आचार्य थे । यापनीय संघ का बाह्य श्रातार बहुत कुछ दिगस्वरों से मिलता था । ये नन्न रहते थे पर श्वेताम्बर आगम को श्रादर की दृष्टि से देखते थे। शाकटायन (पल्य कोति ) ने तो स्त्रीमुक्ति और केवल युक्ति नाम के दो प्रकरण भी लिखे हैं। जो प्रकाशित हो चुके हैं। इनका वास्तविक नाम पाल्यकीर्ति था । परन्तु शाकटायन व्याकरण के कर्ता होने के कारण शाकटायन नाम से प्रसिद्ध हो गए थे । वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथ चरित में उनका निम्न शब्दों में स्मरण किया है कुतरस्या तस्य सा शक्तिः पात्यकीर्तेर्महौजसः । श्रीपद श्रवणं यस्य शादिकान्कुरुते जनान् ॥ इसमें बताया है कि उस महातेजस्वी पाल्यकीर्ति की शक्ति का क्या वर्णन किया जाय, जिसका 'श्री' पद श्रवण ही लोगों को शाब्दिक या व्याकरणज्ञ कर देता है । शाकटायन को श्रुतके वलिदेशीय 'आचार्य लिखा है। जिसका अर्थ श्रुत केवली के तुल्य होता है। पाणिनि ५-३-६७ के अनुसार देशीय शब्द तुल्यता का वाचक है। चिन्तामणिटीका के कर्ता यक्षवर्मा ने तो उन्हें 'सकलज्ञान साम्राज्य पदमाप्तवान् कहा है । शाकटायन की प्रवृत्ति है। उसका प्रारम्भ 'श्रीममृत ज्योतिः श्रादि मंगलाचरण से होता है । वादिराज सूरि ने इसी मंगलाचरण के 'श्री' पद को लक्ष्य करके यह बात कही है कि पाल्यकोति ( शाकटायन ) के व्याकरण का प्रारम्भ करने पर लोग वैयाकरण हो जाते हैं । इसका नाम शब्दानुशासन है । शाकटायन नाम बाद को प्रचलित हुआ है । शाकटायन की अमोघवृत्ति में, आवश्यक, छेद सूत्र, निर्युवित कालिक सूत्र प्रादि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। उससे जान पड़ता है कि यापनीय संघ में श्वेताम्बर ग्रन्थोंके पठन-पाठन का प्रचार था। अपराजित सूरि ने तो दशकालिक पर टीका भी लिखी थी। अमोघवृत्ति में 'उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः' कहकर शाकटायन ने सर्व गुप्त श्राचार्य को सबसे बड़ा व्याख्याता बतलाया है । संभव है ये सर्वगुप्त मुनि वही हों जिनके चरणों में बैठकर आराधना के कर्ता शिवार्य ने सूत्र और अर्थ को अच्छी तरह समझा था । शाकटायन या पाल्यकीर्ति की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। शब्दानुशासन का मूल पाठ उसकी प्रमोधवृत्ति और स्त्रीमुक्ति केवलिभुक्ति प्रकरण राजशेखर ने अपनी फाव्यमीमांसा में पात्यकीर्ति के मतका उल्लेख करते हुए लिखा है कि- यथा तथा वास्तु वस्तुनो रूपं वक्तृ प्रकृतिविशेषायत्तातु रसवत्ता । तथा च यमथंरक्तः स्तीति तं विरक्तो विनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रोदास्ते इति पाल्यकीर्ति ।" इससे ज्ञात होता है कि पात्यकीर्ति की और भी कोई रचना रही है । शाकटायन के शब्दानुशासन पर सात टीकाएँ लिखी गई हैं: १. अमोघवृत्ति, स्वयं पात्यकीर्ति द्वारा २. शाकटायन न्यास- प्रभाचन्द्र कृत न्यास ३. चिन्तामणिटीका यक्ष वर्माकृत ' १. स्थानि मनीं वृति सहृश्येवं लघीयसी । सम्पूर्ण लक्षणावृतिर्वक्ष्यते यक्षवणा ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४. मणि प्रकाशिका - चिन्तामणि को प्रकाशित करने वाली टीका, जिसके कर्ता अजितसेन हैं । ५. प्रक्रिया संग्रह- इसके कर्ता अभयचन्द्र हैं । ६. शाकटायन टीका - वादिपर्वतवत्र भावसेन श्रविद्यदेवकृत । इनकी एक कृति विश्व तत्त्व प्रकाश नाम की है यह ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है। ७. रूपसिद्धि दयापाल मुनि कृत । यह द्रविड़ संघ के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम मतिसागर था । 'ख्याते दृश्ये' सूत्र की जो श्रमोधवृत्ति दी है, उसमें निम्न उदाहरण दिया है- "प्रदहदमोघवर्षाऽरातीनअमोघवर्षं ने शत्रुओं को जला दिया। इस उदाहरण में ग्रन्थ कर्ता ने अमोघवर्ष ( प्रथम ) की अपने शत्रुनों पर विजय पाने की जिस घटना का उल्लेख किया है। ठीक उसी का जिक्र शक सं० ८३२ (वि० सं० ६६७ ) के एक राष्ट्रकूट शिलालेख में निम्न शब्दों में किया है- 'भूपालान् कण्टकाभान वेष्टयित्वा ददाह । इसका अर्थ भी वही है -प्रमोघ वर्ष ने उन कांटे जैसे राजानों को घेरा और जला दिया जो उससे एकाएक विरुद्ध हो गये थे । यद्यपि उक्त शिलालेख अमोघवर्ष के बहुत पीछे लिखा गया था, इस कारण परोक्षार्थं वाली 'ददाह' क्रिया दी है। यह उसके समक्ष की घटना है । इसमें • बाग्मुरा के दानपत्र' में जो शक सं० ७८६ (वि० सं० ६२४ ) का लिखा हुआ है इस घटनाका उल्लेख है— उसका सारांश यह है कि गुजरात के मालिक राजा एकाएक बिगड़कर खड़े हुए और उन्होंने धमोघवर्ष के विरुद्ध हथियार उठाये तब उसने उन पर चढ़ाई कर दी और उन्हें तहस-नहस कर डाला। इस युद्ध में ध्रुव घायल होकर मारा गया 1 अमोघवर्ष शक सं० ७३६ (वि० सं० ७७१) में सिंहासनारूत हुए थे । और यह दानपत्र शक सं० ८२४ ) का है । अतः सिद्ध है कि अमोधवृत्ति शक सं० ७३६ से ७८६ सन् १४ से ८६७ तक के मध्य किसी समय रची गई है । और यही समय पात्यकीर्ति या शाकटायन का है । उग्र वित्माचार्य उग्र बित्याचार्य श्रीनन्दी मुनि के शिष्य थे । उग्रदित्याचार्य ने इन्हीं से ज्ञान प्राप्त करके उन्हीं की श्राज्ञा से कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। यह श्रीनन्दि मुनि के शिष्य थे। उग्रदित्याचार्य ने श्रीनन्दि से ज्ञान प्राप्त किया था। उग्रदित्याचार्य ने नृपतुङ्गवल्लभराज के दरवार में मांस भक्षण का समर्थन करने वाले विद्वानों के समक्ष मांस की निष्फलता को सिद्ध करने के लिए कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। नृपतंग (अमोघवर्ष) राष्ट्रकूटवंश के राजा थे। उन्हीं के राज्यकाल के रामगिरि पर्वत के जिनालय में बैठकर ग्रन्थ बनाया था। ग्रंथ में दशरथ गुरु का भी उल्लेख है। जो वीरसेनाचार्य के शिष्य थे। इससे भी उग्रदित्याचार्य का समय 8 वीं शताब्दी का अन्तिम चरण जान पड़ता है । प्रशस्ति में उल्लिखित विष्णुराज परमेश्वर का कोई पता नहीं चलता। कि वे किस वंश के और कहां के राजा थे । ग्रन्थ में २५ अधिकार हैं- और श्लोक संख्या पांच हजार बतलाई जाती है । स्वास्थ्य संरक्षक, गर्भोत्पत्ति विचार, स्वास्थ्य रक्षाधिकार-सूत्रवर्णन, धन्यादि, गुण, गुणविचार, धन्नपान विधि वर्णन, रसायन विधि, व्याधि समुद्देश, यात व्याधि चिकित्सा, पित्तव्याधि-चिकित्सा, श्लेष्म व्याधि चिकित्सा, महाव्याधि चिकित्सा, क्षुद्ररोग चिकित्सा, बालग्रह भूतमन्त्राधिकार, सर्पविष चिकित्सा शास्त्रसंग्रह तंत्रयुक्ति कर्म चिकित्सा, भैषज्य कर्मापद्रव चिकित्सा, सर्वेष कर्म व्याप चिकित्सा, रसायन सिद्धाधिकार, नानाविध कल्पाधिकार | ग्रन्थ प्रायुर्वेद का है। जो सोला पुरसे प्रकाशित हो चुका है, पर वह इस समय मेरे सामने नहीं है चिकित्सा शास्त्र का अच्छा ग्रन्थ है । २. एपि ग्राफिमा डिक जिल्दा १५० ५४ ३. इण्डियन एण्टिक्वेरी जि १२ पृ० १८१ i 1 1 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य महावीराचार्य (गणितसार के कर्ता) महावीराचार्य-राष्ट्रकट वंशी राजा अमोघवर्ग (प्रथम) के गमकालीन थे। उन्होंने अपने गणितसार के प्रारम्भ में नामोघवर्ष के दीक्षा लेकर सगस्वी बन जाने पर उनके सपस्मो जीवन का उल्लेख किया है। प्रथम पद्य में प्रमोघवर्ष को प्राणी रूपी सस्य समूह को सम्पूष्ट, निरं ति व निरवग्रह करने वाला और स्वेष्ट रितपो बतलाया है। यहां राजा के ईति निवारण और अनावृष्टिरूप विपत्ति के निवारण के साथ-साथ सब प्राणियों के प्रति अभय और राग-द्वेष रहित उपेक्षा वृत्ति का उहो। स्पेष्ट हितं निभायमसेसष्टईक हे आत्म कल्याण परायण हो गए थे। दूसरे पक्ष में उनके पापरूपी शत्रुओं का उनकी चित्तवृत्ति रूप सोज्वाला में अस्म होने का उल्लेख है। राजा अपने शत्रयों को क्रोधाग्नि में भस्म करता है, उन्होंने काम-कोधादि अन्तरंग शत्रुओं को कषाय रहित चित्तवत्ति से नष्ट कर दिया था । अतएव वे प्रवन्ध्य कोप हो गए थे। तीसरे पद में उनके समस्त जगत को वशीभूत करने, किन्तु स्वयं किसी के वशीभूत न होने से पूर्व मकरध्वज कहा है। जौरे पद्य में उनको एक चरिककाभंजन' पदवी की सार्थकता सिद्ध की है। राजमंडल को वश करने के अतिरिक्त यहां स्पष्टतः तपस्या वद्धि-द्वारा संसार चक्र परिभ्रमण का क्षय करने का उल्लेख है। पांचवें पद्य में उनकी विद्या प्राप्ति और मर्यादानों को वजवेदिका द्वारा उनकी ज्ञानवृद्धि और महाव्रतों के प्रतिपालन का उल्लेख अंकित किया गया है 'रत्न गर्म विशेषण से उनके दर्शन, ज्ञान योर चारित्र रूप रत्नत्रय का भाव प्रकट किया है। उनके 'यवाण्यात चारित्र के जलधि' विशेषण द्वारा उनके पूर्ण मुनि और उत्कृष्ट ध्यानी होने का स्पष्ट संकेत है। क्योंकि यथाख्यात चारित्र जैन सिद्धान्त को विशिष्ट संशा है, जो मुनि सकल चारित्र द्वारा भावविशुद्धि से कषायों को उपशमित या क्षोण कर देता है वह ययाख्यात चारित्र का धारी होता है । अन्तिम पत्र में उनके एकान्त को छोड़कर स्याद्वादन्याय का अवलम्बन लेने का स्पष्ट उल्लेख है । ऐसे नृपतुंग के शासन की वृद्धि की प्राशा की गई है। प्रोणितः प्राणिसस्यौधो निरीति निषग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहित विणा ॥१ पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्तिहविर्भ जि । भस्मसाद्धावमीयस्तेऽवन्ध्यकोपोऽभवत्ततः ॥२ वशीकुर्वन् जगत्सर्च स्वयं नानु वाः परं । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः ।।३ यो विक्रमकमाक्रांतचकिचक्रकृतक्रियः। चक्रिकाभजनो नाम्ना चक्रिका भजनोऽऊजसा ।।४ यो विद्यानद्यधिष्ठानों मर्यादाबनवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिमहान् ॥५ विश्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवाजिनः । देवस्य नपतं गस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥६ महावीराचार्य ने अन्य के प्रारम्भ में गणित को प्रशंसा करते हुए लिखा है कि लोकिक, वैदिक, पौर सामायिक जो जो व्यापार हैं उन सब मैं गणित संख्यान का उपयोग है। काम शास्त्र, अर्थशास्त्र, गान्धर्व शास्त्र, नाटय शास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदिक और वस्तु विद्या एवं छन्द अलंकार, काव्य तक व्याकरण यादि कलानों के समस्त गुणों में गणित अत्यन्त उपयोगी है। सूर्य प्रादि ग्रहों की गति को ज्ञात करने, ग्रहण में ग्रहों युति, प्रश्न अर्थात दिक देश काल को जानने तथा चन्द्रमा के परिलेख में, द्वोपों समुद्रों, और पर्वतों का संख्या, व्यास और परिधि पाताल लोक, मध्यलोक ज्योतिर्लोक, स्वर्ग नरक, श्रेणिबद्ध भवनों, सभाभवनों पीर गुम्दाकार मन्दिरों के प्रभाण गणित की सहायता से ही जाने जा सकते हैं। प्राणियों के संस्थान, उनकी आयु, यात्रा और संहिता आदि से सम्बन्ध रखने वाले सभी विषय गणित से ही ज्ञात होते हैं। अन्धकार ने लिखा है कि तीर्थकर और उनकी शिष्य प्रशिष्यादि की प्रसिद्ध गुरु परम्परा से आये हुए Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ संख्यान रूपी समुद्र में से रत्न की तरह, पाषाण से कांचन की भांति अथवा शुक्तियों से मुक्ता फल की तरह सार निकाल कर अपनी शक्ति अनुसार गणित सार संग्रह को कहता हूं। जो लघु होते हुए अनल्पार्थक है । गणित सार संग्रह में चौबीस घंक तक की संख्या का उल्लेख करते हुए उनके नाम इस प्रकार दिये हैं, एक, दश, शत, सहस्र, दशसहस्र, लक्ष, दशलक्ष, कोटि, दशकोटि, शतकोटि, अर्बुद, खर्व, पद्म महापद्म, क्षणी, महाक्षोणी, शंख, महाशंख क्षिति, महाक्षिति, क्षोम, महाक्षोम । अंकों के लिये शब्दों का भी प्रयोग किया है, जैसे तोन के लिये रत्न, छह के लिये द्रव्य, सात के लिये तत्त्व, पन्नग और भय, आठ के लिये कर्म, तनु और मद, नो के लिये गो पदार्थ यादि । लघुत्तम समापवर्तक के विषय में अनुसन्धान करने वालों में महावीराचार्य विद्वानों में प्रथम गणितज्ञ थे, जिन्होंने लाघवार्थ निरुद्ध, लघुत्तम समापवर्तक की कल्पना की। महावीराचार्य ने निरुद की परिभाषा इस प्रकार की है- 'छेदों के महत्तम समापर्वक और उससे भाग देने पर प्राप्त लब्धियों का गुणनफल निरुद्ध कहलाता है । इस तरह यह ग्रंथ गणित की अनेक विशेषताओं को लिये हुए हैं। भारतीय गणितज्ञ विद्वानों ने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है - डा० श्रववेशनारायण सिंह ने धवला टीका की भूमिका में लिखा है कि महावीराचार्य का गणितसार संग्रह ग्रंथ सामान्यरूप से ब्रह्म गुप्त श्रीधराचार्य, भास्कर तथा अन्य हिन्दू गणितज्ञों के ग्रंथों के समान होते हुए भी बहुत सी बातों में उनसे पूर्णतः श्रागे है । गणितसार में गुणवरील पूल, छिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध भागमातृ जाति त्रैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्ड, प्रतिभाण्ड, व्यवहार, मिश्रक व्यवहार भाव्यकव्यवहार, एक पत्रीकरण, श्रेणीव्यवहार, खानव्यवहार, चितिव्यवहार, छाया व्यवहार श्रादि गणितों का विवेचन किया है। रेखागणित, बीजगणित, और पार्टी गणित की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । इस पर एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है । इनकी दो कृतियां और हैं ज्योतिर्ज्ञाननिधि, मौर जातक तिलक | गोविन्दराज की उत्तरभारत की विजय का काल सन् ८०६ से ८०८ तक सिद्ध होता हैं। जब वे सन् १४-१५ में सिंहासनारूढ़ हुए, तब उनकी अवस्था छह वर्ष की थी । और जब ८७७ के लगभग राज्य कार्य का परित्याग किया, तब उनकी आयु ७० वर्ष से कुछ कम ही जान पड़ती है। उस समय तक जिनसेनाचार्य और गुणभद्र का स्वर्गवास हो चुका होगा, इसी कारण उनकी प्रशस्तियों में अमोघवर्ष के मुनि जीवन का उल्लेख नहीं हो सका। इससे लगता है कि महावीराचार्य ने अपना गणितसार संग्रह दीक्षा लेने के उपरान्त मुनि जीवन के भीतर किसी समय रचा होगा। अतः महावीराचार्य का समय ईसवी सन् की हवीं सदी है । ग्रन्थ का नया एडीसन जीवराज प्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित हो चुका है। अपराजित गुरु मूलसंघस्थ सेन संघ के मल्लवादि गुरु के प्रशिष्य और सुमति पूज्यपाद के शिष्य थे। इन्हें नवसारी जि० सूरत के नागसारिका जिनालय के लिये 'हिरण्य योगा' नाम का खेत दान में दिया था। इनका समय शक सं० ७४३ सन् ८२१ और वि० सं०८७८ है । क्योंकि इन्हें वह दान उक्त संवत् में प्राप्त हुआ था । - (एपिग्राफिया इंडिका जि० २१ पृ० १३३) (इण्डियन एण्टिक्वेरी वा० २१ पृ० १३३) I लोकसेन ( गुणभद्राचार्य के प्रमुख शिष्य ) Starrer के शिष्यों में प्रमुख शिष्य थे । लोक सेन की प्रशस्ति २६ वें पद्य से प्रारम्भ हो जाती है । उन्होंने गुरु को विनय रूप सहायता दे कर सजननों द्वारा बहुत मान्यता प्राप्त की थी। उस समय राष्ट्रकूट नरेश अकाल वर्ष पृथ्वी का पालन कर रहे थे। उनके पास हाथियों की बहुत बड़ी सेना थी, जिन्होंने अपने मद से गंगा के 1. Altekar, The Rashtra Kutas and their times P. 71-72 २. विदित सहज शास्त्रो लोकसेनो मुनीशः कविरविकल वृत्तस्तस्य शिष्येषु मुख्यः । सततमिह पुराणे प्रा साहाय्य मुच्चे - गुं सविनय मनीषीन्मान्यतां स्वस्थ सद्भिः ॥२८, उ० पु० प्र० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ नवमी दशवीं पाताब्दी के आचार्य पानी को भी कड़ा कर दिया था । उसका राज्य उत्तर में गंगा के तट तक पहुंच गया था। लोकसेन को प्रशस्ति के अनुसार उस समय वही सम्राट था। उस समय बंकापुर जन-धन से सम्पन्न नगर था, उसे वनवास देश की राजधानी बनने का भी गौरव प्राप्त है लोकसेन बंकापुर के निवासी थे। यह धारवाड जिले में स्थित है । लोकसेन ने उत्तर पुराण की अपनी प्रशस्ति के १५३ पद्य में गुणभद्राचार्य की स्तुति करते हुए लिखा है कि-'बे गुणभद्राचार्य जयवंत रहें, जो समस्त योगियों के द्वारा बन्दनीय हैं, सब श्रेष्ठ कवियों में अग्रगामी हैं, आचार्यों के द्वारा वन्दना करने योग्य हैं, जिन्होंने मदन के विलास को जीत लिया है, जिनकी कोति रूपा पताका समस्त दिशानी में फहरा रही है। जो पापरूपी वृक्ष को काटने के लिये कुछार के समान है, और समस्त राजानों के द्वारा वन्दनीय है।' लोकसेन ने यह प्रशस्ति महामंगलकारी पिंगल नामक शंक संवत श्रावण ददि पंचमी गुरुवार के दिन, पूर्वा फाल्गुणी स्थित सिंहलग्न में, जबकि बुध पानक्षत्र का, शनि मिथुन राशि का, मंगल धनु राशि का, राह तुला राशि का, सूर्य कर्क राशि का और वृहस्पति वृषराशि पर था तब यह उत्तरपुराण पूरा हुआ'यह ग्रन्थ समाप्ति की तिथि नहीं किन्तु उसका पूजा महोत्सव मनाया गया था। पर इस पद्य पर से यह ज्ञात नहीं होता कि गणभद्राचार्य उस समय जीवित थे। संभवत: उस समय उनका देव लोक हो चुका था। उस समय बंकापुर में प्रकाल वर्ष का सामन्त लोकादित्य वनवास देश पर शासन कर रहा था, जिसकी राजधानी बंकापुर थी। इनके पिता का नाम बकेय या बंकराज था। उसी के नाम पर उक्त नगर बसाया गया था। इसकी ध्वजा पर चोल का चिन्ह था। इनके पिता और भाई भी चेलध्वज थे। लोकसेन ने उन्हें जैनधर्म की वृद्धि करने वाला महान यशस्वी बतया है । चूकि लोक सेम ने अपनी प्रशस्ति शक सं.२० (सन् ८१८) में लिखी है, प्रत उनका समय ईसा को नवमी शताब्दी अन्तिम चरण है। श्रीवेव श्री देव कमलभद्र के शिष्य थे। इन्होंने सं० ६१६ आश्विन शुक्ला १४ वहस्पतिवार के दिन लग्छगिरी (देवगढ़) में स्तम्भ स्थापित किया । देवगढ़ का पुराना नाम लच्छगिरि है। जैन शिलालेख सं० भा०२ पृ० १५० स्वयम्भू कवि स्वयम्भू-का जन्म ब्राह्मण कुल में हुया था, परन्तु जैन धर्म पर प्रास्था हो जाने के कारण, उनकी उस पर पूरी निष्ठा एवं भक्ति थी। कवि के पिता का नाम मारुत देव और माता का नाम पद्मिनी था। कवि ने स्वयं १. पस्योतुग मतंगजा निजमद स्त्रोतस्विनी संगमाद। गाङ्ग वारि कलंकि तं कट मुहुः पीस्वाध्य गन्धतषः ॥२९ उ. पु०प्र० २. अकालवर्षभूगले पालयस्यखिलामिलाम् । ३. सबमति गुणभद्रः सर्वयोगीन्द्र वन्धः सकलकविवराणामनिमः सूरिचन्द्यः । जिन मदनविलासो विश्चलस्कोति मोत-रिततरुकुठारः सर्वभूपालयन्धः ।।४२ ४. शकन्टम कालाभ्यन्तरविशत्यधिकाष्टातमिताम्दान्ते । मंगलमहार्यकारिणि पिंगल नामनि समस्त जनसुखदे ।।३५ श्री पम्बम्या बुधायुिजि दिवसजे मन्त्रिवारे सुधांशे, पूर्वाश सिंहलग्ने धनुषि धरणिजे सैहिके ये तुलायाम् । सूर्य शुक्ले कुलोरे गविच सुरगुरी निष्ठित भम्पवयः । प्राप्तेज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्तुराणम् ।।३६ --उ० पु०प्र० ५. देखो, उत्तरपुराण प्र. लो० ४, ५, ६ (३२ से ३४) ६. परमिणी गम संभूए, मारुय देव अणुराये । परमच०१ पृ. २ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जन धर्म का प्राचीन इतिहास भगाट अपने छन्द ग्रन्थ में मारुत देव का उल्लेख किया है। बहुत संभव है कि वे कवि के पिता ही हों । पुत्र द्वारा पिता को कृतिका उल्लिखित होना कोई श्राश्वयं की बात नहीं है। कवि को तोन पत्नियां थीं। आदित्य देवी जिसने प्रयोध्या कांड लिपि किया था। दूसरो प्रमा (अमृतास्था) जिसने पउमचरिय के विद्याधर काण्ड की २० संधियां लिखवाई थीं और तीसरी सुब्वा, जिसके पवित्र गर्भ से 'त्रिभुवन स्वयंभू जंसा प्रतिभासम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो अपने पिता के समान हो विद्वान और afa था। इसके सिवाय अन्य पुत्रादिक का कोई उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु जान पड़ता है कि स्वयंभू के अन्य पुत्र भी थे। क्योंकि स्वयंभू ने पउम चरिउ की प्रशस्ति के आठवें पद्य में तिहुयण स्वयंभू लहुतणउ, वाक्य द्वारा त्रिभुवन स्वयंभू को लघु पुत्र कहा, लघु पुत्र कहने से अन्य पुत्रों के होने का भी संकेत मिलता है। त्रिभुवनने अनेक जगह अपने पिता के सम्बन्ध में बहुत सी बातें कही हैं। उनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वयंभू के कई पुत्र और शिष्य थे । अन्य पुत्र तो धन के पीछे दौड़े, किन्तु त्रिभुवन को पिता को साहित्यिक विरासत मिली। कविवर स्वयंभू शरीर से दुबले-पतले और उन्नत थे, उनको नाक चपटी और दांत विरल थे। कवि स्वयंभू कोशल देश के निवासी थे। जिन्हें उत्तरीय भारत के आक्रमण के समय राष्ट्रकूट राजा ध्रुव का मंत्री रयडा धनंजय मान्यखेट ले गया था । राजा ध्रुव का राज्यकाल वि० सं०८३७ से ८५१ तक रहा है ' । धनजय, धवलइया और दइया ये तीनों पिता पुत्र आदि के रूप में सम्बद्ध जान पड़ते हैं। उनका कवि के ग्रन्थ निर्माण में सहायक रहना श्रुत भक्ति का परिचायक है । समय कवि ने ग्रन्थ में अपना कोई समय नहीं दिया है, परन्तु पद्मचरित के कर्ता रविषेण का स्मरण जरूर किया है । प्राचार्य रविषेण ने पद्मचरित को वीर निर्वाण सं० १२०३ वि० सं० ७३३ में बनाकर समाप्त किया है । यतः स्वयंभू वि० सं० ७३३ के बाद किसी समय हुए हैं। श्रेय पं० नाथूराम जी प्रेमीने लिखा है कि-स्वयंभूने रिट्टणेमि चरिउ में हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संत्री जिनसेन का उल्लेख नहीं किया, हो सकता है कि उक्त उल्लेख किसी कारण छूट गया हो, या उन्हें लिखना स्वयं याद न रहा हो। रिट्ठमिचरिउ का ध्यान से समोक्षण करने पर या मन्य सामग्री से अनुसन्धान करने पर यह स्पष्ट जरूर हो जायगा कि ग्रन्थकर्ता ने उसको रचना में उसका उपयोग किया या नहीं। भट्टारक यशः कीर्तिके उद्धार काल से पूर्व की कोई प्रति १५ वीं शताब्दी को लिखी हुई कहीं मिल जाय तो उस समस्या का हल शीघ्र हो सकता है । स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू ने 'रिट्टणेमिचरिउ' की १०४ वीं संधि में प्राकृत संस्कृत मोर अपभ्रंश के के लगभग पूर्ववर्ती कवियों के नाम गिनाये हैं । उनमें जिन सेनाचार्य और गुणभद्राचार्य का भी नामोल्लख किया है। उनका उल्लेख निम्न प्रकार है। ७० देविल, पंचाल, गयन्द, ईश्वर, गील, कंठाभरण, मोहाकलस (मोहकलश) लोलूय (लोलुक) बन्धुदत्त, हरिदत्त, दोहल, बाण, पिंगल, कलमियंक, कुलचन्द्र, मदनोदर, गौड, श्रीसंघात, महाकवि तुरंग, चारुदत्त, रुद्द (रुद्र) रंज्ज, कविल श्रहमान, गुणानुराग, दुम्ह, ईसान, इंद्रक, वस्त्रादन, नारायण, महट्ट, सोहप्प, कीर्तिरण, पल्लवकिति, गुणिद्ध, गणेश, भासड, पिशुन, गोबिन्द, नेपाल (बेताल) विसयङ, नाग, पण्डयत्त, सुग्रीव, पतंजलि, बोरसेन मल्लिषेण मधुकर चतुरानन (चउमुख) संघसेन, बंकुय, वर्द्धमान सिद्धसेन, जीव या जीवदेव, दयोर्वारिद, मेघाल विलालिय, पुण्डरीक, वसुदेव, भीउय, पुण्डरीक, दृढमति, गृहत्थि भावक्ष, यक्ष, द्रोण, पणभद्र, श्रीदत्त धर्मसेन, जिनसेन, : १. सब्वोति जोमोह वित्ताय विद्वत्त दव्त्र संता । तिहूषण संभूणा पण गहियं मुकइत - संताणं ॥ -- अन्तिम २. अएण पहर गर्ने छिव्वरण से परिवदते । प० ३. हिन्दी काव्यधारा पु० २३ ३, ७, ९ और १० ० १ ० २४ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ! नवमी-दशवीं शती के दवार्य दिनकर, जाग, धर्म, गुणभद्र, कुशल, स्वयंभूदेव, वीरवंदक, सर्वनन्दि, कलिकाभद्र, नागदेव और भवनंदि इन कवियों में जैन जंतर प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंशभाके कवि शामिल हैं। जैसे गोविंद, मल्लिषेण, चतुरानन, सघन वर्द्धमान, सिद्धसेन श्रीदत्त, धर्मसेन, जिनसेन, जिनदत्त, गुणभद्र, स्वयंभूदेव, सर्वनन्दि, नाग देव और भवनन्दि आदि जैन कवि प्रतीत होते हैं। संभव है, इनमें और भी चार पांच नाम हों। क्योंकि उनका ग्रंथ परिवाद के बिना ठीक परिज्ञान नहीं होता। इससे यह भी स्पष्ट है कि उनसे पूर्व श्रनेक कवि अपभ्रंश के भी हो गये हैं । इन में उल्लिखित गुणभद्राचार्य राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय के शिक्षक थे। गुणभद्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। हो सकता है कि स्वयंभू गुणभद्र के समय नहीं रहे हों, किन्तु त्रिभुवन स्वयंभू तो मौजूद थे। इसी से उन्होंने उनका नामोल्लेख किया है। जिनसेन ने अपना हरिवंश पुराण शक सं० ७०५ वि. सं० ८४० में बनाकर समाप्त किया है। स्वयंभू ने जब अपना ग्रन्थ बनाया, उस समय गुणभद्र नहीं होंगे। किन्तु हरिवंश पुराण के कर्ता के समय तक थे अवश्य रहे होंगे। अतः रिमिचरिउ के रचियता स्वयंभू देव के समय की पूर्वावधि वि० से ८०० और उत्तरावयि वि० सं० ६०० मानने में कोई बाधा नहीं जान पड़तो। अतएव स्वयंभू विक्रम को ६ वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये । यदि रयडा धनंजय को बात स्वीकृत को जाय, तो राष्ट्रकूट ध्रुव का राज्य काल विस ८३७०८५१ तक रहा है। इससे भी स्वयंभू देव का समय विक्रम की 8 वीं शताब्दो का मध्य काल सुनिश्चित होता है। इससे स्वयंभूदेव पुत्राट संघीय जिनसेन के प्रायः समकालीन जान पड़ते हैं । कन्नड़ कवि जयकीर्ति ने 'छन्दोनुशासन' नाम का ग्रन्थ बनाया है, उसको हस्तलिखित प्रति सं० ११६२ की जैसलमेर के शास्त्र भडार में सुरक्षित है । यह ग्रंथ एच० डी० वेलंकर द्वारा सम्पादित हो चुका है। इस ग्रन्थ में कविने स्वयंभू छन्द के 'नन्दिनी' छन्द का उल्लेख किया है। कृषि जय कीर्तिका समय विक्रम को दशवीं शताब्दो का पूर्वार्ध या नौवीं शताब्दी का उपान्त्य होना चाहिये क्योंकि दशवीं शताब्दी के कवि असम ने जयोति का उल्लेख किया है। इससे भी स्वयंभू का समय ६ वीं शताब्दी आता है । रचनाएँ EK afe स्वयंभू त्रिभुवन स्वयंभू की तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं । पउम चरिउ, रिटणेमिचरिउ और स्वयंमू छन्द । इनमें पउमचरिउ या रामकथा बहुत 'सुन्दर कृति है। इसमें ६० सन्धियां हैं, जो पांचकाण्डों में विभक्त हैं। विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्याकाण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, और उत्तरकाण्ड में १३ सन्धियां हैं। जिनमें स्वयंभू देव रचित ८३ सन्धियां हैं। शेष उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रची गई हैं । ग्रन्थ में प्रारम्भिक पीठिका के अनन्तर जम्बूद्वीप की स्थिति, कुलकरों की उत्पत्ति, अयोध्या में ऋषभदेव की उत्पत्ति तथा जीवन परिचय, लंका में देवताओं और विद्याधरों के वंश का वर्णन, अयोध्या में राजा दशरथ और राम-लक्ष्मण श्रादि की उत्पत्ति, बाल्यावस्था, जनक की पुत्री सीता से विवाह, राम-लक्ष्मण सीता का वनवास, संब्रूक मरण, सीताहरण, रावण से रामलक्ष्मण का युद्ध, सुग्रीव आदि से राम का मिलाप, लक्ष्मण के शक्ति का लगना और उपचार आदि । विभीषण का राम से मिलना, रावण मरण, लंका विजय, विभीषण को राज्य प्राप्ति, राम-सीता- मिलन, अयोध्या को प्रस्थान, भरत दीक्षा, व तपश्चरण, सीता का लोकापवाद से निर्वासन, लव-कुश उत्पत्ति, सीता की अग्नि परीक्षा, दीक्षा और तपश्चरण, लक्ष्मण मरण, राम का शोकाकुल होना, और प्रबुद्ध होने पर दीक्षा लेकर तपश्चरण करके कंवल्य प्राप्ति और निर्वाण लाभ, आदिका सविस्तर कथन दिया हुआ है। इस ग्रन्थ में राम कथा का वही रूप दिया है, जो विमलसूरि के पउम चरिउ में और रविषेण के पद्मचरित में पाया जाता है । ग्रन्थ में रामकथा के उन सभी अंगों की चर्चा की गई है जिनका कथन एक महाकाव्य में भावश्यक होता है । इस दृष्टि से पउमचरिउ को महाकाव्य कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी । ग्रन्थ में कोई दुरूहता नहीं हैं, वह सरल श्रीर काव्य-सौन्दर्य की अनुपम छटा को लिये हुए हैं। समूचावर्णन काव्यात्मक सौन्दर्य और सरसता से स्रोत प्रोत है, पढ़ते हुए छोड़ने को जी नहीं चाहता । कविता की शैली जहां कथा-सूत्र को लेकर श्रागे बढ़ती है और वहां वह सरलता तथा स्वाभाविकता का १. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ प्रस्तावना पृ० ४६ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १३२ निर्वाह करती है । किन्तु जहां कवि प्रकृति का चित्रण करने लगता है, वहां एक से एक अलंकृत संविधान का श्राश्रय कर ऊँती उड़ाने भरता है । गोदावरों की उपमा द्रष्टव्य है- गोदावरी नदो वसुधारूपो नायिका की बंकित फैनावली के वलय से अलंकृत दाहिनी बांह ही हो। जिसे उसने वक्षस्थल पर मुक्ताहार धारण करने वाले पति के गले में डाल रक्खा है । कवि की कुछ पंक्तियां वसुधा की रोम-राजि सदृश जान पड़ती हैं" । युद्ध में लक्ष्मण के शक्ति लगने पर अयोध्या के धन्तापुर में स्त्रियों का विलाप कितना करुण है 'दुःखातुर होकर सभी रोने लगे, मानों सर्वत्र शोक ही भर दिया हो । भृत्यजन हाथ उठा उठा कर रोने लगे, मानों कमलवन हिमवन से विक्षिप्त हो उठा हो । राम की माता सामान्य नारों के समान रोने लगी, सुन्दरी उर्मिला हतप्रभ हो रोने लगी, सुमित्रा व्याकुल हो उठी, रोती हुई सुमित्रा ने सभीजनों को रुला दिया कवि कहता है कि कारुण्य पूर्ण काव्यकथा से किस के प्रांसु नहीं प्रा जाते । भरत और राम का विलाप किसे विगलित नहीं करता । इसी तरह रावण की मृत्यु होने पर विभीषण और मन्दोदरी के विलासका वर्णन केवल पाठकों के नेत्रों को ही सिक्त नहीं करता, प्रत्युत रावण-मन्दोदरी और विभीषण के उदात्त भावों का स्मरण कराता है। इसी तरह अंजना सुन्दरी के वियोग में पवनंजय का विलाप चित्रण भी संसार को विचलित किये बिना नहीं रहता । ग्रन्थ में ऋतुओं का कथनतो नैसर्गिक ही है, किन्तु प्रकृति के सौन्दर्य का विवेचन भी अपूर्व हुआ है। नारी चित्रण में राष्ट्रकूट नारी का चित्रण बड़ा ही सुन्दर है । कवि ने राम और सीता के रूप में पुरुष और नारी का रमणीय तथा स्वाभाविक चित्रण किया है। पुरुष श्रीर नारी के सम्बन्धों का जैसा उदात्त और याथा तथ्य चित्रण सीता की अग्नि परीक्षा के समय हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है ग्रन्थ में सीता के अमित धैर्य, साहस और उदात्त गुणों का वर्णन नारी की महत्ता का द्योतक है, उसके सतीत्व को भाभा ने नारी के कलंक को धोदिया है। ग्रन्थ का कथा भाग कितना चित्राकर्षक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। सहस्रार्जुन की जल कीड़ा का वर्णन अद्वितीय है । युद्ध के वर्णन में भी कवि ने अपनी कुशलता का परिचय दिया है जिसे पढ़ते ही सैनिकों के प्रयाण की ध्वनि कानों में गूंजने लगती है और शब्द योजना तो उसके उत्साह की संवर्धक है ही । १. फेराव किय वलयालकिय, महि वह अतरिया । जहि भत्तार हो मोतिय-हार हो, बाँह सारिय दाहिया ।" पउमचरिउ २. "बविणाराविह रुक्खराई, णं महिकुर बहु अहिं रोम राई ।।" वही । ३. "दुक्खा उ रोवइ सयलु लोड, गं चपिविचवि भरिउ सोउ । रोवइ भिच्च्य समुहहत्य, कमल-संड हिम-पव पत्यु || रोवइ अरा इव राम जारिश, केकय दाइक तक मूल-खारिए । रोवर सुप्प विच्छाप जाय, रोयइ सुमित सोमित्ति-माय || हा गुरु पुत्त केहि गओम, किसलिए बच्छ चलें ओसि । हा पुत्तु गरं तुम जो हसि वदवेण केण विच्छो ओसि । बत्ता-शे वंतिए लक्सर मारिए, सयल लोड रोवादि साइ कव्व कहाए जिह, कोवण असुमुआवियत्र ॥" ४.देखो र संधि ६७०१ ४, संधि ६६ १०-१२ । पउमचरिउ, संधि ६६-- १३ ५. देखो, पउमचरिउ ०६.४-११, ७६.२-३ । ६. देखो. सभि १४,६ ७ सिसा कोह के वि सुमित गुत्त, सुकलस-चत्त मोह । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 : i नवमी और दशवीं वाताब्दी के आचार्य १९३ कुछ दूसरा ग्रन्थ 'रिटुमिचरिउ' है जिसमें ११२ संधियां और १६३७ कडवक हैं। इनमें ६६ सन्धियां स्वयंभू द्वारा रची गई हैंष १३ सन्धियां स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू की बनाई हुई हैं । किन्तु अन्तिम सन्धियां afuडत हो जाने के कारण भट्टारक यशःकीति ने अपने गुरु गुगकीर्ति के सहाय से गोपाचल के समीप स्थित कुमार नगर के पणियार चैत्यालय में उसका समुद्धार किया था और परिणाम स्वरूप उन्होंने उक्त स्थानों में अपना नाम भी अंकित कर दिया। ग्रन्थ में चार काण्ड हैं। यादव, कुरु, युद्ध और उत्तर काण्ड । प्रथम काण्ड में १३ सन्धियाँ हैं। जिनमें कृष्ण जन्म, बाललीला, विवाहकथा, प्रद्य ुम्न आदि की कथाए और भगवान नेमिनाथ के जन्म की कथा दी हुई है। ये समुद्रविजय के पुत्र और कृष्ण के चचेरे भाई थे। दूसरे काण्ड में १६ सन्धियां हैं, जिनमें कौरव पाण्डवों के जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा श्रादि का कथन, परस्पर का वैमनस्य, युधिष्ठिर का त क्रीड़ा में पराजित होना, द्रोपदी का चीर हरण, तथा पांडवों के बारह वर्ष के वनवास आदि का विस्तृत वर्णन हैं । तृतीय काण्ड में ६० सन्धियां हैं। कौरव पाण्डवों के युद्ध वर्णन में पाण्डवों की विजय और कौरवोंकी पराजन यादि का सुन्दर चित्रण किया गया है। और उत्तर काण्ड को २० सन्धियों में कृष्ण की रानियों के भवांतर, गजकुमार का निर्वाण, द्वीपायनमुनि द्वारा द्वारिकादाह, कृष्णनिधन, बलभद्रशोक, हलवर दीक्षा, जरत्कुमार का राज्यलाभ पाण्डवों का गृहवास, मोह परित्याग, दीक्षा, तपश्चरण और उपसर्ग सहन तथा उनके भवांतर प्रादि का कथन, भगवान नेमिनाथ के निर्वाण के बाद ७७ वीं संधि के पश्चात् दिया हुआ है। रिटमिचरिउ की संधि पुष्पि कानों में स्वयंभू को धबलइया का प्राश्रित, और त्रिभुवन स्वयंभू को बन्दइया का प्रश्रित बतलाया है । मत्स्य देश के राजा विराट के साले कोचक ने द्रोपदी का सबके सामने अपमान किया । कवि कल्पना द्वारा उसे मूर्तिमान बना देता है । यमदूत की तरह कीचकने द्रोपदी का केश-पाश पकड़ कर खींचा और उसे लातमारी । यह देखकर राजा युधिष्ठिर मूर्च्छित हो गए। भीमरोप के मारे वृक्ष को ओर देखने लगे कि इसे किस तरह मारे। किन्तु युधिष्ठिर ने पैर के अंगूठे से उन्हें मना कर दिया। उधर पुर की नारियां व्याकुल हो कहने लगीं कि इस दग्ध शरीर को धिक्कार है, इसने ऐसा जघन्य कार्य क्यों किया ? कुलीन नारियों का तो ग्रथ मरण ही हो गया, जहां राजा ही दुराचार करता हो, वहा सामान्य जन क्या करेंगे ? सो तेण विलक्खी हुवएण, प्रणुलगे जिह जम दूयए । बिरे हि धरे विचलणेहि हय, वेक्तहं रायहं मुच्छ गय । मणि रोस पवट्टिय बल्लभहो, फिर देह विट्ठ तर पल्लव हो । मरु भारमिमच्छु स - मेहणडं, पट्टवमि कयंत हो पाहुणजं । तो तब सुए प्राट्टएण, विणिवारिज चलणं गुट्ठएन । ओसारिज विश्रयरु सणियउ, पुरवर णारिउ आदण्णियउ । fr-fear सरी काई फिड, कुलजायहं जायहं मरण थिउ । जहि पर दुच्चारिउ समायरद्द, नहि जण तम्यष्णु काई करई ॥ संधि २८-७ ग्रन्थ में वीर, श्रृंगार, करुण और शान्त रसों का मुख्य रूप से कथन है । वीर रस के साथ शृंगार रस की अभिव्यक्ति अपभ्रंश काव्यों में ही दृष्टिगोचर होती है । अलंकारों में उपमा और श्लेष का प्रयोग किया गया है। hfa fरतिवीर, भूषव्व तुगधीर । सारव्य अपमा, कुंजरब्व दिष्णारण। के सरिव्य उनकेस, चन्त सब्द - जीवियास । केवि सामि मत्ति-वंत, मच्छराग्गि- पज्जलंत केबिआह अभंग, कुकुमं मसाहि ग्रंग (पउमचरिउ ५७-२ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २ इसी संधि के १५वें कड़वक में द्रोपदी के अपमान से ऋद्ध भीम का और कीचक का परस्पर बाहु युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है :--- रण में कुशल भीम और कोचक दोनों एक दुसरे से भिड गए। दोनों ही हजारों युवा हाथियों के समान बलवाले थे। दोनों ही पर्वत के बड़े शिखर के समान लम्बे थे। दोनों ही मेघ के समान गर्जना वाले थे। दोनों ने ही अपने अपने ओंठ काट रखे थे, उनके मुख क्रोध से तमतमा रहे थे । नेत्र गुंजा (चिरमटी घु वची) के समान लाल हो गए थे। दोनों के बक्षस्थल आकाश के समान विशाल और दोनों के भुजदण्ड परिधि के समान प्रचंड थे। कवि ने शरीर की असारता का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि मानन' का यह शरीर कितना धिनावना और शिरानों-स्नायुओं से बंधा हा अस्थियों का एक ढांचा या पोट्टल मात्र है। जो माया और मदरूपी कचरे से सड़ रहा है, मल पंज है, कृमि कीटों से भरा हमा है, पवित्र गव वाले पदार्थ भी इससे दुर्गन्धित हो जाते हैं, मांस और रुधिर से पूर्ण चर्म वृक्ष से घिरा हमा है.--चमड़े की चादर से ढका हुआ है, दुर्गन्ध कारक आंतों की यह पोटली और पक्षियों का भोजन है। कलुषता से भरपूर इस शरीर का कोई भी अंग चंगा नहीं है। चमड़ी उतार देने पर यह दुष्प्रेक्ष्य हो जाता है, जल बिन्दु तथा सूरधन के समान अस्थिर और विनश्वर है। ऐसे घुणित शरीर से कौन ज्ञानी राग करेगा? यह विचार ही ज्ञानी के लिये वैराग्यवर्धक है। तीसरीकृति स्वयंभू छन्द ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है और जिसका सम्पादन एच. डी. वेलकर ने किया है। त्रिभुवन स्वयंभू ने उन्हें, 'छन्द चूड़ामणि' कहा है। इससे वे छन्द विशेषज्ञ थे, इसका सहज ही आभास हो जाता है। इस ग्रंथ में प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के छन्दों का स्वरूप मय उदाहरणों के दिया गया है। इसके अन्तिम अध्याय में गाहा, अडिल्ल, और पद्धडिया प्रादि स्वोपज्ञ छन्दों के उदाहरण दिये हैं। उनमें जिनदेव की स्तुति है । ग्रन्थ के अन्त में कोई परिचयात्मक प्रशस्ति नहीं है। इस ग्रन्थ का सबसे पुरातन उल्लेख जयकोति ने अपने छन्दोनुशासन में किया है। जिसमें स्वयंभ के नन्दिनी छन्द का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि स्वयंभ के छन्द ग्रन्थ का १०वीं शताब्दी में प्रचार हो गया था। जयकीति का समय विक्रम की दशमी शताब्दी है। जयकीति कन्नड प्रान्त के निवासी और दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे। स्वयंभ छन्द ग्रन्थ में अपने ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ कर्ताओं के भी उदाहरण दिये हैं। 'बम्मह लिलब' के उदाहरण में (६-४२ में) पउमचरिउ की ६५वीं सन्धि का पहला पद्य दिया है । रणावली' के उदाहरण में (६-७४) में ७७वों सन्धि के १३वें कडवक का अन्तिम पद्य है । इस तरह यह उंद ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। त्रिभुवनस्वयंभू ने, जो स्वयंभू का लघुपुत्र था उसने अपने पिता के पउमचरिउ, हरिवंशपुराण और पंचमी चरित को सम्हाला था, उनका समय १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। इसका अलग परिचय नहीं लिखा। स्वयंभू देव ने 'पंचमीचरिउ' ग्रन्थ भी बनाया था। किन्तु वह अनुपलब्ध है। पउमचरिउ में लिखा है कि १.तो भिडिवि परोधयरण कुराल, विष्णि वि एवणाय सहस्स-बल । विपिए वि गिरि तंग-सिंग सिहर, दिगिणधि जल हरख गहिर गिर । विपिण वि दट्टो8 रुद्द बयण, विणि वि गंजाल सम-णपण । विषिण वि गह्मल गिरु-वच्छपल, विणि वि परिहोवम-भुज-जुयल । - रिट्ठरणेमिचरित २८-१५ २. देखो, रिट्ठाणे मिचरिउ ५४-११ ३. तुम्ह प कमलमूले अम्हं जिण दुक्ख भावत विपाई। ढुरु लुल्लियाई जिएवर जं जारपसु तं करेज्जासु ।।३८ ---जिणगामें छिदेवि मोहजाल, उपज्जह देवल्लसामि सालु। जिगणामें कम्मई णिद्दलेषि, मोक्नग्गे पइसिन सुह लहेवि ।।४४ ४. जयकीति ने अपने छन्द ग्रन्थ में स्वयंभ के नन्दिनी छन्द का उल्लेख किया है। तो यो तथा पप पनिर्जितो जरौ, स्वयंभुदेवेश मते तु नन्दिनी ॥२२॥ ५. हणवंत रणे परिदेविजई रिसियरेहि । रणं गयणयले बालदिवायर जलहरेहि ।। ६. सुरवर डामरु रावणु दट्ट जासु जगकंबइ। अभा कहि महु चुक्क एवणाइ सिहि जपइ ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दशवी शताब्दी के आचार्य १६५ यदि स्वयंभू देव के लघुपुत्र त्रिभुवन न होते तो उनके पद्धडियाबद्ध पंचमी चरित' को कौन संभारता? इससे स्पष्ट है कि स्वयंभू ने पंचमी चरित की रचना की थी। स्वयंभू व्याकरण-- स्वयंभूदेव ने स्वयंभू छन्द के समान अपभ्रंश का व्याकरण भी बनाया था। पउमचरिउ के एक पा में लिखा है कि अपभ्रश रूप मतवाला हाथी तब तक ही स्वच्छन्दता से भ्रमण करता है जब तक कि उस पर स्वयंभू व्याकरण रूप अंकुश नहीं पड़ता। इससे उनके व्याकरण ग्रथ बनाये जाने का स्पष्ट निर्देश है, पर खंद है कि वह अनुपलब्ध है। अभयनन्दि अभयनन्दि--ध्याकरण शास्त्र के निष्णात विद्वान थे। इनका व्याकरण-विषयक ज्ञान केवल जनेन्द्र प्याकरण तक ही सीमित नहीं था, किन्तु पाणिनीय व्याकरण और पतंजलि महाभाष्य में भी उनकी अप्रत्याहत गति थी। अभयनन्दि की एक मात्र कृति 'महावृत्ति' है, जो जनेन्द्र व्याकरण की सबसे बड़ी टीका है। महावृत्ति के स्थल उनके व्याकरण विषयक अभूत पूर्व पाण्डित्य का निदर्शन कराते हैं। यथा-११२१६६ सूत्र को व्याख्या में 'प्रवितप्य' प्रयोग की सिद्धि के सम्बन्ध में जो विचार किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता। महला -- अभयनन्दि कृत महावृत्ति का परिमाण बारह हजार श्लोक जितना है। यद्यपि महावृत्ति कारने काशिका का उपयोग किया है, किन्तु दोनों की तुलना करने से ज्ञात होता है कि अभय नन्दि ने जो उदाहरण दिय हैं। वे काशिका में उपलब्ध नहीं होते। जैसे-१।४।१५ के उदाहरण में अनुशालिभद्रम् प्राड्याः । ‘अनुसमन्तभद्र ताकिका:' ४११११६ के उदाहरण से 'उपसिंह नन्दिनं कवयः' । 'उपसिद्धसेन वैयाकरणाः'। सब वैयाकरण सिद्धसेन से हीन हैं। १।३१० के उदाहरण में 'पा कुमार यशः समन्तभद्रस्य' वाक्यों द्वारा समन्तभद्र, सिहन्दि और सिद्धसेन का नामोल्लेख है। महावृत्ति के सूत्र ३।२१५५ की टीका में एक स्थल पर अकलङ्ग देव के तत्त्वार्थवार्तिक का उल्लेख किया है । अत: अभयनन्दी का समय अकलंक देव के बहुत बाद का जान पड़ता है। लक्षणमवज पारमन्यै, रव्यक्तमुक्तिमभिधानविधौदरिद्रः। सत्सर्वलोकहग्यप्रियचारुवाक्य व्यक्ती करोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ।। कठिनता से पार पाने योग्य जिस शब्द लक्षण को दरिद्रों ने व्याख्या करने में स्पष्ट नहीं किया। उस सम्पूर्ण शब्द लक्षण को अभयनन्दि मुनि सबके हृदयों को प्रिय लगने वाले सुन्दर वाक्यों से स्पष्ट करता है। इस श्लोक के पूर्वाध से स्पष्ट जान पड़ता है कि अभयनन्दि से पूर्व जैनेन्द्र व्याकरण पर भनेक वृत्तियां बन चकी थीं। जिनमें सूत्रों की पूर्ण और स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। इससे महावृत्ति की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। अभयमन्दी ने अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया और किस राजा के राज्यकाल में ग्रन्थ का निर्माण हया, इसका भी उल्लेख नहीं किया। प्रतः अभयनन्दी का समय विवादास्पद है। डाक्टर वेल्वेक्कर ने अपने 'सिस्टम आफ संस्कृत ग्रामर' में अभयनन्दी का समय सन् ७५३ (वि० मं० ८०७) माना है। पर महावृत्ति का अध्ययन करने से महावृत्ति का रचनाकाल हवीं शताब्दी ज्ञात होता है । अनन्तवीर्य प्रनन्तवीयं-रविभद्र पादोपजीवी थे। इनकी एक मात्र कृति "सिद्धि विनिश्चय' टीका है । यह प्रकलङ्क वाङ्मय के पंडित थे। और उनके विवेचक और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्र ने इनकी उक्तियों से अकलङ्ग देबके दुरवगाह ग्रन्थों का अच्छा अभ्यास और विवेचन किया था। प्राचार्य अनन्तवीर्य की सिद्धि विनिश्चय टीका बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उसमें दर्शनान्तरीय मतों की विस्तृत आलोचना की गई है। टीका में धर्मकीति, अर्चट, धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर गृत आदि प्रसिद्ध विद्वानों के मतों के अवतरण उद्धत किये हैं। इनके अतिरिक्त अनन्तवीर्य टीका में 'ऊहो मति मिबन्धनः वाक्य उद्धृत किया है। विद्यानन्द के तत्वार्थरलोक वार्तिक पृष्ट १६६ में यह वास्य इस रूप में उपलब्ध है: 'समारोपच्छिद्रहोऽत्र मानं मतिनिबन्धमः' (तत्वा० श्लो०१-१३-६० ७. जहण हुअ छन्द चूडामणिस्म तिहुअरणसयंभु लहु तर उ । तो पद्धडिया कब सिरि पंचमि को समारेउ। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - -भाग २ प्रत: विद्यानन्द (ई०८४०) का अवतरण लेने वाले तथा विद्यानन्द के उत्तरवर्ती अनन्तवीर्य के स्वतः प्रामाण्य भंग का उल्लेख करने वाले अनन्तबीयं का समय ईसा की वों का उत्तरार्ध या १०वी का पूर्व भाग होना चाहिये । अनन्तवीर्य ने अपनी टीका के प० २४६ में कर्मबन्ध के एकरण में तदुक्त बाक्य के साथ निम्न श्लोक उद्धृत किया है : एषोऽहं अमकर्मशर्महरतेतद्वन्धनान्यास्त्रवः, ते क्रोधादिधशा: प्रमादजनिताः क्रोधाव्यस्तेऽवतात् । मिस्माज्ञान कृतात्ततोऽस्मि सततं सम्यकत्ववान सुव्रतः, दक्षः क्षीणकषाययोगतपसां कत्तति सुक्तो यतिः।। यह श्लोक यशस्तिलकचम्पू के उत्तरार्घ पृ० २४६ में पाया जाता है इसी भाव का एक श्लोक गुणभद्राचार्य के प्रात्मानुशासन में भी उपलब्ध होता है। प्रस्त्यात्मास्ति मिताविबन्धनगतः तबन्धनान्यास्त्रवैः, ते क्रोधाविकृताः प्रमावजनिताः क्रोधावयस्तेऽखतात् । मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ क्वचित्, सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥२४१ इन दोनों लोकों के बिम्ब प्रतिविम्ब भाव ही नहीं किन्तु शब्द रचना भी मिलती जुलती है। इससे अनन्तवीर्य का समय सोमदेव के बाद शक सं० ८८१ सन् ६५६ ई. के आस-पास होना चाहिये । हम्मच के शिलालेख में अनन्तवीर्य को वादिराज के दादा गुरु श्रीपाल विद्यदेव का सधर्मा लिखा है । वादिराज के दादा गुरु का समय ५० वर्ष मान लिया जाय तो अनन्तवीर्य की स्थिति ९७५ ई० के पास-पास ग्राती है। इस समय का समर्थन शान्तिसूरि (ई० सन् ६६३-१०४७) और वादिराज (१०१५ ई०) के द्वारा किये अनन्तवीर्य के उल्लेखों से हो जाता है। प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्य की उक्तियों को सुन सकते हैं। डा०प्रादिनाय नेमिनाथ उपाध्ये ने के० वी० पाठक की आलोचना करते हुए अनन्तवीर्य का समय ईसा की ८वीं सदी का पूर्वार्ध बतलाया है । परन्तु वह डा. महेन्द्र कुमार जी को मान्य नहीं है, उनका कहना है कि अनन्तवीर्य की समयावधि सन् १५० से ११० तक निश्चित होती है । देवेन्द्र सैद्धान्तिक देवेन्द्रसद्धान्तिक-मूल संघ, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान त्रैकालयोगी के शिष्य थे। इनके विद्यागुरु गुणनन्दी थे। जिनके तीन सौ शिष्य थे। उनमें ७२ शिष्य उतकृट कोटि के विद्वान और व्याख्यान पट थे। उनमें प्रसिद्ध मुनि देवेन्द्र थे, जो नय-प्रमाण में निपुण थे। यह चतुर्म म्ब देव के नाम से भी प्रसिद्ध थे, क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके ग्राठ-पाठ उपवास किये थे। यह बंकापुर के प्राचार्यों के अधिनायक थे। १. जैन लेख सं० भ० ३ पृ० ७२, २. न्याय कुमुद्रचन्द्र पृ० ७६, ३.जैन दर्शन वर्ष ४ अंक, ४. सिद्धिविनिश्चय प्रस्तावना पृ०८७ ५. श्री मूलसंघ-देशीयगण-पुस्तक गच्छतः । जातस्त्रकाल योगीश: क्षीराब्धेरिव कौस्तुभः ॥३५ तच्चारित्र वधू पुत्रः श्री देवेन्द्र मुनीश्वरः । सिद्धान्तिकाग्रणीस्तस्मै बैंकेयो (यामदान्मु) दा ।।३६ -जैन ले० सं० मा २१० १४५ ६. तच्छिष्यास्त्रि नाविवेकनिधयशास्त्राब्धि पारङ्गता -- स्तेषूत्कृष्टतमा द्विसप्ततिमितास्सिद्धान्तशास्त्रार्थकध्यास्थाने पटवो विचित्र चरितास्तेष प्रसिद्धो मनि:: नानानूननय-प्रमाण निपुणो देवेन्द्र संद्धान्तिकः ।। -जैन लेख सं० भा०११०२ ७. बकापुर मुनीन्द्रोऽभूद' देवेन्द्रो गन्द्र सद्गुणः ।। सिद्धान्ताद्यागमार्थो सज्ञानादि गुणान्वितः ।।-जन लेख सं० भा०२ पृ०११६ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी आचार्य शक सं०७२ सन् ८६० के ताम्रपत्र से ज्ञाता है कि अमोध वर्ष प्रथम ने अपने राज्य के ५२वें वर्ष में मान्य खेट में जैनाचार्य देवेन्द्र को दान दिया था। अमोघवर्ष ने यह दान अपने अधीनस्थ राज कर्म चारी बडूय को महत्यपूर्व सेवा के उपलक्ष्य में कोलनर में बडूय द्वारा स्थापित जिनमन्दिर के लिये देवेन्द्र मुनि को सलेयूर नाम का पुरा गांव और दूसरे गावों की कुछ जमीन प्रदान की थी। यह दान शक सं०७८२ (सन् ८६०- वि० सं० ६१७) में दिया गया था। इससे देवेन्द्र सैद्धान्तिक का समय ईसा की नवमी और विक्रम की दशमी शताब्दी का पूर्वार्ध है। इनके शिष्य कलधौतनन्दी थे। जिनका परिचय नीचे दिया गया है। कलपोतनन्दि कसौतनन्दि मलसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ के विद्वान गुणनन्दि के प्रशिष्य और देवेन्द्र सैद्धान्तिक के शिष्य थे। बडे भारी सैद्धान्तिक और पंचाक्षरूप उन्नत गज' के कं भस्थल को फाड़कर मुक्ताफल प्राप्त करने वाले केशरी सिंह थे। विद्वानों के द्वारा स्तूत और वाक्य रूपी कामिनी के वल्लभ थे। चं कि देवेन्द्र सैद्धान्तिक को राष्ट्रकूट राजा अमोध वर्ष प्रथम ने बडूय द्वारा स्थापित जिनालय के लिये 'कोलनर' में 'तलेयूर' नामका ग्राम और दूसरे ग्रामों की कुछ जमीनं प्रदान की थीं। यह लेख शक सं०७२ सन - वि.सं. १९७) का लिया इया है। अत: कलधौतनन्दि का समय भी ईसा को नवमी (वि. की १०) शताब्दी हो सकता है। (जैन लेख स० भा० २ पृ० १४१) वृषमनन्दी सिषण सैद्धान्तिक मुनि का उल्लेख प्रायश्चित्तके एक संस्कृत ग्रंथ जीतसारसमुच्चय, को प्रशस्ति में किया गया है। इन्हें मान्यखेट में मंजूषा में कुन्दकुन्दाचार्य 'नामांकित' जीतोपदेशिका' नाम का अन्य प्राप्त हुमा था। और जो संभरी स्थान में चले गये थे। उन्हीं मुनिराज ने उसकी व्याख्या वृषभनन्दी को की थी तब वृषभनन्दी, जो नन्दनन्दी के शिष्य, और रूक्षाचार्य के प्रशिष्य थे । जीतसार समुच्चय ग्रन्थ की रचना संस्कृत पद्यों में की थी। पौर हर्षनन्दी ने सुन्दर अक्षरों में लिखा था । वृषभनन्दी का यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है, इसमें प्रायश्चिन्त का कथन किया गया है। इसका प्रकाशन होना चाहिये। यह अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में मौजूद है। इससे इनका समय नवमी शताब्दी जान पड़ता है। तच्छिष्यः कलधौतनन्दिमुनिपस्सद्धान्तचक्रेश्वरः, पारावारपरीतधारिणि कुलब्याप्तोरुकीतीश्वरः । पश्चाक्षोम्मदकुम्भिदलन प्रोन्मुक्त मुक्ता फलप्रांशु प्राञ्चित केसरी बुधनुतो वाक्कामिनी बल्लभः ।।१० -जैन लेख सं० भा० १ पृ. ७२ २. मान्याखेटे मंजूषेक्षी सैद्धान्तः सिद्धभूषणः । सुजीर्णा पुस्तिका जैनी प्राप्यि संभरी गतः ॥३४ श्री कोंड कुन्दनामांका जीतोपदेशदीपिका । ब्याख्याता मदहितार्थन मयाप्युक्ता यथार्थतः ।। ३५ सद्गुरोः सदुपीन कुता बृषभनन्दिना । जीतादिसार संक्षेपो नंद्याचा चंदुतारकं ३६ ३. देखो, अनेकान्तवर्ष १४ कि० १ ० २७ में पुराने साहित्य की खोज लेख । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सर्वनन्दि भट्टारक सर्वनन्दि भट्टारक-कुन्दकुम्दान्बय के एक चट्ट गद भट्टारक (मिट्टी के पात्र धारी) के शिष्य श्री सर्वनन्दि भद्रारक ने इस (कोप्पल) नामक स्थान में निवास कर यहां के नगरवासी लोगों को अनेक उपदेश दिए पोर बहुत समय तक कठोर तपश्चरण कर सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया। यह सर्वनन्दि सब पापों की शान्ति करें। यह लेख शक सं०८०३ सन् ८८१ (वि० सं०६३८) का है। अतः इन सर्वनन्दि का समय ईसा की हवीं और विक्रम की दशमी शताब्दी का पूर्वाध है। (Jainism in Sauth India Po 523) प्राचार्य विद्यानन्द विद्यानन्द- अपने समय के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे। ग्रापका जैन ताकिक विद्वानों में विशिष्ट स्थान है। यापकी कृतियां प्रापके अतुलतलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमुखी प्रतिभा का पद-पद पर अनुभव कराती हैं । अापकी अष्ट सहस्री और तत्त्वार्थ इलोकवार्तिकादि कृतियों से जहां अापके मिशाल वैदुप्य का पता चलता है वहीं उनकी महत्ता और गंभीरता का भी परिज्ञान होता है। प्रापकी कृतियों अपना सानी नहीं रखतीं। जैन दर्शन उन कृतियों से गौरवान्वित है। जैन परम्परा में विद्यानन्द नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु प्रस्तुत विद्यानन्द उन सब से ज्येष्ठ, प्रसिद्ध पौरप्राचीन बहुश्रुत विद्वान हैं । यद्यपि उन्होंने अपनी कृतियों में जीवन-घटना और समयादि का कोई उल्लेख नहीं किया, फिर भी अन्य सूत्रों से उनो मा का परि जाता है। आचार्य विद्यानन्द का जन्म ब्राह्मण कुल में हश्रा था। वे जन्म से होनहार और प्रतिभाशाली थे । अतएव उन्होंने वैशेषिक, न्याय मीमांसा, वेदान्त प्रादि वैदिक दर्शनों का अच्छा अभ्यास किया था, और बौद्धदर्शन के मन्तब्यों में विशेषतया दिग्नाग, धर्मकीति और प्रज्ञाकर मादि प्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों के दार्शनिक ग्रन्थों का भी परिचय प्राप्त किया। इस तरह वे दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान बने। और जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों के भी बे विशिष्ट अभ्यासी थे। जान पड़ता हे विद्यानन्द उस समय के वाद-विवाद में भी सम्मिलित हुए हों तो कोई आश्चर्य नहीं । हो सकता है उन्हें जैन और बौद्ध विद्वानों के मध्य होने वाले शास्त्रार्थों को देखने या भाग लेने का अवसर भी प्राप्त हमा हो। वे अपने समय के निष्णात तार्किक विद्वान थे। और ताफिक विद्वानों में उनका ऊँचा स्थान था। उन्होंने जैन धर्म कब धारण किया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। पर वे जैन धर्म के केवल विशिष्ट विद्वान ही नहीं थे; किन्तु जैनाचार के संपालक मुनि पुंगव भी थे। उनकी कृतिमो उनके अतुल तलस्पर्शी पांडित्य का पद-पद पर बोध कराती हैं। जैन परम्परा में विद्यानन्द नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक हो गये हैं। पर आपका उन सब में महत्वपूर्ण स्थान है। विद्यानन्द प्रसिद्ध वैयाकरण, श्रेष्ठ कवि, अद्वितीयवादि, महान सैद्धान्तिक, महान् ताकिक, सक्षम प्रज्ञ और जिन शासन के सच्चे भक्त थे। अापकी रचनाओं पर गद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी भट्टाकलंकदेव और कुमारनन्दि भट्रारक आदि पूर्ववर्ती विद्वानों की रचनाओं का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्राप की दो तरह की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। टीकात्मक और स्वतंत्र । मापका कोई जीवन परिचय नहीं मिलता। और न मापके जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का ही कोई उल्लेख उपलब्ध होता है। प्रापने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। जिनके नाम इस प्रकार है : १. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, २. अष्टसहस्री (देवागमालंकार, और युक्त्यनुशासनालकार ये तीन टीका ग्रन्थ हैं। और विद्यानन्द महोदय, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, और श्रीपुर पाश्वनाथ स्तोत्र, ये सब उनकी स्वतन्त्र कृतियां हैं। तत्त्वार्य इलोकवासिक-यह गद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थ सूत्र पर विशाल टीका है। जिसके पश्च वार्तिको पर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य अथवा व्याख्यान लिखा है। यह अपने विषय की प्रमेय बहुल टीका है। प्राचार्य विद्यानन्द ने इस रचना द्वारा कुमारिल और धर्मकीति जैसे प्रसिद्ध ताकिक विद्वानों के जनदर्शन पर किये गए १. विद्यानन्द नाम के अन्य विद्वानों का सथाम्धान परिचय दिया गया है, पाठक उनका वहां अवलोकन करें। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य १६१ श्राक्षेपों का सबल उत्तर दिया है। और जैनदर्शन के गौरव को उन्नत किया है-- बढाया है। भारतीय दर्शन साहित्य में ऐसा एक भी ग्रंथ दिखाई नहीं देता, जो इसकी समता कर सके। इस ग्रंथ में कितनी ही चर्चाएं ग्रपूर्व हैं । श्रौर वस्तु तत्त्व का विवेचन बड़ी सुन्दरता से दिया हुआ है। इसके भ्राघुनिक सम्पादित संस्करण की आवश्यकता है। क्योंकि सन् १९१८ में प्रकाशित संस्करण अनुपलब्ध है, फिर वह अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण है । भ्रष्टसहस्त्री - (देवागमालंकार ) – यह श्राचार्य समन्तभद्र के देवागम पर लिखी गई विस्तृत श्रीर महत्वपूर्ण टीका है । देवागम पर लिखी गई कलंक देव की दुरूह और दुरवगाह अष्टशती विवरण ( देवागमभाव्य ) को अन्तः प्रविष्ट करते हुए उसकी प्रत्येक कारिका का व्याख्यान किया गया है। विद्यानन्द यदि भ्रष्टशती के दुरूह और जटिल पद-वाक्यों के गूढ रहस्य का उद्भावन न करते तो विद्वानों की उसमें गति होना संभव नहीं था । उन्होंने अष्टसहस्त्री में कितने ही नये विचार और विस्तृत चर्चाएं दी हुई हैं, जिनसे पाठक उसके महत्व का सहज ही अनुमान कर सकते हैं । विद्यानन्द ने स्वयं लिखा है कि हजार शास्त्रों को सुनने से क्या, अकेली प्रष्ट सहस्री को सुन लीजिये उसी से समस्त सिद्धांतों का परिज्ञान हो जायगा । उन्होंने कुमारसेन को उक्तियों से भ्रष्ट सहस्री को वर्धमान भी बतलाया है। और कष्टसहली भी सूचित किया है। इस पर लघु समन्तभद्र ने 'अष्टसहस्री विषम पद तात्पर्य टीका' और श्वेताम्बरीय विद्वान यशोविजय ने 'अष्टसही तात्पर्यविवरण' नाम की टीकाएं लिखी हैं। चूंकि देवागम में दश परिच्छेद हैं। प्रत: भ्रष्टसहस्त्री में दश परिच्छेद दिये हुए हैं। युक्भ्यनुशासनालंकार - यह आचार्य समन्तभद्र का महत्वपूर्ण और गंभीर स्तोत्र ग्रंथ है। उन्होंने श्राप्तमीमांसा के बाद इसकी रचना की है। आप्तमीमांसा में अन्तिम तीर्थंकर महावीर की परीक्षा की गई है। और परीक्षा के बाद उनकी स्तुति की गई है। इसमें कुल ६४ पद्य हैं । प्रत्येक पद्म दुरूह और गम्भीर अर्थ को लिये हुए है। उस पर विद्यानन्द की 'युक्त्यनुशासनालंकार टीका है। जो पद्यों के भावों का उद्घाटन करती हुई दार्शनिक चर्चा से श्रोत-प्रोत है। इस ग्रन्थ का पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने बड़े परिश्रम से हिन्दी अनुवाद किया है, जिससे ग्रन्थ का अध्ययन सबके लिये सुलभ हो गया है। दूसरी हिन्दी टीका पं० मूलचन्द्र जी शास्त्री महावीर जी ने की है, जो प्रकाशित हो चुकी है । विद्यानन्द महोदय - श्राचार्य विद्यानन्द की यह महत्वपूर्ण प्रथम कृति थी । माचार्य विद्यानन्द ने स्वयं 'लोकवार्तिकादि ग्रन्थों में उसका उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है। खेद है कि विद्यानन्द की यह बहुमुल्य कृति अनुपलब्ध है | श्वेताम्बरीय विद्वान वादिदेव सूरि ने 'स्याद्वादरत्नाकर में उसका उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है" महोदये च - ' कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणानिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते इति वदन विद्यानन्दः) संस्कार धारणयोरेकार्थ्य मचकथत्" । (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ३४९ ) । उनकी इस मौलिक स्वतंत्र रचना का अन्वेषण होना आवश्यक है। आप्तपरीक्षा - प्राप्तमीमांसा की तरह प्राचार्य विद्यानन्द ने प्राप्तपरीक्षा में तत्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण तमोक्षमार्ग नेतृत्व, कर्मभूभृद्ध तृव पर विश्वतत्व ज्ञातृत्व इन तीन गुण 'विशिष्ट प्राप्त का समर्थन करते हुए अन्ययोग व्यवच्छेद से ईश्वर, कपिल, बुद्ध और ब्रह्म की परीक्षा पूर्वक प्रर्हन्त जिन को प्राप्त निश्चित किया है। ग्रन्थ में १२४ कारिकाए है। और उन पर विद्यानन्द स्वामी की प्राप्तपरीक्षालं कृति' नाम की स्वोपज्ञटीका है। ग्रन्थ की भाषा सरल और विशद है । कारिकाए सरल । और टीका की भाषा सरल सुगम बोधक है। इसमें वस्तु तत्त्व का अच्छा प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ पं० दरबारी लाल जी न्यायाचार्य द्वारा अनुवादित सम्पादित होकर वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित हो चुका है । प्रमाणपरीक्षा - यह विद्यानन्द की तीसरी स्वतंत्र कृति है । इसमें प्रमाण का सम्यग्ज्ञानत्व लक्षण करके उसके भेद-प्रभेदों का विषय तथा फल और हेतुओं की सुसम्बद्ध प्रामाणिक और विस्तृत चर्चा सरल संस्कृत गद्य में १. कष्ट सही सिद्धा साऽष्ट सहस्रीयमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्ट-सहत्री कुमारसेनोति वर्षमानार्थी || Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २०० की गई है । ग्रन्थ आधुनिक सम्पादन की वाट जोह रहा है। पत्र- परीक्षा- इसमें दर्शनान्तरीय पत्र लक्षणों की समालोचना पूर्वक जैन दृष्टि से पत्र का सुन्दर लक्षण किया है। प्रतिज्ञा और हेतु को अनुमानाङ्ग प्रतिपादित किया है । सत्य-शासन परीक्षा- इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ शासनों की परीक्षा की प्रतिक्षा की गई है। किन्तु ६ शासनों की परीक्षा पूरी और प्रभाकर शासन की अधूरी परीक्षा उपलब्ध होती हैं । यह ग्रंथ डा० गोकुलचन्द जो के सम्पादकत्व में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है । श्री पुरपावनाय स्तोत्र - यह ३० पद्यात्मक स्तोत्र ग्रन्थ है। जिसमें श्रीपुर के पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है । इसमें विद्यानन्द ने स्रग्धरा, शार्दूल विक्रीडित, शिखरिणी और भन्दा कान्ता छन्दों का प्रयोग किया है । इस स्तोत्र में समन्तभद्राचार्य के देवागमादिक स्तोत्र जैसी तार्किक शैली को अपनाया गया है। और कपिलादिक मैं अनाप्तता बतलाकर पार्श्वनाथ में प्राप्त पता सिद्ध किया गया है, और उनके बीतरागत्व, सर्वज्ञत्व और मोक्षमार्गप्रणेतृत्व इन असाधारण गुणों की स्तुति की गई है। रूपकालंकार की योजना करते हुए आराध्य देव की प्रशंसा की गई है। यथा शरण्यं नाथाऽर्हन् भय-भव भवारण्य-विगति च्युता नामस्माकं निरवर-वर कारुण्य-निलयः । यतो गप्पात्पुण्याचिरतरमपेक्ष्यं तव पदं परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल- लक्ष्मीगृह मिदम् ॥२९ हे नाथ! हे अर्हन् ! आप संसाररूपी वन में भटकने वाले हम संसारी प्राणियों के लिये शरण हों, थाप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार परिभ्रमण से मुक्त करें, क्योंकि आप पूर्णतया करुणानिधान हैं। हम चिरकाल से आप के पदों की अपेक्षा कर रहे हैं। आज बड़े पुण्योदय से मोक्ष लक्ष्मी के स्थान भूत भाप के चरणों की भक्ति प्राप्त हुई है। स्तोत्र में भाषा का प्रवाह मौर उदात्त शैली मन को अपनी ओर आकृष्ट करती है । यह स्तोत्र पं० दरबारी लाल जी की हिन्दी टीका के साथ वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो चुका है ? प्राचार्य विद्यानन्द का समय प्राचार्य विद्यानन्द ने मष्टसहस्री के प्रशस्ति पद्म में कुमारसेन की उक्तियों से उसे प्रवर्धमान बतलाया है । इससे विद्यानन्द कुमारसेन के उत्तरवर्ती हैं। कुमार सेन का समय ७८३ से पूर्ववर्ती है। क्योंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाटसंघी जिनसेन (शक सं० ७०५ - सन् ७६३) ने हरिवंश पुराण में किया है। इससे कुमारसेन वि० सं० ८४० से पूर्ववर्ती हैं। उस समय उनका यश वर्धमान होगा। अतः विद्यानन्द का समय सन् ७७५ से ६४० प्रमाणित होता है । प्राचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक की ग्रन्तिम प्रशस्ति में निम्न पद्य दिया है :-- 'जीयात्सज्जनताऽऽभयः शिव-सुधा धारावधान प्रभुः, ध्वस्त व्वान्त-ततिः समुन्नतगतिस्तीव्र प्रतापान्वितः । प्रोज्योति रिवावगाहन कृतानन्त स्थि तिर्मानतः, सन्मार्गस्त्रितयात्मकोऽखिल मलः प्रज्वालन प्रक्षमः ॥ ३० इस पद्य में विद्यानन्द ने जहां मोक्षमार्ग का जयकार किया है। यहां उन्होंने अपने समय के गंगनरेश शिवमार द्वितीय का भी यशोगान किया है। शिवमार द्वितीय पश्चिमी गंगवंशी श्रीपुरुष नरेश का उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई० सन् ८१० के लगभग राज्य का प्राधिकारी हुआ था । इसने श्रवण बेलगोल की छोटी १. प्रस्तुत श्रीपुर धारवाड जिले का शिरूर ग्राम ही श्रीपुर हो। क्योंकि शक सं० ६६८ ( ई० सन् ७७६) में पश्चिमी गंगबंशी राजा श्री पुरुष के द्वारा श्रीपुर के जैन मन्दिर के लिये दिये जाने वाले दान का उल्लेख करने वाला एक ताम्रपत्र मिला है। -- ( जैन सि० भा० भा० ४ कि०३ १५८ ) वर्जेस और हण्टर आदि अनेक पाश्चात्य लेखकों ने बेसिंग जिले के सिरपुर को प्रसिद्ध तीर्थं बतलाया है। और पार्श्वनाथ के प्राचीन मन्दिर होने की सूचना की है। संभव है इसी नगर के पार्श्वनाथ की स्तुति विद्यानन्द ने की हो और महाराष्ट्र देश का श्रीपुर नगर जहाँ के अन्तरीक्ष पारख नाथ का मन्दिर भिन्न ही हो। जिसके कुएं के जल से एलग राय (श्रीपाल ) का कुष्ट रोग दूर हुआ था। इस सम्बन्ध में अन्वेषणा करने की आवश्यकता है । २. देखो हरिवंश पुराण १-३८ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी और दशवीं शताब्दी के आचार्य २०१ पहाड़ी पर एक बसदि बनवाई थी, जिसका नाम 'शिवमारनवसदि' था। चन्द्रनाथ स्वामी की वसदि के निकट एक चट्टान पर कनड़ी में 'शिवमारन वसदि' इतना लेख उत्कीर्ण है जिसका समय सन् १० माना जाता है। प्रस्तुत शिवमार द्वितीय अपने पिता श्रीपुरुष की तरह जैन धर्म का समर्थक था। वह समर्थक ही नहीं किन्तु उसके एक ताम्रपत्र सप्रमाणित होता है कि वह स्वयं जन था। शिवमार का भतीजा विजयादित्य का पुत्र राचमल्ल सत्यवाक्य' प्रथम शिवमार के राज्य का उत्तराधिकारीहमा था। और वह सन ८१६ के लगभग गद्दी पर बैठा था। विद्यानन्द ने अपने ग्रन्यों में सत्यवाक्याधिप का उल्लेख किया है। स्थेयाज्जात जयध्वजाप्रतिनिधिः प्रोभतभरिप्रभः, प्रध्यस्तारिवल-बुर्नय-द्विषदिभिः सन्नीति-सामर्थ्यतः । सन्मार्ग स्त्रिविधः कुमार्गमयनोऽर्हन् वीरनाथः श्रिये, शश्वत्संस्तुतिगोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥१ प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वाक्षमार्गानुगविद्यानन्द धरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥२।। -युक्त्यनुशासनालंकार प्रशस्ति । जयन्ति निर्जताशेष सर्वथैकान्तनीतयः । सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वरः ।। -प्रमाण परीक्षा मंगल पद्य विद्यानन्दैः स्वाक्त्या कथमपि कषितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयः॥ प्राप्त परीक्षा १२३ इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्द की रचनायें ८१० से ८४० के मध्य रची गई हैं। इन्हीं सब प्राधारों से ५० दरबारीलाल जी कोठिया ने भी विद्यानन्द का समय ई० सन् ७७५ से १४० तक का निश्चित किया है। इससे प्राचार्य विद्यानन्द का समय ईसा की नवमी शताब्दी सुनिश्चित हो जाता है। प्रज्जनन्दि (आर्यनन्दि) तमिल प्रदेश में प्रज्जनन्दि नाम के प्रभावशाली प्राचार्य हो गए हैं। उनका व्यक्तित्व महान था। सातवी शताब्दी के उत्तरार्ध में तमिल प्रदेश में जैन धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध एक भयानक वातावरण उठा। परिणाम स्वरूप वहाँ जैन धर्म का प्रभाव क्षीण हो गया और उसके सम्मान को ठेस पहुंची, ऐसे विषम समय में मायनन्दि मागे पाये। उन्होंने समस्त तमिल प्रदेश में भ्रमण कर जैन धर्म के प्रभाव को पुनः स्थापित करने के लिये जगह-जगह जैन तीर्थकरों की मूर्तियां अंकित कराई। इससे अज्जनन्दि के साहस और विक्रम का पता चलता है। उन्हें इस कार्य के सम्पन्न कराने में कितने कष्ट उठाने पड़े होंगे, यह भुक्तभोगी ही जानता है । परन्तु उनकी आत्मा में जैन धर्म की क्षीणता को देखकर जो टीस उत्पन्न हुई उसीके परिणामस्वरूप उन्होंने यह कार्य सम्पन्न कराया। उनका यह कार्य ५वी हवीं शताब्दी का है। उनका कार्यक्षेत्र मदुरा, और त्रावणकोर आदिका स्थान रहा है। प्रार्थनन्दि ने उत्तर मारकाट जिले के वल्लीमले की प्रोर मदुरा जिले के प्रन्नमले, ऐवरमले, प्रलगरमले, १.जन लेख संग्रह भा० १ पृ. ३२७ २. दक्षिण भारत में जैन धर्म पृ० ८१ ३. गंग वंश में कुछ राजाओं की उपाधि 'सस्य वाक्य थी। इस उपाधि के चारक ई० सन् ८१५ के बाद प्रथम सत्य वाक्य, दूसरा ८७० से १०७, तीसरा सत्य वाक्य १२०, और चौथा ९७७, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ करुगालक्कुडी और उत्तम पाल्यम् की चट्टानों पर जैनमूर्तियों का निर्माण करवाया। दक्षिण को और तिलेवेल्लो जिले के इरुवाड़ी (Eruvadi) स्थान में मूर्तियों का निर्माण कराया। त्रावणकोर राज्य के चितराल नामक स्थान के समीप तिरुच्चाणटु (Tiruchhanattu) नामकी पहाड़ी पर भी चट्टान काट कर जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण को गई है । श्रानन्दिका यह कार्य महत्वपूर्ण, तथा जैनधर्म की प्रसिद्ध के लिए था इनका समय ८ वीं शताब्दी है। २०२ गुणकीर्ति मुनीश्वर मुनि गुणकीर्ति मेला तीर्थं कारेयगण के विद्वान मूल भट्टारक के शिष्य थे। और जो अत्यन्त गुणी थे । श्रीमन्मैलापतीर्थस्य गणे कारेय नामनि । बभूवोतपोयुक्तः मूलभट्टारको गणो ॥ तच्छिष्यो गुणवान्सूरि गुणकीर्ति मुनीश्वरः । तस्याप्यात (द्र) कीर्तिस्वामी काममदापहः ॥ - जैन लेख सं० भा० २ पृ० १५२ सौंदत्ती का यह शिलालेख शक सं० ७६७ सन् ८७५ ईसवी का है । अतः गुणकीति का समय ईसा की नवमी शताब्दी है । इनके शिष्य इन्द्रकीर्ति थे । इन्द्र कोति इन्द्रकीति मेलाप तीर्थं कारयगण के विद्वान गुणकीर्ति के शिष्य थे, जो काम के मद को दूर करने वाले थे । पाडली और हन्निकेरि के शिलालेखों से स्पष्ट होता है कि कारेयगण यापनीयसंघ एक गण था । और सौंदत्ती नवमी शताब्दी में यापनीय संघ का एक प्रमुख केन्द्र था । महासामन्त पृथ्वीराय राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय का महा सामन्त था। और इन्द्रकीर्ति का शिष्य था । उसने एक जिनालय का निर्माण कराकर उसे भूमि प्रदान की थी। इन इन्द्रकीर्ति के पूर्वज भी कारेय गण के थे । सौंदत्ती का यह लेख शक सं० ७१७ सन् ८७५ ईस्वी का है, जो वहां के एक छोटे मन्दिर की बायीं ओर दीवाल में जड़े हुए पाषाण पर से लिया गया है। इससे इनका समय ईसा की नवमी शताब्दी है। इनके गुरु गुणकीर्ति का समय भी ईसा की नवमी सदी है' । अपराजितसूरि (श्री विजय ) अपराजित सूरि-यह यापनीय संघ के विद्वान थे। चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेव सूरि के शिष्य थे। यह भारातीय माचायों के चूड़ामणि थे। जिन शासन का उद्धार करने में घीर वीर तथा यशस्वी थे। इन्हें नागतन्दि गणि के चरणों की सेवा से ज्ञान प्राप्त हुआ था। मोर श्रीनन्दी गणी की प्रेरणा से इन्होंने शिवाय की भगवती आराधना की 'विजयोदया' नाम की टीका लिखी थी। इनका अपर नाम श्री विजय या विजयाचार्य था । पंडित आशाधर जी ने इनका 'श्री विजय' नाम से ही उल्लेख किया है । भगवती श्राराधना की ११६७ नम्बर की गाथा की टीका में 'दशवैकालिक पर विजयोदया टीका लिखने का उल्लेख किया है- "दशवंकालिक टीकायां 'श्री विजयोदयायाँ प्रपंचिता उद्गमादि दोषा, इति नेह प्रतन्यते ।" आराधना की टीका का नाम भी 'श्री विजयोदया' दिया है । टीका में मचेलकत्व का समर्थन किया गया है। प्रौर श्वेताम्बरीय उत्तराध्ययनादि ग्रन्थों के १. जैन लेख सं० मा० २ लेख न० १३० पू० १५२ २. एतच्च श्री विजयाचार्य विरचित संस्कृत मूलाराधना टीकायां सुस्थित सूत्रे विस्तरतः समर्थितं । अनगार धर्मामृत टोका पु० ६७३) । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नधी और दसवीं शताब्दी के आचार्य अनेक प्रमाण भी दिये हैं । यह यापनीय संघ के प्राचार्य थे। इस संघ के सभी प्राचार्य नग्न रहते थे, किन्तु श्वेताम्वरीय आगम ग्रन्थों को मानते थे और सवस्त्र मुक्ति और केवल भुक्ति को मानते थे। इस संघ के शाकटायन व्याकरण के कर्ता पाल्यकोति ने स्त्री मुक्ति और केवल मुक्ति नाम के दो प्रकरण लिखे हैं, जो मुद्रित हो चुके हैं। टीका में एक स्थान पर भूत और भविष्यत् काल के सभी जिन अचेलवा हैं। मेरु प्रादि पर्वतों की प्रतिमाएं और तीर्थकर मार्गानुयायो गणधर तथा उनके शिष्य भी उसी तरह अचेलक हैं। इस तरह अचेलता सिद्ध हई। जिनका शरीर वस्त्र से परिवेष्टित हैं वे व्यूत्सप्ट, प्रलम्ब भुज और निश्चल जिनके सदश नहीं हो सकते ।। दशववै. कालिक पर टीका लिखने के कारण 'पारातीय चूड़ामणि' कहलाते थे। समय ऊपर जो गुरु परम्परा दी है ये सब प्राचार्य यापनीय संघ के जान पड़ते हैं। अपराजित सूरि ने लिखा है कि-"चन्द्रनन्दि महाकर्मप्रकृत्याचायशिष्येण प्रारातीयरि चुलामणिना नागनन्दिगणि-पाद-पपोपसेवाजातमतिवलेन बलदेव सूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लव्धयशःप्रसरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदितेन रचिता।" चन्द्रनन्दी का सबसे पुराना उल्लेख अभी तक जो उपलब्ध हुआ है वह श्री पुरुष का दानपत्र है, जो 'गोवर्षय' को ई० सन् ७७६ में दिया गया था। इसमें गुरु रूप से विमलचन्द्र, कोलिनन्दी, कुमारनन्दा और चन्द्रनन्दी नाम के चार ग्राचाबों का उल्लेख है (S..J. Pt-JII, 88)। बहुत सम्भव है कि टीकाकार ने इन्हीं चन्दनदि का अपने को प्रशिष्य लिखा हो। यदि ऐसा है तो टीका बनने का समय वि० सं० १३३ अर्थात विक्रम को हवी शताब्दी तक पहन जाता है। चन्द्रनन्दी का नाम 'कर्मप्रकृति' भी दिया है और 'कर्म पीर कर्म प्रकृति का वेलर के १७वे शिलालेख में अकलंक देव और चन्द्रकोर्ति के बाद होना बतलाया है । और उनके वाद विमलचन्द्र का उल्लेख किया है। इससे भी उक्त समय का समर्थन होता है। बलदेव सूरि का प्राचीन उल्लेख धवण बेल्गोल के दो शिलालेखों में नं०७ और १५ में पाया जाता है । जिनका समय क्रमशः ६२२ और ५७२ शक संवत् के लगभग अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि यही बलदेव सरि टीकाकार के गुरु रहे हों। इससे भी उक्त समय की पुष्टि होती है। इनके अतिरिक्त टीकाकार ने नागनन्दी को अपना गुरु बतलाया है। वे नागनन्दी वही जान पड़ते हैं, जो असग के गुरु थे। अत: अपराजित सूरि का समय विक्रम की नवमी का उपान्त्य हो सकता है। टीका आराधना की यह टीका अनेक विशेषताओं को लिये हुए है। नं. ११६ की टीफा करते हुए उसकी व्याख्या में संयमहीन तप कार्यकारी नहीं। इसकी पुष्टि करते हुए मुनि श्रावक के मूल गुणों तथा उत्तर गणां और पावश्यकादि कर्मों के अनुष्ठान विधानादि का विस्तार के साथ वर्णन दिया है। उसका एक लघु प्रश इस प्रकार है : 'तद् द्विविध गुलगुणप्रत्याख्यान उत्तरगुणप्रत्याख्यानं । तत्र संयताना जीविताधिकं मूलमणप्रत्या. ख्यानं । संयतासंयतानां अणुव्रतानि मूलगुण व्यपदेशभौजि भवन्ति । तेषां द्विविधं प्रत्याख्यान अल्पकालिक, जीवितावधिक चेति । पक्ष-मास-पण्नासादि रूपेण भविष्यत्काल सावधिक कृत्वा तत्र स्थल हिंसानतस्तेयानहापरिग्रान्त चरिष्यामि । इति प्रत्याख्यानमल्प कालकम् । पामरणमवधि कृत्वा न करिष्यामि । स्थूल हिंसादीनि इति प्रत्याख्यान ---- १. तीर्थकरान्ति च गुणः-संहनन वल समत्रा मुक्तिमार्ग प्रवाण्यापन पराजिना: सर्वे एकाचेत्राभूनाभक्तिश्च । यथा मेर्वादि पर्वत गना प्रतिमानीयबर मागीनुयायिनच गणधरा इनि नेमचेलास्निचिन्छण्याश्चतर्थवेति मिद्धम चेल त्यम । चेन परि. वेष्टितांगो न जिन राश: व्युत्सप्ट प्रलम्वभुजो निश्चलो जिन प्रतिभाता धत्तं ॥" भ० प्रा० टी० पृ० ६११ २. देखो, अनेकान्त वर्ष २ कि० ८ पृ. ४३७ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जोवितावधिकं च । उत्तर गुण प्रत्याख्यान सयंतासंयतयोपि अल्पकालिक जीविता वधिकं वा।" अर्थात् यह प्रत्यास्मान दो प्रकारका है, मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान। उनमें से संयमी मुनियों के मूलगुण प्रत्याख्यान जीवन पर्यन्त के लिए होता है। संयतासंयत पंचम गुणस्थानवों श्रावक के अणुयतों को मूल गुण कहते हैं । गृहस्थों के मूलगुणों का प्रत्याख्यान अल्पकालिक और सर्वकालिक दोनों प्रकार का होता है। पक्ष, महीना, छह महीने इत्यादि रूप से भविष्यत्काल की मर्यादा करके जो स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, मैथन सेवन और परिग्रह रूप पंच पापों को मैं नहीं करूंगा, ऐसा संकल्प कर उनका जो त्याग करता है वह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है । उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ दोनों ही जीवन पर्यन्त तथा अल्पकाल के लिए कर सकते हैं। गाथा नं. ५ की टीका में सिद्ध प्राभूत' का उल्लेख किया है। ७५३ की गाथा की व्याख्या करते हुए 'नमस्कारपाइड' ग्रन्थ का उल्लेख किया है।' अपराजित सूरि ने अपनी टीका में देवनन्दी (पूज्य पाद) की सर्वार्थ सिद्धि तथा अकलंकदेव के तत्त्वार्थ पातिक का भी उपयोग किया है । और उनकी अनेक पंक्तियों को उद्धत किया है। अमितगति प्रथम ममितगति-माथुर संघ के विद्वान देवसेन के शिष्य थे। जिन्हें विध्वस्त कामदेव, विपुलशमभूत, कान्तकीति और श्रुत समुद्र का पारगामी सुभाषित रत्न सन्दोह की प्रशस्ति में बतलाया गया है। पौर इनके शिष्य प्रथम प्रमितगति योगी को प्रशेष शास्त्रों का ज्ञाता, महावतों-समितियों के धारकों में अग्रणी, कोष रहित, मुनिमान्य और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का त्यागी बतलाया है, जैसा कि-'त्यक्तनिःशेष संगः । वाक्य से प्रकट है :--- "विशाताशेषशास्त्री व्रत समितिभसामग्रणीरस्तकोपः।। श्रीमान्माम्यो मुनीनाममितगति यतिस्पक्तनिशेषसंगः ।।" इस तरह अमित गति द्वितीय ने उनका बहुत गुण गान किया है, उन्हें असंध्य महिमालय, विमलसत्ववान रत्नघी, गणमणि पयोनिधि, बतलाया है। साथ ही धर्म परीक्षा में 'भासिताखिल पदार्थ समूह :निर्मलः, तथा साराधना में 'शम-यम-निलयः, प्रदलितमदनः, पदनतसरि जैसे विशेषणों के साथ स्मरण किया है। जो उनके व्यक्तित्व की महत्ता को प्रकट करते हैं। इससे वे ज्ञान और चारित्र की एक प्रसाधारण मूर्ति थे। उनका व्यक्तित्व महान् था और अनेक प्राचार्यों से पूजित-नमस्कृत एवं महामान्य थे। उन्होंने पशेष शास्त्रों का अध्ययन किया था, और उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किया था, उसी का सार रूप ग्रन्थ योगसार प्राभूत' है। उनकी यह रचना संक्षिप्त, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है। 'चूकि अमित गति द्वितीय का रचना समय सं० १०५० से १०७३ है। अमित गति प्रथम इनसे दो पीढ़ी पहले हैं। अत: उसमें से ५० वर्ष कम कर देने पर उनका समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का प्रथम चरण जान पड़ता है। ----------- - -- - . . . .- -.-..- - १. सिद्ध प्राभूतगदित स्वरूप सिद्धज्ञानमागमभावसिद्धः ॥ (गाथा ५) २. 'नमस्कार प्राभूत नामास्ति ग्रन्थः यत्र नय प्रमाणादि निक्षेपादि मुखेन नमस्कारो निरूप्यते । (गाया ७५३) ३. देखो अनेकान्न वर्ष २ किरण ८ पृ० ४३७ । ४. "आशीविध्वस्त:-कन्तो विपुलशमभृत: श्रीमतः क्लान्तकीतिः । सूरेय तस्य पार धुतसलिलनिघेवसेनस्य शिष्यः' ।। --सुभा० स०१५ ५. "भासिताबिलपदार्य समूहो निर्मलोऽमितगतिगणनायः । बासरो दिनमण रिव तस्माज्जायतेस्मकमलाकर बोधी ।।३" ६. "धूर्ताजन समयोजनि महनीयोगुणमणि जलस्तदनुमतियः । शमयम निलयोऽमित गति सूरिः प्रदलितमदनो पदनतसूरिः ॥" Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमीं दशवीं शताब्दी के आचार्य आपको एकमात्र कृति 'योगसार' है । जो नी अधिकारों में विभक्त है— जीवाधिकार, अजीवाधिकार, आस्त्रवाधिकार, बन्धाधिकार, संवराधिकार, निर्जराधिकार, मोक्षाधिकार, चारित्राधिकार और वलिकाधिकार । इन अधिकारों में योग और योग से सम्बन्ध रखने वाले आवश्यक विषयों का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। ग्रन्थ अध्यातम रस से सराबोर है। उसके पढ़ने पर नई अनुभूतियां सामने आती हैं । ग्रन्थ आत्मा को समझने और उसके समुद्वार में कितना उपयोगी है। इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं, ग्रन्थ का अध्ययन करने से यह स्वयं समझ में आ जाता है । ग्रंथ की भाषा सरल संस्कृत है । पद्य गम्भीर अर्थ को लिए हुए हैं। उक्तियों और उपमाओं तथा उदाहरणादि द्वारा विषय को स्पष्ट और बोधगम्य बना दिया है । ग्रन्थ पर कुन्द कुन्दाचार्य के अध्यात्म-ग्रन्थों का पूर्ण प्रभाव है । अन्तिम अधिकार में भोग का स्वरूप दिया है और संसार को आत्मा का महान् रोग बतलाया है, और उससे छूट जाने पर मुक्तात्मा जैसी स्वाभाविक स्थिति हो जाती है । भोग संसार से सच्चा वैराग्य कब बनता है। और निर्माण प्राप्त करने के लिये क्या कुछ कर्तव्य है इसका संक्षिप्त निर्देश है । ग्रन्थ का अध्ययन और मनन जीवन की सफलता का संद्योतक है। ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है । विनयसेन विनयसेन - मूलसंघ सेनान्वय पोगरियगण या होगरिगच्छ के विद्वान थे। जैन शि० सं० भा० ४ के लेख नं० ६१, जो शक सं० ८१५ (सन् ८०३) वि० सं० ९५० के इस प्रथम लेख में इन्हें ग्राम दान देने का उल्लेख है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ठक्कुर सो जयज अमिय दो जिम्मल-वय-तव-समाहि-संजुत्तो । जो सारसय णिउणो विज्जा-गुण-संडियो धीरो ॥१ जस्स य पसरच दवणं णिकलंक अमियगुणेण संजुत्तं । भवाणं सुह-कंद सो सूरि जयउ प्रभियांसि ॥२ जेण विrिमिम विति सारतयस्स सयलगुणभरिया । जो भव्वाणं सुहिदा ससमय पर समय- वियाणया सला ॥३ २०५ प्राचार्य अमृत चन्द्रसूरि ने अपनी गुरु परम्परा भीर गण-गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं किया। वे निलप व्यक्ति थे । उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नाम के अतिरिक्त कोई भी वाक्य श्रात्म प्रशंसा-परक नहीं लिखा। किन्तु उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि वर्णों से पद बन गये, पदों से वाक्य वन गए, और वाक्यों से यह ग्रंथ बन गया। इसमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है । श्राचार्य मृत चन्द्र विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्रध्यात्म रसज्ञ विशिष्ट विद्वान थे। संस्कृत और प्राकृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने शताब्दियों से विस्मृत कुन्दकुन्दाचार्य की महत्ता एवं प्रभुता को पुनरुज्जीवित किया है। उन्होंने निश्चय नय के प्रधान ग्रन्थों को टोका लिखते हुए भी अनेकान्त दृष्टि को नहीं भुलाया है । समयसारादि टीका ग्रन्थों के प्रारम्भ में लिखा है कि जो अनन्त धर्मों से शुद्ध श्रात्मा के स्वरूप का अवलोकन करती है वह अनेकान्तरूप मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान हो । प्रतन्त धर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम् || इसी तरह प्रवचनसार टीका के प्रारंभ में लिखा है कि जिसने मोह रूप अन्धकार के समूह को अनायास ही लुप्त कर दिया है, जो जगत तत्व को प्रकाशित कर रहा है ऐसा यह अनेकान्तरूप तेज जयवन्त रहे । - १ वर्ण: कृतानि चित्रः पदैः कृतानि वाक्यानि । arriः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥ - पुरुषाः सि० २२६ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ हेलोल्लुप्तं महामोहलमस्तोमं जयत्यवः । प्रकाशयज्जगत्तत्त्वभनेकान्तमयं मह ।। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में तो उसे परमागम का बीज अथवा प्राण बतलाया है, और जन्मान्ध मनुष्यों के हस्ति विधान का निषेध कर समस्त नय विलासों के विरोध को नष्ट करने वाले अनेकान्त को नमस्कार किया है। टीकात्रों के अन्त में भी उन्होंने स्याद्वाद को और उसको दृष्टि को स्पष्ट करते हुए तत्त्व का निरूपण किया है। इससे उनको अनेकान्त दृष्टि का महत्व प्रतिभाषित होता है। इनको कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभूतत्रय-समयसार-प्रवचनसार और पंचास्त काय-इन तीनों ग्रन्थों को टीकाएँ बड़ी मार्मिक और हृदय स्पर्शी और उनको हार्दको प्रकट करने वाली हैं। समयासार की टीका में तो उसके अन्त: रहस्य का केवल उद्घाटन ही नहीं किया गया किन्तु उस पर समयानुवार-कलश की रचना कर बस्तुतः उस पर कलशारोहण भी किया है । अध्यात्म के जिस बीज को आचार्य कुन्दकुन्द वे बोया, और उसे पहलवित, पुष्पित एवं फलित करो का थेय आचार्य अमृत चन्द्र को ही प्राप्त है। टोकात्रों का अध्ययन कर अध्यात्म रसिक विद्वान दांत तले अंगुलो दवाकर रह जाते हैं । टीकात्रों की भाषा प्रौढ़, प्रभावशाली और गतिशील है। और विषय की स्पष्ट विवेचक हैं। अध्यात्म दृष्टि से लिखी गई ये रोकाएं स्वसमय परसमय को बोधक है; और अध्येता के लिए महत्वपूर्ण विषयों की परिनायक हैं इनमें निश्चय योर व्यवहार दोनों दष्टियों से वस्तु तत्व का विचार किया गया है सम्यग्दृष्टि जीव वस्तुतत्व का परिचान करने के लिए दोनों नयों का अवलम्बन लेता है परन्तु श्रद्ध में वह अनद्ध नय के पालम्बन को हेय समझता है, यही कारण है कि वस्तु तत्व का यथार्थ परिज्ञान होने पर प्रगढ़ नय का पालम्बन स्वयं छूट जाता है इसी से कुन्दकुन्दाचार्य ने उमय नयों के आलम्बन से बस्तु स्वरूप का प्रति सदन किया है। आपकी इन तीनों टीकाओं के अतिरिक्त आपकी दो कृतियां और भी हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और तत्त्वार्थसार। इन दोनों में भी उनके वैशिष्टय की स्पष्ट छाप है। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय २२६ श्लोकों का प्रसादगुणोपेत एक स्वतंभ ग्रन्थ है । इसका दूसरा नाम जिन वचन रहस्य कोश है। ग्रन्थ के नाम से ही उसका विषय स्पष्ट है इसमें श्रावक धर्म के वर्णन के साथ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्याक्चरित्र का सुन्दर कथन दिया हुआ है । जहां इस ग्रंथ के नाम में बैशिष्ट्य है वहां पाद्यन्न में भी वैशिष्ट्य है। संथ के आदि में निश्चय नय और व्यवहार नय को चर्चा है तो अन्त में रत्नत्रय को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है यह कथन श्रावकाचारों में हैं । पुण्यासवको गुभोपयोग का अपराध बतलाना अमृतचन्द्र को वामी की विनता है। विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान पं० आशाधर जो ने अनगार धीमत को टोका में प्राचार्य अमृतचन्द्र का ठक्कूर विशेषण के साथ उल्लेख किया है-'एतदनुसारेणव ठवकुरोपोदभपाठीत्-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च. देवताभासे । (पृ०१६०) एतच्च विस्तरेण ठनकुरामृतचन्द्रसूरि विरचित समयसारटोकायां द्रष्टव्यम्(पृ. ५८८)। ठक्कर या ठाकुर शब्द का प्रयोग जागोरदारों और प्रोहदेदारों के लिये तो व्यवहुत होता था। किन्तु ठक्कर' शब्द गोत्र का भी वाची है । अाज भी सवाल आदि जातियों के गोत्रों में प्रयुक्त देखा जाता है। - तत्वार्थसार--गृद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थसूत्र के सार को लिए हुए होने पर भी अपना शिष्ट्य रखता है। यह २२६ श्लोकों की रचना होते हुए भी, प्रसाद गुणापत एक स्वतंत्र संथ है । जिसमें सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र का सुन्दर कथन किया है। तत्त्वार्थसार नाम से भी यह ध्वनित होता है कि इसमें तत्वार्थ सूत्र प्रतिपादित तत्त्वों का ही सार संग्रहीत है । तत्त्वार्थ राजवार्तिकादि में प्रतिपादित कितनी ही विशिष्ट बातों का इसमें संकलन किया गया है। प्राचार्य प्रमतचन्द्र ने इसे मोक्षमार्ग पर प्रकाश करने वाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है । क्योंकि इसमें युक्ति भागम से सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का स्वरूप १. अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्ष मार्गकीपक । -तत्वार्थसार २ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं और दायों शताबी के आचार्य प्रतिपादित किया है। तथा सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाते हए सप्त तत्त्वों का विशद वर्णन किया है। तत्त्वार्थ सूत्र का पद्य में अनुवाद होते हुए भी एक तंत्र ग्रंथ जसा प्रतीत होता है। कहीं-कहीं तो ऐसा जान पड़ता है कि अमृतचन्द्राचार्य ने गद्य के स्थान में पद्य का रूप दिया है और कितने हो स्थानों पर उन्होंने नवोन तत्त्वों का मंयाजन भो किया है और उसके लिए उन्हें अकलंक देव के तत्वार्य वार्तिक का सर्वाधिक प्राथय लेना पड़ा है। उसके वार्तिकों को श्लोक रूप में निवद्ध करके तत्त्वार्थसार के मत्वको वृद्धिगत किया है। पट्टाधली में अमृतचन्द्र के पट्टारोहण का समय वि० सं० ६६२ दिया है। वह प्रायः ठीक है । क्योंकि धर्मरत्नाकर के कर्ता जयसेन ने, जो लाउमामह संघ के विद्वान थे। उन्होंने अमृतचन्द्रमूरि के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के ५६ पद्य उद्धृत किये हैं। जवसेन्द्र में अपना यह ग्रंथ वि० सं० १०५५ में बनाकर समाप्त किया है।' प्रतः प्राचार्य अमृतचन्द्र सं० १०५५ से पूर्ववती हैं। मुरलार सा मे लिखा है कि-प्रमित गति प्रथम के योगसार प्राभन पर भी अमृत चन्द्र के तत्त्वार्थसार तथा सम पसारादि टीकाधा प्रभाव परिलक्षित होता है। जिनका समय अमित गति द्वितीय से कोई ४०-५० वर्ष पूर्व का जान पड़ता है। सी स्थिति में प्रमतचन्द्रमूरि का समयविक्रम की १० वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। पं. माथूराम प्रेमो और डा. ए. एन. उपाध्ये अमसचन्द्र का समय १२वीं मानते थे, पर वह मुझे नहीं रचा। फलत: मैंने अपने लेख में अमृतचन्द्र के समय को दशवों शताब्दी का बतलाया, तब मे सभी उनका समय १०वीं शताब्दी मानने लगे हैं। रामसेन रामसेन नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें प्रस्तुत रामसेन सबसे भिन्न है। ग्रन्थ प्रशस्ति में राम सेन ने अपना संक्षिप्त परिचय पांच गुरुओं के नामोल्लेख के साथ दिया है उससे राम सेन के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय तो ज्ञात नहीं होता । ब्रह्मश्रुतसागर ने रामसन को 'प्रथमाइपूर्व भागज्ञाः' लिखा है जिससे वे अंगपूर्वो के एक देवश ज्ञाता जान पड़ते हैं। उनका संघ-गण-गच्छ क्या था और उनके शिष्य-प्रशिप्यादि कौन थे। उन्होंने तत्त्वानुशासन के सिवाय अन्य किन ग्रन्थों की रचना की इसका कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। ग्रन्थ प्रशस्तियों पट्टावलियों और शिलालेखादि में भी ऐसा कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता, जिससे उनके सम्बन्ध में विचार किया जा सके और यह ज्ञात हो सके कि नागपेन के शिष्य रामसेन की शिष्य परम्परा क्या और कहां थी। रामसेन ने नागसेन को अपना दीक्षा गुरु लिखा है, वे पर गुरु नहीं थे। उन्होंने अपने चार गुरुत्रों के नामोल्लेख के साथ दीक्षा गुरु में नाग -- - --- १. दाणेन्द्रियकोम योग-मिते संवत्सरे शुभे । (१०५५) ग्रा यां मिमां गातः मधली करहाटके ।। -बम रानाकर प्रधारित २. देखो, अनेकान्त वर्ग ८ कि ४-५ में अमनचन्द्र सूरि का समय शीर्षक लेख (पु १७३) ३. सेनगा के समन पंडितदेव को, जिम म०१:३४ की पौष शुक्ला ७ को उत्तरायण मंक्रान्ति के दिन चालुक्य बंशीय विभवनमहल के समय गंग पनिडि जिनालय के लिए राजधानी बनगाव में दान दिया गया। --भा सम्प्रदाय पृ०७ नुसर रामगन वे हैं जो नरमिह पुरा जाति के प्रबोधक एवं संस्थापक थे। नीरे रामभेन निपिच्छ माथुर संघ के संस्थापक । इन तीनों राममेनों में से तत्यानुशासन के कर्ता रामभन भिन्न हैं। ४. देखो, सुत्त पाहुइटीका गाथा २ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग२ सेन का नामोल्लेख किया है नागसेन नाम के भी कई विद्वान प्राचार्य हो गये हैं।' उन सब में वे नागसेन चामुण्डराय के साक्षात् गुरु अजितसेन के प्रगुरु थे। अर्थात् अजितसेन के गुरु आर्य सेन (मार्यनन्दी) के गुरु थे। और जिनका चामुण्डराय पुराण में प्राचार्य कुमारसेन के बाद उल्लेख है। चामुण्डराय ने अपने पुराण का निर्माण शक स० ६.०० (वि० सं० १०३५) में किया है। अतएव नागसेन का समय वि० सं० १००० से कुछ पहले का समझना चाहिए २ यह भागसेन रामसेन के दीक्षा गुरु हो सकते हैं। अन्य नागसेन नहीं। प्रस्तुत रामसेन काष्ठा संघ नन्दीतटगच्छ और विद्यागण के प्राचार्य थे। क्योंकि नन्दीतटगच्छ की गुर्दावली में उन्हें 'प्रतिबोधन पण्डित बतलाया है। नरसिंह पुरा जाति के संस्थापक भी थे । अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान तपस्वी प्राचार्य रहे हैं। रामसेन ने प्रशस्ति में अपने चार विद्या गुरुयों के नामों का उल्लेख किया है "श्री वीरचन्द्र-शुभदेवमहेन्द्रदेवाः-शास्त्राय यस्य गुरवो विजयामरवच" धीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रदेव प्रौर विजयदेव । पर इनका अन्य परिचय कहीं से भी उपलब्ध नहीं होता 1 हां, महेन्द्र- देव का परिचय अवश्य प्राप्त होता है। ये महेन्द्रदेव वही ज्ञात होते हैं जो ने मिदेव के शिष्य और सोमदेव के बड़े गुरुभाई थे। नेमिदेव के बहुत से शिष्य थे, उनमें से एक शतक शिष्यों के अवरज (अनुज) और एक शतक के पूर्वज सोमदेव थे। ऐसा परभनी के ताम्र शासन (दान पत्र) से जान पड़ता है। इनमें महेन्द्रदेव प्रमख विद्वान थे। उन्हें नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति में 'वादीन्द्रकालानल श्रीमन्महेन्द्र १. नागसेन नाम के ५ विद्वानों का उल्लेख मिलता है-१ वे नागसेन जो दशपूर्व के पाठी थे और जिनका समय विक्रम सं० से २५० वर्ष पूर्व हैं। २रे वे नागसेन जो ऋषभसेन के गुरु के शिष्य थे, जिन्होंने सन्यास विधि से श्रवण बेल्गोल के शिलालेख नं० (१४) ३४ के अनुसार देवलोक प्राप्त किया था शिलालेख में विशेषणों के साथ उनकी स्तुति की गई है। शिलालेख का समय शक सं०६२२ (वि० सं० ७५७) के लगभग अनुमान किया गया है, पर उसका कोई आधार नहीं बतलाया। देरे नागसेन वे हैं जो चामुण्डराय के साक्षात् गुरु अजितसेन के प्रगुरु अर्थात् अजितसेन के गुरु आर्य सेन (आर्य नन्दी) के गुरु ये। जिनका चामुण्डराय पुराण में आचार्य कुमारसेन के बाद उल्लेख किया गया है। चामुण्डराय पुराण का निर्माण शक सं० १०० सन् १७८ (वि सं० १०३५) में हुआ है। इससे यह नागसेन १० वीं पाताब्दी के विद्वान जान पड़ते हैं । नागसेन वे है जिन्हें राणी अकादेवी ने गोदगि जिनालय के लिए सन् १०४७ (वि० सं० ११०४) में भूमिदान दिया था । यह मूलसंघसेनगण तथा हेगरि (पोगरि) गच्छ के विद्वान आचार्य थे। (देखो, जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०६) वें नागसेन वे है, जो मन्दीतट गच्छ की गुर्वावलि के अनुसार गंगसेन के उत्तरवर्ती और सिद्धान्तसेन तथा गोपसेन के पूर्ववर्ती हुए हैं। जिनका समय १०वीं शताब्दी का मध्य जान पड़ता है। २. देखो, पी. बी. देसाई का जैनिज्म इन साउथ इडिया पृ० १३४-३७ ३. रामसेनोऽतिविचितः प्रतिबोधन पंडितः । स्थापिता येन संज्जाति रसिंहाभिधा भुवि ।।२४॥ -गुर्वावली काष्ठासंघ नंदीतरगच्छ अनेकान्त वर्ष १५. किरण ५ ४. श्री गौड़ संचे मुनिमान्यकीर्तिन्नाम्ना यशोदेव इति प्रजज्ञे । बभूव मस्योग्र तपःप्रभावात्समागमः शासनदेवताभिः ॥१५ शिष्योऽभवत्तस्य महडिभाजः स्यावादरनाकर पारवृक्षवा । श्री नेमिदेवः परवादि दर्पद्रुमावलीच्छेद-कुठारनेमिः ॥१६ तस्मासपः धियोभत्तुल्लोकानां हृदयंगमाः । बभूवुः बहवः शिष्या रत्नानीव तदाकरात् ।।१७ तेषां शतस्यावरजः शतस्य तथा भवत्पूर्वज एव धीमान् । श्री सोमदेवस्तपसः श्रुतस्य स्थानं यशोधाम गुणोजितश्रीः॥१०॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताध्वी के आचार्य E देवभट्टारकानुजेन वाक्य द्वारा महेन्द्रदेव का उक्त विशेषण दिया है जिससे वे वादियों के विजेता थे। बहुत सम्भव है कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव उनके विद्यागुरु रहे हों । अन्य तोन गुरुओं के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं होता । सभव है उस समय के साधु सघ में उक्त नाम के तीन विद्वान भी रामसेन के गुरु रहे हो । रचना-प्रस्तुत तत्त्वानुशासन प्रन्थ २५५ संस्कृत पद्यों को महत्वपूर्ण रचना है। इसमें अध्यात्म विषय का प्रतिपादन सुन्दर है वह भाषा और विषय दोनों हो दृष्टियों से महत्वपू है ग्रन्थकां भाषा जहां सरलप्रांजल एवं सहज बोधगम्य है, वहां वह विषय प्रतिपादन की कुशलता को लिये हुए है । ग्रन्थ कारने अध्यात्मजैसे नीरस कठोर और दुर्बोध विषय को इतना सरल एवं सुगम बना दिया है कि पाठक का मन कभी ऊब नहीं सकता । उसमें अध्यात्म रस की फुट जो अंकित है । ग्रन्थ में स्वानुभूति से अनुप्राणित रामसेन की काव्य शक्ति चमक उठी है वह अपने विषय की एक सुन्दर व्यस्थित कृति है। जिससे पाठक का हृदय ग्रात्म-विभोर हो उठता है । ग्रन्थ में हेय और उपादेय तत्व का स्वरूप बतलाते हुए बन्ध और बन्ध के हेतुत्रों को हेय तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणों को उपादेय बतलाया है । कर्म बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र को हेय और दुरगति एवं दुःख हेतु बतलाया है क्योंकि उनसे मोह-या ममकार तथा अहंकार की उत्पत्ति प्रादि संसार दुःख के कारणों का संचय होता है इसी से ऐसा कहा है। और सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को उपादेय और सुख का कारण बतलाया। क्योंकि इन तीनों को धर्म बतलाया है।" आत्मा का मोह क्षोभ से रहित परिणाम धर्म है । और इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है। इसी से इन्हें उपादेय कहा है। कर्म बन्ध की निवृति के लिये ध्यान की आवश्यकता बतलाते हुए ध्यान, ध्यान की सामग्री और उसके भेदों आदि का सुन्दर स्वरूप निर्दिष्ट किया है। एकाग्रचित्त से पंच परमेष्ठियों के स्वरूप का चिन्तन स्वाध्याय है आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो अरहंत को द्रव्यत्व गुणत्व और पर्यायत्व के द्वारा जानता है वह प्रात्मा को जानता है और उसका मोह क्षीण हो जाता है। स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करे ओर स्वाध्याय से ध्यान का, क्योंकि ध्यान और स्वाध्याय से परमात्मा का प्रकाश होता है (तत्त्वा० ( १ ) | ध्यान का विशद विवेचन करते हुये ध्यान की महत्ता श्रीर उसका फल बतलाया है ध्यान को निर्जरा का हेतु और संवर का कारण बतलाया है। ध्यान की स्थिरता के लिये मन श्रीर इन्द्रियों का दमन आवश्यक है । इन्द्रिय की प्रवृत्ति में मन ही कारण है। मन की सामर्थ्य से इन्द्रियां अपना कार्य करती है, अतएव मन का जीतना जरूरी है। ज्ञान वैराग्य रूप रज्जू (रस्सी) से उन्मार्गगामी इन्द्रिय रूप अश्वों (घोड़ों) को वश में किया जाता है, क्योंकि इन्द्रियोंका प्रसंयम प्रापति का कारण है और उनका जीतना या वश में करना सम्पदा का मार्ग है। अतएव उनका नियमन जरूरी है। मन का व्यापार नष्ट होने पर इन्द्रियों की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। जिस सरह वृक्ष की जड़ के विनष्ट होने पर पत्ते भी नष्ट हो जाते हैं। मन को जीतने के लिये स्वाध्याय में प्रवृत्त होना चाहिए। और अनुत्प्रेक्षाओं ( भावनाओं) का चिन्तन करना चाहिए। इससे मन को स्थिर करने में सहायता मिलती है। इस तरह यह सपने विषय की महत्व पूर्ण कृति हैं, इसका मनन करने से आत्मज्ञान की वृद्धि होती है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है । १. सदृष्टि ज्ञान वृत्तानिधर्म धर्मदेवरा विदुः । रत्नकरण्ड श्रावकाचार २. तद् ध्यानं निर्जरा-हेतुः संवरस्य च कारणम् तत्त्वानुशासन ५६ ३. इन्द्रायणां प्रवृत्ती च निवृत्तीच मनः प्रभुः मनएव जयेत्तस्मा जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥ ७६॥ तत्त्वानु० ४. ज्ञान-बैराग्य-रज्जुभ्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः जित चितेन शक्यन्ते धनुं मिन्द्रियवाजिनः ॥ तत्वा० ७७ ५. राट्ठे मणवावारे विमएसुन जंति इंदिया सवें । छिष्णे तरुस्स भूले तो पुणे पल्लवा हु'ति ।। ६६ आराधनामार Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ रचना काल रामसेन ने अपने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया और न उसके रचना स्थान आदि का ही उल्लेख किया है इससे ग्रन्थ के रचना काल पर प्रकाश डालने के लिये कठिनाई उपस्थित होती है । ग्रन्योल्लेखों, प्रशस्तियों ● शिलालेखों और ताम्रपत्रादि में भी ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । जिससे ग्रन्थ के रचना काल पर प्रकाश पड़ता । श्रतएव अन्य साधन सामग्री पर से रचना काल पर विचार किया जाता है । के ६४ पर्व में भगवान कुन्थुनाथ जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्राचार्य द्वारा रचित उत्तरपुराण के चरित को समाप्त करते हुए निम्न पद्य दिया है: देह ज्योतिषि यस्य शक्र सहिताः सर्वेपि मग्नाः सुराः । ज्ञान ज्योतिषि पंच तत्व सहितं मग्नं नभश्चाखिलम् । लक्ष्मी धाम दधद्विधूत विततध्यायन्तः सधामद्वयपंथानं कथयत्वनन्तगुणभृत् कुन्युर्भवान्तस्य वः ॥५५ इस पद्य के साथ तत्वानुशासन के अन्तिम निम्न पद्य का अवलोकन कीजिए:बेहज्योतिषि यस्य मज्जति जगत् दुग्धाम्बुराशाविव ज्ञानज्योतिषि च स्फुटत्यतितरामो भूभंवः स्वस्त्रयो । शब्द-ज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थश्चकासन्त्यमी । स श्रीमानमराचितो जिनपति ज्योतिस्त्रयायास्तु नः ॥ २५६ इस पद्य में उत्तर पुराण के पच से जहां महत्व की विशेषता का दर्शन होता है वहां उसके आशिक अनु सरण का भी पता चलता है और यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तस्वानुशासन कार के सामने अथवा उनकी स्मृति में उक्त पद्य को रचते समय उत्तर पुराण का उक्त पद्म रहा है। इसी तरह का अनुसरण तत्त्वानुशासन के १४८ पद्य में गुणभद्राचार्य रचित श्रात्मानुशासन के २४३ वें पद्म का भी देखा जाता है। दोनों पद्य इस प्रकार है: मामत्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तो भवार्णवे । नान्योऽह महमेवाऽह मन्योऽन्योन्योऽहमस्ति न ॥ नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नाम्यास्या ऽहं न मे परः । truererयोsह मेवाsह मग्योऽभ्यस्याऽह मेव मे ।। १४८ श्रात्मानुशासन तस्वानुशासन इससे स्पष्ट है कि रामसेन के सामने गुणभद्राचार्य का प्रात्मानुशासन भी रहा है। श्राचार्य गुणभद्र का समय विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वाधं पाया जाता है; क्योंकि उत्तर पुराण की अन्तिम प्रशस्ति के २८व पद्य से ३७ वें पद्य तक गुणभद्राचार्य के प्रमुख शिष्य लोकसेन कृत प्रशस्ति में उसका समय शक सं० ८२०, सन् ८३८ ( वि० सं० ९५५) दिया है, ' यह उसके रचना काल का समय नहीं है किन्तु उत्तर पुराण के पूजोत्सव का काल है, जैसा कि उसके निम्न वाक्य- " भव्यः वः प्राप्तज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुष्यमेतत्पुराणम्" - से जाना जाता है । पूजोत्सव का यह समय रचना काल से अधिक बाद का मालूम नहीं होता । यदि उसमें से पांच वर्ष का समय ग्रन्थ की लिपि आदि का निकाल दिया जाय तो शक सं० ८१५ ( वि० सं० ε५०) के लगभग उत्तर पुराण का रचना काल निश्चित होता है । इस तरह तत्त्वानुशासन के निर्माण समय की पूर्व सीमा वि० सं० ६५० स्थिर हो जाती है। इससे पूर्व की वह रचना नहीं है । किन्तु दशवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की जान पड़ती है । जयसेन के धर्मरत्नाकर के 'सामायिक प्रतिमा-प्रपंचन' नामक १५वें अवसर में तत्त्वानुशासन के निम्न पद्य को अपने ग्रन्थ का अंग बनाया गया है, जो तत्त्वानुशासन का १०७वां पद्य हैः १. शुकन्टपकालाभ्यन्तर विशरियधिकाष्ट शतमितादान्ते । मङ्गल महार्थकारिणि विङ्गलनामनि समस्तजन सुखदे || ३५ || - उत्तर पुराण प्रश Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २११ प्रकारावि हकारान्ता मंत्राः परमशरूयः । स्वमंडलगताः ध्येया लोकद्वयफलप्रदाः। धर्म रत्नाकर का रचना काल सं० १०५५ हैं । अतः तत्त्वानुशासन इससे पूर्ववर्ती रचना है:प्राचार्य अमितजस द्वितीय : उपासमार एक पर निम्न प्रकार पाया जाता है: अभ्यस्यमानं बहधास्थिरत्वं यथेसि र्बोध मयीह शास्त्रम् । शान तथा ध्यान मपीतिमत्वा ध्यानं सदाभ्यस्तु मोक्तु कामः ॥ उपासकाचार १०-१११ ध्यान विषय की प्रेरणा करने वाला यह पद्य तत्त्वानुशासन के निम्न पद्य से प्रभावित तथा अनुसरण को लिये हुए है: यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्यमहान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्थय लभतेऽम्यास सिनाम् ॥१८ इन अमितगति द्वितीय के दादा गुरु अमितगति ( प्रथम ) द्वारा रचित योगसार प्राभूत १६ वें अधिकार में एक पद्य निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है। येन येनैव भावेन युज्यते यंत्रवाहकः। तम्मयस्तत्रतत्रापि विश्वरुपो मणियथा ॥५१ यह पद्य तत्त्वानुशासन के १६१ पद्य के साथ सादृश्य रखता है: येन भावेन यत्रूपं ध्यायत्यास्मान मात्मवित् । तेन तन्मयतां याति लोपाधिः स्फटिको यथा ॥१६॥ अमितगति प्रथम का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का प्रथम धरण है। द्रव्य संग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव ने तत्वानुशासन से (८३-८४) ये दो पद्य ग्रन्थ के नामोल्लेख के साथ उद्धृत किये हैं। ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वों का पूर्वार्ध है। इससे स्पष्ट है कि रामसेन अमितगति प्रथम और ब्रह्मदेव ११ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं। तत्त्वानुशासन पर आचार्य प्रमतचन्द्र के ग्रन्थों का साहित्यिक अनुसरण एवं प्रभाव परिलक्षित है। तत्त्वार्थसार के ७ ३ वें पद्यों का तत्त्वानुशासन के ४-५ पद्यों पर स्पष्ट प्रभाव है और साहित्यिक अनुसरण है। इससे तरवानुशासन की रचना अमृतचन्द्राचार्य के बाद हुई है। सप्त तत्त्वों में हेयोपादेय का विभाग करने वाले वे पद्य इस प्रकार हैं:-- उपादेय तया जीवोऽ जीवोहेयतयोदितः । हेयस्यास्मिन्नुपावान हेतुत्त्वेनाइवः स्मृतः ।।७ संवरो निर्जरा हेय-हान-हेतु-तयोवितौ। हेय-प्रहाणलोण मोक्षो जीवस्य दशितः ॥ तत्त्वार्थसार बन्धो निवन्धनं चास्य हेयमित्युपदशितम् । हेयस्याउ शेष दुःखस्य यस्माद् बीजमिवं द्वयम् ।।४ मोक्षस्तत्कारणं चैतदुपादेय मुवाहतम् । उपादेयं सुखं यस्मावस्मादाविर्भविष्यति ॥ तत्वानुशासन । निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग के दो भेदों का प्ररूपक तथा उनमें साध्य-साध्यनता-विषयक पद्य भी साहित्यिक अनुसरण को लिये हुए पाया जाता है। १. बाणेन्द्रिय ब्योम सोम-मिते संवत्सरे शुभे । ( १०५५) अन्थोऽयं सिद्धतां मातिः सबलीकरहाटके ।। --धर्मरत्नाकर प्रस Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म चीन इतिहास - भाग २ आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। पट्टावली में उनके पट्टारोहण का समय जो वि० सं० ६६२ दिया है, वह ठीक जान पड़ता है; क्योंकि सं० १०५५ में बनकर समाप्त हुए 'धर्मरश्नाकर' में अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय से ६० पद्य के लगभग उद्धृत पाये जाते हैं ।" इससे अमृतचन्द्र सं० १०५५ से पूर्ववर्ती हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अमृतचन्द्र का समय १० वीं शताब्दो तृतीय चरण बतलाया है और रामसेन का १० वीं शताब्दी का चतुर्थ चरण है । २१२ इन्द्रनन्दी (ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता ) प्रस्तुत इन्द्रनन्दी योगीन्द्र वे हैं जो मंत्र शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। यह वासवनन्दी के प्रशिष्य और बप्पनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थ को लेकर 'ज्वालिनी कल्प' नाम के मंत्र शास्त्र की रचना की है। इस ग्रन्थ में मन्त्रि, ग्रह, मुद्रा, मण्डल, कटु, तेल, वक्ष्यमंत्र, तन्त्र, वपनविधि, नीराजनविधि और साधन विधि नाम के दस अधिकारों द्वारा मंत्र शास्त्र विषय का महत्व का कथन दिया हुआ है । इस ग्रन्थ की प्राद्य प्रशस्ति के २२वें पच में ग्रन्थ रचना का पूरा इतिवृत्त दिया हुआ है । और बतलाया है कि देवी के प्रदेश से 'ज्वालिनीमत, नाम का ग्रन्थ हेलाचार्य ने बनाया था । उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और वीजाब हुए। आर्यिका शांतिरसन्ना और विश्वट्ट नाम का क्षुल्लक हुआ । इस तरह गुरु परिपाटी और अविच्छिन्न सम्प्रदाय से साया हुआ उसे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दी नामक मुनि के लिये व्याख्यान किया, और उपदेश दिया। उनके समीप उन दोनों ने उस शास्त्र को ग्रन्थतः और अर्थतः इन्द्रनन्दी मुनि के प्रति भले प्रकार कहा। तब इन्द्रनन्दि ने पहले क्लिष्ट प्राक्तन शास्त्र को हृदय में धारण कर ललित आर्या और गीतादिक में हेलाचार्य के उक्त अर्थ को ग्रन्थ परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण जगत को विस्मय करने वाला जनहितकर ग्रन्थ रचा। ग्रतएव प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम को दशवीं शताब्दी के उपान्त्य समय के विद्वान हैं। क्योंकि इन्होंने ज्वालामालिनी कल्प की रचना शक ० ८६१ सन् १३६ (वि० सं० २६६ में बनाकर समाप्त किया था । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इन्द्रनंदि का गुरु रूप से स्मरण किया है। ये इन्द्रनंदि वही जान पड़ते हैं । जिनके दीक्षा गुरु बप्पनन्दी और मंत्रशास्त्र गुरु गुणनन्दी और सिद्धान्त शास्त्र गुरु प्रभयनंदी हो १. अनेक वर्षे किरण ४-५ में प्रकाशित अमृतचन्द्र सूरिका समय पृ० १७३ २. यद्वृत्तं दुरितारिसैन्यहनने चण्डासि धारावितम् वित्तं यस्य शरत्सरत्सलिलवत्स्वच्छं सदाशीतलम् । कीर्तिः शारद कौमुदी शशिभूतो ज्योत्स्नेव यस्यामला स श्री वासवनन्दि सम्मुनिपतिः शिष्यस्तदीयो भवेत् ||२|| शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनुयोगेषु चतुरमति विभवः । श्री दिगुरिति बुधमधुपनिषेवित्पदाब्जः ॥ ३ लोके यस्य प्रसादाद्जनि मुनिजनस्तत्पुराणार्थबेदी । यस्याशास्तंभ मूर्ख त्यति विमलयशः श्री विताने निबद्धः । कालस्तायेन पौराणिक कविवृषभा द्योतितास्तत्पुराणव्यख्यानाद् बप्पमंदि प्रथितगुण-गणस्तस्य किं व सेऽथ ।। २ ३. अष्टतस्यैकषष्ठि प्रमाणशकवत्सरेध्यतीतेषु । श्रीमान्मखेट कंटके पण्यक्षय तृतीयायाम् || शतदलसहितचतुःशत परिमाणग्रन्थ रचनयायुक्तम् श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मत देव्याः ॥ देखो ज्वालामालिनी कल्प कारंजाभंडार प्रशस्ति । जैन साहित्य संशोधक खण्ड २ अंक ३, पृ० १४ -१५६ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २१३ जाते हैं । यदि यह कल्पना ठीक है तो नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गुरु इन्द्रनंदी का ठीक पता चल जाता है । समय की दृष्टि से भी नेमिचन्द्र और इन्द्रनंदी का सामंजस्य बैठ जाता है । इन्द्रनंदी ने इस ग्रन्थ की रचना मान्यखेट ( मलखेडा) के कटक में राजा श्रीकृष्ण के राज्यकाल में शक संवत ८६१ (सन् ६३६) में की थी । गुरुदास गुरुबास - यह कौण्ड कुन्दान्वयी श्रीनंदनंदी के शिष्य और श्रीनंदीगुरु के चरण कमलों के भ्रमर थे, जिन्हें जीत शास्त्र ( प्रायश्चित्य शास्त्र) में विदग्ध और सिद्धान्तज्ञ बतलाया है। वे गुरुदास के पूर्ववर्ती बड़े गुरु भाई के रूप में हुए हैं। वृषभनंदी गुरुदास से भी उत्तरवर्ती हैं। गुरुदास को तीक्ष्णमती और सरस्वतीसूनु लिखा है । वे बड़े भारी विद्वान और ग्रंथकर्ता थे। वृपभनंदी ने जीतसार समुच्चय में लिखा है कि श्रीनंदनन्दिवत्सः श्रीनंदिगुरुपदावज-षट्चरणः । श्री गुरुदासोनंचा तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वती सूनुः ॥ इनके द्वारा बनाया हुआ चूलिका सहित प्रायश्चित ग्रंथ अपूर्व रचना है। गुरुदास ने अपना कोई समय नहीं दिया । परन्तु जान पड़ता है कि गुरुदास विक्रम की दशवीं शताब्दी के उपान्त्य समय और ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं। बाहुबलदेव यह व्याकरण शास्त्र के विद्वान आचार्य थे। उस समय रविचन्द्र स्वामी, ग्रहंनंदी, शुभचन्द्र भट्टारक देव, मौनीदेव, और प्रभाचंद्र नाम के सुनिगण विद्यमान थे। शाका १०२ (वि० सं० १०३७) में राजा शान्तिवर्मा ने श्राचार्य बाहुबलदेव के चरणों में सुगंधवर्ती ( सौन्दति ) के जैन मंदिरों के लिये १५० एक सौपचास मत्तर भूमि प्रदान की थी। भुवनैक मल्ल चालुक्य वंशीय सत्याश्रय के प्रथम के पुत्र थे। उस समय रविचंद्र स्वामी और राज्य में लट्टलूरपुर के महामण्डलेश्वर कातिवीर्य द्वि० सेन नन्दी मौजूद थे । कनकसेन यह कुमारसेन के प्रशिष्य और वीरसेन के शिष्य थे। इन्हें श्रीकृष्ण वल्लभ के सामन्त विनयाम्बुधि के प्रदेश धवल में मूल्लगुन्द नगर के जिन मंदिर के लिये, जिसे चंदार्य के पुत्र चिकार्य ने बनवाया था । अरसाय ने दान दिया था। इस दान का उल्लेख सेनवंश के मूलगुन्द के शक सं० ८२४ ( वि० सं० ६५६ ) के लेख में हुआ है । जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रगट है। शकनुपकालेष्टशते चतुरुत्तरविशदुत्तरे संप्रगते । बुंदुभिनानि वर्ष प्रवर्तमाने जनानुरागोत्कर्ष ॥ सर्वनन्दि भट्टारक यह कुन्दकुन्द ग्राम्नाय के विद्वान थे। इनके समय का एक शिलालेख मिला है जिसमें कुन्दकुन्दग्राम्नाय के (मिट्टी के पात्र धारी } भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि भट्टारकने कोप्पल के पहाड़ पर निवासकर वहां के लोगों को नेक उपदेश दिये। और बहुत समय तक कठोर तपश्चरण कर सन्यासविधि से शरीर का परित्याग किया। यह शिलालेख शक सं० ८०३ (वि० सं०६३८) का है। इससे ये विक्रम की दशवीं शताब्दी के आचार्य थे । १. ( See Indian Antiquary V. IV p. 279-80 ) २. जैन लेख सं० भा० २ १० १५८-६ ३. (See Jainism in South India p. 424 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - २ नागवर्म प्रथम नाव नाम के दो कवि हो गए हैं। एक छन्दोम्बुनिधि और कादम्बरी का रचयिता और दूसरा काव्यावलोकन, वस्तु कोश और कर्नाटकभाषा भूषणादि ग्रन्थों का कर्ता । २१४ इनमें प्रथम नागबर्स बेंगीदेश के बेंगीपुर नगर के रहने वाले कौंडिय्य गोत्रीय वेन्नामय्य ब्राह्मण का पुत्र था । इसकी माता का नाम पोलकवे था । इसने अपने गुरु का नाम अजितसेनाचार्य बतलाया है । रक्कसगंगराज जिसने ईसवी सन् ६=४ से ६६६ तक राज्य किया है और जो गंगवंशीय महाराज राचमल्ल का भाई था, इसका पोषक था । चामुंडराय की भी इस पर कृपा रहती थी। कवि होकर भी यह बड़ा वीर और युद्ध विद्या में चतुर था। कनड़ी में इस समय छन्द शास्त्र के जितने ग्रन्थ प्राप्य हैं उनमें इसका 'छन्दोम्बुनिधि' सबसे प्राचीन माना जाता है | यह ग्रन्थ कवि ने अपनी स्त्री को उद्देश्य करके लिखा है। इसका दूसरा ग्रन्थ बाणभट्ट के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'कादम्बरी' का सुन्दर पद्यमय अनुवाद है । पर ग्रन्थों के मंगलाचरण में न जाने शिवादि की स्तुति क्यों की है ? इसका समय ईसा की १०वीं शताब्दी है । नागवद्वितीय नागव दूसरा- यह जातिका ब्राह्मण था । इसके पिता का नामदामोदर था। यह चालुक्य नरेश जगदेक मल्लका सेनापत्ति और जन्म कवि का गुरु था । कनड़ी साहित्य में इसकी 'कवितागुणोदय' के नाम से स्थान है । अभिनव शर्ववर्म, कविकर्णपूर और कविता गुणोदय ये उसकी उपाधियाँ थी । बाणिवल्लभ, जन्न, साल्व प्रादि कवियों ने इसकी स्तुति की है। इसके बनाये हुए काव्यावलोकन कर्णानाटक भाषा भूषण, और वस्तु कोश ये तीन ग्रन्थ हैं। इसमें पांच अध्याय हैं। पहले भाग में कनड़ी का व्याकरण है। नृपतुंग (अमोघवर्ष) के अलंकार शास्त्र की अपेक्षा यह विस्तृत है । कर्णाटक भाषा भूषण संस्कृत में भाषा का उत्कृष्ट व्याकरण है। मूलसूत्र और वृत्ति संस्कृत में है । और उदाहण कनड़ी में । उपलब्ध कनड़ी व्याकरणों में जो कि संस्कृत सूत्रों में है - यह सबसे पहला और उत्तम व्याकरण है। इसी को आदर्श मानकर सन् १६०४ में भट्टालक (द्वितीय) ने कनड़ी का शब्दानुशासन नामका विशाल व्याकरण संस्कृत में बनाया है। यह व्याकरण मंसूर सरकार की ओर से छप चुका है। वस्तु कोश कनड़ी में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों का अर्थ बतलाने वाला पद्यमय निघण्टु या कोश है । वररुचि, हलायुध, शाश्वत, अमरसिंह आदि के ग्रन्थ देखकर इसको रचना की गई है । इसका समय ११३६ ई० से ११४९ ईस्वी है । प्राचार्य महासेन यह लाड़ बागड संघ के पूर्णचन्द्र, प्राचार्य जयमेन के प्रशिष्य और गुणाकर सेनसूरि के शिष्य थे । आचार्य महासेन सिद्धान्तश, वादी, वाग्मी और कवि थे, तथा शब्दरूपी ब्रह्म के विचित्र धाम थे । यशस्वियों द्वारा मान्य और सज्जनों में अग्रणी एवं पाप रहित थे और परमार वंशी राजा मुरंज के द्वारा पूजित थे । ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की सीमा स्वरूप थे, और भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले बान्धव थे - सूर्य थे । तथा सिन्धुराज के महामात्यपट द्वारा जिनके चरण कमल पूजित थे उन्हीं के अनुरोध से कवि ने प्रद्युम्न चरित की रचना की है । और राजा के अनुचर विवेकवान मधन ने इसे लिखकर कोविद जनों को J १. तो विदिता खिलोरुसमयो बादी च वाग्मी कविः शब्दब्रह्मविश्वित्रधाममशतां मान्यों सतामग्रणीः । श्रासीत् श्री महासेनसूरिग्नघः श्रीम'जराजाचितः ॥ सीमा दर्शनबोधतपसा भय्याव्जनीवान्धवः ॥१३ २. श्री सिन्धुराजस्य महत्तमेन श्री पपडेनाचिन पादपद्मः । चकार तेनाभिहितः प्रबन्धं स पावन निष्ठित मज ॥ प्रत चरित प्रशारित Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य दिया । आपकी कृति 'प्रद्युम्न चरित' नामक महाकाव्य है । जिसके प्रयेत्क सर्ग की पुत्रिका में श्रीसिन्धुराज सत्क महामहत्तम श्री पर्पट गुरो: पंडित श्रीमहासेनाचार्यस्य कृते । वाक्य उल्लिखित मिलता है जिससे स्पष्ट है कि पर्पट महासेन के शिष्य थे । और जैन धर्म के संपालक थे । यह एक सुन्दर काव्य ग्रन्थ है। इस में १४ सर्ग हैं, जिनमें श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार का जीवन परिचय अंकित किया गया है, जो कामदेव थे। जिसे कवि ने ससारविच्छेदक बतलाया है। इसकी कथा वस्तु का आधार स्रोत हरिवंश पुराण है। हरिवंश पुराण में यह चरित ४७ वें सग के २०वें पद्म से ४८वें सर्ग के ३१ वें पद्य तक पाया जाता है । काव्य का कथा भाग बड़ा ही सुंदर रस और अलंकारों से अलंकृत है । इस ग्रन्थ में उपजाति, वंशस्थ शार्दूलविक्रीडित, रथोद्धता, प्रहर्षिणी, द्रुतविलम्बित, पृथ्वी, अनुष्टुभ उपेन्द्रबच्चा, हरिणी, स्वागता, मालिनी, ललिता, शालिनी, और बसन्ततिलका आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। कथा का नायक पौराणिक व्यक्ति है परन्तु उसका जीवन अत्यन्त पावन रहा है । २१५ कवि महासेन ने ग्रंथ में रचना काल नहीं दिया, किन्तु शिलालेखों आदि पर से मुंज और सिन्धुल का काल निश्चित है । राजा मुंज के दो दानपत्र वि० सं० २०३१ और १०३६ के मिले हैं। सं० १०५० और सं० १०५४ के मध्य किसी समय तैलपदेव ने मुंज का वध किया था। इन्हीं राजा मुंज के समय १०५० में अमितगति द्वितीय ने अपना सुभाषितरत्नसन्दोह समाप्त किया था । श्रतः यही समय आचार्य महासेन का होना चाहिए। यह ईसा की १०वीं शताब्दी के प्राचार्य हैं । श्रादि पंप इनका जन्म सन् १०२ में ब्राह्मण कुल में हुआ था। पिता का नाम अभिरामदेवराय था । जो पहले वेदानुयायी था और बाद को वह जैनधर्म का उपासक हो गया था। यह पुलिगेरी चालुक्य राजा अरिकेशरी का दरबारी कवि और सेनापति था । और कनड़ी भाषा का श्रेष्ठ कवि समझा जाता था। इसकी दो कृतियां उपलब्ध हैं। एक प्रादि पुराण और दूसरा भारतचम्पू । आदि पुराण गद्य-पद्यमय चम्पू है, जिसे कवि ने ३९ वर्ष की अवस्था में तीन महीने में बनाकर समाप्त किया था । ग्रन्थ में १६ परिच्छेद या अध्याय हैं । इस ग्रन्थ का गद्य ललित, हृदयंगम, गंभीराशय और भावपूर्ण है और पद्य मोती की लड़ियों के समान है। भाषा शैली सर्वोत्कृष्ट है। इस ग्रन्थ के आदि में समन्तभद्र, कवि परमेष्ठी, पूज्यपाद, गृद्धपिच्छाचार्य, जटाचार्य, श्रुत कीर्ति, मलधारि, सिद्धान्त मुनीश्वर, देवेन्द्र मुनि, जयनंदि मुनि श्रौर कलंक देव का उल्लेख किया है। 1 कवि की दूसरी कृति भारतचम्पू' है जिसे कवि ने छह महीने में बनाकर पूर्ण किया था। इसमें १४ प्राश्वास हैं। जिसमें पाण्डवों के जन्म से लेकर कौरवों के वध तक की घटना अ ंकित है । और राज्याभिषेक हो चुकने पर ग्रन्थ समाप्त किया गया है। यह ग्रन्थ कनड़ी साहित्य में वे जोड है इसमें कवि को आश्रय देने वाले राजा अरिकेसरी का अर्जुन के साथ साम्य दिखलाया गया है। इस ग्रन्थ की रचना से प्रसन्न होकर अरिकेसरी ने कवि को बच्चे सासिर' प्रान्त का 'धर्मपुर नाम का एक ग्राम भेंटस्वरूप दिया था । कवि ने यह ग्रन्थ शक सं० ८६३ सन् ६४१ श्रीर वि० [सं० ६६८) में बनाकर समाप्त किया था । अतः कवि दशवीं शताब्दी के विद्वान है । कवि पौन्न पोरन कनड़ी भाषा का प्रसिद्ध कवि हुआ है। कवि चक्रवर्ती, उभयचक्रवर्ती, सर्वदेव कवीन्द्र और सौजन्य कुकुर आदि इसकी उपाधियां थीं। इसके गुरु का नाम इन्द्रनंदि था । कन्नड़ साहित्य में पम्प, पौन्न और रन्न ने ३. श्री भूयतेरनुचरो भवतो विवेकी शृंगार भावधनसागररागणारं । काव्यं विचित्र परमाद्भुतवर्ण-गुम्फं संलेख्य कोविद जनाय दक्ष सुवृत्तं ॥ ६ वही प्रशस्ति Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ असाधारण ख्याति पाई है। पौल्न तो बाण की बराबरी करते हैं। नयसेन ने अपने धर्मामृत के ३६ व पद्य के निम्न वाक्य द्वारा 'असगन देसि पोन्नत महोत्तन तिवेत वेडगं, असग और पौन्न का नामोल्लेख किया है । पौन्त ने स्वयं शान्तिनाथ पुराण (६५०ई०) में कन्नड़ कविता में अपने को-'कन्नजकवितेयोल प्रसगम्, वाक्य द्वारा प्रसग के समान होना बतलाया है । राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने जिसका दूसरा नाम अकालवर्ष था । इनका राज्य काल शक सं०८६७ से ८१४, (सन् १४५ से १७२) तक था । इसे उभयकवि चक्रवर्ती का सम्मान सूचक पद प्रदान किया था, ऐसा जन्न के यशोधर चरित्र से जो ईस्वी सन् १२०६ में बना है मालूम होता है दुर्गसिंह (सन् ११४५) के एक पद्य से भी इसका साक्ष्य मिलता है । इसके बनाये हुए शान्तिनाथ पुराण और जिनाक्षर माला ये दो अन्य उपलब्ध हैं। शान्तिनाथ पुराण, जिसमें सोलहवें तीर्थकर का जीवन वृत्त अंकित है। गद्य-पद्य मय चम्पूकाव्य है। इसके बारह अाश्वास हैं । इस ग्रन्थ को कदि पुराण चूड़ामणि भी कहते हैं। इसकोक विता बहुत ही सुन्दर है। वेगी देश के कम्मेनाडिका पं गन् र नामक गांव के रहने वाले कौडिन्य गोत्रोद्भव नागमय्य नामक, जैन ब्राह्मण के मल्लय और पुन्निमय्य नाम के दो पुत्र थे जो बाद में तलपदेव के सेनापति हो गये थे | अपने गुरु जिनचन्द्र देव के प्रति परोक्ष बिनय प्रगट करने के लिए कवि पौन्न से शांतिनाथ पुराण बनाने का अनुरोध किया था। उन्हीं के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है ऐसा अन्य प्रशस्ति पर से ज्ञात होता है । जिनाक्षर माला छोटी-सी स्तवनात्मक कविता है। जो वर्णानुक्रम से बनाई गई है। शान्तिनाथ पुराण के अन्त के एक पद्य से मालूम होता है कि इस कवि के बनाये हुए दो नन्थ और हैं। एक राम कथा या भवनक रामाभ्युदय और दूसरा गतप्रत्यागतवाद । यह दूसरा ग्रन्थ संस्कृत में है। मा-कोई विद्वान इनका बनाया हमा अलंकार ग्रन्थ भी बतलाते हैं परन्तु ये तीनों ग्रन्थ अनुपलब्ध है । प्रजितपुराण के एक पद्य से ज्ञात होता है कि पाप पौन्न पौर रन्न तीनों कवि कन्नड़ साहित्य के रत्न हैं। पोन्न कवि की उत्तरवर्ती जैन-जनेतर कवियों ने प्रशंसा की है। पार्श्व पण्डित (ई० सन् १२०६), नयसेन (१११२), नागवर्म (११४५) रुद्रभद्र (१९८०) केशिराज (१२६०) मधुर (१३८०) आदि । इन कवियों के कन्नड़ी ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद होना आवश्यक है जिससे हिन्दी भाषी जनता भी उससे लाभ उठा सके। चूकि कवि ने अपना शान्तिनाथ पुराण सन् ६५०ई० में बनाया था। कवि का समथ १०वीं शताब्दी है। कवि रत्न रन्न कवि का जन्म सन् १४६ ईस्वी में 'मृदुबोल' नाम के ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम जिनवल्लभेन्द्र और माता का नाम अब्बलब्बे था। यह जैनधर्म के संपालक वैश्य (वनिया) थे। आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण अपना जीवन निर्वाह चूड़ी बेच कर करते थे। इस कारण वे अपनी संतान की शिक्षा का उचित प्रबन्ध नहीं कर पाते थे। किन्तु रन्न जन्म से ही होनहार, सुभग चारित्रवान और उत्तम प्रकतियों का धनी था। वह मेधावी और भाग्यशाली था । इसको देखते ही अनजान आगन्तुक भी अपनाने लग जाते थे। वह पड़ोसियों के लिये अत्यन्त प्रिय था। उसके माता-पिता का उस पर अपार प्रेम था । उसको ग्रहण-धारण की शक्ति और प्रतिभा बाल्यकाल से ही आश्चर्य जनक थी। उसने बाल्यकाल में अपना समय अध्ययन में ध्यतीत किया था । कुमार अवस्था में भी उसको विशेष रुचि अध्ययन की पोर थी। आर्थिक परिस्थिति ठीक न होने पर भी उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी। किन्तु वह दृढव्रती रह अपने उद्देश्य की पूर्ति करने के प्रयत्न में संलग्न रहता था। एक दिन वह घर से बंकापुर चला गया। उस समय बंकापुर विद्या का केन्द्र बना हुआ था। वहां कई विद्यालय थे, जिनमें शिक्षा दी जाती थी। वह अजितसेनाचार्य के पास पहुँचा, उनके दर्शन कर उसका मन हर्षित हमा, उसने उन्हें नमस्कार किया । प्राचार्य ने पूछा तुम्हारा क्या नाम है और यहाँ किस लिये पाये हो । उसने कहा, भगवन ! मेरा नाम रन्न है और यहां विद्याध्ययन करने की इच्छा से पाया है। प्राचार्य ने उसकी रुचि विद्याध्ययन की देख उसकी सब व्यवस्था करा दी। रन्न मेधावी और परिश्रमी छात्र था, उसने बड़ी लमन से वहाँ सिद्धान्त Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवी-दसवीं शताब्दी के आचार्य २१७ काव्य, छन्द, अलंकार, कोश और महाकाव्यों का अध्ययन किया। विद्याध्ययन से उसकी बुद्धि शान पर रखे हुए रत्न के समान चमक उठी। प्रतिभा सम्पन्न विद्वान देखकर प्राचार्य के हर्प का ठिकाना न रहा । __ श्राचार्य ने गंगराज के मंत्री चामुण्ड राय से उसका परिचय कराया । चामुण्डराय गुणीजनों के प्राधयदाता तो थे ही, उन्होंने तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्न युवक को पाकर उसकी सहायता की। वे इसके पोषक थे। अब कवि राज्य मान्य था और राजा की और से उसे सुर्वण दण्ड, चवर, छत्र' हाथी इसके साथ चलते थे। इसकी कविरल, कविचक्रवर्ती, कविकुंजरांकुश और उभयभाषाकवि उपाधियां थीं। कवि रन्नो अपनी काव्यकला, कोमल कल्पना, चारू चिन्ता औरप्रस्फुटित प्रतिभा और प्रसाद गुण युक्त शैली के कारण उसकी तत्कालीन कन्नड़ विद्वानों पर प्रभुता छा गई थी। इससे उसे असाधारण ख्याति मिली। कवि की इस समय दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। एक का नाम 'प्रजितपुराण, और दूसरी कृति का नाम साहस भीम विजय या गदायुद्ध है। अजित पुराण में जैनियों के दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन परिचा १२ ग्राश्वासों में अंकित है। यह गा पद्यमय चम्पू ग्रन्थ है जिसे काव्यरत्न और पुराण तिलक भी कहते हैं। कवि ने इस ग्रन्थ को रचना शक सं०१५ (सन् ६६३ ई०) वि० सं० १०५० में बनाकर समाप्त की थी। कवि कहता है कि जिस तरह मैं इस ग्रन्थ की रचना से 'वैश्यवंशध्वज' कहलाया, उसी तरह आदिपुराण की रचना के कारण पप 'दाह्मणवंशध्वज' कहलाया था। तलपदेव (९७३-१७) के दो सेनापति थे। मल्लप और पुण्यमय्य इनमें से पुण्यमय्य तो अपने शत्र गोविन्द के मग्य अड़कर कावेरी नदी के तट पर मारा गया । और मल्लप तैलिपदेव के स्वर्गवासी होने के बाद पाहब मल्ल के राजा होने पर (सन् १९७ से १००८ दस सौ पाठ) तक मुख्याधिकारी हुआ। इसकी प्रतिमब्बे नाम की एक सुन्दर कन्या थी, जो चालुक्य चक्रवर्ती के महामंत्री दल्लिप के पुत्र नागदेव को बिवाही थी। नागदेव बालकपन से बड़ा साहसी और पराक्रमी हुआ। अतएव चालुक्य नरेश पाहय मल्ल ने प्रसन्न होकर इसे अपना प्रधान सेनापति बनाया। यह अनेक युद्धों में अपना पराक्रम दिखलाकर विजयो हुआ और अन्त को मारा गया । इसकी लघुपत्नी गुडमब्बे तो इसके साथ सती हो गई, किन्तु अतिमध्चे अपने पुत्र अन्नगदेव की रक्षा करती हुई व्रत निष्ठ होकर रहने लगी। इसकी जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा थी। इसने सुवर्णमय और रत्नजटित एक हजार जिन प्रतिमाएं बनवाकर स्थापित की। और लाखों रुपयों का दान किया। इस दानशोला स्त्रीरत्न के सन्तोष के लिए कविरत्न ने उक्त अजितपुराण की रचना की थी । ऐसा उस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात हाता है। - साहस भीमविजय या गदा युद्ध-यह दस प्राश्वासों का गद्य-पद्यमय चम्पू अन्य है। इसमें महाभारत की कथा का सिहावलोकन करते हुए चालुक्य नरेश आहब मल्ल का चरित्र लिखा है। और अपने पोषक पाहव मल्लदेव की भीमरोन के साथ तुलना की है। रचना विलक्षण और प्रासाद गुण को लिए हुए है। कर्नाटक कवि चरित के कर्ता ने लिखा है कि रन्न कवि की रचना प्रौढ़ और सरस है, पद्य प्रबाह रूप और हृदयग्राही है । साहस भीम विजय को पढ़ना शुरू करके फिर छोड़ने को जी नहीं चाहता।। महाभारत युद्ध में कौरव-पाण्डवों की सैन्य शक्ति के क्षय के साथ दुर्योधन के सभी प्रात्मीयजनों के मारे जाने पर, तथा पाण्डवों के अभिमन्यु जैसे वीर युवक के स्वर्गवासी हो जाने पर, लोगों को यह धारणा हो गई यो कि दुर्योधन अकेला पाण्डवों को विजित नहीं कर सकता। यद्यपि वह वीर क्षत्रिय, महापराक्रमी, गुरुभक्त, हठी, प्रति काराभिलाषी, युद्ध प्रिय एवं उदार है, तो भी उसने माता-पिता, भीष्म और संजय द्वारा उपस्थित संधि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। वह उसी समय सगर्व संजय से कहता है कि ये सबल भुजाएँ और मेरी प्रचंड गदा मौजूद है। अतएव मुझे किसी की सहायता की प्रावश्यकता नहीं है। अंधपिता धृतराष्ट्र पाण्डवों को प्राधा राज्य देकर संघी करने की प्रार्थना करता है, माता गांधारी भी दीनता से उसका समर्थन करती है। तो भी उस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अन्त में दुर्योधन और भीम का भीषण गदायुद्ध होता है । उसमें भीम की गदा के प्रहार से दुर्योधन के उरु भंग हो गए। जिससे वह मरणासन्न हो गया। उरुषों की असह्य पीड़ा को सहता हुअा भी दुर्योधन पांडवों से बदला लेने के लिए अश्वत्थामा से कहता है कि पांडवों को मार कर उनके मस्तक लाकर मुझे दिखलामो जिससे मेरे प्राणशान्ति से निकल सकें। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इसमें सन्देह नहीं कि दुर्योधन महा अभिमानी और ईर्पालु और कौरवों का पक्षपाती था। वह पांडवों को निर्दोष मानता हुमा भी उनके प्रतिकार करने की भावना रखता था । फिर भी उसमें कुछ मानवोचित गुण भी थे, उनको सर्वथा भुलाया नहीं जा सकता । जब वह युद्ध स्थल म भारे गए अपने स्नेहा पार गुरुजना प्रादि का देखता है तब वह उनके प्रति स्वाभाविक गुरु भक्ति प्रकट करता हुआ स्नेहो जनों के वियोग से खिन्न हाता है। और उनक विनाश में दुर्नय एवं दुष्टता को कारण मानता हुआ पश्चाताप करता है। और भीष्म के चरणों में पड़ कर उनसे क्षमा मांगता है। प्रागे शत्रुकुमारों में पराक्रमी बालक अभिमन्यु को देखता है तब उसके साहस और वोरता का मुक्त कंठ से प्रशंसा करता हुआ दुर्योधन हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार वीर मरण प्राप्त हो। रन कवि का 'गदायुद्ध' बहुत ही मार्मिक और वस्तुतत्व का यथार्थरूप में चित्रण करता है। महाभारत में सर्वत्र भीम के साहस की प्रशंसा मिलेगी। किन्तु रन्न कवि के गदायुद्ध में दुर्योधन के सामने भोम का साहस निस्तेज (फीका) हो जाता है अधिकांश ग्रन्थ कर्ताओं ने द्रोपदि के वस्त्रापहरण आदि अनुचित घटनाओं के कारण दुर्योधन को कलंकी मादि अपशब्दों से दोषी ठहराया है वह हठी होते हुए भी उसमें उदारता आदि गुण अवश्य थे। भीम भी अभिमानी प्रतापी और साहसी था। उसकी गदा प्रहार से जब दुर्योधन के उरु भंग हो गए। उसको असह्य पीड़ा से पीडित और रक्त माद्रित मरणासन्न दुर्योधन के मुकुट को लात मारना किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता, वह भीम का अनुचित कार्य था । रन्न का दुर्योधन अन्ततक क्षात्र धर्म का पालन करता है। भीम में हंसी आदि कछ ऐसे दोष भी थे जिसके कारण महा प्रतापी नारायण कृष्ण भी पाण्डवों से विरक्त हो गए थे। रन्न कवि का 'रन्न कन्द' नाम का एक छोटा-सा कविता ग्रन्थ भी है। गुणनन्दि गुणनन्दि नन्दि संघ देशीय गण के आचार्य ब्लाकपिच्छ के शिष्य थे। जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले पन बन्धु थे। मुनियों के स्वामी देशीय गण में अग्रणीय, और गुणाकर तथा गणधर के समान थे। उनकी विद्वत्ता और महत्ता का सहज ही अनुमान हो जाता है। जैसाकि कि निम्न पद्य से प्रकट है: बभूव भच्याम्बुजपद्मबन्धुः पतिमुनीनां गणभृत्समानः। सदप्रणी देशगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ श्रवण बेल्गोल के ४७ व शिलालेख में बतलाया गया है कि गुणनन्दि भाचार्य के तीन सौ ३०० शिष्य थे। उनमें ७२ सिद्धान्त शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे। विबुधगुणनन्दि भी इन्हीं के शिष्य थे। विबुधगणनन्दि के शिष्य अभय नन्दि थे उन शिष्यों में देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। इन देवेन्द्र सैद्धान्तिक के एक शिष्य कलधौतनन्दि या कनक नन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे जिन्होंने इन्द्रनन्दि गुरु के पास सिद्धान्त शास्त्र का अध्ययन किया था और सत्व स्थान की रचना की थी। इस लेख के उत्कीर्ण होने का समय शक सं० १०२६ सन् ११०७ है। किन्तु प्रस्तुत प्राचार्य का समय उक्त शिलालेख से पूर्ववर्ती है। वे दशवों शताब्दी के विद्वान थे। यशोदेव यशोदेव-गौड़ संघ के मान्य मूनि थे। उग्र तप के प्रभाव से जिनका शासन देवता से समागम तछियो गुगनन्दि पण्डित यतिश्चारित्रचक श्वरस्तकं प्राकरणादि शास्त्रनिपुण साहित्य विद्यापतिः ! मिथ्यावादिमदान्धसिन्धुरघटासंघट्टकण्ठीरवो, मध्याम्भोज दिवाकरो विजयता कन्तपदयापहः ॥७॥ तच्छिष्या स्त्रिशताविवेकनिधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गतास्तेषुत्कृष्टता द्विसप्ततिमिता सिद्धान्त शास्त्रार्थकव्याख्याने पटको विषिषचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः । नानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसैद्धान्तिकः ॥ -जैन लेख सं०भा०१पृ०५७-५८ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य हया था। यह महान ऋद्धि के धारक थे। इन्हीं के शिष्य नेमिदेव थे, जो स्याद्वाद समुद्र के उस पार तक देखने वाले और परवादियों के दर्णरूपी वृक्षों को छेदने के लिये कुठार थे। याचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामत को प्रशस्ति नं नेमिदेव को ५५ महावादियों को पराजित करने वाला बतलाया है। और यशस्तिलक की प्रशस्ति में ३ महावादियों को जीतने वाला लिखा है। इनका समय सं० ६७५ होना चाहिये। नेमिदेवाचार्य नेमिदेवाचार्य-यह देव संघ के विद्वान यशादेव' के शिष्य थे। बड़े भारी विद्वान और वाद विजेता थे। इन्हीं के शिष्य सोमदेव थे। सोमदेव ने अपने गुरु नेमिदेवाचार्य को नीतिवादाक्यामृत प्रशस्ति में पचपन (५५) वादियों का विजेता बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न प्रशस्ति वाक्य से प्रकट है : 'सकलताकिक चक्रचूडामणि चुम्बित-चरणस्य पंच पंचामहावादि विजयोपाजित कीति मन्दाकिनी पवित्रित त्रिभुवनस्य, परम तपश्चरणरत्नोदन्वतः श्री मन्ने भिदेव भगवतः" । --नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति वे तार्किक चक्रचूड़ामणि, और स्याद्वाद रूप रत्नाकर के पारदर्शी तथा परवादियों के दर्प रूपी द्रुमावली को छेदन के लिये कुठारनेमि-कुदाली की-धार थे। सोमदेवाचार्य ने जब यशस्तिलक चम्पू बनाया, उस समय तक उनके गुरु नेमिदेव ने ते रानवे वादियों को जीत लिया था । जैसाकि यशस्तिलक चम्पू के निम्न पद्य से प्रकट है : श्रीमानस्ति देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः । शिष्यस्तस्य बभूव सदगुणनिधिः श्रीने मिदेवालयः॥ तस्याश्चयं तपः स्थितेस्त्रिनवते जैतुर्महावादितां । शिष्यो भूदिह सोमदेव यतिपस्तस्येव काव्य क्रमः (-यशस्तिलक खम्पू प्रशस्ति) इनके बहुत शिष्य थे। जिनमें से एक शतक शिष्यों के प्रबरज ( अनुज ) और शतक के पूर्वज सोमदेव थे, ऐसा परभणी के ताम्र पत्र से ज्ञात होता है । इससे नेमिदेव की विद्वत्ता और महत्ता का सहज ही भान हो जाता है और यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि नेमिदेव उस समय के तार्किक विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ थे। और नीतिवाक्यामत और यशस्तिलक चम्पू की प्रशस्तियों से यह निश्चित होता है कि वे दोनों रचनाओं के समय मौजूद थे। कि यशस्तिलक की रचना शक सं० ८५१ ( वि० सं० १०१६) में हुई है। अतः नेमिदेव उस समय जीवित थे। उसके बाद वे और कितने समय तक जीवित रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। प्रतएव इनका समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का उपान्त्य भाग है। महेन्द्र देव महेन्द्रदेव-देव संघ के आचार्य नेमिदेव के शिष्य थे और सोमदेवाचार्य के अनुज और बड़े गुरु -परभरणी ताम्रपत्र १. श्री गौइसंघ मुनिमान्यक्रीतिनाम्ना यशोदेव इति प्रजथे। बभूब पस्योग्रतपः प्रभावात्समागमः शासनदेवताभिः ॥१५ २. शिष्योभवत्तस्यमहद्धिभाजः स्याद्वादरत्नाकरपारदृश्वा । श्रीमिदेवः परवादिदप्पंद्र मायलीच्छेद कुठारनेमिः ॥१६ ३. तस्मात्तपःपश्रियो भतुल्लोकानां हृदयंगमाः । बभूवबहवःशिष्या रलानीव तदाकरात् ॥१७॥ तेषां वातस्यावरजः शतस्य तयाभवत्यूर्वज एव धीमान् । श्री सोमदेवस्तपसः श्रुतस्य स्थान सशोधाम गुणोजिंतश्री: 1॥१८ -वही -वही Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ भाई थे। सोमदेवाचार्य ने नीतिवाक्यामत की प्रशस्ति में महेन्द्रदेव भट्रारक का अपने को अनुज लिखा है और उन्हें 'वादीन्द्रकलामल बतलाया है। वे उन महेन्द्र देब से भिन्न नहीं है, जिनका उल्लेख रामसेन (तत्त्वानुशासन के कर्ता ) ने अपने शास्त्र गुरुत्रों में किया है। परभणी के ताम्रशासन से ज्ञात होता है। कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव नेमिदेव के नदन मे शिष्यों में से एक थे। जिनमें एक शतक शिष्यों के प्रवरज (अनुज) और एक शतक शिष्यों के पूर्वज सोमदेव थे। चूंकि यह ताम्रशासन यशस्तिलक चम्पू की रचना से सात वर्ष बाद शक सं० ८८८ के व्यतीत होने पर वंशाख की पूर्णिमा को लिखा गया है अतः इन महेन्द्रदेव का समय शक सं०७० से १८८तक सुनिश्चित है अर्थात् महेन्द्रदेव सन् ६४८ से १६६ ई. के अर्थात् ईसा की १०वीं शताब्दी के मध्यवर्ती विद्वान हैं। कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल प्रथम या द्वितीय ने सोमदेव के गुरु नेमिदेव' से दीक्षा ग्रहण की थी; अथवा सोमदेव महेन्द्रपाल राजा का कौटाम्बिक दृष्टि से छोटा भाई था, यह कोरी कल्पना जान पड़ती है। क्योंकि महेन्द्र पाल का 'वादीन्द्र कालानल' विशेषण भी उनके राजस्व का द्योतक नहीं है। प्रत्युत नीतिवाक्यामत के टीकाकार ने उन्हें शिव भक्त के रूप में उल्लेखित किया है। तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन ने अपने विद्याशास्त्री गुरुपों में जिन . महेन्द्र देव का नामोल्लेख है, बे सोमदेव के बड़े गुरु भाई ही जान पड़ते हैं। सोमदेव देवसंघ के आचार्य यशोदेव के प्रशिष्य और नेमिदेवाचार्य के शिष्य थे । जो तेरानवे वादियों के विजेता थे। देवसंघ लोक में प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना प्राचार्य अर्हवली ने की थी। इस संघ में अनेक विद्वान हो गए हैं। यह अंकलंक और देवनन्दि (पूज्यपाद) इसी संघ के मान्य विद्वान थे। यशोदेव, नेमिदेव और महेन्द्रदेव आदि देवान्त नाम इसी देव संघ के द्योतक हैं। नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेव महेन्द्रदेव के लघु भ्राता थे। और स्याहादाचलसिंह, ताकिक चक्रवर्ती, वादीमपंञ्चानन, बाक्कल्लोलपयोनिधि, तथा कविकुलराज, उनकी उपाधियों थीं। परभणी ताम्रपत्र में सोमदेव को 'गोड़संघ' का विद्वान लिखा है। प्रोझा जी के अनुसार प्राचीन काल में गौड़नाम के दो देश थे । पश्चिमी बंगाल और उत्तरी कोशल-अवधका एक भाग, कन्नौज साम्राज्य, का अधिकार भी गौड़पर रहा है। सोमदेव का संस्कृत भाषा पर विशेष अधिकार था । न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्द, धर्म, प्राचार और राजनीति के वे प्रकाण्ड पंडित थे। महाकवि धर्म शास्त्रज्ञ और प्रसिद्ध दार्शनिक थे। सोमदेव की ख्याति उनके गद्य-पद्यात्मक काव्य यशस्तिलक और राजनीति की पुस्तक नीतिवाक्यामृत से है। यदि इनमें से नीति वाक्यामृत को छोड़ भी दिया जाय तो भी अकेला यशरितलक ग्रन्थ ही उनके वैदुष्य के परिचय के लिये पर्याप्त है। उसमें उनके वैदुष्य के अपूर्व कप दिखाई देते हैं। संस्कृत की गद्य-पद्य रचना पर उनका पूर्ण प्रभत्व है। जैन सिद्धान्तों के अधिकारी विद्वान होते हुए भी दे इतर दर्शनों के दक्ष समालोचक हैं। राजनीति के तो वे गंभीर विद्वान हैं ही, इस तरह उनकी दोनों प्रसिद्ध रचनाएँ परस्पर में एक दूसरे की पूरक है। नीतिवाक्यामत को प्रशस्ति का निम्न पद्य इस प्रकार है:-- सकल समयत वाकलो ऽसि वावि, न भवसि समयोक्ती हंस सिद्धान्तदेवः । न वचन विलासे पूज्यपादोऽसि तस्वंयवसि कथमिवानी सोमदेवेन सार्धम् ॥' तस्मात्तपः श्रियो भर्ता (k) लोकानां हृदयंगमाः। वभवबहवःशिवारलानीव तदाकरात् ॥१७ तेषां शतस्यावरणः शतस्य तथा भवत्पूर्वज एव धीमान् । थी सोमदेवतपतः श्रुतस्म स्थान यशोधाम गुणोजितथीः ॥१८ २. श्री मानक्षिा स देवसंघ शिवको बेधीयशः पूर्वकः । शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवावयः । तस्यान चर्यतप: स्थितस्त्रिनवतेर्जेतुमहावादिनां, शिष्योऽभदिह सोमदेव इति यस्तस्यष काव्यक्रमः ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम 'वीं ताब्दी के आचार्य यह पद्य एक वादी के प्रति कहा गया है कि तुम समस्त दर्शनों के तर्क में अकलंक देव नहीं हो, और न आगमिक उक्तियों में हंस सिद्धान्त देव हो, न वचन विलास में पूज्यपाद हो, तब तुम कहो इस समय सोमदेव के साथ कैसे बाद कर सकते हो? ___ उसी प्रशस्ति के अन्तिम पद्य में कहा गया है कि सोमदेव की वाणी वादिरूपी मदोन्मत्त गजों के लिये सिंहनाद के तुल्य है । वाद काल में वृहस्पति भी उनके सम्मुख नहीं ठहर सकता' ।। सोमदेव ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध में लिखा है कि मैं छोटों के साथ अनुग्रह, बराबरी वालों के साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान् प्रादर का वर्ताव करता हूं। इस विषय में मेरा चरित्र बड़ा ही उदार है । परन्तु जो मुझे एंट दिखाता है, उसके लिये, गर्वरूपी पर्वत को विध्वंस करने वाले मेरे वज्र वचन कालस्वरूप हो जाते है। "अल्पेऽनुग्रह घोः समे सुजनता भान्ये महानावरः, सिद्धान्तोऽय मुवात्त चित्त चरिते श्री सोमदेवे मयि । यः स्पर्धेत तथापि दर्पदुदृता प्रीतिप्रगाढाग्रहः स्तस्या खवितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥" प्राचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक को उत्थानिका में कहा है कि जैसे गाय घास खाकर दूध देतो है वैसे ही, जन्म से शुष्क तक का मभ्यास करने वालो मेरी बुखि से काव्य धारा निसुत हुई है। इससे स्पष्ट है कि सामदव ने अपना विद्याभ्यास तर्क से प्रारम्भ किया था और तक ही उनका वास्तविक व्यवसाय था। इनको ताकिक चक्रवर्ती और वादीभ पंचानन आदि उपाधियां भी इसका समर्थन करती हैं। यशस्तिलक चम्पू से ज्ञात होता है कि सोमदेव का अध्ययन विशाल था । और उस समय में उपलब्ध न्याय, नोति, काव्य, दर्शन, व्याकरण आदि साहित्य से चे परिचित थे। यद्यपि सोमदेवाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, यशस्तिलक चम्पू, नीतिवाक्यामृत, अध्यात्मतरंगिणी (ध्यान विधि ) युक्ति चिन्तामणि, त्रिवर्ग महेन्द्रमातलि संजल्प, षण्णवति प्रकरण, स्याद्वादोपनिषत् और सुभापित ग्रन्थ । इन रचनाओं में से इस समय प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। शेष ग्रन्या का केवल नामोल्लेख हो मिलता है । नोतिवाक्यामृत को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेवाचार्य ने 'पण्णबति' प्रकरण, युक्ति चिन्तामणि सूत्र, महेन्द्रमातलिसंजल्प और यशोधरचरित की रचना के बाद ही नीति वाक्यामृत को रचना की गई है। यशस्तिला चम्पू-यशस्तिलक चम्पू के पांच प्राश्वासों में गद्य-पद्य में राजा यशोधर की कथा का चित्रण किया गया है। राजा यशोधर को कथा बड़ी ही करुणा जनक है। हिंसा के परिणाम का बड़ा ही सुन्दर अंकन किया गया हैं। आटे के मुर्गा मुर्गी बनाकर मारने से अनेक जन्मों में जो घोर कष्ट भोगने पड़े, जिनको सुनने से रोंगटे खडे हो जाते है। प्राचार्य सोमदेव ने यशोधर और चन्द्रमति के चरित्र का यथार्थ चित्रण किया है । और अवशिष्ट तीन प्राश्वासों में उपासकाध्ययन का कथन किया गया है-श्रावक धर्म का प्रतिपादन है। इसमें ४६ कल्प हैं जिनके नाम भिन्न भिन्न हैं। प्रथम कला का नाम 'समस्तसमयसिद्धान्तावबोधन है। जिसमें सभी दर्शनों की समीक्षा की गई है। दूसरे कल्प का नाम 'आप्तस्वरूप मीमांसन' है, जिसमें प्राप्त की मौमांसा करते हुए उनके देवत्व का निरसन किया है। तीसरे का नाम 'पागमपदार्थ परोक्षण' है-जिसमें पहले देव की परीक्षा करने के बाद उनके बचनों को परीक्षा करने का निदा किया गया है । चौथे कल्प का नाम 'मुहतोन्मथन' है जिसमें मूढतानों का कथन किया गया है। इसोतरह अन्य कल्पों का विवेचन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि सोमदेव का उपासकाध्ययन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । और प्रसंगवश जैनधर्म के सिद्धान्तों का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है। -- . .- - १. धन्धि बोधविध सिन्धमिहनादे, वादि द्विपोद्दलनदुर्घरवाविवाद। श्री सोमदेवमुनि वचना रसाल, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न वादकाने ।। २. परभणी ताम्रपत्र में उन्हें सुभाषितां का कर्ता भी लिखा है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन धर्म का चीन इतिहास-भाग २ यशस्तिलक में आपकी नैसर्मिक एवं निखरी हई काव्य प्रतिभा का पद-पद पर अनुभव होता है। बे महा कवि थे और काव्य कला पर पूरा अधिकार रखते थे। यशस्तिलक में जहां उनकी काव्य-कला का निदर्शन होता है वहां तीसरे अध्याय या आश्वास में राजनीति का, और ग्रंथ के अन्त में धर्माचार्य एवं दार्शनिक होने का परिचय मिलता है। इस ग्रन्थ पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है। पर वह पूर्वार्ध पर ही है, उत्तरार्ध पर नहीं है। प्राचार्य सोमदेव ने शक संवत ८८१ (१५९ई०) में सिद्धार्थ संवत्सर में चैत्र मास की मदनत्रयोदशी के दिन, जब कृष्णराज देव (तृतीय) पाण्डध, सिंहल, चोल और चेर प्रादि राजानों को जीत कर मेल्पाटी में शासन कर रहे थे । वहां मान्य खेट में यशस्तिलक नहीं रचा गया; किन्त कृष्णराज के सामन्त चालूक्य बंशो अरिकेसरी के ज्येष्ठ पुत्र वागराज की राजधानी गंगधारा में रचना की थी। और उसी सिद्धार्थ संवत्सर में पुप्पदन्त ने महापुराण की रचना का प्रारम्भ किया था। पुष्पदन्त ने महापुराण की उत्थानिका में लिखा है कि-'सिद्धार्थ संवत्सर में, जब चोलराज का सिर, जिस पर केशों का जूड़ा ऊपर की ओर बँधा हा था, काट कर राजाधिराज तुडिग (कृष्णराज ततीय) मेपाडि (मेलपाटी) नगर में वर्तमान हैं मैं प्रसिद्ध नामवाले पुराण को कहता हूं। नीतिवाक्यामृत-राजनीति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह संस्कृत साहित्य का अनुपम रत्न है। इस का प्रधान विषय राजनीति है। राजा और राज्य शासन से सम्बन्ध रखने वाली सभी प्रावश्यक बातों का इसमें विवेचन किया गया है। ग्रन्थ गद्य सूत्रों में निबद्ध है। ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली प्रभावशालिनी और गंभीर है। आचार्य सोमदेव ने डा० राघवन के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना कन्नौज के प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल द्वितीय की प्रेरणा से की थी। इनका एक शिलालेख वि० सं० १.०३ का प्राप्त हुआ है और दूसरा वि० सं०१००५ का इनके उत्तराधिकारी देवपालका । यशस्तिलक के 'कान्यकुब्ज महोदय' और 'महेन्द्रामर मान्य धी' वाक्य भी इसकी पुष्टि करते हैं । नीतिवाक्यामृत में उसकी रचना का स्थान और समय नहीं दिया। इस ग्रन्थ पर कनड़ी भाषा के कवि नेमिनाथ की टीका है, जो किसी राजा के सन्धि विग्रहिक मंत्री थे। उन्होंने मेघचन्द्र विद्यदेव और वीरनन्दि का स्मरण किया है। नेमिनाथ ने यह टीका वीरनन्दि को प्राशा से लिखी है। मेषचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ था। और वीरनन्दि ने आचारसार की कनड़ी टीका शकसंवत् १०७६ (वि.सं. १२११) में लिखी थी। अतः नेमिनाथ १२वीं शताब्दी के अन्त और तेरहवीं के प्रारम्भ में हुए हैं। तीसरा ग्रन्य 'ध्यान विधि' या अध्यात्मतरंगिणी है, जिसको श्लोक संख्या चालीस है। इसमें ध्यान और उसके भेद आदि का वर्णन दिया है। इस पर अध्यात्मतरंगिणी नाम की एक संस्कृत टीका है। जिसके कर्ता मुनि गणधर कीति है। जिसे उन्होंने यह टीका वि० सं०११५९में चैत्र शुकला पंचमी रविवार के दिन गुजरात के चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह के राज्य काल में बनाकर समाप्त की है। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है: १. शनि कालातीतसंवत्सरेष्वष्टस्काशीत्यधिकेषु गतेषु अंकतः (२८१) सिद्धार्थ संवत्सरान्तर्गत चैत्र माग मदन त्रयोदश्यां पाग्य-सिंहल-चोर परमप्रभूतीन्महीपतीप्रसाध्य मेलाटी प्रवर्धमान राज्यप्रभावे श्रीकृष्णराज देवे सति तत्पादपद्मोप जीविनः समधिगत पञ्चमहाशब्दमहासमान्ताधिपतेश्चातृस्य कुलजन्मनः सामन्त चुडामणे: श्रीमदरिकेसरिणः प्रथम पुत्रस्य श्रीममग राजस्य लक्ष्मी-प्रवर्षमानवसुधाराया गंगराधारायां विनिर्मापितमिद काव्यमिति। -यस्तिलक प्रशस्ति २. जं कहमि पुराणु पसिद्धणाम, सिद्धस्थ वरिसि भुवणाहिराम् । उम्बद्ध जुड़ भूभंगभीसु, तोड़ेप्पिण चोडहो तण सीम् । भुवणेकरायु रायाहिराउ, जहि अच्छइ तुरिगु महाणभाउ। सं दीण दिश्य धरणकरणय पयरु, महि परिभमंतु मेंपाहि गया। महापुराण उत्थानिका Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य २२३ एकावश शताकीर्ण नवाशीत्युत्तरे परे। संवत्सरे शुभे योगे पुष्यनक्षत्रसंज्ञके ॥ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवा दिने । सिद्धा सिद्धप्रदाटीका गणभृत्कीतिविपश्चितः ॥ निस्वंशजिताराती विजयश्री विराजान । जयसिंह देव सौराज्ये सज्जनानन्ददाशिनी ।। जयसिंह देव का राज्य सं० ११५० से ११६६ तक बहा रहा है। अत: गणधर कीति के उक्त समय में कोई बाधा नहीं आती। हैदरावाद के परभनी नामक स्थान से एक ताम्रपत्र प्राप्त हुना है जो यशस्तिलक की रचना से सात वर्ष पश्चात् सोमदेव को दिया गया था। उसमें चालुक्य सामन्तों की वंशावली दी हुई है, जो इस प्रकार है: यूद्धमल्ल १ रिकेशरी, नरसिंह (भद्रदेव) युद्ध मल्ल बडिग १, युद्धमल्ल अरिकेशरी नरसिंह २ (भद्रदेव), अरिकेशरी ३, वडिग २ (वाद्यग) और अरिकेशरी ४। इसी वड्डिग द्वितीय या वाद्यग के राज्यकाल ५६ ई. में सोमदेव ने अपना काव्य रचा था । इसी ताम्रपत्र में बाद्यग के पुत्र प्ररिकेसरी चतुर्थ शक सं० ८८ (६६६ ई०) में शभधाम नामक जिनालय को जीर्णोद्धारार्थ सोमदेव को एक गांव देने का उल्लेख है । यह जिनालय लेबुल पाटक नाम को राजधानी में वाद्यग ने बनवाया था। इससे स्पष्ट है कि उस समय (६६६ ई०) में सोमदेव शुभधाम जिनालय के व्यवस्थापक थे । और अपनी साहित्यिक प्रवत्ति में संलग्न थे, क्योंकि इस ताम्रपत्र में सोमदेव की यशोधर चरित के साथ-साथ 'स्याद्वादोपनिषत' नामक ग्रन्थ का भी रचयिता लिखा है। शोधार नं०२२ में डा० ज्योतिप्रसाद जी ने सोमदेव सम्बन्धी एक शिलालेख का परिचय दिया है। अस्तंगत निजामराज्य के करीम नगर जिले में स्थित 'लमुलवाड' नामक स्थान से एक पाषाणखण्ड प्राप्त हया है। जिसमें संस्कृत के दो पद्य हैं। जिनमें लिखा है कि लेम्बुल पाटक के चालुक्य वंशी नरेश बद्दिगने गौड़ संघ के माचार्य सोमदेव सूरि के उपदेश से (अथवा उनके हितार्थ) उक्त नगर में एक जिनालय का निर्माण कराया था। अभिलेख में सूचित किया है कि यह राजा वद्विग सपादलक्ष (सवालाख) देश के शासक युद्धमल्ल की पांचवीं पीढ़ी में हया था। यह वही शूभ धाम जिनालय है जिसके संरक्षण के लिए चालुक्य नरे। प्ररिकेसरी ने शक सं ८८८ (सन १६६ ई.) में अपने गुरु मोमदेव को एक ताम्र शासन अर्पित किया था। यह लेख महत्वपूर्ण है इससे शभधाम जिनालय के स्थल का पता चल जाता है। संभव है वहां खुदाई करने पर और भी अवशेष प्राप्त हो जाय । मुल शिलालेख के वे पद्य भी प्रकाशित होना चाहिए। त्रैकाल योगीश मलसंघ, देशीयगण और पुस्तक गच्छ के विद्वान थे। यह गोल्लाचार्य के विद्वान शिष्य थे। इन्होंने किसी ब्रह्म राक्षस को अपना शिष्य बना लिया था। उनके स्मरण मात्र से भूतप्रेत भाग जाते थे। इन्होंने करज के तेल को चत रूप में परिवर्तित कर दिया था। यह बड़े प्रभावशाली थे। इनका समय--१०वीं का अन्त और ११वीं शताब्दी का प्रारम्भ होना चाहिए। १.ले) बुल पटकनामधेय निजराजधान्यां निजपितुः श्री मागस्य शुभधाम जिनालयास्य वस (त:) खण्डस्फुटित नवसधाकर्म बलि निवेद्यार्थ शकान्देष्वष्टाशीत्यधिकेष्वष्टशतेपुगतेषु....ते श्रीमदरिकेसरिणा...''श्रीसोमदेवसूरये..."वनिकट पुलनामा ग्रामः''''''दत्सः।" -यदास्तिलक. इण्डि० क. पृ. ५ २. "विरचिता यशोधरचरितस्य कर्ता स्याद्वादोप निपद. कबि (चयि) ता।" Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि प्रसग जीवन-परिचय--कबि असग दशबी शताब्दी के विद्वान थे। उनके पिता का नाम 'पदमति' था, जो धर्मात्मा ओर मुनि चरणों का भक्त था, और शुद्ध सम्यक्त्व से युक्त श्रावक था। और माता का नाम 'वैरित्ति' था, जो शुद्ध सम्यक्त्य से विभूषित थी। असग इन्हीं का पुत्र था । इनके गुरु का नाम नागनन्दी था, जो शब्द समयार्णव के पारगामी अर्थात ब्याकरण काध्य और जैन शास्त्रों के ज्ञाता थे । असग के मित्र का नाम जिनाप्य था । यह भी जैन धर्म में अनुरक्त शुरबीर, परलोक भीरु एवं द्विजातिनाथ (ब्राह्मण होने पर भी पक्षपात रहित था? कवि असग जे भावकी ति मुनि के पादमूल में मौद्गल्य पर्वत पर रहकर और श्रावक के व्रतों का विधिपूर्वक अनुष्ठान कर ममता रहित होकर विद्याध्ययन करने का उल्लेख किया है। और बाद को चोल देश में जनतोपकारी राजा श्रीमाध के राज्य को पाकर और वहां की बरला नगरी में रहकर जिनोपदिष्ट आठ ग्रन्थों की रचना करने का उल्लेख किया गया है। परन्तु उन पाठ ग्रन्थों के नामों की कोई सूचना नहीं की गई। कवि ने वर्धमान परित, की रचना वि० सं०६१० (ई० सन् १५३ में की है। पौन्न कवि ने अपने शान्तिनाथ पुराण में ९५०ई० में अपने को असग के समान 'कन्नड कवितेयोल प्रसगम, बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि असग कवि के बर्धमान चरित की रचना सन् ६५० ई० से पूर्व में हो चुकी थी, और वह प्रचार में आ गया था । अतएव वीरचरित की रचना शक सं० ११० नहीं हो सकती। वह विक्रम सं०६१० की रचना निश्चत है। कवि की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं वर्धमान चरित और शान्तिनाथ चरित । कवि ने वर्धमान चरित्र मार्गनन्दी की प्रेरणा से बनाया था । अन्तिम तीर्थकर भगवान वर्षमान (महावीर) का चरित अंकित किया गया है। चरित्र चित्रण में कवि में कुशल है और उसे रवि ने संस्कृत के प्रसिद्ध विविध छन्दों-उपजाति, बसन्ततिलका, शिखरिणी. वंशस्थ, शालिनी, अनुष्टुप मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीडित, स्वागता, प्रहर्षिणी, हरिणि, और स्रग्धरा प्रादि वत्तोंमें रखने का प्रयत्न किया है । ग्रन्थ १८ सर्गों में पूर्ण हुआ है। कवि ने चरित को जन प्रिय बनाने के लिये शान्तादि रसों और उपमा, उत्प्रेक्षादि अलंकारों को पुट देकर रमणीय, सरस और चमत्कार पूर्ण बना दिया है। ग्रन्थ में महा काव्यत्व के सभी अंगो की योजना की गई है। महवीर का जीवन परिचय उनके पूर्व भवों से संयोजित है। उससे उनके जीवन विकास का क्रम भी सम्बद्ध है। यद्यपि वर्षमान का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण के ७४वें पर्व से लिया गया है, परन्तु उसे काव्योचित बनाने के लिये उनमें कुछ काट-छांट भी की गई है। किन्तु पूर्व कथानक को ज्यों का त्यों रहने दिया है, कवि ने पुरुरवा और मरीचि के पाख्यान को छोड़ दिया है । और श्वेतातपत्त नगरी के राजा मन्दिवर्धन के पुत्र जन्मोत्सव से कथानक शुरु किया है। ग्रन्थ में घटनाओं का पूर्वा पर क्रम निर्धारण, उनका परस्पर सम्बन्ध, और उपाख्यानों का यथा स्थान संयोजन मौलिक रूप में घटित हुआ है। कवि को उसमें सफलता भी मिली है। कृति पर पूर्ववर्ती कवियों के चरित्रों का उस पर प्रभाव होना सहज है। इस महाकाव्य की शैली कवि १. संवत्सरे दशनवोत्तर वर्षयुक्ते (६१०) भावादिकीतिमुनिनायकपादमूले । मौद्गल्य पर्वत निवास व्रतस्थसंपत्सष्टावक प्रजनिते सतिनिर्ममत्वे ।।१०५ विद्या मया प्रपठिते त्यसगान श्रीनाथराम्ममखिल-गनतोपकारि । प्रापे च चौड़विषये वरलानगर्या ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्ट ॥१०६ --जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० १, प्र०१७-८ २. "मुनिवरण रजोभिः सर्वदा भूतधान्यांप्रगति समयलग्नः पावनीभूतमूर्धा । उपशम इन मूर्तः शुद्ध समम्यक्त्वयुक्तः पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ।।" "अरेति रित्यनुपमा भुवि तस्य भार्या सम्यक्त्व शुद्धिरिध मूर्तिमती पराऽभूत् ।"२४४ पुत्रस्तयोरसग इत्यवदात्तकीयोरासीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः । चंदांश शभ्रमशासो भुवि नाग नद्याचार्यस्य शब्द समयार्णव पारगस्य ॥२४५ तस्याभव भव्य जनस्य सेव्यः सखा जिनाप्यो जिनधर्मसक्तः । ख्यातोऽपि पौर्वात्परलोकभीरु द्विजातिनाथोऽपि विपक्षपातः ।। २४६।। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य २२५ भारवि के किरातार्जुनीय से प्रायः मिलती-जुलती है । रचना सुन्दर तथा पठनीय है । ग्रन्थ का अाधुनिक सम्पादित संस्करण प्रकाशित होना जरूरी है। दूसरी रचना शान्तिनाथ चरित है जिसमें सोलहीका किनारका जीवन-परिचय प्रकित किया गया है। यह ग्रन्थ सोलह सों में विभक्त है। यह ग्रन्थ वर्धमान चरित के वाद बनाया गया है। इस ग्रन्थ पर एक संस्कृत टिप्पणी भी उपलब्ध है। परन्तु मूल और टिप्पण दोनों ही अभी तक अप्रकाशित हैं। शेष ग्रन्थों का अन्वेषण होना चाहिए। विमलचन्द्र मुनीन्द्र विमलचन्द्र मुनीन्द्र-महापण्डित, गुरुओं के गुरु और वादियों का मद भजन करने वाले थे। चणि में उनके द्वारा राजा शत्रु भयंकर के सभा द्वार पर लगाये गये वादपत्र चेलज के श्लोक निम्न प्रकार हैं: पत्रं शत्रु-भर्यरोह-भवन-द्वारे सदासञ्चरन्नाना-राज-करीन्द्र-वृन्द-तुरग-वाताकुले स्थापितम। शंवापाशुपतास्तथागतसुतात्कापालिकान्कापिला नृद्दिश्योद्धत-चेतसा विमलबन्द्राशाम्बरेणादरात् ॥२६ इनका समय संभवत: विक्रम की १०वी का उत्तरार्ध और ग्यारहवीं का पूर्वार्ध सुनिश्चित है। महामुनि वऋग्रीव यह बड़े भारी विद्वान थे। यह किसी बाद में छहमास पर्यन्त केवल 'प्रथ' शब्द की व्याख्या करते रहे। इससे उनकी विद्वत्ता एक सहज ही अनुभव हो जाता है। जैसा कि महिलषेण प्रशस्ति के निम्न पच से स्पष्ट है : बक्रग्रीव-महामुने-ईवा-शत-ग्रीयोऽप्यहीन्द्रो यथाजातं स्तोतुमलं वचोबलमसौ कि भग्न-वाग्मि-जं । योऽसौ शासन-देवता-बहमतोही-वक्त्र-बावि-ग्रह ग्रोवोऽस्मिन्नय-शाम्ब-वाच्य मवदद मासान्समासेन षट् ॥१० चंकि मल्लिषेण प्रशस्ति-उत्कीर्ण होने का समय शक सं० १०५० सन् ११२८ ई० है। वक्ग्रीव मुनि उससे पूर्व हए हैं। अत: इनका समय संभवतः ईसा को दसवीं-ग्यारहवीं सदी हो सकता है । हेलाचार्य हेलाचार्य-यह द्रविड संघ के अधिपति और द्रविडगण के मुनियों में मुख्य थे। और जिन मार्ग की क्रियाओं का विधिपूर्वक पालन करते थे। पंच महावत पंच समिति और तीन गुप्तियों से संरक्षित थे-उनका विधि पूर्वक आचरण करते थे। यह मलयदेश में स्थित 'हेम' ग्राम के निवासी थे। एक बार उनकी शिष्या कमलधी को. जो समस्त शास्त्रज्ञ और ध्रुत देवी के समान विदुषी थी। उसे कर्मवश ब्रह्म राक्षस लग गया। उसकी पीड़ा ---- - - - - - - - - - १. विमलचन्द्र-मुनीन्द्रनगुरोगुरु प्रशमिताखिल वादिमदं पदं । यदि यथावदवप्यत पण्डितन्नदान्वयवदिष्यल वाविभोः ।।२५ २. द्रविडगरण समयमुख्यो जिनपति मार्गोपपितक्रियापूर्ण: । श्रत्त समितिगुप्तिगुप्तो हेलाचार्यो मुनिर्जयति ।। १६ -(ज्वालामालिनी कल्प प्रशस्ति) ३. दक्षिणदेशे मलये हेम ग्रामे मुनि महात्मासीत् । हेलाचार्योनाम्ना दविडमणाधीदवरो धीमान् ।। तच्छुिप्या कमलथीः श्रुतदेवी वा समस्त शास्त्रज्ञा। सा ब्रह्मराक्षसेन गृहिता रौद्रेण कमवशात् ।। . - (ज्वालामालिनी कल्प प्रशस्ति ।।५।६। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ को देखकर हेलाचार्य नीलगिरि के शिखर पर गए। वहां उन्होंने 'ज्वालामालिनी' देवी की विधि की विधि पूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर पूछा कि क्या चाहते हो ? तब मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता। सिर्फ कमलश्री को ग्रह मुक्त कर दीजिये। तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिखकर दिया और उसकी विधि बतला दी। इससे उनकी शिष्या ग्रह मुक्त हो गई। फिर देवी के प्रादेश से उन्होंने 'ज्वालिनीमत' नामक ग्रन्थ की रचना की। और अन्य 1 पोरकी कलकाता के विशाल जिनालय में जैन तीर्थर देवताओं की मूर्तियाँ हैं । उनमें एक मूर्ति ज्वालामालिनी देवी की है। उसके ग्राठ हाथ हैं दाहिनी आर के हाथों में मंडल अभय, गदा और त्रिशूल हैं। तथा बाई ओर के हाथों में शंख, ढाल, कृपाण और पुस्तक है। मूर्ति की प्राकृति हिन्दुओं की महाकाली से मिलती जुलती है। पोन्नूर से लगभग तीन मील दूर 'नीलगिरि' नामक पहाड़ी है, उस पर हैलाचार्य की मूर्ति अंकित है । लाचार्य से वह ज्ञान उनके शिष्य प्रशिष्य गंग मुनि, नीलग्रीव, बौजाव, शान्तिरसव्वा आर्यिका श्रोर विरुवट्ट क्षुल्लक को प्राप्त हुआ। वह क्रमागत गुरु परिपाटी से कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दि मुनि के लिए व्याख्यान किया। इन दोनों ने उस शास्त्र का ग्रन्थ और ग्रर्थतः इन्द्रनन्दि के प्रति कहा। तब इन्द्रनन्दि ने उस कठिन ग्रन्थ को अपने मन में श्रवधारण करके ललित श्रार्या और गीतादि छन्दों में ग्रन्थ परिवर्तन (भाषा परिवर्तनादि) के साथ रचा । संभवतः हेलाचार्य का यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रचा गया था, इसी से इन्द्रनन्दी ने उसे भाषा परिवर्तनादि से संस्कृत भाषा में बताया। जिसकी श्लोक संख्या का प्रमाण साढ़े चार सौ श्लोक बतलाया गया है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय की संरक्षता में शक सं० ८६१ ( ई० सन् ६३९ ) में की। इससे हेलाचायं का समय यदि उनके शिष्य प्रशिष्यादि के समय क्रम में से कम से कम एक शताब्दी श्रौर पच्चीस वर्ष पूर्व माना जाय, जो अधिक नहीं है तो हेलाचार्य के ग्रन्थ का रचना काल शक सं० ७३६ ( ई० सन् ८१४) हो सकता है । कवि हरिषेण मेवाड़ देश में विविध कलाओं में पारंगत हरि नाम के एक महानुभाव थे, जो उजपुर के धक्कडवंशज थे । इनके एक धर्मात्मा पुत्र था, जिसका नाम गोवड्ढण (गोवर्धन ) था उसकी पत्नी का नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। इन दोनों के हरिषेण नाम का एक पुत्र हुआ, जो विद्वान कवि के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। उसने किसी कार्यवश चित्रकूट (चितौड़) छोड़ दिया, और वह प्रचलपुर चला गया। उसने वहां छन्द और अलंकार शास्त्र का अध्ययन किया। इसके गुरु बुध सिद्धसेन थे। जैसा कि ११वीं संधि के २५ में कड़वक के घत्ते में ''सिद्धसेण पय बंदहि' वाक्य से सूचित होता है। हरिषेण ने इनकी सहायता से धर्मपरीक्षा नामकी रचना की। जो जयराम की प्राकृत गाथाबद्ध पूर्ववनी धर्मपरीक्षा का पहाडिया छन्द में अनुवाद मात्र है । कवि ने इसे वि० सं० १०४४ (सन् १८७ ) में बनाकर समाप्त की थी । प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ सन्धियां और २३६ कवक हैं। सन्धि की प्रत्येक पुष्पिका में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पुरुषार्थों का निरूपण करने के लिये हरिषेण ने इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि निम्न संधिवाक्य से प्रकट है इय धम्मपरिषखाए चवग्गहिट्टियाए बृह हरिणकयाए एयारसमो संधि सम्मतो । कर्ता ने ग्रन्थ रचना का कारण निर्दिष्ट करते हुए बतलाया है कि एक बार मेरे ध्यान में आया कि यदि कोई श्राकर्षक पद्य रचना नहीं की जाती है तो इस मानवीय बुद्धि का होना बेकार है। और यह भी संभव है कि १. See Jainism in South India p. 47 २. विक्रमणिय परिवसिय कालए, गल्एवरिस सहसचउतालए। इय उप्पण्णु भवियजर सुहृयह डंभरद्दिय धम्मासय सावरु ॥ -- जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० २०२, २३ टि० Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शवीं शताब्दी के आचार्य २२३ इस दिशा में एक मध्यम वृद्धि का आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जिस तरह संग्राम भूमिरा भागे हए कायर पुरुष का होता है। कवि ने अपनी छन्द और अलंकार-सम्बन्धो कमजोरा को जानते हुए भी जैनधर्म के अनु राम प्रार और सिद्धसेन के प्रसाद से रचना कर ही डाली। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती तीन कवियों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुमु ख का मुख सरस्वती का प्रावास मन्दिर था । और स्वयंभू-लोक-प्रलोक के जानने वाले महान् देवता श्रे। तथा पुष्पदन्त अलोकिक पुरुप थे। जिनका साथ सरस्वती कभी नहीं छोड़ती थी। कवि अपनी लता व्यक्त करते हुए कहता है दिइनकी तुलना में अत्यन्त मन्द बुद्धि हूं। पुष्पदन्त ने भी चतुर्मुख और स्वयंभू का उलेदेख किया है। पुष्पदन्त ने अपना महापुराण ६६५ ई० में पूर्ण किया है। जयकीति कवि कन्नड प्रान्त के निवासी थे। इनकी एकमात्र कृति छन्दोनुशासन है, जिनमें वैदिक छन्दों को छोड़कर आठ प्रध्यायों में विविध छन्दों का वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के अन्तिम दें। अध्यायों में कन्नड़ छन्दों का विवंचन दिया हया है। ग्रन्थ की रचना पद्यात्मक है जिसमें अनुष्टुभ, आर्या और स्कन्ध छन्दों का लक्षण पूरी तरह या नाशिक रूप में उसी छन्द में दिया है। यह ग्रन्थ छन्दों के विकास की दृष्टि से केदारभट्ट के वृत्तरत्नाकर और हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन के मध्य की रचना कहा जा सकता है । ग्रन्थ' के अन्त में माण्डव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सेतव, पूज्यपाद और जयदेव को पूर्वाचार्यों के रूप में स्मरण किया है। किन्तु छन्दोनुशासन के अर्धसम वृत्ताधिकार में पाल्यकोति और स्वयंभू देव के मत से सुनन्दिनी और नन्दिनी छन्द के लक्षण भी प्रस्तुत किये है। "जतौ जरौ शंखनिधिस्तु तो जरौं, श्री पात्यकीतीश मते सुनन्दिनी ॥२१ तो गौ तथा पद्म पवमनिधितो जरौ, स्वयम्भुवेवेशमते तु नन्दिनी ।।"२२ इससे इनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी से पूर्व होना चाहिए। क्योंकि वि० की दशवीं शताब्दी के प्राचार्य असगने इनका उल्लेख किया है । कवि असगने अपना 'वर्धमान चरित' सं०६१० में बनाकर समाप्त किया है। छन्दोनुशासन की यह प्रति सं०११६२को लिखी हुई है। और जैसलमेर के भण्डार में मौजद है। जयकीर्ति का यह छन्दोनुशासन डा० एच० डी० वेलंकर द्वारा सम्पादित होकर जयदामन ग्रन्थ के साथ प्रकाशित हो चुका है। देखो-मि. गोविन्द पै का Jaikirti in the Kannada quarterly Prabhudha Karnatak Vol' 28 No.3 Jan. 1942 Mysore College Mysore. Bombay University Journal 1847. बरपनन्दी बासवनन्दी के शिष्य थे। और इन्द्रनन्दी प्रथम के प्रशिष्य थे। संभव है ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दी इन्हों बप्पनन्दो से दोक्षित हो। क्योंकि इन्द्रगन्दो ने अपना उक्त अन्य शक गु०८६१ सन् २३६ (नि० म० ६६६) में समाप्त किया है। इन्द्रनन्दी में प्रशस्ति में बप्पनन्दी को पूराण विपण में एधिक ख्याति प्राप्त करनेवाला लिखा है । और उन्हें पुराणार्थ वेदो बतलाया है। (दखो, ज्यालामालिनी कल्प प्रशस्ति पद्य ४) बन्धुषेण प्राचार्य बन्धुषेण-(यापनीय संघ के प्राचार्य) थे, जो निमित्तज्ञान में पारंगत थे। और दामीति के ज्येष्ठ पुत्र जयकीति के गुरु थे। (जन लेख सं० भा.२पृ०७५ एलाचार्य सूरस्त गणके विद्वान, रविचन्द्र के प्रशिष्य और रविनन्दी भाचार्य के शिष्य थे। जो तप के अनुष्ठान में तत्पर रहते थे, और बड़े विद्वान थे। तथा कोगल देव के निवान श्र। उन्हें गंगवशीय राजा मारसिंह (द्वितीय) ने Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अपनी माता कल्नब्बे द्वारा निर्मित जिनमन्दिर के लिए 'कादलूर' नाम का एक गांव शक संवत् ८८४ सन् ८६२ में पौषवदी। मंगलवार के दिन दान दिया था, जब वे मेल्पाटि के स्कन्धावार में थे। (देखो, कादलूर का ताम्रशासन, जैन ले० सं० भा०५१. २०) गुणचन्द्र पंडित गुणचन्द्र पंडित कुन्दकुन्दान्वय देशीयगण के महेन्द्र पण्डित के प्रशिष्य और वोरनन्दि पंडित के शिष्य थे। इन्हें राष्ट्रकट सम्राट् अकाल वर्ष कृष्णराजदेव (तृतीय) के सामन्त गंग वंशीय कुतव्य पेमाडि रानो पद्मव्यरसि द्वारा निर्मित दानशाला के लिए नमयर मारसिधय्य ने एक तालाब अर्पित किया था। यह लेख शक सं० ८७३ सन् १५० पौष शुक्ला १०मी रविवार को दिया गया था। (जैन लेख सं० भा० ४ पृ०५३) अनन्तकीति अनन्तकोति अपने समय के यशस्वी ताकिक हो गये हैं। लघु सर्वशसिद्धि के अन्त में उन्होंने लिखा है समस्तभुवन व्यापि यासानन्तकोतिना । कृतेय मुज्ज्वला सिद्धिधमंजस्य निरगला॥ इनके बनाये हुए लघु सर्वज्ञसिद्धि और वृहत्सर्वशसिद्धि नाम के दो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं हैं जिससे उनकी गुरु परम्परा और समयादि का पता लग सके। . न्याय विनिश्चय के टीकाकार वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में अनन्तकीर्ति का स्मरण निम्न पद्य में किया है : मात्मनेवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता। अनन्सकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गव लक्ष्यते ।। इससे स्पष्ट है कि अनन्तकोति ने 'जीवसिद्धि' नाम के ग्रंथ का प्रणयन किया था। अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका के पु० २३४ के प्रमाण विचार प्रकरण में प्राचार्य अनन्तकीति के 'स्वतः प्रमाणभङ्ग' प्रकरण का उल्लेख निम्न प्रकार किया है: शेष मुक्तवत् अनंतकीतिकृतेः स्वतः प्रामाणयभक्षादवसेय मेतत् ।" अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका पृ०७०८ के सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में—'अनुपदेशालिङ्गा ब्यभिचारिनष्टमष्टयाद्यपदेशान्यथानुपपत्तेः हेतु का प्रयोग किया है जो अनन्तकीति को लघु और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि (प०१०) का मल हेत हैं। इससे स्पष्ट है कि अनन्तकीर्ति अनन्तवीर्य से पूर्ववर्ती हैं। सिद्धि विनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य का समय डा० महेन्द्रकुमार जी ने सन् ६५९ ई. के बाद और ई० १०२५ से पहले किसी समय हए बताया है। ये वही ज्ञात होते है जो वादिराज के दादागुरु श्रीपाल के सधर्मा रूप से उल्लिखित हैं। प्राचार्य शान्ति सूरि ने जैन तर्कबार्तिवृत्ति' 'पृ.७७ में स्वप्नविज्ञानं यत् स्पष्ट मुत्पद्यते इत्यनन्तकादय" लिखकर स्वप्न ज्ञान को मानस प्रत्यक्ष मानने वाले अनन्तकीति प्राचार्य का मत दिया है। यह मत वहत्सर्वज्ञसिद्धि के कर्ता अनन्तकीर्ति का ही है। उन्होंने लिखा है "तथा स्वप्नजाने चानक्षजेऽपिवैशद्यमुपलभ्यते" वहत्सर्वशसिद्धि पृ० १५१ । शान्तिसूरि का समय ई० ६६३ से ११४७ के मध्य माना गया है। इससे भी अनन्तकीर्ति का समय ई०६६३ से पूर्ववर्ती है। प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुद के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र का समय सन् १८० से १०६५ ई०है। उन्होंने न्यायमूकुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणों में अनन्तकीति की वृहत्सर्वज्ञसिद्धि का पूरा-पूरा शब्दानुसरण किया है। इससे भी अन्तकोति प्रभाचन्द्र से पूर्ववर्ती हैं। १. जन तकवातिक प्रस्तावना पृ० १४१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दश शताब्दी के आचार्य २२६ सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य ने (१० २३४) में प्रामाण्यविचार प्रकरण में आचार्य अनन्तकोति के 'स्वतः प्रमाण भङ्ग' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो इस समय ग्रनुपलब्ध है । अतः इन अनन्तकीर्ति का समय सन् ८५० से ६८० से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे ईसा की १०वीं शताब्दी के वद्वान हैं नीति ( नाम के अन्य विद्वान ) जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग में चन्द्रगिरि पर्वत के महानवमा मंडप के एक शिलालेख में मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छीय मेघचन्द्र त्रैविद्य के प्रशिष्य और वीरनन्दी बिद्य के शिष्य अनन्तकीति का स्याद्वाद रहस्यवाद । इसमें इनको परम्परा fagu के रूप में उल्लेख मिलता है। यह शिलालेख शक सं० १२३५ सन् १३१३ ई० का के रामचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र के उक्त तिथि में किए गए देवलोक का वर्णन है । अतएव इन अनन्तकीर्ति का समय ईसा की १२वीं शताब्दी जान पड़ता है, क्योंकि इनके दादागुरु (मेघचन्द्र) का स्वर्गवास ई० सन् १११५ में हो गया था । मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के दिवंगत होने की तिथि शक सं० १०६८ (सन् ११४६ ) आश्विन शुक्ला दशमी दी गई है। उसमें मेघचन्द्र के दो शिष्यों का प्रभाचन्द्र और वीर नन्दी का उल्लेख है । अस्तु, प्रस्तुत श्रनन्तकीति ईसा को १२वीं सदी के विद्वान हैं । अनन्तकीभिट्टारक बान्धव नगर की शान्तिनाथ वसद ई० सन् १२०७ में बनाई गई थी, जब कपदम्य वंश के किंग ब्रह्म का राज्य था । यह वसदि उस समय क्राणूर गण तन्त्रिणमच्छ के प्रनन्तकोति भट्टारक के अधिकार में थी । श्रतएव इनका समय ईसा की १३वीं सदी हैं। जैन शिलालेख सं० भाग ३ पृ० २३२ में होम्सल वीर बल्लाल देव के व २३ वर्ष (सन् १२१२ ) जगभर के का वर्णन है। उसमें जक्कले के उपदेष्टा के गुरु रूप में अनन्तकीर्ति का उल्लेख है। प्रस्तुत अनन्तकोति बान्धव नगर की शान्तिनाथ वसदि के अधिकारी श्रनन्त afa aafa हैं, क्योंकि दोनों का समय लगभग एक । अनन्तकीति अनन्तकीति काष्ठासंघ माथुरान्वय के पूर्णचन्द्र थे और मुनि अश्वसेन के पट्टधर थे। इनके शिष्य एवं पट्टधर भट्टारक क्षेमकीर्ति थे । इनका समय विक्रम को १४वीं शताब्दी है । मौनि भट्टारक यह पुन्नाट संघ के पूर्ण चन्द्र थे, और सम्पूर्ण राद्धान्त रूप वचन किरणों से भव्य रूप कुमुदों को विकसित करने वाले थे, जैसा कि हरिषेण कथा कोश के प्रशस्ति पद्य से प्रकट है । यो बोधको भयमुतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयूखं । पुग्नाटसघांवरसन्निवासी श्रीमौनिभट्टारक पूर्णचन्द्रः ॥ हरिषेण ने कथा कोश का रचना काल शक सं० ८५३ बतलाया, कथा कोश के कर्ता मौनिभट्टारक से चतुर्थ पीढ़ी में हुए हैं । अतः हरिषेण के शक सं० ८५३ में से ६० वर्ष कम करने पर शक सं० ७३३ हुए। उसमें ७८ जोड़ने पर समय सन् ८७१ हुए अर्थात् विक्रम को वीं शताब्दी इनका समय होता है । इनके शिष्य हरिषेण थे । श्रीहरिषेण हरिषेण पुन्नाट संघ के विद्वान मौनिभट्टारक के शिष्य थे जो अपने समय के बड़े भारी विद्वान तपस्वी थे । गुणनिधि और जनता द्वारा अभिवन्द्य थे । उक्त कथा कोश के रचना काल में से ४० वर्ष कम करने १. मिडियावल जैनिज्म पु५ २०६ २. सारागमाहित] मतिविदुषां प्रपूज्यो नानातपो विधिविधान करो विनेयः । तस्याभवद् गुणनिधिर्जनिताभिवंद्यः श्री शब्द पूर्व पद को हरिषेण संज्ञः ॥ ५ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पर शक सं०१३ सन ८९१ होता है, यह नवमी शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान जान पड़ते हैं। भरतसेन भरतसेन पुन्नाट संघ के विद्वान मौनिभट्रारक के शिष्य और हरिषेण के शिष्य थे। भरतसेन के शिष्य का नाम भी हरिषेण था। उसने कथा कोश को प्रशस्ति में अपने गुरु भरतसेन को छन्द, अलंकार, काव्य-नाटक शास्त्रों का ज्ञाता, काव्य का कर्ता, व्याकरण, तर्क निपुण, तत्स्वार्थ वेदी, नाना शास्त्रों में विचक्षण, बुधगणों द्वारा सेव्य और विशुद्ध, विचार वाला बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पत्र से प्रकट है: छन्दो लंकृति काव्यनाटकवण: काव्यस्य का सतो, वेता ब्याकरणस्य तकनिपुणस्तत्त्वार्थवेदी पर। नाना शास्त्र विचक्षणो बुधगणः सेव्यो विशुद्धाशयः। सेनान्तोभरताविरत्रपरमः शिष्यः बभूवक्षितौ ॥६॥ -हरिषेण कथा कोश प्रशस्ति इससे मालूम होता है कि इन्होंने किसी काव्य ग्रन्थ की रचना की थी, किन्तु वयोग से वह अप्राप्य है। उसके नामादि की सूचना भी नहीं मिलती। हरिषेण ने अपना कथा कोश शक सं० ८५३ सन् ६३१ में समाप्त किया है। उसमें से कम से कम बीस वर्ष कम करने पर सन् ६११ भरतसेन का समय हो सकता है अर्थात् वे दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे। हरिषेण (कथाकोश के कर्ता) हरिषेण नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनसे प्रस्तुत हरिषेण भिन्न हैं। ये हरिषेण पुन्नाट संघ के विद्वान थे। इन्होंने हरिवंश पुराण की रचना से १४८ वर्ष बाद उसी बढ़वाण या बर्द्धमानपुर में कथाकोष की रचना की थी। ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा इस इस प्रकार दी है-मौनिभट्टारक, हरिषेण, भरतसेन और हरिषेण । हरिषेण ने अपने गुरु भरतसेन को छन्द अलंकार, काव्य-नाटक-शास्त्रों का ज्ञाता, काव्य का कर्ता, व्याकरणज्ञ, तर्क निपुण, तत्त्वार्थवेदी, और नाना शास्त्र विचक्षण बतलाया है। इससे हरिषेण के गुरु बड़े भारी विद्वान जान पड़ते हैं। इस कथाकोश में छोटी बड़ी १५७ कथाएं संस्कृत पद्यों में लिखी गई है। उनमें कुछ कथाएँ, चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, वररुचि, स्वामी कातिकेय, श्रेणिक विम्बसार, आदि की कथाएँ ऐतिहासिक पुरुषों से सम्बन्ध रखती हैं। परन्तु अकलंक समन्तभद्र और पात्र केशरी प्रादि की कथायें इसमें नहीं है। जो प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोश में पाई जाती हैं। उसका कारण यह है कि हरिषेण के सामने कथाओं को रचते समय शिवार्य की आराधना सामने रही है, उसमें जिनका उदाहरण संकेत रूप में गाथानों में उपलब्ध है, उनका नामोल्लेख प्रादि गाथाओं में किया गया है, उनकी कथा हरिषेण ने लिखी हैं। कुछ कथाय ऐसी भी हैं जिनका उल्लेख उसमें नहीं है किन्तु अन्यत्र मिलता है, वे भी इसमें सम्मिलित दिखती हैं। हरिषेण ने प्रशस्ति के आठवें श्लोक में 'पाराधनोद्धतः वाक्य द्वारा उसकी स्वयं सूचना कर दी है । तुलना करने से भी उक्त कथन को पुष्टि होती है। इस ग्रन्थ की रचना वर्षमानपुर में हुई है, कवि ने उसका वर्णन करते हुए उसे बड़ा समृद्धनगर बतलाया है, जिनके पास बहुत सोना था, वह ऐसे लोगों से आवाद था। वहां जैन मन्दिरों का समूह था, और सुन्दर महल वने हए थे, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है। जैनालयावासविराजतान्ते चन्द्रावदातयति सौधजाले। कार्तस्वरा पूर्ण अनाधिवासे श्री वर्धमानास्यपूरे वसन्सः ।।४ वर्धमानपुर की नन्न राज वसति में या उसके किसी वंशधर के बनवाए हुए जैन मन्दिर में हरिवंशपुराण रचा गया था। यह कोई राष्ट्रकूट वंश के राजपुरुष जान पड़ते हैं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २३१ प्रस्तुत कथाकोश की रचना उक्त वर्धमानपुर में उस समय की गई, जबकि वहां पर विनायकपाल नामका राजा राज्य करता था। उसका राज्य इन्द्र के जैसा विशाल था।' यह विनायकपाल प्रतिहारवंश का राजा जान पड़ता है जिसके साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी। उस समय प्रतिहारों के अधिकार में केवल राजपूताने का ही अधिकांश भाग नहीं था, किन्तु गजरात, काठियावाड़, मध्य भारत और उत्तर में सतलज से लेकर विहार तक का प्रदेश था। यह महाराजाधिराज महेन्द्रपाल का पुत्र था और अपने भाइयों महीपाल और भोज (द्वितीय) के बाद गद्दी पर बैठा था। कथाकोश की रचना से लगभग एक वर्ष पूर्व का वि० सं० १५५ का इसका दान पत्र भी मिला है। काठियावाड़ के हड्डाला गांव में विनायकपाल के बड़े भाई महीपाल के समय का भी शक सं०८३६ (वि. सं० ६७१) का एक दानपत्र मिला है। जिससे मालूम होता है कि उस समय बढवाण में उसके सामन्त चापवंशी धरणीबराह का अधिकार था। उसके १७ वर्ष बाद ही बढवाण में कथाकोश रचा गया है। रचनाकाल नवाष्ट नवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायसः । विक्रमादित्य कालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥११ शतष्ट सु विस्पष्टं पंचाशतभ्यधिकेषु च । शक कालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ॥१२ प्रस्तुत कथाकोश की रचना शक सं० ८५३ (वि० सं० १९८) में की गई है। अतः प्रस्तुत कवि हरिषेण ईसा की दशवीं शताब्दी के विद्वान हैं। देवसेन (भट्टारक) भट्टारक देवसेन वाणराय (बाणवंशी किसी नरेश) के गुरु भवन्दि भट्टारक के शिष्य थे। और जिनकी समाधि उनके मरण के उपरान्त बल्लीमल (जिला अर्काट) में स्थापित की गई थी ! प्रतिमा पर काल निर्देश रहित उक्त प्राशय का कन्नड़ शिलालेख अंकित है। मूर्ति लेख का काल -6 वीं शती के बाद का नहीं जान पड़ता । -जैन शि० सं० भाग २ पृ. १३६ देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं, जिनकी गुरु परम्परा और समय भिन्न है। यहां दो-तीन देवसेनों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। जो अन्वेषकों के लिये उपयोगी है। देवसेन देवसेन वे, जो पंचस्तूपान्चयी वीरसेन स्वामी के शिष्य थे, और जिनसेन, पद्मसेन, श्रीपाल प्रादि के सधर्मा थे । जिनसेनाचार्य ने जयघवला टीका (प्रशस्ति श्लोक ३६) में पद्मसेन के साथ देवसेन का उल्लेख किया है। जिन सेनाचार्य ने अपनी जयधवला टीका शक सं०७५६ (सन् ८३७ ई०) में समाप्त की है। पत: लगभग यही समय इन देवसेन का होना चाहिये । प्रस्तुत देवसेन हवीं शताब्दी के विद्वान थे। देवसेन (वर्शनसारादि के कर्ता) प्रस्तुत देवसेन अपने समय के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने धारा नगरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में रहते हुए संवत -कथा० प्रश १. संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने स्वराभिधे । विनयादिक.पालस्य राज्ये दशकोपमान के ॥१३, २. इण्डियन एण्टिक्वेरी जि० १५. पृ० १४०-४१ ३. राजपूताने का इतिहास जि० १ पृ. १६३ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ ६६० माघ शुक्ला दशमी के दिन 'दर्शनमार की रचना की है। दर्शनसार में अनेक मतों तथा संघो की उत्पत्ति प्रादि को प्रकट करने वाला अपने विषय का एक ही ग्रन्थ है। देवसेन ने पूर्वाचार्यकृत गाथाओं का संकलन कर उसे दर्शनसार का रूप दिया है। जो अनेक ऐतिहासिक घटनात्रों को सूचनादि को लिए हुए है। इसमें एकान्तादि प्रधान पांच मिथ्यामतों और द्रविड़, यापनीय, काष्ठा, माथुर और भिल्ल संघों की उत्पत्ति का कुछ इतिहास उनके सिद्धान्तों के उल्लेख पूर्वक दिया है। पीर द्रविड़ादि संघों को जनाभास बतलाया गया है। देवसेन ने अपने गुरु का और गणगच्छादि की कोई उल्लेख नहीं किया। जिससे उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जाता। दर्शनसार में दी गई तिथियों का समय यिनम की मृत्यु के अनुसार है। किन्तु वि० सं० के साथ ननका कोई सामंजस्य ठीक नहीं बैठता । अतः उन तिथियों का संशोधन करना आवश्यक है। यदि उन तिथियों को शक संवत् की मान लिया जाय तो समयसम्बन्धी वे सभी बाधायें वे दूर हो जाती हैं। जो उन्हें विक्रम संवत मानने के कारण उत्पन्न होती हैं और ऐतिहासिक श्रखलाओं में क्रम सम्बद्धता बनी रहती है। ५० नाथुराम जी प्रेमो ने दर्शनसार को समालोचना की है। दर्शनसार के अतिरिक्त देवसेन की निम्न रचनाएं और मानी जाती हैं । तत्त्वसार, पाराधनासार और नयचक्र ।। तत्त्वसार-७५ गाथात्मक एक लष अध्यात्म ग्रन्थ है जिसमें स्वगत और परगत के भेद रो तत्त्व का दो प्रकार से निरूपण किया है । और बसलाया है कि जिसके न क्रोध है न मान है, न माया है और न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, जो जन्म-जरा और भरण से रहित है वही निरंजन प्रात्मा है। __अस्स ण कोहो माणो माया लोहो ण सल्ल लेस्सायो। जाइ जरा मरणं चि य णिरंजणो सो प्रहं भणियो।' जो कर्मफल को भोगता हुआ भी उसमें राग-द्वेष नहीं करता है वह संचित कर्म का विनाश करता है और वह नतन कर्म से भी नहीं बंधता । अन्त में कवि ग्रन्थ का उपसंहार करता हुमा कहता है कि जो सदष्टि देवसेन मुनि रचित तत्त्वसार को सुनता तथा उसकी भावना करता है, वह शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। माराधनासार—यह एक सौ पन्द्रह गाथात्मक ग्रन्थ है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सपरूप चार आराधनामों के कथन का सार निश्चय और व्यवहार दोनों रूप से दिया है। विषय विवेचन की शैली बडी सुन्दर है। मरते समय पाराधक कौन होता है ? इसका अच्छा कथन किया है और बतलाया है कि जिस अध्य ने क्रोधादि कषायों को नष्ट कर दिया है, सम्यग्दृष्टि है और सम्यज्ञान से सम्पन्न है अन्तरंग, बहिरंग परिग्रह का त्यागी है बह मरण समय आराधक होता है । यथा णिय कसाओ भन्यो दंसणवन्तो हणाणसंपण्णो। विह परिगहणतो मरणे श्राराहपो हवा ।।१७ जो सांसारिक सुख से विरक्त है । शरीरादि पर इष्ट वस्तुनों से प्रीतिरूप राग जिसका नष्ट हो गया है-- नाय है, अथवा संसार शरीर भोगों से निवेद को प्राप्त है, परमोपशम को प्राप्त है जिसने अनन्तानुबंधिचतुष्टय, मिथ्यात्व रूप मोहनीय कर्म की इन सात प्रकृतियों का उपशम है, और अन्तर बाह्यरूप विविध प्रकार के तपों से जिसका शरीर तप्त है, वह मरण समय में आराधक होता है, जो प्रात्म स्वभाव में निरत है, पर द्रव्य जनित परिचत रूप सुखरस से रहित है, राग-द्वेष का मथन करने वाला है, वह मरण समय में प्राराधक होता है, जैसा कि निम्न गाथानों से स्पष्ट है : १. रइयो दंसणसारो हारो भन्वाण णवसए नवई । सिरि पासणाह मेहे सवि सुद्ध माह सुद्धदसमोए ।।५० सिरि देवसेए गणिया धाराए संवसंतेरण। -दर्शनसार Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दशवीं शताब्दी के आचार्य संसार सुविरतो वेगं परम उवसमं पत्तो । विधि तव तविय देहो मरणं श्राराश्रो एसो ॥१८ अप्प सहावेरि ज णिम्महिय रायोसो हवई आराम्रो. मरणे ॥१६ सल्लेखना करने वाला भव्य यदि केवल बाह्य शरीर को ही कृश करता है किन्तु अान्तरिक कपायों का विनाश नहीं करता तो उसकी वह शरीर सल्लेखना निरर्थक है। इस कारण शरीर सल्लेखना के साथ अान्तरिक कषायों का दमन करना - उन्हें रस विहीन बनाना नितान्त आवश्यक है- श्रथवा उनकी शक्ति क्षीण कर अशक्त बनाना जरूरी है, जिससे वे अपना कार्य करने में समर्थ न हो सकें। क्योंकि कषायें बलवान हैं, वे अवसर पाते हो क्षपक के चित्त को संक्षुभित कर सकती हैं, अतएव उनका जय करना श्रेयस्कर है, उनके संल्लेखित होने पर मुनि का चित्त क्षुभित नहीं हो सकता । अतएव साधु उत्तम धर्म को प्राप्त होता है । ग्रन्थ में परिषह और उपसर्ग सहिष्णु मुनियों का नामोल्लेख भी किया है। समाधिमरण करने वाला क्षपक यह भावना करता है कि मेरे कोई व्याधि नहीं है, राग-द्वेष रहित मेरे आत्मा का कभी मरण नहीं होता, क्योंकि व्याधि और मरण तो शरीर में होता है आत्मा का कोई मरण नहीं होता, शरीर जड़ है, भ्रात्मा चैतन्य का पिण्ड है । अतः यत्मा में कोई दुःख नहीं होता । सल्लेहणा शरीरे बाहिरजोएहि जा कथा मुणिणा । सयला विसा जिरत्था जाम कसाए ण सल्लिदि 11३५ इस तरह जो पुरुष चारों बाराधनाओं का प्राराधना करता है, और तपश्चरण द्वारा आत्मशुद्धि करता है, सर्व परिग्रह का परित्याग कर जिनलिंग धारक होता है, तथा आत्मा का ध्यान करता है वह निश्चय से सिद्धि को (स्वमधि को) प्राप्त करता है, इस तरह यह ग्रन्थ बड़ा सुन्दर थोर मनन करने योग्य है । अन्त में कवि अपने ग्रहंकार का परिहार करता हुआ कहता है कि मेरे में कवित्व नहीं है, छन्दों का भी परिज्ञान नहीं है फिर भी मैं देवसेन अपनी भावना के निमित्त इस ग्रन्थ की (आराधनासार की रचना कर रहा हूं । यदि इसमें ग्रज्ञतावश प्रवचन विरुद्ध कहा गया हो, तो मुनीन्द्रजन उसका संशोधन कर लें । २३३ इस ग्रन्थ पर एक संस्कृत टीका है, जिसके कर्त्ता काष्ठासंघी मुनि क्षेमकीति के शिष्य रत्नकोति हैं । यह रत्नकीर्ति पंडिताचार्य के नाम से विश्रुत थे। टोका सरल, सुबोध और प्रसाद गुण से युक्त है। और ग्रन्थ कर्त्ता के रहस्य को उद्घाटित करती हुई वस्तु तत्त्व की विवेचक है। मूल ग्रन्थ और टीका दोनों ही माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हैं । नयचक्र - ८७ गाथात्मक है, जिसे लघु नयचक्र भी कहा जाता है। यह नाम करण देखकर बाद में किया गया जान पड़ता है। समाप्ति वाक्य में इसे नयचक्र प्रकट किया है। नाम से इसका उल्लेख मिलता है । देवसेन ने नयचक्र में नयों का मूल रूप से सुन्दर वर्णन किया है। नयों के मूल दो भेद द्रव्याथिक पर्यायाथिक किये गए है और शेष सब संख्यात असंख्यात भेदों को इन्हीं के भेद-प्रभेद बतलाया गया है । नयों के कथन મ मिच्छय साहराहेजं पज्जयदव्दत्थियं मुराह । दो चैव मूलाया भणियादव्वत्थ पज्जगत्थ गया अणे असंख संखा ले तन्भेया मुवव्था ॥ किसी बड़े नयचक्र को अन्यत्र भी नयच के १. श्वेताम्राचार्य यशोविजय ने 'द्रव्यगुण पर्यायासों में और भोज सागर ने 'ध्यानुयोग तर्कसा' में भी देवरून के रामोल्लेख पूर्वक लघु नयचक्र का उल्लेख किया है । २.च्छिय कवहारया मूलिमभेयागयारण सव्वा । - नय चक्रसंग्रह Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ का प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि जो नयदृष्टि से विहीन हैं उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती । और जि हैं। वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं है- जो वस्तु स्वरूप को नहीं पहचानते वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते । यथा जो यदिट्टि विहीणा ताप ण वत्युरारबउवलद्धि । पत्थुसहावविह्नणा सम्माचिट्ठी कहं हुंति ॥ ग्रन्थकार ने यह बड़े मर्म की बात कही है। इसपर से ग्रन्थ के महत्व का स्पष्ट श्राभास मिल जाता है। ग्रन्थ के अन्त में कर्त्ता ने नयचक्र के विज्ञान को सकल शास्त्रों की शुद्धि करने वाला और दुर्णय रूप अन्धकार के लिये मार्तण्ड बतलाते हुए लिखा है कि यदि अज्ञान महोदधि को लीलामात्र में तिरना चाहते हो तो नयचक्र को जानने के लिए अपनी बुद्धि लगाओ-नयों का ज्ञान प्राप्त किए बिना श्रज्ञान महासागर से पार न हो सकोगे । यहां यह बात विचारणीय है कि प्रस्तुत नयचक्र वह नयचक्र नहीं जिसका उल्लेख अकलंक देव ने न्यायविनिश्चय में और विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक के नय विवरण प्रकरण में निम्न पद्य द्वारा किया है: न्याय विनिश्चय के अन्त में लिखा है- इष्टं तत्वमपेक्षा तो नयानां नयचऋतः ॥३-६१ संक्षपेण नयास्तायद् व्याख्याताः सूत्र सूचिताः । तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संविन्त्या नयनतः || इस पद्य में जिस नयचक्र के विशेष कथन को देखने की प्रेरणा की गई है वह यह नयचक्र नहीं है। एक बड़ा नयचक्र श्वेताम्बराचार्य मल्लवादि का प्रसिद्ध है जिसे द्वादशार नयचक्र कहा जाता है। और जिसका समय वि० सं० ४१४ माना जाता है। पर मल्लवादि ने सिद्धसेन के सम्मति पर टीका लिखी है जिसका निर्देश हरिभद्र ने किया है। और सिद्धसेन का समय पाँचवी शताब्दी माना जाता है । ये गुप्त काल के विद्वान हैं । ग्रतः मल्लवादी का समय भी सिद्धसेन के बाद होना चाहिए। क्योंकि जिनभद्र गणी क्षमा श्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में सिद्धसेन और मल्लवादि के उपयोग के प्रभेद की चर्चा विस्तार से की है। उक्त विशेषावश्यक बल्लभी में वि० सं० ६६६ में समाप्त हुआ था। इससे मल्लवादी का समय छठी शताब्दी जान पड़ता है । प्रस्तुत नयच दर्शन सार के कर्त्ता की कृति मालूम नहीं होता, वह किसी ग्रन्थ देवसेन द्वारा रचा गया होगा, उसके निम्न कारण हैं:-- देवसेन ने अपने ग्रन्थों (दर्शनसार, आराधनासार और तत्वसार) में किया है, किन्तु प्रस्तुत नयचक में कर्ता का नाम नहीं दिया है। २. नयचक्र की गाथा नं० ४७ के प्रागे 'तदुच्यते वाक्य के साथ दो पद्य धन्य ग्रन्थों से उद्धृत किये हैं । उनमें एक गाया 'प्रणुगुरु देह पमाणी' नेमिचन्द्र के द्रव्य संग्रह की है । द्रव्य संग्रह का निर्माण दर्शनसार के बाद हुआ है, वह ११वीं शताब्दी की रचना है। ऐसी स्थिति में वह दर्शनसार के कर्त्ता देवसेन की कृति कैसे हो सकती है ? ३. दर्शनसार के कर्ता के ग्रन्थों के नाम सारान्त पाये जाते हैं जैसे दर्शनसार थाराधनासार औौर तत्त्वसार गोम्भटसार के कर्त्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अपने ग्रन्थों के नाम सारान्त रक्खे हैं । जैसे लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार श्रादि । अपना नाम कर्त्तारूप से उल्लेखित नयचक्र नाम के अनेक ग्रन्थ हैं। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र, थुतभवन दीपक नयच पोर आलाप पद्धति । इनमें द्रव्य स्वभाव प्रकाशका नयचक्र के कर्ता देवसेन के शिष्य माइल्ल धवल हैं। इनका परिचय अलग से दिया गया है। देवसेन श्रुतभवन दीपक यन्त्रक के कर्ता देवसेन है। इस नय चक्र में दो नयों का संग्रह है। प्रथम नयचक्र के मंगल पद्य में घातिया कर्मों के जीतने वाले श्री वर्द्धमान को नमस्कार करके श्रागम ज्ञान की सिद्धि के लिये नय के विस्तार को कहता हूँ । यथा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्द आचार्य श्री वक्ष्ये श्रद्धमानमानम्य जितघातिचतुष्टयं । नयविस्तारमागमज्ञान सिद्धये ॥ नय का लक्षण देते हुए लिखा है- 'नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयतीतिनयः ।' जो वस्तु को नाना स्वभावों से हटा कर एक स्वभाव में (विषय में) निश्चय कराता है वह नय है। एक गाथा उक्तं चरूप से दो है, जो धवला टीका में मी उद्धत है. जयवित्तिनो भणिवो बहूहिं गुणएहि जं दवं । परिणामप्रेस कालम्सरेसु प्रविण सम्भावं || २२५ इसके बाद सप्त नयों का गद्य-पद्य में वर्णन किया गया है। --- द्वितीय नयचक्र के मंगल पद्य में मोह रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले अनन्वज्ञानादि रूप श्री से युक्त वर्द्धमान रूपी सूर्य को नमस्कार करके गाथा के अर्थ से अविरुद्ध अनुकूल रूप से मेरे द्वारा नयचक्र कहा जाता है : श्रीबर्द्धमानार्थमागम्य मोहध्वान्तप्रभेदिनं । गाथार्थस्याविरोधेन नयचऋ मयोच्यते ॥ दूसरे पद्य में जिनपतिमत (जैनमत) एक पृथ्वी है, उसमें समयसार नामक रत्नों का पहाड़ है, उससे रत्न लेकर मोह के गाढ़ विभ्रम को नष्ट करने वाले असभवन दीपक नयचक्र को कहता हूं । मिति मतमा रत्नशैलादयापाविह हि समयसाराद्युद्ध बुद्ध्या गृहीत्वा । महाविमहं सुप्रमाणादि रत्नं श्रुतसुत सुदीपं विद्धि पानीयं ॥२ प्रस्तुत नयचक्र ' तभवन दीपक नाम से ख्यात है जो देवसेन के गाथा नयचक्र से भिन्नता का बोधक है। कर्ता के साथ भट्टारक विशेषण भी प्रा० नयचक्र के कर्ता से भिन्नता का सूचक है। यह नयचक्र संस्कृत गद्य-पद्य में रचा गया है । विषय विवेचन की दृष्टि और तर्कणा दशैली सुन्दर है, जो व्योम पण्डित के प्रतिबोधन के लिये रचा गया है। जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका के ' इति देवसेन भट्टारक विरचिते व्योम पंडित प्रतिबोधके नयचक्रे' वाक्य से जाना जाता है। इसमें तीन अधिकार हैं । ग्रन्थ के शुरू में समयसार की तीन गाथाओं को उद्धत करके कर्ता ने संस्कृत गद्य मैं उनकी व्याख्या करते हुए व्यवहार नय की अभूतार्थता और निश्चय नय की भूतार्थता पर अच्छा प्रकाश डाला है । ग्रन्थ व्यवस्थित र नयादि के स्वरूप का प्रतिपादक है । इसका सम्पादन क्षुल्लक सिद्धसागर ने किया है। और वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने सोलापुर से प्रकाशित किया है। सामग्री के अभाव में रचना का समय निर्णय करना कठिन है । मालाप पद्धति श्रालाप पति के कर्ता देवसेन वतलाये जाते हैं। परन्तु ग्रन्थ में कहीं भी कर्तृत्व fares संकेत नहीं मिलता। इस कारण यह भी दर्शनसार के कर्ता देवसेन की कृति नहीं मालूम होती । यद्यपि प्राकृत नय चक्र और आलाप पद्धति का विषय समान है। आलाप पद्धति नयचक्र पर लिखी गई है। जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है : 'प्रालाप पद्धतिर्वचन रचनानुक्रमेण नयचत्रस्योपरि उच्यते ।' फिर प्रश्न हुआ कि इसकी रचना कि लिये की गई है, तब उत्तर में कहा गया है कि द्रव्य लक्षण सिद्धि के लिये और स्वभाव सिद्धि के लिये भालाप पद्धति की रचना की गई है। अब तक इसे दर्शनसार के कर्ता की कृति कहा जाता रहा है, पर इस सम्बन्ध में, अब तक कोई श्रन्वेषण नहीं किया गया, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि यह दर्शनसार के कर्ता की कृति है या अन्य किसी देवसेन की। १. सा च किमर्थम् । द्रव्यलक्षण सिद्धयर्थं स्वभाव सिद्ध्यर्थं च । आलापपद्धति Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ तोरणाचार्य यह कुन्द कुन्दान्वय के विद्वान थे। और शाल्मलो नामक ग्राम में आकर रहे थे। वहां उन्होंने लोगों का अज्ञान दूर किया था और जनता को सन्मार्ग में लगाया था। तथा अपने तेज से पृथ्वी मण्डल को प्रकाशित किया पा! तारजाचार्य के शिष्य पुष्पनन्दि थे। जो उक्त गण में अग्रणी थे। पुष्पनन्दि के शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जिनके लिये यह वसति बनवाई गयी थी। उस समय राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीय का राज्य था। उसके राज्य के दो ताम्रपत्र मिले हैं।' एक शक सं० ७२४ का और दूसरा शक सं० ७१९ का। प्रतः इन प्रभाचन्द्र के दादा गुरु तोरणाचार्य का समय प्रभाचन्द्र से लगभग ४० वर्ष पूर्व माना जाय तो उनका समय शक सं० ६७६ सन् ७५६ होना चाहिए । अर्थात् वे ईसा को पाठवीं शताब्दो के विद्वान थे और विक्रम,की हवीं शताब्दी के । कुमारसेन भट्टारक भट्टारक कुमारसेन को शक सं० ८२२ (सन् ६००) वि० सं० ६५७ में सत्यवाक्य कोंगणिवर्म धर्म महाराजाधिराज मे, जो कि कुवलाल नगर के स्वामी थे । और श्रीमत्पेर्मनडि ऐरेयप्पेरस ने सफेद चावल, मुक्तश्रम, घी सदा के लिये चुगी से मुक्तकर पेमेनडिवसदि के लिए भट्टारक कुमारसेन को दिया था। इससे इन कुमारसेन का समय ईसा की नवमी और विक्रम की दशवी शताब्दी है। -जन लेख सं०मा०२ पृ० १६० कुमारसेन यह कुमारसेन वीरसेन के शिष्य थे, जो चन्द्रिकावाट के विद्वान थे। इन्होंने मूलगुण्ड में अपना स्थायी निवास बना लिया था। यह बड़े विद्वान थे। इनका समय १०वीं शताब्दी है। रविकोति रविकीति अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान और जैनधर्म के संपालक थे। ऐहोल-अभिलेख बीजापुर जिले के हुगुण्ड तालुका के ऐहोल के मेगुटि नाम के जंन मन्दिर की भोर पूर्व की दीवाल पर अंकित है। लेख में ११ - - -- १. कोण्डकोन्दान्वयो दारो गणोऽभूभुवनस्तुतः । तदैतद् विषय विख्यातं शामली प्राममायसन् । पासीद (१) तोरणाचार्म स्तपः फलपरिग्रहः । तत्रोपशम संभूत भावनापास्तकल्मषः ।। पण्डितः पुष्पनन्दीति बभूव भुवि विश्रतः । अन्तेवासी मुनेस्तस्य सकलश्चन्द्रमाइच ।। प्रति दिवस भवद्धि निरस्तदोषो व्यथेत हृदयमलः । परिभूतचन्द्र विम्बस्तच्छिष्योऽभूत प्रभाचन्द्रः ।। -शक सं०७२४ का ताम्रपत्र आसौद तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः । स चैतद् विषये श्रीमान् शल्मलीग्राम माश्चितः । निराकृत तमोराति स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजो घोतिता क्षौरिणचंडाचिरिब यो बभौ । तस्याभूद् पुष्पनन्दीतु शिष्योविद्वान मरणानणीः । तच्छिष्याचप्रमाचन्द्र स्वस्येयं वसतिः कृता।। -शक सं०७१६ का ताम्रपत्र Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २३७ पंक्तियाँ और ३७ श्लोक हैं । अन्तिम पंक्ति छोटी है जो बाद में जोड़ी गई है। यह लेख श्रमं संस्कृति और काव्य की दृष्टि से बड़े महत्व का है। और उपयोगी है। इस प्रशस्ति लेख के लेखक रविकीर्ति हैं, जो संस्कृत भाषा के मच्छे विद्वान और कवि थे। वे काव्य योजना में प्रवीण और प्रतिभाशाली थे। उन्होंने कविता के क्षेत्र में कालिदास और भारवि की कीर्ति प्राप्त की थी।" इस लेख से हमें केवल रवि कीर्ति की प्रतिभा का ही परिचय नहीं मिलता किन्तु उक्त दोनों कवियों के काल की अन्तिम सीमा भी सुनिश्चित हो जाती है। यह लेख शक सं० ५५६ (सन् ६३४ ई०) सातवीं शताब्दी के दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास पर अच्छा प्रकाश डालता है। रविकोर्ति चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय ( पश्चिमी चालुक्य पुलकेशा द्वितीय) के राज्य में थे। यह राजा उनका संरक्षक या पोषक था। पुलकेशी स्वयं सुरवीर, रण कुशल योद्धा था, प्रशस्ति में उनके पराक्रम, युद्ध संचालन, साहस और सैनिकों को गतिविधियों का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन दिया है जो देखते ही बनता है। मंगलेश अपने भाई के पुत्र पुलकेशी से ईर्षा करता था -- उसकी कीर्ति से जलता था और अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता था। पर नहुष के समान प्रतापी पुलकेशी के सामने उसकी शक्ति कुठित हो गई वह काम न ग्रा सकी, और राज्यलक्ष्मी ने पुलकेशी को वरण किया। पुलकेशी ने प्राप्यायिक, गोविन्द, गंग, अनूप, मौर्य, लाट, मालव, गुर्जर, कलिंग, कोसल, पल्लव, बोल, निन्यानबे हजार गांव वाले महाराष्ट्र, पिष्टपुर का दुर्ग, कुडी, बनवासी और पश्चिम समुद्र की पूरी को जीत लिया था । और राजा हर्षवर्द्धन को रोक कर नर्मदा के किनारे अपना सैनिक केन्द्र स्थापित किया था । प्रशस्ति में पुलकेशी के प्रताप और तेज का बहुत सुन्दर वर्णन दिया है और बतलाया है कि पुलकेशी ने अपनी सेना के कारण पल्लव राजाओं को इतना श्रातंकित और भयभीत कर दिया था, जिससे वे अपनी राजधानी की चहार दीवारी के भीतर ही निवास करते थे- बाहर निकलने का उनका साहस नहीं होता था । चोल देश पर विजय प्राप्त करने के लिये उसने कावेरी नदी पार की तथा दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों को अपने आश्रित किया। रवि कीर्ति का समय शक सं० ५५६ ( सन् ६३४) सातवीं शताब्दी है । चन्द्रदेवाचार्य चन्द्रदेव नन्दि राज्य के यशस्वी, प्रभावयुक्त, शील-सदाचार-सम्पन्न आचार्य कल्वप्प नामक ऋषि पर्वत पर व्रतपाल दिवंगत हुए थे। यद्यपि यह लेख काल रहित है। इसमें सम्वत् का उल्लेख नहीं है फिर भी इसे लगभग शक सं० ६२२ का माना जाता है । जो सन् ७०० होता है । इनका समय विक्रम को 5वीं शताब्दी होना चाहिए। – जैन लेख सं० भा० १ पृ० १४ ले० ३४ (६४) दूसरे चन्द्रदेव को कल्याणी के प्रसिद्ध रावंश राजामल्लिकार्जुन ने शक सं० ११२७ रक्ताक्षि गंवत्सर द्वितीय पौष सुदि बुधवार मकर संक्रान्ति के दिन उक्त गुरु चन्द्रदेव भट को जलधारा पूर्वक दान दिया गया था। इनका समय सन् १२०५ ई० है । ( जैन लेख सं० भा ३ पृ० २६४ ) श्रार्यसेन मूलसंघ वरसेनगण और पोगरि गच्छ के विद्वान आचार्य थे। और ब्रह्मसेन व्रतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाधों द्वारा सेवित थे। श्रार्यसेन के शिष्य महासेन थे । २ शिलालेख में महासेन मुनीन्द्र के छात्र चाक १. स विजयतां रविकीर्तिः कविताधित कालिय स भारवि कीर्तिः । मेगुति लेख २. श्रीमूलरांधे जिनमंमूले, गणाभिधाने वरसेन नाम्नि । गच्छेषु तुच्छ्रेऽपि योग भिक्खे संस्तूयमानो मुनिरार्य्यसेनः ॥ तस्यासेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेन महा मुनीन्द्रः ॥ —जैन लेख सं० भा० २ ० २२८ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ राज वाणस वंश के तथा केतलदेवी के आफिसर थे। उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ तथा सुपाश्वनाथ की प्रतिमा बनवाई थीं, और पान्नवाड़ वर्तमान होग्याड में त्रिभुवन तिलया नामक चैत्यालय बनवाया।' और उसके लिए कुछ जमीन तथा मकानात् शक स०६७६ सन् १०५४ म दान दिया था। अतः श्राम लेन ना समय सन् १०२६ के लगभग होना चाहिये। -जैन शिलालेख भा०२ पृ. २२ आर्यनन्दी कवि प्रसग ने, जो नागनन्दी का शिष्य था । उसने आर्यनन्दी गुरु को प्रेरणा से वर्धमान पुराण की रचना की थी। कवि ने इसे सं० ६१० में बनाकर समाप्त किया था। कवि दामि जिनाप्य नाम का एक ब्राह्मण विद्वान था । वह पक्षपात रहित, जिनधर्म में अनुरक्त, यहादूर और परलोक भीरू था, उसको ध्याख्यान शीलता और पुण्य श्रद्धा को देखकर उकसा ग्रन्थ की चाकी सायंन्दि नाममा समय विक्रम को १० वीं शताब्दी का प्रारम्भ है। जयसेन यह लाड वागडसंघ के पूर्णचन्द्र थे। शास्त्र समूः क पारगानी और तम के निवारा थे। तथा स्त्री के कलारूपी बाणों से नहीं भिदे थे-पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रतिष्ठित थे। जैसा कि प्रद्युम्नचरित की प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : श्रीलाटवर्गट नभस्तल पूर्णचन्द्र शास्त्रार्णवान्तग सधी तपसां निवासः । कारता कलावपिन यस्म शरबिभिन्न स्वान्तं बखूब स भुनिजंयसेन नामा ॥ इनके शिष्य गुणाकरसेन सूरि थे और प्रशिष्य महासेन, जो मुज नरेश द्वारा पूजित थे। इन जयसेन का का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है। कनकसेन कनकसेन सेनान्वय मूलसंघ पोगरोगण के सिद्धान्त भट्टारक विनयसेन के शिष्य थे। शक सं०८१५ (सन ८६२ ई०) में निधियण और चेदियण्ण नाम के दो वणिक पुत्रों ने (Sons of a merchant from Srimangal ने नगरू (धर्मपुरी) में एक जिनमंदिर बनवाया। इनमें से पहले को राजा से 'मूलपल्लि' नाम का गांव दान में मिला। जिसे उसने कनकसेन भट्टारक को मन्दिर की सुव्यवस्था के लिये प्रदान किया। (जैन लेख सं० भा० ४ पृ० ३६) अजितसेनाचार्य आचार्य अजितसेन मार्यसेन के शिष्य थे। बड़े भारी विद्वान और तत्त्व चिन्तक थे । मूलगुण्ड के सन् १०५३ ई. के एक शिला लेख में अजितसेन भट्टारक को 'चन्द्रिकावाटान्वयवरिष्ठ' बतलाया है। यह राजाओं से सम्मानित थे । गंगवंशी राजा मारसिंह और राचमल्ल के गुरु थे। और इनके मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय के भी गुरु थे। इसी से गोम्मटसार के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्त गणधर देदादि के समान गुणी और भुवन गुरु बतलाया है। जैसाकि उसकी निम्न माथा से प्रकट है : १. सन्निमितं भुवन दुम्भुकमत्युदात्त, लोक-प्रतिद्धविभ-बोन्नतपोन्तवा । ररम्यते परमशान्तिजिनेन्द्रगेह, पाइनद्वयानुमतपार्श्वमुपायासम् ।। महासेन मुनेच्छात्र, चारािजेन निर्मितं । द्रष्टु कामाचसहारि शान्तिनाथस्थ बिम्बकम् ।। -जन शि० ले० सं० पृ० २२६ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य प्रज्जज्जसेण गुणगण समूह संधारि श्रजियसेण गुरु । भुवणगुरु जस्स गुरु सो राम्रो गोम्मटो जयॐ ॥ ७३३ ॥ यह अजितसेन अपने समय के प्रसिद्ध प्राचार्य थे । चामुण्डराय का पुत्र जिनदेवन भी इनका शिष्य था । उसने सन् १९५ ई० में श्रवणबेलगोल में एक जिन मन्दिर बनवाया था । प्रस्तुत अजितसेनाचार्य प्रसिद्ध कवि रन्नके भी गुरु थे 1 २३६ गंगवंशी राजा मारसिंह बड़े वीर और जिनधर्म भक्त थे । इन्होंने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के लिये गुर्जरदेश को विजय किया. विन्ध्यपर्वत की तली में रहने वाले किरातों के समूह को जीता, मान्यखेट में कृष्णराज की सेना की रक्षा की, इन्द्रराज चतुर्थ का अभिषेक कराया। और भी अनेक राजाओं को विजित किया। अनेक युद्ध जीते, और चेर, चोड, पाण्ड्य, पल्लव नरेशों को परास्त किया। जैन धर्म का पालन किया । अनेक जिनमन्दिर बनवाये सौर मन्दिरों को दान दिया। मारसिंह ने ९६१ ई० से ६७४ ई० तक राज्य किया है। इनके धर्म महाराजाधिराज, गंगचूड़ामणि, गंगविद्याधर, गंगकन्दर्प और गंगवा यादि विरूद पाये जाते हैं। और अन्त में राज्य का परित्याग कर अजितसेन गुरु के समीप सन् १७४ ई० में बंकापुर में समाधि पूर्वक शरीर का परित्याग किया । प्रजित सेनाचार्य का समय ई० सन् ६६० (वि० सं० १०१७ ) है । प्रजितसेन के शिष्य कनकसेन द्वितीय थे । नागनदी सूरस्थ गण के मुनि श्रीनन्दि भट्टारक के प्रशिष्य और विनयनन्दि सिद्धान्त भट्टारक के शिष्य थे । इनके पाद प्रक्षालन पूर्वक कुक्कनूर ३० में स्थित अपनी जागीर से ३०० मन्तर प्रमाण कृष्य भूमि, कोपण में यादव वंश में समुत्पन्न महा सामन्त शङ्कर गण्डरस द्वारा निर्माणित जयबीर जिनालय को नित्य प्रति की प्रावश्यकताओं की पूर्ति के लिये दाम में दी गई थी। यह लेख अकाल वर्ष कन्नरदेव ( राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय) के राज्य में रक्ताक्षि संवत्सर एवं शक संवत् ८८७ सन् ९६४ ईस्वी में लिखा गया था। इससे नागनन्दी का समय सन् १६४ है । — जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० ४२९ गोल्लाचार्य थे। मूल संघान्तर्गत नन्दिगण से प्रसूत देशीयगण के प्रसिद्ध श्राचार्य थे, और गोल्लाचार्यं नाम से ख्यात थे। यह गृहस्थ अवस्था में पहले गोल्लदेश के अधिपति (राजा) थे और नूलचन्दिल नाम के राजवंश में उत्पन्न हुए उन्होंने किसी कारणवश संसार से भयभीत हो, राज्य का परित्याग कर जिनदीक्षा ले ली थी। और तपश्चरण द्वारा ग्रात्म-साधना में तत्पर थे। वे श्रमण अवस्था में अच्छे तपस्वी, और शुद्धरत्नत्रय के धारक थे । सिद्धान्तशास्त्ररूपी समुद्र की तरंगों के समूह से जिन्होंने पापों को धो डाला था। इनके शिष्य त्रैकाल्य योगी थे। इनका समय संभवतः दशवीं शताब्दी है । १. इत्याद्य द्ध मुनीन्द्रसन्ततिनिधी श्रीमूलसड्ये ततो । जाते नन्दिगरण-प्रभेदविलसदेशीर विश्रुते । गोल्लावार्य इति प्रसिद्ध मुनिपोऽभूद् गोल्ल देशाधिप: 1 पूर्व केन च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्सुधी । -- जैनलेखसंग्रह भा० १ ० नं० ४० पृ० २५ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अनन्तवीर्य (वृद्ध)-- सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार एक वृद्ध अनन्तवीर्य हुए हैं। सिद्धिविनिश्चय टीका के पु० २७, ५७, १३५, ५३८) से ज्ञात होता है कि उनकी यह टीका रविभद्रपादोपजीवी अनंतवीर्य को प्राप्त थी, उन्होंने अपनी टीका में उसकी कुछ बातों का निरसन भी किया है। पर वे उससे प्रभावित नहीं थे, और संभवत: वह उन्हें विशेष रुचिकर भी न थी। इसी से उन्होंने अपनी टीका का निर्माण किया। इससे इतना तो निश्चित है कि यह अनन्तवीर्य उनसे पूर्ववर्ती हैं। संभवत: इनका समय वि० की हवीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है। अनन्तवीर्य इनका पेग्गर के कन्नड शिलालेख में वीरसेन सिद्धान्त देव के प्रशिष्य और गोणसेन पण्डित भट्टारक के शिष्य के रूप में उल्लेख है। ये श्री बेलगोल के निवासी थे। इन्हें बेहोरेगरे के राजा श्रीमत् रक्कस ने पेरगदूर तथा नई खाई का दान किया था। यह दान लेख शक सं० ८६ (ई. सन् १७७) का लिखा हुआ है। अतः इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी है । इन्द्रनन्दी प्रथम इनका उल्लेख ज्वाला मालिनी कल्प की प्रशस्ति महमदी (द्वितीय) ने किया है। इन्द्रादि देवों के द्वारा इनके चरण कमल पूजित थे। जिनमत रूपी जलधि (समुद्र) से पापलेप को धो डाला था। सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञाता त्रिलोक रूपी कमल यन में विचरन करने वाले यशस्वी राजहंस थे। इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का पूर्वाध है। बासवनन्दी यह इन्द्रनन्दी प्रथम के शिष्य थे। बडे भारी विद्वान थे। जिनका चरित्र पाप रूपी शत्रु सैन्य का हनन करने . के लिये तेज तलवार के समान था। और चित्तशरत्कालीन जल के समान स्वच्छ और शीतल था, जिनकी निर्मल कीर्ति शरत्कालीन घन्द्रमाकी चांदनी के समान प्रकाशमान थी। इनका समय भी विक्रम का दशवीं शताब्दी का मध्य भाग होना चाहिये। १. श्री बेलगोलनिवासिमलप्प श्री दोरसेनसिद्धान्तदेवर वर शिष्ययर श्रीगोणसेनपण्डितभट्टारकवर शिष्य श्रीमन् अनन्तवीयंगले... -जंन शिला० सं० भा० २ पृ० १६६ २. आसीदिन्द्रादिदेव स्तुतपदकमलश्रीन्द्र नंदिनीन्द्रो। नित्योत्सप्पच्चरित्रो जिनमतजलविधौतपापोपलेपः । प्रज्ञानाचामलोद्यत्प्रगुणगणमतोरकीसां विस्तीर्ण सिद्धा नाम्भोराशिस्त्रित्तोक्मांबुजवन विचरतसद्यशो राजहंसः ।। ३. वदवत्तं दुरितारिसैन्य हनने चण्डासिधारावितम् । चित्तं यस्य शरत्सरसलिलवत् स्वच्छं सदा शीतलम् । कोतिः शारदकौमुदी वाचिभूतो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला । स श्री बासवनंदिसन्मुनिपतिः शिष्यस्तहोयो भवेत् ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य २४१ रविचन्द्रप्रस्तुत रविचन्द्र सूरस्थगण के एलाचार्य को गुरु परम्परा में हुए हैं । प्रभाचन्द्र योगीश, कल्नेलेदेव, रविचन्द्र मुनीश्वर रविनन्दि देव-एलाचार्य ___ गंग राजा मारसिंह (द्वितीय) के समय पौष कृष्ण ६ मंगलवार शक ८८४ दुन्दुभि संवत्सर, उत्तरायण संक्रान्ति के समय मेलपाटि के स्कन्धावार से कोमल देश में स्थित कादलूर ग्राम एलाचार्य को दिये जाने का उल्लेख है। चूकि इस कन्नड शिलालेख का समय सन् १६२ है। अतः यह रविचन्द्र दशवीं शताब्दी के विद्वान हैं। मुनि रामसिंह (दोहापाहुड के कर्ता) मुनि रामसिंह ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न अपने गुरु का नामोल्लेख ही किया। ग्रन्थ में रचनाकाल भी नहीं दिया और न अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख ही किया इनको एकमात्र कृति 'दोहा पाहुड' है। जिसमें २२२ दोहे हैं। जिनमें प्रात्म-सम्बोधक वस्तु तत्त्व का वर्णन किया गया है । दोहे भावपूर्ण और सरस हैं। चूंकि इस ग्रन्थ के कर्ता रामसिंह योगी हैं। उन्होंने २११ नं० के दोहे में 'रामसीहु मुणि इम भणइ' वाक्य द्वारा अपने को उसका कर्ता सूचित किया है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने लिखा है कि 'एक प्रति की सन्धि में भी उनका नाम मात्र पाया है। प्रस्तुत रामसिंह योगीन्दु के बहुत ऋणी हैं। उन्होंने उनके परमात्म प्रकाश से बहुत कुछ लिया है।' रामसिंह रहस्यवाद के प्रेमी थे । इसी से उन्होंने प्राचीन ग्रन्थकारों के पद्यों का उपयोग किया है। वे जोइन्दु और हेमचन्द के मध्य हुए हैं। रामसिंह का समय दसवीं शताब्दी है। क्योंकि ब्रह्मदेव ने परमात्म प्रकाश की टीका में उसके कई दोहे उद्धत किये हैं। ब्रह्मदेव का समय वि० की ११वीं शताब्दी है। अतः रामसिंह १० वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये । नन्थ का प्रतिपाद्य विषय अध्यात्म चिन्तन है। प्रात्मानुभूति और सदाचरण के विना कर्मकाण्ड व्यर्थ है। सच्चा सुख, इन्द्रिय निग्रह और प्रात्मध्यान में हैं । मोक्षमार्ग के लिये विषयों का परित्याग करना आवश्यक है। बिना उसके देह में स्थित आत्मा को नहीं जाना जा सकता । ग्रन्थ में रहस्यवाद का भी संकेत मिलता है। कुछ दोहों का प्रास्वाद कीजिये। हत्य अहं देवली बालह पाहि पवेसु । संतु चिरंजणु तहि नसइणिम्पल होद मवेसु॥४॥ साढ़े तीन हाथ का यह छोटा-सा शरीर रूपी मन्दिर है । मूर्ख लोगों का उसमें प्रवेश नहीं हो सकता, इसी में निरंजन (आत्मा) वास करता है, निर्मल होकर उसे खोज । अप्पा बुझिउ णिच्चु जइ केवलणाण सहाउ । ता पर किज्जइ कांदवड तणु उपरि अनुराउ॥२२॥ जब केवल ज्ञान स्वभाव प्रात्मा का परिज्ञान हो गया, फिर यह जीव देहानुराग क्यों करता है ? धंधा पडियउ सयल जगु, कम्मई करइ अयाणु । मोक्खहं कारणु एक्कु खणु ण वि धितइ अपाणु ॥ सारा संसार धन्धे में पड़ा हुआ है और अज्ञानवश कर्म करता है, किन्तु मोक्ष के लिए अपनी यात्मा का एक क्षण भी चिन्तन नहीं करता। सप्पिं मुक्की कंच लिय जं विसु तं ण मुएह । भोयह भाउ ण परिहरइ लिंगरगहण करेइ ॥१५ __ जिस तरह सर्प काचुली तो छोड़ देता है, पर विष नहीं छोड़ता। उसी तरह द्रव्य लिंगी मुनि वेष धारण कर लेता है किन्तु भोग-भाव का परिहार नहीं करता। अप्पा मिल्लि वि जगतिलउ मद म झायहि अण्णु । जि मरगउ परिया णियउ तहु कि कच्चहु गष्णु ॥७२ १. (एन्युअलरिपोर्ट आफ साउथ इण्डियन एपिग्राफी सन् १९३४---५२३ पृ० ७) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जगतिलक प्रात्मा को छोडकर हे मूह! अन्य किसी का ध्यान मत कर.जिसने पात्मज्ञान रूप माणिक्य पहिचान लिया, वह क्या कांच को कुछ गिनता है। मूढ़ा हम रज्जियाह अप्पा होइ। बहाई भिषणउ णाणमउ सो तुहं प्रप्पा जोइ ॥१०७।। हे मह ! देह में राग मत कर, देह बात्मा नहीं है। देह से भिन्न जो ज्ञानमय है उस पात्मा को तूं देख । हलि साहिकाइ करईसो वप्पण, जहि पडिबिम्बूण दीसइ अप्पणु । धंधवास मो जग पब्हिासह, धरि अच्छंत ण घरबह दीसह ॥१२२ हे सखि ! भला उस दर्पण का क्या करें, जिसमें अपना प्रतिबिम्ब नहीं दिखाई देता। मुझे यह जगत्लज्जावान प्रतिभासित होता है, जिस घर में रहते हए भी गहपति का दर्शन नहीं होता। तिस्थई तित्थ भमेहि वह धोयउ चम्मु. जलेण। ए. मण किमधोएसि त मइलउपाय मलेण ॥१६॥ हे मर्ख ! तुने तीर्थ से तीर्थ भ्रमण किया और अपने चमड़े को जल से धो लिया, पर तू इस मन को, जो पाप रूपी मल से मलिन है, कैसे धोयगा। अप्पा परहंण मेलयर आवागमणु ण भग्गु । तुस कंडं तहं कालु गउ तंबुलु हस्थि ण लग्गु ।।१८५ मात्मा और पर का मेल हुआ और न पावागमन भंग हुआ। तुष कूदते हुए काल बीत गया किन्तु तन्दुल (चावल) हाथ न लगा। पुण्णेण होइ विहस्रो विहवेण मम्रो भएण मद मोहो। मई मोहेण य परयं तं पुण्णं प्रम्ह महोउ ।। पुण्य से विभव होता है, विभव से मद, और मद से मतिमोह, और मति मोह से नरक मिलता है। ऐसा पुण्य मुझे नहो। इस तरह यह दोहा पाहुड बहुत सुन्दर कृति है । मनन करने योग्य है । पाकोति यह सेनसंघ के विद्वान चन्द्रसेन के शिष्य माधवसेन के प्रशिष्य और जिनसेन के शिष्य थे। अपभ्रंश भाषा के विद्वान और कवि थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा में इनका उल्लेख किया है। इनकी एकमात्र कृति 'पासणाहचरिउ' है। जिसमें १८ सन्धियां और ३१५ कडवक हैं। जिनमें तेवीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवनपरिचय अंकित किया गया है। कथानक प्राचार्य गुणभद्र के उत्तर पुराण के अनुसार है। ग्रन्थ में यान्त्रिक छन्दों के अतिरिक्त पज्झटिका, अलिल्लह, पादाकुलिक, मधुदार, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, प्रामाणिका, समानिका और भजंगप्रयात छन्दों का उपयोग किया गया है। कवि ने पार्श्वनाथ के विवाह की चर्चा करते हुए लिखा है कि पार्श्वनाथ ने तापसियों द्वारा जलाई हुई लकड़ी से सर्प युगल के निकलने पर उन्हें नमस्कार मंत्र दिया, जिससे वे दोनों धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। इससे पाश्वनाथ को वैराग्य हो गया । तीर्थकर स्वयं बुद्ध होते हैं उन्हें वैराग्य के लिए किसी के उपदेशादि की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु बाह्य निमित्त उनके वैराग्योपादन में निमित्त अवश्य पड़ते हैं। श्वेताम्बरीय विद्वान हेमविजय १. सुप्रसिद्ध महामइ णियमधरु, थिउसेण संघु इह महिहि वरु । तहि चंदसेणु सामेण रिसी, वय-संजम-णियमई जासु किसी। तहाँ सीसु महामइ णियमचारि, एयवंतु गुणायरु जंभवारि । सिरि माहउसेण महाणुभाउ, जिसेणु सीसु पुरण तामु जाउ। तहो पुष्य सरोहें पनमकित्ति, 'उप्पए सीसु जिण जासु चित्ति । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २४३ गणी ने तो नेमिनाथ के भित्ति चित्रों को पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण लिखा है। दिगम्बर परम्परा में नाग घटना को वैराग्य का कारण लिखा है। इस मान्यता में कोई सैद्धान्तिक हानि नहीं है। वादिराज ने पार्श्वनाथ के वैराग्य की स्वाभाविक बतलाया है। पार्श्वनाथ ने विवाह नहीं कराया, उन्हें वैराग्य हो गया। सूल ग्रागम समवायांग और कल्पसूत्र में भी पार्श्वनाथ के विवाह का वर्णन नहीं है। उन्हें बाल ब्रह्मचारी प्रकट किया है। किन्तु बाद के श्वेतास्वराचार्य शोलांक, देवभद्र और हेमचन्द्र ने उन्हें विवाहित बतलाया है। हेमचन्द्र ने १२ तीर्थकर वासुपूज्य को बालब्रह्मचारी प्रकट करते हुए पार्श्वनाथ को भी अविवाहित (ब्रह्मचारी) बतलाया है । आ० शीलांक ने उन्हें 'चउपन्न पुरिसचरित' में दारपरिग्रह करने और कुछ काल राज्य पालन कर दीक्षित होने का उल्लेख किया है । raff हेमचन्द्र ने बालब्रह्मचारी लिखा है। एक ही ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ में एक स्थान पर पार्श्वनाथ को बाल ब्रह्मचारी लिखे और दूसरी जगह उन्हें विवाहित लिखे, इसे समुचित नहीं कहा जा सकता । दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों ने यतिवृषभ, गुणभद्र, पुष्पदन्त, वादिराज और पार्श्वकीर्ति यादि ने उन्हें अविवाहित ही लिखा है । पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण कुछ भी रहा हो, पर उनके वैराग्य की लौकान्तिक देवों ने पुष्ट किया । पार्श्वनाथ ने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण किया। वे एक बार भ्रमण करते हुए उत्तर पंचाल देश की राजधानी अहिच्छत्रपुर के बाह्य उद्यान मे पधारे दोष राहत, वे मुनि कायोत्सर्ग में स्थित हो गए, गिरीन्द्र के समान वे ध्यान में निश्चल थे । ध्यानानल द्वारा कर्म समूह को दग्ध करने का प्रयत्न करने लगे। उनके दोनों हाथ नीचे लटके हुए थे, उनकी दृष्टिनासाथ थी, वे समभाव के धारक थे, उनका न किसी पर रोप था और न किसी परनेह, वे मणिकंचन को धूलि के समान, सुख, दुख, शत्रु मित्र को भी समानभाव से देखते थे। जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है 1 तहि फासू जोउवि महिमएस, थिइ कालोसो विषय-दो । भाणाणल पूरिउमणिमुणिदु, थिउ अविचल णावइ गिरिवरं । लंबिय कर यलु झाणु वक्खु, णासन्न सिहरि मुगिवद्ध चक्खु । सम-सत्तु-मिस-सम-रोस-तोसु, कंचन -मणि पेषख धूलि सरिसु सम-सरिस पेक्खड़ वृक्खु सोमखु, वंदिउ णरवर पर गणइ मोक्खु || - वासणावरि ३४-३ कमठ का जीव जो यक्षेन्द्र हुआ था विमान द्वारा कहीं जा रहा था। वह विमान जब पार्श्वनाथ के ऊपर भाया, तब रुक गया । विमान रुकने का उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, वह नीचे खाथा, तब उसने पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ देखा, उन्हें देखते हो पूर्व भव के वैर के कारण उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने का उपक्रम किया । परन्तु वं ध्यान में अविचल थे, उससे वे जरा भी विचलित नहीं हुए । तब उसने रुष्ट होकर पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया । जब वे उससे भी विचलित नहीं हुए, तब उसने अत्यन्त रुष्ट होकर भयानक उपसर्ग किये, घनघोर वर्षा की २. इत्थं पितृवचः पार्श्वोऽप्युल्लंघयितु मनीश्वरः । भोग्यंकर्म क्षपयितुमुदबाह प्रभावतीम || -- त्रिपटियाका पुरुषचरित्र पर्व दलो० २१० ३. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित पर्व ४ श्लोक १०२ पृ०३८ तथा महिलनेमिपादइति भाविनोऽपि योजिताः अकृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्रावजिष्यन्ति मुक्तये ।। त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित पर्व ४ लोक १०३ पृ० ३८ ४. तो कुमारभावमवालिकरण किचिकाल कयदार परिमहो रायसिरि मणुवालिक...। - चउपन्न पुरिराचरि ५० १०४ ५. घोरु भीमु उपसग्गु करत हो, सीयलु सलिल गियरु बरिसंत हो । बोलिउ सतहं रत्तिखिरंतर, तो दिए असुरहो मरिणम्मच्छरु | जिह जिह सलिल पडइ घरा-मुक्कउ तिह तिह संधि जिरिंद हो टुक्कउ तो बिग चल चित्त तहो धीर हो, बालुवि कंप खाहि सरीर हो । ड जलधि संधि जिरिंग हो, आससु चलिउ नाम धणद हो । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ उसने सात रात्रि तक निरन्तर वर्षा की। जिससे वर्षा का पानी पार्श्वनाथ के कंधों तक पहुंच गया। उसी समय धरणिंद्र का शासन कम्पायमान हुआ. उसने भगवान पार्श्वनाथ का उपसर्ग जानकर उनकी रक्षा को। उपसर्ग दूर होते ही भगवान को केवलज्ञान हो गया और इन्द्रादिक देव केवलज्ञान कल्याणक को पूजा करने आये । कमठ के जीव उस संवरदेव ने अपने अपराध की क्षमा मांगी और वह उनकी शरण में आया । उस समय जो अन्य तपस्वी ने भी सब पाश्र्वनाथ को शरण में पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए । प्रफुल्ल कुमार मोदी से सवउ' भी शाबिना में पमकोति के इस ग्रंथ का रचना काल शक सं० REE बतलाया है। जबकि उन्धकतने समय के साथ शक या विक्रम शब्द का प्रयोग नहीं किया, तब उसे शक संवत् कैसे समझ लिया गया । दूसरे पद्मकीति ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उसमें चन्द्रसेन, माधवसेन, जिनसेन और पद्यकीति का नामोल्लेख है। ग्रन्थ में कनाटक महाराष्ट्र भाषा के शब्दों का उल्लेख होने से उन्हें दाक्षिणात्यं मान कर शक संवत् की कल्पना कर डाली है। हिरेआवली के लेख में चन्द्रप्रभ और माधवसेन का उल्लेख देखकर तथा चन्द्रप्रभ को चन्द्रसेन मान कर उनके समय का निश्चय किया है, जबकि उस लेख में माधवसेन के शिष्य जिनसेन का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसी स्थिति में पत्रकीति के गुरु जिनसेन का कोई उल्लेख न होने पर भी उक्त चन्द्रप्रभ ही चन्द्रसेन पौर जिनसेन के प्रगुरु होंगे। यह कल्पना कुछ संगत नहीं कही जा सकती, और न इस पर से यह फलित किया जा सकता है कि ग्रन्थकता पद्मवाति शक सं०६६E के गथकार हैं--इसके लिए किन्हीं अन्य प्रामाणिक प्रमाणों को खोज आवश्यक है नये प्रमाणा के अत्वषण हाने पर नय प्रमाण सामन पायेंग, उन पर से पन काति का समय विक्रम का दशवा या ग्यारहवीं शताब्दी निश्चित होगा। अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य-जिनका मटोल (वीजापुर बम्बई) के शिलालेख में निर्देश है। यह शिलालेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमल्ल प्रथम (ई० सन् १०२४) के समय का उपलब्ध हुया है। इसमें कमल देव भट्टारक, विमुक्त वतीन्द्र सिद्धान्तदेव, अष्णिय भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का क्रमश: उल्लेख है। ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रों के विशेषकर जैनदर्शन के पारगामी थे । अनन्तवोर्य के शिष्य गुणकोति सिद्धान्त भट्टारक पौर देवकीति पण्डित थे। ये संभवत: यापनीय संघ और सूरस्थगण के थे। कनकसेन चंद्रिकावाट सेनान्वय के विद्वान वीरसेन के शिष्य थे। यह बोरसेन कुमारसेनाचार्य के संघ के साधनों के गुरु थे। इनका समय पी० बी० देशाई ने ८६०ई० बतलाया है। और कुमारसेन का समय ८६० ई० निर्दिष्ट किया है। चिकार्य ने मुलगण्ड में एक जैन मन्दिर बनवाया था। उसके पुत्र नागार्य के छोटे भाई अरसार्य ने, जो नीति और आगम में कुशल था, और दानादि कार्यों में उद्युक्त तथा सम्यक्त्वी था। उसने नगर के व्यापारियों की सम्मति से एक हजार पान के वृक्षों के खेत को मन्दिरों की सेवा के लिये कनकसेन को शक संवत्० ८२४ सन् १०३ ई० को अर्पित किया था । अतएव इन जनकसेन का समय ईसा की नौवीं शताब्दी का उपान्त्य और दशवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। -(जैन लेख संग्रह भा० २ पृ० १५८) अर्हनन्दी अड्ड कलिगच्छ और बलहारिगण के सिद्धान्त पार दृष्टा सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनि के शिष्य अप्पपोटि १. जैनिज्म इन साइंटिया पृ० १०५ २.जैनिज्म इन साउथ इंडिया, पी. वी. देशाई ० १३६ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दशवीं शतान्दी के आचार्य मुनीन्द्र के शिष्य थे । इन्हें शक सं०८६७ शुक्रवार के दिन (5th December ९४५ A.D) पूर्वीय चालुक्य अम्मा द्वितीय या विजयादित्य षष्ठ का जो चालुक्य भीम द्वितीय बेंगी (vengi) के राजा का पुत्र और उत्तराधिकारी था, और जिसने ई० सन् ६७० (वि० सं० १०२७) तक राज्य किया। मह राजा जैनियों का संरक्षक था। महिला चामकाम्ब की प्रेरणा से, जो पट्टवर्धक घराने की थी। और अर्हनन्दी की शिष्या थी, उस राजा ने कलु चुम्बरु नामका एक ग्राम सर्व लोकाश्रय जिनभवन के हितार्थ अनन्दी के पाद प्रक्षालन पूर्वक प्रदान किया। इनका समय ईसा की १०वीं शताब्दी है। धर्मसेनाचार्य धर्मसेनाचार्य-यह चन्द्रिकाबाट वंश के विद्वान थे। इनका आचार निर्मल था और इनकी बड़ी ख्याति थी । श्री ए.एफ. पार० हानले के द्वारा प्रकाश में लाई गई पट्टावलियों में से एक में चन्द्रिकपाट गच्छ का निर्देश काणूरगण और सिंहसंघ से सम्बन्धित था। जैसे हनसोग अन्वय का नाम हनसोग नामक स्थान से निसृत हया है। उसी तरह चन्द्रिकाबाट भी संभव है किसी स्थान विशेष का नाम हो। देसाई महोदय का सुझाव है कि बीजापुर जिले के सिन्द की ताल्लुके में जो वर्तमान में चन्द्रकवट नामका गांव है, यह वही हो सकता है। मूलगुण्ड से प्राप्त एक शिलालेख में लिखा है कि वीरसेन के शिष्य कनकसेन सूरि के कर कमलों में एक भेट दी गई। वीरसेन चन्द्रिकावाट के सेनान्वय के कुमारसेन के मुख्य. शिष्य थे 1 संभव है वे कुमारसेन वही हों, जिन्होंने मूलगुण्ड नामक स्थान पर समाधिपूर्वक मरण किया था। इनका समय ईसा की हवी और विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ष हो सकता है। इन्द्रनन्दी (श्रु तावतार के कर्ता) प्रस्तुत इन्द्रनन्दी ने अपना परिचय और गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया 1 और न समय ही दिया। श्रतावतार के कर्ता रूप से इन्द्रनन्दी का कोई प्राचीन उस्लेख गरे प्रदलकर में पड़ी पाया। ऐसी स्थिति में उनके समय-सम्बन्ध में विचार करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। उनकी एक मात्र कृति 'वतावतार' है, जो मूलरूप में माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से तत्त्वानु शासनादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है। जिसमें संस्कृत के एक सौ सतासी श्लोक हैं। उनमें वीर रूपी हिमाचल से श्रुतगंगा का जो निर्मल स्रोत बहा है वह अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु तक प्रवच्छिन्न धारा एक रूप में चली आयी। पश्चात् द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षादि के कारण मत-भेद रूपी चट्टान से टकराकर वह दो भागों में विभाजित होकर दिगम्बर-श्वेताम्बर नाम से प्रसित है। दिगम्बर सम्प्रदाय में जो श्रुतावतार लिखे गये, उनमें इन्द्र नन्दी का श्र तावतार अधिक प्रसिद्ध है। इसमें दो सिद्धान्तागमों के अवतार की कथा दी गई है । जिनपर अन्त को धवला और जयपवला नामको विस्तृत टीकाएं, जो ७२ हजार मौर ६० हजार श्लोक परिमाण में लिखी गई हैं, उनका परिचय दिया गया है। उसके बाद की परम्परा का कोई उल्लेख तक नहीं है । प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम को १० वी शताब्दी के विद्वान हैं । ऐसा मेरा अनुमान है। विद्वान् विचार करें। १. अकलि-गच्छ-नामा, बलहारिगण प्रतीत विख्यात यशाः । सिवान्त पारदृश्या प्रकटित गुण सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनिः । तच्छिष्यो गुणवान् प्रभुरमित यशास्सुमति रप्पपोटि मुनीन्द्रः ।। तच्छिष्याऽईनन्यकृितवर मुनये चामेकाम्बा सुभक्त्या । श्रीमच्छी सव्वलोकाश्रय जिनभवनस्यात सन्त्रार्थ मुच्च ।। म्बङ्गिनाथाम्मराजे क्षितिभृतिकलुचुम्बक सुग्राममिष्टं । सन्तुष्टा वापयित्वा बुधजन विनुतां यत्र जग्राह कीर्ति ॥ ---जैन लेख सं०भा० ३ कलुचुम्बर लेख पु०१२ २. देखो चामुण्डराय पुराए पद्य १४ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ४ ११वीं हौद १२दी मनाली के सिद्वान आचार्य নন্মি पनसेनाचार्य धर्मसेनाचार्य विमलसेन पंडित वादिराज सागरसेन सैद्धान्तिक विवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव इन्द्रसेन भट्टारक दुर्गदेव (रिष्टसमुच्चय के कर्ता) प्राचार्य माणिक्यनन्दी महाकवि पुष्प दन्त नयनन्दी फविडड्ढा (संस्कृत पंचसंग्रह के कर्ता) प्रभाचन्द्र (प्रमेयकमलमार्तण्डका) पंडित प्रवचनसेन वीरसेन (माथुरसंघ) शान्तिनाथ देवसेन इन्द्र कौति नेमिषेण गुणसेन पंडित (नयायिक और वैयाकरण) माधवसेन गोपनन्दी शान्तिदेव वृषभमन्वी अमितगति (द्वितीय) वासवनन्दी ब्रह्म हेमचन्द्र (श्रुतस्कन्ध के कर्ता) वीरनन्दी सिद्धान्त चक्रवतों (चन्द्रप्रभचरित्र के कर्ता पग्रनन्दि (तिन्त्रिणी गच्छ) नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (गोम्मट सार के कर्ता) कनकसेन (द्वितीय) आर्यसेन नरेन्द्रसेन प्रथम महासेन नरेन्द्र सेन (द्वितीय) चामुण्डराय (चामुण्डराय पुराण के कर्ता) जिनसेन महाकवि वीर (जम्ब स्वामीचरित्र के कर्ता) नयसेन पद्मनन्दी (जंबद्वीप पण्णत्तो के कर्ता) मल्लिषेण कधि धवल (हरिवंश पुराण कर्ता) श्रीकुमार कवि (प्रास्म प्रबोध के कर्ता) जयकीति (छन्दोनुशासन के कर्ता) अजूदेव भट्टारक ब्रह्मसेन प्रतिप गणोति सिद्धान्तदेव मुनि श्रीचन्द्र देवकोति पंडित (अनन्तवीर्य शिप्य) केशिराज गोवर्द्धन देव २४६ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य दामनन्दी (कुमार कीतिशिष्य) धामनन्दि भट्टारक दामनन्दा (मुनि पूर्णचन्द शिष्य) भूपाल कवि (चतुर्विशतिका के कर्ता दामराज कवि कान्ति (कवियत्री) प्राचार्य शुभचन्द्र (ज्ञानार्णव के कर्ता) इन्द्रकीर्ति केशवनन्दि (मेघनन्दि शिष्य) कुलचन्द्र मुनि (परमानन्द सि० के शिष्य) कोतिवर्मा मुनिपासिंह (णापसार के कर्ता) पद्मनन्दि मलपारि श्रुतकीति कधि धनपाल (भविष्यदत्त कथा) जयसेन (लाडवागडसंघ) बाग्भट (नेमिनिर्वाणकाव्य के कर्ता) हरिसिंह मुनि हंस सिद्धान्त देव हर्षनम्बी महा मुनि हेमसेन भायसेन (गोपसेन शिष्य) वीरसेन हरिचन्न (धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता) बह्मवेष (द्रव्यसंग्रह वृत्ति) त्रिभुवनचन्द्र रामसेन (मूलसंघ सेनगण) यापालमुनि (रूपसिद्धि के कर्ता) जयसेन (धर्मरत्नाकर के कर्ता) बाहुबली प्राचार्य माधवनन्द विद्य (त्रिलोकसार के टीकाकार) पचनन्दि (पंचविंशतिका के कर्ता) पद्मप्रभमलधारिदेव (नियमसार वृत्ति कर्ता) दामनन्दि विद्य कुलचन्द्रमुनीन्द्र कुलचन्द मुनि (द्वितीय) पाचण्ण অহিৰ बालचन्द अध्यात्मी राजादित्य कीतिवर्मा बोप्पण पंडित धीरनन्दी (प्राचारसार के कर्ता) गणधरकीति (ध्यानविधि के टीकाकार) भट्टवोसरि (प्रायज्ञान तिलक के कर्ता) नागधन्द्र (अभिनव पम्प) मुणभद्र कर्णपार्य श्रुतकीति (पंच वस्तु के कर्ता) वृत्तिविलास छत्र सेन सं० ११६६ सागरनन्दी सिद्धान्तदेव महनवि (माघनन्दि सि.वेब के शिष्य) माइल्ल धवल (नयचक्र का) कुमुदचन्द्र (कल्याण मंदिर स्तोत्रकर्ता) श्रीचन्त (कथाकोश कर्ता) बन्द्रकीप्ति (श्रुत विन्दु के कर्ता) चन्द्रकीति नाम के दूसरे विद्वान चन्द्रकीति (त्रिभुवन कीति शिष्य) चन्द्रकोति (भ. श्रीभूषण शिष्य) माद्यनान्वि सिद्धान्तदेव देवकीति गण्ड विमक्त सिद्धान्तवेध (माघनन्दि सि.के शिष्य) मणिक्यनन्दी माधवचन्द मलपारि (प्रमतचन्द्र द्वि०के गुरु) गुणभद्राचार्य (धन्यकुमार चरित के कर्ता) माधवचन्दवती (देवकोति शिष्य) माधवचन्द्र (शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव शिष्य) बसुनन्दि सैद्धान्तिक नरेन्द्र कीति विध त्रिभुवन मल्ल Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० मुनिकनकामर (करकण्डु चरिउ) कवि श्रीधर (पार्श्वनाथ चरित्रकर्ता) अमृतचन्द द्वितीय महिलषेण मलधारि लक्ष्मणदेव लघु अनन्त वीर्य (प्रमेय रत्नमालाकार) बालचन्द सिद्धान्तदेव प्रभाचन्द्र (मेघचन्द्र विध शिष्य) माधवसेन नाम के अन्य विद्वान वीरसेन पंडितदेव नरेन्द्रसेन (सिद्धान्तसार के कर्ता) कवि सिद्ध व सिंह (पज्जुण्णचरित्र के कर्ता) पचनन्दिवती (एकत्व सप्तति के कनडी टीकाकार) गिरिकीति (गोम्मटसार पंजिका के कर्ता) जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मेघचन्द विद्यदेव शान्तिषण प्रमरसेन श्रोषण नेमिचन्द्र श्रीधर (गणित सारकर्ता) वासवचन्न मुनीन्द्र देवेन्द्र मुनि नयकोति मुनि माणिक्यसेन पंडित महासेन पंडितदेव प्रभाचन्द्र (बालचन्द्र शिध्य) प्रभाचन्द्र (मेघचन्द्र वैविध शिष्य) प्रभाचन्द्र विद्य रामचन्द्र मुनि शिष्य Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकनन्दी गोम्मट सार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने एक गुरु का नाम कनकनन्दी लिखा है। और बतलाया है कि उन्होंने इन्द्रनन्दी के पास सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सरवस्थान' की रचना की है यथा घर इंदणंदी गुरुणो पासे सोऊण सयल सिद्धतं । सिरि फणयणंदी गुरुणा सत्तुट्ठाणं समुद्दिढें ।। यह सत्वस्थान ग्रन्थ 'विस्तर सत्व त्रिभंगी के नाम से प्रारा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद है। जिसके नोट मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने लिये थे। प्रमीजी ने कनकनन्दी को भी अभयनन्दी का शिष्य बतलाया है जो ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि ने मिचन्द्र ने स्वयं उन्हें इन्द्रनन्दी से सकल सिद्धान्त का ज्ञान करना लिखा है । इस कारण ये इन्द्रनन्दी के शिष्य थे। नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उक्त सत्वस्थान की ३५८ से ३९७ वें तक ४० गाथाएं दी है। जवकि पारा भवन की प्रति में ४८ या ४६ गाथाएं पाई जाती हैं । गोम्मटसार में वे माठ गाथाए नहीं दी गई। इससे कनकनन्दी का समय भी १०वीं शताब्दी का अन्तिम भाग और ग्यारहवीं का प्रारम्भ हो सकता है । अन्त की गाथा से कनकनन्दी का भी सिद्धान्त चक्रवर्ती होना पाया जाता है। वाविराज वाविराज-द्रमिल या द्रविडसंघ के विद्वान थे। द्रविडसंघस्थ नन्दिसंघ की अरुंगल शाखा के प्राचार्य थे। प्रहंगल किसी स्थान या ग्राम का नाम है उसकी मुनिपरम्परा अगलान्वय नाम से प्रसिद्ध हुई । षट्तकषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्ल इनकी उपाधियां हैं। वादिराज श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण की टीका) के कर्ता दयापाल' मुनि के सतीर्थ तथा गुरुभाई थे। वादिराज उनका स्वयं नाम नहीं हैं किन्तु एक पदवी है, किन्तु उसका प्रचार अधिक होने के कारण वह मूल नाम के रूप में प्रचलित हुई जान पड़ती है । मूल नाम कुछ और ही रहा होगा। चौलुक्य नरेश जयसिंह देव की सभा में इनका बड़ा सम्मान था । और प्रख्यात वादियों में इनकी गणना थी। मल्लिषण' प्रशस्ति के अनुसार ये राजा जयसिंह द्वारा पूजित थे (सिंहसमचं पीठ विभवः) और उन्हें महान वादी, १. देखो जन साहित्य और इतिहास प० २६६ २. पुरातन जैन वाक्य सूची की प्रस्ताना ए०७३ ३. हितैषिणां यस्य नृणामुदत्तवाचा निबद्धा हितरूपसिद्धिः। बन्यो दयापाल मुनिः स वाचा सिक्षस्सताम्मूर्दनि यः प्रभावः ।। यस्य श्री मतिमागरो मुरुरसौ चञ्चदशश्चन्द्र सः? श्रीमान्यस्य स वादिराज गणमृत्स ब्रह्मचारी विभोः । एकोऽतीव कृती स एव हि दयापालवती यम्मनस्यास्तामन्य-परिग्रह-ग्रह कथा स्वे विग्रहे विग्रहः ॥ -मल्लि० प्र० जैनले. भा० १० १०८ ४. श्रीमरिंसह महीपते: परिषदि प्रख्यात वादोन्नति स्तक पायतमो पहोदय गिरिः सारस्वतः श्रीनिधिः । शिष्य श्रीमतिसागरस्य विदुषां पत्युस्तपः श्रीभृतां, भतु: सिंहपुरेश्वरो विजयते स्वाद्वादविद्या पतिः ॥ ५ न्याय वि०प्र० ५. पहिलपेण प्रशस्ति शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) में उत्कीर्ण की गई है। २४६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २ विजेता और कवि प्रगट किया है । जयसिह (प्रथम) दक्षिण के चौलुक्य या सोलंकी वंश के राजा थे। इनके राज्य काल के ३० से अधिक शिलालेख और दान पत्र आदि मिल: हैं। जिनमें पहला लेख शक सं०६३८ का है पौर अन्तिम शक सं०६६४ का। अतः १३८ से १६४ तक इनका राज्य काल निश्चित है। इनके शक सं०६४५ पौषवदी दोइज के एक लेख में उन्हें भोजरूप कमल के लिये चन्द्र । राजेन्द्र चोल (परकेसरीवर्मा) रूप हाथी के लिये सिंह, मालबे को सम्मिलित सेना को पराजित करने वाला मोर घेर-चोल राजाओं को दण्ड देने वाला लिखा है। राज ने पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति में अपने दादा गुरु श्रीपालदेव को "सिंहपुरैकमुख्य" लिखा है । और न्याय विनिश्चय की प्रशस्ति में अपने आपको भी "सिंहपुरेश्वर' प्रकट किया है। जिससे स्पष्ट है कि यह सिंहपुर के स्वामी थे - इन्हें सिहपुर जागोर में मिला हुआ था। शक सं० १.४७ में उत्कीर्ण सोच के ४६३ नम्बर के शिलालेख में वादिराज की ही शिष्य परम्परा के श्रीपाल विद्यदेव को जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार और ऋषियों को आहार दान के हेतु होयरल राजा विष्णवर्द्धन पोय्सल देव द्वारा 'शल्प' नाम का गांव दान स्वरूप देने का वर्णन है । और ४६५ में जो शक सं० ११२२ में अंकित हुषा, उसमें दर्शन के अध्येता श्रीपास देव के स्वर्गवास हो जाने पर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने 'परवदिमल्ल-जिनालय' बनवाया और उनके पूजन तथा मुनियों के आहारदानार्थ कुछ भूमि का दान दिया । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि वादिराज की शिष्य परम्परा मठाधीशों की परम्परा थी। जिसमें दान लेने पौर देने की व्यवस्था थी । वे स्वयं दान लेते थे, जिन मन्दिर निर्माण कराते थे, उनका जीर्णोद्वार कराते थे और अन्य मुनियों के प्राहार दानादि की व्यवस्था भी करते थे। वे राज दरवारों में विवाद में विजय प्राप्त करते थे। देवसेन ने दर्शनसार में लिखा है कि द्रविड संघ के मुनि, कच्छ, खेत वसति (मन्दिर) और वाणिज्य से माजी. विका करते थे। तथा शीतल जल से स्नान करते थे । इसी कारण उसमें द्राविड संघ को जैनाभास कहा गया है। बादिराज ने पापवनाथ चरित सिंहचकेश्वर या चोलुक्य चक्रवर्ती जयसिंह देव की राजधानी में रहते हुए शक सं० १४७ की कार्तिक सुदी ३ को बनाया था । जयसिंह देव उस समय राज्य कर रहे थे। उस समय यह राजधानी लक्ष्मी का निवास और सरस्वती देवी की जन्म भूमि थी। यशोधर चरित के तृतीय सर्ग के ५५ ३ पद्य में और चौथे सर्ग के उपान्त्य पद्य में महाराजा जयसिंह का उल्लेख किया है। जिससे यशोधर चरित की रचता भी जयसिंह के समय में हुई है। १.लोक्य दीपिका बाणी वाम्यामेवोदगादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्मातादिराजतः ॥५० अरुद्धाम्बर पिन्धु-बिम्ब-रचितौस्सुक्यां सदा यद्यश-पत्र वाक चमरी जराजिस्चयोऽभ्यम् च यत्कर्णयोः , सेव्यःसिह समच्यं-पीठ-विभवः सर्वप्रवादि प्रजा--दत्तोचजयकार-मार-महिमा श्रीवाधिराजो विदाम् ।। -४१ मल्लिषेण प्रशस्ति प० १०८ २. इस साधु परम्परा में वादिराज और श्रीपाल देव नाम के कई विद्वान हो गए हैं। ये पादिराज द्वितीय है, जो गंग नरेश राचमल्ल चतुर्थ पा सत्यवाक्य के गुरु थे। ३. कच्छ खेत्तं वसदि वाणिज्ज कारिऊण जीवतो। म्हंतो सीयलणीरे पावं पजर स संजेथि ।।२।। ४. माकाब्दे नगवाधिरन्धरणने संवत्सरेकोघने, मासे कार्तिकनाम्निांवहिते शुद्ध तृतीयाधिन । सिंहे याति जयादि के वसुमतीजनीक येयं मया, निष्पनि गमिता सती भवतु वः कल्याण निष्पसिये। पा.१० प्र. ५. 'ध्यातवज्जयसिंहतो रणमुखे दीर्घ दो धारिणीम् । ६. 'रणमुख जयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ बारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य वादिराज सूरि की निम्न पांच कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनका संक्षित परिचय निम्न प्रकार हैपार्श्वनाथ चरित यह १२ सर्गात्मक काव्य है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुका है। इसमें अनेक पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख है । यशोधर चरित - यह चार सर्वात्मक एक छोटा-सा खण्ड काव्य है। जिसके पद्यों की संख्या २९६ है । और जिसे तंजौर के स्व० टी० एस० कुप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रकाशित किया था। एकीभावस्तोत्र - यह पच्चीस श्लोकों का सुन्दर स्तवन है, और जो एकीभावं गत इव मया-से प्रारंभ हुआ है। स्तोत्र भक्ति के रस से भरा हुआ है और नित्य पठनीय है। न्याय विनिश्चय विवरण - यह अकलंक देव के 'न्याय विनिश्चय' का भाष्य है। जैन न्याय के प्रसिद्ध ग्रन्थों में इसकी गणना है। इसको श्लोक संख्या बीस हजार है । यह पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है। प्रमाण निर्णय - यह प्रमाण शास्त्र का लघुकाय स्वतंत्र ग्रन्थ है । इसमें प्रमाण, प्रत्यक्ष परोक्ष और आगम नाम के चार अध्याय हैं । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से मूल रूप में प्रकाशित हो चुका है । अध्यात्माष्टक - यह आठ पद्यों का स्तोत्र है, माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित है। पर निश्चयतः यह कहना शक्य नहीं है कि यह रचना इन्हीं वादिराज की है या अन्य की । लोक्यदीपिका - नाम का एक ग्रन्थ भी वादिराज का होना चाहिये। जिसका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति के --- त्रैलोक्य-दीपिका बाणी' पद से ज्ञात होता है। जी ने अपने वादिराज वाले लेख में लिखा है कि स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्र जी के संग्रह में "त्रैलोक्य दीपिका" नामका का एक अपूर्ण ग्रन्थ है। जिसके आदि के दस और अन्त के ५८ वें पत्र से आगे के पत्र नहीं । संभव है यही वादिराज की रचना हो । दिवाकरनन्दी सिद्धान्तदेव यह भट्टारक चन्द्रकीति के प्रधान शिष्य थे । सिद्धान्तशास्त्र के अच्छे विद्वान थे और वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करने में निपुण थे । इन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र की कन्नड़ भाषा में ऐसी वृत्ति बनाई थी, जो मूर्खो, बालकों तथा विद्वानों के प्रबंध कराने वाली थी । इनके एक गृहस्य शिष्य पट्टणस्वामी नोकय्यट्टि थे इन्होंने एक तीर्थद् बसदि (मन्दिर) का निर्माण कराया था और वीर सान्तर के ज्येष्ठ पुत्र तैलह देव ने, जो भुजबल सान्तर नाम से ख्यात थे। राजा होकर उन्होंने पट्टणस्वामी को वसदि के लिये दान दिया था। दिवाकर नन्दी को सिद्धान्त रत्नाकर कहा जाता था। इनके शिष्य मुनिसकलचन्द्र थे । इस लेख में काल नहीं दिया । यह लेख हुम्मच में सूले वस्ती के सामने के मानस्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका समय १०७७ ई० के लगभग बतलाया गया है'। हुम्मच के एक दूसरे १९७ नं० के लेख में, जिसमें पट्टण स्वामि नोकय्य सेट्टि के द्वारा निर्मित पट्टण स्वामि जिनालय को शक वर्ष ८४ (सन् १०६२ ) के शुभकृत संवत्सर में कार्तिक सुदि पंचमी यादित्यवार को सर्वत्राधा रहित दान दिया । वीरसान्तर देव को सोने के सौ गद्याणभेंट करने पर मोलकेरे का दान मिला। माहुर में उसने प्रतिमा को रत्नों में मड़ दिया और उसके पास सोना, चाँदी, मूगा आदि रत्नों की और पंच धातु की प्रतिमाएँ विराजमान की । पट्टण स्वामि नोकय्यसेट्टि ने शान्तगेरे, मोलकेरे, पट्टणस्वामिगेरे और कुक्कुड वल्लि के तले विण्डे गेरे ये सब तालाब बनवाये और सी गद्याण देकर उगुरे नदी का सोलंग के पागिमगल तालाब में प्रवेश कराया । यह लेख दिवाकर नन्दि के शिष्य सकलनंद पण्डित देव के गृहस्थ शिष्य मल्लिनाथ ने लिखा था। त्रैलोक्यमल्ल वीर सान्तर देव जैन धर्म का श्रद्धालु राजा था क्योंकि इसने पोम्बुर्च में बहुत से जिनमन्दिर बनवाये थे । इसकी धर्म पत्नी चामल देवी ने नोकियब्बे वसदि के सामने 'मकरतोरण' बनवाया था। और १. देखो (जैन लेख सं० भाग २ ० २७७-२८१) २. जैन लेख सं० भा० २ ० २३७ - २४१) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ बलिगावे में चामेश्वर नाम का मन्दिर बनवाया था और ब्राह्मणों का दान दिया था। जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ - जैन लेख सं० भा २ पृ० २४१ - २४५) लेख नं० १६६ दुर्गदेव दुर्गदेव - यह संयमसेन के शिष्य थे, जिनकी बुद्धि षट्दर्शनों के अभ्यास से तर्कमय हो गई थी, जो पंचांग तथा शब्द शास्त्र में कुशल थे, समस्त राजनीति में निपुण थे। वादि गजों के लिये सिंह थे, और सिद्धान्त समुद्र के पाक हुए थे। उन्हीं की आज्ञा से यह ग्रन्थ 'मरण करण्डिका' आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों का उपयोग करके પે 'रिष्ट सचमुच्चय' ग्रन्थ तीन दिन में रचा गया है। और जो विक्रम संवत् १०८६ की श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र के समय श्री निवास राजा के राज्य काल में कुम्भनगर के शान्तिनाथ मन्दिर में समाप्त हुआ है। दुर्गदेव ने अपने को देसजई ( देशयति) बतलाया है'। इससे वे भ्रष्ट मूल गुणसहित श्रावक के बारह व्रतों से भूषित वा क्षुल्लक साधु के रूप में प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं । इन्होंने अपने गुरुयों में संयमसेन श्रौर माधवचन्द्र का नामोल्लेख किया है । पर उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश नहीं डाला । यह ग्रन्थ मृत्यु विज्ञान से सम्बन्ध रखता है । इसमें २६१ प्राकृत गाथाओं में अनेक पिण्डस्थ, पदस्थादि तथा रूपस्थादि चिन्हों - लक्षणों, घटनाओं एवं निमित्तों के द्वारा मृत्यु को पहले जान लेने की कला का निर्देश है। इनकी दूसरी रचना अर्ध काण्ड है, जो १४४ गाथाओं में निबद्ध है, श्रीर जो वस्तुओं की मन्दी-तेजी जानने के विज्ञान को लिए हुए एक अच्छा महत्व का ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ मेरे पास था, डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिषप्राचार्य ने भगाया था। वह उनके पास से कहीं खो गया। अतः भण्डारों में उसकी खोज करनी चाहिए | तीसरी रचना 'मन्त्र महोदधि' का उल्लेख बृहत् टिप्पणिका में मन्त्र महोदधि प्रा० दिगंबर श्री दुर्गदेव कृत गा० ३६" रूप से मिलता है १. जो इस तक्क तक्किय यम पंचंग सहागमे । जोगी सेसमहीस नीति कुसलो शम्भ कंठीरवो । जो सित मपारती (रणी) रसुणी तीरे दि पारंगओ, सो देवो सिरि संजमाई मुषिो आसी इह भूतले ॥ २५७ संजाम इह तस्म चाय चरियो गाणं बुषोयं मई, सीसो देस जई संवोहण परो दीसेरण- बुद्धागमो । गामेणं सिरि दुगदेव विहओ वागीसरा यन्नओ, तेणेदं रइयं विमुख महणा सत्यं महत्थं फुडं ॥ २५८ X X संबन्धर इंग सहसे बोलीन राज्य सीइ-संजुते (१०८९) सावण मुक्के यारसि दियहृम्म मूल विखम् ॥ २६० सिरि कुंभरणयर रहए लच्छिणिवास- रिणवइ-रज्जम्मि | सिरि संतिलाइ भनणे मुशिभवियस्स उभे रम्मे (१) ॥ २६१ X - महाकवि पुष्पवन्त कवि पुष्पदन्त अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् कवि थे। उन्होंने उत्तरपुराण के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है, – सिद्धि विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के शरीर से संभूत, निर्धनों और धनियों को एक दृष्टि से देखने वाले, सारे जीवों के कारणमित्र, शब्द सलिल से जिनका काव्य स्रोत बढ़ा हुआ है, केशव के पुत्र, काश्यप गोत्री, सरस्वती विलासी, सूने पड़े हुए घरों और देव कुलिकाओं में रहने वाले, कलि के प्रबल पापपटलों से रहित, ये घरबार, पुत्र- कलत्रहीन, नदियों वापिकाश्रों और सरोवरों में स्नान करने वाले, पुराने वस्त्र और बल्कल पहनने वाले, धूल धूसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहने वाले, जमीन पर सोने वाले और अपने ही हाथों को प्रोढ़ने वाले, पण्डित पण्डित मरण की प्रतीक्षा करने वाले मान्यखेट नगरवासी, मनमें अरहंतदेव का ध्यान Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य करने वाले, भरतमन्त्री द्वारा सम्मानिल, अपने काव्य प्रबन्ध से लोगों को पुलकित करने वाले, धो डाला है पापरूप कीचड़ जिसने ऐसे अभिमान मेरु पुष्पदन्त ने जिन मक्ति पूर्वक काधन संवत्सर में महापुराण की रचना की। पुष्पदन्त के पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। यह काश्यप गोत्री ब्राह्मण थे। इनका शरीर अत्यन्त कृश (दुबला-पतला) और वर्ण सांवला था । यह पहले भव मतानुयायी थे। किन्तु बाद में किसी दिगंबर विद्वान के सानिध्य से जैनधर्म का पालन करने लगे थे। बे जैनधर्म के बड़े श्रद्धालु मौर अपनी काव्य कला से भव्यों के चित्त को अनुरंजित करने वाले थे। जैनधर्म के सिद्धान्तों और ब्राहमण धर्म के सिद्धान्तों के विशिष्ट विद्वान थे। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के महापण्डित थे। इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार था । उनकी कृतियां उनके विशिष्ट विद्वान होने की स्पष्ट सूचना करती हैं। कबिवर बड़े स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के धारक थे। इस कारण वे अभिमान मेरु, कहलाते थे। अभिमान मेरु' अभिमान चिन्ह काव्य रत्नाकर कवि-कुल-तिलक और सरस्वती निलय तथा कबि पिशाच" आदि उनकी उपाधियां थीं। जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्वयं किया है। इससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। वे सरस्वती के विलासी और स्वाभाविक काव्य-कला के प्रेमी थे। इनको काव्य-शक्ति अपूर्व और माश्चर्यजनक थी। वे निस्संग थे, उनकी निस्संगता का परिचय महामात्य भरत के प्रति कहे गए निम्न वाक्यो से स्पष्ट हो जाता है। वे मन्त्री भरत से कहते हैं कि-...मैं धन को तिनके के समान गिनता हूं। मैं उसे नहीं लेता । मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा । और इसी से तुम्हारे महल में । मेरी कविता तो जिनचरणों की भक्ति से ही स्कुरायमान होती है, जीविका निर्वाह के ख्याल से नहीं। पुष्पदन्त बड़े भारी साम्राज्य के महामात्य भरत द्वारा सम्मानित थे। भरत राष्ट्रकुट राजाओं के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य थे। कवि ने उन्हें 'महयत्त वंसधय बड़ गहीरु' लिखा है। भरत मानवता के हामी, विद्वानों के प्रेमी और कवि केमाश्रय दाता थे। वे उनके पमीत व्यवहार से उनके महलों में निवास करते थे। यह सब उनकी धर्म वत्सलता का प्रभाव है जो उक्त कवि से महापराण जसा महान ग्रन्य निर्माण कराने में समर्थ हा सके। भरत मन्त्री के दिवंगत हो जाने के बाद भी कवि उनके सपत्र नन्न के महल में भी रहे और नागकुमार चरित यशोधर चरित की रचना की। उत्तर पुराण के संक्षिप्त परिचय पर से ज्ञात होता है कि वे बड़े निस्पृह और अलिप्त थे, और देह-भोगों से सदा उदासीन रहते थे । कवि के उच्चतम जीवन-कणों से उनकी निर्मल भद्र प्रकृति, निस्संगता और अलिप्तता का वह चित्रपट हृदय-पटल पर अंकित हए विना नहीं रहता। उनकी इस प्रकिचन वृत्ति का महा भात्य भरत पर भी प्रभाव पड़ा है। देहभोगों की प्रलिप्तता उनके जीवन की महत्ता का सबसे बड़ा सबूत है । यद्यपि वे साध नहीं थे, किन्तु उनकी निरीहभावना इस बातकी संद्योतक है कि उनका जीवन एक साधु से कम भी नहीं था वे स्पष्टवादी थे और अहंकार की भीषणता से सदा दूर रहते थे, परन्त स्वाभिमान का परित्याग करना उन्हें किसी तरह भी इष्ट नहीं था। इतना ही नहीं किन्तु वे अपमान से मत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते थे । कवि का समय १. देखो, उत्तर पुराण प्रशस्ति २. कसण सरीरे सुद्धकुरूवें मुखारवि गम्भ संभू ।' उत्तर पु० प्रशस्ति ३. (क) नं सुरसेवि भणइ अहिमायमेरु ।' महापु० सं० १-३-१२ (ख) णमाहो मंपिरि शिवसतु संतु, अमिाण मेरू गुणगण महंतु ।। -माग कु० च ० १, २, २ ४. वय संजुत्ति उत्त मसंसि वियलिव संकि अहिमाणकि जसहरच० ५-३१ ५. भो भो केसव तण्रह एवसर रुह मुह कज्न रयण रयणा यरु । ६. तं शिरणेषि भरहें व्रत ताव, मो कइकुलतिलय विमुक्कगाव । -महा पु०१.१ ७. जिरगचरण कमल भत्तिल्लएरण, ता जंपिड कम्वपिसहल एण। -महापू० १, ८, ८ ८. घणु तपसमु मण्इन, ण तं गहणु, गेह मिणकारिम इच्छमि । देवि सुभ सुदरिणहि तेण हंड, णिलए तुहार ए अच्छमि ॥२०, उत्तरपु. ६. मझ कहत्तणु जिण पय भत्तिहे, पसर गउ शिप जीविय वित्तिहे-उत्तरपु० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ विक्रम की दशवीं शताब्दी का अन्तिम भाग और ११वीं शताब्दी का पूर्वाध है। क्योंकि उन्होंने अपना महापुराण सिद्धार्थं संवत्सर शक सं८८१ में प्रारम्भ किया था । उस समय मेलपाटी या मेलाडि में कृष्णराज मौजूद थे। तब पुष्पदन्त मेलपाटी में महामात्य भरत से मिले और उनके अतिथि हुए और उन्होंने उसी वर्ष में महापुराण शुरु कर उसे शक सं० ८८७ (सन् १६५) वि० सं० १०२२ में समाप्त किया । समय विचार महाकवि पुष्पदन्त बरार प्रान्त के निवासी थे। क्यों कि उनकी रचना में महाराष्ट्र भाषा के अनेक शब्द पाये जाते हैं। जिनका उपयोग उसी देश में होता है । पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है कि ग० वा० तगारे एम.ए. बी. टी. नाम के विद्वान ने पुष्पदन्त को मराठी भाषा का महाकवि लिखा है । ओर उनकी रचनाओं में से ऐसे बहुत से शब्द चुनकर बतलायें हैं, जो प्राचीन मराठी भाषा से मिलते जुलते हैं। मार्कण्डेय ने अपने 'प्राकृत सर्वस्व' में अपभ्रंश भाषा के नागर, उपनागर और वाचट तीन भेद किये है। इनमें वाचट को लाट (गुजरात) और विदर्भ ( वरार) की भाषा बतलाया है। इसमें पुष्पदत्त के ग्रन्थों की भाषा वाचट होनी चाहिये । पुष्पदन्त के समकालीन राष्ट्रकूटवंश के राजा कृष्ण तृतीय हैं। कवि पुष्पदन्य ने स्वयं अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ के समय तीसरे कडक में कृष्ण राज तृतीय का मेलपाटी में रहने का उल्लेख किया है और उसे चोड देश के राजा का शिर तोड़ने वाला लिखा है उaa जूड् भूभंग भी तोडेध्विणु चोडहो तणउसीसु । भुक्कराम रायाहिराउ, जहिअच्छा तुडिंग महाणुभाउ । तं वीणदिण्णधण कणय पयर, महि परि भमंतु मेपाणियच ॥ वे महाप्रतापी सार्वभौम रजा थे। इनके पूर्वजों का साम्राज्य उत्तर में नर्वदा नदी से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था। जिसमें सारा गुजरात, मराठी म० प्र० और निजाम राज्य शामिल था। मालवा और बुन्देलखण्ड भी उनके प्रभाव क्षेत्र में थे। इस विस्तृत साम्राज्य को कृष्ण तृतीय ने और भी अधिक बढ़ाया और दक्षिण का सारा अन्तरोप भी अपने अधिकार में कर लिया था। उन्होंने लगभग ३० वर्ष राज्य किया है। वे शक सं० ८६१ के ग्रास-पास गद्दी पर बैठे होंगे। वे कुमार अवस्था में अपने पिता के जीते जी राज्य कार्य संभालने लगे थे । पुष्पदन्त शक सं०८८१ में इन्हीं के राज्य में मेलपाटी पहुंचे थे और वे राजा कृष्ण की मृत्यु के बाद भी वहां रहे हैं। क्योंकि धारा नरेश हर्षदेव ने खोटिंग देव की राज्यलक्ष्मी को लूट लिया था। धनपाल ने अपनी 'पायलच्छी नाम माला' में लिखा है कि वि० सं० १०२६ में मालव नरेन्द्र में मान्यखेट को लूटार इसका समर्थन उदयपुर ( ग्वालियर) के शिलालेख में अंकित परमार राजाओं की प्रशस्ति से भी होता है । मेलपाटी के लूटे जाने पर पुष्पदन्त को भी उसका बड़ा खेद हुआ और उन्होंने भी उसका उल्लेख निम्न पद्य में किया है दीनानाथ धनं सदाबहुजनं प्रोस्फुल्ल वल्लोचनं । मान्यखेटपुरं पुरंदरपुरी लोहरं सुन्दरम् । धारानाथ नरेन्द्र कोप- शिखिना दग्धं विदग्ध प्रियं । adara व करिष्यति पुनः श्री पुष्पवन्सः कविः ।। शक सं० ८६४ में मान्यखेट के लूट लिये जाने के बाद भी पुष्पदन्त वहां रहे हैं । समय समाप्त हुआ जब मान्य वेट लूटा जा चुका था। इससे स्पष्ट है कि शक सं० कवि का जसहचरिउ उस ८१ से ८७४ तक १३ वर्ष १. उक्कुरड- उकिरडा (धूरा), गंजोल्लिय-गांजलेले (दुखी), विक्खिल्ल-चिखल (कीचड़ ), तुष्प- तूप (घी), के.ड फेडले (लौटाना । बोक्कड़ बोकड (बकरा ) आदि, देखो सह्याद्रि मासिक पत्र अप्रैल १९४९ का अंक, पृ० २५२, ५६ । २. विक्कमकालस्स गए अतीसुत्तरे सहस्सम्मि मालवणरिद घाडीए लुटिए मण्डखेडम्मि २७६ ३. श्री हर्षदेव इति खोट्टिगदेव लक्ष्मी, जग्राह यो मुनिगादसमप्रतापः || Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t ग्यारह्यों और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य २५५ कवि मान्यखेट में रहे, उसके बाद वे कितने वर्ष तक जीवित रहे, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता । पर मान्य बेट की लूट से कोई १५ वर्ष के लगभग सं० २०४४ में बुध हरिषेण ने अपनी धर्म परीक्षा बनाई। उसमें पुष्पदन्त का उल्लेख किया है । उस समय पुष्पदन्त काफी प्रसिद्ध हो चुके थे । इसी से उन्होंने लिखा है कि-- पुष्पदन्त जैसे मनुष्य थोड़े ही हैं उन्हें सरस्वती देवी कभी नहीं छोड़ती-सा रही है कवि ने ग्रन्थ में धवल-जयधवल ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जिनसेनाचार्य ने अपने गुरुवीरसेन द्वारा अधूरी छोड़ी हुई जयधवला टीका को शक सं० ७५३ में राष्ट्र कूट राजा अमोध वर्ष प्रथम के राज्य समय समाप्त की थी । श्रतः पुष्पदन्त उक्त संवत् के बाद हुए हैं। और हरिषेण ने अपनी धर्म परीक्षा वि० सं० १०४४ शक सं० ६०६ में समाप्त की है कवि ने अपने ग्रन्थों में तुडिगु, शुभतुंग, वल्लभ नरेन्द्र और कव्हराय नाम से कृष्णराज (तृतीय) का उल्लेख किया है । मान्यखेट को अमोघ वर्ष प्रथम ने शक सं० ७३७ में प्रतिष्ठित किया था । पुष्पदन्त ने मान्यखेट नगरी को कृष्णराज की हाथ की तलवार रूपी जलवाहनी से दुर्गम, और जिसके धवल ग्रहों के शिखर मेघावली से टकराने वाले लिखा है। इस सब विवेचन परसे पुष्पदन्त का समय शक सं० ८५० से ८६४ से बाद तक रहा प्रतीत होता है अर्थात् वे ईसा की बघवी और विक्रम की ११वीं शताब्दी के पुर्वार्ध के विद्वान् हैं । रचनाएं afa पुष्पदन्त की तीन रचनाएं मेरे सामने हैं- महापुराण, नागकुमार चरित्र और जसहर चरिउ । महापुराण - दो खण्डों में विभाजित है- आदिपुराण और उत्तरपुराण आदिपुराण में ३७ संधियां हैं जिनमें आदि ब्रह्मा ऋषिभदेव का चरित वर्णित है। और उत्तरपुराण की ६५ सन्धियों में अवशिष्ट तेईस तीर्थकरों, हुश्रा है । १२ चक्रवर्तीयों, नवनारायण, नव प्रतिनायण और बलभद्रादि त्रेसठ शलाका पुरुषों का कथानक दिया जिसमें रामायण और महाभारत की कथाएं भी संक्षिप्त में आ जाती हैं। दोनों भागों की कुल सन्धियां एक सौ दो हैं, जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या वीस हजार से कम नहीं है। महापुरुषों का कथानक अत्यन्त विशाल है और अनेक जन्मों की अवान्तर कथाओं के कारण और भी विस्तृत हो गया है। इससे कथा सूत्र को समझने एवं ग्रहण करने में कठिनता का अनुभव होता है । कथानक विशाल और विशृंखल होने पर भी बीच-बीच में दिये हुए काव्यमय सरस एवं सुन्दर आल्यानों से वह हृदय ग्राह्य हो गया है। जनपदों, नगरों और ग्रामों का वर्णन सुन्दर हुआ है । कवि ने मानव जीवन के साथ सम्बद्ध उपमाओं का प्रयोग कर वर्णनों को अत्यन्त सजीव बना दिया है। रस प्रौर अलंकार योजना के साथ पद व्यंजना भी सुन्दर बन पड़ी है साथ ही अनेक सुभाषितों वाग्वाराओं से ग्रन्थ रोचक तथा सरस बन गया है । ग्रन्थों में देशी भाषा के ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनका प्रयोग वर्तमान हिन्दी में भी प्रचलित है । कवि ने यह ग्रन्थ सिद्धार्थ संवत् में शुरू किया और क्रोधन संवत्सर की प्राषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन शक संवत् ८७ (वि० सं० १०२२) में समाप्त किया। उक्त ग्रन्थ राष्ट्रकूट वंश के अन्तिम सम्राट कृष्ण तृतीय के महामात्य भारत के अनुरोध से बना है। ग्रन्थ की संधि पुष्पकाओं के स्वतंत्र संस्कृतपद्यों में भरत प्रशंसा और मंगल कामना की गई है। थे । महामात्य भरत सब कलाओं और विद्यार्थीों में कुशल थे, प्राकृत कवियों की रचनाओंों पर मुग्ध उन्होंने सरस्वती रूपी सुरभिका दूध जो पिया था । लक्ष्मी उन्हें चाहती थी, वे सत्य प्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे १. गुप्त रात्रि मासु बुम्बइ, जो सरसइए कयात्रि ण मुच्चइ ॥ धर्म परीक्षा प्रशस्ति २. जैट्टा विउ सुत्तउ सीह केरण - सोतेहुए सिंह को किसने जगाया। मा भंगुवर मरण जीविउ-अपमानित होकर जीने से मत्यु भली है । को तं सइ शिडालs लिहिउ — मस्तक पर लिखे को कौन मेंट सकता है । ३. कपड = कपड़ा, अवसे अवश्य हट्ट हाट (बाजार ) तोदे थोंद (उदर) लीह रेखा (लोक), चंग - अच्छा, डरभव, डाल =शोखा, लुक्क लुकना (पिना) आदि अनेक शब्द हैं जिन पर विचार करने से हिन्दी के विकास का पता चलता है। ४. कोहरण संवार आसाउद, दहमई दियहि चंद रूढ । - उत्तर पुराण प्रशस्ति । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्रावीन इतिहास-भाग २ युद्धों का बोझ ढोते-होते जनके कन्धे घिस गये थे, उन्होंने अनेक युद्ध किये थे। के कृष्णराज के सेनापति और दान मंत्री भी थे। वे कवियों के लिये कामधेन, दीन-दुखियों की प्राशा पूरी करने वाले, चारों ओर प्रसिद्ध, परस्त्री पराङ्मुख, सच्चरित्र उन्नतमति प्रौर सुजनों के उद्धारक थे। उनका रंग सांवला था, उनकी भुजाएं हाथी को सूंड के समान थीं, अङ्ग सुडौल नेत्र सुन्दर और वे सदा प्रसन्न मुख रहते थे। भरत बहुत ही उदार और दानो थे। भरत ने पुष्पदन्त से महापुराणको रचना कराकर अपनी कोर्ति को चिरस्थायी बनाया। पाय कुमार चरिउ (नाग कुमार चरित)- यह एक छोटा-सा खण्ड काव्य है। इसमें हसन्धियां हैं। जिनमें पंचमी व्रत के उपवास का फल बतलाने वाला नाग कुमार का चरित अंकित किया गया है, रचना सुन्दर-प्रोढ़ और हृदय-द्रावक है और उसे कवि ने चित्रित कर कण्ठ का भुषण बना दिया है। ग्रन्थ में तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का भी वर्णन है । ग्रन्थ की रचना भरत मन्त्री के पुत्र नन्न को प्रेरणा से हुई है। नन्न को यशोधर चरित में 'वल्लभ नरेन्द्र गृह महत्तर'-वल्लभ नरेन्द्र का गृह मन्त्री लिखा है । नन्न अपने पिता के सुयोग्य उत्तराधिकारी थे और वे कवि का अपने पिता के समान आदर करते थे। वे प्रकृति से सौम्य थे, उनकी कीर्ति सारे लोक में फैली हुई थी। उन्होंने जिन मन्दिर बनवाए थे। वे जिन चरणों के भ्रमर थे, और जिनपूजा में निरत रहते थे, जिन शासन के उद्धारक थे, मुनियों को दान देते थे, पापरहित थे, बाहरी और भोतरी शत्रयों को जीतने वाले थे, दयावान् दीनों के शरण राजलक्ष्मी के श्रीटा सरोबर, मामाही . निया, और तमाम विद्वानों के साथ विद्या-विनोद में निरत एवं शुद्ध हृदय थे।" १. ........................." पोसेसकला विभणाणकुसलु । पायपकइ कव्वरसावउबु-संपीय सरासह सुरहि दुबु ।। कमलच्छु अमच्छरु सच्चसंधु, रणभर घुर धरणग्घुठलंभु । २. सोयं श्री भरतः कलंक रहितः कान्तः सवत्सः शुचिः । सज्योतिर्मनिराकरो प्लुतइवानयो गुणभासते। वंशो येन पवित्रतामिह महामात्यायः प्राप्तवान् । श्रीमदल्लभराज शक्तिकटके यश्चाभवनायकः ।। प्र० पलो०४६ है हो भन्न प्रचण्डावनि पति भवने त्याग संस्थान कर्ता, कोयं श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । पन्यः पालेय पिण्डोपमधषलवशो धौतधात्रीतलान्तः । स्थातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पान्य जानासि नो त्वम् ॥प्र० श्लो० १५ ३. सविलास विलासिणि हियहयेणु सुपसिद्ध महाकइ कामधे । काणीपदीएपरिपूरियासु जसपसरपसाहिय दसदिसासु । पर रमणि परम्मुह सुद्धसीलु उपायमा-सुयाधरणलीलु ।। ४. श्यामरुचि नयन सुभगं लावण्य प्रायमंगमादाय । भरतच्छलेन सम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ।। प्र० श्लो० २० ५. सुहतुगभवरणवाबार भार रिणव्यहण वीरधवलस्स । कोंडिल्लगोत्तणहससहरस्स पयईए सोमस्स ।।१ कुंद वागम्भ समुभवास सिरि भरत भट्टतणयस्स । जस पसर भरिय भुवणोयरस्स जिणचरण कमल भसलस्य ।।२ अणवरय रइय वरजिरणहरस्स जिणभवरणपूय रिणरमस्स । जिण सासणायमुशारणस्स मुणिदिण्णदाणस्स ॥३ भागकु. ५० Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २५७ . पुष्पदन्त ने एक प्रशस्ति पद्य में नन्न को उनके पुत्रों के साथ प्रसन्न रहने का आशीर्वाद दिया है। पर उनके नामों का उल्लेख नहीं किया। जसहरपरिउ यह भी एक खण्ड काव्य है, जिसकी चार सन्धियों में राजा यशोधर और उनकी माता चन्द्रमती का कथानक दिया हुआ है। जो सुन्दर और चित्ताकर्षक है। राजा यशोधर का यह चरित इतना लोकप्रिय रहा है कि उस पर अनेक विद्वानों ने संस्कृत अपभ्रश और हिन्दी भाषा में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। सोमदेव, वादिराज. वासवसेन सकलकीर्ति, श्रुतसागर, पानाभ, माणिकायदेड, पूर्ण देला, कबिरइन, सोमकीर्ति, विश्वभूषण और क्षमाकल्याण आदि अनेक दिगम्बर, श्वेताम्बर विद्वानों ने ग्रन्थ लिखे हैं। इस ग्रन्ध में सं० १३६५ में कुछ कथन, राउल ओर कौल का प्रसंग, विवाह और भवांतर पानीपत के वोसल साहु के अनुरोध से कन्हड के पुत्र गन्धयं ने बनाकर शामिल किया था। यह ग्रन्थ भी भरत क पुत्र और बल्लभनरेन्द्र के गृहमन्त्री के लिये उन्हीं के महल में रहते हए लिखा गया था। इसी से कवि ने प्रत्येक संधि के अन्त में 'णण्ण कण्णाभरण' विशेषण दिया है। इस ग्रन्थ में यूद्ध और लटके समय मान्यखेट की जो दुर्दशा हो गई थी-वहाँ दुष्काल पड़ा था, लोग भूखों मर रहे थे, जगह-जगह नर कंकाल पड़े हुए थे, यह लट शक सं० ८१४ । वि० सं० १०२६ में हुई थी 1 कवि ने उस समय मान्यखेट की दुर्दशा का चित्रण किया है। जान पड़ता है कवि उस समय नन्न के ही महल में रहते थे। कवि उड्डा कवि उड्ढा-संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान् और कवि थे। यह चित्तौड़ के निवासी थे। इनके पिता का नाम श्रीपाल था । इनकी जाति प्रारबाट पोरवाड़) थी। यह पोरवाड़ जाति के वणिक थे। इनकी एक मात्र कृति संस्कृत पंचसंग्रह है, जो प्राकृत पंचसंग्रह की गाथानों का अनुवाद है। माथुर संघ के प्राचार्य अमित पति ने वि० सं० १०७३ में संस्कृत पंचसंग्रह की रचना की है। दोनों पंचसंग्रहों का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि दोनों में अत्यधिक समानता है। पमितगति ने हुडडा के पंचसंग्रह को सामने रखकर अपना पंचसंग्रह बनाया है। अमितगति के पंचसंग्रह में ऐसे भी पद्य उपलब्ध होते हैं जिसमें थोड़ा-सा शब्द परिवर्तन मात्र पाया जाता है। कुछ ऐसे भी पाये जाते हैं जिनका रूपान्तरित होने पर भी भावार्थ वही है। उसमें कोई अन्तर नहीं पाता । अमितगति के पंचसंग्रह से डड्ढा के पंचसंग्रह में कुछ वैशिष्टय भी पाया जाता है। उडदान में जहां प्राकृत गाथाओं का अनुवाद मात्र है वहां अमितगति के पंचसंग्रह में अनावश्यक अतिरिक्त कथन भी उपलब्ध होता है। कई स्थलों पर अमितगति के पंचसंग्रह की अपेक्षा इड्ढा के पंचसंग्रह की रचना अधिक सुन्दर हुई है। डडढा को रचना प्राकृत मूलगाथात्रों के अधिक समीप है। वह पद्यानुवाद मूलानुगासी है। कलि मल कलंक परिवज्जियस्स जिय दुविह बहरिणियस्स । कारुण्णकंदणष जलहरम्स दीण जण सरणस्स ॥४ शिवलच्छी कीला सरवरस्स वाएसरि रिणवासस्स । गिस्सेसबिउस विज्जाविणोय गिरयस्स सुद्ध हिययस्स ।।५-नागकुमार परित प्रशस्ति १. स श्रीमान्निह भूतले सह सुतर्नन्नाभिधो नन्दतात् –यशोधर०२ २. श्री चित्रकूट वास्तव्य प्राग्वाटवरिगजा कृते । श्रीपाल सुत इड्डेए स्फुटः प्रकृति संग्रहः ।। ३. वचनहेतुभीः रूपः सर्वेन्द्रियभयाव है। जुगुप्सामिश्च बीभत्र नैव क्षायिकरक चलेत् ।।२२३ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ समय- अमितगति ने अपना पंचसंग्रह वि० सं० १०७३ में बनाकर समाप्त किया है, अतः उड्ढा की रचना उससे पूर्ववर्ती है। डड्ढा ने अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार का उद्धरण दिया है। श्राचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है । अतः डढ्ढा अमृतचन्द्र के बाद के विद्वान् हैं। चूंकि डड्ढा के पंचसंग्रह का एक पद्य जयसेन के धर्मरत्नाकर में उध्दृत पाया जाता है। धर्मरत्नाकर का रचना काल सं० १०५५ हैं । अतः उड्ढा का पंचसंग्रह १०५५ से पहले बना है। इससे वह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। ब्रह्मदेव की द्रव्य संग्रह की गाथा ४२ की टीका पृ० १७७ में उड्ढा के पंचसंग्रह के २२६ और २३० नम्बर के पद्य पाये जाते हैं। इससे पंचसंग्रह में द्रव्य संग्रह की टीका से पहले बन चुका था । २५८ पंडित प्रवचनसेन पंडित प्रवचन सेन - इनका उल्लेख लाड बागडगण श्रीर बलात्कारगण के विद्वान् श्रीनन्धाचार्य सत्कवि के शिष्य थे श्रीचन्द्र मुनि ने पंडित प्रवचनसेन से पद्मचरित सुनकर उसका टिप्पण धारा नगरी में सं० १०८७ में बनाया था । इससे स्पष्ट है कि पंडित प्रवचनसेन उस समय धारा में ही निवास करते थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है । इन्होंने किन ग्रन्थों की रचना की यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । शान्तिनाथ शान्तिनाथ - इसके पिता गोविन्दराज, भाईकन्नपायें और गुरु वर्धमान व्रती थे। जिनमताम्भोजिनी राजहंस, सरस्वती मुख मुकर, सहज कवि, चतुर कवि, निस्सहाय कवि श्रादि इनके विरुद हैं। शक सं० ६६० के गिरिपुर के १३६ वें शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह भुवनं कमल्ल (१०६८-१०७६ तक) पराजित लक्ष्म नृपति का मंत्री था। इसके उपदेश से लक्ष्य नृपति ने बलिग्राम में शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर बनवाया था। इस लेख में कवि के 'सुकुमार चरित' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है । कवि का समय भी सन् १०६८ से १०७६ तक सुनिश्चित है । इन्द्रकोfa इन्द्रकीर्ति — कौण्डकुन्दान्वय देशी गण के आचार्य थे। इनकी अनेक उपाधियां थीं। को गलिवंजिबेल्लारी के शक सं० ९७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) के लेख में, जो चालुक्य सम्राट त्रैलोक्य मल्ल के राज्य काल का है। इस मन्दिर का निर्माण गंगवंश के राजा दुर्विनीत ने किया था। लेख के समय श्राचार्य इन्द्रकीर्ति ने मन्दिर को कुछ दान दिया था। (इण्डियन एण्टीक्वेरी ५५ सन् १९२६ ० ७४) गुणसेन पंडितदेव प्रस्तुत गुणसेन पंडित द्रविल गण के नन्दिसंघ तथा महामरुङ्गलाम्नाय के गुरु पुष्पसेन व्रतीन्द्र के शिष्य थे । आगम रूपी अमृत के गहरे समुद्र थे । व्याकरण श्रागम और तर्क में निपुण थे । यह मुल्लूर के निवासी थे। और पोय्सल के गुरु थे । पोय्सलाचारि के पुत्र माणिक पोसलाचारि ने यह बसदि बनवाई और शक वर्ष ६८४ शुभकृत संवत्सर में फाल्गुन शुद्ध पंचमी बुधवार रोहिणी नक्षत्र में भगवान की प्रतिष्ठा की तथा तिरुनन्दीवर के काल में दान देकर गुणसेन पंडितदेव को सौंप दिया। लेख चूंकि शक सं० ६८४ सन् १०६२ ई० का है। इन्होंने सन् १०५० के लगभग धर्म के तौर पर 'नागकूप' नाम का एक कुवा मुल्लूर ग्राम के वास्ते खुदवाया था (एपि ग्रा० इंडिका कु इनकृप्सन्स नं० ४२ ) ( लेख नं० २०२ पृष्ठ २८४ ) शक सं० ६८० (१०५८ ई०) में मुल्लूर का यह शिलालेख लिखा गया । इसमें लिखा है कि राजेन्द्र गाल्व ने उस वस्ति के लिये दान दिया जो उसके पिता ने बनवाई थी । राजाधिराज की माता पोञ्चरसि ने गुणसेन को दान दिया । ( कुर्ग इन्स्कृप्सन्स १९१४ नं० ३५) शक सं० ६८६ (१०६४ ई०) में मुल्लूर का यह शिला लेख उत्कीर्ण हुआ, जिसमें गुणसेन की मृत्यु का Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य उल्लेख है । ( कुर्ग इनकृप्सन्स सन् १९६४० ३४ गोपनन्दी गोपनन्दि-- यह मूलसंध, देशिय गण और वक्रगच्छ के देवेन्द्र सिद्धान्त देव के समकालीन शिष्य थे । यह चतुखदेव इसलिये कहलाये, क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके आठ-आठ दिन के उपवास किये थे । प्रस्तुत गोपनन्दीश्रद्वितीय कवि और नैयायिक थे, इनके सम्मुख कोई वादी नहीं ठहर सकता था । इन्होंने घूट जैस विद्वान् की जिह्वा को भी बन्द कर दिया था। परम तपस्वी, वसुधैव कुटुम्ब, जैन- शासनाम्वर के पूर्णचन्द्र, सकलागमवेदी और गुणरत्न विभूषित थे । देशीय गण के अग्रणी थे और व्रतीन्द्र थे । इनके राधमां धाराधिप भोजराज द्वारा पूजित प्रभाचन्द्र थे । होयसल नरेश एरेयंग ने शक सं० १०१५ सन् १०६३ (वि० सं० १९५०) में उक्त गोपनन्दी को जीर्णोद्धार आदि कार्यों के लिये दो ग्राम दान में दिये थे। 1 २५६ ( वृषभनन्दी -- जीतसार समुच्चय के कर्ता ) यह नन्दनन्दी के वत्स और श्रीनन्दी के चरण कमलों के भ्रमर थे । गुरुदास भी उन्हीं के शिष्य थे । जिन्हें तीक्ष्णमति श्रर 'सरस्वतीसुनु' प्रकट किया है। जैसा कि ग्रन्थ प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है ! श्रीनन्वि नन्दिवत्सः श्रीमन्दी गुरुपदाज षट्चरणः । श्रीगुरुवास नंधात्तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वतीसूनुः ॥५॥ वृषभनन्दी ने उक्त नंद नंदी मुनिराज को शास्त्रार्थज्ञ, पंक धारी, तपांक सिद्धांतज्ञ, सेव्य और गणेश जैसे विशेषणों के साथ स्मृत किया है। इनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है, परन्तु उनके एक प्रमुख शिष्य गुरुदासाचार्य भी थे। तन्दनन्दी के शिष्यों में अपने से पूर्ववर्ती दो गुरुभाइयों श्री कीति और श्री नन्दी का नामोल्लेख किया है । और अपने उत्तरवर्ती एक गुरु भाई हर्षनन्दी का अनुरूप में उल्लेख किया है। जिसने ग्रन्थ की सुन्दर प्रतिलिपि तैयार की थी। वृषभनन्दी ने कौण्डकुन्दाचार्य के जीतसार का सम्यक् प्रकार अवधारण किया था, इसी कारण उन्होंने अपने को 'जीतसाराम्बुपायी' (जीतसार रूप श्रमृत का पान करने वाला ) प्रकट किया है। कुन्द कुन्दाचार्य का यह ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण रूप में मान्यखेट में सिद्धान्तभूषण नाम के संद्धान्तिक मुनिराज ने एक मंजूषा में देखा था । और प्रार्थना करके प्राप्त किया था, और उसे पाकर वे सभरी स्थान को चले गए थे। उन्होंने वृषभनन्दी के हितार्थ उसकी व्याख्या की थी, जिसका जीतसार समुच्चय में अनुसरण किया गया है। श्रा० श्रभयनन्दी भन्दी विबुधगुणनन्दी के शिष्य थे। यह अपने समय के समस्त मुनियों के द्वारा मान्य विद्वान् थे । इन्होंने जैनधर्म के विषय में परम्परागत श्रवर्णवादों—मिथ्या प्रवादों को दूर किया था। इनके द्वारा जैन धर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी। ये समुद्र की भांति गंभीर एवं सूर्य की तरह तेजस्वी थे । अत्यन्त गुणी और मेधावी थे। वे भव्य जीवों के एक मात्र बन्धु तथा उद्बोधक थे। जैसा कि चन्द्रप्रभचरित प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :"मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । 1 श्रभवद् अभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी, स्वमहिमजितसिन्धुर्भव्य लोकबन्धुः || ” १. जैन शिलालेख सं० भाग १ पृ० ११७ २. (एक ग्राफिया कर्णाटका जि० ५, ३. अनुज श्री हर्ष नंदिना सुलिख्य जीत सार शास्त्रज्वलोदृधु तं ध्वाजापते (जोत समुच्चयसार अजमेर भंडार प्रति) Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ इनके शिष्य वीर नन्दी थे, जो चन्द्रप्रभचरित के कर्ता हैं। इनके दूसरे शिष्य इन्द्रनन्दी भी थे । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अभयनन्दी को अपना गुरु माना है और उन्हें नमस्कार किया है, णमिण अभयदि' 'अभयदि वच्छेण' जैसे वाक्यों द्वारा अभयनन्दि का स्पष्ट उल्लेख किया है। इनका समय विक्रम को दशवीं शताब्दी का उपान्त्य और ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण है । २६० वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती - नन्दिसंघ और देशीय गण के श्राचार्य थे। यह मुनि विबुध गुणनन्दि के प्रशिष्य और अभयनन्दि के शिष्य थे । जो मुनियों के द्वारा बन्दनीय थे | और जिन्होंने मिथ्याप्रवाद को विनष्ट किया था । सम्पूर्ण गुणों में समृद्ध थे, और भव्य लोगों के अद्वितीय बन्धु थे। इनके शिष्य वीरनन्दी भव्य जन रूपी कमलों को विकसित करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी, गुणों के धारक थे और जिन्होंने सम्पूर्ण वाङमय को अधीन कर लिया था। वे कुतकों को नाश करने वाले प्रख्यात कीर्ति थे ! भव्याम्भोज षिबोधनोद्यतमते भास्वत्समान त्विषः, शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनम्बीत्यभूत । स्वाधीना खिल वाड.मयस्य भुवनप्रख्यात कीतः सता, संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काङ्क शा ॥४ एक गाथा में बतलाया गया है कि जिनके चरण प्रसाद से वीरनन्दी इन्द्रनन्दी शिष्य अनन्त संसार से पार हो गए उन अभयनन्दी गुरु को नमस्कार है । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती ने भी इन्द्रनन्दि को अभयनन्दि और वीरनन्दी को अपना गुरु बतलाया है। प्रभयनन्दी के चार शिष्य थे । वीरनन्दी, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दी श्री नेमिचन्द्र नेमिचन्द्र ने अपने को यदि का शिष्य सूचित किया है। मिचन्द्र ने अभयनन्दी के साथ इन्द्रनन्दि गुरु को भी नमस्कार किया है और श्रुतसागर का पार करने वाला विद्वान् सूचित किया है । वीरनन्दी विशिष्ट दार्शनिक और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। आपकी एकमात्र कृति चन्द्रप्रभचरित काव्य है । इस ग्रन्थ की कथा वस्तु का श्राधार उत्तर पुराण है। बीर नन्दी ने उत्तर पुराण के अनुसार ही आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के चरित्र का चित्रण किया है । यह ग्रन्थ १८ सर्गों में विभक्त है। जिसकी श्लोक संख्या १६९१ है । अन्तिम प्रशस्ति के ६ श्लोक उससे भिन्न हैं । यह काव्य शृंगार, वीर, बीभत्स, भयानक और शान्तादि रसों तथा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्सर न्यास और अतिशयोक्ति आदि अलंकारों से अनुस्यूत है। रचना सरस और प्रसाद गुण से भरपूर है । कृति में कवि ने उसके रचना काल आदि का कोई उल्लेख नहीं किया, इस कारण ग्रन्थ के रचना काल का निश्चित उल्लेख तो नहीं किया जा सकता । किन्तु आचार्य वादिराज ने अपने पार्श्वनाथ चरित में (शक सं० ६४७ सन् १०२५) में चन्द्रप्रभचरित और उसके रचयिता वीरनन्दी का स्मरण किया है। इससे स्पष्ट है कि सन् १०२५ (वि० सं० १०८२ ) से पूर्व चन्द्रप्रभचरित की रचना हो चुकी थी। अब यह विचारणीय है कि वह कितने पहले हुई होगी । वह वि० सं० १०२५ के लगभग की रचना जान पड़ती है। अर्थात् वे ११वीं शताब्दी के पूर्वाधं के विद्वान् हैं । १. स तच्छयोज्येष्ठः शिशिर कर सोम्यः समभवत् । प्रविख्यात नाम्ना विबुधगुण नन्दीति भुवने ॥ चन्द्र प्रभचरित प्रशस्ति २. जस्य पाय पसाएण संतसंसार जनहि मुत्तिष्णे । ३. इदि मिबंद मुशिणा अभ्यसुदेश भयरदि अच्छे ४. रामिकण अभयदि सुदसायर पारमिदं गंदि गुरु । बरवीरनंदिशाहं पडीं पच्चयं बोच्छं ॥ ७६५ ५. चन्द्र प्रभासि राम्वद्धा रस पुष्ट मनः प्रिया कुमद्वतीय नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥ ३० -- पार्श्वनाथ चरिते वांदिराज वीरिदंदि वच्छो नमामि तं प्रभयांदि गुरु । रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहु सुदायरिया ॥ गो० क० ४३६ त्रिलोकसार Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधारहवीं औरबारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्रस्तुत नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंप देशीयगण के विद्वान अभयनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने स्वयं अपने को अभयनन्दी का शिष्य सूचित किया है। अभयनन्दी उस समय के बड़े सैद्धान्तिक विद्वान थे । उनके वीरनन्दी, और इन्द्रनन्दी भी शिष्य थे। ये दोनों नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गुरुभाई धे। इस कारण उन्होंने उनको भी गुरु तुल्य मानकर नमस्कार किया है और उनका अपने को शिष्य भी बतलाया है । नेमिचन्द्र ने अपने एक गुरु कनकनंदी का उल्लेख किया है । और लिखा है कि उन्होंने इन्द्रनन्दी के पास से सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सत्वस्थान' की रचना की है।३ इस सत्वस्थान प्रकरण को उन्होंने गोम्मटसार कर्मकाण्ड के तीसरे सत्वस्थान अधिकार में प्राय: ज्यों का त्यों अपनाया है। यह ग्रन्थ "विस्तरसत्वत्रिभंगी नाम से जैन सिद्धान्त भवन पारा में विद्यमान है। मेरे संग्रह की तीन पत्रात्मक प्रति में इसका नाम 'विशेषसत्ता त्रिभंगी' दिया है । नेमिचन्द्र गंमवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधान मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय के समकालीन थे। यह अत्यन्त प्रभावशाली और सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने गोम्मटसार की ३९७ गाथा में लिखा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती षट् खण्ड पृथ्वी को अपने वासनाधीन परत है, इसी कारगने मति चक्र से षट्, खण्डागम को सिद्ध कर अपनी इस कृति में भर दिया है । संभवत: इसी सफलता के कारण उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त हई हो। चामुण्डराय अजित'सेनाचार्य के शिष्य थे। चामुण्डराय ने नेमिन्द्र का भी शिष्यत्व ग्रहण किया था । चामुण्डराय को प्रेरणा से नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार की रचना की थी। मोम्मट चामुण्डराय का घरुनाम था। जो मराठी तथा कन्नड़ो भाषा में प्रायः उत्तम, सन्दर, प्राकर्षक, एवं प्रसन्न करने वाला जैसे अर्थों में व्यवहुत होता है | और राय उनकी उपाधि थी। चामुण्ड राय के इस 'गोम्मट' नाम के कारण ही उनके द्वारा बनवाई हुई बाहुबली की मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' तथा 'गोम्मटदेव' जैसे नामों से प्रसिद्धि को प्राप्त हुई है। उन्हीं के नाम की प्रधानता को लेकर अन्य का नाम 'गोम्मटसार' दिया गया है। जिसका अर्थ गोम्मट के लिये खींचा गया पूर्व के (षट् वण्डागम तथा धवलादि) ग्रन्थों का सार । इसी प्राशय को लेकर ग्रन्थ का 'गोम्मदसंग्रह सूत्र' नाम दिया गया है। जैसा कि कर्मकाण्ड की निम्न गाथा से प्रकट है गोम्मट-संग्रहसत्तं गोम्मट सिहस्वरि गोम्मट जिणो य । गोम्मटरायविणिम्मिय-वक्खिण कुक्कुडजिणो जयउ॥९६८ इस गाथा में तीन कार्यों का उल्लेख करते हुए उन्हीं का जयघोषण किया गया है। इन्हीं तीन कार्यों में बामडराय की ख्याति है और वे हैं-१ गोम्मट संग्रह सूत्र २ गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कुटजिन । गोम्मटसंग्रह सत्र का अर्थ गोम्मट के लिये किया गया सार रूप संग्रह ग्रंथ गोम्मटसार । गोम्मट जिन पद का अभिप्राय नेमिनाय भगवान की उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनीलमणि की प्रतिमा से है जिसे गोम्मटराय ने बनवाकर गोम्मट-शिखरचन्द्रगिरि पर स्थित अपने मंदिर (बस्ति) में स्थापित किया था । और जिसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वह मटायविणिमिसहरूवरि गोमनम्न माथा से , - १. इदि रणेमिचंद मुणिणाणप्पसु देणाभयदि वच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमंतु बहु सदाइरिपा । २. मिऊण अभवणंदि सुद-सापर पारगिदणदिनुरु । बरवीरणदिपाहं पयडीणं पश्चय वोच्छं ॥७८५-गो.क. णमह गुणरयणभूसप सिद्धतामिय महद्धि भवभाव । वर बोरणंदिचंदं हिम्मलगुण मिददि गुरु ॥८७६ गो का वीरिदणंदि वच्छेण प्पसुदेणभयणंदि सिस्सेण। दसणचरित्तलद्धी सु सूयिया मिचदेश ||६४ लब्धिसार ३. पर इदणदि गुरुणो पासे सोऊण सबल सिद्धतं । सिरिकरणयदि गुरुणा सत्तट्ठाद्धं समुदिळें ॥३९६ गो० के. ४. जह चक्केशाय पक्की छपखंड साहियं अविघेण । तह मइचक्केण मया छक्खई साहियं सम्मं ॥३९५ यो का १. देखो, मनेकान्त वर्ष ४ किरण ३-४ में डा. ए. एन. उपाध्ये को गाम्पट' नामक लेख Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ पहले चामुण्डराय वस्ति में मौजद थी। परन्तु बाद को मालम नहीं कहां चली गई। उसके स्थान पर नेमिनाथ की एक-दूसरी पांच फुट की उन्नत प्रतिमा अन्यत्र से लाकर विराजमान कर दी गई है, जो अपने लेख पर से एचन के बनवाए हुए मन्दिर की मालूम होती है। और दक्षिण कुक्कुट जिन' बाहुबली की प्रसिद्ध एवं विशाल उस मूर्ति का ही नामान्तर है। यह नाम अनुश्रुति अथवा कथानक को लिये हुए है । उसका तात्पर्य इतना ही है कि पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं की शरीराकृति जैसी मूर्ति बनवाई थो, जो कुक्कुट सपों से व्याप्त हो जाने के कारण उसका दर्शन दुर्लभ हो गया था। उसी के अनुरूप यह मूर्ति दक्षिण में दिध्यगिरि पर स्थापित की गई है और उत्तर की उस मूर्ति से भिन्नता बतलाने के लिये हो इसे दक्षिण विशेषण दिया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो गई कि गोम्मट बाहुबली का नाम न होकर चामुण्डराय का घरु नाम था। और उनके द्वारा निर्मित होने के कारण मति का नाम भी 'गोम्मटेश्वर या गोम्मट देव' प्रसिद्ध हो गया। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय द्वारा निर्मापित श्रवण वेलगोला में स्थित गोम्मट स्वामी बाहुबली की अद्भुत विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा चैत्र शुक्ला पंचमी रविवार २२ मार्च सन् १०२८ में की थी। यह मूर्ति अपनी कलात्मकता और विशालता में विश्व में अतुलनीय है। उसके दर्शन मात्र से मात्मा अपूर्व प्रानन्द को पाता है। मूर्ति अत्यन्त दर्शनीय है। रखना आचार्य नेमिचन्द्र सि.चक्रवर्ती की निम्न कृतियां प्रकाशित हैं। गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार त्रिलोकसार। गोम्मटसार-एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है, जिसमें जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, और वर्गणाखण्ड, इन पांच विषयों का वर्णन है। इस कारण इसका प्रपर नाम पंचसंग्रह भी है । गोम्मटसार ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है । जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड । जीवकाण्ड-में ७३३ गाथाएँ है जिसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदहमार्गणा पोर उपयोग' ! इन बीस प्ररूपणानों द्वारा जीव की अनेक अवस्थाओं और भावों का वर्णन किया गया है। अभेदविवक्षा से इन बीस प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव गुणस्थान और मार्गणा इन दो प्ररूपणामों में हो जाता हैं क्योंकि मार्गणाओं में ही जीबसमास, पर्याप्ति, प्राण संज्ञा और उपयोग इनका अन्तर्भाव हो सकता है। इसलिये दो प्ररूपणएं कही हैं। किन्तु भेदविवक्षा से २० प्ररूपणाएं कही गई हैं। कर्मकाण्ड-में १७२ गाथाएं हैं, जिनमें प्रकृति समुत्कीर्तन, बन्धोदय, सत्वाधिकार, सत्वस्थानभंग, विचलिका स्थान समुत्कीर्तन, प्रत्ययाधिकार, भावचूलिका और कर्म स्थिति रचना नामक नौ अधिकारों में कर्म को विभिन्न अवस्थामों का निरूपण किया गया है। टीकाएं--गोम्मटसार ग्रन्थ पर छह टीकाएं उपलब्ध हैं। एक अभयचन्द्राचार्य की संस्कृतटीका 'मन्दप्रबोधिका जो जीवकापड की ३८३नं० की गाथा तक ही पाई जाती है, शेष भाग पर बनी या नहीं; इसका कोई निश्चय नहीं । दूसरी, केशववर्णी की, जो संस्कृत मिश्रित कनडी टीका जीवतत्त्व प्रबोधिका, जो दोनों काण्डों पर निवार को लिये हए है। इसमें मन्दप्रबोधिका का पूरा अनुसरण किया गया है। तीसरी, नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका जीवतत्त्व प्रदीपिका है, जो पिछली दोनों टीकामों का गाढ़ अनुसरण करती है। चौथी, टीका प्राकृतभाषा को है जो अपूर्ण है और अजमेर के भट्टारकीय भण्डार में अवस्थित है ।पाँचवी पंजिका टीका है जिसका उल्लेख अभयचन्द्र को मन्द प्रबोधिका में निहित है। इस पंजिका की एक मात्र उपलब्ध प्रति मेरे संग्रह में है, जो सं० १५६० की १. गुण जीवा पज्जत्ती पारणा सण्याम मग्यणाओ य । उनओयो वि य कमसो.वीस तु परूवणा भरिणदा ॥२॥ २. 'अथवा सम्र्धन गर्भोपपादानाथित जन्म भवनीति गोम्मट पंचिका कारादीनामभिप्रायः। गो० जी० मन्दप्रबोधिका टीका, गा. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य २६३ लिखी हुई है । और जिसका प्रमाण पांच हजार श्लोक जितना है, जिसकी भाषा प्राकृत और संस्कृत मिश्रित है । 3 उसका मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य इस प्रकार है- पमित्र जिणिवचंद गोमम्मट संगह समग्ग सुत्ताणं । केसिपि भणिस्सामो विवरणमण्णे समासिज्ज || तत्थ तावसि सुताणमादिए मंगलभणिस्स माणट्ठविसय पद्दण्णा करण व कमस्त सिद्धिमि च्चाइ गाहा सत्तस्तत्थो उच्चणेणट्ठ विवरणं कहिस्सामो ॥ इस पंजिका के रचयिता है। इस प्रकार दी है श्रुतिकीर्ति, मेघचन्द्र, चन्द्रकीति श्रौर गिरिकोर्ति जैसा कि उसके पद्यों से प्रकट है: सो जयउ दासपुज्जो सिषासु पुज्जासु पुज्ञ्ज-पय पउमो । पत्रिमल वसु पुज्ज सूदो सुदकित्ति पिये-पियं वादि ॥ १ समुदिय वि मेघचंदपसाव खुव कि तियरो | जो सो किसि भणिज्जह परिपुज्जिय चंद फितिसि ॥२ जेणासेस वसंशिया सरमई ठाणंत रागोहणी । जं गाढं परिऊिण मुहया सोजत मुद्दासई । जस्सा पुरुष गुणप्पभूव रयणा लंकार सोहग्गिणा । जाता सिरिगिरिवित्तिदेव जविणा तेजसि गंथो को ॥ ३ ॥ इस पंजिका प्रमाण पांच हजार श्लोक जितना बतलाया है ? यह पंजिका प्रकाशन के योग्य है। और छठी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका है, जिसके कर्ता पण्डित प्रवर टोडरमल हैं यह टीका विशाल है, और ढूंढारी भाषा हिन्दी में लिखी गई है। लम्बिसार अपणासार - इसमें बतलाया गया है कि कर्मों को काटकर जीव कैसे मुक्ति प्राप्त कर सकता अथवा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिति हो सकता है। इसका प्रधान प्राधार कसाय पाहुड और उसकी जयधवला टीका है । इसमें तीन अधिकार हैं- दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि, और क्षायिक चारित्र । प्रथम अधिकार में पांचलब्धियों के स्वरूप आदि का वर्णन है, जिनके नाम हैं- क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें से प्रथम चार लब्धियां सामान्य हैं, जो भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीवों के होती हैं। पांचवीं करणलब्धि सम्यग्दर्शन मौर सम्यक्चारित्र की योग्यता रखने वाले भव्यजीवों के ही होती है। उसके तीन भेद हैं-- अघःकरण, प्रपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण | दूसरे अधिकार में चारित्रलब्धि का स्वरूप और चारित्र के भेदों उपभेदों आदि का संक्षिप्त कथन है । साथ ही उपशमश्रेणी पर चढ़ाने का विधान है। तीसरे अधिकार में चारित्र मोह की क्षपणा का संक्षिप्त विधान है, जिसका अन्तिम परिणाम मुक्ति या शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि है । इस तरह यह ग्रंथ संक्षेप में श्रात्मविकास की कुंजी अथवा साधन-सामग्री को लिये हुए है। लब्धिसार की संस्कृत टीका नेमिचन्द्राचार्य की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसके दो अधिकारों की हिन्दी टीका उक्त संस्कृत टीका के अनुसार की है। तीसरे "क्षपण' अधिकार की गद्य संस्कृत टीका माधवचन्द्र त्रैविद्य देव की है, जिसे उन्होंने बाहुबली मंत्री के लिये क्षुल्लकपुर में शक सं० ३. पयडी सील सहाबो- प्रकृतिः शीलं स्वभावइत्येकार्थ: स्वभावश्चस्वभाववं तमपेक्षते । तदविनाभावित्वासस्य । यतः कस्यायं स्वभावः कथ्यत इत्याह जीवगाणं, जीवकर्मणोः । कहमेत्य अगद्दे कम्मग्रहणं । कम्मण सरीरसेतव अंग सदेश विवविवदत्तादो । कड्ट कम्म कलावस्तेय कम्मण सरीस्तादो य । जवा अंग सरग कम्माकम्म सरीराण ग्रहणं । कम्मेणोकम्मेहि पयो जगादो। जीवंगारणमिदि किम मुच्पदे । भावकम्म दव्वकम्म णोकम्माणं पयड परूपरणट्ठ -गो० क० पंजिका Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ११२५ (सन् १२०३, वि० सं० १२६०) में बनाकर समाप्त की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसी के अनुसार क्षपणा. सार की टीका की है। इसी से उन्होंने अपनी सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका टीका को लब्धिसार क्षपणासार सहित गोम्मटसार की टोका बतलाई है। त्रिलोकसार-यह करणानुयोग का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी गाथा संख्या १०१८ है। जिनमें कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र विद्य की भी हैं। जो नेमिचन्द्राचार्य को सम्मति से शामिल की गई हैं । यह ग्रन्थ प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपणत्ती से अनुप्राणित है। इसमें सामान्यलोक, भवन, व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक, और नरक-तिर्यक, लोक ये अधिकार हैं । जम्बूदीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियों के रहने के स्थान, पावासभवन, वायु परिवार आदि का विस्तृत वर्णन है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य चन्द्र के प्रायु, विमान, गति, परिवार प्रादि का सांगोपांग वर्णन दिया है । त्रिलोक की रचना सम्बन्धी सभी जानकारी इससे प्राप्त की जा सकती है। इस पर नेमिचन्द्राचार्य के प्रधान शिष्य माधवचन्द्र विर की संस्कृत टीका है। गोम्मटसार की तरह इस ग्रंथ का निर्माण भी प्रधानत: चागहराम को लगरहरके-के जसि बोधनामा है ऐसा टीकाकार माधवचन्द्र ने टीका के प्रारम्भ में व्यक्त किया है। संस्कृत टीका सहित यह ग्रन्थ मणिकचन्द्र ग्रन्थ माला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ की हिन्दी टोका पंडित टोडरमल्ल जी ने की है, जिसमें उसके गणित विषय को अच्छी तरह से उद्घाटित किया है। प्रार्यसेन प्रार्यसेन-मूलसंघ बरसेनगण और पोगरीगच्छ के प्राचार्य ब्रह्मसेन अतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाओं से सेवित थे। इनके शिष्य महासेन थे । जैसा कि शिलालेख के निम्न वाक्यों से प्रकट है: श्रीमूलसंधे जिनधर्ममूले, गणाभिधाने बरसेन नाम्नि। गच्छेसु तुच्छेऽपि पोगर्य्य मिक्खे, संन्तयमानो मुनिरार्यसेनः ॥ तस्यार्यसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेन महामुनीन्द्रः। सम्यक्त्वरत्नोज्वलितान्तरंगः संसारनीराकर सेतुभूत [:] ॥ इस शिलालेख में महाप्लेन मुनीन्द्र के छात्र चांदिराज ने, जो बाणसवंश के तथा केतल देवी के मोफिसर थे। उन्होंने पोन्नवाड (वर्तमान होल्वाड) में त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया,और उसमें तीन वेदियों में शान्ति नाथ, पार्श्वनाथ पौर सुपार्श्वनाथ की तीन मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उसके लिये कुछ जमीन तथा मकानातं शक सं०६७६ (सन् १०५४) जयसंवत्सर में वैशाख महीने की अमावस्या सोमवार के दिन दान दिया। इससे पार्यसेन का समय सन् १०५४ (वि० सं० ११११) सुनिश्चित है। महासेन महासेन-मूलसंघ बरसेनगण और पोगरिगच्छ के आचार्य आर्य सेन के शिष्य थे। इनके गहस्थ शिष्य चांदिराज ने, जो वाणसवंश में उत्पन्न हुआ था। उक्त चांदिराज ने त्रिभुवन तिलक नान का चैत्यालय बनवाया, और उसमें शान्तिनाथ और पार्श्व-सुपार्श्व की मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उनकी पूजादि के लिये महासेन को दान दिया। यह लेख शक सं० ६७६ सन् १०५४ का है । अत: महासेन का समय विक्रम को ११वीं शताब्दी का मध्यकाल होना चाहिये। १. अमुना माधवचन्द्र दिव्य गरिना विद्य चक्कशिना, क्षपणासार मकारि बाहुबलि सन्मश्रीश संज्ञप्तये । शककाले शरसूर्यचन्द्र गणिते (११२५) जाते पुरे क्षुल्लके शुभदे दुदुभिवत्सरे दिजयतामाचंन्द्रतारं भुवि ।।१६ --क्षपणासार गम प्रशस्ति २. जैन लेख सं०.भ.२ पृ० २२७-२८) ३. जैन लेख संग्रह अ-२ पृ० २२७-२८) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६५ चामुण्डराय चामुण्डराय — ब्रह्मक्षत्रिय वंश के वैश्य कुल में उत्पन्न हुए थे। शिलालेख में इन्हें 'ब्रह्मक्षत्र कुलोदयाचल शिरोभूषामणि' कहा गया है । यह गंगवंशी राजा राजमल्ल के प्रधान मंत्री और सेनापति थे। राचमल्ल चतुर्थ का राज्यकाल शक सं० ८६६ से ९०६ ( वि० सं० १०३१ से १०४१) तक सुनिश्चित है। ये गंगवज्रमारसिंह के उत्तराधिकारी थे। चामुण्डराय इनके समय भी सेनापति रहे हैं। इनका घरु नाम 'गोम्मट' था और 'राय' राजा राचमहल द्वारा प्रदत्त पदवी थी । इस कारण इनका नाम गोम्मटराय भी था बाहुबलि की मूर्ति का नाम 'गोम्मटजिन' और पंच संग्रह का नाम 'गोम्मट संग्रह सूत्र इन्हीं के नाम के कारण हुआ है क्योंकि चामुण्डराय के प्रश्न के अनुसार ही धवलादि सिद्धान्तों पर से नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मट सार की रचना की है । मारसिंह और इनके उत्तराधिकारी पुत्र राजमल्ल का समय गंगवंश के लिए भयावह था क्योंकि पश्चिमी चालुक्य, नोलम्ब तथा पल्लव आदि गंग वंश के शत्रु थे । चालुक्यों के खतरे के विनाश का श्रेय चामुण्डराय की है। श्रवण गोल के कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ पर उत्कीर्णलेख ( ६७४ ई०) में लिखा है कि इस प्रसिद्ध दुर्गपर हुए श्रमण ने faea को भ्राश्चर्य में डाल दिया । चामुण्डराय ने अपने पुराण में इस बात को स्वीकार किया है कि इस विजय में ही उन्हें 'रणरंग सिंह' की उपाधि प्राप्त हुई थी । चामुण्डराय केवल महामात्य ही नहीं थे किन्तु वीर सेनानायक भी थे। इनके समान शूरवीर भीर दढ़ स्वामी भक्त मंत्री कर्नाटक के इतिहास में अन्य नहीं हुआ । इन्होंने अपने स्वामी के लिए अनेक युद्ध जीते थे । गोविन्दराज, वेंकाडुराज आदि अनेक राजाओंों को परास्त किया था। इसके उपलक्ष्य में उन्हें समरधुरंधर, वीरमातण्ड, रणरंग सिंह, वैरिकुल-काल दण्ड, असहाय पराक्रम, प्रतिपक्ष राक्षस, भुज विक्रम और समर - परशुराम श्रादि विरुद प्राप्त हुए थे। और कौनसी उपाधि किस युद्ध के पर मिली इसका उल्लेख निम्न प्रकार है :खडग युद्ध में वज्वलदेव को हराने पर उन्हें 'समरधुरंधर उपाधि प्राप्त हुई थी। नोलम्ब युद्ध में गोनूर [ के मैदान में उन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष में 'वीर भार्तण्ड' की उपाधि मिली। उनकांगी के किले में राजादित्य से वीरता पूर्वक लड़ने के उपलक्ष में ' रणरंग सिह उपाधि प्राप्त हुई। और वागेयूर वा (वामीकूर ) के किले में त्रिभुवन वीर को मारने और गोविन्दराज को उसमें न घुसने देने के उपलक्ष में वैरीकुल- कालदण्ड' उपाधि प्राप्त हुई। राजा काम के किले में राज बास, सिवर, कुणामिक आदि योद्धाओं को परास्त करने के कारण उन्हें 'क्रम' उपाधि से अलंकृत किया गया। अपने छोटे भाई नागवर्मा के घातक मुदुराचय को, जो चलदंक गंग और गंगर भट्ट के नाम से प्रसिद्ध था, मार डालने के उपलक्ष में 'समरपरशुराम' पद से विभूषित किया गया। एक कबीले के मुखिया को पराजित करने के उपलक्ष में 'प्रतिपक्ष-राक्षस' उपाधि मिली। श्रौर अनेक योद्धाओं को मारने के कारण उन्हें 'भट्टमारि' उपाधि प्राप्त हुई । धार्मिकता और नैतिकता की दृष्टि से भी उन्हें 'सम्यक्त्व रत्नाकर, सत्य युधिष्ठिर, धौर सुभट चूडामणि आदि उपाधियां प्राप्त हुई । इन सब उपाधियों से ऐसा लगता है कि चामुण्डराय अपने समय का कितना प्रतापी और वीर सेनापति था । यह केवल वीर सेनापति ही नहीं था किन्तु अच्छा विद्वान् और कवि भी था। उनकी उपलब्धियां उनकी महत्ता थोर गौरव को संद्योतक हैं । १. शिलालेख नं० १६५ जैन लेख सं० प्रथम भाग लेख नं० १०६ । २. श्रीमदप्रतिहत प्रभावस्याद्वादशासन गुहाभ्यन्तर निवासिप्रवादि मदांधसिधुर सिंहायमान सिंहनन्दि मुनीन्द्राभिनन्दित गंगवंलाम राज सर्वज्ञानेक गुणनामधेय भागधेय श्रीमद राजमल्ल देव महीबल्लभ महामात्यपदविराजमान रणरंग मल्लासहायपराकमगुणरत्नभूषण सम्यक्त्वरत्न निलयादिविविध गुणनाम समासादित कीर्तिकान्त श्रीमच्चामुंडराय भव्य पुण्डरोक'''। -मंद प्रबोधिकाटीका उत्पानिका वाक्य Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उपलब्धियां गोम्मट- संग्रह सुत्तं गोम्मट सिहरुवार गोम्मट जिणो य । गोम्मट राय-विणिम्मिय-दक्षिण कुक्कूड जिणो जयउ॥६६५ इस गाथा में तीन कार्यों का उल्लेख है और उन्हीं का जयघोष किया गया है। गोम्मट संग्रह सूत्र गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कूड जिन । गोम्मट जिन से भगवान नेमिनाथ को उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनील मणि की प्रतिमा से है, जिसे गोम्मटराय ने बनवा कर चन्द्रगिरि पर स्थित अपने मन्दिर में स्थापित किया था और दक्षिण कुक्कूड जिन से अभिप्राय बाहुबली की उस विशाल मूर्ति से है जो पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं के शरीराकृति जैसी मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुटसों से व्याप्त होने के कारण दुर्लभ दर्शन हो गई थी। उसी के अनुरूप यह मूर्ति विन्ध्यगिरि पर विराजमान की गई है। दक्षिण विशेषण उसकी भिन्नता का द्योतक है। चामुण्डराय की अमर कीति का महत्व पूर्ण प्रतीक श्रवणबेलगोल में प्रतिष्ठापित जगद्विख्यात बाहुबलि को मूर्ति है, जो ५७ फीट उन्नत और विशाल है । और जिसका निर्माण चामुण्डराय ने कराया था। और जो धूप, वर्षा सर्दी गर्मी और आंधी की बाधानों को सहते हुए भी अविचल स्थित है। मूर्ति शिल्पी को कल्पना का साकार रूप है। मूर्ति के नख आदि वैसे ही अंकित हैं जैसे उनका आज ही निर्माण हुमा है। चामुण्डराय ने बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा ई. १८१ में कराई थी। लगभग एक हजार वर्ष का समय व्यतीत हो जाने पर भी वह वैसी ही सुन्दर प्रतीत होती है वह दश आश्चर्य के रूप में उलिखित की जाती है। दर्शक को प्रखें उसे देखते ही प्रसन्नता से भर जाती हैं। बाहुबली की यह मूर्ति ध्यानावस्थाकी है, वे केवल ज्ञान होने से पूर्व जिस रूप में स्थित थे, वही लता वेलें जो बाहनों तक उत्कीर्णित हैं और नीचे सो को वामियां भी बनी हुई हैं। उसी रूप को कलाकार ने अंकित किया है । दर्शक मूर्ति को देखकर तप्त नहीं होता। उसकी भावना उसे बार-बार देखने की होती है । मूर्ति दर्शन से जो आत्म लाभ होता है वह उसे शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता ! उसके प्रवलोकन से यह भावना अभिव्यक्त होतो है कि अन्तिम समय में इस मूर्ति का दर्शन हो । चामुण्डराय की यह ऐतिहासिक देन महान् प्रौर ममर है। शिलालेख में चामुण्डराय द्वारा बनवाये जाने का उल्लेख है । और गोम्मट संग्रह सुत से अभिप्राय गोम्मटसार से है। दूसरी उपलब्धि 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित' है। जिसे चामुण्डराय ने शक सं ६०० ईस्वी सन् ६७५ (वि० सं०१०३५) में बनाकर समाप्त किया था। इसमें चौबीस तीर्थकरों के चरित्र के साथ चक्रवर्ती आदि महा. पुरुषों का पावन जीवन अंकित किया गया है । इसके प्रारम्भ में लिखा है कि इस चरित्र को पहले कृषि भट्टारक तदनन्तर नन्दि मनीश्वर, तत्पश्चात् कवि परमेश्वर और तत्पश्चात् जिनसेन गुणभद्र स्वामी इस प्रकार परम्परा से कहते आये हैं, और उन्हीं के अनुसार मैं भी कहता हूं। मंगलाचरण में युद्धपिच्छाचार्य से लेकर अजितसेन पर्यन्त प्राचार्यों की स्तुति की है और अन्त में श्रुत केवली दशपूर्वधर, एकादशांगधर, प्राचारांगधर, पूर्वाग देशवर के नाम कह कर महबली, माघनन्दि, भूतबलि पुष्पदन्त गुणधर शाम कुण्डाचार्य, तम्बू लूराचार्य, समन्तभद्र, शुभनन्दि रविनन्दि, एलाचार्य, नागसेन, वीरसेन जिनसेन भादि का उल्लेख किया है। फिर अपने गुरु की स्तुति की है। यह पुराण प्रायः गधमय है, पद्य बहुत ही कम हैं । कनड़ी भाषा के उपलब्ध ग्रंथों में चामुण्डराय पुराण ही सबसे प्राचीन माना जाता है । चामुण्डराय के गुरु का नाम प्रजितसेनाचार्य है, जो उस समय के बड़े भारी विद्वान् थे। तपस्वी और क्षमाशील थे। उनके अनेक शिष्य थे। बंकापुर में उन्होंने अनेक शिष्यों को शिक्षा दी। प्राचार्य नेमिचन्न सिद्धान्त चक्रवर्ती पर भी उनका स्नेह था । चामुण्डराय के प्रश्नानुसार ही उन्होंने पंचसंग्रह (गोम्मटसार को रचना की थी । चामुण्डराय वीर पोर दानी थे।) जनधर्म के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उससे भारतीय इतिहास में उन्हें प्रमर बना दिया है। तीसरी उपलब्धिारित्रसार या भावनासार है। जिसकी उन्होंने तत्त्वार्थ वार्तिक, राद्धांत सत्र, महापराण और पाचार ग्रन्यों से सार लेकर रचना की है, जैसा कि उसके अन्तिम निम्न पद्यसे प्रकट है : सत्वाधराति महापुराणे स्वाधारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् माल्यात्समासादनुषोगवेदी चारित्रसारं रणरंगसिंहः ॥ प्राचारामधर, पूर्वाग देशवा बाल पुष्पदन्त गुणधर शाम रविनन्दि, एलाचार्य, नागसेन Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २७ इसमें गृहस्थ और मुनियों के माचार का व्यवस्थित वर्णन है। उसका संकलन सम्बद्ध और सुन्दर है। कथन की सम्बद्धता ही उसको प्रमाणिकता का मापदण्ड है, यह मन्थ हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो गोम्मटसार की देशी कर्णाटक वृत्ति भी इनकी बनाई हुई कहो जाती है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं चिककवेष्ट पर इनके द्वारा एक वसदि बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। इनके पुत्र का नाम जिनदेवण ' था, जो अजितसेनाचार्य का शिष्य था। जिनदेवण ने श्रवणवल्गोल में जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। यह लेख शक सं० ६६२ (सन् १०४०) में उत्कीर्ण किया गया है। महाकवि वीर कवि वीर लाडवागड़ वंश के गृहस्थ विद्वान् थे। इनके पिता का नाम देवदत्त था, जो मच्छे विद्वान कत्रि थे । इनके पुत्र वीर कवि से अपने पिता की चार कृतियों का उल्लेख किया है। पद्धडिया छन्द सरस चच्चरिया बंध में शान्तिनाथ का महान यशोगान (शान्तिनाथ रास) विद्वत्सभा का मनोरंजन करने वाली सुखम बीर कथा, और मम्बादेवी का रास । खेद है कि कवि देवदत्त की ये चारों रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । कवि मालवा के गुडलेड ग्राम के निवासी थे । गुडखेड नाम का यह गांव मालवा में सियवर्षी नगरी के सन्निकट कहीं बसा हया था। पूर्व मालवा में जमुना से निकलने वाली एक छोटो नदी का नाम काली सिन्धु या सिन्धु नदी है। यह नदी प्राचीन दशार्ण क्षेत्र में जिसकी प्राचीन राजधानी विदिशा थी, मे बहती हुई पद्मावती नामक स्थान पर पाकर चर्मण्वती (चंबल) नदी से भोपाल के निकट निकलने वाली पारा नदी में मिल जाती है। सौर मागे जाकर दोनों नदियां वेतवा में गिर जाती हैं । इसी सिन्धु नदी के किनारे पर भोपाल के पूर्व प्रौर विदिशा से उत्तर में सिन्धुवर्षी नगरी रही होगी। इस नगरी बसीप ही नहीं डाग बसा हारमोगा । कवि देवदत्त का समय सं० १०५० है 1 कवि का अम्बादेवी रास ताल और लय के साथ गाया जाता था। और जिन परणों के समीप नृत्य किया जाता था, यह सम्यक्त्वरूपी महाभार की धुरा के धारक थे। कवि देवदत्त की संतुवा भार्या से विनम्र सम्पन्न वीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुया था। कवि के बुद्धिमान तीन छोटे सहोदर भाई मोर भी थे। जो सीहल्ल, नक्षणांक पोर जसई नामों से विख्यात से। वीर फवि ने कहा मौर किससे शिक्षा प्राई, इसका कोई उल्लेख नहीं किया। कवि ने शब्द शास्त्र, छन्द शास्त्र, निचंद, तर्कशास्त्र तथा प्राकृत काव्य सेतुबंध का अध्ययन किया था, सिद्धान्त शात्रों के अध्ययन के साथ लौकिक शिक्षा में भी निपुणता प्राप्त की थी। केवल काव्य रचना उनके जीवन का व्यापार नहीं था किन्तु वह राज्य कार्य, प्रर्थ और काम की चर्चाओं में भी संलग्न रहता था । व्यस्त जीवन रहने से हो उसे जंबूस्वामी चरित की रचना में एक वर्ष का समय लगा था। कवि की चार स्त्रियां थीं। जिनवती, पोमावती, लीलावती और जयादेवी। पहली पत्नी से नेमचन्द्र नाम का एक पुत्र भी १. जिन ग्रहय बेलगोलदोल जनमेल्ल पोगले मन्त्रि-चाम पडन नन्दनोलवि माहिसिदं ज़िन-देवणनजिनसेन-मुनिवर गुई ॥ -नलेख सं० भा०११० १४६ १.६ह अस्थि परम जिण पयमरा, गुललेड विणिगरउ मुहचरणु । सिरिलाइयागु तहि विमलजसु, कर देषयतु लिम्बूङ कसु । बहु भावहि जे घरगचरिउ, पनियाभे उरिउ । कविगुणरस नियविउसह, वित्तरिय सुदय वीर कह । बच्चरिययंधि विरह सरसु, गाइजह सतिज तारजम् । नचिरजइ जिणपय . सेवहि, किउ रासउ अंबादेवयहि । सम्मसमहाभरपुरधरहो, तहो सरसहदेखि लवबरहो। --अंधू सामिचरिउ १-४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ था।' जो विनय गुण से सम्पन्न था। वीर कवि विद्वान् और कवि होने के साथ-साथ गुणग्राही न्यायप्रिय और समुदार व्यक्ति था । वह साधुचरित पुरुषों के प्रति विनयी, अनुकम्पावान और धर्मनिष्ठ श्रावक होते हुए भी वह सच्चा वीर पुरुष था । कवि को समाज के विभिन्न वर्गों में जीवन-यापन करने के विविध साधनों का साक्षात अनुभव था । प्राचीन कवियों के प्रसिद्ध ग्रन्थों, अलंकार और काव्य लक्षणों का कवि को तल स्पर्शी ज्ञान था वह कालिदास मोर are की रचनाओं से प्रभावित था। उनकी गुण ग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ की चतुर्थं सन्धि के अन्त में पाये जाने वाले निम्न पद्य से मिलता है : : गुणा ण सुष्णंसि गुणं गुनिलो न सर्हति परगुणे बट्ठ । बल्लहगुणा दि गणिणो विरला करवीर-सारिच्छा ॥ अगुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणों को नहीं जानता और गुणीजन दूसरे के गुणों को भी नहीं देखते- उन्हें सह भी नहीं सकते, परन्तु वीर कवि के सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे के गुणों को समादर की दृष्टि से देखते हैं। वीर केवल कवि ही नहीं थे, किन्तु भक्ति रस के भी प्रेमी थे। उन्होंने मेघवन में पाषाण का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाया था और उसी मेघवन पट्टण में वर्द्धमान जिनकी विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी । ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने मन्दिर निर्माण श्रीर प्रतिमा प्रतिष्ठा के संवतादि का कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु इतना तो निश्चित ही है कि जंबूसामिचरिउ की रचना से पूर्व मन्दिर निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठादि का कार्य सम्पन्न हुमा है । रचना कवि की एक मात्र रचना 'जंबूसा मिचरिउ' है । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'श्रृंगारवीर महाकाव्य' है । इसमें म केवली जंबू स्वामी के चरित्र का चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना में कवि को एक वर्ष का समय लग गया था, क्योंकि कवि को राज्यादि कार्य के साथ धर्म, अर्थ और काम की गोष्ठी में भी समय लगाना पड़ता था, प्रतएव ग्रन्थ रचना के लिये अल्प समय मिल पाता था । ग्रन्थ ११ सन्धियों में विभाजित है । चरित्र चित्रण करते हुए कवि ने महाकाव्यों में रस और अलंकारों का सरस वर्णन करके ग्रन्थ को अत्यन्त भाकर्षक और पठनीय बना दिया है। कथा पात्र भी उत्तम हैं जिनके जीवन-परिचय से ग्रन्थ को उपयोगिता की अभिवृद्धि हुई है । गार रस, वीर रस, और शान्त रस का यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है। कहीं-कहीं शृंगार मूलक वीररस है । ग्रन्थ में १. सुह सील सुद्धवंसो जणणी सिरि संतुमा भरिया || ६ || जस्सय पण वया लहूणो सुमः सहोयरा तिथिए । सीहल्ल लक्खणंका जसद्द नामेति विखाया ॥७॥ जाया जस्स मट्ठिा जिराव पोमावर पुणो वीया । लीलावदति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ||८|| पदमकलतं गो संताल कमत्त विवि पारोहो । विरामगुणमरिंग निहाणो तरणओ तह नेमिचंदोति || ६ || - जंबू सामि च अन्तिम प्रशस्ति २. सो जयज कई बोरो वीरजिदिस्स कारिर्य जेण । पाहारणमयं भवरणं विदे मेहवणे ॥ १० ॥ इत्येवदिर मेहवण पट्टणे थढमाण जिरगपडिमा । तेरणा वि महाकरणा वीरेण पर्याया पवरा ॥ ४ - जंबू स्वामि च० प्रशस्ति प्रयत्न करने पर मी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हुआ, परन्तु 'मेहवन' नाम का कोई स्थान विशेष रहा है जो उस समय धन-धाम्यादि से सम्पन्न था। E 1 • Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६९ अलंकारों का चयन दो प्रकार का पाया जाता है, एक चमत्कारिक और दूसरा स्वाभाविक । प्रथम का उदाहरण निम्न प्रकार है : भारह-रण-भूमिय स-रहमीस हरि प्रज्जण उल सिंहडिवोस । गुरु पासत्याम कलिंग चार गय पग्जिर-ससर-महीससार। लंका नयरी सरायणीय चंदणहि चार कलहावणीय । सपलास-सकंचण अक्ख अड्ढ सविहीसण-कइकुल फल रसड्छ । इन पद्यों में विन्ध्यावटी का वर्णन करते हुए श्लेष प्रयोग से दो अथं ध्वनित होते हैं-स रह-रथ सहित और एक भयानक जीवन हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन मौर वृक्ष नहुल और नकुल जीव, शिखडि और मयूर ग्रादि स्वाभाविक विवेचन के लिये पांचवी सन्धि से शृंगार मूलक वोर रस का उदाहरण निम्न प्रकार हैकेरल नरेश भगांक को पूत्री विलासवती को रत्नशेखर विद्याधर से संरक्षित करने के लिये जंबू कमारपोल ही यह करने जाते हैं। पीछे मगध के शासक श्रेणिक या बिम्बसार की सेना भी सजधज के साथ युद्धस्थल में पहुंच जाती है. किन्त अंबकमार अपनी निर्भय प्रकृति और असाधारण धैर्य के साथ युद्ध करने को प्रोत्तेजन देने वाली वीरोक्तियाँ भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भावनाओं के साथ सैनिकों की पत्नियां भी युद्ध में जाने के लिये उन्हें प्रेरित करती हैं । युद्ध का वर्णन भी कवि के शब्दों में पढिये। अक्क मियंक सक्क कंपावणु, हा मुय सीयहे कारणे रावणु । दलिय वप्प दप्पिय मा मोहणु, कवणु अणत्यु पत्तु बोज्जोहणु । त म दोसु बहव किउ धावइ, अणउ करतु महावा पावइ । जिह जिह बंड करंबिउ जंपड, तिह तिह खेयर रोसहि कंपइ । घद्र कंठ सिरजालु पलित्तउ, चंडगंड पासेय पसिसउ। दहा हरु गंजज्जलु लोयणु, पुरु खुरंत णासउ भयावण । पेक्खे वि पह सरोसु सण्णामहि, बुत्तु पयोहरु मंतिहि तामहि। अहोमहा हय हय सासस गिर, पहचाधि उद्दण्ड गम्भिर किर। अण्णहो जोह एह कहो बग्गए, खयर वि सरिस गरेस हो अगए। भणइ कुमार एह र लुजउ, वसण महष्णवि तुम्महि खउ । रोसन्ते रिजहियच्छु पिणा सुणइ, कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ। प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा प्रांजल, मुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है, और इसमें पध्पदन्नाट महाकवियों के काव्य-ग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रौढ़ता और अर्थ गौरव की छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं । इसे दिगम्बर वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय निर्विवाद रूप से मानते हैं और भगवान महावीर के निर्वाण से जम्ब स्वामी के निर्माण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्राय एक-सी है, किन्तु उसके बाद दोनों में मतभेद पाया जाता है। जम्बू स्वामी अपने समय के ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं 1 वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवन की झांकी ही चरित्रनिष्ठा का एक महान् आदर्श रूप जगत को प्रदान करती है। उनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान चोर भी अपने चौर कर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पांच सौ योद्धाओं के साथ महान तपस्वियों में अग्रणीय तपस्त्री हो जाता है और व्यंतरादि कृत महान् उपसर्गों को ससंघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान आदर्श उपस्थित करता है। उस समय मगध देश का राजा बिम्बसार या धणिक था, उसकी राजधानी राजगृह थी, जिसे वर्तमान में १: देखो जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह भा० २ का ५४ पृष्ठ का टिप्पण। २. दिगम्बर जैन परम्परा में जम्बू स्वामी के पश्चात् विष्णु नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोबर्धन और भद्रबाह ये पांच श्रुतकेवली माने जाते हैं। किन्तु वेताम्बर परम्परा में प्रभव, गम्भव, यशोभद्र, आर्य संभूतिविजय और भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेवलियों का नामोल्लेख पाग जाता है। इनमें भर बाहु को छोड़ कर चार नाम एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन नर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २७० लोग राजगिर के नाम से पुकारते हैं । ग्रन्थकर्ता ने मगधदेश और राजगृह का वर्णन करते हुए वहां के राजा श्रेणिक बिम्बसार के प्रतापादि का जो संक्षिप्त परिचय दिया है वह इस प्रकार है : चंड भुजवंद वंडिय मंडलिय मंडली विसवें । बारा खंडण भीयव्य जयसिरी वसह जस्स जग्गंके ॥१॥ रेरे फ्लाह कायर मुहई पेeees न संगरे सामी । इस जस्स पयावद्योसणाए बिहडंति वहरिणो बूरे ॥ २ ॥ जस्स रक्लिय गोमंडलस्स पुरुसुतमहत पाए । के केसवा न जाया समरे गम पहरणा रिउणो ॥ ३॥ पर्थात् जितके प्रचंड भुजदंड के द्वारा प्रचंड मांडलिक राजाओं का समूह खंडित हो गया है। जिसने अपनी भुजाओं के बल से मांडलिक राजाओं को जीत लिया है। और धारा खंडन के भय से ही मानो जयश्री जिसके खङ्गा में बसती है । राजा श्रेणिक संग्राम में युद्ध से संत्रस्त कायर पुरुषों का मुख नहीं देखते। रे, रे कायर पुरुषो! भाग जामो - इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन से ही शत्रु दूर भाग जाते हैं। गो मण्डल (गायों का समूह ) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णु के द्वारा रक्षित रहता है। उसी तरह वह पृथ्वीमण्डल भी पुरुषों में उत्तम राजा श्र ेणिक के द्वारा रक्षित रहता है, राजा श्र णिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु सुभट हैं, जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्णु) के आगे होगा नहीं किया। इस ग्रन्थ का कथा भाग बहुत ही सुन्दर, सरस तथा मनोरंजक है, और कवि ने काव्योचित सभी गुणों का ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनाने का यत्न किया है। कथा का संक्षिप्त सार इस प्रकार है: कथासार जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में मगध नाम का देश है, उसमें श्रेणिक (बिम्बसार ) नामका राजा राज्य करता था। एक दिन राजा श्रेणिक अपनी सभा में बैठे हुए थे कि वनमाली ने विपुलाचलपर महावीर स्वामी के समवसरण माने की सूचना दी। श्रेणिक सुनकर हर्षित हुमा और उसने सेना आदि वैभवके साथ भगवान का दर्शन करने के लिए प्रयाण किया । श्रेणिक ने समवसरण में पहुंचने से पूर्व ही अपने समस्त वैभव को छोड़कर पैदल समवसरण में प्रवेश किया और वर्द्धमान भगवान को प्रणाम कर धर्मोपदेश सुना। इसी समय एक तेजस्वी देव प्राकाश मार्ग से भाता हुआ शिवाई दिया। राजा श्रेणिक द्वारा इस देव के विषय में पूछे जाने पर गौतम स्वामी ने बतलाया कि इसका नाम बिमली है और यह अपनी चार देवांगनाओं के साथ यहां बन्दना करने के लिये श्राया है। यह माज से ७वें दिन स्वर्ग से प्रयकर मध्यलोक में उत्पन्न होकर उसी मनुष्यभव से मोक्ष प्राप्त करेगा। राजा श्रेणिक ने इस देव के विषय में विशेष जानने की इच्छा व्यक्त की, तब गौतम स्वामी ने कहा कि इस देश में वर्तमान नामका एक नगर है । उसमें वेद घोष करने वाले यज्ञ में पशुबलि देनेवाले, सोम पान करने वाले, परस्पर बटु वचनों का व्यवहार करने वाले, मनेक ब्राह्मण रहते थे । उनमें अत्यन्त गुणश एक ब्राह्मण दम्पति श्रुतमण्ड पार्म सु रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमशर्मा था । उससे दो पुत्र हुए थे। भवदत भौर भवदेव | जब दोनों की जायु क्रमशः १८ और १२ वर्ष हुई, तब धायं वसु पूर्वोपार्जित पापकर्म के फल स्वरूप कुष्ट रोग से पीड़ित हो गया और जीवन से निराशा होकर चिता बनाकर अग्नि में जलमरा । सोमशर्मा भी अपने प्रिय विरह से दुःखित होकर चिता में प्रवेशकर परलोक वासिनी हो गई । कुछ दिन बीतने के पश्चात् उस नगर में 'शुषमं' नाम के मुति का भागमन हुआ मुनि ने धर्म का उपदेश दिया, भवदत्त ने धर्म का स्वरूप शान्त भाव से हुना, भक्वत का मन संसार में अनुरक्त नहीं होता था। अतः उसने भारम्भ परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि बनने की अपनी प्रभिलाषा व्यक्त की और वह दिगम्बर भुनि हो गया । मौर द्वादशवर्ष तपश्चरण करने के बाद भवदस एक बार संघ के साथ अपने ग्राम के समीप पहुंचा। और अपने कनिष्ठ भ्राता भवदेव को संघ में दीक्षित करने के लिए उक्त वर्षमान ग्राम में Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और वायहनों पाताब्दी के विद्वान, आचार्य प्राया। उस समय भवदेव का दुर्मर्षण मोर नाग देवी की पुत्री नागवसु से विवाह हो गया था। भाई के पागमन का समाचार पाकर भवदेव उससे मिलने पाया, और स्नेहपूर्ण मिलने के पश्चात् उसे भोजन के लिये अपने घर में ले जाना चाहता था, परन्तु भवदत्त भवदेव को अपने संघ में ले गया और वहां मुनिवर से साघु दीक्षा देने को कहा भवदेव असमंजस में पड़ गया, क्योंकि उसे घर में रहते हुए विषय-सुखों का आकर्षण जो था, किन्तु भाई को उस सदिच्छा का अपमान करने का उसे साहस न हुआ। और उपायान्तर न देख प्रवज्या (दीक्षा) लेकर भाई के मनोरय को पूर्ण किया, और मुनि होने के पश्चात १२ वर्ष तक संघ के साथ देश-विदेशों में भ्रमण करता रहा। किन्तु उसके मन में नागवसु के प्रतिरागभाव बना रहा । एक दिन अपने नाम के पास से निकला। उसे विषय-चाह ने पाकर्षित किया और वह अपनी स्त्री का स्मरण करता हुमा एक जिनालय में पहुँचा, वहां उसने एक अजिका को देखा, व्रतों के पालने से प्रतिकृशगात्र, अस्थि पंजर मात्र शेष रहने से भवदेव उसे पहचान न सका । अतः उससे उसने अपनी स्त्री के विषय में कुशल वार्ता पूछी। अजिका ने मुनि के चित्त को चलायमान देखकर उन्हें धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह अापकी पत्नी मैं ही हैं। आपके दीक्षा का समाचार मिलने पर मैं भी दीक्षित हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक संयम का अनुष्ठान करने लगा। अन्त में दोनों भाई मरकर सनत्कुमार नामक स्वर्ग में देव हुए और सात सागर की आयु नक बहां वास किया । भवदत्त का जीव स्वर्ग से चयकर पुण्डरीकिनी नगरी में वज्रदत्त राजा के घर सागरचन्द नाम का और भवदेव का जीव वीसशोका नगरी के राजा महा पद्म चक्रवर्ती को वनमाला रानी के शिव कुमार नाम का पुत्र हुमा । शिवकुमार का १०५ कन्याओं से विवाह हुमा, करोड़ों उनके अंग रक्षक थे, जो उन्हें बाहर नहीं जाने देते थे। पुडपरीकिनी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर सागर चन्द्र ने देह-भोगों से विरक्त हो मुनि दीक्षा लेली। प्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए भाई को सम्बोधित करने वोतशोका नगरी में पधारे। शिवकुमार ने अपने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो माया, उसके मन में देह-भोगों से विरक्तता का भाव उत्पन्न हुआ, उससे राज प्रासाद में कोलाहल मच गया। पौर उसने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत समझाया और कहा कि घर में ही तप और व्रतों का अनुष्ठान हो सकता है। दीक्षा लेने की आवश्यता नहीं, पिता के अनुरोध वश कुमार ने तरुणीजनों के मध्य में रहते हुए भी विरक्त भाव से नव प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया। और दूसरों से भिक्षा लेकर तप का प्राचरण किया। और प्रायु के अन्त में वह विद्युन्माली नाम का देव हुआ। वहां दश सागर की प्रायु तक चार देवांगनामों के साथ सुख भोगता रहा । अब वही विद्युन्माली देव यहाँ आया था, जो सातवें दिन मनुष्यरूप से प्रयतारित होगा । राजा श्रेणिक ने विद्युन्माली की उन चार देवांगनाओं के विषय में पूछा । तब गौतम स्वामी ने बताया कि चम्पानगरी में सूरसेन नाम के सेठ की चार स्त्रियां थी जिनके नाम जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी मोर यशोमती । वह सेठ पूर्व संचित पाप के उदय से कुष्ट रोग से पीड़ित होकर मर गया, उसकी चारों स्त्रियां मजिकाए हो गई और तप के प्रभाव से वे स्वर्ग में विद्युन्माली की चार देवियां हई। पश्चात् राजा श्रेणिक ने विधुच्चर के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की 1 तब गौतम स्वामी ने कहा कि मगध देश म हस्तिनापुर नामक नगर के राजा विसन्धर और श्रीसेना रानी का पुत्र विद्युच्चर नाम का या। वह सब विद्याओं और कलानों में पारंगत था, एक चोर विद्या ही ऐसी रह गई थी जिसे उसने न सीखा था। राजा ने विद्युच्चर को बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना न छोड़ा। वह अपने पिता के घर में हो पहुंच कर चोरी कर लेता था और राजा को सुषुप्त करके उसके कटिहार आदि आभूषण उतार लेता था। और विद्या बल से चोरी किया करता था। पब वह अपने राज्य को छोड़कर राजगृह नगर में प्रा गया, और वहां कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । गौतम गणधर ने बताया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह नगर में महद्दास नाम के धष्ठि का पुत्र होगा, और उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा। पप्रनन्दी (जम्बूद्वीपपण्णत्ती के कर्ता) पानन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत पअनन्दि उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। क्योंकि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ उन्होंने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जो प्रशस्ति दी है, उससे उनकी गुरूपम्परा निम्न प्रकार है : अतः पानन्दी बीरनंदि के प्रशिष्य और बलनन्दि के शिष्य थे। जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति की प्रशस्ति में उन्होंने अपने को गुण गणकलित त्रिदण्ड रहित, त्रिशल्य परिशुद्ध, त्रिसहित सिद्ध पारंगत ज्ञानदर्शन चरित्तोयुक्त और प्रारम्भ रहित बतलाया है अपने गुरु बलनन्दि को सूत्रार्थ विचक्षण, मति प्रगल्भ, परपरिवाद निवृत्त, सर्वसंग निःसंग (परिग्रहरहित) दर्शनज्ञान चारित्र में सम्यक् अधिगत मन पर तृप्ति निवृत्त मन, और विख्यात सूचित किया है' । और अपने दादा गुरु वीरनन्दि को पंच महाव्रत शुद्ध, दर्शन शुद्ध, ज्ञान संयुक्त, संयम तन गुण सहित, रागादि विवर्जित, धीर, पंचाचर समग्र, पट् जीव दयातत्पर, विगत मोह और हर्ष विषाद विहोन विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है । और अपने शास्त्र गुरु श्री विजय को नाना नरपति पूजित, विगतभय, संग भंग उन्मुक्त, सम्यग्दर्शन शुद्ध संयम तपशील सम्पूर्ण, जिनवरवचन विनिर्गत, परमागम देशक, महासत्व, श्रीनिलय, गुणसहित और विख्यात विशेषणों से प्रकट किया है । पद्मनन्दि ने श्री विजय गुरु के प्रसाद से जम्बूद्वीपण्णत्ती को रचना माघनंदि के शिष्य सकलचन्द और उनके शिष्य श्रीनन्दी के लिये की है । इस ग्रन्थ में १३ अधिकार हैं जिनकी गाथा संख्या २४२७ पाई जाती है । ग्रन्थ का विषय मध्यलोक के मध्यवर्ती जम्बूद्वीप का कालादि विभाग के साथ मुख्यता से वर्णन है । और वह वर्णन प्रायः जम्बूद्वीप के भरत, ऐरावत महाविदेह क्षेत्रों, हिमवान आदि पर्वतों, गंगा सिन्ध्वादि नदियों, पद्म महापचादि द्रहों, लवणादि समुद्रों तथा अन्य बाह्य प्रदेशों, काल के उत्पसर्पिणी अवसर्पिणी श्रादि भेद-प्रभेदों, उनमें होने वाले परिवर्तनों और ज्योतिष पलादि से सम्बन्ध रखता है। साथ ही लौकिक-अलौकिक गणित, क्षेत्रादि की पैमाइश और प्रमाणादि के कथनों को भी साथ में लिये हुए हैं। यह ग्रंथ पुरातन भूगोल- खगोल का संक्षिप्त वर्णन करता है । ग्रन्थ में रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है, इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि सं० १५१८ से पूर्व की अभी तक उपलब्ध नहीं हुई। इससे इतना सुनिश्चत है कि ग्रन्थ उक्त सं० १५१८ से पूर्व का बना हुआ है । जम्बूद्वीपपणती १. तरस य गुण-गण- कलिंदो निदंड रहियो तिसल्ल- परिसुद्धो । तिमि गारव रहियो सिस्सो सिद्धत-गय-पारो ।।१६२ तव रिम जोग जुतो जवजुत्तो णाण दंसण चरिते । आरंभ करण- रहियो मेरा पदिती ।। १६३ २. तमेव वर सिस्सो सुतत्थ वियवखरणो मइ-गभो 1 पर-परिवादखियती स्सिंगी सब्वसंगेसु ॥ १६० सम्मत्त-अभिगद-मणो गाणे तह दंसणे चरिते य । पर तंति-रियतमणो बलदि गुरुति विक्खाओ ।। १६१ ३. पंच महल- सुद्धो दंसण-सुद्धो य राम-संजुतो । संजम तव गुण सहिदो रागादिविवज्जिदो धीरो ।। १५८ पंचाचार समग्गो छज्जीव-दयावरी विगद मोहो । हरिस विसाय- बिहूणोखामेण वीरणंदिति ॥ १५९ - जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रशस्ति ४. शाखा-परवद - महिदो विययमओ संगभंगउनको । संसरणसुद्धो संजम तव सीलसंपुष्पो १२१४३ जिम्वर-रण-विणिग्गय-परमागमदेसओ महासतो | सिरिलिओ गुणसहिओ सिरिविजयगुरु त्ति वितखाओ || १४४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यारहवीं औ बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और त्रिलोकसार की कुछ गाथागों में सादृश्य पाया जाता है। उससे एक दूसरे के मादान-प्रदान की प्राशंका होती है। त्रिलोकसार की रचना विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्वाधं की है। प्रशस्ति में वारा नगर का वर्णन करते हुए उसे पारियात्र देश में स्थित बतलाया है हेमचन्द्र के अनुसार 'उत्तरोविन्ध्यात्, पारियात्रः' वाक्य से पारियात्र देश विन्ध्याचल के उत्तर में हैं। वह उस समय पुष्करणी वावडी, सुन्दर भवनों, नानाजनों से संकीर्ण और धन-धान्य से समाकूल, जिन भवनों से विभूषित, सम्यग्दृष्टि जनों और मूनि गणों के समूहों से मंडित या। उसमें वारा नगर का प्रभ शक्ति भूपाल राज्य करता था, जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध, कृत-वत कर्म, शील सम्पन्न, अनवरत दान शोल, शासन वत्सल, धीर, नाना गुण कलित, नरपति संपूजित कलाकुशल और नरोत्तम था। नन्दि संघ की पट्टावली में वारा नगर के भट्रारको कागदी का जोश है। सिम नि सं. ११४४ से १२०६ तक के १२ भट्टारकों के नाम दिये हैं। पद्मनन्दि की गुरु परम्परा उससे सम्बद्ध जान पड़ती है। राजपूताने के इतिहास में गुहिलोत वंशी राजा नरवाहन के पुत्र शालिवाहन के उत्तराधिकारी शक्ति कुमार का उल्लेख मिलता है। ग्रन्थ में उल्लिखित शक्ति कुमार वही जान पड़ता है। पाटपुर (आहाड) के शिलालेख में गुहदत्त (मुहिल) से लेकर शक्ति कुमार तक की पूरी वंशावली दी है। यह लेख वि० सं० १०३४ वैशाख शुक्ला १ का लिखा हुआ है। अतः यही समय जम्बूद्वीपपण्णत्ती की रचना का निश्चित है । यह पद्मनन्दि विक्रम की ११वी शताब्दी के विद्वान् हैं। इनकी दूसरी रचना 'धम्मरसायण' है। यह ग्रन्थ भी इन्हीं का बतलाया जाता है। जो १९३ गायानों का अन्य है जो सरल एवं सुबोध है। और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में सिद्धान्तसार के अन्तर्गत प्रकाशित हो चका है। इसमें धर्म की महिमा, धर्म-अधर्म के विवेक प्रेरणा । परीक्षा करके धर्म ग्रहण करने की आवश्यकता, अधर्म का फल नरकादिके के दुःख सर्वज्ञ प्रणीत धर्म की उपलब्धि न होने पर चतर्गतिरूप संसार परिभ्रमण, सर्वज्ञों की परीक्षा और सागार अनगार धर्म का संक्षिप्त परिचय बणित है। कविधवल इनका जन्म विप्रकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर या सुरदेव था और माता का नाम केसूल देवी था, कवि धवल जिन चरणों में अनुरक्त और निर्ग्रन्थ ऋषियों का भक्त था। कुतीर्थ और कुधर्म से विरक्त था। इनके गुरु अंबसेण थे, जो अच्छे विद्वान और वक्ता थे। उन्होंने हरिवंश पुराण का जिस तरह व्याख्यान किया कवि ने उसको उसी तरह से निबद्ध किया। कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, अतएव रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई प्रतीत हो रही है। कवि ने अपनी रचना में अपने से पूर्ववर्ती अनेक कवियों का और उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है। कवि चक्रवर्ती धोरलेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विशेष के कर्ता, देवनन्दी (जनेन्द्र व्याकरण के कर्ता) वज्रमूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महासेन का सुलोचना चरित, रविषेण का पद्म चरित, जिनसेन का हरिवंश पुराण जटिल मुनि का वरांगचरित, दिनकरसेन का अनंगचरित, पचसेन का पाश्वनाथ चरित, अंबसेन की अमताराधना धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थों के रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का णमोकार मंत्र सिद्धसेन का भविक विनोद, रामनन्दी के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित) धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीर चरित, गोबिन्द कवि (श्व०) का सनत्कुमार चरित, शालिभद्र का जीवउद्योत, चतुर्मख, द्रोण, सेढ़ महाकवि का पउम चरिउ प्रादि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख है। इन कवियों में प्रसग और पद्यसेन ने अपने ग्रन्थों में रचमा काल का उल्लेख किया है। आसग कवि का समय सं०६१० है, और पग्रसेन का समय वि० .१ देखा जम्बूद्वीपणती की प्रशस्ति की १६५ से १६८ तक की गाथाएं । २. देखो जैन साहित्य और इतिहास (बम्बई १९५६ पृ० २५६-२६५) ३. मइ विप्पहो मूरहो दरणेण, केसुल्लय उवरि तह संभवेरए । जिरगवरही चरण अनुरत्तएण, रिणगंथह रिसियह मत्तएण। कुतिस्थ कुधम्म विरसएण, णामुजलु पपडु बहतए । ४. जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह मा० २ पृ० ११ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ९९६ है। इससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय विक्रम को ११वीं सदी है अर्थात् प्रसग कवि १०वीं शताब्दी के पूर्वार्थ के विद्वान जान पड़ते हैं। रचना कवि की एक मात्र कृति हरिवंश पुराण है, जिसमें १२२ सन्धियां हैं, जिनमें २२वें तीर्थकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा पंकित की गई है, साथ ही, महाभारत के पात्र कौरव और पाण्डव एवं श्रीकृष्ण मादि महापुरुषों का जीवन परित भी दिया इमा है। जिससे मनाभासकर ऐतिहासिक रचय सहज ही मिल जाता है। प्रन्थ की रचना प्रधानतः अपनश भाषा के 'पज्झटिका और अलिल्लह' छन्द में हुई है। तथापि उस में पद्धडिया सोरठा, घसा, जाति नागिनी, विलासिनी और सोमराजी प्रादि छन्दों का प्रयोग हुआ है। काव्य की दृष्टि से प्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं। रसों में श्रृंगार, वीर, करुण पोर शान्त रसों के पभिव्यंजक अनेक स्थल दिये हए हैं। श्री कृष्ण पौर कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुमा है। 'महाचंडचित्ता भाछिण्णगत्ता, धनुवाण हत्या सकुंता समत्था । पहारंति सुराण भज्जति धीरा, सरोसा सतोसा सहासा सत्रासा॥-हरिवंश पु० संधि ६०, ४ प्रचण्ड योद्धाओं के गात्र ट्रक-ट्रक हो रहे हैं, और धनुष बाण हाथ में लिये हुए भाला चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु कोष, सन्तोष, हास्य और पाशा से युक्त धीरवीर योद्धा विचलित नहीं हो रहे हैं । युद्ध की भीषणता से युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो-मारो की ध्वनि से अंबर गूज रहा है-रथवाला रयवाले की भोर, अश्व वाला प्रश्ववाले की ओर, और गज, गज की मोर दौड़ रहा है, धानुष्क वाला धानुष्क को पोर झपट रहा है, वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं। घोड़े हिन हिना रहे हैं, और हाथी चिंघाड़ रहे हैं। इस तरह युद्ध का क वाला धानुक को और हा घोड़ हिन हिना रहे है सारा ही वर्णन सजीव शरीर की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है : सबल राज्य भी तत्क्षण नष्ट हो जाता है। प्रत्यधिक धन से क्या किया जाय ? राज्य भी धनादिक से हीन और बचे खुचे जन समूह अत्यधिक दीनता पूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते हैं। सुखी बान्धव, पुत्र, कलत्र मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं जैसे ही मेघवर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं। पौर फिर चारों दिशाओं में अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुत से पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते हैं फिर सब अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले जाते हैं। इसी तरह इष्ट प्रिय जनों का समागम थोड़े समय के लिये होता है । कभी धन पाता है और कभी दारिद्र स्वप्न समान भोग पाते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं। जिस यौवन के साथ जरा (बुढ़ापे) का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है। बलु रम्जु वि णासइतक्खणेण कि किज्जह वहएण वि धणेण । रज्जु वि धणेण परिहीण होइ, णिविसेण वि दरीसह पयडुलोउ । ............."हण हण मार मारु पभरतहि । दलिय भरत्ति रेणु रणहि घायउ, पिसलुसउ लुद्धउ आयउ । रहबउ रहहु गयह गय धाविउ, घाणुक्कहु धाणुक्कु परायउ । तुरउ तुरंग कुलग्ग बिहत्थउ, असिवपसरह लागु भयपत्त । वजहि गहिरतूर यहिंसहि गुलु गुलंतु गयवरबहुदीसहि ।। -संषि ८६-१० Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य सुहिबंधव पुत्त-कलत-मिस, वि कासुवि वीसह णिश्वत । जिम हुति भरत असेस तेम, बुब्बुध जलि घणि वरिसंति जेम । जिम सउणि मिलि विसरवर वसति, चाद्दसिणिय वसाणि अंति । जिस बहू पंथिय णावर चडंति, पुणि णिय णिय वासहु से बलंति । तिम इठु समागमु निवडणु, षणुहोइ होइ दालिदु पुणु । धता - सुविणासउ भोउ लहो धि पुणु, गब्बु करंति प्रयाण गर । संतोसुकवणु जोयण सियह, जह प्रत्थइ प्रणुलमाजरा । २७५ - संधि - ६१-७ ग्रन्थकार का जहां लौकिक वर्णन सजीव है, वहां वीर रस का शान्त रस में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है । ग्रन्थ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है। इसकी प्रतियां कारंजा, बडा तेरापंथी मन्दिर जयपुर और दिल्ली के पंचायती मन्दिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है । जयकीति मूल संघ देशीयगण होत गे गच्छ के विद्वान थे । जो पुस्तकान्वयरूपी कमल के लिये सूर्य के समान थे। और अनेक उपवास और चान्द्रायण व्रत करने में प्रसिद्ध थे। रामस्वामी प्रदत्तदान के अधिकारी ये चिक्कनसोगे का यह लेख यद्यपि काल निर्देश रहित है। और शान्तीश्वर वसदि के बाहर दरवाजे पर उत्कीर्णित है । सम्भवतः इनका - (जंन लेख सं० भा० २ १० ३५७ ) अनुमानिक समय ११०० ई० के लगभग हो सकता है। ब्रह्मसेन प्रतिप ब्रह्मसेन प्रतिप-मूल संघ, वरसेनगण और पोरिगच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य प्रार्यसेन और प्रशिष्य महासेन थे । ब्रह्मसेन बड़े विद्वान तपस्वी थे । अनेक राजा उनके चरणों की पूजा करते थे। महासेन के शिष्य चाह्नि राजने जो वाण वंश के थे, और केवल देवी के ग्रॉफिसर थे । उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्व तोर्थंकर की वेदियों को पौन्नवार्ड में त्रिभुवन तिलक नाम के चैत्यालय में बनवाया । उनके लिये शक सं १७६ (सन् १०५४ ई० ) में जमीन और मकान दान किये। इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी है । मुनिश्रीचन्द्र- लाल बागड संघ और बलात्कारगण के प्राचार्य श्रीमन्दी के शिष्य थे । और धारा के निवासी थे । उन्होंने अपना पुराणसार वि० सं० १०५० (सन् १०२३) में बनाकर समाप्त किया है। रविषेण के पद्मचरित को टोका को भी उन्होंने वि० सं० १०८७ में धारा नगरी में राजा भोजदेव के राज्यकाल में बनाकर समाप्त किया है । तीसरी कृति महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण का टिप्पण है, जिसे उन्होंने, सागरसेन नाम के संद्धान्तिक विद्वान से महापुराण के विषम पदों का विवरण जानकर और मूल टिप्पण का अवलोकन कर वि० सं० १. जैन लेख [सं०] मा० २५० २२७ २. धारायांपुरि भोजदेव नृपते श्री मत्सागरसेनतो यतिपते मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगता ॐ चारुपुराणसारममलं श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे राज्ये जयात्युच्चकैः । शाखा पुराणं महत् । श्रीनन्दि शिष्यो बुधः । श्री चन्द्रनामामुनिः ॥ (अशीत्यधिषं सहस्त्र पुराणसाराभिधानं समाप्तं । देखो पुराणसार प्रशस्ति ३. लालबागड श्री प्रवचनसेन पडितात्पद्मचरितस्सकरण ( तमाकर्ण्य ?) बलात्कारगण श्रीनन्द्याचार्यसस्कविशिष्येण श्री चन्द्रमुनिना श्रीमद्विक्रमादित्य संघरसरे समाशीत्यधिक वर्षं सहस्र श्रीमद्धाराणां श्रीमतो राज्य भोजदेवस्य ......। एवमिदं पद्मचरित टिप्पणं श्रीचन्द्रमुनिकृतं समाप्तमिति Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २७६ १०८५० में राजा भोज के राज्यकाल में रचा है । चीथो कृति 'शिवकोटि को भगवती आराधना का टिप्पण है। जिसका उल्लेख पं० श्राशावर जी ने अपने 'मूलाराधना दर्पण' में नं० ५८९ गाथा की टीका करते हुए किया है। मुनि श्रीचन्द्र की ये सभी कृतियाँ धारा में ही रची गई हैं। उक्त टीका प्रशस्तियों में मुनि श्रीचन्द्र ने सागरसेन और प्रव नसेन नाम के दो सैद्धान्तिक विद्वानों का उल्लेख किया है जो धारा निवासी थे। इससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय धारा में अनेक जैन विद्वान और मुनि निवास करते थे । केशिवराज यह सूक्ति सुधार्णव के कर्ता मल्लिकार्जुन का पुत्र और होयसालवंशी राजा नरसिंह के कटको पाध्याय सुमनाचाण का दोहित्र और जन्न कवि का भानजा है। इसके बनाये हुए चोलपालक चरित्र सुभद्राहरण, प्रबोधचन्द्र, किरात और शब्दर्माण दर्पण ये पांच ग्रन्थ हैं। परन्तु इनमें से केवल शब्दमणि दर्पण उपलब्ध है। यह कर्नाटक भाषा का सुत्रसिद्ध व्याकरण है। इसकी जड़ का विस्तृत और स्पष्ट व्याकरण कनड़ी में दूसरा नहीं। इसकी रचना पद्यमयी है । और इस कारण कवि ने स्वयं ही इसकी वृत्ति लिख दी है। ग्रन्थ सन्धि, नाम, समास, तद्धित, श्राख्यान, धातु, अपभ्रंश, अव्यय और प्रयोगसार इन पाठ अध्यायों में विभक्त है । कवि का समय ई० सन् १०६० है । पद्मसेनाचार्य यह किस गण-गच्छ के थाचार्य थे । यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ । संवत् १०७६ में पूष सुदी द्वादशी के दिन देवलोक को प्राप्त हुए । इनकी यह निषधिका रूप नगर ( किशनगढ़ से ) डेढ़ मील दूर राजस्थान में चित्रनन्दी द्वाराप्रतिष्ठित हुई थी। इनका समय ईसा की दशवीं श्रीर विक्रम ११वीं शताब्दी है । विमलसेन पण्डित - इनका गण-गच्छ और परिचय प्राप्त है। यह मेघसेनाचार्य के शिष्य थे। इनका रां० १०७६ ज्येष्ठ सुदी १२ को स्वर्गवास हुआ था। इनकी स्मृति में निषधिका बनाई गई। जिन्होंने बारधना की भावना द्वारा देवलोक प्राप्त हुआ था । यह निषिधिका राजस्थान के रूप नगर ( किदानगढ़ से डेढ़ मील दूर ) में बनी हुई है उसमें देवली के ऊपर एक तीर्थंकर मूर्ति प्रतिष्ठित है। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है। सागरसंन सैद्धान्तिक– यह प्राकृत संस्कृत भाषा और सिद्धान्त के विद्वान थे और धारा नगरी में निवास करते थे । बलात्कार गण के विद्वान मुनि श्री नन्दि के शिष्य मुनि श्री चन्द्र ने आपसे महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण के विषम-पदों को जानकर और मूल टिप्पण का अवलोकन कर राजा भोज देव के राजकाल में (सं० २०८० में) महापुराण का टिप्पण बनाया था । इनकी गुरु परम्परा क्या है और उन्होंने क्या रचनाएँ रचीं। इसके जानने का कोई साधन नहीं है । पर इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है । १. श्री विक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक सहस्रं महापुराण विषम पद विवरण सागरगंन संद्धान्तात् परिज्ञाय मूल टिप्पणिकांचालोक्य कृत मिदं समुच्चय दिगणं प्रज्ञपातभीतेन श्रीमद्म लास्कारगण श्री नन्द्यः चर्व सत्कविशिष्य श्री चन्द्र मुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज विजयनः श्री भोजदेवस्य । - उत्तर पुराण टिप्पण प्रशस्ति । २. सं० १०७६ पौष सुदी १२ श्री पद्मसेनाचार्य देवलोकं गतः । चिश्रनन्दिना प्रतिष्ठेयं । १०३६ (७६) श्री पद्मसेनाचार्य देवलोक गतः देवनन्दन। प्रतिष्ठेयं । ३. सं० १०७६ ज्येष्ठ सुदी १२ मेघसेनाचार्यस्य तस्य शिष्य विमलसेन पंडितेन (आ) सधना ( भावना)' भावयित्वा दिवंगतः (तस्येयं निषिधिका ) ४. श्री विक्रमादित्य-संवत्सरे वर्षारणाशीत्यधिक सह महापुराण- विषम पद विवरण सागरमैन संद्धान्तान् परिजाय मूल टिप्पणिका चालोक्य कृतमिदं समुच्चय दिप्पर ग्रज्ञ पातभीतेन श्री मद्बलात्कारण श्री नंद्याचार्य सत्कविशिष्येण चन्द्र मुनिना निजदोर्दण्डाभिभूत रिपुराज्य विजयिनः श्री भोजदेवस्य ।" Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २७७ इन्द्रसेन भट्टारकद्रविल (उ) संघ, सेनगण, मालन अन्वय के भट्रारक मल्लिसेन के प्रधान शिष्य थे इन्हें चानुक्य कुलभूषण राजा त्रिभुवनमल्ल देव की रानी जाकल देवी से, जो जैन धर्मपरायणा और जिन पूजा में निरत रहता था और इंगुणिगे ग्राम का शासन करती थी। वह जैन धर्मपरायणा रानी तिक्क को पुत्रो थो। उसके पति चालुक्य कुलभूषण त्रिभुवनमल्लदेव थे। जो कल्याणपुर के शासक थे। उन्होंने रानी को जैन धर्म संपरान्मुख करने को प्रतिज्ञा ले रक्खी थी। परन्तु वह अपने उस कार्य में सफल न हो सका। एक दिन राना के सौभाग्य से एक व्यापारी महुमाणिक्य देव की प्रतिमा लेकर पाया, और रानी के सामने वह अपना विनयभाव दिखला रहा था कि उसी समय राजा त्रिभुवनमल्लदेव पा गया। उसने रानी से कहा कि यह जिनमति अनुपम सुन्दर है, इसे अपने आधीन ग्राम में प्रतिष्ठित करो, तुम्हारे धर्मानुयायियों के लिये प्रेरणाप्रद होगी तब राजा की आज्ञा से रानी ने मूति की प्रतिष्ठा भी करायी आ दर मन्दिर भी बना दिया। और उसकी ध्यवस्था उक्त इन्द्रसेन भट्टारक का सौंपी। यह दान चालुक्य विक्रम के १८वे राज्यवर्ष में सन् १०५.४ में श्रामुख संवतसर के फाल्गुण सुदी १०मी सोमवार के दिन समारोह पूर्वक् भट्टारक जी के चरणों की पूजा करके सौंपा गया था।' दान में २१ वृहत् मत्तर, प्रमाण कृष्य भूमि, १ बगीचा और जन मन्दिर के समीप का एक घर दिया। माणिक्यनन्दी माणिक्यनन्दी नन्दि संघ के प्रमुख प्राचार्य थे। और धारा नगरी के निवासी थे। वे व्याकरण और सिद्धान्त के ज्ञाता होने के साथ दर्शन शास्त्र के तलदृष्टा विद्वान थे। उस समय धारा नगरी विद्या का केन्द्र वन। हई थी। बाहर के अनेक विद्वान् वहां आकर अपनो विद्या का विकाम करते थे। वहां अनेक विद्यापीठ थे जिनम छात्र रहकर विद्याध्ययन करके विद्वान बनते थे । अनेक सारस्वत विद्वान् प्राचार्य जैन धर्म का विकास और प्रचार कार्य में संलग्न रहते थे। उस समय धारा नगरी का प्रभु भोज देव था, जो राज्य कार्य का संचालन करते हझा भी विद्या व्यसनी, कवि और शास्त्र कर्ता था । वह विद्वानों का बड़ा आदर करता था। वहां के विद्या पीठ में सिद्धान्त, दर्शन, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यादि विविध विषयों के ग्रन्थों का पठन-पाठन होता था । सुदर्शन चरित के कर्ता नयनन्दी ने वहां की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख किया है। सुनक्षत्र, पपनन्दी, विष्णुनन्दो, नन्दनन्दी, विश्वनन्दी, विशाखनन्दी, गणीरामनन्दी, माणिक्यनन्दी नयनन्दी, हरिसिंह, श्रीकुमार, जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहा जाता था, प्रभाचन्द्र, और बालचन्द्र । दूसरी परम्परा लाड़ वागड गण के बलात्कारगण को थी। जिसमें सागरसेन, प्रवचनसेन, और श्रीचन्द्रादि विद्वानों का उल्लेख पाया जाता है। माणिक्यनन्दी गणीरामनन्दी के शिष्य थे। जो भारतीय दर्शन के साथ जैन दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनके अनेक विद्या शिष्य थे। उनमें नयनन्दा प्रथम विद्या शिष्य थे। जिन्होंने सं० ११०० में धारा नरेश भोज -- - - १. (देखो, गुलबर्गा जिले का दान-पत्र) Jainism in south India P.406-407 २. जिरिणदस्स बोरस्स तित्थे महंते महाकुंदकुदाएए एंतसंते । सुम्गक्साहिहारो तहा पोमणंदी, पुणो विण्डणदी तयो संदिणंदी। जिराइट धम्म सुरासी विसुद्धो, कंधारणेप गंयो जयंते पसिद्धो । भवंबोहिपोओ महा विस्सगदी, खमाजुत्तु सिद्ध तिमो विसहरणंदी। जिरिएंदागमाहासणे एयचित्तो, तवापार गिट्टाए लद्धाए जुत्तो। णरिदा मरिदेहि सो रददी, हुओ तस्स सीसो गरणी रामणंदी। भसेसाण गंथारा पारम्मि पत्तो, तवे अंग वीभवराईव मित्तो। मुगावासभूओ सुतिल्लोकणंदी महापडिभो तस्स माणिकर्णदी। भृजगप्पयाओ इमोखाम छंदी। -(सुदसणचरित प्रशस्ति) ३.जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग२१२५ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ राज्य काल में 'सदसणचरिउ' और सकल विधिविधान काव्य की रचना की थी। उन्होंने अपने विद्यागुरु माणिक्यनन्दी को महापण्डित और विद्य बतलाते हुए, उन्हें प्रत्यक्ष परोक्षरूप जल से भरे और नयरूप चंचल तरंग समूह से गंभीर उत्सम सप्तभंगरूप कल्लोल माला से भूषित, जिनशासनरूप निर्मल सरोवर से युक्त मोर पण्डितों का चडामणि प्रकट किया है । और 'सुदंसण चरिउ' की पुष्पिका में माणिक्य नन्दी का विद्यरूप से उल्लेख किया है जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है:-"एत्य सुदंसण चरिए पंचणमोक्कारफल पायसयरे माणिक्यनंदी तइविज्जसीस णयणदिणा रइए असेससुर संयुधे णवेविवडुमाणं जिणं तमो बिसयो पट्टणं णयरपत्थिम्रो पब्वयं समोसरण संगयं महापुराण पाउच्छणं इमाण कयवण्णणो णाम पढमो सधि समतो॥" माणिक्यनंदी ने भारतीय दर्शन शास्त्र और प्रकलंक देव के ग्रंथों का दोहनकर जो नवनीतामृत निकाला, वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का संद्योतक है । वे जैन न्यायके आच सूत्रकार हैं। उनकी एक मात्र कृति 'परीक्षा मुख, सूत्र है, जो न्यायसूत्र ग्रंथों में अपना असाधारण स्थान और महत्व रखता है। परीक्षा मुख-यह जैन न्याय का आद्यसुत्र ग्रन्थ है जो छह अध्यायों विभक्त है और जिसके सूत्रों की कुल संख्या २०७है। ये सब सूत्र सरस, गंभीर और अर्थ गौरव को लिए हुए हैं। भारतीय वाङ्मय में सांख्य सूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, मीमांसकसूत्र और ब्रह्मसूत्र प्रादि दार्शनिकमूत्र ग्रन्थ प्राचीन हैं। किन्तु जैन न्याय को सूत्र बद्ध करने वाला कोई ग्रन्थ उस समय तक नहीं था। अत: प्राचार्य माणिक्यनन्दी ने उस कमी को दूर कर इस सूत्र ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में प्रमाण और प्रमाणाभास का कथन किया गया है। अतः उनको यह कृति असाधारण और अपूर्व है, और न्यायमूर ग्रंथों में अपना सामान रखता है। किसी विषय में नाना युक्तियों को प्रबलता और दुर्बलता का निश्चय करने के लिये जो विचार किया जाता है उसे परीक्षा कहते हैं। इस परीक्षामुख के सूत्रों का आधार न्यायसूत्र यादि के साथ अकलंक देव के लद्योस्त्रय, न्यायविनिश्चय और प्रमाणसग्रहमादि हैं। इस सूत्र ग्रन्थ पर दिग्नाग के 'न्यायप्रवेश' और धर्म कीर्ति के 'न्याय बिन्दु' का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । उत्तरवर्ती प्राचार्यों में वादिदेव सूरि के प्रमाण नय तत्त्वालोक और हेमचन्द्र की प्रमाण मीमांसापर परीक्षामुख अपना प्रमिट प्रभाव रखता है । जो अल्पाक्षरों वाला है, असंदिग्ध, सारवान. गढ अर्थ का निर्णायक, निर्दोष तथा तथ्य रूप हो वह सूत्र कहलाता है। परीक्षामुख में सूत्र का उक्त लक्षण भलीभांति संघटित है इस ग्रन्थ पर अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गए हैं। उनसे इसकी महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। इस सूत्र ग्रन्थ पर माणिक्यनंदी के शिष्य प्रमाचन्द्र ने १२ हजार श्लोक प्रमाण 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' नाम की एक वृहत् टीका लिखी है । यह जैन न्याय शास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका नाम ही इस बात का संसूचक है कि यह ग्रन्थ प्रमेय रूपी कमलों के लिये मार्तण्ड (सूर्य) के समान है । प्रभाचन्द्र ने यह टीका भोजदेव के ही राज्य में बनाकर समाप्त की थी। दूसरी टीका प्रमेयरत्नमाला अनन्तवीर्य की कृति है, जिसे उन्होंने उदार चन्द्रिका (चांदनी) की उपमा दी है और अपनी रचना प्रमेय रत्नमाला को प्रमेय कमल मार्तण्ड के सामने खद्योत (जुगन) के समान बतलाया है। यह लधु टीका संक्षिप्त और प्रसन्न रचना शैली में हैं। इस पर सागर में गागर वाली कहावत चरितार्थ होती है। तीसरी टीका 'प्रमेयरत्नालंकार' है, जो भट्टारक चारुकीति द्वारा परीक्षामुख के सूत्रों पर लिखी गई है। भट्टारक चार कीर्ति श्रवण बेलगोला के निवासी थे। देशीगण में अग्रणी थे । ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने १. विरुद्ध नाना युक्ति प्राबल्य दौरजल्यावधारणाम प्रवर्तमानो विचार: परीक्षा। -(न्यामदीपिका) लक्षितस्य लक्षण मुपपद्यत न केत्ति विचार: परीक्षा। -तक संग्रह पदकृत्य । २. देखो, अनेकान्त । ३. असाक्षर मसंदिग्ध सारवद् गूढनिएंयम् । निदोष हेतुमत्तथ्यं सूत्र सूषिदो विदुः । -प्रमेय रत्नमाला टि-पण इ. ४. प्रभेन्दुवचनोदार चन्द्रिका प्रसरसति । मादृशाः क्वनु गण्यन्त ज्योतिरिक्षण सलिभा:-प्रमेय रत्नमाला। ५. श्री नारकोसिधुर्यस्सन्तनुते पण्डितामुनिवर्यः । व्याख्या प्रमेयरस्नालंकाराच्या मुनीन्द्रसूत्राणाम् । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचा २७६ को चारुकीर्ति पण्डिताचार्य सूचित किया है। और ग्रन्थ के तीसरे श्लोक में गुरुमाणिक्य नन्दो मेरे हृदय में निरन्तर "हर्ष करें ऐसी आकांक्षा व्यक्त की है "हर्ष वर्षतु सन्ततं हृदि गुरुमाणिक्यनन्दी मम ।।" परीक्षा मुख के समान इसमें भी छह परिच्छेद हैं। यह टीका प्रमेय रत्नमाला से ग्राकार में बड़ी है। और इसमें कुछ ऐसे विषयों का भी प्रतिपादन है जो प्रयत्न माला में नहीं मिलते। यह रचना प्रमेय कमल मार्तण्ड और प्रमेय रत्नमाला के मध्य को कड़ी या सोपान है जिसके द्वारा न्यायशास्त्र के जिज्ञासु उस भवन पर आसानी से आरोहण कर सकते हैं। यह ग्रन्य अभी प्रकाशित है, इसकी प्रति जैन सिद्धान्त भवन प्रारा में उपलब्ध है । परीक्षा मुख के स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं' सूत्र पर लिखो गई शान्ति वर्णों को स्वतंत्र कृति प्रमेय कठिका है | यह ग्रन्थ पांच स्तबकों में विभक्त है। इसमें प्रमेय रत्नमालान्तर्गत कुछ विशिष्ट विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इस कारण इसे परीक्षा मुख की टीका नहीं कहा जा सकता । ग्रंथ अभी अप्रकाशित है। यह प्रति भी जैन सिद्धान्त भवन आरा में मौजूद हैं। माणिक्य नन्दी वि० की ११वीं सदी के विद्वान हैं । नयनन्वी यह प्राचार्य कुन्दकुन्द 'की परम्परा में होने वाले त्रैलोक्यनन्दी के प्रशिष्य श्रीर माणिक्यनन्दी के प्रथम विद्या शिष्य थे । इन्होंने अपनी कृति सुदर्शन चरित की प्रशस्ति में जो गुरु परम्परा दो है वह महत्वपूर्ण है । प्रस्तुत नयनन्दी राजा भोज के राज्यकाल में हुए हैं। इन्होंने वहीं पर विद्याध्ययन कर ग्रन्थ रचना की है। इनके दीक्षा गुरु कौन थे, क्या है? यह कुछ ज्ञात नहीं होता । कवि काव्य शास्त्र में निष्णात थे, साथ ही प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट विद्वान थे। छन्द शास्त्र के परिज्ञानी थे । कवि ने धारा नगरी के एक जैन मंदिर के महा विहार में बैठकर अपना 'सुदंसण चरित्र' परमारवंशी राजा भोज देव, त्रिभुवन नारायण के राज्य में वि० सं० ११०० में बनाकर समाप्त किया था। उसके राज्यकाल के शिलालेख सं० १०७७ से ११०४ तक के पाये जाते हैं। जिसका राज्य राजस्थान में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में कोंकण व गोदावरी तक विस्तृत था । सुदंसणचरिउ अपभ्रंशभाषा का एक खण्ड काव्य है, जो महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है। जहां ग्रन्थका चरित भाग रोचक और पाकर्षक है वहाँ वह सालंकार काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है। कवि ने उसे निर्दोष और सरस बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है कि रामायण में राम और सीता का faयोग तथा शोक जन्य व्याकुलता के दर्शन होते हैं, और महा भारत में पाण्डव तथा धृतराष्ट्रादि कौरवों के परस्पर कलह एवं मारकाट के दृश्य पंक्ति मिलते हैं। तथा लोक शास्त्र में भी कौलिक, चोर, व्याध आदि की कहानियाँ सुनने में थाती हैं, किन्तु इस सुदर्शन चरित में ऐसा एक भी दोष नहीं है, जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट हैं : रामो सो विद्यय-सोय-विहरं संपतु रामायणे, जावं पाण्डव- धायरट्ठ सवयं गोलं कली- भारहे। डा-कोलिय-थोर-रज्जु-गिरवा आहासिवा सुये, । viteos free चरिदे बोस समुभासिवं ॥ कवि ने काव्य के आदर्श को व्यक्त करते हुए लिखा है कि रस और एलंकार से युक्त कवि की कविता में जो रस मिलता है वह न तरुणिजनों के विद्रुम समान रक्त प्रवरों में न आम्रफल में, न ईख में, न ममृत में, न हाला ( मंदिर 1 ) में, न चन्दन में न चन्द्रमा में ही मिलता है । १. परीक्षासूत्रस्याचं विवृष्महे । इति श्री शान्ति विरचितायां प्रमेय कण्ठिकाया ........ स्तवकः २. for विक्कम काल हो वषगए एयारह संच्छर-ससु तहि केवल्दी चरिउ अमय छोरा । एायनंदी विरयञ्च वित्यरेण । - सुदंसणचरिद ३. यो संजावं तदरिण अहरे विमारतसोहे, यो साहारे समियममरे व पु बिच्छु । णो पीयूसे लेखहिणे चन्द विचन्ये, सालंकारे सुकद्दमणिदे गं रस होदि कव्वे ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ । प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन के निष्कलंक चरित की गरिमा ने उसे और भी पावन एवं पठनीय बना दिया है। ग्रन्थ में १२ सन्धियां और २०७ कडलक हैं, जिनमें सुदर्शन के जीवन परिचय को अकित किया गया है। परन्तु कथा काव्य में कवि की कथन शैली, रस और अलंकारों की पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्यरस तथा प्रसंगवश कला का अभिव्यंजन, नायिका के भेद, ऋतुओं का वर्णन और उनके बेष-भूषा आदि का चित्रण, विविध छन्दों की भरमार, है वे ग्रन्थ में मात्रिक विषम मात्रिक लगभग १२ छन्दों का उल्लेख मय उदाहरणों के दिये गए हैं। इससे नयनन्दी छन्द शास्त्र के विशेष ज्ञाता जान पड़ते हैं। लोकोपयोगी सुभाषित, और यथा स्थान धर्मोपदेशादि का विवे. चन इस काव्य ग्रन्थ की अपनी विशेषता के निदर्शक हैं और कवि को ग्रान्तरिक भद्रता के द्योतक हैं। अन्य में पंच नमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्शन के चरित्र का चित्रण किया गया है। कथावस्तु चरित्र नायक यद्यपि वणिक श्रेष्ठी है तो भी उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा भेरुवत् निश्चल है। उसका रूप-लावण्य इतना चित्ताकर्षक था कि उसके बाहर निकलते ही युबतिजनों का समूह उसे देखने के लिये उत्कंठित होकर मकानों की छतों द्वारा तथा झरोखों में इकट्ठा हो जाता था, वह कामदेव का कमनीय रूप जो था। साथ ही वह गुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञ के पालन में अत्यन्त राधमांचरण करने में तत्पर, सवसे मिष्ठभाषी और मानव जीवन की महत्ता से परिचित था और था विषय विकारों से विहीन । ग्रन्थ का कथा भाग सुन्दर मौर माकर्षक है।: अंग देशके चंपापुर नगर में, जहां राजा धाड़ीवाहन राज्य करता था। वहां वैभव सम्पन्न ऋषभदास सेठ का एक गोपालक (ग्वाला) था, जो गंगा में गायों को पार कराते समय पानी के वेग से डूब कर मर गया था और मरते समय पंच नमस्कार, मंत्र की प्राराधना के फलस्वरूप उसी सेठ के यहां पुत्र हुमा था। उसका नाम सुदर्शन रक्खा गया। सूदर्शन को उसके पिता ने सब प्रकार से सुशिक्षित एवं चतुर बना दिया, और उसका विवाह सागरदत्त सेठ की पुत्री मनोरमा से कर दिया। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने कार्य का विधिवत् संचालन करने लगा। सुदर्शन के रूप की चारों ओर चर्चा थी, उसके रूपवान शरीर को देखकर उस नगर के राजा धाड़ी वाहन की रानी अभया उस पर प्रासक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करने की अभिलाषा से अपनी चतुर पंडिता दासी को सेठ सुदर्शन के यहां भेजतो है, पंडिता दासी रानी की प्रतिज्ञा सुनकर रानी को पतित्रत धर्म का अच्छा उपदेश करतो है और सुदर्शन को चरित्र-निष्ठा को ओर भी संकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारों से निश्चल रहती है और पंडिता दासी को उक्त कार्य की पूर्ति के लिये खास तौर से प्रेरित करती है। पंडिता सुदर्शन के पास कई बार जातो है और निराश होकर लौट आती है, पर एक बार वह दासी किसी कपट-कला द्वारा सुदर्शन को राज महल में पहुंचा देती है । सुदर्शन के राज महल में पहुंच जाने पर भी अभया अपने कार्य में असफल रह जाती है-उसको मनोकामना पूरी नहीं हो पाती। इससे उसके चित्त में असह्य वेदना होती है और वह उससे अपने प्रपगान का बदला लेने पर उतारू हो जाती है, वह अपनी कुटिलता का माया जाल फैला कर अपना सुकोमल शरीर अपने ही नखों से रुधिरप्लावित कर डालती है और चिल्लाने लगती है कि दोड़ो लोगों मुझे बचाओ, सुदर्शन ने मेरे सतीत्व का अपहरण किया है, राजकर्मचारी सुदर्शन को पकड़ लेते हैं और राजा अज्ञानता वश कोधित हो रानी के कहे अनुसार सुदर्शन को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे देता है। पर सुदर्शन अपने शीलब्रत की निष्ठा से विजयी होता है- एक देव प्रकट होकर उसकी रक्षा करता है । राजा धाडीवाहन का उस व्यन्तर से युद्ध होता है और राजा पराजित होकर सुदर्शन की शरण में पहुंचता है, राजा घटना के रहस्य का ठीक हाल जान कर अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है और सुदर्शन को राज्य देकर विरक्त होना चाहता है, परन्तु सुदर्शन संसार-भोगों से स्वयं ही विरक्त है, वह दिगम्बर दीक्षा लेकर तपश्चरण करता है राजा के लौटने से पूर्व ही प्रभया रानी ने आत्मघात कर लिया और मर कर पाटलिपुत्र नगर में व्यन्तरी हुई। पंडिता भी पाटलिपुत्र भाग गई और वहां देवदत्ता गणिका के यहां रहने लगी। मुनि सुदर्शन कठोरता से चारित्र का अनुष्ठान करने लगे । वे विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे । उन्हें देख Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारवीं और बारहवों शताब्दी के विद्वान, आचार्य २८१ पंडिता ने देवदत्ता गणिका को उनका परिचय कराया। गपिका ने छल से उन्हें अपने गृह में प्रवेश कराकर कपाट बन्द कर दिये, गणिका ने मुनि को प्रलोभित करने की अनेक चेष्टाएं की। अन्त में निराश हो उसने उन्हें श्मशान में जा डाला। वहां जब वे ध्यानस्थ थे, तभी एक देवांगना का विमान उनके ऊपर आकर रुक गया। देवांगना रुष्ट हुई । और मुनि को देख कर उसे अपने अभया रानी वाले पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। उसने विक्रिया ऋद्धि से मुनि के चारों ओर घोर उपसर्ग किया, तो भी सुदर्शन मुनि ध्यान में स्थिर रहे। इसी बीच एक व्यन्तर ने पाकर उस व्यन्तरी को ललकारा, उसे पराजित कर भगा दिया । कुछ समय पश्चात् सुदर्शन मुनि के चार घातिया कर्मों का नाश हो गया और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हवा । देवादिक इन्द्रों ने उनकी स्तुति को, कुबेर ने समोसरण की रचना की। केवली के उपदेश को सुनकर व्यन्तरी को वैराग्य हो गया, उसने तथा नर-नारियों ने सम्यक्त्व को धारण किया। प्रवशिष्ट अघाति कर्मों का नाश कर सुदर्शन ने मुक्ति पद प्राप्त किया। कवि की दूसरी कुति 'सयल विहिबिहाणकच' है, जो एक विशाल काव्य है जिसमें ५८ संधियों प्रसिद्ध हैं, परन्तु बीच की १६ संथियाँ उपलब्ध नहीं है । ग्रन्थ के टित होने के कारण जानने का कोई साधन नहीं है । प्रारम्भ को दो-तीन संधियों में ग्रन्थ के अवतरण आदि पर प्रकाश डालते हुए १२ वीं से १५ वी संधि तक मिथ्यात्व के काल मिथ्यात्व और लोक मिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यात्वों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए क्रिया वादि और प्रक्रियावादि भेदों का विवेचन किया है। परन्तु खेद है कि १५वीं सन्धि के पश्चात् ३२ वी सन्धि तक १६ सन्धियाँ आमेर भण्डार की प्रति में नहीं हैं। हो सकता है कि वे लिपि कर्ता को न मिली हों। ग्रन्थ की भाषा प्रौढ़ है और वह कवि के अपभ्रंश भाषा के साधिकारित्व' को सूचित करती है। अन्धान्त में सन्धिवाक्य पद्य में निबद्ध किये हैं। मुणिवरणयदि सण्णिद्धे पसिबढे, सयलविहि विहाणे एत्य कथ्ये सुभम्बे, समवसरणसंसि सेणिए संपवेसो, भगिज जण मणुज्जो एम संघी तिबज्जो ॥३॥ ग्रन्थ की ३२वीं सन्धि में मद्य-मांस-मधु के दोष और उदंबरादि पंच फलों के त्याग का विधान और फल बतलाया गया है । ३३ वीं संधि में पंच अणुव्रतों का कथन दिया हुआ है और ३६ वीं संधि में अणुव्रतों की विशेषताएं बतलाई गई हैं। और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के आख्यान भी यथा स्थान दिये हुए हैं। ५६ वीं संधि के अन्त में सल्लेखना (समाधिमरण) का स्पष्ट विवेचन किया गया है और विधि में प्राचार्य समन्तभद्र की सल्लेखना विधि के कथन-क्रम को अपनाया गया है। इससे यह काव्य ग्रन्थ गृहस्थोपयोगी व्रतों का भी विधान करता है। इस दृष्टि से भी इस ग्रन्थ की उपयोगिता कम नहीं है। छन्द शास्त्र की दृष्टि से इस ग्रन्थ का अध्ययन और प्रकाशन आवश्यक है । क्योंकि ग्रन्थ में ३०-३५ छन्दों का उल्लेख किया गया है जिनके नामों का उल्लेख प्रशस्ति संग्रह की प्रस्तावना में किया गया है । ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है। उसमें कवि ने ग्रन्य बनाने में प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जन जेनेतर और कुछ सम सामयिक विद्वानों का भी उल्लेख किया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सम-सामयिक विद्वानों में, श्री चन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्री कुमार का, जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे, नाम दिये हैं।। कविबर नयनन्दी ने राजा भोज, हरिसिंह, प्रादि के नामोल्लेख के साथ-साथ वच्छराज, और प्रभु ईश्वर का उल्लेख किया है और उन्हें विक्रमादित्य का मांडलिक प्रकट किया है। यथा जहिं बच्छराउ पुण पुहइ वच्छु, हुतउ पुह ईसह सूबवत्यु। हो एप्पिणु पत्थए हरियराउ, मंडलिउ विक्कमाइच जाउ ।। संधि २ पत्र इसी संधि में चलकर अंबाइय और कांचीपुर का उल्लेख किया है, कवि इस स्थान पर गये थे। इसके अनन्तर ही वल्लभराज का उल्लेख किया है, जिसने दुर्लभ जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया था, और जहां पर रामनन्दी, जयकीति और महाकीर्ति प्रधान थे। जैसा कि ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों से प्रकट है : १. जैन ग्रन्थ प्रशास्ति संग्रह भा० २ प्रस्यावना पृ० ५० Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ 'अंबाहय कंचौपुर विरत्त, जहिं भमई भव्य भत्तिहि पसत्त । जहि बल्लहराएँ बल्लहेण, काराविउ कित्तण बुल्लहेण । जिण पडिमा लकिज गम्छमाण, केण बियंभिउ सुरविमाण । जहि रामणंवि गुणमणि णिहारा जयकिसिमहाकित्ति वि पहाणु। इय तिणि विपरमय-माई-मयंद-मिच्छत-विडबिमोडणगई।' उक्त पचों में उल्लिखित रामनन्दी कौन हैं, और उनकी गुरु परम्परा क्या है और जयकोति महाकोति से से इनका क्या सम्बन्ध है ? यह प्रज्ञात है। ये तीनों विद्वान भी नयनन्दी के समकालीन हैं। रामनन्दो प्राचार्य थे। इनके शिष्य बालचन्द ने कवि से सकलविधि-विधान बनाने का संकेत किया था। ऐतिहासिक दृष्टि से इन विद्वानों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है। प्राकृत श्रुतस्कन्ध के कर्ता, ब्रह्म हेमचन्द्र के गुरु भो रामनन्दी हैं। और माणिक्य नन्दी के गुरु भी रामनन्दो हैं । ये दोनों भिन्न-भिन्न विद्वान हैं या अभिन्न हैं, यह विचारणीय है। प्रमाचन्द्र माणिक्यनन्दी के अन्य विद्या शिष्यों में प्रभाचन्द्र प्रमुख रहे हैं । वे उनके 'परीक्षामुख' नामक सूत्र-ग्रन्थ के कुशल टीकाकार भी हैं । दर्शन शास्त्र के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान थे। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने उक्तधारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन शास्त्र का प्रध्ययन ही नहीं किया ; प्रत्युत धाराधिपभोज के द्वारा प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की रचना की है । 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' (परीक्षामुख टीका) नामक विशाल दार्शनिक अन्य सुप्रसिद्ध राजा भोज के राज्यकाल में ही रचा गया है । और 'न्याय कुमुदवन्द्र' (लघीयत्रय टीका) पाराधना-गद्य कथाकोश पुष्पदन्त के महापुराण (ग्रादिपुराण-उत्तरपुराण) पर टिप्पण-ग्रन्थ तत्वार्य वृत्ति पद टिप्पण, शब्दाम्भोज भास्कर समाधितंत्र टीका ये सब ग्रन्थ राजा जयसिंह देव के राज्य काल में रघे गये हैं। शेष ग्रन्थ प्रवचन सरोज मास्कर, पंचास्तिकायप्रदीप, प्रारमानुशासन तिलक, क्रियाकलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, पृहत्स्वयंभूस्तोत्र टीका, तथा प्रतिक्रमणपाठ टीका, ये सब प्रन्थ कब और किसके राज्यकाल में रचे गए हैं ये इन्हीं प्रभाचन्द्र को कृति है या अन्य की यह विचारणीय है। इनमें प्रवचन सरोजभास्कर और पचास्तिकाय प्रवीप तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की कति हैं। शेष के सम्बन्ध में सप्रमाण निर्णय करने की जरूरत है कि इन्हीं की कृति है। या किसी अन्य प्रभाचन्द्र की। ये प्रभाचंद्र वही ज्ञात होते हैं जिनका श्रवण बेलगोल के शिलालेख ने० ४० के अनुसार मूलसंघान्तर्गत नन्दीगण के भेदरूप देशोयगण के गोल्लाचार्य के शिष्य एक पविकर्ण कौमारवती पप्रनन्दी सैद्धांतिक का उल्लेख है जो कर्णवेयसंस्कार होने से पूर्व ही दीक्षित हो गए थे। उनके शिष्य (पौर कुलभूषण के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख पाया जाता है जिसमें कुलभूषण को चारित्रसागर और सिद्धान्त के पारगामी बतलाया गया है। पौर प्रभाचन्द्र को शब्दाम्भोरुह भास्कर तथा प्रथित तर्क-अन्धकार प्रकट किया है। इस शिलालेख में मुनि कुलभूषण की शिष्य परम्परा का भी उल्लेख निहित है। प्रषिकर्णादिक पपनदी सैद्धान्तिकाल्योऽजनियस्य लोके। कौमारवेषवासिता प्रसिरिजॉयात सज्जानिषिः सबीरः।। सपिछष्यः कुलभूषणाख्या यतिपश्चारित्रवार मिधिःसिद्धान्ताम्युषि पारपो नतविनेयस्तत्सवों महान् । शवाम्भोरुह भास्करः प्रथित सम्पकारः प्रभाचदरल्या मुमिराज पंरितबर:श्रीकुम्बकुम्बाम्बयः ।। तस्य श्री कुलभूषणाल्य सुमनेशिष्यो विनयस्तुत: सवृत्तः कुलचनदेव भूमिपस्सिबापत विद्यानिधिः ।। श्रवण वेल्गोल के ५५ शिलालेख'मैं मूलसंध देशीयगण के देवेन्द्रसैद्धान्तिक के शिष्य, पतुमख देव के शिष्य गोपनन्दी पौर इन्हीं गोपनन्दी के सषर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख भी किया गया है, जो प्रभाचन्द्र पारा Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६३ धीश्वर राजा भोज द्वारा पूजित थे और न्याय रूप कमल समूह को विकसित करने वाले दिनमणि, श्री शब्दरूप अब्ज को प्रफुल्लित करने वाले रोदोमणि (भास्कर) सदृश थे और पण्डित रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य तथा रुद्रवादि दिग्गज विद्वानों को वश करने के लिये अंकुश के समान थे तथा चतुर्मुख देव के शिष्य से । दोनों हो शिलालेखों में उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही विद्वान जान पड़ते हैं। हां, द्वितीय लेख (५५) में चतुर्मुखदेव का नाम नया जरूर है, पर यह संभव प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्र के दक्षिण देश से धारा में श्राने के पश्चात् देशीयगण के विद्वान चतुर्मुखदेव भी उनके गुरु रहे हों तो कोई ग्राश्वयं नहीं क्योंकि गुरु भी तो कई प्रकार के होते हैं - दीक्षा गुरु विद्या गुरु श्रादि। एक-एक विद्वान के कई-कई गुरु और कई-कई शिष्य होते थे। अतएव aga भी प्रभाचन्द्र के किसी विषय में गुरु रहे हों, और इसलिये वे उन्हें समादर की दृष्टि से देखते हो, नो कोई आपत्ति की बात नहीं, अपने से बड़ों को आज भी पूज्य और आदरणीय माना जाता है । अब रही समय की बात, सो ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमाण्ड को राजा भोज के राज्य काल में रचा है। जिसका राज्य काल संवत २०७० से ११५० तक का बतलाया जाता है । उसके राज्य काल के दो दान पत्र संवत् १०७६ और १०७९ के मिले हैं । आचार्य प्रभाचन्द्र ने देवनंदी को तत्वार्थ वृति के विषम-पदों का एक विवरणात्मक टिप्पण लिखा है । उसके प्रारम्भ में श्रमितगति के संस्कृत पंत्रसंग्रह का निम्न पद्य उद्धत किया है वर्ग: शक्ति समूहो णोरणून वर्गणोदिता । वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धक स्पर्धकावहैः ॥ पंच संग्रह मसूतिकापुर में, जो वर्तमान में 'मसीद विलौदा' ग्राम के नाम से समाप्त किया है । श्रमितगति धाराधिप मुंज की सभा रत्न भी थे। इससे दिसंवत् १०७३ के बाद बनाया है। कितने दिन बाद बनाया है । यह अमितगति ने अपना यह प्रसिद्ध हैं, वि० सं १०७३ में बनाकर साफ है कि प्रभाग ने बात यभी विचारणीय है । न्याय विनिश्चय विवरण के कर्ता माचार्य वादिराज ने अपना पार्श्वनाथ चरित शक सं० ६४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया है। यदि राजा भोज के प्रारम्भिक राज्यकाल में प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमार्तण्ड बनाया होता, तो वादिराज उसका उल्लेख अवश्य ही करते। पर नहीं किया, इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय लक प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना नहीं हुई थी। हां, सुदर्शन चरित के कर्ता मुनि नयनन्दी ने जो माणिवय नन्दी के प्रथम विद्याशिष्य थे और प्रभाचन्द्र के समकालीन गुरुभाई भी थे, अपना 'सुदर्शनचरित' वि० सं० ११०० में बनाकर समाप्त किया था। उसके बाद 'सकल विधि विधान' नाम का काव्यग्रन्थ बनाया, जिसमें पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख किया है परन्तु उसमें उनकी रचनाओं का कोई उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमल मार्तण्ड की रचना सं० ११०० के बाद किसी समय हुई है और न्याय कुमुदचन्द्र [सं० १९९२ के बाद की रचना है, क्योंकि जयसिंह राजा भोज (सं० १११०) के बाद किसी समय उत्तराधिकारी हुआ है। न्याय कुमुदचन्द्र जयसिंह के राज्य में रचा गया है। इससे प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का उत्तराध और १२ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये । १ श्री धाराधिप-भोजराजमुकुट प्रोतास्म- रविमच्छटा छाया कुकुम-पंक लिप्त चरणाम्मो जात लक्ष्मीधन: न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिपादाब्ज-रोदोमणिः स्यात्पण्डित- पुण्डरीक तरणिः श्रीमान् प्रभाचन्द्रमा || १७|| श्रीचतुर्मुख देवानां शिष्योऽश्रूष्यः प्रवादिभिः । पण्डित श्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रादि गंजांकुशः ||१८|| २ यधिकेदानां सहस्र शतविद्वषः । ममूर्तिका पुरं जात मिदं शास्त्रं मनोरमम् । पंचसंह - ६ - जैन शिलालेख संग्रह भा० १५० ११६ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान मलयर ने आवश्यक निर्गुलि टीका (१० ३७१4) में लघीयस्त्रय की एक कारिका का व्याख्यान करते हुए 'टीका कारके' नाम से न्याय कुमुद्र चन्द्र में किया गया उक्त कारिका का व्याख्यान भी उद्धृत किया है। १२वीं शताब्दी के विद्वान देवभद्र ने न्यायावतार टीका टिप्पण (१० २१.७६ ) में प्रभाचन्द्र और उनके न्याय कुमुदचन्द्र का नामोल्लेख किया है। अतः १२ वीं शताब्दी के इन विद्वानों के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि प्रभाचन्द्र १२ वीं शताब्दी के पूर्वार्थ से आगे के विद्वान नहीं हो सकते । रचनाएं २८४ आचार्य प्रभाचन्द्र की निम्न कृतियां प्रसिद्ध हैं-- १ तस्वार्थ वृति पद विवरण (सर्वार्थ सिद्धि के दियमपदों का टिप्पण । २ प्रवचन सरोज भास्कर ( प्रवचनसार टीका ) ३ प्रमेय कमलमार्तण्ड ( परीक्षामुख व्याख्या ) ४ न्याय कुमुदचन्द्र (लबीयस्त्रय व्याख्या) ५ शब्दाम्भोज भास्कर ६ महापुराण टिप्पण ७ गद्य कथा कोश (आराधना कथा प्रबन्ध) = पंचास्तिकाय प्रदीप (पंचास्तिकाय टीका) क्रिया कलाप टीका १० रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका ११ समाधितंत्र टीका १२ । सस्वार्थ वृत्तिपद विवरण- यह तस्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) के अप्रकट-विपमपदों का विवरण है। प्रभाचन्द्र ने इस विवरण में वृत्ति के कथन को पुष्ट करने के लिए अनेक ग्रन्थों के वाक्यों को उद्धृत किया है। उन ग्रन्थों में अनेक ग्रन्थ प्राचीन और पूर्ववर्ती हैं। और कुछ समसामयिक तथा उनसे कुछ वर्ष पहले के हैं। मूलाचार, भाव पाहुड, पंच संग्रह, सिद्धभक्ति, युक्त्यनु शासन, भगवती ग्राराधना भ्रष्टशती, गोम्मटसार जीव कांड, संस्कृत पंचसंग्रह र वसुनन्दि श्रावकाचार। इनमें संस्कृत पंच संग्रह के कर्ता अमितगति (द्वितीय) वि० सं० १०५० से १०७३ के विद्वान हैं। उनका पंच संग्रह १०७३ की रचना है। और वसुनन्दि का समय १२ वीं शताब्दी बतलाया जाता है। यदि 'पडिगहमुच्चठ्ठाणं' गाथा वसुनन्दि की है, पूर्ववर्ती अन्य की नहीं है तब यह विचारणीय है कि उक्त गाथा के रहते हुए उक्त विवरण भी १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में रचा गया है । प्रवचन सरोज भास्कर - प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार की टीका है। प्रभाचन्द्र की इस टीका का नाम 'प्रबचन सरोज भास्कर' है । ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई की यह ५३ पत्रात्मक प्रति सं० १५५५ की लिखी हुई है, और जो गिरिपुर में लिखी गई थी। इस प्रति में प्राचार्य श्रमृतचन्द्र के द्वारा प्रवचनसार टीका में अव्याख्यात ३६ गाथाएं भी प्रवचन सरोजभास्कर में यथा स्थान व्याख्यात हैं। जयमेनीय टीका में प्रवचन सरोजभास्कर का अनुकरण किया गया है । सभाचन्द्र ने जब अक्सर देखा तभी उन्होंने संक्षेप से दार्शनिक मुद्दों की चर्चा की है । टीका प्रति संक्षिप्त होते हुए भी विशद है। इसका पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है :-" इति श्रो प्रभा चन्द्र विरचिते प्रवचन सरोज भास्करे, शुभोपयोगाधिकार समाप्त: ।" प्रमेय कमल मातंग - यह माणिक्यनन्दी श्राचार्य के 'परीक्षामुख' नामक सूत्र ग्रन्थ की विस्तृत व्याख्या है। चूंकि परीक्षामुख सूत्र शुद्ध न्याय का ग्रन्थ है । अतः प्रमेयकमलमार्तण्ड का प्रतिपाद्य विषय भी न्यायशास्त्र से सम्बन्धित है । सम्मति टीकाकार अभयदेव सूरि और स्याद्वाद रत्नाकर के रचयिता वादिदेव सूरि ने इस ग्रंथ का विशेष अनुसरण किया है। स्याद्वाद रत्नाकर में तो प्रमेयकमलमार्तड के कर्ता का नाम निर्देश भी किया है। और स्त्रीमुक्ति तथा केवलभुक्ति के समर्थन में उसकी युक्तियों का खण्डन भी किया है। वादिदेव का जन्म वि० सं० ११४३ में और स्वर्गवास सं० १२२२ में हुआ था । ये सं० १९७४ में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। इसके बाद उन्होंने सं० १९७५ (सन् १९१८) लगभग स्थाद्वाद रत्नाकर की रचना की होगी। स्याद्वाद रत्नाकर में प्रमेय कमल मार्तण्ड और न्याय कुमुदचन्द्र का न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है किन्तु कवलाहार समर्थन प्रकरण तथा प्रतिबिम्ब चर्चा में प्रभाचन्द्र और उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड का नामोल्लेख करके खंडन किया है। प्रभाचन्द्र इनसे बहुत पूर्ववर्ती हैं। उनकी उत्तरावधि सन् ११०० ई० है प्रभाचन्द्र की यह टीका प्रमेय बहुल है। प्रमेय कमल मार्तण्ड की यह रचना धाराधीश भोज के राज्य काल में हुई है । म्याय कुमुदचन्द्र-कलंक देव के लघीयस्त्रयकी टीका है। मूल लघीयस्त्रय में ७८ कारिकाएं और तीन प्रवेश हैं -प्रमाण प्रवेश नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश । प्रथम प्रवेश में ४ परिच्छेद हैं, दूसरे में एक और तीसरे में दो Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य दिन हैं। बारा न्याय दूस में विटहैं। जिनमें प्रमाण नय, निक्षेप पीर प्रवचन प्रवेशका प्रति पाद्य विषय का ऊहापोह के साथ विवेचन किया गया है। इन के अतिरिक्त तरसम्वन्धि अवान्तर अनेक विषयों को पूर्व उसर पक्ष के रूप में चर्चा की गई है। न्याय कुमुद की भाषा ललित और प्रवाह निर्वाध है। दानिक गेलो और भाषा सौष्ठव, सुखद है तथा साहित्य के मर्मज्ञ व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्दी का अनुसरण करने का प्रयल किया गया है। इसने महान् टोका ग्रन्थ का निर्माण करने पर भी प्रभाचन्द्र ने निम्न पद्य में अपनी लघुला ही प्रकट की है। और लिखा है कि न मुझमें वैसा ज्ञान ही हैं और न सरस्वती ने हो कोई वर प्रदान किया है । तथा इस ग्रन्थ के निर्माण में किसी से वाचनिक सहायता भी नहीं मिल सकी है। बोधो में न तथा विधोऽस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः । साहायञ्च न कस्यचिद्वाचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये। प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना के बाद टीकाकार प्रभाचन्द्र के मानस में जो नवीन नवीन युक्तियां अवतरित हुई उनका इसमें निर्देश किया गया है। जहां द्विरुक्ति को संभावना हुई, वहां उनका निरूपण नहीं किया किन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड के अवलोकन करने का निर्देश कर दिया है। प्रभाचन्द्र ने अपने स्वतंत्र प्रवन्धों में बहतसी मौलिक बातें बतलाई हैं, जैसे वैभाषिक सम्मत प्रतीत्यसमुत्पाद का खंडन, प्रतिविम्ब विचार तम और छाया द्रव्यत्व आदि अनेक प्रकरणों के नाम उल्लेखनीय है। न्याय कुमुद की रचना शैलो प्रसन्न और मनोमग्धकर है। प्रभाचन्द्र ने न्याय कुमुद की रचना धारा के जयसिंह देव के राज्य में की है। (न्याय कु० प्रस्तावना) ग्वाम्भोजभास्कर-श्रवणबेलगोल के शिला लेख नं० ४०(६४) में प्रभाचन्द्र के लिये शब्दाम्भोजभास्कर विशेषण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्याय कुमुद जैसे प्रथित तकं ग्रन्यों के कर्ता प्रभाचन्द्र ही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जनेन्द्र व्याकरण महान्यास के कर्ता हैं। यह न्यास जैनेन्द्र महावृत्ति के बहत बाद बनाया गया है। नमः श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभवनन्दिने । इस पद्य में अभयनन्दि को नमस्कार किया गया है। शब्दाम्भोजभास्कर का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है: इति प्रभाचन विरचिते शबदाम्भोजभास्करे जैनेन्द्र व्याकरण महान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः। क्योंकि इसमें महावृत्ति के शब्दों को प्रानुपुर्वी से लिया गया है। विशेष परिचय के लिये प्रमेय कमल मार्तण्ड की प्रस्तावना देखें। गय कथा कोश---यह कथा प्रबन्ध संस्कृत गद्य में रचा गया है, जिसमें ८६ कथाएं हैं। उसके बाद समाप्ति सूचक पूष्पिका पायी जाती है। प्रभाचन्द्र ने कमाए बनाई हैं या और अधिक यह अभी निर्णय नहीं हमा। हो सकता है कि लिपि कर्ता से पल्ती में पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो, और बाद में कुछ कथाएं और लिखकर पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो। ग्रन्थ सामने न होने से उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ कहना संभव नहीं। महापुराणटिप्पण- प्रभाचन्द्र ने पुष्पदन्त के अपभ्रंश भाषा के महापुराण (यादि पुराण-उत्तर पुराण) पर एक टिप्पण लिखा है। यह टिप्पण धारा के राजा जयसिंह के राज्य काल में लिखा गया है। पुष्पदन्त ने अपना महापुराण सन् १६५ ई० में समाप्त किया था। प्रभाचन्द्र ने उसके बाद उस पर टिप्पण लिखा है। मादि पुराण टिप्पण में धारा और जयसिंह नरेश का कोई उल्लेख नहीं है। महापुराण के इस टिप्पण को श्लोक संख्या ३३०० बतलाई गई है। प्रादि पुराण की १९५०, और उसर पुराण को १३५० । आदि पुराण टिप्पण का मादि अन्त मंगल निम्न प्रकार है: प्रावि मंगल-प्रणम्यवीर विषुधेन्द्र संस्तुतं निरस्तदोष वृषभं महोदयम् । पदार्थ संदिग्धजन प्रबोधकम्, महापुराणस्य करोमि टिप्पणम् ।। . ... ---- .... १ पुष्पदन्त ने महापुराण सिद्धार्थ संवत्सर ८८१ में महापुराण शुरू किया और ८८७ सन् ६६५ में समाप्त किया था। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ अन्त समस्त सन्देहहरं मनोहरं प्रकृष्टपण्यप्रभवम जिनेश्वम् । कृतं पुरागे प्रथमे सुटिप्पण मुखाववोध निखिला दर्पणम् ।। इति श्रीप्रभाचन्द्र विरचितमाविपुराणहिप्पणकम पंचासश्लोक हीनं सहस्रद्वयपरिमाणं परिसमाप्ता ।। उत्तर पुराण टिप्पण का अन्तिम पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है: श्री जसिह देव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिनः परापरपरमेष्ठि प्रणामोपा जितरमल पुण्य निराकृता खिल कलंकेन श्री प्रभाव पंडितेन महापुराण टिप्पणके शतश्यधिक सहस्रत्रय परिमाणं कृति मिति । पाटीदी मन्दिर जयपुर प्रति क्रियाकलाप टीका-श्री पंडित प्रभाचन्द्र के द्वारा रची गई है। जैसा कि ऐ० पन्ना लाल सरस्वति भवन बम्बई को हस्त लिखित प्रति की अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट है :-- । वन्दे मोहनमो विनाशनपटुस्त्रलोक्य दीप प्रभुः। संसृति समन्वितस्य निखिल स्नेहस्य संशोषकः । सिद्वान्ताविसमस्तशास्त्रकिरणः श्री पदमन्दि प्रभुः । तछिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुति पदं प्राप्त प्रभाचन्द्रतः॥ इस प्रशस्ति पद्य से स्पष्ट है कि क्रियाकलाप के टीकाकार पद्मनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे। इनके अतिरिक्त समाधितंत्र टीका, रत्नकरण्ड टीका, पात्मानुशासन तिलक टीका, स्वयंभस्तोत्र टीका पंचास्तिकाय प्रदीप, प्रवचनसार टीका को प्रति टोडा राबसिंह के नेमिनाथ मन्दिर में सं० १६०५ की लिखी हुई मौजद है इसकी यह जाँच करना आवश्यक है यह टीका प्रवचन सरोज भास्कर से भिन्न है या वही है और समयसार वृत्ति की प्रति ६५ पत्रात्मक भट्टारकीय भंडार अजमेर में उपलब्ध है इन टीका ग्रन्थों में समाधितत्र टीका, रत्न करण्ड टीका, और स्वयंभूस्तोत्र टीका, तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की मानी हो जाती है। किन्तु शेष टीकात्रों के सम्बन्ध में अन्वेषण कर यह निश्चय करना शेष है कि ये टीकाएँ भी उन्हीं प्रभाचन्द्र की है। या अन्य किसी प्रभाचन्द्र की हैं। वीरसेन यह माथर संघ के प्राचार्य थे, जो सिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी विद्वान थे । आचार्यों में श्रेष्ठ थे। और माथुर संघ के वतियों में वरिष्ठ थे। कषाय के विनाश करने में प्रवीण थे। जैसा कि धर्मपरीक्षा प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है: सिद्धान्त पाथोनिधि पारगामी श्री वीरसेनोऽअनिसूरिवर्यः। श्री माथुराणां यमितां वरिष्ठः कषाय विध्वंसविधौ पटिष्टः॥ वीरसेनाचार्य से ५वीं पीढ़ी में अमितगति द्वितीय हए। इनका समय सं०१०५० से १०७३ है । प्रत्येक का काल २०-२० वर्ष माना जाय तो बीरसेन का समय अमितगति द्वितीय से १०० वर्ष पूर्व ठहरता है और बीरसेन के शिष्य देवसेन का समय दशवीं शताब्दी है। अत: वीरसेन का समय भी १०वीं शताब्दी होना चाहिये। देवसेन प्रस्तुत देवसेन सिद्धान्त समुद्र के पारगामी विद्वान वीरसेन के शिष्य थे । जो उदयाचल रूप सूर्य के समान अंधकार की प्रवृत्ति को नष्ट करने वाले, लोक में ज्ञान के प्रकाशक, सत्पुरुषों के प्रिय, तथा धीरतासे जिन्होंने दोषों को नष्ट कर दिया है, ऐसे देवसेन नाम के आचार्य हए। १ वस्ता शेष जान्त वृत्तिमनस्वी तस्मात्सूरिदेवसेनो जनिष्ट । लोकोद्योती पूर्व सैलादिवाकः शिष्टा भीष्टः स्थेयसोऽपास्तदोषः ।। -धर्म परीक्षा प्र. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २८७ यह देवसेन माथरसंघ के यतियों में अग्रणी थे। जिस प्रकार सर्व पदार्थों को प्रकाशित करता है और प्रदोषा (रात्रि) को नष्ट करता है, कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार आचार्य देवसेन वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने और प्रकृष्ट दोषों से रहित हुए भव्य रूप कमलों को प्रमुदित करते थे। जैसा कि निम्न पत्र से साष्ट है : श्री वेवसेनोऽजनि माथुराणां गणी यतीनां विहित प्रमोदः । तत्त्वावभासी निहतप्रदोषः सरोरुहाणामिव तिग्मरश्मिः ।। इससे यह देवसेन माथुरसंघ के प्रभावशाली विद्वान थे । इनके शिष्य अमितगति प्रथम थे। जिन्होंने योगसार की रचना की है। इनका समय वि० को दशवीं शताब्दी है । क्योंकि इनसे ५वीं पीढ़ी में अमितगति द्वितीय हुए हैं, जिनका रचना काल सं० १०५० से १०७३ है। इसमें से चार पीढ़ी का ५० वर्ष समय कम करने से सं. १६३ पाता है । यही देवसेनका समय है। नेमिषेण यह माथुरसंघ के विद्वान अमितमति प्रथम के शिष्य थे। समस्त शास्त्रों के जानकार और शिप्यों में अग्रणी थे, तथा माथुरसंघ के तिलक स्वरूप थे। जैसा कि सुभाषितरत्नसन्दोह को प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : तस्य शात समस्त शास्त्र समयः शिष्यः सतामग्रणीः । श्रीमन्माथुरसंघसाधुतिलकः श्रीनेमिषेणो भवतः ॥ उक्त नेमिषेणाचार्य माथुरसम्प्रदाय रूप आकाश में प्रकाश करने वाले चन्द्रमा के समान, तथा ग्रहन्त भाषित तत्वों में शंका के विनाशक और विद्वत्समूह रूप शिष्यों से पूजित थे । जैसा कि श्रावकाचार के निम्न पद्य से स्पष्ट है-- विद्वत्सम्हाचित चित्र शिष्यः श्री नेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः। श्री माधुरानक नभः शशांकः सदा विधताहत तत्त्व शंकः ।। पाराधना प्रशस्ति में भी इन्हें सर्व शास्त्ररूपी जलराशिके पारको प्राप्त होने वाले, लोकके, अंधकार के विनाशक और शीतरश्मि के समान जनप्रिय बतलाया है। सर्वशास्त्रजलराशिपारगो नेमिषेण मुनि नायकस्ततः । सोऽजनिष्ट भखने तमोपहः शीतरश्मिरिख यो जन प्रियः॥ इनके शिष्य माधबसेन थे, जो अमितगति द्वितीय के गुरु थे । चूंकि अमितति द्वितीय का समय मं० १०५० सं १०७३ तक सुनिश्चत है। इनका समय सं १०११ के लगभग होना चाहिये। माधवसेन माधवसेन नामके अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत माधवसेन माथुरसंघ के प्राचार्य नेमिपंण के शिष्य थे। मुनियों के स्वामी, माया के विनाशक और मदन को नष्ट करने वाले ब्रह्मचारी थे। और वृहस्पति के १ एक माधवसेन भट्टारक मूलसंघ सेनगग और पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने सन् ११२४ ई० में पंच परमेष्ठी का स्मरण कर समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। (जन लेस्व सं० भा० २ १० ४३०) दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे । इनका समय विक्रम की १३ वी १४ वीं पाताब्दी है । तीसरे माधवसेन वे हैं जिन्हें लोक्कियवसदि के लिये, देकररसने जम्बहल्लि को प्रदान किया था। यह लेख शब वर्ष १८४ (सन् १०६२ ई०) का है। चौथे माधवसेन सूरि वे हैं जिनका स्मरण पचप्रभमलपारिदेव ने निम्न पद्य द्वारा किया है : .नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभभस्थलभेदनाय वै । दिनेव पंकेरह विकासभानवे, विराजते माघबसेनसूरये ।। -(नियमसार टी० १०६६) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ समान चतुर थे। और इनकी बुद्धि तत्व विचार में प्रवीण थो। जैसाकि निम्न पद्य से स्पस्ट है: माधवसेतोऽजनि मुनिनाथो ध्वसितमाया मदनक्रदर्थः । तस्थ मरिष्ठो गुरुरिव शिष्यस्तत्त्वविचार प्रवणमनीषः ।। इन्हीं माधवसेन के शिष्य अमितगति द्वितीय हुए जिन्होंने सं० १०५० से १०७३ तक अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का मध्य है। शान्तिदेव इनका उल्लेख मल्लिपेण प्रशस्ति में दयापाल के बाद ५१वें पद्य में किया गया है। यह बड़े तपस्वी और अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। मल्लिपेण प्रशस्ति के उक्त पद्य से ज्ञात होता है कि इनके पवित्र चरण कमलों की पूजा होयसल नरेश विनयादित्य द्वितीय (सन १०४७ से ११००ई०) करता था। लेखनं० २०० से भी इसका समर्थन होता है। यह विनयादित्य द्वितीय के गुरु थे। इस शिलालेख में जो शक सं० १८४ (सन् १०६२ ई.) में १०४७ से सन् उत्कीर्ण किया गया है, उनके समाधिमरण द्वारा दिवंगत होने का उल्लेख है । इससे शान्ति देव का समय सन् १०६२ ई. तक है। अर्थात् यह ईसा को ११वीं शताब्दी के विद्वान थे । नगर के व्यापारी संघ के लोगों ने अपने गुरु की स्मृति में यह स्मारक बनवाया है। अमितगति (द्वितीय) अमितगति (द्वितीय)-यह माथुर संघ के विद्वान नेमिषेण के प्रशिष्य और माधवसेन के शिष्य थे। यह ग्यारहवीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे। आपकी कविता सरल और वस्तुतत्त्व की विवेचक है। कवि ने अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार बतलाई है । वीरसेन शिष्य देवसेन, अमितगति प्रथम, नेमिषेण और माधवसेन । यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे । और वाक्यतिराज मंज की सभा के एक रत्न थे। मुज का एक दान पत्र वि० सं०१०३६ का प्राप्त हुआ है जिसे उनके प्रधान मंत्री रुद्रादित्य ने लिखा था। वि० सं० १०७८ में तैलंग देश के राजा तैलिप द्वारा मज की मृत्य हई थी। और उनकी मत्य के बाद भोज का राज्याभिषेक हुआ अमिलगति की निम्नकृतियाँ उपलब्ध हैं----सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार (अमितगति श्रावकाचार) पंचसंग्रह, आराधना, तत्त्वभावना (सामायिक पाठ) और भावना द्वात्रिशतिका । जिन्हें कवि ने वि० सं० १०५० से १०७३ के मध्य रचा था। सुभाषितरल सन्दोह—यह स्वोपज्ञ सभाषित ग्रन्थ है। इसमें सांसारिक विषय निराकरण, कोप-लोभनिराकरण, माया-अहंकार निराकरण, इन्द्रिय निग्रहोपदेश, स्त्री गुण-दोष विचार, सदसत्स्वरूप निरूपण, ज्ञान निरूपण, चारित्र निरूपण, जाति निरूपण, जरा निरूपण, मत्य-सामान्य नित्यता । देवजरा-जीव-सम्बोधन, दुर्जनसज्जन-दान, मद्य-निषेध, मांसनिषेध, मधनिषेध, कामनिषेध, वेश्यासंगनिषेध, तनिषेध, प्राप्तविवेचन, गुरु स्वरूप, धर्मनिरूपण, शोकनिरूपण, शौच, श्रावक धर्म मौर द्वादश तपश्चरण, ये बत्तीस प्रकरण है। श्रावक धर्मका निरूपण १ देखो मल्लिषेण प्रशस्ति का ५१ वा पद्य २सककालंगति-नाग-रन्ध्र-शभकृत संवत्सरा बाढदोल । सुकरं पौर्णमि-भौमबार मीसे दिलदा श्रवण"""| ''कदिन्दं वरे शान्तिदेवरमलर सन्यासनं गेटदु भक् । ति कर कै-वामागे गेग्दु पडेदर निर्वाण-साम्राज्यम् ॥ जैन लेख सं०भा०२ पृ. २४५ ३ देखो, सुभाषितरत्न संदोह ग्रन्थ की प्रशस्ति । ४ देखो, विश्वेश्वरनाथ रेउ का राजा भोज । ५ विक्रमावासरादष्ट मुनि व्योमेन्दु (१७७८) संमिते । वर्षे मुन्नपदे भोज भूपः पट्ट निवेशितः ।। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २८१ २१७ पद्यों में किया है। पूरे ग्रन्थ में २२ पद्य हैं यह ग्रन्थ वि० सं० १०५० में पौष सुदी पंचमी को समाप्त हया है। जब यह ग्रन्थ समाप्त हुना उस समय मुज राज्य करता था। कवि ने अपने सुभाषितों का उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है कि जनयति मुवमन्तभव्यपाथों सहाणां, हरसि तिभिरतिया प्रभा मापनील। कृत निखिल पदार्थ द्योतना भारतीद्धा, विवरतु धुत दोषा संहितां भारती वः॥ जिस तरह सूर्य की किरणे अन्धकार का विनाशकर समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती हैं और कमलों को विकसित करती हैं । उसी प्रकार ये सुभाषित चेतन-अचेतन-विषयक अज्ञान को दूर कर भव्यजनों के चित्त को प्रसन्न करते हैं। कवि ने ज्ञान का महत्व बतलाते हुए लिखा है कि ज्ञानं बिना नास्त्य हितान्मिवृत्तिस्ततः प्रवृत्ति न हिते जनानाम् । ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽध्यभीष्टम ॥ ज्ञान के बिना मानव को प्रहित स निवृत्ति नहीं होती, अहित की निवृत्ति न होने से हितकार्य में प्रवत्ति नहीं होती। हित कार्य में प्रवृत्ति न होने से पूर्वोपार्जित कर्म का विनाश नहीं होता और पूर्वोपाजित कर्मका विनाश न होने से अभीष्ट मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसी तरह वृद्धावस्था का चित्रण करते हुए लिखा है कि जब मनुष्य जरा (बुढ़ापा) से ग्रस्त हो जाता है तब उसका सम्पूर्ण रूप नष्ट भ्रष्ट होने लगता है। बोलने में थूक गिरता है, चलने में पैर टेढ़े हो जाते हैं । बुद्धि अपना काम नहीं करती 1 पत्नी भी सेवा-शूथ्षा करना छोड़ देती है । और पुत्र भी आज्ञा नहीं मानता। इस तरह यह ग्रंथ सुन्दर सूक्तियों से विभूषित है । और कण्ठ करने योग्य है। धर्म परीक्षा-संस्कृत साहित्य में अपने ढंग की कृति है। इसमें पुराणों की ऊट-पटांग कथानों और मान्यताओं का मनोरंजक रूप में मजाक करते हुए उन्हें अविश्वासनीय बतलाया है। समूचा ग्रन्थ १९४५ श्लोकों में सुन्दर कथा के रूप में निबद्ध है । जिसे कवि ने दो महीने में बनाया था। हरिषेण को 'धर्म परीक्षा विक्रम संवत १०४४ में बनी है। हरिषेण ने लिखा है कि उससे पहले जयराम की गाथाबद्ध धर्म परीक्षा थी। उसे मैंने पद्धड़िया छन्द में किया है। बहुत संभव है कि इस पर हरिषेण की धर्म परीक्षा और हरिभद्र के धूर्ताख्यान का प्रभाव पड़ा हो । क्योंकि पात्रों के नामादि 'धर्मपरीक्षा के समान हैं। इस कारण वह इसका आधार रही हो । तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह ग्रन्थ विक्रम सं० १०७० में बनाकर समाप्त किया है । पंचसंग्रह-यह प्राकृत पंचसंग्रह का अनुवाद है। इस पर डड्ढा के पंचसंग्रह का प्रभाव है, वह अमितगति के सामने मौजद था। इसमें कर्मबन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता आदि का वर्णन है। इसकी रचना कवि ने -.- .- -.- - -..--- - ---- १ समारूने पून त्रिदशवसति विक्रमनपे, सहस्र वर्षाणां प्रभवतिहि पंचाशदधिके । समाप्ते पंचम्यामवति धरिणी मुंजनपतौ। सिने पक्षे पौने बुहितमिदं शास्त्रमनघम् सुभाषित रन सन्दोह प्रशस्ति ।। २ गलति सकलरूप लालां विमुञ्चति जलपनं, म्वलति गमनं दतानाशं श्रवन्ति शरीरिणः । विरमति मनिनों शुश्रूषां करोति च गेहिनी । वपि जरमा प्रस्ते वाक्यं तनोति न देहजः ॥२७॥ ३ अमितगतिरिने स्वस्थ मास द्वयेन । प्रथिन विशदकोतिः काव्य मुद्भुत दोषम् ।। ४ संवत्सराणां विगते सहस्त्र समप्ततो विक्रमार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमत समाप्तं जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मसूतिकापुर में वि० सं० १०७३ में समाप्त की है। उपाकासचार–प्राचार्य अमितगति द्वारा विरचित होने से इसका नाम अमितगति श्रावकाचार कहा जाने लगा है । कतांने स्वयं-'उपासकाचार विचारसार संक्षेपत: शास्त्रमहं करिष्ये ।' वाक्य द्वारा इसे उपासकाचार शास्त्र बतलाया है । 'उपलब्ध श्रावकाचारों में यह विशद, सुगम और विस्तृत है। इसकी श्लोक संख्या १३५२ है। इस श्रावकाचार की यह विशेषता है कि कवि ने प्रत्येक सर्ग या अध्याय के अन्तिम पद्य में अपना नाम दिया है । ग्रन्थ १५ परिच्छेदों में विभाजित है। प्रथम परिच्छेद में संसार का स्वरूप बतलाते हए धर्म की महत्ता को प्रकट किया है और बतलाया है कि इस लोक में जीवका साथी धर्म ही है, अन्य गृह, पुत्री, स्त्री, मित्र, धन, स्वामी और सेवक, ये जीव के साथ नहीं आते, कर्मोदय से इनका संयोग मिलता है। धर्म ही एक ऐसा पदार्थ है जो जोव के साथ परलोक में भी जाता है, अत: वही हितकारी है। गृहांगजा पुत्रकलत्रमित्र स्वस्वामि भत्यादि पदार्थ वर्ग।. विहाय धर्म न शारीर भाजा मिहारित किधित्सहगामि पथ्यम् ॥६० धर्म से ही मानव जीवन को शोभा है, धर्म के प्रताप से इन्द्र, धरणेन्द्र चक्रवादिकी विभूति प्राप्त होती है। तीर्थकर पद भी धर्म से ही मिलता है। धर्म से हैं। आपदानी का विनाश होता है । अतः धर्माचरण करना श्रेयस्कर है। दूसरे परिच्छेद में मिथ्यात्व को हेय बतलाते हुए सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की प्रेरणा की है और उसकी महत्ता का विवेचन किया है। तीसरे परिच्छेद में सम्यग्दर्शन के विषय भूत जीवादिक पदार्थों का वर्णन किया है। चौथे परिच्छेद में ७४ पद्यों द्वारा चार्वाक, विज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्मतबादी, सख्यि, नैयायिक, असर्वज्ञताबादी, मीमांसक और बौद्ध आदि अन्यमतों के अभिप्राय को दिखलाकर उनका निराकरण किया है। पांचवें परिच्छेद में ७४ पद्यों द्वारा मद्य, मांस, मघ, रात्रिभोजन और पंच उदंबर फलों के खाने के त्याग का वर्णन है। यथा-- मद्य मांस-मधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जन विधा। कुवंते व्रत जिक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निविते व्रतम् । इस पद्य में रात्रि भोजन के साथ पांच उदुम्बर और तीन मकार का त्याग अवश्यक बतलाया है, क्योंकि उनके त्याग से व्रत पुष्ट होते हैं । किन्तु इन्हें मूलगुण नहीं बतलाया। छठे परिच्छेद में १०० श्लोकों द्वारा श्रावक के बारह प्रतोंका-पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रतों का सुन्दर वर्णन किया है। अहिंसा अणुव्रत का कथन करते हए हिंसा के दो भेद किये हैं, एक आरम्भी हिंसा और दूसरी अनारम्भी हिंसा । और लिखा है कि जो गृह त्यागी मुनि हैं वे तो दोनों प्रकार की हिंसा नहीं करते । किन्तु जो गृहस्थी है वह अनारम्भी हिंसा का तो परित्याग कर देता है, किन्तु प्रारम्भी हिंसा का त्याग नहीं कर सकता। "हिंसा तथा प्रोक्तारम्भानारम्भभेदतो वक्षः। गृहवासतो निवृत्तो द्धाऽपि त्रायते सांच ॥६ ग्रहवाससेवनरतो मन्दकषायः प्रतितारम्भः । प्रारम्भजां स हिसां शक्नोति न रक्षित नियतम् ॥७ जो इन व्रतों को सम्यक्त्व सहित धारण करता है वह समर सम्पदा का उपोभग करता हुमा अन्त में अविनाशी सुख प्राप्त करता है। १ त्रिसप्तत्यधिके दानां सहस्त्रे शक विद्विषः । मसूतिका गुरे जात मिदं शास्त्रं मनोहरम् ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ रंगारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य सातवें परिच्छेद में ७६ श्लोकों में सनों के प्रतिचारों के वर्णम के साथ श्रावक की ११ प्रतिमानोंकादर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्य त्याग, रात्रिभोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग रूप एकादश स्थानों का-कथन किया गया है। पाठय परिच्छेद में सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कोयोत्सर्ग रूप छह मावश्यकी का स्वरूप और उनके भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है। हवें परिच्छेद में दान, पूजा, शील, उपवास, इन चारोंका स्वरूप वतलाते हुए इन्हें संसारवन को भस्म करने के लिये अग्नि के समान बतलाया है। दश परिच्छेद में पात्र कुपात्र और अपात्र का कथन किया है। और कुपात्र-अपात्र को त्याग कर दान देने की प्रेरणा की है। ग्यारहवें परिच्छेद में अभयदान, उसका फल और महत्ता का वर्णन निर्दिष्ट है। वारहवें परिच्छेद में जिन पूजा का वर्णन किया है और पूर्वाचार्यों के अनुसार बचन और शरीर की त्रिया को रोकने का नाम द्रव्य पूजा और मन को रोककर जिन भक्ति में लगाने का नाम भाव पूजा कहा है । यथा--- वनो विग्रहसंकोचो तव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥१२ किन्तु अमितगति ने अपने मत से गन्ध पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षत से पूजा करने का नाम द्रध्य पूजा और जिनेन्द्र गुणों का चिन्तन करने का नाम भाव पूजा बतलाया है। गन्धप्रसन सान्नाद्य दीपधुपाक्षतादिभिः । क्रियमारगाथवा शेया द्रव्यपूजा विधानतः ।।१३ ध्यापकानां विशुद्धानां जिनानामनुरागतः। गुणानां यवनुध्यान भावपूजेयमुच्यते ॥१४।। १३वें परिच्छेद में रत्नत्रय के धारक संयमीन की विनय का वर्णन है । और उनकी वैयावृत्य करने का विधान किया है। चौदहवें परिच्छेद में वारह भावनाओं का वर्णन है। पन्द्रहवें परिच्छेद में ११४ श्लोकों द्वारा ध्यान का और उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है। इस तरह यह ग्रन्थ श्रावक धर्म का अच्छा वर्णन करता है। आराधना-यह शिवार्य की प्राकृत पाराधना का पद्यबद्ध संस्कृत अनुवाद है जिसे कर्ताने चार महीने में पूरा किया था। प्रशस्ति में कवि ने देवसेन से लेकर अपने तक की गुरु परम्परा दी है, परन्तु समय और स्थान का कोई उल्लेख नहीं किया। ग्रन्थ कर्ता ने भगवती आराधना में पाराधना की स्तुति करते हुए एक वसुनन्दि योगी का उल्लेख किय है, जो उनमे पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं: यः निःशेष परिग्रहेभवलने दुरसिंहायते । या कज्ञानतमो घटाविघटने चन्द्रांशु रोचीयते। या चिन्तामणिरेष चिन्तितफलैः संयोजयंती जनान् । साबः श्री वसुनन्दियोगि महिता पायात्सदाराधना । इससे वे एक योगी और महान् विद्वान ज्ञात होते हैं। तत्त्वभावना-पह १२० पद्योंका छोटा सा प्रकरण है, इसे सामायिक पाठ भी कहा जाता है। यह प्रकरण ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी के अनुवाद के साथ सूरत से प्रकाशित हो चुका है । इसके अन्त में कवि ने लिखा है १ दानं पूजा जिन शीलमुपत्रासश्चतुर्विषः । श्रावकारण मतो धर्मः संसारारण्य पावकः ।।१।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम- भाग २ वृत्यवंश शतेनेति कर्वता तत्वभावना। सद्योऽमितगतेरिष्टा निवृत्तिः क्रियते करे । __ 'इति द्वितीय भावना समाप्ता' इससे यह कोई बड़ा ग्रन्थ होना चाहिये जिसका यह दूसरा अध्याय है। भावना द्वात्रिशतिका-यह ३२ पद्यों का एक छोटा-सा प्रकरण है। इसको कविता बड़ो सुन्दर और कोमल है। इसे पढ़ने से बड़ो शांति मिलती है। इसका हिन्दी अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। वहत से लोग इसे सामायिक के समय इसका पाठ करते हैं । ब्रह्म हेमचन्द्र हेमनन्द ने अपनी गुरु परपरा और गण दिन का उल्लेख नहीं किया। उन्होंने प्राकृत भाषा में 'श्रतस्कन्ध' की ६४ गाथाओं में रचना की है। जिसे उन्होंने तिलंग देश के के डनगर के चन्द्रप्रभ जिन मन्दिर में रामनन्दी संद्धान्तिक के प्रसाद से देशयती हेमचन्द्रने बनाकर समाप्त किया था। ग्रन्थ में कोई रचना काल नहीं दिया। इस कारण ब्रह्म हेमचन्द्र कब हुए यह विचारणीय है। एक रामनन्दी का उल्लेख नयनन्दी (वि० सं० ११००) के सुदर्शन चरित की प्रशस्ति में पाया जाता है जिसमें वृषभ नन्दी के बाद रामनन्दी का उल्लेख किया है। और सकल विधि विधान की प्रशस्ति में अंबाइय और कंचीपुर का उल्लेख करते हुए बल्लभराय द्वारा निर्मापित प्रतिमा का उल्लेख किया है और बताया है कि वहां गुणमणि निधान' रामनन्दी और जयकोति मौजूद थे। और प्राचार्य रामनन्दो के शिष्य बाल वन्द ने सकल विधि विधान ग्रन्थ बनाने को प्रेरणा की थी। इस कारण ये रामनन्दो विक्रमकी ११वीं शताब्दी के प्राचार्य हैं। दूसरे रामनन्दी का उल्लेख अम्गलदेव के चन्द्रप्रभ पुराण में आया है और उन्हें नमस्कार किया गया है। अग्गलदेवने उक्त पुराण शक सं० ११११ (वि० सं० १२४६) में बनाकर समाप्त किया है । अतः रामनन्दी सं० १२४६ से पूर्व वर्ती हैं । जहां तक संभव है प्रथम रामनन्दी के प्रसाद से ही हेमचन्द्र ने श्रुतस्कंध बनाया हो। यदि यह ठीक हो तो ब्रह्म हेमचन्द्र ११वीं शताब्दी के विद्वान हो सकते हैं। श्रतस्कन्ध में श्रत का स्वरूप और अंग-पूर्वोके पदों का प्रमाण बतलाते हुए भगवान महावीर के बाद थत परम्परा किस तरह चली इसका विवरण दिया गया है। परम्परा वही है जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ती । धबला, जयधवला, इन्द्र नन्दि श्रुतावतार, और हरिवंश पुराण प्रादि में पाई जाती है । पद्मनन्दी पदमनन्दी--मलसंघ काणरगण तित्रिणी गच्छ के सिद्धान्त चक्रेश्वर पद्मनन्दो थे। उन्हें कदम्ब कूल के कीर्ति देव की पट्र महिषी माललदेवी ने ब्रह्म जिनालय को दैनिक पूजा और मुनियों के आहार के लिये पद्मनन्दि सिद्धान्त चक्रवतों के लिये पाद प्रक्षालन पूर्वक 'सिडणिवल्लिन' को प्राप्त कर दान दिया। यह लेख शक सं०१६ सन् १०७५ का उत्कीर्ण किया हुआ है। इससे इन पमनन्दि का समय ईसाकी ११वीं सदी का अन्तिम पाद है। कनकसेन (द्वितीय) प्रस्तुत कनकरोन चन्द्रिकावाट सेनात्यय के विद्वान आचार्य अजितसेन के दीक्षित शिष्य थे। जो मान-मद १ 'जहि रमणंदि गुण-मरिण-णिहाणु । जयक्रित्ति महाकिसि वि पहाणु ।' जैन नथ प्रशस्ति सं० भा० २१० २७ २ तहिं रिगए वि भवाहिणरिणा, सुरिणा महारामणंदिणा, बालहंदु-सीसेगा जंपियं; सपलविहि गिहारा मणियं । जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं०भा० २ पृ. २७ ३ जैन लेख सं० भा०२ पृ. २६६-२७० Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य २६३ से रहित, पापांक नाशक, महाव्रत के पालक और मुनियोंमें श्रेष्ठ थे। जैसा कि नागकुमार चरित के निन्न पद्य से स्पष्ट है अजनि तस्य मुनेवर दीक्षितो विगतमानमदो दुरितान्तकः । कनकसेनमुनि मुनिपुंगवो, वरचरित्रमहाव्रतपालकः ॥ 1 वे जिनागम के वेदी, संसार रूप वन का उच्छेद करने वाले और कर्मेन्धन के जलाने में पटु थे । जैसा कि भैरव पद्मावती कल्पकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : जिन समयागमवेदी गुरुतर संसारकाननोच्छेदी । कर्मेन्धनदहनपटुस्तच्छिष्य: कनकसेनगणिः ॥५६ इन कनकसेन के शिष्य जिनसेन थे और सतीर्थं थे नरेन्द्रसेन । मल्लिषेण इन्हीं जिन सेन के शिष्य थे । सतीर्थ होने के कारण मल्लिषेण ने नरेन्द्रसेन का गुरु रूप से स्मरण किया है। चूंकि मल्लिषेण ने अपना महापुराण सं० ६६६ (सन् १०४० ई० ) समाप्त किया है। अतः कनकसेन का समय दशवीं शताब्दी का उपान्त्य है । शक् नरेन्द्रसेन ( प्रथम ) 1 नरेन्द्रसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। एक नरेन्द्रसेन अजितसेन के शिष्य कनकसेन द्वितीय (सन् ६६० ई०) के शिष्य और जिनसेन के सधर्मा थे। वादिराज ने शक वर्ष ९४४ (सन् १०२५) में इन्हीं नरेन्द्रसेन का स्मरण किया है । क्योंकि उसमें कनकसेन के साथ नरेन्द्रसेन का भी उल्लेख है। देखो (न्याय विनिश्चय विवरण प्रशस्ति ) मल्लिषेण सूरिने जो जिनसेन के शिष्य थे। अपने गुरु भाई नरेन्द्र सेन को नागकुमार चरित की प्रशस्ति में उज्ज्वल चरित्रवान, प्रख्यातकीर्ति, पुण्य मूर्ति, तत्वज्ञ और कामविजयी बतलाया है जैसाकि नागकुमार चरित की प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है तस्यानुजाश्चारु चरित्र वृत्तिः प्रख्यातकीर्त भुविपुष्यभूतिः । नरेन्द्रसेनो जितवा विसेनो विज्ञानतत्त्वो जितकामसूत्रः ॥४ जिनसेन के सधर्मा होने से मल्लिषेण ने इन्हें भी अपना गुरु माना है । तच्छिष्यो विभुवाप्रणोगं गनिधिः श्रीमहिलषेणाह्यः । संजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालंकृतिः ॥ इन, नरेन्द्रसेन का समय पी० बी० देसाई ने सन् १०२० ई० बतलाया है। इनके शिष्य नयसेन प्रथम ये । जिनका समय पी० बी० देसाई ने सन् १०५० ई० बतलाया है । चालुक्य चक्रवर्तित्रैलोक्यमल्ल सोमेश्वर (सन् १०५३ - १०६७ ) के शासन काल में उसके सन्धि विग्रहाधिकारी बेलदेव की प्रार्थनानुसार सिन्दकंचरस ने मूलगुन्द के जिन मन्दिर को भूमिदान देने का प्रस्ताव किया है । उसमें मुख्यतः बेलदेव के गुरु नयसेन और नयसेन के गुरु नरेन्द्रसेन का वर्णन दिया है। नरेन्द्रसेन द्वितीय त्रैविद्यचक्रेश्वर प्रस्तुत नरेन्द्रसेन मूल संघ सेनान्वय चन्द्रकवाट ग्रन्वय के इन्हीं नयसेन के शिष्य थे। और व्याकरण शास्त्र के महान पंडित थे । चालुक्य चक्रवर्ती भुवनकमल्ल सोमेश्वर द्वितीय (सन् १०६८ ) से पूजित गुणचन्द्र देव ने नरेन्द्रसेन मुनि को 'विद्य' बतलाया है मूलगुन्द के सन् १०५३ के शिलालेख में नरेन्द्रसेन को व्याकरण का पंडित बतलाते हुए लिखा है कि- 'चन्द्र, कातंत्र, जैनेन्द्र शब्दानुशासन, पाणिनी, इन्द्र यादि व्याकरण ग्रंथ नरेन्द्रसेन के लिये एक अक्षर के समान हैं। यथा- १ Jainism in South India p. 139 २ जैन लेख मं० भा० ४० ११५ में लक्ष्मेश्वर (मैसूर) का लेख १६५ ६ जैन लेख संग्रह भाग ४ पू० ६० में मूल गुन्दका सम्० १०५३ का लेख Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ चान्द्र कातंत्र जनेन्द्र शब्दानुशासनं पाणिनीय मत्तेन्द्र नरेन्द्रसेन सुनीन्द्रकेऽकाक्षर पेरंगिषु मोगो । यह नरेन्द्रसेन व्याकरण शास्त्र के साथ न्याय (दर्शन) शास्त्र और काव्य शास्त्र के भी विद्वान थे। इसी से इनके शिष्य नयसन ने अपने कन्नड़ ग्रन्थ धर्मामृत में अपने गुरु नरेन्द्रमेन का गुणगान करते हुए शास्त्रज्ञान के समुद्र और विद्यचक्रंदर बतलाया है । यथा 'तवाराशि नरेन्द्रसेनमुनि विद्यचक्रेश्वरम् । नरेन्द्रसेन ने अपने शिष्य नयसेन को व्याकरण और न्याय शास्त्र में निष्णात बनाया था । न्याय व्याकरण भोर काव्य शास्त्र में निपुण विद्वानों को 'विद्य' की उपाधि से अलंकृत किया जाता था। नयसेन ने अपने धर्मभृत का समाप्तिकाल अक्षर संख्या में प्रकट किया है- "गिरी शिखों मार्ग शशी संख्यो लावगमोदित सुसिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सरदोल"। यहां गिरि शब्द का संकेतार्थ सात होने से शक बर्ष १०३७ होने पर भी उन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में आने से गिरि शब्द का संकेतार्थ ग्रहण किया गया है। इस का रचनाकाल शर्क वर्ष २०३४ सन् १९५२ निश्चित है। इससे नरेन्द्रसेनका समय २५ वर्ष पूर्व सन् १०८७ होना चाहिये। पी० वी० देसाई ने भी इन नरेन्द्रसेन द्वितीय का समय सन् १०८० बतलाया है । नरेन्द्रसेन को एकमात्रकृति प्रमाण प्रमेय कलिका' है। यह न्याय विषयक एक लघु सुन्दर कृति है । जो न्याय के अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है। इसमें प्रमाण और प्रमेय इन दो विषयों पर सरल संक्षिप्त श्रोर विशद रूप से चिन्तन किया गया है। भागा गेली सरल एवं प्रवाह पूर्ण है। रचना में कहीं कहीं मुहावरों, न्याय वाक्यों और विशेष पदों का प्रयोग किया गया है। आचार्य नरेन्द्रसेन ने इस ग्रन्थ में प्रभाचन्द्र को पद्धतिका अनुसरण किया है । ग्रन्थ में रचना काल नहीं है, श्रीर न उनके शिष्य नयन ने ही उनकी कृति का उल्लेख ही किया है । उनकी अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं। इनका समय सन् १०६० से सन् १०८७ ई० होना संभव है । जिनसेन जिनमेन मूलसंघ सेनगण के विद्वान थे और कनकसेन द्वितीयके जो जिनागम के वेदी और गुरुतर संसार कानन के उच्छेदक और कर्मेन्धन-दन में पट्टशिष्य थे। जिनसेन गुनीन्द्र, मद रहित सकल शिष्यों में प्रधान, काम के विनाशक और संसार समुद्र से तारने के लिये नौका के समान थे। जयाकि नागकुमार चरित्र प्रशस्ति के निम्न पद्म से प्रकट है गतमयजनितस्य महामुनेः प्रथितवान जिनसेन मुनीश्वरः । सकल शिष्यवरो हतमन्मयो भवमहोदधितारतरंडकः ॥ जिनका शरीर चारित्र से भूषित था। परिग्रह राहत - निसंग, दुइ कामदेव के विनाशक और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान थे। जैसा कि भैरव पद्मवतों कल की प्रशस्ति से स्पष्ट हैचारित्र भूषिताङ्गी निःसगो मथित दुर्जयानंग: 1 तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याब्जधर्मा शुः ५६ कनकसेन द्वितीय का समय ६६० ईस्वी है । और जिनसेन का समय ईस्वी सन् २०२० है | नयसेन नयन --- मूल संघ-सेनात्वय-चन्द्रवाट अन्वय के विद्वान थे और विद्यचकवतों नरेन्द्र सूरि के शिष्य थे । नरेन्द्रसेन अपने समय के बहुत प्रभावशाली विद्वान हुए हैं। चालुक्य वंशीय भुवनं कमल्ल (सन् १०६६ से १०७६ १२३ १०४१ २ दिन गाउदा १३६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा और बाकी के २६५ तक उनकी सेवा करते थे। नरेन्द्रगन व्याकरण और न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान थे ओर विविध उपाधियों से अलंकृत थे। ये महिलण के गुरु जिनसेन के सधर्मा थे इन्होंने नमगन को पढ़ाकर अच्छा विज्ञान बनाया था । इसी से नयसेन ने उनका बड़े ग्रादर के साथ स्मरण किया है। मूलगुद के शिलालेख (सन् १०५३) में नरेन्द्र सेन के शिष्य नयसेन को सभी व्याकरण ग्रन्थोंका ज्ञाता विद्वान बनाया है franनें वे तो treeाइन, मुनीश ताने शा शासन दल पाणिनी, पाणिनीय दोल चन्द्र चान्द्रावोलतज्जनं ॥ द्रन जैनेन्द्र दोला कुमार ने गंड कौमार बोलान्वररें -. तेने पोर्तन्नधसेन पंडितं रोलन्यय्वधिवितोर्वीयोल ॥ वचनः - इत समस्त शब्द शास्त्र पारगानयसेन पंडित देवर नयसेन को बनाई हुई दो रचनाएं उपलब्ध हैं । कर्णाट भाषा का व्याकरण और दूसरा ग्रन्थ धर्मामृत । इसमें ९४ प्रवास हैं। इन ग्रावासों में कवि ने सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंग और पाच व्रतों की कथाओं के माध्यम से श्रावका चार का विस्तृत कथन किया है। इस ग्रन्थ की भाषा कड़ी है, जो बहुत ही सुन्दर, ललित और शुद्ध है। इसी से कवि की गणना कन्नड़ साहित्य के आकाश में देदीप्यमान ग्रन्थकारों में की गई है, और सौभाग्य से प्रायः वे सब कवि जंन हैं। पम्प, रत्न, पोन्न, साल्व, रत्नाकर, अरगल और बन्धुवर्गी मादि सब कवि जैनधर्म के प्रेमी और श्रद्धालु ये । कन्नड साहित्य के भण्डार को इन्होंने समूद्ध किया है। इस समृद्धि में नयसेन का बहुत बड़ा भाग रहा । इनके ग्रन्थ में भाषा का सौष्ठव और उपमादि अलंकारों की छटा पद-पदपर देखने को मिलती है । भाषा में प्रवाह और श्रांज है । कथानक की शैली सरल और सजीव तथा रोचक है। यह सजीवता ही लेखक की अपनी विशेषता है । ग्रन्थ में कर्ता ने धर्मामृत के आदि में अपने से पूर्ववतों निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है जिनकी संख्या पचपन ( ५५ ) है - 'भर्हदुबली, गुणघर, श्रार्यमक्षु नागहस्ति, यतिवृषभ, घरसेनाचार्य, भूतबली, पुष्पदन्त, कुन्दकुन्दाचार्य, जटासिंहनन्दि, कूचि भट्टारक, स्वामि समन्तभद्र, कवि, परमेष्ठी, पूज्यपाद, विद्यानन्द, मनन्तवीर्य, सिद्धसेन श्रुतकीति, प्रभाचन्द्र, बप्पदेव एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अजितसेन मुनि, सोमदेव पण्डित, त्रिभुवनदेव, नरेन्द्रसेन, नयसेन, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, रामनन्दि' सैद्धान्तिक (माघनन्दी) गुणचन्द्र पण्डित, विद्य नरेन्द्रसेन, वासुपूज्य सिद्धान्ती वचनन्दी संद्धान्तिक, मेधचन्द्र सैद्धान्तिक, माघनन्दी सैद्धान्तिक, प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिक, अर्हनन्दी भट्टारक, श्रुतकीर्ति, रामसिंह, वासुपूज्य भट्टारक, चारुसेन, कुत्रकुटासन मलधारि, मेघचन्द्र विद्य रामसेनवती, कनकनन्दी सुनीन्द्र, अकलंक, श्रसगकवि, पोन्नकवि, पम्पकवि, गजांकुशकवि, गुर्णवर्मा, रत्नकवि । विनयसेन ने साधारण कथा को इतने सुन्दर ढंग से चित्रित किया है कि वह पढ़ते समय पाठक के मानस पर अपना प्रभाव अंकित किये बिना नहीं रहती । यहीं कारण है कि पश्चाद्वर्ती कवियों ने इसे सुकवि निकर पिक माकन्द, कति जनमनः सरोराजहंस' आदि विशेषणों से भूषित किया है। ग्रन्थकर्ता ने अपने को 'मूलगुन्द' का निवासो बतलाया है | जो एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। मूलगुन्द धारवाड जिले की गदग तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिम की ओर है। यही के जैन मन्दिर में बंटकर कवि ने कनड़ी भाषा में धर्मामृत की रचना की है। जो २४ अधिकारों में विभक्त है । यहाँ इस समय चार जैन मन्दिर हैं। यहां के मन्दिर में रहते हुए मल्लिषेणाचार्य ने श्रनेक ग्रन्थों की रचना की है और मैं जगत पूज्य सुकवि निकर पिकमाकन्द्र हो गया हूँ लिखा है । कवि ने ग्रंथ की रचना का समय अक्षरों में दिया है। उसमें गिरी शब्द का संकेतार्थ सात होते हुए भी 'नन्दन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में १ मूल ग्रंथ के टिप्पण में रामनन्दि का नाम भावनन्दि दिया है। २ मूल गुददोलिदु महोज्ज्वल धर्मामृत मनतमिद भध्या । बलिगिरि एवं परिश्रीत पूज्यं सुषवि निकर पिकमाकन्दं ॥ - धर्मात १४-१६८ ३ 'गिरिशिखी वायुमार्गाशी गंभ्य बोला वगमो दिवति सुसिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सर दोल" - धर्मात प्रशस्ति Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम-भाग २ पाने से शक वर्ष १०३४ ग्रहण किया गया है। अर्थात् धर्मामत की रचना ई० सन् १११२ के लगभग हुई है। इस ग्रंन्य की हिन्दोटीका प्राचार्य देशाभूषण ने को है ग्रंथ मूल और हिन्दो टोका सहित दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। नयसेनके लिये शक संवत् ६७५ के विजय संवत्सर में सन् १०५३ में बेलदेव को प्रेरणा से सिन्दकुल के सरदार कंचसर ने कुछ भूमि दान में दी थी। इससे ज्ञात होता है कि नयसेन दीर्घ जीवी थे। उसके बाद वे अपने जीवन से भूमंडल को कितने वर्ष और अलंकत करते रहे, यह अन्वेषणीय है। मल्लिषरण मल्लिषेण-प्रजितसेन की शिष्य परम्परा में हुए हैं। जितसेन के शिष्य कनकसेन और कनकसेन के शिष्य जिनसेन और जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण थे। इन्होंने जिनसेन के अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेन का भी गुरु रूप से उल्लेख किया है। वादिराज ने भी न्यायविनिश्चय को प्रशस्ति में कनकसेन और नरेन्द्रसेन का स्मरण किया है। इससे वादिराज भी मल्लिषेण के समकालीन जान पड़ते हैं । और उनके द्वारा स्मृत कनकसेन और नरेन्द्रसेन भी वही ज्ञात होते हैं। मल्लिषेण वादिराज के समान मठपति ज्ञात होते हैं। क्योंकि इनके रचित मंत्र-तंत्र विषयक ग्रंथों में स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण और अंगनाकर्षण आदि के प्रयोग पाये जाते हैं। ये उभय भाषा कवि चक्रवर्ती (प्राकृत और संस्कृत भाषा के विद्वान) कविशेखर, गारुड़ मंत्रवादवेदो मादि पदवियों से अलंकृत थे। उन्होंने अपने को सकलागम में निपुण, लक्षणवेदी, और तर्कवेदी तथा मंत्रयाद में कुशल सूचित किया है। वे गहस्थ शिष्यों के कल्याण के लिये मंत्र-तंत्र और गोगोगवारी प्रवृत्ति भी करते थे। वे उच्च श्रेणी के कवि थे। भैरव पद्यावती कल्प के अनुसार उनके सामने संस्कृत प्राकृत का कोई कवि अपनी कविता का अभिमान नहीं कर सकता था। यद्यपि वे विविध विषयों के विद्वान होते हुए भी मंत्रवादी के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति थी । यह विक्रम की ११वीं शताब्दी के अन्त और १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे। क्योंकि इन्होंने अपना 'महापुराण' शक सं० १६६ सन् १०४७(वि० सं० ११०४) में ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन मूलगुन्द नामक नगर के जैन मन्दिर में रह कर पूरा किया था। यह मूल मुन्द नगर धारवाड जिले को गदग तहसील में गदय १ जैन लेख सं० भाग पार पृ०६० १ यह कनकसेन उन अजिलसेनाचार्य के शिष्य थे जो गंगवंशीय नरेश राघमल्ल और उनके मंत्री एवं सेनापति : मण्ड राय के गुरु थे । गोम्मटसार के कर्ता आवार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चकवर्ती ने उनका 'भुवनगुरु' नाम से उल्लेख किया है। २ तस्वानुजाचार चरित्र वृत्तिः प्रपात कीतिभुवि पुण्यमूर्तिः।। नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विशाततत्त्वो जितकामसूत्रः ।। -नागकुमार चरित्र प्र० ३ न्याय विनिश्चम प्रशस्ति श्लोक २ । जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० ११.० २ ४ 'प्राकृत संस्कृतीभय कवित्वता कविचक्रवर्तिना -महापुराण प्रशस्ति ५ 'गारुड मंत्रवाद सकलागम लक्षण तर्क वेदिना। -महापुराण प्रयास्ति ४ ६ “भाषास्य कवितायां कवयो दपं वन्ति ताबदिह । मा लोकपन्ति यावस्कविशेखर मस्लिषेण मुनिम् ॥" भैरव पद्मावती कल्प ७ ती श्री भूलगुन्द नाम्नि नगरे श्री जैनषालये स्थित्वा श्री कविचक्रवर्तियतिपः श्री मल्सिषेणावयः । संक्षेपात्प्रथमानुयोग कथन व्याख्यान्वितं शण्वतो। भश्यानां दुरितापहं रचितधान्निःशेषविद्याम्बुधिः ॥१ वर्षक त्रिणताहीने सहस्र शक भूभुजः । सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुपले पंचमी दिने ॥ २ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विवान, आचार्य से १२ मील दक्षिण-पश्चिम की ओर है। यहां के जैन मन्दिर में रहते हुए इन्होंने महापुराण की रचना की थी। उसका कवि ने तीर्थरूप में उल्लेख किया है। इस समय भी वहां चार जैन मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में शक सं० ८२४, ८२५, ६७५, ११९७, १२७५ और १५६७ के शिलालेख अंकित हैं। मूलगुण्ड के एक शिलालेख में प्राचार्य द्वारा सेनवंश के कनकसेन मुनिको नगर के व्यापारियों को सम्मति से एक हजार पान के वृक्षों का एक खेत मन्दिरों की सेवार्थ देने का उल्लेख है। एक मन्दिर के पीछे पहाड़ी चट्टान पर २५ फट ऊंचो एक जैन मूति उत्तीर्ण की हुई है । संभव है मल्लिषेण मठ भी इसी स्थान पर रहा हो। मल्लिपेण के एक शिष्य इन्द्रसेन का समय सन् १०६४ है। महिलपेण का समय उससे एक पीढ़ी पूर्व है। __आपको निम्नलिखित छह रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनका परिचय निम्न प्रकार हैमहापुराण, नागकुमार, काव्य, भैरब पमावती कल्प, सरस्वती मंत्र कल्प, ज्वालिनी कल्प और काम चण्डाली कल्प। १. महापुराण-यह संस्कृत के दो हजार श्लोकों का ग्रन्थ है। इसमें प्रेसठ शलाका पुरुषों को संक्षिप्त कथा दी है । रचना सुन्दर और प्रसादगुण से युक्त है। इस ग्रन्थ को एक प्रति कनड़ी लिपि में कोल्हापुर के लक्ष्मीसेन भरदारक के मठ में मौजद है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। २. नागकुमार काव्य-यह पांच सर्गों का छोटा-सा खण्ड काव्य है, जो ५०७ श्लोकों में पूर्ण हुमा है। इसके प्रारम्भ में लिखा है, कि जयदेवादि कवियों ने जो गद्य-पद्यमय कथा लिखी है, वह मन्दबुद्धियों के लिये विषम है। मैं मल्लिषेण विद्वज्जनों के मन को हरण करने वाली उसी कथा को प्रसिद्ध संस्कृत वाक्यों में पद्यवद्ध रचना करता हूँ' । यह काव्य बहुत ही सरल और सुन्दर है। ३.भैरवपद्मावती कल्प-यह चार सौ श्लोकों का मंत्र शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है इसमें दश अधिकार हैं। यह बंधपेण की संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। ४. सरस्वती पल्प-यह मंत्र शास्त्र का छोटा-सा ग्रन्थ है। इसके पधों की संख्या ७५ है यह भैरव पद्मावती कल्प के साथ प्रकाशित हो चुका है। ५.ज्वालामालिनी कल्प-इसकी सं० १५६२ को लिखी हुई एक १४ पत्रात्मक प्रति स्त्र० सेट माणिकचन्द्र जी के ग्रन्थ भण्डार में मौजूद है। ६. कामचण्डाली कल्प- इसकी प्रति ऐ०५०दि जैन सरस्वती भवन ब्यावर में मौजूद है। ७. सज्जन चित्तबल्लभ-नाम का एक २५ पद्यात्मक संस्कृत ग्रन्थ है, जो हिन्दी पद्यानुवाद और हिन्दी टीका के साय प्रकाशित हो चुका है, वह इन्हीं मल्लिपेण की रचना है या अन्य की है। यह विचारणीय है। __ श्री कुमार कवि श्री कुमार कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। और न अपने गुरु का ही नामोल्लेख किया है। कवि की एक मात्र कृति 'यात्म प्रबोध' है। जो अपने विषय का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । और जिसे कवि ने अपने प्रात्मप्रदोघनार्थ रचा है, जैसा कि ग्रंथ के अन्तिम वाक्यों से प्रकट है : "श्रीमत्कुमार कविनात्मविबोधनार्थमात्मप्रबोध इति शास्त्रमिदं व्यधायि" १ देखो, बम्बई प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक पृ. १२० २ देखो, जैन शिलालेख सं० भाग २ पृ. १५९ ३ देखो, बम्बई प्रान्त के प्राधीन जैन रमारक पृ० १२० ४ "पंतु माडिसी श्रीममिलसंघवन बसंत समय सेनगा, मगणं नायकर मालनुरान्बय शिरशेखरमे निसिद श्रीमन मल्लिषेण भट्टारकर प्रियागशिप्यरूं तन्नन्वयद गुरुगलु मेनिसिद श्री मदीन्द्रसेन भट्टारकर्ग-विनदिकर कमलसंगलं मुगिदु । -देखो.सन् १०६४ कालेख Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ कवि ने लिखा है कि यह मेरी प्रथम रचना है जैसाकि 'आत्म प्रबोधमधुना प्रथमं करोमि' वाक्यों से स्पष्ट है। श्री कुमार नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है । एक श्रीकुमार वे हैं जिनका उल्लेख नयनन्दि १११०७) ने सकल विधि विधान काव्य के निम्न वाक्यों में किया है-"श्रीकुमार शरसइ कुमरु, कित्ति विलासिणि गेहरु ।" प्रोर जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे । दूसरे श्री कुमार कवि थे हैं, जो कवि हरिन मल्ल (१४ वीं सदी) के चार ज्येष्ठ भ्रातानों में से एक थे । इनमें नयनन्दि के समकालान श्री कुमार प्रान्माबांध कर्ता जान पड़ने हैं। इस ग्रंथकी दो हस्तलिखित प्रतियां १६ वीं शताब्दी को उपलब्ध हैं। सं० १५.७२ की लिग्यो हुई एक प्रति १४ पुजा जैन सन्द्रित रखकर लसावर के महार में मार दूसरो कामा में दीवान जो यो मन्दिर के भंडार में सं १५.४७ को लिखी हुई उपलब्ध है।' पन्य परिचय प्रस्तुत ग्रंथ में संस्कृत के १४६ लोक हैं। ग्रंथ का विषय उसके नाम से मगाट है । कवि ने आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि मसार के प्राय: सभी जीव प्रात्मविमुख हैं, आ-मज्ञ पुरुष तो विरले होते हैं। जिन्हें प्रात्मा का बोध नहीं है उन्हें दूसरों को प्रात्मबोध कराने का अधिकार नहीं है, जिनमें तैरकर नदी को पार करने की क्षमता नहीं है, वह दूसरों को तरो का उपदेश कैसे दे सकता है ? उसका उपदेश तो वंचक ही समझा जावेगा। प्रात्मप्रबोध विरहावविशुद्धबुद्धरन्यप्रयोधविधि प्रतिकोऽधिकारः । सामथ्यमस्ति तरितं सरितो न यस्य तस्य प्रतारणपरा परतारणाक्तिः॥४ यदि दूसरों को प्रतिबोधन करने की इच्छा है, तो पहले स्वयं प्रपनी आत्मा को प्रबुद्ध कर । क्योंकि चाक्षुप मनुष्य ही अन्धे को सुरक्षित मार्ग में ले जा सकता है, अन्धे को अन्धा नहीं। कवि यह भी कहता है कि जिनका मानस मिथ्यात्व से मल है, जो मोह निद्रा में सदा सुप्त हैं, उनके लिये भी मेरा यह श्रम नहीं है। किन्तु जिनको मोह निद्रा शीघ्र नष्ट होने वाली है वहीं प्रात्मप्रबोध के अधिकारी हैं। उन्हीं के लिये यह ग्रन्थ रचा जाता है । यथा - मिथ्यात्व मूढ मनसः सततं सुषप्ता, ये जंतषो जगति तान्प्रति न थ मो नः । येषां पियामु रचिराविध मोहनिद्रा, ते योग्यतां वति निश्चितमात्मबोधे ।।६।। जिसके रहते हुए शरीर पदार्थों के ग्रहण करने दान देने, पाने-जाने सुनने-सुनाने, स्मरण करने तथा सुखदुःखादि के अनुभव करने में प्रवृत्त होता है, वही मात्मा है, आत्मा चेतन है, ज्ञाता दृष्टा है, और स्पर्शनादि इन्द्रियों के अगोचर है क्योंकि वह अतीन्द्रिय है अतएव उनसे प्रात्मा का नाम नहीं होता। प्रारमा नित्य है, अविनाशी गुणों का पिण्ड है, परिणमनशील है विद्वान लोगों द्वारा जाना मोर अनुभव किया जाता है, ज्ञान दर्शन स्वरूप उपयोगमय है, शरीर प्रमाण है, स्वपर का ज्ञाता है, वा, कर्म फल का भोक्ता और प्रनत सुखों का भंडार है1 उस आत्मा को सिद्ध करने वाले तीन प्रमाण हैं ' प्रत्यक्ष प्रागम और मनुमान । यात्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । क्योंकि वह अतीन्द्रिय है हां सकल प्रत्यक्ष द्वारा प्रात्मा जाना जा सकता है। या प्राप्त वचन रूप पागम से, और अनुमान से जाना जाता है। शरीर में जब तक मात्मा रहती है शरीर उस समय तक काम करता है हेयोपादेय कार्यों में प्रवृत्त होता है, सुख दुःखादि की अनुभूति करता है, किन्तु जब शरीर से प्रात्मा निकल जाता है तब वह निश्चेष्ट पड़ा रह जाता है । अत: यह अनुमान ज्ञान भी उसके जानने में साधक है। भगवान जिनेन्द्र ने आत्मा को ज्ञाता दृष्टा बतलाया है। प्रात्मा के चैतन्य स्वरूप को छोड़कर अन्य चेतन प्रचेतन पदार्थ प्रात्मा के नहीं है ये सब प्रात्मा से भिन्न हैं। १ देवो, राजस्थान जैन प्रथ भंडार सूनी भाग ५ पृ० १८३ २ निल्यो निरत्ययगुणः परिणामघाम, बुद्धो अधदं गवयोषमयोपयोगः । आत्मा वपुः मितिरात्म परप्रमाता कर्ता स्वतोनभविताय मनसौख्य: ITE ३ जेषा प्रमाण मिह राधिकमस्ति यस्मात् प्रस्वा मानवचनं च तथानुमानं ।।१३ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६६ विद्या के दो प्रकार हैं प्रविद्या और अध्यात्म विद्या । अविद्या संसार का कारण है, दु.स्वात्पादिका है, मिथ्यादर्शन प्रज्ञान और असंयम से युक्त है। राग-द्वेष, ईर्पा, अहंकार ममकार सुख दुख अादि उसो विद्या का परिवार है। अविद्या हेय है और विद्या उपादेय है । जो विद्या सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र से भूषित है वह अध्याग विद्या है। उसके दो प्रकार है, स्वाध्याय और ध्यान । अपने प्रात्मस्वरूप का चिन्तवन करना अथवा ग्रात्म सम्बन्धि ज्ञान का नाम स्वाध्याय है। तथा इन्द्रिय व्यापार से रहित होकर केवल मन से आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करना अध्यात्म विद्या है। स्वाध्याय—मोक्षमार्ग में उपयुक्त प्रागमज्ञान का अभ्यास करना और आगम में विहित पात्म स्वरूप का वन करना स्वाध्याय है। इससे प्रात्मा विशिष्ट ज्ञानी होता है, और उसकी दष्टि जैन बचन में हैं। रमती है, क्योंकि वे वचन वीतराग सर्वज्ञ रूप हिमाचल से विनिर्गत हैं, कर्म क्षय में कारण हैं। अतएव जो माध विधि पूर्वक प्रागमका अभ्यासी है उसके मन-वचन-काय रूप गुप्ति वयका पालन होता है, माया मिथ्या निदान म्हा शल्य त्रय का विनाश होता है, और समितियों का भले प्रकार पालन होता है । स्वाध्याय से प्रात्म-वोध होता है। और उसी से जगत्रय का बोध कराने वाले केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। जब साधु का मन स्वाध्याय से थक जाता है, और पागमाभ्याम में मन नहीं रमता तब उसे प्रात्म ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिये । एकाग्र चिन्ता निगंध का नाम ध्यान हैं। ध्यान कर्म निर्जरा का कारण है। उसमे आत्मशक्ति में स्फूर्ति उत्पन्न होती है। जब प्रामा अन्तर्बाह्य जल्पों से रहित होकर वस्तु स्वरूप के चिन्तन में निष्ठ होता है, तब वह अपने स्वकीय वैभव को प्राप्न करता है, उसमें उपसर्ग और परिषहों के सहने को सामर्थ्य अथवा जाति होती है। कंपायों को कामपना विनष्ट हो जाती है वे क्षीण शक्ति हो जाती हैं उनका रस शुष्क हो जाता है। और वे अपने कार्य करने में असमर्थ हो जाना हैं। आत्म परिणति निर्मल होती है, पान्तरिक विशुद्धि बढ़ती है। ध्यान और समाधि से आत्म-शक्ति का संचय होता है, मौर वह कर्म के संक्षय में कारण होती है। प्रतएव जो साधु प्रातरौद्रादि कुध्यानों का परित्याग कर धर्म प्रौर शक्ल ध्यान का प्राचरण करता है। उस समय उसका धर्म ध्यान ही शुक्ल ध्यान रूप परिणमन करने लगता है । और पात्मा अपने अनन्त गुणों के तेज से कर्मों के सुपुट बन्धनों को तड़ा तड़ तोड़ता हुआ स्वात्मोपलब्धि का पात्र बन जाता है । इस तरह यह ग्रंथ अध्यात्म विषय का महत्वपूर्ण है। समय कवि धीकुमार ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। और न अपने गुरु का नामोल्लेख ही किया है। अनाव यह निश्चय करना बड़ा कठिन है कि वे कय हुए हैं। कार श्रीकुमार नाम के दो विद्वानों का उल्लेख किया गया है। उनमें से प्रथम श्रीकुमार कवि ही इस ग्रन्थ के कर्ता है, क्योंकि मं० १३०० में समाप्त होने वाली अनगार धर्मामत की टीका के हवे अध्याय के ४३वें श्लोक की टीका करते हुए निम्न पद्य उद्धृत किया गया है, जो प्रान्मप्रबोध में ५.१ नम्बर पर पाया जाता है : मनोबोधाधीनं विनय बिनियुक्तं निजवपुवंचः पाठायत्तं करणगण माधाय नियतम् । वघानः स्वाध्याय कृत परिणति न बचने. करोत्यात्मा कर्म शामिति समाध्यन्तरमि ॥५॥ इसमें बतलाया है कि जिस स्वाध्याय में मन ज्ञान के ग्रहण-धारण में लीन रहता है, शरीर विनय संयुक्त रहता है, वचन पाठ के उच्चारण में लगा रहता है, और इन्द्रिय समूह नियंत्रित रहता है इस प्रकार सारी परिणति जिसमें जिनवाणी की और रहती है ऐसे स्वाध्याय को धारण करने वाला निश्चय ही कर्मों का क्षय करता है, अतएव स्वाध्याय भी समाधि का रूपान्तर है। इससे स्पष्ट है कि श्रीकुमार कवि सं० १३०० से पूर्ववर्ती हैं, वे बाद के विद्वान नहीं हो सकते। और नयनन्दि का समय सं० ११०० है, उन्होंने अपने समकालीन विद्वानों में श्री कुमार कदि का उल्लेख करते हुए उन्हें मरस्वती कुमार भी बतलाया है। अतः श्री कुमार ११वीं शताब्दो के विद्वान हैं। वे उस समय सरस्वती कुमार Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ༢༠༠ नाम से क्या थे । यह उनकी प्रथम रचना है। उनकी अन्य रचनाओं का अन्वेषण होना श्रावश्यक है । श्रङ्कदेव भट्टारक प्रङ्कदेव भट्टारक — देवगण और पाषाणान्वय के विद्वान् थे । इनके शिष्य महीदेव भट्टारक थे। इन महीदेव के गृहस्थ शिष्य महेन्द्र दोललुक ने मेलस चट्टान पर 'निरवद्य जिनालय' बनवाया था, और सन् १०६० ईस्वी के लगभग खचर कन्दर्पसेन मारकी कृपा को प्राप्त कर निरवद्य को 'मान्य' प्राप्त हुआ था। जिसे उसने जक्क मान्य का नाम देकर उक्त जिनालय को दे दिया । और एडे मले हजार ने अपने धान्य के खेतों की फसल में से कुछ धान्य या नामक जिस को हमेशा के लिए दिया और भी जिन लोगों ने दान दिया उनके नाम भी लेख में दिए गये हैं । इससे अंकदेव का समय ईसा को ११ वीं सदी है। जैन लेख सं० भा० २०१६३ ॥ गुणकीर्ति सिद्धान्त देव गुणकीर्ति सिद्धान्तदेव अनन्तवीर्य के शिष्य थे । यह यापनीय संघ धौर सूरस्थ गण और चित्रकूट ग्रन्वय के विद्वान् थे। इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी है । - (जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५ ) देवकीति पण्डित पण्डित देव कीर्ति भी अनन्तवीर्य के शिष्य थे । यह भी यापनीय संघ सूरस्थगण और चित्रकूट अन्वय के विद्वान् थे । इनका समय भी ईसा की ११वीं शताब्दी है । संभवतः ये दोनों सघर्मा हों । -(जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५ ) गोवर्द्धन देव गोवर्द्धन देव यापनीय संघ कुमुदगण के ज्येष्ठ धर्मगुरु थे । इन्हीं गोवर्द्धन देव को सम्यक्त्व रत्नाकर चैत्याके लिए दिये गए दान का उल्लेख है । गोवर्द्धन के साथ ही अनन्तवीर्य का उल्लेख है । पर यह स्पष्ट नहीं है। कि इनका गोवर्द्धन के साथ क्या सम्बन्ध था । - जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ०१४२ दामनन्दि दामनन्दि कुमार कीर्ति के शिष्य थे। ये दामनन्दि वे सकते हैं जिनका उल्लेख जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृ० ५५ में चतुर्मुखदेव के शिष्यों में है । धाराधिपति भोजराज की सभा के रत्न ग्राचार्य प्रभाचन्द्र के ये धर्मा थे और इन्होंने महावादि विष्णुभट्ट को हराया था। यह दामनन्दी प्रभाचन्द्राचार्य के सधर्मा गुरुभाई जान पड़ते हैं। धाराधिप भोज का राज्यकाल सन् १०१८ से १०५३ माना जाता है। जबकि दामनन्दि का सन् १०४५ के शिलालेख में उल्लेख है । इस कारण वे भोज के राज्यकाल में रहने वाले प्रभाचन्द्र के सुधर्मा दामनन्दि से अभिन्न हो सकते हैं। अतः दामनन्दि के गुरु कुमारकीर्ति के सहाध्यापक अनन्त वीर्य की स्थिति सन् १०४५ तक पहुंच जाती है । संभवतः यह दामनन्दी भट्टवोसरि के गुरु हों । दामनन्दि मट्टारक दामनन्दि देशीगण पुस्तक गच्छ के विद्वान श्रीधरदेव के प्रशिष्य और एलाचार्य के शिष्य थे। चिक्क हन सोगे का यह कन्नड़ लेख यद्यपि काल निर्देश से रहित है । संभवतः यह लेख सन् १९०० ईस्वी का है । जैन लेख सं० भा० २ पृ० ३५८ लेख नं० २४१ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विवान, आचार्य दामनन्दी पनसोगे निवासी मुनियों में पूर्णचन्द्र मुनि के शिष्य दामनन्दि थे । यह लेख शक सं०१०२१ सन् १०६६ का है, इनके शिष्य श्रीधराचार्य थे । इनका समय ईसा को ११वीं सदी है। --जैन लेख सं० भा.२१०३५६ भूपाल कवि कवि ने अपने नामोल्लेख के सिवाय अपना कोई परिचय प्रस्तुत कबि भुपाल नहीं किया। और न उन्होंने यही सूचित किया कि यह जिन चतुर्विभातिका स्तोत्र कहाँ और कब बनाया है ? प्रस्तुत स्तोत्र में २६ पद्य हैं। जिनमें जिन दर्शन की महत्ता च्यापित करते हुए जिन प्रतिमादर्शन को लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों का कारण बतलाया है : श्री लीला यतनं महोकुलगह कीति प्रमोदास्पदं, वाग्देवी रति केतनं जयरमा क्रीडानिधानं महत् । स स्यात्सर्व महोत्सवक भवनं यः प्राथितार्थप्रद प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांधिद्वयम् ।।१।। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल के समय जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करता है, वह बहुत हो सम्पत्तिशाली होता है । पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीति सब पोर फैल जाती है, वह सदा प्रसन्न रहता है । उसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसकी विजय होती है, अधिक क्या उसे सब उत्सव प्राप्त होते हैं। स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननी गन्धि कुपोदरादद्योद्घाटित वृष्टि रश्मि फलवज्जन्मास्मि चाय स्फुटम् । त्वमद्रासमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयो नेग्नेन्वीवरकाननेन्दु ममतस्यन्ति प्रभाचन्द्रिकम् ॥३ हे भगवन ! आज आपके दर्शन करने से मैं कृतार्थ हो गया और मैं ऐसा समझता है कि प्राज ही मेरे आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ हो रहा है। मेरे ज्ञान नेत्र खुल गए हैं और में यह अनुभव कर रहा कि विषय कषाय और अज्ञान के कारण अब तक मेरी शक्ति कुठित हो रही थी। मिथ्यात्व ने मेरी ज्ञान दृष्टि को अवरुद्ध कर दिया था । पर आज मेरा जन्म सफल हुना है। जो व्यक्ति मंगलमय वस्तु का दर्शन करना चाहता है उसके लिये जिनदर्शन से बढ़कर अन्य कोई मांगलिक वस्तु नहीं हो सकती। प्रातःकाल मंगलमय वस्तु का अवलोकन करने से मन प्रसन्न रहता है, और उस में कार्य करने की क्षमता बढ़ती है । क्योंकि देव दर्शन समस्त पापों का नाश करने बाला, स्वर्ग सुख को देने वाला और मोक्ष सुख की प्राप्ति में सहायक है । ध्यानस्थ दोतरागी की प्रतिमा के अवलोकन मात्रसे काम क्रोधादि विकार और हिंसादि पाप नष्ट हो जाते हैं, और भात्मोत्थान की प्रेरणा मिलती है। जिस प्रकार सछिद्र हाथ में रखाखा गया जल शनैः शनैः हाथ से गिर जाता है, उसी प्रकार वीतराग प्रभु के दर्शन मात्र से राग-द्वेष-मोह की परिणति क्षीण होने लगती है।' आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थ सिद्धि में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बाह्य साधनों में जिन प्रतिमादर्शन की गणना की है। भूपाल कवि ने वीतराग के मुख को त्रैलोक्य मंगल निकेतन बतलाया है। - इस स्तबन पर सबसे पुरानी टीका पं० आशाधर को है जिसे उन्होंने सागरचन्द के शिष्य विनयचन्द्र मुनि १ दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पागनाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सोपान दर्शनं मोक्ष साधनम् ।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधना वन्दनेन च । न चिर निष्ठते पापं छिद्र हस्ते पथोदकम् ।। दर्शन पाट २ सर्वायं सिद्धि १-३, पृ० १२ शोलापुर एडीसन ३ अन्येन किं तदिह नाच लवंव वात्रं त्रैलोक्य मङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ।।१६ -जिन चतुविशतिका Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ के अनुरोध से बनाया था। टीका सुन्दर है और पद्यों के अर्थ को प्रकट करने वाली है । भ. श्रीचन्द्र और भागचन्द्र सूरि को भी इस पर टीका बतलाई जाती है । पर दे इतनी विशद नहीं हैं, केवल शब्दार्थ प्रकट करने वाली है। पं० प्राशाधर जो की इस टीका से स्पष्ट है कि भूपाल कवि की यह रचना उनसे पूर्व हो चुकी थो। चतुर्विशति का दूसरा पद्य प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण के पुष्पदन्त चरित्र में दिये हुए पद्य के साथ बहुत साम्य रखता है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि भूपाल' कवि ने उसे उत्तर पुराण से लिया हो। दोनों के पद्य नीचे दिये जाते हैं : शान्तं वपुः श्रवणहारिवचश्चरित्रं सर्वोपकारि तव देव ततो भवन्तम् । संसारमारवमहास्थल रन्द्रसान्द्र छायामहीरहमिमे सुविधि श्रयामः ।।६१ उत्तर पु० ५५ पृ०७० शान्तं वपुः श्रवराहारिवचश्चरित्र सर्वोपकारि सव वेव ततः श्रुतज्ञाः । संसारमारवमहास्थल रुन्द्रसान्द्रच्छायामहीव्ह भवन्तमुपाश्रयन्ते ॥ -जिन चतुर्विशति का २ इस पद्य में द्वितीय और चतुर्थ चरण बदले हुए हैं। बाकी पद्य ज्यों का त्यों मिलता है इससे स्पष्ट है कि भूपाल कवि के सामने उत्तर पुराण रहा है। सुलोचना चरित्र के कता कवि देवसेन ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करते हुए पुष्पदन्त के नामोल्लेख के साथ भूपाल का भी नाम दिया है। पुष्फयंत भूपाल-पहाणहि । इससे यह ज्ञात होता है कि भुपाल कवि ६ वों शताब्दी के वाद और १३ बों शताब्दी से पूर्व हुए हैं । सम्भव है कवि ११वीं या १२वीं शताब्दी के पूवाधं के विद्वान हों। इस सम्बन्ध में और विशेष अनुसन्धान को आवश्यकता है। दामराज कवि दामराज-सार्वभौम त्रिभुवनमल्ल नरेभा (राज्यकाल ई० सन् १०७६ से ११२६) का गंगपेरमानडीदेव नामक सामन्त राजा था । और उसका नोक्कय हेगडे नाम का मन्त्री था। पहले यह कवि इसी मत्री कामाश्रित था । परंतु शिवमोग्ग तहसील में जो दशवा शिलालेख है, उसमें इसने अपने को सन्धि वैग्रहिक' मन्त्री लिखा है। इससे मालम होता है कि पीछे से इसने उक्त पद प्राप्त कर लिया होगा। गंगपेरमानडी देव ने बहुत से जिन मन्दिरों को प्रामादि दान किये थे, और उनके शासन कवि दामराज से लिखवाये थे। उक्त शासन लेखों के पद्यों से यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि वह उच्च श्रेणी का कवि था । यह ज्ञात नहीं हुमा कि इसने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है या नहीं। इसका समय सन् १०.५ के लगभग जान पड़ता है। कन्ति कन्ति--यह स्त्री कवि थी। इसकी कविता बहुत ही मनोहारिणी होती थी। देवचन्द कवि के एक लेख से मालम होता है कि यह छन्द, अलंकार, काव्य, कोश व्याकरणादि नाना ग्रन्थों में कुशल थी बाहुबल नामक कवि ने अपने नागकमार चरित के एक पद्य में इसकी बहुत प्रशंसा की है और इसे 'अभिनव वाग्देवो' विशेषण दिया है। द्वार समुद्र के बल्लाल राजा विष्णु वर्धन की सभा में अभिनवपंप और कन्ति से विवाद हुआ था । अभिनयंप को दी हुई समस्या की पति की थी। अभिनवाप चाहता था कि कन्ति मेरी प्रशंसा करे-उसको की हई प्रशंसा को वह अपने गौरव का कारण समझता था । परन्तु वह पंप को प्रशंसा नहीं करती थी। कहा जाता है कि अन्त में कन्ति ने पंप को कविता की प्रशंसा करके उसे सन्तुष्ट कर दिया था। १ "उपशमइव मूर्तिः पूतकीतिः स तस्मात् जयति दिनवचन्द्र: सच्चकोरक चन्द्रः । जगदमृतसगर्भा: शास्त्र सन्दर्भ गर्भाः शुचि चरित सहिष्णीर्यस्य धिन्वन्ति वायः ।" -जिन चतुर्विशति का टीका प्रशस्ति Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य प्राचार्य सुमचंद्र शुभचन्द्र नामक के अनेक विद्वान् हो गए हैं । प्रस्तुत शुभचन्द्र ने अपनी कोई गुरु परम्परा नहीं दो, और न ग्रन्थ का रचनाकाल ही दिया है। अन्य में समन्तभद, देवनन्दी (पूज्यपाद) अकलंकदेव और जिनसेनाचाय का स्मरण किया है। जिनसेन की स्तुति करते हुए उनके वचनों को 'विद्य बन्दित' बतलाया है। विद्य एक उपाधि है जो सिद्धान्त चक्रवर्ती के समान सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों को दी जाती थी। सिद्धान्त (भागम) व्याकरण और न्याय शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों को विद्य उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है। शुभचन्द्र ने जिनसेन के बाद अन्य किसी बाद के विद्वान का स्मरण नहीं किया। ग्रन्ध में आदिपुराण का पद्य भी दिया हुआ है। कवि ने ग्रन्थ रचना का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए लिखा है कि संसार में जन्म ग्रहण करने से उतान हुए दुनिवार क्लेशों के सन्ताप से पीड़ित में अपनी प्रात्मा को योगीश्वरों से सेवित ध्यानरूपी मार्ग में जोड़ता है। कवि ने अपना प्रयोजन संसार के दुखों को दूर करना बतलाया है : भष्प्रभवर क्लेशसन्ताप पीड़ितम् । योजयाम्यहमात्मानं पथियोगोन्द्रसेविते ॥१८॥ कविने लिखा है कि यह ग्रन्थ मैंने कविता के अभिमान से या जगत में कीति विस्तार की इच्छा से नहीं बनाया किन्तु अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए बनाया है : कवित्वाभिमानेन न कीति प्रसरेच्छया। कृतिः किन्तु मवीयेयं स्वा बोधायेव केवलम् ॥१६॥ ज्ञानार्णव में ४२ प्रकरण हैं, जिनमें १२ भावना, पंच महावत और ध्यानादि का विस्तृत कयन किया गया है । मुद्रित रन्थ बहत कुछ अशुद्ध छपा है। ग्रन्थ में रचनाकाल न होने से ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में अन्य साधनों से विचार किया जाता है। प्राचार्य शुभचन्द्र के इस ग्रन्थ पर पूज्यपाद के समाधितन्त्र और इष्टोपदेश का प्रभाव है। उनके अनेक पद्य ज्यों-के-त्यों रूप में और कुछ परिवर्तित रूप में पाये जाते हैं। अन्य अपने विषय का सम्बद्ध और वस्तु तत्त्व का विवेचक है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये उपयोगी है। इसपर प्राचार्य अमृतचन्द्र अमित गति प्रथम और तत्त्वानुशासन तथा जिनसेन के प्रादि पुराण का प्रभाव परिलक्षित है। जैसा कि निम्न विचारणा से स्पष्ट है :विचारणा ज्ञानार्णव के १६वें प्रकरण के छठवें पद्य के बाद उक्त च रूप से निम्न पद्य पाया जाता है : मिथ्यात्यवेवरागादोषादयोऽपि षट् चव । चत्वारश्चकषायाश्चतुर्दशाम्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ यह पद्य प्राचार्य अमुतनेन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धचुपाय का ११६वां पद्य है। इससे स्पष्ट है कि शुभचन्द्र समतचन्द्र के बाद हुए हैं । अमृतचन्द्र का समय दशवीं शताब्दी है। ज्ञानार्णव मुद्रित प्रति के पुष्ठ ४३१वें पांचवें पद्य के नीचे एक प्रार्या निम्न प्रकार दिया है-वह मल में शामिल हो गया है। किन्तु उसपर मूल के क्रम का नम्बर नहीं है । परन्तु सं०१६६६ को हस्त लिखित प्रति क पत्र ८९ पर इसे 'उक्त च' वाक्य के साथ दिया हुआ है। १ जयन्ति जिनसेनस्य वाचास्त्रविद्यन्दिता. ' योगिभियंत्सगासाद्य सवलितं नारम निश्चये ॥१६ २ उक्तंच-अकारादि हकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुकम्। तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्त्व वित् ॥ आवि पुराण २१-२३६ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ शुचि गुणयोगाच्छन कषायरजः क्षयापशमाद्वा । बंड़र्यमणि शिखाइव सनिर्ममं निष्प्रकम्पं च ।। यह पद्य रामसेन के तत्त्वानुशासन में निम्न रूप में उपलब्ध होता है शुचि गुण योगाच्छुकलं कषायरजः क्षयापशमाद्वा ।। माणिक्य शिखा-अदिदं सुनिर्मलं निष्प्रकम्पंच ।।२२२ इस पर कोई अर्थ मेद नहीं है, थोड़ा सा शब्द भेद अवश्य है। तत्वानुशासन के ४८वें पद्य का पूर्वार्थ भी ज्ञामार्णव के रहवें प्रकरण के २६वें श्लोक के पूर्वाध से ज्यों के त्यों रूप में मिलता है यथा "ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेषां ध्यानन्यपि विधा" ज्ञाना० "ध्यातार स्विविधास्तस्मासेषां ध्यानान्यपि विधा" । तत्वानु रामसेन का समय मुख्तार श्री जुगल किशोर जी ने १० वीं शतावदी का चतुर्थचरण निश्चित किया है। अत: शुभचन्द्र उनके बाद के विद्वान हैं। योगसार के कर्ता अमित गति प्रथम, जो प्राचार्य नेमिषेण के शिष्य थे। उनके योगसार के नी व अधिकार का एक पच कानार्णव के ३६ वें प्रकरण के ४३ बें पद्य के बाद उक्त च रूप से पाया जाता है :-- येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । तेन्तन्मयतां याति विश्वरूपो मणियथा ॥ ३९ ज्ञानार्णव येन ये नैव भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वस्पो मणियथा। योगसार ९-५१ अमितगति प्रथम के योगसार का यह पप हेमचन्द्र के योग शास्त्र में भी ज्यों के त्यों रूप में पाया जाता है। यह ज्ञानाणंव में उक्तं च रूप में दिया है। किन्तु योग शास्त्र में वह मुल में शामिल कर लिया गया है। इसी तरह ज्ञानार्णव का यह पद्य-सोऽयं समरसो भावस्तदेकी करणं मतं । प्रात्मा यदपृथक्वेन लोयते परमात्मनि ॥ योग शास्त्र में पाया जाता है । इसका पूर्वार्ध - तत्त्वा नुशासन१३७ में पाया जाता है । चूकि ज्ञानार्णव का मूल पद्य है, वह तत्त्वानुशासन के साहित्यिक अनुसरण एवं प्रभाव से परिलक्षित है। अमितगति द्वितीय ने अपना सुभाषितरत्न सन्दोह वि० सं० १०५० और संस्कृत पंच संग्रह १०७३ में बनाकर समाप्त किया है। इनसे दो पीढी पूर्व अमितगति प्रथमदए है, जिनका समय ११ वीं शताब्दी का प्रथम चरण हैं। इससे स्पष्ट है कि ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्र का समय सं० ११२५ से ११३० के मध्यवर्ती है । अर्थात् वे विक्रम की १२ वीं शताब्दी के प्रथम चरण और ईसा की ११ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान थे। नियमसार की पमप्रमभलधारी देव की वृत्ति में पृष्ठ ७२ पर ज्ञानार्णव के ४२ व प्रकरण का चौथा पद्य उद्धत है, जो शुक्लध्यान के स्वरूप का निर्देशक है : निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणजितम् । अन्तर्मुखं च यहिचत तच्छुक्ल मिति पठ्यते ॥४ पच प्रभमलधारि देव का स्वर्गवास शक सं० ११०७ सन् ११८५ के २४ फरवरी सोमबार के दिन हुआ है। नियमसार को वृत्ति उससे पूर्व बन चुकी थी। नियममार को यह वृत्ति सन् १९८५ से पूर्व बनी है यदि उसका समय शक सं० ११०० मान लिया जाय तो सन् १९७८ में ज्ञानार्णव उनके सामने था। ज्ञानार्णव की रचना के बाद कम से कम १५-२० वर्ष उसके प्रचार-प्रसार में भी लगे हैं। ऐसी स्थिति में शुभचन्द्र के समय की उत्तरावधि पद्यप्रभ मलधारि देव का समय है। . यद्यपि १३ वीं शताब्दी के विद्वान पं० पाशाधर जी ने सं० १२८५ से पूर्व निर्मित इष्टोपदेश की टीका में ज्ञानार्णव के पद्य उक्तं च रूप से उक्त किये हैं। और मूलाराधना (भगवती प्रा० की टीका) में गाथा १८७ की टीका में ४२ वे प्रकरण के ४३ ३ पद्य से लेकर ५१ तक के पध 'उक्त च ज्ञानार्णव' विस्तेरण' वाक्य के साथ उद्धत Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २०५ किये हैं, इससे इतना तो स्पष्ट है कि ईसा को १२वीं और वि० को १३वीं शताब्दी में ज्ञानार्णव का खूब प्रचार हो गया था। हेमचन्द्राचार्य ने अपना योग शास्त्र स० १२०७ में बनाया है। उससे पूर्व नहीं। जब कि ज्ञानार्णव उससे बहुत पहले वन चुका था। ऐसी स्थिति में मो. शारक मेरों का मानानकार द्वारा उद्धृत करने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि दोनों के पद्यों में बहुत कुछ साम्य है, उस साम्यता का कारण हेमचन्द्र के सामने योग विषयक अनेक ग्रन्थ बन चके थे। वे उनके सामने थे ज्ञानार्णव भी उनमें था। हेमचन्द्र को उनसे अवश्य साहाय्य मिला है । ज्ञानार्णव हेमचंद्रके सामने रहा है। ज्ञानार्णव में जैनेतर ग्रन्थों से योगविषयक जो पद्य लिये गये हैं। संभव है वे ग्रन्थ हेमचन्द्र को भी प्राप्त हुए हों, और ज्ञानार्णव से हेमचन्द्र ने भी सहयोग लिया हो तो क्या पाश्चर्य? पाटन के मंडार में ज्ञानार्णव की एक प्रति सं० १२८४ की लिखी हुई प्रति मौजूद है। जिसे जाहिणी प्रायिका ने किसी शुभचन्द्र योगी को प्रदान की थी। वह प्रति अन्य किसी प्रति से प्रतिलिपि की हुई है। क्योंकि ज्ञानार्णव उससे पूर्व बना हुआ था। और उससे बहुत पहले प्रचार में आ गया था। ऐसी स्थिति में उस प्रति को अन्य रचना के आस-पास समय की प्रति नहीं कहा जा सकता। और न उस पर से कोई निर्णय हो किया जा सकता है। हेमचन्द्र के ग्रन्थों पर अन्य साहित्यकारों के साहित्य का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दार्शनिक ग्रन्थों में प्रमाण मीमांसा के निग्रह स्थान के निरूपण और खण्डन के समूचे प्रकरण में और अनेकान्त में दिये पाठ दोषों के परिहार प्रसंग में प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड का शब्दशः अनुसरण किया गया है। प्रमाण मोमांसा के प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयरत्नमाला की शब्द रचना ने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। ऐसी स्थिति में यह कहना किसी तरह भी शक्य नहीं है कि हेमचन्द्र ने ज्ञानार्णव से कुछ नहीं लिया। इन्द्रकीति कुन्दकुन्दान्वय समूह मुखमंडन देशीयगण के विद्वान थे। इनकी अनेक उपाधियां थीं-श्री मदमहच्चरण, सरसिंहभृग, कोण्डकुन्दान्वय समूह मुखमंडन, देशीयगण कुमुदवन, को कलिपुरेन्द्र, लोक्य मल्ल, सदासर्रासकलहंस, कविजनाचार्य, पण्डित मुखाम्बुरुह चण्डमार्तण्ड सर्वशास्त्रश, कविकुमुदराज त्रैलोक्य मल्लेन्द्र कीतिहरि मूर्ति । इन विशेषणों से इन्द्र कौति की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। गंगराजा दुविौत द्वारा निर्मापित मन्दिर को इन्द्र कीति ने कुछ दान दिया था। यह शिलालेख कोगलि जिला बेल्लारी मैसूर का है जिसका समय शक सं०९७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) हैं। (ई०ए०५५, १६२६ पृ०७४, इ० म० बेल्ला. १६६) केशवनन्वि बल गारगण मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य थे। उस समय समस्त भुवनाश्रय, श्री पृथ्वी वल्लभ, महाराजाधिराज परमेश्वर, परम भट्टारक और सत्याथय कुल तिलक प्रादि अनेक उपाधियों के धारक त्रैलोक्यमल्ल के प्रवर्द्धमान राज्य में बनवासीपुर में महामण्डलेश्वर चामुण्डरायरस बनवासी १२००० पर शासन कर रहा था. तब बलिलगावे राजधानी में शक सं० १७० (सन् १०४८) सर्बधारी सम्वतसर ज्येष्ठ गवला त्रयोदशी प्रादित्यवार के दिन अष्टोपवासि भट्टारक को यसदि में पूजा करने के लिये, 'भेरुण्ड' दण्ड (माप) जिड्ड लिगे-सत्तर में प्राप्त धान (चावल) के क्षेत्र का दान केशवनन्दि को दिया। -जैन लेख सं०भा० २ पृ. २२१ कुलचन्द्रमुनि मूलसंघान्वय क्राणूरगण के परमानन्द सिद्धान्तदेव' के शिष्य थे। भुवनैकमल्ल के सुपुत्र ने जिस समय उनका राज्य प्रवर्धमान था। और जो बंकापुर में निवास करते थे और उन पादपोपजीवी चालुक्य पेर्माडे भवनक बीर उदयादित्य शासन कर रहे थे। तव भुवनैक मल्ल ने शान्ति नाथ मन्दिर के लिये उक्त कूलचन्द्र मनि को नागर खण्ड में भूमिदान दिया। नंकि यह शिलालेख शक सं० ६६६ सन् १०७४ (वि० सं० ११३१) का है । अत: उक्त मुनि ईसा की ११वीं और विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं। १.जन लेख सं० भा०२५.. २६४-६५। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कीर्तिवर्मा यह मुनि देवचन्द का शिष्य था। यह देव चन्द संभवत: वह हैं जो राघवपाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रुतकीति विद्य देव के सम सामयिक थे (श्रव० लेख नं. ४०)। यह चालुक्य वंशीय (सोलको) लोक्य मल्ल को पुत्र था, इसने सन् १०४४ से १०६ तक राज्य किया है । इसके चार पुत्र थे, जयसिंह, विष्ण बर्बन, विजयादित्य और कीर्तिवर्मा। इनकी माता का नाम केतलदेवी था, जो जैन धर्म निष्ठा थी, वह जिन भक्ति से ओत-प्रोत थी, उसने भक्तिबश सैकड़ों जिन मन्दिर बनवाए थे। तथा जैनधर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। उसके बनवाए हए जिन मन्दिरों के खण्डहर और उनमें प्राप्त शिलालेख उसकी कोति का स्मरण कराते हैं। कौतिवर्मा के ग्रन्थों में से इस समय केवल एक ही 'गोवद्य' नाम का ग्रन्थ प्राप्त है, जिसमें पशुनों के विविध रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन है। इस ग्रन्थ के एक पद्य में कवि ने अपने आपको कीर्तिचन्द्र, बंरिकरिहरिकन्दर्पमति, सम्यक्त्वरत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, कविताब्धिचन्द्र और कीर्तिविलास प्रादि विशेषणों से उल्लेखित किया है 'वैरिकरिहरि' विशेषण से ज्ञात होता है कि वह एक वीर योद्धा था । मुनि पसिंह उन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। किन्तु अपने ग्रन्थ 'णाणसार' (ज्ञानसार) को अन्तिम गाथा में बताया है नियने मन के प्रतिबोधार्थ गौर, परमात्मा म्वरूप की भावना के निमित्त श्रावणशुक्ला नवमी वि० सं० १०८६ सन् १०२६ में अंबक नगर (अंबड नगर) में ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ की गाथा संख्या ६३ है और उसे ७४ श्लोक परिमाण बतलाया गया है। ग्रन्थ में ध्यान विषय का कितना ही उपयोगी वर्णन है । ३६ वी गाथा में बतलाया है कि जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण और काष्ठ में अग्नि दोनों बिना प्रयोग के दिखाई नहीं पड़ते उसी प्रकार ध्यान के बिना आत्मा का दर्शन नहीं होता और इससे ध्यान का महात्म्य, एवं लक्ष्ण स्पष्ट जान पड़ता है। ग्रन्थ स्वपर-सम्बोधक है। ७ वें पद्य में बतलाया है कि जिस तरह दाढ और नखरहित सिंह गजेन्द्रों का हनन करने में समर्थ नहीं होता। उसी तरह ध्यान के बिना योगी कर्म के क्षपणे में समर्थ नहीं होता । प्रतः कर्मवन को दग्ध करने के लिए ध्यान की अत्यन्त आवश्यकता है, ध्यान एकान्त स्थान में ही संभव है, मन की चंचलता ध्यान में बाधक है। मुनि पद्मसिंह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। पप्रनन्दि मलभारि मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तगच्छ और कौण्डकुन्दान्वय के विद्वान थे। उन्होंने पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की थी। सन् १०८७ में जब चालुक्य सम्राट् त्रिभुबनमल्ल कल्याण से राज्य कर रहे थे। उस समय चालक्य विक्रम वर्ष प्रभव संवत्सर की पुण्य प्रमावस्या रविवार को उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर पूण्डर के महामण्डलेश्वर अत्तरस ने तिकप्प दण्ड नायक को पार्श्वनाथ की पूजा के लिये भूमि,उद्यान और कुछ अन्य प्राय के साधनों का दान दिया था 1 अतः पप्रनन्दि मलधारि का समय सन् १०८७ (वि० सं० ११५४) है। चन्द्रप्रभाचार्य-शक सं०६६५ सन् १०७२ के एक स्तम्भ लेख में भाद्रपद कृष्णा शनिवार के दिन चन्द्रप्रभाचार्य के स्वर्गवास का वर्णन है। -जैन लेख सं० भा०५१०३२ श्रुतकीति-कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के विद्वान आचार्य श्री कीति के शिष्य थे। यह अपने समय के बड़े विद्वान, शास्त्रार्थ विचारज्ञ, व्याख्यातृत्व, और कवित्वादि गुणों में प्रसिद्ध थे । इनकी कीर्ति जगत्त्रय में व्याप्त थी। १. रिणयमण पडिवोहत्यं परमसरुवस्स भावरण णिमित । सिरि पउमसिंह मुणिणा णिम्मबियं गाणसारमिरा ।।६१ सिरिविक्कमस्स कासे दशसम खासी जुर्यमि वहमाणे। साषण सिय णवमीए अंवय एयरम्मि कयमेयं ।। ६२ २. परिमाणं च सिलोमा पउहत्तरि हुँति गाणसारस्म । गाहाणं च तिसती सुललिय बंधे रहयारणं ।।६३ ३. रि० इ. ए. १६६०-६१ जैनलेख सं० भा० ५ पृ० ३४ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारसी और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और प्राचार्य वे सर्वज्ञशासन रूपी आकाश के शरत्कालीन पूर्णमासी के चन्द्रमा थे। और वे तत्कालीन गांगेय और भोज देवादि समस्त नुप पुगवों से पूजित थे। इनमें गंगेय देव तो कलचुरि नरेश ज्ञात होते हैं जो कोक्कल (द्वितीय) के पश्चात सन् १०१६ के लगभग सिंहासनारूढ़ हुए। और सन् १०३८ तक राज्य करते रहे हैं और भोज देव वही धारा के परमरावंशी राजा हैं, जिन्होंने सन् १००० से सन् १०५५ (वि० सं० १११२) तक मालवा का राज्य किया है। पोर जिनका गुजरात के सोल की राजाओं से अनेक बार संघर्ष हुआ। इससे श्रुतकीर्ति का समय सन् १०८० से १०१५ तक हो सकता है। कवि धनपाल कवि धनपाल 'धर्कट वंश' नामक वैश्य कुल में उत्पन्न हया था। इसके पिता का नाम माएसर और माता का नाम धनसिरि (धनश्री) देवी था । प्रस्तुत धर्कट या धक्कड वंश प्राचीन है। यह वंश १०वीं शताब्दी से १३वीं शताब्दी तक बहुत प्रसिद्ध रहा है। और इस वंश में अनेक प्रतिष्ठित श्री सम्पन्न पुरुष और अनेक कवि हुए हैं। भविष्य दत्त कथा का कर्ता प्रस्तुत धनपाल पावन वंश में उत्पन्न हुआ था। जिसका समय १०वीं शताब्दी है। धर्म परीक्षा (सं ) के कर्मा गितमीस उप्रान हासे । जम्बूस्वामी चरित्र के कर्ता वीर कवि (सं० १०७६) के समय मालव देश में धक्कडवंश के मघ सुदन के पूत्र तक्खड़ श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रेरणा से जायू स्वामी चरित्र रचा गया है । सं० १२८७ के देलबाडा के तेजपाल वाले शिला लेख में 'धर्कट' जाति का उल्लेख है। इससे इस वंश की महत्ता और प्रसिद्धि का सहज ही बोध हो जाता है। धनपाल अपभ्रश भाषा के अच्छे कवि थे और उन्हें सरस्वति का वर प्राप्त था जैसा कि कवि के निम्न वाक्यो से-"चितिय धणवालि वणिवरेण, सरसह बहुल महावरेण ।"-प्रकट है। कविका सम्प्रदाय दिगम्बर था। यह उनके-'भंजि विजेरा यिंदवरि लायउ।' (संधि ५-२०) के वाक्य से प्रकट है। इतना ही नहीं किन्तु उन्होंने १६ स्वर्ग के रूप में अच्युत स्वर्ग का नामोल्लेख किया है । यह दिगम्बर मान्यता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है । कवि के अष्ट मूल गुणों का कथन १०वीं शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरुपार्थ सिद्धय पाय के निम्नपद्य से प्रभावित है : मचं मांस लौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिसा व्युपरति काम मोक्तव्यानि प्रथममेव ।।(३-६१) 'महु मज्ज मंसु पंचु वराई, खजंति ण जम्मतर सयाई ।। १. विद्वान्समस्तशान्त्राथविचार चतुराननः । शिरथचन्द्र कराकार कीर्तिव्याप्त जगत्रयः ।।१३ व्याख्यातृत्व-कवित्वादि-गुरगहसकमानसः । सर्वज्ञशासनाकाश शरत्याबण चन्द्रमाः ॥१४ गांगेय भोजदेवादि समस्त नपपुङ्गवः । पूजितोत्कृष्टपादार विन्दो विकनस्तकल्मषः ।।१५ –श्रीचन्द्र कथाकोष प्रशस्ति-जैनथ-प्रशस्ति सं०भा० २५०७ २. धक्कड बरिणसि माएसर हो समुभाषिण। धरणसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ।। (अन्तिम प्रशस्नि) ३. अह मालवम्मि वरण-कण दरसी, नमरी नामेण सिंधु-वरिसी । तहिं धक्का-बग्गै वंश तिलउ, महसूयण संदणु गुगणिलउ । गामेण सेट्ठि तक्खडु बसई, जस पडहु जासु तिहपरिण रसई ॥ (जंयू० प्रशस्ति) ४. मद्य मांस मजुत्यागः सहोवुम्बर एञ्चकः । अष्टावे ते गृहस्थानामुक्ता मूलगुरणाः श्रुतौ ॥ –(उपासका० २१, २७०) महु मज्जपंस विरई चत्ता ये पुण जंबराण पंचाह । अट्टेदे मूलगुणाति फुड, देसविल्यम्मि । (-गा० ३५६) तत्रादी अधज्जैनी माज्ञा हिंसामपासितुम् । मद्य मांस-मधु त्युज्झेत् पंचक्षीरी फलानि च ॥ -सा० २-२ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्राचार्य अमृतचन्द्र की इस मान्यता को उत्तरवर्ती विद्वान आचार्यों ने (सोमदेव, देवतेन, पं० प्राशाधर ने) अपने ग्रन्थों में अपनाया है। इन सब प्रमाणों से ज्ञात होता है कि कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थे। भविष्यदत्त कथा प्रस्तत कथा अपभ्रंश भाषा की रचना है। प्रस्तुत कृति में ३४४ कडवक हैं। जिनम शुन पंचमी के व्रत का महात्म्य बतलाते हए उनके अनुष्ठान करने का निर्दश किया गया है। साथ ही भविष्यदत्त और कमलथो के चरित्र-चित्रण द्वारा उसे और भी स्पष्ट किया गया है। ग्रन्थ का कथा भाग तीन भागों में बांटा जा सकता है। चरित्र घटना बाहल्ल होते हुए भी कथानक सुन्दर बन पड़े हैं। उनमें साधु-असाध जीवन वाले व्यक्तियों का परिचय स्वाभाविक बन पड़ा है। कथानक म अलोकिक घटनाओं का समीकरण हुआ है, परन्तु वस्तु वर्णन में कवि के हृदय ने साथ दिया है । अतएव नगर, देशादिक और प्राकृतिक वर्णन सरस हो सके हैं। ग्रन्थ में रस और अलंकारों के पूट ने उसे सुन्दर और सरस बना दिया है । ग्रन्थ में जहां शृगार, वीर और शान्तरस का वर्णन है वहाँ उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति पार विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग भी दिखाई देता है । भाषा में लोकोक्तिया और वाग्धाराओं का प्रयोग भी मिलता है। यथा--कि घिउ होइ विरोलिए पाणिए-पानी के विलौने से क्या धी हो सकता है। अण इच्छियहोति जिय दुक्खई सहसा परिणति तिह सोक्खई(३-१०.८) जैसे यदृच्छया दुख पात हे वसे हो सहसा सुख भी पा जाते हैं । जोवण विद्यारसवस पसरि सो सून सो पडियउ। चल मम्मण वयणुल्लायएहि जो परहि न खडियउ। (३-१८-९) बही शुर बीर है और वहीं पंडित है, जो योवन के पिय-विकारों के बढ़ने पर स्त्रियों के चचल कामोद्दीपक वचनों से प्रभावित नहीं होता। जहां जेणदत्तं तहातेण पत्तं इमं सुच्चए सिट्ठ नोएण वृत्तं । सुपायन्नया कोदवा जत्त माली कहं सो नरोपःपए तस्थसाली 1 जो जैसा देता हैं, वैसा ही पाता है। यह शिष्ट लोगों ने सच कहा है। जो माली कोदों दोवेगा वह शाली कहां से प्राप्त कर सकता है इन सुभाषतों और लोकोक्तियों से ग्रन्थ और भी सरस बन गया है। ग्रन्थ का कथा भाग तीन भागों में बांटा जा सकता है। यथा१. व्यापारी पुत्र भविष्यदत्त की संपत्ति का वर्णन, भविष्यदत्त, अपने सौतेले भाई अन्धुदत्त से दो बार धोखा खाकर अनेक कष्ट सहता है, किन्तु अन्त में उसे सफलता मिलती है। २. कुरूराज और तक्षशिला नरेशों में युद्ध होता है, भविष्य दत्त उसमें प्रमुख भाग लेता है, और उसमें विजयी होता है। ३. भविष्यदत्त तथा उसके साथियों का पूर्व जन्म वर्णन। कथा का संक्षिप्त सार भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में गजपुर नाम का एक सुन्दर और समृद्ध नगर था। उस नगर का शासक भूपाल नाम का राजा था। उसी नगर में धनपाल नाम का नगर सेठ रहता था। वह अपने गुणों के कारण लोक में प्रसिद्ध था। उसका विवाह हरिबल नाम के सेठ को सुन्दर पुत्री कमलश्री से हुयापा। वह अत्यन्त रूपवती और गुणवतो थी। बहुत दिनों तक उसके कोई सन्तान न हई, अतएव बह चिन्तित रहती थी। एक दिन उसने अपनी चिन्ता का कारण मूनिवर से निवेदन किया । मुनिवर ने उत्तर में कहा, तेरे कुछ दिनों में विनयी, पराक्रमी और गुणवान पुत्र होगा। और कुछ समय बाद उसके भविष्यदत नाम का पुत्र हुमा । वह त लिखकर सव कलानों में निष्णात हो गया। धनपान मरूपा नाभ की पुत्री से अपना दूसरा विवाह कर लेता है। उसके बन्धुदान नाम का पुत्र हमा। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य जब वह युवा हुअा तब बहुत उत्पाद मचाने लगा। नगर के सेठों ने मिलकर विचार किया कि यह युवतियों से छेड़ खानी करता है, अत: उसे कंचनपुर जाने के लिए तैयार करना चाहिए। मन्त्रीजन व्यवसाय के निमित्त अन्धुदत्त को भेजने के लिये तैयार हो गये । और बन्धु दत्त को अपने साथियों के साथ कंचनद्वीप जाने हुए देखकर भविग्यदन भी अपनी माता के बार-बार रोके जाने पर भी उनके साथ हो लिया । जब सरूपा को पता चला तो बन्धुदत्त को शिना कर कहा कि तुम भविष्यदत्त को किसी तरह समुद्र में छोड़ देना। जिससे बन्धु-बान्धवों से उसका मिलाप न ही सके। परन्तु भविष्यदत्त की माता उसे उपदेश देती हुई कि परधन और परनारी को स्पर्ग न करने की शिक्षा देती है। पांचसौ बणिकों के साथ दोनों भाई जहाज में बैठकर चले। कई द्वीपान्तरों को पारकर उनका जहाज मदनाग द्वीपके समुद्र तट पर जा लगा। प्रमुख लोग जहाज से उतर कर मदनाग पर्वत को शोभा देखने लगे। बन्धुदत्त धोखे से भविष्यदत्त को बहीं एक जंगल में छोड़कर अपने साथियों के स थ-साथ आगे चला जाता है। बेचारा भविष्यदत्त इधर-उधर भटकता हुआ उजड़े हुए एक समद्ध नगर में पहुँचता है । और वहां के जिनमन्दिर में चन्द्रप्रभ जिनकी पूजा करता है। उसी उजड़े नगर में वह एक सुन्दर युवती का देखता है। उसा से भविायदत्त को पता चलता है कि वह समृद्ध नगर असुरों द्वारा उजाड़ा गया है । कुछ समय बाद वह असुर वहां पाता है और भविष्यदत्त का उस सुन्दरी से विवाह कर देता है। इधर पुत्र के चिरकाल तक न लाटने से कमल श्री सुखता नामकी आर्यिका से उसके कल्याणार्थ श्रतपंचमी व्रत' का अनुष्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त भी मा का स्मरण होने से सपत्नीक और प्रचुर सम्पत्ति के साथ घर लौटता है । लौटते हुए उनकी बन्धुदत्त से भंट हो जाती है, जो अपने साथियों के साथ यात्रा में असफल हो विपत्ति दशा में था। भविष्यदत्त उनका सहर्ष स्वागत करता है, किन्तु वन्धुदत्त को धोखे से वहीं छोड़कर उसकी पत्नी पौर प्रभूत धन राशिलेकर साथियों के साथ नौका में सवार हो वहां से चल देता है। मार्ग में उनको नौका पुनः पथ भ्रष्ट हो जाती है। और वे जैसे तैसे गजपूर पहंचते है। घर पहंच कर बन्धुदत्त भविष्यदत्त की पत्नी को अपनी भावी पत्नी घोषित करता है उनका विवाह निश्चित हो जाता है। कमलश्री लोगों से भविष्यदत्त के विषय में पूछती है, परन्तु कोई उसे स्पष्ट नहीं बतलाता। कमलथी मुनिराज से पुत्र के सम्बन्ध में पूछती है । मुनिराज ने कहा तुम्हारा पुत्र जीवित है, वह यहां प्राकर प्राधा राज्य प्राप्त करेगा । एक महीने बाद भविष्यदत्त भी एक यक्ष की सहायता से गजपुर पहुंचता है। और अपनी माता से सब बृत्तान्त कहता है, माता को वह नागमुद्रिका देकर उसे भविष्यानुरूपा के पास भेजता है । तथा स्वयं अनेक प्रकार के रत्नादि लेकर राजा के पास जाता है, और उन्हें राजा को भेंट करता है। भविष्यदन्त राजा को सब वृत्तान्त सुनाना है, परिजनों के साथ वह राजसभा में जाता है और बन्धुदत्त के बिबाह पर आपत्ति प्रकट करता है । राजा धनवइ का बुलाता है। प्रोर बन्धुदत का रहस्य खुलने पर राजा क्रोधवश दोनों को कारावास का दण्ड देता है। पर भविष्यदत्त धनवा को छुड़वा देता है। राजा जय लक्ष्मी और चन्द्रलेखा नाम की दो दापियों को भविष्यानुरूपा के पास भेजता है वे जा कर भविष्यानुरूपा से कहती हैं । राजा ने भविष्यदत्त को देश मे निकालने का मादेश दिया है और बन्धुदत्त को सम्मान 1 अतः अव तुम बन्धुदत्त के साथ रहो । किन्तु वह भविष्यदत्त में अपनी अनुरक्ति प्रकट करती है। धनवइ नव दम्पति को लेकर घर पाता है। कमल श्री व्रत का उद्यापन करती है, वह जैन संघ को जेवनार देती है, वह पिता के घर जाने को तैयार होती है। पर कंचन माला दासी के कहने पर सेठ कमलथी से क्षमा मांगता है। राजा सुमित्रा के साथ भविष्यदत्त का विवाह करने का प्रस्ताव करता है । कुछ समय के बाद पांचाल नरेश चित्रांग का दुत राजा भूपाल के पास पाता है, और कर तथा अपनी कन्या सुमित्रा को देने का प्रस्ताव करता है । राजा असमन्जस में पड़ जाना है, भविष्यदत्त युद्ध के लिये तैयार होता है। और साहस तथा धैर्य के साथ पांचाल नरेश को बन्दी बना लेता है, राजा सुमित्रा का विवाह भविष्यदत के साथ करता है और राज्य भी सौंप देता है। कुछ दिनों बाद भविष्यानुरूमा के दोहला उत्पन्न होता है और वह तिलक द्वोप जाने की इच्छा करती है, भविष्यदत्त सपरिवार विमान में बैठ कर तिलक द्वीप पहुंचना है और वहां जिनमन्दिर में चन्द्रप्रभ जिनको सोत्साह पूजन करता है और चारण मुनि के दर्शन वार श्रावक धर्म का स्वरूप सुनता है। अपने मित्र मनोवेग के Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूर्व भव की कथा पूछता है, और सभी सकुशल गजपुर लोट आते हैं । भविष्यदत्त बहुत दिनों तक राज्य करता है भविष्यानुरूपा के चार पुत्र उत्पन्न होते है-सुप्रभ, कनकप्रभ, सूर्यप्रभ और सोमप्रभ, तथा तारा सुतारा नाम की दो पुत्रिया उत्पन्न होती हैं। सुमित्रा से धरणेन्द्र नाम का पुन मार तारा नाम को पुत्रो उत्पन्न होती है। कुछ समय बाद विमल बुद्धि मुनिराज गजपुर पाते हैं। भविष्यदत्त सपरिवार उनको वन्दना के लिए जाता है, और उनसे अपने पूर्वभव जानकर देह भोगों से विरक्त हो, सुप्रभ को राज्य देकर दीक्षा ले लेता है। और तपश्चरण द्वारा वैमानिक देव होता है और अन्त में मुक्ति का पात्र बनता है। रचना काल कवि धनपाल ने भविष्यदत्त कथा में रचना काल नहीं दिया, और न अपनी गुरु परम्पराही दी है। इससे रचना काल के निर्णय करने में बड़ो कठिनाई हो रही है। अन्य को सबसे प्राचीन प्रतिलिपि सं० १३६३ की उपलब्ध है. जैसा कि लिपि प्रशस्ति को निम्न पक्तियों से प्रकट है: संबच्छरे अधिकरा विक्कमेणं, ही एहि सेरणवदि तेरहसएणं। यरिस्सेय पुसण सेयम्मि पक्खे: तिही वारसी सोमि रोहिणी रिक्खे। सुहज्जोइमय रंगो बुद्ध पत्तो इमो सुन्दरो सत्थु सुह विणि समत्तो।।' यह शास्त्र सुसम्वतसर विक्रम तेरहसौ तेरानने में पीस मांस शुक्ल पक्ष द्वादशी सोमवार के दिन रोहिणी नक्षत्र में शुभ घड़ी शुभ दिन में लिख कर समाप्त हुना। उस समय दिल्ली में मुहम्मदशाह विन तुगलक का राज्य था। इस ग्रन्थ प्रतिको लिखाकर देने वाले दिल्ली निवासी हिमाल के पुत्र वाधु साह थे। जिन्होंने अपनी कीति के लिये अन्य अनेक शास्त्र उपशास्त्र लिखवाए थे। यह भविष्यदत कथा उन्होंने अपने लिये लिखवाई।' इससे यह अन्य सं० १३९३ (सन् १३३६ ई०) से बाद का नहीं हो सकता, किन्तु उससे पूर्व रचा गया है। डा. देवेन्द्र कुमार ने भूल से इस लिपि प्रशस्ति को जो अग्रवाल वंशो साहु वाधू ने लिखवाई थी। मूलग्रंथ का धनपाल की प्रशस्ति समझकर उसका रचना काल सं० १३६३ (सन् १३३६ ई०) निश्चिय कर दिया। यह एक महान् भूल है, जिसे उन्होंने सुधारने का प्रयत्न नहीं किया। जबकि डा. हर्मन जैकोबी ने इस ग्रंथ का रचना काल दशवीं शताब्दी से पूर्व माना जा सकता लिखा है, श्री दलाल और गुणेने भविसयत्त कहा की भूमिका में बतलाया है कि धनपाल को भविसयत्त कहा कि भाषा हेमचन्द से अधिक प्राचीन है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ वि० १२ वीं शताब्दी से पूर्व की रचना है। फिर भी डा. देवेन्द्र कुमार ने विक्रम सं०१२३० में रची जाने वाली विवध श्रीधर की भविसयत्त कहा से तुलना कर धनपाल की कथा को अर्वाचीन बतलाने का दुस्साहस किया है। जबकि स्वयं उसके भाषा साहित्य को शिथिल घटिया दर्जे का माना है, और लिखा है कि-"इन वर्णनों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि काव्य कतित्व शक्ति से भरपुर है। पर कल्पनात्मक, बिम्बार्थ योजना और अलंकरणता तथा सौन्दर्यानुभूति की जो झलक हमें धनपाल की भविष्यदत्त कथा में लक्षित होती है, वह इस काव्य (विबुध श्रीधर की कथा) में नहीं है।" "विवुध श्रीधरकी भविष्यदत्त कथा की भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है।" (देखो भविसयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य पृ० १५८) जबकि धनपाल को भविसयत्त कहा की भाषा प्रौढ, अलंकरण मोर बिम्बार्य योजनामादि को लिये हुए है। भाषा प्रांजल और प्रसाद गुण से युक्त है। कवि धनपाल ने ग्रन्थ में यष्ट मूल गुणों को बतलाते हुए मद्य मांस और मधु के साथ पंच उदबर फलोंके त्याग को प्रष्ट मूल गुण बतलाया है। यथा-महुमज्जू मंसु पंचबराई खज्जति ण जम्मतरसयाई। (भविसयत कहा १६-८) दशवीं शताब्दी से पूर्व प्रष्टमूल गुणों में पंच उदम्बर फलों का त्याग शामिल नहीं था, किन्तु पंचाणुव्रत - - - - - १ इहत्ते परते सुहायार हेज, तिणे लिहित सुअपंचमी णियह है । अनेकान्त वर्ष २२ किरण १ २ श्री दलाल और गुणे द्वारा सम्पादित गायकवाट ओरियन्टल सीरोज प्रथांक ०२०, १९२३ ई० में प्रकाशित । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य के साथ तीन मकार का त्याग परिगणित था, जैसा कि आचार्य समन्तभद्र के निम्न पद्य से प्रकट है : मद्य मांस मधुत्यागः सहाणुव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानामुहिणां श्रमरणोत्तमाः।। ..पन करण्ड श्रावकाचार-४-६६) प्राचार्य जिनसेन के बाद अण्टमल गुणों में पांच अणुयतों के स्थान पर पंच उदम्बर फलों के त्याग को शामिल किया गया है । दावीं शताब्दी के प्रमृत चन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धचुपाय के निम्न पद्य में प्रष्टमूल गुणों में पंच उदम्बर फलों का त्याग बतलाया है : मथ मांस क्षौद्रं पञ्चोम्बर फलानि यत्नेन । हिसा व्यपरतिकार्मोक्तव्यानि प्रथम मेव ॥ --पुरुषार्थसिद्धय पाय ३-६१ सोमदेवाचार्य (१०१६) के उपासकाध्ययन में अष्टमूल गुणों में तीन मकारों (मद्य मांस मघ) के त्याग के साथ पंच उदम्बर फलों का त्याग भी बतलाया है और इनके उत्तरवर्ती विद्वान् अमितगति देवसेन पद्मनन्दि माशाधर पादि ने भी स्वीकृत किया है। कवि धनपाल ने प्राचार्य अमृत वन्द से प्रष्टमूल गुणों को ग्रहण किया है यदि यह मान लिया जाय तो धनपाल का समय दशवों शताब्दी का अन्तिम चरण अपवा ग्यारहवीं शताब्दी प्रथम चरण हो सकता है। वे उसके बाद के ग्रन्थकार नहीं है। जयसेन यह लाड बागड संघ के पूर्णचन्द्र थे। शास्त्र समुद्र के पारगामी और तप के निवास थे। तया स्त्रो को कला रूपी बाणों से नहीं भिदे थे-पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रतिष्ठित थे। जैसा कि महासेनाचार्य के निम्न पद्य से प्रकट है श्री लाट वर्गटनभस्सलपूर्णचन्द्रः, शास्त्रार्णवान्तग सुधीस्तपसां निवासः । कान्ता कलावपि म यस्य शरविभिन्न स्वान्तं बभूव स मुनिर्जयसेम नामा ।। इनके शिष्य गुणाकरसेन सूरि और प्रशिष्य महासेन थे। महासेन को कृति प्रद्युम्नचरित्र प्रसिद्ध है। महासेन मुज द्वारा पूजित थे । मुंज का समय विक्रम को ११वीं शताब्दी का मध्यकाल है। इनके समय के दो दानपत्र सं०१०३१ौर १०३६ के मिले हैं। सं०१०५०ौर १०५४ के मध्य किसी समय तैलदेव ने मं.ज का वध किया था। गुणाकर सेन और महासेन के ५० वर्ष कम कर दिये जाय तो जयसेन का समय १०वों पाताब्दी हो सकता है। वाग्भट (नेमिनिर्वाणकाव्य कर्ता)वाग्भट नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें प्रस्तुत वाग्भट उनसे प्राचीन और भिन्न है। इन्होंने अपना परिचय 'नेमिनिर्वाण' काव्य के अन्तिम पद्य में दिया है। १ मद्यमांस मधुरयागः सहोदुरदुन्बरपञ्जकैः। अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणा: श्रुतेः ।। -सपासकाध्ययन २७० १० १२९ २ भारतीय साहित्य में वाग्मट नाम के अनेक विद्वानों के नाम मिलते हैं। एक 'वाग्भट अष्टांग हृदय' नामक वंद्य प्रन्य के फर्ता, जो सिन्धु देश के निवासी और सिंह गुप्त के पुत्र थे। जैसा कि अष्टांग हृदय की कनड़ी लिपी की अन्त प्रशस्ति के निम्न परा से प्रकट है :-पजन्मनः सुकृतिनः खलु सिन्धुदेशे यः पुत्रवन्त मकरोद भुवि सिंह गुप्तन् । तेनोक्त मेतदुभयशमिषवरेण स्थान समाप्तमिति...11111 (देखो, मैसूर के पण्डित पपराज के पुस्तकालय की कनही प्रति ।) दूसरे वाग्भट नेमिनिर्वाण काव्य के कर्ता जिनका परिचय अपर दिया गया है। तीसरे वाग्भट (स्वे) वाग्भट्रालंकार के कर्ता सोमश्रेष्ठी के पुत्र थे, और सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के सम कालीन और उनके महामात्य (मंत्री) थे। जय सिंह का काल वि० सं० ११५० से ११९६ निश्चित हुवा है । गुजरातनो मध्यकालीन राजपूत इतिहास, दुर्गाशंकर शास्त्री का प० २२५ । चौथे वाग्भट नेमिकुमार के पुत्र थे, जिनका परिषय बागे दिया गया है । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अहिच्छत्र पुरोत्पन्नः प्राग्वाटकुलशालिनः । छाहडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्भटः कविः ।। इससे स्पष्ट है कि कवि का जन्म अहिच्छत्रपुर में हया था। उनके पिता का नाम छाहड़ और कुल प्राग्वाट (पोरवाड़) था । अहिच्छत्रपुर नाम के दोनों का वह मिलता है। उनमें हिच्छत्रपुर उत्तरी पंचाल की राजधानी था, जो एक पुरातन ऐतिहासिक नगर है। विविध तीर्थ कल्प (पृष्ठ १४) में इसका प्राचीन नाम 'संखावती' दिया है 1 अहिच्छत्र का नाम तेईसवें तीर्थकर भगवान पाश्वनाथ के उपसंग के जीतने और कैवल्य प्राप्त करने के कारण लोक में प्रसिद्ध हुआ है । सोलह जनपदों में पंचाल का नाम पाया है। उसमें पंचाल अनपद के दो भाग बतलाये हैं ; उत्तर और दक्षिण । उत्तर पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र और दक्षिण को राजधानी काम्पिल्य । सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य पात्र केसरी ने अहिच्छत्र के राजा की सेवा का परित्याग करके जैन दीक्षा ले ली थी । और बौद्धों के त्रिलक्षण हेतु का निरसन करने के लिये विलक्षणकदर्थन' नाम का एक विशाल दार्शनिक ग्रन्थ बनाया था। जो इस समय अनुपलब्ध है। दूसरे अहिच्छत्र के राजा दुर्मुख की कथा जगत प्रसिद्ध है। बहां राजा बसुपाल ने पार्श्वनाथ का एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसमें कलात्मक सुन्दर पावनाष की मूति का निर्माण कराकर उसे वहां प्रतिष्ठित किया था और कलाकार को प्रचर द्रव्य प्रदान किया था। नागौर को नागपुर और अहिच्छत्रपुर कहा जाता था। पर उसकी इतनी प्रसिद्धि नहीं थी। और न वह तीर्थ ही कहलाता था। अस्तु यह निर्णय करना यहां शक्य नहीं है, किस अहिच्छत्रपुर में वाग्भट का जन्म हुआ था। इसके लिये प्राचीन प्रमाणों के अन्वेषण की आवश्यकता है । तभी इसका निर्णय हो सकेगा। रचना कवि को एक मात्रकृति 'नेमिनिर्वाण' काव्य है, जो १५ सर्गों में विभाजित है। और जिसकी श्लोक संख्या १५६ है। इस काव्य में भगवान नेमिनाथ का जीवन वृत्त अंकित है। प्रथम सर्ग में चतुर्विशति तीर्थकरों का सुन्दर स्तवन दिया हुआ है। महाराज समुद्र विजय पुत्र के प्रभाव में चिन्तित रहते थे। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये अनेक व्रतों का अनुष्ठान किया था। दूसरे सर्ग में रानी ने रात्रि के पिछले भाग में सोलह स्वप्न देखे, महारानी शिवा की सेवा के लिये देवांगमाएं पाई और अनेक तरह से माता की सेवा करने लगीं तीसरे सर्ग में रानी ने राजा से स्वप्नों का फल पूछा, राजा ने बतलाया कि तुम्हें लोकमान्य पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, जो लोक का कल्याण कर मुक्ति को प्राप्त करेगा। चौथे सर्ग में तीर्थकर के गर्भ में पाने से रानी के सौन्दर्य को अभिवृद्धि होना और श्रावण शुक्ला षष्ठी क दिन पुत्र का जन्म हुआ, तीर्थकर के जन्माभिषेक की सूचना चारों निकायों के देवों को घण्टा, और शंखध्वनि मादि से प्राप्त हुई और वे सपरिकर वारावती में पाये । __ --- -- १ स्व. म. म. ओझा जी के अनुसार 'नागौर का पुराना नाम नागपुर या अहिच्छात्र पुर था। -देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका मा० २ पृ० ३२६ २ देखो, अनेकान्त वर्ष २४ किरण ६ पृ. २६५ में प्रकाशित लेखक का उत्तर पचाल की राजधानी अहिच्छत्र नाम का लेख । ३ भूभृत्पदानुवर्ती सन् राज सेवा परांगमुखः । संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रकेशरी ।। देखो,-जगरतास्लुक शिलालेख ४ हरिषेण कषा कोश की १२ वी कथा पृ० २२ ५ हरिषेण कथा कोशकी २०वीं कथा । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचाय पांचवें सर्ग में भगवान का देवों ने जन्मारि याग से मापन किया । इन्द्रने उसका नाम अरिष्टमेमि रक्खा। जन्माभिक सम्पन्न कर देव स्वर्ग लोक चले गए। छठे सग में अरिष्टनेमि की नवोदित चन्द्रमा के समान शरीर की अभिवृद्धि होने लगी। वे तीन ज्ञान के धारक थे। उनसे पुरजन परिजन सभी प्रानन्दित थे । युवा होने पर भी उनमें विषय-वासना नहीं थी। उनका सौन्दयं अनुपम था। यादव लोग रक्तक पर बसन्त का अवलोकन करने गए। अरिष्टनेमि से भी सारथी ने रैवतक पर चलने के लिये निवेदन किया । सारथीकी प्रेरणा से नेमिनाथ भी पर्वत की शोभा देखने गये। सातवें सर्ग में कवि ने रैवतक पर्वत का बड़ा सुन्दर वर्णन ५५ पद्यों में किया है। जिनमें लगभग ४४ छन्द प्रयुक्त हुए हैं। वर्णन की छटा अनूठी है । जलपूर्ण सरोवरों में हंस क्रीड़ा कर रहे थे। चम्पा और सहकार की छटा इस पर्वत की भूमि को सुवर्णमय बना रही थी। कुरबक, अशोक, तिलक मादि वृक्ष अपनी शोभा से नन्दन बन को भी तिरस्कृत कर रहे थे। सारथि की प्रेरणा से पर्वतराज की शोभा देखने वाले नेमिनाथ ने सघन छाया में निर्मित पट मन्दिर में निवास किया। पर्वत कितना श्री सम्पन्न था। उस पर तपस्विनी गणिनी गायिका विराजमान हैं। जो मुनि समूह से शोभित हैं, शुरुषों से सहित हैं, यदुवंश भूषण नेमिजिनेन्द्र के विराजमान होने पर उस पर्वत को शोभा का क्या कहना । ऊर्जयन्तगिरी का इतना सुन्दर वर्णन मुझे अन्यत्र देखने में नहीं पाया। पाठवें सर्ग में यादवों की जल क्रीड़ा का सुन्दर वर्णन है, नवमें सर्ग में सूर्यास्त, संध्या, तथा चन्द्रोदय का सुन्दर सजीव वर्णन निहित है। सूर्यास्त होने पर अन्धकार ने प्रवेश किया। रात्रिके सघन अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने के लिये ही मानों औषधिपति (चन्द्रमा) का उदय हुआ। दशवे सर्ग में-मधुपान का वर्णन है, युवक और युवतियां मधुपान में प्रासक्त थीं, मधु का मादक नशा उन्हें मानन्द विभोर बना रहा था । यादव लोग मधुपान से उन्मत्त हो विविध प्रकार की सुरत क्रीड़ानों में अनुरक्त थे। ग्यारहवें सर्ग में राजा उग्रसेन की सुपुत्री राजीमती वसन्त में जल क्रीड़ा के लिये अपनी माताओं के साथ रवतक पर पाई थी। अरिष्ट नेमि के अवलोकनसे वह काम बाण से विध गई । शारीरिक सन्ताप मेटने के लिये सखियों ने चन्दनादि का उपयोग किया, किन्तु सन्ताप अधिक बढ़ गया । यादवेश समुद्रविजय ने नेमिके लिये राजीमती की याचना के लिए श्रीकृष्ण को भेजा। उनसेन ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। अरिष्ट नेमि के विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चय किया गया । विवाहोत्सवकी तैयारियां होने लगी। बारहवें सर्ग में नेमि की वर यात्रा सजने लगी, श्रृंगार बेत्ताओं ने उनका शृंगार किया, शुद्ध वस्त्र धारण किये प्राभूषण पहने, इससे नेमिके शरीर की प्राभा शरत्कालीन मेघ के समान प्रतीत होती यो। वे महान वैभव और सम्पत्ति से युक्त थे । स्वर्ण निर्मित तोरण युक्त राजमार्ग से नेमि धीरे-धीरे जा रहे थे। उधर राजीमती का भी सुन्दर श्रृंगार किया गया था । वर के सौन्दर्य का अवलोकन के लिये नारियां गवाक्षों में स्थित होगई। सभी लोग राजोमती के भाग्य की सराहना कर रहे थे । दूर्वा प्रक्षत, और कुंकुम तथा धधिसे पूर्ण स्वर्ण पात्र को लिये राजीमती वर के स्वागतार्थ द्वार पर प्रस्तुत हुई। तेरहवें सर्गमें रथ से उतरने के लिये प्रस्तुत अरिष्टनेमि ने पशुओं का करुण 'क्रन्दन' सुना । नेमि ने सारथी से पूछा कि पशुओं की यह पार्तध्वनि क्यों सुनाई पड़ रही है ? सारथी ने उत्तर दिया-विवाह में समिलित अतिथियों को इन पशुओं का मांस खिलाया जायगा । सारथी के उत्तर से नेमि को अत्यधिक वेदना हुई। और उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया। वे रथ से उतर पड़े और समस्त वैवाहिक चिन्हों को शरीर से अलग कर दिया। उग्रसन प्रादि ने तया कुटुम्बी जनों ने अष्टिनेमि को समझाने का प्रयत्न किया, पर सब निष्फल रहा, उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि मैं विवाह नहीं करूंगा। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्यों से प्रकट है: १ मुनिगण सेव्या-गुहणा युक्तार्या जयति सामुत्र । चरणगत मखिलमेव स्फुरतितरां लक्षणं यस्याः ॥७-२ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ श्रस्वा तमातध्वनिमेकवीरः स्फारं विगन्तेष स स वष्टि । दर्शवाट निकरे निषण्णाः खिन्नाखिलखापन वर्ग गर्भम् ।। तं वीक्ष पप्रच्छ कृती कुमार; स्व सारथि मन्मथसार मतिः । किमर्थ मेते युगपन्मिबद्धाः पार्शः प्रभूताः पावो रटन्तः ॥३ श्रीमन्विवाहे भवतः समन्ताभ्यागतस्य स्वजनस्य भुक्त्यः । करिष्यते पाक विधेविशेष वाणिभिः तमित्युवाच ॥४ श्रुत्वा वचस्तस्प सवश्यवृत्तिः स्फुरत्कृपान्तः करणः कुमारः। निवारयामास विवाह कर्माण्य धर्मभीरुः स्मृत पूर्वजन्मा ॥५ अनुसरत्यत्ररथान्निषिद्ध निः शेषवैवाहिक संविधान ।। स विस्मयः कि किमतिब्रवाणः समाकुलोऽभूक्य बन्धुवर्गः ॥६ उन्होंने अपने शिकारी जीवन से जयन्त विमान में उत्पन्न होने तक की पूर्व भवावली भी सुनाई, और समस्त पुरजनों और परिजनों को समझा कर बन का मार्ग ग्रहण किया, और रेवतगिरि पर दीक्षा लेकर तप का मनु ष्ठान करने लगे। कवि ने तीर्थकर नेमिनाथ की विरक्ति के प्रसंग में शान्तरस को संयोजित किया है। पराओं के चीत्कारने उनके हदय को द्रवित कर दिया है, और के विवाह के समस्त वस्त्राभूषणों का परित्याग कर तपश्चरण के लिये वन में चले जाते हैं। इस सन्दर्भ को कवि वाग्भट ने अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक बनाया है । भगवान नेमिनाथ विचार करते हैं: परिग्रहं नाहमिमं करिष्ये सत्यं यतिष्ये परमार्थ सिद्ध। विभोग लीलामगतष्णिकासु प्रयतंके कः खलु सद्विवेकः॥ विभोग सारङ्गहतो हि जन्तुः परां भुवं कामपि गाहमानः । हिंसानतस्तेपमहावनान्तवनम्यते रेचित साधुमार्गः ।। मारमा प्रकृत्या परमोसमोऽयं हिसां भजन्कोपि निषादकान्ताम् । धिक्कार भाग्नो लभते कदाचिव संशायं विव्यपुरप्रवेशम् ।। बानं तपोवधुष वृक्षमूलं श्रद्धानतो येन विवर्घ्य दूरम् । स्वनम्ति मूढाः स्वयमेवहिंसा फुशीलता स्वीकरणेन सद्यः॥ मैं विवाह नहीं करूंगा, किन्तु परमार्थ सिद्धि के लिये समीचीन रूप से प्रयत्न करूंगा। ऐसा कौन सम्विकी पुरुष होगा, जो भोगरूपी मृगतृष्णा में प्रवृत्ति करेगा। भोगरूपी सारंग पक्षी से हुत प्राणी हिंसा, झठ, चोरी कुशील भोर परिग्रह को करता हुआ अपने साघु कर्म का भी परित्याग कर देता है । यद्यपि यह पारमा प्रकृति से उत्तम है तो भी वह पर क्रोधोत्पादक हिंसा का सेवन करता हुआ धिक्कार का भागी बनता है; किन्तु स्वर्ग और निर्वाण प्रादि को प्राप्त नहीं करता है। जो दान और तप रूपी धर्म वृक्ष पर श्रद्धान करते हुए उन्हें दूर तक नहीं बढ़ाते हैं, वे मूर्ख हैं और हिंसा कुशीलादि का सेवन कर धर्म वृक्ष की जड़ को उखाड़ डालते हैं । अर्थात जो व्यक्ति द्रव्य या भावरूप हिंसा में प्रवृत्त होता है वह दुर्गति का पात्र बनता है। अतएव विवेकी पुरुष को जाग्रत होकर धर्म सेवन करना चाहिये। चौदहवें सर्ग में नेमि ने दुर्धर एवं कठोर तपश्चरण किया । वर्षा ग्रीष्म और शरत ऋतु के उन्मुक्त दाता वरण में कायोत्सर्ग में स्थित हए और शुक्लध्यान द्वारा घाति-कर्म कालिमा को विनष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। जिस तरह अन्धकार रहित दीपक को प्रभा द्वारा रात्रि में अपने भवनों को देखा जाता है उसी प्रकार भगवान नेमिनाथ समूत्पन्न हुए केवलज्ञान द्वारा तीनों लोकों को देखने जानने लगे। यथा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शतानी के विद्वान, और आचार्य ३१५ "स बर्श जगन्नाथं ततो विलसन्केवल-बोध-सम्पदा । प्रवलुप्त तमः प्रदीप प्रभया ननक्त मिवात्ममन्दिरम् ॥१४-४५ अन्तिम १५ वे सर्ग में केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवों ने नेमि तीर्थंकर की स्तुति की और समवसरण की रचना की। भगवान नेमिनाथ ने सप्ततत्व और कर्मबन्धादि विषयों का मार्मिक उपदेश दिया। पौर विविध देशों में विहार कर जन-कल्याण के आदर्श मार्ग को बतलाया। उससे जगत में अहिंसा और सुख-शान्ति का प्रसार हमा। अन्त में योग निरोधकर अवशिष्ट अधाति कर्म का विनाशकर अविनाशी स्वास्मोपलब्धि को प्राप्त किया। इस तरह यह काव्य बड़ा ही सून्दर सरल और रस अलंकारों से युक्त है। सुराष्ट्र देश में पृथ्वी का सुन्दर वर्णन करते हुए समुद्र के मध्य में वसी द्वारावती का वर्णन अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। उसमें श्लिष्टोपमा का उदाहरण बहुत ही सुन्दर हुआ है। परिस्फुरन्मण्डलपुण्डरीकच्छायापनीतातपसंप्रयोगः।। या राजहंसरुपसेव्यमाना, रांजीविनीवाम्बूनिधौ रराजे॥३७ जो नगरी समुद्र के मध्य में कमलिनी के समान शोभायमान होती है। जिस प्रकार कमलिनी विकसित पुण्डरीकों-कमलों-की छाया से जिनकी प्राताप व्यथा शान्त हो गई है ऐसे राजहंसा हंसविशेषो से सेवित होती है। उसी प्रकार वह नगरी भी तने हुए विस्तुत पुण्डरीकों-छत्रों-की छाया से पातप व्यथा दूर हो गई है ऐसे राजहंसों बड़े बड़े श्रेष्ठ राजामों से सेवित थी--उसमें अनेक राजा महाराजा निवास करते थे। कवि का सम्प्रदाय दि० जन था, क्योंकि उन्होंने मल्लिनाथ तीर्थंकर को कुरुराज का पुत्र माना है, पुत्री नहीं, जैसा कि श्वेताम्बर लोग मानते हैं। विरोधामास अलंकार के निम्न उदाहरण से स्पष्ट है : तप: कुठार-क्षत कर्मबल्लि-मल्लिनिनोवः श्रियमातनोतु। कुरोः सुतस्यापि न यस्य जातं, शासनस्वं भुवनेश्वरस्य ॥१६॥ इसमें बतलाया है कि-'तपरूप कुठार के द्वारा कर्मरूप देल को काटने वाले वे मल्लिनाथ भगवान तुम सबको लक्ष्मी को विस्तृत करें, जो कुरु के पुत्र होकर भी दुःशासन नहीं थे, पक्षमें दुष्ट शासन वाले नहीं थे। . मल्लिनाथ भगवान कुरुराज के पुत्र तो थे, किन्तु दुःशासन नहीं थे यह विरोध है, उसका परिहार ऐसे हो जाता है, कि मल्लिनाथ के पिता का नाम कुरुराज था, इसका कारण वे कुरुराज पुत्र कहलाये, किन्तु वे दुःशासन नहीं थे- उनका शासन दुष्ट नहीं था-उनके शासन के सभी जीव सुख-शांति से रहते थे। इस पद्य में तप और कूठार, कर्म और बल्लि का रूपक तथा बल्लि और मल्लि का अनुपास भी दृष्टव्य है। वास्तव में अलंकार भावाभिव्यक्ति के विशेष साधन हैं। प्रत्येक कवि रचना में सौन्दर्य और चमत्कार लाने के लिये अलंकारों की योजना करता है । कवि वाग्भट ने भी अपनी रचना में सौन्दर्य विधान के लिये अलंकारों को नियोजित किया है। प्रलंकारी के साथ रसों के सन्दर्भ की संयोजना उसे और भी सरस बना देती है । इससे पाठकों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता किन्तु उन पर काव्य मोर कवि के श्रम का प्रभाव भी अंकित होता है। रचनाकाल कवि वाग्भट ने अपनी गुरुपरम्परा और रचनाकाल का ग्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु वाग्भट्रालकार के कवि वाग्भट (सं० ११७६) ने अपने ग्रन्थ में नेमिनिर्माण काव्य के अनेक पद्य उदधत किये हैं । नेमिनिर्वाण काथ्य के छठे सर्ग के ३ पद्य-'कान्तारभूमी' 'जुहुर्वसन्ते' और नेमिविशाल नयनों श्रादि ४६, ४७ और ५१ नं० के पद्य वाग्भट्टालंकार के चतुर्थ परिच्छेद के ३५, ३६ और ३२ नं. पर पाये जाते हैं। और सातवें सर्ग कावरणा प्रसन निकरा' आदि २६ नं. का पद्य चौथे परिच्छेद के ४० नं. पर उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि नेमिनिर्वाण काव्य के कर्ता कवि वाग्भट वाग्भट्टालंकार के कर्ता से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय संभवतः वि. की ११वीं शताब्दी होना चाहिए। यहां यह विचारणीय है कि धर्मशर्माभ्युदय पौर नेमिनिर्वाण काव्य का तुलनास्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दोनो का एक दूसरे पर प्रभाव रहा है। दोनों की कहीं-कहीं शब्दावली Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ भी मिलती है । सम्भव है दोनों १०-२० वर्ष के अन्तराल को लिये हुए सम सामयिक हों। इस सम्बन्ध में अभी अन्य प्रमाणों के अन्वेषण की आवश्यकता है । नेमिनिर्वाण काव्य पर एक पंजिका उपलब्ध है। जिसके कर्ता भट्टारक ज्ञान भूषण हैं। पुष्पिका वाक्य में उसे नेमि निर्वाण महाकाव्य की पंजिका लिखा है । 'इति श्री भट्टारक ज्ञान भूषण विरचितायां श्री नेमिनिर्वाण महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः । पंजिका की प्रतिलिपि नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। हरिसिंह मुनि मुनि हरिसिंह का उल्लेख सुदर्शन चरित्र के कर्त्ता नयनन्दी ने सकल विधि विधान को प्रशस्ति में किया है । नन्दी इनके समीप ही रहते थे। इनकी प्रेरणा से उन्होंने 'सयल विह्नि विहाण काव्य की रचना की है। हरि सिंह भी धारा नगरी के निवासी थे। चूंकि नयनन्दी ने सं० ११०० में सुदर्शन चरित्र समाप्त किया है। अतः इनका समय भी विक्रम की ११ वीं शताब्दी है ! हंससिद्धान्त देव प्रस्तुत श्राचार्य हंससिद्धान्त देव सोमदेवाचार्य के नीतिवाक्यामृत को रचना के समय लोक में प्रसिद्ध थे । और जैन सिद्धान्त के निरूपण में प्रमाण माने जाते थे। जैसा कि नीति वाक्यामृत की प्रशस्ति के निम्न वाक्य से "न भवसि समयोको हंस सिद्धान्त देवः ।" जाना जाता है। इनका समय सोमदेव की तरह विक्रम की १०वीं या ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है। हर्षनन्दी यह रामनन्दी की गुरु परम्परा के विद्वान् नन्दनन्दी के शिष्य थे। और जीतसार समुच्य के कर्ता वृषभ नन्दी के गुरु भाई थे । ग्रत एवं उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रशस्ति के 'अनुज हर्षनन्दिना सुलिख्य जोतसार शास्त्रमुज्वलोद्घृतं ध्वजायते" निम्न वाक्यों में उनका अनुजरूप से उल्लेख किया है। हर्ष नन्दी ने जीतसार समुच्च की सुन्दर प्रति लिखकर दी थी। इनका समय विक्रम की दशवीं या ग्यारहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग होगा । महामुनि हेमसेन यह द्रविड संघस्थ नन्दिसंघ, अमंगलान्वय के विद्वान् थे जो शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी थे। जिनके वचन रूप वज्राभिघात से प्रवादियों के मदरूपी भूभृत खण्डित हो जाते थे। जैसा कि निम्न पक्षों से जाना जाता है: -- श्रीमद्र विल-संधेऽस्मिन् नन्दिसंधेऽत्यरुङ्गलः । प्रन्दयो भाति योऽशेषः- शास्त्र - वाराशि-पारमै || यद् वागवज्राभिघातेन प्रवादि-मद-भूभृतः । सच्चूण्णितास्तु भातिस्म हेमसेनो महामुनिः ।। ऐसे महामुनि हेमसेन थे । हुम्मच का यह लेख काल निर्देश से रहित है, फिर भी इसे सन् १०७० ई० का कहा जाता है । अतः हेमसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य भाग जान पड़ता है । भावसेन यह काष्ठा संघ लाडवागड गच्छ के प्राचार्य थे । गोपसेन के शिष्य और जयसेन ( १०५५) के गुरु थे, जिन्हों १ देखी अनेकान्त वर्ष १४ किरण १० २७ पुराने साहित्य की लोज नाम का लेख Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विज्ञान, आचार्य ने सकली करहाटक में धर्मरत्नाकर की रचना की थी। प्रस्तुत भावसेन ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान थे। इनकी कोई कृति प्राप्त नहीं है । - - . - . - महाकवि हरिचन्द्र हरिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। एक हरिचन्द्र का उल्लन चरकसंहिता के टीकाकार के रूप में मिलता है। इनका आनुमानिक समय ईसाकी प्रथम शताब्दी है । कवि वाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रारम्भ में भद्रारक हरिचन्द्र का उल्लेख किया है। । राजदोखर की काव्य मीमांसा में भी हरिचन्द्र का उल्लेख मिलता है। गउडवही में भास, कालिदास और सुबन्धुके साथ हरिचन्द्र का नामोल्लेख पाता है। किन्तु प्रस्तुत हरिचन्द्र उक्तकवियों से भिन्न हैं। इन महाकवि हरिचन्द्र का जन्म सम्पन्न परिवार के नोमक बंश में हुआ था। इनके पिता का नाम प्राईदेव पीर माता का नाम रथ्यादेवी था। इनकी जाति कायस्थ थो, परन्तु ये जैनधर्मावलम्बी थे। कवि ने स्वयं अपने को प्ररहन्त भगवान के चरण कमलों का भ्रमर लिखा है। इनके छोटे भाई का नाम लक्ष्मण था। जो इनका आज्ञाकारी भक्त और गृहस्थी का भार बह्न करने में समर्थ था। धर्मशर्माभ्युदय को प्रशस्ति पद्यों से प्रकट है : मुक्ताफल स्थिति रलंकृतिषु प्रसिद्धस्तत्रादवेव इति निर्मल मूतिरासीत् । कायस्थ एव निरवद्य गुणग्रहः सन्नकोऽपि यः कलाकुलमशेषमलंचकार ॥२ लावण्याम्युनिधिः कलाकुल ग्रहं सौभाग्य सभाग्ययोः । कीड़ावेरमविलासवासवलभी भूषास्पदं संपवाम् । शौचाचारविवकविस्मयमही प्राणप्रिया शूलिन:, शर्वाणीव पतिव्रता प्रणयिनी रश्यति तस्याभवत् ॥३ प्रहस्पदाम्भोरुहचञ्चरीकस्तयोः सुतः श्रीहरिचन्द पासीत । गुरुप्रसादामला बभवुः सारस्वसे सोतसि यस्य वाचः ।।४ भक्तेन शक्तेन लक्ष्मणेन निर्व्याकुलो राम इवानुजेन । या: पारमासावित बद्धिसेतुः शास्त्राम्बुराशेः परमाससाद ॥५ महाकवि हरिचन्द्र काव्यशास्त्र के निष्णात विद्वान थे। उन्होंने कालिदास के रघुवंश, कुमारसंभव, किरात तथा शिशुपाल वध के साथ चन्द्रप्रभचरित, तत्वार्थ सुत्र, और उत्तर पुराण आदि जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया था। यद्यपि उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का अवलोकन किया था और उनसे कुछ प्रेरणा भी ग्रहण की है. किन्त उनके पद वाक्यादि का कोई उपयोग नहीं किया। क्योंकि कवि को सभी सन्दर्मों में मौलिकता व्याप्त है। सिद्धान्त शास्त्री पं० कैलाशचन्द्र जी ने महाकवि हरिचन्द्र के समय-सम्बन्धि लेखमें धर्मशर्माभ्युदय की बीरनन्दी के चन्द्रप्रभचरित के साथ तुलना करके लिखा है कि दोनों ग्रन्थों में अत्यधिक समानता है तो भी काव्य की दष्टि से हमें चन्द्रप्रभका धर्मशर्माभ्युदय पर कोई ऋण प्रतीत नहीं होता। क्योंकि महाकवि हरिचन्द्र माघ प्रादि की टक्कर के कवि है। महाकवि ने इस महाकाव्य में उन समस्त गुणों का वर्णन किया है जिनका उल्लेख कवि दण्डी ने किया १ पदबन्धो बलोहारी रम्य वर्णपदस्थितिः ।। भट्टारक हरिचन्द्रस्य मद्यबन्धो नृपायते ॥ हर्षचरित १-१३ पृ० १० २ हरिचन्द्र चन्द्रगुप्तौ परीक्षिता विह विशालायाम् । -का. मी० अ० १० पृ० १३५ (विहार राष्ट्रभाषा संस्करण, १९५४ ई.) ३ भासम्मि जलमित्ते कत्ती देवे अजस्स रहारे। सो बन्धवे अ बंधम्मि झरचदे अ आदो।।८०० -उडबहो भाण्डार कर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट ना १९२७ ई.। ४ देखो, अनेकान्त वर्ष ८ किरण १७-१०१०३७६ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम-भाग २ है । महाकाव्य में नायक के चरित के प्रसंगानुसार नगर, राजा, उपवन, पर्वत, ऋतुओं, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, प्रभात, चन्द्रोदय और रतिविलास प्रादि प्रकृति का विचित्रताओं और जीवन की अनुभूतियों का वर्णन समाविष्ट करना आवश्यक है। पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य के प्राचीन लक्षणों का समन्वय करते हुए काव्य का लक्षण–'रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्'-रमणीय अर्थ के प्रतिपादन करने वाले शब्द समुह को काव्य-बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि काव्य में रमणीयता केवल अलंकारों से ही नहीं पाती,किन्तु उसके लिए सुन्दर अर्थवाले शब्दों का चयन भी जरूरी है। महाकवि हरिचन्द्र ने इस काव्य में शब्द और अथ दोनों को बड़ी सुन्दरता के साथ संजोया है । कवि ने स्वयं लिखा है कि-कवि के हृदय में भले ही सुन्दर अर्थ विद्यमान रहे, परन्तु योग्य शब्दों के बिना वह रचना में चतुर नहीं हो सकता। जैसे कुत्ता को गहरे पानी में भी खड़ा कर दिया जाय तो भी बह जब पानी पीयेगा तब जोभ से ही चांट-चांट कर पीयेगा। अन्य प्रकार से उसे पीना नहीं आता । यथा अहदि स्थेऽपिकदिन कश्चिन्नि प्रन्थिगीगम्फविचक्षणः स्यात् । जिहञ्चलस्पर्शमपास्य पातु श्वा नान्यथाम्भो घनमप्यर्वति ।।१४ सुन्दर शब्द से रहित शब्दावली भी विद्वानों के मन को आनन्दित नहीं कर सकती। जिस प्रकार थूवरसे झरती हुई दुग्ध की धारा नयनाभिराम होने पर भी मनुष्यों के लिये रुचिकर नहीं होती। हृद्यार्थवन्ध्या पर बन्धुरापि वाणोबुधानां न मनो धिनोति ।। नरोने लोगन पलागि स्नुहो, शरत्क्षीरसरिन्नरम्यः ॥१५ कवि कहता है कि शब्द और अर्थ से परिपूर्ण वाणी ही वास्तव में वाणी है, और वह बड़े पुण्य से किसी विरले 'कवि को ही प्राप्त होती है । चन्द्रमा को छोड़ कर अन्य किसी की किरण अन्धकार को विनाशक और अमृत झराने वाली नहीं है । सूर्यको किरण केवल अन्धकार की नाशक हैं, किन्तु भीषण प्राताप की भी कारण हैं । यद्यपि मणि किरणे प्रातापजनक नहीं हैं, किन्तु उनमें सर्वत्र व्याप्त अन्धकार को दूर करने की क्षमता नहीं है । यह उभय क्षमता विधिचन्द्र किरण में ही उपलब्ध होती है। याणी भवेत्कस्यचिदेव पुण्यः शब्दार्थसन्दर्भपिशेषगर्भा। इन् विना ग्यस्य न वृश्यते यत्समोधुनाना च सुधाधुनीव ॥१६ महाकवि हरिचन्द्र के इस महाकाव्य में वे समस्त लक्षण पाये जाते हैं जिन गुणों की शास्त्रकार काव्य में स्थिति आवश्यक बतलाते हैं। इस चरित ग्रन्थ में महनीयता के साथ चमत्कारों का वर्णन पूर्णतया समाविष्ट हुआ है। मंगल स्तवन के पश्चात् सज्जन-दुर्जन वर्णन, जम्बूद्वीप, सुमेरु पर्वत, भारतवर्ष, पार्यावर्त, रत्नपुरनगर, राजा, मुनि वर्णन, उपदेश, श्रवण, दाम्पत्यसुख, पुत्र प्राप्ति, बाल्य जीवन, युवराज अवस्था, विन्ध्याचल, षट् ऋतु, पुष्पावचय, जल कीड़ा, सन्ध्या, अन्धकार, चन्द्रोदय, नायिका प्रसाधन, पानगोष्ठी, रतिक्रीड़ा, प्रभात, स्वयंवर, विवाह, युद्ध, और वैराग्य आदि का विविध उपमानों द्वारा सरस और सालंकार कथन दिया है। कवि ने धर्मनाथ तीर्थकर के चरित्र को साहित्यिक दृष्टि से मौरवशाली बनाया है । कवि ने धर्मनाथ का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण से लिया है। कवि ने स्वयं लिखा है कि जो रसरूप और ध्वनि के मार्ग का मुख्य सार्थवाह था, ऐसे महाकवि ने विद्वानों के लिये अमृतरसके प्रवाह के समान यह धर्मशाभ्युदय नामका महा काव्य बनाया है: सकर्ण पोपुषरसप्रवाहं रसध्यनेरध्वनि सार्थवाहः । श्रीधर्मशर्माभ्युक्या विधानं महाकविः काव्यमिदं व्यवस। -प्रशस्ति पद्य ७ धर्मशर्माभ्युदय में २१ सर्ग और १८६५ श्लोक हैं जिनमें कवि ने १५वें तीर्थकर धर्मनाथ का पावन चरित काव्य दृष्टि से अंकित किया है। काव्य में लिखा है कि धर्मनाथ महासेन और सुव्रता रानी के पुत्र थे। उनका १. तिलोय पण्णसी में धर्मनाथतीर्थकर को भानु नरेन्द्र और सुनतारानी का पुत्र बतलाया है : रपणपुरे धम्मजियो भाराणरिदेण सुवदाए । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य जन्म माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन पुष्प नक्षत्र में हुआ था । वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक थे। वे बड़े भाग्यशाली मोर पुण्यात्मा थे। एक हजार आठ लक्षणों के धारक थे। उनके गर्भ में आने से पूर्व ही जन्म समयतक कुबेर ने १५ मास तक रत्नवष्टि की, उसमे नगर जन-धन से सम्पन्न हो गया था। उसकी समद्धि और शोभा द्विगुणित हो गई थी। इन्द्रादिक देवों ने उनका जन्मोत्सव मनाया । बालक का शरीर दिन पर दिन वृद्धि करता हुमा युवावस्था को प्राप्त हुमा । उन्होंने पांच लाख वर्ष तक सांसारिक सुखों का उपभोग किया। एक दिन उल्कापात को देख कर उन्हें देह-भोगों से विरक्ति हो गई। उन्होंने संसार की असारता का अनुभव किया और निश्चय किया कि यह जीवन बिजली की चंचल तरंगों के समान अस्थिर है, विनाशीक है। यह शरीर चर्मरूपी चादर के द्वारा ढका हुना होने से सुन्दर प्रतीत होता है। परन्तु यह मलमूत्र से भरा हमा है, दुर्गन्धित एवं अपवित्र है। चर्वी मज्जा और रुधिर से पकिल है। यह कर्मरूपी चाण्डाल के रहने का घर है, जिससे दर्गन्ध निकलती रहती है। ऐसे पणित शरीर से कौन बृद्धिमान संग करेगा? मैं तपश्चरण द्वारा कर्म रूपी समस्त पापों को नष्ट करने का प्रयत्न करूंगा। भगवान ऐसा चिन्तवन कर ही रहे थे कि लौकान्तिक देव प्राग ये । और उन्होंने भगवान के वैराग्य को पुष्ट किया, और कहा कि जो आपने विचार किया है वह श्रेष्ठ है । उन्होंने पत्र को राज्य भार देकर इन्द्रों द्वारा उठाई गई शिविका में प्रारूद हो सालवन की ओर प्रस्थान किया, और वहाँ बेला का नियम लेकर पंच मुद्रियों से केशों का लोच कर डाला। और माघ शुक्ला त्रयोदशी को पुष्प नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ वस्त्राभूषणों का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण की। भगवान धर्मनाथ ने पाटलिपुत्र के राजा धन्यसेन के घर हस्तपात्र में क्षीरान्त की पारणा को तब देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। और फिर धन में नासाग्र दृष्टि हो कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। उन्होंने कठोर तपश्चरण द्वारा तेरह प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान किया और मन-वचन कायरूप गुप्तियों का पालन करते हुए उन्होंने समितिरूपी अर्गलाओं से अपने को संरक्षित किया। उनकी दृष्टि निन्दा प्रशंसा में, शत्रु-मित्र में और तण काञ्चन में समान थी। उन्होंने बड़ी कठिनाई से पकने योग्य कर्मरूपी लताओं के फलों को अन्तर्वाह्य रूप तपश्चरणों की ज्वाला से पकाया और वे प्रशंसनीय तपस्वी हो गए । वे व्यामोह रहित थे, निर्मद निष्परिग्रह, निर्भय और निर्मम थे। इस तरह वे छद्यस्य अवस्था में एक वर्ष तक घोर तप का आचरण करते हुए दीक्षा वन में पहुँचे, और सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे स्थित हो शुक्ल ध्यान का अवलम्बनकर स्थित हुए। उन्होंने माघ मास की पूर्णिमा के दिन धाति कर्म का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्द्रादिक देवोंने प्राकर उनके केबल' ज्ञान कल्याणक की पूजा की । भगवान धर्मनाथ ने दिव्य ध्वनि द्वारा जगत का कल्याण करने वाला उपदेश दिया। और विविध देशों, नगरों में विहार कर लोक कल्याण कारी धर्म का प्रसार किया-जनता को सन्मार्ग में लगाया । अन्त में संघ सहित सम्मेदाचल पर पहुंचे, वहां चैत्र शुक्ला चतुर्थी को ८०६ मुनियों के साथ साढ़े बारह लाख वर्ष प्रमाण प्रायु का और अवशिष्ट अधाति कमों का विनाशकर सिद्ध पद को प्राप्त किया । यथा तत्रासाद्य सितांशुभोगसुभगां चत्रे चतुर्थी तिथि, यामित्यां स नवोसर बमवता सार्फ तेरष्टभिः । साधं द्वादशबर्षलक्षपरमा रम्यायुषः प्रक्षये, ध्यानध्वस्त समस्तकर्म निगलो जातस्तवानी क्षणात् ।।१८४ इस तरह यह काव्य ग्रन्थ अपनी सानी नहीं रखता, बड़ा ही महत्वपूर्ण मनोहर और हृदयाग्रही काव्य है। १ पालेवागी पुप्य मंत्री प्रयाते माने शुक्ला या त्रयोदश्यनिन्द्या। धर्मस्तस्यामात्तदोक्षोऽपराह जातः क्षोणीभत्सहस्त्रेण साधम् ।। ३१ -धशर्माभ्युदय २०-३१ २ छद्यस्योऽसौ वर्ष मेक विहृत्य प्राप्तो दीक्षाकाननं झालरग्यम् । देवो मूले सप्तपर्ण वमस्य ज्यान शुक्लं सम्यगालम्ब तस्थौ ।। ५६ माघे मासे पूर्णमास्यां स पुष्ये कृत धमों द्यालि कर्मव्यपायम् । उत्पादानधौधवस्तुस्वभावोभासिज्ञान केवल स प्रपेदे ।। ५७ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रचनाकाल महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदाय में उसका रचनाकाल नहीं दिया। इससे उसके रचनाकाल के निश्चित करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। धर्मशर्माभ्युदय को सबसे पुरातन प्रतिलिपि सं० १२८७ सन् १२३० ई.) की संधवी पाड़ा पुस्तक भण्डार पाटण में उपलब्ध है । उस प्रति के अन्त में लिखा है कि-"१२८७ वर्षे हरिचन्द्र कबि विरचित धर्मशर्माभ्युदयकान्य पुस्तिकाधीरत्नाकरसूरिआदेशेनकोतिचंद्रगणिना लिखित मिति भद्रम् ।।" इससे इतना तो स्पष्ट है कि धर्मशर्माभ्युदय सन् १२३० के पूर्व की रचना है, उसके बाद की नहीं। पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ में वीरनन्दी प्राचार्य के चन्द्रप्रभ चरित के साथ धर्मशर्माभ्युदय की तुलना द्वारा दोनों की प्रत्यधिक माता कालाई मी, पर में साहित्यिक ऋण नहीं है । किन्तु हरिचन्द्र के सामने चन्द्रप्रभ जरूर रहा है। चन्द्रप्रभ चरित की रचना सं० १०१६ के लगभग हुई है। क्योंकि वीरनन्दी अभयनन्दी के शिष्य थे। प्रौर गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती भी अभयनन्दी के शिष्य थे। किन्तु वीरनन्दी और इन्द्रनन्दी नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गुरु भाई थे। चामुण्डराय उस समय विद्यमान थे और गोम्टसार की रचना उनके प्रश्नानुसार हई थी। चामुण्डराय ने अपना पुराण शक सं० 800(वि.सं०१०३५) में बनाकर समाप्त किया था। अतः प्रस्तुत धर्मशर्माभ्युदय ११वीं शताब्दो की रचना है। वहां यह भी विचराणीय है कि नेमिनिर्वाण काव्य और धर्मशर्माभ्युदय दोनों में एक दूसरे का प्रभाव परिलक्षित है। और नेमिनिर्वाण काव्य के अनेक पद्यकवि वाग्भट ने वाग्भट्टालंकार में उद्धत किये हैं। वाग्भट्टालंकार का रचना काल वि० स० ११५५ से ११६७ के मध्य का है। अतः नेमिनिर्वाण काव्य की रचना बारभट्टालंकार से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वह विक्रम वी ११ शताब्दी के मध्यकाल को रचना है । कवि की दूसरी कृति जीबंघरचम्पु है । यह गद्य-पद्यमय चम्पू काव्य है इसमें भगवान महावीर के समकालीन होने वाले राजा जीवंधर का पावन चरित अंकित किया गया है । जीवंधर चम्पू के इस कथानक का आधार वादीभ सिंह की क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचित्तामणि है। यह चम्पू काव्य सरस और सुन्दर है। रचना प्रौद्ध और सालंकार है। क्षत्र चूड़ामणि के समान ही इसमें ११ लम्ब है। कवि ग्रन्थ रचना में अत्यन्त कुशल है उसकी कोमल कान्त पदावली रस और अलंकार की पुटने उसे अत्यन्त आर्कषक बना दिया है। इसमें कवि की नैसर्गिक प्रतिमा का अलौकिक चत्मकार दृष्टिगत होने लगता है। रचना सौष्ठव तो देखते ही बनता है। इसकी रचना कब हुई इसका निश्चय करना सहज नहीं है । ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य की संस्कृत और हिन्दी टीका के साथ भारतीयज्ञान पीठ से प्रकाशित हो चुका है। ब्रह्मदेव ब्रह्मदेव ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न अपनी टीकायों में अपनी गूरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। इससे उनकी जीवन-घटनाओं का परिचय देना शक्य नहीं है । ब्रह्मदेव को दो टीकाएं उपलब्ध हैं । वृह द्रव्य संग्रह टीका और परमात्म प्रकाश दीका । वृहद्रव्य संग्रह वृत्ति का उत्थानिका वाक्य इस प्रकार है "प्रय मालवदेशे धारा नाम नगराधिपति राजाभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्ती सम्बन्धिन; श्रीपाल महामण्डलेश्वरय सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्री मुनिव्रत तीर्थकर चैत्यालये शुद्धात्म द्रव्य सवित्ति समुत्पन्न सुखामतरसास्वादविपरीतनारकादि दुःख भयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्न सुखसुधारस पियासितस्य भेदाभेद रत्नत्रय भावना प्रियस्य भव्यरपण्डरीकस्य भाण्डागाराधनेकनियोगधिकारिसोमाभिधान राजधेष्ठिनो निमित्त श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त देवः पूर्व पविशति गाथा भिलघ ध्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाविशेषतत्वपरिज्ञानार्थ विरबिसस्य व्रव्य संग्रहस्याधिकार शुद्धि पूर्वकत्वेन व्याख्यावृत्तिः प्रारम्यते।" उत्थानिका की इन पंक्तियों में बतलाया गया है कि द्रव्य संग्रह ग्रन्थ पहले २६ गाथा के लघुरूप में नेमिचन्द्र सिद्धान्त देव के द्वारा 'सोम' नामक राजधेष्ठि के निमित्त प्राश्रम नामक नगर के मुनि सुवत चैत्यालय में रचा Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य गया था। पश्चात् विशेष तत्व के परिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिनद्र के द्वारा द्रव्य संग्रह की रचना हुई है। उसकी अधिकारों के विभाजन पूर्वक यह व्याख्या या वृत्ति प्रारम्भ की जाती है। साथ में यह भी सूचित किया है कि उस समय आश्रम नामका यह नगर श्रीपाल महामण्डलेश्वर (प्रान्तीय शासक) के अधिकार में था। और सोम नाम का राजश्रेष्ठो भाण्डागार (कोष) आदि अनेक नियोगों का अधिकारी होने के साथ-साथ तत्त्वज्ञान रूप सुधारस का पिपासु था। वृत्तिकार ने उसे 'भव्यवरपुण्डरीक' विशेषण से उल्लेखित किया है, जिससे वह उस समय के भव्य पुरुषों में श्रेष्ठ था। ब्रह्मदेव आश्रम नाम के नगर में निवास करते थे। जिसे वर्तमान में केशोराय पाटन के नाम से पुकारते हैं। यह स्थान मालब देश में चम्बल नदी के किनारे कोटा से मील दूर और बंदी से तीन मोल दुर अवस्थित है। जो अस्सारम्म पट्टण 'पाश्रम पत्तन, पत्तन, पुट भेदन, केशोराय पाटन और पाटन नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान परमारवंशी राजाओं के राज्यकाल में रहा है। चर्मणबती (चम्बल) नदी कोटा और बंदी को सीमा का विभाजन करती है। इस चम्बल नदी के किनारे बने हुए मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में जो, उस समय एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध था। और वहां अनेक देशों के यात्रीगण धर्मलाभार्थ पहँचते थे । सोमराजश्रेष्ठी भी वहां पाकर तत्वचर्चा का रस लेता था। वह स्थान उस समय पटन-पाठन और तत्वचर्चा का केन्द्र बना हुअा था। उस चैत्यालय में बीसवें तीर्थकर मुनि सुबतनाथ की श्यामवर्ण को मानन के आदमकद से कुछ ऊँनी सातिशय मूर्ति विराजमान है । यह मन्दिर ग्राज भी उसी अवस्था में मौजूद है। इसमें श्यामवर्ण की दो मतियाँ और भी विराजमान हैं। सरकारी रिपोर्ट में इसे 'भईदेवरा के नाम से उल्लेखित किया गया है। विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान मनि मदनकीति ने अपनी शासन चस्त्रिशतिका के २८वें पद्म में आश्रम नगर की मुनिसुव्रत-सम्बन्धि ऐतिहासिक घटना का उल्लेख किया है पूर्व याऽऽश्रममाजगाम सरिता नाथास्तुदिव्या शिला । तस्यां देवागणान द्विजस्य दधतस्तस्यो जिनेशः स्वयं । कोपात् विप्रजनावरोधमकरै वैवः प्रपूज्याम्बरे । वन यो मुनिसुवतः स जयतात् विग्नासंसां शासनम् ॥२८॥ इसमें बतलाया गया है कि जो दिव्य शिला सरिता से पहले प्राथम को प्राप्त हई । उस पर देवगणों को धारण करने वाले विनों के द्वारा क्रोध वश अवरोध होने पर भी मुनिसुव्रत जिन स्वयं उस पर स्थित हुए -वहां मे फिर नहीं हटे। और देवों द्वारा आकाश में पूजित हए वे मूनिसूयत जिन ! दिगम्बरों के शासन की जय करें। आश्रम नगर की यह ऐतिहासिक घटना उसके तीर्थ भूमि होने का स्पष्ट प्रमाण है। इससे निर्वाण काण्ड की गाथा में उसका उल्लेख हुआ है। यह घटना १३वों शताब्दी से बहुत पूर्व घटित हुई है । और ब्रह्मदेव जैसे टीकाकार, सोमराज श्रेष्ठी और मुनि नेमिचन्द्र जैसे सैद्धान्तिक बिद्वान वहाँ तत्त्वच गोष्ठी में शामिल रहे हैं। द्रव्य संग्रह को वृत्ति में ब्रह्मदेव ने 'अत्राह-सोमाभिधान राजश्रेष्ठी' जैसे वाक्यों द्वारा टीकागत प्रश्नोत्तरों का सम्बन्ध व्यक्त किया है। क्योंकि नामोल्लेखपूर्वक प्रश्नोत्तर बिना समक्षता के नहीं हो सकते । मुन सुनाकर ऐसा प्रश्नोत्तर लिखने का रिवाज मेरे अवलोकन में नहीं आया। ब्रह्मदेव का उक्त घटना निर्देश और लेखन शैली घटना की साक्षी को प्रकट करती है। और उक्त तीनों व्यक्तियों को सानिध्यता का स्पष्ट उद्घोष करती है । वत्तिकार ब्रह्मदेव ने उसी पाश्रम पत्तन के मुनिसुव्रत चैत्यालय में अध्यात्मरस गभित द्रव्य संग्रह को महत्वपूर्ण व्याख्या की है । ब्रह्मदेव अध्यात्मरस के ज्ञाता थे। और प्राकृत संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा के विद्वान थे। सोम नाम के राजश्रेष्ठी, जिसके लिये मूल ग्रन्थ और वृत्ति लिखी गई, अध्यात्मरस का रसिक था। क्योंकि वह शुद्धात्मद्रव्य की संवित्ति से उत्पन्न होने वाले सुखामृत के स्वाद से विपरीत नारकादि दु:खों से भयभीत, तथा परमात्मा की भावना से उत्पन्न होने वाले सुधारस का पिपासु था, और भेदाभेदरूप रत्नत्रय (व्यवहार तथा १. अस्सारम्भे पट्टणि मुरिपक्वजिणं च वदामि । निर्वाण काण्ड, मुरिणसुच्च उजिणू तह आसरम्मि । निर्वाण भक्ति Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ निश्चय रत्नत्रय) की भावना का प्रेमी था। ये तीनों ही विवेको जन समकालीन और उस प्राथम स्थान में बैठकर तत्त्वचर्चा में रस लेने वाले थे। उपरोक्त घटनाक्रम धाराधिपति राजा भोज के राज्यकाल में घटित हुप्रा है। भोजदेव का राज्यकाल सं० १०७० से १११० तक रहा है। द्रव्यसंग्रह और उसकी वृत्ति उसके राज्यकाल में रची गई है। मूल द्रव्य संग्रह ५८ गाथात्मक है। उसमें जीव अजोव, धर्म, अधर्म प्राकाश और काल इन छ: द्रव्यों का समूह निर्दिष्ट है। इस कृति का निर्माण प्राचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय प्राभूत से अनुप्राणित है उसी का दोहन रूप सार उसमें संक्षिप्त रूप में अंकित है। वत्तिकार ने मल ग्रन्थ के भावों का उदघाटन करते हए जो विशेष कथन दिया है और उसे ग्रन्थान्तरों के प्रमाणों के उद्धरणों से द्वारा पुष्ट किया है । टीका में अध्यात्म को जोरदार पुट अंकित है। उससे टीका केवल पठनीय ही नहीं किन्तु मननीय भी हो गई है । और स्वाध्याय प्रेमियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। वत्ति में सोमराज श्रेष्ठी के दो प्रश्नों का उत्तर नामोल्लेख के साथ दिया गया है। यदि टीकाकार के समक्ष सोमराज श्रेष्ठी न होते तो उनका नाम लिये बिना हो प्रश्नों का उत्तर दिया जाता। चं कि वे उस समय विद्यमान थे, इसी से उनका नाम लेकर शंका समाधान किया गया है। पाठकों की जानकारी के लिये उसका एक नमूना नीचे दिया जाता है : सोमराज श्रेष्ठी प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! केवलज्ञान के अनन्त वे भाग प्रमाण प्राकाश द्रव्य है और उस आकाश के अनन्तवें भाग में सबके बीच में लोक है, वह लोक काल की दृष्टि से प्रादि अन्त रहित है, वह किसी का बनाया हया नहीं है। और न कभी किसी ने नष्ट किया है, किसी ने उसे न धारण किया है, और न कोई उसका रक्षक ही है। लोक असंख्यात प्रदेशी है। उस असंख्यात प्रदेशो लोक में अनन्त जीव और उनसे अनन्तगुणे पुद्गल परमाणु, लोकाकाश प्रमाण कालाण, धर्म तथा अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ? इस शंका का समाधान करते हुए ब्रह्म देव ने कहा है कि जिस तरह एक दोपक के प्रकाश में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है, अथवा एक गूढ रस भरे हुए शीशे के वर्तन में बहुत सा सुवर्ण समा जाता है । अथवा भस्म से भरे हुए घट में सुई और ऊंटनी का दूध समा जाता है। उसी तरह विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश बाले लोक में जीव पूदगलादिक समा जाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं पाता। यह प्रश्नोत्तर उनके साक्षात्कारित्व का संसूचक है ही।। ब्रह्मदेव की वृत्ति के कारण द्रव्य संग्रह की महत्ता बढ़ गई, उन्होंने उसकी विशद व्याख्या द्वारा चार चांद लगा दिये। प्रतः द्रव्यसंग्रह की यह टीका महत्व पूर्ण है। परमात्म प्रकाश टीका-परमात्म प्रकाश की ब्रह्मदेव की यह टीका जहां दोहों का सामान्य अर्थ प्रकट करती है, वहां वह दोहों का केवल अर्थ ही प्रकट नहीं करती बल्कि उनके अन्त: रहस्य का भी उद्भावन करती है। ब्रह्मदेव ने योगीन्द्रदेव की अध्यात्मिक कृति का निश्चय की दृष्टि से कथन किया है। किन्तु परमात्म प्रकाश की यह टीका द्रव्यसंग्रह की टीका के समान कठिन नहीं है। टीकाकार सरल शब्दों में उसका रोचक वर्णन करते हैं, और उसे ग्नन्थान्तरों के उदाहरणों से पुष्ट भी करते है। यह सच है कि यदि परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव की यह वृत्ति न होती तो वह इतना प्रसिद्ध नहीं हो सकता था। ब्रह्मदेव की यह टीका उसको विशेष ख्याति का कारण है । टीका के अन्त में टीकाकार ने लिखा है कि इस टीका का अध्ययन कर भव्य जीवों को विचार करना चाहिये कि मैं शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभाव निर्विकल्प हूं, उदासीन हूं, निजानन्द निरंजन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानन्दरूप आत्मानुभूति मात्र स्वसं वेदन ज्ञान से गम्य । अन्य उपायों से नहीं। और निर्विकल्प निरंजन ज्ञान द्वारा हो मेरो प्राप्ति है, राग, द्वेष, मोह क्रोध मान, माया, लोभ, पंचेन्द्रियों के विषय, द्रव्य कर्म, नो कर्म, भाव कर्म, ख्याति लाभ पूजा, देखे सुने और अनुभव किये भोगों की वांछा रूप निदानादि शल्यत्रय के प्रपंचोंसे रहित हूं तीन लोक तीन काल में मन वचन काय, कृत, कारित अनुमोदनाकर शुद्ध निश्चय से मैं ऐसा मात्माराम हूं। यह भावना मुमुक्षु जीवों के लिये बहुत उपयोगी है। इसका निरन्तर मनन करना आवश्यक है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य रचनाकाल ब्रह्मदेव ने अपनी टीकाओं में उनका रचना काल नहीं दिया, और न अपनी गुरुपरम्परा का ही उल्लेख किया है। इससे टीकायों के रचना काल के निर्णय करने में कठिनाई हो रही है।। द्रव्यसंग्रह की सबसे पुरातन प्रतिलिपि सं० १४१६ की लिखी हई जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, जो योगिनीपुर दिल्ली में फीरोजशाह तुगलक के राज्य काल में अग्नवाल वंशी भरपाल ने लिख. बाई थी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उक्त टीका सं० १४१६ से बाद को नहीं हैं किन्तु पूर्ववर्ती है। क्योंकि इसका निर्माण धारा नगरी के राजा भोज के राज्यकाल में हुआ है। राजा भोज का राज्य काल सं० १०७० से १११. तक रहा है। सं० १०७६ और १०७६ के उसके दो दान पत्र भी मिले हैं। इससे द्रव्य संग्रह की टीका विक्रम की ११ वीं शताब्दी के उ.. और १: पीके भाा में रनी गई है। ही निष्कर्ष टीका में उद्धत ग्रन्थान्तरों के अवनरणों से भी स्पष्ट होता है। दोनों टीकाओं में अमृतचन्द्र, रामसिंह अमितगति प्रथम चामुण्डराय, डड्ढा और प्रभाचन्द्र ग्रादि के ग्रंथों के अवतरण मिलते हैं, जो विक्रम की १० वीं और ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् है। इससे भी ब्रह्मदेव की टीकामों का वहीं समय निश्चित होता है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। अतः ब्रह्मदेव का समय ११वीं शताब्दी का उपान्त्य और १२ वों का प्रारम्भिक भाग है। त्रिभुवनचन्द्र मूलसंघ नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान् थे गुरु परम्परा में वर्धमान, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, गुणकीति, बिमलचन्द्र, गुणचन्द्र, अभय नन्दि, सकलचन्द्र, गण्डविमुक्त और त्रिभुवनचन्द्र के नाम दिये हैं। धारवाड़ जिले के अणिगेरे और गावरवाड नामों से प्राप्त दो विस्तृत शिलालेख मिले हैं। इनमें कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर (द्वितीय) के समय में सन् ० १०७०-७१ में मूलसंघ मन्दिसंघ बलात्कार गण के प्राचार्य त्रिभुवनचन्द्र को दान दिये जाने का वर्णन है। यह दान गंग राजा बूतुग (द्वितीय) द्वारा अण्णिगेरे में निर्मित गंगपेमाडि जिनालय के लिये दिया गया था। चोल राजानों के आक्रमण से प्राप्त क्षति को दूर कर राजा सोमेश्वर ने पुनः यह दान दिया था। अतएव त्रिभुवन चन्द्र का समय ईसा की ११ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। एपिग्राफिया इंडिका भा० १५ पृ० ३३७ रामसेन प्रस्तत रामसेन मूलसंघ, सेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान् गुणभद्र अतीन्द्र के शिष्य थे। इन्हें प्रतिकण्ठ सिंगय्यने अपने शासक वर्मदेव को प्रार्थना पत्र देकर त्रिभुवन मल्ल देव से चालुक्य विक्रम वर्ष २ सन् १०३७ ई. में चालुक्य गंग पेनिडि जिनालय की, जिन पूजा अभिषेक और ऋषि पाहारदानादि के लिये गांव का दान दिया गया था। अत: इन रामसेन का समय ईसा की ११ दीं शताब्दी है। दयापाल मुनि मुनिबयापाल २ द्रविड संघस्थ नन्दि संघ अरुङ्गलान्वय के विद्वान थे। इनके गुरूका नाम मतिसागर था। संवत १४१६ वा भादवासुदी १३ गुरो दिने श्रीमद्योगिनी पुरे सकल राज्य शिरोमुकुट माणिक्य मरीचिकृत चरण कमल पादपीठस्प धीमत् पेरोजसाहे सकलसाम्राज्यधुराविभ्राणस्य समये वर्तमाने श्री कुन्दकुम्दाचार्यान्धये मूलसंघ सरस्वती गच्चे बलात्कार गरणे भट्टारक रनकोति तरुण तरुरिणत्यमुर्वीकुर्वाणं श्री प्रभाचन्द्राणां तस्य शिष्य ब्रह्मनाथ पठनाथं प्रमोत्कान्वये गोहित गोत्रे भरथल वास्तव्य परम श्रावक साघु साउ भार वीरो तमो पुत्र साधु ऊघस भार्या बालही तस्य पुत्र कुलघर भार्या पाणघरहे तस्य पुत्र भरहपाल भार्या लोघाही श्री भरहपाल लिसापितं कर्मक्षयार्थ । कनकदेव पंडित लिखतम् शुभं भवतु । २. हित षिणां यस्य नृणामुदात्तवाचा निबद्धाहित-रूपसिद्धिः। बंद्यो दयापाल मुनिः सवाचा सिद्धस्सतामूर्दनि य: प्रभाषः । -श्रवणबेलगोल ५४ बो शिला लेख Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यह कनकसेनके शिष्य और वादिराज के सुधर्मा गुरुभाई थे। इनकी रूप सिद्धि नामकी एक छोटी-सी रचना है।" चूंकि वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित्र की रचना शक सं० २४७ (वि० सं० १०८०) में की है। अतः यही समय दयापाल मुनि का है । यह रचना प्रकाशित हो चुकी है। जयसेन प्रस्तुत जयसेन लाइ बागडसंघ के विद्वान थे। यह गुणी, धर्मात्मा शमी भावसेनसूरि के शिष्य थे। जो समस्त जनता के लिये श्रानन्द जनक थे। जैसा कि उनके सकल जनानन्द जनकः' वाक्य से प्रकट है। इसी लाड बागड संघ के विद्वान नरेन्द्रसेन ने सिद्धान्तसार की प्रशस्ति में भावसेन के शिष्य जयसेन को तपरूपी लक्ष्मी के द्वारा पापसमूह का नाशक, सत्तर्क विद्यार्णव के पारदशों और दयालुनों के विश्वास पात्र बतलाया है, जैसा कि सिद्धान्तसार प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है : रव्यातस्ततः श्रीजयसेननामा जातस्तपः यः सतर्क विद्यार्णवपारवृश्वा विश्वासगेहं श्रीक्षतदुःकृतौघः । करुणरस्पवानां || इन्हों ने धर्मरत्नाकर नाम के की रचना की है जो एक संग्रह ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय गृहस्थ धर्म है, जो प्रत्येक गृहस्य द्वारा श्राचरण करने योग्य हैं । ग्रन्थ में गृहस्थों के प्रणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप द्वादशव्रतों के अनुष्ठानका विस्तृत विवेचन दिया हुआ है । ग्रन्थ में बीस प्रकरण या अध्याय हैं। जिनमें विवेचित वस्तु को देखने और मनन करने से उसे धर्म का सद् रत्ना कर अथवा धर्मरत्ना कर कहने में कोई अत्युक्ति मालूम नहीं होती । वह उसका सार्थक नाम जान पड़ता है । ग्रन्थ में कवि ने अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, गुणभद्राचार्य के श्रात्मानुशासन और यशस्तिलक चम्पू आदि ग्रन्थों के पद्यों को संकलित किया है। इससे यह एक संग्रह ग्रन्थ मालूम होता है । जिसे ग्रन्थ कारने अपने और दूसरे ग्रन्थों के पद्य वाक्य रूप कुसुमों का संग्रह करके माला की तरह रचा है । ग्रन्थकर्ता ने स्वयं इस की सूचना ग्रन्थ के अन्तिम पद्य ६० में " इत्येतैरुपनीत विचित्र रचनं: स्वैरन्यवीयं रपि । भूतोद्य गुणस्तथापि रचिता मालेय सेयं कृतिः" । वाक्य द्वारा की है। जयसेन ने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न रूप में उल्लेख किया है। धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेन | ये सब मुनि उक्त लाडवागड संघ के थे। जयसेन ने धर्मरत्नाकर की रचना का उल्लेख निम्न प्रकार किया है : वाणेन्द्रिय व्योमसोम - मिते संवत्सरे शुभे । ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सकली करहाटके | इससे प्रस्तुत जयसेन का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का मध्य काल है । यह मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान इन्द्रनन्दि के शिष्य मैसूर) के ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के शिलालेख में इनके द्वारा एक जैनमन्दिर बनवाने कुछ भूमि दान देने का उल्लेख है इनका समय विक्रम की ११वीं सदी का उत्तरार्ध है । ****** कनकसेन भट्टारक व रशिष्यर शब्दानुशासनको प्रक्रियेनेन्दु रूपसिद्धियं माडिद दयापालदेवखं पुष्पवेरण सिद्धान्तदेवम् शब्दानुशासनस्योच्चैररूप सिद्धिम्महात्मना । कृता येन स बामति दयापालो मुनीश्वरः । - जैनले खसं० भा० २५० २६५ -- जैन लेखसं० भा० २ ० ३०८ बाहुबलि श्रावार्य थे । हन गुन्द ( बीजापुर और उसमंदिर के लिये Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य ३२५ माधवचन्द्र विद्य प्रस्तुत माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के प्रधान शिष्य थे । प्राकृत संस्कृत भाषा के साथ सिद्धान्त व्याकरण और न्याय शास्त्र के विद्वान थे। इसी से विद्य कहलाते थे। इन्होंने अपने गुरु नेमिचन्द्र की सम्मति से त्रिलोकसार में कुछ गाथाएं यत्र-तत्र निविष्ट की हैं जैसा कि उनको निम्न गाथा से स्पष्ट है : गुरुणेमिचन्दसम्मद कविवयगाहा तहि तहि रइया ।। माहवचन्दति विज्जेणिय मणुसदणिज्ज मज्जेहि ।। त्रिलोकसार की गाथा संख्या १०१८ है । माधवचन्द्र विद्य ने उस पर संस्कृत टीका लिखी है। यह ग्रन्थ संस्कृत टीका के साथ माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है, परन्तु बहुत दिनों से अप्राप्य है। टीकाकार ने लिखा है कि गोम्मटसार की तरह इस ग्रन्थ का निर्माण भी प्रधानतः चामुण्डराय को लक्ष्य करके उनके प्रबोधार्थ रचा है। और इस बात को माधवचन्द्र जी ने अपनी टीका के प्रारम्भ में व्यक्त किया है। 'श्रीमद प्रतिहता प्रतिम नि:प्रतिपक्षनिष्करण भगबन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेवश्चतुरनूयोगचतुरुदधिपारगरचामुण्डराय प्रतिवोधनव्यान अशेषविनेयजनप्रतिबोधनार्थ मिलोसारनामानं ग्रन्भमारचगन" बाक्पा द्वारा सष्ट किया है। टीकाकार ने टीका का रचना समय नहीं दिया। फिर भी चामुण्डराय के समय के कारण इनवा समय सन् १७८ वि० सं० १०३५ निश्चित है। इस त्रिलोकसार ग्रन्थ की पं० टोडरमल जी ने सं १८१८ में हिन्दी टीका बनाई हैं जिसमें उन्होंने गणित की संदृष्टियों का भी अच्छा परिचय दिया है, जिसका उन्होंने बाद में संशोधन भी किया है। माधव चन्द्र विद्य चामुण्डराय के समकालीन है । अतः इनका समय विक्रम की ११ बौं शताब्दी का मध्य भाग है। पग्रनन्दी प्रस्तुत पद्मनन्दि वीरनन्दी के शिष्य थे। जो मूलसंघ देशीय गण के विद्वान थे। पमनन्दो ने अपने गुरु का नाम 'दान पञ्चाशत के निम्न पद्य में व्यक्त किया है, और बतलाया है कि रत्नत्रयरूप आभरण से विभूषित श्री बीरनन्दी मुनिराज के उभय चरण कमलों के स्मरण से उत्पन्न हए प्रभाव को धारण करने वाले श्री पद्मनन्दी मनि ने ललित वर्गों के समूह से संयुक्त बावन पद्यों का यह दान प्रकरण रचा है : रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपाद पनद्वयस्मरणसंजनितप्रभावः। श्री पन्धनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदान पञ्चाशतं ललितवर्ण चयं चकार । ग्रन्थ कर्ता ने और भी दो प्रकरणों में वीरनन्दी का स्मरण किया है। यह वीरनन्दी के ज्ञात होते हैं। जो मेधचन्द्र विद्य के शिष्य थे। मेषचन्द्र विद्यदेव के दो शिष्य थे, प्रभाचन्द्र और वीरनन्दी। उनमें प्रभाचन्द्र आगम के अच्छे ज्ञाता थे और वीरनन्दो सैद्धान्तिक विज्ञान थे । वीरनन्दी ने प्राचार सार और उसकी अनड़ी टीका शक सं०१०७६ (वि० सं० १२४१) में बनाई थी। इनके गुरु मेषचन्द्र विद्य का स्वर्गवास गक सं० १०३७ (वि० सं० ११७२) हुना था । अतएव इन वीरनन्दो का समय सं० १११२ से १२१२ तक है। सं० १२११ के बाद ही उनका स्वर्गवास हुप्रा होगा। समय पद्मनन्दि ने अपनी रचनाओं में समय का उल्लेख नहीं किया है, इससे रचनाकाल के निश्चित करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित होती है। पद्मनन्दि पंच विशति प्रकरणों पर प्राचार्य अमतचन्द्र, सोमदेव और अमितगति के ग्रंथों का प्रभाव और अनुशरण परिलक्षित होता है। इससे पद्यनन्दि बाद के विद्वान जान पड़ते हैं। इनमें अमित गति द्वितीय विक्रमकी ११वीं शताब्दी के विद्वान् हैं उनका समय सं० १०५० से १०७३ का निश्चित है। प्रस्तुत पानन्दि इनसे बहुत वाद में हुए हैं। यहां पर यह भी ज्ञातव्य हैं कि पमनन्दि के चतुर्थ प्रकरणगत एकत्व सप्तति पर एक कन्नड़ टीका उपलब्ध है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जिसके कर्ता पमनन्दि व्रती हैं, उन्होंने अपने गुरु का नाम राद्धान्त शुभचन्द्र देव बतलाया है, वे उनके अग्रशिष्य थे । उन्होंने यह टीका निम्बराज के प्रबोधनार्थ बनाई थी, जो शिलाहार नरेश गण्डरादित्य के सामन्त थे 1 निम्बराज ने कोल्हापुर में शक सं० १०५८ (वि० सं० ११६३) में रूप नारायण वसदि (मन्दिर) का निर्माण कराया था और उसके लिए कोल्हापुर तथा मिरज के पास-पास के ग्रामो का दान भी दिया था। एकत्व सप्तति की यह टीका सं० ११६३ के लगभग की रचना है, इससे स्पष्ट है कि एकत्व सप्तति उससे पूर्व बन चुकी थी। अर्थात् एकत्व सप्तति मं० १९८०-८५ की रचना है। उक्त पद्मनन्दि को निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है। यहां यह बात भी सुनिश्चित है कि पद्मनन्दि के ये सभी प्रकरण एक साथ नहीं बने, मिन्न-भिन्न समयों में उनका निर्माण हुम्रा है इसी दुष्टि को लक्ष्य में रखकर रचना काल में भी परिवर्तन अनिवार्य है। रचनाओं का नाम १धर्मोपदेशामृत, २ दानोपदेशन, ३ अनित्य पञ्चाशत्, ४ एकत्व सप्तति, ५ यमिभावनाष्टक, ६ उपासक संस्कार, ७ देशप्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ६ पालोचना, १० सद्वोध चन्द्रोदय, ११ निश्चय पञ्चाशत, १२ ब्रह्मचर्य रक्षा वर्ति, १३ ऋषभ स्त्रोत्र, १४ जिन दर्शन स्तवन, १५ श्रुत देवता स्तुति, १६ स्वयंभू स्तुति, १७ सुप्रभाताष्टक १८ शान्ति नाथ स्तोत्र, १६ जिन पूजाष्टक, २० करुणाष्टक, २१ क्रियाकाण्डचूलिका, २२ एकत्व भावना दशक, २३ परमार्थ विशति, २४ शरीराष्टक, २५ स्नानाष्टक, २६ ब्रह्मचर्याष्टक । धर्मोपदेशामत—यह अधिकार सबसे बड़ा है, इसमें १६८ श्लोक हैं। पहले धर्मोपदेश के अधिकारी का स्वरूप निदिष्ट करते हए, धर्म का स्वरूप व्यवहार और निश्चय दृष्टि से बतलाय है। व्यवहार के प्राश्रय से जीवदया को-प्रशरण को शरण देने और उसके दुःख में स्वयं दुःख का अनुभव करने को-धर्म कहा है। वह दो प्रकार का है गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की अपेक्षा तीन भेद, और उत्तम क्षमादि की अपेक्षा दश भेद बतलाये है। इस व्यवहार धर्म को शुभ उपयोग बतलाया है, यह जीव को नरक तिर्यचादि दुर्गतियों से बचाकर मनुष्य और देवगति के सुख प्राप्त कराता है। इस दृष्टि से यह उपादेय है। किन्तु सर्वथा उपादेय तो वह धर्म है जो जीव को चतुर्गति के दुःखों से छड़ा कर अविनाशी सूख का पात्र बना देता है। इस धर्म को शुद्धोपयोग या निश्चय धर्म कहते हैं। गहि धर्म में श्रावक के दर्शन, व्रत प्रतिमा प्रादि ग्यारह भेदों का कथन किया है। इनके पूर्व में जुआदि सात व्यसनों का परित्याग अनिवार्य बतलाया है, क्योंकि उनके बिना त्यागे व्रत आदि प्रतिष्ठित नहीं रह सकते। क्योंकि व्यसन जीवों को कल्याणमार्ग से हटाकर अकल्याण में प्रवृत्ति कराते हैं। उन द्यूतादि व्यसनों के कारण युधिष्ठिर आदि को कष्ट भोगना पड़ा है । गृहि धर्म में हिंसादि पंच पापों का एक देश त्याग किया जाता है। इसी से गृहि धर्म को देश चारित्र और मुनि धर्म को सकल चारित्र कहा जाता है। सकल चारित्र के धारक मुनि रत्नत्रय में निष्ठ होकर मूल गुण, उत्तर गुण, पंच प्राचार और दश धर्मों का पालन करते हैं। मुनियों के मूल गुण २- होते हैं-पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचो इन्द्रियों का निरोध, समता, आदि छह आवश्यक लोच, वस्त्र का परित्याग, स्नान का त्याग भू शयन, दन्तघर्षण का त्याग, स्थिति भोजन, और एक भक्त भोजन । साघु स्वरूप के अतिरिक्त आचार्य और उपाध्याय का स्वरूप भी निर्दिष्ट किया है। मानव पर्याय का मिलना दुर्लभ है, अत: इससे प्रात्महित के कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। क्योंकि मृत्यु का काल अनियत है-वह १. श्री पचनन्दि व्रति निमितेयम् एकत्व सप्तत्यखिलार्थ पूतिः। ___ वृत्तिश्चिर लिम्बनूप प्रबोध लब्धात्मवृत्ति जया जगत्याम् ।। स्वस्ति श्री शुभचन्द्रद्धिान्तदेवाग्रशिध्येण कनकनन्दिपण्डित वाश्मिविकसितहत्कुमुदानन्द श्रीमद् अमृत चन्द्र चन्द्रिकोम्मीलित नेत्रोत्सलाव नोकिताशेषाव्यात्मतत्त्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमजनसुधाब्धिवर्धनकरावणेन्दु दुरानति वीर श्री पति निम्बराजावबोधनाय कृर्तकत्व सप्तलेवत्तिरियम् । –पयनन्दि पंचविशति की अंग्रेजी प्रस्तावना से उद्धत प०१३ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य कव प्राधमकेगी यह निश्चित नहीं है, अतएब बुद्धिमान मनुष्य के हैं, जो मानव जीवन और उनम कुलादि की साधन सामग्री को पाकर भी विषय तृष्णा से पराङ्मुख होकर अपने आत्मा का हित करते हैं। अन्त में धर्म का महत्व बतलाकर प्रकरण समाप्त किया है। २ दानोपवेशन-इस अधिकार में ५४ श्लोक हैं, जिनमें दान की आवश्यकता पौर महता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। और दानतीर्थ के प्रवर्तक राजा श्रेयांस का पहले ही स्मरण किया है। जिस प्रकार पानी वस्त्रादि में लगे हये रुधिर को धोकर स्वच्छ बना देता है उसी प्रकार सत्पात्र दान भी वाणिज्यादि से समपन्न पापमल को धोकर निष्पाप बना देता है। ३ अनित्य पञ्चाशत्-इस अधिकार में ५५ श्लोक हैं। इस प्रकरण में शरीर, स्त्री पुत्र, एवं धनप्रादि की स्वाभाविक अस्थिरता बतलाते हए उसके संयोग-वियोग में हर्ष और विषाद के परित्याग की प्रेरणा की गई है। मरण पायुकर्म के श्रीण होने पर होता है. अतः उसके होने पर शोक करना व्यर्थ है, ४ एकत्व सप्तति-इस प्रकरण में ८० श्लोक दिये हैं। जिनमें बतलाया है कि चेतनत्व प्रत्येक प्राणी के भीतर अवस्थित है, तो भी जीव अज्ञान वश उसे जान नहीं पाता । जैसे लकड़ी में अव्यक्त रूपसे अग्नि होते हुए भी नहीं जान पाते, उसी तरह प्रात्मतत्व का बोध भी प्रज्ञान के कारण नहीं होता। जिनेन्द्र देव ने उस परम आत्म तत्त्व की उपासना का उपाय एक मात्र साम्यभाव को बतलाया है । स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सब उसी साम्य के नामान्तर हैं। कर्म और रागादि हेय हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये। ज्ञान दर्शनादि उपयोग रूप परम ज्योति को उपादेय समझना चाहिए। अन्त में प्रात्मतत्त्व के अभ्यास का फल मोक्ष को प्राप्ति बतलाया है। ५ यतिभावनाष्टक-इस प्रकरण में पद्य हैं जिनमें उन मुनियों का स्तवन किया गया है, जो भयानक उपसर्ग होने पर अपने स्वरूप से विचलित नहीं होते, प्रत्युत कष्ट सहिष्णु बनकर उन पर विजय प्राप्त करते हैं। ६ उपासक संस्कार--इसमें ६२ पद्य हैं, दान के आदि प्रवर्तक राजा श्रेयांस का उल्लेख करते हुए, देव पूजादि षट आवश्यकों का कथन किया गया है। सामयिक व्रत का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए सप्त व्यसनों का परित्याग अनिवार्य बतलाया है। ७. देशवतो द्योतन-इसमें २७ श्लोक हैं जिन में देव दर्शन 'पूजन रात्रिभोजन त्याग' त्यालय निर्माण, छह आवश्यक, पाठ मूलगुणों और पांच अणुव्रतादि रूप उत्तर गुणों को धारण करने का उल्लेख किया है । और गृहस्थों को पाप से उन्मुक्त होने के लिए चार दान को प्रेरणा की है। ६. सिद्ध स्तुति-२६ श्लोकों में सिद्धों की स्तुति करते हुए प्रष्टकर्मों के प्रभाव से कौन-कौन से गुण प्रादुर्भत होते हैं, इसका निर्देश किया है। १. प्रालोचना-प्रज्ञान या प्रमाद से उत्पन्न हुए पाप को निष्कपट भाव से जिनेन्द्र व गुरु के सामने प्रकट करता आलोचना है । आत्मशुद्धि के लिए दोषों की आलोचना पावश्यक है। आत्म निरीक्षण, निन्बा और गहरे करना उचित है, आत्मनिन्दा करते हुए यह मेरा पाप मिथ्या हो ऐसा विचार करना चाहिए । कृत, कारित, अनुमोदना और मन वचन काय से संगुणित नौं स्थानों से पाप उत्पन्न होता है, उनका परिमार्जन करने के लिए प्रालोचना करनी चाहिए। १०. सद्वोध चन्द्रोदय-यह ५० पद्यों की रचना है। इसमें परमात्म स्वरूप का महत्व दिखलाकर बतलाया है कि जिसका चित्त उस चितस्वरूप में लीन हो जाता है वह योगियों में श्रेष्ठ हो जाता है । उस योगी को समस्त जीव राशि अपने समान दिखाई देती है, उसे कर्म कृत विकारों से भी क्षोभ नहीं होता । यह जीव मोह रूपी निद्रा में चिरकाल से सोया है, अब उसे इस ग्रन्थ को पढ़ कर जागृत हो जाना चाहिए। ११. निश्चय पञ्चाशत-६२ पद्यात्मक इस प्रकरण में प्रात्मा के जानने में कारणभूत शुद्ध नय प्रार व्यवहार नय है। इनमें व्यवहार नय अज्ञानी जनों के बोध करने के लिये है। और शुद्धनय कर्म क्षय में कारण है। इस कारण उसे भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ बत लाया है। वस्तु का यथार्थ स्वरूप मनिर्वचनीय है, उसका कथन व्यहारनय से वचनों द्वारा किया जाता है। शुखनय के माश्रय से रत्नत्रय को पाकर अपना विकास करता है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १२. ब्रह्मचयं रक्षावति - यह २२ पद्यों का लघु प्रकरण है, इसमें काम सुभट को जीतने वाले मुनियों को नमस्कार कर ब्रह्मचर्य का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। अपने स्वरूप में रमण करने का नाम ब्रह्मचर्य है । जितेन्द्रिय तपस्वियों की दृष्टि निर्मल होती है, राग उनके स्वरूप को विकृत करने में समर्थ नहीं होता, ऐसे योगी वन्दनीय होते हैं । राग को जीतने के लिए रहन-सहन सादा और सादा भोजन होना चाहिए। ३२५ १३. ऋषभ स्तोत्र - इस ६० गाथात्मक प्रकरण में प्रथम जिनकी स्तुति की गई है, जिनमें उनके जीवन को झांकी का भी दिग्दर्शन निहित है। उन्होंने सांसारिक वैभव का परित्याग कर किस तरह स्वात्मलब्धि प्राप्त की, उसका सुन्दर वर्णन किया गया है। तीर्थंकर प्रकृति के महत्व का भी दिग्दर्शन कराया गया है । १४. जिन दर्शन स्तवन- यह प्रकरण भी की ३४ गाथाओं को लिये हुए हैं। इसमें जिनदर्शन की महिमा का वर्णन है । १५. श्रुत देवता स्तुति इसमें ३१ श्लोकों द्वारा जिनवाणी का स्तवन किया गया है। इसमें २४ श्लोकों द्वारा चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है । १६. स्वयंभू स्तुति १७. सुप्रभाताष्टक यह अष्ट पद्यात्मक स्तुति है जिस तरह प्रातः काल होने पर रात्रि का अन्धकार मिट जाता है और सूर्य का प्रकाश फैल जाता है। उस समय जन समुदाय को नींद भंग होकर नेत्र खुल जाते हैं । उसी प्रकार मोह कर्म का क्षय हो जाने पर मोह निद्रा नष्ट हो जाता है, और ज्ञान दर्शन का विमल प्रकाश फैल जाता है । - E १८. शान्तिनाथ स्तोत्र - इसमें इलोकों द्वारा तीन छत्र और आठ प्रातिहार्यो सहित भगवान शान्तिनाथ का स्तवन किया गया है । १२. जिन पूजाष्टक - १० पद्यात्मक इस प्रकरण में जल चन्दनादि द्रव्यों द्वारा जिन पूजा का वर्णन है । २०. करुणाष्टक - - इसमें अपनी दीनता दिखला कर जिनेन्द्र से दया की याचना करते हुए संसार से अपने उद्धार की प्रार्थना की गई है। २१. क्रियाकाण्ड चूलिका- इसमें जिन भगवान से प्रार्थना को गयी है कि रत्नत्रय-मूल व उत्तर गुणों के सम्बन्ध में अभिमान और प्रमाद के वश मुझसे जो अपराध हुआ है, मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदना से मैने जो प्राणि पीडन किया है, उससे जो कर्म संचित हुआ हो वह ग्राम के चरण कमल स्मरण से मिथ्या हो । २२. एकत्व भावना दशक इसमें ११ पद्यों द्वारा परम ज्योतिस्वरूप तथा एकत्वरूप अद्वितीय पद को प्राप्त आत्मतत्त्व का विवेचन किया गया है। उस आत्मतत्व को जो जानता है वह स्वयं दूसरों के द्वारा पूजा जाता है। २३. परमार्थ विशति – इसमें बतलाया है कि सुख और दुःख जिस कर्म के फल हैं वह कर्म श्रात्मा से पृथक है - भिन्न है | यह विवेक बुद्धि जिसे प्राप्त हो चुकी हैं, 'उसके मैं सुखी हूं अथवा दुखी हूं' ऐसा विकल्प ही उत्पन्न नहीं होता। ऐसा योगो ऋतु प्रादि के कष्ट को कष्ट नहीं मानता । २४. शरीराष्टक - इसमें शरीर की स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरता को दिखलाते हुए उसे नाडीव्रण के समान भयानक और कड़वी तूंबड़ी के समान उपभोग के प्रयोग्य बतलाया संरक्षण करने पर भी अन्त में जर्जरित होकर नष्ट हो जाता है। | अनेक तरह से उसका २५. स्नानाष्टक - मल से परिपूर्ण घड़े के समान मल-मूत्रादि से परिपूर्ण रहने वाला यह शरीर जल स्नान से पवित्र नहीं हो सकता । उसका यथार्थ स्नान तो विवेक है जो जीव के चिर संचित मिथ्यात्वादि आन्तरिक मल को धो देता है। जल स्नान से प्राणि हिंसा जनित केवल पाप का ही संचय होता है। स्नान करने और सुगन्धित द्रव्यों का लेप करने पर भी उसकी दुर्गन्धि नहीं जाती । २६ ब्रह्मचर्याष्टक - विषय भोग एक प्रकार का तीक्ष्ण कुठार है जो संयम रूप वृक्ष को निर्मूल कर देता है । विषय सेवन जब अपनी स्त्री के साथ भी निन्य माना जाता है। तब भला पर स्त्री और वेश्या के सम्बन्ध को अच्छा कैसे कहा जा सकता है । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य पद्मप्रभ मलधारीदेव पप्रप्रभ मलधारीदेव-मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय पुस्तकगच्छ और देशीगण के विद्वान वीरनन्दी व्रतीन्द्र के शिष्य थे । इनकी उपाधि मलधारी थी, यह उपाधि अनेक विद्वान आचार्यों के साथ लगी देखी जाती है। इनकी बनाई हुई पाचर्य कुन्दकुन्द के नियमसार की एक संस्कृत टीका है जिसका नाम 'तात्पर्यवृत्ति' है, वत्तिकार ने वत्ति की पुष्पिका' में अपने लिये तीन विशेषणों का प्रयोग किया है---'सुकविजनपयोजमित्र' 'पंचेन्द्रियप्रसारवजित' और मात्रमात्रपरिग्रह' । इन तीन विशेषणों से ज्ञात होता है कि पद्मप्रभ सुकविजन रूप कमलों को विकसित करने वाले मित्र (सूर्य) थे। और पंचेन्द्रियों के प्रसार से रहित थे-जितेन्द्रिय थे। तथा शरीरमात्र परिग्रह के धारी थेनग्न दिगम्बर थे। अच्छे विद्वान और कवि थे। इन्होंने समयसार के टीकाकार प्राचार्य प्रमतचन्द्र की तरह नियम सार की तात्पर्यवृत्ति में भी अनेक सुन्दर पद्य बनाकर उपसंहार रूप में यत्र-तत्र दिये हैं। पप्रभ ने बत्ति में यथा स्थान अनेक विद्वानों और उनके अन्थों के पद्यों को ग्रन्थ कर्ता का नाम लेकर या के किये हैं। उनमें समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपाद, अमृतचन्द्र, सोमदेव, गुणभद्र, वादिराज, योगीन्द्रदेव और चन्द्रकीति तथा महासेन का नामोल्लेख किया है। समयसार कलश, मार्गप्रकाश. प्रमताशीति एकत्व सप्तति, और श्रुतविन्दु नामक ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त वृत्तिकार ने 'तथा चोक्तम् महासेन पंडितदेवः, वाक्य के साथ निम्न पस किया है। ज्ञानाद्धिम्लोन चाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीसूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥ इसके पश्चात उक्तं च षण्णवतिपापंडिविजयोपाजितविशालकीति महासेन पंडित देवः वाक्य के साथ उक्त किया है: मानमिर्गीहिः हामजानं प्रदीपयत् । . तत्स्वार्थव्यवसायात्मा कथंचित् प्रमितेः पृथक् ॥" ये दोनों ही पद्य 'स्वरूप सम्बोधन' नामक ग्रंथ के हैं, जिसके कर्ता प्राचार्य महासेन हैं। टीकाकार समसार वे चानवे वादियों के विजेता थे। और लोक में उनकी विशाल फोति फैल रही थी। इनकी गह परम्परा और गण-गच्छादि क्या हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। डा. ए०एन० उपाध्ये ने स्वरूप सम्बोधन केकी सम्बध में लिखा है कि वे नयसेन के शिष्य थे। थिय: पति केवल बोधलोचन, प्रणम्य प्रमप्रभ योध कारणं। करोमि कर्णाटगिरा प्रकाशन, स्वरूपसंबोधन पंचविशीं ॥ "श्रीमन्मयसेनपंडित देवरु शिष्यरप्पधीमन्महासेनदेवरुभव्यसार्थसंबोधनार्थ मार्ग स्वरूप संबोधन पंच विशति व ग्रंथमं माइत्तमा ग्रन्थद मादेलोल इष्ट देवता नमस्कार में म्यडिद पर" । महासेन नामके और भी विद्वान हए हैं। एक तो लाड बागड गण के महासेन जो प्रद्युम्नचरित के कर्ता हैं। जो संवत् १०५० के लगभग हए हैं जो १. तद्विद्याढ्यं वीरनन्धि व्रतीन्द्रम् २. मलधारी विशेषण दिगम्बर वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के मुनियों के साथ संलग्न देखा जाता है। बारीर के स्वच्छता के विपरीत मल परीषह की सहन-शीलता का शोलक है। मलधारी गण्ड चिमुक्त देव, मलघारी माश्वचन्द्र मलधारी बालचन्द्र, मलधारि मल्लिषेण, मलधारिदेव, आदि दिगम्बर, मलधारी हेमचन्द्र, मलयारि अभयदेव, मलपारि जिनभद्र आदि श्वेताम्बर । १. 'इति सुकविजनपयोजमित्र पंचेन्द्रिवप्रसरवजित गात्रमात्रपरिग्रह श्री पचप्रमालपारि देव विरचितायां नियमसार व्याल्यायो तात्पर्यवत्ती शुद्ध निश्चियप्रायश्चित्साधिकारोऽष्टमः श्रुतस्कन्धः ? Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-मान मालवपति मज नरेश द्वारा पूजित थे और जो गुणाकरसेनसरि के शिष्य थे। दसरे महासेन 'सुलोचना चरित' के कर्ता हैं जिनका उल्लेख 'हरिवंश पुराण' में पाया जाता है। प्रस्तुत महासेन इनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह कोई तीसरे ही महासेन हैं। दृत्तिकार ने जहाँ वीरनन्दि को नित्य नमस्कार करने की रात लिखी है, और बतलाया है कि जिस मुमुक्ष मुनि के सदा व्यवहार और निश्चय प्रतिक्रमण विद्यमान हैं। और जिसके रंच मात्र भी प्रतिक्रमण नहीं हैं ऐसे संयम रूपी आभूषण के धारक मुनि को मैं (पचप्रभ) सदा नमस्कार करता हूँ। वृत्तिकार ने अपने समय में विद्यमान 'माधवसेनाचार्य' को नमस्कार करते हए उन्हें संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामदेवरूप हस्ति के कुभस्थल के भेदक और शिष्य रूप कमलों का विकास करने वाले सूर्य बतलाया है। पद्य में प्रयुक्त 'विराजते' क्रिया उनकी वर्तमान मौजूदगी की द्योतक है वह पद्य इस प्रकार है। "नोमस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभकुंभस्थल भेदनायवे, विनेयपरहविकासभानवे विराजते माधवसेनसरये ।।" माधवसेन नासपनेक दिन हगः है। परन्तु ये मासेन उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। 'एक माधवसेन काष्ठासंघ के विद्वान नेमिषेण के शिष्य थे, और अमितगति द्वितीय के गुरु थे। इनका समय सं० १०२५ से १०५० के लगभग होना चाहिये। दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टघर थे। इनका समय विक्रम की १३ बी १४ वीं शताब्दी होना संभव है। तीसरे माधवसेन मूलसंघ, सेनगण पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने जिन चरणों का मनन करके और पंच परमेष्ठी का स्मरण कर के समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। इनका समय ई० सन् ११२४ (वि०सं० ११८१) है। चौथे माधवसेन को लोक्किय वसदि के लिये देकररस ने जम्बहलि प्रदान की। इस का दान माघवसेन को दिया था। यह शिलालेख शक संवत ७८५--सन् १०६२ ई० का है। प्रतः इन माधवसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। इन चारों माधवसेनों में से वृत्तिकार द्वारा उल्लिखित माधवसेन का समीकरण नहीं होता। अतः वे इनसे भिन्न ही कोई माधवसेन नाम के विद्वान होंगे। उनके गण-गच्छादि और समय का उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। पचप्रभ मनपारिदेव ने वृत्ति के पृ०६१ पर चन्द्रकीतिमुनि के मन की वन्दना की है। और पृष्ठ १४२ में उन्हों ने श्रत विन्दु' नाम के ग्रन्थ का 'तथा चोक्तं श्रुत बिन्दी, वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धत किया है : जयति विजयवोषोऽमर्पमपन्द्रमोलिप्रविलसवनमा लाभ्यचितांघ्रि जिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्ये दृशौ पश्मुवाते सममिव विषयेव्यम्योन्य वृति निषेत्र म॥ १. तयिष्यो विदिता खिलोक सभयो वादी र वाग्मी कविः । शब्दब्रह्मविचित्रषामयशसा मान्या सतामणीः । मासीत् श्रीमहासेम सूरिनिषः श्री मुंजराजापितः। सीमा दर्शन बोष वृत्तपसां मव्यान्जिनी बान्धवः ॥ -प्रद्युम्न चरित प्रशस्ति ३ २. महासेनस्य मधुरा शीलासंकार बारिणी। कथा न वरिणता केन वनिव सुलोचना ।।-हरिवंश पुराण १-३३ ३. यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुमो-स्त्यि प्रतिक्रमण मप्यणुमात्र मुच्चैः। तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय, श्री वीरनन्दि मुनि नामपराय नित्यम् ॥-नियमसार वृत्ति ४. निरुपम मिदं वन्धं श्रीचन्द्रकीति मुने मनः ।। -नियमसार वृत्ति पृ० १५२ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य ३३१ श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५४ पृ० १०६ में इन्हीं चन्द्रकीर्ति मुनि का स्मरण किया गया है श्रीर उन्हें श्रुतविन्दु का कर्त्ता भी बतलाया है : विश्वं यश्भुतविन्नावरुरुधे भावं कुशाग्रीयया, बुध्येवाति महीयसाप्रववसाबद्धं गणाधीश्वरैः । शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेवं युगीन्दारसुगी - स्तं वाचाच चन्द्रकीति गणिनं चन्द्राभकीर्ति बुधाः ॥ ३२ - मंसूर स्टेट के तुरंकूर जिले में दो अभिलेख मिले हैं, वे पद्मप्रभ के प्रभाव क्षेत्र की अच्छी सूचना देते हैं । एक तो कुप्पी ताल्लुके के निट्टूरु में प्राप्त हुआ है जिसमें एक प्रसिद्ध धर्मात्मा महिला जैनाम्बिका का उल्लेख है जा इनकी एक शिष्या थी। दूसरा अभिलेख पाबुगड ताल्लुक के निगल्लु में पहाड़ी पर के एक जैन मन्दिर में मिला है - (एपिग्राफिया कर्नाटिका जि० १२ पाबूगड़ ५२ ) इसमें एक मुखिया गांगेयन मारेय के द्वारा एक जैन मन्दिर के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि यह मन्दिर निर्माता नेमि पडित के द्वारा जैनधर्म में प्रविष्ट किया गया था। एपिग्राफिया कर्नाटिका जि० १२ Guvvi) | यह नेमि पंडित पद्मप्रभ मलधारी के शिष्य थे । जब इरुङ्गोल देव राज्य कर रहा था— तत्पादपद्मोपजीवी गङ्गयनमारेय गङ्गय नायक और चामासे मे उत्पन्न हुआ था । इसने नेमि पण्डित से व्रत लिये थे । नेमि पण्डित को पद्मप्रभ मलधारी देव से मनोभिलपित प्रर्थ की प्राप्ति हुई थी । प० म० देव श्री मूलसंघ, देशीयगण, कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तक गच्छ तथा वाणद बलिय के वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । कालाञ्जन ( निडुगल ) पर्वत के बदर तालाब के दक्षिण की तरफ एक चट्टान के सिरे पर गंगन मारने पार्श्व जिन की बसति खड़ी की थी। इसी को 'जोगवट्टिगे बसदि' भी कहते थे । पार्श्वनाथ जिनेश की दैनिक पूजा, महाभिषेक करने के लिए, तथा चतुवर्ण को बाहार दान देने के लिए गगयन मारेय तथा उसकी स्त्री वाचले ने इरुगुल देव से प्राचन्द्र-सूर्य-स्थायी दान करने के लिये प्रार्थना की तब उसने भूमियों का दान किया, तथा मारेनहल्लि के कुछ किसानों ने मिलकर बहुत से अखरोट और पान प्रति बोझ पर दिये। पलिक किसानों ने भी कोल्हुसों से तेल दिया । यद्यप्रभ मलधारी देवकी दूसरी कृति 'लक्ष्मी स्तोत्र' है जो संस्कृत टीका के साथ मुद्रित हो चुका है । इनकी अन्य क्या रचनाएं हैं यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ । मद्रास प्रान्त के पाटशिवरम्' नामक ग्राम के दक्षिण प्रवेश द्वार पर स्थित एक स्तम्भ के खंडित शिलालेख में बीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिप्य पद्मप्रभ मलधारी देव के सम्बन्ध में निम्न श्लोक अंकित है, जिसमें उनके देहोत्सर्ग की तिथि का उल्लेख है: सवर्ष सप्तदु क्षिति ११०७ परिमितिविश्वावसु प्रान्तफाल्गुण्य कनच्छुद्धा चतुर्थीतिथितभरणी सोमवारार्द्ध रात्रा fusersarienate निम्मं लमति मल्लम्टं नामपद्मप्रभं । पुस्तक गच्छं मूलसंघ प्रतिपतिनुस देसीगण मुक्तनावं || ११०७ विश्वावसु, फाल्गुण शुक्ला ४ भरणी, सोमवार को -- २४ फर्वरी सन् ११८५ ई० सोमवार के दिन पद्मप्रभ मलधारी देव का स्वर्गवास हुआ। यह लेख पश्चिमीय चालुक्य राज्यकाल का है । ( Jainism in South India P. 159 ) शक संवत् (वि० सं० १२४२) को नरेश सोमेश्वर चतुर्थी के १. निरुङ्गी-देवं राज्यं गेम्युत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवियप गङ्गयनायक' 'जामाङ्ग नेगवुद्भविसि गङ्गयन मारेयं श्री मूल संवद देशिय गणद कोण्डकुन्दान्वव पुस्तक गच्छद वादयनिय श्री वीरनन्दि- सिद्धान्त - चक्रवतगिल शिष्यराद मेदिनी सिद्धर पद्मप्रभ- मलधारि देवर चरण-परिचर्येय पर्याप्त कामिदराद मिति निङ्गीकृतवत नादम् । - जैनलेख सं० भा० ३५० ३३२ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बामनन्दि विद्य दामनन्दि मूलसंघ, देशियगण, पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्दान्वय में प्रसिद्ध गुणचन्द्र देव के प्रशिष्य और नयकीति सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। इनके छोटे भाई बालचन्द्र मुनीन्द्र थे। सोम सेट्टि ने पार्वजिन को अष्ट विध पूजन और मन्दिर की मरम्मत और मुनियों के माहारदान के लिए दान दिया था और कुछ भूमि बालचन्द्र मुनि के पाद प्रक्षालन पूर्वक दी गयी थी। यह लेख शक सं० ११०० सन् ११७८ ईसवी का है । अतः इन दामनन्दि का समय १२वीं शताब्दी है। जैनलेख सं० भ० ३ ले. नं. ३६४ पृ०१७७ कुलचन्द्र मुनीन्द्र कुलचन्द्र सिद्धान्त मुनीन्द्र-यह कुलभूषण सिद्धान्त मुनीन्द्र के शिष्य थे । धवला की हस्तलिखित प्रतियों में सत्प्ररूपणा विवरण के अन्त में कनाड़ी प्रशस्ति पाई जाता है। उसमें तीन आचार्यों की प्रशंसा की गई है। पअनन्दि सिद्धान्त मुनीन्द्र, कुलभूषण सिद्धान्त मुनीन्द्र और कुलचन्द्र सिद्धान्त मुनीन्द्र । जितयश से उज्वल कुलचन्द्र सिद्धान्त मुनीन्द्र का उद्भव जंगमतीर्थ के समान था । वे सदा काय और मन से सच्चारित्रवान् दिनो दिन शक्तिमान् और नियमवान होते हुए उन्होंने विवेक बुद्धि द्वारा ज्ञान दोहन कर कामदेव को दूर रखा। सच्चारित्रवान् हाना हा कामदेव के क्रोध से बचने का एक मात्र मार्ग है। इससे उनकी चारित्र निष्ठता का पता चलता है। यह वही कुलचन्द्र ज्ञात होते है जिनका उल्लेख श्रवण बेल्गोल के ४०३ (६४) लेख में पाया जाता है। प्रविद्धकादिक पचनन्दी सद्धान्तकायोजनि यस्य लोके। कौमारय प्रतिताप्रसिति जोया सोज्ञाननिधिः सधीरः॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाययतिपश्चारित्रवारानिधिस्सिद्वान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मों महान । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथितग्रन्थकारः प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराज पंडितवरः श्रीकण्डान्वन्वयः ।। तस्य श्रीकुलभूषणात्य मुमुने शिष्ये विनेयस्तुत--- स्सयत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः॥ इन पद्यों में मन्दि, कुलभूषण नौर कुलचन्द्र मुनियों के बीच गुरु-शिष्य परम्परा का स्पष्ट उल्लेख है। इनमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिक को, ज्ञानि निधि, सधीर, अविद्धकर्ण और कौमारदेव प्रती बतलाया है । वे कर्ण छेदन संस्कार से पहले ही दीक्षित हो गए थे। प्रतएव ने कौमारदेव व्रती भी कहलाते थे। अर्थात् वे बाल ब्रह्मचारी थे। इनके एक शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जो शब्दामोज भास्कर और प्रथित तक ग्रन्थकार थे । कुलभूषण को चारित्र वा रानिधि और सिद्धान्ताम्बुधि पारग बतलाया है। और कुलचन्द्र को विनय, सद्वृत्त और सिद्धान्त विद्यानिधि कहा है। इनका समय सन् ११३३ के लगभग होना चाहिए । कुलचन्द्र के शिष्य माधनन्दि सैद्धान्तिक थे, जो कोल्हापुर की रूपनारायण वसदि के प्रधानाचार्य थे । इनका परिचय प्रागे दिया गया है। कुलचन्द्रमुनि-मूलसंघान्वय क्राणुरगण के विद्वान परमानन्द सिद्धान्त देव के शिष्य थे। इन्हें भुवनक मल्ल के सुपुत्र ने, जिस समय उनका राज्य प्रवर्धमान था, और जो बंकापुर में निवास करते थे। उनके पाद पंद्योप १. संतत काल कायमति सच्चरितं दिनदि दिनक्के वी ये नलेदंदु मिक्क नियमंगल नांतु विवेकबोष दोहं तवे कंतु मन्युगिदे सच्चरितं कुलचन्द्र देव सेबांत मुनीन्द्र रूजितयशोज्वल जंगमतीर्थरुद्भवम् ।। -धवला पु० २ प्रस्तावना पृ० ३ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य जीवी पेाडि भुवनकवीर उदयादित्य शासन कर रहे थे। तब भुयनकमल्ल ने 'शान्तिनाथ मन्दिर' के लिये उक्त कुलचन्द्र मुनि को नागर खण्ड में भूमि दान दिया। चूकि यह शिलालेख शक सं० १६६ (वि० सं० ११३१ सन् १०७५ है । अत: उक्त मुनि विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान थे। जैनलेख सं० भा०२ पृ०, २६४-६५ प्राचाग इनके पिता का नाम केशबराज और माता का नाम मल्लाम्बिका था। कवि का गोत्र भारद्वाज था। यह जंन ब्राह्मण थे। गुरु का नाम नन्दियोगीश्वर' और ग्राम का नाम पुरीकर नगर (पुलगिर) या। इनके पिता केशवराज और रेचण नाम के सेनापति ने, जो वसुधैक बान्धव के नाम से प्रसिद्ध था। वर्धमान नामक एक पुराण ग्रंथ के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था, किन्तु दुर्देव से उनका बीच में ही शरीरान्त हो गया, तब उस अन्य को आचाण्ण ने समाप्त किया। इस कवि की पार्श्वनाथ पुराण में, जो कविपार्श्व द्वारा सन् १२०५ में रचा गया हैप्रशंसा की है। इससे स्पष्ट है कि कवि पाचण्ण सन् १२०५ से पहले हुआ है। कवि ने अपने से पूर्ववतों कवियों को स्तुति करते हुए अगल कवि की (११८६) की भी प्रशंसा को है। इससे कवि ११८६ के बाद हुमा है । रेवण चमुपति कलचुरि राजा का मंत्री था। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि माहवमल्ल (११८१-११८३) के और नवीन हयशालवंश के वीर बल्लाल (११७२-१२१६) के समय में भी वह जीवित था। इससे कवि का समय ११७५ के लगभग जान पड़ता है । प्रस्तुत वर्षमान पुराण में महावीर तीर्थंकर का चरित वर्णित है । ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। इसकी रचना अनुप्रास यमक आदि शब्दालंकारों से युक्त और प्रौढ़ है। कवि की अन्य किसी कृति का उल्लेख नहीं मिलता। ब्रह्मशिव यह वत्सगोत्री ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम अग्गल देव था। यह कीर्तिवर्मा और आहव. मल्ल नरेषा का समकालीन था। पहले यह वैदिक मतानुयायी था। पश्चात उसे निःसार समझकर लिंगायत मतक! उपासक हो गया था। उस समय तक वह वेद, स्मृति और पुराण प्रादि ग्रन्थों का अध्ययन कर चुका था । परन्तु उसे इन ग्रन्थों से सन्तोष नहीं हुमा । लिंगायत मत को भी उसने यथार्थ नहीं समझा और पश्चात् उसने स्याद्वादमय जैनधर्म को ग्रहण कर सन्तुष्ट हो गया। इसका बनाया हुआ एक 'समय परीक्षा' नामक ग्रंथ है जिसमें शैव, वैष्णवादि मतों के पूराण ग्रन्थों तथा प्राचारों में दोष बतला कर जैनधर्म की प्रशंसा की है। इस ग्रंथ की कविता बहुत ही सरल पौर ललित है। यह कनड़ी भाषा का कवि है। समय परीक्षा से ज्ञात होता है कि यह संस्कृत का भी अच्छा विद्वान था । ग्रन्थ के पुष्पिका वाक्य से इसके गुरु का नाम वीरनन्दी मुनि जान पड़ता है--ति भगववर्हत परमेश्वर धरण स्मरण परिणतात:करण वीरनन्दि मुनिन्द्र चरण सरसीरुह-षट् परण-मिथ्या समय तीच तिमिर घण्डकिरणसकलागम निपुण-महाकवि ब्रह्म शिव विरचित समय परीक्षायां-" ये वीरनन्दी मेद्यचन्द्र विद्य के शिष्य जान पड़ते हैं। जो सन १९१५ में दिवंगत हए थे। यदि ये वीरनन्दि यही हैं । तो कवि का समय सन् ११२०-११२५ होना चाहिये । बालचन्द प्रध्यास्मी यह मूलसंघ, देशीयगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द अन्वय के विद्वान थे। इनके गुरु नयकीति ये जो गुणचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास शक सं० १०६६ सन् १९७७ में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को हुआ था। इनके भाई का नाम दामनन्दी था। अनेक शिलालेखों में इनको स्तुति के १. मदास के प्राच्य कोशालय के एक शिलालेख से मासूम होता है कि नन्दियोगीश्वर सन् १९८९ में मौजूद थे । २. शाके रचनवद्युपन्द्रमसि दुम्मख्या व (ख्य) संवत्सरे । वैशाखे घबले चतुदंपारिने बारे च सूरिमजे। पूर्वाहप्रहरे गतेल सहिते स्वर्ग जगामात्मवान् । विख्यातो नयकीति-देव मुनिपो राधान्त-चक्राधिपः ।।२३ -जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृ. ३७ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पद्य मिलते हैं। इनकी बनाई हुई ५ टीकाएं उपलब्ध है। सारत्रय - प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकय, परमात्मप्रकाश, और तत्वरत्न प्रदीपिका (तत्त्वार्थ सूत्रटीका) ये टीकाएं बड़ी सुन्दर और अध्यात्म विषय पर विस्तृत प्रकाश डालती है। प्राभृतत्रय की टीका के अन्त में निम्न गद्य पंक्ति दी है- इति समस्त संद्धान्धिक चक्रवर्ती श्रीनय कोतिनन्दन- विनेयजनानन्दन - निजरूचि सागरनन्दि परमात्मदेव सेवा सादितात्मस्वभाव नित्यानंद - बालचंद्र देव विरचिता वृत्तिः । कवि ने तत्त्वार्थसूत्र की 'तत्त्वरत्न प्रदीपिका' टीका कुमुद चंद्र भट्टारक के प्रतिबोध के लिये बनाई थी, ऐसा टीका में उल्लेख मिलता है। इनका समय सन् ११७० ईस्वी है । राजादित्य पद्यविद्याधर इनका उपनाम था। इसके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था। कोंडिमंडल के पूविन बाग' में इसका जन्म हुआ था। यह विष्णुवर्धन राजा की सभा का प्रधान पंडित था । विष्णुवर्धन ने ईस्वी सन् १९०४ से ११४९ तक राज्य किया है। कवि के समक्ष उसका राज्यभिषेक हुआ था। अपने आश्रयदाता राजा की इसने एक पद्य में बहुत प्रशंसा की है। और उसको सत्यवक्ता, परहित चरित, सुस्थिर, भांगी, गंभीर, उदार, सच्चरित्र अखिल विद्यावित और भव्य सेव्य बतलाया है। यह कवि गणित शास्त्र का बड़ा भारी विद्वान हुआ है । कर्णाटक कवि चरित के लेखक के अनुसार कनड़ी साहित्य में गणित का ग्रंथ लिखने वाला यह सबसे पहला विद्वान था । इसके बनाये हुए व्यवहार गणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररत्न, जैनगणित सूत्रटीका उदाहरण, चित्रह सुगे और लीलावती ये गणित ग्रन्थ प्राप्य हैं। ये सब ग्रन्थ प्रायः गद्य-पद्यमय हैं। इसका व्यवहार गणित नाम का ग्रन्थ बहुत अच्छा है । इसमें गणित के त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, चक्रवृद्धि मादि सम्पूर्ण विषय हैं और ये इतनी सुगम पद्धति से बतलाये गये हैं कि गणित जैसा कठिन और नीरस विषय भी सरस हो गया है। कवि ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से इसे पांच दिन में बनाकर समाप्त किया था। कवि के गुरु का नाम शुभचंद्र देव था । संभवतः ये शुभचंद्र वही हैं। जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४३ में किया है और जिनको मृत्यु ईस्वी सन् १९२३ में बतलाई गई है। इससे कवि का समय सन् १११५ से ११२० तक जान पड़ता है । कीतिर्मा यह चालुक्य वंशीय ( सोलंकी ) महाराज त्रैलोक्य मल्ल का पुत्र था । त्रैलोक्यमल्ल ने सन् १०४४ से १०६८ तक राज्य किया है। इस के चार पुत्र थे विक्रमांकदेव ( १०७६ से १९२६), जयसिंह, विष्णुवर्धन, विजयादित्य और कीर्तिर्मा । कीर्तिवर्मा त्रैलोक्य मल्ल की जैनधर्म धारण करनेवाली केतलदेवी रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । केतलदेवी ने सैकड़ों जैनमन्दिर बनवाये थे। उसके बनवाए हुए मन्दिरों के खंडहर और उनके शिलालेख अब भी कर्नाटक प्रान्त में उसके नामका स्मरण कराते हैं। कीर्तिवर्मा के बनाये हुए ग्रन्थों में से इस समय केवल एक 'गोवैद्य' ग्रन्थ प्राप्त है। इसमें पशुओं के विविध रोगों का और उनकी चिकित्सा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इससे जान पड़ता है कि वह केवल कवि ही नहीं वंद्य भी था । गोवैद्य के एक पद्य में उसने अपने लिये कीर्तिचन्द्र, वैरिकरिहरि, कन्दर्प मूर्ति, सम्यक्त्व रत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, वैद्य रत्नपाल, कविताब्धिचन्द्र कीर्तिविलास आदि विशेषण दिये हैं। 'वैरिकरिहरि' विशेषण उसके बडा वीर तथा योद्धा होने को सूचित करता है । उसने अपने गुरू का नाम देवचन्द नि बतलाया है। श्रवण वेलगोल के ४० में शिलालेख में राघव पाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रुतकीर्ति त्रैविद्य के समकालीन जिन देवचन्द की स्तुति की है संभवतः वे ही कीर्तिवर्मा के गुरु हों अथवा अन्य कोई देवचन्द । इनका समय सन् ११२५ ई० है । १. व्यवहार गणित के प्रत्येक पुष्पिका मद्य वाक्य से कवि के गुरु के नाम का पता चलता है- इति शुभचन्द्रदेव योर पादारविन्दमत्त मधुक रायमानमानसानन्दित सकलगति तत्वविलासे विनेयजन नुते श्री राज्यादित्य विरचिते व्यवहार मरिणते - इत्यादि । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य पण्डित बोप्पण बोप्पण पण्डित-सूजनोत्तंस इसका उपनाम था। याच्चपण, पार्श्व, केशिराज प्रादि कवियों ने इसकी बहुत प्रशंसा की है । केशिराजने इसका 'सूकविसमाजनुत, कह कर उल्लेख किया है और इसकी ग्रन्थ पद्धति को लक्ष्यभून मान कर अपनी रचना की है। इससे जान पड़ता है कि यह अनेक ग्रन्थों का रचयिता होगा। परन्तु इस समय उसकी केवल दो छोटी-छोटी रचनाएं ही मिलती हैं। जिनमें से एक तो 'गोम्मटेश्वर, को स्तुति है और दूसरी ' निर्वाणलक्ष्मी पति नक्षत्रमालिका, नाम की कविता है। गोम्मटेश्वर की स्तुति में कनड़ी के २७ पद्य है जो धवण लगुलके ८५ (२३४) ३ शिलालेख में अंकित है। 'निर्वाणलक्ष्मीपति नक्षत्रमालिका में भी २७ कनड़ी पद्य हैं । कवि ने मोम्मटेश्वर की स्तुनि सैद्धान्तिक चरेश्वर नयकाति ने शिष्य ग्राध्यात्मिक वालचन्द्र की प्रेरणा से रची थी। इससे स्पष्ट है कि कवि बालचन्द्र के समकालीन था। श्रवण बेलगुल का ८५ वां शिलालेख शक संवत् ११०२ सन् १९८० का लिगा हुआ है । अतः कबि का समय १२वों शताब्दी है। जैन लेख सं० भा०११.१६६ धीरदन्दी मूलमंघ देशोयगण के प्राचार्य मेषचन्द्र विद्य देव के पात्मज और शिष्य थे, जिनकी नाविन चावी, सिद्धान्तेश्वर-शिखामणि विद्य देव उपाधियां थीं। जैसा कि प्राचारसार के निम्न प्रशस्ति वाक्य में प्रकट है:- . बैदग्धश्री वधूटी पतिरतुलगुणालंकृतिमेघचन्द्रस्त्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिमतो भेदने वनपातः ।। संद्धान्तिव्यूहचड़ामणिरत्नुफलचिन्तामणि जनामा । योऽभत सोजन्यरुन्द्रश्रियमवति महावीरनन्दी मुनीन्द्रः ।। -प्राचारसार १२, ४२ प्राचार्य वीरनन्दी चतुरता रूपी लक्ष्मी के स्वामी हैं, अनुपम गुणों से अलंकृत हैं। मेषचन्द्र विद्यदेव के प्रात्मज-पुत्र हैं, और कामदेव रूपी पर्वत को भेदन करने लिये वच के समान हैं, सिद्धान्त शास्त्रज्ञों के समूह में चड़ामणि है, और पृथ्वी-मंडल के लोगों को इच्छित फल देने वाले उत्तम चिन्तामणि हैं। ऐसे थी वीरनन्दी मुनि सज्जनता रूप सघन लक्ष्मी को सदा रक्षा किया करते हैं। प्रस्तुत करनन्दी अपने समय के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने अपने प्राचारसार में अपने गुरु मेघचन्द्र की बड़ी प्रशंसा की है। चंकि मेघचन्द्र विद्यदेव का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० संवत् ११७२) में मगसिरसुदी चतुर्दशी वहस्पतिवार के दिन धनुलग्न में हुमा था। जैसा कि श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ४७ के निम्न वाक्य से प्रकट है: "सकवर्ष १०३७ नेय मन्मथसंवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ वृहबार धनुलग्नद पूर्वाण्हदारुषलिगेयप्पा गलु श्रीमूलस हद देसियगणद पुस्तक गच्छ थी मेघचन्द्र विद्यदेव तम्मवशान कालमनरिदु पल्यंकाशन दोलि प्रामभावनेयं भाविमुत्तं देवलोकक्के सन्दराभावनेयेन्तप्पदेन्दोडे।" अनन्तबोधात्मकमास्मतत्त्वं निधायचेतस्यपहाय हेयं । विद्य ना मा मुनि मेघचन्द्रो दिवंगतो बोधनिधि विशिष्टाम ॥ इनके प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र नाम के थे। इन्हीं प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देवने महा प्रधान दण्ड नायक गंगगज द्वारा मेषचन्द्र की निषद्या का निर्माण कराया था। प्रवचनसारादि ग्रन्थों के टीकाकार प्राचार्य जयसेन ने पंचास्ति काय की दूसरी गाथा को टीका में प्राचार्य १. मूलसंघ कृत पुस्तक गच्छ देशीयोद्यङ्गणाधिपमुताकिक चक्रवर्ती। सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेषचन्द्रस्त्रविद्य देव इति सविबुधाः स्तुवन्ति ॥२६॥ धवरण. अन ले. सं. भा. १ ले.नं०४२१०१८ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ वीरनन्दी के 'श्राचारसार' के चतुर्थ अधिकार के ६५, ९६ नं० के दो श्लोक उद्धृत किये हैं । और डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की प्रस्तावना में प्राचार्य जयसेन का समय ११५० ई० के बाद विक्रम की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित किया है। इससे स्पष्ट है कि श्राचार्य जयसेन वीरनन्दी के ही समकालीन थे; क्योंकि श्राचारसार के मूल रचे जाने के कुछ समय बाद आचार्य वोरनन्दी ने ११५३ A.D. (वि० सं० २२१०) में उस पर एक कनड़ी टीका बनाई। इससे प्राचार्य वीरतन्दी का समय वि० को १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। वे १३वीं शताब्दी में १० वर्ष जीवित रहे हैं। क्योंकि कन्नड टीका उस समय रची गई है। इनके शिष्य नेमिनाथ ने प्राचार्य सोमदेव के 'ती' बनाई है। 'आचारसार' संस्कृत भाषा का अपूर्व ग्रन्थ है । इसमें श्रवणों मुनियों की क्रियाओं का उनके श्राचारविचार का वर्णन किया गया है। साथ ही अन्य आवश्यक विषयों का भी समावेश किया गया है । इस ग्रन्थ में 'मूलाचार' के समान १२ अधिकार दिये हैं, मुलाचार और आचारसार का तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि वीरनन्दी ने मूलाचार को सामने रखकर इसकी रचना की है। आदि अन्त मंगल और प्रशस्ति को छोड़कर शेष सब श्लोकों का मूलाचार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध जान पड़ता है। हां, विषय वर्णन की कमवद्धता तो नहीं है । मूलाचार के १२व पर्याप्त अधिकार का वर्णन आचारसार के तीसरे चौथे सर्ग में पाया जाता है । इसकी तुलना मैंने जैन सि० भा० भाग ६ की प्रथम किरण में दी हुई है । ग्रन्थ पर वीरनन्दी की कन्नड़ टीका भी है, जो अभी प्रकाशित नहीं हुई । - गणधर कोति यह मनि गुजरात के निवासी थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा प्रशस्ति में निम्न प्रकार दी है सागर नन्दी, स्वर्णनन्दी, पद्मनन्दी, पुष्पदन्त कुवलयचन्द्र और गणधर कीर्ति । यह आचार्य पुष्पदन्त के प्रशिष्य और कुवलयचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने किन्ही सोमदेव के प्रतिबोधनार्थ, गूढ अर्थ और संकेत को दूरने वाली सोमदेवाचा की 'ध्यान विधि' नामक ४० पद्यात्मक ध्यान ग्रन्थ पर टीका लिखी है । टीका का नाम श्रध्यात्म तरंगिणी है। इसमें भगवान आदिनाथ की ध्यानावस्था का वर्णन करते हुए ध्यानों का स्वरूप और विधि का विधान किया है। इस टीका का नाम अध्यात्मतरंगिणी है । लेखकों की कृपा से मूलग्रन्थ का नाम भी अध्यात्म तरंगिणी हो गया है । गणधर कीर्ति ने वाट ग्राम ( बटपद्र ) जहां वीरसेनाचार्य ने धवला टीका लिखी थी । वसति' नाम का जैनमन्दिर था । वहीं पर गणधर कीर्ति ने यह टीका विक्रमसंवत १९८६ सन् पंचमी रविवार के दिन गुजरात के चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह के समाप्त की है- जैसा उसके निम्न पद्म से प्रकट है : एकादश शताकीर्णे नवाशीत्युतरे परे । संवत्सरे शुभे योगे पुष्य नक्षत्रसंज्ञके ॥१७ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रषौ विने । सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभूतकीर्ति विपश्चितः ।। १८ निस्त्रिशत जिताराति विजयश्री विराजनि । जयसिंहदेव सौराज्ये सज्जनानन्व वायनि ।। १६ १. श्री सोमसेन प्रतिबोधनार्थं धर्माभिधानोच्चयशः स्थिरः । गूढार्थसन्देहहरा प्रशस्ता टीका कृताध्यात्म तरङ्गिणीयम् । वहां शुभतुरंग देव क ११३२ में चैत्र शुक्ल राज्य काल में बनाकर भट्टवसरि यह दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने दामनन्दी के पास से प्रायों के गुह्य रहस् Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य को जानकर 'पायज्ञानतिलक' की रचना की है। यह प्रश्न विद्या से सम्बन्ध रखने वाला महत्वपूर्ण प्रत्य है। इसमें प्रश्नों के शुभाशुभ फल को जानने और बतलाने की कला का निर्देश है। अन्य की गाथा संख्या ४१५ है। पौर निम्न २५ प्रकरण हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-१ आयस्वरूप, २ पातविभाग, ३ मायावस्था, ४ प्रहयोग पच्छा कार्यान, भाऽशुभ, ७ लाभालाभ, ८ रोगनिदेश, ६ कन्या परीक्षण १० भूलक्षण, ११ गर्भपरिज्ञान, १२ विवाह, १३ गमनागमन, १४ परिचयज्ञान, १५ जय-पराजय, १६ वर्षालक्षण, १७ अर्धकरण्ड, १५ नष्ट परिज्ञान १९ तपोनिर्वाह परिज्ञान, २० जीवितमान, २१ नामाक्षरोद्देश, २२ प्रश्नाक्षर-संख्या, २३ संकीर्ण, २४ काल, २५ और चऋपूजा। सन्थ पर ग्रन्थकार की बनाई हुई स्वोषज्ञ एक संस्कृत टीका है, उससे ही ग्रन्थ के विषय की जानकारी होती है। संभवतः ग्रन्थकार पहले अजैन रहे हों, बाद में जैन संस्कारों से संस्कृत होकर जैन धर्म में दीक्षित हए हों और दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य हए हों। जिन दामनन्दी का उन्होंने अपने को शिष्य बतलाया है वे वही जान पड़ते हैं जिनका श्रवण बेलगोल के लेख नं ५५ (६६) में उल्लेख है, जिन्होंने महावादी विष्णु भट्टको बाद में पराजित किया था-पीस डाला था, इसी से उसे 'विष्णभट्र-घरट्र' लिखा है। ये दामनन्दी शिलालेखानुसार उन प्रभाचन्द्राचार्य के सघर्मा (साथी अथवा गाभाई थे जिनके चरण धाराधिपति भोज द्वारा पूजित थे। और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दी पाचार्य का मी लिखा है जिन्होंने कूवादि दैत्य धर्जटि को बाद में पराजित किया था। यदि यह कल्पना सही है तो उनके शिष्य का समय १२वीं शताब्दी हो सकता है। नाग चन्द्र नाग चन्द्र-इनका दूसरा नाव अभिनव पम्प है। भारती कर्णपूर, कविता मनोहर, साहित्य विद्याधर, साहित्य सर्वज्ञ, और सृवित मुक्तवतंस ग्रावि मनेक कवि के नाम अथवा विरुद थे। यह विद्वान होने के साथ धनवान भी था । इसने विपुल धन लगाकर 'मल्लिनाथ' का एक विशाल जिनमन्दिर बीजापुर में बनवाया था। जो इसका निवास स्थान था। उसी समय नागचन्द्र ने 'मल्लिनाथ पुराण' की रचना की थी। जो १४ आश्वासों में वर्णित है। प्रन्थ गद्य-पद्य मयं चम्पू शैली में लिखा गया है । कथन शैली मनमोहक है और सरस है। इनके गुरु वक्र गच्छ के विद्वान मेघचन्द्र के सहाध्यायी बालचन्द्र थे। बालचन्द्र नाम के कई मनि हो गए है जिनमें एक पुस्तक गच्छ भुक्त नयकीति के शिष्य थे। और प्राकृत ग्रन्थों के कनड़ी टीकाकार होने से आध्यात्मिक बालचन्द्र कहलाते हैं। ये सन् ११९२ तक जीवित थे। दूसरे बालचन्द्र वक्र गच्छ के थे और वीरनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्ती के गुरु मेघचन्द्र (पूज्यपाद कृत समाधि शतक या समाधितंत्र के टीकाकार) के सहाध्यायी थे। यही दूसरे बालचन्द्र के गुरु थे। कवि की दूसरी कृति रामायण अथवा पम्प रामायण है । यह बहुत ही सुन्दर एवं सरस ग्रन्य है। इसका सभी अध्ययन करते हैं। कर्नाटक देश में इसका बड़ा प्रचार है। यह ग्रन्थ भी गद्य-पद्य मय है। जिन मुनि तनय और जिनाक्षर माला ये दो ग्रन्थ भी इनके बनाये हुए कहे जाते हैं परन्तु उनकी रचना साधारण और महत्वहीन होने के कारण उक्त कवि की कृति नहीं मालूम पड़ती। संभव है उनके रचयिता कोई दूसरे ही कवि हों । इनका समय सन् ११०५ (वि० सं० १२४०) के लगभग है।। १. जं दामनन्दि गुरुणोऽमरायं अयाण आरिणयं गुज्डं। तं आयरणाणतिलए वोसरिणा भन्नए पयकं ॥" २. "श (म) वीयशास्त्रसारेण यत्कृत जनमंहनं । तदाय ज्ञान तिलकं स्वयं विवियते मया ॥" आयशान तिलक Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ बैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ गुणभद्र गुणसत-मुलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ पौर कोण्ड कुन्दात्वय के दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीति. सिद्धान्तदेव थे और प्रशिध्य भानुकीति, जिन्हें शक सं० १०६५ के विजय संवत् में होयसल वंश के बल्लाल नरेश ने पार्व ब्रतीन्द्र को चौवीसवें तीर्थकरों की पूजन हेतु 'मारहल्लि' नाम का एक गाँव दान में दिया था। अतएव इनका समय वि० संम्बत् १२३० है। और गुणभद्र का समय इससे ३० वर्ष पहले माना जाय तो भी विक्रम की ११ वीं शताब्दी का अन्तिमचरण हो सकता है।' (देखो, जैनलेख सं० भा० ११०३८५) कर्णपार्य-के कण्णय, कर्णय, और कण्णमय मादि नामान्तर हैं। ये नाम इसके ग्रन्थों में जगह-जगह पाये जाते हैं। किले कल दुर्ग के स्वामी गोवर्धन या गोपन राजा के विजयादित्य, लक्ष्मण या लक्ष्मी घर वर्षमान और शान्ति नाम के चार पुत्र थे। इनमें से कवि लक्ष्मीधर का प्राश्रित था। इस कवि के बनाये हए नेमिनाथ पुराण, वीरेश चरित और मालती माधव ये तीन ग्रन्थ बताये जाते हैं। परन्तु इस समय के बल नेमिनाथ पुराण ही उपलब्ध है। इसमें २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित वर्णित है। ग्रन्थ में १४ पाश्वास हैं और वह चम्पू रूप है। प्रशस्ति से ज्ञात होता कि उने कवि ने लक्ष्मीधर की प्रेरणा से बनाया है। इसमें लक्ष्मीधर राजा की और कृष्ण को समता बतला कर स्तुति की है । लक्ष्मीधर के गुरु नेमिचन्द्र मुनि थे, और कवि के गुरु कल्याण कीति थे। कल्याण कीति मलधार गणाचन्द्र के शिष्य और मेषचन्द्र विद्यदेव के-जो सन् १११५ में मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। सतीर्थ या सहपाठः । गुणचन्द्र भुवनकमल्ल राजा ११६६ से १०६७ तक ) के समय में उनके गुरु थे। कविता सुगम और ललित है। रुद्रभट्ट (१२८० अण्डव्य (१२३५) मंगरस १५०६) और दोडुय्य प्रादि कवियों ने इसकी प्रशसा की है। (कर्नाटक जैनकवि) श्रुतकीति-(पंचवस्तु व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता)नान्द संघ की गुर्वावली में श्रुतकीर्ति को वैयाकरण भास्कर लिखा है। श्रुतकीति की गुरु परम्परा ज्ञात नहीं है। और उक्त व्याकरण ग्रंथ में कर्ता का नाम नहीं है। अन्य के पांचवे पत्र में श्रुतकीति नाम पाया है। जिससे मालम होता है कि वे व्याकरण ग्रंथ के रचयिता हैं: "याम-दर-वर्ण-कर-चरणादीनां संधीनां बहूनां संभवत्वात् संशयानः शिष्यः स प्रच्छतिस्म-कस्सन्धिरिति । सज्ञास्वर प्रकृतिलज विसर्ग जन्मा सन्धिस्तु इतीत्य मिहाहरन्ये । तत्र स्वर प्रकृति हल्ज विकल्पतोऽस्मिन् संधि विघा कथयति थतकोतिरायः।" कनड़ी भाषा के 'चन्द्रप्रभ चरित' नामक ग्रंथ के कर्ता प्रगल कवि ने श्रुतकीर्ति को अपना गुरु बतलाया है। "इदु परमपुरुनाथकुलभूभृत समुद्भूत प्रबचन सरित्सरिन्नाथ-श्रुतकीर्ति विद्य चक्रवर्ति पद पानिधान दीपति श्रीमदगल देव विरचिते चन्द्रप्रभचरिते-" इत्यादि । यह चन्द्रप्रभ चरित शक सं० १०११ (वि.सं. ११४६) में बन कर समाप्त हुआ है। अतएव यह श्रुतकीति विद्य चक्रवर्ती विक्रम की १२ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वृत्ति विलास वृत्ति विलास--यह अमरकीर्ति के शिष्य थे। इसके दो ग्रंथों का धर्म परीक्षा और शास्त्र सार का-पता चलता है। धर्म परीक्षा, अमितगतिकृत संस्कृत धर्म परीक्षा के आधार से बनाई है। इसको रचना बहुत ही सरल और सुन्दर है । इसके गद्य-पद्य मय दश प्राश्वास हैं । प्रारम्भ में वर्धमान स्वामी की स्तुति की है, फिर सिरपरमेष्ठी, यक्ष यक्षिणी और सरस्वती को नमस्कार कर केवलियों से लेकर वितीय हेमदेव तक गुरुमों का स्मरण किया है । ग्रंथ के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य दिया है:--विनमदमरमुकुटतटघटितमणिगणमरीचि मजरी पुजरंजित १ विद्य. श्रुतकीख्यिो वैयाकरण भास्करः। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, भाचार्य ३३६ पादरविन्द भगवदर्हत्यरमेश्वरवदनविनिर्गत श्रुताम्भोधिवर्द्धन सुधाकरे श्रीमदमरकोतिरावल्लवतोश्वरचरण सरसीरह षट्पदवृत्तिविलासविरचिते धर्मपरीक्षा ग्रंथे-'आदि गद्य दिया है। दुसरे ग्रंथ शास्त्रसार का कुछ भाग 'प्राक् काव्यमाला' नाम की कनड़ी-ग्रंथमाला में प्रकाशित हया है। परंतु पूरा ग्रंथ इस समय प्राप्य नहीं है। कवि ने अपने ग्रंथ में अपने समय आदि का कृछ भी परिचय नहीं दिया है। परत कवि ने जिन शुभकीति व्रती, सैद्धान्तिक माघनन्दि यति, भानु कीर्तियति, धर्मभूषण, अमर कीति (कविका गुरू),अभयसूरी, वादीश्वर आदि जैनाचार्यों का स्तवन किया है। उनके समय का विचार करने से इसका समय १९६० के लगभग निश्चित होता है। उक्त प्राचार्यों में से शुभकीति १११५ में दिबंगत होने वाले मेषचन्द्र के समकालीन थे। माघनन्दि सैद्धान्तिका समय ११६० है भानुकीर्ति ११६३ में समाधिस्थ होने वाले देवकीति के सहपाठी थे। अभयसरि, बल्लाल नरेश और चारुकीर्ति पण्डित के समकालीन थे। क्योंकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि अभयसरिने इन दोनों को एक बड़ी भारी व्याधि से मुक्त करके श्रवण बेलगोल में निवास कराया था। वल्लाल विष्णवर्धन राजा का भाई था और चारकीर्ति श्रुतकीति का पुत्र था। श्रवणबेलगुल के जैन गुरुग्रां न 'चारुकाति पण्डिताचार्य' का पद १११७ के अनंतर धारण किया था। इससे मालम होता है कि यह चारुकाति श्रवण बेलगोल का प्रथम चारुकीति पण्ठित होगा। श्रवण बेलगोल के १११ वें शिलालेख में विशालकोति के शिष्य शुभकाति, शुभकीति के शिष्य धर्मभूषण और धर्मभूषण के शिष्य अमरकीति बतलाये गये हैं। और शुभ कोति १११५ में दिवगत होने वाले मेघचन्द्र के समकालीन हैं । इसलिये शुभकीति के शिष्य धर्मभूषण और प्रशिष्य अमरकोति का समय ११५० के लगभग होना चाहिये। शिलालेख की यह गुरु परम्परा धर्मपरीक्षोल्लिखित मुरुपरम्परा से बराबर मिलती है। किन्तु यह शिला लेख शक १२६५ परिघाविसंवत्सर का है। अतः समय विचारणीय है। देखो, कर्नाटक जैन कवि छत्रसेन-काष्ठासंघ माथरान्वय के विज्ञान प्राचार्य थे । जो उच्छण नगर में अपने व्याख्याना से समस्त सभाजनों को सन्तुष्ट किया करते थे । उच्छण नगर में उस समय परमारवंशीय मंडलीक (मदनदेव) नाम के राजा का पौत्र चामुण्डराज का बिजयराज पुत्र स्थलिदेश का शासक था । उक्त नगर में उस समय भूपण नामक एक जैन धावक ने प्रादिनाथ का एक मनोहर जिन मन्दिर बनवाकर उसमें वषभनाथ (आदिनाथ) की प्रतिमा को वि० सं०११६६ वैशाख सुदी तीज सोमवार सन् ११०९ई० को प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई थी । अतः प्रस्तुत छत्रसेनाचार्य का समय ईसा की११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वीं शताब्दी का पूर्वाध है। सागरनन्दी सिद्वान्तदेव सागरनन्दी सिद्धान्त देव-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्डकुन्दान्बय कोल्हापुर सामन्त बसदि से प्रतिबद्ध माधनन्दि के प्रशिष्य और शुभचन्द्रविद्यदेव के शिष्य थे। रेचिरस सेनापतिने १२०० ईस्वी ने लगभग श्रवण बेलगोल में शान्तिनाथ का मन्दिर बनवाया था। कलचुरि कुल के सचिवोत्तम रेचरस ने बल्लालदेव के चरणों में प्राधय पाकर आरसिय केरे में सहस्त्रकूट जिनालय की स्थापना की। भगवान को अष्टविधपूजा, पुजारी और सेवको की आजीविका तथा मन्दिर की मरम्मत के लिए राजा बल्लाल ने 'हन्दर हल्लु' ग्राम प्राप्त करके उक्त सागर मान्टि को प्रदान किया। रेचस द्वारा स्थापित इस सहस्त्रकूट जिनालय के लिए जैनों द्वारा एक करोड़ रुपया इक्ठा १. यो माथुरान्वय नभस्थलतिम्ममानोर्व्याख्यानरंजितसमस्तसभाजमस्य । श्रीच्छामेन सगुरोश्चरणारविंद सेवापरोभवश्न्यमनाः सदेव ॥१॥ -अ\णा शिलालेख अजमेर म्यूजियम् २. विक्रम संवत् ११६६ वैशाख सुदी ३ सोमे वृषभनाथस्य प्रतिष्ठा । धीवृषभनाथ धाम्नः प्रतिष्ठिते भूषणेन बिम्बमिदं उच्छक नगरेस्मिन्निह जगतो वृषभनाथस्य ॥२६ अर्थणालेख वर्ष सहस्र याते पटू पष्ठयुत्तर शतेन संयुक्त । विक्रम भानोः काले स्थलि विषय भवति सति विजय राज्ये Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ किया गया, उससे मन्दिर तथा उसको चहार दीवार बनवाई गई। इस जिनालय के निर्माण में ७ करोड़ लोगों की सहायता होने से इसका नाम 'एल्कोटि जिनालय' रखा गया । पारसिय केरे के लोगों ने शान्तिनाथ का एक मन्दिर और बनवाया था। उसके प्रबन्ध के लिये दान दिया था। जैन लेख सं०भा० ३ पृ० ३११ महनन्दि माहनन्दि-मूलसंघ देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य माधनन्दि सिद्धान्त देव के शिष्य थे। जो रूप नारायण वसदि के आचार्य थे। शक सं० १०७३ (सन् ११५१) में कामगाबुण्ड के द्वारा बनवाए हुए मन्दिर के, जो पुल्सफपुर कोल्हापुर) में रूपनारायण वसदिके नाम से प्रसिद्ध है। पार्श्वनाथ भगवान को प्रष्ट प्रकारी पूजा के लिये, मन्दिर की मरम्मत तथा मुनिजनों के आहारार्थ विजयादित्यदेव ने अपने मामा सामन्त लक्ष्मण को प्रेरणा से भूमिका दान दिया। इस कारण अर्हनन्दि का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का मध्यकाल है। -जैनलेख सं० भा० २१०९६ माइल्ल धवल यह द्रव्य स्वभाव नयचक्र के कर्ता माइल्ल धवल हैं। जो देवसेन के शिष्य थे। उन्होंने नयचक्र के कर्ता देवसेन गरु को नमस्कार किया है और उन्हें स्यात् शब्द से युक्त सुनय के द्वारा दुर्नय रूपो दैत्य के शरीर का विदारण करने में श्रेष्ठ वीर बतलाया है । यथा--- सियसदसुणयदुग्णयदणुबेह-विवारणेक्कवरवीरं । तं देवसेणदेवं णयचक्कयरं गुरु णमह ॥ ४२३ ग्रंथ कर्ता ने कुन्द कुन्दाचार्य के शास्त्र से सार ग्रहण करके अपने और दूसरों के उपकार के लिए द्रव्य स्वभाव नयचक्र की रचना की है। इस प्रन्थ में ४२५ गाथाएँ है । ग्रन्थ निम्न १२ अधिकारों में विभाजित है जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओं से स्पष्ट है :-- गुणपज्जाया दवियं काया पंचत्यि सत्त तच्चाणि । भपणे विणव पयत्या पमाण-णय तह य णिक्नेवं ।। दसणणाणचरिते कमसो उवयारभेवइयरेहि। बव्वासहावपयासे अहियारा बारसवियप्पा ॥६ गण, पर्याय, द्रव्य, पंचास्तिकाय, साततत्त्व, नौ पदार्थ, प्रमाण, नय, निक्षेप और उपचार तथा निश्चय नय के भेद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र । इन बारह अधिकारों में द्रव्यानयोग का कथन समाविष्ट हो जाता है। क्योंकि जैन सिमान्त में छह द्रव्य पांच अस्तिकाय, सप्ततत्व, और नौ पदार्थ हैं। गण और पर्यायों काधार द्रव्य है और प्रमाण नय निक्षेप ज्ञेयों के जानने के साधन हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं। इस तरह इस नयचक्र में सभी शेयों का कथन किया गया है। माडल धवल ने ४२०वीं गाथा में लिखा है कि दोहों में रचित शास्त्र को सुनते ही शुभंकरने हंस दिया पौर बोला-इस रूप में यह प्रन्य शोभा नहीं देता, गाथाओं में इसकी रचना करो। सुणिऊण बोहसस्थं सिग्ध हसिऊण सहकरो भणः । एस्पण सोहा अस्थो गाहाबंधेण तं भणह ॥४२० पन्य कती ने इस दोहा बद द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र को कब किसने और कहां बनाया, इसका कोई उल्लेखनहीं किया । द्रव्य स्वभाव प्रकाय को दोहामों में रचा हुआ देखा, और उसे माइल्ल धवल ने गाथा बद्ध किया। वध्वसहावपयासं दोहयबंधेण प्रासि जं विठ्ठ। संगाहावंधेण रइयं माइल्ल धवलेण ॥४२४ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आजार्य समय ३४१ ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । यतः यह निश्चय करने में कठिनाई होती है कि यह ग्रन्थ कब और कहाँ रचा गया । पुरातात्विक, व लेखादि सामग्री भी उपलब्ध नहीं है । अतः ग्रन्थ के अन्तः परीक्षण द्वारा इस समस्या को सुलझाने का यत्न किया जाता है। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र में अनेक ग्रन्थकारों के पद्यों को उक्तं च वाक्य के साथ उद्धत किया गया है। और विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान पं० आशाधर जी द्वारा इष्टोपदेश टीका का निर्माण सं० १२८५ से पूर्व हो गया था, क्योंकि सं० १२८५ में रने जाने वाले जिन यज्ञकल्प को प्रशस्ति में इष्टोपदेश टीका का उल्लेख है । इष्टोपदेश के २२ पद्य की टीका के अन्तर्गत द्रव्य स्वभाव प्रकाश नयचक्र की ३४६ वीं गाथा उद्धत है। गहियं तं सुप्रणाणा पच्छा संवेयणेण भाविज्जा | जो हु सुय मवलंब सो मुज्झइ अप्पसम्भावे ॥१४६॥ चूंकि श्राशावर १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं । अतः द्रव्य स्वभावप्रकाश की रचना सं० १२८५ से पूर्व हुई है। वह उसके बाद की रचना नहीं है । एकत्व सप्तति के आदि प्रकरणों के कर्ता मुनि पद्मनन्दि है। उनकी एकत्व सप्तति के पद्म अनेक विद्वानों ने उद्धृत किये हैं। एक सप्तति के दो पचों को मलवारी देव ने नियमसार की टीका में (गाथा ५१ - ५५ में) तथा चोक्तमेकत्वसप्तती नामोल्लेख के साथ एकत्व सुप्तति का ७६ वां पद्म, और १००व गाथा की टीका में ( ३६-४१) पद्यों को उद्धृत किया है। पद्मप्रभ मलधारी देव का स्वर्गवास वि सं० १२४२ में हुआ था । अतः पद्मनन्दि की एकत्व सप्तति सं० १२४२ से पूर्व बनकर प्रचार में आ चुकी थी । इस एकत्व सप्तति की एक कनड़ी टीका है जिसके कर्ता प्रधनन्दिवती है जिनकी ३ उपाधियाँ पाई जातो हैं। पंडित देव, व्रती और मुनि | यह शुभचन्द्र राद्धान्त देव के प्रय शिष्य थे और उनके विद्या गुरु थे कनकनन्दि पण्डित | पद्मनन्दि मुनि ने अमृतचन्द्र की बचन चन्द्रिका से प्राध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था और निम्बराज नृपति के सम्बोधनार्थं एकत्व सप्तति की कनड़ी वृत्ति रची थी।" प्रस्तुत निम्बराज शिलाहार वंशीय गण्डरादित्य नरेश के सामन्त थे । उन्होंने कोल्हापुर में अपने अधिपति के नाम से 'रूपनारायण वसदि, नामक जैन मन्दिर का निर्माण कराया था । तथा कार्तिक वदि ५ शक सं० १०५८ ( वि० सं० ११६३ ) में कोल्हापुर में मिरज के आस-पास के ग्रामों का आपने दान दिया था। एकत्वसप्तति के कर्त्ता पद्यनन्दि और कनड़ी वृत्ति के कर्त्ता पद्मनन्दि व्रती दोनों भिन्न भिन्न विद्वान हैं । पद्मनन्दि पंचविशतिका के कर्ता पद्मनन्दि विक्रम की १२वीं के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं। अतः द्रव्यस्वभाव प्रकाश नयचक्र के कर्ता माइल्ल धवल १२वीं शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान होना चाहिये । कुमुदचन्द्र कुमुदचन्द्र नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य हो गए हैं। उनमें कल्याण मन्दिर स्तोत्र के रचयिता भिन्न कवि हैं । १. श्री धनन्दिवृति निर्मिते यम् एकरवसप्तत्यखिलार्थ पूर्तिः ॥ वृत्तिश्विरं निम्यनृप प्रबोधलब्धात्मवृत्ति जंयतां जगत्याम् । स्वस्ति श्री चन्द्रराद्धान्तदेवाप्रशिष्ये कनकनन्दिपण्डितवास्मि विकसितकुमुदानन्द श्रीमद अमृतचन्द्र चन्द्रिकोन्मीलितने त्रोत्पलावलोकिताशेषाध्यात्मतत्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमज्जैनसुधाव्धिवर्धनकरा पूर्णेन्दुराराति वीर श्रीपतिनिम्बराजावबोधनाय कृतकत्वसप्ततेव' सिरियम् - तज्ज्ञाः संप्रवदन्ति संततमिह श्रीपद्मनन्दि व्रती, कामध्वंसक इत्यलं तदमृत तेषां वचरसर्वथा अंग्रेजी प्रस्तावना पद्मनन्दि पंचविशति पु० १७ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पाठ करते चाप दिगम्बर पद्यानुवाद कल्याण मन्दिर स्तोत्र पार्श्वनाथ का स्तवन है। इस का आदिवाक्य 'कल्याण मन्दिर' से शुरु होने के कारण यह स्तोत्र कल्याणमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। प्रस्तुत स्तवन में ४४ पद्य हैं। उन में ४३ पद्य वसन्ततिलका छन्द में और अन्तिम पद्य पार्यावृत्त में हैं। इसमें तेवीसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। यह स्तवन दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में माना जाता है। यद्यपि दिगम्बरों में इस स्तोत्र की बड़ी भारी मान्यता है। सभी स्त्री पुरुष बालक वालिकाएं इसका नित्य पाठ करते देखे जाते हैं। अनेकों को यह स्तवन कण्ठस्थ है। और अनेकों को पं०वनारसीदास कृत हिन्दी पद्यानुवाद कण्ठस्थ है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कल्याणमन्दिर स्तोत्र का कर्ता सिद्धसेन दिवाकर को बतलाया गया है और उनका अपर नाम कुमुदचन्द्र माना गया है । सिद्धसेन दिवाकर का दूसरा नाम कुमुदचन्द्र प्राचीन इतिहास से सिद्ध नहीं होता और न उन्होंने कहीं अपने इस द्वितीयनाम का कोई उल्लेख ही किया है। परन्तु अर्वाचीन कुछ ग्रन्थकारों ने उनका अपर नाम कुमुद चन्द्र गढ़ लिया है । जिसका इतिहास से कोई समर्थन नहीं होता किन्तु कल्याण मन्दिर स्तोत्र के विषयवर्णन से कई बातें श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रतिकूल पाई जाती हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीर्थंकर के अशोक वृक्ष, सिंहासन, चमर और छत्र त्रय ये चारप्रातिहार्य माने गए हैं। उनके भक्तामर स्तोत्र पाठ में भी चार ही प्रतिहार्य स्वीकार किये गये हैं। शेष दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामंडल और दिव्य-ध्वनि छोड़ दिये गये हैं। इन पाठ प्रतिहार्यों का पाया जाना उक्त सम्प्रदाय को विपरीत है। दूसरे स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ के वैरी कमठ के जीव शम्बर यक्षेन्द्र द्वारा किये गये भयंकर उपसर्गों का 'प्राग्भारंस भूत्' नभांसि रजांसि रोषात् नामक ३१वें पद्य से ३३ वें पद्य तक वर्णन है, जो दिगम्बर परम्परा के अनुकूल और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता के प्रतिकूल है। क्योंकि दिगम्बराचार्य यतिवृषभ की तिलोय पण्पत्ति' की १६२० नं० की गाथा में- 'सत्तम तेवीसंतिम सिस्थयराणं च उबसग्गो' वाक्य से सातव, तेवीसवें और अन्तिम तीर्थकर के सोपसर्ग होने का उल्लेख है। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अन्तिम तीर्थंकर महावीर को छोड़कर शेष तेईस तीर्थकरों को निरुपसर्ग माना गया है जैसा कि आचांराग नियुक्ति की निम्न गाथा से स्पष्ट है: ससि तवो कम्म निरुवसांत वणियं जिणाणं । नवरं तु बलमाणस्स सोवसगं मुणेयव्यं ।।२७६ इससे स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ का सोपसर्गी होना श्वेताम्बर मान्यता के विरुद्ध है। ऐसी स्थिति में सिद्धसेन दिवाकर को इस स्तोत्र का रचयिता मानना किसी तरह भी संगत नहीं है। चित्तौड़ के दि० जैन कीतिस्तंभ को श्वेताम्बर बनाने के अनेक प्रयत्न किये गये। संभवत: श्वेताम्बर परम्परा के साधुओं द्वारा इस तरह की इतिहास विरुद्ध अनेक घटनाएं गढ़ी गई हैं। जो अप्रमाणिक हैं। प्रस्तुत कुमुदचन्द्र के हैं जिनका गुजरात के जयसिंह सिद्धराज की सभा में वि० सं० ११८१ में श्वेताम्बरीय विद्वान वादिसूरि देव के साथ वाद हुआ था । उस समय से ही संभवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उसका प्रचार हया जान पड़ता है। संभवतः इस स्तोत्र की रचना १२वीं शताब्दी में हुई हो, क्योंकि वादिदेव मूरि से कुमुदचन्द्र का वाद इसी शताब्दी में हुआ था। यह तो प्राय: निश्चित है कि कल्याणमन्दिर भक्तामर स्तोत्र के बाद की रचना है। १. सिद्धसेनस्य दीक्षा काले 'कुमुदचन्द्र' इति नामासीत् । सूरिषदे पुनः 'सिद्धसेन दिवाकर इति नाम प्रपद्ये। तदा दिवाकर इति सूरिः संज्ञा। - प्रबन्ध कोश-सिंधी जैन ज्ञानपीठ दान्ति निकेतन सन् १९३५ १०, वृद्धवादि सिद्धसेन दिवाकर प्रबन्ध पृ०१६ देखो. अनेकान्त वर्ष ६ किरण ११ पृ. ४१५ २. जन्मान्तरेऽपि तद पाद युग न देव ! मन्ये मया महित मीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताश यानाम् ॥३६ -कल्याण मन्दिर स्तोत्र Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य स्तधन कितना भावपूर्ण एवं सरस है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है पाठकगण उसकी महत्ता से स्वयं परिचित जिनेन्द्र के गुणों में अनुरोग होना भक्ति है—'गुणेषु अनुरागो भक्ति' । हां भक्ति के अनेक प्रकार हैं। वे सब प्रकार सकामा निष्कामा भक्ति में समाविष्ट हो जाते हैं। भक्त जब वीतराग के गुणों का अनुरागी होता है । तब उसका हृदय भगवत गुणानुराग से सराबोर रहता है, उस समय उसे किसी भी वस्तु की चाह नहीं होती, वह तो केवल बीतराग भाव में संलग्न रहता है। यह उसकी निष्कामा भक्ति है, जो कर्म क्षय में साधक होती है। भक्त जब किसी वांछा से भगवान के गुण गान करता है तब उसकी अभिलाषा इच्छित पदार्थ की प्राप्ति की और होती है, वह बाह्य में स्तवन करता है, हाथ जोड़ता है, विनय करता है किन्तु प्रान्तरिक भावना ऐहिक इच्छा की पूति को मोर रहती है। इसी का नाम सकामा भक्ति है, आजकल इसके रूप में भी परिवर्तन हो गया है । इस भक्ति से जितने अंश में विशुद्धि होती है उतने अंश में कर्म निर्जरा और पुण्णका बंध होता है। कवि कहता है कि हे देव ! मुझे ऐसा लग रहा है कि जन्मान्तर में मैंने मनवांछित फल देने वाले आप के चरण कमलों की पूजा नहीं की, इसी से हे मुनोश ! मैं इस भव में हृदय भेदी तिरस्कारों का निकेतन हुआ हूं। यदि मैंने जन्मान्तर में आपके चरणों की पूजा की होती तो मुझे विश्वास है कि मेरी आपदा अवश्य टल जाती। प्राकरिणतोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, ननं न चेतसि मया विषप्तोसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जन बान्धव दःखपात्रं यस्मारिक्रया प्रतिफलन्ति न भाव शून्याः ॥३८ हे नाथ ! मैंने आपका चरित्र सुना, आपके चरणों की पूजा भी की, आपके दर्शन भी किये, किन्तु निश्चय से मैंने भक्ति से आपको हृदय में धारण नहीं किया है, उससे मैं दुःख का पात्र हुमा हूं; क्योंकि भाव शून्य क्रियाएं फलवती नहीं होती। कवि भगवान की भक्ति को समस्त दुःखों का नाशक मानता है: स्वं नाथ ! दःख जन-वत्सल हे शरण्य, काहण्य-पुण्य-वशते शिनां वरेण्य । भक्त्या नते मयि महेश! दयां विधाय, दुःखाकुरोइलनतत्परतां विधेहि। हे नाथ! पाप दीन दयाल, शरणागत प्रतिपाल, करुणानिधान योगीन्द्र और महेश्वर हैं। प्रतः भक्ति से मम्रीभूत मुझ पर दया करके मेरे दुःखांकुरों को नाश करने में तत्परता कीजिए। कवि अपने आराध्य के शील पर मुग्ध है. उसका विश्वास है कि भगवान की भक्ति विपत्तियों को दूर करने वाली है। हतिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-धन्धाः । सथो भुजंगममया इव मध्य-भाग--- मम्मागते चन-शिखण्डिमि चन्दनस्य ॥ हे प्रभो! आपके हृदय वर्ती होने पर कमों के बन्धन उसी तरह शिथिल पड़ जाते हैं जिस तरह चन्दन के वृक्ष पर मयूर के आने पर सपो के बन्धन ढीले पड़कर नीचे खिसकने लगते हैं । इस पद्य में कवि ने उपमालंकार द्वारा . पाराध्य के प्रभाव को व्यक्त किया है। पं० बनासीदास कृत इसका पद्यानुवाद भी दृष्टव्य है : तुम मावस भविजन मन मांहि, कर्मनिबंध शिथिल हो जांहि । ज्यों चन्दनसरुवोहिमोर, रहिभजंगलखें बहमोर ।। इस तरह यह स्तवन अतिशय सुन्दर भावपूर्ण और सरस है । कुमुदचन्द्र की यह कृति महत्वपूर्ण है। श्रीचन्द्र यह कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के प्राचार्य सहस्त्र कीर्ति के प्रशिष्य और वीरचन्द्र के शिष्य थे। सहस्रकीर्ति के गुरु श्रुतकीर्ति और प्रगुरु श्रीकीति थे। सहस्रकीति के (देवचन्द, वासवमुनि, उदयकीति, शुभचन्द्र, Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ और वीरचन्द्र) पांच शिष्य थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के मध्य भाग से लेकर १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक है। कवि श्रीचन्द्र ने अपने को मुनि पंडित और कवि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं। कथाकोष प्रौर रलकरण्ड श्रावकाचार । कथाकोष-कवि की प्रथम कृति जान पड़ती है । कथाकोश में प्रेपन सन्धियां हैं, जिनमें विविध व्रतों के अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालों को कथाओं का रोचक ढंग से संकलन किया गया है। कथाएं सुन्दर और सुखद हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल और प्रतिज्ञा नाम के अनन्तर प्रयाः । र महते हैं कि मैंने इस अन्ध में वही कहा है जिसे गणधर ने राजा श्रेणिक या बिम्बसार से कहा था, अथवा शिवकोटि मुनीन्द्र ने भगवती पाराधना में जिस तरह उदाहरणस्वरूप अनेक कथानों के संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किये हैं। उसी तरह गुरु क्रम से और सरस्वती के प्रसाद से मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूं। मुलाराधना में स्वर्ग और प्रपवर्ग के सुख साधन का अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय का-गाथाओं में जो अर्थ पूपित किया गया है उसी प्रथं को मैं कथामों द्वारा व्यक्त करूंगा, क्योंकि सम्बन्ध विहीन कथन गुणवानों को रस प्रदान नहीं करता, अतएव गाथाओं का प्रकट अर्थ कहता हूँ तुम सुनो। ग्रन्थकार ने देह-भोगों को प्रसारता को व्यक्त करते हुए ऐन्द्रिक सुखों को सुखाभास बतलाया है। साथ ही धन-यौवन और शारीरिक सौन्दयं वगैरह को अनित्य बतलाकर मन को विषय-वासना के आकर्षण से हटने का सुन्दर एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है और जिन्होंने उनको जीत कर प्रात्म-साधना की है उनकी कथा बस्तु ही प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय है। इन कथानों द्वारा कवि ने मानव हृदय में निर्वेदभाव उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत कथाकोश और हरिषेण की कथाओं में अत्यधिक समानता है, श्रीचन्द्र ने उससे पर्याप्त सहयोग लिया है। कवि ने ग्रन्थ में वंशस्थ, समानिका, पद्धड़िया, हडड, (दोहा) मालिनी, मलिल्लह प्रादि छन्दों का प्रयोग किया है। इन छन्दों में संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग हुया है। जैसा कि निम्न उदाहरण से स्पष्ट है: "विविह रसरसाले, णयकोऊहलाले । ललियवयणमाले, प्रस्थसंदोहसाले । भुवण-विविव-णामे, सव्वदोसो बसामे बह खलु कहकोसे, सुन्दरे विणतोसे ॥" यह संस्कत का मालिनी छन्द है। इसमें प्रत्येक पंक्ति में 5 और७ अक्षरों के बाद यति क्रम से १५ अक्षर होते हैं। कवि ने प्रत्येक पंक्ति को दो भागों में विभक्तकर यति के स्थान पर और पंक्ति को समाप्ति पर अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर छन्द को नवीन रूप दिया है। सौराष्ट्रदेश प्रणहिलपुर में प्रसिद्ध प्राग्वाट वंश के नीनान्वय कुल में समुत्पन्न सज्जनोत्तम सज्जन नाम का एक श्रावक था, जो धर्मात्मा था और मूलराज नृपेन्द्र की गोष्ठी में बैठता था। अपने समय में वह धर्म का एक प्राधार था उसका कृष्ण नाम का एक पुत्र था और जयन्ती नाम की एक पुत्री थी । जो धर्म कर्म में निरत, जनशिरो १. गणहर हो पयासिउ जिरणवइणा, सेरिणय हो भासि गणवइया ।। सिवकोडि मुरिणद जेमजए, कह कोसु कहिउ पंचम समए। तिह गुरु कमेण अह मदि कहमि, नियबुद्धि विसेसु नेव रहमि । महु देवि सरासइ सम्मुहिया, संभवउ समस्थ लोय महिया । आभण्णहो मूलाराहणहे, सग्गापवग्ग मुसाहरणहें । गाहं सरियाउ सुसोहणउ, बहु कहउ अस्थि रंजिय जणउ । धम्मरथ काम मोक्खावासपउ, गाहासु जासु संठियउ त । ताणत्यं मणिऊण पुरउ, पुणु कहमि कहाउ कथायरज । पत्ता-संबंध विहूणु सव्यु वि जागरसु न देइ गुणवन्तहं । तेणिय गाहाज पडि वि ताउ कहामि कहाउ सुरणंतहं ।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३४५ मणी पौर दानादि द्वारा चतुर्विध संघका संयोपक था। उसकी 'राण' नामक साध्वी पत्नी से तीन पुत्र और चार पुत्रियां उत्पन्न हुई थीं। वीजा, साहनपाल और साढदेव ! थी, शृंगारदेवी, सुन्दु और सोख, । इनमें से सुन्दु या सुन्दिका विशेषरूप से जैन धर्म के प्रचार और उद्धार में रुचि रखती थी। कृष्ण की सन्तान ने अपने कर्म क्षय के हेतु कथाकोश की व्याया कगई। कर्ता भब्यों की प्रार्थना से पूर्व प्राचार्य की कृति की रचना को श्रीचन्द्र के सम्मुख की। इसी कृष्ण श्रावक की प्रेरणा से कवि ने उक्त कथाकोश को बनाया था। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम को ११वों शताब्दी की रचना है। रचना काल __ कवि श्रीचन्द्र ने अपना यह कथा ग्रन्थ मूलराज नरेश के राज्यकाल में प्रणहिलपुर पाटन में समाप्त किया था। इतिहास से ज्ञात होता है कि मूलराज सोलंकी ने सं०६९८ में चावडा वंशीय अपने मामा सामन्तसिंह (भूयड़) को मार कर राज्य छीन लिया था। और स्वयं गुजरात को राजधानी पाटन (प्रणहिलवाड़े) की गद्दी पर बैठ गया । इसने वि० सं० १०१७ से १०५२ तक राज्य किया है। 1 मध्य में इसने धरणी वराह पर भी चढ़ा को थी, तब उसने राष्ट्रकूट राजा धवल की शरण ली, ऐसा धवल के वि० सं० १०५३ के शिलालेख से स्पष्ट है। मूलराज सोलकी चालुक्य राजा भीमदेव का पूत्र था, उसके तीन पुत्र थे मूलराज, क्षेमरज, और कर्ण । इनमें मूलराज का देहान्त अपने पिता भीमदेव के जीवन काल में ही हो गया था और अन्तिम समय में क्षेमराज को राज्य देना चाहा; परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया, तब उसने लघुपुत्र कर्ण को राज्य देकर सरस्वती नदी के तट पर स्थित मंडूकेश्वर में तपश्चरण करने लगा। अतः श्रीचन्द्र ने अपना यह कथाकोश सन् १६५ वि० सं० १०५२ में या उसके एक दो वर्ष पूर्व ही सन् ६९३ में बनाया होगा। रनकरण्डश्रावकाचार-प्रस्तुत ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्ड नामक उपासकाध्ययन रूप गंभीर कृति का व्याख्यानमात्र है। कवि ने इस प्राधार प्रन्थ को २१ संधियों में विभक्त किया है। जिसको प्रानमानिक एलोक संख्या चार हजार चार सौ अट्ठाईस बतलाई गई है । कथन को पुष्ट करने के लिये अनेक उदाहरण और व्रता चरण करने वालों को कथानों को प्रस्तुत किया गया है। गहस्थों के आचार विषय को कथानों के माध्यम से विशद किया गया है जिससे जन साधारण उसको समझ सकें अनेक संस्कृत पद्य भी उद्धत किये हैं। कवि ने ग्रन्थ में एक स्थल पर अपभ्रंश के कुछ छन्दों का भी उल्लेख किया है। परणाल, थावलिया, चच्चरि, रासक, वत्थु, अडिल, पद्धडिया, दोहा, उपदोहा, दुबई, हेला, गाथा, उपगाथा, ध्रुवक, खंडक उरखंडक और पत्ता आदि के नाम दिये हैं यथा छंदणियारणाल प्रावलियर्याह, बच्चरि रासय रासहि ललियाह । वत्यु प्रवत्थु जाह विसेसहि, अडिल मडिल पडिया सहि । बोहय उबदोहय प्रवभंसहित दबई हेला गाहयगाहहि। धुवय खंड उवखंड य घहि, समविसमसमेहि विधिसहि। प्रशस्ति में हरिनन्दि मुनीन्द्र, समन्तभद्र, अकलंक, कुलभूषण, पादपूज्य (पूज्यपाद) विद्यानन्दि, मनन्त समा १. ये मूलाधुदमूलपद गुरुबल: श्री मूलराज नृपो, दन्धिो घरणीवराह नृपति यद् विपः पावपम् । आयातं भुमिकादि शोक मभिको यस्तं शरणपो दी। दंष्ट्रायामिषरूढमहिमा कोलो मही मण्डलम् ॥ -इपि प्राझिया इंडिका जि.पृ. २१ २. देखो, रामपूतानेका इतिहास दुसरा संस्करण भा.१.२४१ ३. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिद दूसरा सं० पृ. १९२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ वीर्य, वरषेण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहंगसेन, गुणभद्र, सोमराज चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त श्रीहर्ष और कालिदास नाम के पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया गया है। कवि स्वयं अपनी रचना में धारणाल, दुबई (१२-३) जंभिदिया उवखंडयं गाथा और मदनावतार छंदों का प्रयोग किया है, किन्तु ग्रंथ में प्रधानता पद्धडिया की है। कवि ने रयणकरंडसावयायार की रचना सं० ११२३ में कर्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में श्रीवालपुर में समाप्त की थी। यह कर्ण देव वही कर्ण देव ज्ञात होते हैं जो राजा भीमदेव के लघु पुत्र थे । और जिनका राज्यकाल प्रबन्ध चिन्तामणि के कर्त्ता मेरु तुंरंग के अनुसार सं० ११२० से ११३९ तक उन्नीस वर्ष प्राय महीना और इक्कीस दिन माना जाता है। इन दोनों रचनाओं के प्रतिरिक्त कवि की अन्य रचनाएं अन्वेषणीय हैं, ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है । चन्द्रकीर्ति और उनके (५४) है जो शक सं० १०५० है, जिस दिन मुनि मल्लिषेण ने मल्लिषेण से संभवतः २५ वर्ष चाहिये । चन्द्रकीर्तितबिन्दु के कर्ता) - ग्रन्थ 'श्रुतविन्दु' का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। यह प्रशस्तिलेख (सन् ११२५ ई० ) और वि० सं० १९८५ को फाल्गुन वदी तीज को उत्कीर्ण हुआ प्राराधना पूर्वक अपने शरीर का परित्याग किया था । चन्द्रकीति का समय पूर्व मान लिया जाय, तो उनका समय वि० सं० ११६० के लगभग होना पथप्रभ नलवारी ने अपनी नियमसार की टीका में चन्द्रकीति के दो पद्यों को उद्धृत किया है। एक पद्य पृ० ६१ में चन्द्रकीर्ति के नामोल्लेख के साथ दिया है सकल करणग्रामालंचा द्विमुक्तमनाकुलं । स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शमदममायासं मैत्रीवयादम मंदिरम् । freeafnवं वन्द्यं श्रीचन्द्रकीतिमुनेर्मनः ॥ दूसरा पद्य पृ० १४२ में 'तथा चोक्तं श्रुतबन्दी' (विन्वी) वाक्यों के साथ उद्धृत किया है ? जयतिविजय दोषोऽमर्त्यमत्येंन्द्रमौलि प्रविलसद्रुमालाम्यचितांघ्रिजिनेन्द्रः | विजगदजगतो यस्ये वृशौ य' नुवाते सममिव विषभेष्वन्योन्यवृतिं निषेद्धम् ॥ इससे स्पष्ट है कि चन्द्रकीर्ति का 'श्रुतबिन्दु नामका यह ग्रन्थ महिलषेण और पद्यप्रभ मलाघारी देव के सामने मौजूद था। उसके बाद वह विनष्ट हो गया । ग्रन्थ भण्डारों में उसका प्रन्वेषण होना चाहिए। इस पद्य में बतलाया है कि जिनका मन सम्पूर्ण इन्द्रियों के ग्रामों रहित है, जो प्राकुलता रहित अपने आत्मकल्याण में तत्पर हैं । निर्वाण के कारणभूत शुक्लध्यान की प्राप्ति का कारण है। समता और इन्द्रिय दमनता का मन्दिर है । दया और जितेन्द्रियता का घर है, उपमा रहित ऐसे चन्द्रकीति गुरु का मन मेरे द्वारा वन्द्यनीय है । चन्द्रकीति नाम के दूसरे विद्वान यह माथुर संघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे। जो पण्डितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु (अग्नि) थे । 'चन्द्रकीर्ति तपरूपी लक्ष्मी के निवास, अर्थिजन समूह की प्राशा पूरी करने वाले तथा १. रामार तेवीसावाससया विक्कमस्त महि वणो । जदया गया तइया समातिए सुंदर रहयं ॥ कष्णरिन्द हो रज्जहि सिरि सिरिबालपुरम्म वृहदें । - बालपुर महि सिरियं रव के एक गंदउ कब्वु जयंणिदं २. चन्द्रकीर्ति ने अपने शिष्यों पर अनुकम्पा करके श्रुतविन्दु ग्रन्थ की रचना की थी। देखो, शिलालेख का ३२ वां पद्म) ३. सिरि सूरि पंडिय पहाणु, तहो सीसुवाइ कारण - किसाए । --- षट्कर्मोपदेश प्रशस्ति, जैन ग्रन्थ प्र० सं० ना० २१४ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य दूसरे परवादिरूप हाथियों के लिये मृगेन्द्र (सिंह) थे । जैसा कि 'षट् कर्मोपदेश' के निम्न पद्य से प्रकट है पुणु विवखतहो तयसरि णिवास अस्थियण-संघ बुह-पूरियासु । परवाइ कुंभि दारण महंडु सिरिश्चन्वकिसि जायउमुणि ॥ इन्हीं के छोटे सहोदर गणि श्रमरकीर्ति उनके शिष्य हुए थे । श्रमरकीर्ति ने अपना षट्कर्मोपदेश और नेमिनाथ चरित सं० १२४७ और १२४४ में बना कर समाप्त किया था । अतः इनका समय भी विक्रम की १३वीं शताब्दी का द्वितीय चरण होना चाहिये, यह ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान थे । २४७ चन्द्रकीति तीसरे चन्द्रकीति नूल संघ वैशिकवण के विद्वान पचलविषय कीर्ति के शिष्य कलयुगगणधर मलबारी बालचंद्र राउल के पुत्र चन्द्रकोति ने सन् १२९८ ईसवी में स्वर्गलाभ किया । हेगोरे के भव्य लोगों के अग्रथियों ने उक्त मुनि की स्वर्ग प्राप्ति के उपलक्ष में स्मारक बनाया । (EC. XII chik Nayakan Hallite No 24 जैन लेख सं० भाग ३ लेख नं० ५४५ पृ० ३८३ चन्द्रकीति चौथे चन्द्रकीति-काष्ठा संघ नन्दि तट गच्छ और विद्यागण के भट्टारक थे। यह ईडर गद्दी के भ० विद्याभूषण के प्रशिष्य और भ० श्रीभूषण के शिष्य थे। ईडर की गद्दी के पट्ट स्थान सूरत डूंगरपुर, साजिया प्रार कल्लोल आदि प्रधान प्रधान नगरों में थे। उनमें से भ० चन्द्रकीति किस स्थान के पट्टधर थे। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे ईडर के आस-पास के स्थान के भट्टारक रहे हैं। यह विद्वान होने के साथ कवि भी थे, श्रीर प्रतिष्ठादि कार्यों में दक्ष थे। इन्होंने अनेक मन्दिर और मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। इनकी अनेक कृतियां उपलब्ध हैं । संस्कृत के अतिरिक्त हिन्दी में भी अनेक रचानएं पाई जाती हैं । यह १७ वीं शताब्दी के विद्वान हैं । इन्होंने पार्श्व पुराण की रचना सं० १६५४ में की हैं। ऋदेव पुराण पद्म पुराण, पंचमेरू पूजा ग्रादि रचनाएं इनकी कही जाती है । माघनन्दि सिद्धान्त देव प्रस्तुत माघ नन्दि सिद्धान्तदेव मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय देसियगण और पुस्तक गच्छ के सिद्धान्त विद्या निधि कुलचन्द्र देव के शिष्य थे, जो पंण्डितजनों के द्वारा सेव्य और चारित्र चक्रेश्वर थे। यह कोल्लापुर तीर्थ क्षेत्र के कर्त्ता थे । अतएव कोल्हापुरीय कहलाते थे । यह कोल्लापुर (क्षुल्लकपुर) के निवासी थे । यह माघनन्दि १. सद्वृत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिप स्सिद्धान्त विद्यानिधिः | तन्यिोऽजनि माघनन्द्रि मुनिपः कोल्लापुरे तीर्थक— द्राद्धान्तांव पारगोऽचलघु तिश्चारित्र चक्रेश्वरः ॥ — जैन लेख सं० भा० १ ० नं० ४०० २४ नगर है। शिलालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में इसका नाम 'हल्लकपुर, उसके आस-पास के अनेक दि० जैन मन्दिर बनाये गये हैं। अनेक जन २. कोल्हापुर दक्षिण महाराष्ट्र का एक शक्तिशाली मिलता है। यह जैनधर्म का केन्द्र रहा है। कोल्हापुर और मन्दिर इस समय वैष्णव सम्प्रदाय के अधिकार में हैं। यह दिगम्बर समाज का महान् विद्यापीठ था। इसमें स्वागी मुनियों के अतिरिक्त सामन्त और राजपुरुष भी शिक्षा प्राप्त करते थे। इस पर अश्वभृत्य कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य और शिलाहार राजाओ ने राज्य किया है। १२वीं शताब्दी में चालुक्यों से शिलाहारों ने राज्य छीन लिया था। शिलाहार नरेश जैनधर्म के उपासक थे। इनमें मारसिंह गुलगङ्गदेव, भोज, बल्लाख, गण्डारादित्य, विजयादित्य और द्वितीय भोज नाम के प्रतापी शासक हुए हैं। इनका राज्य सन् १०.७५ से ११२६ ई० तक रहा है। इस समय भी यहाँ पर भट्टारकीय मठ मौजूद है। इन राजाओं से जंनमन्दिरों को अनेक दानप्राप्त हुए हैं। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कोल्हापुर की रूपनारायण वसति (मन्दिर) के प्रधानाचार्य थे। ३३४ नं. के शिलालेख में इन माघनन्दि सिद्धांत देव को कुन्दकुन्दान्वय का सूर्य बतलाया है । इनके अनेक शिष्य थे। अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली विद्वान थे । रूपनारायण वसदि के अतिरिक्त अन्य अनेक जिनालयों के भी प्रबंधक थे । रूपनारायण वसदि का निर्माण सामन्त निम्बदेव ने कराया था। निम्यदेव जैन धर्म का पक्का अनुयायो था। उसने रूपनारायण बसदि का निर्माण कराकर अपना धर्म प्रेम प्रकट किया था। माघनन्दि सैद्धान्तिक इनके चारित्र गुरु थे। सन् ११३५ ई० में भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर भी बनवाया था। इनके सामन्त केदारनाकरस, सामन्त कामदेव और चमूपति भरत भी शिष्य थे इनकी शिष्य परम्परा में अनेक विद्वान हए हैं। माधनन्दि सैद्धान्तिक के पद शिष्य गण्डविमुक्त देव सिद्धान्त देव थे । अन्य शिष्य कनकनन्दि, चन्द्रकीति, प्रभाचन्द्र पहनन्दि और माणिक्यनंदि थे। ये सभी शिष्य अच्छे विद्वान थे। माण्डलिक गोंक-जैन धर्म का पक्का श्रद्धानी और अनुयायी था। तेरदाल के जैन मंदिर में प्राप्त शिला लेख से गोंककी जैन धर्म को दृढ़ प्रतीति का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। लेख में बतलाया है कि पंचपरमेष्ठी के स्मरण मात्र से गोंक का विषदूर होगया था। गोंक ने तेरदाल में नेमिनाथ का मंदिर बनवाया था और उसके प्रबन्ध के लिये तथा जैन साधुओं को आहारदान देने के लिये भूमिदान दिया था यह दान रट्ट नरेश कार्तिवीर्य (द्वितीय) के शासन काल में अपनी रानी वाचलदेवी, जो इन्हीं माधनन्दि की शिष्या थी, द्वारा निर्मापित गोंक जिनालय के नेमिनाथ के लिये शक सं० १०४५(सन् ११२३ ई०)को माघनन्दि संद्धान्तिक को दिया था। __गण्ड विमुक्त देव के एक छात्र सेनापति भरत और दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीति थे। गण्डविमुक्त देव के सघर्मा श्रुतकीति विद्य मुनि थे, जिन्होंने विद्वानों को भी चकित करने वाले अनुलोम-प्रतिलोमकाव्य राघव-पाण्डवीय काव्य की रचनाकर निर्मलकीति प्राप्त की थी और देवेन्द्र जैसे विपक्ष वादियों को परास्त किया था। इनका समय शक सं०१०४५ (सन् ११२३ ई०) से १०६५ (सन् ११४३ ई०) है यह बारहवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। वेवकोति देवकीति मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीय गण और पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के प्रशिष्य पौर गण्ड विमुक्तदेव के शिष्य थे। अद्वितीय कवि 'ताकिक,वक्ता और मण्डलाचार्य थे। इनके सन्मुख सांख्य, चार्वाक, नैयायिक, वेदान्ती और बौद्ध आदि जैनेतर दार्शनिक विद्वान अपनी हार मानते थे। इनके अनेक शिष्य थे। किन्तु पट्टधर शिष्य देवचन्द पण्डित देव थे। इनके सघर्मा माघनन्दि विद्य, शुभचन्द्र विद्य, गण्डविमुक्त चतुर्मुख पौर रामचन्द्र विद्य थे । देव कीति के पट्टधर शिष्य देवचन्द्र पंडित देव को, जो कोल्लापुरीय वसदि के थे, शक स० ११०६ सन् ११८४ ई० को भरतियय्य दण्डनाथ और बाहुबली दण्डनाथ ने दान दिया था। ३. श्री मुससंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ अधिपतेः शुल्लकपुर श्री रूपनारायण जिनालयाचार्यस्य श्रीमान् माधन्दि सिद्धान्त देवस्य.........." --एपि भाफिका इंडिका भा० ३ १० २०८ ४. श्री मूलसंप देशीगण-पुस्तकगच्छ शुल्लकपुर श्री रूपनारायण-त्यालयस्याचार्यः । श्री मापनन्दि सिद्धांत देवो विश्व मही स्सुतः । कुलचन्द्र मुनेः शिष्यः कुन्दकुन्दान्वयांशुमान् ॥ -जैन लेख सं० मा ३०० ३३४ पृ०६५ ५. देखो, न मेख सं० मा०१० ४.१० २७ १. देखो, बन लेख सं०भा० २ सेखन० २८० ७. जैन लेस सं. मा० ३ लेख नं. ४१४ ६.बन लेख सं०भा० ११० २६ १.जैन लेख सं० मा ३ ले० नं. ४११ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याखवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३४६ देवकीति का स्वर्गवास शक सं० १०८५ सन् १९६३ सुभानुसंवत्सर आषाढ शुक्ला नवमी बुधवार को सूर्योदय के समय हुआ था । इनका समर सन् १०४० से १९६: ई. ! ति राईसा की १२वों शताब्दी के विद्वान हैं । यादव वंशी नरेश नरसिंह प्रथम के मंत्री हुस्लप ने निषद्या बनवाई, और देवकीर्ति के शिप्य लक्खनन्दि और माधवचन्द्र ने प्रतिष्ठित की। गण्ड विमुक्त सिद्धान्तदेव यह मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पुस्तक गच्छ के कोल्हापुरीय माघनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे। बड़े विद्वान थे। शक सं० १०५२ (सन् ११३० ई०) में माघनन्दि के शिष्य गण्ड विमुक्त सिद्धान्तदेव को होयसल नरेश विष्णुबर्द्धन की पुत्री एवं बल्लाल देव की बडी बहिन राजकुमारी हरियव्वरसि ने एक रत्न जटित जिनालय बनवाकर स्वगुरु को प्रदान किया था । और सन् ११३८ में इन्हीं गण्ड विमुक्तदेव बनीश को दान दिये जाने का उल्लेख है।३। इनके पट्टधर शिष्य देवकीति थे, और अन्य शिष्य शुभनन्दी थे । देवकीति का समाधिमरण सन् १९६३ ई. में हुमा था 3 | इनका समय सन् ११३५ से ११४५ ई. तक है। माणिक्यनन्दी यह मूलसंघ कुन्दकुन्दान्बय देशी गण पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे। क्षल्लकपूर (कोल्हापुर के शिलाहार नरेश विजयादित्य ने सन् १९४३ में माधनन्दि के गहस्थ शिप्य द्वारा निर्मापित जिनालय के लिये उनके शिष्य माणिक्यनन्दी को दान दिया था १४ । यह भी बड़े विज्ञान और तपस्वी थे। इनका समय ईसा की१२वीं शताब्दी का मध्यभाग है। माधवचन्द्र मलधारी यह भट्टारक अमृत चन्द्र के गुरु थे । और जो प्रत्यक्ष में धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक, तथा इन्द्रिय और कषायों के विजेता थे' । इनकी प्रसिद्धि 'मलघारी' नाम से थी। मलधारी एक उपाधि थी जो उस समय किसी-किसी साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थी। यह उपाधि दुर्धर परीषहों, विविध उपसर्गों, और शीतउष्ण तथा वष की बाधा सहते हुए भी कष्ट का अनुभव नहीं करते थे। पसीने सेतर बतर शरीर होने पर धुलि के कणों के संसर्ग से मल्लिन शरीर को पानी से धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी हंसते हंसते सह लेते थे। ऐसे ऋषि पुंगव ही उक्त उपाधि से अलंकृत किये जाते थे। इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध जान पड़ता है। क्योंकि इनके शिष्य अमृतचन्द्र कवि सिंह के गुरु थे। कवि सिंह ने सिद्ध कवि के प्रपूर्ण खण्ड-काव्य पज्जुण चरिज की प्रशस्ति में बम्हणवाड नगर का वर्णन किया है। उस समय वहां रणधारी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था जोपर्णोराज का क्षय करने के लिए काल स्वरूप था क्योंकि वह उसका वैरी था। जिसका मांडलिक भृत्य या सामन्त गुहिल वंशीय क्षत्रीय भुल्लण बम्हणवाद्ध का शासक था। १० बैन लेख सं०भा० १ ले.नं. ३९ (६३) पृ. ११ जैन लेख सं० भाग २ ले ने० २९३ पृ०४४५ १२ जैन लेख सं०भा० ३ ००३०७ पृ० २१ १३ जन लेख सं. मा० १ ले० नं. ३६० २१ १४ जैन लेख सं०भा० ३०० ३२० पु. ५३ १ ता मलपारि देव मुणि प्रगम, रणं पच्चक्ख भामु उपसमुदमु।' माहरचंद आसि सुपसिबउ, जो खम, दम गम-णियम समिदउ । -पज्जुण्ण परिउ प्रशस्ति Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ गुरणभद्र प्रस्तुत गुणभद्र संभवतः माथुर संघ के विद्वान थे । यह मुनि माणिक्यसेन के प्रशिष्य और नेमिसेन के दिव्य थे। इन्होंने अपने को संज्ञान्त मिथ्यात्व कामान्त कृत, स्याद्वादामल रत्नभूषण धर, तथा मिथ्यानय ध्वंसक लिखा है, जिससे वे बड़े विद्वान तपस्वी मिथ्यात्व और काम का अन्त करने वाले, सैद्धान्तिक विद्वान थे। स्याद्वादरूप निर्मल रत्नभूषण के धारक तथा मिथ्या नयों के विनाशक थे । ३५० इनकी एक मात्र कृति 'धन्यकुमार चरित्र' है जिसमें धन्यकुमार का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ उन्होंने लम्ब कंचुक गोत्री साहु शुभचन्द्र जो सुशील एवं शान्त और धर्म वत्सल श्रावक थे । साहु शुभचन्द्र के पुत्र बल्हण नामका था 'जो दानवान' परोपकार कर्ता तथा न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला था, उसी धर्मानुरागी बल्हण के कल्याणार्थं धन्यकुमार चरित्र रच गया है। इसी से उसे वल्हण के नामांकित किया गया है ग्रन्थ में कवि ने रचनाकाल नहीं दिया किन्तु उन्होंने धन्यकुमार चरित्र को बिलासपुर के जिनमन्दिर में बैठकर परमदि के राज्य काल में बनाया था। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : शास्त्र मिदं कृतं राज्ये राज्ञो श्री परमदिनः । पुरे विलासपूर्व च जिनालयविराजते ३५ इस पद्य में उल्लिखित विलास पुर झांसी जिला उत्तर प्रदेश का मोठ परगना में पचार या पठार में सन् १८७० में इस ग्राम के निवासी वृन्दावन नामक व्यक्ति को अपने मकान की नींव खोदते समय एक ताम्र शासन मिला जिसे उसने सन् १९०८ में सरकार को भेंट किया। इस अभिलेखानुसार कालिंजर नरेश परमदिदेव ( चन्देल परमाल ) ने केशव शर्मा नाम के ब्राह्मण को करिग्राम पहल के अन्तर्गत विलासपुर नामक ग्राम में कर विमुक्त भूमिदान की थी। इस करिग्राम को झांसी जिले के परगना मोठ में करगेवा नामक स्थान से पहिचाना गया है-चन्देलों के समय में यह स्थान विलासपुर के नाम से प्रसिद्ध था । प्रशस्ति पद्य में उल्लिखित परिमादिदेव चन्देल वंशी नरेश परमाल हैं, जिनका पृथ्वीराज चौहान से सिरसा गढ़ में, जालोन जिले के उरई नामक स्थान के निकट युद्ध हुआ था। उसमें परमाल की पराजय हुई थी, फलतः झांसी का उक्त प्रदेश चौहानों के प्राधीन हो गया था। इस युद्ध का उल्लेख मदन पुर के सं० १२२६ सन् ११८२ ई० के लेख में पाया जाता है । बाद में कुछ प्रदेश उसने वापस ले लिया था, पर झांसी जिले का उत्तरी भाग प्राप्त नहीं कर सका । धन्य कुमार चरित की प्रशस्ति के पूर्व पद्य में उक्त विलासपुर को 'जिनालयविराजते' वाक्य द्वारा जिनिलयों से शोभित लिखा है। इससे वहाँ कई जंनमन्दिर रहे होंगे। पुरातत्त्वावशेषों से ज्ञात होता है कि वहां एक छोटा सा पाषाण का मन्दिर मौजूद है, किन्तु काल के प्रभाव से श्रास-पास को भूमि ऊंची हो गई है और मन्दिर की छत भूमितल से ६ फुट नीचे हो गई है । अन्वेषण करने पर वहां जैन मन्दिरों का पता चल सकता है। चूंकि परमाल का राज काल ११७० से १९८२ तक तो सुनिश्चित है । उसके बाद भी रहा है। धन्य कुमार चरित्र उक्त समय के मध्य ही रचा गया जान पड़ता है । १. आचार समिती घो दध विधे धर्म तपः संयमम् । सिद्धान्तस्य गणाधिपस्य गुरियनः शिष्यो हि मान्योऽभवत् । सैद्धान्तो गुणभद्र नाम मुनियो मिथ्यात्व कामान्तकृत् । स्याद्वादामल रत्नभूष पधरो मिध्यानयध्वंसकः ॥ ३ - धन्य कुमार चरित प्रशस्ति - १. यू. पी. डिस्टिक्ट गजेट्रिटियर्स, बी. वाल्यूम (१६१६, पृ० ३६, ६५-६६ तथा डी. वाल्यूम १६३४ पू० २१ २. एपीग्राफिमा इण्डिका, X, पृ० ४४-४६ । ३. जनसन्देश शोधाङ्क १७, १० अक्टूबर १९६३ का शोषकरण नामका डा० ज्योतिप्रसाद का लेख । ४. देखो कनिषंम रिपोर्ट १० पू० ६८ तथा अनेकान्त वर्ष १६ कि० १-२ में मध्यभारत का जैन पुरातत्व पू० ५४ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य माधव चन्द्रवती प्रस्तत माधवचन्द्रवती मनि देवकीर्ति के शिष्य थे। जो अद्वितीय ताकिक, कवि बना और मालाचार थे। उनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। इनका स्तना। शकसं. १०५" १२१०) पुन संवत्सर आषाढ़ शुक्ला हवीं बुधवार को सूर्योदय के समय हुआ था तब उनके शिष्य लक्खनन्दी, माधवचन्द्र और त्रिभवन मल्लने इनकी निषद्या को प्रतिष्ठित किया था । अतः इनका समय सन् ११६३ (वि० सं० १२२०) सुनिश्चित है। यह ईसाकी १२वीं शताब्दी के विद्वान थे । माधवचन्द्र यह मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छ हनसोगे बलि के प्राचार्य थे और शुभचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य थे। होयसल नरेश बिष्णु वर्द्धन ने अपने पुत्र के जन्मोपलक्ष्य में इन्हें दोरघरट्ट जिनालय (उस समय जिसका नाम पाश्वनाथ जिनालय कर दिया गया था) के लिए प्रामादि दान दिये थे। यह लेख नय कीति सिद्धान्त चक्रवतो के शिष्य नेमिचन्द्र पंडित देव को उसी जिनालय के लिए दिया था, जो वर्ष प्रमादिन के दान शासन में है। (एपिया. फिया क.५ वेलूर १०१२४) मि.लु इराइसने इस लेख का समय सन् ११३३ ई. अनुमानित किया है। अत: यह माधवचन्द्र ईसा की १२वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान हैं। __इन्हीं माधवसन को शक स० १०५७ (सन् ११३५ ई०) के लगभग विष्णुवर्धन के प्रसिद्ध दण्डनायक गंगराज के पुत्र बाप्पदेव दण्ड नायक ने अपने ताऊ बम्मदेव के पुत्र तथा अनेक वस्तियों के निर्माता एचिराज की मत्यु पर उनको निषद्या बनवाकर उन्ही द्वारा निर्मापित वस्तियों के लिए स्वयं एचिराज की पत्नी की प्रेरणा पर इन माधवचन्द्र को धारापूर्वक दान दिया था। (देखो, जैनलेख सं० भा० १ पृ० २६८) कि इस लेख का समय लगभग सन् १०५७ है। अतः प्रस्तुत माधवचन्द्र ईसा की ११वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वसुनन्दो सद्धान्तिक वसनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें एक वसुनन्दी योगी का उल्लेख ग्याहरवीं सदी के विद्वान अमितगति द्वितीय ने भगवती आराधना के अन्त में पाराधना की स्तुति करते हुए 'वसुनन्दि योगिमहिता' पद द्वारा किया है। जिससे वे कोई प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। प्रस्तुत वसुनन्दी उनसे भिन्न और पश्चाद्वती विद्वान है। किन्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की वंशपरम्परा में श्रीनन्दी नामके बहुत ही यशस्वी गुणी एवं सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी प्राचार्य हुए हैं। उनके शिष्य नयनन्दी भी वैसे ही प्रख्यातकीर्ति, गुणशाली सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी पौर भव्य सयानन्दी थे। इन्हीं नयनन्दी के शिष्य नेमिचन्द्र थे। जो जिनागम समुद्र को बेला तरंगों से धयमान और सकल जगत में विख्यात थे । उन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दी थे। जिन्होंने अपने गुरु के प्रसाद से, प्राचार्य परम्परा से चले प्राये हुए श्रावकाचार को निबद्ध किया है। मनन्दी के नाम से प्रकाश में माने वाली रचनायों में उपास का ध्ययन,-माप्तमा मासा वत्ति, जिनशतक पीका मलाचार वत्ति और प्रतिष्ठा सार संग्रह ये पांच रचनाएं प्रसिद्ध है। इनमें उपासकाध्ययन (बसुनन्दी श्रावका चार) प्रौर प्रतिष्ठासार संग्रह के कर्ता तो एक व्यक्ति नहीं है। प्रतिष्ठा पाठ के कर्ता बसुनन्दी पाशाधर के वाद के विद्वान है। क्योंकि प्रतिष्ठापाठ के समान उपासकाध्ययन में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा का खुब विस्तार के साथ वर्णन करते हए अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार विधि-विधान करने की प्रेरणा की गई । प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रकरण है, उसमें लगभग ६० माथाओं में कारापक, इन्द्र,तिमा, प्रतिष्ठाविधि, और प्रतिमा १. देखो, बसुनन्दि श्रावकाचार की अन्तिम प्रशस्ति २. उपास का ध्यवन गाथा ३६६-४१० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ फल इन पाँच प्राधिकारों में प्रतिष्ठा-सम्बन्धी कथन दिया हुआ है। पाकर शुद्धि, गुणारोपण, मन्त्रन्यास, तिलकदान, मुख वस्त्र और नेत्रोन्मीलन प्रादि मुख्य मुख्य विषयों पर विवेचना को है । इसकी यह विशेषता है कि शासनदेवी-देवता की उपासना का कोई उल्लेख नहीं है । द्रव्य पूजा, क्षेत्र पूजा, काल पूजा और भाव पूजा का वर्णन है। इस वसुनन्दि श्रावकाचार (उपास का ध्ययन ) में ५४८ गाथाएं हैं, जिनमें श्रायकाचार का सुन्दर वर्णन किया गया है । ग्रन्थकार ने इस प्राय में अन्यायकाबारीश लाने का प्रयत्न किया है। रचना पर कुन्दकुन्दाचार्य स्वामिकार्तिकेय के ग्रन्थों का और अमितगति के श्रावकाचार का प्रभाव रहा है । श्रावकाचार के कयन में कहीं-कहीं विशेष वर्णन भी दिया है उदाहरण स्वरूप । कट तुला.और हीनाधिक मानोन्मान प्रादि को अतिचार न मान कर प्रनाचार माना है। और भोगोपभोग परिमाण शिक्षाक्त के भोगविरति, परिभोगविरति ये दो भेद बतलाये हैं । जिनका कहीं दिगम्बर-श्वेताम्बर श्रावकाचारों में उल्लेख नहीं मिलता और सल्लेखना को कुन्दकुन्दचार्य के समान चतुर्थ शिक्षाव्रत माना है । प्राप्तमीमांसा वृत्ति ___ आचार्य समन्त भद्र के देवागम या आप्तमीमांसा में ११४ कारिकाए हैं। जिन पर बसुनन्दो ने अपनी वृत्ति लिखी है। कारिकामों की यह वृत्ति अत्यन्त संक्षिप्त है जो केवल उनका अर्थ उद्घाटित करती हैं । वृत्ति में कारिकाओं का सामान्यार्थ दिया है। उनका विशद विवेचन नहीं दिया। कहीं-कहीं फलितार्थ भी संक्षिप्त में प्रस्तुत किया है। जो कारिकाओं के अर्थ समझने में उपयोगी है । वृत्तिकार ने अपने को जडमति और विस्मरणशोल बतलाते हए अपनी लघुता व्यक्त की है। उन्होंने यह वत्ति अपने उपकार के लिये बनाई है। इससे वत्ति बनाने का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है वृत्तिकार ने ११५ वें पद्य की टीका भी की है। किन्तु उन्होंने उसका कोई कारण नहीं बतलाया, सम्भवत: उन्होंने उसे मूल का पद्य समझकर उसकी व्याख्या की है। पर वह मूलकार का पद्य नहीं है। जिनशतकटीका यह प्राचार्य समन्तभद्र कृत ११६ पद्यात्मक चतुविशति तीर्थकर स्तवन ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का मूलनाम 'स्तुति विद्या है, जैसा कि उसके प्रथम मंगल पद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुति विद्या प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है। ग्रंथकार ने उसे स्वयं 'प्रागसां जये'--पापों कोजीतने का हेतु बतलाया है। यह शब्दालंकार प्रधान ग्रंथ है। इसमें चित्रालंकार के अनेक रूपों को दिया गया है। उनसे प्राचार्य महोदय के प्रगाध काव्य कौशल का सहज ही पता चल जाता है । इस प्रन्थ के अन्तिम ११६ वें गत्वक स्तुतमेव' पद्य के सातवें बलय से 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे बलय में जिन स्तुतिशत' पदों की उपलब्धि होती है, जो कवि और काव्य नाम को लिये हुए है। ग्रन्थ में कई तरह के च ऋवृत्त हैं। इसी से टीकाकार वसूनन्दी ने टीकाकी उत्थानि का में इस ग्रंथ को 'समस्त गुणगणोपेता' 'सर्वालकार भूषिता' विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है । ग्रंथ कितना महत्वपूर्ण है यह टीकाकार के-'धन-कठिन-घाति कर्मन्धन बहन समर्या' वाक्य से जाना जाता है। जिसमें घने एवं कठोर घातिया कर्म रूपी ईधन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है । यह ग्रंथ इतना गृढ है कि बिना संस्कत टीका के लगाना प्रायः असभव है। प्रतएव टीका कारने 'यो गिना मपि दुष्कराविशेषण द्वारा योगियों के लिये भी दुर्गम बतलाया है। इसमें वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों को अलंकृत भाषा में कलात्मक स्तुति की गई है। इसका शब्द विन्याश अलंकार को विशेषता को लिये हुए है । कहीं श्लोक के एक चरण को उल्टा रख देने से दूसरा चरण बन जाता है, और पूर्वाध को उलटकर रख देने से उत्तर और समूचे श्लोक को उलट कर रख देने से दुसरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी प्रर्थ भिन्न-भिन्न है। इस ग्रन्थ के अनेक पद्य ऐसे हैं जो एक से अधिक अलंकारों को लिये हुए हैं। मूल पद्य अत्यन्त क्लिष्ट और गंभीर अर्य के द्योतक है। टोकाकार ने उन सब पदों की अच्छी व्याख्या की है पौर प्रत्येक पद्य के रहस्य को सरल भाषा में उद्घाटित किया है। मल ग्रन्थ में प्रवेश पाने के लिये विद्याथियों के लिये बड़े काम की चीज है। इस टीका के सहारे ग्रन्थ में संनिहित विशेष.अर्थ को जानने में सहायता मिलती है। ग्रंथ हिन्दी टीका के साथ सेवा मन्दिर से प्रकाशित ३. देलो, २१७, २१८, न की गाथाएं, वसनन्दि श्रा०प्र०११, १००। ४. देखो, उक्त श्राव का चार गाथा नं० २७१, २७२, पृ० १०५। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दों के विद्वान आचार्य हो चुका है। पाचार बुलि मुलाचार मूलसंघ के प्राचार विषय का वर्णन करने वाला प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। जिसका उल्लेख ५वीं शताब्दी के प्राचार्य भने यति के ग्राउने अधिकार की ५३२वीं गाया में 'मूलाइरिया' वाक्य के साथ किया है। और नवमी शताब्दी के विद्वान आचार्य वीरसेन ने अपनी धवला टीका में 'तह प्रायारंगे वि वृत्तं' वाक्य के साथ उसकी 'पंचत्थिकाया' नाम की गाथा उद्धत की है जो उक्त प्राचारांग में ४०० नम्बर पर पाई जाती है । १२वीं शताब्दी के प्राचार्य वीरनन्दी ने आधारसार में मूलाचार की गाथाओं का अर्थशः अनुवाद किया है । १३वीं शताब्दी के विद्वान पं० शाशाधर जी ने उक्तं च मूलाचारे' वाक्य के साथ अनगार धर्मामृत की टीका के पृ० ५५४ में 'सम्मत्तणाण संजम' नाम की गाथा उद्धृत की है जो मूलाचार में ५१६ नम्बर पर पाई जाती है । १५वीं शताब्दी भट्टारक सकलकीर्ति ने 'मूलाचार प्रदीप' नाम के ग्रंथ में मूलाचार की गाथाओंों का सार दिया । इससे उसके परम्परा प्रचार का इतिवृत्त पाया जाता है । ग्रन्थ में १२४६ गाथाएं हैं जो १२ अधिकारों में विभक्त है। इस ग्रन्थ की टीका का नाम आचारवृत्ति है, इसके कर्त्ता श्राचार्य वसुनन्दी हैं । टीकाकार ने टीका की उत्थानिका में बट्टकेराचार्य का नामोल्लेख किया है, परन्तु उनका कोई परिचय नहीं दिया, शिलालेखादि में भी वट्टर का नाम उपलब्ध नहीं होता, और न उनकी गुरु परम्परा ही मिलती है । टीका गाथाओं के सामान्यार्थ की बोधक है । यद्यपि उनकी विशेष व्याख्या नहीं है, किन्तु कहीं-कहीं गाथाम्रों की अच्छी व्याख्या लिखी है । ओर उनके विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। टीकाकार ने पडावश्यक अधिकार की १७६वीं गाथा की टीका में प्रमितगति उपासकाचार के 'त्यागी देह ममत्यस्य तनूस्मृतिरुदाहृता' आदि पंच श्लोक उद्धत किये हैं। टीका में वसुनन्दी ने उसकी रचना का समय नहीं किया। डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस वृत्ति का समय १२वीं शताब्दी बतलाया है" । समय माचार्य वसुनन्दी ने अपने उपासकाचार में और टीका ग्रन्थों में उनका रचनाकाल नहीं दिया । इस लिये निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि उक्त रचनाएं कब बनीं। विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान पं० प्राशावर जी ने सं० १२६६ में समाप्त हुए सागारधर्मामृत को टीका में वसुनन्दी का पादरणीय शब्दों में उल्लेख किया है: यस्तु पंचवर सहियाई सप्त वि वसणाई जो विवज्जे । सम्माविद्ध भई सो वंसणसावो भणियों ॥। २०५ ॥ इति वसुनन्दी सैद्धान्त मतेन दर्शन प्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्यैवं । तन्मते नैव व्रत प्रतिमायां विभ्रतो ब्रह्माण व्रतं स्यात् तद्यथा— 'पब्वेसु इत्थिसेवा प्रणंगकोडा सया विवज्जेड़। धूलयह बंभयारी जिर्णोहि भणिदो पवयणम्मि | इस उल्लेख से सुनन्दी १३वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है। चूंकि उन्होंने ११ वी शताब्दी के प्राचार्य श्रमितगति के उपासकाचार ५ पद्य आचार वृत्ति में उद्धत किये हैं । अतः वसुनन्दी का समय ११वीं शताब्दी का उपान्त्य मी १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है । के नरेन्द्र कोति विद्य I मूलसंघ कोण्ड कुन्दान्वय देशियगण पुस्तक गच्छ की गुरु परम्परा में सागरनन्दी सिद्धान्तदेव के प्रशिष्य और मनन्दि मुनि के शिष्य नरेन्द्रकीर्ति त्रैविद्य देव थे, जो न्याय व्याकरण और जैन सिद्धान्त के कमल बन इनके साथी ३६ गुण पालक मुनिचन्द्र भट्टारक थे। कौशिक मुनिकी परम्परा में होने वाला देवराज था, उसका पुत्र उदयादित्य था, उसके तीन पुत्र थे, देवराज, सोमनाथ और श्रीधर । इनमें देवराज कडुचरिते का प्रधान था। उसे देवराज होयसलने सूरनहल्लि ग्राम दान में दिया, वहां उसने एक जिनमन्दिर बनवाया, उसकी भ्रष्ट विधपूजा और माहार दान के निमित्त उक्त ग्राम सन् १९५४ ई० में मुनिचन्द्र को प्रदान किया और उसका नाम पार्र पुर 1 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ खखा। इससे प्रस्तुत नरेन्द्र कोति ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान हैं । (जैन लेख सं० भा० ३ ०६०) त्रिभुवन मल्ल त्रिभुवन मल्ल तर्काचार्य देवकीति के शिष्य थे। इनके दो शिष्य और भी थे । लक्खनन्दि और माधवचन्द्र व्रतो । देवकोति का स्वर्गवास शक सं० १०८५ सन् ११६३ (वि० सं० १२२०) में सुभानु संवत्सर में प्राषाढ़ शुक्ला हवी बुधवार को हुआ था। प्रतः त्रिभुवन मल्ल का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वाध है। जैन लेख सं० भा० १ पृ. २२,२३ मुनिकनकामर ___ मुनि कनवामर चन्द्रऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे। उनका कुल ब्राह्मण था। किन्तु देह भोगों से वैराग्य होने के कारण वे दिगम्बर मुनि हो गये थे। कवि के गुरु बुध मंगलदेव थे । कवि भ्रमण करते हुए प्रासाइ (पाशापुरी) नगरी में पहुंचे थे । वे जिन चरण कमलों के भक्त थे। कवि ने वहां के भव्य जनों के विनय पूर्वक व स्नेह वश करकण्डु चरित की रचना की । जिनके अनुराग वश इस ग्रन्थ की रचना की, उनकी प्रशंसा करते हुए भी कवि ने उनका नामोल्लेख नहीं किया । किन्तु बह कनक वणं और मनोहर शरीर का धारक था, विजय पाल नरेया का स्नेह पात्र, धर्म रूपी वृक्ष का सींचने वाला, दुस्सह वैरियों का विनाशक, तथा बान्धवों, इष्टों और मित्र जनों का उपकारी था। भुपाल राजा का मनमोहक, अनाथों का दुःख भंजक और कर्ण नरेन्द्र का हृदय रंजक था, बड़ा दानी, धैर्यशाली, और जिन चरण कमलों का मधुकर था। उसके तीन पुत्र थे प्राहुल, रहु मोर राहुल । जो कनकामर के चरण कमलों के भ्रमर थे । कवि ने ग्रंथ में सिद्धसेन, गमन्तभद्र, अकलंक देव, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदन्त का उल्लेख किया है । इन में ववि पुगदा ने अपना महापुराण सन् ६६५ ई० में समाप्त किया था। अतः करकण्डु चरित उसके बाद की रचना है 1 कवि द्वारा उल्लिखित राजा गण यदि चन्देलवंशी हैं जिनका डा. हीरालाल जी ने उल्लेख किया है। तो ग्रंश पा रचना सगय विक्रम की ११ वीं शताब्दी हो सकता है। बा. हीरालाल जी ने विजयपाल कीर्तिवर्मा (भवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजामों का अस्तित्व समय सन् १०४० और १०५१ के प्रास-पास का बतलाया है। अत: मुनि कनकामर का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है। ग्रंयकर्ता के गुरु बुध मंगल देव हैं, पर उनका भी कहीं से कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। प्रस्तुत प्रथएक खण्ड काव्य है इसम पाश्वनाथ की परम्परा में होने वाले राजा करकण्ह का जीवन परिचय अंकित किया गया है । ग्रंथ दश संधियों में विभक्त है, जिनमें २०१ कडवक दिये हुये हैं। कवि ने ग्रंथ को रोचक बनाने के लिए अनेक भावान्तर कथाएं दी हैं। जो लोक कथाओं को लिये हुए है। उनमें मंत्र शक्ति का प्रभाव, अज्ञान से आपत्ति, नीच संगति का बुरा परिणाम और सत्संगति का अच्छा परिणाम दिखाया गया है। पांचवी कथा एक विद्याधर ने मदनाबलि के विरह से व्याकुल करकंडु के वियोग को संयोग में बदल जाने के लिए सुनाई । सातवीं कथा शुभ शकुन-परिणाम सूचिका है । आठवीं कथा पपावती ने विद्याधरी द्वारा करकंडु के हरण किये जाने पर शोकाकुल रतिवेगा को सुनाई। नोमीकथा भवान्तर में नारी को नारीत्व का परित्याग करने की सूचिका है । ग्रन्थ में देशी शब्दों का प्रचुर व्यवहार है, जो हिन्दी भाषा के अधिक नजदीक है। रस प्रलंकार, श्लेष और प्राकृतिक दृश्यों से अन्य सरस बन पड़ा है । अन्य में तेरापुर की ऐतिहासिक गुफाओं का परिचय भी अंकित है, जो स्थान धाराशिव जिले में तेर पुर के नाम से प्रसिद्ध है | डा० हीरालाल जी ने इस कंकण्डुचरित का सानुवाद राम्पादन किया है जो भारतीय ज्ञान पीठ से प्रकाशित हो चुका है। कवि श्रीधर प्रस्तत कवि हरियानादेश का निवासी था । और अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुमा था। इनके पिता का १, शिप परिषय के लिये करका चरित की प्रस्तावना देखें। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३५५ नाम चूध 'गोल्ह' था और माता का नाम था वील्हा देवी, जो सति साध्वी और धर्म परायणा थी। कवि ने इसके अतिरिक्त अपनी जीवन घटनामों और गृहस्थ जीवन का कोई परिचय नहीं दिया । कवि की इस समय दो रचनाएं उपलब्ध हैं। पासणाह चरिउ और चड्ढमाण चरिउ । कवि ने ग्रन्थ में चन्द्रप्रभ चरित का उल्लेख किया है। पासणाह चरिउ प्रस्तुत ग्रंथ एक खण्ड काव्य है। जिसमें १२ सन्धियां हैं जिनको श्लोक संख्या ढाई हजार से ऊपर है। ग्रन्थ में जैनियों के तेइसव तीर्थकर भगवान पाश्र्वनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। कथानक वही है जो अन्य प्राकृत-संस्कृत के ग्रंथों में उपलब्ध होता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने दिल्ली नगर का अलंकृत भाषा में अच्छा परिचय दिया है, उस समय दिल्ली जोयणिपुर (योगिनीपुर) के नाम से विख्यात थी, जन-धन से सम्पन्न, उत्तंगसाल (कोट) गोपुर विशाल परिखा (खाई) रणमंडपो, सुन्दर मंदिरों, समद गजघटाना, गतिशाल तुरंगा, और ध्वजारों से अलंकृत थी। स्त्रिीरकने को सुनकर नाचते हुए मयूरों और विशाल हट्ट मार्गों का निर्देश किया गया है। उस समय दिल्ली में तोमर वंशी क्षत्रिय अनंगपाल तृतीय का राज्य था । यह अनंगपाल अपने दो पूर्वज अनंगपालों से भिन्न अर्थात् तृतीय अनंगपाल नाम से ख्यात था। यह बड़ा प्रतापी और बीर था, इसने हम्मोर वोर की सहायता की थी। ये हम्मीर वीर अन्य कोई नहीं, प्रतिहार वंश की द्वितीय शाखा के हम्मोर देव जान पड़ते हैं, जिन्होंने संवत् १२१२ से १२२४ तक ग्वालियर में राज्य किया है। अनंगपाल का इनसे क्या सम्बंध था. यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। उस समय दिल्ली वैभव सम्पन्न थी, और उसमें विविध जाति और धर्म वाले लोग रहते थे। अन्य रचना में प्रेरक पार्श्वनाथ चरित की रचना में प्रेरक साहु नल था, जिसका पारिवारिक परिचय कवि ने निम्न प्रकार दिया है। साहु नट्टल के पिता का नाम 'माल्हण' था । इनका वंश अग्रवाल था, वह सदा धर्म कर्म में स. वान रहने थे। माता का नाम 'मेमडिय' था, जो शील रूपी सत् प्राभूषणों से अलंकृत थी और बांधव जनों को सुख प्रदान करती थी। साह नल के दो ज्येष्ठ भ्राता थे, राघव और सोढल । इनमें राघब बड़ा ही मून्दर एवं रूपवान था। उसे देखकर कामनियों का चित्त द्रवित हो जाता था। और सोढल विद्वानों को प्रानंद दायक, गुरु भक्त पोर अरहत देव की स्तुति करने वाला था, जिसका शरीर विनय रूपी आभूषणों से अलंकृत था, तथा बड़ा बुद्धिवान और धीर. वीर था। नट्टल साहु इन सबमें लघु, पुण्यात्मा, सुन्दर और जनवल्लभ था। कुल रूपी कमलों का पाकर और पाप रूपी पांशु (रज) का नाशक, तीर्थकर का प्रतिष्ठापक, बन्दी जनों को दान देने वाला, पर दोषों के प्रकाशन से विरक्त रत्नत्रय से विभूषित और चतुर्विध संघ को दान देने में सदा तत्पर रहला था। उस समय वह दिल्ली के जैनियों में प्रमुख था । व्यसनादि से रहित श्रावक के प्रतों का अनुष्ठान करता था । साहूनट्टल केबल धमात्मा ही नहीं था, किन्तु उच्चकोटि का कुशल व्यापारी भी था । उस समय उसका व्यापार अंग, बंग, कलिंग, कर्नाटक, नेपाल, भोट पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क (पंजाब) केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ और हरियाना आदि नगरों और देशा में चल रहा था। यह राजनीति का चतुर पंड़ित भी था, कुटम्बी जन तो नगर सेठ थे और आप स्वयं तोमरवशो अनंगपाल तृतीय का प्रामात्य था। साह नट्टल ने कवि श्रीधर से, जो हरियाना देश से यमुना नदी पार कर दिल्ली में आये थे, पार्श्वनाथ चरित बनाने की प्रेरणा की । तब कवि श्रीधर ने इस सरस खण्ड काव्य की रचना वि. १ सिरि अयरवाल कुल संभवरण, जगणी-वोल्हा-गम्भुभवेण । अणवरम-विणाय-परपयारुहेण, कणा बुह गोल्ह-तारुहेण ॥-पाएननाथ च० प्र० २ हि असि-वस्तोडिय रिठ-कबाल, गरगाह प्रसिद्ध अणंगवाल ।। -पाच प्र. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैम धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ सं० ११८६ अगहन बदी अष्टमी रविवार के दिन पूर्ण की थी। उस समय नट्टल साहु ने दिल्ली में आदिनाथ का एक प्रसिद्ध जिनमन्दिर बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर था, जैसा कि ग्रंथ के निम्न वाक्यों से प्रकट है : कारावेवि णायहो णि केज, पविइण्ण पंचषण सुकेउ । पई पुणु पइटठ पविर इयम, पास हो चरित जह प्रणवि तेम ॥ उस आदिनाथ मन्दिर को उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख ग्रन्थ की पांचवीं सन्धि के बाद दिये हुए निम्न पद्य से स्पष्ट है: येनाराध्य विबुध्य धीरमतिना देवाधिवेवं जिनं । सत्पुण्यं समुपाजित निजगुणः संतोषिता बांधवाः । जैन चत्यमकारिसुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा । स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पथ्वी तले नट्टलः ।। इयं सिरि पास चरितं रइयं बुह सिरिहरेण गुणभरियं । प्रमाण मोजे गट्टल णामेण भस्वेण ॥ कवि की दूसरी कृति 'बड्ढमाणचरित' है । इसमें १० संधियाँ और २३१ कडवक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन गाथा दी हुई है। जिसकी श्लोक संख्या कवि ने ढाई हजार के लगभग बतलाई है। चरित वही है, जो अन्य ग्रन्थों में चचित है, किन्तु कवि ने उसे विविध वर्णनों से संजोकर सरस और मनहर बनाया है। ग्रन्थ सामने न होने से उसका यहां विशेष परिचय देना संभव नहीं है। कवि श्रीधर ने ग्रन्थ की मन्तिम प्रशस्ति में अपना वही परिचय देते हए अन्य रचना में प्रेरक जैसवालवंशी नेमिचन्द का परिचय कराया है, और लिखा है कि मैंने यह ग्रन्थ साहनेमिचन्द्र के अनुरोध से बनाया है, नेमिचन्द्र वोदाउ नगर के निवासी थे, जायस कुल कमल दिवाकर थे। इनके पिता का नाम साह नरवर और माता का नाम सोमादेवी था, जो जैनधर्म को पालन करने में तात्पर थे। साह नेमिचन्द्र की धर्मपत्नी का नाम 'वीवादेवी या। संभवतः इनके तीन पुत्र थे-रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र । एक दिन साह नेमिचन्द्र ने कवि श्रीधर से निवेदन किया कि जिस तरह मापने चन्द्रप्रभचरित्र और शान्तिनाथ चरित्र बनाये हैं उसी तरह मेरे लिये अन्तिम तीर्थकर का चरित्र बनाइये। तब कवि ने उक्त चरित्र का निर्माण किया है। इसीसे कवि ने प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में उसे नेमिचन्द्रानुमत लिखा है, जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है : "इम सिरि वड्माण तित्थय रदेवचरिए पवरगुणरयणगुणभरिए यिबुह सिरि सुकासिरिहरविर इए सिरि गेमचंद अणमण्णिए वीरणाह णिवाणगमणवण्णणो णाम बहमो परिच्छेओ सम्मत्तो।" कवि ने प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में जो संस्कृत पद्य दिये हैं उनमें नेमिचन्द्र को सभ्यग्दष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मीपति, न्यायवान, और भव-भोगों से विरक्त बतलाते हुए उनके कल्याण की कामना की गई है। जैसा कि उसकी आठवीं सन्धि के प्रारंभ के निम्न श्लोक से प्रकट है : यः सवृष्टि रुवारुधीरधिषणो लक्ष्मीमता संमतो। न्यायान्वेषणतत्परः परमतप्रोक्तागमासंगतः अनेकाभव-भोग-भंगुरवपुः वैराग्यभावान्वितो, नन्दस्वात्सहि नित्यमेवभुवने श्रीनेमिचन्द्र रिचरम् ॥ १ विक्कम गरिदं सुप्रसिद्ध कालि; दिल्ली पट्टणि धरण-करण विसालि । स एवासि एयारह सएहि. परिवाडिए बरिसह परिगएहि । कसा?मोहिं आगहरण मासि; रविवार समाणि सिसिर भासि ।। १२--१८ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य कवि ने इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् ११६० में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी मनिवार के दिन बनाकर समाप्त किया है । इस से एक वर्ष पहले सं० ११८९ में पार्श्वनाथ चरित नट्टल साहुकी प्रेरणा से बनाया । चन्द्रप्रभचरित सं० ११८९ रो पूर्व बन जुका था, संवत् ११८७ या ११५८ में बनाया हो । और संभवतः ११८६ में ही शान्तिनाथ चरित की रचना की है, इसी से उसका उल्लेख सं० ११६० के वर्धमान चरित में किया है। कवि ने अन्य किन ग्रन्थों की रचना की, यह अभी अन्वेषणीय है। ये दोनों चरित ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। अमृतचन्द्र (द्वितीय) यह महामूनि माधवचन्द्र मलधारी के शिष्य थे, जो प्रत्यक्ष धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक मोर इन्द्रिय तथा कपायों के विजेता थे, और उस समय 'मलधारि देव' के नाम से प्रसिद्ध थे। अमृत चन्द्र इन्हीं माधव चन्द्र के शिष्य थे। यह महामनि अमृत तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर थे। तर्क रूपो लहरों से जिन्होंने परमत को झंकोलित कर दिया था डगमगा दिया था, जो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे । जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के प्रागे कामदेव भी छिप गया था—वह उनके समीप नहीं पा सकता था। इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का उल्लेख मिलता है। इनके शिष्य सिंह कवि ने, जब अमृत चन्द्र विहार करते हुए बह्मणवाड नगर (सिरोही) में पाये तब सिद्ध कवि के प्रपूर्ण एवं खण्डित 'प्रद्युम्न चरित' का उद्धार किया था। इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। ता मलधारी वेज मुणि-पंगमु, गं पच्चक्ख धम्मु जवसमु दमु। माहवर प्रासि सुपसिद्धउ, जो खम-दम-जम-णियम-समिद्धउ । तासुसीसु तब-तैय-विषायक, वय-तय-णियम-सील-रयणायरु । तक्क-लहरि-झकोलिय परमज, वर-वायरण-पवर पसरिय पज । जासु भुवणदूरंतर बंकिवि, ठिउ पच्छष्णु मयणु प्रासंकि वि। प्रमियचंदु गामेण मडारउ, सोविहरंतु पत्तु बुह-सारउ । सस्सिर-गंदण-वण-संछष्णउ, मठ-विहार-जिणभवण - रवण्णउ । बम्हण वाड गामें पट्टणु । जनप्रन्थ प्र०सं० भा० २१० २१ मल्लिषेणमलधारी यह मिलसंघ नन्दिगण अरुङ्गलान्वय के वादीभसिंह अजितसेन पंडित देव और कूमारसेन के शिष्य थे। नथा श्रीपाल विद्य के गुरु थे । मल्लिषेण बड़े तपस्वी थे । उनका शरीर बारह प्रकार के प्रचण्ड तपश्चरण का धाम था। और वह धूल' धूसरित रहता था, उसका बे कभी प्रक्षालन नहीं करते थे। उन्होंने भागमोक्त रत्नत्रय का पाचरण किया था और नि:शस्य होकर अशेष प्राणियों को क्षमाकर जिनपाद मूल में देह का परित्याग किया थासन्यास विधि द्वारा शक सं० १०५० के कीलक संवत्सर में (सन् ११२८ ई.) में श्रवणबेलगोल में तीन दिन के अनशन से मध्याह्न में शरीर का परित्याग किया था। जैसा कि मल्लिषेण प्रशस्ति के अन्तिम पद्यों से स्पष्ट है - प्राराध्यरत्न-श्रयमागमोक्तं विधायनिश्शल्यमशेष जन्तोः। क्षमा कृत्वा जिनपादमले देहं परित्यज्य विवं विशामः ॥७१३ शाके शून्यशरावरावनिमिते संवत्सरेकीलके, मासे फाल्गुण के तुतीय विवसे वासं सितेभास्करे। १ णिव विक्कमाइच्च हो कालए, गिज्युच्छववर तूर खालए 1 एयारह सरहि परि विगहि, संवच्छर सय एव हि समयहि । जेट्ट पढम पक्खई पंचमिदिणे सूरुवारे गयरणं गरिण ठिइमणे।। -जैन मय प्र. सं. भा. २०१८ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास २ स्वाती श्वेत-नसरोवरे सुरपुरं यातो यतीनां पतिमध्याह दिवसत्रयानानतः श्रीमल्लियेो मुनिः ॥ लक्ष्मण देव कवि लक्ष्मण देव का वंश वाढ था पिता का नाम रयण देव या रत्न देव था। इनकी जन्मभूमि मालन देशान्तर्गत दोमन्द' नामक नगर में थी यह नगर उस समय जैन धर्म धीर विद्या का केन्द्र था वहां अनेक उग जिन मन्दिर तथा मेरु जिनालय भी था। कवि प्रत्यन्त धार्मिक धन सम्पन्न और रूपवान था और निरन्तर जिनवाणी के अध्ययन में लीन रहता था। वहां पहले पतंजलिने व्याकरण महाभाष्य की रचना की थी। जो विद्वानों के कष्ठ का प्राभारण रूप था। इससे गोद नगर की महत्ता का आभास मिलता है। यह मगर मालवदेश में था और उन तथा भेलसा (विविधा) के मध्यवर्ती किसी स्थान पर था वहां के निवासी कवि जिनवाणी के रस का पान किया करते थे। इनके भाई का नाम सम्यदेव था, जो कवि थे, उन्होंने भी किसी ग्रन्थ की रचना की थी। पर वह अनुपलब्ध है। मालव प्रान्त के किसी शास्त्र भण्डार में उसकी तलाश होनी चाहिये । --- कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, जिससे यह निश्चित करना कठिन है कि ग्रन्थ कब रचा गया । कवि ने गुरु परम्परा और पूर्ववर्ती कवियों का कोई उल्लेख नहीं किया। ग्रन्थ की प्रतिलिपि संवत् १५१० की प्राप्त हुई है। उससे इतना ही कहा जा सकता है कि ग्रन्थ सं० १५१० से पूर्व रचा गया है। कितने पूर्व रचा गया, यह विचारणीय है । ग्रन्थ संभवतः ११वीं शताब्दी में रचा गया है । ग्रन्थ परिचय प्रस्तुत गेमिगाह चरित्र में चार संधियां और कवक है जिनकी मानुमानिक लोक संख्या १३५० के लगभग है। ग्रन्थ में चरित धीर धार्मिक उपदेश की प्रधानता होते हुए भी वह अनेक सुन्दर स्थलों से अलंकृत है ग्रन्थ की प्रथम संधि में जिन और सरस्वती के स्तवन के साथ मानव जन्म की दुर्लभता का निर्देश करते हुए सज्जनदुर्जन का स्मरण किया है और फिर कवि ने अपनी अल्पज्ञता को प्रदर्शित किया है। (भगध देश और राजगृह नगर के कथन के पश्चात् राजा श्रेणिक (विम्वसार) अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिये गणधर से नेमिनाथ का परित वर्णन करने के लिये कहता है। वराहक देश में स्थित वारावती या द्वारावती नगरी में जर्नादन नाम का राजा राज्य करता था, वहीं धौरीपुर नरेश समुद्रविजय अपनी शिव देवों के साथ रहते थे। जरासन्ध के भय से यादव गण शौरीपुर छोड़कर द्वारिका में रहने लगे। वहीं उनके तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ था । यह कृष्ण के चचेरे भाई थे। बालक का जन्मादि संस्कार इन्द्रादि देवों ने किया था दूसरी संधि में नेमिनाथ को युवावस्या, वसंत वर्णन और जल कोढ़ा यादि के प्रसंगों का कथन दिया हुआ है। कृष्ण को नेमिनाथ के पराक्रम से ईषां हो होने लगती है और वह उन्हें विरक्त करना चाहते हैं। जूनागढ़ के राजा की पुत्री राजमती से नेमिनाथ का विवाह 3 १. प्रस्तुत 'गोद' नगर जिसे गोदर्न वा गोनद्ध कहा जाता था, मालव देश में अवस्थित था। डा० दशरथ शर्मा एम०ए० डी० लिट् के अनुसार गोनर्द था गोन नगर पतव्जलि की जन्म भुमि था । पतञ्जलि गोनर्दय के नाम से प्रसिद्ध थे। पतञ्जलि ने पुष्प मित्र 'शुङ्ग से यज्ञ करवाया था। उन्होंने व्याकरण महाभाव्य की रचना इसी नगर में की थी। पतञ्जलि की गोनर्दीय संज्ञा भी उनके महाभाष्य की रचना का संकेत करती है। इसी से कवि लक्ष्मण ने भी नेमिनाथ चरित को प्रशस्ति में वहां प्रथम व्याकरण सार के रचे जाने का उल्लेख किया है। सुत्त नियात की बुद्ध घोषीय टीका वृद्धोष ने उज्जयिनी बोन दिश और बनसा प्रतिभाष हो जाता है " 'परमव्यज्योतिका' के अनुसार भी गोनद्ध या गोनर्द की स्थिति मालवदेश में थी (म्यन) का एक साथ अन किया है। इसमें बोद नगर की स्थिति का See Studies in the Geographyof Ancient and Medieval India p. 206-218) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, अाचार्य 쿠낮은 निश्चित होता है । बारात सज-धज कर जूनागढ़ के सन्निकट पहुंचती है, नेमिनाथ बहुत से राज पुत्रों के साथ रथ में बंटे हुए पास-पास की कि सुपा या निरीक्षण करते हुए जा रहे थे । उस समय उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा कि बहुत से पशु एक बाड़े में बन्द हैं। वे वहां से निकलना चाहते हैं किन्तु वहां से निकलने का कोई मार्ग नहीं है । नेमिनाथ ने सारथि से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये पशु यहां क्यों रोके गए हैं। नेमिनाथ को सारथि से यह जान कर बड़ा खेद हुआ कि बरात में आने वाले राजाओं के आतिथ्य के लिये इन पशुओंों का वध किया जायगा। इससे उनके दयालु हृदय को बड़ी ठेस लगी, वे बोले यदि मेरे विवाह के निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकट में है, तो धिक्कार है मेरे इस विवाह को श्रव में विवाह नहीं करूंगा। पशुओं को छुड़वाकर तुरन्त ही रथ से उतर कर मुकुट और कंकण को फेंक वन की ओर चल दिये। इस समाचार से बरात में कोहराम मच गया। उधर जूनागढ़ के अन्तःपुर में जब राजकुमारी को यह ज्ञात हुआ, तो वह मूर्छा खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोगों ने नेमिनाथ को लौटाने का प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ । नेमिनाथ पास में स्थित ऊर्जयन्त गिरि पर चढ़ गए और सहसावन में वस्त्रालंकार यादि परधान का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धर भारमध्यान में लीन हो गए। राजमती प्रतिदुःखित होती है तीसरी संधि में इसके वियोग का वर्णन है । राजीमती ने भी तपश्चरण द्वारा सात्म-साधना की। अन्तिम सन्धि में नेमिनाथ का पूर्ण ज्ञानी हो धर्मोपदेश और निर्वाण प्राप्ति का कथन दिया हुआ है। इस तरह ग्रन्थ का चरित विभाग बड़ा हो सुन्दर तथा संक्षिप्त है, और कवि ने उक्त घटना को सजीव रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है । कवि ने संसार की विवशता का सुन्दर अंकन करते हुए कहा है - जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा हुआ है । उसे भोजन के प्रति अरुचि है। जिसमें भोजन करने की शक्ति है, उसके पास शस्य (धान्य) नहीं। जिसमें दान का उत्साह है उसके पास धन नहीं, जिसके पास धन है, उसे प्रति लोभ है। जिसमें काम का प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं जिसके पास स्त्री है उसका काम बान्त है। जैसा की ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है जसु हि ष्णु ससु रुइ होइ, जसु भोज सति तमु ससुण होइ । जसु दाण चाहतसु दविणु णत्थि जसु दविणु तासु उइलोहु प्रत्थि । जसु मयणराउ तसि प्रत्थि भाम, जसु भाम तासु उच्छवण काम । -- मिणाहचरिउ ३-२ कवि ने ग्रंथ में कवकों के प्रारम्भ में हेला, दुबई और वस्तु बंध यादि छन्दों का प्रयोग किया है। किंतु ग्रन्थ में छन्दों की बहुलता नहीं है। ग्रंथकर्ता ने स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर सुभाषितों और सूक्तियों का प्रयोग किया है । वे इस प्रकार हैं किं जीवइ धम्म निवज्जिएण - धर्म रहित जीने से क्या प्रयोजन है कि सुई संगरि कायण - युद्ध में कायर सुभटों से क्या ? किं वयण सच्चा भाषणेण, झूठ वचन बोलने से क्या प्रयोजन क पुत्तई गोत्तविणासणंण, कुल का नाश करने वाले है पुत्र से क्या ? कि फुल्लई ग्रंथ विवज्जिएण- गंध रहित फूल से क्या ? ग्रंथ की पुष्पिका में कवि ने अपने पिता का उल्लेख किया है। इति मिणाह चरिए वृहद रयण सुत्र लक्खणेण विरइए भव्वयणमणाणंदे णेमिकुमार संभवोणाम पढमो परिच्छेश्रो समत्तो । लघु अनन्तवीर्य ( प्रमेय रत्नमाला के कर्ता) लघु अनन्तवीर्य ने अपनी गुरु परम्परा का और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया । इस कारण उनके रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई हो रही है। इन लघु श्रनन्तवीर्य की एक मात्र कृति परिक्षामुख पंजि Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग ३ का है, जिसका नाम उसकी पुष्पिका वाक्यों में 'लवत्ति' दिया हा है। यह ग्रन्थ प्रमेय बहल होने के कारण बाद को इसका नाम प्रमेय 'रत्न माला' हो गया है। कर्ता ने इसके विषय का संक्षेप में इतने सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया है कि न्याय के जिज्ञासूत्रों का चित्त उसकी ओर आकर्षित होता है । इसमें समस्त दर्शनों के प्रमेयों का इतने सुन्दर एवं व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादन किया गया है। यदि प्रमेयों का विशद वर्णन न किया जाता तो प्रमाण की चर्चा अधूरी ही रहती। माणिक्यनन्दी के परीक्षामुखकी विशाल टीका प्रमेयकमल मार्तण्ड इन अनन्तवीर्य के सामने था, उसमें दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है । पंजिकाकार ने प्रभाचन्द्र के वचनों को उदार चन्द्रिका की उपमा दी है और अपनी रचना पंजिका को खद्योत (जगन) के समान प्रकट किया है, जंसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : "प्रभेन्दुवचनोवार चन्त्रिकाप्रसरे । सति । मावृशाक्य गण्यन्ते ज्योतिरिगण सन्निभा॥" फिर भी लष अनन्तवीर्य की मन कतिमाते विशयनी गौलिक है, यह उसकी विशेषता है। अनन्तवीर्य ने इसकी रचना वैजेय के प्रिय पुत्र हीरप के अनुरोध से शान्तिषण के लिये बनाई है। परीक्षामुख सूत्र ग्रन्थ छह अध्यायों में विभक्त है। उसी के अनुसार पंजिका भी छह अध्यायों में विभाजित है, जिन में प्रमाण, प्रमाण के भेदों का कथन, प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः और अप्रमाग्य परत: होता है, मीमांसको की इस मान्यता का निराकरण करते हुए अभ्यासदशा में स्वत: और मनभ्यासदशा में परत:प्रामाण्य सिद्ध किया गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के वर्णन में मति ज्ञान के ३३६ भेदों का प्रतिपादन सर्वज्ञ की सिद्धि और सृष्टि कर्तत्व का निराकरण किया गया है । परोक्ष प्रमाण के स्मृति प्रत्यभिज्ञान प्रादि भेदों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए वेदों को पौरुषेय सिद्ध किया है । चार्वाक, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसकों के मतों की मालोचना की गई है। प्रमाण का फल और प्रामणाभासों के भेद प्रभेदों का सुन्दर विवेचन किया है। इससे ग्रन्थ की महत्ता और गौरव बढ़ गया है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा स्मृत अकलंक के सिद्धि विनिश्चय के व्याख्याकार अनन्तबीर्य इनसे भिन्न भोर पूर्ववर्ती हैं । पंडित प्रवर पाशधर जी ने अनगार धर्मामृत की स्वोपशटीका (१० ५२८) में प्रमेयरत्नमाला का मंगल श्लोक उद्धत किया है। इन्होंने अनगार धर्मामृत को टीका को वि० सं०१३०० (सन् १२४३) में समाप्त किया था। इससे प्रमेयरत्नमालाकार लघु अनन्तवीर्य का समय ई. सन् १०६५ और ई. सन् १२४३ के मध्य प्राजाता है। मनन्तवीय की इस प्रमेय रत्नमाला का प्रभाव हेमचन्द्र की 'प्रमाण मीमांसा' पर यत्र तत्र पाया जाता है। हेमचन्द्र का समय ई. सन् १०६८ से ११७३ है ' । अतः अनन्तवीर्य ईसा की ११वीं शताब्दी के शन्तिम चरण के विद्वान प्रमाणित होते हैं। बालचन्द्र सिद्धान्तवेव मूलसंघ देशीयगण और वक्र गच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य रामचन्द्रदेव थे। जिन्हें यादव नारायण बीरबल्लाल देव के राज्य काल में नल संवत्सर १११८ (सन् ११६६) में पुराने व्यापारी कवडमम्य और देव सेट्टि ने शान्तिनाथदेव की वसदि के लिये दान दिया था। इससे बालचन्द्र सिद्धान्तदेव का समय ईसा की १२वीं शताब्दो है। -जैन लेख सं० भा०३१०२३० १ इति परीक्षा मुखस्य लघुवृत्ती वितीयः समुद्देशः ॥२॥ २ बजेपप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोषतः । शान्तिषेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपजिफा ।। ३ नतामरशिरोरत्न प्रभाप्रोतनरवरिवः । नमो जिनाय दुरि मारवीरमदच्छिदे ॥-प्रमेय रत्नमाला ४ नलकच्छपुरे श्रीमन्ने मिचैत्यालयेऽसिधत् । विक्रमान्दशतेम्वेषा त्रयोदशसु कार्तिके ॥३१॥ अनगार धर्मामृत प्रशस्ति प्रमाण मीमांसा प्रस्तावना पृ० ४३ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य प्रमाचन्द्र प्रभाचन्द्र–मेघचन्द्र विद्य देव के प्रधान शिष्य थे । और वर्द्धन राजा की पट्टानी शांतलदेवी के गुरु थे। शाक सं०१०६८ सन् ११४६(वि० सं० १२०३)में जिनके स्वर्गारोहण का उल्लेख श्रवणबेल्गोल के शिलालेख नं०५० में पाया जाता है । इनके गुरु मेषचन्द्र का स्वर्गवास शक सं०१०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ था। इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। देखो जैन लेख संग्रह ४८ माधवसेन नाम के अन्य विद्वान भाधवसेन मूलसंघ सेनगण और पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। इन माधवसेन भद्रारकदेव ने जिन चरणों का मनन करके पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिमरण द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। यह लेख संभवतः सन् ११२५ ई० का है । अतः इनका समय ईसा की १२वीं शताब्दी है। (जैन लेख सं० भा० २१०४३७) यह माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे, जिन्होंने पंचेन्द्रियों को जीत लिया था, जिससे यह महान तपस्वी जान पड़ते हैं। ये विद्वान होने के साथ-साथ मंत्रवादी भी थे। इन्होंने बादशाह अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रायोजित बाद-विवाद में विजय प्राप्त कर जैनधर्म का उद्योत किया था, और दिल्ली के जैनियों का धर्मसंकट दूर किया था। देखो, सि.भा.भा. १ किरण ४ में प्रकाशित काष्ठासंघ पट्टावली का फूरनोट) वीरसेन पंडितदेव-मलसंघ, सेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान थे। इनके सहधर्मी पंडित माणिक्यसेन थे। जिन्हें सन् ११४२-४३ में दुन्दुभिवर्ष पुष्य शुद्ध सोमवार को उत्तरायण संक्रान्ति के समय, पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेकमल्ल द्वितीय के १२००० प्रदेश पर शासन करनेवाले योगेश्वर दण्डनायक सेनाध्यक्ष ने पेगडे मदुन मल्लिदेव सेनाध्यक्ष की अनुमति से भूमि दानदिया था। (जैन लेख सं० भा० ३ १५६) नरेन्द्र सेन लाड वागड संघ के विद्वान वीरसेन के प्रशिष्य और गुणसेन के शिष्य थे। इन वीरसेन के तीन शिष्य थे-गुणसेन, उदयसेन और जयसेन । इनमें गुणसेन सूरि अनेक कलानों के धारक थे। इन्हीं के शिष्य नरेन्द्र सेन ने 'सिद्धान्तसार संग्रह' की रचना की है। नरेन्द्रसेन ने ग्रन्थ के पुष्पिका बाक्य में अपने को पंडिताचार्य विशेषण के साथ उल्लेखित किया है : इति श्रीसिमान्तसारसंग्रहे पपिडताचार्य मरेन्द्रसेनविरचित सम्यग्ज्ञान निरूपणो द्वितीयः परिवः ।" जिस समय नरेन्द्रसेन ने सिद्धान्तसारसंग्रह की रचना को, उस समय उनके गुरु यौर प्रगूरु दोनों ही मौजद थे। क्योंकि कवि ने ग्रन्थ के नवमें परिच्छेद में दोनों को नमस्कार किया है, और लिखा है कि वोरसेन के प्रसाद से मेरी बद्धि निर्मल हई है और गुणसेनाचार्य की भक्ति करने से उनके प्रसाद से मैं साधु संपूजित देवसेन के पद पर प्रतिष्ठित हुमा हूं। जिन देवसेन के पट्र पर नरेन्द्रसेन प्रतिष्ठित हुए वे देवसेन कौन हैं ? यह विचारणीय है। नरेन्द्रसेन के समय की संगति को देखते हुए मुझे तो यह संभव प्रतीत होता है कि दूबकुण्ड के स्तम्भ लेख में, जो संवत् ११५२ में १. योऽभूच्छी वीरसेनो विबुधजन कृताराधनो ऽ गामवृत्तिः ।। तस्मालग्धि प्रसादे मयि भवतु च मे बुद्धि वृक्षो विशुद्धिः ॥२२४ सोऽयं श्री गुरणसेन संयमपर प्रध्यक्तभक्तिः सदा, सत्तीति तनुते जिनेश्वरमहासिद्धान्तमार्गे गिरः। भूत्वा सोऽपि नरेन्द्रसेन इति वा यास्यत्यवश्यं पदम्, श्री देवस्य समस्तसाघुमहितं तस्य प्रसादान्ततः ॥२२५ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३६२ उत्कीर्ण हुआ है।" जिसमें सं० ११५२ वंशाखसुदि पञ्चभ्यां श्री काष्ठासंघ महाचार्यवर्य श्रीदेवसेन पादुका युगलम् " लेख अंकित है उसके भाग में एक खण्डित मूर्ति अंकित है जिसपर श्री देव ( सेन ) लिखा है। इस समय के साथ प्रस्तुत नरेन्द्रसेन का समय ठीक बैठ जाता है । अर्थात् प्रस्तुत नरेन्द्रसेन विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं। क्योंकि लाडवागड गण के जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' सं० १०५५ में बनाकर समाप्त किया है। उनसे चौथी पीढ़ी में प्रस्तुत नरेन्द्रसेन हुए हैं। यदि एक पीढ़ी का समय कम से कम २० वर्ष माना जाय तो तीन पीढियों का समय ६० वर्ष होता है, उसे १०५५ में जोड़ने पर सं० १११५ होता है। इसके बाद नरेन्द्रसेन का समय शुरु होता है । श्रर्थात् नरेन्द्रसेन सं० ११२० से ११६० के विद्वान ठहरते हैं । ग्रन्थ रचना । एक सिद्धान्तसारसंग्रह और दूसरी कृति प्रतिष्ठादीपक है जिनकी श्लोक संख्या १६२४ है । इस ग्रन्थ में गृद्धपिच्छाचार्य इस समय इनकी दो कृतियां प्रसिद्ध हैं। सिद्धान्तसार संग्रह में १२ परिच्छेद या अधिकार हैं, के तत्त्वार्थ सूत्र का एक प्रकार से प्रकटीकरण है। इसके साथ ही अन्य अनेक बातों का संकलन किया गया है। प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का वर्णन है, और द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का निरूपण है। तीसरे परिच्छेद में सम्यक् चारित्र का तथा अहिंसादि पंचयतों का कथन किया गया है। चौथे परिच्छेद में अन्य मतान्तरों का वर्णन किया है। पांचवें परिच्छेद में जीव तत्त्व का कथन किया है । और छठे परिच्छेद में नरक गति का वर्णन है । सातवें परिच्छेद के २३४ पद्मों में मध्यलोक का कथन किया है । और आठवें परिच्छेद में १४६ पद्यों द्वारा गत्यनुवाद द्वार से जीवतत्त्व का निरूपण किया गया है। नौवें परिच्छेद के २२५ पद्यों में अजीव प्रसव और बंध तत्व का वर्णन किया गया है । १० वें परिच्छेद के १६६ पद्यों द्वारा निर्जरा और प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है । ११ वें परिच्छेद के १०१ पद्यों में मोक्ष तत्व का वर्णन किया है और अन्तिम १२ वं परिच्छेद के ६१ पद्मों में केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये धाराधना का कथन किया है। इनकी दूसरी कृति प्रतिष्ठा दीपक है जिसे उन्होंने पूर्वाचार्यानुसार रचा है, और जो अभी भ्रप्रकाशित है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति नहीं है। इसमें जिनमन्दिर, जिनमूर्ति आदि के निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग ग्रादि का वर्णन, तथा स्थाप्य स्थापक और स्थापना का कथन किया है। उसके प्रारंभ के मंगल पद्य इस प्रकार हैं:विश्वविश्वम्भराभारधारि धर्मधुरन्धरः । बेमाद्वो मङ्गलं देवो दिव्यं श्रीमुनिसुव्रतः ॥ नमस्कृत्य जिनाधीशं प्रतिष्ठासार दीपकम् । वक्ष्ये बुद्ध्यनुसारेण अन्त में लिखा है --- पूर्वसू रिमतानुगम् ॥ सर्वग्रन्थानुसारेण संक्षेपाचितं मया । प्रतिष्ठादीपक शास्त्र शोषयन्तु विचक्षणाः ॥ कवि सिद्ध और सिंह कवि सिद्ध पंपाइय और देवण का पुत्र था। उसने अपभ्रंश भाषा में पज्जुण्ण चरिउ (प्रद्य ुम्नचरित) की रचना की थी, किन्तु वह ग्रन्थ किसी तरह खण्डित हो गया था और उसी अवस्था में वह सिंह कवि को प्राप्त हुमा । कवि सिंह ने उसका समुद्धार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रकट है: १. See Archeological Survey of India VoL २० P. 102 २. पुरण पंपाइय देव गंदगु भविवरण एरायणाणंव । बुद्धपण जण एय पंकव छप्पउ, भइ सिद्ध पणमिय परमप्पल || " Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवी और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचायें तासु 'es fear हो विरयंत हो विणासु, संपत्तउ कम्मवसेण ' पर कज्जं पर कवं विहतं जेष्टि उद्धरियं" (पज्जुण्णच० प्र०) कवि सिद्ध ने इसे कब बनाया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । कवि सिंह गुर्जर कुल में उत्पन्न हुआ था, जो एक प्रतिष्ठित कुल था। उसमें अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो चुके हैं । कवि के पिता का नाम बुध रल्हन था, जो विद्वान थे। माता का नाम जिनमती था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। कवि के तोन भाई और थे, जिनका नाम शुभंकर, गुणप्रवर और साधारण था। ये तीनों भाई धर्मात्मा और सुन्दर शरीर वाले थे। कवि सिंह स्वयं प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और देशी इन चार भाषाओं में निपुण था । कवि ने पज्जुण्ण चरित की रचना बिना किसी की सहायता के को थी । उसने अपने को भव-भेदन में समर्थ, शमी तथा कवित्व के गर्व सहित प्रकट किया है। कवि ने अपने को, कविता करने में जिसकी कोई समानता न कर सके ऐसा असाधारण काव्य प्रतिभा वाला विद्वान बतलाया है। साथ ही वह वस्तु के सार-प्रसार के विचार करने में सुन्दर बुद्धिवाला समीचीन, विद्वानों में अग्रणी, सर्व विद्वानों की विद्वत्ता का सम्पादक, सत्कवि था । उसी ने इस काव्य ग्रन्थ का निर्माण किया है। साथ ही कवि ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को छन्द अलंकार और व्याकरण से अनभिज्ञ, तर्क शास्त्र को नहीं जानने वाला और साहित्य का नाम भी जिसके कर्णगोचर नहीं हुआ, ऐसा कवि सिंह सरस्वती देवी के प्रसाद को प्राप्तकर सत्कवियों में अग्रणी मान्य तथा मनस्वी प्रिय हुआ है । १. जातः श्री निजधर्मकर्म निरतः शास्त्रार्थं सर्वप्रियो, भाषाभिः प्रववतुभिरभवच्छ्री सहनामा कविः । पुत्रो रल्हण पंडितस्य मतिमान् श्रीगुर्जरागो मिह । इष्टि ज्ञात - चरित्र भूषिततनुर्वशे त्रिशालेतौ ।। - पज्जुष्ण चरित्र की १३वीं संधि के प्रारंभ का पद्य २६३ २. "साहाय्यं समवाप्य नाथ सुकवेः प्रद्यमन काल्यस्य यः । भूद् भवभेदचतुरः श्री सिंह नामा शमी । साम्यं तस्य कवित्व सहितः को नाम जातोऽवनो श्रीमती सुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमा ।।" -चौदहवीं संधि के अन्त में सारासार विचार चार धिषणः सधीमतामग्रणी । जातः सत्कविरत्नमयं विदुषां वैदुष्य संपादकः । येनेदं चरितं प्रगल्भ मनसा शांतः प्रमोदास्पदं । प्रद्य ुम्नस्य कृतं कृतवितां जीयात् स सिंहः क्षितौ ॥ वीं संधि के अन्त में ३. छन्दोऽकृति लक्षणं न पतिं नाभावि तर्कागमो; जातं हंतन करगोचरचरं साहित्य नामाऽपि च । सिंहः सत्करिणी समभवत् प्राप्य प्रसादं पर, वाग्देव्याः मुकवित्य जातयशसा मान्यो मनस्विप्रियः ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास गुरुपरम्परा कविवर सिंह के गुरु मुनि पुङ्गव भट्टारक अमृतचन्द्र थे, जातप-तेज के दिवाकर, और व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर (समुद्र) थे । तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने परमत को कोलित कर दिया था उगमगा दिया थाजो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे, जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के प्रागे कामदेव दूर से ही बंकित ( खडित) होने की आशंका से मानो छिप गया था वह उनके समीप नहीं आसकता था - इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है' । - भाग २ कवि ने अन्तिम प्रशस्ति में प्रमृतचन्द्र को परवादियों को बाद में हराने में समर्थ और श्रुत कंवली के समान धर्म का व्याख्याता बतलाया है । १. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह १० २१० २० २. देखो, 'अमृतचन्द्र का समय' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष ८ कि० ४-५ । ३. अमिय मयंद गुरूणं आएसं लद्देवि झति इय कष्वं । प्रस्तुत भट्टारक भ्रमृतचन्द्र उन प्राचार्य अमृत चन्द्र से भिन्न हैं, जो प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि प्राभृतत्रय के टीकाकार और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय यादि ग्रन्थों के रचयिता हैं । वे लोक में 'ठक्कर' उपनाम से भी प्रसिद्ध हैं । उनकी समस्त रचनाओं का जैन समाज में बड़ा समादर है। वे विक्रम की दशवीं शताब्दी के विद्वान हैं। उनका समय पट्टावली में सं० ६६२ दिया हुआ है जो ठीक जान पड़ता है । किन्तु उक्त भट्टारक अमृतचन्द्र के गुरु माधवचन्द्र थे, जो प्रत्यक्ष धर्म उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कषायों के विजेता थे, और जो उस समय 'मलधारी देव' के नाम से प्रसिद्ध थे, और यम तथा नियम से सम्बद्ध थे । 'मलधारी एक उपाधि थी, जो उस समय के किसी-किसी साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थी । इस उपाधि के धारक अनेक विद्वान आचार्य हो गये हैं। वस्तुतः यह उपाधि उन मुनि पुंगवों को प्राप्त होती थी, जो दुर्धर परीषदों, विविध घोर उपसर्गों और शीत-उष्ण तथा वर्षा की बाधा सहते हुए भी कभी कष्ट का अनुभव नहीं करते थे । और पसीने से तर वतर शरीर होने पर धूलि के कणों के संसर्ग से मलिन शरीर को साफ न करने तथा पानी से धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी सह लेते थे। ऐसे मुनि पुंगव ही उक्त उपाधि से अलंकृत किये जाते थे । अमृतचन्द्र भ्रमण करते हुए बम्हणवाड नगर में आये थे । इन्हीं अमृतचन्द्र गुरु के प्रादेश से पज्जुष्ण चरिउ की रचना कवि ने की है । रचना काल कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, जिससे उसके निश्चय करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है । ग्रन्थ प्रशस्ति में 'म्हणवाड' नगर का वर्णन करते हुए मात्र इतना ही उल्लेख किया गया है कि उस समय वहां रणधोरी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था, जो अर्णोराज का क्षय करने के लिये कालस्वरूप था । और जिसका मांडलिक नृत्य प्रथवा सामन्त गुहिल वंशीय क्षत्री भुल्लग उस समय बम्हणवाड का शासक था इससे उक्त राजाओं के राज्य काल का परिज्ञान नहीं होता । प्राचार्य सोमप्रभ, प्राचार्य हेमचन्द्र और सोमतिलक सूरि के कुमारपाल चरित सम्बन्धी ग्रन्थों में ४. सस्सिर गंदण-वरण संउ मठ-विहार-जिरा भवन्तर वर्षा । प्र म्न चरित को अंतिम प्रशस्ति बम्हणबाट शामें पट्टणु, अरिणरणाह सेादल षट्टणु । जो भुजइ बरिलय काल हो, रणधोरिय हो सुबहो बल्लाल हो । जानु भिच्तुदुज्जण मासल्ल, खसिउ गुहिल उत् जहि भुल्लर ॥ म्न चरित की प्रशस्ति प्रद्य Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य बल्लाल को मालवराज लिखा है, और यह भी लिखा है कि बल्लाल पर चढ़ाई करने वाले सेनापति ने शत्रु का शिर छेद करके कुमारपाल को विजय पताका उज्जयिनी के राजमहल पर फहरा दो । उदयगिरि (भेलसा) में कुमारपाल के दो लेख सं० १२२० और १२२२ के मिले हैं, जिनमें कुमारपाल को अवन्तिनाथ कहा गया है। मालवराज बल्लाल को मार कर कुमारपाल अवन्तिनाथ कहलाया। मंत्री तेजपाल के प्राबू के लण बसति गत सं० १२८७ के लेख में मालवा के राजा बल्लाल को यशोधवल द्वारा मारे जाने का उल्लेख है ।। यह यशोधवल विक्रमसिंह का भतीजा था। विक्रमसिंह के कैद हो जाने पर गद्दी पर बैठा था। यह कुमार पाल का मांडलिक सामन्त अथवा भृत्य था, मेरे इस कथन की पुष्टि अचलेश्वर मन्दिर के शिलालेख गत निम्न पद्य से भी होती है "तस्मान्मही..."विदितान्यकलत्रपात्र, स्पर्शो यशोषवल इत्यवलम्बत स्म। यो गर्जरक्षितिपतिप्रतिपक्षमाजौ, बल्लालमालभत मालव मेदिनीन्द्रम् ।।" यशोधवल का वि० सं० १२०२ (सन् ११४५) का एक शिलालेख अजरी गांव से मिला है, जिसमें--'प्रमार वंशोदभव महामण्डलेश्वर श्रीयशोधवल राज्ये' वाक्य द्वारा यशोधवल को परमार वंश का मण्डलश्वर सचित किया है । यशोधबल रामदेव का पुत्र था, इसकी रानी का नाम सौभाग्यदेवी था। इसके दो पुत्र थे, जिनमें एक का नाम धारावर्षे और दूसरे का नाम प्रल्हाददेव था। इनमें यशोधवल के बाद राज्य का उत्तराधिकारी धारावर्ष था । वह बहुत ही वीर और प्रतापी था । इसकी प्रशंसा वस्तूपाल तेजपाल प्रशस्ति के ३६वें पद्य में पाई जाती है। धारावर्ष का सं० १२२० एक लेख 'कायदा' गांव के बाहर, काशी विश्वेश्वर के मन्दिर से प्राप्त हुया है। यद्यपि इसकी मृत्यु का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिला, फिर भी उसकी मृत्यु उक्त सं० १२२० के समय तक या उसके अन्तर्गत जाननी चाहिए। कुमारपाल जब गुजरात की गद्दी पर बैठा, तब चौलूक्यराज के राज्य का विस्तार सुदर प्रान्तों में था। कुमारपाल उसकी व्यवस्था में लगा हुआ था, उसका मंत्री उदयन था। उदयन का तीसरा पुत्र चाहड बड़ा साहसी प्रौर समरवीर था। उस समय चाह्ड किसी कारणवश कुमारपाल से असन्तुष्ट हो शाकंभरी नरेश अर्णोराज से श्रा मिला। उसकी कूट नीति के कारण मालवा का राजा बल्लाल और चन्द्रावती का परमार विक्रमसिह, पौर सपा दलक्ष का चौहान अणोराज ये तीनों परस्पर में मिल गए। इन्होंने कुमारपाल के विरुद्ध जबर्दस्त प्रतिक्रिया को। परन्तु वे उसमें सफल नहीं हो सके । कुमारपाल ने प्रणोंराज से युद्ध कर उसे शरणागत होने को वाध्य किया, और लौटते समय विक्रमसिंह को कैद कर पिजर्ड में बन्द कर ले ग्राया, और उसका राज्य उसके भतीजे यशोधवल को दे दिया। फिर उसने बल्लाल को मारा और इस तरह उसने तीन राजाओं को परास्त कर मालवा को गुजरात में मिलाने का सफल प्रयत्न किया। बल्लाल की मृत्यु को उल्लेख तो अनेक प्रशस्तियों में मिलता है। बड़नगर से प्राप्त कुमारपाल की प्रशस्ति के १५ श्लोकों में बल्लाल को हार और कुमारपाल की विजय का उल्लेख किया गया है। बड़नगर की १. रोदः कंदरवति की ति लहरी लिप्तामृतां शुद्धते रप्रञ्च म्नवशोयशोषदल इत्यासीत्तनुजस्सतः । यनौलुक्य कुमारपाल नृपतिः प्रत्यथितामागतं, मत्वा सस्वरमेव मालवपति बल्नाल मालब्धवान् ।। २. शत्रु श्रेणी गलविदानोन्निद्र निस्विशधारो, धारावर्षः समजनि मुतस्तस्य विश्व प्रशस्यः । कोधाकान्त प्रधनवसुधा निश्चले यत्र जाताश्चोतन्नेत्रोत्पल जलकण: कोकणाधीशपत्न्यः । ३. देग्डो, भारत के प्राचीन राजवंश मा० ११० ७६-७७ । ४. Epigraphica Indica V.3P..२०० Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ इस प्रशस्ति का काल सन् ११५१ (वि० सं० १२०८) है । अतः बल्लाल की मृत्यु सन् ११५१ (वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है। पर विचारणीय यह है कि बल्लाल अवन्ति का शासक कब बना, और उसका वंश क्या था ? ऐतिहासिक दृष्टि से सन् १११८ तक मालवा पर जयसिंह का अधिकार रहा। उसके बाद संभवतः यशोवर्मन के पुत्र जयवर्मन ने जयसिंह चौलुक्य के अन्तिम दिनों में मालवा को स्वतन्त्र कर लिया । किन्तु वह उस पर अधिक समय शक शासन नहीं कर सका। कल्याण के चालुक्य जगदेकमल और हायसल नरसिंह प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उसकी शक्ति नष्ट कर दी, और उस देश की राजगद्दी पर बल्लाल नाम के व्यक्ति को बैठा दिया। इस घटना के कुछ समय पश्चात् सन् १०५० के लगभग चौलुक्य कमारपाल ने बल्लाल का वध करा कर, भेलसा तक मालवा का सारा राज्य अपने राज्य में मिला लिया । खेरला गांव (जि. वेतूल) से प्राप्त शिलालेख में, जो शक सं० १०७६ (सन् १९५७ ई०) का है, इस शिलालेख में राजा नरसिंह बल्लाल और जैतपाल ऐसी राज परम्परा दो हुई है। यह शिलालेख खंडित है इसलिये पूरा नहीं पढ़ा जा सकता। एक दूसरा लेख भी वहीं से प्राप्त हुआ है, जो शक सं० १०६४ (सन् १९७२ ई०) का है । इस लेख का प्रारम्भ "जिनानुसिद्धिः' वाक्य से हुमा है। जिससे जान पड़ता है कि ये राजा जैन थे। किन्तु जैतपाल को मराठी के कवि मुबुन्दराज ने वैदिक धर्म का उपदेश देकर बेदानुयायी बना लिया था। ये सब राजा ऐलवंशी राजा श्रीपाल के वंशज थे । खेरला ग्राम श्रीपाल राजा के आधीन था। श्रीपाल के साथ महमूद गजनवी (सन् ६६६ से १०२७) के भांजे अब्दुल रहमान का युद्ध हुआ था। तवारीखए अमजदिया के अनुसार यह युद्ध सन् १००१ई० में एलिचपुर और खेरला ग्राम के निकट हुआ था। अब्दुल रहमान का विवाह हो रहा था, उसी समय लड़ाई छिड़ गई, और वह दूल्हे के वेश में ही लड़ा। इस युद्ध में दोनों मारे गए। इस ऐतिहासिक घटना से सिद्ध है कि बल्लाल ऐलवंशी था और उसके पूर्वजों का शासन ऐलिचपुर में था। कल्याण के चालुक्य जगदेक मल्ल और होयसल नरसिंह प्रथम ने परमार राजा जयवर्मन के विरुद्ध सन् ११३८ के लगभग आक्रमण करके उसे राज्यच्युत कर दिया, और अपने विश्वस्त राजा बल्लाल को एलिचपुर से बुला कर मालवा का राज्य सोंप दिया । बल्लाल वहां ५-७ वर्ष ही राज्य कर पाया था । वह वीर और पराक्रमी शासक था। उतने अल्प समय में ही उसने अपना प्रभाव जमा लिया था और अपने राज्य का विस्तार कर लिया था किन्तु सन् ११४३ में या उसके कुछ समय पश्चात् चौलुक्य कुमारपाल की प्राजा से चन्द्रावती के राजा विक्रमसिंह के भतीजे परमार वंशी यशोधवल ने बल्लाल पर आक्रमण करके युद्ध में उसका वध कर दिया और उसका सिर कुमारपाल के महलों के द्वार पर लटका दिया । उस समय से कुमारपाल अवन्तिनाथ हो गया। प्रस्तु, प्रस्तुत बल्लाल ही ऊन के मन्दिरों का निर्माता है। ऊपर के कथन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि कुमारपाल यशोधवल, बल्लाल और अर्णोराज ये सब राजा समकालीन हैं । प्रस्तुत पज्जुण्ण चरिउ की रचना ईसा की १२वीं सदी के मध्यकाल को रचना है। ग्रन्थ रचना पज्जुण्ण चरिउ के कर्ता कवि सिद्ध और सिंह हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ एक खण्ड काव्य है जिसमें १५ सन्धियां हैं और जिनकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। इसमें यदुवंशी श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार का जीवन-परिचय गुंफित किया गया है, जो जैनियों में प्रसिद्ध २४ कामदेवों में से २१वें कामदेव थे और जिन्हें उत्पन्न होते ही पूर्व जन्म का वैरी एक राक्षस उठा कर ले जाता है और उसे एक शिला के नीचे रख देता है। पश्चात् काल संवर नाम का एक विद्याधर, उसे ले जाता है, और उसे अपनी पत्नी को सोंप देता है। वहां उसका लालन-पालन होता है तथा वहां वह अनेक प्रकार की कलामों की शिक्षा पाता है। उसके अनेक भाई भी कल। विज्ञ बनते हैं, परन्तु उन्हें इसकी चतुरता रुचिकर नहीं होती, उनका मन भी इससे नहीं मिलता, वे उसे अपने Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३६७ दूर करने अथवा मारने या वियुक्त करने का प्रयत्न करते हैं। पर पुण्यात्मा जीव सदा सुखी और सम्पन्न रहते हैं। प्रतएव वह कुमार भी उनपर सदा विजयी रहा। बारह वर्ष के बाद कुमार अनेक विद्याओं और कलापों से मंयुक्त होकर वैभवसहित अपने माता-पिता से मिलता है। उस समय पुत्र मिलन का दृश्य बड़ा ही करुण और दृष्टव्य है । वह वैवाहिक बन्धन में बद्ध हो कर सांसारिक सुख भी भोगता है, और भगवान नेमिनाथ द्वारा यह जानकार कि १२वर्ष में द्वाराषतो का विनाश होगा, वह भोगों से विरक्त हो दिगम्बर साधु हो जाता है और तपश्चरण कर पूर्ण स्वातन्ध्य प्राप्त करता है। इसी से कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धिं पुष्पिका में धर्म-अर्थ-काम और मोक्षरूपपुरुषार्थ चतुष्टय से भूषित बतलाया है। । ग्रन्थ की भाषा में स्वाभाविक माधुर्य और पद लालित्य है। रस अलंकार और अनेक छंद भी उसकी सरसता में सहायक हैं। ग्रन्थ महत्वपूर्ण और प्रकाशित होने के योग्य है । पज्जूण्ण चरिउ की फरुव मगर की ६३ पत्रात्मक प्रति में १०वी संधि तक सिद्ध कविकृत प्रथम संधि जैसी पुप्पिका दी हुई हैं। और ११वीं मधि से १५वीं संधि तक दुसरी पुष्पिका है । जिनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि कविसिंह ने ११वों संधि स १५वीं संधि तक ५ संधियों को स्वयं रचा है। उसने पूर्व की संधियों के सम्बन्ध में यह कहना कठिन है कि कितनी संधि पार समुद्धारित की हैं । क्योंकि ११वीं संधि की पुष्पि का निम्न प्रकार है: "इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मत्थकाम मोक्खाए बुहरल्हण सुन कई सीहविरइयाए सच्चमहादेवो माणभंगो णाम एकादशमो संधि परिभछेयो समत्तो।" पग्रनन्दि प्रती प्रस्तुत पद्मनन्दि राद्धान्त शुभचन्द्र के शिप्य थे। इन्होंने अपने को उक्त शुभचन्द्र का अग्र शिष्य लिखा है। यह महातपस्वी और अध्यात्म शास्त्र के बड़े भारी विद्वान थे। और जनामृतरूपी सागर के बढ़ाने वाले थे। इनके विद्यागुरु कनकनन्दी पंडित थे। इनके नाम के साथ पंडितदेव, ब्रती और मुनि की उपाधियां पाई जाती हैं। इन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र को वचन चन्द्रिका से प्राध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था। इन्होंने निम्बराज के सम्बोधनार्थ पअनन्दि की एकत्व सप्तति की कगड़ी टीका बनाई थी। टीका की प्रशस्ति में पद्यनन्दी और निम्बराज को प्रशंसा की गई है। ये निम्बराज वे जान पड़ते हैं जो पार्श्वकदि कृत 'निम्ब सावन्त-चरिते' नाम के ५०६ षट्पदी पद्यात्मक कन्नड काव्य के नायक हैं । इस काध्य के वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि निम्बराज शिलाहारवंशीय गण्डरादित्य राजा के सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुर में 'रूपनारायण' वसदि का निर्माण कराया था। और कार्तिक वदि पंचमी शक मं. १०५८ (वि० सं० ११८३) में कोल्हापूर व मिरज के आसपास के ग्रामों की प्राय का दान भी दिया था। इसमें इन पद्मनन्दी व्रती का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। एकत्व सप्तति की कनडी टीका की अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है: श्रीपानन्दीवतिनिमितेयम् एकत्वसप्तत्यखिलार्थप्रतिः । वत्तिश्चिरं निम्बर प्रबोधलब्धात्मवृत्ति जयतां अगत्याम् ।। स्वस्ति श्री रामचन्द्र रद्धान्तदेवाशिष्येण कनकनन्दि पण्डितवाग्रश्मिविकसित रकमुदानन्द श्रीमदअमृतचन्द्रचन्द्रिकोन्मीलित नेत्रोत्पलाबलोकिताशेषाध्यात्मतत्त्ववेदिना पचनन्दिमुनिना श्रीमज्जन सुधाब्धि धर्धनकरापुर्णन्दारा तिवीर. श्रीपति निम्बराजावबोधनाय कृतंकत्वसप्ततेवत्तिरियम्-तयाः संप्रवदन्ति संततमिह श्रीपद्मनन्दि प्रती, कामध्वंसक इत्यलं तबनतं तेषां वचस्सर्वथा।" (-पयनन्दि पंच विंशतिका की अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० १७) १. इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय-धम्मत्य-काम-मोक्खाए कइ सिख-विरश्याए पठमो संपी परि समसो ११॥ २. इय पज्जुषण कहाए पपडियधम्मत्य काम मोनखाए बुह रल्हण सुन कर सीह विरइयाए पज्जुण्ण-संकु-भारण-प्रणिरुह णिवारणगमणं णाम पण्णारहमो परिच्छेउ समतो। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ गिरि कोति थे प्रस्तुत गिरिकीति भूल संघ बलात्कार गण सरस्वतिगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान चन्द्रकीर्ति के शिष्य । यह चन्द्रकीति मेघचन्द्र के सधर्मा थे। गिरिकीति ने प्रशस्ति में निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है- श्रुतकीर्ति चन्द्र चन्द्र कीर्ति और गिरिकीति । यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। गोम्मटसार की रचना प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने चामुण्डराय के प्रश्नानुसार की है। यह चामुण्डराय गंगनरेश मारसिंह द्वितीय के श्रमात्य और सेनापति थे । इन्होंने अपना चामुण्डराय पुराण शक० सं० ६०० (सन् १७८ ई०) में बनाया । अतः गोम्मटसार की रचना का भी वही समय है । गिरिकीति की एकमात्र कृति गोम्मटसार को पंजिका है। इस पंजिका का उल्लेख अभयचन्द्र ने अपनी मन्द प्रबोधिका टीका में किया है। जो उन्होंने गोम्मटसार की रचना के लगभग एक सौ सोलह वर्ष बाद शक सं० १०१६ सन् १०६४ (वि० सं० ११५१ ) में बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है : ३६८ सोलह सहिय सहस्से गवसक काले पवड्ढमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कक्षिय मंदीसरे एसा ॥ प्रस्तुत पंजिका की प्रति ६८ पत्रात्मक है जो सं० १५६० की प्रतिलिपि को हुई है। पंजिका की भाषा प्राकृत संस्कृत मिश्रित है। जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड- कर्मकाण्ड की गाथाओं के विशिष्ट शब्दों वा विमपदों का अर्थ दिया गया है। कहीं कहीं व्याख्या भी संक्षिप्त रूप में दी गई | सभी गाथाओं पर पंजिका नहीं है । पंजिका की विशेषता पंजिका का अध्ययन करने से उसकी विशिष्टता का अनुभव होता है। कहीं कहीं सैद्धान्तिक बातों का स्पष्टीकरण किया गया है, उसकी भी जानकारी होती है। जीवकाण्ड की पंजिका में वस्तुतत्व का विचार करते हुए उसे पुष्ट करने के लिए अन्य ग्रन्थकारों के उल्लेख भी उद्धृत किये हैं जिससे ग्रन्थ की प्रामाणिकता रहे। उसका आदि मंगल पद्य निम्न प्रकार हैं परण मिय जिणिदं चंदं गोम्मट संग्गह समग्ग सुत्ताणं । केसिपि भणिस्सामो विवरण मण्णेस समासिज्ज ।। तत्थ लाव तेसि सुप्तानमा दिए मंगलट्ठ भणिस्स मागट्ठे विसय पइष्णर करणट्ठे व कयस्स सिद्ध मिच्चाइ माहा सुत्तस्सरी उम्रयेणट्ठ विवरणं कहिस्लामो तंजावोच्छे चारो गुणस्थानों में भाव किस अपेक्षा से निरूपित हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में भाव दर्शन मोह की अपेक्षा से कहे गये हैं, क्योंकि अविरत गुणस्थान तक चारित्र नहीं होता । १. सो जयउ वासुपूज्जो सिवासु पुज्ञासुपुज्ज-पय- पउमो | विमल वसुपूज्यसुदो सुदकित्ति पिये पिये वादि ॥१ समुदिय व चन्दपसाद मुदकित्तिमरो जो सो कित्ति भणिज्जद परिपुज्जिय चंदकित्तिति ॥२ जेरणासेस वसंतिया सरमई ठारांत रागो हणीं । जं गाढं परिचभिकरण मुहया सोजत मुद्दालाई जस्सा पुग्न गुणप्पभूदयालंकार सोहम्मिरि ....... किसिदेव जदिला तेरणासि ग्रंथो को । ३ - पंजिका प्रशस्ति २. अथवा सम्छंन गर्भापपादानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिकाकारादीनामभिप्रायः । गो० जी० मन्द प्रबोधिका टीका ग्रा० ८३ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य इसे स्पष्ट करते हुए उक्तं च रूप से तत्त्वार्थ सूत्र के निम्न सूत्र का उल्लेख किया है बुतं च तच्चट्ठयारेणं "मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणजोहान्तरायक्षयाच्च केवलमिवि ।" मिथ्यात्व के भेदों का कथन करते हुए उनके नाम श्रीर लक्षण निम्न प्रकार दिये हैं-- एकान्त मिथ्यात्व विपरीत मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व संशयित मिथ्यात्व और अज्ञान मिथ्यात्व ।' एयंत मिथ्यत्वादिप्रत्थि चेव, णत्थि सेव, प्रणिध्वमेव, एयमेव, अयमेव तच्च मिच्चादि सम्बहाव रणरूपो श्रहिष्यायो एयंत मिच्छत णाम । प्रहिंसादिलक्खण सद्धम्मफलस्स सग्गापवग्गस्स हिंसादि पावकललेख परिच्छेदणाहित्यायो विवरीय ३६६ मिच्छत्तणाम | सम्म सणादि णिरदेवखेण गुरु- पाय-पू आदि सक्क्षणेण विनएणेव मोक्लोत्ति अहिष्यानी येणइयमिच्छत णाम । पञ्चवखादिणा पमाणेण पडिगेज्ञमाणस्स प्रस्थस्स देसंतरे कालंतरे ध एय सहवाबहारणाणुवत्तोदो, तस्स रूव परूयाण माहिमाणदंदज्झमाणाणं पि परप्पर विरुद्ध देसमाणामवचयरा णिच्छया भावादो इदमेव तच्चमिदं ण होवित्ति परिच्छेउ ण सक्कमिदि उहथ सावलंबी श्रहिष्यायो संसइदमिच्छतं णाम । विचारिज्जमा रामट्टाणमवदित्ता भावावो कथमिद मेरिस जेवेति णिच्छियदित्ति महिष्यायो प्रणाम मिच्छतं णाम । पत्र ३३ पर सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का वर्णन करते हुए पंजिकाकार ने दोनों की एकता का freqण करने के लिये भूतबलि भट्टारक का उल्लेख किया है---" श्रदो जेय वोव्हमेगसस्स वि परूवणट्ठ भूदबलि भट्टा रहि दोन्हं एग जे गणसुद्धि गहणं कदं ।' पत्र ३४ की गाथा नं० ४८१ में दर्शन का लक्षण करते हुए पंजिकाकार ने श्राचार्य वीरसेन द्वारा चचित दर्शन विषय का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है- "एसो वीरसेण भयवंताणस्यचागमग हिय साराणं च वक्खाण कमो दो । पुव्वाइरिय वक्खारग कर्म पुण एसा गाहा परुवेदि ।" संयमी जीवों का प्रमाण छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों का तीन कम नौ करोड़ बतलाया है। उन्हें मैं हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूँ। ये सब गाथाएं नम्बर क्रम के भेद के साथ जीवकाण्ड में पाई जाती हैं । पंजिका का पूरा अध्ययन करने पर अनेक विशेष बातों का बोध होगा । जीव काण्ड की पंजिका का अन्तिम मंगल इस प्रकार है जे ध्वणस्थति विमुहा साहिश्च मगच्चुदा, विट्ठ जेहि जय पमाण- ग्रहणं जोहण सम्म भदं । तेदितु थुवंतु किं ममतदो, प्रणारिसा जेइयो, से रज्जति अदीह साह सहलो सब्बो पयासो मम ॥ कर्मकाण्ड की पंजिका का आदि मंगल निम्न प्रकार है: मह जिण चला कमलं सुरमउलिमणिप्पहा जलुल्ल सियं । ह किरण केसरसभमंत देवी कयन्भमरं ॥ ग्रहकम्म भेदं परुवेमाणो विज्जाए भव्य छिति निमित्तमिदि काढूण मंगलं जिणिवं णमोक्कारं करेदि पणमिय सिरसा मि गुण रयण-विभूसणं महावीरं । सम्मत रयण - णिलयं पर्याडसमुविकलणं थोच्छं ॥ १ पण मिय सम्म रय खिलयं प्रप्पसरूष लबिलक्खण समीचीना मेव स्मरणं तस्स गिलय मासबं, कुदो गुणरयणभूणतादो। पर्यासमुक्कित्तणं । पयडीगं सारणावर सादीनं सम्म बिसेसेण किसणं कहणं जत्थ तं बोछ मिदि संबध्यते । जीवने गिरबसेसे परूविय सम्मत्ते, किमट्टमिवं परुविज्जये । ण, गुणाविवीस पवनेषु परुविज्जमारणेसु | मोह जोगभवा सकम्मभवाइच्चाइसु कम्माण महिहाणमेतमेव पविवं । एा समस्त सहवं प्रवो तब परुषि 1 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणाणण पमाददोषगरिमा गयी जहा सध्वपरोवयारकरणमा इमेसि इमे ! . जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ जाए जीव मेयो चेयण सम्ममवगम्मरिश पर समुश्किशणमारंभदे । किं तदित्याह-वाक्य के साथ उसकी पहलो गाथा की पंजिका दी गई है। मन्तिम भाग सो जयउ वासुपुज्जो सिवासु पुज्जास पुज्ज-पय-पउमो । पविमल बसुपज्ज वो सवकिति पिये पियंवादिक्षा समुधिय वि मेघचंदप्पसाव सुदकित्तियरो। जोप्तो किशि भणिज्जा परिपब्जिय चंदकिसि सि ॥२॥ जेणासेसवसं प्तिया सरसई ठारवंत रामोहणी, अंगाढं परि भिऊण मुहया सोजत मुद्दासई। जस्सापुष्वगुणप्पभूवरयणालंकार सोहग्गिरि ........ किशिदेवजदिणाणासि गंयो कमो ॥३॥ उपण पण्णाण मिसीणमंति, पयोजणं णरिथ तहा विहं वे कज भवेचे विमिरा बहरणं वालाणमिच्चस्थ कयं ममेयं ॥४॥ अण्णाणेग पमावदोषगरिमा गंथस्स होविशिवा, पालस्सेण व एत्य जंण संबन्धणिज्जं पि में। तं पुख्वावर साहसोहण सुही सोहंतु सम्म सुही, जंहा सवपरोवयारकरणे संतोगिही दबवा ॥५॥ एसो बंबवि बंधणिज्जमितिमे वेवस्स बंधो इमो, एवं बंध णिमित्त मस्स समये भेदा इमेसि इमे। इच्चे कहिवक्कमेण इमिणा णच्या जवी संगह, पंचण्हं परिभावो भवभयं णिच्चासिम बच्चये।६। पा विमला गुरण गुराई पहुप्पिया अंति किय चर्मकारा, पंजीरंजिय भवणा चिटठउ सकिति कित्तिव्य ।। जादं जत्य स लड मूलमहिमे साहाहि सस्सोहियं । सच्छायं सगुणति बुदित विसयं भूदेवयाणं सया। धम्मारामुव राहवस्स कविणो तत्थेसगंयो करो। गामे पुस्खलि "----णामसहिये कालामए ॥॥ सोलह सहिय सहस्से गय सगकाले पवढ्डमाणस्स । भाव समस्तसमता कत्तिय वीसरे एसा ॥६॥ इमिस्से गंथ संखाण सिलोएहि फडीकर्य । पण्णासेहि समं बुच्छं दसयं वसहिगुणं ॥१०॥ ग्रंथ संख्या ५००० । श्रीपंचगुरुभ्यो नमः शुभमस्तु भव्यलोकाय । गोम्मद पंजिका नाम गोम्मटसार टिप्पणं समाप्तं । मेघचन्द्र विद्यदेव मेषचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें सकलचन्द्र के शिष्य मेघ चन्द्र का यहां परिचय दिया जा रहा है । यह मेधचन्द्र मूलसंघ देशीयगण और पुस्तक गच्छ के थे। न्याय, व्याकरण सिद्धान्त प्रादि सभी विषयों के अधिकारी विद्वान थे। इसी कारण श्रवणबेलगोल के ४७वें शिलालेख में प्रापको बड़ी प्रशंसा की गई है और बतलाया है कि प्राचार्य मेषचन्द्र सिद्धान्त में वीरसेन, तर्क में प्रकलंकदेव और व्याकरण में पूज्यपाद के समान विद्वान थे। विद्य इनकी उपाधि थी पौर यह विद्यचक्रेश्वर कहलाते थे। श्री मूलसंघकृत पुस्तक गच्छ वेशीयोचदगणाधिप सुताकिक चक्रवर्ती। सैद्धान्तिकेश्वर शिसामणि मेघचन्द्रस्त्रं विचदेव इति सद्विखुषाः स्तुवन्ति ।। १. गुरपश्चन्द्र के सघर्मा मेषचन्द्र । नयकीति के शिष्य मेषचन्द्र, नमकीति का स्वर्गवास पाक सं० १.६९ (सन् १९७७) में हना था। बालचन्द्र के शिष्य मेषचन्द्र, माषनन्दी व्रती के शिष्य मेषचन्द्र । और सकलचन्द्र के शिष्य मेषचन्द्र, जो विद्यमश्वर नाम से प्रसिद्ध थे। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३७. सिद्धान्ते जिन वीरसेन सदशः शास्त्राम्जमा-भास्करः षटतध्यकलंकवेव विबुधः सक्षावयं भूतले। सर्व व्याकरणे विपश्चिवधिपः श्रीपूज्यपावः स्वयं । विद्योत्तम मेघश्चन्द्र मुनियो वावीभपंचाननः ।। इनके शिष्य वीरनन्दी प्राचार्य ने प्राचारसार को प्रशस्ति में उन्हें सिद्धान्तार्णवपूर्णतारकपति' योगीन्द्र चूड़ामणि, प्रौर विद्यविभूषण मादि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है । यथा सिद्धान्तार्णव पूर्णतारकपतिस्तकम्युिजाहपतिः शग्दोघानवनामतोक्सरणिर्योगीन्द्रचूडामणिः । विद्यापरसार्थ नाम विभवः प्रोद् धूतचेतोभवः, स्थेयावश्यमृतावनीमृदशनिः श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ।।३० यद्वाछी रवतंस मण्डनमणिग्धविग्धत्विषाम् याचारित्र विचित्रता शमभृतां सूत्रं पवित्रात्मनाम् । यत्कीतिर्थ बलप्रसाधनधुरं पत्त धरा योषितः, स विद्याविभूषणं विजयते भीमेषचन्द्रो मुनिः ॥३१ जयनेक शिष्य थे। नीरनन्दी, अनन्तकीर्ति. प्रभाचन्द्र और शुभकीर्ति । लेख नं० ५० में मेषचन्द्रबिद्य देव के शिष्य प्रभाचन्द्र को प्रागम का ज्ञाता वीर वीरनन्दी को भारो सैद्धान्तिक बतलाया है। इन प्रभाचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०६८ (सन् १९४६ई०) और वि० सं० १२०३ में हुआ था। इनमें वीरनन्दो 'आचारसार के कर्ता हैं, और जिन्होंने उसकी स्वोपज्ञ कनड़ी टीका शक सं०१०७६ (सन् ११५३ ई.) में बनाकर समाप्त को थी। मेधचन्द्रविद्यदेव का स्वर्गवास शक सं० १०३७ वि० स० ११७२) में मगशिर सुदी चतुर्दशी वहस्पतिवार के दिन धनुर्लग्न में हुआ था। जैसा कि श्रवणवेलगोल के शिलालेख नं. ४७ के निम्न वाक्यों से प्रकट है-- ___ "सक वर्ष १०३७ नेयमन्मथ संवत्सरव मार्गसिर सुद्ध १४ बृहबार धनुर्लग्नद पूर्वाह्न वारुधलि मेयप्पग्गल श्रीमूलसङ्घद देसियगणद पुस्तकगच्छव श्रीमेधचन्द्र विद्यदेवर्तम्मयसानकालमवरितु पल्पङ्कासन बोलिद प्रारमभावनेयं भाविसुत' देवलोक्के सम्बराभाव नेयन्त पुदेन्दोडे।" प्रतः इन मेघचन्द्र का समय वि. की १२ वीं शताब्दी सुनिश्चित है। शान्तिषण यह काष्ठासंघान्तमंत माथुरसंघ के विद्वान अमितगति (द्वितीय) के शिष्य थे। जिन्होंने अपने चरण कमलों. पर महीश को नमा दिया था। चूकि अमितगति द्वितीय का समय संवत् १०५० से १०७३ है। अतः उनके शिष्य शान्तिषण का समय ११वीं शताब्दी का मन्तिम भाग होना चाहिये। प्रमरसेन शान्तिषेण के शिष्य और माथुरसंघ के प्रधिप अमरसेन हुए, जो पापों का नाश करने वाले थे-माहरसंभाहिउ अमरसेण तहो हउ विणेउ पूण हय-पूरेण " (षट् कर्मोपदेश प्रशस्ति)। इनका समय १२वीं शताब्दी का मध्य भाग संभव है। श्रीषेणसूरि यह अमरसेन सुरि के शिष्य थे। माथुरसंघ के पंडितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु(अग्नि) १. गरिए संतिसेण तहो जान सीसु, रिणय-चरण कमल-णामिय महीसु-षट्कर्मोपदेश प्रशस्ति। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे। इनका समय १२वीं शताब्दी का तृतीय चरण होना चाहिये । "सिरिसेणु पंडित पहाणु, सहो तीसवाइय-काणण-किसाणु।" नेमिचन्द्र यह कवि अपने समय में बहत प्रसिद्ध था। वीर वल्लाल देव और लक्ष्मण देव इन दो राजामों को सभा में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । कलाकान्त, कविराज मल्ल, कवि धवल, शृङ्गारकारागह, कविराज कंजर, साहित्य विद्या घर, विद्यावधूवल्लभ, सुकविकण्ठाभरण, विश्वविद्या विनोद, चतुषिा कवि चक्रवर्ती, सुकर कवि शेखर, आदि इसके विरुद थे । इसकी दो कृतियां उपलब्ध हैं-लीलावती और नेमिनाथ पुराण । इनमें लीलावती कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसमें १४ आश्वास हैं। कवि ने इसे केवल एक वर्ष में बनाकर समाप्त किया था। यह ग्रन्थ मुख्यतः शृगारात्मक है। कर्नाटक कवि चरित में इसकी कथा का सार निम्न प्रकार दिया है: कदम्बवशीय राजारों की राजधानी जयन्तीपुर प्रथवा जनवास नाम के नगर में थी। वहाँ चूडामणि नाम का राजा राज्य करता था। उसको प्रधान रानी का नाम पपावती और पुत्र का नाम कन्दर्प देव था । गुणगन्ध नामा संशका पुम मकरन्द रामकुमार का बहुत ही प्यारा मित्र था। कन्दर्प एक दिन स्वप्न में एक रूपवती स्त्री का दर्शन करके उस पर अत्यन्त प्रासक्त हो गया। दूसरे दिन उस स्त्री को खोज में वह अपने मित्र के साथ उस दिशा की ओर चल दिया, जिस दिशा की ओर उसने उसे स्वप्न में जाते देखा था। चलते-चलते वह कुसुमपुर नाम के नगर में पहुंचा। वहाँ के राजा शृगारशेखर की लीलावती नाम को एक रूपवती राजकुमारी थी। इस राजकुमारी ने भी स्वप्न में एक राजकुमार को देखा था और उस पर अपना तन मन वार दिया था। स्वप्नदृष्ट राजकुमार की खोज में उसने कई दुत इधर-उधर भेजे थे। उन दूतों के द्वारा लीलावती और कन्दर्प का परिचय हो गया, और अन्त में उन दोनों का विवाह हो गया। लीलावती को प्राप्त करके कन्दर्प अपनो राजधानी को लौट पाया और सुखपूर्वक राज्य-कार्य सम्पादन करने लगा।" इसका कथा भाग सुबन्धु कवि की वासवदत्ता का अनुकरण मालूम होता है। ' लीलावती की रचना सरस और सुन्दर है । इसकी रचना गंभीर, शृगाररसपूरित और हृदयहारिणी है । इससे कवि को प्रतिभा, शब्द सामग्री का चयन और वाक्यपद्धति अनन्यसाधारण प्रतीत होती है। कवि की दूसरी कृति 'नेमिनाथ पुराग' है। इसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है । यह ग्रन्थ कवि ने वीरवल्लाल नरेश (११७१-१२१६)के पद्यनाभ नामक मंत्री की प्रेरणा से बनाया था। यह ग्रंथ अधुरा जान पड़ता है। क्योंकि इसके प्रारंभ में यह प्रतिज्ञा की गई है कि नेमिनाथ की कथा में गौणता से वासुदेव कृष्ण भोर कन्दर्प की कथा का भी समावेश किया जायगा, परन्तु आठवें भाश्यास में कंसवध तक का कथा भाग पाया जाता है। जान पड़ता है, ग्रन्थ पूर्ण होने से पहले ही कवि दिवंगत हो गया हो। इस कारण ग्रन्थ का नाम 'अर्धनेमि' कहा जाने लगा है । इस प्रन्थ के प्रारंभ में तीथकर, सिद्ध, यक्ष यक्षिणी और गणधर की स्तुति के बाद गद्धपिच्छ प्राचार्य से लेकर पूज्यपाद पर्यन्त पूर्वाचार्यों का स्मरण किया गया है। ग्रन्थ के प्रत्येक पाश्वास के अन्त में निम्नलिखित गछ मिलता है-"इति मपद बन्ध बन्धुर सरस्वतीसौभाग्य व्यंग्य भंगी निधान बोपर्वात-चतुर्भाषाकवि चक्रवर्वात मेमिचन्द्र कृते भीमत्प्रताप चक्रवति श्री वीर बल्लाल प्रसाबासावित-महाप्रधान पदवोविराजित-सज्जेवल्ल पद्म मानदेवकारिते नेमिनाथ पुराणे।" लीलावती ग्रन्थ के अन्त में इसने एक पद्य में लिखा है कि राजा लक्ष्मणदेव समुद्र बलयांकित पृथ्वी का स्वामी है। उक्त लक्ष्मणदेव का कर्णपार्य (११४०) ने अपने नेमिनाथपुराण में उल्लेख किया है । कर्णपार्य के समय में लक्ष्मणदेव सिंहासनारू नहीं हुआ था, उसका पिता या बड़ा भाई विजयादित्य राज्य करता था। परन्तु कवि नेमिचन्द्र के समय बह राज्य का स्वामी था। इससे कवि नेमिचन्द्र का समय कर्णपार्य के बाद का निश्चित होता है। नेमिचन्द्र ने नेमि पुराण की रचना जिस वीरबल्लाल के मंत्री पद्मनाभ की प्रेरणा से की है, उसका समय ११७२ से १२१६ पर्यन्त है। इससे भी उक्त समय यथार्थ प्रतीत होता है । कविनेमिचन्द्र ईसा की १२वीं शताब्दी के चतुर्थ चरण Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३७३ और विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं । कन्नड़ भाषा के जन्न, पार्थ, कमलभव, आदि कत्रियों ने कवि नेमिचन्द्र की प्रशंसा की है। श्रीधर यह ज्योतिष शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे । यह कर्नाटक प्रान्त के जैन ब्राह्मण थे, और बेलबुल नाडांतर्गत नरिगुंद के निवासी थे। इनकी माता का नाम अवोका और पिता का नाम बलदेव शर्मा था । इन्होंने अपने पिता से ही संस्कृत और कन्नड ग्रन्थों का ग्रध्ययन किया था। प्रारम्भ में यह शैव धर्मानुयायी थे, किन्तु बाद में जैन धर्मानुयायी हो गए थे । यह गणितशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। इनका समय ईसा की दशवीं शताब्दी का अन्तिम भाग और संभवतः ११वीं का प्रारंभ रहा है। इनकी गणितसार और ज्योतिर्ज्ञान निधि दो रचनाएं संस्कृत भाषा में है और जातक तिलक कन्नड भाषा की रचना है । गणितसार में अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल भिन्न समच्छेद, भागजा प्रभागजाति, भागानुबन्ध भागमात्र जाति, वैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्र व्यवहार एक पत्रीकरण, सुवर्ण गणित, प्रक्षेपक गणित, क्रय-विक्रय, श्रेणी व्यवहार और काष्टक व्यवहार आदि गणितों का कथन किया है। ज्योतिज्ञाननिधि - यह ज्योतिष का प्रारम्भिक ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में संवत्सरों के नाम, नक्षत्रों के नाम, योग करण और उनके शुभा शुभ फल दिये हैं। इसमें व्यवहारोपयोगी ज्योतिष का वर्णन है । 1 तक तिलक - कन्नड भाषा का ग्रन्थ है | यह जातक सम्बन्धी रचना है । यह कन्द वृत्तों में रचा गया है इसमें २४ अधिकार हैं। इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग और जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेश का कथन किया गया है। इस ग्रन्थ को श्रीधराचार्य ने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के राज्यकाल में बनाया या । कवि ने लिखा है कि मैंने विद्वानों की प्रेरणा से जातक तिलक की रचना को यह ग्रन्थ मैसूर विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित हो चुका है । वासवचन्द्र मुनीन्द्र इन्हें मूलसंघ देशीयगण के विद्वान आचार्य गोपनन्दी के सघर्मा बतलाया है । यह कर्कश तर्कशास्त्र में निपुण थे । इन्होंने चालुक्य राजधानी में अपने वाद पराक्रम से 'बाल सरस्वति' की उपाधि प्राप्त की थी। जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है वासचन्द्र मुनीन्द्रन्द्रस्याद्वाद तर्कश कक्कंश- धिषणः । चालुक्य कटकमध्ये बाल- सरस्वतिरिति प्रसिद्धिप्राप्तः ॥ - जैन लेख सं० भा० १ पृ० ११६ यह लेख शक सं० १०२२ (सन् ११०० ई०) में उत्कीर्ण किया गया है। प्रतः वासवचन्द्र का समय ईसा की ११वीं शताब्दी जान पड़ता है। देवेन्द्रमुनि इनकी गुरु-शिष्य परम्परा ज्ञात नहीं है । इनकी एक रचना बालग्रह चिकित्सा है। इसमें बालकों की ग्रहपीड़ा की चिकित्सा का वर्णन है । ग्रन्थ प्रायः वाक्य रूप में है । कवि का समय लगभग १२०० ईसवी है। नयकीर्तिमुनि मुनि नयकीर्ति मूलसंघ देशीयगण के प्राचार्य गुणचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । जो जैनागम के 1 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ विद्वान और सैद्धान्तिकाग्रेश्वर, चारित्र चूडामणी, शल्यत्रयरहित, और दण्डश्य के ध्वंसक थे | नागदेव मंत्री इनके शिष्य थे। गुणचन्द्र मुनि के पुत्र माणिक्यनन्दी इनके सधर्मा थे। इनकी शिष्य मंडली में मेघचन्द्र व्रतीन्द्र, मलधारि स्वामी, श्रीधरदेव, दामनन्दि विद्य, भानुकीर्तिमुनि, बालचन्द्र मुनि, माघनन्दिमुनि, प्रभाचन्द्र मुनि, पद्मनन्दी मुनि और नेमिचन्द्र मुनि के नाम मिलते हैं । नयकीर्ति का स्वर्गवास शक सं० १०६६ (सन् १९७७) में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी शनिवार को हुआ था । जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है शाके रम् म्रनवयु चन्द्रमसि दुम्मुख्याख्य संवत्सरे वैशाखे धवले चतुर्दशि दिने वारे च सूय्यत्मिजे । पूर्वाह्न प्रहरे गतेऽर्द्धसहिते स्वर्ग जगामात्मवान् ॥ विख्यातो नयकीर्ति देव मुनिपो राद्धान्तचकाधिपः ॥ २३ नागदेव मंत्री ने अपने गुरु नयकीति की निषद्या का निर्माण कराया था । मारिसक्यसेन पंडितदेव यह मूलसंघ सेनगण पोगरि गच्छ के वीरसेन पंडितदेव का सघर्मा था । यह सन् १९४२-४३ ईसवी मेंदुभि वर्ष पुष्य शुद्ध सोमवार को उत्तरायण संक्रान्ति के समय पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेक मल्ल द्वितीय के राज्यकाल में, उसे १००० के प्रवेश पर शासन करने वाले योगेश्वर सेनाध्यक्ष की प्रशंसा करता है और पेडे मय्दुन मल्लिदेव सेनाध्यक्ष की अनुमति से जो जिड्वलिगे ७० के राज्य पर शासन कर रहा था, इसने आवली के भगवान पार्श्वनाथ को एक भूमिदान दिया । और एक दान संभवतः एक जैनमन्दिर को मुद्द गावुण्ड और दूसरे लोगों द्वारा दिया गया था। जो जंनधर्म के पक्के ग्रनुधायी और भक्त थे। यह दान उक्त वीरसेन पण्डितदेव के सहधर्मी माणिक्यसेन पण्डितदेव के पाद प्रक्षालनपूर्वक दिया गया था। इससे पण्डित माणिक्यसेन का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का मध्य काल है । - ( जैन लेख संग्रह भा० ३ १०५६ महासेन पण्डितदेव इनकी गुरु परम्परा और गण गच्छादि का उल्लेख मेरे देखने में नहीं पाया। डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार ये नयसेन पण्डितदेव के शिष्य थे। इनका उल्लेख पद्मप्रभ मलधारिदेव ने नियमसार की तात्पर्यवत्ति में किया है और उन्हें ९६ वादियों के विजेता होने से विशालकीर्ति को उत्पन्न करने वाला सूचित किया है। तथा १६१ गाथा को वृत्ति में 'तथा चोक्तम् श्री महासेन पण्डितदेवः -- वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धृत किया है :-- ༢ ज्ञानाम्निो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचनः । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥ १. साहित्य प्रमदा मुखाब्जमुकुरश्चारित्र चूड़ामणि । श्री जैनागम-वाद्धि-वर्द्धन-सुधाशोचिस्समुद्भासते । यशल्यत्रय - गारव-त्रय लसण्ड ध्वंसक - स श्रीमानकीर्ति देव मुनियस्सैद्धान्तिका प्रेसरः ॥२० — जैन लेख सं० भा० १ ० १७ २. उक्त च षण्णवति पाडि विजयोपार्जित विशालकीतिभिः महासेन पण्डितदेवः - यथावद्वस्तु निर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपचत् । तत्स्वार्थ व्यवसायात्मा कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।। - नियमसार तात्पर्य वृति पृ० १२६ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य यह स्वरूप सम्बोधन का पद्य है । इनकी दो कृतियां कही जाती हैं- एक स्वरूप सम्बोधन श्रीर दूसरा 'प्रमाण निर्णय' स्वरूप सम्बोधन के कर्ता उक्त महासेन हैं। इनमें स्वरूप सम्बोधन २५ श्लोकात्मक एक छोटी सी महत्त्वपूर्ण कृति है । उस पर केशवाचार्य और शुभचन्द्र ने वृत्तियाँ लिखी हैं। प्रमाण निर्णय ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नहीं थाया। संभवतः वह प्रकाशित दशा में किसी ग्रन्थ भंडार में होगा । नियमसार वृत्ति के कर्ता पद्मप्रभ मलधारि देव का स्वर्गवास शक सं० ११०७ सन् १९८५ ईसवी में हुआ था, यह सुनिश्चित है । अतः महासेन पण्डितदेव का समय सन् १९८५ ई० से पूर्ववर्ती है। अर्थात् वे ईसा की १२वीं शताब्दी के मध्य काल के विद्वान जान पड़ते हैं । प्रभाचन्द्र प्रस्तुत प्रभाचन्द्र सूरस्थगण के विद्वान थे । ये अनन्तवीर्य के प्रशिष्य और बालचन्द्र मुनि के शिष्य थे। अनन्तवीर्यं की स्तुति कम्बदहल्लि के शिलालेख में की गई है। यह शिलालेख शक सं० १०४० (सन् १९१८) वि० सं० १९७५ का है । श्रतएव इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है । (जैन लेख सं० भा० २५०३६६ ) प्रभाचन्द्र ये संघ, पुस्तकगच्छ देशियगण के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान मेधचन्द्र विद्यदेव के प्रधान शिष्य थे । इन evera far का स्वर्गवास शक वर्ष नेय मन्मय संवत्सरद १०३७ सन् १९१५ मगशिर सुदि १४ बृहस्पतिवार को हुआ था । यह मेघचन्द्र सकल चन्द्रमुनि के शिष्य थे । इन मेघचन्द्र के दूसरे शिष्य वीरनन्दी थे । प्रस्तुत प्रभाचन्द्र विष्णु वर्द्धन राजा की पट्टरानी धर्मपरायणा, पतिव्रता, सती साध्वी, जो भक्ति में रुक्मणि सत्यभामा तथा सीता जैसी देवियों के समान थी, के गुरु थे । शक सं० १०६८ (सन् १९४६) वि० सं० १२०३ में मासोज सुदि १०मी बृहस्पतिवार को जिनके स्वर्गारोहण का उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५० में पाया जाता है । इन प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव ने अपने गुरु की निषद्या महाप्रधान दण्डनायक गंगराज द्वारा निर्माण कराई थी। मेघचन्द्र के शिष्य इन प्रभाचन्द्र ने शक सं० १०४१ (सन् १११६ ई०) में एक महापूजा प्रतिष्ठा कराई थी। इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है । २७५ प्रभाचन्द्र विद्य यह मडुगण के सूर्य, समस्त शास्त्रों के पारगामी, परवादिगज मृगराज और मंत्रवादि मकरध्वज मादि विशेषणों से युक्त थे और वीरपुर तीर्थ के अधिपति मुनि रामचन्द्र त्रैविद्य के शिष्य थे । नय-प्रमाण में निपुण एवं १. एनाल्स ऑफ दि भाण्डारकर ओरियन्टल इन्स्टियूट मा० १३ पृ० में डॉ० ए. एन. उपाध्ये का लेख । २. श्री मूल कृत-पुस्तक गच्छ देशीयोचद्गणाधिप सुतार्किक चक्रवर्ती । संद्धान्तिकेश्वर शिखामणिमेघचन्द्र - स्त्रविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति । ३. जैन लेख सं० भा० १ लेख नं० ५० (१४०) पृ० ७१ ४. जैन लेख सं० भा० १५० ६४ ५. जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३२ जैन लेख सं० भा० १ ० ७५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ तीक्ष्ण बुद्धि थे यह भट्टारक प्रभाचन्द्र मंत्रवादी थे। इन्हें चालुक्य विक्रम राज्य संवत् ४८ (११२४ ई.) में अग्रहार ग्राम सेडिम्ब के निवासी, नारायण के भवता, वह कर घों के पास कार, ज्वालामालिनी देवी के भवत, तथा अपने अभिचार होम के बल से कांचीपुर के फाटकों को तोड़ने वाले तीनसौ महाजनों ने सेडिम में मन्दिर बनवाकर भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी और मन्दिर पर स्वर्ण कलशारोहण किया था। मन्दिर की मरम्मत और नैमित्तिक पूजा के लिये २४ मत्तर प्रमाण भूमि, एक बगीचा और एक कोल्हू का दान दिया था। इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है। १. जिनपति मततस्वरुचिर्नयप्रमाणप्रवीणनिशितमतिः । परहितचरित्र पात्रो बभी प्रमाचन्द्र यतिनाथः। ख्यातस्त्रविद्यापरनामा श्रीरामचन्द्रमुनि तिलकः । पियशिष्यत्रविद्यप्रभेन्दु भट्टारको लोके ।। -जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० ४११ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ५ तेरहवीं और चौदहवीं पाताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि कनकचन्द्र मुनीन्द्र कमलभव विजयकोति अभयचन्द्र सिद्धान्स बमवर्ती वेवसेनगणी भानुकीति सिद्धान्तदेव मुनि देवचन (पासनाह १०) मुनिचन्द्र (वि० सं० १२८६) जयसेन प्रजितसेनाचार्य (मलंकार चिन्ता.) चन्द्रकीति श्रीधरसेन (विश्वलोचनकोश) प्रमरकीति विजयवर्णी (भूगारार्णव प्रन्द्रिका) अग्गलदेव कषि वाग्भट (काव्यानुशासम) श्रीधर रविचन्द्र (बाराषना समुच्चय) मुनि विनयचन्द्र रट्टकवि महंडास उदयचन्द्र पासचन्द्र गीतदेय पं० महावीर इन्द्रनन्दी कवि लक्ष्मण या लाखू विमलकोति दामोदर मेषचन्द्र श्रीधर (भविसयत्तकहा कर्ता) कुमुदेन्द्र माधवचन्द्र विद्य (क्षपणासारगद्य) गुणभद्र मुनि विनयचन्द्र (सागरचन्द्र के शिष्य) प्रभावन्द्र रामचन्द्र मुमुक्षु (पुण्यास्रम के कर्ता) अण्डस्य विमलकीति शिशुमायण मुनि सोमवेव (शब्दार्णवचन्द्रिका) पावपपित कविहरवेष कवि जन्न यशःोति (चंदप्पह परिज कर्ता) श्रीकीति मदनफोति (महंहास) महाबल कवि भाषसेन विध लघु समन्तभद्र पण्डितप्रवर माशापर कुलचन्द्र उपाध्याय नरेन्द्रकीति (बहनदि शिष्य) सकमचन्द्र भट्टारक बासबसेन (यशोधर ५०) सकलकीति वावीन्द्र विशालकोति नस्वि गुब मादिराज मुमि पूर्णभा (सुकुमालचरिउ) शुभचन्द्र योगी गुरगवर्म (द्वितीय) मल्लिषेण पण्डित Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ बालचन्द्र मलधारो वादिराज द्वितीय त्रिविक्रमदेव भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक इन्द्रनन्दि (योगशास्त्र टीका) देवसेन भावसंग्रह बाल चन्द्र कवि विद्यानन्द श्रुतमुनि रत्न योगीन्द्र कुलभद्र कवि नागराज प्रभाचन्द्र मधुर कवि पं० हरपाल (वैद्यक ग्रन्थ कर्ता) केशव वर्णी कवि श्रीधर वर्द्धमान भट्टारक मंगराज द्वितीय अभयचन्द्र गुणसूषण अय्यपार्य माधनन्दि योगोन्द्र वादिकुसुखचन्द्र कष्ट पं० वामदेव जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग अमरकोशि हस्तिमल्ल पं० नरसेन सुप्रभाचार्य भास्कर नन्दी सुलबोधा तत्त्वार्थ वत्तिकर्ता Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और बाद शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि 'कनकचंद्र श्री मूल संघ कारगण मेष पाषाण गच्छद कनकचन्द्र सिद्धान्तदेवर - ( सिद्धान्तदेव को) मरटाल के मन्दिर की पूजा के वास्ते दान दिया गया है। इस मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ को बड़ी कायोत्सर्ग मूर्ति विराजमान है। उसके नीचे कनड़ी अक्षरों में एक शिलालेख है। इस मन्दिर को वट्टकेर निवासी बचिपेट्टि ने बनवाया था । [ सत्याश्रय वीं कुलतिलक चालुक्यराजम् भुवनं कमल्ल विजय राज्ये शाका १०४५ (वि० सं० १९७० ) अर्थात् यह विक्रम को शताब्दी के तृतीय चरण के विद्वान है । ] देखो, दि० जैन डायरेक्टरी १० २४१ ) १२ ३७६ विजयकोति प्रस्तुत विजयकीर्ति शांतिषेण गुरु के शिष्य थे। जो लाडवागड गण की प्राम्नाय के विद्वान देवसेन की शिष्य परम्परा के थे। ये शान्तिषेण दुर्लभसेन सूरि के शिष्य थे, जिन्होंने राजा भोजदेव की सभा में पंडित शिरोमणि ग्रंवरसेन दि के समक्ष सैकड़ों वादियों को हराया था । निर्मल बुद्धि और शुद्ध रत्नत्रय के धारक थे। इन्होंने दूबकुण्ड (चडोभ ) ग्वालियर के मन्दिर की प्रशस्ति लिखी थी । उसमें लिखा है कि विक्रम संवत् ११४५ में कच्छपंशी महाराज विक्रमसिंह के राज्य काल में मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवालवंशी पाहड़, कुकेक, सूर्पट देवघर और महीचन्द्रादि चतुर श्रावकों ने ७५० फीट लम्बे और चारसौ वर्ग फीट घोडे अंडाकार क्षेत्र में इस विशाल मन्दिर का निर्माण कराया था और उसके संरक्षण, पूजन और जीर्णोद्धार के लिए उक्त कच्छपवंशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया था । इस प्रशस्ति में कच्छपवंश के राजाओं की वंश परम्परा के राजाओं के नामों का -- भीमसेन, अर्जुनभूपति, विद्याधर, राज्यपाल, अभिमन्यु, श्रीभोज, विजयपाल और विक्रमसिंह का काव्य दृष्टि से वर्णन किया है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रशस्ति महत्वपूर्ण है। विजयकीर्ति विक्रम की १२वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण के विद्वान् हैं । daarit (सुलोचना चरिउ के कर्ता) प्रस्तुत देवसेन सेनगण के विद्वान् विमलसेन गणधर के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वीरसेन जिनसेन की परम्परा में होट्टलमुक्त नाम के मुनि हुए, जो रावण की तरह अनेक शीश तथा प्रनेक शिष्यरूप परिग्रह के धारक थे। और जो सकलागम से युक्त अपरिग्रही थे। उनका शिष्य गण्डविमुक्त हुग्रा, जिनके तपस्वी जीवन का नाम रामभद्र था। इनके शिष्य संयम के धारक निर्वाडिदेव थे । इन्हीं मिडिदेव के शिष्य मलधारीदेव थे, जो शील गुण रूप रत्न के धारक थे। उपशम, क्षमा र संयम रूप जल के सागर, मोहरूपी महामल्ल वृक्ष के उखाड़ने के लिए गज (हाथी) के समान थे। और भव्यजन रूप कुमुद बन के लिए शशिधर ( चन्द्रमा) थे। पंचाचार रूप परिग्रह के धारक, पंचसमिति और गुप्तित्रय से समृद्ध, गुणी जन से बंदित और लोक में प्रसिद्ध थे । कामदेव के बाणों के प्रसार के निवारक और दुर्धर पंच महाव्रतों के धारक मलधारिदेव १. प्रास्थानाधिपती बुधादविगुणे श्रीभोजदेवे नृपे सभ्येष्यंवरसेन पंडित शिरस्ता दिषूयम्मदान् । योनेकान् शतशो व्यजेष्टपटुता भीष्टोमो वादिनः, शास्त्रांभोनिधिपारगो भगदतः श्रोणांतिषेणो गुरुः ॥ गुरु चरण सरोजराघनावाप्तपुण्य, प्रभवदनसषुद्धिः शुद्धरत्नत्रयस्मात् । अजनिविजय कीर्ति सूक्तरत्नाव कोणी जलधिभुमिवैतां य: प्रशस्ति व्यधत्त । (दुवकुण्ड रेख, जैन लेख सं० भा० २१० ३४० ) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे, जिनका नाम विमलसेन था। इन्हीं विमलसेन के शिष्य उक्त देवसेन थे जो सेनगण के विद्वान, धर्माधर्म के विशेषज्ञ, संयम के धारक तथा भव्यरूप कमलों के प्रज्ञान तम के विनाशक रवि (सूर्य) थे । शास्त्रों के ग्राहक, कुशील के विनाशक धर्मकथा के प्रभावक, रत्नत्रय के धारक पौर जिन गुणों में अनुरक्त थे। प्रस्तुत देवसेन मम्मलपुरी में निवास करते थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्य से प्रकट है :--णिव मम्मल्लपुरि हो णिवसंते, चारुद्वाणे गुण गणवंते ।" इससे देवसेन दक्षिण देश के निवासी जान पड़ते हैं। इन्होंने राजा की मम्मलपुरी में रहते हुए सुलोचना चरिउ की रचना राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन की थी। ग्रन्थ को रचना राक्षस संवत्सर में हुई है। राक्षस संवत्सर साठ संवत्सरों में से ४६ वां संवत्सर है। ज्योतिष को गणनानुसार एक राक्षस संवत्सर सन् १०७५ (वि० सं०११३२) में २९ जुलाई को धावण शुक्ला बुधवार के दिन पड़ता है और दूसरा सन् १३१५ (वि० सं० १३७२)में १६ जुलाई को उक्त चतुर्दशी बुधवार के दिन पड़ता है। इन दोनों समयों में २४० वर्ष का मन्तर है। प्रतः इनमें पहला सन् १०७५ (वि० सं०११३२) इस ग्रन्थ की रचना का सूचक जान पड़ता है। मुनि देवसेन ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करते हुए बाल्मीकि, व्यास, बाण , मधुर, हलिय गोविन्द, चतुर्मुख स्वयम्भ, पूष्पदन्त और भुपाल कवि का नाम दिया है। इनमें पुष्पदन्त का समय वि० सं० १०३५ के लगभग है। और भूपाल कवि का समय माचार्य गुणभद्र के बाद पोर पं० आशाघर के पूर्ववर्ती है । अतः संभवतः ११वीं के विद्वान जान पड़ते हैं। डा. ज्योति प्रसाद ने जैन सन्देश शोषांक १५ में देवसेन नामक विद्वानों का परिचय कराते हुए लिखा हैकल्याणि के चालुक्य वंश में जयसिंह प्रथम (१.११.१०४२) का उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्य का नाम माहवमल्ल था जिसका शासन काल लगभग १०४२-१०६५ ई०) था, पौर जिसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भूवनेकमल्ल (१०६८-१०७५ ई.) था। सोमेश्वर प्रथम नाम का राजा सामान्यतया त्रैलोक्यमल्ल नाम से प्रसिद्ध था, बड़ा प्रतापी था, दक्षिण भारत का बहुभाग उसके भाषीन था। मम्मल नगर भी उसके राज्य में था। मतएव गंड विमुक्त रामभद्र का समय भी लगभग सन् १०४०-१०७० ई. में होना चाहिये और उनकी तीसरी पीढ़ी में होने वाले देवसेन ५० वर्ष पीके (१९२०ई०) में होने चाहिए। उक्त सा० सा० ने लिखा है एक प्रत्य गणना के अनुसार राक्षस संवत १०६२-६३ ई०, ११२२-२३ ई० और ११५२-५३ ई० की तिथि में पड़ता था । इन तीनों तिषियों में से ११२२-२३ ई० की तिथि ही पषिक संगत प्रतीत होती है। डा. ज्योति प्रसाद के द्वारा बतलाई तिथि में और ऊपर की ज्योतिष के अनुसार बतलाई तिथि में ४८ वर्ष का अन्तर पड़ता है। विद्वानों को इस सम्बन्ध में विचार कर प्रस्तुत देवसेन का समय मानना चाहिए। वे १२वों शताब्दी के विद्वान जान पड़ते हैं। रचना मुमि देवसेन की एकमात्र कृति 'सुलोयणाचरिउ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की २५ सन्धियों में भरत चक्रवर्ती, (जिनके नाम से इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा है) के सेनापति जयकुमार की धर्म पत्नी सुलोचना का, जो काशी के राजा अकम्पन और सुप्रभा देवी की सुपुत्री थी, चरित अंकित किया गया है। सुलोचना पनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयम्बर में अनेक देशों के बड़े-बड़े राजागण पाये थे। सुलोचना को देखकर वे मुग्ध हो गए। उनका हृदय क्षब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे। स्वयंवर में सुलोचना ने जयकुमार को चुना, उनके गले में वरमाला डाल दी। इससे चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति कुर हो उठा, और उसने उसमें अपना अपमान १. प्रस्तुत मम्मलपुर तमिल प्रदेश का मम्मलपुर जान पड़ता है जिसका निर्माण महामल्स पल्लव ने किया था, जैसा कि डा.दशरथ शर्मा के निम्न बाप से प्रकट है। -Mammalpuram foundedby Mahamalla Pallava जन ग्रंथ प्र०सं०भा०२ काफुठनोट २. रक्खस-संबच्छरवह-दिवसए, सुपक-चाउसि सावरण मासए । चरित मुनोयपाहि गिप्पाउ, सह-अत्थ-वण्णण-संपुष्याउ || जैन ग्रंथ शप्रस्ति से० प्रा०२१२० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ३८१ समझा । अपने अपमान का बदला लेने के लिये अर्ककीति और जयकुमार में युद्ध होता है और अन्त में जय कुमार की विजय होती है। उस युद्ध का वर्णन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है : "भडो कोवि खग्गेण खग खलंतो, रणे सम्मुहे सम्महो प्राणहंतो। भडो कोवि बाणेण बाणो दलतो, समुद्धाइ उद्दुद्धरो णं कयंतो। भडो कोवि कोण कोंत सरतो, करे गाढ चषको प्ररी स पडतो। भडो कोवि खंडेहि खंडो कयंगो, लासं ण मुक्को सगा जो अहंगो । भडो कोवि संगाम भूमि धुलतो, विवण्णोह गिद्धबली णोय अंतो। भडो कोवि धायेण णिवदि ससो, प्रसिया वरेई परीसाण भोसो। भडो कोवि रत्तप्पवाहे तरतो, पुरंतप्पयेणं सडि सिग्ध पतो। भडो कोवि मुक्का उहे धन्न इत्ता, रहे दिण्णयाउ विषण्णोह इत्ता। भडो कोवि इत्थी विसाणेहि भिषणो, भडो का वि कंठो छिपणो णसष्णो। धत्ता-तहि अवसरि णिय रोष्णु पेच्छिवि सरजज्जरियउ। धावद भुयतोलतु जउ वकु मच्छर भरियउ॥६-१२ युद्ध के समय सुलोचना ने जो कुछ विचार किया था, उसे ग्रन्थकार ने गूंथने का प्रयत्न किया है। सुलोचना को जिनमन्दिर में बैठे हुए जब यह मालूम हुआ कि महतादिक पुत्र, बल और तेज सम्पन्न पांच सौ सैनिक शवपक्ष ने मार डाले हैं, जो तेरी रक्षा के लिये नियुक्त किये गए थे । तब वह मात्म निन्दा करता हई विचार करतो है कि यह संग्राम मेरे काही नआ है जो बहुत से मैनिकों का विनाशक है। प्रतः मुझे ऐसे जोवन से कोई प्रयोजन नहीं । यदि युद्ध में मेघेश्वर (जयकुमार) की जय होगी और मैं उन्हें जीवित देख लूगी तभी शरीर के निमित्त प्रहार करूंगी । इससे स्पष्ट है कि उस समय सुलोचना ने अपने पति की जीवन-कामना के लिये प्राहार का परित्याग कर दिया था। इससे उसके पातिव्रत्य का उच्चादर्श सामने पाता है। यथा "इमं जंपिऊर्ण पउत्तं जयेणं, तुम एह फण्या मणोहार वण्णा । सुरक्लेह पूर्ण पुरेणेह अणं, तउ जोह लक्खा प्रणेया असंखा। सुसत्था यरिण्णा महं विक्ख विष्णा, रहा चारु चिधा गया जो मयंधा। महंताय पुत्सा-बला-तेय-जुत्ता, सया पसंखा हया वेरिपक्खा। पुरीए गिहाणं बरं तुंग गेहं, फुरतीह पीस मणीलं कराल । पिया तस्य रम्मो वरे चित कम्मे, अरंभीय चिता सुजल्लवत्ता। णिय सोयवंती वर्ण चितर्वती, प्रहं पाष-यम्मा अलम्जा-अधम्मा । महं कज्ज एवं रणं अण्ण जायं.... बहणं जराणं विणास करेणं, महं जीविएणं ग कज्जं प्रणेणं । - जया हंसताउ स-मेहेसराई, सहे मंगवाई इमो सोमराई। धत्ता-एसयल विसंगामि, जीवियमाण कुमार हो। पेन्छमि होई पवित्ति, तो सरीर माहार हो । इस तरह ग्रन्थ का विषय और कथानक सुन्दर है, भाषा सरल मोरप्रसाद गुणयुक्त है। प्रस्तुत ग्रन्थ एक प्रामाणिक कृति है; क्योंकि प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृतगाथाबद्ध सुलोचना चरित का पद्धडिया प्रादि छन्दों में अनुवाद मात्र किया है। यह कुन्दकुन्द प्रसिद्ध सारत्रय के कर्ता से भिन्न ज्ञात होते हैं ' ग्रन्थगत चरितभाग बड़ा ही १.जंगाहा बंधे आसि उत्त, सिरि कुन्द कुन्द-गरिगणा शिकत ।। तं एव्यहि पहियहि करेमि, परि कि पि न गूढ अस्थ देपि॥ -जैन ग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह भा० २ पृ. १६ उक्त पद्य में निर्देशित कुन्दकुन्द समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता कुन्द कुन्द प्रतीत नहीं होते है। कोई दूसरे ही कुन्दकुन्द माम के विद्वान् की रचना सुलोचना चरित होगी। जिसकी देवसेन ने पदडिया छन्द में रचना की है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सुन्दर है; क्योंकि जयकुमार और सुलोचना का चरित स्वयं ही पावन रहा है । १५ वीं शताब्दी के कवि रहछू ने अपने मेघेश्वर चरित में "मेहेसरहु चरिउ सुर सेणे - वाक्य द्वारा उसका उल्लेख किया है । मुनि देवचन्द्र ये मूलसंघ देशीय गच्छ के विद्वान मुनि वासवचन्द्र के शिष्य थे जो रत्नत्रय के भूषण, गुणों के निधान तथा अज्ञान रूपी अंधकार के विनाशक भानु (सूर्य) थे। प्रशस्ति में उन्होने अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है श्री कीर्ति, देवकीर्ति, मौनिदेव, माधवचन्द्र, अभयनंदी, वासवचन्द्र और देवचन्द्र । इस गुरु परम्परा के अतिरिक्त ग्रन्थकर्ता ने रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया, हां रचना का स्थल गुर्दिज्ज नगर का पार्श्वनाथ मन्दिर बतलाया हैं जो कहीं दक्षिण में अवस्थित होगा । वासवचन्द्र नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है। प्रथम वासवचन्द्र का उल्लेख सं० २०११ वैशाख सुदि ७ सोमवार के दिन उत्कीर्ण किये गए खजुराहो के जिननाथ मन्दिर के लेख में हुआ है जो राजा धंग के राज्य काल में उत्कीर्ण हुआ था । दूसरे वासवचन्द्र का उल्लेख श्रवण वेल्गोल के ५५ वें शिलालेख में पाया जाता है जो शक सं० १०१२ (वि० सं० ११४७ ) का खोदा हुआ है । उसके २५ वें पद्य में वासवचन्द्र मुनि का नामोल्लेख है, जिनकी बुद्धि कर्कश तर्क करने में चलती थी, और जिन्हें चालुक्य राजा की राजधानी में बाल सरस्वति की उपाधि प्राप्त थी । " यदि ये देवचन्द्र वासवचन्द्र के गुरु हों तो इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी हो सकता | ग्रन्थ प्रशस्ति में वासवचन्द्र सूरि को अभयनन्दी का दीक्षित शिष्य बतलाया है और लिखा है कि उन्होंने चारों कषायों को विनष्ट किया था, जो भव्यजनो को श्रानन्ददायक थे, और जिन्होंने जिन मन्दिरों का उद्धार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रगट है - 'उद्धरियइ जे जिणमदिराइ ।' उन्हीं के शिष्य देवचन्द्र थे । ग्रन्थ के भाषा साहित्यादि पर से वह १२वीं १३वीं शताब्दी से पूर्व की रचना नहीं जान पड़ती। चरित्र भी सामान्यतया वही है । उसमें कोई खास वैशिष्ट्य के दर्शन होते । प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ संन्धियों और २०२ कडवक हैं। जिनमें भगवान पार्श्वनाथ वा चरित्र-चित्रण किया गया है । कवि ने दोधक छन्द में पार्श्वनाथ की निश्चल ध्यानमुद्रा को अंकित है, उससे पाठक ग्रन्थ की शैली से परिचित हो सकेंगे । तत्य सिलायले यक्कु जिणो, संत महंतु तिलोम हो बंदी, पंचमहाय-उद्दय कंधो, निम्म बत्त चच विह बंघो । जीवदया वह संग विक्को, णं यह लक्खणु धम्मु गुरुक्को । जन्म - जरामरणुज्भिय वप्पो वारसभेयतवस्स महप्पो । मोह समंध पाव-पयंगो, खंतिलयासहणे गिरितुगो । संजम - सील बिसिय हो, कम्म कसाय हुआासण हो । पुष्कं धरण वर तोमर धंसो मोक्ख-महासरि कोलन हंसो । इन्दिय-सम्पविसहर येतो, प्रप्पसरूद समाहि-सरतो केवल नाण- पयासण- कं, धाण पुरम्मि नियेसिय चक्खू । णिज्जिय सासु पलंदियवाहो, णिच्चल बेह विसिज्जय-बाहो । कंचन से जहां थिरचित्तो, दोषक छंद इमो त्रुह बुतो ॥" इसमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए १. दिज्ज नरि जिपासहम्मि, निवसतु संतु संजय - सम्म । २. See Epigraphica Indca Vol T Page 36 २. वासवचन्द्रमुनीन्द्रोद्रस्यादतर्फ कर्कश - विषणः । चालुक्यकटकमध्ये बालसरस्वतिरिति प्रसिद्धिः प्राप्तः 11 । वे सन्त महन्त - जन पन्थ प्रश० भा०२ पृ० २४ जनशिला ले० सं० भा० १ लेख २५ । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि freter जीवों के द्वारा बन्दनीय है, पंच महाव्रतों के धारक हैं, निर्मम हैं, और प्रकृति प्रदेश स्थिति मनुभागरूप चार प्रकार के अन्ध से रहित है दयालु और संग (परिग्रह) से मुक्त हैं, दशलक्षण धर्म के धारक हैं। जन्म, जरा पौर मरण के दर्द से रहित हैं । तप के द्वादश भेदों के अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य समान हैं। क्षमारूपी लता के प्रारोहणार्थं वे गिरि के समान उन्नत हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है। जो कर्मरूप कषाय हुताशन के लिये मेघ हैं । कामदेव के उत्कृष्ट बागों को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महा सरोवर में कीड़ा करने वाले हंस हैं । इन्द्रियरूपी विषधर सर्पों को रोकने के लिये मंत्र हैं । आत्म-समाधि में चलने वाले हैं । केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं, नासाग्र दृष्टि हैं। श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बहु लम्बायमान हैं और व्याधियों से रहित जिनका निश्चल शरीर है । जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त यह सब कथन पार्श्वनाथ की उस ध्यान-समाधि का परिचायक है जो कर्मावरण की नाशक है । "ן ग्रन्थ की यह प्रति सं० १४६८ के दुर्मति नाम संवत्सर के पूस महीने के कृष्ण पक्ष में अलाउद्दीन के राज्य काल में भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के पट्टाधिकारी भट्टारक प्रतापकीमिक समय देवगिरि के महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पण्डित गांगदेव के पुत्र पासराज द्वारा लिखाई गई है । सूरिः [ श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तपाः । न यं पदवीं भेजे जातरूप बरोपि यः ॥ ततः श्री सोमसेनोऽभूद गणी गुणगणाश्रयः । तद्विनेयोऽस्ति यस्तस्यै जयसेन तपोभूते ॥ शीघ्र बभूव मालू (१) साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सूनुस्ततः साधु महीपतिस्तस्मादयं चादभटस्तनूजः ॥ यः संततं सर्वविदः सपर्या मार्ग कमराषनया करोति । हैवने जयसेन (प्राभृतत्रयके टीकाकार) यह मूल संघ के विद्वान आचार्य वीरसेन के प्रशिष्य और सोमसेन के शिष्य थे। जयसेन मालूसाहू के पौत्र और महीपतिसाधु के पुत्र थे । उनका बाल्यकाल का नाम चारुभट था, वे जिन चरणों के भक्त और आचायों के सेवक थे। जैसा कि उनकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है t. See Introduction of the Pravacansara P. 104 २. देखो, तात्पर्यवृत्ति पु० ८ और आचार सार ४६५-६६ श्लोक ३. स्वस्ति श्रीमन्मेषचन्द विद्यदेवर श्री पादप्रसादासादितात्मप्रभाव स यसे प्रांभृत नाम ग्रन्थ पुष्यत् पितुभक्ति विलोपभी। ।। चारुभट जब दिगम्बर मुनि हो गये तब उनके तपस्वी जीवन का नाम जयसेन हो गया। उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभृत ग्रन्थों का अध्ययन किया और समयसार पंचास्तिकाय और प्रवचनसार तीनों ग्रन्थों पर वृत्ति संस्कृत भाषा में बनाई, जिसका नाम तात्पर्य वृत्ति है । वृत्ति को भाषा सरल और सुगम है। इनमें पंचास्तिकाय की वृत्ति पर ब्रह्मदेव की द्रव्यसंग्रह को टीका का प्रभाव परिलक्षित है। उन्होंने सोमश्रेष्ठी के लिए द्रव्य संग्रह के रचे जाने के निमित्त का भी 'अन्यत्र' द्रव्यसंग्रहादी सोमश्रेष्ठयादि ज्ञातव्यं' निम्न शब्दों में उल्लेख किया है। जयसेन ने अपनी वृत्ति में रचना समय नहीं दिया, फिर भी अन्य साधनों से उनका समय डा० ए० एन० उपाध्याय ने ईसा की १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया है', क्योंकि इन्होंने प्राचार्य बीरनन्दी के बाचार सार से दो पद्म उद्धत किये हैं। आचार्य वीरनन्दी ने श्राचारसार की स्वोपज्ञकनड़ी टीका शक सं० १०७६ (वि० सं० १२११ ) में समाप्त की थी। वीरनन्दी के गुरु मेघचन्द्र विद्यदेव का स्वर्गवास विक्रम की १२ वीं सदी समस्त विद्या प्रभाव सकल दिग्वति श्री कीति श्रीमदुवीरनन्दि सेद्धान्तिक चक्रवतिगनु शकवर्ष १०७६ श्रीमुखनाम संवत्सरे ज्येष्ठ शुरूष १ सोमवार दंबु ताबू माडिया चार सारक्के कर्णाट वृत्ति माडिद पर " Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tre जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ के उपास्य समय में अर्थात् सन् ११७२ में हुआ है। इससे जयसेन का समय विक्रम की १३ वीं सदी का प्रारम्भ ठीक ही है । जयसेन ने प्रशस्ति में त्रिभुवनचन्द्र नाम के गुरु कों नमस्कार किया है जो कामदेव रूपी महा पर्वत के शतखण्ड करने वाले थे । संभव है, सोमसेन इनके दीक्षा गुरु हों और त्रिभुवनचन्द्र उनके विद्यागुरु रहे हों। इनका समय भी विक्रम की १३ वीं शताब्दी का प्रारंभ है । जयसेन ने समयसार की तात्पर्य वृत्ति के अन्त में, ब्रह्मदेव की परमात्म प्रकाश टीका की अन्तिम भावना कोखा है की टीकाकार भव्य जनों को क्या करना चाहिए वाक्यों के साथ उल्लिखित है उसे, ज्यों के त्यों रूप में उद्धृत किया है । श्रमरकीर्ति प्रस्तुत मरकीति काष्ठासंघान्तर्गत उत्तर माथुर संघ के विद्वान मुनि चन्द्रकीर्ति के शिष्य एवं धनुज थे । भ्रमर कीर्ति की माता का नाम 'चत्रिणी' और पिता का नाम 'गुणपाल' था। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है' - प्रमितगति द्वितीय (१०५० से १०७३) के उत्तरवर्ती शान्तिषेण, भ्रमरसेन, श्रीषेण, श्रीचन्द्र और अमरकीर्ति । इन विद्वानों का और प्रमितगति द्वितीय से पूर्ववर्ती चार विद्वानों का देवसेन 'अमितगति प्रथम, नेमिषेण और माधवसेन इन सब दश प्राचार्यों का समय दसवीं शताब्दी से सं० १२४७ तक ढाई सौ वर्ष के लगभग इस अविच्छिन्न परम्परा का बोध होता । इन भ्रमरकीति की परम्परा के शिष्यों का कोई उल्लेख नहीं मिलता । सिर्फ एक शिष्य का उल्लेख उपलब्ध हुआ है, जिनका नाम इन्द्रनन्दी है, जिन्होंने शक संवत् १९८० (वि० सं० १३१५) में हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र पर संस्कृत टीका लिखी है। इसी परम्परा में उदय चन्द्र, बालचन्द्र और बिनयचन्द्र मुनि हुए हैं। समय कवि अमरकीर्ति का समय विक्रमको १३ वीं शताब्दी है । क्योंकि कवि ने अपने मणाहचरिउ को सं० १२४४ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को समाप्त किया है और छक्कम्मोवएस' ( षट्कर्मोपदेश ) वि० सं० १२४७ बीतने पर भाद्रपद शुक्ला १४ गुरुवार के दिन आलस को दूर कर एक महीने में बनाकर समाप्त किया है । षट्कर्मोपदेश की रचना गुजरात देश के महीयडु प्रदेश के मोधा नगर के प्रादिनाथ मन्दिर में बैठकर की है। उस समय गुजरात में चालुक्य अथवा सोलंकी वंश के कण्ह या कृष्णनरेन्द्र का राज्य था, जिसकी राजधानी अनहिलवाड़ा थी । जो बंदिग्गदेव का पुत्र था। परन्तु इतिहास में दिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णनरेन्द्र का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया । उस समय मनहिलवाड़े के सिंहासन पर भीम द्वितीय का राज्य शासन था। इनके बाद बघेलवंश की शाखा ने अपना राज्य प्रतिष्ठित किया है। इनका राज्य सं० १२२६ से १२३६ तक बतलाया जाता है। संवत् १२२० से १२३६ तक कुमारपाल, अजयपाल और मूलराज द्वितीय वहां के शासक रहे हैं। भीम द्वितीय के शासन समय से पूर्व ही चालुक्य वंश की एक शाखा महोकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित हो गई, जिसकी राजधानी गोधा थी। इस सम्बन्ध १. अनेकान्त वर्ष २० कि० ३ १० १०७ २. जैन ग्रन्थ प्रवास्ति संग्रह भा० २ १० ५६ ३. ताहं रज्जि बट्ट तर विक्कमकालिगए, बारहसयच आलए सुक्ख, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २ १० ५६ ४. चार सयहं ससत चयालिहि, विक्कम संबंच्छर ह विद्यालहिं । गहिंम भट् वय पनवंतरि गुरुवारम्मि चसि वासरि । इसके पास हू सम्मतिउ सई लियिउ आलसु अहत्यिक | — जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ० १३ । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि में अभी अन्वेषण करने की मावश्यकता है जिससे यह ज्ञात हो सके कि इस वंश की प्रतिष्ठा कब हुई, और राज्य शासन कब तक चला। रचनाएं कवि ने अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है, जो. सं. १२४७ तक रवी जा चुकी थीं-(१) मिणाहचरिउ, (२) महावीर चरिउ. (३) जसहरचरिउ, (४) धर्मवरित टिप्पण, (५) सुभाषितरत्न निधि, (६) धर्मोंपदेश, (७) भाणपईव (ध्यानप्रदीप), (८) षट् कर्मोपदेश, और (३) पुरंदरविधान कथा । इनमें केवल तीन रचनाएं ही उपलब्ध है। इन रचनाओं में प्रदर विहाण कहा' 'छक्कम्मोवएस' की दशबों संधि में समाविष्ट है। इसके साथ ही वहाँ देव पूजा का विस्तृत कथन समाप्त होता है। इसमें पुरन्दर व्रत का विधान बतलाया गया है। यह व्रत किसो भी महीने के शुक्ल पक्ष में किया जा सकता है। शुक्ल पक्ष को प्रतिपदा से अष्टमी तक प्रोषधोपवास करना चाहिए। जिन पूजन और उद्यापन विधि का भी वर्णन है। कवि ने इसे अम्बाप्रसाद के निमित्त से बनाया है। गेमिणाहचरिउ इस ग्रन्य में २५ सन्धियाँ हैं, जिनकी श्लोक संख्या छह हजार पाठ सौ पच्चाणवे है। इसमें जैनियों के बाईसवें तीथंकर भगवान नेमिनाथ की जोवनगाथा अंकित है। जो कृष्ण के चचेरे भाई थे। इस ग्रन्थ को कवि ने सवत् १२४४ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को समाप्त किया था। यह प्रति सं० १५१२ को लिखी हुई है, जो सानागिरि के भट्टारकीय शास्त्रभंडार में सुरक्षित है। छक्कम्मोवएस प्रस्तुत षटकर्मोपदेश में १४ सन्धियाँ और २१५ कडवक हैं, जिनकी श्लोक संख्या २०५० के प्रमाण को लिए हुए हैं । इस ग्रन्ध को कवि ने अम्बाप्रसाद के निमित्त से बनाया है। अमरकीर्ति ने इस ग्रन्थ में ग्रहस्थों के पटकमी कादेवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय (शास्त्राभ्यास) संयम (इंद्रिय दमन) और षट्काय जीव-रक्षा, इच्छा निरोध रूप तप. और दान रूप षट्कर्मों का-कथन किया है । दूसरी सेवी सन्धि तक देवपूजा का विस्तृत कथन किया गया है। जल, चन्दन, मक्षन, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और सघं, इस प्रष्ट द्रव्य प्रकारी पूजा, उसका फल, अनेक ननन कथा रूप दृष्टांतों के द्वारा उसे सुगम यौर ग्राह्य बना दिया है। दशवों सन्धि में जिन पूजा विधि को कथा और उद्यापन की विधि अंकित की गई है। ग्यारहवीं संधि में दूसरे तीसरे गृहस्थ कर्म-गुरु उपासना और स्वाध्याय का सुन्दर उपदेश दिया है । स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, पाम्नाय और धर्मोपदेश आदि का भी कथन निर्दिष्ट है । गुरु का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि मन की शंकानों का निवारण करने वाला, शीलवान, शुद्ध निष्ठावान, चारित्र भूषण, दूषणों का त्यागी हो उत्कृष्ट गुरु है। इन्द्रिय-विषय-विकारी गुरु सछिद्र नौका के समान बतलाया है। प्रतएव विवेको, विद्वान, संयमो, विषय-व्यापार से रहित पुरुष को ही गुरु बनाना श्रेयस्कर है। १२वीं संधि में संयम का उपदेश है। संयम के दो भेद हैं.--इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम । पहले इन्द्रिय संयम है। इन्द्रियों का असंयम प्रापत्ति का कारण है। जब एक एक इन्द्रिय के विषय प्राणघातक हैं तब पांघों ही इन्द्रियों के विषय किस अनर्थ को उत्पन्न नहीं करते। अतएव इन्द्रिय-विषयों का त्याग ज़रूरी है। मन द्वारा ही इन्द्रियां विषयों में प्रवृत्ति होती हैं। यदि मन वश में हो जाय, उसे विजित कर लिया जाय तो फिर इंद्रियां अपने विषयों में व्यापार नहीं कर सकतीं। प्रतः मन का जीतना जरूरी है। षट्काय के जीवों की रक्षा प्राणि संयम है। इसका पालन करना आवश्यक है। ४. See History of Gujrat in Bombay Gazeteer vol.1 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ १३ वीं संधि में भी संयम का उपदेश दिया गया है । और गृहस्थों के पांच प्रणुपत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावतों का कथन करते हुए रात्रि भोजन त्याग पर जोर दिया है। और शन्त में समाधिमरण का उपदेश है। उसके साथ ही सन्धि समाप्त हो जाती है। अन्तिम १४ वीं सन्धि में दान और तप कर्म का उपदेश दिया गया है। दान की महत्ता का भी कथन किया है और उसका फल भोगभूमि का सुख बतलाया है। दान को दुर्गति नाशक और सब कल्याणों का कर्ता बतलाया है। उत्कृष्ट पात्र दान का फल उत्कृष्ट कहा है। ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है, उसका प्रकाशन होना चाहिए। श्री चन्द्रकीति यह काष्ठा संघान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे। जो तपरूपी लक्ष्मी के निवास और अथिजन समूह की प्राशा को पूरी करने वाले, तथा परवादिरूपी हाथियों के लिए मगेन्द्र थे। इनके शिष्य अमरकीति थे । जिनकी दो रचनाएँ नेमिपुराण (१२४४) और षट्कर्मोपदेश (१२४७) उपलब्ध हैं। श्रीचन्द्रकीर्ति का समय सिमाम को १३वी शताब्दी का पूर्वार्ध है । अर्थात् वे सं० १२२० से १२३५ के विद्वान होने चाहिए। कवि अग्गल अम्गल मूलसंध, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान श्रुतकीति विद्यदेव का शिष्य था। इसके पिता का नाम शान्तोश और माता का नाम पोचाम्बिका था। कवि का जन्म इगलेश्वर नाम के ग्राम में हुआ था। यह संभवतः किसी राज परिवार का प्रसिद्ध कवि था । जैन जैन मनोहर चरित, कवि कुल कलभ-दातयू थाधिनाथ, काव्य-कर्णधार, भारती-बालनेत्र, साहित्यविद्याविनोद, जिन समयसार-केलि मराल मौर सुललित कविता नर्तकी नृत्य-रंग आदि इनके विरुद थे। इस कवि की एकमात्र कृति चन्द्रप्रभ पुराण है, जिसमें पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। मद्रास लायनरी में विलगी नाम के स्थान का शिलालेख है। उससे ज्ञात होता है कि इसने उक्त अन्य अपने गुरु श्रुतकीति विद्य की आज्ञा से बनाया था। ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। अन्य की भाषा प्रौढ़ और संस्कृत बहुल है । ग्रन्थ के प्रत्येक माश्वास के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य पाये जाते हैं-'इति परमपुरुष नायकृत भभत्समद्धत प्रवचनसरित्सरिन्नाथ- सकीति विध चक्रवर्ती पदपपविधान दीपर्वात श्रीमदग्गलदेव विरचिते चन्द्रप्रभ चरिते-दिया है। ग्रन्थ की रचना शक सं०१०११ (वि० सं० ११४६) सन् १०८६ में की गई है। अतः कवि का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है । कवि श्रीधर कवि विबुध श्रीधर ने अपनी रचना में अपना कोई परिचय और गुरु परम्परा का उल्लेख नहीं किया। किन्तु इतनी मात्र सूचना दी है कि बलडइ ग्राम के जिन मन्दिर में पोमसेण (पग्रसेन) नाम के मुनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे। कवि का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का प्रारम्भ है। अन्य रचना कवि की रचना 'सुकमाल चरि' है, जिसमें छह सन्धियाँ और २२४ कडवक हैं, जिनमें सुकुमाल स्वामी का जीवन-परिचय दिया हुआ है। सुकूमाल स्वामी का जीवन प्रत्यन्त पावन रहा है। इसी से संस्कृत अपभ्रंश पौर हिन्दी भाषा में लिखे गए अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। प्रस्तुत चरित में कवि ने सुकुमाल के पूर्व जन्म का वृत्तान्त १. पुणु विक्खिउ तहो तसिरि-रिणवासु, अस्थियण-संघ-बुह पूरियासु । परवाइ-कंभि-दारण-मईदु, मिरिचन्दकित्ति जायउ मुरिंगदु। -बट् कमोपदेश प्रशस्ति Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि दे हुए लिखा है कि वे पहले जन्म में कौशाम्बी के राजा के राजमंत्री के पुत्र थे और उनका नाम वायुभूति था। उन्होंने रोष में आकर अपनी भाभी के मुख में लात मारी थी, जिससे कुपित हो उसने निदान किया था कि मैं तेरी इस टांग को खाऊँगी । अनन्तर अनेक पर्यायें धारण कर जैनधर्म के प्रभाव से वे उज्जैनी में सेठ पुत्र हुए वे बाल्य अवस्था से ही अत्यन्त सुकुमार थे, अतएव उनका नाम सुकुमाल रखा गया। पिता पुत्र का मुख देखते ही दीक्षित हो गया और ग्रात्म-साधना में लग गया । माता ने बड़े यत्न से पुत्र का लालन-पालन किया और उसे सुन्दर महलों में रखकर सांसारिक भोगोपभोगों में अनुरक्त किया। उसकी ३२ सुन्दर स्त्रियाँ थीं । जब उसकी आयु अल्प रह गई, तब उसके मामा ने, जो साधु थे, महल के पीछे जिनमन्दिर में चातुर्मास किया, और अन्त में स्तोत्र पाठ को सुनते ही सुकुमाल का मन देह-भोगादि ते वि होना वह एक रस्सी के सहारे महल से नीचे उतरा और जिन मंदिर में जाकर मुनिराज को नमस्कार कर प्रार्थना को कि हे भगवन् ! आत्मकल्याण का मार्ग बताइये । उन्होंने कहा -- तेरी ग्रायु तीन दिन की शेष रह गई है। अतः शीघ्र ही श्रात्म-साधना में तत्पर हो। सुकुमाल ने जिन दीक्षा लेकर और प्रायोपगमन सन्यास लेकर कठोर तपश्चरण किया। वे शरीर से जितने सुकोमल थे, उपसर्ग-परिषहों के जीतने में वे उतने ही कठोर थे। वे वन में समाधिस्थ थे, तभी एक स्यालनी ने अपने बच्चे सहित श्राकर उनके दाहिने पैर को खाना शुरू किया और बच्चे ने बाएँ पैर को उन्होने उस प्रमित कष्ट को शान्ति से बारह भावनाओं का चितवन करते हुए सहन किया और सर्वार्थ सिद्धि में देव हुए। ग्रन्थ का चरित भाग बड़ा ही सुन्दर है । ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक कवि ने इस चरित की रचना साहु पीछे के पुत्र कुमार के अनुरोध से की है। प्रशस्ति में उनका परिचय निम्न प्रकार दिया है ३८७ बलडइ ग्राम के निवासी पुरवाड वंशी साहु 'जग्गण' थे। उनकी भार्या का नाम 'गल्हा' देवी था। उससे पाठ पुत्र उत्पन्न हुए थे। साहु पीथे, महेन्द्र, मणहर, जल्हण, सलक्खणु, संपुण्णु, समुदपाल, और नयपाल । इनमें ज्येष्ठ पुत्र साहु पीथे की पत्नी सुलक्षणा के पुत्र कुमार थे। कुमार के भी कई पुत्र थे। कुमार जैनधर्म का प्राराधक था, देह-भोगो से विरक्त था, उसे दान देने का ही एक व्यसन था, विजयो, और जितेन्द्रिय था । कवि ने सन्धियों के प्रारंभ में संस्कृत पद्यों में कुमार की मंगल कामना की है। ग्रन्थ चूंकि कुमार की प्रेरणा से बनाया है अतएव उन्हीं के नामांकित किया है। जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है: इय सिरिसुकुमालसामि मनोहरचरिए सुन्दर यरगुणरयण-जियरस भरिए विबुध सिरि सुकइ सिरिहर विरइए साहु पोथे पुत्र कुमार णामंकिए श्रग्निभूइ वा भूइ सुमित मेलाववणणो णाम पढमो परिच्छेन समत्तो ॥ १ ॥ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना बलडर ( श्रहमदाबाद ) के राजा गोविन्दचन्द्र के राज्य में वि० सं० १२०० अगहन कृष्णा तृतीया सोमवार के दिन समाप्त की है। पर इतिहास से भी यह पता नहीं चला कि ये गोबिन्द राज कौन है और इनका राज्य कब से कब तक रहा है। मुनि विनयचन्द्र प्रस्तुत मुनि विनयचन्द्र माथुरसंघ के विद्वान बालचन्द्र मुनि के दीक्षित शिष्य थे। इनके विद्यागुरु उदयचन्द्र थे, जो पहले गृहस्थ थे और उनकी पत्नी का नाम देमति (देवमती ) था । उन्होंने उस अवस्था में 'सुगंध दशमी' १ भक्तिर्यस्य जिनेन्द्रपादयुगले धर्म मतिः सर्वदा । वैराग्यं भव-भोगबन्धविषये वांछा जिनेशागमे । सद्दाने व्यसने गुरी विनमितर प्रीतिर्बुधाः विद्यते । स श्रीमान् जयताज्जितेन्द्रिय रिपुः श्रीमत्कुमाराभिधः ॥ - सुकुमाल चरिउ ३१ २. देखो, जैन ग्रन्य प्रशस्ति संग्रह भाग २ पृ० ११ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३८८ कथा का निर्माण किया था। और कुछ समय बाद वे मुनि हो गए थे। वे मथुरा के पास यमुना नदी के तट पर बसे हुए महावन में रहते थे। मुनि विनयचन्द्र भी वहां के जिन भवन में रहते थे। मुनि विनयचन्द्र ने महावन नगर के जिन मन्दिर में 'नरग उतारी रास की रचना की थी। उसे स्वर्ग बतलाया है जिससे वह अत्यन्त सुन्दर होगा । जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : प्रमिय सरोसउ जवरर्ग जलु, जयरु महावण सग्गु । तह जिण भर्याणि वसंतद्दण, विरइउ रासु समग्गु ॥ मुनि विनयचन्द्र अच्छे विद्वान और कथि थे। उनकी एक रचना का स्थल उक्त महावन था और दूसरी दो रचनाओं का - णिज्झरपंचमी कहा (रास) और चुनड़ी रास का रचना स्थल तिहुवण गिरि की तलहटी, और अजयपाल नरेन्द्र का विहार था । कवि की इस समय पांच रचनाएं उपलब्ध हैं। गिझर पंचमी कहा ( रास ) नरग उतारी रास, चूनड़ी रास, कल्याणक रास और निदुख सप्तमी कथा । रिगज्रपंचमी कहारास - इस रास में कवि ने निर्झरांचमी व्रत का स्वरूप और उसके पालन का निर्देश किया है और बतलाया है कि पंचमी के दिन जागरण करें, और उपवास करें, तथा कार्तिक के महीने मैं उसका उद्यापन करे । श्रथवा श्रावण मास में प्रारम्भ वारके अगहन महीने में उद्यापन करे। उद्यापन में छत्र चामरादि पांच-पांच वस्तुएँ मन्दिर जी में प्रदान करे। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो व्रत दुगुने दिन करे, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : - धवल पश्वि प्रासादह पंचमि जागरण, सुह उपवास किज्जद्द कार्तिक उज्जवण | ग्रह सावण प्रारंभिय पुज्जइ श्रगहणे, इ इ णिक्कर पंचमि प्रक्षिय भय हरणे ।। कवि ने इस रास की रचना तिहुयणगिरि की तलहटी में बनाकर समाप्त की हैः यथा- तिहयण गिरि तलहट्टी बहू रास रथ । माथुर संघ मुणिवर विषयश्वंवि कहिउ ॥ दूसरी रचना 'नरग उतारी रास' है जिसे कवि ने यमुना नदी के किनारे बसे हुए महावन (नगर) के जिनमन्दिर में रहते हुए की थी । तीसरी रचना 'घूनड़ी रास' है। इस रास में ३२ पद्म हैं। जिसमें चूनड़ी नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर एक गीति काव्य के रूप में रचना की गई है। कोई मुग्धा सुवती हंसती हुई अपने पति से कहती है कि हे सुभग ! जिन मन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चूनड़ी शीघ्र छपवा दीजिए, जिससे में जिनशासन में विचक्षण हो जाऊँ । वह यह भी कहती है कि माप वैसी चुनड़ी छपवा कर नहीं देंगे, तो वह छोपा मुझे तानाकशी करेगा। पति पत्नी की बात सुनकर कहता है कि है मुग्धे ! वह छीपा मुझे जैन सिद्धान्त के रहस्य से परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापकर देने को कहता है । चूनड़ी उत्तरीय वस्त्र है, जिसे राजस्थान की महिलाएं विशेष रूप से प्रोढ़ती थीं । कवि ने भी इसे रूपक बतलाते हुए चुनड़ी रास का निर्माण किया है। जो वस्तु तत्र के विविध वागभूषण रूप प्राभूषणों से भूषित है, और जिसके अध्ययन से जैन सिद्धान्त के मार्मिक रहस्यों का उद्घाटन होता है । वैसे ही वह शरीर को अलंकृत करती हुई शरीर की अद्वितीय शोभा को बनाती है। उससे शरीर को प्रलंकृत करती हुई बालाएं लोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगी पर अपने कण्ठ को भूषित करने के साथ-साथ भेद - विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगी । रचना सरस और चित्ताकर्षक है । इस पर कवि की एक विस्तृत स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ी रास में दिए संद्धान्तिक शब्दों के रहस्य को उद्घाटित किया गया है। ऐसी सुन्दर रचना को स्वोपज्ञ संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिए। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के माचार्य, विद्वान और कवि ३८९ कवि ने इस रास रचना को 'त्रिभुवनगढ़' में 'अजय नरेन्द्र' अजयपाल राजा के बनवाए हुए विहार में बैठ कर बनाया है । उस समय यह नगर यद | राजामों की राजधानी रहा है, अतः यह तहनगढ़ जन-धन से समृद्ध था। इसी से कवि ने उसे 'सम्ग खंड णं धरियल आय वाक्य द्वारा उसे स्वर्ग खण्ड के तुल्य बतलाया है। कवि की इस रचना से पूर्व इनके विद्यागुरु उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे। इसी से इसकी प्रशस्ति में 'मथुरा संघहं उदय मुणोसरु' रूप से उल्लेखित किया है। चौथी रचना कल्याणक गस है, जिसमें चौबीस तीर्थकरों को गर्भ, जन्म, दोक्षा, केवल ज्ञान प्राप्ति और निर्वाण रूप पंचकल्याणक की तिथियों का निर्देश किया गया है । इस रास की सं० १४४५ की लिखी हुई प्रतिलिपि उपलब्ध है, जो पं० दीपचन्द्र पाण्डया के कड़ी के पास मौजूद है। पांचवीं कथा निर्दूख सप्तमी है। जिसे कवि ने कहाँ बनाया, यह उस प्रति में कोई उल्लेख नहीं है । उसका प्रादि मंगल पद्य इस प्रकार है: ___सति जिणिदह-पय-कमलु, भव-सय-फलुस-कलंक-णिवार । उदयचन्द्र गरु धरे धिमणे, बालइंदू मुणि णधिवि णिरंतरु ।। अन्तिम प्रशस्ति उपलब्ध नहीं है। समय मुनि विनयचन्द ने अपनी किसी भी रचना में उनका रचना काल नहीं दिया। किन्तु दो रचना स्थलों का उल्लेख अवश्य किया है। एक महावन का और दूसरा तिहुवण गिरि (तहनगढ़) की तलहटी तथा उसके अजयपाल नरेन्द्र के विहार का । प्रस्तुत तिहुवण गिरि महावन से दक्षिण-पश्चिम की ओर लगभग साठ मोल राजस्थान के पुराने करोलो राज्य और भरत पुर राज्य में पड़ता है। अतः इनका निवास और विहार क्षेत्र मथुरा जिला पौर भरतपुर राज्य रहा है । तिया गढ़ के अजमाल रेल प्रशस्ति महावन से सन् १०५० (वि० सं० १२०७) की मिली है । और दूसरा लेख अजयपाल के उत्तराधिकारी हरिपाल का उसी महावन से सन् १९७० (दि० सं० १२२७) का मिला है। इससे स्पष्ट है कि बिनयचन्द्र ने अपनी रचना उक्त अजयपाल नरेश के विहार में बैठ कर बनाई है । अतः उसका रचना काल सन् ११५० से ११७० के मध्य रहा है। अर्थात् विनय चन्द्र मुनि विक्रम को १३वों शताब्दी के पूर्वार्थ के विद्वान ठहरते हैं। भरतपुर राज्य के अधपुर स्थान से एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिस पर सन् ११९२ (वि० सं० १२४६) के उत्कीर्ण लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है । सहनपाल के बाद कुमारपाल तिहवण गिरिको गद्दी पर बैठा था। वह वहां ३-४ बर्ष ही राज्य कर पाया था कि उस पर सन् १९९६ में आक्रमण कर दिया गया । मुसलमानी तन्नारीख 'ताजुलमनासिर' में लिखा है कि हिजरी सन् ५७२ सन् ११६६ (वि० सं० १२५३) में मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने कुमारपाल पर हमला कर उसे परास्त कर तिहुवण गिरि का दुर्ग वहारुद्दीन तुघरिल को सौंप दिया। उस समय तिडवण गिरि बुरी तरह तहस-नहस हो गया था। वहां के सब हिन्दू और जैन परिवार इधर उधर भाग गये थे । वह वीरान हो गया था । ऐसो स्थिति में वहां रहकर रचना करने का प्रश्न हो नहीं उठता विनयचन्द्र ने अपना चुनड़ी रास अजयपाल नरेन्द्र के विहार में बैठकर रचा था जिसे अजयपाल ने बनवाया था। मजयपाल की सन १०५० की प्रशस्ति का ऊपर उल्लेख किया गया है। इससे बिनयचन्द्र विक्रम को तेरहवीं शताब्दी के पूर्वाधं के विद्वान निश्चित होते हैं। १. देबो एनिग्राफिका इंडिका जि०१० २८६ २. एपिग्राफिका इरिका खण्ड २ पृ. २७६ तथा A. Cunningham vol xx ! ३. तहिणिवसंते मूणिवरें अजवरणरिदं हो राजविहारहि। वेगे विरइय वनडिय, सोहहु मूणिवर जे सुयधारहिं ।। -चूनडी प्रशस्ति Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाय २ उदयचन्द कवि उदयचन्द्र ने अपनी रचना में अपना कोई खास परिचय नहीं दिया, किन्तु प्रात्म-निवेदन करते हुए बतलाया है कि वे अपने कूलरूपी माकाश को उद्योतित करने वाले उदयचन्द्र नामधारी गृहस्थ विद्वान थे और उनकी याका नामति सदयतिमा,जो अरपात सुशीला थी।वे मथुरा के पास यमुना नदी के तट पर बसे हुए महावन में रहते थे। उदयचन्द्र मुनि बालचन्द्र के दीक्षित शिष्य विनयचन्द्र के विद्यागुरु थे । विनयचन्द्र भी वहाँ रहते थे। उन्होंने वहां के जिन मन्दिर में नरग उतारी कथा (रास) बनाया था। उसके प्रादि में विद्यागुरु को नमस्कार नहीं किया, क्योंकि मुनि का गहस्थ को नमस्कार करना उचित नहीं है, इसलिये उन्होंने--उदयचंदु गुस गणहर गरवउ, वाक्य द्वारा उनका स्मरण किया है। उन्होंने महावन को "अमिय सरोसा जवणजलु णयह महावन सम्गु । तहि जिण भवणि वसंत इण विरइउ रासु समग्गु ॥" उक्त वाक्य में स्वर्ग बतलाया है। इससे महावन की सुन्दरता का पाभास होता है । कवि विनयचन्द्र ने अपनी उक्त कृति का रचना स्थल महावन का जिन मंदिर बत लाया है। ___ ऋषि उदयचन्द्र ने लिखा है कि शास्त्रकारों ने सुगन्ध दशमो कथा को विस्तार के साथ कहा है। किन्तु मैंने उसे मनोहर रीति से गाकर सुनाया है। जिस तरह उन्होंने जसहर (यशोधर) और नागकुमार चरित्रों को बांचकर मनोहर भाषा में सुनाया था। सुगन्ध दशमी कथा दो सन्धियों की छोटी-सी रचना है, किन्तु रचना प्रसाद गुणयुक्त है, उसको प्रथम सन्धि में १२ और दूसरी संधि में कडवक है । इन कडवकों की रचना प्रायः पद्धड़िया और अलिल्लह छन्दों में हुई है । इसमें दशमी के अत पालन की महत्ता और फल बतलाया गया है। सुगंधदशमी ब्रत का पालन करने से आत्मा जहां पापों से छुटकारा पाता है वहां वह उसके प्रभाव से सुगन्धित शरीर भी पाता है, जैसा कि दुर्गन्धा ने सुगन्ध दशमी का व्रत पालकर प्राप्त किया था। कथा बड़ी रोचक है । कथानक की सुन्दरता ने ग्रन्थ की महत्ता को बढ़ावा दिया है। इसी से इस कथा की रचना प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा में विविध कवियों ने की है। कथा में दुर्गन्धा द्वारा जिनामिषेक करने का कवि ने उल्लेख किया है, जो आम्नाय के प्रतिकूल है। यह कथा संस्कृत भाषा के १६१ पद्यों में ब्रह्मश्रुतसागर में बनाई है और उसी का पद्य रूप अनुवाद कवि खुशालचन्द्र ने दोहा चौपाई में किया है, जो कई बार छप चुका है। कथानक वही है जो उदयचन्द्र की कृति में दिया है। रचना काल कवि ने कथा में रचना का उल्लेख नहीं किया और न रचनास्थल का संकेत किया है। किन्तु विनयचन्द्र मुनि ने अपने रास का रचना स्थल यमुना नदी के तट पर बसा हुआ महावन का मन्दिर बनाया है। मधुरा के अासपास अनेक दनों का उल्लेख मिलता है, उसमें महावन भी एक है। उस महावन से यदुवंशीय राजा अजयपाल को सन ११५० (वि०सं० १२०७) की एक प्रशस्ति' उपलब्ध हुई है और सन् १९७० (वि.सं. १२२७) का एक लख राजा अजयपाल के उत्तराधिकारी हरीपाल के राज्य का उत्कीर्ण किया हुया उसी महावन से मिला है। भरतपुर राज्य के अवपुर नामक स्थान से भी एक मूर्ति उपलब्ध हुई है, जिस पर सन् १९६२ (वि० सं० १२४६) के उत्कीर्ण लेख में सहनशल नरेश का उल्लेख है । सहनपाल के बाद (कुबरपाल) कुमारपाल, तिहुवण गिरी की गद्दी पर बैठा था । वह ३-४ वर्ष ही राज्य कर पाया था। मुसलमानी तबारीख 'ताजलममासिर' में लिखा है कि १.णिय कुलणह-उम्जोइप-चंदई, सज्जण-मण कम-रायणाएददं ।' २. बइ सुसील-देमइयहि कतई।' ३. इय सुअदिक्वहि कहिय सवित्थर, मई गाबित्ति सुरणाश्य मणहर भवियण-कण्णा -मणहर-भासई, जसहर-गायकुमार हो वापई॥ -सुगंध दशमी कथा पृ० २५ ४. देखो एपि आफिका इंडिका, जिल्द १ पृ० २८६ । ५. एपिग्राफिका इंडिका, खण्ड २ पृ० २७६ तथा A Cunningham VOLXx Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि हिजरी सन् ५७२ सन् ११९६ (वि० सं० १२५३ ) में मुईजुद्दीन मुहम्मद गौरी ने कुमारपाल पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, और तिहवनगिरी का दुर्ग वहारुद्दीन तुघरिल को सौप दिया । उस समय तिहवन गिरि नष्ट भ्रष्ट हो गया था और वहां से हिन्दू और जैन परिवार इधर-उधर भाग गये थे। नगर बीरान हो गया था। दि दिनयचन्द्र ने णिज्झर पंचमी कहारास, की रचना तिहुवण गरि की तलहटी में की थो,' और चुनड़ी की रचना का स्थल अजयपाल नरेन्द्रकृत विहार को बतलाया है। चूनड़ी की रचना से पूर्व उदयनन्द्र मुनि हो गये थे। उसका उल्लेख, माथुर संधहि उदय भुणीसरु, वाक्य में किया है। सुगंधदशमो कथा उनके गृही जीवन को रचना है। इस सब कयन से सुनिश्चित है कि सुगन्ध दशमी की कथा का रचना काल सन् १०५० (वि० सं० १२०७) है। पण्डित महावीर यह वादिराज पंण्डित घरसेन के शिष्य थे। धारा नगरी के निवासी थे । न्याय शास्त्र, व्याकरण शास्त्र और धर्मशास्त्र के विद्वान थे। सन् ११९२ (वि०सं० १२४६) में जब शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली और अजमेर पर अधिकार कर लिया था, तब सदाचार के विनाश के भय से आशाधर जो बहुत से परिजनों और परिवार के लोगों के साथ दिन्ध्यवर्भा राजा के मालवमण्डल धारा नगरी में प्रा वसे थे। उस समय पाशाधर जो संभवतः किशोर ही होगे । उन्होंने उक्त पंण्डित महावीर से प्रमाण शास्त्र और व्याकरण का अध्ययन किया था। इससे इनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का मध्य काल है। कषि लाखु या लक्ष्मण कवि लक्ष्मण का कुल यादव या जायस है। जो प्रसिद्ध यदुवंश का विकृत रूप है । यह प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल है । कवि के प्रपिता का नाम कोसवाल था, जिनका यश दिकचक्र में व्याप्त था। उनके सात पुत्र थे-अल्हण, गाहल, साहुल, सोहण, मइल्ल, रतन और मदन । ये सातों ही पूत्र कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले और महामति थे। इन में प्रस्तुत कवि के पिता साहल श्रेष्ठी थे। ये सातों भाई और कवि लक्ष्मण अपने परिवार के साथ पहले त्रिभवनगिरि या तहनगढ़ के निवासी थे। उस समय त्रिभवनगिरि जन-धन से समृद्ध तथा वैभव से युक्त था। परन्तु कुछ समय बाद त्रिभुवनगिरि की समृद्धि विनष्ट हो गई यो-उसे म्लेच्छाधिप मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने बल पूर्वक घेरा १. तिहुयरणगिरि तलहट्टी इहु राम रइउ,-माथुरसंघहं मुरिंगवर विरण्यचंदि कहिउ । २.तियणगिरि जगि विक्खायउ, सागखर णं घरपलि आयज । तहि शिवसते मुनिवरें अजयणग्दिहों राजविहारहि ।। वेगें विरइय चुनडिय सोहह मुरिणवर जे सुयधारहिं ।। चूनही प्रशस्ति ३. म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते मुदस क्षति त्रासाद्विन्ध्य नरेण्दोः परिमलस्फूर्जस्त्रिवर्मोजसि । प्राप्तो मालय मण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन, । यो धारामपज्जिनप्रमितिवारशास्त्र महावीरतः ।।५।। अनगारधर्मामृत प्रशस्ति ४. यदुकुल प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल है। यदुकुल ही यादव और बिगड़कर जायव या जायस बन गया है। इस कुल का राज्य शूरसेन देश में था। शौरीपुर, मधुरा और भरतपुर में यदुवंशियों का राम्य रहा है। श्रीकृष्ण और नेमिनाथ तीर्थकर का जन्म इसी कुल में हुआ था । यह क्षत्रिय वंश वर्तमान में वैश्य कुल में परिवर्तित हो गया है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३६२ डालकर नष्ट-भ्रष्ट कर श्रात्मसात कर लिया था । अतः कविवर लक्ष्मण त्रिभुवनगिरि से भाग कर यत्र-तत्र भ्रमण करते हुए बिलरामपुर में आये। यह नगर प्राज भी इसी नाम से जिला एटा में बसा हुआ है। उस समय वहां बिलरामपुर में सेठ विल्हण के पौत्र और जिनधर के पुत्र श्रीधर निवास करते थे। इन्होंने कविवर को मकान आदि की सुविधा प्रदान की। यह कविवर के परम मित्र बन गए। साहू बिल्हण का वंश पुरवाड़ था और श्रीधर उस वंश रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे। इस तरह कवि उनके प्रेम और सहयोग से वहां सुखपूर्वक रहने लगे कवि को इस समय दो रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनदत्त चरित, और अणुव्रत रत्न प्रदीप । I जिनवत चरित -- जिनदत्त चरित्र में ११ सन्धियां है जिनके श्लोकों की संख्या चार हजार के लगभग है । प्रस्तुत ग्रन्थ में जीवदेव और जीवंयशा श्रेष्ठी के सुपुत्र जिनदत्त का चरित्र अंकित है । कवि को यह रचना एक सुन्दर काव्य है । इस में प्रादर्श प्रेम को किया गया है। कवि काव्य शास्त्र में निष्णात विद्वान् था । ग्रन्थ का यमकालंकार युक्त आदि मंगल पद्य कवि के पाण्डित्य का सूचक है । सप्पय सर कलहंस हो, हिमकलहंस हो, कलहंस हो सेयंसवहा । भमि भुषण कलहंस हो, णविवि जिण हो जिनयत कहा ।। प्रर्थात् - मोक्षरूपी सरोवर के मनोज्ञ हंस, कलह के अंश को हरने वाले, करि शावक (हाथी के बच्चे ) केसमान उन्नत स्कन्ध और भुवन में मनोज्ञ हंस, प्रादित्य के समान जिनदेव की वन्दना कर जिनदत्त की कथा कहता हूं। ग्रन्थकर्त्ता ने इस ग्रन्थ में विविध छन्दों का उपयोग किया है। ग्रन्थ को पहली चार सन्धियों में कवि ने मात्रिक और वर्णवृत्त दोनों प्रकार के निम्न छन्दों का प्रयोग किया है- विलासिणी, मदनावतार, चित्तंगया, मोति यदाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, श्रारणाल, वस्तु, खंडय, जंभेट्टिया, भुजंगप्पयाज, सोमराजी, सग्गिणी, पमाणिया, पोमणी, चच्चर, पंच चामर, णराच, विभंगिणिया, रमणीलता, समाणिया, चित्तया, भमरपय, मोणय, और ललिता यादि । इन शब्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट पता चलता है कि अपभ्रंश कवि छन्द विशेषज्ञ होते थे । कवि ने इसमें काव्योचित अनुप्रास अलंकार और प्राकृतिक सौन्दर्य का समावेश किया है। किन्तु भौगोलिक वर्णन की विशेषता और शब्द योजना सुन्दर तथा श्रुति-सुखद है। इन सबसे रचना श्रुतिसुखद और हृदय हारिणी बन गई है। ग्रन्थ में अनेक अलंकृत काव्यमय कथन दिये हैं जिससे काव्य सरस और कवि के शब्द योजना चातुर्य से भाषा भी सरस और सरल हो गई है । कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती अनेक जैन जैनेतर कवियों का यादरपूर्वक उल्लेख किया है- प्रकलंक, १. विजयपाल के उत्तराधिकारी त्रिभुवनपाल ( तिनपाल ) ने बयान से १४ मील और करौली से उत्तर पूर्व २४ मील की दूरी पर तहनगढ़ का किला बनवाया। इसे त्रिभुवनगिरि के नाम से उल्लेखित किया जाता था। त्रिभुवनपाल के पिता विजयपाल का उल्लेख श्रीपथ (बयाना) के सन् १०४४ के उत्कीर्ण लेख में पाया जाता है। इस वंश के अजयपाल नामक राजा की एक प्रशस्ति महायन से मिली है। जिसके अनुसार सन् ११५० ई० में उसका राज्य वर्तमान था । इसके उत्तराधिकारी हरियाल का भी सन् १९७० का उत्कीर्ण लेख महावन से मिला है। भरतपुर राज्य के अवपुर नामक स्थान से एक मूर्ति मिली है जिसके सन् १९९२ के उत्कीएं लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है । इनके उत्तराधिकारी कुमारपाल थे। जिनका उल्लेख मुसलमानी तवारीख 'ताजुल मभासिर' में मिलता है। जिसमें कहा गया है कि हिजरी सन् ५७२ सन् ११६६ ई० में मुद्दजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने तहनगढ़ पर आक्रमण कर वहाँ के राजा कुंवर पाल को परास्त किया और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुमरिल या तुमरीन को सौंप दिया। कुमारपाल वहाँ सं० १२४६ सन् १९९२ के आसपास गद्दी पर बैठा था। वह यहां ३-४ वर्ष हो राज्य कर पाया था जब गोरी ने तहनगढ़ पर अधिकार किया, तब वहाँ के सब हिन्दु परिवार नगर छोड़कर यत्र-तत्र भाग गये। उनके साथ जैनो लोग भी भाग गये | लालू या लक्ष्मण कवि का परिवार भी वहाँ से भागकर बिलराम ( एटा) पहुँचा था । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि चतुर्मुख, कालिदास श्रोहर्ष, व्यास, द्रोण, बाण, ईशान, पुष्पदन्त, स्वयंभू, और बाल्मीकि' । ग्रन्थ रचना में प्रेरक श्रीधर का ऊपर उल्लेख किया गया है। एक दिन अवसर पाकर सेठ श्रीधर ने लक्ष्मण से कहा कि हे कविवर! तुम जिनदत्तरित की रचना के रो। कवि लक्ष्मण ने भर श्रेष्ठी की प्रेरणा एवं अनुरोध से जिनदत्त चरित की रचना वि० सं०१२७५ के पुसवदी षष्ठी रविवार के दिन समाप्त की है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: "बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं, धिक्कमकालिवित्त । पढ़म परिख रविवारइ छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मत्तिउ ॥१-कान्तिम प्रशस्ति चरित सार प्रस्तुत ग्रन्थ में मगधराज्यान्तर्गत बसन्तपुर नगर के राजा शशिशेखर और उसकी रानी नयना सुन्दरी के कथन के अनन्तर उस नगर के श्रेष्ठी जीवदेव और जीवयंशा के पुत्र जिनदत्त का चरित्र अंकित किया गया है। वह क्रमश: बाल्यावस्था से युवावस्था को प्राप्त कर अपने रूप-सौंदर्य से युदति-जनों के मनको मुग्ध करता है और अंग देश में स्थित चम्पानगर के सेठ की सुन्दर कन्या विमलमती से उसका विवाह हो जाता है। विवाह के पश्चात दोनों बसंतपुर पाकर सुख से रहते हैं। जिनदत्त जुआरियों के चंगुल में फंसकर ग्यारह करोड़ रुपया हार गया। इससे उसे बड़ा पश्चाताप हया । उसने अपनी धर्म पत्नी की हीरा-माणिक ग्रादि जवाहरातों से अङ्कित कंचुली को नौ करोड़ रुपये में जमारियों को बेच दिया । जिनदत्त मे धन कमाने का बहाना बना कर माता-पिता से चम्पापुर जाने की प्राज्ञा ले लो। और कुछ दिन बाद धर्म पत्नी को अकेली छोड़ जिनदत दशपुर (मन्दसौर) पा गया। वहां उसकी सागरदत्त से भेंट हुई। सागरदत्त उसी समय व्यापार के लिए विदेश जाने वाला था, अवसर देख जिनदत्त भी उसके साथ हो गया, और वह सिंहल द्वीप पहुंच गया। वहां के राजा की पुत्री श्रीमती का विवाह भी उसके साथ हो गया। जिनदत्त ने उसे जैन धर्म का उपदेश दिया। जिनदत्त प्रचुर धनादि सम्पत्ति को साथ लेकर स्वदेश लौटता है, परन्तु सागरदत्त ईर्षा के कारण उसे धोखे से समुद्र में गिरा देता है और स्वयं उसकी पत्नी से राग करना चाहता है। परन्तु वह अपने शील में सूढ़ रहती है। वे चम्पा नगरी पहुंचते हैं और श्रीमती चम्पा के 'जिनचैत्य' में पहुंचती है। इधर जिनदत्त भी भाग्यवश पच जाता है और वह मणिद्वीप में पहुंचकर वहां के राजा अशोक को राजकूमारो शृंगारमती से विवाह करता है । और कुछ दिन बाद सपरिवार चम्पा पा जाता है। वहां उसे श्रीमती मोर विमलमतो दोनों मिल जाती हैं । वहाँ से वह सपरिवार वसन्तपुर पहुंचकर माता-पिता से मिलता है। वे उसे देखकर बहुत हर्षित होते है। इस तरह जिनदत्त अपना काल सूख पूर्वक व्यतीत करता है। अन्त में मुनि होकर तपश्चरण द्वारा कर्म.बंधन की विनाशकर पूर्ण स्वाधीन हो जाता है। मणुषय रयण पईव (अणुव्रतरत्नप्रदीप) कवि की दूसरी कृति अणुव्रतरत्न प्रदीप है जिसमें ८ सन्धियां और २०६ पद्धडिया छन्द हैं। जिनकी श्लोक संख्या ३४०० के लगभग है। ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के विवेचन के साथ श्रावक के द्वादश व्रतों का कथन किया गया है। श्रावक धर्म की सरल विधि और उसके परिपालन का परिणाम भी बतलाया गया है। ग्रन्थ की रचना सरस है। कवि ने इस ग्रन्थ को महीनों में बनाकर समाप्त किया है। - - १. शिक्कलंकु अकलंकु व उम्मुह हो, कालियासु सिरि हरिसुकइ सुहो । वय बिलासु कहयामु असरिसो, दोण बाणु ईसारण सहरिसो। फुप्फतु सुसयंभुभल्लो, बालमीउ सम्मई रसिलो। -जिनदत्त परित प्रशस्ति Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना रायद्दिय नगर में निवास करते हुए की थी। वहां उस समय चौहान वंश के राजा पाहवमल्ल राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम ईसरिदे या, आहवमल्ल ने तात्कालिक मुसलमान शासकों से लोहा लिया था और उसमें विजय प्राप्त की थी। किसी हम्मीरवीर ने उनकी सहायता भी की थी। कवि के आश्रय दाता कण्हका वंश लम्बकंचुक या लमेचू था। इसवंश में 'हल्लण' नामक श्रावक नगर घेष्ठी हुए, जो लोक प्रिय और राजप्रिय थे। उनके पुत्र अमृत या ममयपाल थे, जो राजा प्रभयपाल के प्रधानमन्त्री थे। उन्होंने एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था और उसको शिखरपर सुवर्ण कलश चढ़ाया था। उनके पुत्र साहू सोडू थे,जो जाहड नरेन्द्र और उनके पश्चात् श्रीवल्लाल के मंत्री बने । इनके दो पुत्र थे रत्नपाल मौर कण्हः । इन की माता का नाम 'मल्हादे' था। रत्नपाल स्वतंत्र पौर निरर्गल प्रकृित के थे। किन्तु उनका पुत्र शिवदेव कला पौर विद्या में कशल था, जो अपने पिता की मत्य के बाद नगर सेठ के पद पर मारूतु हमा था। और राजा माहवमल्लने अपने हाथ से उसका तिलक किया था। कण्ड (कृष्णादित्य) जपत राजा पाहवमल्ल के प्रधानमंत्री थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम 'सुलक्षणा' था। वह बड़ी उदार, धर्मात्मा, पतिभक्ता भोर रूपवती थी। इनके दो पुत्र हुए। हरिदेव पौर द्विजराज । इन्हीं कण्हकी प्रार्थना से कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं०१३१३ कार्ति कृष्णा ७ सप्तमी गुरुवार के दिन पुष्प नक्षत्र और साहिज्ज योग में समाप्त किया था जैसा कि उनके निम्न वाक्य से प्रकट है : तेरहसम तेरह उत्तराल परिगलिय विषकमाइस्थकाल । संवेय रहा सम्वहं समक्स, कत्तिय मासम्मि प्रसेप-पक्ष । समिविण गुरुवारे समोए, प्रमि रिक्खे साहिज्ज-जोए। नवमास रमते पायरत्यु, सम्मसउ कम कम एल सस्य । -जिन प्रम्य प्रशस्ति सं० भा०२ पृ. ३२) कविदामोदर कविदामोदर का जन्म मेडेत्तम वंश में हुमा था। उनके पिता का नाम कवि माल्हण था जिसने दाह का चरित बनाया था । कवि के ज्येष्ठ भ्राता का नाम जिनवेव था । कवि गुर्जर देश से चलकर मालवदेश में पाया था। और वहां के सलखणपुर को देखकर सन्तुष्ट हुमा। उसने वीर जिनके चरणों को नमस्कार किया और स्तुति की। सलखणपुर उस समय एक जन-धन सम्पन्न नगर था, पौर परमारवंशी नरेश देवपाल वहां का शासक था। इसी सलखणपुर में पं० प्राशाधरजी संवत् १२८२ में मौजूद थे, वे उस समय गृहस्थाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित थे। इसी से उन्होंने अपने को 'गृहस्थाचार्य कुंजर, लिखा है। वे उस समय श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करते थे। सलखण पुर में उन्होंने परमारवंशी देवपाल के राज्य समय में मल्ह के पुत्र नागदेव को धर्मपत्नी के लिये जो उस राज्य में चंगी व टैक्स विभाग में काम करता था उक्त संवत् १२८२ में संस्कृतगद्य में 'रत्नत्रयविधि' नाम की कथा लिखी थी । यह रचना उनकी रचनामों में सबसे पहली जान पड़ती है । उसके बाद वे नलकच्छपुर में चले गये हैं। १. राजा आहवमालकी वंश की परम्परा चन्दवास नगर से बतलाई गई है। चौहान वंशी राजा भरतपाल, उनके पुत्र अभयपाल, के पुत्र जाहर, उनके श्रीवल्साल और घीवल्लाल के बाहवमल्ल हुए। इनके समय में राजधानी राय वद्दिय या चयमा हो गई थी। चन्द्रवाह और रामहिम दोनों ही नगर यमुनातट पर बसे हुए थे। २. साघो मंहितवाग्वंशसुमणेः सज्जनतामणेः । मालास्पस्य सुतः प्रतीतमहिमा श्रीनागदेवोऽभवत् ११ यः शुल्कादिपदेषुमालबपतेः नावाति युक्तशिव । धोसल्लकण्यास्वमाश्रितवसः का प्रापयतः श्रियं २॥ श्री मत्केशवसेनार्यवर्यवाक्यादुपेयुषा । पाक्षिक श्रावको भाव तेन मालवमंडले ३ सल्लक्षणपुरे तिष्ठन् गृहस्पाचार्य कुजरः । पण्डिताशापरो भक्रया विशाप्तः सम्यगेकदा ।।४ प्रायेण राजकार्येवरुद्ध धर्माधितस्य मे। माद किंचिदनुष्ठ्यं व्रतमादिश्यतामिति ॥५ ततस्तेन समीक्षोन परमागमविस्तरं। उपविष सतामिष्ट तस्याय विभिसत्तमः ॥६ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि उस समय सलक्षणपुर में कमल भद्र नाम के संघवी रहते थे, जो काम के बाणों को विनष्ट करने के लिये तपश्चरण करते थे, अष्टमदों के विनास करने में वीर थे, और वाईस परिषहों के सहने में धीर थे । कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले तथा भव्य रूप कमलों को सम्बोधन करने के लिए सुर्य के समान थे ।' कषायों मोर सल्यत्रय के विनाशक श्रीमन्त सन्त पौर संयम के निधान थे। उसी नगर में मल्ह (माला) के पुत्र नागदेव रहते थे, जो निरन्तर पुण्यार्जन करते थे । वहीं संयमी गुणी, सुशील रामचन्द्र रहते थे। वहीं पर खण्डेलवाल कुलभूषण, विषय विरक्त, भव्यजन बान्ध व के शव के पुत्र इन्दुक या इन्द्र चन्द्र रहते थे, जो जैनधर्म के धारक थे, और जिन भक्ति में तत्पर तथा संसार से उदासीन रहते थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय मलक्षणपुर में अच्छे धर्मनिष्ठ लोगों का निवास था। उक्त इन्दुक ने ने मिजिन की स्तुति कर तीन प्रदक्षिणाएं दी पौर भव्य नागदेव को शुभाशीर्वाद दिया । तव नागदेव ने कहा कि राज्य परिफर से क्या, मनहारी हय, गय रो क्या, जब कि माता-पिता पुत्र कलत्र, मित्र सभी इन्द्रधनुष के समान अनित्य हैं । निर्मल चित्त और भव्यों के मित्र नागदेव ने कवि से कहा, हे दामादर कवि ! ऐसा काम कीजिए जिससे धर्म में हानि न हो। मुझे नेमिजिन चरित्र बनाकर दीजिए, जिससे में गंभीर भव से आज तर जाऊं और मेरा जन्म सफल हो जाय । तब कवि ने नागदेव के अनुरोध से, और पण्डित रामचन्द्र के आदेश रा नेमिनाथ जिन का चरित्र बनाया । जैसा कि उसको संधिपुष्पि का से प्रकट है: वामोयर विराए पंडियरामयच आएसिए महाकये महसुप्रणग्गएवमाय पिणए मिणिचाण गमण पंचमोपरिच्छेमो सम्मसो ॥१४॥ प्रस्तुत चरित एक खण्ड काव्य है जिसमें पांच सन्धियों में बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ को पावन जीवनगाथा अंकित है । ग्रन्थ की अपूर्ण प्रति उपलब्ध है, सम्भव है किसो शास्त्रभंडार में उसको पूर्ण प्रतिउपलब्ध हो जाय। ग्रन्थ में काव्यत्वको विशेषता नहीं है, हाँ चरित को सुन्दर में व्या किया है । पावि गुण र समुशारक कलिमल के नाशक मुनि सूरिसेन का नामोल्लेख किया है। उनके शिष्य मुनि कमलभद्र थे, जोभव्यजन आनन्ददायक थे। रचनाकाल कवि ने ग्रन्थ की रचना का समय दिया है। कविने ग्रन्थ की रचना सलक्षणपुर में वि० सं० १२८७ में परमारवंशी राजा देवपाल के राज्य काल में समाप्त किया है जैसा कि उसके निम्न वाक्य से स्पष्ट है: बारहसयाई सत्तासियाई विक्कमरायहो कालहं। परमारह पट्ट समुखरणु णरवइदेवपालहूं ॥ देवपाल भालवे का परमारवंशी राजा था, और महाकुमार हरिश्चन्द्र वर्मा का, जो छोटो शाखा के वंशधर थे, द्वितीय पुत्र था । क्योंकि अर्जुन वर्मा के कोई सन्तान नहीं थी, प्रतः उस गद्दी का अधिकार इन्हें ही प्राप्त हमा था। इसका अपरनाम 'साहसमल्ल' था। इसके समय के ३ शिलालेख मौर एक दान पत्र मिला है। उनमें एक विक्रम संवत् १२७५ (सन् १२१८) का हरसोडा गांव से भौर दो लेख ग्वालियर राज्य से मिले हैं। जिनमें एक तेनान्यश्च यथाशक्ति भवभीतरनुष्ठितः । ग्रन्थों बुधावाधरेण सद्धर्मार्थ मयों कृतः ।।७ विकमार्कश्मणीस्वादशान्द शतात्यये । दाम्या पश्चिमे (मागे) कृष्णे प्रयता कथा । पत्नी श्री नामदेवस्य नंद्यादानायिका । यासीदलत्रपविधि परतीनां पुरस्सरी -रत्नत्रय विधि प्रशस्ति १. ताहिकमलभर संघाहिवई, कुसुम सर वियारण लज तवई। मय अटु दुह रिगट्ठवरण वीरु, बावीस परिसह सहणधीर । अरि-कम्म किरहिणण, विषाणु, राईव भब्वबोहभाणु । २. इडियन एण्टीबेरी जि० २०१० ३११ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ वि० सं० १२८६ और दूसरा वि० सं० १२८६ का है' । मांधाता से वि० सं० १२३५, २६ अगस्त) का दान पत्र भी मिला है। दिल्ली के सुलतान शमसुद्दीन अल्तमश ने मालवा पर सन् १२३१-३२ में चढाई की थी। और एक वर्ष की लड़ाई के बाद ग्वालियर को विजित किया था, और बाद में भेलसा और उज्जैन को जीता था, तथा वहां के महाकाल मंदिर को तोड़ा था, इतना होने पर भी वहां सुलतान का कब्जा न हो सका। सुलतान जब लूट-पाट कर चला गया। तब वहां का राजा देवपाल ही रहा। इसी के राज्य काल में पं० आशाधर ने वि० सं० १२८५ में नलकच्छपुर' में 'जिनयज्ञ कल्प' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उस समय देवपाल मौजूद थे। इतना ही नहीं किन्तु जब दामोदर कवि ने सवत् १२८७ में 'मिनाह चरिउ रचा उस समय भी देवपाल जोवित था। किंतु जब सवत् १२६२ (सन् १२३५) में त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र प्राशावर ने बनाया । उस समय उनके पुत्र 'जंतुगिदेव' का राज्य था। इससे स्पष्ट है कि देवपाल की मृत्यु स० १२६२ से पूर्व हो चुकी थी । वि० स० १३०० में जब अनगार धर्मामृत की टीका बनी उस समय जंतुगिदेव का राज्य था । यह अपने पिता के समान ही योग्य शासक था। कवि श्रीधर कवि श्रीधर ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और गुरु परम्परा का भी उल्लेख नहीं किया । अन्यत्र से भी इसका कोई समधान नहीं मिलता। कवि विक्रम की १३वीं शताब्दी का विद्वान है। इसकी एक मात्र कृति 'भविसयत्त कहा है। और १४३ कडवक दिये हुए हैं, जिनकी श्लोक संख्या १५३० के लगभग है । ग्रन्थ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ( श्रुत पंचमी) व्रतका फल और माहात्म्य वर्णन करते हुए व्रत संपालक भविष्य दत्तके जीवन परिचय को अंकित किया है। कदन पूर्व परम्परा के अनुसार ही किया गया है। श्रीधर ने भविसयत्त चरित की रचना चन्द्रवाड़ नगर में स्थित माथुरवंशीय नारायण के पुत्र सुपट्ट साहकी प्र ेरणा से की थी । समूचा काव्य नारायण साहुको भार्या रूपिणी के निमित्त लिखा गया है। सुपट्ट साहु नारायण के लघुपुत्र थे । उनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम वासुदेव था । कविने प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में रूपिणी की मंगलकामना की है, जो १. इन्डियन एण्टी क्वेरी जि० २० पु० ८२ २. एपि ग्राफिया इन्डिका जि० ६ ० १०८ १३ । २. विग, फिरिश्ता जि० १० २१०-११ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १२६२ भादों सुदी १५, (सन ४. नजकच्छपुर हो नाला है, यह धारा से २० मील दूर है, यह स्थान उस समय जैन संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था । विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वादशशतेष्यतीतेषु । आश्विन वितान्यदिवसे साहसमल्लापरास्यस्य || श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुल शेखरस्य सोराज्ये । नलकच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थो नेमिनाथ चैत्यगृहे ॥ ४. प्रमारवंश वार्षीन्दु देवपालनृपात्मजे । - जिनयज्ञ कल्प प्रशस्ति श्रीमज्जैतुगिदेवे सिस्थाना वन्तीमवन्यलम् ॥ १२ नलकच्छपुरे श्री मन्नेमि चैत्याल मेऽसिधत् । ग्रन्योऽयं द्विनवह्नमेक विक्रमार्कसमात्यये ॥१३ ६. सिरिचन्दवारण्यरट्ठिएएा, जिराधम्म-करण उक्क ठिए । माहुरकुल गयण तमोहरे, विबुहयण सुथरा मरण धरण -हरेण । + + पीसेसे विलक्ख गुरपाल एग, मइवर सुपट्ट यामाल एए+ ७. पारायण - देह समुब्भवेण, मरण-वयरा- काय रिगदिय भवेश । + सिरि वासुव गुरु भामरेण भव- जलरिगहि-विडरा-कायरेण || - विषष्ठि स्मृति शास्त्र --भविसयत्त कहा प्रवास्ति Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और बारहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि इन्द्रवज्जा और शार्दूल विक्रीडित आदि छन्दों में निबद्ध है जैसा कि उसके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : या देव-धर्म-गुरुपादपयोज भक्ता, सर्वज्ञवेव सुखदायि मतानुरक्ता । संसारकारिकुकथा कथने विरक्ता सा रूपिणी बुधजनैनं कथं प्रशस्था || -२-२ यह काव्य-ग्रन्थ सीधी-सादी एवं सरल भाषा में निबद्ध है किन्तु भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है । इसमें विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के जन सामान्य में प्रचलित भाषा के शब्द यत्र-तत्र मिलते हैं- जैसे जावहि ज्योंही, तादहि-त्योंही, सपत्तउ ( सपाटे से ) विल्ल (वेल), कखंद (करोदा) तसे) भाषा में मुहावरे लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। बोलचाल की भाषा के प्रयोग भी देखने में आते हैं। सूक्तियां भी जन सामान्य में प्रचलित पाई जाती हैं यथा faणु उज्जमेण णउ किंपि होइ - बिना उद्यम के कोई काम नहीं बनता । जहि सच्चइ तह फिरिफिरि रमई जहाँ अच्छा लगता है वहां मनुष्य बार-बार जाता है। ग्रन्थ का चरितभाग धनपाल की भविसयत्त कथा से समानता रखता है । परन्तु धनपाल की भविसयत्त कथा की भाषा प्रोढ है । परन्तु धनपाल की कथा के समान भाषा का प्रांजल रूप, अलकरणता, कल्पनात्मक वैभव और सौन्दर्यानुभूति की झलक श्रीधर की भविष्यदत्त कथा में नहीं गाई जाती । फिर भी ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । कविने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२३० (सन् ११७३ ई०) के फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की दशवीं रविवार के दिन समाप्त की है। ३६.७ niraara far (क्षपणासारगद्य के कर्ता ) प्रस्तुत माधवचन्द्र मूलसंघ काणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान मुनि चन्द्रसूरि के प्रशिष्य और सकलचन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क सिद्धान्तादि तीन विषयों में निपुण होने के कारण त्रैविद्य कहलाते थे । जैन शिलालेख संग्रह तृतीय भाग के लेख नं० ४३१ में, जो शक सं० १११९ (वि० सं० १२५४ का उत्कीर्ण किया हुआ है, उसमें मुनिचन्द्र और कुलभूषणव्रती के शिष्य सकलचन्द्र भट्टारक के पादों (चरणों) का प्रक्षालन करके महाप्रधान दण्डनायक ने कुछ चावलों की भूमि, दो कोल्हू और एक दुकान का 'एदग' जिनालय को दान दिया है | इन्हीं सकलचन्द्र के शिष्य उक्त माधवचन्द्र हैं, जिनकी उपाधि विद्य थी। इन्होंने क्षुल्लकपुर (वर्त मान कोल्हापुर) में क्षपणासार गद्यकी रचना की है । क्षपणासार गद्य में कर्मों के क्षपण करने की प्रक्रिया का सुन्दर वर्णन किया गया है। माधवचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना शिलाहार कुल के राजा वीर भोजदेव के प्रधान मंत्री बाहुबली के लिये की थी । और जिन्हें माधवचन्द्रने भोजराज के समुद्धरण में समर्थ, बाहुबल युक्त, दानादिगुणोत्कृष्ट, महामात्य श्रीर लक्ष्मीवल्लभ बतलाया है। उन्हीं के लिये शकसं० १९२५ (सन् १२०३ ) वि० सं० १२६० में क्षपणासारगद्य का निर्माण किया था, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है : श्रमुना माधवचन्द्र विष्यगणिना श्रवधिक शिक्षा, क्षपणासारमकारि बाहुबलिसमंत्रीशसंशप्तये । १. खरणाहविवकमाइच्वकाले पवहंत सुयारए त्रिसाले । बारहमय वरिमहि परिगएहि फागुणमासम्म बलवते । दहिदि तिमिरुककर विचवखे, रविवार समाज एउ सत्य ।। जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ २. “पंचांग मंत्रबृहस्पतिसमानबुद्धियुक्त भोजराजप्राज्य साम्राज्य समुद्धरणसमर्थ - बाहुबल महामात्य पदवी लक्ष्मीवल्लभ - बाहुबलिमहाप्रधानेन वा । " ० ५० १ युक्त - दानादि गुणोत्कृष्ट ---क्षपणासार गद्य प्रशस्ति जैन प्रन्थ प्र० सं० भा० १५. १६५ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ शाककालेशार-सूर्य-चन्द्रगणिते जाते पुरे क्षल्लके, शुभवे दुभिवत्सरेविजयतामानन्द्रतार भुवि ।। इन्हीं भोजराज के राज्यकाल में कोल्हापुर देशान्तवर्ती अर्जु रिका (माजर) नामक गांव में क्षपणासार गद्य की रचना के दो वर्ष बाद शक सं० ११२७ क्रोधन संवत्सर (वि० स० १२६२) में सोमदेव ने शब्दार्णव धन्द्रिका नाम की जैन व्याकरण की वृत्ति समाप्त की थी | मुनि विनयचन्द्र ___ यह मूलसंघ के विद्वान सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे । इन्हें पडित प्राशाधर जी ने धर्मशास्त्र का प्रध्य विनयचन्द्र मुनि के अनुरोध से प्राशीधर जी ने भव्यजनों के हिनार्थ इण्टोपदेशटोका भूपाल कविकृत चविशतिका टोका और देवसेन के प्राराधनासार को टोका बनाई थी इन में प्रथम दो टीकाएं प्रकाशित हो चुकी हैं । किन्तु आराधनासार' की टीका उपलब्ध नहीं हुई थी। किन्तु पामेर के शास्त्र भण्डार में संवत् १५८१ की लिखी हुई पाराधनासार की टोका उपलब्ध है । टीका अत्यन्त संक्षिप्त है, जो गायानों के गादों के प्रथं का बोधकराती है, 1 जैसा कि उसके मंगल पद्य तथा प्रतिज्ञा वाक्य से स्पष्ट है : प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुटः । आराधनासारगद पवार्थाकथयाम्यहम् ॥५१ "धिमलेत्यादि-विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन विमला विमलतरा शुद्धतराः गणा परमावगाह सम्यग्दर्शनादयः । सिद्धं जीवन मुक्त जगत्प्रतोतं वा । सुरसेन वंदियं सहइ वः स्वामिभिर्वर्तते सेनाः स स्वामिकाः निजानजस्ता भियुक्त चतुणिकायववस्तथा देवसेननाम्ना ग्रन्थकृता नमस्कृतमित्यर्थः। पाराहणासारं सम्यग्दर्शना वोमुद्योतनायुपाय पंचकाराधना तस्याः स सम्मावानादि चतुष्टयं । तया तस्य वा राधना तयोपादेययत्तात् ॥" अन्त में लिया है "विनयेन्दुमुनेहेंतोराशाधरकवीश्वरः । स्फुटमाराधनासार टिप्पनं कृतवानि ॥" श्री विनय चन्द्रर्थमित्याशाधरविरचिताराधनासार विवृत्तिः समाप्ता। अतः विनयचन्द्र का समय वि० सं० १२७० से १२६६ तक जान पड़ता है । --रामचन्द्रमुमुक्षु प्राचार्य कुन्द-कुन्द की वंशपरम्परा में दिव्य बुद्धि के धारक केशवनन्दी नामके प्रसिद्ध यति हुए । जो भव्य जीव रूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यसमान, थे, सयम के प्रतिपालक, कामदेव रूप हाथी को नाट करने में सिह के समान पराक्रमी, और अनेक दुःखोत्पादक कमरूपो पर्वत को भेदन के लिये वज्र के समान थे । बड़े-बड़े योगीन्द्र और राजा महाराजा जिनके चरणी की वन्दना करते थे । और जो समस्त विद्याओं में निप्णात थे । उन्हीं --पूरी गाया इस प्रकार है : १.जैन ग्रन्थप्रशस्ति सं० भाऊ १पृ० १९९ २. उपशम व मृत सागरेन्द्रो मुनीन्द्रादजनि विनयचन्द्रः सच्चकोरक चन्द्रः । जगदमत सगर्भाः शास्त्रसंदर्भगर्भाधुचिचरितवरिष्णो यस्य धिन्वंतिवाचः ।। ३. विमल पर गुगासमिद्ध, सिद्धं सुरसेगा बंदियं सिरसा। समिऊरण महावीर चोच्छ आराहणा सारं ॥१ ४. "पो भयान-दिवाकरो यमकरो मारेभ पञ्चाननो, नानादुःखविधाषिकर्मकुभतो बचायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्र-नरेन्द्र-वन्दित पदो विधारणेवोत्तीएवान्, श्यातः केशवनन्दिदेव-यतिपः श्रीकुदकु'दान्वयः ॥१॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं पाताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि के शिष्य रामचन्द्र मुमुक्ष था, जो समस्तजनों का हिताभिलाषी था। रामचन्द्र मुमुक्ष ने पद्मनन्दी नामके श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पासमें व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर गिरि और समिति के बराबर संख्यावाले सत्तावन पद्यों द्वारा पुण्यास नामक कथा ग्रन्थ की रचना की। प्रस्तुत ग्रन्थमें ५६ कथाएं हैं, जो छह अधिकारों में विभाजित हैं, जिन की श्लोक संख्या साढ़े चार हजार है। प्रथम पांच खण्ड में पाठ-आठ कथाएं हैं, और अन्तिम छठे खण्ड में १६ कथाएं दी हैं। प्रथम अष्टक की कथाओं में देवपूजा में अर्हन्तदेव के स्वरूप की बोधक पौर देवपूजा के महत्व को स्यापित करनेवाली कथाएं दी हैं, जो पुण्यफल की प्रतिपादक हैं। दुसरे 'अष्टक में णमो प्ररहताण' प्रादि पंच नमस्कार मन्त्र के उच्चारण करने वाली और उसके प्रभावको व्यक्त करने वाली पाठ कथाएं दी हैं, जिनसे पंच नमस्कार मन्त्रको महत्ता का बोध होता है, और पुण्यफल की प्राप्ति रूप सदगतिका लाभ प्रतिपादित किया है। तृतीय प्रष्ट कमें स्वाध्याय के पुण्य फलकी प्रतिपादक कथाएं दी हैं, जिनमें शास्त्रों के पठन-पाठन, उनके श्रवण और उच्चारण आदि का पुण्य भी निर्दिष्ट है। चौथे अष्टक में शीलवत के पालकों की पुण्य कथाएं दी हैं। गृहस्थों में पुरुषों को अपनी पत्नी के प्रति और पत्नी को पति के प्रति पूर्ण शीलवान होना आवश्यक है। पांचवें अष्टक में उपवास के पुण्यफल की प्रतिपादक कथाएं दी हैं। और छठे खण्ड में पात्रदान के महत्व की प्रतिपादक १६ कथाएं दी हैं। इन सब कथायों के अध्ययन में जहां भावविशुद्धि होती है, वहां उनके प्रति आस्था भी उत्पन्न हो जाती है । महा कवि रइधू ने भी अपभ्रंशभाषा में पुण्यासव कथाकोष की रचना की है। ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, और न रचनास्थल का ही उल्लेख किया है। कर्नाटक कवि चरित से ज्ञात होता है कि नागराज ने कन्नड़ भाषा में 'पुण्यास्रव चम्पू कान्यकी रचना शकसंवत् १२५३ (सन् १३३१ में की है जो संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी भाषान्तर है। बहुत सम्भव है कि नागराज ने रामचन्द्र मुमुक्षु के पुण्यास्रब का प्राधार लिया हो । क्योंकि दोनों में अत्यधिक समानता पाई जाती है। इससे रामचन्द्र मुमुक्ष की रचना पूर्ववर्ती है। इनका समय वित्रम की १३ वीं शताब्दी जान पड़ता है। निश्चित समय तो केशवनन्दी के समय का निश्चय हो जाने पर मालूम हो सकता है। विमलकोति प्रस्तुत विमलकीति रामकीति गुरु के शिष्य थे । रामकीर्ति नाम के चार विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनमें प्रथम रामकीति के शिष्य विमल कीति हैं। दूसरे रामकोति मूलसंघ बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ के विद्वान ये 1 इनके शिष्य म०प्रभाचन्द्र ने सं० १४१३ में बैशाख सुदि १३ बुधवार के दिन अमरावती के चौहान राजा अजयराज के राज्य में बल कचुकान्वयी श्रावक ने एक जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। जो खण्डितदशा में भौगांव के मन्दिर को छतपुर रखी हुई है। - - १. "शिष्योऽभूत्तस्यभन्मः सकल जनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु त्विा शब्दापशब्दान् सुविशद यशसः पद्मनन्द्याभिधानात् (याद)। वन्यावादीमसिंहात्परमयतिपतेः सो व्यधाद्भव्यहेतोग्रंन्यं पुण्यावारूप गिरिसमितिमितं दिव्यपद्यैःकथाः ॥२॥ -जनग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा०१ पृ० १५४ २. संवत १४१३ वंशाख सुदि १३ बुधे श्रीमदमवरावती नगराधीश्वर वाहवाण कुल श्रीअजयराय देव राज्य प्रवर्तमाने मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीरामकोतिदेवास्तस्य शिष्य म. प्रमाचन्द्र लंबकंचु कान्क्ये साघु..."भाई सोहस तयोः पुत्रः सा. जोवदेव भार्या सुरकी तयोः पुत्रः केशो प्रणमति । देखो जैन सि. भा. भा. २२ अक ३ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ तीसरे रामकोति भट्टारक वादिभूषण के पट्टधर थे, जिनका बिम्ब प्रतिष्ठित करने का समय संवत् १६७० है। यह रामकीर्ति १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान हैं। चौथे राम कीति का नाम भट्टारक सुरेन्द्रकीति के पटधर के रूप में मिलता है। इनमें से प्रथम रामकीर्ति का सम्बन्ध हो बिमलकोति के साथ ठीक बैठता है। यह राम कीर्ति के शिष्य थे, जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में संवत् १२०७ की उत्कीर्ण की हुई उपलब्ध है । रामकीति के शिष्य पश कीर्ति ने 'जगत सुन्दरी प्रयोगमाला' नामके वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। जिनका समय विक्रम को तेरहवीं शताब्दी है । क्योंकि यश कीति ने जगत् सुन्दरी प्रयोगमाला में अभयदेव सूरि का शिष्य धनेश्वर सूरि का (सं० ११७१) का उलनेख किया है। विमलकीर्ति की एक मात्रकृति सुगन्धदशमी कथा है । जिसमें अपभ्रशभाषाके कड़वकों में भाद्रपद शुक्ला दशमी के प्रत की कथा का वर्णन करते हुए उसके फल का विधान किया गया है। कबिने दशवींवत के अनुष्ठान करने की प्रेरणा की है। ग्रंथ में रचना काल नहीं दिया। इन के गुरु रामकीति का समय विक्रम को १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध-(सं० १२०७) है । प्रत: विमलकीति का समय भी विक्रमकी १३वीं शताब्दी का पूर्वधि सुनिश्चित है। मुनि सोमदेव मुनि सोमदेव व्याकरण शास्त्र के अच्छे विद्वान थे । इन्हों ने अपनी शब्दचन्द्रिका वृत्ति में अपनी गुरुपरम्परा और संघ-गण गच्छादिक का कोई उल्लेख नहीं किया। यह शिलाहारवंश के राजा भोज देव (द्वितीय) के समय हुए हैं । कोल्हापुर प्रान्त के अर्जुरिका नामक ग्राम के त्रिभुवन तिलक' नामक जंन मन्दिर में, जो महामण्डलेश्वर गण्डरादित्य देव द्वारा निर्मापित किया गया था। उसमें भगवान नेमिनाथ जिनके चरण कमलों को माराधना के बल से और वादीभ बञांकुश विशालकीति पण्डितदेव के वैयावृत्य से मुनि सोमदेव ने शक सं० ११२७ (वि० सं० १२६२) में बोर गोजदेव के विजयराज्य में 'शब्द चन्द्रिका' नाम की वृत्ति बनाई । इस वृत्ति को मूलसंघीय मेधचन्द्र के दीक्षित शिष्य 'भुजंग सुधाकर' (नागचन्द्र) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यति के लिये उक्त संवत में बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है : 'श्री मुलसंघ जलजप्रतिबोधमानोमधेन्द दीक्षितभुजंगसुधाकरस्य । राद्धान्त तोयनिधिवृद्धि करस्यत्ति रेभे हरीन्यू यतये वर दीक्षिताय ॥२॥ शब्दार्णव की रचना गुण नन्दी ने की थी, क्यों कि मुनि सोमदेव ने शब्दचन्द्रिका वृत्ति को गुणनन्दी के शब्दार्णव में प्रवेश करने के लिये नौका के समान बतलाया है । तथा-- 'श्री सोमदेव यति-निर्मित मादधाति, यानौः प्रतीत-गुणनन्दित-शन्दवाओं। सेयं सताममलचेतसि विस्फुरन्सी, वृत्तिः सदानुतपद परिवतिषीष्ट ।। प्रेमी जी ने दो नागचन्द्र नाम के विद्वानों का उल्लेख किया है। एक नागचन्द्र पम्परामायण के कर्ता है, जिन्हें अभिनव पम्प कहा जाता है यह गहस्थ विद्वान् थे । दुसरे नागचन्द्र लब्धिसार के टीका कर्ता हैं यह मुनि थे। इन द्वितीय नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्र के लिये मुनि सोमदेव ने वृत्ति बनाई है। इन हरिचन्द्रयती को 'राधान्त तोय १. सरपि प्राफिका इडिया जि० २ पृष्ठ ४२१॥ २. देखो, जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला प्रशस्ति । ३. स्वस्ति श्री कोल्लापुरदेशान्तर्वार्जुरिका महास्थान युधिष्ठरावतार महामण्डलेश्वर मंडरादित्य देव निर्मापित त्रिभुवन तिलक दिनालये श्रीमत्परमपरमेष्ठि श्रीनेमिनाथ श्रीपादप माराधनबलेन बादीभवजांकुश श्रीविशालकीति पंक्तिदेव यावृत्यत: श्रीमच्छिलाहार कुल कमल मार्तण्डते गः पुनराजाधिराज परमेश्वरपरमभट्टारकपश्चिम चावति श्रीवीर भोजदेव विजय राज्ये शकवर्षक ससक शतसप्तविंशति ११२७ तम क्रोधन सम्वत्सरे स्वस्ति समस्तानविद्या चक्रवति श्री पूज्यपादानुरक्त चेतसा श्रीमत्सोमदेव मुनीश्वरेण विरचितम शब्दार्णव चन्द्रिका नाम वृत्तिरिति । -जन ग्रन्य प्रशस्ति सं०भा०१पृ० १६९ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४०१ निधिवृद्धिकर' विशेषण दिया है, जिससे वे सिद्धान्त के विद्वान् टीकाकार जान पड़ते हैं। और मेघचन्द्र मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ के विद्वान थे। उनके प्रभाचन्द्र 'शुभचन्द्र, बीरनन्दी और रामचन्द्र प्रादि शिष्य थे। मेषचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० सं० ११७२) में हुया है। इनके एक शिष्य शुभचन्द्र का स्वर्गवास शक स. १०६८ (वि० सं० १२०३) में हया था। और वीरनन्दी ने प्राचारसार की कनड़ी टीका शक सं०१०७६ (विक सं० १२१२) में बनाई थी। मुनि सोमदेव का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है। मोर नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्र का समय भी विक्रम की १३वीं शताब्दी है। कवि हरिदेव इनके पिता का नाम चंग देव और माता का नाम चित्रा या। इनके दो जेठे भाई थे किंकर और कृष्ण । उनमें किंकर महागुणवान, और कृष्ण स्वभावतः निपुण थे। उनके तीसरे पुत्र हरि हुए। इनसे दो कनिष्ठ भाई विजवर और राघव थे। जो जिनचरणों के भक्त और पापों का मान मर्दन करने वाले थे । इस कुटुम्ब के परिचय नागदेव का संस्कृत मदनपराजय से चलता है यः शुद्धसोमकूलपविकासनाको जातोजथना सरतामविचंगदेवः । तन्नन्वनो हरिरसत्कवितामसिंहः तस्माद. भिषग्जनपतिभ दिनागवः ।।२।। सज्जावुभौ सुभिषजाविहहेमरामो, रामाप्रियङ्कर इति प्रियदोऽथिनां यः । ताजश्चोकत्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः, श्रीमल्लगिज्जिनपदाम्बुजमसभङ्गः ॥ तज्जौहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुक्तः, छन्दोऽलंकार काय्यानि नामिधानानि वेदम्यहम् ।। कथाप्राकृतबन्धेन हरिद वेन या कृता, वक्ष्ये संस्कृतबन्धेन भयानधर्मवद्धये ।।५।। अर्थात् पथ्वी पर शुद्ध सोमकूलरूपी कमल को विकसित करने के लिये सूर्यरूप याचकों के लिये कल्पवृक्ष चंगदेव हुए। उनके पुत्र हरि हुए, जो असत्कवि रूपि हस्तियों के सिंह थे। उनके पुत्र हुए वैद्यराज नागदेव । नागदेव के हेम और राम नाम के दो पुत्र हुए, जो दोनों ही अच्छे बैद्य थे। राम के पुत्र हुए प्रियंकर, जो याचकों को प्रिय थे। प्रियंकर के पुत्र हुए 'मल्लुमि, जो चिकित्सा महोदधि के पारगामी विद्वान तथा जिनेन्द्र के चरण-कमलों के मत्त. भ्रमर थे। उनका पुत्र हुआ मैं नागदेव नामक, जो अल्पज्ञानी हूँ। काव्य, अलंकार, और शब्द कोप के जान से विहीन हैं। हरिदेव ने जिस कथा को प्राकृत बन्ध में रचा था, उसे मैं धर्मवृद्धि के लिये संस्कृत में रचता हूं। __ कवि की एकमात्र कृति 'मयणपराजय चरिउ' है, जो एक रूपक काव्य है । इसमें दो संघियां हैं जिनमें से प्रथम सन्धि में ३७ और दूसरी सन्धि में ८१ कुल ११८ कडवक हैं । जिनमें मदन को जीतने का सुन्दर सरस वर्णन किया गया है। इसमें पद्धडिया, गाथा और दुवई छन्द के सिवाय वस्तु (रड्ढा) छन्द का भी प्रयोग किया गया है। कित इन छन्दों में कवि को वस्तु या रड्ढा छन्द ही प्रिय रहा जाना पड़ता है। इस छन्द के साथ ग्रन्थ में यथास्थान १. चंगएबहुराविजिणपयडु । तह चित्त महासइहि पतपुत्त किकरू महागुण । पुणु बीयउ कण्ड हुउ 'जेण लघु ससहाउरिणय पुण।। हरि तिज्जउ कइ जाणियह दियवरु राघववेद । ले लहुया जिएपमथुरणहि पावहमारए मलेह ॥२॥-मयण पराजयचरिउ २. प्राकृत पिंगत में रहका छन्द का लक्षण इस तरह किया है। जिसमें प्रथम चरण में १५ मात्राए', दितीय परण में १२ तृतीय परण में १५ चतुर्य चरण में ११ और चरण में १५ मात्राएं हो। इस तरह १५४१२४१५४ ११x १५ कुल मात्राओं के पश्चात् अन्त में एक दोहा होना चाहिए, तब प्रसिद्ध रहढा छन्द होता है जिसे वस्तु छन्दx भी कहा जाता है । (प्राकृत पिंगल १-१३३) Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अलंकारों का भी संक्षिप्त वर्णन पाया जाना इस काव्य की अपनी विशेषता है। ग्रन्थ में अनेक सूक्तियां दी हुई है जिन से ग्रन्थ सरस हो गया है। उदाहरणार्थ यहां तीन सूक्तियों को उद्धृत किया जाता है १ असिघारा पहेण को गच्छइ-तलवार की धार पर कौन चलना चाहता है। २ को भयदंडहि सायरुलंघहि-भुजदंड से सागर कौन तरना चाहेगा। ३ को पंचाणणु सुत्तउ खवलइ-सोते हुए सिंह को कौन जगायगा । इस रूपक काव्य में कामदेव राजा, मोह मन्त्री और प्रज्ञान प्रादि सेनापतियों के साथ भावनगर में राज्य करता है । चारित्रपुर के राजा जिनराज के उसके शत्रु हैं, क्योंकि वे मुक्ति रूपी लक्ष्मी (सिद्धि) के साथ अपना विवाह करना चाहते हैं। कामदेव ने राग-द्वेष नाम के दत द्वारा जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्तिकन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ दें, और अपने ज्ञान-दर्शन-चरित्र रूप सुभटों को मुझे सौंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जायें। जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया । ग्रन्थ का कथानक परम्परागत ही है, कवि ने उसे सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रचना का ध्यान से समीक्षण करने पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णय का उस पर प्रभाव परिलक्षित हमा जान पड़ता है। इससे इस ग्रन्थ की रचना ज्ञानार्णव के बाद हुई है। ज्ञानार्णव की रचना वि० को ११वीं शताब्दी की है। उससे लगभग दो सौ वर्ष बाद 'मयण पराजय' की रचना हुई जाम पड़ती है। ___इस ग्रन्थ की एक प्रति सं० १५७६ को लिखी हुई ग्राभेर भंडार में सुरक्षित है । और दूसरी प्रति सं०१५५१ के मगशिर सुदि अष्टमी गुरुवार की प्रतिलिपि की हुई जयपूर के तेरापंथी बड़े मन्दिर के शास्त्रमण्डार में उपलब्ध है। इस कारण यह ग्रन्थ की सं०१५५१ के बाद की रचना नहीं हैं। पूर्व की है। पर्थात् विक्रम की १३वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण की रचना जान पड़ती है। यशःकीति-- यश:कौति नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। । प्रस्तुत यश:कीति उन सबसे भिन्न जान पड़ते हैं । इन्होंने अपने को 'महाकवि' सूचित करने के अतिरिक्त अपनी गुरु परम्परा यौर गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं किया। इनकी एक मात्र कृति 'चंदप्पह चरिज' है जिसमें ११ सन्धियां और २२५ कडबक हैं, जिनमें पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिनका जीवन-परिचय अंकित किया गया है। ग्रन्थ का गत चरितभाग बड़ा ही सुन्दर और प्रांजल है । इसका अध्ययन करने से जहाँ जैन तीर्थकर की यात्म-साधना की रूप-रेखा का परिज्ञान होता है वहां आत्म-साधन की निर्मल झांकी का भी दिग्दर्शन होता है । कवि ने तीर्थकर के चरित को काव्य-शैली में अंकित किया है, किंतु साध्य चरित भाग को सरल शब्दों में रखने का प्रयास किया है। और अन्तिम ११वीं सधि में तीर्थंकर के उपदेश का चित्रण रचना हुई जान पता लिखी हुई भामेर भायी बड़े मन्दिर के शा३वीं शताब्दी के प्रतिलिपि की हुई जयपुर के डार में सुरक्षित है । और दसरी कारण यह ग्रन्थ की १. प्रस्तुत यश:कीर्ति गोपनन्दी के शिष्य थे, जो स्याद्वादतर्क रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे। बौद्ध वादियों के विजेता घे। सिंहलाधीशने जिनके चरण कमलों की पूजा की थी। (जंन लेख सं० भा०१ लेख ५५) २. दूसरे यशःकोति वागड संघ के भट्टारक विमलकीति के शिष्य और रामकीति के प्रशिष्य थे । ३. सोसरे यहाःकोति मूलसंघ के भट्टारक पपनन्दी के प्रशिष्य, भ. सकस कीति के शिष्य और शुभचन्द्र के गुरु थे। ४. चौथे यशःकीति काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगर के म. सहस्रकीति के प्रशिष्प, तथा भ० गुणकीति के शिष्य, लघुभाता एवं पट्टधर थे। यह ग्वालियर के तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में हुए है, इनक समय सं. १४८६ से १५२० तक है। इनकी अपभंश भाषा की ४ रमनाएं उपलब्ध है पाण्डवपुराण (१४६७) हरिवंशपुराण (१५००) रविव्रत कथा, और जिन रावि कथा। पांच यःकीति भ० ललितकीति के शिष्य थे, धर्मशाभ्युदय की 'सन्देह प्वान्त दीपिका' नाम की टीका के कर्ता है। छठवें पशःकोति जगत्सुंदरी प्रयोग माला के कर्ता है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४०३ करते हुए धार्मिक सिद्धांतों का अच्छा कथन किया है। किंतु लगता है कि कवि ने वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित्र के धार्मिक कथन को देखा है, दोनों को तुलना करने से कथन शैली की समानता का श्राभास मिलता है । ग्रन्थ में गुरु परम्परा का उल्लेख न होने से समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई हो रही है । कवि ने इस ग्रन्थ को हुंबड कुलभूषण कुमरसिंह के पुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से बनाया है। श्रार इसीलिए उसकी प्रत्येक पुष्पिका में सिद्धपाल का नामोल्लेख किया है। जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है : महाभव्य सिद्धपालसवणभूसणे महाकवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्य का उल्लेख करते हुए गणि कुन्दकुन्द समन्तभद्र देवनन्दि (पूज्यपाद) कलंक और जिनसेन सिद्धसेन का उल्लेख करते हुए आचार्य मन्द्र के मुनि जीवन के समय घटने वाली घटना द्वारा ग्राठवं तीर्थंकर के स्तोत्र का सामर्थ्य से चन्द्रप्रभ जिनका मूर्ति के प्रकट होने का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है। :-- चंदtate महाकवे महाराइजस कित्तिविरइए "इसिरि चंद पहसा मिणिव्वाण गमवणो नाम एयारी सन्धिपरिच्छेत्री समता । " "में समंतभद्दवि मुणिक, अम्मिलु णं पुण्णम हिचंषु । जिउ रंजिउ राया रुद्दकोडि जिग वृत्ति मिति सिपिडि फोडि । फुड दसविसासु । " नोहरिउ बिबुचंदप्पहासु उज्जयंतर और कलंक देव को तारादेवी के मान को दलित करने वाला बतलाया है। "अकलंकुणा पश्चक्खुणाणु जे तारादेविहि जिउमा । उज्जा लिउ सासण अगसिद्ध विद्धा िर्याल्लय समलबुद्धि ।" जिनसेन और सिद्धसेन को परवादियों के दर्प का भंजक बतलाया है । ' प्रस्तुत ग्रन्थ वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित के बाद बना है । अतः इसका रचनाकाल विक्रम को १२वीं या १३वीं शताब्दी हो सकता है। कुछ विद्वानों ने चन्द्रप्रभ के कर्ता यशः कीर्ति और भ० गुणकोति के पट्टबर यशःकीति को नाम साम्य के कारण एक मान लिया है, पर उन्होंने दोनों की कृतियों का ध्यान से समोक्षण नहीं किया, और न उनके भाषा साहित्य तथा कथन शैली पर ही दृष्टि डाली है । विचार करने से दोनों यशः कीर्ति भिन्न-भिन्न हैं। उनमें चन्द्रप्रभ चरित के कर्ता यशःकोति पूर्ववर्ती हैं, और पाण्डव पुराणादि के कर्ता यशःकीर्ति अर्वाचीन हैं। पाण्डव पुराणकी पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है : 1 इण्ड पुराणे यण-मण-सवण-सुहयरे सिरिगुण कित्ति सिस्स मुनि जस कित्ति विरइए साधु वील्हा पुत हेमराज णामं किए मिनाह जुधिदुर- भीमाज्जु-ण णिव्वाण गमण नकुल सहदेव-सम्पट्ठसिद्धि बलहद्द - पंचम सग्ग गमण पयासणो णाम चउतीसमो इमो सग्गो समतो ।" इस पुष्पिका वाक्य के साथ चंदप्पह चरित्र का निम्न पुष्पिका वाक्य की तुलना कीजिए । "g far stafरए महाकवे महारुइजसकित्तिविरइए महाभव्व सिद्धपाल सवणनूसणे चंद पह सामि निव्वाण गमण वण्णणो णाम एयारहमो सन्धि परिच्छे समत्तो ।" दोनों के पुष्पिका वाक्य भिन्नता के द्योतक हैं। पाण्डव पुराण के कर्ता ने अपने से पूर्ववर्ती श्राचार्यों का कोई उल्लेख नहीं किया। हां ग्रपनी भट्टारक परम्परा का अवश्य किया है। मनोति श्रास | प्रस्तुत मदनकीर्ति वादीन्द्र विशाल कीर्ति के शिष्य थे और बड़े भारी विद्वान थे। इनकी शासनचतुस्त्रिं १. जिससे सिद्धसेरा वि भयंत परवार दप्प-भंजरण-कमंत | --चन्दप्रभ चरिउ प्रशस्ति Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ शतिका नामकी छोटी सी रचना है, जिसकी पद्य संख्या ३५ है। जो एक प्रकार से तीर्थ क्षेत्रों का स्तवन है, उनमें पोदनपुर के बाहुबली, श्रीपुर के पार्श्वनाथ, शंखजिनेश्वर, धारा के पाव जिन, दक्षिण के गोम्मट जिन, नागद्रहजिन, मेदपाट (मेवाड़) के नागफणिग्राम के मल्लिजिनेश्वर, मालवा के मंगलपुर के अभिनन्दन जिन, पुष्पपुर (पटना) के पुष्पदन्त, पश्चिम समुद्र के चन्द्रप्रभ जिन, नर्वदा नदी के जल से अभिषिक्त शान्तिजिन पादापुर के वीर जिन, गिरनार के नेमिनाथ, चम्पा के वासपूज्य आदि तीर्थों का स्तवन किया गया है। स्तवनों में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख अंकित है और उसके प्रत्येक पद्य के अन्तिम चरण में विश्वाससा शासनम्' वाक्य द्वारा दिगम्बर शासन का जयघोष किया गया है। मालव देश के मंगलपुर में म्लेच्छों के प्रताप का आगमन बतलाते हुए लिखा है कि वहां अभिनन्दन जिन की मूर्ति को तोड़ दिये जाने पर वह पुन: जुड़ गई । इस घटना का उल्लेख विविध तीर्थ कल्प के पृ०५७ पर अभिनन्दन कल्प नाम से किया गया है। श्री मन्मालवदेश मंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते, भानामूतिरपोभियोजितशिराः सम्पूर्णता माययौ । यस्योपद्रवनाशिनः कलयुगेऽनेक प्रभावतः, सश्रीमानभिनन्दनः स्थिरयतं दिग्याससा शासनम् ॥३४॥ इस पद्य में जो म्लेच्छों के प्रताप के प्रागमन को बात लिखो है वह सं०१२४६ के बाद की घटना है। इससे इतनापौर स्पष्ट है कि मदनकीति विक्रम को १३वो शताब्दी के विद्वान आशाधर के समकालीन हैं। पं. पाशाधर ने प्रशस्ति में 'मदन कीर्ति यति पतिना' वाक्य के साथ उनका उल्लेख भी किया है। माधम पत्तन में घटित घटना का उल्लेख मुनि मदनकीर्ति ने शासन चतुस्विंशिका के निम्न २८वें पद्य में किया है। पूर्व या श्रममाजगामसरिता नाथाभ्युदिध्याशिला, तस्यां देवगणान् द्विजस्य बघतस्तथी जिनेशः स्वयं । कोपाद्विप्रजनाबरोधनकरः देवैः प्रपूज्याम्बरे, दधे यो मुनिसुव्रतः स जयतात् दिग्वाससा शासनम् ॥२८॥ इसमें बतलाया है कि जो शिला सारतास पहलमाश्रम को प्राप्त हुई। उस पर देवगणों को धारण करने वाले विप्रों के द्वारा क्रोधवश अवरोध होने पर भी मुनिसुव्रत जिन स्वयं उस पर स्थित हए--यहां से फिर नहीं हटे. और देवों द्वारा आकाश में पूजित हुए, वे मुनि सुबत जिन ! दिगम्बरों के शासन की जय करें। माश्रम पत्तन' नाम का यह स्थान जा बतमान म केशीराय पाटन के नाम से प्रसिद्ध है। कोटा से नौ मोल दर और बंदी से तीन मील दूर चम्बल नदी के किनारे अवस्थित है। यह चम्बल नदी कोटा गो विभाजन करती है। इस नदी के किनारे मुनिसुव्रत नाथ का चैत्यालय है जो तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध है। नेमि. मन्द सिवान्त देव और ब्रह्मदेव यहां रहते थे। सोमराज श्रेष्ठी भी वहां पाकर तत्त्व चर्चा का रस लेता था। नेमिचन्द्र सिद्धान्त देव ने उक्त सोम राज श्रेष्ठी के लिए द्रव्य संग्रह (पदार्थ लक्षण) की रचना को थो, और ब्रह्मदेव RETIRAN नाम ने उसकी बत्ति बनाई थी। इस तीर्थ की यात्रा करने लिए दूर से यात्री पाते हैं। राजशेखर सूरि (सं० १४०५) ने अपने चतुर्दिशति प्रबन्ध में लिखा है कि मदन कीर्ति ने चारों दिशामों वादियों को जीतकर उन्होंने 'महा प्रामाणिक चूडामणि' पदको प्राप्त की थी। उन्होंने मदन कीर्ति प्रबन्ध में लिखा १. 'अस्सारम्मे पट्टण मुनि सुव्वय जिणं च बंदामि'।-निवारणकाज-- 'मुणि सुन्वउ जिण तह आसम्मि'। मुनि उदयकीति कृत निर्वाण भक्ति २. देखिये, द्रव्य संग्रह की ब्रीदेव कृत वृत्ति की उत्पानिका, और द्रव्य संग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार नामका लेखक का लेख। --अनेकान्त वर्ष १९ कि० १.२ पृ० १४५ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि है कि एक बार मदन कीति गुरु के निषेध करने पर भी वे दक्षिणा पथ को प्रयाण करवं कर्नाटक पहंचे। वहां विद्वस्त्रिय विजयपुर नरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। ग्रार उन्होंने उनम अपने पूर्वजों के चरित पर एक ग्रन्थ की रचना करने के लिए कहा । कुन्ती भोज को कन्या मदन मंजरी मुखिका थी। मदन कोनि पच रचना करते जाते थे और मदत मंजरी पर्दे की आड़ में बैठकर उसे लिखती जाती थी। कुछ समय बाद उन दोनों के मध्य प्रेम का प्राविर्भाव हुआ, और वे एक दूसरे को चाहने लगे। राजा को जब इसका पता चला तो उसने मदन कोनि के वध करने की आज्ञा दे दी। परन्तु जब तक कन्या भी उनके लिए अपनी सहेलियों के साप परने के लिए तैयार हो गई, तब राजा ने लाचर हो उन दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया । मदन-कीति अलका गहस्य हो रहे, गुरू वादीन्द्र विशाल कीति के पत्रों द्वारा बार-बार प्रतुद्ध किये जाने पर भी प्रवुद्ध नहीं हए। तब विशाल को ति स्वय भी दक्षिण की ओर अपने शिष्य नारद करने के लिए गए। और कोल्हापुर प्रान्त के अजारका' नामक ग्राम में गए, वहाँ मुनि सोमदेव ने वादीन्द्र विशालकोति की वैयावत्य से 'शब्दाव को 'चान्द्रका' नाम की वृत्ति शक स० ११२७ (वि०म० १२६२) में बनाई थी। संभवतः वे अन्त समय में पंडित पाशाधर जी को सूक्तियों में प्रबुद्ध हुए हों। पर मुनिसुव्रत काव्यादि प्रशस्ति पद्यों के अनुसार वे अहंदास हो गए हो। कवि अहंदास यह सुनिश्चित है कि कवि माशाधर के शिष्य नहीं थे। व उनके समकालीन थे उनकी जिन वचन रूप सूक्तियों से प्रभावित थे । एसा मुनि सुव्रत काव्य, पुरुदेव चम्पू मार भब्यजन कण्ठाभरण के अन्तिम प्रशस्ति पद्या से स्पष्ट प्रतीत होता है। बहुत संभव है कि कवि रागभाव के कारण श्रष्ठभाग स च्युत हो गए थे। पार बहत काल भटकने के पश्चात् काललब्धि बश वे भ्रष्टमार्ग से पुन: सन्मार्ग में लोट पाये थे। यह बात यथार्थ जान पड़ती है। जैसा कि मुनि सुखतकाव्य की प्रशस्ति से प्रकट है :-- "बायकापप संभृते भवबने सान्माग मेकं परम् । त्यवस्वा थान्ततरश्चिराय कथमय्यासाद्य कालावमुम्। सद्धर्मामृतमुखतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात पायं पाय मितः श्रमः सुखपयं दासो भवाम्यहतः ।।६४॥ अर्थात-कुमार्ग से भरे हुए संसार रूपी वन में जो एक श्रेष्ठ मार्ग था, उसे छोड़कर में बहुत काल तक भटकता रहा । अन्त में बहुत थककर किसी तरह काललब्धि वश उसे फिर पाया । सो अब जिन वचनरूप क्षीरसागर से उद्धत किये हुए धर्माभूत को सन्तोषपूर्वक पी-पीकर और विगत श्रम होकर मैं अहं भगवान का दास होता है।' मिथ्यात्व रूप कर्म पटल से बहुत काल तक ढंकी हुई मेरी दोनों प्रांख जो कुमार्ग में हो जाती थी, आशाघर की उक्तियों के विशिष्ट अंजन से स्वच्छ हो गई और इसलिए अब मैं सत्पथ का प्राश्रयलेता हूं। जैसा कि निम्न पञ्च से प्रकट है: मिथ्यात्व कर्मपदलहिचरमायते में युग्म वृशे कुपथयाननिदानभूते । प्राशाघरोक्ति लसदंजन संप्रयोगरन्छीकृते प्टथुल सत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६॥ पुरुदेव चम्पू के अन्त में कवि ने मिथ्यात्व कर्म रूप पंक से गंदले अपने मानस को आशाधर को सूक्तियों की निर्मली से स्वच्छ होने का भाव प्रकट किया है। भव्य कण्ठाभरण पंजिका में पाशाधर की सूक्तियों की बड़ी प्रशंसा की गई है। इससे लगता है कि मदन १. मिथ्यात्व पंककलुषे मम मानसे ऽस्मिन्नाशाधरोक्ति कत्कप्रसरं प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेव भक्तया तच्चम्प दंभजलजेन समुज्जजम्भे ॥१ २. सूक्त्यैव तेषां भवभीरखो ये गृहाश्रमस्था चरितात्मधर्माः । त एवं शेषा अमिणां सहाय धन्याः स्युराशापरसूरिमुख्याः ॥२३६ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ vk कीर्ति अन्त में प्रशाधर की सूक्तियों के प्रभाव से श्रहंदास बन गये हों, तो कोई श्राश्चर्य नहीं है, क्योंकि आँखें और मन दोनों हो राग भाव में कारण है । तो जब हृदय मन और नेत्र सभी स्वच्छ हो गये - रागरूपी अंजन ज्ञानार्जन से घुल गया और आत्मा अर्हन्त का दास बन गया। यह सब कथन कुपथ से सन्मार्ग में आने की घटना का संद्योतक है । प्रेमी जी ने जैन साहित्य और इतिहास के पृ० ३५० में लिखा है कि इन पद्यों में स्पष्ट ही उनकी सूक्तियाँ उनके सद्ग्रन्थों का ही संकेत है जिनके द्वारा ग्रहंदास को सन्मार्ग की प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिष्यत्व का नहीं । हो, जतिबन्ध की पूर्वोक्त कथा को पढ़ने के बाद हमारा यह कल्पना करने को जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकीति ही तो कुमार्ग में ठोकरे खाते-खाते अन्त में श्राशाधर की सूक्तियों से अद्दास न बन गये हों । पूर्वोक्त ग्रन्थों में जो भाव व्यक्त किये गए हैं, उनसे तो इस कल्पना को बहुत पुष्टि मिलती है।" इनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है । भावसेन श्रविद्य भावसेन नाम के तीन विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनमें एक भावसेन काष्ठासंघ लाडवागड गच्छ के विद्वान गोपसेन के शिष्य और जयसेन के गुरु थे। जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' नामक संस्कृत ग्रन्थ विक्रम संवत् १०५५ (सन् ६६८) में समाप्त किया था । अतः ये भावसेन विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं । दूसरे भावसेन भी काष्ठासंघ माथुरगच्छ के आवार्य थे। यह धर्मसेन के शिष्य और सहस्रकीति के गुरु थे। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है। इन दोनों भावसेनों से प्रस्तुत भावसेन त्रैविद्य भिन्न हैं। यह दक्षिण भारत के विद्वान थे । यह मूलसंघ सेन गण के विद्वान आचार्य थे। और विद्य की उपाधि से अलंकृत थे । यह उपाधि उन विद्वानों को दी जाती थी, जो शब्दागम, तर्कागम और परमागम में निपुण होते थे। सेनगण की पट्टावली में इनका उल्लेख निम्न प्रकार है:- परम शब्द ब्रह्ः स्वरूप त्रिविद्याधिप परवादि पर्वतवनदण्ड श्री भावसेन भट्टारकाणाम् (जैन सि० भा० वर्ष १ पृ० ३८) भावसेन विद्य देव अपने समय के प्रभावशाली विद्वान ज्ञात होते हैं । इन्होंने अपनी रचनाओं में स्वयं विद्य और वादि पर्वत वज्रिणा उपाधियों का उल्लेख किया है, जिससे यह व्याकरण के साथ दर्शनशास्त्र के विशिष्ट विद्वान जान पड़ते हैं । इसीलिए वे वादिरूपी पर्वतों के लिये बज्र के समान थे। इनकी रचनाएं भी व्याकरण और दर्शनशास्त्र पर उपलब्ध है। विश्वतत्व प्रकाश को प्रशस्ति के पूर्व पद्य में अपने को षट्तर्क, शब्दशास्त्र, प्रशेष राद्धांत, वैद्यक, कवित्व संगीत और नाटक आदि का भी विद्वान सूचित किया है । यथा -- बट्तकं शब्दशास्त्रं स्वदरमतगत शेष राद्धान्तयक्षः वधं वाक्य विलेख्यं विषमसमविभेद प्रयुक्त कवित्वम् । संगीत सर्वकाव्यं सरकविकृतं नाटके वारस सम्यग् विद्यत्वं प्रवृत्तिस्तव कथमवतो भावसेनव्रतीन्द्रम् ॥५ भावसेन श्रविद्य ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध में विश्वतत्व प्रकाश के अन्त में लिखा है कि- 'दुर्बलों के १. वाणेन्द्रिय व्योम सोममिते संवत्सरे शुभे । १०५५ । ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सबली कर हाट के ॥ -धर्म रत्नाकर प्रशस्ति २. श्रवण बेलगोल के सन् १९१५ के शिलालेखों में मेषचन्द्र अवि को सिद्धान्त में वीरसेन षट्तक में अकलंक देव, और व्याकरण में पूज्यपाद के समान बतलाया है। और नरेन्द्र कीर्ति विद्य को भी तर्क ब्यकरण- सिद्धान्ता हवन दिन कर मेदसिद श्रीमन् नरेन्दकीर्ति त्रैविय बेवर' नाम से उल्लेख किया है। जैन लेख सं० भा० ३ ० ६२ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवा और पौदहवी शताब्दी के बवानाचार्य और कवि प्रति मेरा अनुग्रह रहता है, समानों के प्रति सौजन्य, और श्रेष्ठों के प्रति सन्मान का व्यवहार किया जाता है किन्तु जो अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत होकर स्पर्धा करते हैं। उनके गवरूपी पर्वत के लिए मेरे वचन वन के समान होते हैं।' क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके, संमानऽनुतभाषसेन मुनिपे विद्यवेधे मयि । सिद्धान्तोऽथ पयापि यः स्वधिषणा गर्योद्धतः केवलं, संस्पर्धेत तदीयगर्वकुधरे वापते गद्वचः ।। इनकी कृतियों की पुष्पिकाओं और अन्तिम पद्यों में, परवादिगिरि सुरेश्वर, बादिपर्वत वज्रभूत् वाक्यों का उल्लेख मिलता है जिनसे उनके तर्कशास्त्र में निष्णात विद्वान होने की सूचना मिलती है यथा भावसेन त्रिविचार्यो वाविपर्वतवनभत् सिद्धान्तसार शास्त्रऽस्मिन प्रमाण प्रत्ययीपदत् ॥१०२ इति परवादिगिरि सुरेयबर श्रीमद् भावसेन विद्य देव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्र प्रमाणनिरूपण नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥ कातंत्र रूपमाला के अन्त में भी उन्होंने विद्य और वादिपर्वत वज्रिणा उपाधि का उल्लेख किया है: भावसेन विद्येन वाविपर्वत वविणा । कृतायां रूपमालायां कृवम्तः पर्यपूर्यतः ।। समय भावसेन विद्य का अमरापुर गांव के निकट, जो पान्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में निम्न समाधिलेख अंकित है। "श्री मुलसंघ सेमगणा वादिगिरि यखडमप्प। भावसेन विद्यचक्रवतिय निषिधिः ॥" इस लेख की लिपि तेरहवीं सदी के अधिक अनुकूल बतलाई जाती है। यदि यह लिपि काल ठीक है तो भावसेन का समय ईसा की १३वीं शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिए। डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने लिखा है कि वेद प्रामाण्य को चर्चा में भावसेन ने 'तुरुष्क शास्त्र' को (पृ०५० और १८ में) बहुजन सम्मत कहा है। दक्षिण भारत में मुस्लिम सत्ता का विस्तार अलाउद्दीन खिलजी के समय हुआ है। अलाउद्दीन ने सन् १२९६ (वि० १३५३) से १३१५ (वि० सं० १३७२) तक १६ वर्ष राज्य किया है । इससे भी भावसेन ईसा की १३वों के उपान्त्य में और विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान थे। ऐसा जान पड़ता है। रचनाएं डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने 'विश्वतत्त्व प्रकाश' की प्रस्तावना में भावसेन को दश रचनाएं बतलाई हैं-विश्वतत्त्व प्रकाश, प्रमाप्रमेय, कथा विचार, शाकटायन व्याकरण टीका, कातन्त्ररूपमाला, न्याय सूर्यावली, भुक्ति मुक्तिविचार, सिद्धान्तसार, न्यायदीपिका और सप्त पदार्थी टीका । ये रचनाएं सामने नहीं हैं। इसलिए इन सब के सम्बन्ध में लिखना शक्य नहीं हैं। यहां उनकी तीन रचनामों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। विश्वतत्व प्रकाश-मालूम होता है यह गद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थविषयक मंगल पद्य के 'झातारं विश्व तत्त्वानां' वाक्य पर विस्तृत विचार किया है, इसीसे पुष्पिका में 'मोक्षशास्त्र विश्वतत्त्व प्रकाशे रूप में उल्लेख किया है, और यह ग्रन्थ उसका प्रथम परिच्छेद है । इससे स्पष्ट जाना जाता है कि लेखक ने तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण पर विशाल ग्रन्थ लिखने का प्रयास किया था। इसके अन्य पच्छेिद लिखे गये या नहीं कुछ मालूम नहीं होता। प्रमा प्रमेय-यह ग्रन्थ भी दार्शनिक चर्चा से ओत-प्रोत है। इसके मंगल पद्य में तो 'प्रमा प्रमेयं प्रकट Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्रवक्ष्ये' वाक्य द्वारा प्रमाप्रमेय ग्रन्थ को बनाने की प्रतिज्ञा की गई हैं। किन्तु अन्तिम पुष्पिका वाक्य में इसे सिद्धांतसार मोक्ष शास्त्र का पहला प्रकरण बतलाया है:-"इति परवादिगिरि सुरेश्वर श्रीमद भावसेन विद्यदेव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्ष शास्त्रे प्रमाण निरूपणः प्रथमः परिच्छेदः ।' ये दोनों ग्रन्यकर्ता को दार्शनिक कृति हैं। मोर दोनों ही ग्रन्थ डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा सम्पादित होकर 'जीवराज ग्रन्थमाला' शोलापुर से प्रकाशित हो चुके हैं। कातंत्ररूपमाला-इसमें शर्ववर्माकृत कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों के अनुसार शब्द रूपों को सिद्धि का वर्णन किया गया है । इस ग्रन्थ के प्रथम सन्दर्भ में ५७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धित का वर्णन है । मोर दूसरे सन्दर्भ में ८०६ सूत्रों द्वारा तिङ्गन्त व कृदन्त का वर्णन है। पंडित प्रवर प्राशाधर महाकवि पाशाधर विक्रम की १३वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। उनके बाद उन जैसा प्रतिभाशाली बहुश्रुत विद्वान ग्रन्थकर्ता और जैनधर्म का उद्योतक दूसरा कवि नहीं हुआ। न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोश, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र और वंद्यक प्रादि विविध विषयों पर उनका असाधारण अधिकार था। उनकी लेखनी अस्खलित, गम्भीर और विषय की स्पष्ट विवेचक है। उनकी प्रतिभा केवल जंन शास्त्रों तक ही सीमित नहीं थी, प्रत्युत अन्य भारतीय ग्रन्थों का उन्होंने केवल अध्ययन ही नहीं किया था, किन्तु 'अष्टांगहृदय' काव्यालंकार और अमरकोश जैसे ग्रन्थों पर उन्होंने टीकाए भी रची थीं। किन्तु खेद है कि वे टीकाए अब उपलब्ध नहीं हैं। मालवपति अर्जुनवर्मा के राजगुम बालसरस्वती कवि मदन ने उनके समीप काव्यशास्त्र का अध्ययन किया था । और विन्ध्य वर्मा के सन्धि विहिक मन्त्री बिल्हण कवीश ने उनकी प्रनंसा की है। उन्हें महा विद्वान यतिपति मदन कीर्तिने 'प्रज्ञापुंज' कहा है और उदयसेन मुनि ने जिनका 'नथविश्वचक्षु' 'काव्यामृतोष रसपान सुतप्त गात्र' तथा 'कलिकालिदास' जैसे विशेषण पदों से अभिनन्दन किया है। और विन्ध्यवर्मा राजा के महासान्धि विग्रहिक मन्त्री (परराष्ट्र सचिव) कवीश बिल्हण ने जिन की एकश्लोक द्वारा 'सरस्वती पुत्र' प्रादि के रूप में प्रशंसा की है। यह सब सम्मान उनकी उदारता पर विशाल विद्वत्ता के कारण प्राप्त हुआ है। उस समय उनके पास अनेक मुनियों विद्वानों, भट्टारकों ने अध्ययन किया है। वादीन्द्र विशालकोति को उन्होंने न्यायशास्त्र का अध्ययन कराया था, पौर भट्रारक विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। और अनेक व्यक्तियों को विद्याध्ययन कराकर उनके ज्ञान का विकास किया था। उनकी कृतियों का ध्यान से समीक्षण करने पर उनके विशाल पाण्डित्य का सहज ही पता चल जाता है। उनकी अनगार धर्मामृत की टीका इस बात की प्रतीक है। उससे ज्ञात होता है कि पण्डित प्राशाधर जी में उपलब्ध जैन जनेतर साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। वे अपने समय के उद्भट विद्वान थे, और उनका व्यक्तित्व महान था। और राज्य मान विद्वान थे। जन्मभूमि और वंश परिचय पं. पाशाधर और उनका परिवार मूलतः मांडलगढ़ (मेवाड़) के निवासी था । पाशाधर का जन्म वहीं हुआ था । अत: आशाधर की जन्मभूमि मांडलगढ़ थी। वहां वे अपने जीवन के दश-पन्द्रह वर्ष ही बिता पाये थे कि सन् १२६२ (वि० सं० १२४६) में शहाबुद्दीन गोरी ने पृथ्वी राज को कैदकर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया, और अजमेर पर अधिकार किया। तब गोरी के प्राक्रमण से संत्रस्त हो और चारित्र की रक्षा के लिए वे सपरिकर बहुत लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी धारा में पावसे थे। उस समय धारा नगरी मालवराज्य १. आशाधर त्वं मयि थिद्धि सिद्ध निसर्गसौन्दर्यमजयमायं । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थ पर दाच्मयं प्रपञ्चः ॥६ २. म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षतित्रासाद्विन्ध्यनरेन्ददोः परिमलस्फूर्जस्त्रिवर्मोजसि । प्राप्तो मालव मण्उले बहुपरीवारः पुरीमावसन्, यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्र महावीरतः ।।५ -बनगारधर्मामृतप्रशस्ति Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि की राजधानी थी, और विद्या का केन्द्र बनी हुई थी । श्रर मालवराज्य का शासक परमार वंशी नरेश विन्ध्यवर्मा था । महाकवि मदन की पारिजात मंजरो के अनुसार उस विशाल नगरी में चौरासी चौराहे थे । वहां अनेक देशों और दिशाओं से आने वाले विद्वानों और कला कोविदों की भीड़ लगी रहती थी । यद्यपि वहां अपनेक विद्यापीठ थे, किंतु उन सब में ख्यातिप्राप्त शारदा सदन नामक विशाल विद्यापीठ था। वहाँ अनेक प्रतिष्ठित धावकों जैनविद्वानों और श्रमणों का निवास था, जो ध्यान, अध्ययन और अध्यापन में संलग्न रहते थे। इन सब से धारा नगरी उस समय सम्पन्न और समृद्धि को प्राप्त थी । आशाघर ने धारा में निवास करते हुए पण्डित श्रीधर के शिष्य पण्डित महावीर से न्याय और व्याकरण शास्त्र का अध्ययन किया था । इनकी जाति वर्धरवाल थी। पिता का नाम 'सल्लखण' श्रोर माता का नाम 'श्री रत्नी' था। पत्नी का छाड़ था, जिसने अर्जुनभूपति को अनुरंजित किया था । इसके सिवाय इनके. मिलता । पं० श्राशाधर अर्जुनवर्मा के राज्य काल में ही जैन धर्म का उद्योत (नालछा ) में चले गये थे । जीवनकाल में धारा के राज्य सिंहासन पर पांच राजानों को बैठे हुए देखा था । किन्तु उनकी उपलब्ध रचनाए' देवपाल और उनके पुत्र जैतुगिदेव के राज्य काल में रची गई थीं। इसीसे उनकी प्रशस्तियों में उक्त दोनों राजाओंों का उल्लेख मिलता है। नालछा में उस समय अनेक धर्मनिष्ठ श्रावकों का आवास था। वहां का नेमिनाथ का मन्दिर प्राशाधर के अध्ययन और ग्रन्थ रचना का स्थल था। वह उनका एक प्रकार का विद्यापीठ था, जहां तीस-तीस वर्ष रह कर उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे, उनकी टीकाएं लिखी गई, और अध्यापन कार्य भी सम्पन्न किया। जैनधर्म और जैन साहित्य के अभ्युदय के लिए किया गया एण्डितप्रवर धावावर का यह महत्वपूर्ण कार्य उनकी कीर्ति को अमर रक्त्रेगा 1 नाम सरस्वती और पुत्र का नाम परिवार का और कोई उल्लेख नहीं करने के लिए धारा से नलकच्छपुर यद्यपि पं० प्रशाधर ने अपने संवत् १२२ में माशाधर जी नालछा से सलखणपुर गये थे। उस समय वहां अनेक धार्मिक श्रावक रहते थे । मल्ह का पुत्र नागदेव भी वहां का निवासी था, जो मालव राज्य के चुंगी आदि विभाग में कार्य करता था । और यथाशक्ति धर्म का साधन भी करता था। प्राशाधर उस समय गृहस्थाचार्य थे । नागदेव की प्रेरणा से ४०८ १. "चतुरनीति चतुष्पथ सुरसदन प्रधाने "सकलदिगन्तरोपगताने कर्जविथ सहृदयकला- कोविद रसिक मुकवि संकुले। २. "योजन प्रमिति वाक्शास्त्रे महावीरतः ॥" ३. यः पुत्रं छाई गुण्यं रंजितार्जन भूपतिम्' । ४. 'श्रीमदनपाल राज्ये श्रावक संकुले । जनार्थ यो नलकपुरे वसत् ॥ नलकर को नालछा कहते हैं। यह स्थान धारा नगरी से १० कोसको दूरी स्थित है। यहां भय भी जैन मन्दिर और कुछ श्रावकों के घर हैं । ५. साधीमंडितवागवंश सुमणेः सज्जैन चूडामणैः । माल्हाख्यास्य सुतः प्रसीत महिमा श्री नागदेवोऽभवत् ।। १ यः शुल्कादिपदेषु मालवपतेः नात्राति युक्तं शिवं । श्री सल्लक्षणया स्वमाश्रितवसः का प्रापयतः श्रियं ॥२ 1 श्री केशव सेनायंवयं वाक्यादुपेयुषा । पाक्षिक धावकीभावं तेनमालव मंडले ॥ ३ सल्लक्षणपुरै तिष्ठन् गृहस्थाचार्य कुंजरः । पण्डिताशाधरो भक्त्या विज्ञप्तः सम्यगेकदा || प्रायेण राजकार्येऽवरुद्ध धर्माश्रितस्य मे भाइकिंचिदनुष्ठेयं व्रतमादिश्यतामिति ॥४ ततस्तेन समीक्षो वै परमागमविस्तरं । उपविष्ट सतामिष्टतस्यायां विषिसत्तमः ॥ तेनान्यश्च यथा शक्ति भी तैरनुष्ठितः । ग्रंथो चुधाशापरेण सद्धर्मार्थं मयो कृतः ॥ ७ विक्रमार्क व्यशीत्य द्वादशाब्दशतात्यये । दशम्या पश्चिमे भागे) कृष्णे प्रथतां कथा ॥ पत्नी श्री नामदेव मंद्यारण नायिका यासोद्रत्नत्रयविधि भरतीनां पुरस्मरी ॥ - रत्नत्रय विधि प्रशस्ति Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ उन्होंने उसकी पत्नी के लिए 'रत्नत्रयं-विधान' की रचना की थी। उसकी प्रशस्ति के चतुर्थ पद्य में उन्होंने अपने को 'गृहस्थाचा कुंजर' बतलाया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: सल्लक्षणपुरे तिष्ठन् गृहस्थाचार्यकुंजरः । पण्डिताशाधरो भक्त्या विज्ञप्तः सम्यगेकदा ||४|| मालवनरेश श्रर्जुनव देव का भाद्रपद सुदी १५ बुधवार सं० १२७२ का लिखा हुआ दानपत्र मिला है। उसके अन्त में लिखा है - रचितमिदं महासन्धि० राजा सलखण संमतेन राजगुरुणा मदनेन ।" इससे स्पष्ट है। कि यह दाल पर महामंत्री राजा लखण की सम्मति से राजगुरु मदन ने रचा। सम्भव है श्राशाधर के पिता सलखण अर्जुनवर्मा के महासन्धि विग्रहिक मंत्री बन गये हों । पण्डित आशाघर गृहस्थ विद्वान थे और वे अन्तिम जीवन तक सम्भवतः गृहस्थ श्रावक ही रहे हैं। हां जिन सहस्त्र नाम की रचना करते समय वे संसार के देह-भोगों से उदासीन हो गए थे, और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था, जैसा कि उसके निम्न वाक्यों से प्रगट है : प्रभो भवांगभोगेषु निर्विण्णो दुःख भीरुकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरव्यं करुणार्णवम् ॥ १ ar मोहग्रहावेश थिहिया त्किञ्चि दुन्मुखः सहस्त्र नाम की रचना सं० १२८५ के बाद नहीं हुई वह सं० १२९६ से पूर्व हो चुकी थी, क्योंकि जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्ति में उसका उल्लेख है । अतः वे १२६६ से कुछ पूर्व वे उदासीन श्रावक हो गये थे । रचनाएं प्रापकी २० रचनाओं का उल्लेख मिलता है। उनमें से सम्भवतः सात रचनाएं प्राप्त नहीं हुईं। जिनकी खोज करने की आवश्यकता है। शेष १३ रचनाओं में से ५ रचनाओं में रचना काल पाया जाता है । भाठ रचनाओं में रचनाकाल नहीं दिया । १ प्रमेयरत्नाकर - इसे ग्रन्थकार ने स्याद्वाद विद्याका निर्मल प्रसाद बतलाया है यह गद्य-पद्यमय ग्रन्थ होगा, जो श्रप्राप्य है । २ भरतेश्वराभ्युदय - (सिद्धयंक) इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम वृत्त में 'सिद्धि' शब्द पाया है, स्वोपज्ञ टीका सहित है और उसमें ऋषभदेव के पुत्र भरत के अभ्युदय का वर्णन है। यह काव्य ग्रन्थ भी अप्राप्य है । ३ ज्ञानदीपिका- यह सागार अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ पंजिका है, जो अब अप्राप्य हो गई है । भट्टारक यशःकीर्ति के केशरिया जी के सरस्वती भवन की सूची में 'धर्मामृतपंजिका' आशाधर की उपलब्ध है, जो सं० १५४१ की लिखी हुई है। सम्भव है यह वही हो, अन्वेषण करना चाहिए। ४ राजीमती विप्रलंभ - यह एक खण्ड काव्य है, स्वोपज्ञ टीका सहित है। इसमें राजीमती और नेमिनाथ के वियोग का कथन है, यह भी अप्राप्य है । ५ श्रध्यात्म रहस्य- यह ७२ श्लोकात्मकग्रन्थ है, जिसे कविने अपने पिताकी भाशा से बनाया था। इसकी प्रति अजमेर के शास्त्रभंडार से मुख्तार सा० को प्राप्त हुई थी, जिसे उन्होंने हिन्दी टीकाके साथ वोरसेवामन्दिर से प्रकाशित किया है । यह अध्यात्म विषयका ग्रन्थ है। इसमें श्रात्मा-परमात्मा और दोनों के सम्बन्ध की यथार्थ वस्तुस्थिति का रहस्य या मर्म उद्घाटित किया गया है । माचार्य कुन्दकुन्द ने श्रात्मा के बहिरात्मा, प्रन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद किये हैं पं० श्राशावर जी ने स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म ये तीन भेद किये हैं और उनके स्वरूप तथा प्राप्ति आदि का कथन किया है। ग्रन्थ मनन करने योग्य है । ६ मूलाराधना टीका - यह शिवार्य के प्राकृत भगवती आराधना की टीका है। जो अपराजित सूरि की टीका के साथ प्रकाशित हो चुकी है। ७ इष्टोपदेश टीका -- यह आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद) के प्रसिद्ध ग्रन्थ की टीका है, जो सागरचन्द्र के शिष्य Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि ४११ मुनिन्द्र के प्रनुरोध से बनाई थी । और वह हिन्दो ढोका के साथ वोर सेवामन्दिर से प्रकाशित हो चुकी है। ८ भूपाल चतुविशति टीका - यह भूपाल कवि के चतुविशति स्तोत्र की टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के लिये बनाई गई थी, और बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है । E आराधनासार टीका - यह देवसेन के प्राकृत प्राराधवासार को ७ पत्रात्मक और सं० १५५१ को लिखी हुई संक्षिप्त टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के उपरोधसे रची गई है और आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है. उसका आदि-अन्त भाग इस प्रकार है : प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुट: । श्राराधनासारगूढ पदार्थां कथयाम्यहं ॥ १ विमलेत्यादि' विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन बिमला विकलतरा शुद्धतराः गुणा परमावगाढ सम्यग्दर्शनादयः । सिद्धं जीवन्मुक्तं जगत्प्रतीतं वा । सुरसेन वंदियं सहस्वामिभसेनाः स स्वामिकाः निज निज स्वामियुक्त चतुणिकाय वेवस्तथा देवसेन नाम्ना ग्रन्थकृता नमस्कृतमित्यर्थः । श्राराहणासारं सम्यग्दर्शनादी मुद्योतनाद्युपाय पंचकाराधना तस्याः स सम्यग्दर्शनादि चतुष्टयं तया तस्यै वा राधना लयोपादेय वत्तात् ॥११॥ विनयचन्द्रमुनेर्हता राशाधरकवीश्वरः । स्फुटमाराधनासारं टिप्पनं कृतवानिदम् ॥ उपलब्ध है। उपशम इव सूर्त सागरेन्द्रान्मुनीन्द्राऽदजनि दिनयचन्द्रः सस्कोकचन्द्रः । जगदमृत सगर्भाः शास्त्रसंदर्भगर्भाः शुचि चरितवरिष्णो र्यस्य धिग्वतिवाचः ।। एवमाराधनासार गूढार्थ (पद) विवृतिः । शिष्ये तं श्रेयोथिनो बोधयितुं कृतामता ॥1 श्री विनयचन्द्रार्थमित्याशाधर विरचिताराधनासार विवृत्तिः समाप्ता । शुभम् स्वस्ति श्रादिजिन प्रणम्य, सं० १५८१ छ । १० श्रमरकोश टीका- यह अमरसिंह के प्रसिद्ध कोष की टीका है जो अप्राप्य है । ११ क्रियाकलाप - इसकी ५२ पत्रात्मक प्रति ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई में १२ काव्यालंकार टीका- यह रुद्रट के काव्यालंकार की टीका है । १३ सहस्र नाम स्वोपज्ञविवृति सहित - यह ग्रन्थ अपनी स्वोपज्ञ विवृति और श्रुतसागर सूरि की टीका तथा हिन्दी टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। इस टीका की प्रति मुनि विनयचन्द्र ने लिखी थी । १४ जिनयशकल्प सटीक - यह मूल ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। परन्तु इसको स्वोपज्ञ टोका अभी प्राप्त है । ग्रन्थ में प्रतिष्ठासम्बन्धि क्रियाओं का विस्तृत वर्णन है। महाकवि आशाधर ने यह ग्रन्थ वि० सं० १२८५ . में परमरवंशी राजा देवपाल के राज्य में तल कच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में पापा साधु के अनुरोध से बनाकर समाप्त किया था। जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यसे प्रकट है। १. पूरी गाथा इस प्रकार है विमलयर गुसमिद्ध सिद्ध' सुरसेा वंदियं सिरसा । रामिण महावीरं वोच्छं आराहणासारं ॥ १ ॥ २. खांडिल्यान्वय भूषणास सुतः सागारधर्मरतो, वास्तव्य नलकच्छ चारुनगरे कर्त्ता परोपक्रियाम् । सर्वज्ञाचं नपा प्रदानसमयोद्योत प्रतिष्ठानरणी, पापा साधुरकायत्पुनरिमं कृत्वोपरोषं मुहुः ॥ - जिन यज्ञकल्प प्र० Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-मान ३ विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वावशशतेष्वतीतेषु । आश्विनसितान्त्य बिवसे साहसमल्ला परात्यस्य । श्रीदेवपाल नपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये, नल कच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥२०॥ १५ त्रिषष्टि स्मतिशास्त्र सटीक इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का चरित जिनसेनाचार्य के महापुराण के प्राधार से अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है । इसे पंडित जी ने नित्य स्वाध्याय के लिये, जाजाक पण्डित की प्रेरणा से रचा था। इसकी पाद्यप्रति खण्डेलवाल कुलोत्पन्न धीनाक नामक श्रावक ने लिखी थी। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२६२ में समाप्त की है, जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति के निम्न पद्या से प्रकट है : प्रमारवंशवार्थीन्दुदेवपालनपात्मजे । श्रीमज्जैतुगिदेवेऽसि स्थाम्नावन्तीभवत्यलम् ॥१२ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधात् । ग्रन्थोऽयं द्विनववयेक विक्रमार्कसमाप्तये ॥१३ नित्यमहोद्योत---यह जिनाभिषेक (स्नान शास्त्र) श्रुतसागर सूरिका टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। १६ रत्नत्रय विधान-यह ग्रन्थ बहुत छोटा-सा है और गद्य में लिखा गया है, कुछ पद्य भी दिये हैं। इसे कवि ने सलखण पुर के निवासी नागदेव को प्रेरणा से, जो परमारवंशी राजा देव पाल (साहसमल्ल) के राज्य में शाक विभाग में (चुगी प्रादि टैक्स के कार्य में) नियुक्त था, उसकी पत्नी के लिये सं० १२८२ में बनाया था । जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यसे प्रकट है :-- विक्रमार्फ ध्यशीत्यप्रवाशाश्वशतात्यये। दशम्यां पश्चिमे (भागे कृष्णे प्रथतां कथा॥ पत्नी श्रीनागवेवस्य नंदयाद्धर्मेण यायिका। तासीद्रत्नत्रर्यावपिचरतीनां पुरस्म १७-१८ सागरधर्मामृत की भव्यकुमुवचन्द्रिका टीका सागारधर्म का वर्णन करने वाला प्रस्तुत ग्रन्थ पंडित जी ने पौरपाटान्वयी महीचन्द साधु की प्रेरणा से रचा था और उसीने इसकी प्रथम पुस्तक लिखकर तैयार की। इसकी टीका की रचना वि० सं० १२६६ में पोषबदी ७ शुक्रवार को हुई है । इसका परिमाण ४५०० श्लोक प्रमाण है। १९-२० प्रनगार धर्मामृत की भव्य कुमुद चन्द्रिका टीका-- कवि ने इस ग्रन्थ की रचना १५४ श्लोकों में की है। धणचन्द्र और हरिदेव की प्रेरणा से इसकी टीका की रचना बारह हजार दो सौ श्लोकों में पूर्ण की है, और उसे वि० सं०१३०० में कार्तिक सुदी ५ सोमवार के दिन समाप्त की थी। टीका पंडित जी के विशाल पांडित्य की द्योतक है। इसके अध्ययन से उनके विशाल प्रध्ययन का पता चलता है। माणिकचन्द ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन सन १६१६ में हमा था । मुलग्रन्थ और संस्कृत टीका दोनों ही अप्राप्य हैं। भारतीय ज्ञानपीठ को इस ग्रन्थको संस्कृत हिन्दी टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिये । अन्य प्रमेय बहुल है। नरेन्द्रकीति त्रैविद्य--- मुलसंघ कोण्डकन्दान्वय देशीयगण पूस्तक गच्छ के प्राचार्य सागर नन्दि सिद्धान्त देव के प्रशिष्य और मुनि पडव अहनन्दि के शिष्य थे। जो तर्क,ध्याकरण और सिद्धान्त शास्त्र में निपुण होने के कारण विद्य कहलाते थे। इनके सघर्मा ३६ गुणमण्डित और पंचाचार निरत मुनिचन्द्र भट्टारक थे। इनका शिष्य देव या देवराज था। यह देवराज कौशिक मुनि की परम्परा में हुमा है। कडुचरिते के देवराज ने सूरनहल्लि में एक जिन मन्दिर बनवाया था। उसको होयसल देवराजने सूरनहल्लि' ग्रामदान में दिया था। अत: उसने सुरनहल्लि ४० होन में से १० होन इसके लिये निकाल दिये, और उसका नाम 'पार्श्वपुर' रख दिया। देवरान ने मुनिचन्द्र के पाद प्रक्षालन पूर्वक भूमिदान दिया २. संक्षिप्यता पुराणानि नित्य स्वाध्याय सिद्धये । इति पंडित जाजाकाद्विप्तिा रिकार में 1-त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेगी दौर पौवादी दीपालभानार्य और कति ४१३ लुईस राइस के अनुसार इस लेख का समय ११५४ ई० है। यही समय सन् ११५४ (वि० सं० १२११ नरेन्द्र कीति विद्य और उनके सधर्मा मुनिचन्द का है। वासबसेन मुनि वासबसेन ने अपना कोई परिचय नहीं दिया । और न ग्रन्थ में रचना काल ही दिया। इनको एक मात्र कृति यशोधर चरित है। उसमें इतना मात्र उल्लेख किया है कि बागडान्वय में जन्म लेने वाले बासवसेन की यह कृति है-'कृति वासबसेनस्य वागडान्षय जन्मतः ।' ग्रंथ ८ सर्गात्मक एक खण्ड काव्य है । जिस में राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन अंकित किया गया है । यशोधर का कथानक दयापूर्ण पोर सरस. रहा है । इसी से यशोधर के संबंध में दिगम्बर-श्वेताम्बर विद्वानों और प्राचार्यों ने प्राकृत संस्कृत भाषामें अनेक ग्रंथ लिखे हैं। वास्तव में ये काव्य दयाधर्म के विस्तारक हैं। इनमें सबसे पुराना काव्य प्रभंजन का यशोधर चरित है। इस चरित का उल्लेख कुवलयमाला के कर्ता उद्योतनसूरि (वि० सं०८३५ के लगभग) ने किया है । कविबासबसेन ने लिखा है कि पहले प्रभंजन और हरिषेण आदि कबियों ने जो कछ कहा है वह मुझ बालक से कसे कहा जा सकता है। प्रेमी जी ने लिखा है कि विक्रम सं० १३६५ में गंधर्व ने पुष्पदन्त के यशोधरचारकोल का प्रसंग, विवाह मोर भवांतर कथन चरित में शामिल किया है उसका उन्होंने यथायस्थान उल्लेख भी करना है। कवि गंधर्व ने पहली संधि के २७ वें कडवक की ७९वीं पक्ति में लिखा है कि-'जं वासबसेणि पुबरइज, तं पेक्खवि गंधवण कहिउ' । इससे स्पष्ट है कि वासवसेन का यशोधर चरित पहले रचा गया था, उसे देखकर ही गंधर्व कवि ने लिखा है। इस उल्लेख से इतना स्पष्ट हो जाता है कि वासबसेन वि० सं० १३६५ से पूर्व वर्ती विद्वान है, उससे बाद के नहीं। संभवत: वे विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हो। यादीन्द्र विशालकीति बड़े भारी वादी थे । इन्हें पण्डित पाशाधर जी ने न्यायशास्त्र पढ़ाया था। वे तर्कशास्त्र में निपुण थे, और घारा या उज्जैन के निवासी थे। यह धारा या उज्जैन की गद्दी के भट्टारक थे इनके शिष्य मदनकोति थे। अपने गरु के मना करने पर भी मदनकीति दक्षिण देश की मोर कर्नाटक चले गए थे। वहां पर विद्वप्रिय विजयपुर नरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। फिर वे वहां से वापिस नहीं लौटे । विशालकोति ने उन्हें अनेक पत्रों द्वारा प्रबुद्ध किया किन्तु वे टस से मस नहीं हुए। तब विशालकोति जी स्वयं दक्षिण की ओर गए। वे कोल्हापुर गये हों, पोर सम्भवतः उन्होंने मदनकीर्ति को साक्षात्प्रेरणा की हो, और उससे सम्प्रबुद्ध हुए हों । सोमदेव मुनि कृत शब्दार्णवचन्द्रिका की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कोल्हापुर प्रान्तान्तर्गत प्रजुरिका नाम के गांव में शक सं०११२७ (वि० सं० १२६२) में श्री नेमिनाथ भगवान के चरण कमलों को प्राराधना के बल से और वादीभवजांकुश १. सत्तूण जो जसहरो जसहर चरिएण जगवए पयो। कलिमलपमंजणोच्चिय पर्मजणो आसि रायरिसी ।।कुवलयमाला २. प्रमंजनादिभिपूर्व हरिषेणसमन्वितः । यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेत भाषितुम् ।। यशोषरचरित ३. स्वस्ति श्रीकोल्लापुर देशान्तर्वार्जुरिकामहास्थानयुधिष्ठिरावतार महामण्डलेश्वर गंडादित्यदेव निर्मापित त्रिभुवनतिलक जिनालये श्रीमतरमपरमेष्ठि श्री नेमिनाथ श्रीपादपपारापनबलेन वादीमवज्रांकुश श्रीविशालकोति पंण्डित देव वयावृत्यतः श्री मच्छिलाहारकुलकमलमातंग्यतेज; पुजराजाधिराजपरमेश्वरसरममट्टारक पश्चिमचावति योवीर. भोजदेव विजयराज्ये सकवर्षकसहन कशतसप्तविंशति ११२७ तम कोषन सम्बत्सरे स्वस्तिसमस्तानवद्य विद्यारवति श्री पूज्यपादानुरक्तचेतसा श्रीमत्सोमदेवमुनीश्वरेण विररितेयं पादावन्द्रिका नाम वृत्तिरिति । -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० मा १ पृ. १६६ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ विशालकीति पण्डितदेव को वैयावत्य से शब्दार्णवद्रका को रचना को थी। उस समय वहां शिलाहारबंशीय वीर भोजदेव का राज्य था। राजशेखर सूरि के 'चतुर्विशति-प्रबन्ध' में वणित विजयपुर नरेश कुतिभोज और सोमदेव द्वारा वणित वीर भोजदेव दोनों एक ही हैं। अत: वादीन्द्र विशालकीर्ति का समय सं० १२६० से १३०० के मध्य तक जानना चाहिए। दायरेख सेशक कोल्हापूर पास-पास जाना निश्चित है मुनि पूर्णभद्र यह मुनि मुणभद्र के शिष्य थे । इन्होंने अपनी कृति 'सुकमालचरिउ को अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख किया है किन्तु संघराण-गच्छादिक का कोई उल्लेख नहीं किया। गुजरात देश के सुप्रसिद्ध नागर मंडल के निवासी वीरसूरि के विनयशील शिष्य मुनिभद्र थे। उनके शिष्य कुसुमभद्र हुए, और कुसुमभद्र के शिष्य गुणभद्र मूनि थे, मीर गुणभद्र के शिष्य पूर्णभद्र थे। ग्रन्ध में कवि ने रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया। ऐसी स्थिति में समय का निश्चित करना कठिन है । आमेर शास्त्र भंडार की यह प्रति सं०१६३२ की प्रतिलिपि को हुई है। इससे मात्र इतना फलित होता है कि सुकमाल चरित की रचना सं० १६३२ से पूर्व हुई है। 'णेमिणाह चरिउ' के कर्ता कवि दामोदर ने अपने गुरु का नाम महामुनि कमलभद्र लिखा है। जो गुणभद्र के प्रशिष्य थे। और सूरसेन मुनि के शिष्य थे। यदि दामोदर कवि द्वारा उल्लिखित गुणभद्र और मुनि पूर्णभद्र के गुरु गणभद्र की एकता सिद्ध हो जाय तो इन पूर्णभद्र का समय विक्रम को १३ वीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है। क्योंकि दामोदर ने नेमिनाथ चरित की रचना का समय सं०१२८७ दिया है, दामोदर गुजरात से सलपुर माये थे। और मूनिपूर्णभद्र भी गजरात देश के निवासी थे। प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'सुकमाल चरिउ' है । जिसमें छह संधियां हैं, जिनमें अवन्ति नगरी के सुकमाल श्रेष्ठी का जीवन परिचय अंकित है जिससे मालूम होता है कि उनका शरीर अत्यन्त सुकोमल था। पर वे उपसर्ग और परीषहों के सहने में उतने ही कठोर थे। उनके उपसर्ग की पीड़ा का ध्यान आते ही शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। परन्तु उस साधु की निस्प्टहता और सहिष्णुता पर प्राश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, जब गीदड़ी और उसके बच्चों द्वारा उनके शरीर के खाए जाने पर भी उन्होंने पीड़ा का अनुभव नहीं किया, प्रत्युत सम परिणामों द्वारा नश्वर काया का परित्याग किया। ऐसे परीषहजयी साधु के चरणों में मस्तक अनायास झुक जाता है। गुणवर्म (द्वितीय) कवि का निवास कैडि नामक स्थान में था। इसके गुरु वही मुनिचन्द्र जान पड़ते हैं जो कार्तिवार्य नरेश के गुरु थे। कातिवीर्य 'अहितक्ष्मभृद्वज्र' सेनापति शान्तिवर्म कवि का पोषक था । गणाब्जवन कलहस, कवितिलक, मौर काव्यसत्कलाणव मुगलक्ष्मी आदि विशद थे। कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं, पुष्पदन्त पुराण और चन्द्र नोथाष्टक पुष्पदन्त पुराण में वें तीर्थंकर का चरित्र चित्रण किया गया है। उसमें अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण करते हए कवि ने जन्न कवि (सन् १२३० ई.) का गुणगान किया है। इससे स्पष्ट है कि कवि जन्य के बाद हुआ है। और सन् १२४५ ई० के मल्लिकार्जुन ने अपने 'सूक्तिसुधार्णव' में पुष्पदन्त पुराण के पद्य उद्धत किए हैं। इससे यह कवि मल्लिकार्जुन से पहले हुआ है। अतएव इसका समय सन् १२३५ ई० जान पड़ता है। कवि की रचना सुकर और प्रसाद गुणयुक्त है। कमलभव मूलसंध कुन्दकुन्दान्वय देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य मावनन्दि का शिष्य था । इसके दो विरुद थे, कवि कंजगर्भ,मौर सूक्तिसन्दर्भ गर्भ। कवि की एक मात्रकृति शान्तीश्वर पुराण है। इसने अपने से पूर्ववर्ती कवियों में Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि जन्न कवि का स्मरण किया है। और मल्लिकार्जुन ने सूक्तिसुधाणंब में शान्तीश्वर चरित के पद्य उद्धत किए हैं । इस कारण इसका समय भी सन् १२३५ ई. के लगभग जान पड़ता है। अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंघ, देशिय वन, पुस्तकमच्छ धुम्बकुवाव्यय कीगसेकसीप शाखा के श्रीसमुदाय में माघनन्दि भादरक हुए । उनके दो शिष्य थे, नेमिचन्द्र भद्रारक और अभयचन्द्र सैद्धान्तिक । प्रस्तुत अभयचन्द्र सैद्धान्तिक बालचन्द्र पण्डित देव के श्रुत गुरु थे' गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में अभयन्द्र ने बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख। किया है । अभयचन्द्र सूरि छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलकार और प्रमाण शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। श्रत मुनि ने अभयचन्द्र सैद्धातिक को भावसंग्रह में शब्दागम, परमागम, मोर तर्कागम, का ज्ञाता, और सव वादियों को जीतने वाला बतलाया है । इन सब उल्लेखों से अभयचन्द्र के व्यक्तित्व का प्राभास मिलता है। प्रस्तुत प्रभयचन्द्र और बालचन्द्र वही हैं जिनकी प्रशंसा वेल्लर के शिलालेखों में की गई है । इनका स्वर्गवास शक वर्ष १२०१ सं० १२७६ में हुया है। प्रतः अभयचन्द्र ईसा की १३वीं सदी के विद्वान हैं । गोम्मट सार की कनड़ी टीका के कर्ता के शववर्णी इन्हीं अभयचन्द्र सूरि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी कनड़ी टीका भ० धर्मभूषण की आज्ञानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में की है। रचनाएं प्रस्तुत प्रभयचन्द्र दर्शन शास्त्र के विद्वान थे। इन्होंने अकलंक देव के 'लघीयस्त्रय' की स्याद्वाद भषण' नामक तात्पर्य वृत्ति के प्रारम्भ में जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में अकलंक और अनन्तवीर्य का नामोल्लेख किया है। प्रस्तुत अभयचन्द्र ने प्राचार्य प्रभाचन्द्र के न्याय कुमुदचन्द्र को देखकर उक्त वृत्ति बनाई थी। जैसा कि उनके 'प्रकलंक प्रभा व्यक्तम्' दाक्य से जान पड़ता है । यह प्रभाचन्द्र के बाद के विद्वान हैं। इनकी बनाई हई गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिका टीका ३८३ गाथा तक ही उपलब्ध है। इस टीका में गोम्मटसार पंजिका टीका का उल्लेख निम्न शब्दों में है : __ "यवा सम्मर्छन गर्भोपपावानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिका कारादीनामभिप्रायः।" (गो.जी. मन्द प्र०टीका गा०८३)। इस पंजिका टीका को १ प्रति उपलब्ध है। इस पंजिका के कर्ता गिरिकीर्ति हैं। यह पंजिका गोम्मटसार की रचना से सौ वर्ष बाद बनी है। जैसा कि उसकी निम्न प्रशस्ति गाथा से स्पष्ट है : सोलहसहियसहस्से गयसककालेपवडमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कत्तियणंदीसरे एसा ।। १. जैन शिलालेख सं० भा० ३ लेख ५२४ पृ० ३७१ २. गोम्मटसार जीवकाण्ठ टीका कलकत्ता संस्करण प० १५० ३. छन्दो-न्याय-निघण्टु-शब्द-समयालङ्कार पट्खण्डवागभूचक्रं विवृतं जिनेन्द्र हिमवजात-प्रमाणद्वयो। गङ्गा-सिन्धु-युगेन-दुर्मत-खगोर्वी भृद्भिदा यत् स्वधीचकाकान्त मतोऽभयेन्दु-यतिपः सिद्धान्त चक्राधिपः ।। जैनलेख सं० भा० ३ ले० ५२४ पृ. ३७१ ४. सदागम-परमागम-तक्कागम निरवसेस वेदी ।। विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिर अभयमूरिसिद्धती ।। -मावसंग्रह प्रशस्ति ५. एपिग्राफिया कर्णटिका जिस्द ५ संख्या १३१-३३ १.जैन सेख सं० भा० ३ लेख नं० ५२४ पृ०३७१ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पंजिका का रचना काल शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) कार्तिक शुक्ला है। कर्म प्रकृति संस्कृत गद्य-यह भी इन्हीं को कृति है, जिसमें संक्षेप में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । द्रव्य कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेदों का उल्लेख करते हुए मूल ज्ञानावरणादि पाठ और उत्तर १४८ प्रकृतियों के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है। प्रोर अन्त में पांच लब्धियों तथा चौदह गुणस्थानों का कथन किया है। अन्य इनको क्या कृतियां हैं यह अन्वेषणीय है। यह ईसा को १३ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के, और विक्रम को १४ वीं शताब्दो के विद्वान हैं। गोम्मटसार की कनड़ी टोकाकार केशववर्णी इन्हीं अभयचन्द्र के शिष्य थे। केशववर्णो ने गोम्मटसार की जोवतत्त्व प्रबोधिका कनडोवृत्ति भट्टारक धर्मभूषण के प्रादेशानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में समाप्त को थो। भानुकीति सिद्धान्तदेव यह मूल संघ कुन्दकुन्दान्दय काणरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान् प्राचार्य पद्यनन्दी के प्रशिष्य और मुनि चन्द्रदेव यमी के शिष्य थे। जो न्याय व्याकरण और काव्यादि शास्त्रों में पारंगत थे। मन्त्र तंत्र में बहुत चतुर थे। बन्दणिका तीर्थ के अधिपति थे जैसा कि तेवर तेप्प के शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है : श्रीमन्मलपदादि-संघ-तिलके श्रीकुन्दकुन्दान्वये, काणूर-नाम-ाणोत्स-गरसशभगे-भतिमिश्रणी काहये। शिष्यः श्री मुनिचन्द्र देव यमिनः सिद्धान्त-पारङ्गयो , जीया बन्दणिका-पुरेश्वरतया श्री भानुकोतिम्मुनिः ।। इन भानुकीति सिद्धान्त देव को बिज्जलदेव की पुत्री अलिया ने शक वर्ष १०८१ के प्रमाथि संवत्सर की पूष शुक्ला चतुर्दशी शुक्रवार को, सन् ११५६ वि० सं० १२१३ में) होन्नेयास के साथ इस सुन्दर मन्दिर को भूमियों का दान दिया था। नागर खण्ड के सामन्त लोक गावुण्ड ने सत् ११७१ ई० (वि० सं० १२२८) में एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया, और उसकी अष्टप्रकारी पूजा के लिये उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान की थी। शक १०६६ (सन् १९७७ ई० वि० स० १२३४) में सङ्क गावुण्ड देकि सेट्टि के साथ मिलकर एलम्बलिल में एक जिनमन्दिर बनवाया और शान्तिनाथ वसदि की मरम्मत तथा मुनियों के माहार दान के लिए उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान दिया। मुनिचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य भानुकीतिद्वान्त देव को राजा एक्कल ने कनकजिनालय के साथ-साथ चालुक्य चक्री जगदेव राजा के राज्य में राजा एकतन् ११३६ (वि० सं०११६६) में भूमिदान दिया। इन सब उल्लेखों से ज्ञात होता है कि भानुकीति सिद्धान्तदेव उस समय प्रसिद्ध विद्वान थे । यह ईसा की १२वीं मोर विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान थे। मुनिचन्द्र मुनिचंद्र गुणवर्म द्वितीय के शिष्य थे। इन्होंने पपने पुष्पदन्त पुराण' में उभय कवि कमलगर्ग कहकर स्मरण किया है और महाबलि कवि (१२५४) ने नेमिनाथ पुराण में-'अखिल तर्क तंत्र मंत्र व्याकरण भरत काव्य नाटक प्रवीण' १. जैन लेख संग्रह ज०३ पृ० ११७ २. जैन लेख सं० भा०३ पृ. १५२ ३. वही भा० ३ ० १७० ४. जैन लेख सं० अ०३ पृ. ३१-३२ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ : तेरहवीं और चीदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ૪૭ लिखकर प्रशंसा की है। इनके उभय कवि विशेषण से मालूम होता है कि ये संस्कृत और कनदी दोनों भाषाओं के कवि और ग्रंथकर्ता होंगे, परन्तु अभी तक इनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है सोदत्तिके शिलालेखों से जो शक संवत् १९५१ और सन् १२२६ के लिखे हुए हैं और जो रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे ब्रांच के जर्नल में मुद्रित हो चुके है। मालूम होता है कि से रराज कार्तवीर्य के राजगुरु थे । और गृहस्थ अवस्था में उसके पुत्र लक्ष्मीदेव को इन्होंने शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों की शिक्षा दी थी। देव के समय में ये उसके सचिव या मंत्री भी रहे हैं । यह बड़े हो बीर और पराक्रमी थे। इसलिए इन्होंने शत्रुओंों को दबाकर रट्टराज की रक्षा की थी सुगन्धवर्ती १२ का शासन लक्ष्मीदेव चतुर्थ की प्रधीनता में रट्टों के राजगुरु मुनिचंद्र देव के द्वारा होता था। इस कारण उन्हें रराज प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि भी प्राप्त हुई थी। इनके समय में रट्टुराज के शांतिनाथ, नाग और मल्लिकार्जुन भी श्रामात्य रहे हैं। जो मुनिचंद्र के सहायक या परामर्शदाताओं में से थे। इसने स्पष्ट है कि मुनिचंद्र का समय शक सं० १०५१ सन् १२२६ (त्रि० सं० १२८६ ) है (जैन लेख सं० भा० ३ पृ० ३२२ से ३२६ तक ) श्रजितसेन इस नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उन सब में प्रस्तुत प्रजितसेन सेनगण के विद्वान आचार्य और तुलु देश के निवासी थे क्योंकि आर मंजरी की पुष्पिका में "श्री सेवगणयागण्य तपो लक्ष्मी विराजिताजितमेन देव यतीश्वर विरचितः शृंगार मंजरी नामालका रोयम् ।" - मेनगण का ग्रग्रणी बतलाया है। इससे श्रजितसेन सेनगण के विद्वान थे यह सुनिश्चित है । प्राचार्य अजितसेन को दो रचनाएं उपलब्ध हैं। शृंगार मंजरी और अलंकार चिन्तामणि । श्रृंगार मंजरी - यह छोटा-सा अलंकार ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद हैं, जिनमें सक्षेप में रस-रीति और अलंकारों का वर्णन है। यह ग्रथ अजितसेनाचार्य ने शीलविभूषणा राना विट्ठल देवी के पुत्र, 'राय' नाम से ख्यात सोमवंशी जैन राजा कामिराय के पढ़ने के लिये बनाया था जैसा कि उसकी प्रशस्तिर के निम्न पद्यों से प्रकट है :राशी विट्ठल देवीति ख्याता शीलविभूषणा । तत्पुत्रः कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुतः ॥४६ तद्भूमिपालपाठार्थमुदितेयमलंकिया । संक्षेपेण बुधेषा यद्धाश्रास्ति (?) विशोध्यताम् ॥४६ प्रस्तुत कामिराय सोमवंशी कदम्बों की एक शाखा वंगवंश के नाम से विख्यात है। पं० के भुजबली शास्त्र के अनुसार दक्षिण कन्नड जिले के सुदिप्रदेशान्तर्गत वंगवाडि पर इस वंश का शासन रहा है । उक्त प्रदेश के लाव के विद्वान् मुनिय थे। जो सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत ११७० ई० का है । १. एक अजितसेन द्रमिल संघ में नन्दि संध थे। हल्लिका का यह लेख संभवतः (लु० राइस) के अनु दूसरे अजितसेन आर्यसेन के शिष्य थे, बड़े विद्वान्, सौम्यमूर्ति राज्यमान्य प्रभावशाली वक्ता और बंकापुर विद्यापीठ के प्रधान आचार्य थे। गंगवंशी राजा मारसिंह के गुरु थे। मारसिंह ने बंकापुर में समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। यह चामुण्डराय के भी गुरु थे, जो मारसिंह के महामात्य और सेनापति थे । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्ती गणधर के समान गुणी और भुवन गुरु बतलाया है। इनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी का है। तीसरे अजितसेन वे हैं जिनका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। उक्त प्रशस्ति शक सं० १०५० में उत्कीर्ण की गई है। उसमें अतिसेन को तार्किक और नैया िक बतलाया है। इनकी उपाधि वादोभ सिंह थी। चौथे प्रतिसेन वे हैं । जिनका सन् १९४७ के लेख में उल्लेख है जिनका शिष्य बड़ा सर्शर पर्माद्धी था । उसका जेष्ठ पुत्र भीमप्पा मार्या लब्बा से दो पुत्र हुए। मगनीसेट्ठी, मारोसेट्ठी, मारीसेट्ठी ने दीर समुद्र में एक जिन मन्दिर बनवाया था। अजित सेन नाम के और भी विद्वान हुए हैं, जिनका फिर कभी परिचय लिखा जायगा । २. जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० वीर सेवामन्दिर भा० १, सन् १६४४ पृ० ६० Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ जैन राजवंशों में यह वंश मान्य रहा है। इस वंश के प्रसिद्ध राजा वीर नरसिंह (सन् १९५७-१२०८ ई.) के बाद चन्द्रशेखर वंग सन (१२०८-१२२४ ई०) जो वीर नरसिंह का पुत्र था । इनके छोटे भाई पाण्डेय वंग ने सन् (१२२४१२३६ ई0) तक राज्य किया। इसके प्रनंतर पाडय बंग की वहिन रानी बिगुलदेवी (१२३६.१२४४ ई.) तक राज्य का संचालन किया और उसके बाद उसका पुत्र कामिराय जो पाण्डव वंग का भाग्नेय था सन् १२४४ में सिंहासनारूढ ह्या । और उसने १२६४ ई. तक राज्य किया। इन्हीं कामिराय की प्रेरणा से विजयवों ने श्रृंगारर्णवचन्द्रिका का निर्माण किया। अलंकार चिन्तामणि-यह अलंकार का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जो प्रजितसेनाचार्य की काव्य लक्षणविषयक धारणा का समन्वयात्मक रूप है। उन्होंने लिखा है कि -'काव्य शब्दालंकार तथा प्रर्थालंकार से मुक्त, नवरसों से समन्वित, रीतियों के प्रयोग से मनोरम, व्यंग्यादि प्रथों मे सम्पन्न, दोष विरहित होना चाहिये । कवि के अनुसार काव्य पथ में दो वातों का होना प्रावश्यक है। उभयलोकोपवारी प्रौर पुण्यधर्म के प्राप्त करने का साधन । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पत्र से स्पष्ट हैं : शब्दार्थालंकृतीद्ध नवरसकलित रीतिभावाभिरामं । व्यंगारार्थ विदोष गुणगणक लित नेतृ सवर्णनाढयम । लोकोद्वन्द्वोपकारि स्फुट मिह तनुतात् काव्यमग्र यं सुखार्थो । नानाशास्त्रप्रवीण: कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोकहेतुम् ।। ५-७ इस ग्रन्थ में पांच परिच्छेद हैं। उनमें प्रथम परिच्छेद की श्लोक संख्या १०६ है, जिनमें कविशिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। दूसरे परिच्छेद में बाब्दालंकारों के निष वक्रोक्ति, अनुप्रास मोर यमकालंकार ये चार भेद बतलाये हैं। उनमे चित्रलंकार का विशेष वर्णन किया गया है, उसके ४२ भेद बतलाये हैं । इस परिच्छेद के पद्यो की संख्या १८९ है। तीसरे परिच्छेद में चित्रालंकार के अतिरिक्त शब्दालंकार के अन्य भेद, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक के उदाहरण के सहित विश्लेषण किया गया है। इस परिच्छेद की श्लोक संख्या ४१ है। चौथे परिच्छेद में अलकारों के ७०भेदों का विस्तृत वर्णन ३४५ पद्यों द्वारा किया है। साथ में बीचबीच में गद्यांश भी निहित है। इस परिच्छेद के प्रारंभ में अलंकारों को परिभाषा, गण और उनके भेदा का विस्तत कथन दिया है। पनि परिच्छेद में नौरस, चार रीति, दो पाक, द्राक्षा और शब्द का स्वरूप और भेद, लक्षगावृत्ति नया नाटकों के भेद-प्रभेद मादि काव्य शास्त्र-सम्बन्धि सभी प्रावश्यक विषयों को चर्चायों को समाविष्ट किया गया है। इसकी पद्यसंख्या ४०६ है। कवि ने अलंकारों के उदाहरणों में समन्तभद्र, जिनसेन हरिचंद्र, वाग्भट, अहहास और पोयष वाटि अनेक प्राचार्यों के ग्रंथों के पद्यों को उद्धत किया है। इन सब विद्वानों में वाग्भट ११वौं शताब्दी के है और मनिसवत काव्य के कर्ता प्रहास पं० पाशाधर जी के सामकालीन हैं । मुनि सुव्रतकाव्य की रचना सागर धर्मामत सं० १२६६ (सन १२८८) के बाद हई है। उन्हों ने उनके प्रति बहुत ही प्रादरव्यक्त किया है। इस कारण प्रजितनाचा का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का उपान्त्य है। यह सेनसंघ के प्राचार्य मुनिसेन के शिष्य थे। जो बड़े भारी कवि और नैयायिक थे। नेमिकमारपत्र कवि वाग्भट ने 'काव्यानुशासन' की वृत्ति में पुष्पदन्त के साथ मुनिसेन का उल्लेख किया है और उनको पता की ओर भी संकेत किया है-"यत्पुष्पवन्त मुनिसेन मुनीन्द्रमुख्यः पूर्वः कृतं सुकविभिस्तदहं विधिसः। इससे इस वंश का परिचय श्रृंगारावचन्द्रिका के लोक ११ से १८तक के पद्यों में दिया गया है। यह प्रथाvv कुलकणी द्वारा सम्पादित हो कर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तेरहवीं और चौदहवीं सताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि स्पष्ट है कि मुनिसेन ने कोई ग्रन्थ बनाया था, जो अब उपलब्ध नहीं है। कवि श्रीधरसेन नानाशास्त्रों के पारगामी विद्वान थे, और बड़े-बड़े राजा लोग उन पर श्रद्धा रखते थे। वे काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान और कयि ये 1 इनकी एकमात्र कृति 'विश्वलोचन कोश' है, इसका दूसरा नाम मुक्तावलि कोश है जैसा कि 'मुक्तावली विरचिता' ग्रन्थ के वाक्य से स्पष्ट है । इस कोश में २४५३ श्लोक है । स्वर वर्ण और ककारादि के वर्णक्रम से शब्दों का संकलन किया गया है। नामार्थ कोशों में यह सबसे बड़ा कोश है। इस कोश की यह विशेषता है कि श्रीधरसेन ने एक शब्द के अधिक से अधिक अर्थ बतलाये हैं। उदाहरण के लिए 'रुचक' शब्द को लीजिये। विश्वलोचन में इसके १२ अर्थ बतलाये हैं, अमरकोश के चार और मेदनी में दश पथं बतलाये हैं। प्रशस्ति के चौथे पद्य में 'पदविदां च पुरे निवासी' वाक्य से श्रीधर सेन का निवासस्थान ज्ञात होता है, पर उसके सम्बन्ध में इस समय कुछ कहना शक्य नहीं है। कवि ने स्वयं लिखा है कि मैंने इस कोश की रचना कवि नागेन्द्र और अमरसिंह आदि कोशों सासर बार की है। कोटा महत्व पूर्ण है। कोश में रचनाकाल नहीं दिया। किन्तु इसकी रचना मेदनी और हेमचन्द्र के बाद हुई है प्रतः श्रीघरसेन का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का उपान्त्य जान पड़ता है। विजयवर्गी विजयवर्णी ने अपना कोई परिचय नहीं दिया । केवल गुरु का और जिसकी प्रेरणा से ग्रन्थ बनाया उसका उल्लेख तो किया है किन्तु अपने संघगण-गच्छादि और समय का कोई उल्लेख नहीं किया । यह काव्यशास्त्र के प्रच्छे विद्वान थे। इन्होंने बंग नरेन्द्र कामिराय की प्रेरणा से शृंगारार्णवचन्द्रिका' नाम का ग्रन्थ बनाया था जैसा कि निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है: इतिपरम जिनेन्द्रविनचन्दिरविनिर्गतस्याहावचन्द्रिकाचकोरविजयकीतिमुनीन्द्र धरणाब्जचञ्चरीकविजयनिविरचिते श्रीवीरनरसिंह कामिराज बजनरेन्द्रकीशरविन्दसं निभकोतिप्रकाशके भृगारार्णव चन्द्रिका नामिन अलङ्कारसंग्रहे वर्णगणफलनिर्णय नाम प्रथमः परिच्छेदः।" सोमवंशी कदम्ब राजाओं के द्वारा संरक्षित भूमिका शासन करने वाला नरेश वीर नरसिंह हुमा । इसने सन् ११५७ ई० में बंगवाडि में अपनी राजधानी स्थापित की थी। इसने प्रजा पर धर्म और न्यायनीति से शासन किया था। इनका पुत्र चन्द्रशेखर राजा हया इसने सन् १२०० से १२२४ ई. तक, और इनके छोटे भाई पाण्डय वंग शासक हुए उन्होंने सन् १२२५ से १२३६ तक राज्य किया। सन् १२३६ से १२४४ तक पाण्डपबंग की वहिन विठ्ठल महादेवी ने राज्य का संचालन किया। और सन १२४५ से १२६४ तक महारानी विट्ठल देवो के पुत्र कामिराय ने - . .१. सेनान्वये सकलसस्वसपितश्रीः श्रीमानजायत कविमुनिसेन नामा । आन्वीक्षकी सकलशास्त्रपयी च विद्या यस्या स वाद पदवी न दवीयसी स्यात् ॥१ तस्मादभूतखिलवाङ्मयपारहश्वा विश्वासपात्रमवनीतलनायकानाम् । श्री श्रीधरः सकलसस्कविगुम्फितत्त्व पीयूपपानकृतनिर्जर भारनीकः ॥२ तस्यातिशायिनि कवेः पथि जागरूक धोलोचनप्त्य गुरुशासनलोचनस्य । नाना कवीन्द्ररचितानभिधान कोशानाकृष्यसोचनमिवाय मदीयि कोषः ।।३ -विश्वलोचन कोश प्र. २. नागेन्द्र संग्रथित कोशसमुद्रमध्ये नानाकवीन्दमुखशुक्ति समुद्भवेयम् । विवदगृहादमरनिर्मित पट्टसूत्रे मुक्तावली विरचिता हृदि संनिधातुम् ॥६ -विश्वलोचन कोश प्र. ३. श्रीमद्विजयकोयाख्य गुरुराजपदाम्बुजम् । मदीयचित्रकासारे स्थेयात् संधीजने । ४. इत्य नपप्राथितेन मयाऽलंकारसंग्रहः । क्रियते सूरिया नाम्ना श्रृंगाराणवचन्द्रिका १-२२ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ शासन किया। प्रस्तुत कामिराय पाण्ड्यबंग का भागिनेय (भानजा) था । और उसे राजेन्द्र पूजित बतलाया है। कवि ने कामिराय के वंश का विस्तृत परिचय दिया है। ये सभी राजा जैनधर्म के पालक थे। इस ग्रंथ का नाम शुगारार्णव चन्द्रिका और अलंकार संग्रह है । ग्रन्थ में दश परिच्छेद हैं। १ वर्गगणफल निर्णय २ काव्यगत शब्दार्थ निश्चय ३ रस भाव निश्चय ४ नायक भेद निश्चय ५ दश गुणनिश्चय रीति निश्चय ७वृत्ति निश्चय ८ शय्या पाक निश्चय अलकार निर्णय १० दोष गुण निर्णय । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि अलंकारों के सभी उदाहरण स्वयं कवि द्वारा निर्मित हैं। इस ग्रन्थ का निर्माण कवि ने सन् १२५० के लगभग किया है । अतः कवि का समय तेरहवीं शताब्दी है । ग्रन्थ डा. कुलकर्णी द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो हो चुका है। कवि बारभट वाग्भट नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। उनमें अष्टाङ्ग हृदय नामक वंद्यक ग्रन्थ के कर्ता वाग्भट सिंहगुप्त के पुत्र और सिन्धु देश के निवासी थे । दूसरे वाग्भट नेमि निर्माणकाव्य के कर्ता हैं, जो प्राग्वाट या पोरवाड़ वंश के भूषण तथा छाड के पुत्र थे । तोसरे वाग्भट सोमश्रेष्ठी के पुत्र थे, वाग्भट्टालंकार के कर्ता और गुजरात के सोलकी राजा सिद्धराज जयसिंह के महामात्य थे। और यह वि० सं० ११७६ मे मौजूद थे । वि० सं० ११७८ में मनिचन्द्र सूरि का समाधिमरण हा । वाग्भट ने धवल और ऊचा जैनमन्दिर बनवाया था उसके एक वर्ष बाद देवसुरि द्वारा वर्धमान की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थे। चौथे वाग्भट इन सबसे भिन्न थे, पोर महाकवि बाग्भट नाम से प्रसिद्ध थे। इनके पितामह का नाम मक्कलप' पितामही का नाम महादेवी था और पिता का नाम नेमिकुमार था। मक्कलप के दो पुत्र थे राहड और नेमिकुमार | उनमें राह्ड ज्येष्ठ और नेमिकुमार लघुपुत्र थे जो बड़े विद्वान धर्मात्मा और यशस्वी थे। और अपने ज्येष्ठ भ्राता राहड के परम भक्त थे। मेवाड़ देश में प्रतिष्ठित भगवान पाश्वनाथ जिनके यात्रा महोत्सव से उनका अद्भुत यश अखिल विश्व में विस्तृत हो गया था। नेमिकुमार ने राहत पुर में भगवान नेमिनाथ का और नलोटक पुर में वाईस देवकुलकाओं सहित भगवान आदिनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया था। राहड ने उसी नगर में प्रादि नाथ मन्दिर की दक्षिण दिशा में २२ जिनमंदिर बनवाए थे। जिससे उसका यशरूपी चन्द्रमा जगत में पूर्ण हो गया था-व्याप्त हो गया था। १. तस्य श्रीपाण्ड यङ्गस्य भागिनेमो गुणरिणवः । विट्टलाम्बा महादेवी पुत्री राजेन्द्रपूजितः ॥१-१६ २. देखो, शृंगाराव चन्द्रिका के ११ से १८ तक के पद्य । ३. यज्जन्मनः सुकृतिनः खलु सिन्धु देशे यः पुत्रवन्समकरोद् भुवि सिंह गुप्तम् । ते मोक्तमेतद्भयज्ञ भिषग्वरेण स्थानं समाप्तमिति--------- -पराज पुस्तकालय की अष्टांग हृदय की कन्नड़ी प्रति ४. अहिच्छत्र पुरोत्पन्न-प्रारबाट कुलशालिनः । __ छाइस्य सुतश्यके प्रबन्ध वाग्भटः कविः ॥८७ -नेमिनिर्वाण काव्य ५. 'सिरि थाहत्ति तनओ आसि वुहो तस्स सोमस्स' ! वाग्भटालंकार शतकादशके साष्ट सप्तती विकमार्कतः । यत्सराणा ब्यतिकाते थी मुनिचन्द्र सूरयः । आराधनाविधि श्रेष्ठं कृत्वा प्रायोपवेशनं । सामरीयूष कल्लोलप्लुतास्ते विदिवं ययुः ।। नत्सरे तत्र केन पूर्ण श्री देवसूरिभिः । श्री वीरस्य प्रतिष्ठा सबाहटकारयन्मुदा युग्मम् ॥ -प्रभावकचरित ६. राहपुर मेवाड़ देश में कहीं था जो नेमिकुमार के ज्येष्ठ भ्राता राहड द्वारा बसाया गया था -काश्यानुशासन की उत्थानिका ७. नाभेय पत्य सदने दिणि दक्षिणयां, द्वाविंशति विवधता जिनमन्दिराणि । मन्ये निजाग्रजवरप्रभुराहस्य, पूर्ण कृ. जगति मेन यश: शशाङ्कः ।। -काव्यानुशासन पृ० ३४ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और गैर मान और इवि कवि वाग्भट व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक चम्पू और साहित्य के मर्मज्ञ थे। कालिदास, दण्डी और वामन आदि विद्वानों के काव्य-ग्रन्थों से खूब परिचित थे और अपने समय के अखिल प्रज्ञालुमों में चूडामणि थे तथा नुतन काव्यरचना करने में दक्ष थे। कवि ने अपने पिता नेमिकुमार की खूब प्रशंसा की है, और लिखा है वे कोन्तेय कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाले अद्वितीय भास्कर थे, सकल शास्त्रों में पारंगत तथा सम्पूर्ण लिपि भाषामों से परिचित थे, और उनकी कोति समस्त कविकूलों के मान सन्मान और दान से लोक में व्याप्त हो रही थी। कवि वाग्भट भक्ति के अद्वितीय प्रेमी थे। स्वोपज्ञ काव्यानुशासन वत्ति में प्रादिनाथ, नेमिनाथ और भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। जिससे यह सम्भव है कि उन्होंने किसी स्तुति ग्रन्थ की रचना की हो; क्योंकि रसों में रति (शृंगार) का वर्णन करते हुए देव विषयक रति के उदाहरण में निम्न पद्य दिया है "नो मक्त्य स्पयामि विभः कार्य न सांसारिक:, कित्वा योज्य करी पनरिदं स्वामी शमभ्यचंये। स्वप्ने जागरणे स्थिती विचलने दुःखे सुखे मन्दिरे, कान्तारे निशिवासरे च सततं भक्तिर्ममास्तु त्वयि।" इस पद्य में बतलाया है-.-"कि हे नाथ ! मैं मुक्तिपुरी की कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्यों के लिये विभव (धनादि सम्पत्ति) की ही प्राकांक्षा करता हूं; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़कर मेरी यह प्रार्थना है कि स्वप्न में, जागरण में, स्थिति में, चलने में, दुःख सुख में, मन्दिर में, वन में, रात्रि और दिन में निरन्तर प्रापकी ही भक्ति हो।' इसी तरह कृष्ण नील वर्णों का वर्णन करते हुए राहड के नगर और वहां के प्रतिष्ठित नेमि जिनका स्तवनसूचक निम्न पद्य दिया है :-- सजलजलधनीलाभासियस्मिन्वनाली मरकत मणिकृष्णो यत्रने मिजिनेन्द्रः। विकचकुवलयालि श्यामलं यत्सरोम्भः प्रमत्यति न कांस्कांस्तत्परं राहडस्य। इस पद्य में बतलाया है कि जिसमें वन पंक्तियां सजल मेघ के समान नीलवर्ण मालूम होती हैं और जिस नगर में नीलमणि सदृश कृष्णवर्ण श्री नेमि जिनेन्द्र प्रतिष्ठित हैं तथा जिनमें तालाब विकसित कमल समूह से पूरित है वह राहड का नगर किन-किन को प्रमुदित नहीं करता।' नेमिकुमार और राहड में राम लक्ष्मण के समान भारी प्रेम था। यद्यपि राहह ने विशेष अध्ययन नहीं कि था, क्योंकि उसका उपयोग व्यापार की ओर विशेष था। उसने व्यापार में विपुल द्रव्य और प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इस कारण नेमिकुमार को प्रध्ययन करने का विशेष अवसर मिल गया, और सिद्धान्त, छन्द, अलकार, काश्य पौर व्याकरणादि तथा भाषा और लिपि का परिज्ञान किया। अध्ययन के उपरान्त नेमिकूमार भी अपने भाई के साथ व्यापार में लग गये, और दोनों से न्याय में विपुल धन अजित किया। राहड प्रसिद्ध व्यापारी था उसका व्यापार द्वीपान्तरों में भी होता था। व्यापार में जो धन कमाया उसले उन्होंने दो नगर बसाये, राहड़पुर और नलोटकपुर राहड़पुर राइड के नाम से बसाया गया था, उसमें नेमि जिनका विशाल मन्दिर था जिसमें भगवान नेमिनाथ की मरकत मणि के समान कृष्ण वर्ण की सुन्दर मूर्ति विराजमान थी । १. नव्यानेक महाप्रबन्धाचा चातुर्यविस्फजित-स्फारोदारमशः प्रचारसततच्याकीर्ण विश्वत्रयः । थी मन्नेमिकुमार-सूरिरखि प्रज्ञासु चूडामणिः काव्यानामनुशासनं वमिदं चने कविग्भिटः ।। २. 'दुस्तरसमस्तशास्त्रारावारगहनमध्यावगाहनमधमन्दरस्य ।' काव्यानुशासन पृ०१ ३. 'अमन्दमन्दराय नाण्यानमात्रतहत मध्यमानमहाब्धिमध्य समुल्लासत्यक्ष्मी लक्षितवक्षःस्थलस्य । वही पृष्ठ १ ४. कारितामरपुर। रिम्पति धीराहडपुर प्रतिष्ठापित सुप्रसिद्धहिमिगिरिशिखरानुकारि रमणीय शुभ्राधांलिह शिनवरा गारोत्त न शृङ्गोत्सङ्गसङ्गतसौवर्णवनाय सम्पायमानगोकिङ्किणः भागाकारविवासितरविरष तुरङ्गमस्य । वही पृ. १ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नलोटकपुर में पहले राहड ने अपनी रुचि के अनुसार ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनवाया था। बाद में नेमिकुमार ने उसी जिनालय के प्रागे दक्षिण भाग में २२ वेदियां बनवाई थीं।' उससे राहड की प्रसिद्धि अधिक हो गई थी। मेवाड़ की जनता नेमिकुमार से बहत प्रभावित थी। इस जिनालय में रात्रि के समय स्त्री पुरुष इकट्ठे होकर स्तुतियां पढ़ते थे, और नारियां मिलकर सुन्दर गीत गाती थी। नगर बाग-बगीचों और तालाबों से शोभायमान था। नेमिकुमार की कीति भी कम नहीं थी। रचनाएं महाकवि बाग्भट्ट की इस समय दो कृतियाँ उपलब्ध हैं छन्दोज्नुशासन और काव्यानुशासन । इनमें मटा छन्दोनुशासन काव्यनुशासन से पूर्व रचा गया है, क्योंकि काव्यानशासन की स्वोपज्ञवृत्ति में स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें छन्दों का कथन विस्तार से किया गया है। अतएव यहां पर नहीं कहा जाता। जैन साहित्य में छन्दशास्त्र पर 'छन्दोऽनुशासन' स्वम्भूछन्द छन्दकोश और प्राकृत पिंगल प्रादि अनेक छन्दग्रन्थ लिखे गये हैं। उसमें प्रस्तुत छन्दोऽनुशासन सबसे भिन्न है यह संस्कृत भाषा का छन्द ग्रन्थ है और पाटन के श्वेताम्दरीरालादार में सहएन पर लिखा हा विद्यमान है । उसकी पत्रसंख्या ४२ और श्लोक संख्या ५४० के करीब है और स्वोपज्ञवत्ति से अलंकृत है। इस ग्रन्थ का प्रादि मंगलपद निम्न प्रकार है: विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासन् । श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः।। यही मंगल पद्य काव्याऽनुशासन को स्वोपत्ति में छन्दसामनुशासनं, के स्थान पर 'काथ्यानुशासनम् दिया हुया है। यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्यायों में विभक्त है, संज्ञाध्याय १ समवृत्ताख्य २ अर्धसमवृत्ताख्य ३ मात्रासमक ४ और मात्रा छन्दक ५ । ग्रन्थ सामने न होने से इन छन्दों के लक्षणादि का कोई परिचय नहीं दिया जा सकता और न यही बताया जा सकता है कि ग्रन्थकार ने अपनी दूसरी किन-किन रचनामों का उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में राहड और नेमिकुमार की कीति का खलागान किया गया है और राहड को पुरुषोत्तम तथा १.निजभूजयुमोगाजित वित्त जात जनित नलोटकपूर प्रतिष्ठित त्रिभूवना भूत श्री नाभिसम्भवमिन सदन प्रारमाय निर्मा ति द्वाविंशति देवगृहिका मण्डलस्य । (काव्यानु० पृ. १) २. अपं च सर्व प्रपंचः थीवाग्भट्टाभिध स्वोरज्ञछन्दोऽनुशासने प्रपंचित इति नात्रोच्यते । ३. यह छन्दोऽनुशासन जम्कीति के द्वारा रचा गया है । इसे उन्होंने मांडव्य, विगंल जनाव' सेतव, गूज्यपाद (देवनन्दी) और जयदेव आदि विद्वानों के छन्द प्रन्यों को देखकर बनाया गया है। यह जयकीर्ति अमलकीति के शिष्य थे । संवत् ११९२ में योगसार की एक प्रति अमलकीति ने लिखवाई थी, इससे जयकीर्ति १२ वीं पाताब्दी के उत्तरार्ध और १३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं। यह ग्रन्ध जैसलमेर के वेताम्बरीय ज्ञानभंण्डार में सुरक्षित है। (देखो गायकवाड संस्कृत सीरीज में प्रकाशित जैसलमेर भाण्डागारीय ग्रन्यानां सूची।) ४. यह अपभ्रंश और प्राकृत भाषा का महत्वपुर्ण मौलिक छन्द ग्रंथ है। इसका सम्पादन एच. डी. वेलंकर ने किया है। (देखो,वम्बई यूनिवर्सि- तरल सन् १६३३ तथा रायलएसियाटिक सोसाइटी जनरल सन् ० ६३५), ५. रत्न शेखर सूरि द्वारा .... प्राकृत भाषा का छन्दकोश है । ६. पिंगला आर्य के प्राकृत पिगंल को छोड़कर, प्रस्तुत पिंगल ग्रन्थ अथवा छन्दोविद्या कविराजमल की कृति है। जिसे उन्होंने श्रीमालकुलोत्पन्न वणिक पति राजाभारमल्ल के लिये रचा था। इस अन्य में छन्दों का निर्देश करते हुए राजा भारमल के प्रताप यश और वंभव आदि का अच्छा परिचय दिया गया है। इन छन्द ग्रन्थों के अतिरिक्त छन्दशास्त्र, वृत्तरलावर और श्रुतबोध नाम के छन्द ग्रन्थ और हैं जो प्रकाशित हो चुके हैं। u. See Pillan ciltlagi.c of Manucrints P. 117. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि उनकी विस्तृत चैत्यपद्धति को प्रमुदित करने वाली प्रकट किया है यथा- पुरुषोत्तम राहडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः । वितता तव चंत्य पद्धतिवतिचलध्वजमालधारणी ॥ ४२३ afa ने अपने पिता नेमकुमार की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि घूमने वाले भ्रमर से कम्पित कमल के मकरन्द (पराग) समूह से पूरित, भडौंच श्रथवा भूमुकच्छ नगर में नेमिकुमार की अगाध बावडी शोभित होतो है । यथा परिभमिरभमरकं पिरसरूमयरं बभूंज पंजरिया । बावी सहइ प्रगाहा णेमिकुमारस्स भगच्छे || इस तरह यह छन्द ग्रंथ बड़ा हो महत्वपूर्ण जान पड़ता है और (प्रकाशित करने योग्य है । काव्यानुशासन यह ग्रन्थ मुद्रित हो चुका है। इस लघुकाय ग्रन्थ में ५ अध्याय हैं जिन में क्रमशः ६२,७५,६८,२६, और ५८ कुल २८६ सूत्र हैं। जिनमें काव्य-सम्बन्धी त्रिषयों का रस, अलङ्कार, छन्द और गुण दोष वाक्य दोष श्रादि का कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञ अलंकारतिलक नामक वृत्ति' में उदाहरण स्वरूप विभिन्न ग्रन्थों के अनेक पद्य उद्धृत किये गये हैं जिनमें कितने ही पद्य ग्रन्थ कर्ता के स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला सकना कठिन है कि वे पद्य इनके किस ग्रन्थ के हैं। समुद्धत पद्यों में कितने ही पद्य वडं सुन्दर और सरस मालूम होते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए दो तीन पद्य नीचे दिये जाते हैं :-- कोऽयं नाथ! जिनो भवेत्तववशी हुं हुं प्रतापी प्रिये, तहि विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपनियां ॥ मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तfककरा: के वयं इत्येवं रति कामल्पविषयः सोऽयंजिनः पातु वः ॥ एक समय कामदेव और रति जङ्गल में विहार कर रहे थे कि अचानक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्र पर पड़ी, उनके रूपवान प्रशांत शरीर को देखकर कामदेव और रति का जो मनोरंजक संवाद हुआ है उसीका चित्रण इस पद्य में किया गया है। जिनेन्द्र को मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेव से पूछती है कि हे नाथ ! यह कौन है ? तब कामदेव कहता है कि यह जिन हैं- राग-द्वेषादि कर्म शत्रुओं को जीतने वाले हैं- पुनः रति पूछतो है कि यह तुम्हारे वश में हुए ? तत्र कामदेव उत्तर देता है कि है प्रिये ! यह मेरे वश में नहीं हुए, क्योंकि यह प्रतापी हैं, तब वह फिर कहती है यदि यह तुम्हारे वश में नहीं हुए तो तुम्हें 'त्रिलोक विजयी पनकी शूरवीरता का अभिमान छोड़ देना चाहिए। तव कामदेव रति से पुनः कहता है कि इन्होंने मोहराजा को जीत लिया है, जो हमारा प्रभु है, हमतो उसके किङ्कर हैं । इस तरह रति और कामदेव के संवाद विषयभूत यह जिन तुम्हारा कल्याण करें। शठ कमठ विमुक्ताग्राव संघरतघात व्यथितमपिमनोन ध्यानतो यस्य नेतु : चल चलतुल्यं विश्वविश्वेकवोरः, स दिशतुशु भमीशः पाश्र्वनाथ जिनोवः || पद्य में बतलाया है कि दुष्ट कमठ के द्वारा मुक्त मेघ समूह से पीड़ित होते हुए 'जनका मन ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुआ वे मेरु के समान प्रचल र विश्व के अद्वितीयधीर, ईश पार्श्वनाथ जिन तुम्हें कल्याण प्रदान करें । इसीतरह 'कारणमाला' के उदाहरण स्वरूप दिया हुआ निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है । जिसमें जितेन्द्रियता को विनय का कारण बतलाया गया है। और विनय से गुणोत्कर्ष, गुणोत्कर्ष से लोकानुरंजन श्रौर जनानुराग से सम्पदा की अभिवृद्धि होना सूचित किया है, वह पद्य इस प्रकार है: १. इति महाकवि श्री वाग्भद विरचितायामलङ्कारतिलकाभिधान स्वोपज्ञ काव्यानुशासन वृत्तौ प्रथमोऽध्ययः । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जितेन्द्रियत्वं विनय स्थ कारणं, गुण प्रकर्षोविनयादयाप्तते गुणप्रकर्षणजनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवाहि सम्पदः ।। इस ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति में कवि ने अपनी एक कृति ऋषभदेवकाव्य का 'स्वोपज ऋषभदेव महाकाव्ये' वाक्य के साथ उल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य' बतलाया है, जिससे वह एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्च जान पड़ता है, इतना ही नहीं किंतु उसका निम्न पद्य भी उद्धृत किया है: यत्पत्पदन्त-मनिसेन-मनीवमुख्यः पूर्वः कतं स कविभिस्तव विधित्स : 1 हास्याय कस्यननु नास्ति तथापिसंतः, शृण्वंतुकंचन ममापि सुयुक्ति सूक्तम् । इन के सिवाय, कवि ने भण्य नाटक और अलंकारादि काव्य बनाये थे। परन्तु वे सब अभी तक अनुपलब्ध हैं, मालूम नहीं कि वे किस शास्त्र भण्डार की कालकोठरी में अपने जीवन की सिसनिया ले रहे होंगे। कवि का सम्प्रदाय दिगम्बर था, क्योंकि उन्होंने दिनम की दूसरी शताब्दी के प्राचार्य समन्तभद्र के बृहत्स्व. यम्भ स्तोत्र के द्वितीय पद्य को 'पागम प्राप्तवचनं यथा' वाक्य के साथ उद्धत किया है: प्रजापतियः प्रथमंजिजीविष प्राशासकृष्याविषकर्मस प्रजाः प्रबद्धतत्त्वः पुनरद्ध तोक्यो ममत्वतो निवियदे विदांकरः ॥ बीरनन्दी 'चन्द्रप्रभ चरित का आदि मंगल पद्य भी उद्धृत किया है। और १० १६१ में सज्जन दुर्जन चिन्ता में वाग्भट के 'नेमि निर्वाण काव्य के प्रथम सर्ग का २० वा पद्य भी दिया है ।: गुणप्रतीलिः सुजनां जनस्य, दोवेष्यवज्ञा खल जल्पितेष। अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्धे, प्रभूतदोषेप्यशोऽवकाशः ।। समय विचार कवि ने ग्रन्थ में रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया । कितु वीरनन्दी पौर वाग्भट के ग्रन्थों के पद्य उद्धत किये हैं। इससे कवि इन के बाद हुमा है। काव्यानुशासन के पृष्ठ १६ में उल्लिखित "उद्यान जल केलि मद्यपान वर्णन नेमिनिर्वाण राजीमती परित्यागादो" इस वाक्य के साथ नेमिनिर्वाण और राजीमती परित्याग नामके दो प्रन्यों का समुल्लेख किया है। उनमें से नेमिनिर्वाण के ८वेंसर्ग में जल क्रीड़ा और १०वें सर्ग में मधपान सुरत का वर्णन दिया हुआ है। हां, 'राजीमती परित्याग' नामका अन्य कोई दूसरा ही काम अन्य है जिसमें उक्त दोनों विषयों को देखने की प्रेरणा की गई है। यह काध्य ग्रन्थ सम्भवतः पं० प्राशाधर जी का राजमती विप्रलम्भ या परित्याग जान पड़ता है। क्योंकि विप्रलम्भ भौर परित्याग शब्द पर्यायवाची हैं। पण्डित आशाधर जी का समय विक्रम को १३वों शताब्दी है। कवि ने काव्यानुशासन में महाकवि दण्डी वामन और वाग्भटालंकार के कर्ता वाग्भट द्वारा माने गए, दहा काव्य गणों से कवि ने सिर्फ माधुर्य, पोज पोर प्रसाद ये तीन गुण ही माने है। और शेष गणों का उन्हीं में प्रतर्भाव किया है। वाग्भद्रालंकार के कर्ता का समय १२वीं शताब्दो है। इस सर्वे विवेचन से कवि वाग्भट का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का उपान्त्य और १४वीं का पूर्वार्ध हो सकता है। रविचन्द्र (माराधना समुच्चय के कर्ता) मूनि रविचन्द्र ने अपनी गुरु परम्परा संघ-गण-गच्छ और समय का कोई उल्लेख नहीं किया। इनकी एकमात्र कृति 'पाराधना समुच्चय, है जो डा० ए० एन० उपाध्ये. द्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है। - - --- १. इति दण्डि वामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वर्ष तु माधुर्याजप्रसाद लक्षणास्थीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तभवन्ति । तबधा-माधुर्ये. कान्तिः सौकुमार्य च, ओअसिश्लेषः समाधिरुदारता च । प्रसादेऽयं व्यक्तिः समता चान्तर्भवति । (काव्यानुशासन २, ३१) Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 4 ४२५ तेरहवीं और चोदताब्दी के आचार्य विद्वान और कवि प्रस्तुत ग्रन्थ में संस्कृत के २५२ श्लोक हैं। जिनमें ग्राराधना, आराधक, ग्राराधनोपाय तथा आराधना का फल, इन चारों की आराधना के चार चरण बतलाये हैं । गुण-गुणी के भेदसे आराधना के दो प्रकार बतलाये हैं। साथ में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ये आराधना के चार गुण कहे। इन चारों माराधनाओं के स्वरूप और मे प्रभेदों का सुन्दर वर्णन दिया है। चारित्र साधना का स्वरूप और भेद-प्रभेदों का उनका काल पोर स्वामी बतलाये हैं सम्यक तप आराधना के स्वरूप भेद प्रभेद वर्णन करने के पश्चात् ध्यान के भेद और स्वामी आदि का परिचय कराया गया है। द्वादश अनुप्रेक्षाओं का वर्णन संस्थान विचयमध्यान में परिणत कर दिया है। * इस ग्रन्थ के कर्ता वर्तमान मैसूर दिया हुआ नहीं है । है। प्रन्थ में रचनाकाल कवि ग्रहंदास यह जैन ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम नागकुमार था। यह कन्नड़ भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। कवि का समय सन् १३०० ईस्वी के आस-पास है यह गंग मारसिंह के चमूपति कामरस का वंशज है। कामरस वड़ा वीर और पराक्रमी था । वारेन्दुर के जीतने वाले राजा मारसिंह का एक किला था। इस किले को किसी चकवत की सेनाने घेर लिया था। मारसिंह की मामा से काठमरस ने बड़ी बहादुरी के साथ चश्वर्ती की सेना को भगा दो, और ना गिरादी तथा बारह सामन्त योद्धाओं को परास्त किया। इससे राजा बहुत प्रसन्न हुआ। अतएव उसने कामरस को २५ ग्रामों की एक जागीर पारितोषिक में दे दी। इसी काडमरस को १५वीं पीढ़ी में नागकुमार नाम का व्यक्ति हुआ। कविरह या महंदास इसी नागकुमार का पुत्र था। इसने कन्नड में घटुमत नाम के महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की है। यह पूरा नहीं मिलता शतकी १४वीं शताब्दी में भास्कर नाम के आन्ध्र कवि ने इस ग्रन्थ का तेलगू भाषा में अनुवाद किया था। इस ग्रन्थ के उपलब्ध भाग में वर्षा के चिन्ह प्राकस्मिकलक्षण, शकुन वायुचक गृहप्रवेश भूकंप भूजात फल, उत्पात लक्षण इन्द्र धनुक्षण प्रथम गर्भलक्षण, द्रोण संख्श, विद्युतलक्षण, प्रतिसूर्यलक्षण संवत्सरफल, प्रद्वेष मेघों के नाम कुलवर्ण, ध्वनिविचार देशवृष्टि, मासफल, नक्षत्रफल, मीर संक्रान्तिफल चादि विषयों का निरूपण किया गया है। बालचन्द्र पण्डितदेव बालचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें से एक बालचन्द्र का उल्लेख कम्बदहल्लों में कम्बराय स्तम्भ में मिलता है। इनका समय शक सं० १०४० वि० सं० २१५७) है। इनके गुरु का नाम शान्तार्णव पारग अनन्तवोयं और शिष्य का नाम सिद्धान्ताम्भोनिधि प्रभाचन्द्र था । ( जैन लेख सं० भा० २ लेख नं० २६० पृ० ३६६ ) दूसरे हैं जिनका उल्लेख बुवनहल्लि (मैसूर) के १० वीं सदी के कन्नड़ लेख में बालचन्द्र सिद्धान् भट्टारक के शिष्य कमलभद्र गुरुद्वारा एक मूर्ति की स्थापना की गई थी। (जैन लेख सं० भाग ४ १०७०) । तीसरे बालचन्द्र वे हैं जिनको क सं १६६ में उत्तरायण संक्रान्ति के समय वापनीय संघ पुन्नाग वृक्ष मूलगण के बालचन्द्र भट्टारक को कुछ दान दिया गया था। (जंन लेख [सं० भा० ४५०८१) । चौथे बालचन्द्र वे हैं जिनको सन् १११२ में मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छ के आचार्य वर्धमान मुनि के शिष्य दूरी पर अवस्थित सोने (पनसोगे) ही वाराधना आदिनाथ और मेशिनाथ की मूर्तियां विराजमान है। २. श्री रविन्द्र पनोगे ग्राम वाग्रिम्भः । रचितोऽयमतिशास्त्र प्रयोग विज्ञमनोहारी ।। ४२ १. पं० के भुजवली शास्त्री के अनुसार मैसूर जिलान्तर्खति कृष्णराजनगर तालुके में साले ग्राम से लगभग ५ मील की समुच्चय का रचनात्मन है। यहां एक कूट जिनालय है जिसमें - अनेकान्त वर्ष २३ कि० ५-६ पृ० २३४ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बालचन्द्र व्रती के शिष्य अहॅनन्दि बेदृदेव को पार्श्वनाथ वसदि के लिये भूमिदान दिए जाने का उल्लेख है (जैन लेख सं०भा० ४ पृ० १३४) पांचवें बालचन्द्र वे हैं जो मूलसंध देशीगण पनसोगे शाखा के नयकोति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य अध्यात्मी बालचन्द्र के उपदेश से चिम्मिसेटि के पुत्र केसरसेटि ने बेलूर में सन् ११८० में मूर्ति को प्रतिष्ठा की थी। (जैन लेख सं० भा० ४ १०२७०)। छठे बालचन्द्र के हैं, जो माधवचन्द्र पैविध के शिष्य थे, और कवि कन्दर्प कहलाते थे। इन्होंने शक ११२७, रक्ताक्षी संवत्सर में द्वितीय पौष शुक्ल २ को बेलगाँव के रट्टजिनालय के लिए वीचण द्वारा शुभचन्द्र को दिए जाने वाले लेख को लिखा था । अतएव इनका समय शक ११२७ सन् १२०४ (वि० सं० १२६१) है। (जन लेख सं० भा० ४ पृ०२३६)। इनमें प्रस्तुत बालचन्द्र पण्डितदेव मूलसंघ देशियगण पुस्तक गच्छ कुन्दकुन्दान्वय इंगलेश्वर शाखा के श्री समुदाय कर माधनन्दि भट्टारक के प्रशिष्य और नेमिचन्द्रभट्टारक के दीक्षित शिष्य थे । और अभयचन्द्र संद्धान्तिक उनकै श्रुत गुरु थे । ये बल चन्द्र प्रति श्रुतमुनि के अणुव्रत गुरु थे श्रुतमुनि ने भी बालचन्द्र मुनि को अभयचन्द्र का शिष्य बतलाया है "सिखंताहयचंदस्स य सिस्सो बालचन्द मुणि पबरो।" (भावसंग्रह) प्रभयचन्द्र ने स्वयं गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख किया है। । इन्होंने द्रव्यसंग्रह की टीका शक सं० ११६५ (वि० सं० १३३०) में बनाई थी। बालचन्द्र के सन् १२७४ के समाधि लेख में संस्कृत के दो पद्यों में बतलाया है कि बे बालचन्द्र योगीश्वर जयवंत हों, जो जैन आगमरूपी समुद्र के बढाने के लिए चन्द्र, कामके अभिमान के खटक, और भव्यरूप कमलों को प्रफल्लित करने के लिए दिवाकर हैं, गुणों के सागर, दया के समुद्र, तथा अभयचन्द्र मुनिपति के शिष्योत्तम हैं, अपनी प्रात्मा में रत हैं। जिन्होंने इस जगत में पूर्वाचार्यों की परम्परा गत जिनस्तोत्र सागर प्रयात्म शास्त्र रचे, वे अभयेन्दु योगी प्रख्यात शिष्य बालचन्द्र प्रती से जैन धर्म शोभायमान है। यथा-- भोजनागमवाधिवर्द्धन विधुः कंदर्पदपिहो, भव्याम्भोजविषाकरो गुणनिधिः कारुण्यसौधोवधिः। सश्रीमान् अभयेन्द्र सन्मुनिपति प्रख्यात शिष्योत्तमो, जीव्यात........ निजात्मनिरतो बालेन्द्र योगीश्वरः॥ पूर्वाधार्यपरम्परागत जिनस्तोत्रागमाध्यात्मस, च्छास्त्राणि प्रथितानि येन सहसा भुवन्निलामंडले। श्रीमन्मान्येभयेन्दुयोगिविबुधप्रख्यातसतसूनुना, बालेन्दुवतियेन तेनलसति श्रोजन/मधुना ।। -(म० मंसूर के प्राचीन स्मारक पृ० २७८) इनबालचन्द्र पण्डित देय की गृहस्थ शिष्या मालियबके थी। प्रस्तुत बालचन्द्र का स्वर्गवास सन् १२७४ में हुमा है। अतः यह बालचन्द्र ईसा की १३ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण और विक्रम की १४ वीं शताब्दी के विद्वान थे। इन्द्रनन्दी इन्द्रनन्दी मे अपनी गुरु परम्परा और ग्रन्थ रचनाकाल आदि का उल्लेख नहीं किया। इनकी एक कृति --- - - - - - - ---- - १. गोम्मटसार जीवकाण्ड कलकत्ता संस्करण पृ० १५० । २. जन लेख संभा० ३ पृ० २६६ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के प्राचार्य विद्वान और कवि -- 'छेदपिण्ड' है। जो ३३३ गाथा को संख्या को लिए हुए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित-विपयक यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण कृति है। प्रायश्चित्त, छेद, मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य पवित्र, पोर पावन ये सब उसके पर्यायवाची नामान्तर हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्रायश्चित्त से चित्त शुद्धि होती है। और चित्तशुद्धि प्राम विकास में निमित्त है। चित्तशद्धि के बिना प्रात्मा में निर्मलता नहीं पाती। अतः प्रात्म विकास के इच्छुक मुमुक्ष जनों को प्रायश्चित्त करना उपयोगी है, ज्ञानी को प्रात्म निरीक्षण करते हुए अपने दोषों या अपराधों के प्रति सावधान होना पड़ता है। अन्यथा दोषों का उच्छेद सम्भव नहीं है। किस दोष का क्या प्रायश्चित विहित है यही इस अन्य का विषय है। जिसका कथन अनेक परिभाषायों और व्याख्यानों द्वारा दिया है। इन्दनन्दो ने यह ग्रन्थ मनि, आयिका, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ और ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-मीर शूद्ररूप चारों वर्ण के सभी स्त्री-पुरुषों को लक्ष्य करके लिखा गया है। सभी से बन पड़ने वाले दोषों का अपराधों के प्रकारों का आगमादि विहित तपश्चरणादिरूप शोधनों का-ग्रन्थ में निर्देश किया गया है। छेद शास्त्र के साथ इसकी तुलना करने से ऐसा जान पड़ता है कि एक दूसरे के सामने ये ग्रन्थ रहे है। छेद शास्त्र के कर्ता का नाम अज्ञात हैं। छेदशास्त्र की २-३ गाथाएँ छेदपिण्ड में प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि वहां उनका होना उपयुक्त नहीं है। छेदपिण्ड को दूसरी प्रतियों में वे नहीं पाई जातीं। प्रतएव वे वहां प्रक्षित हैं। कुछ गाथामा में समानता भी पाई जाती है। इस कारण मेरी राय में छेदपिण्ड के कर्ता के सामने छेदशास्त्र अवश्य रहा है। छेदपिण्ड व्यवस्थित स्वतंत्र कृति मालम होती है। इन्द्रनन्दी ने अपने को गणी और योगीन्द्र विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। इन्द्रनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं : प्रथम इन्द्रनन्दी वे है, जो वासवनन्दी के गरु थे। दूसरे इन्द्रनन्दी वे हैं जो वासवनन्दी के प्रशिष्य और बलनन्दी के शिष्य थे, और जिन्होंने शक सं० १६१ (वि० सं०९६६) में ज्वालामालिनी कल्प की रचना की है। सम्भवतः गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के भी गुरु यही जान पड़ते हैं। तीसरे इन्द्रनन्दी श्रुतावतार के कर्ता हैं । इनका समय निश्चित नहीं है। चौथे इन्द्रनन्दी का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है । जो शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) में उत्कोर्ग की गई है। पांचवें इन्द्रनन्दी भट्टारक नीतिसार के कर्ता है। यह ग्रन्थ ११३ श्लोकात्मक है। इसमें जिन प्राचार्यों के ग्रन्थ प्रमाण माने जाते हैं। उनमें श्लोक ७० में सोमदेवादि के साथ प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र (गोम्मटसार के कर्ता) का भी नामोल्लेख है । इस कारण ये इन्द्रनन्दी उनके बाद के विद्वान हैं। छठे इन्द्रनन्दो वे हैं। जिन्होंने श्वेताम्बरी विद्वान हेमचन्द्र के योगशास्त्र की टीका शक सं० ११८० (वि० सं०१३१५) में बनाई थी और जो अमरकीति के शिष्य थे। यह योगशास्त्र टीका कारंजा भंडार में उपलब्ध है। सातवें इन्द्रनन्दी संहिता ग्रन्थ के कर्ता हैं। इन सात इन्द्रनन्दी नाम के विद्वानों में से यह निश्चित करना कठिन है कि कौन से इन्द्रनन्दी छेदपिण्ड ग्रन्थ के कर्ता हैं। पं. नाथूराम जी प्रेमी ने संहिता ग्रन्थ के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता बतलाया है। और मुख्तार सा० ने नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता सूचित किया है। बहुत संभव है नोतिसार के कर्ता हो छेदपिण्ड के कर्ता निश्चित हो जाय । नीतिसार के कर्ता का समय विश्रम की तेरहवीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने अपने देवज्ञ और कुन्द "। छन्दशास्त्र १. पायश्चित्तं सो ही मलहरणं पावागसणं छंदो । पज्जाया २. देखो, पुरातन वाक्य-सूत्री को प्रस्तावना पृ० १०६ ३. दुरित-गृह-निग्रहाइयं यदि भो भरि-नरेन्द्र-बन्दिनम् । ननु तेन हि भब्यदेहिनों भजत थो पुनीमिन्दिने ।। -मल्लिनेण प्रभास्ति Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४२५ कुन्द प्रभु के चरणों को विनय करनेवाला सूचित किया है। इससे यह भूलसंघ के विद्वान ज्ञात होते हैं। मेरी राय में यह पिण्ड के कर्ता हो सकते हैं। विमलकोति प्रस्तुत विमलकीर्ति वागसंघ के रामकीर्ति के शिष्य थे । यह रामकीति वही है जो जयकीर्ति के शिष्य थे। और जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में संवत् १२०७ में उत्कीर्ण की हुई उपलब्ध है । विमलकीर्ति की दो रचनाएँ हैं। 'सोखवइ विहाण कहा' मोर सुगन्धदसमो कहा। दोनों कथाओं में व्रत का महत्त्व और उसके विधान का कथन किया गया है। जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यश कीर्ति भी विमलकांति के शिष्य थे। इनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है । मेघचन्द्र यह मूल संघ, देशीगण, कुन्दकुन्दान्यय, पुस्तक गच्छ और इंगलेश्वर वलि के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम भानुकीर्ति था और प्रगुरु का बाहुबलि था । यह चन्द्रनाथ पार्श्वनाथ वसदि का पुरोहित था । अनन्तपुर जिले के ताड़पत्रीय शिलालेख से प्रकट है कि उस स्थान पर एक जैन मन्दिर और जैन गुरुश्रों की प्रभावशाली परम्परा थी । उन्हें उस प्रदेश के सामान्तों से संरक्षण प्राप्त था। यह शिलालेख सन् १९९८ ई० का है, जिसमें उदयादित्य सामन्त के द्वारा मेघच को भूमिदान देने का उल्लेख है। ( Jainism in South India P. 22 ) इससे प्रस्तुतमेन्द्र विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं । इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । कुमुदेन्दु मूल संघ- नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान थे। इन कुमुदेन्दु योगी के शिष्य माघनन्दि सैद्धान्तिक थे। पर वादिगिरिवन और सरस कदितिलक इनके उपनाम थे। इनकी एक मात्र कृति 'कुमुवेन्दु-रामायण' नाम का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह पद्मनन्दि व्रती का पुत्र था, और इसकी माता का नाम कामाबिका था । पद्मनन्द व्रती साहित्य कुमुदवन चन्द्रचतुर चतुविधि पाण्डित्य कला शतदल विकसन दिनमणिवादि घराघर कुलिश- कवि मुखमणिमुकुर, उपाधियाँ थी । इनके पितृव्य (काका) श्री महंनन्दि प्रति बतलाये गये है । उन्हें परमागम नाटक तर्क व्याकरण निघण्टु छन्दोल कृति चरित पुराण षडङ्गस्तुति नौति स्मृतिवेदान्त भरत सुरत मन्त्रषध सहित नर तुरंग गजमणिगण परीक्षा परिणत विशेषणों के साथ उल्लेखित किया गया है। इनका समय सन् १२६० के लगभग है । ( कर्नाटक जैन कवि) गुणभद्र यह मूलसंघ देशीगण और पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के गगन दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीर्ति सिद्धान्त देव थे, और प्रशिष्य भानु कीर्ति व्रतीन्द्र को, जिन्हें शक सं० १०९५ के विजय संवत में होय्यसल वंश के बल्लाल नरेश ने पार्श्वनाथ और चौबीस तीर्थकरों की पूजन हेतु 'मास हल्लि' नाम का गांव दान में दिया था । श्रतएव इनका समय विक्रम संवत् १२३० है । और इनके प्रगुरु गुणभद्र का समय इनसे कम से कम २५ वर्ष पूर्व माना जाय तो उनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १३वीं का प्रारम्भिक भाग माना जा ( जैन लेख सं० भा० ११०३८५ ) सकता है । प्रभाचन्द्र प्रस्तुत प्रभाचन्द्र श्रवणबेलगोल के शक संवत् १११८ के उत्कीर्ण हुए शिलालेख नं० १३० में, और शक सं १. शर्माकति गुरुविण करेविष्णु विमलकति महियलि पडे दिए । — सुगन्ध दसमी कहा प्र० Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४२६ ११२८ के १२८ में शिलालेख में नयकीर्ति सिद्धान्तदेव के शिष्यों में प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख है । इससे वे नयकीर्ति के शिष्य थे। नयकीर्ति का स्वर्गवास शक संवत् १०६६ (सन् १९७७ - वि० सं० १२२४ ) में हुआ था। ऐसा शिला लेख नं० ४२ से ज्ञात होता है। अतः यह प्रभाचन्द्र विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान है । काण्डय्य इनके पितामह का नाम भी प्रण्डय्य था। जिनके तीन पुत्र थे । शान्त, गुम्मट और वैजण ज्येष्ठ पुत्र शान्त की पत्नी बल्लब्बे के गर्भ से प्रस्तुत ऋण्डय्य का जन्म हुआ था। इनका निवास स्थान कन्नड था। इसका रचा हुप्रा 'कब्बिगर' नाम का एक काव्य ग्रन्थ है, जो शुद्ध कन्नड़ी भाषा का ग्रन्थ है। इसमें संस्कृत का मिश्रण नहीं है। इसने जन्न कवि की स्तुति की है । श्रतएव इसका समय १२४० ई० के लगभग माना जा सकता है। यह ईसा की १३वीं शताब्दी का कवि था । शिशु मायण यह होयसल देश के अन्तर्गत नयनापुर नाम का एक ग्राम है। उसके समीप कावेरी नदी की नहर बहती है और वहाँ देवराज के इष्टानुसार राजराज ने भगवान नेमिनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया है। इस ही ग्राम में afa के पितामह मायण सेट्टी रहते थे । वे बड़े भारी धनिक और व्यापारी थे। उनकी स्त्री तामरसि के गर्भ से बोमसेट्टि नाम का पुत्र हुआ। बोम्मसेट्टि की स्त्री नेमानिका के गर्भ से कवि शिशुमायण का जन्म हुआ था । कापूर गण के भानुमुनि इसके गुरु थे। कवि ने दो ग्रंथों की रचना की है। त्रिपुर दहनसांगत्य, और अंजनाचरित । इनमें अनार की रचना कवि ने बेलुकरे पुर के राजा गुम्मट देव की रुचि और प्रेरणा से की थी। इनका समय ईसा की १३वीं शताब्दी है । पार्श्व पंडित यह पंडित सौंदलिके रराज वंशी कार्तिवीर्य (१२०२-१२२०) का सभा कवि था । इसने अपने एक पद्य में कहा है कि कार्तवीर्य का पुत्र लक्ष्मणोवोर्य था । यह लक्ष्मणोवीर्य १२२९ में राज्य करता था । बाम्बे की रायल एशियाटिक सोसाइटों के जर्नल में जो एक शिलालेख प्रकाशित हुआ है, उसे पार्श्व कवि ने शक सम्वत् १९२७ सन् १२०५ में लिखा था, उसमें लिखा है कि- 'कोण्डी मण्डल के वेणुग्राम में रट्टवंशीय राजाकार्तवीर्य, जो मल्लिकार्जुन के सहोदर भाई थे राज्य करते थे और उन्होंने अपने मण्डल के आचार्य शुभचन्द्र भट्टारक के लिये उक्त ग्राम कर रहित कर दिया था। यह शिलालेख पार्श्वकवि का ही लिखा हुआ है। इसमें इसलिए भी सन्देह नहीं रहता कि कवि, ने अपने 'पापुराण' में जिस कविकुल तिलक विरुद को अपने नाम के साथ जोड़ा है, वही उक्त शिलालेख के भी अन्तिम पद्य में लिखा है । इससे इस का समय १२०५ के लगभग निश्चित होता है। सुकविजन मनोहर्षं शस्यप्रवर्ष, बुधजन मन: पद्मिनी पद्ममित्र, कविकुल तिलक आदि इसके प्रशंसा सूचक उपनाम थे। इसकी एकमात्र कृति पा पुराण ग्रन्थ उपलब्ध है, जो गद्य-पद्य मय चम्पू ग्रन्थ है। इसमें सोलह श्राश्वास हैं । ग्रंथ के प्रारम्भ में जिनकी स्तुति करके कवि ने सिद्धान्तसेन से लेकर वौरनन्दी पर्यन्त गुरुयों की, और पंप पोन्न, रम्न, धनंजय, भूपालदेव, अच्चण्ण अग्गल, नागचन्द्र, बोप्पण आदि पूर्व कवियों की स्तुति की है । कवि ने स्वयं अपने इस ग्रन्थ की चार पद्यों में प्रशंसा की हैं। अकलक भट्ट ने अपने शब्दानुशासन ( १६०४ ) में इस ग्रंथ के बहुत से पद्य उदाहरण स्वरूप उद्धृत किये हैं। कवि का समय सन् १२०५ (वि० सं० १२६२) है | कवि जन्न जन्न - का जन्म कम्मे नामक वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम शंकर और माता का नाम गंगादेवी था शंकर हयशालवंशीय राजा नरसिंह के यहाँ कटकोपाध्याय (युद्ध विद्या का शिक्षक या सेनापति ) था । गंगादेवी Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४३० क गुरु रामचन्द्रदेव नाम के मुनि थे, जो माधवचन्द्र के शिष्य थे । रामचन्द्रदेव जगदेक मल्ल के दरबार के कटकांपा ध्याय में यह जन्म के गुरु नागबर्स के भी गुरु थे । जन्न कति सूक्तिमुधाय ग्रन्थ के कर्ता मल्लिकार्जुन का माला और मणिदर्पण के कर्ता केशिराज का मामा था। यह बोलकुल नरसिंहदेव राजा के यहां सभी कवि सेनानायक और मन्त्री भी रहा है। यह बड़ा भारी इसने किया दुर्ग में अनन्तनाथ का मन्दिर और द्वार समुद्र के विजयी पार्श्वनाथ के मंदिर का महाद्वार बनवाया था । इसकी यशोधरा चरित्र, अनन्तनाथ पुराण और शिवाब स्मरतन्त्र नाम की तीन रचनाएँ मिलती हैं। इसका समय सन् १२०६ ई० कर्नाटक कवि रचिल में दिया हुआ है। श्री कोति यह मुनि कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के नन्दि संघ के विद्वान थे। जो चित्रकूट से नेमिनाथ तीर्थंकर की यात्रा के लिये गिरनार जाते हुए गुजरात की राजधानी अणहिलपुर मं श्रावे। वहां उन्हें राजा ने मण्डलाचार्य का विरुद (पद) प्रदान किया और उनका सत्कार किया। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है । (देखो वेरावल का शिलालेख' जैन लेख सं० भा० ४ पृ० २२० ) महाबल कवि महाबल कवि भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण था । इसके पिता का नाम रायिदेव और माता का नाम राजिवक्का था। गुरुका नाम माधवचन्द्र था जो विद्य की उपाधि से उपलक्षित थे। क्योंकि नेमिनाथ पुराण के अश्वास के अन्त में 'माधवचन्द्र वैदिद्य चक्रवर्ती श्रीपादपद्मप्रसादशादित सकलकलाकलाप" इत्यादि वाक्य लिख कर अपना नाम लिखा है । सहजकविमलगेह (१) माणिक्यदीप और विश्वविद्याविरंचि, कवि इन तीन नामों से प्रसिद्ध था । इसकी एकमात्र कृति नेमिनाथ पुराण उपलब्ध है। जिसमें २२ ग्राश्वास हैं। उसमें प्रधानता से हरिवंश और कुरुवंश का वर्णन है। यह कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में नेमिनाथ तीर्थकर, सिद्ध, सरस्वती आदि की स्तुति करके भूतबलि से लेकर पुष्पसेन पर्यन्त प्राचार्यों का स्तवन किया गया है। इसके पश्चात् अपने आश्रयदाता के नायक और अपना परिचय देकर कविने ग्रन्थ प्रारम्भ किया है। केतनायक परमवीर और स्वयं कवि था । उसी के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है। ग्रंथ की रचना सुन्दर श्रीर प्रौढ है । कवि ने इसे शक संवत् ११७६ (ई० सन् १२५४ ) में समाप्त किया है । लघु समन्तभद्र लघु समन्तभद्र - इनकी गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई परिचय नहीं मिलता। इन्होंने प्राचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्त्री पर 'विषम पदतात्पयंवृत्ति' नामक टिप्पण लिखा है, जो भ्रष्टसहस्रों के विषम पदों का अर्थ व्यक्त करता है । इनका समय विक्रमको १३वीं शताब्दी बतलाया जाता है। इनके टिप्पण की प्राचीन प्रति पाटन के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है । अन्तिम - देवं स्वामिममलं विद्यानंद प्रणम्य निजभक्त्या । विवृणोभ्यष्टसहस्रो विषमपदं घुसमन्तभद्रोऽहम् ॥ free कृत दुर्दष्टि सहस्र दृष्टी कृत परदृष्टि सहस्रो । स्पष्टी कुरुतादिष्टसहस्री मरमाविष्टपमष्ट सहस्रो ? सं० १५७१ वर्ष पूर्ण ग्रन्थ मुख्तारसा० कं नोट से कुलचन्द्र उपाध्याय - सं० १२२७ वैशाख वदि ७ शुक्रवार के दिन वर्द्धमानपुर के शांतिनाथ चैत्य में सा भलन सा० गोशल ठा० ब्रह्मदेव ठा० कणदेवादि ने कुटुम्ब सहित अम्बिकादेवी की मूर्ति बनवाई और उसकी प्रतिष्ठा कुलचन्द्र उपाध्याय ने की। इससे कुलचन्द्र का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि सकलचन्द भट्टारक मलमंघ काण रगण तित्रिणी गरट के विद्वान थे। महादेव दण्डनायक के गुरु थे । मुनिनन्द्र के कि कलभषणप्रति विच विद्याभर के शिष्य थे। शक वर्ष १११६ (वि.सं १२१४ में महादेव दण्ड जिनालय बनवा कर उससान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठाकर सकलचन्द्र भट्टारक के पाद प्रक्षालन पूर्वक हितगण तालाब के नीचे दण्ड से नापकर ३ मत्तल चावल की भुमि, दो कोल और एक दुकान का दान किया। अत: इनका समय वि० की १३वीं शताब्दी है। ___-जनलख सं. भा० : T०२४९ कलकोति यह माघर गंघ के प्राचार्य थे। नंबन १७३ फाल्गण मुदी १० मी को इनके भक्त श्रेष्ठी मनोरथ के पुत्र कुलचन्द्र ने मति की प्रतिष्ठा की। (संवत् १९३२ फाल्गुन मुदि १० माथुर संघे पडिताचार्य श्री सकलकीर्ति भक्त श्रेप्ट मनोरथ सुत कुलनन्द लक्ष्मी पति श्रेयमेकाग्नेियं ।। इसी संवत् में एक दरी मान को भी प्रतिष्ठा उनके भक्त साह हेन्याक के प्रथम पुत्र वोहण न कल्याणार्थ की थी। (सं० १२३२ फाल्गुन सुदि १० मायन्य पंमिनाचार्य श्री सकलकोति भक्तिन साह हेत्याकन प्रथम पत्र वील्हण सतेन श्रेयने करणये । (कारियों -- देख, माराट का इतिहास मल्विगुंद मादिराज इसका जन्म साकल्य कुल में हुया था। इसका पिता का नाम नाम और माता का नाम महादेवी था। नरिवगंद ग्राम में इसका जन्म हुआ था। गुण वर्म का पुष्पदन पुराण ई. सन् १९.६ के लगभग बना है। उसकी एक प्रति के अन्त में दो पद्य दिए है। पद्यों को रचना देखने से ज्ञात होता है कि यह एक अच्छा कवि था। पुष्पदन्त पुराण की प्रतिलिपि करने के कारण यह उससे कुछ समय बाद सन् १३०० के लगभग हुया होगा। इसकी अन्य काई रचना प्राप्त नहीं हुई। शुभचन्द योगी इनके संघ गण गच्छादि का कोई परिचय' उपलब्ध नहीं है । संभवतः यह मूलसंघ के विद्वान थे, तपश्चरण द्वारा आत्म-शोधन में तत्पर थे। गारिमल्लाण- रागादिया को-जीतने के लिये मल्ल थे कपाय और इन्द्रिय जय द्वारा योग की साधना में उन्होंने चार चांद लगा दियं ये 1 उम समय वे अत्यन्त प्रसिद्ध थे। जाहिणी माथिका ने. तपस्या द्वारा शरीर की क्षीणता के साथ कपायों को कृशकिया था। उसने अपने ज्ञानाबरणो कर्मके यार्थ भनन्द्र के ज्ञानार्णव की प्रति लिखवा कर संवत् १२८४ में उन प्रसिद्ध शुभचन्द्र योगा को प्रदान की थी। इससे इन शुभचन्द्र का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है । -देखो ज्ञानार्णव की पाटन प्रनि की लिपि प्रशस्ति । ___मल्लिषेण पंडित-- यह बिल संघ स्थिन नन्दिसंघ अरुनालान्दय के विद्वान श्रीपाल विद्य देव के प्रशिष्य और वासुपूज्य देव के शिष्य महल परित को यक वर्ष १०८० (वि० सं० १२३५) में पारिसण्ण की मृत्यु के बाद उसके पूष शान्तियण दण्डनायक न एक बसदि बनवाई और उसके लिये भूमिदान और दीपक के लिये तेल की चक्की दान में दो। तथा मल्ल गोण्ड और ममस्त प्रजा ने गांव के घाट की मामदनी, तया धान से चावल निकालते समय अनाज का हिस्सा भी उन मल्लिपंण पण्डिन को दिया। मल्लिषण पंडित का समय विक्रम को १३वीं शताब्दी है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैन धर्म का प्राचीन इनिाहस-भाग २ बालचन्द मलधारि मल संघ, देशीय गण कोण्ड कन्दान्वय पुस्तकगच्छ इंगलेश्वर बलिक त्रिभूवन कीति रावल के प्रधान शिष्य थे। इनके प्रिय गृहस्थशिष्य संगायके पुत्र वोम्मिसेट्टि तथा मेलब्बे से उत्पन्न मल्लि सेट्टि ने तेलंगेरे बसदि के प्रसन्न पाश्वदेव के लिये तम्मडियहल्लि में सुपारी के २००० पेड़ों के दो हिस्से बंशानु वंशतक जाने के लिये अलग निकाल गि। और डोपाकमोगाने मान देश पिल्ले को अर्पित कर दिये । चेल्लपिल्लेनेजो सबनगिरि मौर बालेन्दु-मल धारि देव का शिष्य था। अमरापुर के इस लेखका समय शक १२०० (सन् १२७८ ई. है। अतएव वालचन्द्र मलधारि का समय ईसा की १३वीं शताब्दी है। वादिराज (द्वितीय) यह वादिराज की शिष्य परम्परा के विद्वान थे। ४६५ नं के शिलालेख में, जो सवसं. ११२२ (वि. सं० १२५७ के लगभग का उत्कीर्ण किया हुआ है, लिखा है कि षट् दर्शन के प्रोता थीपाल देबके स्वर्गवास हो जाने पर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने 'परवादिमल्ल-जिनालय' नाम का मन्दिर बनवाया था। और उसकी पूजन तथा मुनियों के प्राहार दान के लिकुछ भूमि का दान दिया। प्रस्तुत वादिराज गम नरेश राचमल्ल चतुथं या सत्य बाक्य के गुरु थे। इनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है। (जैनलेख स. भा०१ पृ. ४०८) त्रिविक्रमदेव (प्राकृत शब्दानुशासन के कर्ता) यह ग्रहनन्दि विद्य मुनि के शिष्य थे। त्रिविक्रम का कुल वाणस था। आदित्यवर्माके पौत्र और मल्लिनाथ के पुत्र थे। इनके भाई का नाम भाम (देव) था जो वृत्त और विद्या का धाम (स्थान) था । यह दक्षिण देश के निवासी थे। इनकी एक मात्र कृति 'प्राकृत शब्दानुशासन' है । जो तीन अध्यायों में विभक्त है मौर स्वोपन वृत्ति से युक्त है। प्रत्येक अध्याय के चार-चार पाद हैं। इसमें हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में दिये हुए अपभ्रंश पद्यों को उद्धत किया है, और उनके पद्यों को उद्धृत कर उनका खण्डन भी किया है । इससे यह निश्चित है कि प्रस्तुत व्याकरण का रचना काल हेमचन्द्र के बाद, विक्रम की १३वीं शदी है, डा० ए० एन० उपाध्ये ने इनका समय १२३६ ई. बतलाया है। व्याकरण बहुत अच्छा है, इसका अध्ययन करने से प्राकृत भाषा का अच्छा परिज्ञान हो जाता है । डाक पी० एल० वैद्य ने इसका सम्पादन किया है, और यह ग्रंथ जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर से सन् १९५४ में प्रकाशित हो चुका है। मारक प्रमाचन्द यह मूलसंघ के भट्टारक रत्न कीति के पट्टधर थे। रत्नकीति और प्रभाचन्द्र नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक हो गए हैं। उनमें यह भट्टरक प्रभाचन्द्र उन रत्नकोति के पद्धर थे जो भ० धर्मचन्द्र के प्रपट्ट पर अजमेर में प्रतिष्ठित हुए थे, जिन का समय पट्टावली में सं० १२९६ से १३१० बतलाया गया है। पट्टे श्री रत्नकीर्तरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्रव्याख्या विख्यातकीति गुणगणनिधिपः सत्क्रियाचारुबंधुः । १. श्रुतमतुं रहनन्दि विद्यमुनेः पदाम्बुज प्रमरः । श्रीधारणसकुल कमला मरोरादित्यवर्मणः पौत्रः ।। श्रीमल्लिनाथ पुत्रो लक्ष्मीगर्भामृताम्बुधिसुधांशुः । भामस्य इत्त विद्याधाम्नो भ्राता त्रिविक्रमः सुकविः ।।३ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि श्रीमानानन्दषामा प्रतिबुधनुतमामामसंदाविवावो । जीयादा चन्द्रतारं मरपतिविदितः श्रीप्रभाव देवः ॥ पट्टी के इस पथ से प्रकट है कि भट्टारक प्रभाचन्द्र रत्नकीर्ति भट्टारक के पट्ट पर प्रतिष्ठित थे । हुए रनकीर्ति बजमेर पट्ट के भट्टारक थे। दूसरी पदावली में दिल्ली पट्ट पर भ० प्रभाचन्द्र के प्रतिष्ठित होने का समय सं० १३१० बतलाया है। और पट्टकाल सं० १३१० से १३८५ तक दिया है, जो ७५ वर्ष के लगभग बैठता है। दूसरी पट्टावली में सं० १३१० पौष सुदी १५ प्रभाचन्द्र जी गृहस्थ वर्ष १२ दीक्षा वर्ष १२ पट्ट वर्ष ७४ मास ११ दिवस १५ अन्तर दिवस ८ सर्व वर्ष ६८ मास ११ दिवस २३ । (भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ६१ ) । ४३३ भट्टारक प्रभावन्द्र जब भ० रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए उस समय दिल्ली में किसका राज्य था, इसका उक्त पट्टालियों में कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य धनपाल के तथा दूसरे शिष्य ब्रह्म नाथूराम के सं० १४५४ र १४१६ के उस्सों में होता है ने मुहम्मद बिन तुगलक के मन को मनुरंजित किया था और वादी जनों को बाद में परास्त किया था जैसा कि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है :तहि भव्य हि सुमहोच्छव विहियउ सिरिरय किलि पट्टेणिहियउ । महमंद साहिम रंजियज विज्जहिवाहयमनुभंजियज ॥ - बाहुबलि चरित प्रशस्ति उस समय दिल्ली के भव्यों ने एक उत्सव किया था और भ० रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रभाचन्द्र को प्रतिष्ठित किया था। मुहम्मद बिन तुगलक ने सन् १३२५ (वि० सं० १३०२ ) से सन् १३५१ (वि० सं० १४०८) तक राज्य किया है । यह बादशाह बहुभाषा-विज्ञ, न्यायी, विद्वानों का समादर करने वाला और अत्यन्त कठोर शासक था । श्रतः प्रभाचन्द्र इसके राज्य में सं० १३८५ के लगभग पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए हों । इस कथन से पट्टावलियों का यह समय कुछ अनुमानिक सा जान पड़ता है। वह इतिहास की कसौटी पर ठीक नहीं बैठता। अन्य किसी प्रमाण से भी उसकी पुष्टि नहीं होती । प्रभाचन्द्र प्रपने अनेक शिष्यों के साथ पट्टण, खंभात, धारानगर और देवगिरि होते हुए जोइणिपुर (दिल्ली ) पधारे थे। जैसा कि उनके शिष्य धनपाल के निम्न उल्लेख से स्पष्ट है : पट्टणे संभायच्चे धारणयरि देवगिरि । मिच्छाम विहणंतु गणिपत्तउ जोयणपुरि ॥ आराधना पंजिका के सं० १४१६ के उल्लेख से स्पष्ट है कि वे भ० - बाहुबलि चरिउ प्र० रत्नकीति के पट्ट को सजीव बना रहे थे। इतना ही नहीं, किन्तु जहां वे अच्छे विद्वान, टीकाकार, व्याख्याता और मंत्र-तंत्र-यादी थे, वहां वे प्रभावक व्यक्तित्व के धारक भी थे। उनके अनेक शिष्य थे। उन्होंने फौरोजशाह तुगलक के अनुरोध पर रक्ताम्बर वस्त्र धारण कर मन्तःपुर में दर्शन दिये थे। उस समय दिल्ली के लोगों ने यह प्रतिज्ञा की थी कि हम भ्रापको सवस्त्र जती मानेंगे। इस घटना का उल्लेख बखतावर शाह ने अपने बुद्धिविलास के निम्न पद्य में किया है : दिल्ली के पातिसाहि भये पैरोजसाहि जब, चांदी साह प्रधान भट्टारक प्रभाचन्द्र तब, आये दिल्ली मांझि वाद जीते विद्याबर, साहि रीभि के नही करें दरसन अंतहपुर, १. जैन सि० मा, मा० १ किरण ४ । २. सं० १४१६ चैत्र सुदि पंचम्यां सोमवासरे सकलराजशिरोमुकुटमणिषयमरीचि पिंजरीकृत मरणकमलपादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकल साम्राज्यधुरीविश्राणस्य समये श्री दिल्या श्रीकुंदकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छे बल हारग म० श्रीरत्नकीर्तिदेवपट्टोदयाद्रि तरुणतरणित्वमुर्वीकुर्मारणं भट्टारक श्री प्रभाषन्द्रदेव तरिष्याणां ब्रह्म नाथूराम इत्याराधना पंजिकायां ग्रन्थ बारम पठनार्थं लिखापितम् । जैन साहित्य और इतिहास पृ० ८१ दूसरी प्रशस्ति सं० १४१६ भादवा सुदी १३ गुरुवार के दिन की लिखी हुई द्रव्यसंग्रह की है जो जयपुर के ठोलियो के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। ग्रंथ सूची भा० २ ० १५० । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ तिह सम लंगोट लिवाय पनि चांद विनती उच्चरी। मानि हैं जती जुत वस्त्र हम सब धावक सौगंद करी ॥६१६ यह घटना फीरोजशाह के राज्यकाल की है, फीरोजशाह का राज्य सं० १४०८ से १४४५ तक रहा है। इस घटना को विद्वज्जन बोधक में सं० १३०५ की बतलाई है जो एक स्थूल भुल का परिणाम जान पड़ता है क्योंकि उस समय तो फीरोजशाह तुगलक का राज्य ही नहीं था फिर उसको संगति कैसे बैठ सकता है। कहा जाता है कि भ० प्रभाचन्द्र ने वस्त्र धारण करके बाद में प्रायश्चित लेकर उनका परित्याग कर दिया था, किन्तु फिर भी वस्त्र धारण करने की परम्परा चाल हो गई। इसी तरह अनेक घटना क्रमों में समयादि को गड़बड़ी तथा उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर लिखने का रिवाज भी हो गया था। दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी के समय राघो चेतन के समय घटने वाली घटना को ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किये बिना ही उसे फीरोजशाह तुगलक के समय की घटित बतला दिया गया है । (देखो बुद्धिविलास पृ०७६ और महावीर जयन्ती स्मारिका अप्रैल १९६२ का ग्रंक प० १२८)। राघव चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अलाउद्दीन खिलजी के समय हुए हैं। यह व्यास जाति के विद्वान मंत्र, तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्म पर इनयो कोई प्रास्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि माहवसेन से हुआ था, उसमें यह पराजित हुए थे। ऐसी ही घटना जिनप्रभसूरि नामक श्वे० विद्वान के सम्बन्ध में कही जाती है-एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक की सेवा में काशी से चतुर्दशविद्या निपुण मंत्र तंत्रज्ञ राधवचेतन नामक विद्वान पाया। उसने अपनी चातुरी से सम्राट को रंजित कर लिया। सम्राट पर जैनाचार्य श्री जिनप्रभसूरि का प्रभाव उसे बहुत प्रखरता था। मत: उन्हें दोषी ठहरा कर उनका प्रभाव कम करने के लिए सम्राट को मुद्रिका का अपहरण कर सूरिजी के रजोहरण में प्रच्छन्न रूप से डाल दी। (देखो जिनप्रभसूरि चरित प०१२) । जब कि वह घटना अलाउद्दीन खिलजी के समय की होनी चाहिए। इसी तरह कुछ मिलती-जुलती घटना भ० प्रभाचन्द्र के साथ भी जोड़ दी गई है। विद्वानों को इन घटनाचक्रों पर खूब सावधानी से विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिए। टोका-ग्रन्थ पटावली के उक्त पद्य पर से जिसमें यह लिखा गया है कि पूज्यपाद के शास्त्रों को व्याख्या से उन्हें लोक में अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपाद के समाधि तंत्र पर तो पं० प्रभाचन्द्र की दीका उपलब्ध है। दीका केवल शब्दार्थ मात्र को व्यक्त करती है उसमें कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलनी जिसमे उनकी प्रमिद्धि को बल मिल सके । हो सकता है कि वह टीका इन्हीं प्रभाचन्द्र की हो, प्रात्मानुशासन की टीका भी इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति जान पड़ती है, उसमें भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नहीं होती। रही रत्नकाण्ड श्रावकाचार की टीका की बात, सो उस टीका का उल्लेख ५० प्राशाधरजी ने अनगार धर्मामत की टीका में किया है। "यथाहस्तत्र:-भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुपादारत्नकरण्टीकायां चतुरावर्त त्रितय इत्यादि सूत्र द्विनिषद्याइत्यस्यव्याख्यानेदेववन्दनां कुर्वताहि प्रारम्भे समाप्तौचोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति।" इम टीकानों पर विचार करने से यह बात तो सहज ही ज्ञात होती है कि इन टीकात्रों का प्रादि-अन्त मंगल और टीका की प्रारंभिकसरणी में बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। इससे इन टीकामों का कर्ता कोई एक ही प्रभाचन्द्र होना चाहिये । हो सकता है कि टीकाकार की पहलो कृति रत्नकरण्डकटीका हो हो। और मेष, टीकाएं बाद में बनी हों। पर इन टीकात्रों का कर्ता प्रभाचन्द्र ५० प्रभाचन्द्र हो है, प्रमेयकमलमातण्ड के कर्ता प्रभाचन्द्र इनके कर्ता नहीं हो सकते। क्योंकि इन टीकामों में विषय का चधन और भाषा का वैसा सामजस्य अथवा उसकी वह प्रौढ़ता नहीं दिखाई देती, जो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में दिखाई देती है। यह प्रायः सुनि Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य और कवि श्चित-सा है कि वे घारावासी प्रभाचन्द्राचार्य जो माणिक्यनन्दि के शिष्य थे उक्त टीकामा का नहीं हो सकते। समय-विचार प्रभाचन्द्र का पट्टावलियों में जो समय दिया गया है, वह अवश्य विनारणोय है । उममें रत्नकोनि के पट्ट पर बैठने का समय सं० १३१० तो चिन्तनीय है ही। सं० १४८१ के देवगढ़वाले शुभचन्द्रवाले शिलालेख नभो रत्न. कीर्ति के पट्ट पर बैठने का उल्लेख है, पर उसके सही समय का उल्लेख नहीं है । प्रभाचन्द्र के गुर रत्नकीत्ति का पट्टकाल पट्टावली में १२६६-१३१० बतलाया है। यह भी ठीक नहीं जंचता, संभव है व १४ वर्ष पटटकाल में रहे हों। किन्तु बे अजमेर पट्ट पर स्थित हुए और वहीं उनका स्वर्गवास हमा। ऐसी स्थिति में समय सीमा को कुछ बढ़ा कर विचार करना चाहिए, यदि वह प्रमाणों आदि के आधार से मान्य किया जाय तो उसमें १०-२१ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, जिससे समय की संगति ठीक बैठ सके । आगे पीछे का सभी समय यदि पूरकल प्रमा. णोंकी रोशनी में चचित होगा, तो वह प्रायः प्रामाणिक होगा। आशा है विद्वान् लोग भट्टारकीय पट्टावलियों में दिये हुए समय पर विचार करेंगे । भट्टारक इन्द्रनन्दी (योगशास्त्र के टीकाकार) यह काष्ठासंघान्तर्गत माथरसंघ के विद्वान अमरकीति के शिष्य थे। जिन्हें इन्द्रनन्दिन चतुर्थागमोदी मुमुक्षनाथ ईशिन्, अनेक वादिब्रज सेवितचरण और लोक में परिलब्धपूजन जैसे विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। यथा-लसच्चतुर्भागम बेदिन पर ममक्षनाथा ऽमरकोतिमोशिनम । अनेकवानिवजसे वितक्रम, विनम्यलोके परिलब्धपूजनम् ।।२।। जिना (निजा) त्मनो ज्ञान विवे प्रशिष्टा वितद्विशिष्टस्य सुयोगिनां । योगप्रकाशस्य करोमि टीका सूरीन्द्रनन्दीहितनन्विनवे ॥३ यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। इन इन्द्रनन्दि की एक मात्र कृति श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र को टीका है। जिसका नामकर्ता ने योगीरमा, सूचित किया है। जैसा कि टीका के योगिरमेन्द्र मनियः वाक्य से जाना जाता है। इस टीका को एक प्रति स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार को करंजाभंडार से माणिक चन्द्र जी चवरे द्वारा प्राप्त हई थी। और जिसे भद्रारक इन्द्रनन्दि ने जैनागम, शब्दशास्त्र भरत (नाटय) और छन्द शास्त्रादि की विज्ञा चन्द्रमता नाम की चारु विनया (विनयशील) शिष्य के बोध के लिये बनाई थी। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पय वाक्यों से स्पष्ट है "श्री जैनागमशब्दशास्त्र-भरत-छन्दोभिमत्यादिक वेत्री चन्द्रमतीति चारविनया तस्या विबोध्य शुभा ।।" टोका रन्दर और विषय को प्रतिपादक है। इस टीका का विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ पृ०१०७ में देखना चाहिये । इस टीका का तुलनात्मक अध्ययन करने से योगशास्त्र की मूल स्थिति पर अच्छा प्रकारा पड़ेगा । टीका में रचना समय दिया है। जिससे इन्द्रनन्दी का समय वि० सं० १३१५ निश्चित है। हमचन्द्र के ८६ वर्ष बाद टीका बनी है। हेमचन्द्र का स्वर्गवास सं० १२२६ में हुआ है। प्रस्तुत टीका ११व ईश्वर सम्बत्सर १९८२ (वि० सं०१३१५) में चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन बनाकर समाप्त की गई है। खाष्टेशे शरदीतिमासिच शुचौ शुक्ल द्वितीया तिथी, टीका योगिरमेन्द्रनन्दिमुनियः श्रीयोगसारीकृता - - -. ... ........ १. इति योगशास्त्रे म्या पंचमप्रकाशाय श्रीमदमरकीति भट्टारकारणां शिष्य थीभट्टारक इन्द्रन्दि विचिनाया गोगवान्य टोकायां द्वितीयोपकारः ।" कारंजा भण्डार प्रति, अनेकान्त वर्ग २० किरण ३००७ - - -- -- -- ....... .-- Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ कितनी जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ श्री जैनागम शब्दशास्त्र भरत छन्दोमिमुख्यादिकवेत्री चन्द्रमतीति चादविनया तस्या विबोध्ये शुभा ॥ श्वेताम्बरीय योगशास्त्र पर दिगम्बरीय विद्वान द्वारा लिखी गई यह टीका अवश्य प्रकाशनीय है। उससे बातों पर नया प्रकाश पड़ेगा' । बालचन्द कवि यह मूलसंघ देशिय गण इंगलेश्वर शाखा के विद्वान नेमिचन्द्र पण्डितदेव के शिष्य थे। इनकी एक मात्र कृति 'उद्योगसार' है, जो कनड़ीभाषा में रचा गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपना नाम व्यक्त नहीं किया। किन्तु निम्न पद्य में अपने को नेमिचन्द्र का शिष्य सूचित किया है: तनिधि विमलक्ष्याम्बुधिवितत यशोधामनेमिचन्द्र मुनीन्द्रः । श्रुतलक्ष्मी द्वितयक्कं सुतनोनिसि सुतत्ववशियेति सुबुधरिये ॥ श्रवणबेलगोल के शक सं० १२०५ सन् १२५३ ई० के लेख में महामण्डलाचार्य श्री मूलसंघीय इंगलेश्वर देशीयगणाग्रगण्य राजगुरु नेमिचन्द पण्डित देव का वर्णन कर उनके शिष्य बालचन्द का उल्लेख किया है। इससे यह ईसा की १३वीं शताब्दी के अन्तिम चरण और वि० को १४वीं शताब्दी के कवि हैं । देवसेन ( भावसंग्रह के कर्ता) देवसेन हैं जो विमलसेन के शिष्य शताब्दी है। किन्तु भावसंग्रह के से के शिष्य नहीं थे, इससे भी १०वीं देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें भावसंग्रह के कर्ता वे थे । दर्शनसार के कर्ता देवसेन इन से भिन्न हैं। उनका समय विक्रम की कर्ता देवसेन सोमदेव और राजशेखर के विद्वान् से दोनों की पृथकता स्पष्ट है। भावसंग्रह के कर्ता उनसे पश्चाद्वर्ती विद्वान् हैं। भावसंग्रह में ७०१ गाथाएं हैं जिनमें चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया गया है। प्रथम गुणस्थान के वर्णन में मिथ्यात्व के पांच भेदों का उल्लेख करते हुए ब्रह्मवादियों को विपरीत मिथ्यादृष्टि बतलाया है और लिखा है कि वे जल से शुद्ध मानते हैं, मांससे पितरों की तृप्ति, पशुघात से स्वर्ग और गौ के स्पर्श से धर्म मानते हैं। इसका विवेचन करते हुए स्नानदूषण और मांस दूषण का कथन किया है और उनकी श्रालोचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ मूलसघ की श्राम्नाय का प्रतीत नहा होता, क्योंकि उसमें कितना कथन उस श्राम्नाय के विरुद्ध और असम्बद्ध पाया जाता है । पंचम गुणस्थान का वर्णन लगभग २५० गाथाओं में किया गया है। किन्तु उसमें श्रावक के १२ व्रतों के नाम और मष्टमूलगुणों के नाम तो गिना दिये किन्तु उनके स्वरूपादि का कथन नहीं किया और न सप्त व्यसन और ११ प्रतिमाओं का स्वरूप ही दिया। हां दान पूजादि विषय का कथन विस्तार से दिया है। इस गुणस्थान के वर्णन में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के भेद तो कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार बतलाए हैं किंतु सामायिक के स्थान में त्रिकाल सेवा को स्थान दिया गया है । भावसंग्रह में त्रिवर्णाचार के समान ही आचमन, सकलीकरण, यज्ञोपवीत और पंचामृत अभिषेक का विधान पाया जाता है। इतना ही नहीं किंतु इन्द्र, अग्नि, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष, सोम, दश दिक्पालों की उपासना, भगवान का उवटना करना, शास्त्र तथा युवति वाहन सहित श्राह्नान करके बलि चरु आदि पूज्य १. टीका के विशेष परिचय के लिये देखें, प्रनेकान्त वर्ष २० कि० ३ में मुरस्तार श्री जुगलकिशोर का लेख पृ० १०७ २. जैन लेख सं० भा० १५० १५१-२ ३. सोमसेन कृत त्रिवर्णाचार में भी दश दिक्पालों का, आयुध, वाहन, शस्त्र और युवति सहित पूजने का विधान है—ओं इंद्राग्नि यम नेऋत्य वरुण पचन कुवेरेशान १२ सोम्यः सर्वत्यायुध वाहन युवति सहिता मायात आायात इद म Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी विद्वान्, मानाय और कवि द्रव्य तथा यज्ञ के भाग को बीजाक्षर नाम युक्त मंत्रों से देने का विधान किया गया है। जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओं से प्रकट है: प्राहाहिऊण देवे सुरवइ-सिहि-कालणेरिएवरुणे । पथरणे जरवे स सूली सपिय स वाहणे स सत्येय ।।४३६ दाऊण पुज्ज वठवं बलि चरुयं तय गण्ण भायंच । सम्वेसि मंतेहि य बीयक्खरणामजुतेहिं ॥४४० पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धांत शास्त्री ने सोमदेव के उपासकाध्ययन और भावसंग्रह का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि भावसंग्रह कार ने सोमदेव के उपासकाध्ययन से बहुत कुछ लिया है। उपासका ध्ययन का रचनाकाल वि० सं० १०१६ है । प्रतः भावसंग्रह उस के बाद को रचना है। भावसंग्रह के कर्ता ने कौलधर्म का कथन कपूर मंजरी से लिया जान पड़ता है। दोनों कथनों में और शब्दों में समानता दुष्टिगोचर होती है। भावसंग्रह का शिथलाचार विषयक वर्णन उसको अर्वाचीनता का द्योतक हैं। स्व. पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ने भी भावसंग्रह के सम्बंध में एक विस्तत लेख 'महावीर जयन्ती' स्मारिका में प्रकट किया था। उसमें भावसंग्रह के कर्ता को दर्शनसार के कर्ता से भिन्न मानते हए अम्नाय विरुद्ध कथन करने का भी उल्लेख किया है। गाथा १३वीं में पुरातन साधुओं की कम निर्जरा से हीन संहननधारी साधु मों को निर्जरा को महत्वपूर्ण बतलाया है। वरिस सहस्सेण पुरा जंकम्महणइ तेण पुष्णण । तं संपइ वरिसेणटु णिज्जरया हीण संहणणों ॥१३१ भावसंग्रह कार ने प्राकृत और अपभ्रंश के पद्यों को एक साथ रक्खा है। पण्डित वामदेव ने भावसंग्रह का संस्कृतिकरण किया है। वामदेव का समय विक्रम को १४वीं शताब्दी है। पण्डित पाशाधर जी के सामने भावसंग्रह नहीं था। यदि होता तो वे उसके सम्बंध में अवश्य कुछ लिखते । संभव है देवसेन ने वि० की १३वीं शताब्दी के उपान्त्य समय में इसका संकलन किया हो। ग्रन्थ में कुछ गाथाएं पुरानी भी संग्रहीत है, कुछ ११वीं शताब्दी की भी हैं । यह मौलिक ग्रंथ नहीं जान पड़ता । कथन क्रम की असम्बद्धता भी इसकी अर्वाचीनता की सूचक है। इस ग्रन्थ के सम्बंध में अन्वेषण होना चाहिए, जिससे ग्रन्थ सम्बद्ध और वस्तु स्वरूप का प्रामाणिक विवेचक हो सके। श्रु तमुनि मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तक गच्छ की इंगलेश्वर शाखा में हुए हैं। इन के अणुव्रत गुरु बालेन्दु (बालचन्द्र) ग्रौर मुनिधर्म में दीक्षित करने वाले महाव्रत गुरु अभयचन्द्र सिद्धांती थे। इनमें बालचन्द्र मुनि भी अभय चन्द्र सिद्धांती के शिष्य थे, और इससे वे श्रुतमुनि के ज्येष्ठ गुरुभाई भी हए । शास्त्र गरुओं में भी प्रभयसूरि सिद्धांती थे, जो शब्दागम, परमागम और तर्कागम के पूर्ण जानकार थे। और उन्होंने सभी परवादियों को जीता था । और प्रभाचन्द्र मुनि सारत्रय में--प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकायसार-में निपुण थे। परभाव से रहित हुए शुद्धत्मस्वरूप में लीन थे 1 और भव्य जनों को प्रतिबोध देने में सदा तत्पर थे। श्रुतमुनि ने प्रशस्ति में इन सभी गुरुपों का जयघोष किया है । और चारुकीर्ति मुनि का भी जयघोष किया है जो श्रवणबेलगोला की भट्टारकीय गद्दी के पट्टघर थे। और जिनका नाम चारुकीति रूढ़ था। उन्हें कवि ने नयनिक्षेपों तथा प्रमाणों के जानकार, सब धर्मों के विजेता, १. देखो वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ प० २०७ में कोलधर्म परिचय नाम का लेख Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नपगण से वन्दितचरण, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता, और जिनम गं पर चलने वाल प्रकट किया है।' रचनाकाल __ श्रुतमुनि की तीन रचनाएँ है-भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) प्रास्रवत्रिभंगी और परमागमसार। इनमें प्रथम की दो रचनाओं में रचना समय नहीं दिया । अन्तिम रचना परगमसार में उसका रचना काल शक संवत् १२६२ (वि० स० १३६७) वृषसंवत्सर मगशिर सुदी सप्तमी गुरुवार दिया है। जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रकट है: सगकाले ह सहसरसे बिसय-तिसठी १२६३ गदेद विसबरिसे। मग्गसिरसुद्धसत्तमि गुरुवारे ग्रन्थसंपुषणो ।।२२४।। इससे शुनमुनि का समय सन् १३४१ (वि० सं० १३६२) है । अर्थात् यह १४वीं शताब्दी के विद्वान् हैं। रचना-परिचय भावविभंगी- इसका नाम भावसंग्रह भी है, जो अनेक ताडपत्रीय प्रतियों में पाया जाता है जैसा कि 'मुलु त्तरभावसरूवं पदक्वामि' वाक्यों से प्रकट है। ग्रन्थ की गाथा संख्या प्रशस्ति सहित १२ है। इस ग्रन्थ में भावों के तीन भंग करके कथन करने से इसका नाम 'भावत्रिभंगी' रूढ़ हो गया है। इसमें जीवा के प्रोपरामिक प्रादिक क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ऐसे पांच मूलभावों और इनके क्रमशः २,६,१८,२१ प्रौर ३ग ५३ उत्तरभावों का कथन दिया गया है। जो चौदह गुणस्थानों, १४ मार्गणास्थानों की दृष्टि को लिये हा है। ग्रन्थ अपने विषय का महत्वपूर्ण है। ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नहीं है। प्रास्त्रवत्रिभंगी- इस ग्रन्थ को गाथा संख्या ६२ है। इस में मिथ्यात्व, अविरत, पाय, योग इन मल प्रामवों के क्रमशः ५.१२,२५,१५ ऐरो ५७ भेदों का गुणस्थान और मागास्थान की दृष्टि से कथन किया है। इसमें गोम्मटसार की अनेक गाथानों को मूल का अंग बनाया गया है। अन्तिम गाथा में 'बालेन्दु' बालचन्द्र का जय गान किया है, जो श्रुतमुनि के अणुव्रत मुरु थे । इस ग्रन्थ में भा रचना काल नहीं दिया। परमागमसार-इसको गाथा संख्या २३० है, और पाठ अधिकारों में विभका है। पंचास्तिकाय, पदव्य ---.. -. . १. अगुवद-गुरु-बालेन्दु महत्वद अभयचन्द्र सिद्धति । सत्ये भयमूरि-हाचंदा खलु सुय मुरिणस्स गुरू ॥११७ सिरि मूलसंघ देसिय (गण) पुत्थप गच्छ कोंडकुन्द मुरिंगणाहं । (कुंदाग) परमपण इंगलेस बलिम्मि जाद [स्स मुणि पहाणम्स ||११८ सिद्धताऽदय चंदस्रा य सिस्सो बालचदमुखि पबरो । सो भविय कुवलयाण आवंद करो सया जबऊ ॥११६ सद्दायम परमागम-तकका गम-निरवसेस वेदी हु । विजिद-सथलण्यावादी जय उ चिर अभयमूरि सिद्धति ॥१२० पप-रंगक्खेव-पमा जारिएला दिजिद-सथल-परसमयी। वर-णिव इ-णि बह-ईदिय-पय- मो वाकित्ति भुसी ॥१२१ पादि-पखिलस्य सत्यो सपलपरि देहि पूजिमो विमलो। जिण-मग-गयए-मूरो जयउ पिर चारुकिति मुणो ॥१२२ वर सारत्तय-रिगाउलो सुपर जो विरहिय-परभाओ। भविषारण पटियोहगा परी पहाचदणाण मुरगी ॥१२३ ---भावसग्रह प्रशस्ति Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ن 7 1 तेरहवीं और बौदहवीं शताब्दी के विद्वान्, आचार्य और कवि ४३६ सप्ततत्त्व, सवपदार्थ, बन्ध, और बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का क्रमशः वर्णन दिया है । ग्रन्थ हुग्रा के अन्त में उसका रचना काल शक सं० १९६३ (सन् १३४१ (वि० सं० १३६) वृपसंवत्सर मसर शुद्धि मनमो गुरुवार दिया है। इससे श्रुतमुनि १४वीं शताब्दी के विद्वान हैं । रत्नयोगोन्द्र इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया और न समय ही दिया। उनकी एक मात्र कृति 'नागकुमार चरित' है, जो पंचसर्गात्मक है। और पांच सौ श्लोक प्रमाण संख्या को लिये हुए है। जिसमें पंचमी व्रत के उपवास का माहात्म्य वर्णित है। श्री पंचम्युपवासस्य फलोदाहरणात्मकम् । एवं नाग कुमारस्य समाप्तिं चरितं ययौ । इति श्री रत्नयोगीन्द्रंणोपसंहत्य कीर्तितम् | सहस्त्रार्द्धमिति ग्रन्थये तच्चरितमुच्चकैः ॥ वरिते श्री पंचमी महोपवास फलोदाहरणं पंचमः सर्गः । इति श्री नागकुमार ग्रन्थ की यह प्रति खंभात के श्वेताम्वरीय शास्त्र भंडार में अवस्थित है । ग्रन्थ की यह प्रति १४वीं शताब्दी की लिखी हुई है अतएव रत्नयोगीन्द्र का समय विक्रम की १३वीं या १४वीं शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है । कुलभद्र कुलभद्र ने अपनी रचना में अपने नामोल्लेख के सिवाय अन्य कोई परिचय देने की कृपा नहीं की । श्रर न अपनी गुरु परम्परा तथा गणगच्छादि का ही उल्लेख किया। इससे इनका परिचय और समय निश्चित करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है । इस ग्रन्थ की लिपिवद्ध प्रतियां जयपुर और उदयपुर के शास्त्रभंडार में पाई जाती है। इस पर पण्डित दौलतराम जी कासलीवाल ने हिन्दी टिप्पण भी लिखा है। जयपुर के बीचन्द्र मन्दिर के शास्त्रभंडार में संवत् १५४५ कार्तिक सुदी चतुर्थी को लिखी हुई प्रतिलिपि पाई जाती है । इससे इतना तो सुनिश्चित है कि यह ग्रन्थ सं० १५४५ के बाद की रचना नहीं है, किन्तु उससे पूर्ववर्ती है । इनकी एकमात्र कृति 'सार समुच्चय' है, जो एक उपदेशिक ग्रन्थ है रचना साधारण होते भी उसमें सरल शब्दों में धर्म के सार को रखने का प्रयत्न किया है। ३३० संस्कृत के अनुष्टुप पद्यों द्वारा ग्रात्मा के स्वहित का उपदेश दिया गया है। उसमें बतलाया है कि जो जीव कपायों से मलिन है, जिनका मन राग में अनुरंजित है, वह चारों गतियों में दुख उठाता है, और जो विषय-कपायों से संतप्त नहीं है किन्तु उन्हें जीतने का यत्न करता है वहीं सुख का पात्र बनता है। जो परीषहों के जीतने में वीर है, और इन्द्रियों के निग्रह में सुभट है, और कषायों के जीतने में सक्षम है, वही लोक में शूर-वीर कहा जाता है । श्रथवा जो इन्द्रियों को जीतने में वीर है, कर्म बंधन में कायर है, तत्त्वार्थ में जिसका मन लगा है। और जो शरीर से भी निस्पृह है। वही परीषद् रूपी शत्रुम्रों को जीतने में समर्थ है। और वही कषायों के जीतने में भी धीर है, वही शूर वीर कहा जाता है" । रचना को देखते हुए यह अनुमान होता कि प्रस्तुत १. पंत्थि कायदा छक्क तच्चाणि सस्य पदस्था । वबन्ध तक्कारणं मोक्खो तक्कारण चेदि ॥६ बहिप अविहो जिरावयर खिरुविदो सवित्र दो । वोच्छामि समासेण म सुरय जगा दत्त चित्ता हु ||१० ( परमागमसार) २. ग्रन्थ श्वेताम्बरो Santinatha Sain bhan dar cambay में उपलब्ध है। देखो, संभात भंडार को सूची मा० २ ३. अयं तु कुलभरेण भवविच्छति कारणम् । दब्धो बालस्वभावेन ग्रंथः सार समुच्चयः || ३२५ परीष जयेशूराः सुराश्चेन्द्रियनिग्रहे । कषायविजये शूरास्ते शूरागदिता वृधः ॥ २१० ४. देखो, पच नं० २१४, २१५ । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० कृति १३वीं १४वीं शताब्दी को हो सकती है । कुलभद्र का यह ग्रन्थ धर्म और नीति का प्रधान सूक्ति काव्य है । जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ नास्ति काम समो व्याधिर्नास्ति मोह समोरिपुः । नास्ति कोष समोह्निर्नास्ति ज्ञान सम सुखम् ॥२७ विषयोरगदष्टस्य कषाय वियमोहितः । संयमी हि महामंत्रस्त्राता सर्वत्रदेहिनम् ॥३० धर्मामृतं सवा पेयं दुःखातङ्क विनाशनम् । यस्मिन्पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥६३ कवि नागराज यह कौशिक गोत्रीय सेडिम्ब (सेडम) के निवासी थे। जहां अनेक जिन मन्दिर बने हुए थे। इनके पिता का नाम विवेक विट्ठलदेव था, जो जिन शासन दीपक थे और माता का नाम भागीरथी, भाई का नाम तिप्परस था और गुरु अनन्त वीर्य मुनीन्द्र थे । ग्रन्थ की पुष्पिकाओं में उन्होंने अपने को मासिवालद नागराज कहा है । 'सरस्वती मुख-तिलक, कवि- मुख-मुकुर' उभय कविता विलास आदि उनकी उपाधियां थीं । ग्रंथ के प्रारम्भ में जिनेन्द्र, पंच पर मेष्ठी, सरस्वती आदि के स्तवन के पश्चात् उन्होंने वीरसेन, जिनसेन, सिनन्दि, गृद्ध पिच्छ, कोण्डकुन्द, गुणभद्र, पूज्यपाद, समन्तभद्र, अकलंक कुमारसेन (सेनगणाधीश) धरसेन और अनन्तवीर्य आदि पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख किया है । उन्होंने पम्प, बन्धुवर्म, पोन्न, रन्न, गजांकुश, गुणदर्म और नागचन्द्र यादि पूर्ववर्ती कन्नड़ कवियों से प्रोत्साहन प्राप्त किया था । रचना वास्तव म्पू जिसमें २२ अध्याय और ५२ कथाएं हैं। कवि ने सगर के लोगों के हितार्थ अपने गुरु अनन्तवीर्य की आज्ञा से शक संवत् १२५३ सन् १३३१ ई० में संस्कृत से कन्नड़ में रूपान्तर किया है । कवि ने सूचित किया है कि उनकी इस कृति को आर्यसेन ने सुधार कर चित्ताकर्षक बनाया । प्रभाचन्द्र यह मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ के विद्वान थे। और श्रुत मुनि के विद्यागुरु थे। जो सारत्रय में निपुण थे । इससे यह समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय के ज्ञाता जान पड़ते हैं । यह प्रभाचन्द्र विक्रमको १३वों शताब्दी के उपान्त्य बोर १४वीं शताब्दी के पूर्वाधं के विद्वान जान पड़ते हैं। क्योंकि अभयचन्द्र सैद्धान्तिक के शिष्य बालचन्द्र मुनि ने जो श्रुतमुनि के प्रणुव्रत गुरु होने से उनके प्रायः समकालीन थे । इन्होंने शक सं० ११६५ (वि० स० १३३०) में द्रव्य संग्रह पर टोका लिखी है । दिगम्बर जैन ग्रन्थ कर्ता और उनके ग्रन्थ; नाम की सूची में उनका समय वि० सं० १३१६ का उल्लेख है, जो प्रायः ठीक जान पड़ता है । मधुर कवि यह वाजिवंश के भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न हुआ था । इनके पिता का नाम विष्णु और माता का नाम नागाम्बिकाया । बुक्कराय के पुत्र हरिहर (द्वितीय १३७७- १४०४ ई० ) का मन्त्री इसका पोषक था। (भूनाथास्थान चूड़ामणि मधुर कवीन्द्र ) विशेषण से यह ज्ञात होता है कि यह हरिहर राय द्वितीय का प्रस्थान कवि या सभा कवि था।' इसी राजा के राज्यकाल में रत्न करण्ड कन्नड़ के कर्ता श्रायतवर्मा और परमागमसार के कर्ता चन्द्रकीति भी हुए हैं । कविविलास, कविराज कला विलास, कवि माधव मधुरमाधव, सरस कवि रसालवन्त भारती' मानस केलि राजहंस श्रादि इसको उपाधियां थीं। इसको दो कृतियाँ प्राप्त हैं । धर्मनाथ पुराण और गोम्मटाष्टक | यद्यपि धर्मनाथ पुराण पूरा नहीं मिलता । पर उपलब्ध भाग से भाषा की प्रौढ़ता और कविता हृदयहारिणी और सुन्दर है । कवि का समय ईसा की १४वीं शताब्दी है । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि पं० हरपाल पं० हरपाल ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। किन्तु अपनी कृति वैद्यशास्त्र में उसका रचना काल विक्रम संवत् १३४१) बतलाया है:-विक्कम-णरवइ-काले तेरसया गयाइं एयाले (१३४१) सिय-पासटु मि मंदे विज्जयसत्थो य पुण्णो य ॥२५७ इस वंद्यक गन्थ में २५७ गाथाएं हैं, जिनमें रोग और उनकी चिकित्सा का वर्णन है, ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा गया है। गन्थ की २५५ वीं गाथा में 'जोयसारेहि' वाक्य द्वारा अपनी योग्यसार नामकी रचना का उल्लेख किया है, जो इसके पूर्द रचा गया था ! परन्त बह अभी उपलब्ध नहीं हुमा। कवि का समय विक्रम को १४वीं शताब्दी का दूसरा चरण है। केशववर्णो यह अभयचन्द्रसरि के शिष्य थे। केशव वर्णी ने गोम्मटसार की कनही बत्ति (जीवतत्त्व प्रबोधिका) भद्रारक धर्मभूषण के आदेशानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ई.) में बनाकर समाप्त की थो। कर्नाटक कवि चरित से ज्ञात होता है कि इन्होंने अमित गति के प्रावकाचार पर भी कड़ी में वत्ति लिखी थी। देवचन्द की 'राजाबली कये से ज्ञात होता है कि केशववी ने शास्त्रय-समयसार, प्रवचनसार-पंचास्तिकाय-पर टीका लिखी है। कवि मगराज ने केशववर्णी का उल्लेख करते हुए उन्हें 'सारत्रय वेदि' विशेषण दिया है जिससे वे सारत्रय के ज्ञाता थे। इनका समय ईसा की १४वीं शताब्दी है। कविविबुध श्रीधर इन्होंने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया, जिससे गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का परिचय देना शक्य नहीं है । कवि की एक मात्रकृति "मविष्यदत्त पंचमी कथा है, जो संस्कृत पद्यों में रची गई है। ग्रन्थ में रचना काल भी नहीं दिया, जिससे यह निश्चित करना कठिन है कि प्रस्तुत श्रीधर कब हुए हैं। हो, गन्ध प्रतिपर से इतना जरूर कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ की रचना विक्रम की १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पूर्व हो चुकी थी, क्यों कि ग्रन्थ को प्रतिलिपि वि० सं०१४८६ की लिखी हुई नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है । इस अन्य की रचना लम्बकचुक कुल के प्रसिद्ध साहु लक्ष्मण को प्रेरणा से हुई थी। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्यों से प्रकट है: श्रीम दो मयूतायां ? स्थितेन नयशालिना। श्रीलम्बकंचुकाऽनूक-नभो-भूषण-भानुना ।। प्रसिद्ध माधुधामेक बनुजेनदयावता। प्रवरोपासकाचार-विचाराहित-चेतसा ।।१० गह देवाऽर्चना-दान-ध्यानाध्ययन-कर्मणा । साधुना लक्ष्मणास्येन प्रेरितोभक्तिसंयुतः ॥११ तदहं शक्तिहो वक्ष्ये चरितं दुरितापहं । श्रीमद्भविष्य दत्तस्य कमलश्री तनुभुवः ॥१२ ग्रन्थ में कमल श्री के पुत्र भविष्य दत्त का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। • ग्रन्थ का रचनाकाल सं० १४८६ से बाद का नहीं हो सकता उससे पूर्ववर्ती है संभवतः यह चौदहवीं शताब्दो की रचना होना चाहिए। -- - १. संवत् १४८६ वर्षे आधाड़ बदि ७ गुरुदिने गोपाचलदुर्ग राजागर सिंहराज्य प्रात माने श्रीकाष्ठा संवे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य सहस्त्रकीर्ति देवास्तत्प? प्राचार्य श्री गुणकीतिदेवास्तनिद्रव्य श्री यशःकोतिदेवास्तेन निशाना. वरणी कर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिमापितं । --भविष्यदत्त पंचमी कथा लिपि प्रवास्ति Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कबि बर्द्धमान मट्टारक यह मलसंघ बलात्कारगण और भारतो गच्छ के विद्वान थे। इनको उपाधि 'परवादि पंचानन थी, परांगचरित की प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है : स्वस्ति श्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञ, श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुण निधिर्वमानाभिवानः । भासीबट्टारकोऽसो सुचरितमकरोच्छीवरङ्गस्य राज्ञो, भव्यश्रेयांसि तन्वद् भुविचरितमिदं वर्ततामार्कतारम् ॥ -वरांगचरित १३-१७, वर्द्धमान नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उसमें एक वर्द्धमान न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषण के गुरु थे। और 'देशभक्त्यादि महाशास्त्र के भी कर्ता थे, और दूसरे वर्द्धमान हमच शिलालेख के रचयिता है । इनका समय १५३० ई. के लगभग है। विजयनगर के शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई०) में उत्कीर्ण शिलालेख में भट्टारख धर्मभूषण के पदघर और सिहनन्दी योगीन्द्र के चरण कमलों के भ्रमर वर्द्धमान मुनि थे, उनके शिष्य धर्मभूषण हुए। जैसा कि उसके निम्नपद्यों से प्रकट है: पट्टे तस्य मुनेरासीमानमुनीश्वरः । श्री सिहनन्वि योगीन चरणाम्भोज षट्पदः ।।१२ शिस्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणवेशिकः । भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्यत्रय विजितः ॥१३ इनके समय में सका । १३.७ १३८५ ई०) की फाल्गुण कृष्ण द्वितीया को राजा हरिहर के मंत्री चत्रदण्ड नायक के पुत्र इरुमप्प ने विजयनगर में कून्यनाथ का मन्दिर बनवाया था। दश भक्त्यादि शास्त्र के निम्न पद्य में उल्लिखित विजयनगर नरेश प्रथम देवराज राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित थे। इनका राज्य संभवतः सन् १४१८ ई. तक रहा है। और द्वितीय देवराज का समय सन् १४१६ से १४४६ ई. तक माना जाता है। राजाधिराज परमेश्वर वैवराज, भूपाल मोहिलसदंन्नि सरोजयुग्मः । श्रीषर्द्धमान मुनि बल्लभ मोदय मुख्यः श्रीधर्मभूषण सुखी जयतो क्षमाडचः ।। भट्टारक धर्मभूषण ने न्यायदीपिका की अन्तिम प्रशस्ति में, और पुष्पिका में भट्टारक वर्द्धमान का उल्लेख किया है: मदगुरोर्वद्धमानेशो बर्द्धमानदयानिधेः । श्रीपदस्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्यायबीपिका ।। -न्यायदीपिका प्रश० इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि धर्मभूषण के गुरु वही भट्टारक वर्द्धमान हैं, जो वरांग चरित के कर्ता हैं। वर्द्धमान भट्टारक का समय धर्मभूषण के गुरु होने के कारण ईसा की चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्घ है। वरांग चरित्र संस्कृत भाषा का लघुकाय ग्रन्थ है। इस काव्य में १३ सर्ग हैं जिसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के वरदत्त गणघर के समकालीन होने वाले राजा वरांग का चरित दणित किया गया है। यह जटिल १. तस्य श्री चवदण्डाधिनायकस्मोजितश्रियः । पासीदिरुग दाडेपो नन्दनो लोकनन्दनः ।। २१ तस्मिन्निरुग दण्डेपाः पुरेचारुशिलामयम् ।। श्री कुन्थ जिन नाथस्थ चैत्यालयमनीकरत् ।। २८ विजयनगर शि० नं०२ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदवहीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि कवि के वरांग चरित का संक्षिप्न रूप है, कवि बढेमान ने इसमें धार्मिक उपदेशों और कुछ वर्णनों को निकाल कर कथानक की रूप-रेखा ज्यों की त्यों रहने दो है, ऐसा ट्रा०प० एन० उपाध्ये ने लिखा है। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से स्पष्ट है: गणेश्वरा कथिताकथावरावराङ्गराजस्य सविस्तरं पुरः। मयापि संक्षिप्य च संव वर्ण्यते सुकाव्यवन्धेन सुमुद्धि घधिनी॥ कवि वर्द्धमान ने राजा वगंग के कथानवा में धर्मोप देश को कम कर दार्शनिक और धार्मिक चर्चामों को बहुत संक्षिप्त रूप में दिया है। पर जटिल मुनि के परांग चरित्र का उस पर पूरा प्रभाव है। बरांग का चरित इस प्रकार है :-- विनीतदेश में रम्या नदी के नट पर उत्तमपुर नाम का नगर है उसमें भोजवंशका राजा धर्मसेन राज्य करता था, उसकी गुणवती नाम की सुन्दर और म्यवतो पानी थी। समय पाकर उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम वरांग रक्खा गया । जब वह युवा हो गया, तब उसका विवाह ललितपुर के राजा देवसेन की पुत्री सुनंदा, विन्ध्यपुर के राजा महेन्द्रदन की पुत्री वपुष्मती, सिंहपुर के राजा द्विषन्तप की पुत्री यशोमती, इष्टपुरी के राजा सनत्कुमार की पुत्री वसुन्धरा, मलयदेशके अधिपति मकरध्वज की पुत्री अनन्त सेना, चक्रपुर के राजा समुद्रदत्त की पुत्री प्रियवता. गिरिव्रजनगर के राजा बाह्वायुध की पुत्री सुकेशी, श्रोकोशल पुरी के राजा सुमिसिंह की पुत्री विश्वसेना' वारांगदेश के राजा विनयधर की पुत्रा प्रियंकारिणी,मोर व्यापारी की पुत्री धनदत्ता के साथ होता है । वरांग इनके साथ सांसारिक सूख का उपभोग करता है। एक दिन अरिष्टनेमिक प्रधान गणधर वरदत्त उत्तमपुर में प्राये. राजा धर्ममेन मनिवदना को गया। राजा के प्रश्न करने पर उन्होंने प्राचारादिका उपदेश दिया। वरांग कंपळने पर उन्होंने सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का विवेचन किया । उपदेश से प्रभावित हो वरांग ने अणुनत धारण किये । और उनकी भावनाओं का अभ्यास प्रारम्भ किया। तथा राज्य संचालन और अस्त्र-शास्त्र के संचालन में दक्षता प्राप्त की राजा धर्मसेन वरांग के श्रेष्ठ गुणों को प्रशंसा सुनकर प्रभावित हुमा और तीन सौ पुत्रोंके रहते हए वरांग को यवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। बरांग क अभ्युदय से उसकी सौतेली मां सुषेणा तथा सुतेले भाई मरेगा कोई हई। और मंत्री सवृद्धि से मिलकर उन्होंने षड़यंत्र किया। मंत्री ने एक शिक्षित घोडा बराग को दिया। वरांग उस पर बैठते हो वह हवा से बात करने लगा। वह नदी, सरोवर, वन और प्रटबी को पार करताना याने बढ़ता है और वररांग को एक कुएं में गिरा देता है । वरांग किसी तरह कुएं से निकलता है,और भख-प्यास में पीड़ित हो प्रागेवढ़ने पर ब्यान मिलता है हाथो की सहायता से प्राणों की रक्षा करता है. और एक यक्षिणी अजगर से उसकी रक्षा करती है, और वह उसके स्वदार सन्तोप बन की परीक्षा कर सन्तुष्ट हो जाती है । वन में भटकते हए वरांग को भील बलि के लिये पकड़ कर ले जाते हैं। किन्तु सर्प द्वारा दंशित भिल्लराज के पुत्र का विष दूर करने से उसे मुक्ति मिल जाती है । वृक्ष पर रात्रि व्यतीत कर प्रातः सागरवृद्धिसार्थपति से मिल जाता है । सायपति के साथ चलने पर मार्ग में बारह हजार डाकू मिलते हैं सार्थवाह का उन डाकूओं से युद्ध होता है । सार्थवाह की सेना मनसे भागती है इससे सागरवद्धि को बहत दुख हमा। सकट के समय वरांग ने सार्थवाह से निवेदन किया कि भाप चिन्ता न करें मैं सब डाकुओं को परास्त करता हूँ! कुमार ने डाकुनों को परास्त किया, पौर सागरवद्धिका प्रिय होकर सार्थवाहों का अधिपति बन ललितपुर में निवास करने लगता है। इधर घोड़े का पीछा करने वाले सैनिक हाथी घोड़ा लौट पाये, वरांग का कहीं पता न चला, इससे धर्म सेन को बड़ी चिन्ता हुई। राजाने गुप्तचरों को कुमार का पता लगाने के लिये भेजा वे कुएं में गिरे हुये मृन अश्व को देखकर पोर कुमार के वस्त्रों को लेकर वापिस लौटे। उन्हें ढढ़ने पर भी कुमार का कोई पता न लगा। अंतः पुर में करुणा का समुद्र उमड़ पाया। मथुरा के राजा इन्द्रसेन का पुत्र उपेन्द्रसेन था इस राजा ने एक दिन ललितपुर देवसेन के पास अपना दूत भेजा, और प्रप्रतिमल्ल नामक हाथी की मांग की, देवसेन द्वारा हाथो के न दिये जाने पर रुष्ट हो मथुराधिपति ने Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उस पर आक्रमण कर दिया। इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन दोनों की सेना ने बड़ी वीरता से युद्ध किया, जिससे देवसेन को सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। कुमार वरांग ने पाकर देवसेन को महायता की और इन्द्रसेन पराजित हो गया। ललितपुर के राजा देवसेन कुमार के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे अपनी पुत्री सुनन्दा और प्राधा राज्य प्रदान करता है। एक दिन राजा की मनोरमा नाम को पुत्री कुमार के रूप सौन्दर्य को देखकर मासक्त हो जाती है, और विरह से जलने लगती है। मनोरमा कुमार के पास अपना दूत भेजती है। पर दुराचार से दूर रहने वाला कुमार इंकार कर देता है । मनोरमा चिन्तित और दुखी होती है। वरांग के लुप्त होजाने पर सुषेण उत्तम पुर के राज्य कार्य को सम्हालता है परन्तु वह अपनी अयोग्यतामों के कारण शासन में असफल हो जाता है। उसकी दुर्बलता और धर्मसेन को वृद्धावस्था का अनुचित लाभ उठाकर बबूलाधिपति उत्तमपुर पर आक्रमण कर देता है । धर्मसेन ललितपुर के राजा से सहायता मांगता है। वरांग इस अवसर पर उत्तमपुर जाता है, और वकुलाधिपति को पराजित कर देता है। पिता-पुत्र का मिलन होता है, और प्रजा वरांग का स्वागत करती है। वह विरोधियों को क्षमाकर राज्य प्रशासन प्राप्त करता है। और पिता की अनुमति से दिग्विजय करने जाता है और अपने नये राज्य की राजधानी सरस्वती नदी के किनारे प्रानतपर को बसाता है। बरांग ने प्रानर्तपुर में सिद्धायतन नाम का चैत्यालय निर्माण कराया । योर विधि पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। एक दिन ब्राह्म मुहूर्त में राजा वरांग ने तेल समाप्त होते हए दीपक को देखकर देह-भोगों से विरक्त हो जाता है और दीक्षा लेने का विचार करता है परिवार के व्यक्तियों ने उसे दीक्षा लेने से रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु वह न माना। और वरदत्त केवली के निकट दिगम्बर दोक्षा धारण को। और तपश्चरण द्वारा आत्मसाधना करता हआ अन्त' में तपश्चरण से सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त किया। उसकी स्त्रियों ने भी दोक्षा ली उन्होंने भो अपनी शक्ति अनुसार तपादि का अनुष्ठान किया । और यथायोग्य गति प्राप्त की। मंगराज (द्वितीय) यह 'कम्मे कस के विश्वामित्र गोत्रीय रेम्माई रामरस का पुत्र था। यह अभिनव मंगराज के नाम से प्रसित हैं। इसने मंगराज निघण्टु या अभिनव निघण्टु नाम का कोश बनाया है। कवि ने शशिपुर के सोमेश्वर के प्रसाद से शक सं० १३२० (सन् १३९८ ई०) में उक्त कोष को समाप्त किया है। प्रतः कवि का समय ईसा को १४वीं शदी का अन्तिम भाग है। अभयचन्द्र यह कन्दकन्दान्बय देशीय गण पुस्तक मच्छ के विद्वान जयकीर्ति के शिष्य थे। यह वही राय राजगुरुमण्डलाचार्य महाबाद वादीश्वर रायवादी पितामह अभयचन्द्र सिद्धन्त देव जान पड़ते है जिन्होंने सांख्य, योग, चार्वाक बौद्ध, भट्र प्रभाकर आदि अनेक वादियों को शास्त्रार्थ में विजित किया था। शक सं० १३३७ (ई. सन १४१५) में इनवे गहस्थ शिष्य बल्ल गौड़ ने समाधिमरण किया था । इनका समय १३७५–१४०० ई० के लगभग सुनिश्चित है। यही अभयचन्द्र लघीयस्वभयवृत्ति के टीकाकार जान पड़ते हैं। गुणभूषण यह मूलसंघ के विद्वान सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र मुनि के शिष्य त्रैलोक्यकीर्ति थे उनके शिष्य गुण १.देखो, एपिग्राफिया कर्नाटिका ७ सोरथ तालुका ० १३६। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैरवों और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि ४४५ भूषण थे। इन्होंने अपने को 'स्याद्वाद चूड़ामणि' लिखा है' 1 इसकी एक मात्र कृति गुणभूषण श्रावक चार है। जिसे भव्य जिन चित्त वल्लभ' भी कहा जाता है। इस ग्रन्थ को कवि ने पुरपाट वंशी जोमन और नामदेवी के । नैमिदेव के लिये बनाया था। जो गुणभूषण के चरणों का भक्त था। जोमन के दूसरे पुत्र का नाम लक्ष्मण था । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है : पुत्र ' इति श्रीमद् गुणभूषणाचार्य विरचिते भव्यजनचित्त वल्लभाभिधान श्रावकाचारे साठु नेमिदेव नामांकिते सम्यक्त्मचरित्रं तृतीयद्ददेशः समाप्तः ।' प्रस्तुत ग्रंथ तीन उद्देश्यों में समाप्त हुआ है । अन्तिम उद्देश्यों में सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया गया है । गुणभूषण के श्रावकाचार पर वसुनन्दि के उपासका चार का प्रभाव अंकित है। इतना ही नहीं किन्तु दोनों की तुलना से स्पष्ट प्रतीत होता हैं कि उन्होंने उसकी अनेक प्राकृतिक गाथायों के संस्कृत रूपान्तर द्वारा अपने ग्रन्थ की श्री वृद्धि की है। श्रावकचार के वर्णन में कोई वैशिष्ट्य भी नहीं है- अन्य श्रावका चारों के समान हो उसमें कथन है । जैसा कि निम्न तुलना से स्पष्ट --- स्यादन्योन्य प्रवेशानां प्रदेशो जीवकर्मणोः । सबन्धः प्रकृति स्थिर नुभावादिस्वभावक ॥। १७गु प० प्रोगाणु पवेसो जो जीवपएसम्म संधाणं । सो द्विवि- श्रणुभव-पएसबो चउविहो बंधी ॥४१ वसु० सम्यक्तव्रतैः कोपादी निग्रहाद्योगनिशेषतः । कर्मास्रव निरोधो यः सत्संवरः स उच्यते ॥। १८ गुण० सम्मत्तेहि वहि कोहाइ कसाय णिग्गाह गुणेहि । जोगगिरोहेण तहा कम्मासव संवरो होइ ||४२ वसु० विपाका विपाकाश्च निर्जरा स्याद् द्विघादिमा । संसारे सर्व जीवानां द्वितीया सु-तपस्विनाम् ॥ गुण० सविपामा अविवाया दुबिहा पुण णिज्जरा मुणेयब्वा । सवसि जीवाणं पठमा विविया तथस्सीणं ॥ यूतमध्यामिषं वेश्याखेटोपराता । सप्तं तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ॥११४ गुण ० मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परमारं । जयं बुग्गइ गमणस्सेवाणि हे भूवाणि पावाणि ॥ ५६ वसु० इसी तरह गुणभूषण श्रावकाचार के २०४, २०५, २०६, २०७ पद्यों के साथ वसुनन्दी श्रावकाचारको गाथा ३३६, ३३७, ३४२, र ३४४ के साथ तुलना कीजिए। घोर भी अनेक गाथाओं का संस्कृति रूपान्तर किया गया है । वसुनन्दी का समय १२वीं शताब्दी है इससे इतना तो सुनिश्चित है कि गुणभूषण वसुनन्दी के बहुत बाद हुए हैं। गुणभूषण ने जोमन के पुत्र नेमिदेव के लिये इसकी रचना की है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। नेमिदेव वीरजिनेन्द्र के चरण कमलों का भक्त हेय उपादेय के विचारों में निपुण, रत्नत्रय के धारक, दानदाता, आदि १. विख्यातोऽस्ति समस्तलोकवसये श्री मूलसंघोऽनघः । तत्राद्विनयेन्दु तदभुतमतिः श्री सागरेन्दोः सुतः ॥२५९ सच्छिष्योऽजनि मोहभूभृदा निस्त्रैलोक्यकीर्तिमुनिः । सच्छिष्यो गुणभूषणः समभवरस्याद्वादचूड़ामणिः ॥ २६० गुण ०प्र० २. देखो गुणभूषण श्रावकाचार प्रशस्ति के २६१ से २६७ तक के पद्य । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yv रूप से उसके गुणों की प्रशंसा करते हुए उसकी मंगल का कामना की है'। समय-गुणभूषण ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, यतः अन्य साधनों से उस पर विचार किया जाता है। विनयचन्द्र पं० प्राशाघर के शिष्य थे, प्राणाधर ने उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया था। सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र के लिए इष्टोपदेशमादि प्रयों की टीका की थी। इन्हीं जिनयचन्द्र के शिष्य त्रैलोक्य कीर्ति के शिष्ट गुणभूषण थे । मतः गुणभूषण का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जनता अय्यपा 1 I यह मूल संधान्वयी पुष्परोम मुनि के शिष्य थे। ग्रव्ययं ने अपने गुरु पुष्पसेन की बड़ी प्रशंसा की है, उन्हें 'अन्य मतोषकारमथनः' मोर 'स्वाद्वाद तेजोनिधिः' जैसे विशेषणों से युक्त प्रकट किया है। इससे वे बड़े भारी विद्वान और तपस्वी जान पड़ते हैं। कवि के पिता का नाम करुणाकर था, जो आवक धर्म के पालक थे। और माता का नाम 'अर्काग्या' था जो पतिव्रता, पुण्यलक्ष्मी और चारित्रमूर्ति थी। इनका गोत्र काश्यप था और इन दोनों का पुत्र थापा, जो जिन चरण युगल के आराधन में तत्पर था। जिसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था । मीर मंत्र तथा औषधियों का भी ज्ञाता था, नय-विनयवान था, उसने पद्मावती देवी द्वारा वर के प्रसाद से 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस भ्रन्थ में जिनेन्द्र की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन किया है। प्रशस्ति में कवि ने चतुविशतितीर्थंकरों को स्तुति के बाद भगवान महावीर की संघ परम्परा के बुतपर आचायों का उल्लेख करते हुए कुन्दकुन्द वाचक उमास्वाति (पिच्छाचार्य) समन्तभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद वीरसेन जनसेन, गुणभद्र चन्द्र, रामसेन, प्रकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, रामचन्द्र वासवचन्द्र घादि का उल्लेख किया है। १. श्रीमद् वीरजनेश पाटकमले चेतः सदा । हेपादेव विचारोपनिपुखा बुद्धिवन यस्थात्मनि । २६५ दानं चोकर कुमले पुरातति हे शिरस्युन्नतिः । रस्नानां त्रितयं इदि स्थितमसो नेमिचरं मंदतु ॥९६९ २. योन्य मतान्धकारमयनः स्याद्वादतेजोनिधिः ।' जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ --- जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय प्र० ३. तं पुष्पसेन देवं कलिगोश्वरं सदावंदे | यस्वपचसेना विधान भवति कामदुहाः ॥३१ तदीयसिध्योऽजनि दाक्षिणात्यः श्रीमान्द्विजन्माभिषजां वरिष्ठः । जिनेन्द्रपादाम्बुरुः साधारथमं करुणाकराः ॥४२ सस्यंव पत्नी कुलदेवते व पतितालंकृत पुष्पलक्ष्मी, गाम्दा जति प्रतीतः पतिः जनानो ॥५३ तयोरासीत्सूनुस्तदमलगुणाढ्यो स बिनयो, जिनेन्द्रः श्री पादाम्बुपर अधीतः सारचाणामरियलमणि मंत्रोपवित, विपश्चि नित नय-विनयवाला श्रीमूलकविता खिल सन्मुनीनां, श्रीपादपद्मसरसरह राजहंसः । पापा इति कारयद मोक्यों नापाक वरवंशसमुद्रचन्द्रः ।।५४ इतिषः ॥५४ ४. पद्मावती दत्तवरप्रसादास्सा स्वतं प्राप्य युधास्यं येन । जिनेन्द्र कन्याण समायो यं ग्रन्थोभ्युषास्यभ्युदया: प्रबंधः ||५६ -त्रि० कल्या० प्र० - जि० कल्याण० प्र० Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्र सूरिवितो या कमः ।। तेरहवीं पोर चौधहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि कारवा शास्त्र भंडार' की प्रशस्ति में ग्रन्थ का रचना काल शक सं०१२४१ सिद्धार्थ संवत्सर बतलाया है। प्रय्यपार्य ने इस ग्रन्थ की रचना पुष्पसेनाचार्य के प्रादेश से शक १२४१ (सन् १३१६) माघ शुक्ला दशमी रविवार के दिन पुष्प नक्षत्र में एक शैल नगर में रुद्र कुमार के राज्यकाल में की है, जैसा कि उसके निम्न पञ्च से प्रकट है : शाकाम्दे विधुवेदनेत्रहिमगे (१) सिद्धार्थ संवत्सरे। माघेमासि विशद्ध पक्ष वशमी पुण्यार्करऽहनि । ग्रन्थो रुद्रकुमार राज्य विषये जैनेन्द्र कल्याणभाक । सम्पूर्णोऽभवदेक शैलनगरे श्रीपाल बजितः।। कवि ने लिखा है जिनसेन गुणभद्र, वसनन्दि, इन्द्रनन्दि पाशाधर और हस्तिमल्ल प्रादि विद्वानों द्वारा कथित ग्रन्थों का सार लेकर इस ग्रन्थ की रचना की है: वीराचार्य सपज्यपाय जिनसेनाचार्य संभाषितो। यः पूर्व गुणभद्र सूरिवसुनन्दोन्द्रादिन धूर्जितः । यश्चाशापर हस्तिमल्ल कथितो यश्चक संधीरितः । तेभ्यः स्वहृतसारमार्यरचितः स्थाजन पूजा कमः ॥१६ यही बात ग्रन्थ को अन्तिम पुष्पिका वाक्य से भी स्पष्ट है 'इति श्री सकल ताकिकबक्रतिश्रीसमन्तभद्र मुनीश्वर प्रभूति कवि वृन्दारक वन्धमान सरोवर राज इंसायमान भगववाहतप्रतिमाभिषेक विशेष विशिष्ट गन्धोदकपवित्री कृतोत्तमाले वाग्यपार्येण श्री पुष्पसेनाचार्योपदेश क्रमेण सम्यरिषचार्य पूर्वशास्र म्यः सारमुत्य विरचितः थी जिनेन्द्र कल्याणाम्युदयापरनामषेयस्त्रि यशाम्युदमोहंत प्रतिष्ठा प्रन्थः समाप्तः । प्रस्तुत प्रशस्ति में ग्रन्थ का रचनास्थल एक शैलनगर बतलाया है, जो वर्तमान वरंगल का प्राचीन नाम हैवरंगल के और भी कई नाम हैं। यह प्राचीन नगर तैलंग देश को राजधानी था। काकतेयों ने इस पर सन् १११०ई० से १३२३ ई० तक राज्य किया है । इसी वंश में रुद्रदेव हुए है । जान पड़ता है रुद्रदेव इस वंश के अन्तिम राजा थे। क्योंकि इस ग्रन्थ की रचना सन् १३१६-२०ई० में हुई है। उस समय वे वहाँ शासन कर रहे थे। प्रतएव अय्यपार्य वि० सं० १३७६ के विद्वान हैं। माधनन्दि योगीन्द्र प्रस्तुत माधनन्दि मूलसंघ-नन्दिसंघबलात्कार गण के विद्वान कुमुदेन्दु योगी के शिष्य थे। इन्हें सन् १२६५ ई० 4. See catalogse song krit and prakrit manuscripts in the cenintral Province and berari रायबहादुर हीरालाल द्वारा सम्पादित २. हिन्दी विश्व कोष भा०३१० ४६६ और list of the - Aniquuarian remains in the Nizams, territories By consens. Another name of warrangalxx,is Akshalinagar, which in the of nar. consens is the same yekshilanagara,, -TheGeographycal dictionary of Anecent and Midicavai India Naudlal Day p. 8 ३. अनुमकुन्दपुर, अनुमकन्द पट्टम, कोरुकोल (of Ptalemy) वेणाटक, एक शेल नगर अादि (the geoprophical Cor's tionary (p. 262) ४. रुव देव का शिलालेख JASB, 1834 P०१०३ साय ही peof Wilsons Mackenzie collection p.16 ५. The Jcopraphical dictionorp p. 8 ६. बरंगलके का कतीयवंशी एक राजा xxx, I हिन्दी विश्वकोप भाग १२१६२७ । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ (वि० सं० १३२२) में त्रिकूट रत्नत्रय शान्तिनाथ के जिनालय के लिए होयसल नरेश नरसिंह द्वारा उक्त माघनन्दि संद्धान्तिक को 'कल्लनगेरे नाम का गांव दान में दिया गया। इस कारण इस जिनालय को त्रिकट रत्नपय जिनालय भी कहते थे। दोर समुद्र के जैन नागरिकों ने भी शान्तिनाथ की भेंट के लिये भूमि और द्रव्य प्रदान किया था। इन माघनन्दि की चार रचनामों का उल्लेख मिलता है। सिद्धान्तसार, श्रावकाचारसार, पदार्यसार और शास्त्रसार समुच्चय माघनन्दि योगीन्द्रः सिद्धान्ताम्बोधि चन्द्रमाः । प्रवीकरद्विचित्रार्थ शास्त्रसारसमुच्चयम् ।। उक्तं श्रीसंघली गाना-कापापितः। भीमाघमन्दि सिद्धान्तः शास्त्रसार समुच्चयम् ।। ये दोनों पद्य दौर्बलि जिनदास शास्त्री की टीका रहित प्रति में दिये हैं। इनका समय १३वीं शताब्दी है। इनके शिष्य कुमुदचन्द्र भट्टारक थे । शास्त्र समुच्चय के टोकाकार वहो माघनन्दिश्रावकाचार के कर्ता हैं। टोका कन्नड़ में है। प्रेमी जी ने लिखा है कि मद्रास को प्रोरियन्टल लायझेरी में 'प्रतिष्ठाकल्प टिप्पण' या जिन संहिता नाम का एक ग्रन्थ है, उसकी उत्थानिका और अन्तिम पुष्पिका से मालम होता है कि प्रतिष्ठाकल्प टिप्पण के कती बादि कुमुदचन्द्र माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे। वादि कुमुद चन्द्र यह माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के पुत्र थे। और प्रतिष्ठाकल्प के कनाड़ी टिप्पणकार हैं। श्री माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवति तमुभवः। कमवेन्द रहं वच्मि प्रतिष्ठा कल्पटिप्पणम् ।। इस टिप्पण के अन्त में लिखा है इतिश्री माधनन्दि सिवान्तचक्रवर्ती सुत चविष पाणिस्य पति-श्री वादि कुमुवचन्द्र पण्डितदेव-विरचिते प्रतिष्ठा कल्प टिप्पणे-। इस पुष्पि का वाक्य में वादि मदचन्द्र को स्पष्ट रूप से 'सतौर 'या समाप्तः पद्य में 'तनुभव' लिखा है, जिससे वे उनके पुत्र थे। और उनकी उपाधि चतुर्विध पाण्डित्य चक्रवर्ती यो मतः इनका समय भी वही है जो माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती का सन् १२६५ (वि० सं० १३२२) है। यह विक्रम की १४ वो शताब्दी के विद्वान हैं। कवि मंगराज इनका जन्म स्थान वर्तमान मंसूर राज्यान्तर्गत मुगलिपुर था। उन्हें उभय कवीश, कवि पद्म भास्कर और साहित्य वद्या विद्याम्बुनिधि उपाधियाँ प्राप्त थीं। यह कन्नड और संस्कृत दोनों भाषामों के प्रौड़ कवि थे । और जैन धर्म के पालक थे। इनका समय स्वर्गीय पार० नरसिंहाचार्य ने सन् १३६० ई. के लगभग बतलाया है। इनकी • कृति का नाम 'खगेन्द्रमणि दर्पण है। यह एक बंधक ग्रन्थ है, इसमें स्थावर विषों की प्रक्रिया और प्रायः सभी विषों की चिकित्सा लिखी है। १. जैन लेख सं०. भाग- पृ० २५५ २. श्री माघनन्दि सिद्धान्त तनुभकः । कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठा कल्प टिप्पणम् । ३. इति श्री माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती तनूभव चतुर्विष पाण्डित्य चक्रवर्ती श्रीवादि कुमुदचन्द्र मुनीन्द्र विचिते जिन मंहिता टिप्पणे पूज्य-पूजफ. पूजकाचार्य पूजाफल प्रतिपादनं समाप्तम् ।। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि ४४६ गचड़ पक्षी सपों का वैरी है वह सर्प विषापहारक है, यह लोक में प्रसिद्ध है उसा प्रकार गरुडमणि भो लोक में विष निवारक मानी जाती है। उसी तरह यह ग्रन्थ भी विष दूर करने के उपाय को बतलाता है, इस कारण इसका यह नाम अन्वर्थक जान पड़ता है। यह ग्रन्थ कंद इत्तों में रचा गया है। कवि ने इसे 'जीवित चिन्तामणि' भी बतलाया है । कवि इस ग्रन्थ को पुरुषार्थ चतुष्टध का कथन करने वाला बतलाता है। इसमें १६ अधिकार हैं। जिनमें विष और उसके दूर करने के उपायों का वर्णन है। प्रथम अधिकार में मंगल के बाद स्थावर जगम और कृत्रिम यादि विषों के भेद, सर्पो को जातियां, पोषधियों का संग्रह काल, भेद और उनकी शक्तियों के वर्णन के साथ सद् वैद्य और दुर्वेद्य के लक्षणादि बतलाये गये हैं। दूसरे अधिकार में स्थावर विषभेद, विषाकान्त लक्षण और उनके परिहारक नस्य, पान, लेप और अंजन पादि के औषध और अनेक मंत्र दिये हैं। इसी तरह अन्य सब अधिकारों में 'विष' के दश प्रकार, लक्षण, उनके भेद, विषापहारक मंत्र और औषधियों का वर्णन किया गया है। अन्य यदि हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो जाय तो उसका परिज्ञान हिन्दी भाषा भाषियों को भी सुलभ हो जायगा । ग्रन्थ उपयोगी है। ग्रन्थ में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कुछ प्राचार्यों ग्रादि का नामोल्लेख किया है पूज्यपाद, वीरसेन, कन्दकन्द भानकाति, अमरक तितनिछष्य धर्मभूषण प्रादि । पं० वामदेव यह मूल संघ के भट्टारक विनयचन्द्र के शिष्य, त्रैलोक्यकोति के शिष्य और मुनि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ये इन्होंने अपने को इन्द्रवाम देव भी लिखा है। पडित वामदेव का कुल नंगम था। नंगम या निगम कुल कायस्थों का है, इससे स्पष्ट है कि पंडित वामदेव कायस्थ थे। अनेक कायस्थ विद्वान जैन धर्म के धारक हुए हैं। जिनमें हरिचन्द्र, पचनाभ और विजयनाथ माथर प्रादि का नाम उल्लेखनीय है। पंडित बामदेव जैन धर्म के अच्छे विद्वान, प्रतिष्ठादि कार्यो के जाता और जिन भक्ति में तत्पर थे । वामदेव ने पंच संग्रह दीपक की प्रशस्ति में अपने को-'नाना शास्त्र विचार कोविद मतिः श्री वामदेवः कृती' वाक्य द्वारा नाना शास्त्र विचार कोविद मति प्रकट किया है। इनकी इस समय तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। भावसंग्रह (संस्कृत), 'त्रैलोक्य दीपक' पोर पंच संग्रह दीपक । इनमें से केवल भावसंग्रह माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुआ है। शेष दोनों रचनाएं प्रप्रकाशित हैं। भावसंग्रह-प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा का पद्य ग्रन्ध है, जो ७८१ पद्यों में पूर्ण हुपा है। यह देवसेन के प्राकृत भावसंग्रह का संशोधित और परिवधित अनुवाद है। यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला से प्राकृत भाव संग्रह के साथ प्रकाशित हो चुका है। चमक धारक हुए हैं। का नाम उल्लेखनीय है। जाता और जिन १. भूयापजनस्य विश्वहितः श्री मूलसंघः श्रिये, यत्राभूद्विनयेन्दुरगुतगुणः सच्छील दुग्धार्णवः । तच्छिष्योऽजनि भद्रमतिरमनस्त्रलोक्य कौति शशी। येनै कान्तमहातमः प्रमथिते स्यावाविद्याकरः ॥७७९ रष्टि स्वस्तटिनी महोघरपतिनाधिचन्द्रोदयो, वृत्त श्री कलि केलि हेमनलिन शान्ति क्षमा मन्दिरम् काम स्वात्मरक्षा प्रसन्न हृदयः संगक्षपा भास्करस्तनिष्य: क्षितिमण्डले विजयते लक्ष्मीन्दु नामां मुनिः ।।७८० श्री मत्सर्वज्ञगूजाकरण परिणतस्तत्त्वचिन्ता रसालो, लक्ष्मीचन्द्राहि पन मधुकर: श्री वामदेव: सुपीः । उत्ससिर्पस्य जाता शशिविशद कुले नैगमश्री विशाले । सोऽयं जीया प्रकामं जगति रसलसद्भाव शास्त्र प्रणेता ॥७८१ -भाव संग्रह प्रशस्ति Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ त्रैलोक्य दीपक-इस ग्रन्थ में तीन लोक के स्वरूप का कथन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ नेमिचन्द्र मिद्धान्त चक्रवर्ती के त्रिलोकसार का संस्कृत रूपान्तर है । उसे देखकर ही इसकी रचना को गई है। इस ग्रन्थ में तीन अधिकार- अधोलोक-मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक-इन तीनों अधिकारों के श्लोकों की कुल संख्या १२८१ श्लोक प्रमाण है। प्रथम अधिकार में २०५ श्लोक हैं। जिनमें लोक का स्वरूप बतलाते हए लिखा है कि जिसमें जोव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल का संघात पाया जाता है वह लोक है । उस लोक का मान दो प्रकार का है। लोकिकमान और लोकोत्तर भान । इन दोनों मानों के भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है। दूसरे अधिकार में मध्य लोक का वर्णन है. जिसको श्लोक संख्या ६१६ है। मध्य लोक का कथन करते हुए द्वीप, समुद्रों के वलय, व्यास, सूची व्यास, सूक्ष्म परिधि, स्थल परिधि सक्षम और स्थल फल आदि का गणित द्वारा कथन किया है । जम्बूद्वीप के षट् कुलाचल और सप्त क्षेत्रों आदि का गणित द्वारा विस्तार के साथ वर्णन दिया है। भारत क्षेत्र के उत्सपिणी अवसर्पिणी के षट् कालों का वर्णन करते हुए, तीर्थंकरों, चक्रवतियों, नारायण प्रति नारायण सठ शलाका पुरुषों की आयु, शरीरोत्सेध, और विभूति आदि का सुन्दर वर्णन किया गया है । मध्यलोक के कथन में व्यासपरिधि, सूची फल, क्षेत्रफल और घनफल आदि के लाने के लिए करण सूत्र भी दिये हैं। संदृष्टियां भी यथास्थान दी है। ऊर्ध्वलोक के वर्णन में भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और कल्पवासी, देवों का वर्णन, आयु, शरीरोत्सेध, परिवार, विभव, कथन संख्या, विस्तार उत्सेध आदि का वर्णन किया गया है। यह सब त्रिलोकसार के अनुसार किया गया है। कवि ने यह ग्रन्थ नेमिदेव की प्रार्थना से बनाया है। जो पुरवाडवंश में समस्त राजामों के द्वारा माननीय कामदेव नाम का राजा हुआ । उसकी पत्नी का नाम नामदेवी था, जिससे राम और लक्ष्मण के समान जोमन और लक्ष्मण नाम के दो पुत्र हुए थे। पंच संग्रह दीपक की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जोमन की पुत्री बड़ी गुणाग्र और धर्माराम रूप वृक्ष की वधिका, सर्वज्ञपदारविनिरता, सहान चिन्तामणी, और व्रतशील निष्ठा थी। प्रशस्ति पद्य के अन्तिम अक्षर त्रुटित होने से उसका नाम शात नहीं हो सका जैसा कि उसके पथ से प्रकट है। जोमन का पुत्र नेमिदेव था, उसकी माता का नाम पद्मावती था | नेमिदेव जिनचरणसेबो और सम्यकव से विभूषित था। बड़ा उदार न्यायो, वानी, स्थिर यश वाला और प्रतिदिन जिनदेव की पूजा करता था। उक्त नेमिदेव के अनुरोध से ही ग्रन्थ की रचना की गई है । ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। इसको एक प्राचीन प्रति सं० १४३६ में फीरोजशाह तुग़लक के समय की योगिनीपुर (दिल्ली में लिखी हुई ८६ पत्रात्मक उपलब्ध है। जो भतिशय क्षेत्र महाबीर जी के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है। उससे जान पड़ता है कि त्रिलोकदोपक सं० १४३६ से पूर्व रचा गया है । - --- - -- - - - - - १. अस्त्यत्र वंश: पुरवाड़ संशः समस्त पृथ्वीपति माननीय: । त्याला स्वकीया सुरलोक लक्ष्मी देवा अपीच्छन्ति हि यत्र जन्म ॥६३ तष प्रसिद्धोऽजनि कामदेवः पत्नी च तस्या जनि नामदेवी। पुत्रो तयो|मन लक्ष्मणास्मो बभूवतुः राषव सक्ष्मणाविव ।।६४ -लोक्य दोपक प्र० २. जोमणस्य दुहिता जाता गुणाग्रेसरा । धर्मारामतरो: प्रवर्धन सुधाकल्पैक पुम्योह का । थी सवंगपदारविनिरता सद्दान चितामणीश्चारिस व्रत देवता मुविदिता श्री वाइदे........" । २२१ --अनेकान्तवर्ष २३ कि. ४ पृ. १४६ ३. पमावतो पुत्र पवित्रवंशः क्षीरोदचन्द्रामलयोः ययास्य । तनोरहः श्रीजिनपादसेवी स नैमिदेवापिचरमत्र जीयात् ।। -पंच सं० दीपक शांतिनाथ सेनभंडार खमात ४. देखो, आमेर शास्त्रभंगर जयपुर की सूची पृ० २१८ अन्य० नं. ३०६ प्रति नं. २ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि पंचसंग्रह वीपक इस गन्य की १०४ पत्रात्मक ताडपत्रीय प्रति खंभात के श्वेताम्बरीय शान्तिनाथसेन भंडार में नं० १३५ उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि यह नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती के गोम्मटसार अपरनाम पंचसंग्रह की संस्कृत इलोक बद्ध रचना है, जैसा कि उसके प्रारम्भिक निम्न पद्यों से प्रकट है : सिद्धं शद्ध जिताधीशं नेमीशं गुणभूषणम् । न स्वा प्रन्थं प्रवक्ष्यामि 'पंचसंग्रह दोपकम् ॥१॥ नेमिचन्द्र मुनीन्त्रण यः कृतः पंचसंग्रहः । स चव श्लोक बंधेन प्रव्यक्ती कियते मया ॥२॥ बन्धको बध्यमानं च बंध वास्तथेसता। हेतयश्चेति पचानां संग्रहोऽभ प्रकाशते ॥३॥ यस्ता बंधको जोधः सद् सत्कर्मणां स्वयम् । तसम्वरूय प्रकाशाय विशतिः स्यु प्ररूपणा ॥४॥ गण जीवाश्च पर्याप्ति प्राणसंज्ञाश्च मार्गणा। उपयोग समा युक्ता भब्येता-प्ररूपणा ॥५॥ मार्गणा गुण-भेदाम्ला फवतो के प्ररूपणे। मार्गणांतर्गताशेषाः जीव मुख्याः प्ररूपणाः॥६॥ गोम्मटसार का इलोक बद्ध यह संस्कृतिकरण अब तक देखने में नहीं आया था । स्व. मुनिश्री पुण्यविजय जी ने खंभात के शांतिनाथ सेन भंडार की सूची भाग. २ में न. १३६ में पंचसंगह दीपक का इलोक बद्ध' नाम से परिषय दिया है। यह ताडपत्र प्रति १३वीं शताब्दी की लिखी हुई है। इति श्रीतषामदेव विरचिते 'पुरवाट वंश विशेषक श्री नेमिदेव यशःप्रकाशके पंचसंग्रह प्रदीपके बंधक स्वरूप प्र (प्ररूपिणो नाम) प्रथमो अधिकारः। यह प्रति संभवतः ग्रन्य रचना के समय की या प्रास-पास की रचो हुई जान पड़ती है। चूंकि विनयचन्द्र पंडित माशाधर जी के शिष्य थे, उन्होंने विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। विनयचन्द्र के शिष्य लोक्य कीति के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र थे । इन लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वामदेव ने इस ग्रन्थ की रचना की। पं० प्राशाधर जी १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। अतएव उसके बाद वामदेव का समय होना चाहिए। प्रतः वामदेव का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी जान पड़ता है। अमरकोति यह ऐन्द्रवंश के प्रसिद्ध विद्वान थे। जो विद्य कहलाते थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान जान पड़ते हैं। इनका बनाया हुअा धनंजय कवि की नाममाला का भाष्य भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। उस ग्रन्थ की पुष्पिका में उन्हें विद्य महा पंण्डित और शब्द वेघस बतलाया है। भाष्य को देखने से अमरकात विविध ग्रन्थों के अभ्यासी ज्ञात होते हैं। "इति महापमित श्रीमवमरकोतिना विद्य न श्रीसेन्द्रवंशोत्पन्नेन शब्द वेभसा कृतायां धनंजय नाम मालायां प्रथम काण्डं व्याख्यातम्" i See - No 1.19 Panchasangarha Dipak Slok Bandha, Folios 104 Extent Granthas Age M.S Firasta Play of 13th exet 4S-Shautinatha Sain Bhandar Cornbay –अनेकान्त वर्ष २३ कि.४५०९४६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ प्रस्तुद कोश का भाष्य लिखते हुए अमरकीति ने परम भट्रारक यशःकीति, अमरसिंह, हलायुध, इन्द्रनन्दी, सोमदेव, हेमचन्द्र पौर आशाघर प्रादि के नामों का उल्लेख करते हुए महापुराण सूक्त मुक्तावली, हेमीनाममाला, यशस्तिलक, इन्द्रनन्दी का नीति सार और पाशाधर के महाभिषेक पाठ का नामोल्लेख किया है। इनमें पाशाघर का समय सं० १२४६ से १३०० तक है। अतः अमरकीति इसके बाद के विद्वान ठहरते हैं। यह १३वों शताब्दो के उपान्त्य समय के या १४वीं शताब्दी के पूर्व के विद्वान होने चाहिए। हस्तिमल्ल इन के पिता का नाम गोविन्द भद्र था, जो वत्सगोत्री दक्षिणी ब्राह्मण थे। उन्होंने प्राचार्य समन्तभद्र के 'देवागमस्तोत्र' को सुनकर सद्दष्टि प्राप्त की थी—सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यादृष्टि का परित्याग कर अनेकान्तरूप सम्यकदृष्टि के श्रद्धालु बने थे। उनके छह पुत्र धे-श्री कुमार, सत्यवाक्य, देवर बल्लभ, उदयभूपण, हस्तिमल्ल और बर्धमान'। ये सभी पुत्र संस्कृतादि भाषाओं के मर्मज्ञ और काध्य-शास्त्र के अच्छे जानकार एवं कवि थे। हस्तिमाल कवि का असली नाम नहीं है। असली नाम कुछ और ही रहा होगा। यह नाम उन्हें सरण्यापुर में एक मदोन्मत्त हाथी को वश में करने के कारण पाण्ड्य राजा द्वारा प्राप्त हुआ था। उस समय राज सभा में उनका अनेक प्रशंसा वाक्य से सत्कार किया गया था। हस्ति युद्ध का उल्लेख सुभद्रा नाटक में कवि ने स्वयं किया है। उसमें जिन मुनि का रूप धारण करने वाले किसो धुर्त को भी परास्त करने का उल्लेख है। कवि के सरस्वती स्वयंवर वल्लभ, महा कवि तल्लज और 'सूक्तिरत्नाकर' विरुद थे। कवि हस्तिमल्ल गृहस्थ विद्वान थे। इनके पुत्र का नाम पाश्वं पंडित या । जो अपने पिता के समान ही यशस्वी, शास्त्र मर्मश और धर्मात्मा था। हस्तिमल्ल ने अपनी कोर्ति को लोक व्यापी बना दिया था। पौर स्यानादशासन द्वारा विशुद्ध कीति का अर्जन किया था। वे पुण्य मूर्ति और अशेष कवि चक्रवर्ती कहलाते थे। तथा परदादिरूप हस्तियों के लिये सिंह थे । अतएव हस्तिभल्ल इस सार्थक नाम से लाक में विश्रुत थे। इन्हें अनेक विरुव प्रथवा उपाधियां प्राप्त थीं, जिनका समुल्लेख कवि ने स्वयं विक्रान्त कौरव नाटक में किया है। 'राजा वलोकथे' के कर्ता कवि देवचन्द्र ने हस्तिमाल को 'उभय भाषा कविचक्रवर्ती सूचित किया है। कविवर हस्तिमल्ल ने स्वयं अपने को कनड़ी आदि पुराण की पुष्पिका में उभय भाषा चक्रवर्ती लिखा है। ऐसा जैन साहित्य और इतिहास से ज्ञात होता है। इससे वे संस्कृत और कनड़ी भाषा के प्रौढ़ विद्वान जान पड़ते हैं। उनके नाटक तो कवि की प्रतिभा के संद्योतंक हैं हो, किन्तु जैन साहित्य में नाटक परम्परा के जन्मदाता हैं। मेरे ख्याल में शायद उस समय तक नाटक रचना नहीं हुई थी। कविवर हस्तिमल्ल ने इस कमी को दूर कर जैन समाज का बड़ा उपकार किया है। यह उस समय विकन्त कौरव विकन्तकौन १. गोविन्द भट्ट इत्यासीद्विद्वाग्मिश्यात्वजितः। देवागमन सूत्रस्यश्रुत्या सद्दर्शनान्वितः । अनेकान्तमतं तत्त्वं बहुभेने विदांवर, नन्दनातस्य संजाता वाधिकाखिनकोविदः ।। दाक्षिणात्या जयन्त्यत्र स्वर्णयक्षीप्रसादतः, श्रीकुमारकविः सत्यवाक्यो देवरवल्लमः ।। उद्यद्भूषणनामा च इस्तिमल्लाभिधानकाः; वर्षमानकवि वि षड् भूवन् कवीश्वरः । २. श्रीवत्सगोत्रजनभूषणगोपभप्रेमकथामतनुजो भुविहस्तियुद्धात् । नाना कालाम्बुनिधिपाण्डचमहीश्वरेण पलोकः शतस्सदसि सत्कृतवान् बभूव ।। २. सम्यक्त्वं सुपरीक्षितं भवगजे मुक्ते सरण्यापुरे। चास्मिन्पाण्ड्यमहेश्वरेण कपटाद्धन्तु स्यमभ्यागते (त)। शंखूषं जिनमुदधारिणमपास्यासौ मदष्वंसिना । श्लोकेनापिमदेभमल्ल इति यः प्रख्यातवान्सूरिभिः ॥-सुभद्रा, सम्यक्त्वस्य परीक्षार्थ मुक्तं मत्तमतं जम् । य: सरण्यापुरे जित्वा हस्तिमल्लेति कीर्तितः ।। ४. 'इत्युभपापा कविचाबति हस्तिमाल विरचित पूर्वपुराण महाकथायां वामपर्वम्।" -आदि पु० पुणिका Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि ४५३ के कवियों में तो अग्रणी थे ही, किन्तु नाटकों के प्रणयन में भी दक्ष प्रापके ज्येष्ठभ्राता सत्य वाक्य आपकी सक्तियों को बड़ी प्रशंसा किया करते थे। हस्तिमल्ल ने पाण्ड्य नरेश का पनेक स्थानों पर उल्लेख किया है, पर उन्होंने उनके नाम का उल्लेख नहीं किया। वे उनके कृपापात्र थे और उनकी राजधानी में अपने विद्वान प्राप्तजनों के साथ प्रा बसे थे। पाण्डव नरेश ने सभा में उनका खूब सम्मान किया था। पाण्ड्य नरेश अपने भुजबल से कर्नाटक प्रदेश पर शासन करते थे। ब्रह्मसूरि ने प्रतिष्ठा सारोद्धार में लिखा है कि वे स्वयं हस्तिमाल के वश में हए हैं, उन्होंने उनके परिवार के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है। उन्होंने लिखा है कि पाण्ड्यदेश में दीप गुडिपत्तन के शासक पाण्ड्य राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, वीर, कलाकुशल और विद्वानों का प्रादर करते थे। वहां भगवान मादिनाथ का रत्न सुवर्ण जटित सुन्दर मन्दिर था, जिसमें विशाखनंदी आदि विद्वान मुनि रहते थे। कवि के पिता गोविन्दभट्ट यहीं के निवासी थे। पाण्डयराजाघों का राज्य दक्षिण कार्नाटक में रहा है। काकिल वगैरह भी उसमें शामिल थे। इस देश में जैनधर्म का अच्छा प्रभाव रहा है। इस वंश में प्रायः सभी राजा जनधर्म पर प्रेम और आस्था रखते थे। कवि हस्तिमल्ल विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान थे। कर्नाटक कवि चरित्र के कर्ता पार.नरसिंहाचार्य ने हस्तिमल्ल का समय ईसा की १३चीं शताब्दी का उत्तरार्घ १२६० और विक्रम सं० १३४७ निश्चित किया है। रचनाएं कवि की सात रचनाएं उपलब्ध हैं। विक्रान्तकौरव, मैथिली कल्याण, अंजनापवनंजय और सुभद्रा । ये चारों नाटक माणिक चन्द्र ग्रंथमालामें प्रकाशित हो चके हैं। प्रतिष्ठा पाठपारा जैन सिद्धान्तभवन में है मौर दो रचनाएं कन्नड भाषा की हैं अदिपुराण और श्र पुराण। इनकी मूल प्रतियां । मुलबिद्री पौर वरांग जन मठों में पाई जाती हैं। कन्नड आदि पुराण का परिचय डा०ए०एन० उपाध्ये ने अंग्रेजी में हस्तिमल्ल एण्ड हिज मादिपुराण नामक लेख में कराया है। पं. नरसेन इन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। इनकी दो कृतियां उपलब्ध हैं। सिद्धचक्रकषा पौर जिणरति. विहाण कथा। सिक कथा (श्रीपाल चरित)-इस ग्रन्थ में सिद्धाचक्र व्रतके माहात्म्य को व्यक्त करने वालो कथा दी हुई है। चम्पा नगरी के राजा श्रीपाल अशुभोदय वस और उनके सातसो साथी भयंकर कुष्ट रोग से पीड़ित हो गए। रोग की वद्धि हो जाने पर उनका नगर में रहना असह्य हो गया। उनके शरीर की दुर्गध से जनता का वहां रहना भी दूभर हो गया । तब जनता के अनुरोध से उन्होंने अपना राज्य अपने चाचा अरिदमन को दे दिया और १. कि बोणागुणझंकृतः किमयवा सामघुस्पन्दिभिविभ्राम्यत्सहकारकोरकशिखाकरवितसरपि । पर्याप्ताः श्रवणोत्सवाय कवितासाम्राज्यलक्ष्मीपते । सत्य नस्तव हस्तिमल्लसुभगास्तास्ताः सदासूक्तयः ।।-मै०० ना. २. दीपंगुडी पत्तनमस्तितस्मिन् हावलीतोरणराशिगोपुरैः । मनोहरागारसुरत्नसंभ्टतरुद्यानर्मात्यमरावतीब ।।३ तद्राज राजेन्द्रसुपाण्डयभूपः कौा जगतचापितवान सुधर्मा 1 रराज भूमाथिति निस्सपत्नः कलन्वितः सद्विवधैः परीतः ॥४ तत्रास्ति सद्रत्नसुर्वर्गतुंगचैत्यालये श्रीवपश्वरो जिनः । विशाखनन्दीदा मुनीद्रमुख्या:सट्रास्त्रयन्तो मुनयों वसन्ति ।।५ प्रग्नि संग्रह, आग पृ० १६९ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- माग २ कहा कि जब मेरा रोग ठीक हो जायेगा, तब मैं अपना राज्य वापिस ले लूँगा । श्रीपाल अपने साथियों के साथ नगर छोड़ कर चले गए, और अनेक कष्ट भोगते हुए उज्जन नगर के बाहर जंगल में ठहर गए। वहां का राजा अपने को ही सब कुछ मानता था कर्मों के फल पर उसका विश्वास नहीं था । उसको पुत्री मंना सुन्दरी ने जैन साधुनों के पास विद्याध्ययन किया था कर्मसिद्धान्त का उसे अच्छा परिज्ञान हो गया था। उसकी जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा और भक्ति थी! साथ ही साध्वी और शीलवती थी। राजा ने उसे अपना पति चुनने के लिये कहा, परन्तु उसने कहा कि यह कार्य शीलवती पुत्रियों के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में आप ही स्वयं निर्णय करें। राजा ने उसके उत्तर से असन्तुष्ट हो उसका विवाह कुष्ट रोगी धोपाल के साथ कर दिया। मंत्रियों ने नदत समभाया परन्तु उस पर राजा ने कोई ध्यान न दिया। निदान कुछ ही समय में मैना सुन्दरी ने, सिद्ध चक्र का पाठ भक्ति भाव से सम्पन्न किया और जिनेन्द्र के अभिषेक जल से उन सब का कुष्ठ रोग दूर हो गया। और वे सुखपूर्वक रहने लगे । पश्चात् श्रीपाल बारह वर्ष के लिये विदेश चला गया, वहां भी उसने कर्म के अनेक शुभाशुभ परिणाम देखे और बाह्मविभूति के साथ बारह वर्ष बाद मनासुन्दरी से प्रा मिला। उसे पटरानी बनाया और चम्पापुर जाकर चाचा से अपना राज्य वापिस लेकर प्रजा का सुखपूर्वक पालन किया । अन्त में तप द्वारा ग्रात्म-लाभ किया। इस कथानक से सिद्धचक्र की महत्ता का आभास मिलता है। रचना सुन्दर और संक्षिप्त है । कथानक रोचक होने के कारण इस पर अनेक ग्रन्थकारों की विभिन्न कृतियां पाई जाती हैं। ग्रन्थ में रचना काल और रचना स्थल का उल्लेख नहीं है। जिनरात्रि कथा-इसे बर्धमान कथा भी कहा जाता है। जिस रात्रि में भगवान महावीर ने प्रष्ट कर्म का नाशकर अविनाशी पद प्राप्त किया उस व्रत की यह कथा शिवरात्रि के ढंग पर रची गई है। उस रात्रि में जनता को इच्छामों पर नियंत्रण रखते हुए प्रात्म-शोधन का प्रयत्न करना चाहिये । रचना सरस है। कवि ने रचना में अपना कोई परिचय नहीं दिया और म गुरु परम्परा तथा समयादि का कोई उल्लेख ही किया है। इससे कवि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। सिद्धचक्र कथा की प्रति सं०१५१२ लिखी हुई उपलब्ध है, उस से इतना तो सुनिश्चित है कि ग्रन्थ उक्त संवत् से पूर्व बन चुका था। संभवतः ग्रन्थ १४वीं शताब्दी के पास-पास कहीं रचा गया जान पड़ता है। सुप्रभाचार्य इनका कोई परिचय प्राप्त नहीं है। इनकी एकमात्र कृति ७७ दोहात्मक वैराग्यसार है। जिसमें संसार के पदार्थों की असारता दिखलाते हुए वैराग्य को पुष्ट किया गया है। दोहों का अर्थ व्यक्त करने वाली अज्ञात कर्तृक एक संस्कृत टीका भी है, जो जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ और भाग १७ किरण १ में प्रकाशित है। दोहा उपदेशिक है। पाठकों की जानकारी के लिये उसमें से कुछ दोहा भावानुवाद के साथ नीचे दिये जाते हैं। भाषा सरल कथनी सम्बोधात्मक हैं। ग्रन्थ का पहला पद्य ही वैराग्यभाव का प्रतिपादन करता है। संसार में जहां एक घर में बधाई मंगलाचार हो रहे हैं वहीं दूसरे घर में घाड़मार-मार कर रोया जा रहा है। कवि सुप्रभपरमार्थभावसे कहता है कि ऐसी विषम स्थिति में वैराग्य भाव क्यों धारण नहीं किया जाता? इक्कहि घरे बधामणा प्रणहि घरि धाहहि रोविज्जइ। परमत्माई सुप्पट भणइ, किम बहरायाभाउ म किज्जह ॥१ सांसारिक विषयों की अस्थिरता और संसार की दुःखबहुलता का प्रतिपादन करते हए कवि प्रभ कहते है। कि हे धामिको ! दशविध धर्म से स्खलित मत होयो, सूर्योदय के समय जो शुभ ग्रह थे। वे सूर्यास्त के होने पर श्मशान हो गए। सुप्पउ भणहरे धम्मिपर खसह म धम्मवियाणि। जे सूरम्गमि धवलहरि ते अंथक्षण मसाण ॥२ कवि सुप्रभ का कहना है कि परोपकार करना मत छोड़, क्योंकि संसार क्षणिक है जब चन्द्रमा और मय भी अस्त हो जाते हैं तब अन्य कौन स्थिर रह सकता है। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि सप्पउ भणइमा परिहरह पर उषयार घरत्यु । ससि-सूर वुह ग्रंथणि अण्ण हं कवण चिरस्यु ॥३ यह जीव गुरुतर गंभीर पाप करके शरीर संरक्षणार्थ धन का संचय करता है, कवि सुप्रभ कहते है कि धन रक्षित वह शरीर दिन पर दिन गलता जाता है, ऐसी अवस्था में धन-धान्यादि अन्य परिग्रह कैसे नित्य हो सकते हैं। जस कारणि धन संबइ पाव करे विगहीरु। तं पिछह सुरपउ भणइ, दिणि दिणि गलह सरीरु ॥३६ जो पुरुष दीनों को धन देता है. सज्जनों के गुणों का आदर करता है। और मन को धर्म में लगाता है। कवि सुप्रभ कहते हैं कि विधि भी उसकी दासता करता है। धणु दीणहं गुण सज्जणहं मणु धम्महं जो देह। तह परिसे सुपज भणइ विही वासत्तु कोइ ॥३८ जिस तरह अपने बल्लभ (प्रिय) का ध्यान किया जाता है वैसा यदि अरहंत का ध्यान किया जाय तो कवि सुप्रभ कहते हैं कि तब मनुष्यों के घर के प्रांगन में ही स्वर्ग हो जाय। जिम भाइज्जइ वल्लहउ तिमाह जिय अरिहंतु । सम्पउ भणइ ते माणसहं सग्गु धरिंगण हुतु ॥ इस तरह यह वैराग्य सार दोहा भावात्मक उपदेश का सुन्दर ग्रन्थ है। दोहों की भाषा हिन्दी के प्रत्यन्त नजदीक है। इससे यह ग्रन्थ १४वीं शताब्दी का जान पड़ता है। विद्यानन्द मूलसंघ बलात्कारगण। सस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दान्वयं के विद्वान राय राजगुरुमंडलाचार्य महा वादवादीश्वर सकल विद्वज्जन चक्रवर्ती सिद्धन्ताचार्य पूज्यपाद स्वामी के शिष्य थे। शक सं० १३१३ या १३१४ (सन् १३९२ ई०) अंगिरस संवत्सर में फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी शनीवार के दिन विद्यानन्द के नाम पर निषिधि का निर्माण किया गया था। अत: मलखेड के यह विद्यानन्द ईसा की १५वीं सदी के विद्वान है। __ जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ०४२२ भास्करनन्दी प्रस्तुत भास्करनन्दी सर्वसाधु के प्रशिष्य और मुनि जिनचन्द्र के शिष्य थे। जैसा 'सूखबोषा' नामक तत्त्वार्थवृत्ति को प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है : "नो निष्ठोवेग्न शेते वति च न परं एहियाहीति जातु । नो कम्पयेत मात्र व्रजति न निशि नोटाट्येवद्वानपते। नावष्टं म्नाति किञ्चिद गणनिधिरिति यो बवपर्ययोगः। करवा संन्यासमन्ते शभगतिरभवत्सर्वसाधु प्रपूज्यः ॥२ तस्यासीत्सुविसवृष्टिविभवः सिद्धांतपारंगतः। शिष्यः श्रीजिनचन्द्रनामकलितश्चारित्र भवान्वितः।। शिष्यो भास्करनन्धिनाविधस्तस्या भवत्तत्ववित तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्वार्यवृत्तिः स्फट । भास्करनन्दी' नाम के एक विद्वान का उल्लेख लक्ष्मेश्वर (मंसूर) के सन् १०७७-७८ के लेख में मिलता १. एक भास्करनन्दी का उल्लेख पारा जैन सिद्धान्त भवन की न्याय मदचन्द्र की लिपि प्रति में सोयनन्दी प्रशिष्य और देवनन्दी के शिष्य भास्करनन्दी का उस्लेख है, जो क्षमसे मित्र है। (अनेकान्त वर्ष १ पृ. १३३ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ६५६ है। सूरस्थगण के श्रीनन्दिपंडित देव तथा उनके बन्धु भास्करनन्दि पंडितदेव के समाधिमरण का उल्लेख है । ( जैन लेख सं० भा० ४ पृ० ११३) । जिनचन्द्र नाम के भी अनेक विद्वान हो गए हैं : एक जिनचन्द्र का उल्लेख सं० १२२६ के विजोलिया के शिलालेख में है जो लोलाक के गुरु थे । कलसापुर (मैसूर) के सन् १९७६ के शिलालेख में बालचन्द्र की गुरुपरम्परा में गोपनन्दि चतुर्मुखदेव के बाद जिनचन्द्र का उल्लेख है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५६ में एक योगि जिनचन्द्र का उल्लेख है। चौथे जिनचन्द्र वे है । जिनका सं० १४४८ (सन् १३९२ ) के लेख में जिनचन्द्र भट्टारक के द्वारा मूर्ति स्थापना का उल्लेख है। पांचवे जिनचन्द्र वे हैं जिनका उल्लेख माधवनन्दी की गुरु परम्परा में गुणचन्द्र के बाद जिनचन्द्र का नाम दिया है। छठे जिनचन्द्र भास्करनन्दि के गुरु हैं। और सातवें जिनचन्द्र मूलसंघ के भट्टारक शुभचन्द्र के पधर है, जो सं० १५०७ में प्रतिष्ठित हुए थे। इनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी है । इन जिनचन्द्रों में से कौन से जिनचन्द्र भास्करनन्दि के गुरु थे, यह निश्चित करना कठिन है। भास्करनन्दि ने अपनी सुखबोधवृत्ति के तीसरे अध्याय के तोसरे सूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धृत किया :- जो उड्ढा के संस्कृत पंच संग्रह के जीव समास प्रकरण का १६८ वां पद्य है। द्विष्कपोताथ का पोता मील नीला च मध्यमा । नीलाकृष्णे च कृष्णाति कृष्णरत्नप्रभादिषु ॥३ पंच सं० १-१६० पृ० ६७० इसके अतिरिक्त भास्कर नन्दी ने चतुर्थ अध्याय के दूसरे सूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धृत किये हैं"लेश्या योगप्रवृत्तिः स्यात्कषायोदय रञ्जिताः । भावतो द्रव्यतोऽङ्गस्य छविः षोढोमतो तु सा ॥१-१८४ " षड्लेश्यांगा मसेऽन्येषां ज्योतिषका भौमभावनाः । कापोतमुद्गगोमूत्र वर्णलेइया निलाजिनः ॥१-१६० “श्याश्चतुषु षट् च स्युस्तिस्तिलः शुभास्त्रिषु । गुणस्थानेषु शुक्लंका षटषु निलश्यमम्तिमम् ।।१ - १६५ श्राद्यास्तिस्त्रोप्य पर्याप्तेष्व संख्येयाग्वं जीविषु । लेश्याः क्षायिक संदृष्टों कापोतास्या ज्जघन्यका" ॥१-११६ षट्ट-तियंभु तिस्त्रोऽन्त्यास्तेष्व संख्याय जीविषु । एकाक्ष विकला सं शिष्याद्य लेश्यात्रयं मतम् ।।१-१६७ बहुत बाद हुए हैं । इससे स्पष्ट है कि भास्करनन्दि ने उक्त पद्य उड़ता के संस्कृत पंचसंग्रह से उद्धृत किये हैं। उड्ढा का समय विक्रम को ११वीं शताब्दी का पूर्वा है। धौर भास्करनन्दि उसके शान्तिराज शास्त्री ने 'सुखबोधावृत्ति' की प्रस्तावना में भास्करनन्दी का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का अन्तिम भाग बतलाया है। मेरी राय में इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी होना संभव है ग्रन्थ सामने न होने से उस पर इस समय विशेष विचार नहीं किया जा सकता । भास्करनन्दी की दूसरी कृति ध्यानस्तव है। जिसमें भय प्रशस्ति पद्यों के १०० पद्य हैं, जिनमें ध्यान का वर्णन किया है इसका ध्यान से समीक्षण करने पर उसवर तत्त्वानुशासनादिग्रन्थों का प्रभाव परिलक्षित होता है । १. जैन लेख सं० भा० ४ पृ० २०१ २. जैन लेख संग्रह भा० १० ११५ ३. जैन लेख सं० भा० ४ पृ० २०७ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्याय १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि कवि रइधू कषि गोविन्द हरिचन्द्र अग्रवाल कवि कोटीश्वर भट्टारक पधनन्दी पंडित खेता भट्टारक यशःकीति भट्टारक ज्ञानभषण मुनि कल्यारणकीति कवि दामोदर भट्टारक प्रभाचन्द्र नागचन्द्र भाशुभकीति प्रभिनय समन्तभद्र कवि मंगराज (तृतीय) भ० गुणभत्र सोमदेव ब्रह्म श्रुतसागर पचनाभ कायस्थ ब्रह्म नेमिदत्त कषि पनपाल अभिनव धर्मभूषण भट्टारक सकलकीति भ० विद्यामन्दि पण्डित रामचन्द्र भ० श्रुतकीति नागदेव कवि माणिक्यराज चारुकीति पण्डितवेव कवि तेजपाल लक्ष्मीचन्द्र भ० सोमकोति कवि हल्ल या हरिचन्द्र अजित ब्रह्म कचि असवाल कवि ठकुरसी ब्रह्म साधारण ब्रह्म जी बंधर बुध विजयसिंह पं. नेमिचन्द्र (प्रतिष्ठा तिलक के pal) भट्टारक शुभचन्द्र कवि धर्मधर भ० रनकीर्ति पं० हरिचन्द्र पंडित योगदेव पं० मेघावी कवि जल्हिग कवि महाचन्द्र नेमचन्द्र भ० प्रभाबन्द्र पण्डित नेमिचन्द्र भ० शुभचन्द्र भ. शुभचन्द्र भ० अमरकीति कवि भास्कर वीर कवि या बुधवीर भ० कमलकोति कवि वोड्डय्य कवि चन्द्रसेन पंडित जिनवास Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *૪** ब्रह्म कृष्ण या केशवसेन सूरि वादिचन्द्र कवि राजमल्ल शाह ठाकुर भट्टारक विश्वसेन भट्टारक विद्याभूषण भ० श्रीभूषण भ० चन्द्रकोति भ० सकलभूषण भ० धर्मकीति भ० गुणचन्द्र भ० रतनचन्द्र यादि विद्यानन्द ब्रह्म कामराज ब्रह्म रायमल्ल भ० ज्ञानकीति पण्डित रूपचन्द्र सुमतिकीति भट्टकलंकदेव कवि भगवतीदास भ० सिंहनादी पण्डित शिवाभिराम पण्डित प्रक्षयराम कवि नागव पं० जगन्नाथ कवि बाविराज श्ररुणमणि (लालमणि ) भ० देवेति भ० धर्मचन्द्र विमलब्ध जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-२ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ १५वी, १६वौं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि कविवर रइघू कविवर रइध संघाधिय देवराय के पौत्र और हरिसिंघ के पुत्र थे, जो विद्वानों को आनन्ददायक थे, और माता का नाम 'विजयसिरि' (विजयश्री) था जो रूपलावण्यादि गुणों से अलंकृत होते हुए भी शोल संयमादि सदगणों से विभूषित थी। कविवर की जाति पनावती पुरवाल थी और कविवर उक्त पद्मावती कूलरूपी कमलों को विकसित करने वाले दिवाकर (सूर्य) थे जैसाकि 'सम्मइजिनचरित' ग्रंथ को प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है-- स देवराय संघाहिब गंवण, हरिसिंघु बुहमण कुल, प्राणंदणु। 'पोमावा कुल कमल-विवायर, हरिसिंघु बुहयण कुल, प्राणंवणु। जस्स घरिज रघु बह जायउ, वेष-सत्य-गुरु-पय-अणुरायउ॥' ___ कविवर ने अपने कुल का परिचय 'पोमावइकुल' पोमावइ 'पुरवाडवंस' जैसे वाक्यों द्वारा कराया है। जिससे वे पद्मावती पुरबाल नाम के कुल में समुत्पन्न हुए थे। जनसमाज में चौरासी उपजातियों के अस्तित्व का उन्जेस गलता है। उनमें कितीही पारियों का अस्तित्व बाज नहीं मिलता। किंतु इन चौरासी जातियों में ऐसी कितनी ही उपजातियां अथवा वंश हैं जो पहले कभी बहुत कुछ समूड और सम्पन्न रहे हैं। किंतु ग्राज वे उतने समुख एवं वैभवशाली नहीं दिखते और कितने ही वंश एवं जातियां प्राचीन समय में गौरवशाली रही है किंतु माज उक्त संख्या में उनका उल्लेख भी शामिल नहीं है। जैसे धर्कट यादि। इन चौरासी जातियों में पद्मावती पुरवाल भी एक उपजाति है, जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर मादि स्थानों में प्राबाद है । इनकी जनसंख्या भी कई हजार पाई जाती है। वर्तमान में यह जाति बहुत कुछ पिछड़ी हुई है तो भी इसमें कई प्रतिष्ठित विद्वान हैं। वे आज भी समाज-सेवा के कार्य में लगे हुए हैं। यद्यपि इस जाति के विद्वान् अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं और अपने को देवनन्दी (पूज्यपाद) का सन्तानीय भी प्रकट करते हैं, परन्तु इतिहास से उनकी यह कल्पना केवल कल्पित जान पड़ती है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि उपजातियों का इतिवृत्त अभीगंधकार में है। जो कुछ प्रकाश में प्रा पाया है, उसके प्राचार से उसका अस्तित्व विक्रम की दशमो शती से पूर्व का ज्ञात नहीं होता। हो सकता है कि उसके भी पूर्ववर्ती रही हों, परन्तु बिना किसी प्रामाणिक आधार के इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा राकता, पट्टावली वाला दूसरा कारण भी प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पट्टावली में प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) को पद्मावती-पुरवाल लिखा है, परन्तु प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से उनका पद्मावती-पुरवाल होना प्रमाणित नहीं होता, कारण कि देवनन्दी ब्राह्मण कुल में समुत्पन्न हुए थे। जाति और गोत्रों का अधिकांश विकास अथवा निर्माण गांव, नगर और देश आदि के नामों पर से हमा है। उदाहरण के लिए सांभर के पास-पास के बघेरा स्थान से बघेरवाल, पाली से पल्लोबाल, खण्डेला से खण्डेलवाल, अम्रोहा से अग्रवाल, जायस अथवा जैसा से जैसवाल और ओसा से मोसवाल जाति का निकास हा है। तथा चंदेरी के निवासी होने से चन्देरिया, चन्दवाड से चांदुबाड या चांदवाड और पद्मावती नगरी से पद्मावतिया मादिगोत्रों एवं मर का उदय हा है। इसी तरह अन्य कितनी ही जातियों के सम्बंध में प्राचीन लेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, ग्रन्थप्रशस्तियों और ग्रन्थों मादि पर से उनके इतिवृत्त का पता लगाया जा सकता है। --- - - - - १. हरिसिंघहु पुत्तें गुणगण जुत्तं हंसिवि विजयसिरि पदणेण। -समत्त गुणनिधान जैन ग्रन्य प्र०, प्रस्ता. भा० पृ०६७ २. यह जाति जैन समाज में गौरवशालिनी रही है। इसमें अनेक प्रतिष्ठित श्रीसम्पन्न श्रावक पौर विद्वान हुए हैं जिनको कृतियां आज भी अपने अस्तित्व से भूतल को समलंकृत कर रही है। भविष्यवत कथा के कर्ता बुध धनपाल और धर्मगरीक्षा के कर्ता बुध हरिषेण ने भी अपने जन्म से 'धकंट बंश को पावन किया है । हरिषेण ने अपनी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०४ में बनाकर समाप्त की है। घट वंश के अनुयायी दिगम्बर वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रहे हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ उक्त कविवर के ग्रंथों में उल्लिखित 'पोमावई' शब्द स्वयं पद्मावती नाम की नगरी का वाचक है। यह नगरी पूर्व समय में खूब समृद्ध थी। उसकी इस समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के वि० सं० १०५२ के शिलालेख में पाया जाता है। इसमें यह बतलाया गया है कि यह नगरी ऊँचे-ऊँचे गगनचुम्बी भवनों एवं मकनातों से सुशोभित की उसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और उसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें प्राकाश से बातें करती थीं ४६० सोधुत्तुंगपतङ्गलङ्घनपथप्रोतुंगमालाकुला. शुभाष पाण्डुरो शिखरप्राकार चित्रा (म्ब) रा प्रालेयाचल शृङ्गसन्ति ( नि ) भशुभप्रासाब सद्मावती भव्या पूर्वमभूपूर्व रखना या नाम 'पद्मावती ॥ वंगतुंगतुरंगमोदगमक्षु (खु) रक्षोदाव्रजः प्रो [इ] त, यस्यां जी (f) कठोर बभु (स्त्र) मकरो कूर्मोदराभं नमः । मत्तानेककरालकुम्भि करटप्रोत्कृष्टदृष्ट्या [4 भु] यं । तं कर्दम मुद्रिया क्षितितलं ता ब्रू (अ) त कि संस्तुमः ॥ — Enigraphica Indica V. 1. P. 149 इस समुल्लेख पर से पाठक सहज ही में पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं। इस नगरी को नागराजाओं की राजधानी बनने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था और पद्मावती कांतिपुरी तथा मथुरा में नी नागराजायों के राज्य करने का उल्लेख मिलता है। पद्मावती नगरी के नागराजाओं के सिक्के भी मालवा में कई जगह मिले हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है। मालती माधव में भी पद्मावती का कथन पाया जाता है जिसे लेखवृद्धि के भय से छोड़ा जाता है। परंतु खेद है कि आज यह नगरी यहां अपने उस रूप में नहीं है किन्तु ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक एक छोटा सा गांव बसा हुआ है, जो कि देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर 'देवरा' नाम के स्टेशन से कुछ ही दूर पर स्थित है । यह पद्मावती नगरी ही पद्मावती जाति के निकास का स्थान है। इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया' ग्राम पद्मावती पुरवालों के लिए विशेष महत्व की वस्तु है। भले ही वहां पर श्राज पद्मावती पुरवालों का निवास न हो, किन्तु उसके आस पास आज भी वहां पद्मावती पुरवालों का निवास पाया जाता है। ऊपर के इन सब उल्लेखों पर से ग्राम नगरादिक नामों पर से उपजातियों की कल्पना को पुष्टि मिलती है । श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने 'परवार जाति के इतिहास पर प्रकाश' नाम के अपने लेख में परवारों के साथ पद्मावती पुरवालों का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया था और पं० बखतराम के 'बुद्धिविलास' के अनुसार सातवां भेद भी प्रगट किया है। हो सकता है कि इस जाति का कोई सम्बन्ध परवारों के साथ भी रहा हो किन्तु पद्मावती पुरवालों का निकास परवारों के सत्तममूर पद्मावतिया से हुआ हो। यह कल्पना ठीक नहीं जान पड़ती और न किन्हीं प्राचीन प्रमाणों से उसका समर्थन ही होता और न सभी 'पुरवावंश' परवार ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि पद्मावती पुरवालों का निकास पद्मावती नगरी के नाम पर हुआ है, परवारों के सत्तममूर् से नहीं । माज भी जो लोग कलकत्ता और देहली भादि दूर शहरों में चले जाते हैं उन्हें कलकतिया या कलकत्ते १. नवनागा पद्मावत्यां कांतिपुर्यां मथुरायां विष्णु पु० अंश ४ अ० २४ । २. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द पहला संस्करण पृ० २३० । २. देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण ७ ४, सात खांप परवार कहावे, तिनके तुमको नाम सुनावें । असा पुनि है चौसक्ला, ते सक्खा पुनि हैं दोसखा । सोरठिया अरु गांगज़ जातो, पद्मावतिया सत्तम मानो । - बुद्धिविलास Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F י १५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, मट्टारक और कवि ૪૬ वाला देहलवी या दिल्ली वाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह परवारों के सत्तममूर पद्मावतिया की स्थिति है । गांव के नाम पर से गोत्र कल्पना कैसे की जाती थी इसका उदाहरण पं० बनारसीदासजी के कथानक से ज्ञात होता है और यह इस प्रकार है- मध्यप्रदेश के निकट 'बीहोलो' नाम का एक गांव था उसमें राजवंशी राजपूत रहते थे । वे गुरु प्रसाद से जैनी हो गये और उन्होंने माना पापमय किया काण्ड छोड़ दिया। उन्होंने णमोकार मन्त्र की माला पहनी, उनका कुल श्रीमाल कहलाया और गोत्र बिहोलिया रखखा गया। याही भरत सुखेत में, मध्यदेश शुभ ठांउ । वसे नगर रोहतगपुर, निकट बिहोली गांउ ॥ ८ गांउ बिहोली में बसे राजवंश रजपूत से गुरुमुख जंनी भए, त्यागि करम अध-भूत ।। ६ पहिरीसाला मंत्र की पायो कल श्रीमाल । थाप्यो गोत्र बिहोलिया, बीहोली रखपाल ।। १० ।। इसी तरह से उपजातियों और उनके गोत्रादि का निर्माण हुआ है । कवि रघू भट्टारकीय पं० थे और तात्कालिक भट्टारकों को ने अपना गुरु मानते थे। और भट्टारकों के साथ उनका इधर-उधर प्रवास भी हुआ है। उन्होंने कुछ स्थानों में कुछ समय ठहरकर कई ग्रंथों की रचना भी की है, ऐसा उनकी ग्रंथ प्रशस्तियों पर से जाना जाता है। वे प्रतिष्ठाचार्य भी थे और उन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनके द्वारा प्रतिष्ठित कई मूर्तियों के मूर्तिलेख श्राज भी प्राप्त हैं जिनसे यह मालूम होता है कि उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा सं० १४९७ और १५०६ में ग्वालियर के प्रसिद्ध शासक राजा के राज्य में कराई थी। वह मूर्ति आदिनाथ की है।" और सं० १५२५ का लेख भी ग्वालियर के राजा कीर्तिसिंह के राज्यकाल का है। मह कविवर बिवाहित थे या अविवाहित, इसका कोई सष्ट उल्लेख मेरे देखने में नहीं यावा ओर न कवि ने अपने को बालब्रह्मचारी ही प्रकट किया है। इससे तो वे विवाहित मालूम होते हैं और जान पड़ता है कि ब गृहस्थ- पंडित थे और उस समय वे प्रतिष्ठित विद्वान् गिने जाते थे । ग्रन्थ-प्रणयन में जो भेंटस्वरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होते थे, वही उनकी ग्राजीविका का प्रधान ग्राधार था। बलभद्र चरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्ति के १७ कवक के निम्न वाक्यों से मालूम होता है कि उक्त कविवर के दो भाई और भी थे, जिनका नाम चाहोल और महिणसिंह था। जैसा कि उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है--- मिरिपोमाबद्दपुर वालवंसु, नंदउ हरिसिंधु संघवी जासुसंस एतां - बाहोल माहणसिंह चिरु णंद, इह रधूकवि तीयउ वि धरा । मोलिक्य समाणउ कलगण जाणउ णंद महियति सो दि परा ॥ यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मेघेश्वर चरित ( प्रादिपुराण) की संवत् १८५९ की लिखी गई एक प्रति नजीराबाद जिला बिजनौर के शास्त्र भण्डार में है जो बहुत ही अशुद्ध रूप में लिखी गई है जिसके कर्ता ने अपने को याचार्य सिंहमेन लिखा है और उन्होंने अपने को संघवी हरिसिंह का पुत्र भी बतलाया है। सिंहसेन के आदिपुराण के उस उल्लेख पर से ही पं० नाथूरामजी प्रेमी ने दशलक्षण जयमाला की प्रस्तावना मैं कविर का परिचय कराते हुए फुटनोट में श्री पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार की धू को सिंहसेन का बड़ा भाई मानने की कल्पना को प्रसंगत ठहराते हुए रघू और सिंहसेन को एक ही व्यक्ति होने की कल्पना की है। परन्तु प्रेमीजी की यह कल्पना संगत नहीं है और नर सिंहसेन का बड़ा भाई ही हैं किन्तु रहधू और सिंहमेन दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। सिंहसेन ने अपने को 'ग्राइरिय' प्रगट किया है जबकि रइधू ने अपने को पण्डित और कवि ही सूचित किया है। उस आदिपुराण की प्रति को देखने और दूसरी प्रतियों के साथ मिलान करने से यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रघू ही हैं। सारे ग्रन्थ की केवल आदि अन्त प्रशस्ति में ही कुछ परिवर्तन है। शेष ग्रन्थ का कथा भाग ज्यों का त्यों है उसमें कोई अन्तर नहीं । ऐसी स्थिति में उक्त प्रादिपुराण के कर्ता १. देखो, ग्वालियर जेटियर जि० १, तथा अनेकान्त वर्ष १० कि० ३, पृ० १०१ । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रइधु कवि ही प्रतीत होते हैं, सिंहसेन नहीं । हाँ, यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्य का कोई दूसरा ही ग्रन्थ रहा हो, पर उक्त ग्रन्थ सिहसेनादुरिय का नहीं किन्तु रघु कविकृत ही है। सम्मइजिनचरिउ की प्रशस्ति में रइधू ने सिंहसेन नाम के एक मुनि का उल्लेख भी किया है और उन्हें गुरु भी बसलाया है और उन्हीं के वचन से सम्मइजिनचरिउ की रचना की गई है । धत्ता-- "तं णिसणि वि गरुणा गच्छह गरुणाई सिंहसेण मुणे। पुरुसंटिउ पंडिउ सील प्रखंडिउ भणिउ तेण तं तम्मि खणि ।।५।। गुरु परम्परा कविवर ने अपने ग्रन्थों में अपने गरु का कोई परिचय नहीं दिया है और न उनका स्मरण ही किया है । हां, उनके ग्रन्थों में तात्कालिक कुछ भट्टारकों के नाम अवश्य पाये जाते हैं जिनका उन्होंने आदर के साथ उल्लेख किया है। पद्मपुराण की प्राच प्रशस्ति के चतुर्थ कडवक को निम्न पंक्तियों में, उस्त ग्रन्थ के निर्माण में प्रेरक साह हरशी द्वारा जो वाक्य कवि रइधु के प्रति कहे गए हैं उनमें रइधू को 'श्रीपाल ब्रह्म आचार्य के शिष्य रूप से सम्बोधित किया गया है। साथ ही साहू सोडल के निमित्त नमिपुराण के रचे जाने और अपने लिए रामचरित के कहने की प्रेरणा भी की गई है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि रइधू के मुरु ब्रह्म श्रीपाल थे। वे वाक्य इस प्रकार हैं: भो रइधू पंडिउ गुण णिहाणु, पोमावइ घर संसह पहाणु। सिरिपाल अहा प्राय रिय सीस, मह वयणु सुणहि भो घुह गिरीस ।। सोढल णिमित्त गेमिहु पुराण, विरयउ जह कइजणविहिय-माण। तं रामचरित्तु वि मह भणेहि, लक्खण समेत इय मणि मुणेहि ॥ प्रस्तुत ब्रह्म थोपाल कवि रइ के गुरु जान पड़ते हैं, जो भद्रारक यश:कोति के शिष्य थे। 'सम्मइ-जिनचरित्र' की अन्तिम प्रशस्ति में मुनि यश:कीति के तीन शिष्यों का उल्लेख किया गया है। खेमचन्द, हरिषेण मौर ब्रह्म पाल (ब्रह्म श्रीपाल)। उनमें उल्लिखित मुनि ब्रह्मपाल ही ब्रह्म श्रीपाल जान पड़ते हैं । अब तक सभी विद्वानों की यह मान्यता थी कि कविवर रइधू भट्टारक यशःकीर्ति के शिष्य थे कित इस समूल्लेख पर से वे यश:कीर्ति के शिष्य न होकर प्रशिष्य जान पड़ते हैं। कविवर ने अपने ग्रंथों में भट्टारक यशःकीति का खुला यशोगान किया है और मेघेश्वर चरित की प्रशस्ति में तो उन्होंने भट्टारक यशःकीति के प्रसाद से विचक्षण होने का भी उल्लेख किया है। सम्मत गुण-णिहाण नथ में मूनि यश कौति को तपस्वी, भव्यरूपी कमलों को संबोधन करने वाला सूर्य, और प्रवचन का व्याख्याता भी बतलाया है और उन्हीं के प्रसाद से अपने को बाध्य करने वाला और पापमल का नाशक बतलाया है। तह पुणु सुतव तावतवियंगो, भन्ब-कमल-संबोह-पयंगो। णिच्चोभासिय पचयण संगो, वंदिय सिरि जसकित्ति प्रसंगो। तासु पसाए कम्यु पयासमि, ग्रासि विहिज कलि-मलु-णिण्णासमि । इसके सिवाय यशोधर चरित्र में भट्टारक कमलकीति का भी गुरु नाम से स्मरण किया है। निवास स्थान और समकालीन राजा सविवर रइधू कहां के निवासी थे और वह स्थान कहां है और उन्होंने ग्रन्थ रचना का यह महत्वपूर्ण कार्य किन राजामों के राज्यकाल में किया है यह बातें अवश्य विचारणीय है । यद्यपि कवि ने अपनी जन्मभूमि प्रादि का कोई परिचय नहीं दिया, जिससे उस सम्बन्ध में विचार किया जाता, फिर भी उनके निवास स्थान आदि के १. मुण जसकित्ति हु सिस्स गुणायरु, खेमचन्दु हरिसेणू तथायरु । मुणि तं पाल्हु बभुए णंदा, तिणि वि पाव भास णिकंबहु । --सम्मइ जिनवरि उ प्रवास्ति Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वों, १५वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि सम्बन्ध में जो कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है, उसे पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है: उक्त कवि के ग्रन्थों से पता चलता है कि वे ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्द्धमान जिनालय में रहते थे और कचित्तरूपी रसायन के निधि रसाल थे। ग्वालियर १५वीं शताब्दी में खूब समुद्ध था, उस समय वहां पर देहली के तोमर वंश का शासन चल रहा था। तोमर वंश बड़ा ही प्रतिष्ठित क्षत्रिय वंश रहा है और उनके शासनकाल में जैनधर्म को पनपने का बहत कुछ पाश्रय मिला है। जैन साहित्य में ग्वालियर का महत्वपुर्ण स्थान रहा है। उस समय तो वह एक विद्या का केन्द ही बना हना था, वहां की मूर्तिकला और पुरातत्व की कलात्मक सामग्री माज भी दर्शकों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। उसके समवलोकन से ग्वालियर की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है। कविबर ने स्वयं सम्यक्त्व-गुण-निधान नामक ग्रन्थ को आद्य प्रशस्ति में ग्वालियर का वर्णन करते हुए वहां के तत्कालीन श्रावकों की चर्या का जो उल्लेख किया है उसे बतौर उदाहरण के नीचे दिया जाता है: सह रसिक महायम कपण, गुरु-देव सत्थ विणयं वियछ । जहि वियक्तण मण व सध्व, धम्माणुरत पर गलिय गव्व ।। जहि सत्त-यसण-चुय सावयाई, णिवसहि पालिय बो-वह-वयाई । सम्मइंसण-मणि-भूसियंग, णिच्चोम्भासिय पक्ष्यण सुयंग ।। वारापेखण-विहि मिचलीण, जिण महिम महच्छव णिरु पवीण । चेयणगण अप्पारुह पवित्त, जिण सुत्त रसायण सबण तित्त ।। पंचम बुल्समु अइ-विसमु-कालु, पिद्दलि वि तुरिउ पविहिउ रसालु। धम्ममाणे जे कालु लिति, णक्यारमंतु प्रह-णिस गुणंति ॥ संसार-महष्णव-वडण-भीय, णिस्संक पमुह गुण अण्णणीय। जहि णारीयण दिद्ध सोलजुत्त, दाणे पोसिय णिरु तिथिह पत्त ।। तिय मिसेण लच्छि अवयरिय एत्थु, गयरूव ग दोसह का वि तेस्य । वर अंवर कणयाहरण एहि, मंडिय तणु सोहहिं मणि जडेहिं ।। जिण-णतण-पूय-उछाह चित्त, भव-तण-भोयहि णिच्च जि विरुत्त । गुरु-वेव पाप पंकयाहि लीए, सम्मइंसणपालण परीण ।। पर पुरिस स-बंधव सरिस जांहि, अह णिस पडियण्णिय णिय मणाहि। किवणमि तहि हज' पुरिस णारि, जहि डिभ वि सग वसणावहारि । पटहि पदयहि पोसह कुणंति, घरि घरि चच्चरि जिण गुण थुपंक्ति । साहम्मि य वत्यु णिरु वहंति, पर अवगुण झपहि गुण कहति ॥ एरिसु सावहि विहियमाणु, मीसुरजिण हरि वड्ढमाणु। णिवसइ जा रइधू कवि गुणालु, सुक्ति-रसायण-णिहि रसालु ॥५॥ इन पद्यों पर दृष्टि डालने से उस समय के ग्वालियर की स्थिति का सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उस समय लोग कितने धार्मिक सच्चरित्र और अपने कर्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने तथा अनुकरण करने की वस्तु है। ग्वालियर में उस समय तोमर वंशी राजा डंगरसिंह का राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और जैनधर्म में प्रास्था रखने वाला शासक था। उसने अपने जीवन काल में अनेक जैन मूर्तियों का निर्माण कराया, वह इस पुनीत कार्य को अपनी जीवित अवस्था में पूर्ण नहीं करा सका था, जिसे उसके प्रिय पुत्र कीतिसिंह या करणसिंह ने पूरा किया था। राजा हूगरसिंह के पिता का नाम गणेश या गणपतिसिंह या, जो वीरमदेव का पुत्र था। गणपतिमिह वि० सं० १४७६ में राज्य पद पर मासीन थे । इनके राज्य काल में उक्त संवत् वैशाख सुदि शुक्रवार के दिन मूलसंघो नंबाम्नायी भट्टारक शुभचन्द्र देव के मण्डलाचार्य पण्डित भगवत के पुत्र खेमा और धर्मपत्नी खेमादे ने पातु की Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ चौबीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी' पश्चात सं०१४८१ में इंगरसिंह राजगद्दी पर बैठा । राजा गर्रासह राजनीति में दक्ष, शत्रयों के मान मर्दन करने में समर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्रतेज से अलंकृत था। गुण समूह से विभूषित, अन्याय रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्र में कुशल तथा असि रूप अग्नि से मिथ्यात्व-रूपी वंश का दाहक था । उसका यश सब दिशात्रों में व्याप्त था। वह राज्य पट्ट से अलंकृत, विपुल बल से सम्पन्न था। इंगरसिंह की पटरानी का नाम दादे था, जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी । इनके पुत्र का नाम करणसिंह, कोतिमिह या कीर्तिपाल था, जो अपने पिता के समान ही गुणज, बलवान और राजनीति में चनूर था। डूंगरसिंह ने नरवर के किले पर घेरा डाल कर अपना अधिकार कर लिया था। शत्रु लोग इसके प्रताप एवं पराक्रम से भयभीत रहते थे । जनधर्म पर केवल उसका अनुराग ही न था किंतु उस पर वह अपनी पुरी प्रास्था भी रखता था। फलदासने जैन मूर्तियों की सगाई राहतो रुपये व्यय किए थे। इससे ही उसको आस्था का अनुमान किया जा सकता है। डंगरसिंह सन् १४२४ (वि० सं० १४८१) में ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था । उसके राज्य समय के दो मूर्ति लेख सम्बत १४१६ और १५१० के प्राप्त हैं । सम्बत् १४८२ की एक, और सम्बत् १४५६ को दी लेखक प्रशस्तियो पं० विखूध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश-भाषा के सूकमालचरित्र की प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय 'भविग्यदत पंचमी कथा' की एक अपूर्ण लेखक प्रशस्ति कारंजा के ज्ञान भण्डार का प्रति से प्राप्त हुई है । डूंगरसिंह ने वि० सं० १४८१ से सं० १५१० या इसके कुछ बाद तक शासन किया। उसके बाद राज्य सत्ता उसके पुत्र कोतिसिंह के हाथ में पाई थी। कविवर रइधू ने राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में तो मनेक ग्रन्थ रचे ही हैं किन्तु उनके पुत्र कीतिसिह के राज्य काल में भी सम्यक्त्व कौमुदी (सावय चरिउ) की रचना की है। ग्रन्थकर्ता ने उक्त प्रन्थ को प्रशस्ति में कीतिसिंह का परिचय कराते हुए लिखा है कि वह तोमर कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाला सूर्य था और दुर्बार शत्रुमों के संग्राम से अतृप्त था । वह अपने पिता डूंगरसिंह के समान ही राज्य भार को धारण करने में समर्थ था। बन्दी-जनों ने उसे भारी अर्घ समर्पित किया था। उसकी निर्मल यश रूपी लता लोक में व्याप्त हो रही थी। उस समय वह कलिचक्रवर्ती था। तोमरकुलकमलवियास मित्त, दुचारवरिसंगर प्रतित्तु । इंगरणिवरज्जघरा समस्थु, बंबीयण समप्पिय भूरि प्रत्यु । चउराय विज्जपालण प्रतंव, हिम्मल जसबल्ली भुवरणकंदु । कलिचक्कवट्टि पायडणिहाणु, सिरिकित्तिसिंधु महियहपहाणु ॥ -सम्यक्त्व कौमुदी पत्र २ नागौर भण्डार १. चौबीसी धातु-१५ इंच-संवत् १४७६ वर्ष बैशाखसुदि ३ शुक्रवासरे श्री गणपति देव राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसंघ नंद्याम्नाये भट्टारक शुभचन्द्र देवा मंडलाचार्य पं. भगवत तत्पुत्र संघवी खेमा भार्या खेमादे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारापितम्। नयामंदिर लश्कर २. सं० १४८२ वैशाखसुदि १० श्रीयोगिनीपुरे साहिजादा मुरावखान राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठा संघ माथुशन्दये पुष्करगरणे आवायं श्रीभावसेन देवास्तत्प? म. श्रीगुणकीर्तिदेवास्तरिदायी यश कीति देवा उपदेशेन लिखापितं ।। -जैन अन्यसूची भा० ५ पृ० ३६३ ३. सन् १४५२ (वि० सं० १५०६) में जौनपुर के सुलतान महमूदशाह शर्की और देहली के बादशाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले संग्राम में कीर्तिसिंह का दूसरा भाई पृथ्वीपाल महमूदशाह के सेनापति फतहखां हावीं के हाथ से मारा गया था। परंतु कविवर रधु के ग्रंथों में कीर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीपाल का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। -- देखो ढाड राजस्थान पृ० २५० स्वर्गीय महामना गौरीशंकर हीराचंद जी ओझा कृत ग्वालियर की तंवर वंशावामी टिप्पणी। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 A १५, १६वीं १७वीं, और १०वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ૪૬+ कीर्तिसिंह वीर और पराक्रमी शासक था। उसने अपना राज्य अपने पिता से भी अधिक विस्तृत किया था । वह् दयालु एवं सहृदय था । जैनवर्म के ऊपर उसकी विशेष आस्था थी। वह अपने पिता का आज्ञाकारी था, उसने अपने पिता के जैनमूर्तियों के खुदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीपाल नाम का एक भाई पर भी था। जो लड़ाई में मारा गया था। कीर्तिसिंह ने अपने राज्य को यहाँ तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उसका राज्य मालवे के सम कक्षका हो गया था। दिल्ली का बादशाह भी कीर्तिसिंह की कृपा का अभिलाषी बना रहना चाहता था । सन् १४६५ (वि० सं० १५२२ ) में जौनपुर के महमूदशाह के पुत्र हुसैनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी। तब से कोंतिसिंह ने देहली के बादशाह बहलोल लोदो का पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुर वालों का सहायक बन गया था । सन् १४७८ (वि० सं० १५३५ ) में हुसैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़कर तथा भागकर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंह की शरण में गया था तब कीर्तिसिंह ने घनादि से उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुंचाया भी था । इसके सहायक दो लेख सन् १४६८ और (वि० सं० १५२५) सन् १४७३ (वि० सं० १५३० ) के मिले हैं। कीर्तिसिंह की मृत्यु सन् १४७६ ( वि० सं० १५३६) में हुई थी। अतः इसका राज्य काल सम्वत् १५१० के बाद से सं० १५३६ तक पाया जाता है। इन दोनों के राज्यकाल में ग्वालियर में जैनधर्म खूब पल्लवित हुआ । रचनाकाल कवि रइधू के जिन ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यहाँ उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। कवि की सबसे प्रथम कृति श्रात्म-सम्बोध काव्य है। उसकी सं० १४४८ की लिखित प्रति आमेर भण्डार में सुरक्षित है । इधू के सम्मत्त गुणनिधान और सुकोसलचरिउ इन दो ग्रन्थों में ही रचना समय उपलब्ध हुआ सम्मत्त गुणनिधान नाम का ग्रन्थ वि० सं० १४९२ की भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार के दिन बनाया गया है और जो तीन महीने में पूर्ण हुआ था और सुकोशलचरिउ उसले चार वर्ष बाद विक्रम सं० १४९६ में माघ कृष्णा दशमो के 1 अनुराधा नक्षत्र में पूर्ण हुआ है । सम्मत्तगुणनिधान में किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई उल्लेख नहीं है, हाँ कोशलचर में पार्श्वनाथ पुराण, हरिवंश पुराण और बलभद्रचरित इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि ये तीनों ग्रन्थ भी संवत् १४६६ से पूर्व रचे गये हैं और हरिवंश पुराण में त्रिषष्टिशलाका रुप चरित ( महापुराण) मेघेश्वरचरित, यशोधर चरित, वृत्तसार, जोबवरचरित थोर पार्श्वचरित इन छह ग्रन्थों के रचे जाने का उल्लेख है, जिससे जान पड़ता है कि ये ग्रन्थ भी हरिवंश की रचना से पूर्व रचे जा चुके थे। सम्मइ जिनचरिउ में, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित ( महापुराण) बलभद्रचरित ( पउमचरिउ ) सिद्धचक्र विधि, सुदर्शनचरित और धन्यकुमारचरित इन सात ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह ग्रन्थ भी उक्त सम्वत् से पूर्व रचे जा चुके थे । १. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था उसका राज्य काल सन् १४५१ वि०स० १५०८) से लेकर सन् १४८६ (वि० सं० १५४६ ) तक ३० वर्ष पाया जाता है। " ९. देखो, मोझा जी द्वारा सम्पादित टाट राजस्थान हिन्दी पृष्ठ २५४ ३. दवाव उत्तरालि, दरिस इगय विक्क मरायकालि । वक्तु जिविय समस्ति भव मासम्मि स-सेम पवित्र । मिरिण कुजवारे संभोई, मुहयारे सुहणामें जइ । हि मास रहि पुण्ड सम्मत्तगुणा हिहि ४. "सिरि विक्कम समयंतरालि बट्टंतर इंदु सम धूउ ।" विभ्रम कालि । उदय संवधर अग्ग छाव बहिपुस्y जाय पुण्ण । माह दुहिम दिम्भ, बाराहुरिकल पडिय सकम्मि | " Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास २ इसके अतिरिक्त करकण्डुचरित, सम्यक्त्व कौमुदी, वृत्तसार श्रणवमोचा, पुण्यावरुचा सिद्धांतार्थसार, दशलक्षण जयमाला और घोडशकारण जयमाला इन धाउ ग्रन्थां में से पुष्यास्त्रव कथा कोप को छोड़कर शेष ग्रन्थ कहां और कब रचे गए. इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। रइबू ने प्रायः अधिकांश ग्रन्थों को रचना ग्वालियर में रहकर तोमर वंश के शासक डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह के राज्य समय में की है जिनका राज्य काल संवत् १४८१ से सं०] १५३६ तक रहा है। अतएव कदि का रचनाकाल सं० १४४० से १५३० के मध्यवर्ती समय माना जा सकता है । ४६६ मैं पहले यह बतला माया हूं कि कविवर र प्रतिष्ठाचार्य थे। उन्होंने कई प्रतिष्ठाएं कराई थी। उनके द्वारा प्रतिष्ठित संवत् १४९७ की प्रादिनाथ की मूर्ति का लेख भी दिया था यह प्रतिष्ठा उन्होंने गोपाचल दुर्ग में कराई थी इसके सिवाय, संवत् १५१० और १५२५ को प्रतिष्ठित मूर्तियों के तेल भी उपलब्ध है, जिनकी प्रतिष्ठा वहां इनके द्वारा सम्पन्न हुई है' संवत् १५२५ में सम्पन्न होने वाली प्रतिष्ठाएं रइधू ने ग्वालियर के शासक कीर्तिसिंह या करणसिंह के राज्य में कराई है, जिनका राज्य संवत् १५३६ तक रहा है। कुरावली (मैनपुरी) के मूर्तिलेख जिनका संकलन बाबू कामताप्रसाद जी ने किया था। ये भी प्रतिष्ठाचार्य घोषित करते हैं। तदनुसार रद्दधू ने सं० १५०६ जेठ सुदि शुक्रवार के दिन चंदवाड़ में चौहान वंशी धू को राजा रामचन्द्र के पुत्र प्रतापसिंह के राज्यकाल में बंधी वीरांना मान शांतिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। धन्वेषण करने पर अन्य मूर्ति लेख भी प्राप्त हो सकते हैं। इन मूर्तियों से कवि रह के जीवनकाल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। वे सं० १४४० से संवत् १५२५ तक तो जीवित रहे ही हैं, किंतु बाद में और कितने वर्ष तक जीवित रहे. यह निश्चय करना अभी कठिन है धन्य साधन-सामग्री के मिलने पर उस पर और भी विचार किया जायगा। इस तरह कवि विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्थ के विद्वान थे। १. देखो, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १० तथा ग्वालियर गजिटियर जि० १ १५२५ में प्रतिष्ठित निर २. देश मेरो नोट ३. सं० १५०६ जेठ सुदी शुके श्रीचन्द्रपाट दुर्गे पुरे चौहान वंशे राजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव युवराज श्री प्रताप चन्द्रदेव राज्य वर्तनाने कडा र मायुरान्वये पुष्कर आचार्य श्री कीतिदेश सत्य भी कोतव आचार्य रं नामधेय तपता का नाम गोत्रे सायपरमाही पुषी हो वा महाराजमान चमार्यातयोः पुत्रः संपादित रा श्री गोवा पापितिमा सोनी पुत्रो संजिन भार्या महाधी तयोः पुत्र कुलकन्द्र बन्दीपति रातु भावा भी मार पुत्र महाराज गाय मदन भी पुत्रमाशिका." तिजवल भागा संपादित वापर या मोता प्रमुखान्निष्ठा देसी प्राचीन जैन संसार) ४. 'अप्रचाल' यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक है। जिसका विकास प्रग्रोहा या अनोदक जनपद से हुआ है। यह स्थान पंजाब राज्य में हिसारनगर से १३ मील दूर दिल्ली सिरसा सड़क पर स्थित है। इस समय यह उजड़ा हुआ छोटा सा गांव है। यह प्राचीन काल में विशाल एवं वंभव सम्पन्न ऐतिहासिक नगर था। इसका प्रमाण वे भग्नावशेष हैं जो इसके स्थान के निकट प्रायः सात सौ एकड़ भूमि में फैले हुए हैं। यहां एक टोला ६० फुट ऊंचा था, जिसकी खुदाई सन् १९३६ या ४० में हुई थी। उससे प्राचीन नगर के अवशेष, और प्राचीन सिक्कों यादि का ढेर प्राप्त हुआ था। २६ फुट से नीचे प्राचीन ग्राहत मुद्रा का नमूना, चार यूनानी सिक्के और ५१ चौलूटे तांबे के सिक्कों में सामने की और वृषभ और पीछे की बोर सिंह का की मूर्ति है।रिकों के पीछे झील में सरोद के म जनपदम शिनाख भी ति है जिसमें मनच जनपद का सिक्का होता है। नाम अयोदक भी रहा है। उक्त सिक्कों पर अंकित वृषभ, सिंह या चंत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता को मोर सकेत करती है (देखो इंडिका ०२० २४४ इंडियन एण्टीमरी भाग १५ के १० ३४३ पर Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ १६ १७ और १ न शाब्दी के आचार्य, भट्टारक और दि रचनाएं कवि र ने अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रन्थों को रचना की है। उनमें से उपलब्ध रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है : १. अप्प राम्बो हकथ्य - यह कवि को सबसे पहली कृति ज्ञन्त होती है। क्योंकि इसकी २६ पत्रात्मक एक हस्तलिखित प्रति सं० १४४० की मार भंडार में उपलब्ध है। इस प्राथमिक रचना को श्रात्मसम्बोधार्थ लिखी है इसमें संधियां और ५० कवक है। जिनमें हिसा अणुपतादि पंच व्रतों का कथन किया गया है और बतलाया है कि जो दोष रहित जिन देव, निर्ग्रन्थगुरु और दशलक्षण रूप अहिंसा धर्म का श्रद्धान (विश्वास) करता है वह सम्यक्स्त्वरत्न को प्राप्त करता है : ४६७ जिनदेव परमभिवगुरु बलवणधम्मु अहिंसय । सोच्छिउभायें सहसह सम्मत रयण फड सोलह ।। 1 इसके पश्चात पंच उदम्बर फर और मय-मांस-मधु के त्याग को अष्टमूल गुण बतलाया है और इस प्रथम संधि में अहिंसा, सत्य और अचौर्य रूप तीन अणुव्रतों के स्वरूप का कथन दिया है। दूसरी संधि में चतुर्थ अणुप्रतब्रह्मचर्य का वर्णन किया है। तृतीय संधि में भगवान महावीर को नमस्कार कर कर्मक्षय के हेतु परिग्रह परिमाण नाम के पांचवे के है सम्मत्त गुण रिहाण - यह ग्रन्थ ग्वालियर निवासी साहु सेमसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कमल सिंह के अनुरोध से बनाया गया है। इस ग्रन्थ में ४ संधि और १०८ कड़वक दिये हुए हैं, उनकी अनुमानिक श्लोक संख्या तेरह सौ पचहत्तर के लगभग है । ग्रन्थ का अत्यन्त प्रशस्ति में साह कमल सिंह के परिवार का परिचय दिया हुआ है। इसमें सम्य त्व के आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वाले प्रमुख पुरुषों की रोचक कथाएं बहुत ही सुन्दरता से दी गई हैं ये कथाएं पाठकों का वर्णन दिया है । यह स्थान ही अग्रवाल जाति का मूल निवास स्थान था। यहां के निवासी देशभक्त वीरवाल ने यूनानी, शक, कुषाण, हुए और मुसलमान बादि विदेशी आक्रमणकारियों से अनेक शताब्दियों तक जमकर लोहा लिया था। मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय (संवत् १२५१ ) में वही प्राचीन राज्य पूर्णतया विष्ट हो गया था । और यहां के निवासी अग्रवाल आदि राजस्थान और उत्तर प्रदेश श्रादि में वस गए थे । है कहा जाता है कि अग्रोहा में अग्रसेन नाम के एक क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते के अनेक अर्थ है किन्तु यहां उनकी विवक्षा नहीं है, यहाँ देश के रहने वाले ही विवक्षित है। अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते हैं। जिनमें गर्ग, गोयल, मित्तल जिन्दल, मिहल आदि नाम है । वालों में दो धर्मो के मानने वाले पाये जाते हैं। जन अग्रवाल और बैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे, वे जैन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव; परन्तु दोनों में रोटी बेटी व्यवहार होता है, रीति-रिवाजों में कुछ समानता होते हुए भी उनमें अपने-अपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है हाँ कभी अग्रवाल अहिसा धर्म के माननेव ले हैं। उपजातियों का इतिवृत्त १०वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, हो सकता है कि कुछ उपजातियाँ पूर्ववर्ती रही हों। अग्रवालों की जन परम्परा के उल्लेख १२वीं शताब्दी तक के मेरे देखने में आए हैं। म जाति खूब सम्पन्न रही है। लोग धर्मज, आचारनिष्ठ, दयालु और जन-धन से सपन्न तथा राज्यमान्य रहे हैं। तोमर वंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राजश्रेष्ठी और आमात्य अग्रवाल कुलावतंश साहू नट्टल ने दिल्ली में श्रादिनाथ का एक विशालतम मंदिर बना था जिसका वीरवाल द्वारा श्ये पार में दिया गया है। यह पारव पुराण संवत् १९८६ में दिल्ली में उक्त नद्दल साहू के द्वारा बनवाया गया था उसकी संवत् १५७७ की लिखित प्रति आमेर मंडार में सुरक्षित है। अग्रवालों द्वारा अनेक मन्दिरों का निर्माण तथा ग्रन्थों की रचना और भट्टारकों आदि को प्रदान करने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इससे इस जाति की का परिचय मिलता है हाँ इनमें शासति अधिक पाई जाती है। उनकी प्रतिलिपि करवाकर साधुओं, सम्पन्नता धर्मनिष्ठा और परोपकार १. लिपि संवत् १४४ वर्ष फाल्गुण वदि लिखित | आमेर भंडार १ गुरौ दिने स्राम ( श्रावक ) लयमा लक्ष्मण कभ्मक्षय विनावा (शा) थं Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४६८ को अत्यन्त सुरुचिकर और सरस मालूम होती हैं प्रवास्ति से ज्ञात होता है कि क्षेमसिंह का कुल अग्रवाल और गोत्र गोयल था उनकी पत्नी निउरादे से दो पुत्र हुए। कमलसिंह और भोजराज, कमल सिंह विज्ञान कला कुशल और बुद्धिमान, देव शास्त्र और गुरु का भक्त था इसकी भार्या का नाम 'सरासर' था, उससे मल्लिदास नाम का पुत्र हुआ था। और इनके लघु भ्राता भोजराज की पत्नी देवइ से दो पुत्र चन्द्रसेन और देवपाल नाम के हुए थे । ग्रन्थ को प्रथम संधि में १७वे कडवक से स्पष्ट है कि कमलसिंह ने भगवान् प्रादिनाथ की ग्यारह हाथ की ऊँची एक विशाल मूर्ति का निर्माण राजा डूंगरसिंह के राज्यकाल में कराया था, जो दुर्गति के दुःखों की विनाशक, मिथ्यात्व रूपी गिरीन्द्र के लिये वञ्च समान, भव्यों के लिये शुभगति प्रदान करने वालो, दुःख, रोग, शोक की नाशिका थी— जिसके दर्शन चिन्तन से भव्यों की भव बाधा सहज हो दूर हो जाती थी। इस महत्वपूर्ण मूर्ति को प्रतिष्ठा कर कमलसिंह ने महान पुण्य का संचय किया था। जो देवहिदेव तित्थंकरु, प्राणाहु तियोयसुहंकर । तहु पडिमा दुग्गइणिण्णासनि, जा मिच्छत गिरिवं-सरासनि । जाणु वह सुग- सासणि, जामहिरोय-सोय-बुहु-णासणि 1 सर एयारहकर विहंगी, काशवियणिरूवमग्रइतुंगी । गयिप्रणय जिमकोलवलई, सुरगुरुताह गणण जद्दलक्खड़ । करिव पट्टि तिल पुणु दिण्णज, चिरुभवि पविहिउ कलिमलु- छिण्ण ॥ " तब कमल सिंह ने चतुविधि संघ की विनय की थी। सम्यक्त्व के ग्रंगों में प्रसिद्ध होने वाले पुरुषों को कथाओं का आधार प्राचार्य सोमदेव का यशस्तिलक चम्पू का उपासकाध्ययन रहा प्रतीत होता है। afa ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १४६२ में की थी। उदह सय बाणउ उत्तरालि, बरिसइ गय विषकमराय कालि । वक्यत्तु जि जणथय समक्खि भद्दव मासम्मि स-सेयपकिय | पुण्णमिदणि कुजवारे समोइ, सुहयारें सुहणा में जणोइ ।" सम्मइ जिणचरिउ - इसमें १० सर्ग और २४६ कडबक हैं, जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का जीवन परिचय अंकित किया गया है। कवि ने इस ग्रन्थ के निर्माण करने को कथा बड़ी रोचक दी है | ब्रह्म खेल्ने कवि से ग्रन्थ बनाने को स्वयं प्रेरणा नहीं की, क्योंकि उन्हें सन्देह था कि शायद कवि उनकी अभ्यर्थना को स्वीकार न करे। इसी से उन्होंने भट्टारक यशःकीति द्वारा कवि को ग्रन्थ बनाने की याद दिलाने का प्रयत्न किया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कवि भट्टारक यशःकीर्ति की बात को टाल नहीं सकते । भ० यशःकीर्ति ने हिसार निवासी साहू तोसउ की दानवीरता, साहित्य रसिकता, और धर्म निष्ठता का परिचय कराते हुए उनके लिये 'सम्मइ जिनचचरिउ' के निर्माण करने का निर्देश किया। कवि ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उसे स्वीकृति किया । इससे ब्रह्मचारी सेल्हा को हर्ष होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत ब्रह्म सेल्हा हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गोयल गोत्रीय साहूतोसउ का ज्येष्ठ पुत्र था । उसका विवाह कुरुक्षेत्र के तेजा साहू की जालपा पत्नी से उत्पन्न खोमी नाम की पुत्री से हुआ था। उनके कोई सन्ता न थी । अतः उन्होंने अपने भाई के पुत्र हेमा को गोद ले लिया, और गृहस्थी का सब भार उसे सौंपकर मुनि यशः कीर्ति से श्रणुन्नत ले लिये। उसी समय से बे ब्रह्म खेल्हा के नाम से पुकारे जाने लगे । वह उदार, धर्मात्मा और गुणज्ञ थे और संसार देह-भोगों से उदासीन थे । उन्होंने ग्वालियर के किले में चन्द्रप्रभ भगवान की एक ग्यारह हाथ उन्नत विशाल मूर्ति का निर्माण कराया 1 ता तम्मि खणि बंभवय भार भारेण सिरि अयरवालंकयंसम्मि सारेण । संसार-तनु- भोष णिणिचिण, खेल्हा हिहाणेण नमिकण गुरुतेग भो मयणदावल्हव रवणदाण, वरधम्म भाणामएणेव तित्तरेण । जसकित्ति विवशत्तु मंडिय गुणेहेण । संसार जल रासि उत्तार वर जाण । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि ४६६ प्रम्हहं पसाएणभव-दह-कयंतस्स; ससिपह जिणेवस्स पडिमा बिसुद्धस्स। काराविया मई जि गोवायले तुंग, उडुचायि णामेण तित्यम्मि सुहसंग । हेल्हा ने उस समय अपनी त्यागवृत्ति का क्षेत्र बढ़ा लिया था और ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट थाय . के रूप में प्रात्मसाधना करने लगे थे। ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्ति में कवि ने तोसउ साह के वंशका बिस्नत परिचय दिया है जिसमें उनके परि. वार द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का परिचय मिल जाता है । कौवने तासउ साहू का उल्लेख करते हुए उन्हें जिन चरणों का भक्त, पंचइन्द्रियों के भोगों से विरक्त, दान देने में तत्पर, पाप से शौकत-भय-भीत और तत्त्वचिन्तन में सदा निरत बतलाया है । साथ ही यह भी लिखा है उसकी लक्ष्मी दुखी जनों के भरण-पोषण में काम आती थी। वाणी श्रुत का अवधारण करती थी। मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करने में प्रवृत्त होता था। वह शुभमती था, उसके संभाषण में कोई दोष नहीं होता था। चित्त तत्त्व विचार में निमग्न रहता था और दोनों हाथ जिन-पूजा-विधि से सन्तुष्ट रहते थे। जो णिच्चं जिण-पाय-कंज मसलो जो णिच्च दाणेरदो। जो पंचेदिय-भोय-भाष-बिरदो जो बितए संहिदो। जो संसार-महोहि-पावन-भिदो जो पायदो संकिदो। एसो पंदउ तोसडो गुणदो सत्तत्थ बेईचिरं ॥२ लच्छी जस्स बुहोजणाणभरणे बाणी सुयं धारिणे। सीस सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभासणे। चित्-तत्त्व-वियारणे करजुयं पूया-विही संददं । सोऽयं तोसउ साहु एत्थ धवलो संवो भूयले ॥३ हिसार के अग्रवाल वंशी साहु नरपति के पुत्र साहु वील्ला, जो जैनधर्मी निष्पाप तथा दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुग़लक द्वारा सम्मानित थे। संघाधिप सहजपाल ने, जो सहदेव का पुत्र था, जिनेन्द्रमूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। साहू सहजहाल के पत्र में गिरनार की यात्रा का संघ भी चलाया था, और उसका सब व्यय भार स्वय वहन किया था। ये सब ऐतिहा. सिक उल्लेख महत्वपूर्ण हैं । और अग्रवालों के लिये गौरवपूर्ण हैं। कवि ने प्रशस्ति में काप्ठा संघ की भट्टारक परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है-देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्र कीति, गुणको नि (सं० १४६८ से १४८१) यश: कीति १४८ से १५१०, मलयकीर्ति १५०० से १५२५, गुणभद्र १५२० से १५४०)। कविने अपने से पूर्ववर्ती निम्न साहित्यकारों का उल्लेख किया है-चउमह, स्वयंभू, पुण्यदन्त और वीर कवि । कवि ने इस ग्रन्थ से पूर्व रची जानेवाली इन रचनाओं का नामोल्लेख किया है पासणाहचरिउ, मेहेसरचारिज, सिद्धचकमाहप्प, वलहएचरिउ, सुदंसणचरिउ और धणकुमारचरिउ । सकौशलचरितमें ४ संधियां और ७४ कड़वक है। पहली दो संधियों में कथन क्रमादि की व्यवस्था व्यक्त करते हर तीसरी संधि में चरित्र का चित्रण किया है। चौथी संधि में चरित्र का वर्णन करते हए उन्धकोटी का काव्य मय वर्णन किया है। किन्तु शैली विषयवर्णनात्मक ही है । कवि ने इस खण्ड-काव्य में सुकौशल की जोवनगाथा को प्रङ्कित किया है कथानक इस प्रकार है : इक्ष्वाकु वंश में कीर्तिधर नाम के प्रसिद्ध राजा थे। उन्हें उल्कापात के देखने से वैराग्य हो गया था, मतएव वे साधजीवन व्यतीत करना चाहते थे। परन्तु मंत्रियों के अनुरोध से पुत्रोत्पत्ति के समय तक गही जोवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कई वर्षों तक उनके कोई सन्तान न हुई। उनकी रानी सहदेवी एक दिन जिन मन्दिर गई। वहां जिन दर्शनादि क्रिया सम्पन्न कर उसने एक मुनिराज से पूछा कि मेरे पुत्र कब होगा? तब साधु ने कहा की तुम्हारे एक पुत्र अवश्य होगा, परन्तु उसे देखकर राजा दीक्षा ले लेगा, और पुत्र भी दिगम्बर साधु को देखकर साध बन जायगा। कुछ समय पश्चात् रानी के पुत्र हुना। रानी ने पुत्रोत्पत्ति को गुप्त रखने का बहुत प्रयत्न किया; पापा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास २ किन्तु राजा को उसका पता चल गया और राजा ने तत्काल ही राज्य का भार पुत्र को सोंप कर जिन दीक्षा ले लो | राजा ने पुत्र के शुभ लक्षणों को देखकर उसका नाम सुकौशल रक्ता रानी को पति वियोग का दुःख असह्य था। साथ ही पुत्र के भी साधु हो जाने का भय उसे यात किये हुए था युवावस्था में उसका विवाह ३२ राज कन्याओं से कर दिया गया और भोग विलासमय जीवन बिताने लगा। उसे महल से बाहर जाने का कोई अधिकार न था । माता सदा इस बात का ध्यान रखती थी कि पुत्र कहीं किसी मुनि को न देख ते। अतएव उसने नगर में मुनियों का माना निषिद्ध कर दिया था। ૪૭૦ एक दिन कुमार के मामा मुनि कीर्तिधवल नगर मे आये, किन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया गया। जब राजकुमार को यह ज्ञात हुआ, तो उसने राज्य का परित्याग कर उनके समीप ही साधु दीक्षा लेकर तप का अनुष्ठान करने लगा। माता सहदेवो पुत्र वियोग से अत्यन्त दुखी हुई और बार्त परिणामों से भर कर व्याघ्री हुई। एक दिन उसने अत्यंत भूखी होने के कारण पर्वतपर ध्यानस्थ मुनि सुकोशल को ही खा लिया। सुकौशल ने समताभाव से कर्म कालिमा नष्ट कर स्वात्मलाभ किया। इयर मुनि कोविल ने उस व्याधी को उपदेश दिया जिसे सुनकर उसे जाति स्मरण हो गया और धन्त में उसने सन्यास पूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग प्राप्त किया, कीर्तिधवल भी अक्षय पद को प्राप्त हुए । कविने यह ग्रंथ अग्रवाल वंशी साहू आना के पुत्र रणमल के अनुरोध से बनाया था। कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १४९६ में माघ कृष्ण दशमी के दिन ग्वालियर में राजा डूंगरसिंह के राज्य में समाप्त किया ।" साम चरिउ (सम्मत उमर) इस ग्रन्थ में छह संधियां हैं, जिनमें धावकाचार का कथन करते हुए सम्यक्तोत्पादक सुन्दर कथाओं का संयोजन किया है। ग्रंथ को अन्तिम पुष्पिका में 'सम्मत उमुह' का नाम ग्रन्थ कार ने स्वयं दिया है : इस सरिसारिए संदसण पमूह सुद्ध गुण भरिए सिरि पंडित रह बलिए सिरि महाभव्य सेठ साहू सुय साहू संपादिव कुमराज अणुमणिए सम्मत उमुद्द नाम छट्टो संधि परिषी समतो ।" ग्रन्थ के आदि में कवि ने तह सावय चरिउ भणेहुसत्य वाक्य द्वारा श्रावकाचार कहने का उल्लेख किया । इससे स्पष्ट है कि कर्ता ने ग्रन्थ के दोनों नाम दिये हैं। यद्यपि ग्रन्थ में श्रावकाचार का कोई खास कथन नहीं किया, किन्तु सम्यक्त्वोत्पादन सुन्दर धाउ कथाएं पंक्ति की है। ये कथाएं संस्कृत की सम्यक्तकौमुदी में भी ज्यों की त्यों पाई जाती हैं। उन में भाषा-भेद अवश्य विद्यमान है। साहु टेक्कणि ने इसके बनाने की कवि से प्रेरणा की थी। और वही ग्वालियर के गोलाण्डान्वची सेउ के पुत्र कुशराज को कवि के समीप ले गया और उनका कवि से परिचय कराया । श्रतएव वह ग्रन्थ रचना में प्रेरक है । साहू और कवि रघू ने कुशराज की अनुमति से ग्रन्थ की रचना की है। कुशराज मूलसंघ के अनुयायी थे । इसलिये कवि ने मूलसंघ के भट्टारक पद्मनन्दी शुभचन्द्र और जिनचन्द्र का उल्लेख किया है। १. सिरिचिक्कम समयंवराति बहुत दुमका। चउदह सय संवार वष्ण, छण्णव अहिय पुरं जाय पुण्ा । माह बुजिहि दहनी रिक्स उमप दियर पोरादिविरि २. मूल सम्म । सुरत| वायु परिणतपधार पंजा ह भडारत । पुणु सिहाल मंडावा जग-स जि का पंचादिमंध दिया। सह बंभरोह परिणहि दिव्यचारिण उपाय विहि सरसत्याहि बाल सिरि जिराचंद भारत मुवि तहु पय-पयरुह वंदिवि कइवइ । । - जैन ग्रन्थ प्रशस्ति० श० २, पृ० ७२ शवचरित्र प्रशस्ति Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; > 2 : ४७१ ११वीं १६वीं १७ और १०वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि कुशराज ग्वालियर के निवासी थे । उन्होंने राजा डुंगरसिंह के पुत्र कोर्तिसिंह के राज्यकाल में ध्वजाश्र से अलंकृत जिनमंदिर का निर्माण किया था वह लोभ रहित और पर नारो से पराङ्मुख था । दुःखी दरिद्रोजनों का संपोषक था। उक्त सावयन्त्र रिउ ( सम्यक्त्वकौमुदी ) उसी की अनुमति से रचागया था। इसो से प्रत्येक संधि पुष्पिका वाक्य में - "संघाहिद कसराज प्रणुमणिए' वाक्य के साथ उल्लेख किया गया हैं। इससे सावयचरिउ की रचना सं० १५१० के बाद हुई जान पड़ती है, क्योंकि कीर्तिसिंह सं० १५१० के बाद गद्दी पर बैठा था । 'पासणाहपुराण या पासणाहचरिउ में ७ सन्धियाँ और १३६ के लगभग कडबक हैं, जिनमें जैनियों के harna तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन परिचय दिया हुआ है। पार्श्वनाथ के जीवन परिचय को व्यक्त करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में तथा हिन्दी में लिखे गये हैं । परन्तु उनसे इसमें कोई खास विशेषता ज्ञात नहीं होती। इस ग्रन्थ की रचना जोयणिपुर (दिल्ली) के निवासी साहू खेऊ या खेमचन्द को प्रेरणा से की गई है इनका वंश अग्रवाल और गोत्र ए दिल था। खेमचंद के पिता का नाम पजण साहू, और माता का नाम बील्हादेवी था किन्तु धर्मपत्नी का नाम अनी था उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, सहसराज, पहराज, रघुपति, श्रीर होलिम्म । इनमें सहसराज ने गिरनार की यात्रा का संघ चलाया था। साहू खेमचन्द सप्त व्यसन रहित और देवशास्त्र गुरु के भक्त थे। प्रशस्ति में इनके परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। अतएव उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रन्थ की प्राद्यन्त प्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उससे तात्कालिक ग्वालियर की सामाजिक धार्मिक, राजनैतिक परिस्थितियों का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय ग्वालियर में जैन समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था, और ये अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ महिमा, परोपकार और दयालुता का जीवन में साचरण करना श्रेष्ठ मानते थे । ग्रन्थ बन जाने पर साहू खेमचन्द ने कवि रइधू को द्वीपांतरों से आये हुए विविध वस्त्रों और आभरणादिक से सम्मानित किया था, और इच्छित दान देकर संतुष्ट किया था । 'बलहचरिउ' (पउमचरिउ ) में ११ संधियों और २४० कड़वक हैं जिनमें बलभद्र ( रामचन्द्र ), लक्ष्मण और सीता आदि की जीवनगाथा अंकित की गई है, जिसकी इलोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है । ग्रन्थ का कथानक बड़ा ही रोचक और हृदयस्पर्शी है। यह १५वीं शताब्दी की जैन रामायण है। ग्रंथ को शैली सीधी और सरल है, उसमें शब्दाडम्बर को कोई स्थान नहीं दिया गया, परन्तु प्रसंगवश काव्योचित वर्णनों का सर्वथा प्रभाव भी नहीं है। राम की कथा बड़ी लोकप्रिय रही है । इससे इस पर प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में अनेक ग्रथ विविध कवियों द्वारा लिखे गए हैं। 1 यह ग्रन्य भी अग्रवालवंशी साहु बादू के सुपुत्र हरसी राहु की प्रेरणा एवं अनुग्रह से बनाया गया है। साहू हरसी जिन शासन के भक्त और कषायों को क्षीण करने वाले थे। आगम और पुराण-ग्रन्थों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन पूजा और सुपात्रदान में तत्पर तथा रात्रि और दिन में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आत्म ध्यान द्वारा स्व-पर के भेद - विज्ञान का अनुभव करने वाले, तथा तपश्चरण द्वारा शरीर को क्षीण करने वाले धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे । आत्मविकास करना उनका लक्ष्य था । ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में हरसी साहू के कुदुम्ब का पूरा परिचय दिया हुआ है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । 'मेहेसरचरिउ' में २३ संधियाँ और ३०४ कडवक हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया है। जयकुमार और सुलोचना का चरित बड़ा ही पावन रहा है । ग्रन्थ की द्वितीय तृतीय संधियों में आदि ब्रह्मा ऋषभदेव का गृहत्याग, तपश्चरण और केवलज्ञान की प्राप्ति, भरत की दिग्विजय, भरत बाहुबलि युद्ध, बाहुबलि का तपदचरण और कंवल्य प्राप्ति आदि का कथन दिया हुआ है। छठवीं सन्धि के २३ कडवकों में सुलोचनाका स्वयम्बर सेनापति मेघश्वर (जयकुमार) का भरत चक्रवर्ती के पुत्र प्रकीर्ति के साथ युद्ध करने का वर्णन किया है । ७वीं सन्धि में सुलोचना और मेधेश्वर के विवाह का कथन दिया हुआ है । ओर ८वीं से १३वीं संधि तक कुबेर मित्र, हिरण्यगर्भ का पूर्वभव वर्णन तथा भीम भट्टारक का निर्वाण गमन, श्रीपाल चक्रवर्ती का हरण और मोक्ष गमन, एवं मेघेश्वर का तपश्चरण, निर्वाण गमन आदि का Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ सुन्दर कथन दिया हुआ है। अन्य काव्य-कला की दृष्टि से उच्च कोटि का है। ग्रन्थ में कवि ने दुवई, गाहा, चामर, पत्ता, पद्धडिया, समानिका और मत्तगयंद आदि छन्दों का प्रयोग किया है । रसों में शृंगार, वीर, बोभत्स और शान्त रस का, तथा रूपक उपमा और उत्प्रेक्षा आदि मलकारों की भी योजना की गई है। इस कारण ग्रन्थ सरस और पठनीय बन गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है । कवि चक्रवर्ती भीर रोन, देवनन्टी पर नाम गाद (स्ती सन ४७५ से ५२५ ई०) जनेन्द्र व्याकरण, वज्रसेन और उनका पड़दर्शन प्रमाण नाम का जैन न्याय ग्रन्थ का, रविषेण (वि० सं० ७३४) तथा उनका पारित, पुलाटसंधी जिनसेन (वि० सं०८४०)और उनका हरिवंश, महाकबि स्वयभू, चतुर्मुख तथा पुष्पदन्त, देवसेन का महेस रचरिउ (जयकमारसुलोचना चरित) दिनकरसेन का अनंगचरित । ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना में प्रेरक ग्वालियर नगर के सेठ अग्रवाल कलावतंश साह खेऊ या खेमसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुया है। और अन्य की प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में कवि ने संस्कृत श्लोकों में आश्रयदाता उक्त साहू की मंगल कामना की है। द्वितीय संधि के प्रारम्भ का निम्त पद्य दृष्टव्य है। तीर्थशो वृषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो, प्रावीशो हरिणधितो गणपतिः श्रीमान्युगादिप्रभु। नाभेयो शिववाद्धिवर्धन शशिः कैवल्यभाभासुरः, क्षेमास्यस्य गुणांन्वितस्य सुमतेः कुर्याच्छिवं सो जिनः। इस पद्य में ऋषभदेव के जो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं वे जहाँ उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं, वहां वे ऋषभदेव पौर शिव की सादृश्यता की झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। ग्रन्थ सुन्दर है और इसे प्रकाश में लाना चाहिये। रिणमिचरिउ' या 'हरिवंश पुराण' ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और ३०२ कड़बक हैं तथा १६०० के लगभग पद्य होंगे, जिनमें ऋषभ चरित, हरिवंशोत्पत्ति, बसूदेव और उनका पूर्व भव कथानक, बन्धुवान्धवों से मिलाप, कंस बलभद्र और नारायण के भवों का वर्णन, नारायण जन्म, कंसवध, पाण्डवों का जुए में हारना द्रोपदी का चीर हरन, पाण्डवों का अज्ञातवास, प्रद्युम्न को विद्या प्राप्ति और श्रीकृष्ण से मिलाप, जरासंध वध, कृष्ण का राज्यादि सुखभोग नेमिनाथ का जन्म, बाल्यक्रीडा यौवन, विवाहमें वैराग्य, दीक्षा तथा तपश्चरण केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्ति मादि का कयन दिया है। ग्रन्थ में जैनियों के बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ को जीवन-घटनामों का परिचय दिया हमा है । नेमिनाथ यदुवंशी क्षत्री थे और थे कृष्ण के चचेरे भाई। उन्होंने पशुनों के बंधन खुलवाए और संसार को असारता को देख, बैरागी हो तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन किया, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बने, और जगत को आत्महित करने का सुन्दरतम मार्ग बतलाया । उनका निर्वाण स्थान ऊर्जयन्त गिरि या रेवतगिरि है जो आज भी नेमिनाथ के प्रतीत जीवन को झाँको को प्रस्तुत करता है। तीर्थंकर नेमिकुमार की तपश्चर्या और चरण रज से वह केवल पावन ही नहीं हुआ, किन्तु उसकी महत्ता लोक में आज भी मौजूद है। इस ग्रन्थ की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) से उत्तर की ओर वसे हुए किसी निकटवर्ती नगर का नाम था जो पाठ की प्रशुद्धि के कारण ज्ञात नहीं हो सका । ग्रन्थ की रचना उस नगर के निवासी गोयल गोत्रीय अग्रवाल वंशी महाभव्य साहु लाहा के पुत्र संघाधिप साह लोणा की प्रेरणा से हुई है। ग्रन्थ की माद्यन्त प्रशस्तियों में साह लोणा के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों और उनके कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, देवनन्दि (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, जिनसेन (महापुराण) रविषेण (जंन रामायण-पद्मचरित) कमलकीति और उनके पट्टधर शुभचन्द्र का नामोल्लेख है। जिनका पट्टाभिषेक कनकगिरि वर्तमान सोनागिरि में में हना था' साथ ही कवि १. कमल किति उत्तम समधारउ, भम्बह-भव-अंबोरिणहि-तारउ । तस्स पट्ट करण्याटि परिट्ठिल, सिरि-सुहचंद सु-तब-उक्कंट्टिउ ॥ हरिवंश पु. प्र. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वी, १२वीं और १८वीं बाताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ने अपने रिट्ठणे मिचरिउ से पहले बनाई हुई अपनी निम्न रचनाओं के भी नाम दिये हुए हैं। महापुराण, भरत मेनापति चरित (मेघेश्वर चरित) जसहरचरिउ (यशोधरचरित) वित्तसार, जीवंधर चरिउ और पासचरिउ का नामो. लेख किया है। अन्ध में रचनाकाल नहीं दिया, इसलिए यह निश्चित बतलाना तो कठिन है कि यह ग्रन्ध कब बना? फिर भी अन्य सूत्रों से यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की १५वीं शताब्दो के अन्तिम चरण या १६वीं के प्रथम चरण मे रचा गया है। प्रस्तुत 'षणकुमार चरिउ' में चार सन्धियां और ७४ कड़वक हैं। जिनकी श्लोक संख्या ८०० श्लोकों के लगभग है जिनमें धनकुमार की जीवन-गाथा अंकित की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ को रचना आरोन जिला ग्वालियर निवासो जैसवाल बंशी साहु पुण्यपाल के पुत्र साहु भुल्लण की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुई है। प्रतएव उक्त ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में साह भुल्लण के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है। इस ग्रन्थ की रचना कब हुई ? यह ग्रन्थप्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता; क्योंकि उसमें रचना काल दिया हुआ नहीं है । किन्तु प्रशस्ति में इस ग्रन्थ के पूर्ववर्ती रचे हुए ग्रन्थों के नामों में 'मिजिणिद चरिउ (हरिवंश पुराण) का भी उल्लेख है इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उसके बाद बनाया गया है। 'जसहर चरिउ' में ४ सन्धियाँ और १०४ कडवक हैं जिनको श्लोक संख्या ७७ के लगभग है । ग्रन्य में योघेय देशके राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया हुया है । ग्रन्थ का कथानक सुन्दर और हृदयग्राही है और वह जोव दया को पोपक वार्तामों से ओत-प्रोत है। यद्यपि राजा यशोधर के सम्बंध में संस्कृतभाषा में अनेक चरित ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें प्राचार्य सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू' सबसे उच्चकोटि का काव्य-ग्रन्थ है परन्तु अपभ्रंश भाषा को यह दूसरो रचना है प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्त का है। यद्यपि भ० अमरकोति ने भो 'जसहर नरिज' नाम का गन्य लिवा था: परंतु वह अभी तक अनुपलब्ध है। ऐ०५० सरस्वती भवन व्यावर में इसकी सचित्र प्रति विद्यमान है । इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक कमलकीति के अनुरोध से तथा योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल वंशी साह कमलसिंह के पुत्र साहु हेमराज को प्रेरणा से हुई है। अतएव अन्ध उन्हीं के नाम किया गया है। उक्त साह परिवार ने गिरनार जी को तीर्थयात्रा का संघ चलाया था। ग्रन्थ को आद्यन्त प्रशस्ति में साह कमलसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ लाहड़पुर के जोधा साह के विहार में बंटकर बनाया है, और उसे स्वयं 'दयारसभर गुणपवित'--पवित्र दयारूपी रस से भरा हुआ बतलाया है। 'प्रणयमी कहा' में रात्रिभोजन के दोषों और उससे होने वाली व्याधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि दो घही दिन के रहने पर श्रावक लोग भोजन करें, क्योंकि सूर्य के तेज का मंद उदय रहनेपर हृदय-कमल सकुचित हो जाता है अतः रात्रि भोजन के त्याग का विधान धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किया गया है जैसा कि उसके निम्न दो पद्यों से प्रकट है :-- "जि रोय-बलद्दिय दीण प्रणाह, जि कुट्ठ-गलिय कर करण सवाह । बुहग्ग जि परियणु बागु प्रणेह, स-रणिहि भोयण फसु जि मुह । घड़ी दुइ वासरु यक्का जाम, सुभोयण सावय भुंहि ताम। विवायरु तेजजि मंदत होइ, सकुश्चइ चित्तह कमतु जिव सोइ ।" कथा रचने का उद्देश्य भोजन सम्बन्धो पसंयम से रक्षा करना है, जिससे प्रारमा धार्मिक मर्यादाओं का पालन करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखे । 'सिद्धांतार्थसार' का विषय भी सैद्धांतिक है और अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है। इसमें सम्यग्दर्शन जीव स्वरूप, गुणस्थान, व्रत, समिति, इंद्रिय-निरोध आदि आवश्यक क्रियामों का स्वरूप, अट्ठाईस मूलगुण, प्रष्टकर्म, द्वादशांगध त, लब्धिस्वरूप, द्वादशानुपंक्षा दशलक्षणधर्म; और ध्यानों के स्वरूप का कथन दिया गया है। इस अन्य को रचना वणिकवर श्रेष्ठो खेमसी साह या साह खेमचन्द्र के निमित की गई है। परन्तु खेद है कि उपलब्ध ग्रन्य Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ का अंतिम भाग खंडित है। लेखक ने कुछ जगह छोड़कर लिपि पुष्पिका की प्रतिलिपि कर दी है। ग्रन्थ के शुरू में कवि ने लिखा है कि यदि मैं उक्त सभी विषयों के कथन में स्खलित हो जाऊं तो चल ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह ग्रन्थ भी तोमर वंशी राजा कीर्तिसिंह के राज्य में रखा गया है। 'वृत्तसार' में छह सर्ग या अंक (अध्याय) हैं । ग्रन्थ का अन्तिम पत्र त्रुटित है जिसमें ग्रन्थकार की प्रशस्ति उचित होगी। यह प्रन्य अपभ्रंश के गाया छंद में रचा गया है, जिनकी संख्या ७५० है वोच बीच में संस्कृत के गद्य-पद्यमय वाक्य भी ग्रन्थांतरों से प्रमाण स्वरूप में उद्धृत किये गये हैं। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन का सुन्दर विवेचन है और दूसरे अधिकार में मिध्यात्वादि छह गुणस्थानों का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। तीसरे अधिकार मैं शेष गुण-स्थानों का और कर्मस्वरूप का वर्णन है। चौथे अधिकार में बारह भावनाओं का कथन दिया हुआ है। पाँचवें अंक में दशलक्षण धर्म का निर्देश है और छठवें अध्याय में ध्यान की विधि और स्वरूपादि का सुन्दर विवेचन किया गया है । ग्रन्थ सम्पादित होकर हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाश में आने वाला है । 'पुण्णास कहा कोश' में १३ संधियां दी हुई हैं जिनमें पुष्य का आसव करने वाली सुन्दर कथायों का संकलन किया गया है। प्रथम सन्धि में सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन है, जिन्हें सम्यक्त्वी को टालने की प्रेरणा की गई है। दूसरी संधि में सम्यतत्व के निश्शंकितादिष्ट गुणों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उनमें प्रसिद्ध होने वाले यंजन चोर का चित्ताकर्षक कमानक दिया हुआ है तीसरी संधि में निकांक्षित और निर्विचिकित्सा इन दो अंगों में प्रसिद्ध होने वाले अनन्तमती मौर उदितोदय राजा की कथा दी गई। चौथी संधि में दृष्टि मोर स्थितिकरण अंग में रेवती रामो धरणिक राजा के पुत्र वारिषेण का कथानक दिया हुआ है। पांचवी सन्धि में उपग्रहन अंग का कथन करते हुए उसमें प्रसिद्ध जिनभक्त सेठ को कथा दी हुई है। सातवीं सन्धि में प्रभावना अंग का कथन दिया हुआ है । श्रठवीं संधि में पूजा का फल, नवमी संधि में पंचनमस्कार मंत्र का फल दशवों राधि में धागमभक्ति का फल और ग्यारहवी संधि में सती सीता के शील का वर्णन दिया हुआ है। बाहरवीं सन्धि में उपवास का फल पोर १३वों सधि में पात्रदान के फल का वर्णन किया है। इस तरह ग्रन्थ की ये सब कथायें बड़ी ही रोचक और शिक्षाप्रद है । J इस ग्रन्थ का निर्माण अग्रवाल कुलावतंस साहु नेमिदास की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुआ है और यह ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया है । ग्रन्थ को श्राद्यन्त प्रशस्तियों में नेमिदास और उनके कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुया है और बताया है कि साहु नेमिदास जोइणिपुर (दिल्ली) के निवासी मे घोर साहू तोसउ के चार पुत्रों में से प्रथम थे। नेमिदास धावक व्रतों के प्रतिपालक, शास्त्रस्वाध्याय, पात्रदान, दया और परोपकार यादि सत्कार्यो में प्रवृत्ति करते थे। उनका चित्त समुदार था और लोक में उनकी धार्मिकता और सुजनता का सहज ही आभास हो जाता है, और उनके द्वारा गणित मूर्तियों के निर्माण कराये जाने, मन्दिर बनवाने घोर प्रतिष्ठि/दि महोत्सव सम्पन्न करने का भी उल्लेख किया गया है। साहु नेमिदास चन्द्रवाड के राजा प्रतापरुद्ध से सम्मानित थे । वे सम्भवतः उस समय दिल्ली से चन्द्रवाड चले गए थे, और वहां ही निवास करने लगे थे उनके अन्य कुटुम्बी जन उस समय दिल्ली में ही रह रहे थे राजा प्रतापरुद्र चौहान वंशी राजा रामचंद्र के पुत्र थे, जिनका राज्य विक्रम सं १४६८ में वहां विद्यमान था। ग्रन्थ में उसको रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, परन्तु उसकी रचना पन्द्रहवीं १. शिव यावरुद्द सम्माणि - पुण्यात्रय प्रशस्ति । २. चन्द्रवाड के सम्बन्ध में लेखक का स्वतन्त्र लेख देखिए । सं० १४६८ में राजा रामचन्द्र के राज्य में चन्द्रवाह में अमरकीति के कर्मोपदेश की प्रतिनिधि की गई थी जो अब नागौर के भट्टारकोय शास्त्र कार में सुरक्षित है यथाअय संवत्सरे १४६८ वर्षे ज्येष्ठ कृष्ण पंचदश्यां शुक्रवासरे श्रीमच्चन्द्रपाट नगरे महाराजाधिराज श्रीराम चन्द देवराज्ये । तत्र श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये श्री मूलसंघ गुजरगोष्ठि तद्वयमगिरिया साहू भी जमसीहा माय: सोमा तयोः पुत्राः (रारा) प्रथम उसीह (द्वितीय) सोहि तृतीय पहराज चतुर्थ सहादेव ज्येष्ठ पुत्र उसी भाग तो तस्व त्रयोः ज्येष्ठ पुषा, देल्हा द्वितीय राम तृतीय मीसम ज्येष्ठ पुत्र देव्हा भार्या हिरो (तयोः पुत्राः द्वयोः ज्येष्ठ पुत्र हा द्वितीय पुत्र नारीकर्मपदेशात दुभ पुष्टि ग्रीवा]] दृष्टि रखो मुखं कष्टेन निवितं पापलेन परिपालये ॥ नागौर कार Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । | 'भट्टारक और कवि ४७५ क्योंकि उसके बाद मुस्लिम शासकों के हमलों से चन्द्रवाड की श्री १५वी, १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य शताब्दी के अंतिम चरण में हुई जान पड़ती है। सम्पन्नता को भारी क्षति पहुंची थी । कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में ग्रन्थ रचना में प्रेरक साहु नेमिदास का जयघोष करते हुए मंगल कामना की है। जैसा कि उसके निम्नषद्यों से प्रकट है प्रतापराज विश्व तस्त्रिकालदेवार्चनवंथिता शुभा । जनसशास्त्रामृतपानशुद्धधीः चिरं क्षितौ नतु नेमिदासः ॥ ३ Refa गुणानुरागी श्रेयान्निय पात्रदान विधिदक्षः । तोसउ कुलनभचन्द्रो नन्वतु मित्येव नेमिवासाख्यः ॥ ४८ ॥ ग्रन्थ प्रभी तक अप्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाना श्रावश्यक है। 1 'जीवंधर चरिउ' में तेरह संधियां दी हुई हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शन विशुद्धयादि षोडशकारण भावनाओं का फल वर्णन किया गया है। उनका फल प्राप्त करने वाले जीवंधर तीर्थंकर की रोचक कथा दी गई है। प्रस्तुत जोबधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्र के अमरावती देश में स्थित गंधर्वराज (राज) नगर के राजा सीमंधर और उनकी पट्ट महिषी महादेवी के पुत्र थे । इन्होंने दर्शनविशुद्धयादि षोडश कारण भावनात्रों का भक्तिभाव से चिंतन किया था, जिसके फलस्वरूप वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर हुए। ग्रन्थ का कथा भाग बड़ा हो सुन्दर है । परन्तु प्रय प्रति अत्यंत प्रद्युद्धरूप में प्रतिलिपि की गई है जान पड़ता है। प्रतिलिपिकार पुरानी लिपि का अभ्यासी नहीं था । प्रतिलिपि करवा कर पुनः जांच भी नहीं की गई । इस ग्रंथ का निर्माण कराने वाले साहू कुन्यदास हैं, जो सम्भवतः ग्वालियर के निवासी थे। कवि ने इस ग्रन्थको उक्त साहु को 'श्रवण भूषण' प्रकट किया है। साथ ही उन्हें ग्राचार्य चरण सेवी, सप्त व्यसन रहित, त्यागो धवलकीति वाला, शास्त्रों के अर्थ को निरंतर अवधारण करनेवाला और शुभ मती बतलाते हुए उन्हें साहु हेमराज और मोल्हा देवी का पुत्र बतलाया गया है । कवि ने उनके चिरंजीव होने की कामना भी की है जैसा कि द्वितीय संधि के प्रथम पद्म से ज्ञात होता है । 'जो भत्तो सूरिवाए विसणसमसया जि विरता स एयो । जो चाई पुत्त बाणे ससिपह धवली किसि वल्लिकु तेजो। जो नित्यो सर ये विसय सुहमई हेमरायस्स ताओ । सो मोल्ही अंग जाम्रो 'भवदु इह धुवं कुंथुवासो थिराम्रो ।' 'सिरिपालचरित' या सिद्धचक्र विधि' में दश संधियाँ दी हुई हैं, और जिनकी प्रानुमानिक श्लोक संख्या दो हजार दो सौ बतलाई है। इसमें चम्पापुर के राजा श्रीपाल और उनके सभी साथियों का सिद्धचक्रव्रत (श्रष्टाह्विका व्रत) के प्रभाव से कुष्ठ रोग दूर हो जाने प्रादि की कथा का चित्रण किया गया है और सिद्धचत का माहात्म्य ख्यापित करते हुए उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है। ग्रन्थ का कथाभाग बड़ा ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है ! भाषा सरल तथा सुबोध है । यद्यपि श्रीपाल के जीवन परिचय मोर सिद्धचक्रव्रत के महत्व को चित्रित करने वाले संस्कृत, हिंदी गुजराती भाषा में अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं। परंतु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरा ग्रन्थ है । प्रथम ग्रन्थ पंडित नरसेन का है। प्रस्तुत ग्रन्थ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहू बाटू के चतुर्थ पुत्र हरिसी साहू के अनुरोध से बनाया है कवि ने प्रशस्ति में उनके कुटुम्ब का संक्षिप्त परिचय भी अंकित किया है । कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक संधियों के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक उक्त साहु का यशोगान करते हुए उनकी मंगल कामना की है। जैसा कि ७वीं संधि के निम्न पद्म से प्रकट है । यः सत्यं वदति व्रतानि कुरुते शास्त्रं पठेत्याव रात् मोहं सुञ्चति गच्छतिस्व समयं धत्ते निरोहं पदं । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦૬ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्बते । सोऽयं नंदतु साधुरेव हरषी पुष्णाति धर्म सदा । कवि की अन्य कृतियाँ : इन ग्रन्थों के प्रतिरिक्त ऋषि की 'दश लक्षण जयमाला' श्रीर 'पोडशकारण जयमाला' ये दोनों पूजा ग्रन्थ भी मुद्रित हो चुके हैं। इनके सिवाय पञ्जुण्ण चरिउ, सुदसंणचरिउ, करकण्डुचरिउ ये तीनों ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध हैं । इनका अन्वेषणकार्य चालू है । । 'सोऽहं युदि' नाम की एक छोटी-सी रचना भी अनेकांत में प्रकाशित हो चुकी हैं। अभी अभी सूचना प्राप्त हुई है कि रघु कवि का तिसट्टि पुरिस गुणालंकार ( महापुराण) ग्रन्थ बाराबकी के शास्त्र भण्डार से पं० कैलाशचन्द्र सि० शा० को प्राप्त हुआ है, जिसकी पत्र संख्या ४६५ है ५० संधियां १३५७ कदवक हैं । यह प्रति सं० १४६६ की लिखी हुई है । - सिद्धचक्र विधि ( श्रपालच० संधि 3 ) कवि धू ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का अपनी रचनाओं में ससम्मान उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं- १ देवनन्दी (पूज्यपाद ) २ रविषैण ३ चउमुह ४ द्रोण ५ स्वयंभूदेव, ६ वज्रसेन, ७ पुन्नाट संघी जिनसेन ८ पुष्पदन्त और दिनकर सेन का अनंग चरित। इनमें से अधिकांश कवियों का परिचय इसी ग्रंथ में अन्यत्र दिया हुमा है । बसा- कवि हरिचन्द कवि हरिचन्द का वंश अग्रवाल है। पिता का नाम जंडू और माता का नाम बील्हादेवी था। कवि ने अपने गुरु का कोई उल्लेख नहीं किया । कवि की एक मात्र रचना 'प्रणत्थमिय कहा' है। प्रस्तुत कथा में १६ कड़वक दिये हुए है, जिनमें रात्रि भोजन से होने वाली हानियों को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा को गई है और बतलाया है कि जिस तरह धन्धा मनुष्य ग्रासको शुद्धि शुद्धि सुन्दरता आदि का अवलोकन नहीं कर सकता। उसी प्रकार सूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतंगा, झींगुर, चिउटो डांस मच्छर बादि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं हो सकती। बिजली का प्रकाश भी उन्हें रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन विषैले जीवों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते हैं, उनसे शारीरिक स्वास्थ्य को बड़ी हानि उठानी पड़ती है। प्रतः धार्मिक दृष्टि और स्वास्थ्य को दृष्टि से रात्रि में भोजन का परित्याग करना हो यस्कर है जैसा कि कवि के निम्न पद्म से स्पष्ट है: जिहि बिट्टि जय सरह अंधुजेम, नहि गाल-सुद्धि भण होय केम । किम कोड-पयंग भिंगुराद्द पिप्पीलाई डंस मच्छराई । खज्जूरई कष्णललाइयाएं प्रवरइ जीव जे बहु सवाई । अण्णाणी णिसि भुंजंत एण, पसु सरिस परिउ धप्पा तेण ॥ जंवालि विवीणउकरि उज्जोवज ग्रहिउ जीउ संभवई परा । भ्रमराई पयंग बहुविह भंगई मंडिय बीसइ' जित्यु धरा ॥ ५ ॥ कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया। परन्तु रचना पर से वह रचना १५वीं शताब्दी को जान पड़ती है। म० पद्मनन्दी मुनि पद्मनी भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर विद्वान थे। विशुद्ध सिद्धान्तरत्नाकर और प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए थे। उनके शुद्ध हृदय में प्रभेद भाव से आलिङ्गन करती हुई ज्ञान रूपी हंसी आनन्दपूर्वक अनेकान्त वर्ष ६ किरण में प्रकाशित महाकवि रघू नाम का लेख तथा वर्णी प्रतिष्ठा प्रतिभाग रिष्ठः । पचनन्दी || - शुभचन्द पट्टावली १. विशेष परिचय के लिए देखिए अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ३६८ । २. श्रीमान् मुनीन्द्र पट्टे, शश्वत विशुद्ध सिद्धान्त रहस्य रत्नरत्नाकरानन्दतु Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ४७७ क्रीडा करती थी वे स्यादाद सिन्धु रूप प्रमत के वर्धक थे। उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर जिनवाणो योर पश्वा को पबित्र किया था। महावती पुरन्दर तथा शान्ति से रागांकुर दग्ध करने बाले वे परमहंस निर्ग्रन्थ, पुरुषार्थ शाला, प्रशेष शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ट पद्यनन्दी जयवन्त रहें। इन विशेषणों से पडानन्दो की महत्ता का महज ही बोध हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी। एक बार प्रतिष्ठा महोत्सव के समय व्यवस्थापक गृहस्थ की अविद्यमानता में प्रभाचन्द्र ने उस उत्सव को पट्टाभिषेक का रूप देकर पद्यनन्दी को अगोपट्ट पर प्रतिष्ठित किया था। इनके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय पटावली में सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमी बनलाया गया है। वे उस पट्ट पर संवत् १४७३ तक तो आसीन रहे ही हैं। इसके अतिरिक्त और कितने समय तक रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं हुमा, और न यह ही ज्ञात हो सका कि उनका स्वर्गवास कहां और कब हुमा है ? कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि पद्मनन्दो भट्टारक पद पर स. १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बन्ध में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं दिया, किन्तु उनका केवल वैसा अनुमान मात्र है पोर यह भी संभव है कि परट पर शुभचन्द्र को प्रतिष्ठित कर प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न किये हों कुछ समय और अपने जीवन से भूम इल का अवकृत करते रहे हों। अतः इस मान्यता में कोई प्रामाणिकता नहीं जान पड़तो। क्योंकि संवत् १४.७३ का पद्मकीति चित पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति से स्पष्ट जाना जाता है कि पद्मनन्दी उस समय तक पट्ट पर विराजमान श्र, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है--- "कून्य कूवाचार्यान्वये भश्री रत्नकोति देवास्तेषां पट्टे भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत्पटटे भ० स्त्री पद्म मन्दि देवास्तेषां पट्ट प्रबर्तमाने (मुद्रित पाश्र्वनाथ चरित प्रशस्ति) इससे यह भी ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी दीर्घजीवी थे। पटावली में उनकी आयु निन्यानवे वर्ष अठाईस दिन की बतलाई गई है और पट्टकाल पंसठ वर्ष आठ दिन बतलाया है । यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पड़ता है कि वि० सं० १४७६ में असवाल कवि द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' में पद्मनन्दी के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले न शुभचन्द्र का उल्लेशनिम्नागों में किया है"तहो पष्ट्रवर ससिणामें सुहससि मणि पयर्षकयचंद हो।" चूंकि सं० १४७४ में पपनन्दी द्वारा प्रतिष्ठित मति लेख उपलब्ध है, मतः उससे स्पष्ट शात होता है कि पमनन्दी ने सं० १४७४ के बाद और सं०१४७९ से पूर्व किसी समय शुभचन्द्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया था। कदिमसवाल ने कुशातं देश के करहल नगर में सं० १४७१ में होने वाले प्रतिप्ठोत्सव गा उल्लेख किया है। और पद्यनन्दी के शिष्य कवि हल्ल या जयमित्र हल्ल द्वारा रचित 'महिलणाह' काव्य की प्रशसा का भी उल्लेख किया है । उक्त ग्रन्थ भ० पमनन्दी के पद पर प्रतिष्ठित रहते हुए उनके शिष्य द्वारा रचा गया था । कवि हरिचन्द ने अपना वर्धमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। इसी से उसमें कवि ने उनका खुला यशोगान किया है:'पत्मणंवि मुणिणाह गणिव, चरण सरण गुरु का हरिबह -(वर्धमान काव्य) मापके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पानन्दी ने स्वयं शिक्षा देकर विद्वान बनाया था। भ० शुभचन्द, तो उनके १. हंसोज्ञानमरालिका समसमा श्लेवप्रभूताभुता । मन्दं कोरति मानसेति विशदे यस्यानिशं सम्वतः ।। स्थावादामृतसिन्धुवर्धनविषौ श्रीमप्रभेन्दुप्रभाः। पट्ट सूरि मल्लिका स जयतात् श्रीपप्रनन्दी मुनिः ।। महावत पुरन्दरः प्ररमदग्ष रोगाङ्कुरः । स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिरघोषशास्त्रार्थवित् यशोभर मनोहरीकृत समस्तविश्वम्भरः । परोपकति तत्परो जयति पपनन्दीश्वरः॥ -शुभचन्द्र पट्टावलो Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पट्टधर शिष्य थे ही, किन्तु आपके अन्य तीन शिष्यों से भट्टारक पदों की तीन परम्पराए प्रारम्भ हुई थों जिनका भागे शाखा-प्रशाखा रूप में विस्तार हुआ है। भट्टारक शुभचन्द दिल्ली परम्परा के विद्वान थे। इनके द्वारा 'सिद्धचक्र' को कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्पादृष्टि जालाक के लिये बनाई थो । भ. सकलकोति से ईडर को गद्दी प्रार देवेन्द्रकीर्ति मे सूरत की गद्दी की स्थापना हुई यो। चूंकि पचनन्दी मूलसंघ के विद्वान थे मतः इनको परम्परा से मूल संघ की परम्परा का विस्तार हुना। पपनन्दी अपने समय के अच्छे विद्वान, विचारक नीर प्रभावशाली भट्टारक थे। भर नाका कीर्ति ने इनके पास आत वर्ष रहकर धर्म, दर्शन, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष, साहित्य पादि का ज्ञान प्राप्त किया था और कविता में निपुणता प्राप्त की थी। भट्टारक सकलकीति ने अपनी रचनाओं में उनका स-सम्मान उल्लेख किया है नन्दी केवल गद्दी धारी भट्टारक ही नहीं थे, किन्तु जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सदा सावधान रहते थे। पग्रनन्दी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न स्थानों पर अनेक मूर्तियों को प्रतिष्ठा की गई थी। जहां वे मंत्र-तंत्रवादी थे, वहां वे प्रत्यन्त विवेकशील और चतुर थे। मापके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विभिन्न स्थानों के मन्दिरों में पाई जाती है। पाठकों की जानकारी के लिये दो मूर्ति लेख नीचे दिये जाते हैं: १प्राविनाय–ओं संवत १४५० वैशाख सुदी १२ गुरौ श्री चहवाण वंश कुशेशय मार्तण सारवं विकमन्य श्रीमत स्वरूप भूपान्वय झग्देवात्मजस्य भषज शक्रस्य श्री सवानपतेः राज्ये प्रवर्तमाने श्री मलसंधे चन्द देव, तत्पढ़े श्री पदमनन्धि वेव तबुपधेशे गोलाराडान्वये-- –(भट्टारक सम्प्रदाय ८६२) २.अरहंत-हरितवर्ण कृष्णमति-सं०१४६३ वर्षे माघ सुबी १३ शुके श्री मूल संधे पट्टाचार्य श्री पदम मन्दि वा गोलारामधपे साधु नागदेव सुत----। (इटाया के जैन मूर्ति लेख-प्राचीन जैन लेख संग्रह पृ० ३८) ऐतिहासिक घटना भ.पग्रनन्दी के सानिध्य में दिल्ली का एक संघ गिरनार जी को यात्रा को गया था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी एक संघ उक्त तीर्थ की यात्रार्थ यहाँ माया हुआ था। उस समय दोनों संघों में यह विवाद छिड़ गया कि पहले कौन बन्दना करे, जब विवाद ने तूल पकड़ लिया और कुछ भी निर्णय न हो सका, तब उसके शम नार्थ यह युक्ति सोची गई कि जो संघ सरस्वती से अपने को 'माद्य' कहला देगा, वही संघ पहले यात्रा को जा सकेगा अत: भट्टारक नन्दी ने पाषाण की सरस्वती देवी के मुख से 'माद्य दिगम्बर' शब्द कहला दिया, परिणामस्वरूप दिगम्बरों ने पहले यात्रा की, और भगवान नेमिनाथ की भक्ति पूर्वक पूजा की। उसके बाद श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने की। उसी समय से बलात्कारगण की प्रसिद्धि मानी जाती है। वे पद्य इस प्रकार है : पवमनम्चि गुरुजतिो बलात्कारगणाप्रणी। पाषाणघटिता येन वाविता श्री सरस्वती।। अर्जयन्स गिरोतेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पवमनधिने ॥ यह ऐतिहासिक घटना प्रस्तुत पद्मनन्दी के जीवन के साथ घटित हुई थी। पद्मनन्दी नाम साम्य के कारण कुछ विद्वानों ने इस घटना का सम्बन्ध प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द के साथ जोड़ दिया । वह ठोक नहीं है। क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य मूल संघ के प्रवर्तक प्राचीन मुनि पुंगव हैं और घटनाक्रम प्रर्वाचीन है। ऐसी स्थिति में यह घटना मा. कुन्दकुन्द के समय की नहीं है। इसका सम्बन्ध तो भट्रारक पद्मनन्दी से है। १. श्रीपयनन्दी मुनिराजपट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः । श्रीसिवचक्रस्य कथाऽवसारं कार भव्यांबुजभानुमाली। (जैनग्रन्थ प्रशस्ति सं० मा.११.८८) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि रचनाएँ पद्मनन्दि श्रावका नन्दी की अनेक रचनाएँ हैं। जिनमें देवशास्त्र गुरु-पूजन संस्कृत, सिद्धपूजा संस्कृत, चारसारोद्वार, वर्धमानकाव्य, जोरापल्लि पार्श्वनाथ स्तोत्र प्रार भावनाचतुविशति । इनके प्रतिरिक्त वीतराग स्तोत्र, शान्तिनाथ स्तोत्र भी पद्मनन्दी कृत हैं, पर दोनों स्तोत्रों, देव-शास्त्र गुरु पूजा तथा सिद्धपूजा में पद्मनन्दि का नामोल्लेख तो मिलता है, परन्तु उसमें भ० प्रभाचन्द का कोई उल्लेख नहीं मिलता। जब कि अन्य रचनाम्रों में प्रभाचन्द का स्पष्ट उल्लेख है, इसलिये उन रचनाओं को बिना किसी ठोस साधार के प्रस्तुत पद्मनन्दों को ही रचनाएं. नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि वे भी इन्ही की कृति रहीं हों । श्रावकाचारसारोवार संस्कृत भाषा का पद्य बद्ध ग्रन्थ है, उसमें तीन परिच्छेद है जिनमें श्रावक धर्म का अच्छा विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ के निर्माण में लम्बकंचुक कुलान्वयी (लमेचूवंशज) साहू वासाधर प्रेरक हैं।" प्रशस्ति में उनके पितामह का भी नामोल्लेख किया है जिन्होंने 'सुपकारसार' नामक ग्रंथ को रचना की थी। यह ग्रन्थ ग्रभी अनुपलब्ध है । विद्वानों को उसका अन्वेषण करना चाहिए। इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में कर्ता ने साहू वासाघर के परिवार का अच्छा परिचय कराया है। और बतलाया है कि गोकर्ण के पुत्र सोमदेव हुए, जो चन्द्रवाड के राजा अभयवन्द्र और जयचन्द्र के समय प्रधान मन्त्री थे । सोमदेव की पत्नी का नाम प्रेमसिरि था, उससे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । वासाधर, हरिराज, प्रहलाद, महाराज, भवराज रतनाख्य और सतनाख्य । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र साधर सबसे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा शीर कर्तव्यपरायण था। इनकी प्रेरणा और श्राग्रह से हो मुनि पद्मनन्दी ने उक्त श्रवाकाचार की रचना की थी। साहू वासावर ने चन्द्रवाड में एक जिनमन्दिर बनवाया था और उनको प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी। कवि धनपाल के शब्दों में वासाधर सम्यग्दृष्टि, जिनचरणों का भक्त जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलांक मित्र मिध्यात्व रहित और विशुद्ध चित्तवाला था। भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य घनपाल ने भी सं० १४५४ में चंद्रवाड नगर में उक्त वासाधर की प्रेरणा से अपभ्रंश भाषा में बाहुबलोंचरित की रचना की थी । दूसरी कृति वर्धमान काव्य या जिनरात्रि कथा है, जिसके प्रथम सर्ग में ३५६ और दूसरे सर्ग में २०५ श्लोक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का चरित अंकित किया गया है, किन्तु ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया जिससे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। इस ग्रन्थ की एक प्रति जयपुर के पार्श्वनाथ दि० जैन मंदिर के शास्त्र भंडार में अवस्थित है जिसका लिपिकाल सं० १५१८ है और दूसरी प्रति सं० १५२२ को लिखी हुई गोपीपुरा सूरत के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। इनके अतिरिक्त 'अनंतव्रत कथा' भी भ० प्रभाचंद्र के शिष्य नन्दो को बनाई उपलब्ध है। जिसमें ८५ श्लोक हैं । पद्मनन्द ने अनेक देशों, ग्रामों, नगरों आदि में विहार कर जन कल्याण का कार्य किया है, लोकोपयोगी साहित्य का निर्माण तथा उपदेशों द्वारा सम्मार्ग दिखलाया है। इनके शिष्य-प्रशिष्यों से जैनधर्म और संस्कृति की महती सेवा हुई है। वर्षो तक साहित्य का निर्माण, शास्त्र भंडारों का संकलन और प्रतिष्ठादिकार्यों द्वारा जैन संस्कृति के प्रचार में बल मिला है। इसी तरह के अन्य अनेक संत हैं, जिनका परिचय भी जनसाधारण तक नहीं पहुंचा है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर पद्मनन्दी का परिचय दिया गया है चूंकि पद्मनन्दी मूल संघ के विद्वान थे, वे farara में रहते थे और अपने को मुनि कहते थे और वे यथाविष यथाशक्य निर्दोष आचार विधि का पालन कर जीवन यापन करते थे । १. श्री के चुकुलपदम विकासभानुः सोमात्मजो दुरितदार जयकृशानुः । धर्म परो भुवि भव्यबन्धु वसाबरो विजयते गुणरत्न सिन्धुः ।। २. जियाह चरण भसो त्रिणषम्मपरो दयालोए । सिरि सोम ४७६ दउ बासरी शिवं । सम्मत जुज्ञो णिशयभत्तो दयालुरतो बहुलोय मित्तो । मिच्छतवतो सुरिलो वासावरी दत्त पुष्णचिसो ॥ बाहुबलीवरित संधि ४ - बाहुबली चरित संधि ३ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ शिष्य परम्परा भ० पद्मनन्दी के प्रतेक शिष्य थे उनमें चार प्रमुख थे। शुभचन्द्र उनके पट्टधर शिष्य थे । देवेन्द्र कीर्ति ने सूरत में भट्टारक गद्दी स्थापित की थी। शिवनन्दी जिनका पूर्वनाम सूरजन साहु था। पद्मनन्दी द्वारा दीक्षित होकर शिवनन्दी नाम दिया, जो बड़े तपस्वी थे। धर्मध्यान और प्रतादि में संलग्न रहते थे। बाद में उनका स्वर्ग: बास हो गया था। चतुर्थ शिष्य सकलकीर्ति थे जिन्होंने ईडर में भट्टारक गट्टी स्थापित की थी। यह अपने समय के सबसे प्रसिद्ध और प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। दिगम्बर मुद्रा में रहते थे। इन्होंने अनेक प्रतिष्ठाए, और अनेक ग्रन्थों बी रचना की है। इनकी शिष्य परम्परा भी पल्लवित रही है। भ० पद्यनन्दी द्वारा दीक्षित रत्नश्री' नाम को प्रायिका भी थी। इस तरह पद्मनन्दी ने और उनकी शिष्य परम्परा ने जंन संस्कृति को महान् सेवा की है। भट्टारक यशःकोति यह काष्ठासंघ माथुर गच्छ और पुष्कर गण के भट्टारक गूणकीति जिनका तपश्चरण से शरीर क्षीण हो गया था, लघुभ्राता और पट्टधर थे। यह उस समय के सुयोग्य विज्ञान और प्रतिष्ठाचार्य थे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के अच्छे बिद्वान और कवि थे। अपने समय के अच्छे प्रभावशाली भवारक थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्यों से प्रकट है: "सुतास. पट्टमायरो वि प्रायमत्थ-सायरो, रिसिस गच्छणायको जयन्त सिक्ख दायको जसक्खु किसि सुदरो प्रकंपुणाय मंदिरो।" (पास पुराण प्र०) 'सहो बंधउ जायमणि सीस सार, आय दिन गणालिय गोपा ' -हरिवंश पुराण 'भव्व-कमल-सबोह पचंगो तह पुण-तव ताप तषियंगो। णियोभासिय पक्षण प्रगो, विवि सिरि जस किसि प्रसगो।" -सन्मति जिन च०प्र० यशः कीति प्रसंग (परिग्रह रहित) थे, और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे, वे यशः कीति वन्दनीय है। काष्ठासंध की पट्टावली में उनकी अच्छी प्रशंसा की गई है। उनकी गुणकीति प्रसिद्ध थी व पूण्य मूर्ति, कामदेव के विनाशक और अनेक शिष्यों से परिपूर्ण, निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक, जिनके चित्त में जिन चरण कमल प्रतिष्ठित थे-जिन भक्त थे और स्याद्वाद के सत्प्रेक्षक थे। इन्होंने सं. १४८६ में विबुध श्रीघर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश भाषा का 'सुकमाल चरित' ये दो ग्रन्थ लिखवाये थे। भट्टारक यश: कीति ने स्वयंभू कवि के खंडित जीर्ण-शीर्ण दशा में प्राप्त हरिवंशपुराण (रिट्रणेमि चरिउ) का ग्वालियर के समीप कुमारनगर के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए उद्धार किया था। उसमें उन्होंने १. स. १४७१ पदावली के प्रारम्भ में साल कीति को पपनदी का चतुर्य शिष्य बतलाया है । २. तहो सीसु सिद्ध गुण कित्तिणासु, तत्रता जासु पारीर खाम्। तहो बंश्व जस मुणि सीपु जाउ, आयरिय वण. सिय दोसु-राउ ।। (हरिवंशपुराण) ३. सं. १४८६ वर्षे झापाट वदि ७ गुरु दिने गोगवल दुर्गे राजा डंगरेन्द्र सिंह देव विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठा संघे माथुरान्वये पुष्कर गणे आचार्य श्री सहस्रकीति देवास्तत्पनै आचार्य गुणकीतिदेवास्तयिष्य श्री यश:कौतिदेवास्तेन निन ज्ञानवरणी कर्म क्षयार्य इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितम् ।।" (नयामंदिर धर्मपुरा दिल्ली प्रति) तथा जैन ग्रन्य प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ. ६३ ४. तं जसफित्ति मणिहि, उरियउ, सिए वि सत्तु हरिवंसच्चरित। रिपत्र मुरु सिरि-गुणकित्ति पसाएँ किउ परिपुण्ण मण हो अगुराएँ । सरह मणेदं (१) सेठि पाए, कुमरिणयरि भाविउ सविसे सें। गोवग्गिरिहे समीवे विसालए परिणयारहै जिणबर चेमालए। सावय जगहो पुरज वक्खारिज, दिड मियत मोहु बमाणि उ । हरिवंश पुराण प्राप्ति Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि अपना नाम भी अंकित कर दिया था। कवि रघू इन्हें अपना गुरु मानते थे । समय सं० १४५२ में बैशाख सुदी १० के दिन योगिनीपुर (दिल्ली) के शाहजादा मुराद के राज्य में यशः कीति के उपदेश से श्रीधर की भविष्यदत्त कथा लिखवाई गई। कवि का समय संवत् १४८२ से १५०० तक उपलब्ध होता है | अतः कवि का समय १५वीं शताब्दी सुनिश्चित है। क्योंकि सं० १५०० में इन्होंने हरिवंशपुराण की रचना और जीति रहे कुछ नहीं होता। इनके अनेक शिष्य थे। इनके पट्टषर की है, उसके बाद वे शिष्य मलकीर्ति थे । रखमाए इनकी इस समय चार रचनाएं उपलब्ध हैं । पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण, जिनरात्रि कथा, और रवि व्रत कथा । Yat पाण्डव पुराण - इस ग्रन्थ में ३४ सन्धियाँ हैं जिनमें भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा के साथ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, और दुर्योधनादि कौरवों के परिचय से युक्त कौरवों से होने वाले महाभारत युद्ध में विजय, नेमिनाथ युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की तपश्चर्या तथा निर्वाण प्राप्ति, नकुल, सहदेव का सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त करना और बलदेव का ५ वें स्वर्ग में जाने का उल्लेख किया है । कवि यशःकीति विहार करते हुए नवग्राम नामक नगर में श्राये जो दिल्ली के निकट था। कवि ने पाण्डवपुराण की रचना इसी नगर में शाह हेमराज के अनुरोध से सं० १४६६ कार्तिक शुक्ला अष्टमी बुधवार को समाप्त किया था। शाह हेमराज शैय्यद मुबारिक शाह के मन्त्री थे । यह सन् १४५० में मुन्नारिक शाह का मन्त्रो था । कवि ने ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक हेमराज की संस्कृत पद्यों में मंगल कामना की है। इन्होंने एक चैत्यालय भी बनवाया था। उसकी प्रतिष्ठा संवत् १४९७ पूर्व हुई थी । ग्रन्थ में नारी का वर्णन परम्परागत उपमानों से अलंकृत है किन्तु शारीरिक सौन्दर्य का अच्छा वर्णन किया गया है- 'जाहे नियंति है रवि उविखज्जइ' - जिसे देखकर रति भी खीज उठती है। इतना ही नहीं किन्तु उसके सौन्दर्य से इन्द्राणी भी खिन्न हो जाती है- 'लावण्णे वासवपिय जूर' । कवि ने जहाँ शरीर के बाह्य सौन्दर्य का कथन किया है वहां उसके अन्तर प्रभाव की भी सूचना की है। छन्दों में पद्धडिया के प्रतिरिक्त प्रारणाल, दुवई, खंडय, हेला, गंभोटिया, मलय विलासिया, ग्रावलो, चतुष्पदी, सुन्दरी, वंशस्थ, गाहा, दोहा, और वस्तु छन्द का प्रयोग किया है। कवि ने रवों संधि के कवकों के प्रारम्भ में दोहा छन्द का प्रयोग किया है और दोहे को दोधक श्रीर दोहउ नाम भी दिया है। यथा १. सं० १४५१ वंश १० दिने खसुदी १० दिने श्री योगिनीपुरे साहिजादा मुरादखान राज्यप्रवर्तमाने श्रीकण्ठासंमान्वये हरगणे आचार्य श्री भावमेन देवास्तपट्टे श्री गुणकीर्ति बेवास्त शिष्य श्री यशःकीति उपदेशेन लिखापित। दि० जैन पंती मंदिर बनवा, जैन ग्रन्थ सूवी भा० पृ० ३६३ २. सिरिअस पहा, जो संघ बच्छ विगयमाणु । तो व बील्हा गपमात्र, नव गांव नयरि सो सई जिआउ || ३. 'विक्रमराय हो ववयय कालए, महि- सायर- गहू- रिसि अकालए । यि यि श्रमिह वास, हुड परिपुष्ण, पढन दीसर | पाण्डवपु० प्र० (जैन ग्रंथ प्रा० भा० २ पृ० ४० ) ४. सुरतान मुवारख तणइ रज्ज, मंतितरपेचिङ पिय भारकज्ञ । ५. जेल करावउ जिए चेयालउ, पुण्णहेड चिर-रम-पालि । वय-तोरण -- फलते हि अलंकिउ, जसु गुरुन्ति हरि जाणु वि संकि । — वही जैन ग्रंथ प्रश० भा०२ पृ० ३९ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बोधक- ता मिचिय सीयल जलेण, विज्जिय चमर विलेण । उप्रिय सीयानल तधिय, मयलिय अंजुजलेण ॥ प्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में हेमराज के परिवार का विस्तृत परिचय दिया है और प्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया है जैसा कि निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है:-- इय पंडव पुराण सयल जणमण सवण सहयरे सिरिगुणकित्सि सीस मुणि जसकित्ति विरइए साघु वोल्हा सुत राय मंति हेमराजणामंकिए-...................।' हरिवंस पुराण-प्रस्तुत ग्रंथ में १३ सन्धियाँ पोर २६७ कडवक हैं। जो चार हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। इसमें कवि ने भगवान नेमिनाथ और उनके समय में होने वाले यदुवंशियों का-कौरव पाण्डवादि का-संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अर्थात महाभारतकालीन जैन मान्यता सम्मत पौराणिक पाख्यान दिया हमा है । ग्रन्थ में काव्यमय अनेकस्थल प्रलंकृत शैली से वर्णित हैं। उसमें नारी के बाह्यरूप काही चित्रण नहीं किया गया किन्तु उसके हृदयस्पर्शी प्रभाव को मंकित किया है। कवि ने अन्य को पद्धडिया छन्द में रचने की घोषणा की है 'किन्तु मारणाल' दुवई, खंडय, जंभोट्टिया, वस्तुबंध पौर हेलामादि छन्दों का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया गया है। ऐतिहासिक कथनों की प्रधानता है, परन्तु सभी वर्णन सामान्य कोटि के हैं उनमें तीता को भिव्यक्ति नहीं है। यह ग्रन्थ हिसार निवासी अग्नवाल वंशी गर्ग गोत्री साहु दिवड्डा के अनुरोध से बनाया गया था। साह दिवडा परमेष्ठी पाराषक, इन्द्रिय विषय विरक्त, सप्त व्यसन रहित, अष्ट मूलगुणधारक, तत्वार्थ श्रद्धानी, अष्ट अंग परिपालक, ग्यारह प्रतिमा आराधक, और बारह व्रतों का अनुष्ठापक था, उसके दान-मान की यशः कीति ने खूब प्रशंसा को है। कवि ने लिखा है कि मैंने इस ग्रन्थ की रचना कवित्त कीर्ति और धन के लोभ से नहीं की है और न किसी के मोह से, किन्तु केवल धर्म पक्ष से कर्म क्षय के निमित्त और भव्यों के संबोधनार्थ की है। कवि ने दिवड्ठा साह के अनुरोध वश यह ग्रन्थ वि० सं० १५०० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन इंदउर' (इन्द्रपुर) में जलालखां के राज्य में, जो मेवातिचीफ के नाम से जाना जाता है, की है । इसने शय्यद मुबारिक शाह को बड़ी तकलीफ दी थीं। जिनरात्रिकथा-में शिवरात्रि कथा की तरह भगवान महावीर ने जिस रात्रि में अवशिष्ट प्रघाति कर्म का विनाशकर पावापूर से मुक्तिपद प्राप्त किया था, उस का वर्णन प्रस्तुत कथा में किया गया है। उसी दिन और रात्रि में व्रत करना तथा तदनुसार प्राचार का पालन करते हुए प्रात्म-साधना द्वारा आत्म-शोधन करना कवि की रचना का प्रमुख उद्देश्य है। रवि व्रत कथा-में रविवार के प्रत से लाभ और हानि का वर्णन करते हुए रवि व्रत के मनुष्ठापक और उसकी निन्दा करने वाले दोनों व्यक्तियों की अच्छी-बुरी परिणतियों से निष्पन्न फल का निर्देश करते हए क्त की सार्थकता, और उसकी विधि प्रादि का सुन्दर विवेचन किया है। मुनि कल्याण कोति यह मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छ के भट्टारक ललित कीति के दीक्षित शिष्य थे। इनके विद्यागुरु कौन थे यह ज्ञात नहीं हुआ । भट्टारक ललित कीर्ति कार्कल के मठाधीश थे । ललित कीर्ति के गुरुदेव कीर्ति । इन भट्टारकों १. दारणेण आसु कित्ती पर उवषारसु सपया जस्स। णिय पुत्त कसत सहिउ रणदउ दिवढास्य इह भुवणे॥ -हरिवंशपुराण प्र. भविषण सबोहण रिणमित, एउ गंयुकिउरिणम्मम पित्तं । एकवित कित्तहे घरगलोहें, णत कासुवरि पट्टिय मोहें। + x + कम्मश्खय शिमित्त मिरवेक्वे, विराट केवल अम्मह परखें ॥ (जैन ग्रंथ प्रवास्ति स. भा२०४२) २. इंद उरहि एज हुउ संपुष्भाउ, रज्जे पलामज्ञान कय उपाय -वही प्रशस्ति सं०१ मा०२ पृ. ४२ . ३. देखो, तबारीख मुबारिकशाही प० २११ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वौं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि Yc का मूल पट्टस्थान मैसूर राज्यान्तर्गत पनसोगे (हनसोगे) में था। इनके देवचन्द्र नाम के दूसरे भी शिष्य थे, जैसा कि जिनयज्ञ-फलोदय कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है-'देवचन्द्र मुनीन्द्रायों दयापाल: प्रसन्नधीः'। कल्याण कीति अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और लेखक थे। और वादिरूपी पर्वतों के लिये वन्च के समान थे। इनकी अनेक रचनाएँ हैं जिनमें नौ रचनामों का नामोल्लेख इस प्रकार है:-१. जिनयज्ञफलोदय २. ज्ञानचन्द्राभ्युदय ३. कामनकथे ४. अनुप्रेक्ष ५. जिनस्तुति ६. तत्वभेदाष्टक ७. सिद्धराशि, ८. फणिकुमारचरित ६. और यशोधर चरित। प्रस्तुत कवि पाण्डव राजा के समय मौजद थे। यह पाण्डचराज वहो वीर पाण्डव भररस प्रौडेय हैं जिन्होंने कार्कल में बाहुबलीस्वामी को विशाल एवं मनोग्य मूति को स्थापित किया था और जिसको प्रतिष्ठा शक सं० १३५३ सन् १४३१-३२ ई० में हुई थी। १. जिन यज्ञफलोदय–में जिन पूजा और उनके फलोपदेश का वर्णन किया गया हैं इसमें नो लम्ब और दो हजार सातसौ पचास श्लोक हैं। यथा "द्विसहस्रमिदं प्रोक्तं शास्त्रं ग्रन्थं प्रमाणतः । पञ्चाशत्तरः सप्त शतश्लोफख संगतम् ।।" कवि ने इसकी रचना शक सं० १३५० में को थी, जैसाकि उसको प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है पञ्चाशस्त्रिशती युक्त सहस्रशकवत्सरे । _प्लवंगे श्रत पञ्चम्या ज्येष्ठे मासि प्रतिष्ठितम् ।।४२५ २. ज्ञानचन्ताम्युदय-में १०८ पद्य हैं। और उसकी रचना शक सं० १३६१ (सन् १४३६ ई.) में समाप्त हुई है। यह ग्रन्थ षट्पदी छन्द में है। इस कारण इसे ज्ञानचन्द्र षट् पदी भी कहते हैं । ज्ञानचन्द्र नाम के राजा ने तपश्चर्या द्वारा मुक्ति प्राप्त की थी। उसी का कथानक इस ग्रन्ध में दिया हना है । ३. कामनक थे-सांगत्य छन्द में रची गई है। इसमें जैन धर्मानुसार काम-कथा का वर्णन ४ सन्धियों और ३३१ पद्यों में किया गया है । ग्रंथ के प्रारम्भ में गुरु ललित कीति का स्मरण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना तुलुव देश के राजा भैरव सुत पाण्ड्य राय की प्रेरणा से की थी। ४. अनुप्रेक्षे-में ७४ पद्य है जो कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत अनुप्रेक्षा का अनुवाद जान पड़ता है। ५. जिनस्तुति-६. तत्वभेदाष्टक-इनमें से जिन स्तुति में १७ और तत्त्वभेदाष्टक में ६ पद्य हैं। ७. सिद्ध राशि का परिचय ज्ञात नहीं हुमा। ५. फणि कुमार चरित-कन्नड़ भाषा में रचा गया है। पं० के भुजबली शास्त्री इसका कर्ता इन्हीं कल्याण कीति को मानते हैं । जो शक १३६४ (सन् १४४२) में समाप्त हुना है। यशोधर चरित्र-प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत के १-५० श्लोकों में रचा गया है । यह ग्रन्थ मंधर्व कवि के प्राकृत (अपभ्रश) यशोधर चरित को देख कर पाण्डयनगर के गोम्मट स्वामी चैत्यालय में शक सं० १३७३ (मन् १४५१) में समाप्त किया है। इसमें राजा यशोधर और चन्द्रमति का कथानक दिया हया है। इसके प्रशस्ति पद्य में मुनि ललितकीति का उल्लेख किया है : यो ललितकीतिमुनिमहदयगिरेरभवदागममयूख: कल्याणफोति मुनि रवि रखिल धरातलतत्त्वबोधन समर्थः ॥२२१ इस सब रचानयों के समय से ज्ञात होता है कि मुनि कल्याण कीति ईसा को १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वे विक्रम सं० १४८८ से १५०८ के ग्रन्थकर्ता हैं। प्रमाचन्द्र यह काष्ठा संघीय भट्टारक हेमकीर्ति के शिष्य और धर्म चन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क व्याकरमदि सकल १. देखो प्रशस्ति संग्रह, जैन सिद्धान्तभवन पारा पृ० २७ श्लोक ४११ से ४१३ । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४e४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ में शास्त्रों में निपुण थे । भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे। वे संघ सहित विहार करते हुए सकीट नगर 'भाए, जो एटा जिले में है इन्होंने सकीटनगर ( एटा जिला ) वासी लम्बकंचुक (लमेचू) आम्नाय के साहु के पुत्र पं० सोनिक' को प्रार्थना पर तत्त्वार्थ सूत्र को 'तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर नाम की टीका वि०सं० १४८६ मं सकत ब्रह्मचारी जैताख्य के प्रबोधार्थं लिखी थी । इससे इन प्रमाचन्द्र का समय विक्रम को १५वीं शताब्दा सुनिशंचत है । काल्हू पुत्र हावा साधू की प्रार्थना से उक्त टिप्पण बनाया गया और उन्हीं के नामांकित किया है । जसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है : इति श्री भट्टारक धर्मचन्द्र शिष्य गणिप्रभाचन्द्र विरचिते तत्त्वार्थ टिप्पणके ब्रह्मचारि जेता साधु हावादेव नामांकिते दर्शमोऽध्यायः समाप्तः । म० शुमकीर्ति शुभकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें एक शुभकीर्ति वादन्द्र विशाल कीर्ति के पट्टधर थे । इनकी बुद्धि पंचाचार के पालन से पवित्र वाले उन्मार्ग के विधि विधान ब्रह्मा के तुल्य थे, मुनियों में श्रेष्ठ और शुभ प्रदाता थे। इनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है । दूसरे शुभकीर्ति कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्र के शिष्य थे। और तीसरे शुभकोति प्रस्तुत शान्तिनाथ चारत के कर्ता हैं। जो देवकीति के समकालीन थे, उन्होंने प्रभाचन्द्र के प्रसाद से शान्तिनाथ चरित की रचना की थी कवि ने अपनी गुरुपरम्परा और जीवन घटना के सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं डाला । ग्रन्थ की पुष्पिका वाक्य में उ भासा चक्का वट्टि सुह कित्तिदेव विरइए' पद दिया है, जिससे वे अपभ्रंश और संस्कृत भाषा में निष्णात विद्वान थे । कविने ग्रन्थ के अन्त में देवकीर्ति का उल्लेख किया हैं। एक देवकीर्ति काष्ठासंघ माथुरान्वय के विद्वान थे उनके द्वारा सं० १४६४ आषाढ वदि २ के दिन प्रतिष्ठित एक धातु मुर्ति ग्रागरा के कचौडा बाजार के मन्दिर में विराज मान है। हो सकता है कि प्रस्तुत शुभकीर्ति देवकीर्ति के समकालीन हों, या किसी अन्य देव कीर्ति के समकालीन १. प्राप्त पुरे सकीटाये समातीतो जिनालये । लम्बकंचुक आम्नाये सकतू साधुनन्दनः || ११ पंडित सोनिको विद्वान जिनपादाब्जषट्पदः । सम्यग्दृष्टि गुणावासो वृष-शीषं शिरोमणिः ॥ १२ ( आदि प्रशस्ति ) २. अस्मिन्संवत्सरे विक्रमादित्य नृपतेः गते । चतुर्दशतेऽतीतेनवासीत्यब्द संयुते ॥ १३ भाद्रपदे शुक्ले पंचमी वासरे शुभे । वारेऽक वैधृतियोगे विशाला ऋक्ष के बरे ।।१४ तत्त्वार्थ टिप्पणं भद्र प्रभाचन्द्र तपस्विता । ३... कृत मिदं प्रबोधाय जैतास्य ब्रह्मचारिणे ।।१५ ( अन्तिम प्र० ) ...... तपो महात्मा शुभकीर्ति देवः । कन्तरात विधानाद्वाते सन्मार्गविधे विधाने । - पट्टावली शुभचन्द्रः तत्पट्टे जनि विख्यातः पं वा चार पवित्रधीः । शुभकीति मुनि श्रेष्ठ शुभकीर्ति शुभप्रदः ॥ ४. श्री कुंदकुंदस्य बभ्रुवक्शे श्री रामचन्द्र प्रथतः प्रभावः शिष्यस्तदीय: शुभकीर्तिनामा तरोंगना बक्ष सि हारभूतः ॥ ७ प्रद्योतने सम्प्रति तस्य पट्टे विद्या प्रभावेण विशालकीतिः । शिष्यैरनेकं रुपसेव्यमान एकान्तवादादि विनाश वचय ॥ ८ ५. सं० १४६४ - सुदर्शन चरित्र - धर्मशर्माभ्युदय लिपि प्र० यदि २ काष्ठासं माथुरान्वये श्री देवकीर्ति प्रतिष्ठिता । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १२वौं, १७वीं और १५ मादो के आचार्य, भट्टारक और कति ४८५ पर जब कवि ग्रन्थ का रचना काल सं. १४३६ दे रहा है तब देवकांति दूसरे ही होंगे यह विचारणीय है। प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित १६ सन्धियो में पूर्ण हमा है। इसको एक मात्र कृति नागोर के शास्थभंडार में सुरक्षित है जो सं. १५५१ को लिखीई है। इस ग्रन्थ में जैनियों के १६ व तीर्थकर भगवान शान्तिनाथ का जीवन परिचय अंकित है। भगवान शान्ति नाय पंचम चक्रवर्ती थे, उन्होंने षट् खण्डों को जोतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। फिर उसका परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले तपश्चरणरूप समाधिचक्र से महा दुजय मोहकमका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्त में प्रचाति कर्मका नाश कर अचल अविनाशी सिद्ध पद प्राप्त किया। कविने इस ग्रन्थ को महाकाव्य के रुप में बनाने का प्रयत्न किया है। काव्य-कला को दृष्टि में भले ही वह महाकाव्य न माना जाय। परन्तु ग्रन्थकर्ता की दृष्टि उसे महाकाव्य बनाने की रही है। कविने लिखा है कि शान्तिनाथ का यह चरित बीर जिनेश्वर ने गौतम को कहा, उसे ही जिनन और पुष्पदन्त ने कहा, वही मैंने भी कहा है। जं प्रत्थं जिणराजवेव कहियं जं गोयमेणं सुदं, जं सत्थं जिणसेण देव रइयं ज. पुष्पदंतादिही। तं प्रत्थं सुहकित्तिणा विभणियं सं रूपचंद त्थियं, सण्णोणं बुज्जण सहाय परमं पीएहिए संग ।।१०वी संधि। कविने ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक रूपचन्द्र का परिचय देते हुए कहा है कि वे इक्ष्वाकुवंशी कूस में (जसवालवश में) प्राशाधर ए.जो ठक्कूर नाम से प्रसिद्ध थे और जिन शासन के भक्त थे इनके धनवउ'ठक्कूर नाम का पूत्र हवा उसकी पत्नी का नाम लोनावती था, जिसका कादीर मम्पक्त्त मे दिनपिनमा जलसे काम नाम का पूर्व हुआ जिसने उक्त शान्तिनाथ चरित का निर्माण कराया है। कवि ने प्रत्येक संधि के अन्त में रूपचन्द्र को प्रशंशा में एवं आशीर्वादात्मक अनेक पद्य दिये हैं, उसका एक पद्य पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दिया जाता है: इक्ष्वाणां विशुद्धो जिनवरविभवाम्माय वंशे समांशे। तस्मावाशापरीया बहुजनमहिमा जातजैसालवंशे । लीला लंकार सारोअव विभवगुणा सार सत्कार सुद्ध। • शद्धि सिद्धार्थसारा परियगुणी रूपचन्द्रः सुचन्द्रः॥ कविने अन्त में अन्य को रचना काल सं. १४३६ दिया है जैसाकि उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है। प्रासी विक्रमभूपतेः कलियुगे शांतोसरे संगते । सत्यं क्रोधननामधेय विपुले संवच्छरे संमते । से तत्र चतुर्दशेतु परमो षत्रिशके स्वांशके । मासे फाल्गुणि पूर्व पक्षकयुधे सम्यक् तृतीयां तिथी॥ इससे स्पष्ट है कि कवि शुभकीर्ति १५वी शताब्दी के विद्वान है। अन्य ग्रन्थ भंडारों में शान्तिनाथ चरित्र की इस प्रति का अन्वेषण आवश्यक है। अन्यथा एक ही प्रति पर से उसका प्रकाशन किया जाय। कवि मंगराज तृतीय कवि के पितामह का नाम 'माधव' और पिता का नाम 'विजयपाल' था, जो होयसल देशान्तर्गत होसवृत्ति प्रान्त को राजधानी कलहल्लि का स्वामी था, और जिसके उद्धव कुल चूड़ामणि, शार्दूलांक उपनाम थे। युद्वश के महा मण्डलेश्वर चंगाल नुपके मंत्रीवंश में उत्पन्न हुमा था। इसकी माता का नाम 'देविले' था और इसकेगुरु का नाम 'चिक्क-प्रभेन्दु' था। प्रभु राज और प्रभुकुल रलदीप इसके उपनाम थे। इसकी छह कृतियां उपलब्ध हैंजयनप काव्य, प्रभंजन चरित, सम्यक्त्व कौमुदी, श्रीपाल' चरित, नेमि जिनेश संगीत, पाकशास्त्र (सूपशास्त्र)। जयनप काव्य-यह काव्य परिवद्धिनी षट्पदी में लिखा गया है, इसमें १६ सन्धियां भोर १०७० पद्य हैं। इसमें कुरु जांगल देश के राजा राजप्रभदेब के पुत्र जयनग की जीवन कथा वणित है। कवि ने लिखा है कि पहले यह चरित जिनसेन ने रचा था, और दूध में शर्करा मिश्रण के समान संस्कृत में कनडी मिश्रित कर मैंने इसकी रचना की Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ है । ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वानों का स्मरण किया है-गुणभद्र, कवि परमेष्ठी, बाहुबलि अकलंक, जिनसेन पूज्यपाद, प्रभेन्दु और तत्पुत्र श्रुतमुनि का नामोल्लेख किया हैं। प्रभंजन चरित- इसमें शुभदेश के भंभापुर नरेश देवसेन के पुत्र प्रभंजन की जीवन-गाथा अंकित है । अन्य के प्रारम्म में जिन, मध्य में गुरु, पाध्याय, साधु, सरस्वती, यक्ष, नवकोटि मुनि, और अपने गुरु चिक्क प्रभेन्दु का स्मरण किया हैं । इस ग्रन्थ की अपूर्ण प्रति ही उपलब्ध है। ___ सम्यक्त्व कौमीइसमें सम्यक्त्व को प्राप्त करने वालों की कथाएँ दी गई हैं । ग्रन्थ में १२ संघियां और १२ पद्य हैं जिनमें अर्हदास सेठ को स्त्रियों द्वारा कही गई सम्यक्त्वोत्पादक कथाएं हैं। इसमें कवि ने, पंच, रत्न, श्रीविजय, गणवम, जन्न, मधुर, पील, नागचन्द्र, कण्णय, नेमि और बन्धवर्ग का उनकी रचनाओं के नामोल्लेख साथ स्मरण किया हैं। कवि ने इसकी रचना शक सम्वत् १४३१ (सन् १५०६) में की हैं। कवि मंगराज ने शक संवत् १३५५ (१४३३) में श्रुतमुनि को ऐतिहासिक प्रशस्ति लिखी है । जिसकी पद्य संख्या ७८ है। प्रशस्ति सुन्दर और भावपूर्ण है । इसने श्रवण वेल्गोल का १०८ वां संस्कृत का शिलालेख (शक संवत् १४४३ (सन् १५२१ ई०) में लिखा था। प्रबन्ध-ध्वनि सम्बन्धात्सतागोत्पादन-समा । मङ्गराज-कवेर्वाणी वाणी वीणायते तरां ।। ७८ श्रीपाल चरित-इस ग्रन्थ में १४ सन्धियां और १५२७ पद्य है । यह संगात्य छन्द में रचा गया है । इसमें गण्डरीकणी नगरी के राजा गुणपाल के पुत्र धोपाल का चरित वर्णित है। मंगल पद्य के बाद कबि ने भद्रबाहु, पूज्य पाद ग्रादि कवियों की प्रशंसा की है। नेमि जिनेश संगति----इसमें ३५ सन्धियाँ प्रोर १५३८ सोमत्य छन्द हैं। इसमें नेमिनाथ तीर्थकर का चरित वर्णित है । कवि ने इसमें अनेक विद्वान आचार्यों का उल्लेख किया है। पाकशास्त्र (सूप शास्त्र)-यह ग्रन्थ वाधिक षट् पदी के ३५६ पद्यों में समाप्त हया है। इसमें पाक और शास्त्र का अच्छा वर्णन किया है। कवि का समय ईसा को १५वीं शताब्दी का उत्तरार्ध १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । सोमदेव इनका वंश बघेरवाल था। इनके पिता का नाम माभदेव और माता का विजेणी (विजयिनी) था, जो म सराणा और सुशीला थी। यह गृहस्थ विद्वान ! नेमिचन्द्राचार्य रचित 'त्रिभंगी सार' की, धनमुनि द्वारा किसाषा में रची गई टीका को लाटीय भाषा में रचा है । सोमदेव ने गुणभद्राचार्य की स्तुति की है, संभवतः सकेगाहोंगे । या अन्य कोई प्राचीन भाचार्य, क्योंकि गुणभद्र को टीका कर्ता ने कर्मद्रमोन्मीलन दिक्करीन्द्र, सिद्धान्त थे निषिदष्टपार, मौर षट् प्रिंशदाचार्य गुण युक्त तीन विशेषणों से विशिष्ट बतलाते हए नमस्कार किया है। --- - - १. इश-शर-शिखि-विषुमित-शकर रिघावि शरद द्वितीयगाषाढ़े। सित नमि-विधु-दिनोदय जुषि सविशाक्षे प्रतिष्ठितेय मिह ।। ६ २. यथा नरेन्द्रस्य पुलोनजारिया नारायणस्यापि सुता बभूव । तथाभदेवस्य विर्जणि नाम्नी प्रिया सुधर्मा सगुणा मुशीला ॥३ सयो सुतः सद्गुण वान सुवृतः सोमोऽविधः कौमुपवृद्धि कारी। व्याघ्रर पा लाम्बु निधेः सुरलं जीयाचिर सर्व जनीन वृत्तः 11४ -जन अन्य प्रशस्ति सं० मा० ११०२८ ३. या पूर्व श्रुत मुनिना टीका कर्णाटभाषया विहिता। लाटीयभाषया मा विरभ्यते सोमदेवेन ।। वही जैन ग्रन्थ प्र. भा०प० २५ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ १५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, महारक और कवि कमंद्रमोन्मीलन दिक्करीन्द्र सिद्धान्तपायोनिधिवृष्टपारं । षट् त्रिशवाचार्य गुणेः प्रयुक्त नमाम्यहं श्री गुणभद्रसूरिम् ॥ श्रतमुनि ने अपना परमागमसार' शक सं० १२६३ (वि० सं० १३६८) में रचा है। अतः टीकाकार सोमदेव उसके बाद के (१५वीं शताब्दी के) विद्वान हैं । पद्मनाभ कायस्थ कवि पद्मनाभ का जन्म कायस्थ कुल में हुमा था। वह सस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे, और जैनधर्म के प्रेमी थे। इन्होंने भट्टारक गणकीति के उपदेश से पूर्व सूत्रानुसार यशोधर चरित या दयासुन्दविधान नामक काग्य की रचना की थी। सन्तोष नाम के जैसवाल ने उनके इस ग्रन्थ की प्रशंसा को थो, और विजय गिह के पुत्र पृथ्वीराज ने अनुमोदना की थी। प्रस्तुत यशोधर चरित्र में संघियों है जिनमें राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया गया है। यह ग्रन्थ वीरमदेव के राज्य में कुश राज के लिए लिखा गया था । कुवराज ग्वालियर के तोमर वंशी गजा वीरम देव का विश्वास पात्र मन्त्री था । यह राजनीति में चतुर पौर पराक्रमी शासक था। सन् १४०२ (वि० सं० १४. ५६) या उसके कुछ समय बाद राज्य सत्ता उसके हाथ में प्राई थी। इसने अपने राज्य को मदद व्यवस्था की थी। शत्रु भी इसका भय मानते थे। इसके समय हिजरा सर ८०५ सन् १४०१ वि० सं० १४६२) में मल्लू इकबाल खां ने ग्वालियर पर चढ़ाई की। परन्तु उसे निराश होकर लौटना पड़ा। फिर उसने दूसरी बार ग्वालियर पर धंग डाला, किन्तु उसे इस बार भी आस-पास के इलाके लूट-पाट कर दिल्ली का रास्ता लेना पड़ा। कुशराज वीरमदेव का विश्वासपात्र महामात्य था, जो जैसवाल कुल में उत्पन्न हुना था, यह राजनीति में दक्ष मौर वीर था। पितामह का नाम भुल्लण और पितामही का नाम उदिता देवी था और पिता का नाग जनपाल और माता का नाम लोणादेवी था। कुश राज के ५ भाई पौर भी थे जिनमें चार बड़े और एक छोटा था । हंसराज, सैराज, रैराज, भवराज, ये बड़े भाई थे । पौर क्षेमराज छोटा भाई था। इनमें कुशराज बड़ा धर्मात्मा और राजनीति में कुशल था। इसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिनका एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसका प्रतिष्ठादि कार्य बड़े भारी समारोह के साथ सम्पन्न किया पा' । कुशराज की तीन स्त्रियाँ थीं रल्हो, लक्षण थी १. वोऽभूज्जैसवाले विमलगुणनिष लणः साधु रत्नं, साधु श्री जनपालो भवदितया स्तत्सुतो दानशीलः । जैनेन्द्रागधनेषु प्रमुदित हृदयः सेवकः सद् गुरुणा लोणाच्या सत्यशीला अनि विमलमति नपालम्य भार्या ॥५ जाता पद तनयास्तयोः सुवृतिनोः श्री हंसराजोऽभवत् । तेषामाचतारततरनदनुजः संराज नामा जनि । राजो भवराजकः समनि प्रख्यात फीतिमंहा. घाधु श्री कुशराज कस्तदनुच श्रीक्षेमराजो लघुः ॥६ जातः श्रीकुषाराज एच सकलक्ष्मापान मूलामगोः । श्रीमत्तोमर-वीरमस्य विदितो विश्वास पात्र महान । मंत्री मंत्र विचक्षणः क्षणभयः बीरगारिपक्षः अणात् । सोरणीमीक्षण रक्षण क्षममति बनेन्द्र पूजारतः ।७।। स्वर्ग पनि समृद्धि कोति विमनपल्यालयः कारितो, लोकानां हृदयंगमो बहुघनपचन्द्र प्रमस्य प्रभोः । ये नंतत्समकालमेव रुचिरं भव्यंबकाव्यं तपा। साधु श्री कुशराज फेनसुषिया कोविचरस्थापक ॥ -बैन पन्य प्रशस्ति भा० १५.० ५ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २‍ और कोगीरा । ये तीनों ही पत्नियाँ सती, साध्वी तथा गुणवती थीं और नित्य जिन पूजन किया करती थीं। उन्हों से कल्याणसिंह नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो बड़ा हो रूपवान दानो घोर जिन गुरु के चरणाराधन में तत्पर था । सं० १४७५ माषाद सुदि ५ को वीरमदेव के राज्य में कुशराज उसके परिवार द्वारा प्रतिष्ठित किया हुआ यंत्र नरवर के मन्दिर में मौजूद है। कुशराज ने भक्ति दश यशोधर चरित्र की रचना कवि पद्मनाभ से कराई थी। यह पौराणिक चरित्र यहा ही हचिकर प्रिय और दयारूपी अमृत का घोल बहाने वाला है। इस पर अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी गुजराती भाषा में ग्रन्थ रचे गए है। कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया। किन्तु यह रचना सं० १४७५ के आस-पास की है। क्योंकि वीरमदेव का राज्य ० १४७६ के कुछ महीने तक रहा है। उक्त सं० १४७८ के वंशास में महीने उनके पुत्र गणपतिसिंह का राज्य हो गया था। उसी के राज्यकाल में धातु की बीबीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा की गई थी। यतः पद्मनाभ कायस्थ का समय विक्रम की १५ वीं शताब्दी का तर्तीय चरण है। कवि धनपाल | कवि धनपाल गुजरात देश के परहणपुर ! या पालनपुर के निवासी थे। वहाँ राजा वीसल देव का राज्य था। उसी नगर के पुरवाड़ वंश जिसमें अगणित पूर्व पुरुष हो चुके हैं 'भोंबई' नाम के राज श्रेष्ठी थे। जो जिनभक्त और दयागुण से युक्त थे यह कवि धनपाल के पितामह थे। इनके पुत्र का नाम सु प्रभ' श्रेष्ठी था, जो धनपाल के पिता थे। कवि की माता का नाम 'सुहादेवी था इनके दो भाई और भी थे, जिनका नाम सन्तोष मोर हरिराज था। इनके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अपने बहुत से शिष्यों के साथ देशाटन करते हुए उसी पल्हूणपुर में आये थे। धनपाल ने उन्हें प्रणाम किया और मुनि ने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसाद से विलक्षण हो जाओगे और मस्तक पर हाथ रखकर बोले कि मैं तुम्हें मंत्र देता हूं! तुम मेरे मुख से निकले हुए अक्षरों को याद करो। माचार्य प्रभाचन्द्र के वचन सुनकर धनपाल का मन मानन्दित हुआ, धीर उसने विनय से उनके चरणों की वन्दना की, मौर मालस्य रहित होकर गुरु के बागे शास्त्राभ्यास किया, और सुकवित्व भी पा लिया। पश्चात् प्रभाचन्द्र गणी खंभात पारनगर और देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगिनी पुर (दिल्ली) प्राये देहली निवासियों ने उस समय एक महोत्सव २. संवत् १४७६ वर्षे वैशाख सुदि ३ शुकवासरे गणपति देव राज्य वर्तमाने श्री मूलसंधे नंद्याग्नाये भट्टारक शुभचन्द्रदेव मंडलाचार्य पं० भगवतीमा भाव सेभावे निविम्व प्रतिष्ठा काशवितम् । मूर्ति लेख नया मन्दिर लवकर १. पालमपुर (पुर) Palanpur मात्र राज्य के पश्मारधी पारा वर्ष ० १२२० (सन् १९५१६० १२०६ सन् १२१९) तक आबू का राजा धारावर्ष था, जिसके कई लेख मिल चुके है उसके कनिष्ठ भ्राता यशोटवल के पुत्र प्रह्लादन] देव (पालनसी) ने अपने नाम पर बसाया था। यह बड़ा वीर योद्धा था, साथ में विद्वान भी था। इसी से इमे कवियों ने पालनपुर या पल्हरणपुर लिखा है। यह गुजरात देश की राजधानी थी। यहां अनेक राजाओं ने शासन किया है। आबू के शिला लेखों में परमावंश की उत्पत्ति और माहात्म्य का वर्णन है और प्रह्लादन देव की प्रशंसा का भी उल्लेख है। समय कुमारपाल यादि तीयों की यात्रा को गया, तब प्रान देव भी साथ था। - ( पुरातन प्रबंध ० पृ० ४१) प्रह्लादन देव की प्रशंसा प्रसिद्ध कवि सोमेश्वर ने कीर्ति कौमुदी में और तेजपाल मंत्री द्वारा बनवाए हुए सूणमसह की प्रशस्ति में की है। यह प्रशस्ति वि० सं० १२६७ में आबू पर देलवाड़ा गांव के नेमिनाथ मन्दिर में अगाई थी। मेवाड़ के गुहिल वंशी राजा सामन्त सिंह और गुजरात के सोलंकी राजा बजयपाल को मड़ाई में, जिसमें वह घायल हो गया था प्रह्लादन ने वही वीरता से लड़ कर गुजरात की रक्षा को थी। प्रस्तुत पालनपुर में दिगम्बर- वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय के लोग रहते थे धनपाल के पितामह तो वहां के राज्य श्रेष्ठी । श्वेताम्बर समाज का तो वह मुख्य केन्द्र हो या । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के पाचार्य, भट्टारक और कवि ४८१ किया और भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्ट पर उन्हें प्रतिष्ठित किया । भट्टारक प्रभाचन्द्र ने मुहम्मदशाह तुगलक के मन को अनुरंजित किया था और विद्या द्वारा वादियों का मनोरष भग्न किया था । मुहम्मदशाह ने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र का भ रत्नकी तिके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समर्थन भगवती आराधना की पंजिका टीका की उस लेखक प्रशिस्ति से भी होता है जिसे सं०१४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्र के शिष्य ब्रह्मनाथ राम ने अपने पटने के लिए दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुगलक के शासन काल में लिखवाया था। उसमें भ० रत्नकीति के पटट : तिष्ठित होनेरु सरस्ट पोल है। पोरणमाह तुगलक ने सं० १४०८ से १४४५ तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भ. प्रभाचन्द्र सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। कविवर धनपाल गुरु प्राज्ञा से सौरिपुरतीर्थ के प्रसिद्ध भगवान नेमिनाथ जिन की वन्दना करने के लिये गए थे। मार्ग में इन्होंने चन्द्रबाड नाम का नगर देखा, जो जन धन से परिपूर्ण और उत्तुंग जिनालयों से विभूषित था वहां साठ वासाघर का बनवाया हुमा जिनालय भी देखा और वहां के श्री अरहनाथ जिनकी वदना कर अपनी गर्दी तथा निदा की और अपने जन्म-जरा और मरण का नाश होने की कामना व्यक्त की। इस नगर में कितने ही ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म का अनुष्ठान करते हुए वहाँ के राज्य मंत्री रहकर प्रजा का पालन किया है। कवि का समय १५ वीं शताब्दी का मध्यकाल है। क्योंकि कवि ने अपना बाहुबली चरित सं० १४५४ में पूर्ण किया है। कवि की एक मात्र रचना 'बाहुबली चरित' है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अठारह सन्धियां तथा ४७५ कडवक हैं। कवि कथा सम्बन्ध के बाद सज्जन दुर्जम का स्मरण करता हुआ कहता है कि 'नीम को यदि दूध से सिंचन किया जाय तो भी वह अपनो कटुता का परित्याग नहीं करती। ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय तो भी वह अपनी मधुरता नहीं छोड़ती। उसी तरह सज्जन-दुर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। सूर्य तपता है और चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है। ग्रन्थ में प्रादि ब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का, जो सम्राट् भरत के कनिष्ठ भ्राता और प्रथम कामदेव थे, चरित दिया हुआ है। बाहुबली का शरीर जहाँ उन्नत और सुन्दर था वहाँ यह बल पौरुष से भी सम्पन्न था। वे इन्द्रिय विजयी और उग्र तपस्वी थे। वे स्वाभिमान पूर्वक जीना जानते थे, परन्तु पराधीन जीवन को मत्य से कम नहीं मानते थे। उन्होंने भरत सम्राट से जल-मल्ल और दृष्टि युद्ध में विजय प्राप्त की थी, परिणाम स्वरूप भाई का मन प्रपमान से विक्षब्ध हो गया और बदला लेने की भावना से उन्होंने अपने भाई पर चक्र चलाया, किन्तु देवोपुनीत प्रस्त्र 'वंश-घात' नहीं करते । इससे चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लौट गया-वह उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा सका । बाहुबली ने रणभूमि में भाई को कंधे पर से धीरे से नीचे उतारा और विजयी होने पर भी उन्हें संसार-दशा का बड़ा विचित्र अनुभवं हुआ। १. तहि भवहि सुमहोच्छन विहिप सिरिरयणकित्ति प? णिहियउ । महमद सहि मणुर जिपउ, विज नहिं वाइयमणु भजियउ।" -बाहुबलिचरिउ प्रशस्ति २. संवत् १४१६ वर्षे चत्र सुदि पञ्चम्यां सोपवासरे सकलराज शिरो मुकुटमाणिग्यमरीचि जिरीकृत चरण कमल पाद पोठस्य श्रीपीरोजसाहे: सकलसाम्राज्यधुरी विभ्राणस्य समये श्री दिल्या श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छ बला. कारगणे भट्टारक थी रत्नकीति देव पट्टोदयाद्रि तक्षणतरुणित्वमुर्वी कुर्वाणः भट्टारकः श्री प्रभाचन्द्र देव शिष्याणां ब्रह्म नाथराम इत्याराधना पनि कायो ग्रंथ आत्म पठनार्य लिखापितम् । -आरा. पंजि० प्र०व्यावर भवन प्रति ३. शिबु कोवि जइ स्त्रीरहिं सिंचहि तो वि ण सो कुडवत्तणु मुंघइ। उच्छ को वि जह सत्यं खंड, तो विण सो महस्त्तणु छुडइ। दुजण-सुअण सहा तप्पा, सुरु तवइ ससहरसीयरकरू। -बाहुबली चरित प्रशस्ति Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - मांग २ . वे सोचने लगे कि भाई को परिग्रह की चाह ने ग्रंधा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी दूर भगा दिया है। पर देखो, दुनिया में किसका अभिमान स्थिर रहा है ? अहंकार को चेष्टा का दण्ड हो तो अपमान है । तुम्हें राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हालो और जो उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में भुकालो, उस राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय-अन्याय का विवेक भुला देती है। भाई भाई के प्रेम को नष्ट कर देती है और इंसान को हैवान बना देती है । अब मैं इस राज्य का त्याग कर आत्म-साधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ और सबके देखते-देखते ही वे तपोवन को चले गये, जहां दिगम्बर मुद्राद्वारा एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में स्थित रहकर उस कठोर तपश्चर्या द्वारा श्रात्म-साधना की, और पूर्ण ज्ञानी बन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हुए । ४६० ग्रन्थ में अनेक स्थल काव्यमय और अलंकृत मिलते हैं। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती अनेक कवियों और उनको कुछ प्रसिद्ध कृतियों का नामोल्लेख किया है - जैसे कविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता देवनन्दी (पूज्यपाद) श्री वज्रसूरि और उनके द्वारा रचित षट्दर्शन प्रमाण ग्रन्थ महासेन सुलोचना चरित, रविषेण पद्मचरित जिनसेन हरिवंश पुराण, मुनि जटिल बरांगचरित, दिनकर सेन कंदर्प चरित, पद्मसेन पार्श्वनाथ चरित, अमृताराधना गणिम्बसेन, चन्द्रप्रभ चरित, घनदत्त चरित, कवि विष्णु सेन मुनिसिनन्दी, अनुप्रेक्षा, नवकार मन्त्र-नरदेव' कवि श्रग वीरचरित, सिद्धसेन, कवि गोविन्द, जयवबल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त मौर सेदु कवि | कवि ने इस ग्रंथ का नाम 'काम चरिउ या कामदेव चरित भी प्रकट किया है और उसे गुणों का सागर बतलाया हैं । ग्रन्थ में यद्यपि छन्दों की बहुलता नहीं है फिर भी ११ वीं संधि में दोहों का उल्लेख अवश्य हुआ है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना उस समय को है जब कि हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। कवि ने इसे वि० सं० १४५४ में वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को स्वाति में स्थित सिद्धियोग में सोमवार के दिन, जबकि चन्द्रमा तुला राशि पर स्थित या पूर्ण किया है" । ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक प्रस्तुत ग्रन्थ चन्द्रवाड नगर के प्रसिद्ध राज श्रेष्ठी और राजमंत्री, जो जादव कुल वासाघर की प्रेरणा से बनाया है, और उन्हीं के नामांकित किया है। वासाघर के पिता का नाम सोमदेव था, जो के भूषण थे । साहु संभरी नरेन्द्र कर्णदेव के मन्त्री थे। कवि ने साहु वासाघर को सम्यक्त्वी, जिन चरणों के भक्त, जिन धर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, मिथ्यात्वरहित और विशुद्ध चित्तवाला बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक षट् कर्मों में प्रवीण, राजनीति में चतुर और अष्ट मूलगुणों के पालने में तत्पर प्रकट किया है। जिणणाह चरणभत्तो जिणधम्मपरो वया लोए, सिरि सोमदेव तणो णंदर वासद्वरो णिच्वं ॥ सम्मत जुतो निणपायभत्तो दयालुरतो बहुप्रोयमितो | मिच्छत चसो सुविसद्ध चित्ते वासाघरो पदंड पुण्य चिसो । वि संघ के लिए कल्पनिवि थी। बाहर और रूपदेव । ये सभी पुत्र - सन्धि ३ इनके आठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, म उभयश्री या, जो पतिव्रता और शीलव्रत का पालन करने वाली तथा चतुअपने पिता के समान ही सुयोग्य, चतुर और धर्मात्मा थे। इन आठों पुत्रों के साथ १. श्री लंच के बुकुलपद्म विकासभानु, सोमात्मजो दुरित चारुवयकृशानुः । धर्मकानरो भुविभव्य बन्धुर्वासाघरो विजयते गुणरत्न सिन्धुः - संधि ॥ २. विक्रमणरिदं अक्रिय समए, चउदहसय संवारहि गए । नासरिसच अहिय गणि वैसा हरहो सिय-तेरसि सु-क्षिणि । साई परिट्ठियई बार सिद्ध जोग जायें डियई । -- बाहुबलि चरित प्रशस्ति Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ १६ १७ और १६वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि ४९ १ साहू दासावर अपने धर्म का साधन करते हुए जीवन यापन करते थे। कवि ने उनका सूत्र गुणवान किया है। भट्टारक पद्मनन्दि मे भावकावार सारोद्वार नाम का ग्रन्थ भी दातार के लिये बनाया था। संधियों में पाये जाने वाले पद्य में कवि ने सूचित किया है कि राजा अनयचन्द्र ने अन्तिम जीवन में राज्य का भार रामचन्द्र को देकर स्वर्ग प्राप्त किया । सं० १४५४ में रामचन्द्र ने राज्य पद प्राप्त किया था। जो राज्य कार्य में दक्ष और कर्तव्य परायण था। इस तरह यह रचना महत्वपूर्ण और प्रकाशित के योग्य है। म० सकलकीति इनका जन्म संवत १४४३ में थी, जो गुजरात को एक | मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के मट्टारक पचन के हुआ था। इनके माता-पिता 'अहिलपुर पट्टण' के निवासी थे। इनकी जाति प्रतिष्ठित जाति है। इस जाति में अनेक प्रसिद्ध पुरुष और दानी धावक-धाविकाएं तथा राजमान्य व्यक्ति हुए हैं। इनके पिता का नाम 'करमसिंह और माता का नाम 'शोभा' था इनको वाल्यावस्था का नाम पूर्णसिंह था। जन्मकाल से ही यह होनहार तथा कुशा बुद्धि मे पिता ने पांच वर्ष को बाल्यावस्था में इन्हें विद्यारम्भ करा दिया था, पर थोडं ही समय में इन्होंने उसे पूर्ण कर लिया था पूर्णसिंह का मन स्वभावतः यक्ति को घोर रहता था | चौदह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया था । किन्तु इनका मन सांसारिक विषयों को और नहीं था। यतः वे पर में उदासीन भाव से रहते थे माता-पिता ने इनकी उदासीन वृति देखकर इन्हें बहुत समझाया पोर कहा कि हमारे पास धन-सम्पत्ति है वह किस काम आयेगी ? संयम पालन के लिये तो सभी बहुत समय पड़ा है । परन्तु पूर्णसिंह १२ वर्ष से अधिक घर में नहीं रहे, और २६ वर्ष की अवस्था में वि० सं० २०६६ में देणा ग्राम में आकर भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टशिष्य भ० पद्मनन्दी के पास दीक्षित हो गए और उनके पास साठ वर्ष तक रह कर जैन सिद्धान्त का अध्ययन किया और काव्य, न्याय, छन्द और अलंकार याद में निपुणता प्राप्त की। 'दीक्षित होने पर गुरु ने इनाम को उसे वे लकीति' नाम से ही लोक में हुए। उस समय उनकी अवस्था ३४ वर्ष की हो गई। तय वे बाचार्य कहलाये। भट्टारक बनने से पहले प्राचार्य या मण्ड लाचार्य पद देने की प्रथा का उल्लेख पाया जाता है। सकलकीर्ति १५वीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे। उनके शिष्यों ने उनकी खूब प्रशंसा की है। उनकी कृतियां भी उनके प्रतिभा सम्पन्न विद्वान होने की सूचना देती है ब्रह्म जिनवास ने, जो उनके शिष्य और लघुभ्राता थे । उन्होंने रामचरित्र की प्रशारित में निर्ग्रन्थ, प्रतापी कवि, वादि कला प्रवीण, तपोनिधि और विकास भास्वान्' बतलाया है। तत्पट्ट पंकेशविकास भास्वान् बभूवनिद्येग्थवरः प्रतापी महाकवित्वादि कला प्रवीणस्तपोनिधिः श्री सकलातिः ।। १८४ और शुभचन्द्र ने 'पुराण काव्यार्थ विदाम्बर' बतलाया है' । ब्रह्म कामराज ने जयपुराण में सकलकीर्ति को योगीश, ज्ञानी भट्टारकेश्वर बतलाया है। इससे वे अपने समय के प्रसिद्ध ज्ञानी दिगम्बर भट्टारक थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। नैणवां से शिक्षा सम्पन्न होकर थाने के पश्चात् जन साधारण में चेतना जागृत करने के लिये स्थान-स्थान पर विहार करने लगे। एक बार वे खोडण नगर आये, और नगर के बाहर उद्यान में व्यानस्थ मुद्रा में बैठ गए और सम्भवतः तीन दिन तक वे उसी मुद्रा में स्थित रहे, उन पर किसी की दृष्टि न पड़ी। नगर से पानी भरने मामु गे माई हुई एक after ने जब न साधु को ध्यानस्थ बैठे देखा तो उसने शीघ्र जाकर अपनी मा निम्न शब्दों में निवेदन किया— कि इस नगर के बाहर कुएँ के समीप जो पुराना मकान बना हुआ है उम विरा १. पुराविद विभानू बोर: सकलादितिः २. सकलकतियोगी ज्ञानी भट्टारकेश्वरः । श्रेणिक चरित प्र० """" जयपुराण प्र० Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४९२ र मोरछा है। सा r पुराने मकान के पास एक साथ बैठा है जिसके पास एक काका ने कहा कोई माथी साया होगा, यह कह कर वह वहाँ गई और उन्हें 'नमोस्तु' कहकर नमस्कार किया तीन प्रदक्षिणा दी, तब साथ ने धर्म वृद्धिरूपाशीर्वाद दिया और वे नगर में आये पाना भान के घर उन्होंने आहार लिया। मलकीर्ति ने वागड प्रान्त के छोटे बड़े नगरों में विहार किया, जनता को धर्ममार्ग का उपदेश दिया, उन्हें जैन धर्म का परिचय दिया और जनसमूह में आये हुए धार्मिक थित्य को दूर किया और जैनधर्म की ज्योति को चमकाने का उद्योग किया। सं० १४७७ से १४६६ तक के २२ बाईस वर्षीय काल में मुनि ने न्य रचना, जिन मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा आदि प्रशस्त कार्यों द्वारा जैन धर्म का प्रसार किया। इसका इति वृत्त सहज ही ज्ञात हो जाता है। प्रतिष्ठाकार्य कितनी प्रतिष्ठाएं सम्पन्न कराई। इसका निश्चित प्रमाण बतलाना कठिन है। जब तक सभी स्थानों के मूर्ति लेख संग्रह नहीं किये जाते, तब तक उक्त प्रश्न का सही उत्तर देना संभव नहीं जंचता। मेरी नोट चुक में प्रतिष्ठाओं के मनिले विद्यमान है मं० १४००, १४६०, १४६२. १४६६ १४६७ और १४९ के है। इनमें सं० १४८० का और १४६६ के लेख सुनि कांतिसागर की डायरी तथा हरिसागर के संग्रह के ताम्वरीय मंदिरों में प्रतिष्टित दिगम्बर मूर्तियों के है, शेष चारों देश उदयपुर, डूंगपुर, सूरत, जयपुर में प्रतिष्ठित मूर्तियों के हैं। उस काल अनेक प्रतिष्ठित संपतियों ने उनके प्रतिष्ठाओं में सहयोग दिया था। गलियाकोट में स० १४६२ में एकपति गुलराज ने विवासि जिनबिम्ब की स्थापना कराई थी। नागद्रह में संघपति ठाकुरसिह ने विश्व प्रतिष्ठित में योग दिया था। सकलकीति रास में उनकी कुछ रचनाओं का उल्लेख किया गया है। ग्रन्थ भंडारों में उनकी जो कृतियां उप अहूँ। उनमें से किसी में भी उन्होंने रचना काम नहीं दिया सकलकोति को सभी रचनाए सुन्दर है। हां काव्य को दृष्टि से उनमें रसझलंकार आदि का विशेष वर्णन नहीं है। सीधे सादे पदों में कथानक या चरित दिया है। यद्यपि उनमें पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कोई खास वैशिष्ट्य नहीं है किन्तु रचना संक्षिप्त और सरल है। उनके सभी ग्रन्थ हुआ प्रकाशन के योग्य है। संस्कृत रचनाएं . १. प्रादिपुराण (वृषभनाथ चरिन) २. उत्तर पुराण, ३. शांतिनाथ पुराण ४. पाश्वं पुराण ५. वर्धमान पुराण ६. मल्लिनाथ चरित्र ७. यशोधर चरित्र 5 धन्यकुमार नरित्र . सुकमाल चरित्र १० सुदर्शन चरित्र ११. जम्बु स्वामि चरित्र १२. श्रीपाल चरित्र १३. मुलाचार प्रदीप १४. सिद्धान्तसार दीपक १५. पुराणसार संग्रह १६. तत्त्वार्थसार दीपक १७ आगमसार १८. समाधिमरणोत्साह दीपक १६ सारचतुविशतिका २० द्वादशानुप्रेक्षा २१. कर्म विपाक २२. अनन्त व्रत पूजोथापन २३. अष्टाङ्गिक पूजा २४. सोलह कारण पूजा २५ गमवर वलय पूजा २६. पंच परमेष्ठी पूजा २७. परमात्मराज स्तोत्र । राजस्थानी गुजराती रचनाए १. माराधना प्रति बोधसार २. कर्म चूरव्रतवेति ३. पार्श्वनाथाष्टक ४. मुक्तावलि गीत ५. सोलह कारण १.०१४६० सुदी १ शनी भी मूल नन्दिवेकर सरस्वती बच्चे भी कुकुदा मी श्री शुभचन्द्र तस्य [गुरु] भ्राता जयतमय विपात मुनि श्री कति उपदेशान् शातीय नरवद आर्या बला तयोः पुत्राः ठा० देवपाल, अर्जुन, भीम्मं कृपा चासरण चांपा काटा श्री आदिनाथ प्रतिमेयं (सूरत) / २. [सं० १४६० मूलसंबे श्री सकलकीति व ज्ञातीय शाह कर्ण भार्या भोली सुना सोभा भ्रात्रा मोटी भार्या पासी आदिनाथं प्रणमति । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी १६वौं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ४६२ रास ६. शान्तिनाथ फागु ७. धर्म वाणी ८. पूजा गीत ६. णमोकार गोतडी १०, जन्माभिषेक धूल ११. भवभ्रमण गीत १२, चउनोसतीर्थकर कामु १३. सारशिखामण रास १४, चारित्रगीत १५. इंद्रिय संवर गीत ग्रादि। रचनाए' सामने न होने से इनका परिचय नहीं दिया जा रहा । ग्रन्थों के नाम सूचियों पर से दिये गये हैं 1 अवकाश मिलने पर फिर कभी इनका परिचय लिखा जायगा । मुलाचार प्रदीप में भी रचना काल नहीं है किन्तु , बडाली के चातुर्मास में लिखी गई एक गुजराती कविता में मलाचार प्रदीप के रचे जाने का उल्लेख किया गया है। इसकी रचना उन्होंने लघभ्राता जिन दास के अन्ग्रह से की गई थी, उसका समय मं० १४८१ दिया गया है। "तिहि अवसरे गरु प्राविया यडाली नगर मझार रे। चातुर्मास तिहाफरो शोमनो, श्रावक कीषा हर्ष प्रपार रे। प्रमीझरे पधरायिथा वधाई पावे नरनार रे। सकल संघ मिलके दया कीन्या जय-जयकार रे । - -. ..... चौदह सौ इक्यासी भला , श्रावणमास लसंत रे । प्रतिमा विजापूर ग णाचा गरे । भ्रातामा अनुग्रह थकी, कीधा ग्रन्थ महानरे।" भ. सकसकीति ने १५ वीं शताब्दी में राजस्थान और गुजरात में विहार कर जनता में धार्मिक रुचि जागत की, उन्हें जनधर्म का परिज्ञान कराया, और प्रवचनों द्वारा उनके अज्ञान मल को धोया। उन्हीं का अनमरण उनके लघ भ्राता ब्रह्म जिनदास ने किया। उसके बाद उनकी शिष्य परम्परा में वही क्रम चलता रहा। संवत १४८२ में डंगर पुर में दीक्षा महोत्सव सम्पन्न किया" । संवत १४९२ व गलिया कोट में भटटारक गट्टी की स्थापना की और अपने को बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ का भद्दारक घोषित किया। -- - -- समय बिचार एक पदटावली में भट्टारक सकलकीर्ति का जीवन ५६ वर्ष का बतलाया है। संवत् १४६ में महसाना में वे दिवंगत हए । वहां उनकी निषधि भी बनी हुई है। सकलकीति का जन्म सं० १४४३ में हमा। १४ वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हुमा । और १२ वर्ष बे गृहस्थी में रहे । २६ वर्ष की अवस्था में सं० १४६६ में घर से नणया जाकर भ. परन्दी से दीक्षा लेकर पाठ वर्ष तक उनके पास रहकर, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, काव्य छन्द अलंकार ग्रादि का अध्ययन कर पैदुष्य प्राप्त किया । सकल कीर्ति रास में भूल से 'चउद उनहत्तर' के स्थान पर 'चउद सठि पदा गया या लिखा गया, जो गलत है. उससे उनके समय सम्बन्ध में विवाद उठ खड़ा हुमा। वे सं०१४७७ में चौनीम की प्राइस्था में बागड़ गजरात के ग्राम खोडणे में प्राये, और यहाँ शाह पोचा के गृह में पाहार लिया। पश्चान व पर्यन्त विविध स्थानों में भ्रमण किया। अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाये । मन्दिर-मति-निर्वाण एवं प्रतिपादि कार्य सम्पन्न किये और अन्त में ५६ वर्ष की अवस्था में सं० १४९६ में स्वर्गवासी हए। डा ज्योति प्रसाद जी सकलकीति का जीवन ८१ वर्ष का स्वीकार करते हैं जो ठीक नहीं जान पडता डा विद्याधर जोहरापुर कर ने भट्टारक सम्प्रदाय में सकलकीति का समय सं० १४५० से १५१० तक का दिया है. जिसका उन्होंने कोई आधार नहीं बतलाया । उक्त दोनों विद्वानों द्वारा बतलाया समय पटटावलीकममय रेल नहीं खाता । आशा है दोनों विद्वान अपने बतलाये समय पर पुनः विचार करेंगे। १. चउदह अब्यासीय संवति कुल दीपक नरपाल संवपति । डूगरपुर दीक्षा महोच्छव तीणि रियाग। श्री सकलकीनि सह गुरु सुकरि, दीषी दीक्षा आणंदरि-जय जयकार मयल चराचरु ए। -मालकीति स Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पंडित रामचम्ब इनका जन्म लम्ब कंचुक वंश में हुआ था । इनके पिता का नाम 'सुभग' और माता का नाम 'देवकी' था । इनकी धर्मपत्नी का नाम 'मल्हूणा' देवी था, जिससे 'अभिमन्यु' नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो शीलादि सद् गुणों से अलंकृत था। कवि ने उक्त अभिमन्यु की प्रार्थना से प्राचार्य पुन्नाट संघीय जनसेन के हरिवंश पुराणानुसार संक्षिप्त हरिवंश पुराण की रचना की है । ग्रन्थ की रचना कब और कहां पर हुई इसका प्रचारित में कोई उल्लेख नहीं है । कारंजा के बलात्कारगण के शास्त्रभंडार की यह प्रति सं०१५६० की लिखो हुई है। इसमें इतना तो सुनिश्चित है कि अन्य संवत् १५६० से पूर्ववर्ती है। संभवतः यह रचना १५ वीं शताब्दी में रची गई हो । ४१४ नागदेव IAM नागदेव मल्लूगित का पुत्र था उसने अपने कुटुम्ब का परिचय इस प्रकार दिया है: चंगदेव का पुत्र हरदेव हरदेव का नागदेव, नागदेव के दो पुत्र हुए हेम और राम ये दोनों ही वैद्य कला में अच्छे निष्यात थे। राम के प्रियंकर और प्रियंकर के मल्लुगित, और मल्लुमित के नागदेव नाम का पुत्र हुआ । २ नागदेव ने अपनी लघता व्यक्त करते हुए अपने को अल्पश तथा छन्द अलंकार, काव्य, व्याकरणादि से अनभिज्ञ प्रकट किया है। इसकी एक मात्र कृति 'मदन पराजय' है । कवि ने लिखा है कि सबसे पहले हरदेव ने 'मयणपराजय' नाम का एक ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा के पद्धडिया र रंगा छन्द में बनाया था। नागदेव ने उसी का अनुवाद एवं अनुसरण करते हुए उसने यथावश्यक संशोधन परिवर्तनादि के साथ विविध खादों याद किया है। । यह ग्रन्थ एक रूपक खण्ड काव्य है, जो बड़ा ही सरस और मनमोहक है, इसमें कामदेव राजा मोह, मंत्री अहंकार और अज्ञान बादि सेनानियों के साथ जो भावनगर में राज्य करते हैं। वारित्र पुर के राजा जिनराज उनक शत्रु है; क्योंकि पी कन्या से पाणिग्रहण करना चाहते हैं कामदेव ने राग-द्वेय नाम के दूत द्वारा महाराज जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति कन्या से अपने विवाह के विचार का परित्याग कर अपने प्रधान सुभट दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मुझे सौंप दें, अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाय। जिनराज ने उत्तर में काम देव से युद्ध करना ही श्रेयस्कर समझा और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया । अब रही समय को बात, ग्रन्थ कर्ता ने रचना समय नहीं दिया, जिससे यह निश्चित करना कठिन है कि नागदेव कब हुए हैं । ग्रन्थ की प्रति सं० १५७३ की प्रतिलिपि की हुई उपलब्ध है उससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ उसके बाद का नहीं हो सकता, उससे पूर्ववर्ती है। संभवतः ग्रन्थ विक्रम की १५ वीं शताब्दी में रचा गया है। १. लम्बकंचुकी जाली जन-मनोहरः । सोनदेवको यस्य वल्लभा ॥४ तदात्मनः कलानेदी विभूषितः। रामनन्दामि श्रेष्ठी मला निता प्रिया २५ नवयातील नायकृतः । भिमन्यु महादानी तत्त्रार्थना वशादसरे ॥६ २. पः शुद्ध मोमकुल-पद्म-विका नार्को जातोऽर्थिनां सुरतषभु विचंगदेवः । तन्नंदनो हरि रसत्कवि नागसिंहः तस्माद्भिषग् जनपति भुंविनागदेवः ॥२ भियना विरामी रामात्प्रियंकर इति योऽचिनयः । विवरित महाराणी जनपदमभूः ॥13 - जैन ग्रन्थ प्रशस्ति० भा० १ पृ० ३६ जैन प्रन्थ प्रश० भा० १ ० ७६ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 1 : 1 १५ १६ १७६ १८ शताब्दी के प्राचार्य, मट्टारक और कवि अभिनव वारुकीति पंडितदेव चारुकीर्ति पंडिदिव - यह नन्दिसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ इंगनेश्वर बलिशाखा के भट्टारक श्रुतकोति के शिष्य थे। इनका जन्म नाम कुछ और ही रहा होगा । चारुकीर्ति नाम तो श्रवणबेलगोल के पट्ट पर बैठने कारण प्रसिद्ध हुआ है। इनका जन्मस्थान द्रविण देशान्तर्गत सिंहपुर था। यह चारुकीति पंडिताचार्य के नाम से ख्यात थे और श्रवण बेलगोल के चारुकीर्ति भट्टारक के पद पर प्रतिष्ठित थे। यह विद्वान और तपस्वी यं । वादी तथा चिकित्सा शास्त्र में निपुण थे । तप में निष्ठुर, चित्त में उपशान्त, गुणों में गुरुता और शरीर में कृशता थो एक बार राजा बल्लाल युद्ध क्षेत्र के समीप मरणासन्न हो गए। भट्टारक चारुकीति ने उन्हें तत्काल नीरोग कर दिया था । ४१५ इन्होंने गंगवंश के राजकुमार देवराज के अनुरोध से 'गीत वीतराग' का प्रणयन किया था। इसमें ऋषभदेव का चरित वर्णित है। जयदेव ( सन् १९८०) के गीत गोविन्द के ढंग पर इसकी रचना हुई है। इसका अपर नाम अष्टपदी है। इस ग्रन्थ का नि का वाक्य इस प्रकार है : "इति श्रीमहाराज गुरु सूमण्डताचार्यवर्ग महावाद वादीश्वराय वादि पितामह सफल विद्वज्जन चक्रवर्ती बल्लालराय जोन रक्षपाल (१) कृत्याद्यनेक विपदावलिविराजलगोल संद्ध सिहासनाधीश्वर श्रीमदभि नवचारुकीति पण्डिताचायं वयं प्रणीत गोत बीत रागाभिधावाष्ट पदी समाप्ता ।" इनकी दूसरी कृति 'प्रमेयरत्नगाचालंकार है जो परीक्षामुखसूत्र को व्याख्या प्रमेयरत्न माला की व्याख्या है । उसी के विषय का विशद विवेचन किया है। अन्य दार्शनिक है और छह परिच्छेदों में विभक्त है । ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है इसका समाप्ति पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है : इति श्रीमद्द शिगणाग्रगणण्यस्य श्रीमद्व ेल मुलपुर निबास रतिकस्य चारुकोति पण्डिता चार्यस्य कृती परीक्षा मुख सूत्र व्याख्यायां प्रमेय रत्नवाला लङ्कार समाख्यायां षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ॥ समय- भट्टारक श्रुतकीर्ति का स्वर्गवास शक सं० १३५५ (सन् १४३३) में हुआ है। प्रतएव अभिनव चारुकीति का समय शक सं० १३५० (सन् १४२८) है। यह विक्रम की १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। लक्ष्मीचन्द्र इनका कोई परिचय प्राप्त नहीं है । लक्ष्मीचन्द्र की दो कृतियां उपलब्ध हैं। एक सावय धम्म दोहा (श्रावक धर्म दोहा) दूसरी कृति 'श्रनुप्रेक्षा दोहा ' है । धावक धर्म दोहा--में श्रावक धर्म का वर्णन २२४ दोहों में किया गया है। दोहा सरस मौर सरल हैं । किन्तु कवि कुशल, अनुभवी, व्यवहार चतुर और नोतिज्ञ जान पड़ता है। कथन शैला प्रादेशात्मक है । ग्रन्थ की भाषा अयभ्रंश होते हुए भी लोक भाषा के अत्यधिक निकट है। दोहों में दृष्टान्तं वाक्य जुड़े होने के कारण ग्रन्थ प्रिय र संग्राह्य हो गया है। वादीभसिंह की क्षत्र चूड़ामणि सुभाषित नीतियों के कारण बहुत ही प्रिय और उपादेय बना हुआ है । डा० ए० एन० उपाध्याय के अनुसार ब्रह्मश्रुतसागर ने नी दोहे इस ग्रन्थ के उक्तं च रूप से दिये हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत दोहों की रचना विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के मध्य काल से पूर्व हुई है ग्रन्थ में प्रष्ट प्रकारी पूजा का फल दिया है और निम्न प्रमक्ष वस्तुओं के खाने से सम्यग्दर्शन का भंग होना बतलाया है । सूलउ णाली- भिसु - ल्हसुगु-त व करड- कलिगु । सूरण- फुल्ल स्थापयहं भववणि दंसण भंगु । - गीत बीतराग प्रश० १. द्रविड देश विशिष्टे सिंहपुरे लब्धस्त जन्मासी । २. जैन लेखसंग्रह मा० १ ० २१३ लेख नं० १०८ । ३. देखो, गीत वीतराग प्रशस्ति । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अंन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इसका प्रथं पं. दीपचन्द पाण्डया ने इस प्रकार दिया है- मूली आदि हरे जमोकद, नाली (कमल प्याज अद की नाली मिरा- व.मल की जड़, लहसुण, नुम्बो शाक (लोकी शाक १) करड कसभी की भाजी । कलिंग सावजा १) मरण कन्द प्राधि कन्द, पुष्प हरे फूल, सब प्रकार का अनाज (बहुत दिनों का बना पाचार मुरब्बा) इनवनिश दर्शन भंग होता है । इसमें नुम्बी शाक मामथं लोकी (घोया) दिया गया है । लोकी को कहीं भी मभक्ष पदार्थो नही मिनाया गया। सम्भव है ग्रन्थकार का इससे कोई दूसरा ही अभिप्राय हो, क्योंकि लोको जिरी पिया भी कहा जाता है, वह अभक्ष नहीं है इसी तरह सेम की फली भी अभक्ष नहीं है। ग्रंप की तुलना पर से स्पष्ट है कि प्रस्तुत रचना 40 प्राशाघर के बाद का है । सम्वृान भाव संग्रह के कर्ता बामदेव या इद्र वामदेव के गुरु लक्ष्मी चन्द्र थे। पर इनके सम्बन्ध में अन्य कोई जानकारी प्राप नया साधय धम्म दोहा का वार्ता १६वीं शताब्दी के लक्ष्मीचन्द का नहीं माना, उसका कारण बहा अनमागर द्वारा सावयधम्म दोहा के पया का उद्धन करना है। प्रतः लक्ष्मीचन्द्र १६वीं शताब्दी के नहीं हो सकी। उन्होंने उसे पर्ववत बतलाया है' । मेरी राय में यह ग्रन्थ १४वीं शताब्दी या उसके पास-पास को रचना हानी चाहिये । प० दागचन्द पागच्या सावधधम्म दोहा का रचना काल विक्रम की १६वीं शताब्दी का प्रथम चरण बतलाया है। अतः विधायक प्रमाणों के अाधार पर लक्ष्मीचन्द का समय निश्चित करना जरूरी है, प्राशा है विद्वान इस और अपना ध्यान दग। . महानुप्रेक्षा में ४० दोहा है, उनमें कवि ने अपना नाम उल्लिखित नहीं किया, किन्तु सूची में उसका कर्ता 'लभ चन्द्र लिखा । यह दोहा नुत्यांक्षा अनेकान्त वर्ष १२ १०वी किरण MATA है। कहा तुम्हः प्रौर प्रत्येक भावना के स्वरूप क विवंचक है। सावय धम्म दोहा से अनुप्रक्षा के दोहा अधिक सुन्दर व्यारवान जान पड़न पर रचाई वाल और रचना स्थल तथा लेखक के नाम से रहित होने के कारण उस पर विशेष विचार करना शक्य नहीं है । साथ ही यह निर्णय भी वांछनीय है कि दोनों के कतां एक ही हैं; या भिन्न-भिन्न । कवि हल्ल या हरिचन्द मलसंध, बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ के भटटारक प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य प्रौर भट्टारक पद्मनन्दी क शिष्य थे। अच्छे विद्वान और कवि थे इनकी दो कृतियां उपलब्ध है । श्रेणिक चरिउ या वड्हमाणकध्व और माहलणाहकन्छ । कता ने रचनाकाल नही दिया ।।फर भी अन्य साधनों से कवि का समय विक्रमी को चों शताब्दी है। रचनाएं श्रेणिक चरित या वर्द्धमानकाव्य में ११ संधियां हैं, जिनमें अंतिम नीर्थकर वद्ध मान का जीवन परिचय नकल कया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ देव राय के पुत्र 'होलियम्म' के लिये बनाया है। गाय ही उनके समकालान हान बाल मगध सम्नाट बिम्बसार याणि क की जीवन गाथा भी दी हुई है । यह गजा बड़ा मनापी और राजनीत में कमल था । इसके सेनापति अंटि जब कुमार थे । इस राजा की पट्ट महिषी रानी चलना थो, जो बंगाली गणतंत्र फै अध्यक्ष लिच्छवि राजा चेटक को विदुपी पुत्री थी। जो जैन धर्म संपालिका और पतिव्रता थी । श्रेणिक प्रारम्भ में अन्य धर्म का पालक था, किन्तु चेलना के सहयोग से दिगम्बर जैन धर्म का भक्त और भगवान महावीर को सभा या प्रमुग्न श्रीता हो गया था। प्रस्तुत ग्रन्थ देवराय के पुत्र रांधाधि पहोलिबम्म के अनुरोध में रचा गया है। और गाय का स० १५५० लिखी हुई प्रति वधो चन्द्र मंदिर जयपुर के शास्त्र भंडार में मौजूद है। १. यह लक्ष नारद सागर के समकालीन लक्ष्मीचन्द्र से जुदे हैं। परमात्म प्रकाश पनावना गृ० १११ २. ग्रन्थकार का नाम लक्ष्मीनन्द है और उनका समप ग्रन्थ को उपलब्ध नियों और प्राप्त निहामिक प्रमागणी के माधार पर विक्रम को १६वी शताब्दी का प्रथम त्राण रहा है। सावय धम्म दोहा, सम्पादकीय ०१२ गरि पदमा पंप पना:य च उवग्मा राशिणयअभय चरिते विरइस जगमित्तहमान बयानो भविगण जण मण माहिद हालियापणासम्म नए शिवाय गमगोगामारहमो सधि परिचंद्रमी समना ।। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YES १५वीं १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि कवि की दूसरी रचना मल्लिनाथ 'काव्य' है। जिसमें १६वं तीर्थंकर मल्लिनाथ का जीवन परिचय दिया हुआा है । झामेर शास्त्र भण्डार की यह प्रति त्रुटित है, इसके प्रादि के तीन पत्र और अन्तिम पत्र भी उपलब्ध नहीं है । इस ग्रन्थ की रचना पृथ्वीराज (संसारचन्द) चौहान के राज्य में हुए हैं। इसीलिए कवि ने 'चिरणंद देसु पुसहमि पारेसु वाक्य में उनका उल्लेख किया है। पृथ्वीराज भोजराज चौहान करहल का पुत्र था, इसकी माता का नाम नाइक देवी था । पार्श्वनाथ चरित के कर्ता असवाल (सं० १४७९ ) ने उसके राज्य को सं० १४७१ की घटना का उल्लेख किया है, उक्त १४७१ में भोजराज के मंत्रो यदुवंशी अमरसिंह ने रत्नममी जिन बिम्ब को प्रतिष्ठा की थी। कवि हल्ल के मल्लिनाथ काव्य के कर्ता की लोणासाहु ने प्रशंसा की थी। इससे उक्त मल्लिनाथ काव्य सं० १४७१ या १४७० की रचना है । अतः कवि का समय सं० १४५० से १४७५ है । कवि की तीसरी कृति 'श्रीपाल चरित्र' है । यह भी अपभ्रंश भाषा में रचा गया । इसकी ६० पत्रात्मक प्रति दि० जैन मंदिर दीवानजी कामा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। ( राजस्थान ग्रन्थ सूची भाग ५ पृ० ३६३ ) कवि प्रसवाल कवि का वंश गोलाड या गोलालारे था । यह पंडित लक्ष्मण का पुत्र था । कवि कहां का निवासी था। कवि ने इसका उल्लेख नहीं किया । पर कवि ने मूल संघ बलात्कारगण के भ० प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और धर्मचन्द्र का उल्लेख किया है। अतः कवि इन्हीं की प्राम्नाय का था। संवत् १४६ में कवि के पुत्र विद्याधर ने भ अमरकीर्ति के 'षट् कर्मोपदेश' की प्रति लिखी थी । यह ग्रन्थ नागौर के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है । 1 कवि की एक मात्र कृति पाश्वनाथचरित्र है। जिसमें १३ संधियां हैं । जिनमें २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जीवन गाथा दी हुई है। ग्रन्थ में पद्धडिया की बहुलता है । ग्रन्य की भाषा उस समय की है जब हिन्दी भाषा अपना विकास और प्रतिष्ठा प्राप्त कर रही थी। भाषा मुहावरेदार है। रचना सामान्य है। K यह ग्रन्थ कुशात देश में स्थित 'करहल" नगर निवासी साहू सोर्णिम के अनुरोध से बनाया था, जो यदुवंश में उत्पन्न हुए । उस समय करहल में चौहान वंशी राजाओं का राज्य था। इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १४७६ भाद्रपद कृष्णा एकादशी को बनाकर समाप्त की गई थी । ग्रन्य निर्माण में कवि को एक वर्ष का समय लगा था । ग्रन्थ निर्माण के समय करहल में चौहान वंशी राजाभोजराज के पुत्र संसारचन्द्र ( पृथ्वीसिंह) का राज्य था। इनकी माता का नाम नाइक्कदेवी था और यदुवंशी अमरसिंह भोजराज के मंत्री थे, जो जैन धर्म के संपालक थे । इनके चार भाई और भी थे, जिनके नाम करमसिंह, समरसिंह, नक्षत्रसिंह और लक्ष्मणसिंह थे । श्रमसिंह की धर्मपत्नी का नाम कमल श्री था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे । नन्दन, सोपिंग और लोणा साहू । इनमें लोणा साहू जिनयात्रा, प्रतिष्ठा आदि प्रशस्त कार्यों में द्रव्य का विनियम करते थे और अनेक विधान – उद्यापनादि कार्य कराते थे । उन्होंने मल्लिनाथ चरित के कर्ता कवि 'हल्ल' की प्रशंसा की थी | लोणा साहू के अनुरोध मे कवि में राजा असवाल ने पार्श्वनाथ चरित की रचना उनके ज्येष्ठ भ्राता सोगिंग के लिए की थी। प्रशस्ति में सं० १४७१ भोजराज के राज्य में सम्पन्न होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का भी उल्लेख किया है, जिसमें रत्नमयो जिन विम्ब की प्रतिष्ठा सानन्द सम्पन्न हुई थी । कवि की अन्य क्या रचना है अन्वेषण करना श्रावश्यक है । कवि का समय १५ वीं शताब्दी का तृतीय चरण है । १. मी पंडिय लखण सुय गुलंग, गुलराड दसि यपड अहं । जैन ग्रन्थ प्रशस्ति० भा० २ पृ० १२६ २. गोलाकान्वये वाकुवंशे श्री मूलस ३. कुशाल देश सूरसेन देश के उत्तर में पंडित असवाल सुत विद्याधर नामा लिलेखि।" (नागौर शास्त्र सरकार प्रति ) बसा हुआ था और उसकी राजधानी शौरी पुर बी, जिसे यादवों ने बसाया था । जरासंघ के विरोध के कारण यादवों को इस प्रदेश को छोड़कर द्वारिका को अपनी राजधानी बनानी पड़ी थी। ४. करहुल इटावा से १३ मील की दूरी पर जमुना नदी के तट पर बसा हुआ है, वहां चौहान वंशी राजाओं का राज्य रहा है। यहां शिवरबन्द चार जैन मन्दिर है । और अच्छा शास्त्रकार भी हैं। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ब्रह्म साधारण यह मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयी भ० परम्परा के विद्वान हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न प्रकार उल्लेख किया है। -- सिरि कुन्दकुन्द गणि रयणकित्ति, पहसोम पोम णंदी सुदित । हरिण सीसरिकित्ति, विज्जानंदिय दंसण धरिति ॥ " रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति और विद्यानन्द । कवि ने अपनी रचनाओं में रचनाकाल श्रीर रचना स्थल का कोई उल्लेख नहीं किया। कथा की यह प्रति वि० सं० १५०८ की लिखी हुई है' । इससे ग्रन्थ उक्त सं० १५०८ से पूर्व रचा गया है । कवि का समय १५ वीं शताब्दी है । इस कथा संग्रह में ८ कथाएँ और अनुप्रक्षा दी हुई हैं। कोकिला पंचमी, मुकुट सप्तमी, दुद्धारसिक था, आदित्यवीर कथा, तीन- चउवीसी कथा पुष्पांजलि कथा, निदुखेसत्तमी कथा, निर्भर पंचमी कथा और अनुप्रेक्षा । प्रत्येक रचना के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य दिया हुआ 1 'इति श्री नरेन्द्र कीर्ति शिष्य ब्रह्म साधारण कृता अनुप्रक्षा समाप्ता ।' इन कथाओं में जैन सिद्धान्त के अनुसार व्रतों का विधान और उनके फल का विवेचन किया गया है। साथ ही व्रतों के आचरण का क्रम और तिथि आदि के उल्लेखों के साथ संक्षेप में उद्यापन विधि का उल्लेख किया है। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगने वर्ष व्रत करने की प्रर्णा की है। अन्तिम ग्रन्थ अनुप्रेक्षा में अनित्यादि द्वादश भावनाओं के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए संसार और देहभोगों की असारता का उल्लेख करते हुए आत्मा को वैराग्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया 1 कोइल पंचवी कथा : पाठकों की जानकारी के लिए 'कोइल पंचमी' कथा का सार नीचे दिया जाता है-भरत क्षेत्र के कुरु जांगल देश में स्थित रायपुर नामक नगर में वीरसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उसी राज्य में धनपाल सेठ अपनी भार्या धनमति के साथ सुख पूर्वक रहते थे। उनका पुत्र धनभद्र और पुत्रवधू जिनमति थी। जिनमति कुशल गृहिणी जिनपूजा और दानादि में अभिरुचि रखने बली थी, परन्तु उसकी सासु धनमति को जैन धर्म से प्रेम नहीं था । दोनों के बीच यही एक खाई का कारण था । कालान्तर में धनपाल काल कवलित हो गया। कुछ समय वाद विषण्ण वन्दना धनमति भी चलवसी, श्रीर पापकर्म के कारण वह उसी घर में कोइल हुई । अतः दुर्भावशात् वह जिनमति के सिर में हमेशा टक्कर मारकर उसे दुःखित करती रहती थी । एक दिन उस नगर में श्रुतसागर नाम के मुनिराज प्राये वे अवधिज्ञानी थे। धनभद्र और जिनमति ने उन्हें आहार देकर उनसे कोइल की गतिविधियों के सन्दर्भ में पूँछा । तब मुनिराज ने बतलाया कि वह तुम्हारी जननी है। मुनियों के श्राहार दान में अन्तराय डालने के कारण वह कोइल हुई । पश्चात् मुनिराज ने संसार की घसारता का वर्णन किया, और बतलाया कि ५ वर्ष तक कोइल पंचमी व्रत का अनुष्ठान करो, भाषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष में उपवासकरो, व्रत पूरा होने पर कार्तिक के कृष्ण पक्ष में उसका उद्यापन करो, उद्यापन में पांच पांच वस्तुएँ जिन मन्दिर में दीजिए उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगुने दिन व्रत करना चाहिए: यह सुन कर कोइल पूछित हो गयी, जल सिंचन से उसे सचेत किया गया भनंतर धर्मोपदेश सुनकर कोइल ने सन्यास पूर्वक दिवंगत हुई । १. सं० १५०८ वर्षे श्री मूलसधै जिनचन्द्र देव खंडेलान्वये सावडा गोत्रे सा० पं० वीझा इयं कथानक ग्रन्थ लिखाप्य कर्मक्षय निमित्त प्रदत्त | Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वौं, १६वी, १७वीं और १५वीं शताब्दी के आचार्य, मदारक और कवि दम्पति ने मुनिराज द्वारा निर्दिष्ट कोइल पंचमी व्रत का विधि पूर्वक पालन किया। व्रत समाप्त होने पर उसका जज्ञापन किया। कालान्तर में वे भी सन्यास पूर्वक स्वर्गवासी हुए। इसमें जीव दया पालन करने का फल बतलाया गया है। इसी तरह अन्य सब कथाएं दी गई हैं । कथाएं अप्रकाशित हैं। बुध विजयसिंह कवि के पिता का नाम सेठ विल्हण और माता का नाम राजमती था। कवि का वंश पद्मावती पूरवाल या और यह मेरुपुर के निवासी थे। कवि ने अपने गुरु का नामोल्लेख नहीं किया। कविकी एकमात्र कृति 'अजित पुराण' उपलब्ध है जिसका रचना काल वि.सं.१५०५ कार्तिकी पूर्णिमा है। इससे कवि का समय सं० १४८५ से १५१५ तक समझना चाहिए। अजित नाथ पुराण इस ग्रन्थ में १० संधियां हैं, जिनमें जैनियों के दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। रचना साधारण हैं, भाषा अपभ्रश होते हुए भी उसमें देशी शब्दों को बहुबलता है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना महाभव्य पं. कामराय के पुत्र देवपाल की प्रेरणा से की है। ग्रन्थ को प्राद्यन्त प्रशस्ति में कामराय के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया है। और लिखा है कि वणिपुर या वणिक पुर नाम के नगर में खंडेल वाल वंश में कडि (कोडी) नाम के पंडित थे उनके पुत्र छीतु या छोतर थे, जो बड़े धर्मनिष्ठ और श्रावक की ११ प्रतिमानों का पालन करते थे। वहीं पर लोकमित्र पडित खेता थे, उनके प्रसिद्ध पुत्र कामराय थे। कामराय की पत्नी का नाम कमलधी था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। जिनका नाम जिनदास, रयणु और दिउपाल (देवपाल) था। उसने वहां वर्धमान का एक चैत्यालय बनवाया था, जो उत्तुगध्वजारों से अलंकृत था । और जिस में वर्धमानतीर्थकर को प्रशान्त मूर्ति विराजमान थी। उसी देवपाल ने यह चरित्र ग्रन्थ बनवाया था। कवि ने प्रथम सन्धि में जिनसेन, अकलंक, गुणभद्र, गडपिच्छ, पोढिल्ल (प्रोष्ठिल्ल) लक्ष्मण और श्रीधर कवि का नामोल्लेख किया है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना.सं०१५०५ में कार्तिकी पूर्णिमा के दिन की है। समएह पणवह सएह पंचतह कत्तिय पुण्णिम वासरे। संसिद्ध गंयह विर्जासह कि वह दिउपालकयादरे ॥३२५ भट्टारक शुभचन्द्र यह मूलसंघ दिल्ली पट्ट के भट्टारक पद्मनन्दी के पधर शिष्य थे। यह पद्मनन्दी के पट्टपर कब प्रतिष्ठित हुए, इसका निचिय समय तो ज्ञात नहीं हो सका, पर वे संभवतः १४७० और १४७६ के लगभग किसी समय पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। ग्वालियर लश्कर के नयामन्दिर के चौबीसी धातु की मूर्ति लेख में स० १४७६ में भ० शुभचन्द्र का उल्लेख है। अतः वे उससे पूर्व ही पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं। यह अपने समय के प्रच्छे विद्वान थे। इनकी दो कृतियां मेरे अवलोकन में आई हैं। 'सिद्ध चक्र कथा' और श्री शारदा स्तवन । शारदा स्तवन के वें पद्य में-'श्री पमनन्दीन्द्र मुनीन्द्र पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवाः' वाक्य द्वारा उन्होंने अपना उल्लेख किया है। यह प्रतिष्ठाचार्य भी रहे हैं । इनके समय में ग्रन्थों की प्रतिलिपियां भी हुई हैं। इनके पट्टधर शिष्य जिनचन्द्र ये भ० शुभचन्द्र संभवतः १५०२ तक उस पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे हैं। १. "तस्पट्टांबुधिः सञ्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतांवरः । पंचाक्षात दावम्नि कषायामा धराशनिः । २०-मूलाचार प्रशस्ति तासु पट्टी रयणतय धारउ, संजावउ मुहचन्द भडारउ । सिद्ध चक्र कथा प्रशस्ति पुणु उवा सिंहासण मंडण, मिच्छाबाइ वाय-भड-खंडणु, साम चरिउ प्रक Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सिद्धचक्र कथा इसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य का वर्णन है जिसे उन्होंने सम्यग्दृष्टि श्रावक जालाक के लिए कल्याणकारी कथा का चित्रण किया था । इस कथा की अन्तिम प्रशस्ति के निम्न वाक्य में श्री पद्मनन्दी मुनिराज पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः' श्री सिद्धचक्रस्य कथावतारं चकार भव्यां बुजभानुमाली ॥ १॥ भ० शुभचन्द्र का समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का तृतीय चतुर्थचरण है । रत्नको ति यह बलात्कारगण के विद्वान थे । यह भावकीति और अनंतकीर्ति के शिष्य थे। इनकी एकमात्र कृति पुष्पांजलि व्रतकथा है जो अपभ्रंश भाषा की रचना है। कथा में कवि ने रचनाकाल और रचनास्थल का कोई उल्लेख नहीं किया। इसका कारण रचना काल का निश्चय करना कठिन है । संभव है १५वीं शताब्दी की रचना हो । पंडित योगदेव यह कनारा जिले के कुम्भनगर के निवासी थे। पंडित योगदेव राजा भुजवली भीमदेव के द्वारा राज्यमान्य थे। वहां की राज्यसभा में सम्मान प्राप्त था । इनकी एक कृति तत्त्वार्थ सूत्र की टोका 'सुखबोधवृत्ति' है । ग्रन्थ में गुरु परम्परा और रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है । इस कारण इनका समय निश्चित करना कठिन है। अपभ्रंश भाषा की 'सुव्रतानुप्रेक्षा' नाम की २० कडवक की रचना है जिसमें मुनि सुव्रत की बारह भावना का वर्णन है । जिसे उन्होंने कुंभनगर में रहते हुए विश्वसेन मुनि के चरण कमलों की भक्ति से रचा है । इस ग्रन्थ की यह प्रतिलिपि सं० १५५५ बैशाख बंदि १३ के दिन मंसूर के पद्यप्रभ चैत्यालय में की गई है। इससे इतना तो सुनिश्चित है कि पंडित योगदेव उससे पहले हुए हैं। संभवतः यह १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। कवि जल्हिग इन्होंने अपना कोई परिचय, गुरुपरम्परा और 'रचना' काल नहीं दिया जिससे उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इनकी एकमात्र कृति, अनुपेहारास' है जिसमें श्रनित्य, अशरण संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, श्रास्रव, संवर, निर्जरा लोक बोधि दुर्लभ और धर्म । इन बारह भावनाओं का स्वरूप दिखलाते हुए उनके बार-बार चितवन करने की प्रेरणा की है। ये भावनाएं देह-भोगों की प्राशक्ति को दूर करती हुई उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करती हैं मोर आत्मस्वरूप की ओर श्राकृष्ट करती हैं। इसीलिये इन्हें माता के समान हितकारी बतलाया है । कषि जल्हिग कब हुए, यह रचना पर से ज्ञात नहीं होता। संभवतः इनका समय विक्रम की १८वी या १५वीं शताब्दी है । कवि कहता है कि जो इनकी भावना भाता है वह पाप-गारा को दूर करता हुआ परम सुख प्राप्त करता है। साथ में कवि कहता है कि मैंने निज शक्ति से इसकी रचना की है, उसमें जो कुछ होन या अधिक कहा गया हो, या पद अक्षर मात्रा से हीन हो, तो उसका विगत मल मुनीश्वर शोधन करें I नेमचन्द यह माथुर संघ के विद्वान थे। इनकी रची हुई 'रविवयका' (रवि व्रत कथा ) है जिसमें रविवार के व्रत की विधि और उसके फल प्राप्त करने वाले की कथा दी गई है। रचना में गुरुपरम्परा और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं है । इससे निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है। कथा की भाषा साहित्यादि पर से १५वीं शताब्दी की रचना जान पड़ती है । अन्य साधन सामग्री के अन्वेषण से समयादिका निश्चय हो सकेगा । I १. सम्यग्दृष्टि विशुद्धात्मा जिनधर्म व वत्सलः । जालाकः कारयामास कथां कल्याण कारिणि ॥२ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११वी १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के बाचायं, भद्रारक और कवि पंडित नेमिचन्द्र यह षट् तर्क चक्रवर्ती विनयचन्द्र के प्रशिष्य और देवनन्दी के शिथे। हो धनय कधि के 'राघव पाण्डवीय' काव्य या द्विसन्धान काव्य की 'पदकौमुदी नाम की टीका बनाई है। टीकाकार ने रचना काल का उल्लेख नहीं किया। प्रशस्ति में त्रैलोक्यकीति नाम के एक विद्वान का उल्लेख किया है जिसके चरण कमलों के प्रसाद से वह ग्रन्थ समुद्र के पार को प्राप्त हुआ है। टीका में रचना काल न होने से समय के निश्चय करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। इस टीका की अनेक प्रतियां भण्डारों में पाई जाती हैं। जयपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में ७० पत्रात्मक प्रति जो सं० १५०६ में राजाइगरसिंह के काल में गोपांचल में लिखी गई थी, लेखक प्रशस्ति अपूर्ण है। (जैन ग्रन्थ सूची भा० ४ पृ० १७२) इससे इतना तो, सुनिश्चित है कि पद कौमुदो टीका इससे पूर्ववर्ती है । संभवतः १५वों शताब्दी में रची गई है। भ० शुभ वन्द्र यह कर्नाटक प्रदेश के निवासी मौर काणूरगण के विद्वान थे जो राजान्त रूपी समुद्र के पार को पहचेहए थे और विद्वानों के द्वारा अभिवन्दनीय थे। इनको एक छोटी सी कृति 'षट्दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह' नाम की उपलब्ध है, जो जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ पृष्ठ ४५ पर प्रकाशित हो चुकी है। भट्टारक शुभचन्द्र ने प्राचार्य समन्तभद्र को प्राप्तमो मांसा गत प्रमाण के 'तल्लज्ञान प्रमाण' नामक लक्षण का उल्लेख करते हुए उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की है। ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नहीं है और न गुरु परम्परा का ही कोई उल्लेख किया है। जिससे भट्टारक शुभचन्द्र के समय पर प्रकाश डाला जा सके 1 प्रत्य में सांस्य, योग, चवाक, मीमांसक, और बौद्ध दर्शन के तत्वों का संक्षेप में विचार किया है। ___काणूरगण में अनेक विद्वान हो गये हैं। श्रवणबेलगोल के समीप वही सोमवार नामक ग्राम की पुरानी बस्ती के समीप शक सं०१००१ (सन् १०७९) के उत्कीर्ण किये हुए शिलालेख में काणू रगण के प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव का उल्लेख निहित है । पर यह निश्चित करना कठिन है कि उक्त शुभचन्द इस काणूरगण में कब हुए हैं। 'ग्रन्थ की भाषा प्रत्यन्त सरल है, उससे जान पड़ता है कि यह विक्रम की १४वीं शताब्दी में रचागया होगा। विश्व तत्व प्रकाश की प्रस्तावना के पृष्ठ १६ में डा. विद्याधर जोहरापुर करने भ० विजय कीर्ति के शिष्य भ० शुभचन्द्र को उक्त ग्रन्थ का कर्ता ठहराया है जबकि यह शुभचन्द्र मूलसंघ बलात्कारगण के ये पोर षट् दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह के कर्ता भ० शुचन्द्र कंडरगण विद्वान थे। प्रतएव मूलसंघ के भ० शुभचन्द्र इसके कर्ता नहीं हो सकते। इनको भिन्नता होते हुए भी डा० विद्याधर जोहरापुर करने उन्हें मूलसंघ के भ. विजय कीति का शिष्य कैसे मान लिया 1 इस सम्बन्ध में अन्वेषण करना प्रावश्यक है, जिससे यथार्थ स्थिति का निर्णय हो सके। भास्कर कवि यह विश्वामित्र गोत्री जैन ब्राह्मण था, इसके पिता का नाम बसवांक था। कवि पेनुगोंडे ग्राम का वासी था। इसकी एक रचना 'जीवंधर चरित' प्राप्त है। जो वादीभसिंह सूरि के संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी अनुवाद है। ऐसी सुचना कवि ने स्वयं दी है। ग्रंथ के प्रारम्भ में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्यों और कवियों का स्मरण किया है-पंच परमेष्ठी, भूतवलि, पुष्पदन्त, बीरसेन, जिनसेन, अकलंक, कवि परमेष्ठी समन्तभद्र, कोण्डकुन्द, वादी भसिंह, पण्डितदेव, कुमारसेन, वर्द्धमान, धर्मभूषण, कुमारसेन के शिष्य बीरसेन, चरित्र भूषण, नेमिचन्द्र, गुणवर्म नागवर्म, होत्र (पोत्र), विजय, अग्गलदेव, गजांकुश और यशचन्द्र ग्रादि कवि ने इस ग्रन्थ की रचना 'शान्तेश्वर वस्ती' नाम के जैन मन्दिर में शक सं० १३४५ के क्रोधन संवत्सर (सन १४२४) में फाल्गुण शुक्ला १०मी रविवार के दिन पेनुगों के जिन मन्दिर में समाप्त की है। कवि का समय ईसा की १५वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भ० कमल कीति यह काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगण के विद्वान भट्टारक अमलकीति के पट्टधर थे। उनकी मुरु परम्परा क्षेमकीति, हेमकीति अमलकीति कमलकीर्ति यह परम्परा सं० १५२५ के ग्वालियर के मूर्ति लेख में पाई जाती है। इसी सम्वत् दुसरे लेख में, समलकीरिकबाद संयभकीति का नाम मिलता है। कमलकीति केपद पर सोना गिर में शुभचन्द्र प्रतिष्ठित हुए थे। इसका उल्लेख कवि रइधू ने किया है । इससे स्पष्ट है कि ग्वालियर का एक पट्ट सोना गिर में था, और उस पर कमलकीति प्रतिष्ठित थे। उन्हीं के पट्ट पर शुभचन्द्रप्रतिष्ठितहुए थे । अतः ये सब भट्टारक १५वीं शताब्दी विद्यमानमें रहे हैं। कमलकित्ति उसमखमधारउ, भव्यभवाम्भोणिहितारउ । तस्स पट्टकणयट्टिपरिटिज, सिरि सुहबन्दसु लय उपकठ्ठि । हरिवंशपुराण, मावि प्र. जिणसुत्त प्रत्य अलहंतएण सिरिकमलफिति पयसेवएण । सिरि के जकित्ति पटवरेसु, तच्चस्थ सस्थभासणदि सु। उहण मिच्छत्ततमोहणास, सहचन्द भष्ठारउ सुजस वासु। हरि अन्तिम प्र. कमलकीति की एकमात्र रचना 'तत्वसार' टीका है। यह देवसेन के तत्वसार को टीका है जिसे कमल कीति ने कायस्थ माथुरान्वय में अग्रणी अमरसिंह के मानस रूपी अरविन्द को विकसित करने के लिए दिनकर (सूर्य) स्वरूप इस टीका को रचना की है अर्थात् यह टीका उनके लिए लिखी गई है। प्रस्तुत कमलकीर्ति वहीं हैं जिन का उल्लेख कवि रइधू ने हरिवंश पुराण में किया है और जिसका उल्लेख सं० १५२५ के कवि रइधू द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति लेख में हमा है। अत: इनका समय १५वीं शताब्दी का उत्तारधं जान पड़ता है। कवि चन्द्रसेन इन्होंने अपना परिचय देने की कोई कृपा नहीं की । कवि की एकमात्र लघु कृति अपभ्रंश भाषा को १० पद्यात्मक 'जयमाला' उपलब्ध है जिसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य को ख्यापित किया गया है और बतलाया है कि सिद्धचक्र व्रत का मन में अच्छी तरह चिन्तन करने से व्यक्ति के ज्वर, क्षय, गंडमाला, कूष्ट शूल आदि रोग नष्ट हो जाते हैं तथा सिद्धचक्र का स्मरण करने वाले व्यक्ति के सभी बन्धन, चौरादिक का भय और विपदाएं विनष्ट हो जाती हैं । परन्तु इसका स्मरण भावात्मक और निश्चल होना चाहिये। घत्ता-इय वर जयमाला परमरसाला विधुसेणेन वि कहिय हि । __जो पदइ पढावइ निय मणिभावह सोणरु पावह सिद्ध सुहम् ।। कवि ने जयमाला का रचनाकाल नहीं दिया। पर लगताहै कि कवि की यह रचना १५वीं शताब्दी के लगभग होगी। कवि गोविन्द इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' था। इनके पिता का नाम साह हीमा और माता का नाम पद्मश्री था। यह जिनशासन के भक्त थे। यह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे। इनकी एकमात्र कृति 'पुरुषार्थानुशासन' है। ग्रन्थ में उल्लेख है कि माथुर कायस्थों के वंश में खेतल हुमा जो बन्धुलोक रूपी तारागणों से चन्द्रमा के समान प्रकाशमान था। खेतल के रतिपाल नाम का पुत्र हमा, रतिपाल के गदापर पोर गदाधर के अमरसिंह और अमरसिंह के लक्ष्मण नाम का पुत्र हुआ, जिसकी ग्रन्थ प्रशस्ति में बड़ी प्रशंसा की गई है । प्रमरसिंह मुहम्मद बादशाह के द्वारा अधिकारियों में सम्मिलित होकर प्रधानता को पाकर के भी गर्व को प्राप्त नहीं हुमा। वह प्रकृतितः Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी १६वीं १७वी और १९वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि उदार था । कायस्थ जाति में और भी अनेक विद्वान हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म को अपनाकर अपना कल्याण किया है। मौर कितने ही अच्छे कवि हए हैं जिनकी सुन्दर एवं गंभीर रचनात्रों से साहित्य विभुषित है। कितने ही लेखक हए हैं। कवि ने यह ग्रंथ अमरसिंह के पुत्र लक्ष्मण के नामांकित किया है क्योंकि बह इन्हीं की सत्प्रेरणादि को पाकर ग्रन्थकार उसके बनाने में समर्थ हसा है। प्रशस्ति में कहीं पर भी रचनाकाल दिया हुमा नहीं है, जिससे कवि का समय निश्चित किया जाता । हां, प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण जरूर किया गया है, जिनमें समन्तभद्र, भट्ट अकलंक, पूज्यपाद (देवनन्दी) जिनसेन, रविषेण, गुणभद्र वट्ट केर, शिवकोटि, कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वाति, सोमदेव, वीरनन्दी धनंजय, असग, हरिचन्द्र जयसेन और अमितगति (द्वितीय) 1 इन नामों में हरिचन्द्र और जयसेन ११वीं प्रौर १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। किन्तु इस प्रशस्ति में मलयकीति और कमलकीर्ति नाम के विद्वान भट्टारक का भी उल्लेख है, जिनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है। प्रतः यह रचना भी १५वीं शताब्दी की जान पड़ती है। कवि कोटीश्वर इनके पिता तम्मण सेट्टि तुलुदेशान्तर्गत बइदूर राज्य के सेनापति थे। इनकी माता का नाम रामक, बड़े भाई का नाम सोमेश और छोटे भाई का नाम दुर्ग था। संगीतपुर के नगर सेठ 'कामसेणही' इनका जामाता था। श्रवण बेलगुल के पण्डित योगी के शिष्य प्रभाचन्द्र इनके गुरु थे। संगीतपुर के नेमिजिनेन्द्र इनके इष्टदेव थे और संगीतपर के राजा संगम इनके पाश्रय दाता थे। इन्ही के आदेश से कवि कोटीश्वर ने जीवन्धर षट्पदी, नाम के प्रन्य की रचना की थी। बिलगि ताल्लुके के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि श्रुतकीर्ति संगम के गुरु थे और इन्ही अतिकीर्ति सशिष्य परापरा में कर्नाटक शब्दानशासन' के क िभटटाकलंक (१६०४) पांचवें थे। कोटीश्वर ने जीवन्धर षट पदी में अपने पूर्ववर्ती गुरुओं की स्तुति विजयकीर्ति के शिष्य श्रुतकीति पर्यन्त की है । इससे कोटीश्वर का समय ई० सन १५०१ के लगभग जान पड़ता है। जीवंधरषट् पदी को एक ही अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई है, जिसमें प्रध्याय के और दशवें अध्याय ११६ पद्य दिये हए हैं। इसके मंगलाचरण में कवि ने कोण्डकुन्द, समन्तभद्र, पंडित मुनि, धर्मभूषण, भट्टाकलंक, देवकीति, मुनिभद्र, विजय कीति, ललितकीति और श्रुतकीर्ति प्रादि गुरुनों का स्तवन किया है। और पूर्ववर्ती कवियों में जन्न, नेमिचन्द्र, होन्न, हंपरस, अम्गल, रन्न, गुणवर्म औरनागवर्म का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १५वीं शताब्दी का उपान्त्य पौर विक्रम सं० १५७८, सोलहवीं का उत्तराद्धं है। पंडित खेता पंडित खेता ने अपना कोई परिचय अंकित नहीं किया । पौरन अपनी गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। इनकी एक मात्र कृति 'सम्यक्त्व कौमुदी' है, जो तीन हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। इस ग्रन्य की यह प्रति सं० १६६६ की माघ यदि ५ गुरुवार के दिन जहांगीर बादशाह के राज्य में श्रीपथ (वयाना) में लिखी गयो यह प्रति सं० १६८६ ज्येष्ठ कृष्णा १३ को शुभ दिन में शाहजहां के राज्य में काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्करगण पोवाचार्यान्वय के भट्टारक गुणचन्द्र, सकलचन्द्र, महेन्द्रसेन के शिष्य पं. भगवती दास को श्वेताम्बर रूपचन्द्र के पास से प्राप्त हई थी, जो अब नयामंदिर दिल्ली के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। रचना सरल है, उसकी भाषा मादि से १५वीं-१६वीं शताब्दी की कृति जान पड़ती। मय अप्रकाशित है, प्रकाशन की बाट जोहरहा है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ भट्टारक ज्ञानभूषण ज्ञान भूषण नाम के बार विद्वानों का उल्लेख मिलता है उनमें तीन ज्ञान भूषण इनके बाद के विद्वान हैं। प्रस्तुत ज्ञान भूषण मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भट्टारक सकलकीर्ति को परम्परा में होने वाले भ० भुवनकीर्ति के पट्टधर थे' । यह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान और कवि थे। गुजरात के निवासों थे, प्रतएव गुजराती भाषा पर इनका अधिकार होना स्वाभाविक है। यह सागवाड़ा गद्दी के भट्टारक थे। यह सं० १५३१ में भुवनकीति के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे । और वे उस पर १५५७ तक प्रवस्थित रहे हैं। पश्चात उन्होंने स्वयं विजयकीति को अपने पद पर प्रतिष्ठित कर भट्टारक पद से निवृत्ति ले ली। भट्टारक पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई। ५०४ गुजरात में इन्होंने सागराध और आभीर देश में श्रावक की एकादश प्रतिमानों को धारण किया था। मौर दाम्वर (बागड़ ) देश में पंचमहाव्रत धारण किये थे। इन्होंने भट्टारक पद पर पासीन होकर ग्राभीर, बागड़ तौलब तैलंग, द्रविण, महाराष्ट्र और दक्षिण प्रान्त के नगरों और ग्रामों में विहार ही नहीं किया, किन्तु उन्हें सम्बोधित किया और सम्मार्ग में लगाया था। द्रविण देश के विद्वानों ने इनका स्तवन किया था, और सौराष्ट्र देशवासी बनी श्रावकों ने उनका महोत्सव किया था उन्होंने केवल उक्त देशों में ही धर्म का प्रचार नहीं किया था किन्तु उत्तरप्रदेश में भी जहाँ तहाँ विहार कर धर्म मार्ग की विमल धारा बहाई यो । जहाँ यह विद्वान और कवि थे, वहाँ ऊंचे दर्जे के प्रतिष्ठाचार्य भी थे । भ्राप के द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भाज भी उपलब्ध हैं। इन्होंने भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित होते ही सं० १५३१ में डूंगरपुर में सहस्रकूट चैत्यालय की प्रतिष्ठा का संचालन किया। सं० १५३४ को प्रतिष्ठिापत मूर्तियां कितने ही स्थानों पर मिलती हैं। सं० १५३५ में उदयपुर में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न किया । सं० १५४० में बड़ श्रावक लाखा और उसके परिवार ने इन्ही के उपदेश से प्रादिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी । ऋषभदेव के यशः कीर्ति भण्डार की पट्टावली से ज्ञात होता है कि ज्ञान भूषण पहले भ० विमलेन्द्र के शिष्य थे । और इनके सगे भाई एवं गुरु भ्राता ज्ञानकीति थे। यह गोलालारीय जाति के श्रावक थे। सं० १५३५ में सागवाड़ा और नोगाम में महोत्सव एक ही साथ प्रायोजित होने से दो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हो गई। सागरवाड़ा की प्रतिष्ठा के संचालक थे भ० ज्ञानभूषण और नोगाम की प्रतिष्ठा के संचालक थे ज्ञानकोति । ज्ञानभूषण बडसाजनी के - भट्टारक माने जाने लगे और ज्ञानकीर्ति लोहड साजनों के भ० कहलाने लगे। बाद में यह भेद समाप्त हुया और भ० ज्ञान भूषण ने भुवन कीर्ति को गुरु मानना स्वीकार किया । म० ज्ञान भूषण अपने समय के अच्छे प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। डा० कस्तूरचन्द कासली वाल ने द्वितीय ज्ञानभूषण की रचनाओं को प्रथम ज्ञानभूषण को रचनाएँ मान लिया है। जो ठीक नहीं हैं । सिद्धान्तसार भाष्य, पोषहरास, जलगालनरास आदि रचनाएँ द्वितीय ज्ञानभूषण की हैं। जो लक्ष्मीचन्द वीरचन्द के शिष्य थे । और सूरत की गद्दी के संस्थापक भ० देवेन्द्र कीर्ति के परम्परा के विद्वान थे। सबसे पहले पं० नाथूराम जी प्रेमी ने सिद्धान्तसार भाष्य को प्रथम ज्ञान भूषण की कृति माना था। डा० ए० एन० उपाध्याय ने कार्तिकेयाणुप्रेक्षा की प्रस्तावना पृ० प० पर सिद्धान्तसार भाष्य को इन्हीं ज्ञान भूषण की कृति लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता । १. विख्यातो वन्दादि कीर्ति मुनिय: श्री मूलसंघेऽभवत् । तत्पट्टे ऽजनि बोधभूषण मुनिः स्वात्मस्वरूपे रतः । जाता प्रीति रतीयस्य महरा कल्याणकेषु प्रभो - स्तेनेदं विहितं ततो जिनपतेराद्यस्य तद्वर्णणं ॥ २. शुभ चन्द्र गुर्वावली ३. देखो, राजस्थान के जैन संत, पृ० ५४-५५ ४. देखो. सिद्धान्तसारादि संग्रह की भूमिका पृ० है आदिनाथ फाग म० Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -- १५की, १६वीं, १५वीं और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि --- रचनाएँ प्रथम ज्ञानभूषण वी निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं—पूजाष्टक टीका, तत्वज्ञानतरंगिणी स्वोपज्ञवाल सहित पादिनाथ फाग, नेमिनिर्वाण पंजिका, परमार्थदेश, सरस्वती वन । इन सब रचनायों में पूजाष्टक टीका सबसे पहली कृति जान पड़ती है। क्योंकि कवि ने उसे मनि अवस्था में वि० सं० १५२८ में डुगरपुर के आदिनाथ चैत्यालय में बनाकर समाप्त की थी। यह ज्ञानभूषण की स्वयं रचित पूजानों की स्वोपज्ञ टीका है। यह दस अधिकारों में विभाजित है। इसकी एक लिखित प्रति सम्भवनाथ मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। उसमें पूजाप्टक टीका का नाम ' विजनबल्लभा बतलाया है। सत्वज्ञानतर्रागिणी स्वोपज्ञटीका सहित यह ग्रन्थ १५ अध्यायों में विभक्त हैं। इसमें शुद्ध चिद्रपका अच्छा कथन दिया दमा। गन्ध अध्यान्म रग में सगबोर है । ग्रन्थ रोचक और ममूक्षयों के लिये उपयोगी है । इस "न्थ की रनना कधि उम समय की है जब भट्टारक पद से निःशल्य हो गये थे। उस समय ध्यान और अध्ययन दोही कार्य मृग रह गये। या नथ हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो चत्रा है। पाठकों की जानकारी के लिये उसके कुछ पद्य हिन्दी गावा के साथ दिये जाते हैं स्वकीये शद्धचिन्द्रपे सचिर्या निश्चयेन तत् । सदर्शन मतं 'तज्ज्ञं : कमन्धन हतासनम् ॥८-१२ जिसकी मुद्ध चिद्र पः में रुचि होती है उसे तत्वज्ञानियों ने निश्चय मम्यान बनाया है बदगम्पन्दन कम ईंधन के जलाने के लिये अग्नि के समान है।। मैं शुभ चैतन्य स्वरूप ऐसा स्मरण करते हो शुभाशुभकर्म न जाने कहाँ चले जाते हैं। चतन अचेतन परिग्रह और रागादि विकार हो विलीन हो जाते हैं। यह मैं नहीं जानता। क्स यांति कर्माणि शुभा शुभानि क्व यांति संगाश्चिदचित्स्वरूपः । क्व यान्ति रागावय एवं शुद्ध चिद्र पकोहं स्मरणे न विमः ॥८-२ इम शुद्ध चिद्रप की प्राप्ति के लिए ज्ञानी जन निस्पट होकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर एकान्त पर्वता की गुफामों में निवास करते हैं। संग विमुच्य विजने वसंत गिरि गहरे । शुद्ध चिद सम्प्राप्त्वं ज्ञानिनोऽन्यत्र निःस्पृहा ॥५-३ है प्रात्मन् ! तू उस शुद्ध चिद्र प का स्मरण कर, जिसके स्मरण मात्र सं दशान ही कर्म नष्ट हो जाते है। तं चिद्र पं निजात्मानं स्मर शुद्ध प्रतिक्षणं । यस्थ स्मरण मात्रण सद्यः कर्मक्षयो भवेत् ॥१३-२ कवि ने तत्त्वज्ञान तरंगिणी की रचना सं० १५६० (सन् १५०३) में बनाकर समाप्त की है। पादिनाथ फाग यह ग्रन्थ ५६१ श्लोकों की संख्या को लिए हुए है, जिसमें २२६ पद्य संस्कृत भाषा के हैं पोर ६ः पद्य हिन्दी भाषा के हैं। इन सब को मिला कर ग्रन्ध की ५६१ श्लोक प्रमाण संध्या पाती है। समिव नबोन षटशहमितान (५६१) श्लोकान्विध्याउन्न । ___ शुद्धं ये सुधियः पठन्ति सवहं से पाठयन्त्वावरात् ॥" १.ति भट्टारक श्री भुवनकीति शिष्य मुनि ज्ञानभूषण विरचितायां स्वकृताप्टक दशक टीकाया बिज्जन वासभा मज्ञाया नीवरीपजिनालयाचन बर्णनीय नामा दशमोऽधिकारः ।। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ उनके जन्म, जन्माभिषेक, वाल्य लीला राज्य पद हिन्दी पद्यों में जिन पर गुजराती भाषा का प्रभाव इसमें भगवान यादि नाथ को जीवन गाथा अंकित है। और तपस्वी जीवन का सुन्दर एवं संक्षिप्त परिचय दिया है। अंकित है, उन्हीं संस्कृत पद्यों का भाव दिया हुआ है। डा० प्रेमसागर ने हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि में इस ग्रन्थ का रचना काल सं० १५५१ दिया है, जो किसी भूल का परिणाम है। उन्होंने ५६१ पद्म संख्या को फुटनोट में दिया है। वह निर्माण सूचक पद्य नहीं है, किन्तु पद्य संख्या की सूचना देता है। यदि प्रति में उसका रचना काल उन्हें मिला है तो उसका प्रमाण देना चाहिए था, पर नहीं दिया, यह रचना समय गलत है । नेमि निर्माण पंजिका इसमें वाग्भट के नेमि निर्वाण महाकाव्य के विषम पदों का अर्थ स्पष्ट किया है। कहीं कहीं यमक आदि के गूढ स्थलों के उद्घाटन करने का भी प्रयत्न किया है। पंजिका उपयोगी है उसका मंगल पद्य निम्न प्रकार है धृत्वा नेमोश्वरं चिते लब्धानन्तचतुष्टयं । कुर्वेहं नेमिनिर्वाण महाकाव्यस्य पंजिका || श्री नाभिसूनोः युगादिदेवस्य प्रथयंतु विस्तारयंतु । समं युगपत् । विस्तृताः, मधः पतिताः, मणीयितं मणिभिरिव चरितं । यः पदपद्मयुग्मनः । इति भट्टारक श्री ज्ञानभूषण विरचितायां महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः ॥ १ ॥ मि निर्वाण के सातवें सर्ग में रैवतक ( गिरनार ) पर्वत का बड़ा सुन्दर वर्णन श्रार्या विन्दुमाला आदि ४४ छन्दों में किया है जिस श्लोक में छन्द का प्रयोग किया है उसका नाम भी पद्य में अंकित है। ज्ञान भूषण ने पद्यों के अर्थ को स्पष्ट किया है: सुनिगण सेव्या गुरुणा मुक्तार्या जयति सा मुत्र । चरणमतमखिलमेव स्फुरतितरां लक्षणं यस्याः ॥७-२ इसकी पंजिका निम्न प्रकार है: 16 1 "मुनिगण सेध्या मुनिगणो भवन्तसमूहः सेव्यो लक्षणया पूज्यो नमस्करणीयो वयस्याः स तथोक्ताः, पक्षे सप्तगण सेव्या । गुरुणा गुरु दीक्षा गुरुः शिक्षा गुरुबरतेन, पक्षे एकेन दीर्घाक्षरेण । मार्या, भाविका, पक्षे मार्या नाम छन्दः । श्रमुत्र त्र रेवतकाले पक्षे प्रस्मिन्सर्ग । चरणगते हे चारित्राश्रितम् पक्षे पादाश्रितम् । यस्याः श्रामिकायाः पक्षे प्रार्यस्याः ।। " दिल्ली धर्मपुरा मंदिर के शास्त्र भंडार में इस पंजिका की प्रति उपलब्ध है । परमार्थोपदेश - यह ग्रन्थ सूचियों में दर्ज हैं। पर मैने उसे देखा नहीं है, इसलिये उसका परिचय शक्य नहीं है । सरस्वती स्तवन -छोटा सा स्तोत्र है, जिसमें सरस्वती का स्तवन किया है, यह स्तोत्र अनेकान्त में प्रकाशित हो चुका । आत्म-सम्बोधन नाम का ग्रन्थ भी बताया जाता है, पर उसके देखे बिना उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । इन्हीं ज्ञानभूषण के उपदेश से नागचन्द्रसूरि ने विषापहार और एकीभाव स्तोत्र की टीका की है। इनका समय १५२० से १५६० तक है। इसके बाद इनका कोई विशेष परिचय मुझे ज्ञात नही होसका। इनकी मृत्यु कहां और कब हुई यह भी ज्ञात नहीं हो सका । यह मूलसंघ सरस्वति गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, चन्द्र के शिष्य थे। भट्टारक जिनचन्द्र दिल्ली पट्ट के पट्टधर थे। उस समय के प्रभावशाली संस्कृत के विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। श्रापके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां भारत के प्रायः कवि दामोदर शुभचन्द्र और जिन भट्टारक थे, प्राकृत सभी मन्दिरों में पाई Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वौं, १६वीं, १७वों और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि जाती हैं। यह सं० १५०७ में भट्टारक पद पर प्रतिष्टित हुए थे और पट्टावली के अनुसार उस पर ६२ वर्ष तक अवस्थित होना लिखा है । इनके अनेक शिष्य थे, उनमें पंडित मेधावी और कवि दामोदर आदि हैं. । कवि दामोदर की इस समय दो कृतियां प्राप्त हैं-सिरिपाल चरिउ और चन्दप्पहचरिउ। इन ग्रन्थों की प्रशस्ति में कवि ने अपना कोई परिचय अंकित नहीं किया। सिरिपाल चरिउ इस ग्रन्य में चार संधिया हैं। जिनमें सिद्धचक्र के माहात्म्य का उल्लेख करते हुए उसका फल प्राप्त करने वाले राजा श्रीपाल और मैनासुन्दरी का जीवन परिचय दिशा हमा है। सिद्धचक्रवत के माहात्म्य से श्रीपाल का और उनके सात सौ साथियों का कुष्ठ रोग दूर हुआ था । ग्रन्थ में रचना समय नहीं दिया, इससे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। चंदापह चरिउ यह ग्रंथ नागौर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, पर ग्रन्थ देखने को अभी तक प्राप्त नहीं हो सका. इस कारण यहां उसका परिचय नहीं दिया जा सका 1 ग्रन्थ में आठवें तीर्थकर की जीवन गाथा अंकित की गई है। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है 1 कवि की अन्य क्या कृतियां है, यह अन्वेषणीय है। नागचन्द्र यह मूलसंध देशीयगण पुस्तक गच्छ-पनसोगे के जो तूलु या तौलववदेश में था, भट्टारक ललितकीति के अग्र शिप्य और देवचन्द' मुनीन्द्र के शिष्य थे। कर्णाटक के विप्रकुल में उत्पन्न हुए थे। इनका गोत्र श्रीवत्स था, पार्श्वनाथ और गुमटाम्बा के पुत्र थे। इन्हों ने धनंजय कविकृत विपापहारस्तोत्र की संस्कृत टीका की प्रशस्ति में अपने को प्रवादिगज केशरी और नागचन्द्र सुरि प्रकट किया है। विषापहारस्तोत्र टीका बागड देश के मण्डलाचार्य ज्ञानभूषण के अनुरोध से बनाई है __ "बागड देश मंडलाचार्य ज्ञानभूषण देवमुहहरुपरुतः कादिराजसमें प्रसिद्धः प्रवादिगज केशरी विश्व कविमद विवारी सद्दर्शन ज्ञानधारी नागचन्द्रसूरि धनंजयसरिभिहिमार्थ व्यक्तीकत्त शक्नुवन्नपि गुरुवचन मलंघनीयमिति न्यायेन तवभिप्राय विवरीत प्रसिजानीते।" (विपा० स्तोत्र पु० वाक्य) यह जैन धर्मानुयायी थे। इन्होंने ललितकीति के शिष्य देवचन्द्र मुनीन्द्र का भी उल्लेख किया है : इय महन्मत क्षीर पारावार पार्वण शशांकस्य मूलसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ यनशोकावलो तिलकालं कारस्य तौलववेश पवित्रीकरणप्रबल श्रीललितकीति भट्टारकस्याग्रशिध्य गुण वहण पोषण सफल शास्वाध्ययन प्रतिष्ठा यात्राधुपदेशानन धर्मप्रभावना धुरीण देवचन्द्र मुनीन्त्र चरण नख किरण चंद्रिका चकोरायमाणेन कर्णाट विप्रकलोतंस धीवत्सगोत्र पवित्र पार्श्वनाथ गुमटान्वातनुजेन प्रयादिगजकेशरिणा नामचन्द्रसूरिणा विषापहार स्तोत्रस्य कृता व्याख्या कल्पांस तत्व बोधायेति भद्र।" विषापहार स्तोत्र की यह टीका उपलब्ध टीकानों में सबसे अच्छी है। स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का अर्थ स्पष्ट किया है। कहा जाता है कि इन्होंने पंच स्तोत्रों पर टीका लिखी है। किन्तु वह मुझे उपलब्ध नहीं हुई। हां १. भट्टारक ललित कीर्ति काव्य न्याय व्याकरणादि शास्त्रों के अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भट्टारक थे। उनके शिष्य थे कल्याण कीति, देवकीति और नागचन्द्र आदि। इन्होंने कारकल में भैररस राजा वीरपाण्ड्य द्वारा निर्मापित ४१ फुट ५ इंच उतुंग बाहुबली की विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा शक सं० १३५३ (वि० सं० १४८८) में स्थिर लग्न में कराई थी। इसके बाद कारकल की इस भट्टारकीय गद्दी पर जो भी भट्टारक प्रतिष्ठित होता रहा वह ललित कीर्ति नाम से उल्लेखित किया जाता है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-मा २ एकोभावस्तोत्र' को टीका जरूर उपलब्ध हुई है, उसकी कापी जयपुर के भंडार की प्रति पर से मैंने सन् ४४ में की यो जो मेरे पास है। उसकी उत्थामिका में लिखा है भट्टारक ज्ञानभूषण के उपरोध से मैंने यह टीका भव्यों के शीन सुख बोष के लिये छायामात्र लिखी है। 'चास्याति गहन गंभीरस्य सुखावबोधार्थ भव्याशुजिप्टक्षापारतंत्रज्ञानभूषण भट्टारकैरुपद्धा नागचन्द्र सरि ययाक्ति छायामात्रमिदं निबंधनमभिधत्ते ।' इन टीकानों के अतिरिक्त नागचन्द्र को अन्य किसी कृति का उल्लेख मेरे देखने में नहीं पाया । इनका समय १६वीं शताब्दी है। क्योंकि नागचन्द्र ने भ० ज्ञानभूषण का उल्लेख किया है, और ज्ञानभूपण न सं० १५६० में तत्त्वज्ञानतरंगिणी की टीका समाप्त की है । अतएव नागचन्द्र का समय भी १६वीं शताब्दी सुनिश्चित है। अभिनव समन्तभद्र अभिनव समन्तभद्र मुनि के उपदेश से योजन-श्रेष्ठी के बनवाये हुए नेमीश्वर चैत्यालय के सामने कांसी का एक मानस्तम्भ स्थापित हुमा था। जिसका उल्लेख शिमोगा जिलान्तर्गत नगर ताल्लुके के शिलालेख नं०५५ में मिलता है । यह शिलालेख तुलू, कोंकण आदि देशों के राजा देवराय के समय का है, और इस कारण मि. डेविस राइस साहब ने इनका समय ई० सन् १५६० के करीब बतलाया है। भट्टारक गुगभद्र गुणभद्र नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु यह उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह काष्ठासंघ माथु - रान्वय के भट्टारक मलय कोति के शिष्य और भ. एशनीति के प्रशिष्य थे। और मलयकीति के बाद उनके पट पर प्रतिष्ठित हुए थे। यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे, इनके द्वारा अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है। इन्होंने अपने विहार द्वारा जिनधर्म का उपदेश देकर जनता को धर्म में स्थिर किया है, और उसके प्रचार एवं प्रसार में सहयोग दिया है। इनके उपदेश से अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की गई हैं। इनकी बनाई हई निम्न १५ कथाएं उपलब्ध है। १ सबणवारसि कहा २ पवखवइ कहा ३ श्रायास पंचमी कहा ४ चदायणबय कहा ५ चंदणछी कहा ६ दुग्धारस कहा, ७ णिह सत्तमी कहा ८ मउडसत्तमी कहा ६ पुष्फंजलि कहा १० रयणत्तय कहा ११ दहलक्खणवय कहा १२ अणंतवय कहा १३ लद्धिविहाण कहा १४ सोलह कारण कहा १५ पौर सुयधदशमी कहा। भ० गुणभद्र संभवतः १५०० में या उसके कुछ वर्ष बाद भ. पट्ट पर प्रतिष्ठित हो गये थे। क्योंकि सं० १५१० में प्रतिलिपि की गई समयसार की प्रशस्ति ग्वालियर के डूंगरसिंह राज्य काल में भ. गूणभद्र को माम्नाय में अग्रवाल वंशो गगं गोत्रीय साहु जिनदास ने लिखवाई थी। इस कवि गुणभद्र का समय विक्रम की १६वी शताब्दी का पूर्वार्ध है। गुणभद्र ने उक्त व्रत कथानों में व्रत का स्वरूप, उनके आचरण की विधि और फल का प्रतिपादन करते हुए वत की महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला है। यात्म-शोधन के लिए व्रतों की नितान्त आवश्यकता है। क्योंकि प्रात्म-शुद्धि के बिना हित साधन सम्भव नहीं है। इन कथाओं में से श्रावण द्वादशी कथा और लब्धि विधान कथा ये दो कथाएं ग्वालियर निवासी संघपति साहू उद्धरण के जिनमन्दिर में निवास करते हुए साह सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रची गई है। और दशलक्षण व्रतकथा, अनन्त व्रत कथा और पुष्पांजलि वतकथा ये तीनों कथाएं जैसवालवंशी चौधरी लक्ष्मण सिंह के पुत्र पण्डित भीमसेन के अनुरोध से बनाई हैं। और नरक उतारो दुद्धारस कथा बीधू के पुत्र सहणपाल के लिए बनाई गई। शेष १ कथाएं कवि ने किसको प्रेरणा से बनाई, यह कुछ शात नहीं हो सका । वे धार्मिक भावना से प्रेरित हो रची गई जान पड़ती हैं। कवि की अन्य क्या रचनाएँ है यह अन्वेषणीय है। ब्रह्म थ तसागर मृलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम विद्यानन्दि था जो भट्टारक १. देखो, दानवीर मणिकचन्द्र पृ०३० Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वीं, १७वों और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य भट्टारक और कषि पानन्दि के शिष्य और देवेन्द्र कौति के शिष्य थे। और देवेन्द्रकोति के बाद ये सूरत के पट्ट पर पासीन हुए थे। विद्यानन्दी के बाद उस पट्ट पर क्रमश: मल्लिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र प्रतिष्ठित हुए थे। इनमें मल्लिभपण गुरु श्रुतसागर को परम प्रादरणीय गुरु भाई मानते थे और इनकी प्रेरणा से श्रुनसागर ने कितने ही ग्रन्थों का निर्माण किया है। ये सब सूरत की गद्दी के भट्टारक है। इस गद्दी की परम्परा भ. पद्मनन्दी के बाद देवेन्द्र कीति से प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। ब्रह्मश्रुतसागर भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित नहीं हुए थे, किन्तु वे जीवन पर्यन्त देश व्रती ही रहे जान पड़ते हैं। श्रुतसागर ने ग्रन्थों के पुष्पिका वाक्यों में अपने को 'कलिकाल सर्वज्ञ, व्याकरण कमलमार्तण्ड, ताकिक शिरोमणि, परमागम प्रवीण, नवनवति महावादि विजेता आदि विशेषणों के साथ, तर्क-ध्याकरण-छन्द अलंकारसिद्धान्त पौर साहित्यादि शास्त्रों में निपुणमती बतलाया है जिससे उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। यशस्तिलक चन्द्रिका की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि श्रुतसागर ने ६ वादियों को विजित किया था। जहां ये विद्वान टीकाकार थे, वहां बे कट्टर दिगम्बर और असहिष्णु भी थे। यद्यपि अन्य विद्वानों ने ही दुसरे मतों का खण्डन एव विरोध किया है, पर उन्होंने कहीं अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया। किन्त श्रतसागर उनका खण्डन करते हुए अप्रिय अपशब्दों का प्रयोग किया है, जो समुचित प्रतीत नहीं होते। मलसंघ के विद्वानों, भट्टारकों में विक्रम की १३वीं शताब्दी से प्राचार में शिथिलता बढ़ने लगी थी. और अतसागर के समय तक तो उसमें पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी। इसी कारण श्रुतसागर के टीका ग्रन्यों में मल परम्परा के विरुद्ध कतिपय बातें शिथिलाचार की पोषक उपलब्ध होती हैं, जैसे तत्त्वार्थसूत्र के 'संयम श्रुत प्रतिसेवना' प्रादि सूत्र की तत्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरी टीका) में द्रव्य लिंगी मुनि को कम्बलादि ग्रहण करने का विधान किया है।मल सूत्रकार का ऐसा मभिप्रायनों ।। समय विचार ब्रह्मश्रतसागर ने अपनी कृतियों में उनका रचना काल नहीं दिया जिससे यह निश्चित करना शक्य नही है कि उन्होने ग्रन्थों की रचना किस कम से की है। पर यह निश्चयतः कहा जा सकता है कि वे विद्यम की १६वीं शताब्दो के विद्वान हैं । वे सोलहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से लेकर तृतीय चरण के विद्वान रहे हैं। इनके गरु भट्टारक विद्यानन्दी के वि० सं०१४६६ से १५२३ तक ऐसे मूतिलेख पाये जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठा भविद्यानन्दो ने स्वयं की है अथवा जिनमें भ० विद्यानन्दी के उपदेश से प्रतिष्ठित होने का समुल्लेख पाया जाता है और मल्लिभषण गरु वि० सम्वत १५४४ तक या उसके कुछ समय बाद तक पट्ट पर पासीन रहे हैं एसा सुरत आदि के मतिलेखों से स्पष्ट जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्दी के प्रिय शिष्य ब्रह्मश्रुतसागर का भी यही समय है। क्योंकि वह विद्यानन्दी के प्रधान शिष्य थे। दूसरा आधार उनका व्रत कथा कोष है, जिसे मैंने देहलो पंचायती मन्दिर के शास्त्रभण्डार में देखा था, और उसकी प्रादि अन्त प्रशस्तियां भो नोट की थी। उनमें २०वों 'पल्यविधान कथा' की प्रशस्ति में ईडर के राठौर राजाभानु प्रथवा रावभाण जी का उल्लेख किया गया है और लिखा है कि-'भानुभूपति की भुजा रूपी तलवार के जल प्रवाह में शत्रु कुल का विस्तृत प्रभाव निमग्न हो जाता था, और उनका मत्री हुबह कुलभूषण भोजराज था, उसकी पत्नी का नाम विनयदेवी था, जो प्रतीव पतिव्रता साध्वी और जिनदेव के चरण कमलो की उपासिका थी। उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, उनमें प्रथम पुत्र कमसिंह, जिसका शरीर भूरि रत्नगुणों से विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण था, जो शत्रु कुल के लिए काल स्वरूप था, तीसरा १. देखी, गुजरातोमन्दिर सूरत के मूतिलेख, दानवीर माणिकचन्द्र पृ. ५१,५४ २. मल्लिभूषण के द्वारा प्रतिष्ठित पपावती की सं. १४४४ को एक मूति, जो सूरत के यो मन्दिर जी में विराजमान है। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूत्र पुण्य शाली श्री घोषर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिए वज के समान था और चौथा गंगा जल के समान निर्मल मन वाला गङ्ग। इन चार पुत्रों के बाद इनकी एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम पुतली था जो ऐसी जान पड़ती थी कि जिनवर के मुख से निकली हुई सरस्वती हो, अथवा दृढ़ सम्यक्त्व वाली रेवती हो, शील बती सीता हो और गुणरत्नराशि राजुल हो। श्रुतसागर ने स्वयं भोजराज की इस पुत्री पुतली के साथ संघ सहित गजपन्य और तुङ्गीगिरि आदि की यात्रा की थी। और वहां उसने नित्य पूजन की, तप किया और संघ को दान दिया था। जैसा कि उक्त प्रशस्ति के निम्न पद्यों से स्पष्ट है: "श्री भानुभूपति भुजासिजलप्रवाह निर्मग्नशकुलजातततप्रभावः । सद्बुद्वय हुंह कुले बृहतील दुर्गे श्री भोजराज इति मंत्रिवरो बभूव ।।४४ भार्यास्य सा विनयवेव्यभिषासुघोपसोद्गारवाक कमलकान्तमुखी सखीय । लक्ष्म्याः प्रभोजिनवरस्य पदान्जभूगी साध्यो पतिव्रतगुणामणियन्महाया ।।४५ सासूत भरिगणरत्नविभूषितांग श्री कर्मसिहमिति पुत्रमनकरत्नं । कालं च शत्रफलकालमननपुण्यं श्री घोषरं घनतराधगिरीन्द्र बन॥४६ गंगाजलप्रबिलोच्यमनोनिकेतं यं च वयंतरमंगजमत्र गंगं । माता पुरस्सदनु पुत्तलिका स्वसेषां वक्त्रेषु सज्जिनवरस्य सरस्वतीव ॥४७ सम्पनदातार्या हिला किस देवतोत्र यीने शीलसलिलोक्षितभरिभमिः । राजीमतीव सुभगा गुणरस्नराशिः वेला सरस्वति इवांचति पुत्तलोह ॥४॥ पात्रां चकार गजपंथ गिरौ ससंघा होतसपो विवधती सबढ़वतासा। सच्छान्तिकं गणसमर्चनमहंदीश निस्यार्चन सकलसंघ सपत्त दानम् ॥४६ तुगीगिरोच बलभद्रमुनेः पवाजगी तथैव सकृतं यतिभिश्चकार । श्री मल्लिभूषणगुरुप्रवरोपवेशाच्छास्त्रं ध्यधाय यविदं कतिनां हृदिष्ट ॥५० –पल्य विधान कया प्रशस्ति इन प्रशस्ति पद्यों में उल्लिखित भानुभूपति ईडर के राठौर वंशी राजा थे। यह राव के जोजी प्रथम के पत्र मौर रावनारायण दास जो के भाई थे और उनके बाद राज्य पद पर आसीन हुए थे । इनके समय वि० सं०१५०२ में गुजरात के बादशाह मुहम्मद शाह द्वितीय ने ईडर पर चढ़ाई की थी, तब उन्होंने पहाड़ों में भागकर अपनी रक्षा की, बाद में उन्होंने सुलह कर ली थी। फारसी तबारीखों में इनका वीरराय नाम से उल्लेख किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीमसिंह । रावभाण जी ने स० १५०२ से १५२२ तक राज्य किया है । इनके बाद राव सूरजमल्ल जी सं० १५५२ में राज्यासीन हए थे । उक्त पल्ल विधान कथा की रचना रावभाण जी के राज्यकाल में हुई है। इससे भी श्रुतसागर का समय विक्रम को सोलहवीं शताब्दी का द्वितीय चरण निश्चित होता है। श्रुतसागर का स्वर्गवास कब और कहाँ हमा, उसका कोई निश्चित आधार अब तक नहीं मिला, इसी से उनके उत्तर समय की सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी सं०. १५८२ से पूर्व तक उसको सीमा जरूर है और जिसका माधार निम्न प्रकार है :--. श्रुतसागर ने पं. आशाधर जी के महाभिषेक पाठ पर एक टीका लिखी है. जिसको सं० १५७० की लिखी हुई टीका की प्रति भ० सोनागिर के भंडार में मौजूद है। इससे यह टीका सं० १५७० से पूर्व बनी है यह टोका अभिपंक पाठ संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लिपि प्रशस्ति सं० १५५२ की है। जिससे भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागर के पठनार्थ आर्या विमलधी की चेली और भ० लक्ष्मीचन्द्र द्वारा दीक्षित विनयश्री ने स्वयं लिखकर १. देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भा०३ पृ० ४२६ । २. सं० १५८५ की लिखी हुई श्रुतसागर को षट् पाहुड टीका की एक प्रति आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। उसकी लिपिप्रशस्ति मेरी नोटबुक में उद्धृत है। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ १५वीं १६, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि प्रदान की थी। इनके सिवाय, ब्रह्मनेमिदत्त ने अपने आराधना कथा कोश, श्रीपाल चरित, सुदर्शन चरित, रात्रिभोजन त्याग कथा र नेमिनाथ पुराण आदि ग्रन्थों में श्रुतसागर का श्रादरपूर्वक स्मरण किया हैं। इन ग्रन्थों में आराधना कथा कोश सं० १५७५ के लगभग की रचना है, और श्रीपाल चरित सं० १५८५ में रचा गया है। शेष रचनाए इसी समय के मध्य की या आसपास के समय की जान पड़ती है । रचनाएँ ब्रह्म श्रुतसागर की निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं - १. यशस्तिलक चन्द्रिका २ तत्त्वार्थ वृत्ति ३. तत्त्व त्रय प्रकाशिका, ४. जिन सहस्र नाम टीका ५ महाभिषेक टीका ६. षट् पाहुडरीका ७ सिद्धभक्ति टीका ८ सिद्ध चक्राष्टक टीका, ६ व्रत कथा कोश- ज्येष्ठ जिनवर कथा, रविव्रतकथा, सप्त परम स्थान कथा, मुकुट सप्तमी कथा, अक्षयनिधि कथा, षोडश कारण कथा, मेघमालाव्रत कथा, चन्दन षष्ठी कथा, लब्धिविधान कथा, पुरन्दर विधान कथा दशलाक्षणी व्रत कथा, पुष्पांजलि व्रत कथा, आकाश पंचमी कथा, मुक्तावलि व्रत कथा, निर्दुख सप्तमो कथा, सुगंधदशमी कथा, श्रावण द्वादशी कथा, रत्नत्रय व्रत कथा, अनन्त व्रत कथा, अशोक रोहिणी कथा, तपो लक्षण पंक्ति कथा मेरु पंक्ति कथा, विमान पंक्ति कथा और पल्ल विधान कथा । इन सब कथानों के संग्रह का नाम व्रत कथा कोष है । यद्यपि इन कथाओं में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के अनुरोध एवं उपदेशादि द्वारा रचे जाने का स्पष्ट उल्लेख निहित है । १० श्रीपाल चरित ११- यशोधर चरित १२. औदार्य चिन्तामणि (प्राकृत स्वोपज्ञवृत्ति युक्त व्याकरण ) १३. श्रुत स्कन्ध पूजा १४. श्रीपार्श्वनाथ स्तोत्रम् १५. शान्तिनाथ स्तुतिः । पार्श्वनाथ स्तोत्र १५ पद्यात्मक है, जो अनेकान्त वर्ष १२ किरण ८ ० २३६ पर प्रकाशित हुआ है। यह जीरा पल्लिपुर में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ जिन का स्तवन है । इस स्तवन में पार्श्वनाथ जिन का पूरा जीवन अंकित है। इसमें पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसेन बतलाया है, जो काशी (वाराणसी) के राजा थे । वमिष्टो विश्वसेनः शतमख रुचितः काशि वाराणसीशः । प्राप्तेभ्यो मे गे मरकत मणि पार्श्वनाथो जिनेन्द्रः । तस्याभूस्त्वं तनूजः शत शरत्र चितस्थापुरानं वहेतुjaatni भाव्यमानो भयचकित धियां धर्मधुर्यो परिश्यां ॥"e शान्तिनाथ स्तुतिः में नौ पद्य हैं। यह स्तवन भी अनेकान्त वर्ष १२ किरण पू० २५१ में मुद्रित हुआ है। ब्रह्म श्रुतसागर की कई रचनाएँ अभी अप्रकाशित हैं जिनके प्रकाशन की व्यवस्था होनी चाहिए । ब्रह्म नेमिदस । यह मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कार गण के विद्वान मल्लिभूषण के शिष्य थे। इनके दीक्षा गुरु भ० विद्यानन्दि थे, जो सूरत गद्दी के संस्थापक भ० देवेन्द्रकीति के शिष्य थे। इन्हीं विद्यानन्दि के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भूषण गुरु थे, जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्ररूप रत्नत्रय से सुशोभित थे और विद्यानिन्द रूप पट्ट को प्रफुल्लित करने वाले भास्कर थे । मल्लिभूषण के दूसरे शिष्य भ० सिंहनन्दिगुरु थे, जो मालवा की गद्दी के भट्टारक थे। इनकी प्रार्थना ( मालवादेश भट्टारक श्री सिंहनन्दि प्रार्थना) से श्रुतसागर ने यशस्तिलक चम्पू की 'चन्द्रिका' नाम की टीका लिखी थी और ब्रह्मनेभिदत्त ने नेमिनाथ पुराण भी मल्लिभूषण के उपदेश से बनाया था और वह उन्हीं के नामांकित किया गया था । | ब्रह्म नेमिदत्त के साथ मूर्ति लेख में ब्रह्म महेन्द्रदत्त नाम का सौर उल्लेख मिलता है। जो नेमिदत्त के सहपाठी हो सकते हैं । ब्रह्मनेमिदत्त संस्कृत हिन्दी और गुजराती भाषा के विद्वान थे। पापकी संस्कृत भाषा को १० १. जीरा पल्तिपुर प्रकृष्ट महियन् मौकुन्द सेवानिये ! - पार्श्वनाथ स्तवन Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ चनाएँ उपलब्ध हैं । वे सब ग्रन्थ चरित पुराण और कथा सम्बन्धी हैं। पूजा सम्बन्धी साहित्य भी आपका रवा हुआ होगा | अंतरीक्ष पार्श्वनाथ पूजा आपकी लिखी हुई पाई जाती है। आपका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का तृतीय चतुर्थ चरण है। क्योंकि इन्होंने आराधना कथाकोश सं० १५७५ बौर श्रीपाल चरित सं० १५८५ में बनाकर समाप्त किया है। इनका जन्मकाल सं० १५५० या १५५५ के ग्रासपास का जान पड़ता है। रचनाएँ (१) आराधना कथा कोश (२) रात्रिभोजन त्याग कथा (३) सुदर्शन चरित (४) श्रीपाल चरित ( ५ ) धर्मों देशी वर्षे श्रावकाचार (६) नेमिनाथ पुराण (७) प्रीतिकर महामुनि चरित (८) धन्य कुमार चरित (१) नेमिनिर्माण काव्य ( ईडर भंडार) (१०) भर अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ पूजा। इनके अतिरिक्त हिन्दी भाषा की भी दो रचनाएं उपलब्ध हैं | मालारोहिणी (फुल्ल माल) और आदित्य व्रतरास इन दोनों रचनाओं का परिचय अनेकान्त वर्ष १८ कि दो पर देखना कहिए । नेमिदत्त के आराधना कथा कोश के प्रतिरिक्त अन्य रचनाएँ अभी प्रकाशित हैं। रचनाएँ सामने नहीं है । श्रतः उनका परिचय देना शक्य नहीं है। नेमिनाथ पुराण का हिन्दी अनुवाद सूरत से प्रकाशित हुआ | पर मूल रूप छपा हुआ मेरे अवलोकन में नहीं आया । म० श्रभिनव धर्मभूषण धर्मभूषण नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। प्रस्तुत धर्मभूषण उनसे भिन्न है। क्योंकि इन्होंने अपने को 'अभिनव' 'यति' और 'आचार्य विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। यह मूलसंघ में नन्दिसंघस्थ बलात्कारगण सरस्वति गच्छ के विद्वान भट्टारक वर्द्धमान के शिष्य थे। विजय नगर के द्वितीय शिलालेख में उनकी गुरुपरम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार पाया जाता है- पद्मनन्दी, धर्मभूषण, अमरकीर्ति, धर्मभूषण, वर्द्धमान, और घमंभूषणः । यह अच्छे विद्वान व्याख्याता और प्रतिभाशाली थे । इनका व्यक्तित्व महान् था। विजयनगर का राजा देवराय प्रथम, जो राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित था, इनके चरण कमलों की पूजा किया करता था। राजाधिराज परमेश्वर देवराय, भूपाल मौलिलसधि सरोजयुग्मः | श्रीवर्द्धमान मुनि वल्लभ मौक्ष्य मुख्य; श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमादयः ॥ दशभक्त्यादि महाशास्त्र इस राजा देवराय प्रथम की महारानी भीमा देवी जैनधर्म की परम भक्त थो। इसने श्रवण बेलगोल को मंगायी वसदि में शान्तिनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी और दान दिया था। इसका राज्य सन् १४१६ ई० तक रहा है। विजय नगर के द्वितीय शिलालेख में जो शक सं० १३०७ (सन् १३८५) का उत्कीर्ण किया हुआ है। इससे इन धर्मभूषण का समय ईसा की १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १५वीं शताब्दो का पूर्वाधं सुनिश्चित है। इसमें मन्देह नहीं कि अभिनव धर्मभूषण अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान थे। पद्मावती देवों के शासन लेख में इन्हें बड़ा विद्वान और वक्ता प्रकट किया है । यह मुनियों और राजाओं से पूजित थे । १. शिष्यस्तस्य गुरोरासी दुधभूषण देशकः । " भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्य विवर्जितः। विजय नगर द्वि० शिलालेख "मदगुरो मानिशो वर्तमान दयानिधेः । -न्याय दीपिका प्रशस्ति श्री गद स्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्याय दीपिका ॥ २. विजयनगर का द्वितीय शिलालेख, जैन सि० भास्कर भा० १ किरण ४ पृ० ८६ ३. प्रशस्ति संग्रह, जैन सिद्धान्तभवन द्वारा पृ० १२५ | ४. मिडियावल जैनिज्म पृ० २६९ । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि न्याय दीपिका प्रापकी एकमात्र कृति 'न्यायदीपिका' है, जो अत्यन्त संक्षिप्त विशद और महत्त्वपूर्ण कृति है । यह जैन न्याय के प्रथम अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है । इसकी भाषा सुगम और सरल है। जिससे यह जल्दी ही विद्यार्थियों के कण्ठ का भूषण बनजाती है। श्वेताम्बरीथ विद्वान उपाध्याय यशोविजय जी ने इसके अनेक स्थलों को मानुपूर्वी के साथ अपना लिया है। इसमें संक्षेप में प्रमाण और नय का स्पष्ट विवेचन किया गया है। इसमें तीन प्रकाश या अध्याय हैं-प्रमालक्षण प्रकाश, प्रत्यक्ष प्रकाश और परोक्षप्रकाश । इनमें से प्रथम प्रकाश में उद्देशादि निर्देश के साथ प्रमाणसामान्य का लक्षण, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का लक्षण, इन्द्रियादिको प्रमाण न हो सकने का वर्णन, स्वतः परत: प्रमाण का निरूपण, बौद्ध भाट्ट और प्रभाकर तथा नैयायिकों के प्रमाण लक्षणादि की आलोचना और मामा के सम्यगशालवामामा का निर्दोष लक्षण स्थिर किया है। दूसरे प्रकाश में प्रत्यक्ष का स्वरूप, लक्षण, भेद-प्रभेदादि का वर्णन करते हुए प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का समर्थन कर सर्वज्ञसिद्धि प्रादि का कथन किया है। तीसरे परोक्षप्रकाश में परोक्ष का लक्षण, उसके भेद-प्रभेद साध्य-साधनादिका लक्षण, हेतु के रूप मौर पंचरूप का निराकरण, अनुमान भेदों का कथन, हेत्वाभासों का वर्णन तथा अन्त में प्रागम और नय का कथन करते हए अनेकान्त तथा सप्तभंगी का संक्षेप में प्रतिपादन किया है। ग्रन्थ में ग्रन्थ कर्ता ने रचना काल नहीं दिया। फिर भी विजयनगर के द्वितीय शिलालेख के अनुसार इनका समय ईसा की १४वीं-१५वीं शताब्दी है। म० विद्यानन्दी मूलसंघ भारतीगच्छ और बलात्कार गण के कुन्दकुन्दान्वय में हुए थे। इन्होंने अपनी पट्ट परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीति और विद्यानन्दि । श्रीमूलसङ्घ वर भारतीये गच्छे बलात्कारगणेऽतिरम्ये।। श्रीफुन्दकुन्दास्य मुनीन्द्र पट्टे जातः प्रभाचन्द्र महामुनीन्द्रः ॥ ४७ पट्टे तदीये मुनिपपनन्दी भट्टारको भव्यसरोजभानुः । आतो जगत्त्रयहितो गुणरत्न सिन्धुः कुर्यात् सतां सार सुखं यतीशः ।४८ तत्पट्टपद्माकरभास्करोऽत्र देवेन्द्रकोतिर्मुनिचक्रवर्ती। तत्पाद पोज सुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दी चरितं चकार ॥४९ -सुदर्शन चरित प्रशस्ति इनके गुरु भट्टारक देवेन्द्रकीति थे, जो सूरत की गद्दी के पटटपर थे। भट्टारक पपनन्दी का समय सं०१३८५ से १४५० तक पाया जाता है। सम्भवतः सरत की पट्ट-शाखा का प्रारम्भ इन्हीं देबेन्द्रकीति ने किया है। इन्हीं के पट्ट शिष्य विद्यानन्दी थे। सूरत के सं० १४६६ के धातु प्रतिमा लेख से जो चौबीसी मूर्ति के पादपीठ पर अंकित है, उसकी प्रतिष्ठा विद्यानन्दी गुरु के आदेश से हुई थी। सं० १४६९ से १५२१ तक की मूर्तियों के लेखों से स्पष्ट है कि वे विद्यानन्दी गुरु के उपदेश से प्रतिष्ठित हुई हैं। विद्यानन्दी के गृहस्थ जीवन का कोई परिचय मेरे अवलोकन में नहीं पाया। सं० १५१३ के मूर्तिलेख से १.सं० १४६९ वर्षे शास्त्र सुदी १० बुधे श्री भूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छ मुनि देवेन्द्रकीति तस्थिव्य श्री विधर नन्दी देवा उपदेशात् श्री हवहवंश शाह खेता भार्या रूडी एतेषां मध्ये राजा भग्नी रानी श्रेया पतुर्विशत्तिका कारापिता। (सूरत, दा० मा०प०५५ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ स्पष्ट है कि वे भ० देवेन्द्र कीर्ति के द्वारा दीक्षित थे। इन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की और करवाई। इनका कार्य सं० १४९६ से १५३८ तक पाया जाता है। पट्टावली के अनुसार इन्होंने सम्मेदशिखर, चम्पा, पावा, ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार ) आदि सिद्ध क्षेत्रों की यात्रा की थी। ये अनेक राजायों से -वज्रांग, गंगजय सिंह, व्याघ्रनरेन्द्र आदि से सम्मानित थे। इन्हें डा० हीरालाल जी ने भ्रष्ट शाखा प्राग्वाट वंश, परवारवंश का बतलाया है । इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ हमडवंशी श्रावकों की अधिक पाई जाती है। I भ० विद्यानन्दी के अनेक शिष्य थे- ब्रह्म श्रुतसागर, मल्लिभूषण, ब्रह्म अजित, ब्रह्म छाड, ब्रह्म धर्मपाल श्रादि । श्रुतसागर ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, उन्होंने अपने गुरु का आदरपूर्वक स्मरण किया है। मल्लिभूषण इनके पट्टधर शिष्य थे । ब्रह्मअजित ने भर्डीच में हनुमान चरित की रचना की। ब्रह्म छाड ने सं० १५६१ में भडच में धनकुमार चरित की प्रति लिखी । और ब्रह्म धर्मपाल ने सं० १५०५ में एक मूर्ति स्थापित की थी । इनकी दो कृतियों का उल्लेख मिलता है-सुदर्शन चरित औौर सुकुमाल चरित । सुदर्शन चरित - यह संस्कृत भाषा में लिखा गया एक चरित ग्रन्थ है जो १२ अधिकारों में विभक्त है, और जिसकी श्लोक संख्या १३६२ है । प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन मुनि के चरित के माध्यम से णमोकार मंत्र का माहात्म्य प्रदर्शित किया गया है। सुनि सुदर्शन तीर्थंकर महावीर के पांचवें अन्तकृत् केवली माने गये हैं। इनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इन्होंने घोर तपस्या करते हुए नाना उपसर्गों को सह कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर स्वात्म लब्धि को प्राप्त किया है। ग्रन्थ में सुदर्शन मुनि के पांच भवों का वर्णन सरल संस्कृत पद्यों में किया गया है। णमोकार मन्त्र के प्रभाव से गोपन सेड सुदर्शन के रूप में जन्म लिया, खूब वैभव मिला, किन्तु उसका उदासीन भाव से उपभोग किया। घोर यातनाएं सहनी पड़ी, पर उनका मन भोग विलास में न रमा, और न परीषह उपसर्गों से भी रंचमात्र विचलित हुए। श्रात्म संयम के उच्चादर्श रूप में वीतरागता और सर्वज्ञता प्राप्त कर अन्त में शिवमणी को वरण किया। सेठ सुदर्शन की यह पावन जीवन-गाथा प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश के ग्रन्थों में अंकित की गई है। दूसरी रचना सुकुमाल चरित्र को मुमुक्षु विद्यानन्दी की कृति बतलाया है, देखो, टोडारायसिंह भण्डार सूची, जैन सन्देश शोघांक १० पृ० ३५६ । ग्रन्थ सामने न होने से इसके सम्बन्ध में कुछ लिखना सम्भव नहीं है। इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । भट्टारक श्रुतकीर्ति श्रुतीति नन्द संघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के विद्वान थे । यह भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य और त्रिभुवन कीर्ति के शिष्य थे । ग्रन्थकर्ता ने भ० देवेन्द्रकीति को मृदुभाषी और अपने गुरु त्रिभुवनकीर्ति को श्रमृत वाणी रूप सद्गुणों के धारक बतलाया है। श्रुतकीर्ति ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को अल्प बुद्धि लाया है । कवि की उक्त सभी रचनाएं वि० सं० १५५२ और १५५३ में रची गई हैं और वे सब रचनाएं मांडवगढ़ (वर्तमान मांडू) के सुलतान गयासुद्दीन के राज्य में दमोवा देश के जेरहट नगर के नेमिनाथ मन्दिर में 'रची गई है। इतिहास से प्रकट है कि सन् १४०६ में मालवा के सूबेदार दिलावर खां को उसके पुत्र अलफ खां ने विष देकर मार डाला था, और मालवा को स्वतन्त्र उद्घोषित कर स्वयं राजा बन बैठा था । उसकी उपाधि हुशंगसाह १. सं० १५१३ वर्ष वैशाखसुदी १० बुधे श्री मूलसंबे बलात्कार गरी सरस्वती गच्छे भ० श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ नन्दी सतुशिष्य श्री देवेन्द्रकीर्ति दीक्षिकार्य श्री विद्यानन्दी गुरूपदेशात् गांधार वास्तव्य हुबड ज्ञातीय समस्त श्री संघेन कारापित मेरुशिखरा कल्याण नूयात् । (सूरत दा० मा० पु० ४३ ) २. जंन सि० भा० १० पृ० ५१ ३. भट्टारक सम्प्रदाय पू० १६ : Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ व १६२ और भट्टारक और कवि XIX थी । इसने मांडवगढ़ को खूब मजबूत बनाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाई थी। उसी के वंश में गयासुद्दीन, हुआ, जिसने मांडवगढ़ से मालवा का राज्य सं० १५२६ से १५५७ अर्थात् सन् १४६६ से १५०० ई० तक किया है'। इसके पुत्र का नाम नसीरशाह था, और इसके मन्त्री का नाम पुंजराज था जो वणिक और वैष्णव धर्मानुयायी था, संस्कृत भाषा का अच्छा विद्वान कवि और राजनीति में चतुर था। जैन धर्म तथा जैन विद्वानों से प्रेम रखता था । भट्टारक श्रुतकीति की तीन कृतियां पूर्ण और चोथी कृति अपूर्णरूप में उपलब्ध है। हरिवंशपुराण परमेष्ठी प्रकाशसार और जोगसार । चौथी कृति का नाम 'धर्म परीक्षा है, जो डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् को प्राप्त हुई है । हरिवंशपुराण इसमें ४७ सन्धियां है जिनमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। प्रसंग वश उसमें श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियों का संक्षिप्त जीवन चरित्र भी दिया हुआ है । इस ग्रन्थ की दो प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं। एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन भारा में हैं, और दूसरी आमेर के भट्टारक महेन्द्र कीर्ति के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जो सम्वत् १६०७ की लिखी हुई है और जिसका रचना काल सम्बत् १५५२ हैं'। जो जेरहट नेमिनाथ मन्दिर में गयासुद्दीन के राज्य काल में रचा गया है। आरा की प्रति सं० १५५३ की लिखी हुई है और जिसमें ग्रन्थ के पूरा होने का निर्देश है, जो मण्डपाचल (मांडू ) दुर्ग के शासक गयासुद्दीन के राज्य काल में दमोवा देश के जेरहट नगर के महाखान और भोजखान के समय लिखी गई है' । ये महाखान भोजखान जेरहट नगर के सूबेदार जान पड़ते हैं। वर्तमान में जेरहट नाम का एक नगर दमोह के अन्तर्गत है । दमोह पहले जिला रह चुका है। बहुत सम्भव है कि दमोह उस समय मालव राज में शागिल हो । कवि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-नन्दिसंघ बलात्कारगण, बागेश्वरी (सरस्वती) गच्छ में, प्रभाचन्द्र, पद्मतन्दी शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दि, पचनन्दि (द्वितीय), देवेन्द्र कीति (द्वितीय), त्रिभुवन कीर्ति, श्रुतकीर्ति परमेष्ठी प्रकाशसार इस ग्रन्थ की एकमात्र प्रति आमेर ज्ञानभण्डार में उपलब्ध हुई है जिसके श्रादि के दो पत्र और अन्त का एक पत्र नहीं है, पत्र संख्या २८८ है । ग्रन्थ में सात परिच्छेद या अध्याय हैं जिनकी श्लोक संख्या तीन हजार के प्रमाण को लिए हुए है । ग्रन्थ का प्रमुख विषय धर्मोपदेश है, इसमें सृष्टि और जीवादि तत्वों का सुन्दर विवेचन । कवि ने इस ग्रन्थ को भी उक्त मांडवगढ़ के जेरहट नगर के प्रसिद्ध नेमीकडवक और घता शैली में किया गया श्वर जिनालय में बनाया है। उस समय वहां गयासुद्दीन का राज्य था और उसका पुत्र नसीरशाह राज्य कार्य में मनु १. See Combridge Shorter History of india P.309 २. संवतु विक्कम सेण खरेसह सहसु पंचसय बावसेसई । मंडवगड वर मालवदेसह साहि गयासु पयाव असेस' । खयर जेरहट जिहिर जंगड, मिसाह जिरपबित्र बभंग । - जैन ग्रन्थ प्रश० मा० २५० ] ३. सं० १५५३ वर्षे तदार वदि द्वजसुदि ( द्वीतीय ) गुरी दिने अह मण्डपाचलगढ़ दुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमनादेवो महाखान भोजखान प्रवर्तमाने जेरहट स्थाने सोनी श्री ईसुर प्रवर्तमाने श्री मूलसंघ बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दि देवतस्य शिष्य मण्डलाचार्य देविदकीतिदेव तच्छिष्य मण्डलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्ति देवान् तस्य शिष्य श्रुतकीर्ति हरिवंश पुराणे (से) परिपूर्ण कृतम् -आरा प्रति *}" 9 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भांग २ ५.१६ राम रखता था । पुंजराज नाम का एक वणिक उसका मन्त्री था। ईश्वर दास नाम के सज्जन उस समय प्रसिद्ध थे । जिनके पास विदेशों से वस्त्राभूषण आते थे, जयसिह, संघवी शंकर और संघपति नेमिदास उक्त अर्थ के ज्ञायक थे । अन्य साधर्मी भाइयों ने भी इसकी अनुमोदना की थी और हरिवंशपुराणादि ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराई थी । प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम सं० १५५३ के श्रावण महीने की पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त हुआ था । जोगसार प्रस्तुत ग्रन्थ दो संधियों या परिच्छेदों में विभक्त है जिनमें गृहस्थोपयोगी आाचार सम्बन्धी संद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनि चर्या आदि के सम्बन्ध में भी लिखा गया है । ग्रन्थ के अन्तिम भाग में भगवान महावीर के बाद के कुछ आचार्यों की गुरु परम्परा के उल्लेख के साथ कुछ ग्रन्थकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया गया है, और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भट्टारक त कीति इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ थे और उसे जानने का उन्हें कोई साधन भी उपलब्ध न था, जितना कि भाज उपलब्ध है । दिगम्बर श्वेताम्बर संघभेद के साथ आपुलीय ( यापनीय) संघ मिल्ल और निःपिच्छक संघ का नामोल्लेल किया गया है । और उज्जैनी में भद्रबाहु से सम्राट चन्द्रगुप्त की दीक्षा लेने का भी उल्लेख है । ग्रन्थकार संकीर्ण मनोवृत्ति को लिए था, वह जैनधर्म की उस उदार परिणति से भी अनभिज्ञ था, इसीसे उन्होंने लिखा है कि- 'जो आचार्य शूद्रपुत्र और नोकर वगैरह को व्रत देता है वह निगोद में जाता है और अनन्त काल तक दुःख भोगता है' । प्रस्तुत ग्रन्थ सं० १५५२ में मार्गशिर महीने के शुक्ल पक्ष में रखा गया है। इसकी अन्तिम प्रशस्ति में 'धर्म परीक्षा' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जिरासे वह इससे पूर्व रची गई हैं । कवि की चौथी कृति 'धम्म परिषखा' धर्मपरीक्षा है। जिसकी एक अपूर्ण प्रति डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट्को प्राप्त हुई थी। उसमें १७६ कडबक है, उसे सम्वत् १५५२ में बना कर समाप्त किया था। जिस का परिचय उन्होंने 'अनेकान्त' वर्ष १२ किरण दो में दिया था। इन चारों ग्रंथों के अतिरिक्त कवि की अन्य भी कृतियां होगी, जिनका अन्वेषण करना श्रावश्यक है । कवि माणिक्य राज यह जैसवाल कुलरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये तरणि (सूर्य) थे । इनके पिता का नाम 'बुधसूरा' था और माता का नाम 'दीवा' था । कवि ने अमरसेन चरित में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है-क्षेमकीति, मकीर्ति कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दी । ये सब भट्टारक मूलसंघ के अनुयायी थे। कवि के गुरु पद्मनन्दी थे, जो बड़े तपस्वी शील को खानि निर्ग्रन्थ, दयालु और अमृतवाणी थे। अमरसेन चरित की अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने पद्मनन्दी के एक शिष्य का और उल्लेख किया है, जिनका नाम देवनन्दी था और जो श्रावक की एकादश प्रतिमाओं के संपालक, राग द्वेष के विनाशक, शुभप्यान में अनुरक्त और उपशमभावी था। कवि ने अपने गुरु का अभिनन्दन किया है। कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं । कवि ने रोहतासपुर के जिनमंदिर में निवास करते हुए ग्रन्थों की रचना की है और दोनों ग्रन्थ ही अपूर्ण है । उनमें प्रथम भ्रमरसेन चरित का रचनाकाल वि० सं० १५७३ चैत्रशुक्ल पंचमी १. अह जो सूरि देइ उणिस्वहं नीच सूद-सुय दासभिच्चहं । जयजियोग असुहअणु हुन्जई, अभिय कालतहं घोर द्रुह भुजद्द | २. विक्कम राय बनगइ कालई, पण्णरह सयते बावण अहिई । रयज गंधु तं जाउ स उण्णज, पंच दासस जायज ३. सिरि जयसवाल-कुल-कमल-तर्रारण, इक्ष्वाकु वंस महिलि वरिठ, बुहसरा गंदणु सुख परिदृ । पण दीवा उररवण्णु, बहुमाणिकुरणा में दुहाहि मण्णु ।" - योगसार पत्र ६५ -- जोग-सार प्रशस्ति - नागकुमार चरित प्र० Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ौं, १६वी, १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और काय शनिवार है। और दूसरे ग्रन्थ नागकुमार परित्र का रचनाकाल सं. १५७९ है अतः कवि विक्रम को १६वों शताब्दी के तृतीय चरण के विद्वान हैं। अमरसेन चरित्र इस ग्रन्थ में सात सन्धियो या परिच्छेद हैं, जिनमें प्रमरसेन की जीवन गाथा दी हई है। राजा अमरसेन धर्मनिष्ठ और संयमी था। इसने प्रजा का पुत्रवत पालन किया था। वह देह-भोगों से उदास हो प्रास्म-साधना के लिये उद्यत हुमा । उसने राज्य और वस्त्राभूषण का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले ली और शरीर से भी निस्सह हो अत्यन्त भीषण तपश्चरण किया। प्रात्मशोधन की दृष्टि से अनेक यातनाओं को साम्यभाव से सहा । उनकी कठोर साधना का स्मरण माते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह १६वीं शताब्दी का अपभ्रश भाषा का .अच्छा खण्डकाव्य है। मामेरशास्त्र भंडार की इस प्रतिका प्रथम पत्र त्रुटित है। प्रति सं० १५७७ कार्तिक वदी चतुर्थी रविवार को सुनपत में लिखी गई है। यह ग्रन्थ रोहतासपुर के अग्रवाल वन्शी सिंघल गोत्रो साहु महण के पुत्र चौधरी देवराज के अनुरोध से रचा गया है और उन्हीं के नामांकित किया गया है। प्रशस्ति में इनके वंश का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। नागकुमार चरित्र दसरी रचना नागकमार चरित है। जिसमें चार सन्धियां हैं जिसकी श्लोक संख्या ३३०० के लगभग है। जिनमें नागकुमार का पावन चरित अंकित किया गया है। चरित वही है जिसे पुष्पदंतादि कवियों ने लिखा है। उस में कोई खास वैशिष्टय नहीं पाया जाता। ग्रन्थ की भाषा सरल और हिन्दी के विकास को लिये हुए है। इस खण्डकाव्य के भी प्रारम्भ के दो पत्र नहीं हैं। जिससे प्रति खण्डित हो गई है। उससे पाद्य प्रशस्ति का भी कुछ भाग बृटित हो गया है। कवि ने यह ग्रन्थ साहू जममी के पुत्र साहू टोडरमल की प्रेरणा से बनाया है। साहू टोडरमल का वंश इक्ष्वाकु था और कुल जायसवाल । टोडरमल धर्मात्मा या वह दानपूजादि धार्मिक कार्यों में सलग्न रहता था । और प्रकृतित: दयालु था। कवि ने अन्य उसी के अनुरोध से बनाया है, और उसी के नामांकन किया है। प्रन्थ की कुछ सन्धियों में कतिपय संस्कृत के पद्य भी पाये जाते हैं, जिनमें साह टोडरमल का खला यशोगान किया गया है। उसे कर्ण के समान दानी, विद्वज्जनों का सम्पोषक, रूप लावण्य से युक्त और विवेकी बतलाया है। कदि ने चौथी संधि के प्रारम्भ में साहू टोडरमल का जयघोष करते हुए लिखा है कि वह राज्य सभा में मान्य १. विकाम रापहु ववगम कालई । लेसु मुणीस विसर अकालई! धरणि बकसह चइत विमासे, सरिणवारे सुय पंचमी दिवसे। -अमरसेन प० प्रश. २. यादय या जायस वंश का इतिहास प्राचीन है। परन्तु उसके सम्बन्ध में कोई अन्वेषण नहीं हुआ। जैसा से जैसवालों की कल्पना की गई है किन्तु ग्रन्थ प्रशस्तियों में यादव, जायस आदि नाम मिलते हैं, अत: इन्हें यदुवंशियों की सन्तान बताया जाता है। उसी यदु या यादव का अपभ्रश जादव या जायस जान पड़ता है। यदु एक क्षत्रिय राजवंश है, उसका विशाल राज्य रहा है। शौरीपुर से लेकर मथुरा और उसके आस-पास के प्रदेश उसके द्वारा शासित रहे हैं। यादव वंशी जरासंघ के भय से पौरीपुर को छोड़कर द्वारावती (द्वारिका) में बस गये थे। श्रीकृष्ण का जन्म यदुकुल में हुआ या, और जैनियों के २२२ तीर्थकर नेमिनाथ का जन्म भी उसी कूल में हुमा था, वे कृष्ण के परे भाई थे। जायस वंश में अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए हैं। अनेक ग्रन्यकर्ता, विद्वान, धेष्ठी राजमान्य तथा राजमन्त्री भो रहे हैं। उनके . द्वारा जिन मन्दिरों का निर्माण और प्रतिष्ठादि कार्य भी सम्पन्न हुए हैं। प्रस्तुत टोडरमल और कवि मणिक राम उसी वंश के वंशज हैं। ३. "जइसवाल कुल संपन्नः दान-पूय-परायणः । जगसी नन्दनः श्रीमान् टोडरमल चिरं जियः ॥" Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E था, प्रखण्ड प्रतापी, स्वजनों का विकासी घोर पुत्रां से अलंकृत था । यथा नृपति सबसि मान्यो यो ह्यखण्ड प्रतापः स्वजन जनविकासी सप्ततत्त्व विभासी । विमल गुणनिकेत म्रात् पुत्रो समेतः, स जयति शिवकामः साधु टोडहत्ति नामा ॥ कवि ने इस ग्रन्थ को पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथ में दिया तब उसने उसे अपने शिर पर रखकर afa माणिक्य राज का खूब आदर सत्कार किया। उसने कवि को सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त कण कुण्डल और मुद्रिका यादि आभूषणों से भी अलंकृत किया था। उस समय गुणी जनों का आदर होता था । किन्तु बाज गुणी जनों का निरादर करने वाले तो बहुत हैं किन्तु गुण ग्राहक बहुत ही कम हैं; क्योंकि स्वार्थ तत्परता और ग्रहंकार ने उसका स्थान ले लिया है। अपने स्वार्थ तथा कार्य की पूर्ति न होने पर उनके प्रति श्रादर की भावना उत्पन्न हो जाती है । 'गुण न हिरानो किन्तु गुण ग्राहक हिरानों' की नीति के अनुसार खेद हैं कि आज टोडरमल जैसे गुण ग्राहक धर्मात्मा श्रावकों की संख्या विरल है - वे थोड़े हैं । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १५७६ फाल्गुन शुक्ला ६वीं के. दिन पूर्ण की हैं। जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ कवि तेजपाल यह मूलसंघ के भट्टारक रत्नकीर्ति भुवनकीर्ति, धर्मकीर्ति और विशालकीर्ति की आम्नाय का विद्वान था । वासवपुर नामक गांव में वस्तावयह वंश में जाल्हड नाम के एक साहु थे। उनके पुत्र का नाम सूजउसाहु था। जो दयावंत और जिनधर्म में अनुरक्त रहता था। उसके चार पुत्र थे- रणमल, बल्लाल, ईसरु और पोल्हणु । ये चारों भाई खण्डेलवाल कुल के भूषण थे । प्रस्तुत रणमल साहु के पुत्र ताल्हूय साहु हुए। उनका पुत्र कवि तेजपाल था । तीन नावाचे गए हैं, जो अभी अप्रकाशित हैं। कवि का समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । कवि की तीन रचनाओं के नाम संभवणाह चरिउ, वरांग चरिउ, और पासणाह चरिउ 1 १ संभवणाह चरिउ इस ग्रन्थ में छह संधियां और १७० कड़वक हैं, जिनमें जैनियों के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ का जीवन परिचय दिया गया है। रचना संक्षिप्त और बाह्याडंबर से रहित है। इस खण्ड काव्य में तीर्थकर चरित को सीधे सादे शब्दों में व्यक्त किया गया है । प्रस्तुत ग्रंथ की रचना में प्रेरक अग्रवाल वंशी साहु थीरहा हैं जिनका गोत्र मित्तल था, और जो श्रीप्रभनगर के निवासी थे। श्रील्हा साहु लखमदेव के चतुर्थ पुत्र थे। इनकी माता का नाम महादेवी था और धर्मपत्नी का नाम कोल्हाही था, दूसरी भार्या का नाम मासाही था। जिससे त्रिभुवनपाल और रणमल नाम के दो पुत्र हुए थे । साहु यील्हा के पांच भाई और थे, जिनके नाम खिउसी, होल्लू दिवसी मल्लिदास, और कुन्यदास हैं । ये सभी भाई धर्मनिष्ठ, नीतिमान तथा जैनधर्म के उपासक थे । लखमदेव के पितामह साहु होलू ने जिनविम्ब प्रतिष्ठा कराई थी, उन्हीं के वंशज बील्हा के अनुरोध से कवि तेजपाल ने संभवनाथ चरिउ की रचना भादानक देश के श्रीप्रभनगर में दाउद शाह के राज्य काल में की थी । ग्रन्थ रचना का समय संभवतः १५०० के ग्रास-पास का होना चाहिये । २ वरांग चरिज दूसरी रचना 'वरांगचरिउ' है, जिसमें चार संधियां है। उनमें राजा वरांग का जीवन परिचय श्रंकित किया गया है । राजा दरांग यदुवंशी तीर्थंकर नेमिनाथ के शासन काल में हुए हैं। राजा वरांग का चरित बड़ा सुन्दर रहा १. "चिक्क मराय वयगय कालें, ले समुरणीस विसरभकाले । पण रहसइ गुष्णासि जरवाले, फागुण चंदिण परिख ससिवालें । मी सुखसुहवाले, सिरि पिरथी चन्दु पसायें सुंदरें ॥" - नागकुमार चरित प्र० Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J १५, १६, १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, मट्टारक श्रीर कवि ५१६ है । रचना साधारण और संक्षिप्त है, और भाषा हिन्दी के विकास को लिये हुए है । कवि तेजपाल ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १५०७ वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन समाप्त किया है । और उसे विपुलकीर्ति मुनि के प्रसाद से बनाया था। ३ पासणाह चरिउ तीसरी रचना पार्श्वनाथ चरित है। यह भी एक खण्ड काव्य है, जो पद्धडिया छन्द में रचा गया है। श्रीर जिसे कवि यदुवंशी साहु घूघल की अनुमति से बनाया था। यह मुनि पद्मनन्दि के शिष्य शिवनंदि भट्टारक की आम्नाय के थे। जिनधर्म रत, श्रावकधर्म प्रतिपालक, दयावंत और चतुर्विधसंघ के संघोषक थे। मुनि पद्मनन्दि ने शिवनंदी को दिगम्बर दीक्षा दी थी। दीक्षा से पूर्व इनका नाम सुरजनसाहु था जो लंबकंचुक कुल के थे। जो संसार से विरक्त और निरंतर भावनाओं का चितवन करते थे । उन्होंने दीक्षा लेने के बाद कठोर तपश्चरण किया, मासोपबास किये, तथा निरंतर धर्मध्यान में संलग्न रहते थे। बाद में उनका स्वर्गवास हो गया। प्रशस्ति में सुरजन साहु के परिवार का भी परिचय दिया है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित वही है, जो अन्य कवियों ने लिखा है, उसमें कोई वैशिष्ट्य देखने में नहीं मिलता । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५१५ कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन समाप्त की थी । " पणरह सय पणरह महियएहि पंचमिय किण्ह् कसिय हो मासि । कवि ने संधि वाक्य भी पद्य में दिये हैं एसिय जिसंच्छर गएहि । वारे समसउ सरय भासि ॥" सिरि पारस चरित रहयं वुह तेजपाल सानंद | प्रणु मणियं सुहृद्दं घूषलि सिवदास पुसेण ॥१ देवानरयण विट्ठी वम्माए बीएसोल सो दिट्ठो । सोहण पढमो संधि इमो जाओ ॥१२ सोमकीति काष्ठासंघ के नन्दीतट गच्छ के रामसेनान्वयी भट्टारक लक्ष्मीसेन के प्रशिष्य मोर भीमसेन के शिष्य थे । कवि सोमकीर्ति की संस्कृत भाषा की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-सप्त व्यसन कथा-समुच्चय, प्रद्युम्न चरित्र मौर यशोधर चरित्र | सप्त व्यसन कथा समुजय - में दो हजार सड़सठ श्लोकों में धूतादि सप्त व्यसनों का स्वरूप मौर उनमें प्रसिद्ध होने वालों की कथा देते हुए उनके सेवन से होने वाली हानि का उल्लेख किया है, और उनके त्याग को श्रेष्ठ बतलाया है । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५२६ में माघ महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा सोमवार के दिन पूर्ण की है । प्रद्युम्नचरित्र —– दूसरी रचना है। जिसमें ४८५० श्लोकों में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन परिचय कित किया है। इस ग्रन्थ में सोलह अधिकार हैं। अन्तिम अधिकार में प्रद्युम्न शंवर और मनुरुद्ध आदि के निर्वाण १. सम पमाय संवद्ध खीणइ, पुणु सत्तगल सब बोलीणइ । वसाह हो कि वित्तमिदिणि, किस परिपुष्णउ जो सुह महर - भुणि ॥ २. रसनयनसमेते बाण युक्तेन चन्द्रे (१५२६) गतिवति सति नूनं विक्रमस्यैव कासे । -बरांग चरिउ प्र० प्रतिपदि घवलायां माघ मासस्य सोमे । हरिम दिन मनोशे निर्मितो ग्रन्थ एषः ॥ ७१ ॥ (सप्त ध्वसन कया समुच्चय प्र०) Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्राप्त करने का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने संवत् १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशी बुधवार के दिन भीमसेन के प्रसाद से बना कर समाप्त की थी। यशोधरचरित - यह कवि की तीसरी रचना है, इसमें राजा यशोधर और चद्रमती का जीवन परिचय अंकित किया गया है | इसमें १०१८ श्लोक हैं । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने संवत् १५३६ में मेदपाठ (मेवाड़) के गोंढिल्य नगर के शीतल नाथ मन्दिर में पौष कृष्णा पंचमी के दिन बनाकर समाप्त की है। इनके अतिरिक्त कवि की हिन्दी राजस्थानी भाषा की कई रचनाएं हैं। उनमें यशोधर रास १५३६ में बनाया । ऋषभनाथ की धूल, त्रेपन क्रिया गीत आदि रचनाएं भी इनकी बनाई हुई कही जाती हैं। सोमकीति कवि १६वीं शताब्दी के द्वितीय चरण के विद्वान है । प्रजित ब्रह्म 1 मूलसंघ के भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। यह गोलश्रृंगार (गोल सिंघाडे) वंश में उत्पन्न हुए थे । इनके पिता का नाम बीरसिंह और माता का नाम बीघा था। यह भट्टारक देवेन्द्र कोति के दीक्षित शिष्य थे श्रौर ब्रह्मति के नाम से लोक में प्रसिद्ध थे। इन्होंने विधानन्दि के आदेश से 'हनुमान' चरित की रचना दो हजार श्लोकों में की थी । हनुमान पवनंजय का पुत्र था, बड़ा बलवान तथा वीर पराक्रमी था। इसकी माता का नाम अंजना था, जो राजा महेन्द्र की पुत्री थी । कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, किन्तु ग्रन्थ के रचना स्थल का उल्लेख किया है । और हनुमान के चरित को पाप का नाशक बतलाया है। कवि ने इस चरित की रचना भृगुकच्छ ( भडोच ) के नेमिनाथ जिनमन्दिर में की है । कवि ने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द, जिनसेन, समन्तभद्र, प्रकलंक, नेमिचन्द्र, और पद्यनन्दि आदि पूर्ववर्ती भाचार्यों का स्मरण किया है। इस ग्रंथ की सं० १५६६ की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति लाला विलासराय पंसारी टोला इटावा के मंदिर के शास्त्रभंडार में मौजूद है। इससे इस ग्रंथ की रचना उससे पूर्व ही हुई है । कल्याणालोचना - नाम की एक रचना उपलब्ध है, जिसमें ५४ पद्यों में आत्मकल्याण की आलोचना की गई है । ग्रन्थ में आत्मसम्बोधन रूप से अपनी भूलों प्रथवा अपराधों की विचारणा करते हुए अपने से जो दुष्कृत बने हैं। जिन-जिन जीवादिकों की जिस तिस प्रकार से विराधना हुई है, उसके लिये 'मिच्छामे दुक्कडं हुज्ज' वाक्यों द्वारा खेद व्यक्त किया गया है। स्वभावसिद्ध ज्ञान दर्शनादि रूप एक आत्मा को एक परमात्मा का ही शरण है, अन्य कोई शरण नहीं है । 'अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा' शब्दों द्वारा उसकी घोषणा की है। यह रचना भी अजित ब्रह्म की है। संभवतः यह रचना इन्हीं मजित ब्रह्म की है। इन अजित ब्रह्म का समय विक्रम की १६वीं दशताब्दी है । १. जैनेन्द्र शासन सुधारस पानपुष्टो देवेन्द्रकोत्ति यतिनायक नैष्ठिकारमा | तच्छिष्म संयम धरेण चरित्रमेतत् सृष्टं समीरणसुतस्य महद्धिकस्य ॥ ६१ ॥ २. गोला श्रृंगारवंशे नमसि दिनमरिण वीरसिंहों विपश्चित् । भार्या दोघा प्रतीता तनुरूह विदितो ब्रह्मदीक्षाश्वितोऽभूद् । तेनी रेष ग्रन्थः कृति इति सुतरां शैलराजस्य सूरेः । श्री विद्यानन्द देवात् सुकृत विधिवशात्सर्वसिद्धि प्रसिद्ध ॥९६ १. संवत्सरे सत्तिथि संज्ञके वे वर्षे त्र त्रिशंक युते (१५३१) पवित्रे | विनिर्मितं पोषसुदेवच (?) तस्या त्रयोदशीया बुधवार युक्ता ॥१६६ ४. वर्षे शिसंख्ये तिथि परगणना युक्त संवत्सरे (१५३६) पंचम्यां पौष कृष्ण दिनकर दिवसे भीतरस्थे हि चन्द्रं । गोंडिल्यां मेदपाटे जिनवरभवने शीतस्य रम्ये । सोमादि कीर्तिनेदं नृपवर परितं निर्मितं शुद्धभवत्या ।। ६२ । - हनुमान चरित प्रशस्ति - हनुमान चरित प्रशस्ति — जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भाग १ पृ० ६१ — जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा० १५० १०६ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वों, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५२१ कवि ठकुरसी प्रस्तुत कवि चाटसू (वर्तमान चम्पावती) नगरी के निवासी थे। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र 'अजमेरा' था । ठकुरसी के पिता का नाम 'घेल्ह' था जो कवि थे। इनकी कबिता मेरे अवलोकन में नहीं पाई, किन्तु कवि ने पंचेन्द्रिय वेलि' के प्रतिम पद के 'कवि-घेल्ह सूतन् गुण गाऊँ' वाक्य में उन्हें स्वयं कवि ने सूचित किया है । कवि के पुत्र का नाम नेमिदास था, जिसने मेघमाला व्रत का भावना की थी। कवि की रचनामों का काल सं. १५७८ से १५८५ है । मेघमाला बय कथा अपभ्रंश भाषा में रची गई है, किन्तु टोप रचनाएं हिन्दी भाषा के विकास को लिये हुए हैं । कृपण चरित्र, पंचेन्द्रिय बेल, नेमि राजमती वेल और जिन चउवीसी। मेघमाला ब्रत कथा-इसमें ११५ कडवक है जो लगभग १५ श्लोंकों के प्रमाण को लिये हुए हैं। इस मेघमालायत के अनुष्ठान की विधि और उसके फल का वर्णन किया है। इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद नाम की प्रतिपदा से किया जाता है। व्रत के दिन उपवास पूर्वक जिनपूजन अभिषेक, स्वाध्याय और सामायिक प्रादि धार्मिक प्रनष्ठान करते हुए समय व्यतीत करना चाहिए । इस व्रत को पांच प्रतिपदा, और पांच वर्ष तक सम्पन्न करना चाहिए । पश्चान उसका उद्यापन करे । यदि उद्यापन को शक्ति न हो तो दुगने समय तक व्रत करना चाहिए। इस व्रत का अनष्ठान चाटस् (सम्पावती) नगरी के श्रावक-याविकायों ने सम्पन्न किया था। उम ममय राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहां पाश्वनाथ का सुन्दर जिनालय था और तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र भो (जिनकी दीक्षा नं १५५१ में हुई थी) मौजद थे। जो गणधर के ममान भव्यजना को धर्मामन का पान करा रहे थे । वहाँ खण्डेलवाल जाति के अनेक धावक रहते थे। उनमें 40 माल्हा पूत्र कवि मलिदाम ने कवि ठकुरसी को मेघमाला व्रत की कथा के कहने को प्रेरणा की थी। वहाँ के श्रावक सदा धर्म का अनुष्ठान करते थे। हाथ साह नाम के एक महाजन और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने 'मेघमाला' व्रत को करना चाहिए, इसका संक्षिप्त वर्णन किया । वहाँ तोपक, माल्हा और मल्लिदास ग्रादि विद्वान भी रहते थे। श्रावकजनों में प्रमुख जीगा, ताल्हू, पारस, नमिदास, नाथसि, भुल्लण और वडली आदि ने इस व्रत का अनुष्ठान किया था। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १५८० प्रथम श्रावण शुक्ला छट के दिन पूर्ण किया था। कवि ने सं०१५७८ में 'पारस श्रवण सत्ताइसी' नाम की एक कविता लिखी थी, जो एक ऐतिहासिक घटना को प्रकट करती है। और कवि के जीवन काल में घटी श्री. उसका कदि ने अाँखों देखा वर्णन किया है । कवि की सभी रचनाए” लोकप्रिय और सरल है। ब्रह्म जीबंधर यह माथुर संघ विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक यशकीति के शिष्य थे। ग्राप संस्कृत और हिन्दी भाषा के भयोग्य विद्वान थे। प्रापकी संस्कृत भाषा की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि वे लघुकाय हैं किन्तु महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें पहली कृति 'चविंशति तीर्थकर स्तवन जयमाल हैं। इसका परलोकन करने से ज्ञात होता है कि जीबंधर संस्कत भाषा में सून्दर कविता कर सकते थे। पाठक पार्श्वनाथ और महावीर स्तवन-विषयक निम्न दो पद्य पढ़ें। जो भावपूर्ण और सरस एवं सरल हैं : "विधुरित विघ्नं पार्श्वजिनेशं दुरित तिमिरभर हनन दिनेशम् । प्रज्ञान म तीव्रकठारं वांछित सुखदं कक्षणाधारं ॥ 'जीवंधर' नुत-चरण सरोज विकसित निर्मल कोलिपयोजम । कल्याणीवपकवलोकन्द, बन्चे वीरं परमानन्धम् ॥ दूसरी संस्कृत रचना 'श्रुतजयमाला' है, जिसमें प्राचाराङ्ग प्रादि द्वादश अंगों का परिचय दिया गया है। १. देखो अनेकान्त वर्ष १५ किरण ४ में प्रकाशित 'चतुविशति तीर्थ कर-जयमाला।' सन् १९६२ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रचना सुन्दर और संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इनके अतिरिक्त कवि की दस रचनाएं हिन्दी भाषा की उपलब्ध हैं, जिनका परिचय 'राजस्थान जैन साहित्य परिषद्' की सन् १९६७-६८ की स्मारिका पृष्ठ पर लेखक ने दिया है। जो 'राजस्थान के संत ब्रह्म जीबंधर' नाम से मुद्रित हुआ है । कवि की उन रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं-गुणठाणावेलि, खटोला रास, झुबक गोत, मनोहर, रास या नेमिचरित रास, सतीगीत, बीस तीर्थकर जयमाला. बीस चौबीसी स्तुति, ज्ञान विरगा विनति मुक्तावली रास और पालोचना प्रादि । रचनाएँ सुन्दर और सरल हैं। ब्रह्म जीवंधर विक्रम की १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के विद्वान हैं। इन्होंने सं० १५६० में बैसाख वदी १३ सोमवार के दिन भट्टारक विनयचन्द्र की स्वोपज्ञ चुनड़ी टीका की प्रतिलिपि अपने ज्ञानाबरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। इससे इनका समय १६वीं शताब्दी का उत्तराखं सुनिश्चित है। ___पं० नेमिचन्द (प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता) यह देवेन्द्र और प्रादि देवी के द्वितीय पुत्र थे। इनके दो भाई और भी थे जिनका नाम पादिनाथ और विजयम था। इन्होंने अभयचन्द्र उपाध्याय के पास तर्क व्याकरणादि का ज्ञान प्राप्त किया था। नेमिचन्द्र के दो पुत्र थे-कल्याणनाथ और धर्मशेखर । दोनों ही विद्वान थे। नेमिचन्द्र ने सत्यशासन मुख्य प्रकरणादि ग्रन्थ रचे । प्रतिष्ठा तिलक को इन्होंने अपने मामा ब्रह्मसूरि के आदेश से बनाया था। कवि ने उस में अपने कुटुम्ब की दश पीढ़ियों तक का परिचय दिया है, किन्तु उसमें रचनाकाल नहीं दिया। पर प्रतिष्ठा तिलक का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनही यह सपना पंआपके रहत पाद रची गई है। संभवतः यह रचना १५वीं शताब्दी की है। ग्रंथ सामने न होने से उस पर विशेष विचार नहीं किया जा सकता। कवि धर्मधर पं० धर्मधर इक्ष्वाकु वंश के गोलाराडान्वयी साहु महादेव के प्रपुत्र मोर पं. यशपाल के पुत्र थे। यशपाल कोविद थे। उनकी पत्नी का नाम 'हीरा देवी' था । उससे भव्य लोगों के बल्लभ रत्नत्रय के समान तीन पुत्र थे, उनमें दो ज्येष्ठ और लघु पुत्र धर्मधर थे। विद्याधर, देवघर और धर्मधर । इनमें विद्याधर और देवघर धावकाचार के पालक और परोपकारक थे और धर्मघर धर्म कर्म करने वाला था ! धर्मधर की पत्नी का नाम 'नन्दिका'पा जो शीलादि सद्गुणों से अलंकृत थी । उससे दो पुत्र और तीन पुत्री उत्पन्न हुई थी। पुत्रों का नाम पाराशर पौर मनसुख था'। इस तरह कवि का परिवार सम्पन्न था। कवि ने मूल संघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक पप्रनन्दी, शुभचन्द्र पौर भट्टारक जिनचन्द्र का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि कवि मूल संघ की आम्नाय का था। उसने पचनन्दी योगी से विद्या प्राप्त की थी और वह उन्हें गुरु रूप से मानता था। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का पूर्वाध है क्योंकि कवि ने नागकुमार १. कोषिवः यशपालस्य समभूत्तनु-जगत्रयं । वल्लभं भव्यलोकानां रत्नत्रयमिवापरं ॥२॥ वैयाकरणपारीण विषणो विषणोपमः । होराकुक्षि समुत्पन्नः आयो विद्या पराधिपः ।।३।। देवान्नरतो निल्प ततो देवधरोऽभवत् । श्रावकाचार शुखात्मा परोपकृति तत्परः ।।४।। अमी धर्मघर पश्चात् तृतीयो धर्मकर्मकृत् । पभनन्दि गुरोर्लन्ध्या विद्यापरम् योगिनः ॥५॥ -श्रीपाल परित प्रशस्ति, भट्टारक भण्डार, अजमेर । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५वीं, १६वी, १वीं और १८वौं शादी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि ५२३ चरित्र की रचना सं० १५११ में की है। उसमें अपनी पहली रचना 'श्रीपाल चरित' की रचना का उल्लेख किया है। बताधर्मघर १६वीं शताब्दो के पूर्वाधं के विद्वान सुनिश्चित हैं। कवि को दो रचनाएं उपलब्ध है-श्रीपाल चरित और नागकुमार चरित । श्रीपाल चरित-में कवि ने पूर्ववर्ती पुराणों का अवलोकन करके सिद्ध चक्र के माहात्म्य का कयन किया है। सो माहात्म्य से श्रीपाल और उसके सात सौ साथियों का फष्ट रोग दूर हो गया था। उनकी पत्नी मैना सन्दरो में सिद्धचक्र व्रत का अनुष्ठान किया था। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने गोलाराडान्वयी श्रावक खेमल की प्रेरणासेकी धी। प्रशस्ति में खेमल के परिवार का परिचय दिया है। खेमल जिन चरणों का भक्त, दानी, रूप-शील सम्पन्न मौर परोपकारी था। श्री सर्वज्ञपवारविवयुगले भक्तिविकासाम्वृधिः वानचतुष्टये भ निरता लक्ष्मीसुधायुग्म च। रूपं शीलगतं परोपकारकरणे व्यापारनिष्ठं वपुः साधो खेमलसंशको मतमवं काले कलौ दृश्यते ॥२६॥ ग्रन्थ चार सर्गात्मक है । ग्रन्यकर्ता कवि मोर रचना प्रेरक धावक खेमल सम्भवतः एक ही स्थान चन्दवार के पास 'दत्त पल्ली' नाम के नगर के निवासी थे। नाराकमार चरित-इसमें कवि ने पूर्वस्त्रानुसारतः' पूर्वसूत्रानुसार कामदेव नागकमार का चरित किया गकमार ने अपने जीवन में जो-जो कार्य किये, प्रतादि का अनुष्ठान कर पुण्य संचय किया और परिणामतः दिशाधिका लाभ तथा भोगोपभोग की जो महती सामग्री मिली उसका उपभोग करते हए नागकमारने उनले मना-पध में विचरण किया है । उसका जीवन बड़ा ही पावन रहा है। उसे क्षण स्थायी भोगों की चका. प्रामक्ति उत्पन्न करने में समर्थ रही है। वह प्रात्म-जयी वीर था, जो अपनी साधना में अपने ही प्रयत्न द्वारा कर्मबन्धन की अनादि परतन्त्रता से सदा के लिये उन्मुक्ति प्राप्त की है। ना में प्रेरक-इस ग्रन्थ को कवि ने यदुवंशी लंबकंचुक (लमेचू) गोत्री साह नह की प्रेरणा से बनाया जलपाट या चन्द्रवाड नगर के समीप दत्तपल्ली नामक नगर के निवासी थे। उस समय उस नगर में क चातरवर्ण के लोग निवास करते थे। नल्ह साह के पिता का नाम धनेश्वर या बाहाण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र नामक चातुरक्षणं के लोग निवास करते थे। नल साह के ति जिनदास के चार पुत्र थे-शिवपाल, लि, जयपाल और धनपाल । धनपाल की पत्नी का नाम लक्षणश्री पाशियां धनपाल चौहानवंशी राजा माधवचन्द्र का मंत्री था'।धनपाल के दो पुत्र थे- ज्येष्ठ मल्ल उदयसिंह । दाना हो जिनभाक्तिक और राजा माधवचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित थे। कसोर यशोमती । साह नल्ह राज्यमान्य थे। उनके चार पुत्रथ तेजपाल, विनयपाल,चन्दनसिंह और नरमिता नल्हू साहू का प्ररणा स' साह की प्रेरणा से कवि धर्मधर ने कवि पुष्पदन्त के नागकुमार चरित्र को देख कर इसकी रचना की है। कबि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५११ में श्रावणशुक्ला पूणिमा सोमवार के दिन की है। ध्यतीते विक्रमादित्ये हज वत-शशिनामनि । धावणे शुक्लपक्षे त्र पूणिमा चन्द्रवासरे ॥५३ मभूत्समाप्तिग्नन्यस्य जयंभरसुतस्य हि। नूनं नागकुमारस्य कामरूपस्य भूपतेः ॥५४ पंहरिचन्द्र मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के भट्टारक पयनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, सिंहकीति, मुनि खेमचन्द्र, है । साहू नल्हू चन्द्रपाट या चन्द्रवाड नगर के समी १. तस्य मन्त्रिपवे श्रीमद्यबुवधा समुद्भवः । लंबकंचुक सद्गोत्रे धनेशो जिनदासजः ।।१२ -नागकुमारचरित प्रशस्ति, जयपुर तेरापंथी मंदिर प्रति । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KRY जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - मांग २ विजयोति जिनका शरीर तप से क्षीण हो गया था, आम्नाय के विद्वान थे। इन्होंने ग्वालियर के तोमर वंशी राजा कीर्तिसिंह के राज्यकाल में सं० १५२५ में भाद्रपद शुक्ला ५वीं गुरुवार के दिन लम्बकंचुक वंश के साहु जिनदास के पुत्र हरिपाल के लिए अपभ्रंश भाषा में दसलक्षणव्रत की कथा की रचना श्रादिनाथ के चैत्यालय में की है' । "जिन ग्राइणाह चेइ हरयं विरइय दहलवण कह सुवयं गुणम्नलयं, पंदहसङ्घ चजवीस मलयं ॥ विमलं, गुरुवार विसारयणु खलु प्रमलं ॥ " उवएसय कहियं भादव सुदि पंचमि - प्रग्रवाल मन्दिर उदयपुर, जैन ग्रन्थ सूची भा० ५, पृ० ४४५ इससे पं० हरिचन्द का समय वि० की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । यह मूल के पंडित मेधावी भट्टारकीय विद्वान थे। इनका वंश अग्रवाल था । यह साहू लवदेव के प्रपुत्र मीर उद्धरण साहु के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'भीषही' था । यह आप्त आगम के विचारश और जिनचरण कमलों के भ्रमर थे। इन्होने अपने को पंडित कंजर लिखा है । यह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे । इन्होंने अनेक ग्रन्थों की पुस्तकदात्री प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं जिनमें लिपि कराने वाले दातार के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय कराया गया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इनसे स्पष्ट है कि विक्रम की १६वीं शताब्दी में श्रावकों द्वारा हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखाकर प्रदान करने की परम्परा जैन समाज में प्रचलित थी । शास्त्र दान की यह परम्परा जहाँ श्रुतभक्ति पर उसके संरक्षण को बल प्रदान करती है, वहाँ दातार भी अपनी विशुद्ध भावनावश अपूर्व पुण्य का संचय करता है। इससे ग्रन्थों के संकलन और श्रुतरक्षा को प्राय मिला है। इन दातृ प्रशस्तिनों के कारण मेधावी उस समय प्रसिद्ध विद्वान माने जाते थे। मेधावी द्वारा लिखित दातृ प्रशस्तियाँ सं० १५१६, १५१६, १५२१, १५३३ और १५४६ की लिखी हुई, मूलाचार, तिलीय पणती, तस्वार्थभाष्य (सिद्धसेन गणि) जंबूद्वीप पण्णत्ती, मध्यात्म तरंगिणी और नीतिवाक्यामृत को मेरी नोट बुक में दर्ज हैं। सं० १५१४ में ज्येष्ठ सुदी ३ गुरुवार के दिन हिसार में बहलोल लोदी के राज्य में अग्रवालवंशी बंसल गोत्री साहु छाजू ने हेमचन्द्र के प्राकृत हेम शब्दानुशासन की प्रति लिखाकर प्रदान की थी, जो अजमेर के हर्ष को ति भंडार के बड़े मन्दिर में मौजूद है । मेघावी ने सं० १५४१ में एक श्रावकाचार की रचना की थी, जिसे धर्म संग्रह श्रावकाचार के नाम से उल्ले खित किया जाता है । इनका समय १५०० से १५५० तक का रहा है। यह विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान हैं। कवि महिन्दु या महाचन्द्र महाचन्द्र इल्लराज के पुत्र थे । नामोल्लेख के अतिरिक्त कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। प्रशस्ति १. जिण ओदाह वेद हरयं विरइय दह लक्खा कह सुषयं । जब एसय कहियं गुणग्गलयं, पंदहसद बउवीस मलयं ॥ भादव सुदि पंचमी अविमलं, गुरुवार विसारयणु खलु अमलं । taff युग्गड दाइ तोमरहं वंस कित्तिम समयं ॥ वर लंबकं सह तिलकं निगादास सुषम्यहं पुरा फिलयं । भजा विसुतीला गुणसहियं दण हरिपारु बुद्धिरिहियं ॥ २. प्रप्रोत वंशजः साधुर्लव देवाभिधानकः । तस्वगुद्धरणः संज्ञा तत्पत्नी मोहोप्सुभिः ||३२ तयोः पुत्रोऽस्ति मेधावी नामा पंडितकुंजरः । प्राप्यागम विचारज्ञो जिनपादाब्ज षट्पदः ॥३३, - दशलक्षण कथा प्रशस्ति । 'तत्वार्थ भाष्य दातृ प्रा० Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वौं, १६वों, १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, मट्टारक और कवि में काष्ठा संघ माथुर गच्छ की भट्टारकीय परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्कर गण में भट्टारक यशः कीति योर उनके शिष्य गुणभद्र सूरी थे । इससे यह स्पष्ट है कि कवि इन्ही का ग्राम्नाय का था । पर इनमें किसका शिष्य था यह स्पष्ट नहीं लिखा। कवि को एकमात्र कृति 'शान्तिनाथ चरित' है, जिसमें १३ सन्धियां या परिच्छेद और २१० कवक है. जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या पांच हजार है। ग्रन्थ की प्रथम संधि के १२ कडबकों में मगध देश के शासक राजा श्रेणिक और रानी चेलना का वर्णन, श्रणिक का महावीर के समवशरण में जाना और महावीर का वंदन कर गौतम से धर्म कथा का सुनना। दूसरो संधि के २१ कडवकों में विजया पर्वत का वर्णन, प्रकलक कीति को मुक्ति साधना, गौर विजयाक के उपसर्ग निवारण करने का कथन है। तीसरी सन्धि के २३ कडबकों में भगवान शान्तिनाथ की पूर्व भवावली का कथन है। चौथी सन्धि के २६ कडवकों में शान्तिनाथ के भवान्तर, बलभद्र जन्म का पड़ा ही सुन्दर बर्णन किया है । ५वीं मधि के १६ कटवका में बजायुध चक्रवर्ती का सविस्तर कथन है। और छठी संधि के २६ कडवकों में मेघरथ की सोलह कारण भावनामा की प्राराधना, और सथिसिद्धि गमन का वर्णन दिया है। सातवीं सम्धि के २५ कडवकों में मुख्यत: भ० शान्तिनाथ के जन्माभिषेक का वर्णन है। ग्राठवीं तधि के २६ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ की कैवल्य प्राप्ति और समवसरण विभूति का विस्तृत वर्णन है। नामी मंधि के २७ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ को दिव्य ध्वनि एव प्रवचनों का कथन है। दशवी संधि के २० कडवकों में तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित का संक्षिप्त वर्णन है। ११वीं सधि के ३४ कडवकों में भौगोलिक आयामों का वर्णन है, भरत क्षेत्र का ही नहीं किन्न नाना लाका का सामान्य कथन है । १२वीं संधि के १८ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ द्वारा वर्णिन सदाचार का कथन दिया हमा है। और अन्तिम १६वीं संधि के १७ कडवकों में शान्तिनाथ का निर्माण गमन का वर्णन है। यद्यपि कथावस्तु की दृष्टि से ग्रन्थ में कोई नवीनता दृष्टिगोचर नहीं होती, किन्तु काव्यकला और शिल्प की दृष्टि से रचना महत्वपूर्ण है । ग्रन्थ का वर्ण्य विषय पौराणिक है। इसी से उसे पौराणिकता के मांच में डाला गया है। मालोच्यमान रचना अपभ्रश के चरित काव्यों को कोटि की है। इसमें चरितकाव्य के सभी लक्षण परि. लक्षित होते हैं। प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में कवि ने अग्रवाल श्रावक साधारण की शान्तिनाथ से मंगल कामना की है। ग्रन्थ रचना में प्ररक जोयणिपुर' (दिल्ली) निवासी अग्रवाल कुलभूषण गर्ग गोत्रीय साह भोजराजका पत्रों (खेमचन्द्र, ज्ञानचन्द्र, श्रीचन्द्र, गजमल्ल और रणमल) में से द्वितीय पुत्र ज्ञानचन्द्र का पुत्र साधारण या जिसकी प्रेरणा से ग्रन्थ की रचना की गई है। कवि ने प्रशस्ति में साधारण के परिवार का विस्तत परिचय कराया है। उसने हस्तिनापर की यायार्थ संघ चलाया था। और जिनमन्दिर का निर्माण करा कर उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कर पण्यार्जन किया था । ज्ञानचन्द्र की पत्नी का नाम 'सउराजही' था, जो अनेक गुणों से विभूषित थी। उससे तान पत्र हए थे। पहला पुत्र सारंगसाहु था, जिसने सम्मेद शिखर की यात्रा की थी। उसकी पत्नी का नाम 'तिलोकाही' था। दूसरा पुत्र साधारण था, जो बड़ा विद्वान और गुणी था, उसका वैभव बढ़ा चढ़ा था। उसने शत्रुजय को यात्रा को थी, उसकी पत्नी का नाम 'सोवाही' था, उससे चार पुत्र हुए थे-अभयचन्द्र, मल्लिदास, जितमल्ल और सोहिल्ल उनकी चारों पत्नियों के नाम संदणही, भदासही, समदो और भीखणही । ये चारों ही पतिव्रता, साध्वी और धनिष्ठा थीं। इस तरह साह साधारण ने समस्त परिवार के साथ शान्तिनाथ चरित का निर्माण कराया। १. जोयरिणपुर दिल्ली का नाम है । यहाँ ६४ योगिनियों का निवास था, और उनका मन्दिर भी बना हुआ था। इस कारण इसका नाम योगिनीपुर पड़ा है। 'जोयरिखपुर' अपन श भाषा का रूप है। विशेष परिचय के लिये देख, अनेकान्त वर्ष १३ किरण में प्रकाशित दिल्ली के पौध नाम शीर्षक मेरा लेख । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि. स. १५६७ की कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन मुगल बादशाह बाबर' के राज्यकाल में योगिनीपुर में बनाकर समाप्त की थी। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियों का स्मरण किया है-अकलंक, पूज्यपाद (देवनन्दी), नेमिचन्द्र सैद्धातिक, चतुर्मुख स्वयंभू, पुष्पदन्त, यशःकीति, रइध, गुण भद्रसूरि पौर सहणपाल । इनमें सहणपाल का कोई ग्रन्थ अवलोकन में नहीं आया। भट्टारक प्रभाचन्द्र यह भ. पद्मनन्दी के प्रपट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भट्टारक जिनचन्द्र के पट्ट शिष्य थे। जिनका पदाभिषेक सम्मेद शिखर पर सुवर्ण कलशों से सं० १५७१ में फाल्गुन कृष्ण दोइज के दिन हुया था। इनका पूर्व नाम सुहृज्जन था, जो विवेकी और वादि रूपी गजों के लिए सिंह के समान था। यह वैद्यराट् बिझ के द्वितीय पुत्र थे। इन्होंने राजा के समान विभूति का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की थी। भट्टारक होने पर इनका नाम प्रभाचन्द्र रक्खा गया था । वे इस पद पर ६ वर्ष ४ मास और २५ दिन रहे हैं। भट्रारक प्रभाचद सं० १५७८ में चम्पावती (चाटसू) में थे और वहाँ के धावकों में उन्होंने धार्मिक रुचि बढाने का प्रयत्न किया था। कवि ठकुरसी ने सं० १५७५ में मेघमाला कथा में प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया है । इन प्रभाचन्द्र की कोई रचना मेरे अवलोकन में नहीं आई। इनका समय वि० की १६वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। भट्टारक शुभचन्द्र मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय में प्रसिद्ध नन्दिसंघ और बलात्कारगण के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य मोर भ० १. बाबर ने सन् १५२६ में पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को पराजित और दिवंगत कर दिल्ली का राज्य शासन प्राप्त किया था। उसके बाद उसने आगरा पर भी अधिकार कर लिया था और सन् १५३० (वि. स. १५८७) में आगरा में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। इसने केवल ५ वर्ष ही राज्य किया है। २. विक्रमरायहु ववगय कालह, रिसिबसु-सर-भुवि-काला। कत्तिय-पढम पक्सि पंचमिविणि, हउ परिपुण्ण वि उम्मतह इरिण। पान्तिनाथ चरित प्रशस्ति ३. तत्पडोदय भूपरेऽजनि मुनिः श्रीमत्प्रमेन्दुवंशी। हेयाय विचारणकचतुरो देवागमालंकृतो। भोजदिवाकरादिविविध तक्के प चंचुश्चयो । जैनेन्द्रादिकलक्षणप्रणयने दक्षोऽनुयोगेषु च ॥३२ स्यक्रवा सांसारिकी भूति किपाकफल सन्निमाम् । चिन्तारस्न निभा जैनी दीक्षा संप्राप्य तत्त्ववित् ॥३३ शब्द ब्रह्मासरित्पतिस्मृतिबलादुसीय यो लीलया। षट् तगिमार्क कर्कश गिरा जिस्वादिलान् बादिनः । प्राच्या दिग्विजयी भवन्निव विभूबनो प्रतिष्ठाकृते । श्री सम्मेदगिरी सुवर्ण कलशः पट्टाभिषेकः कृतः ॥३४ -बलात्कारपण गुर्वावली ४. द्वितीय पुत्रोऽपि सुवरखनाल्यो विवेकवान्वादिगजेन्द्रसिंहः । आसीत्सदा सर्वजनोपकारी खानिः सुखानां जिनधर्मचारी ॥३६॥ भट्टारकः श्री त्रिनचन्द्र पट्टे भट्टारकोऽयं समभूइ गुणाड्यः । प्रभेन्दु संशो हि महा प्रभावः त्यक्त्वा विभूति नपराज साम्याम् ॥३७ ५. 'तह मज्भिपहाससि वा मुणीसु, सह, संठिउ णं गोयमु मुरणीसु ॥ मेघमाला कथा प्र. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि विजयकीति के शिष्य थे। यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती और हिन्दी भाषा के विद्वान थे । कवि ने अपने को मध्यात्मतरंगिणी टीका प्रशस्ति में-'संसारभीताशय, भावाभाव विवेकवारिधि और स्याद्वाद विद्यानिधि' विशेषणों से युक्त प्रकट किया है । तथा 'अंग पण्णत्ति' में अपने को विद्य और 'उभयभाषापरिसेवी' सूचित किया है। तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में 'विद्य' और 'बादिपर्वतवचिणा' लिखा है। यह सागवाडा गद्दी के भदारक थे। पदावली से ज्ञात होता है कि वे तर्क, व्याकरण, साहित्य और अध्यात्मशास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता थे। उन्होंने विभिन्न स्थानों की यात्रा की थी। उनके अनेक शिष्य थे। उन्होंने वादियों को परास्त किया था, उनका 'वादि पर्वतयधिणा' विशेषण इस बात का पोषक है। भट्टारक शुभचन्द्र ने अनेक प्रतिष्ठा समारोहों में भाग ही नहीं लिया किन्तु भट्टारक होने के नाते उनके प्रतिष्ठा कार्य को भी सम्पन्न किया। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर और जयपुर आदि के मन्दिरों में विराजमान हैं। संवत् १६०७ में इन्हीं के उपदेश से पञ्चपरमेष्ठी की मूर्ति की स्थापना की गई थी। भट्टारक शुभचन्द्र ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिन्हें दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है। रचनाबों के नाम निम्न प्रकार हैं: अध्यात्मतरंगिणी (समयसारकलश टीका) जीवंधरचरित, चन्दनाचरित, अंगपण्णत्ती, पार्श्वनाथ पंजिका, करकडचरित, संशयवदन विदारण, स्वरूप सम्बोधनवृत्ति, प्राकृत व्याकरण, श्रेणिकचरित, स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा टीका, पाण्डव पुराण, सप्ततत्त्व निरूपण, अपशब्द खण्डन, स्तोत्र (तक ग्रन्य) नन्दीश्वर कथा, कमंदहन विधि, चिन्तामणि पूजा, तेरह द्वीप पूजा, पंचकल्याणक पूजा, गणधर वलय पूजा, पल्योपमउद्यापन विधि, साधंद्वयद्वाप पूजा, सिद्धचक्र पूजा, पुष्पांजलि व्रत पूजा, सरस्वती पूजा, चारित शुद्धि विधान, सर्वतोभद्र विधान प्रादि। इन रचनामों में से यहाँ कुछ रचनामों का परिचय दिया जाता है। रचना-परिचय पध्यात्मप्तरंगिणी टीका-यह प्राचार्य अमतचन्द्र के समयसार कलशों (नाटक समयसार) को टीका है जिसे भट्टारक शुभचन्द्र ने सं० १५७३ में बनाकर समाप्त की थी। टीका में कलश के पद्यों के अर्थ का उद्घाटन किया है। टीका विशद है और पद्यों के अन्तर्भाव को खोलने का प्रयत्न किया गया है। कहीं-कहीं टीकाकार ने पद्यों के अर्थ करने में चमत्कार दिखलाया है । भट्टारक शुभचन्द्र की यही टीका सबसे पहली रचना जान पड़ती है । टीका प्रकाशित हो चुकी है। जीवंघर चरित-इसमें भगवान महावीर के समकालीन होने वाले जीवंधर कमार का जो राजा सत्यंघर के पुत्र थे, जीवन परिचय अंकित किया गया है। जीवघर ने अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त किया, भोग भोगे, किन्तु अन्त में अपने पुत्र को राज्य देकर भगवान महावीर से दीक्षा लेकर पात्म-साधना की। कठोर तपश्चरण कर कर्म १. शिष्यस्तस्य विशिष्ट शास्त्रविशदः संसारभीताशयो। भावाभावविवेक वारिधितरस्पाद्वादविद्यानिषि :॥ विवक वाराघसरस्याद्वादविद्यानिषि :॥ --प्रध्यात्मतरंगिणी टीका प्र. २. "तप्पय सेवरणसत्तो तेवेज्जो ग्य भास परिवई।" -अंगपणत्ती प्र. ३. सूरिश्रीशुभचन्द्रण वादिपर्वतवचिणा। विचनानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता नरा॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी०प्र० ४: संवत् १६०७ वर्षे बैशाखचदी २ गुरु श्री मूलसंषे म..श्री शुभचन्द्र गुरूपदेशात् सबढशंखेश्वरा गोत्रे सा० जिना । भट्टारक सम्प्रदाय प्र० १४५ ५. विक्रम वरभूपालापंचविद्यते स्त्रिसप्तति थरिके। वर्षेप्याविवन्माने शुक्ल पक्षेष पंचमोदिवसे ॥ भ्याट्री.प्र. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ श्रृंखला का विनाश कर अविनाशी पद प्राप्त किया। भट्टारक शुभचन्द्र ने इस पावन चरित की रचना संवत् १६०३ में की है। पण्णत्तो - यह प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है। इसमें २४८ गाथाएँ दी हुई हैं, जिनमें भंग पूर्वादि का स्वरूप श्रीर पदादि की संख्या दी हुई है । ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्त सारादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है । ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका - यह स्वामी कुमार की प्राकृकि गाथाथों में निबद्ध अनुप्रेक्षा ग्रन्थ है जिसे कार्ति यानुप्रेक्षा कहा जाता है। मूल ग्रन्थ में ४६१ गाथाएं हैं। इन अनुप्रेक्षाओं को प्रत्यकार ने भव्यजनों के आनन्द की जननी लिखा है, ग्रन्थ हृदयग्राही है और उक्तियाँ अन्तस्तल को स्पर्श करती हैं। शुभ ने दी द्वारा मूल गाथाओं का अर्थ उद्घाटित करते हुए अनेक ग्रन्थों से समुद्धृत पद्यों द्वारा उस विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है | शुभचन्द्र के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र ने भी कुछ भाग लिखा था। वह भी उसमें शामिल कर लिया गया है। भट्टारक शुभचन्द्र ने यह टीका वि० सं० १६१३ में बनाकर समाप्त की है" । श्रेणिक चरित्र - इस ग्रंथ में १५ पर्व हैं जिनमें मगध देश के शासक मोर भगवान महावीर के प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक बिम्बसार का जीवन-वृत्त अंकित किया गया है। इसका दूसरा नाम 'पद्मनाभ पुराण' भी हैं। क्योंकि श्रेणिक का जीव पथनाभ नाम का प्रथम तीर्थंकर होगा, इस कारण ग्रन्थ का नाम भी पद्मनाभवरित रख दिया गया है । कर्त्ता ने इसका रचनाकाल नहीं दिया । करकण्डु चरित - इसमें १५ सर्ग हैं। यह एक प्रबन्ध काव्य है । इसमें राजा करकंडु का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। चरित पावन रहा है, और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यह राजा पार्श्वनाथ की परम्परा में हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १६११ में जयाछपुर के आदिनाथ चैत्यालय में की है । इस ग्रन्थ की रचना में शुभचन्द्र के शिष्य सकलभूषण सहायक थे I पाण्डव पुराण – इस ग्रन्थ में २५ सर्ग या पर्व हैं जिनमें पाण्डवों आदि का जीवन-परिचय दिया हुआ है । उनकी जीवन घटनाओं का भी उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि ने अपने रचित २५ ग्रन्थों का उल्लेख किया है | शुभचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १६०८ में बाग्वर देश के शाकीबाटपुर के आदिनाथ चैत्यालय में की है। इसकी रचना ने श्रीपाल वर्णी ने सहायता की है। १. श्रीमद् विक्रमभूपतेर्व मुद्दत द्वैतेवाते सप्तह | वेदन्यंनतरे समे शुभतरे मासे वरेण्ये शुचौ । वारेणीपतिक त्रयोदशतियों सन्नूतने पत्तने । श्रीचन्द्रमधानि वैविरचितं चेदं मया तोषतः ||८७|| जीवं० प्र० २. श्रीमत् विक्रम भूपतेः परमिते वर्षे ते पोडशे । मामा सहिते ( १६१३) पाते दशम्यां तिथों । श्रीमद्दी - हिसार-सार नगरे चैत्यालये श्रीगुरोः । श्रीमच्छी शुभचन्द्र देव विहिता टीका सदा नन्दतु ॥ ६॥ ३. द्वष्टे विक्रमतः शते समते बँका दशाब्दाधिके, भाद्र मासि समुज्वले युगतियों खङ्गो जवाछापुरे । श्री मद्वीप मेश्वरस्य सदने चके चरित्रविदं । राज्ञः श्री शुभचन्द्रसूरि पतिपश्चाधिपस्याद् भुवं ॥५५॥ ४. श्रीमविक्रमभूपते द्वि कहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते । रम्येऽष्टाधिकवत्सरे (१६०८) सुखकरे भाद्र द्वितीया तिशे । श्रीमद्वार नीवृतीद्मतुले श्री शाकदापुरे, चिंदरचितं स्थेयात्पुराणं चिरं ।। १६६ - करकण्डू चरि० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५, १६, १७वीं और १८वी शत्राब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५२६ इनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नहीं थाए, इससे उनके सम्बन्ध में लिखना कुछ शक्य नहीं है। पूजा ग्रन्थ भी सामने नहीं हैं इसलिए उनका परिचय भी नहीं दिया जा सकता । - कषि की संस्कृत रचनाओं के प्रतिरिक्त अनेक हिन्दी रचनाएँ भी हैं जिनके नाम यहाँ दिए जाते हैंमहावीर छन्द ( स्तवन २७ पद्य) विजयकीर्ति छन्द, तस्वसार दूहा, नेमिनाथ छन्द श्रादि । भ० शुभचन्द्र का कार्यकाल सं० १५७३ (सन् १५१६ ) से १६१३ (सन् १५५६ ) ४० वर्ष रहा है। इनके अनेक शिष्य थे - श्री पालवर्णी, सकलचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र और सुमतिकीर्ति आदि। इनका समय १६वीं और १७वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है | अमरकीति यह मूल संघ सरस्वतो गच्छ के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य थे । मल्लिभूषण मालवा की गद्दी के पट्टधर थे। इन्हीं के समकालीन विद्यानन्द और श्रुतसागर थे। अमरकीर्ति ने जिन सहस्र नाम स्तोत्र की टीका प्रशस्ति में विद्यानंद और श्रुतसागर दोनों का आदरपूर्वक स्मरण किया है। इनकी एकमात्र कृति जिन सहस्रनाम टोका है। प्रशस्ति में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। फिर भी अमरकीर्ति का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । टीका अभी अप्रकाशित है उसे प्रकाश में लाना चाहिए। अमरकीति की यह टीका भ० विश्वसेन द्वारा अनुमोदित है । वीर कवि या बुधव कवि का वंश अग्रवाल था और यह साहू तोतू के पुत्र थे तथा भट्टारक हेमचन्द्र के शिष्य थे । संस्कृत भाषा के विद्वान और कवि थे । इनकी दो कृतियाँ मेरे देखने में भाई हैं- वृहत्सिद्धचक्र पूजा और धर्मचक्र पूजा । वृहत् पूजा- यह सिद्ध की विस्तृत पूजा है जिनदास काष्ठा संघ माथुरान्वय और पुष्करगण के भट्टारक कमलकीर्ति कुमुदचन्द्र और भट्टारक यशसेन के अन्वय में हुए हैं। यशसेन की शिष्या राजश्री नाम की थी, जो संयम लिया थी। उसके भ्राता पद्मावती पुरवाल वंश में समुत्पन्न नारायण सिंह नाम के थे, जो मुनियों को दान देने में दक्ष थे । उनके पुत्र जिनदास नाम के थे, जिन्होंने विद्वानों में मान्यता प्राप्त की थी। इन्हीं पंडित जिनदास के ग्रादेश से उक्त पूजा-पाठ रचा गया है। जिसे कवि ने वि० सं० १५६४ में दिल्ली के बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर (रोहतक) के पार्श्वनाथ मन्दिर में बनाया है । धर्मचक्र पूजा - इस पूजा-पाठ को भी उक्त पद्मावती पुरवाल पंडित जिनदास के निर्देश से रोहितासपुर के पार्श्वनाथ जिन मन्दिर में अग्रवाल वंशी गोयल गोत्री साधारण के पुत्र साहू रणमल्ल के पुत्र मल्लिदास के लिए बनाया गया है । इसकी श्लोक संख्या ८५० है । इसे कवि ने सं० १५८६ में पूस महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन समाप्त किया है'। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने नन्दीश्वर पूजा पौर ऋषिमंडल यंत्र पूजा-पाठ की भी रचना की है। ये दोनों पूजा ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं बाए, इसी से उनका परिचय नहीं दिया। इनके अतिरिक्त afa की अन्य क्या कृतियाँ हैं वह अन्वेषणीय है । कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । १. वेदाष्टवाण राशि - संवत्सर विक्रमनृपावमाने । रुहितासनाम्नि नगरे बब्बर मुगलाधिराज सदाज्ये ॥ ? श्रीपार चैत्यगेहे काष्ठा संघे च माथुराम्यके ॥ पुष्करगणे बभूव भट्टारकमणिकमल कीर्त्यः ॥ २ ( सिद्ध० पू० प्र०) २. चन्द्रवाणाष्ट षष्ठांक: (१५८६) वर्तमानेषु सर्वतः । श्री विक्रमनुपान्नूनं नय विक्रमशालिनः ||६|| पौष मासे सिते पक्षे षष्ठदु दिन नामके । रुहितासपुरे रम्ये पार्श्वनाथस्य मन्दिरे ॥२॥ मंत्रक पूजा प्र० Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि दोड्डय्य यह देवप्प का पुत्र था, जो जैन पुराणों की कथा में निपुण था पोर पंडित मुनि का शिष्य था। देवप जैन ब्राह्मण था और उसका गोत्र 'माय' था। यह होय्सल देश के चंग प्रदेश के पिरिय राज शहर में राज्य करने वाले यदुकुल तिलक विरुपराज का दरबारी कत्थक था। यह राजा साहित्य का बड़ा प्रेमी था, और इसने शान्ति जिन की एक मूर्ति को विधिवत् तैयार करा कर उसे स्थापित किया था। ऐसा लेख मद्रास के अजायबघर में मौजूद एक जैन मति के नीचे उत्कीर्ण किया हुआ है। __ कदि दोडल्य ने अपने संग्रप्रभ चरित में विरुप राजेन्द्र की स्तुति की है। जैन ब्राह्मण पं. सलिवेन्द्र का पुत्र बोम्मरस इसी राजा का प्रधान था। नन्द्रप्रभ चरिर में निधन और ४४७५ पद्य हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने लिखा है कि मैं कवि परमेष्ठी और गुणभद्र की कही हुई कथा को कानड़ी में लिखता है। पहले चन्द्रनाथ, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, सरस्वती, गणधर, ज्वालामालिनी, विजयपक्ष पौर पिरिय शहर के अनन्त जिन को, और कमलभंग महिषिकुमारपुराधीश्वर ब्रह्मदेव की स्तुति की है। ग्रन्थ में कुछ पूर्ववर्ती कवियों का भी स्मरण किया है। कवि का समय १५५० के लगभग अर्थात् ईसा की १६वीं शताब्दी है। पं० जिनदास यह वंद्य विद्या में निष्णात वैद्य थे। इनके पिता का नाम 'रेखा था जो वैद्य थे। इनकी माता का नाम 'रिखधी' था और पत्नी का नाम जिनदासी था, जो रूप लावण्यादि गुणों से अलंकृत थी। पंडित जिनदास रणस्तम्भ दुर्ग के समीप नवलक्षपुर के निवासी थे । ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने अपने पूर्वजों का परिचय निम्न प्रकार दिया है: उनके पूर्वज 'हरिपति' नाम के वणिक थे। जिन्हें पपावती देवी का वर प्राप्त या मोर जो पेरोजशाह नामक राजा से सम्मानित थे। उन्हीं के वंश में 'पद्म' नामक के श्रेष्ठो हुए, जिन्होंने अनेक दान दिये और ग्याससाहि नाम के राजा से बहु मान्यता प्राप्त की। इन्होंने शाकुम्भरी नगरी में विशाल जिन मन्दिर बनवाया था। वे इतने प्रभावशाली थे कि उनकी प्राज्ञा का किसी भी राजा ने उल्लंघन नहीं किया। वे मिथ्यात्व के नाशक थे और जिन गुणों के नित्य पूजक थे। इनके दो पुत्र थे। उनमें प्रथम का नाम विझ था, जो वैद्यराट् था। बिझ ने शाह नसोर से उत्कर्ष प्राप्त किया था। इनके दूसरे पुत्र का नाम 'सुहृज्जन' था, जो विवेकी और वादी रूपी गजों के लिए सिंह के रामान था। सबका उपकारक और जैन धर्म का प्राचरण करने वाला था। यह जिन चन्द्र भट्टारक के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुआ था। इनका पट्टाभिषेक सं० १५७१ (सन् १५१४) में सम्मेदशिखर पर सुवर्ण कलशों से हुमा था। इन्होंने राजा के समान विभूति का परित्याग कर भट्टारक पद प्राप्त किया। इनका नाम भटारक प्रभाचन्द्र रखा गया । वे इस पट्ट पर नौ वर्ष ४ मास और २५ दिन रहे । उक्त बिझ वैद्य का पुत्र धर्मदास हुपा, जिसने महमूद शाह से बहमान्यता प्राप्त की थी। यह भी वैद्य शिरोमणि और विख्यातकीर्ति था । इसे भी पद्मावती देवी का वर प्राप्त था। इसकी पत्नी का नाम 'धर्मश्री' था, जो अद्वितीय दानी, सदृष्टि, रूपवान्, मन्मथविजयी और प्रफुल्ल वदना थी। इसका रेखा नाम का एक पुत्र था, जो वैद्यकला में दक्ष, वैद्यों का स्वामी और लोक में प्रसिद्ध था। यह वैद्य विद्या' इनकी कुल परम्परा से चलीमा रही थी और उससे आपके वंश की बड़ी प्रतिष्ठा थी। रेखा अपनी बंद्य विद्या के कारण रणस्तम्भ (रणथम्भोर) नामक दुर्ग के बादशाह शेरशाह द्वारा सम्मानित हुआ था, इन्हीं रेखा का पुत्र ५० जिनदास था। इनका पुत्र नारायण दास नाम का था। पंडित जिनदास ने शेरपुर के शान्तिनाथ चैत्यालय में ५१ पद्योंवाली 'होलीरेणुका चरित्र' की प्रति का अवलोकन कर सं० १६०८ (सन् १५५१ ई.) में ज्येष्ठ शुक्ला दसवीं शुक्रवार के दिन इस 'होलीरेणु का चरित्र' ग्रन्थ की रचना ८४३ लोकों में की है। ... T.J..58. Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि "पुरे शेरपुर-शान्तिनाथचंत्यालये बरे। वसुखकायशीतांशु (१६०८) संवत्सरे तथा ॥ ज्येष्ठमासे सिते पक्षे दशम्यां शुक्रवासरे। प्रकारि ग्रन्थः पूर्णोऽयं नाम्ना दृष्टिप्रबोधकः ॥" कवि जिनदास ने इस ग्रन्थ को भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य मुनि ,धर्मचन्द्र और धर्मचन्द्र के शिष्य मुनि ललित कीर्ति के नाम किया है। कवि का समय १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। . ब्रह्मकृष्ण या केशवसेनसूरि काष्ठासंघ के भद्वारक रत्नभूपण के प्रशिष्य और जयकीति के पट्टधर शिष्य थे। यह कवि कृष्णदास के नाम से प्रसिद्ध थे। वाग्वर (वागड) देश के दम्पति वीरिका और कान्तहर्ष के पुत्र और ब्रह्म मंगलदास के अग्रज (ज्येष्ठ भ्राता) थे । कर्णामत को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि का गंगासागर पर्यन्त, दक्षिण देश में, गुजरात में मालया और मेवाड़ में यश और प्रतिष्ठा थी। वे अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे और १७वीं शताब्दी के अच्छे कवि थे। प्रापकी इस समय तीन रचनाए उपलब्ध हैं, मुनिसुवतपुराण-कर्णामृत पुराण और षोडशकारण व्रतोद्यापन। दुनिमुबह पुराण-इर: में पंनियों के २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रत की जीवन गाथा अंकित की गई है। मंगल सहोदर कवि कृष्ण ने इस पुराण का निर्माण वि० सं० १६८१ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के अपराण्ह काल में कल्पबल्ली नगर में कर समाप्त किया है। इन्ष्टषचन्द्र मितेऽथ वर्षे (१६८१) श्री कातिकास्ये घवले च पक्षे । जो त्रयोदश्यपरान्हया मे कृष्णेन सोख्याय बिनिमितोऽयं ॥६ कवि ने अपने को लोहपत्तन का निवासी प्रौर हर्ष वणिक का पुत्र बतलाया है। और कल्पवल्ली नगर में ब्रह्मचारी कृष्ण ने ३०२५ पचों में इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि उसके पुष्पिका वाक्य से स्पष्ट है :-- इति श्री पुण्यचन्द्रोदये मुनिसुवत पुराणे धीपूरमल्लां के हर्ष धीरिका देहज घी मंगलदासापज ब्रह्मचारीपवर कृष्णदास विरचिते रामवेय शिवगमनं त्रयोविंशतितमः सर्गः समाप्तः । कर्णामृत पराण-इसमें कर्ण राजा के चरित का वर्णन किया गया है। यह दूसरी रचना है। कवि ने इसे वि० सं०१६८८ में मालव देश को भतिलक पुरी के पाश्वनाथ मन्दिर में माघ महीने में पूर्ण किया है। इस प्रन्य की रचना में ब्रह्मवर्धमान ने सहायता पहुंचायी थी, जो इनके शिष्य जान पड़ते हैं। षोडशकारण व्रतोद्यापन-इसमें षोडशकारणमत की विधि और उसके उद्यापन का वर्णन किया गया है। कवि केशवसेन या कृष्ण ने इसे वि० सं० १६६४ (सन १६३७) में मगशिर शुक्ला सप्तमी के दिन रामनगर में बना कर समाप्त किया है। वेवनंद रसचन्द्रवत्सरे (१६६४) मार्गमासि सितसप्तमी तिथौ। रामनामनगरे मया कृताचान्य-पुण्यनियहाथ सरिणा । १४ इति प्राचार्य केशवसेन विरचितं षोडशकारण प्रतोद्यापनं संपूर्णः इसके अतिरिक्त कवि की अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं । कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है। १. लेलिहान-बमु-यह विथुप्रमे (१६८८) वत्सरे विविध भाव संयुतः । एष एवं रचितो हिताय' में ग्रन्थ आत्मन इहाखिलागिनाम् ।। जैन अन्य प्रश० मा० ११०५५ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भ० वादिचन्द्र यह मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भद्रारक-भट्रारक ज्ञानभूषण द्वितीय के प्रशिष्य और भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और प्रतिष्ठाचार्य थे। इनको पट्ट परम्परा निम्न प्रकार है :-विद्यानन्दि के पट्टधर मल्लिभूषण, उनके पट्टधर लक्ष्मीचन्द्र, वोरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और इनके पट्टधर वादिचन्द्र । इनको गद्दी गुजरात में कहीं पर थी। इनकी निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं-पावपुराण, ज्ञानसूर्योदय नाटक, पवनदूत, सुभग सुलोचना चरित, श्रीपाल प्राख्यान, पाण्डवपुराण, और यशोधर चरित । होलिका चरित और अम्बिका कथा । पाश्वंपुराण-इस ग्रन्थ में १५०० पद्य हैं जिनमें भगवान पार्श्वनाथ का चरित मंकित है। इस ग्रन्य को कवि ने वि० सं० १६४० एमगादी ५ के दिन गारमीकि जय मास.ई।वादिचन्द्र ने अपने गुरु प्रभाचन्द्र को बौद्ध, काणाद, भाट्ट, मीमांसक, सांख्य, वैशेषिक प्रादि को जीतने वाला और अपने को उनका पट्ट सुशोभित करने वाला प्रकट किया है-- बौद्धो मूढति बौद्ध भितिमतिः काणावको कति, भट्रो भूत्यति भावनाप्रतिभटो मीमांसको मन्दति । सांख्यः शिष्यति सर्वयंवकयमं वैशेषिको कति, यस्य ज्ञानपाणतो विजयता सोऽयं प्रभाचन्द्रमा ।। ज्ञानसर्योदय नाटक-यह एक संस्कृत नाटक है, जो 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक नाटक के उत्तर रूप में लिखा गया है। कृष्णामधयति परिव्राजक ने बुन्देलखण्ड के चन्देल वंशी राजा कीर्तिवर्मा के समय में उक्त नाटक रचा है। कहा जाता है कि वि० सं० ११२२ में उक्त राजा के सामने यह नाटक खेला भी गया था। इसके तीसरे अंक में क्षपणक (जैन मुनि) को निन्दित एवं पूणित पात्र रूप में चित्रित किया है। वह देखने में राक्षस जैसा है और श्रावकों को उपदेश देता है कि तुम दूर से चरण वन्दना करो, और यदि हम तुम्हारी स्त्रियों के साथ अति प्रसंग करें तो तुम्हें वर्षा नहीं करनी चाहिये । आदि । उसी का उत्तर वादिचन्द्र ने दिया है। दोनों नाटकों की तुलना करने से पात्रों की समानता है, दोनों के पद्य मोर गद्य वाक्य कुछ हेर फेर के साथ मिलते हैं। अस्तु, कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १७४८ में मधूक नगर (महुमा) में समाप्त की थी वसु-देव-रसाब्जके वर्षे माघे सिसाक्टमी विषसे । श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं बोधसंरभः ।। पवन वृत—यह एक खण्ड काव्य है, जिसकी पद्य सख्या १०१ है। जिस तरह कालिदास के विरही यक्ष ने मेध के द्वारा अपनी पत्नी के पास सन्देश भेजा है, उसी तरह इसमें उज्जयिनी के राजा विजय ने अपनी प्राणप्रिया तारा के पास, जिसे प्रशनिवेग नाम का विद्याधर हर ले गया था, पवन को दूत बनाकर विरह सन्देश भेजा है। यह रचना सुन्दर और सरस है। अपने पक्ष में कवि ने अपने नाम के सिवाय अन्य कोई परिचय नहीं दिया है । पद्य से स्पष्ट है कि यह रचना विगतवसन वादिचन्द्र की है। यह वादिचन्द्र वही है जो ज्ञान सूर्योदय नाटक के कत्ता है। सुभग सुलोचना चरित्र-इस ग्रन्थ की एक प्रति ईडर के शास्त्र भंडार में है। प्रशस्ति से जान पड़ता है कि १. तसट्टमण्डनं सूरिर्वादिचन्द्रो व्यरीरचत् । पुराणमेतत्वाश्वस्य वाविवृन्द शिरोमणिः ॥२ न्यवेदरासाजांके वर्षे पक्षे समुज्जले। कार्तिक मासि पंचम्या बाल्मीके नगरे मुदा ॥३ पा.पु.प्र. २. पावो नत्वा जगदुयकस्वर्थ सामध्यवन्तौ विघ्नध्यान्तप्रसर तरणेः शान्तिनाथस्य अवस्था । श्रोतुं तत्सदसि गुरिणतावायुदताभिधान, काव्यं चके विगतवसनः स्वल्पयोर्वादिचन्द्रः। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५त्री, १६, १७वीं और १ौं शताब्दी के आचार्य, भट्रारक और कवि ५३३ यह ग्रन्थ सुगम संस्कृत में लिखा गया है । वादिचन्द्र के शिष्य सुमतिसागर ने वि० सं० १६६१ में व्यारा ( नगर) में लिखा था। श्रीपाल धाख्यान- यह एक गीतिकाव्य है जो गूजराती मिश्रित हिन्दी भाषा में है, और जिसे कवि ने सं० १६५१ में संघपति धनजी सवा की प्रेरणा से बनाया था। पाण्डव पुराण-इस ग्रन्थ में पाण्डवों का चरित अंकित किया गया है जिसको रचना कवि ने वि० सं० १६५४ में समाप्त की है। बेब वाण षडन्जांके वर्षे नभसि मासके। बोषका नगरकारि पाण्डवानां प्रबन्धकः॥ -तेरापंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर यशोधर धरित- इसमें यशोधर का जीवन-परिचय दिया इया है। कवि ने इस ग्रन्थ को अंकलेश्वर (भरोंच) के चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर में वि० सं० १६५७ में रचा है। एक-पंच-षडेकांक वर्षे नभसि मासके। मुदा.."कथामेनां वाविचन्द्रो विवरः॥ __इनके अतिरिक्त कवि की होलिका चरित और अम्बिका कथा दो रचनाएँ बतलाई जाती हैं, जो मेरे देखने में नहीं पाई। आदित्यवार कथा और द्वादश भावना हिन्दी की रचनाएं हैं। एक दो गुजराती रचनाएं भी इनकी कही जाती हैं। कदि का समय १७वीं शताब्दी है। कवि राजमत्त काष्ठा संघ माथ रगच्छ पुष्करगण के भट्टारकों की आम्नाय के विद्वान थे उस समय पट्ट पर भ० खेमकोति विराजमान थे। कवि राजमल्ल १७वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान और कवि थे। व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द शास्त्र और स्याद्वादविद्या में पारंगत थे। स्याद्वाद और अध्यात्मशास्त्र के तलस्पर्शी विद्वान थे। राजमल्ल ने स्वयं लाटी संहिता की संधियों में अपने को स्याद्वादानवद्य-गद्य-पच-विद्या विशारद- विमणि' लिखा है । कुन्द. कन्दाचार्य के समयसारादि ग्रन्थों के गहरे अभ्यासी थे। उन्होंने जन मानस में अध्यात्म विषय को प्रतिष्ठित करने के १. विहाम पद काठिन्यं सुगमैत्रचनोकरः । चकार परित साध्या बदिचन्द्रोल्पमेषमाम् ॥ इति भट्टारक प्रभाचन्द्रानुचरसूरि श्री वादिचन्द्र विरचिते नवमः परिच्छेदः समाप्तः ।। सं. १६६१ वर्षे फाल्गुन मासे सुदि पंचम्यां तियो श्री ब्यारा नगरे शान्तिनाय त्यालये थी मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वये म. शानभूषणा: भ. श्री प्रभाबन्द्राः भ. वादिचन्द्रस्य शिष्य ब्रह्म श्री सुमतिसागरेण इदं चरितं लिखित ज्ञानावरणीय कर्म क्षपार्थमिति। २. संवत् सोल एकाबना वर्षे कोधो य पर घजी। भवियन थिर मन करीने सुराज्यो नित संबंध जी। दान दीजे जिन पूजा कोजे समकित मन राखिजे जी। सूत्रज भणिए णवकार वणिए असत्य न विभषिचे जी॥१० लोभव तजी ब्रह्म धरीजे सांभल्याने फल एह जी ।। ए गीत जे नरनारी सुरण से अनेक मंगल तरु गेह जी ॥१॥ संघपति घनजी सवा वचने फीधोए परबंध जी ।। केवली श्रीपास पुष सहित तुम्ह नित्य करो जयकार जी ।।१२ ३. इतिश्री स्याद्वादानबद्य यद्यपय विद्याविशारद-राजमल विरचितायां प्रावकाचारापर नाम लाटीसहितायां साधुदुदात्मज-फामनमनः सरोजारबिंदविकाशनक मार्तण्ड मण्डलायमानायां कथामुख वर्णनं नाम प्रथमः सर्गः ।। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ लिए आचार्य अमृतचन्द्र के समय सार कायद्यों की हावा लिपी यो । उहीका के अध्ययन से अनेक लोग अध्यात्मरस का पान करने को समर्थ हो सके हैं। आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली था, और उनके चित्त में जन कल्याण की भावना सदा जागृत रहती थी। उन्होंने अनेक स्थानों पर विहार कर जनता को कल्याणमार्ग का उपदेश दिया था। खासकर राजस्थान के मारवाड़ और मेवाड़ देश में विहार कर जनकल्याण करते हुए यश और प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। उनका विशुद्ध परिणाम और सर्वोपकारिणी बुद्धि इन दोनों गुणों का एकत्र सम्मेलन उनके बौद्धिक जीवन की विशेषता थी । इन्हीं से साहित्य संसार में उनके यश सौरभ का विस्तार हो रहा था। उनकी अध्यात्मकमल मार्तण्ड और पंचाध्यायी कृतियां उनके प्रध्यात्मानुभव और स्याहादसरणी की निर्देशक हैं। वे जहाँ जाते वहाँ उनका स्वागत होता था। उन्हें प्रागरा में शाहजहाँ के राज्यकाल में कुछ समय रहने का अवसर मिला है। उन्होंने शाहजहाँ को नजदीक से देखा है। और जम्बूस्वामी चरित में उसकी विशेषताओं का दिग्दर्शन भी कराया है। गुजरात विजय का वर्णन करते हए लिखा है। उसने 'जजियाकर छोड़ दिया था और शराब भी बन्द कर दी थी। "मुमोच शुल्कं त्वय जेजियाभिषं, स यावदंभोषर भूधराधरं ॥" २७ "प्रमादमावायजः प्रवर्तते फुधर्मवमेष यतः प्रमतवीः। ततोऽपि मद्यं तववद्यकारणं निवारयामास विद्याबरः सहि ।।" २६ -जंबू स्वामिचरित उस समय प्रागरा में प्रकबर बादशाह के खास अधिकारी कृष्णामंगल चौधरी नाम के क्षत्रिय थे, जो ठाकूर और मरजानी पुत्र भी कहलाते थे और इन्द्रश्री को प्राप्त थे। उनके प्रागे 'गढमल्लसाह' नाम के एक वैष्णव धर्माबलम्बी दूसरे अधिकारी थे, जो बड़े परोपकारी थे। कवि ने उन्हें परोपकारार्थ शाश्वती लक्ष्मी प्राप्त करने का पाशीर्वाद दिया है। जम्बू स्वामी चरित की रचना कराने वाले साहू टोडर उन दोनों के खास प्रीतिपात्र थे, उन्हें कवि ने टकसाल के कार्य में दक्ष बतलाया है : "तयोईयोः प्रीतिरसामृतात्मक सभातिनानाटकसार बक्षकः ।" साहू टोडर भटानिकोल (अलीगढ़) के निवासी अग्रवाल थे, इनका मोत्र गर्ग था। यह काष्ठा संघी भट्टारक कुमारसेन की प्राम्नाय के श्रेष्ठी थे। कवि ने इन्हीं कुमारसेन के पट्ट पर क्रमशः हेमचन्द्र, पद्मनन्दी, यशःकोति और क्षेमकीति का प्रतिष्ठित होना लिखा है। कवि राजमल्ल की निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं-जम्बू स्वामी चरित्र, अध्यात्म-कमल मार्तण्ड, समयसारकलशटीका, लाटी संहिता, छन्दोविद्या सौर पंचाध्यायी। रचना-परिचय जम्बस्वामी चरित्र--इसमें अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के चरित्र का अंकन किया गया है । इस काव्य में १३ सर्ग और २४०० के लगभग श्लोक हैं। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने आगरे में की है, अत: प्रागरे का वर्णन करना स्वाभाविक है। वहाँ के शासक शाहजहाँ का अच्छा वर्णन किया है और उसके कार्यों को प्रशंसा भो को है। काव्यवैराग्य प्रधान है । कहीं पर युद्ध का वर्णन करते हए बीर रस पा गया है, कहीं धर्मशास्त्र और नीति का वर्णन है। जम्बूकूमार के साथ उनकी स्त्रियों और विद्यच्चर के जो संवाद हुए हैं वे बहत ही रोचक हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्व के हैं । इस ग्रन्थ की रचना साहू टोडर के अनुरोध से हुई है जिसने प्रचुर द्रव्य व्यय करके मथुरा में ५१४ स्तपों का जीर्णोद्धार किया था। और उनकी प्रतिष्ठा चतुर्विध संघ के समक्ष ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष में द्वादशी बुधवार के दिन की थी। प्रतिष्ठादि कार्य राजमल्ल द्वारा सम्पन्न हया था। इस ग्रन्थ को रचना कवि ने सं० १६३२ में २. संवत्सरे गताब्दानां पतानां षोडकमात्, शुद्धस्त्रिंशद्भिरब्दश्च साधिक दधति स्फुटम् ११६ शुभे ज्येष्ठे महामासे शुक्ल पक्षे महोदये, द्वादश्यां बुधबारे स्थाघटीनां च नवोपरि, । -बंदू स्वामि चरित्र १.११६ २० Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ौं, १६वी, १७वीं और १५वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि चंत्र बदी अष्टमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में की है। अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-इसमें चार परिच्छेद हैं और २५० श्लोक हैं, रचना प्रौढ़ है, इसमें मोक्ष, मोक्ष मार्गका लक्षण देर नानाग, र लिप और अन्तिम चतुर्थ परिच्छेद में साततत्व नौ पदार्थों का वर्णन है। कवि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में चिदात्मभाव को नमस्कार किया है, और संसार ताप की शान्ति के लिए मोहनीय कर्म को नाश करने के लिए ग्रन्थ की रचना की है। समयसारकलश टोका-कवि ने प्राचार्य अमतचन्द्र द्वारा रचित समयसार को ग्रात्मस्याति टीका के संस्कृत पद्यों में उसके हार्द को अभिव्यक्त करने वाले जो कलश रूप पद्य दिये हैं, उन्हीं पद्यों को हृदयंगम कर उनकी खंडान्वयात्मक बालबोध टीका लिखी है। यह टीका जिनागम, गुरुउपदेश, मुक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्ष को प्रमाण कर लिखी गई है। यही टोका की भाषा हुँडारी ब्रज-राजस्थानी मिश्रित है फिर भी गद्य काव्य सम्बन्यो शेलो पोर लालित्यादि विशेषतायों से प्रोत-प्रोत है। पढ़ते ही चित्त में पालाद उत्पन्न करती है। टीका में प्रत्येक श्लोक के पद-वाक्यों का शब्दश: अर्थ करते हए उसके मथितार्थ को 'भावार्थ इस्यो' वाक्य द्वारा प्रकट किया है। खंडान्वय में विशेषणों और तत्सम्वन्धी सन्दर्भो का स्पष्टीकरण बाद में किया जाता है। राजमल्ल की इस टीवा में उक्त पद्धति से ही विवेचन किया गया है। टोका में अनेक विशेषताएं पाई जाती है। जान पड़ता है कवि ने समय सारादि ग्रन्थों का खुब मनन किया था। उन्होंने उसका अनुभव होने पर ही इस टीका की रचना की है। टीका कब रची गई, इसका उल्लेख नहीं मिलता। टीका मनन करने योग्य है। कवि ने इस टीका का निर्माण संवत् १६८० से पूर्व १६४० में किया है क्योंकि १६८० में अरथमलढोर ने यह बनारसीदास को दी है। उसके प्रचार-प्रसार में समय लगा होगा। लाटी संहिता-यह प्राचार-शास्त्र का ग्रन्थ है। इसमें सात सर्म और पद्यों की संख्या १६०० के लगभग है। कवि ने इस रचना को अनुच्छिष्ट और नवीन बतलाया है । कवि ने यह समय अप्रवाल वंशावतंस मंगल गोत्री साह दुदा के पुत्र संघ के अधिपति 'फामन' नाम के श्रेष्ठी के लिए बनाया है। कवि फामन के वंश का विस्तत वर्णन करते हए फामन के पूर्वजों का मूल निवास स्थान 'डौकीन' नगरी चतलाया है। फामन ने वैराट नगर के 'ताल्हू' नाम के विद्वान की कृपा से धर्म-लाम किया था। जो भट्टारक हेमचन्द्र की प्राम्नाय के बालक थे। वैराट नाम का यह नगर वहो प्रसिद्ध नगर जान पड़ता है जो राजा विराट की राजधानी था, जो मत्स्य देश में स्थित था और जहां वनवास के समय पाण्डव लोग गुप्त रूप में रहे हैं। यह नगर जयपुर से लगभग ४० मील दूर है। कवि ने इस नगर को खूब प्रशंसा की है। वहां उस समय अकबर बादशाह का शासन था और नगर कोट-खाई से युक्त था । उसको पर्वतमाला में तांबे की कितनी ही खाने थी जिनसे तांबा निकाला जाता था। नगर में ऊँचे स्थान पर फामन के बड़े भाई न्योतो ने एक विशाल जिनमन्दिर का निर्माण कराया था जो एक कीति स्तम्भ हो या । यह दिगम्बर जैनमन्दिर बहत विशाल और अनेक सुन्दर चित्रों से अलंकृत था 1 यह मन्दिर पार्श्वनाथ के नाम से लोक १. देखो, जम्बू स्थामीचरित के अन्त की गद्य प्रशस्ति । २. अव्यात्मकमल मार्तण्ड के प्रारम्भ के चार पद्य । ३. सत्यं धर्म रसायनो यदि तदा मां प्रशिक्षयोप क्रमात सारोद्वारमिवाप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षरं सारवत् । आई चापि मृदूक्तिभिः स्फुटमनुच्छिष्ट नवीनं महनिर्माण परिक्षेहि संघ नृपतिर्भूयायवादीदिति ॥७६ लाटी संहिता ४. तवाद्यस्य वरो सुतो वरगुणो न्योता संपाधिपो, येनंतजिनमन्दिर स्फुटमिह प्रोत्तुंगमत्यद्भुतं । वैराटे नगरे निधाय विधिवस्यूजाश्च बह्वयः कृताः । प्रत्रामुत्र सुखप्रदः स्वयशसः स्तंभः समारोपितः ।।७२-लाटी संहिता Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ५३६ प्रसिद्ध था। इसी मन्दिर में बैठ कर कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १६४१ में श्राश्विन शुक्ला दशमी रविवार के दिन बनाकर समाप्त की है, जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :-- श्रीनृपविक्रमावित्यराज्ये परिणते सति सहैकचत्वारिंशविरदानां शतषोडश ॥ २ तत्राप्यऽश्विन मासे सितपक्षे शुभान्विते । anant दाशरथेश्च शोभने रविवासरे ॥३ ग्रन्थ के प्रथम सर्ग में कथा मुख वर्णन है। और शेष छह सर्गों में ग्रन्थ कार ने आठ मूलगुण, सात व्यसन, सम्यग्दर्शन तथा श्रावक के १२ व्रतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन का वर्णन करने के लिए दो सर्ग और अहिंसाणुव्रत के लिए एक सर्ग की स्वतंत्र रचना की गई है। छन्दो विधा - इस ग्रन्थ की २८ पत्रात्मक एक मात्र प्रति दिल्ली के पंचायती मन्दिर के शास्त्र भण्डार में मोजूद है, जो बहुत ही जोर्ण-शीर्ण दशा में हैं। और जिसकी श्लोक संख्या ५५० के लगभग है। इसमें गुरु और लघु अक्षरों का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है जो दीर्घ है, जिसके पर भाग में संयुक्त वर्ण है, जो विन्दु (अनुस्वार- विसर्ग या वक्र (s) है। जो एक मात्रिक है यह लघु होता से युक्त है-पास है जह है है ओर उसका रूप शब्द वक्रता से रहित सरल (1) है ! वह संजुत्तवशे विप्रो थालियो (?) विचरते । स गुरु बकं मत्तो प्रणो लहु होइ शुद्ध एकप्रलो इसके आगे छन्द शास्त्र के नियम - उपनियमों तथा उनके अपवादों आदि का वर्णन किया है। इस पिंगल ग्रन्थ में प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी इन चार भाषाओं के पयों का प्रयोग किया गया है। जिनमें प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की प्रधानता है उनमें छन्दों के नियम, लक्षण और उदाहरण दिये हैं। संस्कृत भाषा में भी नियम और उदाहरण पाये जाते हैं। और हिन्दी में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। इससे कवि की रचना चातुर्य और काव्य प्रवृति का परिचय मिलता है । छन्दो विद्या के निदर्शक इस पिंगल ग्रन्थ की रचना भारमल्ल के लिये की गई है। राजा भारमल्ल का कुल श्रीमाल और गोत्र शंक्याण था । उनके पिता का नाम देवदत्त था, नागौर के निवासी थे। उस समय नागौर में तपागच्छ के साधु चन्द्रकीर्ति पट्ट पर स्थित थे। भारमल्ल उन्हीं की श्राम्नाय के सम्पत्तिशाली वणिक भारमल के पूर्वज 'रंकाराउ' के प्रथम राजपूत थे । पुनः श्रीमाल और श्रीपुर पट्टन के निवासी थे। फिर आबू में गुरु के उपदेश से श्रावक धर्म धारक हुए थे, उन्हीं की वंश परम्परा में भारमल्ल हुए थे । पढमं भूपालं पुणु सिरिभालं सिरिपुर पट्टण वासु, पुणु श्राबू देसि गुरु उवएसि सावय धम्मणिवासु । घण धम्महणिलयं संघह तिलयं रंकाराऊ सरिदु, ता वंश परंवर धम्मधुरंधर भारमल्ल गरिषु ।। ११६ ( मरहट्टा ) भारमल्ल के दो पुत्र थे - इन्द्रराज और अजयराज । इन्द्रराज इन्द्रावतार जस नंबनु दिट, अजयराज राजाधिराज सब कञ्ज गरिट्ठ । स्वामी दास निवास लछि बहू साहि समाणं | सोयं भारमल्ल हेम-य-कुञ्जर-वानं ।। १३१ (रोडक) भारमल्ल कोट्याधीश थे, सांभर झील और अनेक भू-पर्वतों की खानों के अधिपति थे। संभवतः टकसाल भी आपके हाथों में थी । आपके भण्डार में पचास करोड़ सोने का टक्का (अशर्फियाँ) मौजूद थीं। जहाँ आप धनी थे वहाँ दानी भी थे। बादशाह अकबर आपका सम्मान करता था । कवि ने इनका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। यह रचना भारमल्ल को प्रसन्न करने को लिखी गई है। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १५वी. १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक, और कवि नागौर से कविवर वैराट आये। और वे वहाँ के पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में रहने लगे। वह नगर उन्हें पति प्रिय हुमा । वहां लाटी संहिता के निर्माण करते समय उनके दिल में एक ग्रन्थ बनाने का उत्साह जागत हपा। पंचाध्यायी-कवि ने इस ग्रन्थ को पाँच अध्यायों में लिखने की प्रतिज्ञा की थी। वे उसका डेढ अध्याय ही बना सके खेद है। कि बीच में ही प्रायू का क्षय होने से वे उसे पूरा नहीं कर सके । यह समाज का ग्यि ही है। कवि ने आचार्य कुन्द कुन्द और अमृतचन्द्राचार्य के ग्रन्थों का दोहन करके इस ग्रन्थ की रचना की है। अन्य में द्रव्य सामान्य का स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है। और द्रव्य के गुण पर्याय तथा उत्पाद व्यय प्रोग्य का अच्छा विचार किया है। द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा उसके स्वरूप का निर्वाध चिन्तन किया है। नयों के भेद और उनका स्वरूप, निश्चय नय और व्यवहार नय का स्पष्ट कथन किया है। खासकर सम्यग्दर्शन के विवेचन में जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है वह कदि के अनुभव को घोतक है। वास्तव में कवि ने जिस विषय का स्पर्श किया उसका सांगोपांग विवेचन स्वच्छ दर्पण के समान खोलकर स्पष्ट रख दिया है । ग्रन्थराज के कथन को विशेषता अपूर्व और अद्भुत है। उसमें प्रबचनसार का सार जो समाया हुआ है, जो दोनों अन्यों की तुलना से स्पष्ट है। उस समय कवि का स्वानुभव बढ़ा हुया था। यदि ग्रन्थ पूरा लिखा जाता तो वह एक पूर्ण मौलिक कृति होती। ग्रन्थ को कथन शैली गहन और भापा प्रौढ है। अन्य अध्ययन और मनन करने के योग्य है । वर्णी ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन हुआ है। कवि का समय १७ वीं शताब्दी है। कवि शाह ठाकुर वंश परिचय-कवि की जाति खंडेलवाल और गोत्र लुहाऽया या लुहाडिया था। यह वंश राज्यमान्य रहा है । शाह ठाकुर साह सील्हा के प्रपुत्र और साहु खेता के पुत्र थे, जो देव-शास्त्र-गुरु के भक्त और विद्याविनोदो ये. उनका विद्वानों से विशेष प्रेम था । कवि संगीत शास्त्र, छन्द अलंकार मादि में निपुण थे और कविता करने में उन्हें आनन्द प्राता था। उनकी पत्नी यति मोर पायकों का पोषण करने में सावधान थी, उसका नाम 'रमाई था। यावक जन उसको कोति का गान किया करते थे। उसके दो पुत्र थे गोविन्ददास और धर्मदास। इनके भी पुत्रादिक थे। इस तरह शाहठाकुर का परिवार सम्पन्न परिवार था। इनमें धर्मदास विशेष धर्मज्ञ और सम्पूर्ण कुटुम्ब का भार वहन करने वाला, विनयी और गुरु भक्त था। महापुराण कलिका की प्रशस्ति में उनका विस्तत परिचय दिया हुआ है। गुरु परम्परा-मूल संघ, सरस्वती गच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकोति और विशानीति के शिष्य थे। इनके प्रगुरु भ० प्रभाचन्द्र जिनचन्द्र के पट्टधर थे, जो षट तक में निपण तथा कर्कश वाग्गिरा के द्वारा अनेक कवियों के विजेता थे, और जिनका पट्टाभिषेक सं०१५७१ में सम्मेद शिखर पर सुवर्ण कलशों से किया गया था। इन्हीं प्रभाचन्द्र के पट्टधर भ० चन्द्रकीतिये। इनका पदाभिषेक भी उक्त सम्मेद शिखर पर हुआ था। लक्ष्मणगढ़ के दिगम्बर जैन मन्दिर में एक पाषाण मूर्ति है जिसे सं० १९६० में खंडेल वंश के शाह छाजू के पुत्र तारण मत के पुन गूजर ने मूलसव नशाम्नाय के भट्टारक चन्द्रकीति द्वारा प्रति १. पट्टावनी के ३२,३३,३४ पद्यों में प्रभाचन्द्र के सम्मेद शिखर पर होने वाले पट्टाभिषेक का वर्णन है। उसके बाद निम्न ३५ वें पद्य में चन्द्रकीति के पट्टाभिषेक का कथन किया गया है। श्री मलप्रमाचन्द्र गणीन्द्र पट्ट भट्टारक श्री मुनि चन्द्रकीति:संस्नापितो योऽचनिनाथवृन्दः सम्मेद नाम्नीह गिरीन्द्र मूनि ॥३५ प्रस्तुत प्रभाचन्द्र चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारक थे, और चन्द्रकीति का पट्टाभिषेक १६२२ में सम्मेद शिखर पर हुआ था। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र गोपा था। इस पट्टावसी में विशालकीति का उल्लेस नहीं है। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ५३८ टित कराया था। उन्हीं के समसामयिक क्त विद्यालकीर्ति थे, जिनको कवि ने गुरु रूप से उल्लेखित किया है । यद्यपि विशालकीर्ति नाम के कई भट्टारक हो गए हैं, परन्तु प्रस्तुत विशालकीत नागौर के पट्टधर ज्ञात होते हैं। I ग्रन्थ रचना-वाह ठाकुर के दो ग्रन्थ मेरे अवलोकन में आये हैं- महापुराण कलिका, और शान्ति नाथ चरित ये दोनों ही ग्रंथ अजमेर के भट्टारकीय भंडार में उपलब्ध है। इनमें महापुराण कलिका में सठ शलाका पुरुषों का परिचय हिन्दी पथों में दिया है, कहीं-कहीं उसमें संस्कृत पत्र भी मिलते हैं। भाषा में अपभ्रंश और देशी शब्दों का बाहुल्य है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने २७ सन्धियों में पूर्ण को है। इसका रचना काल सं० १६५० है । उस समय दिल्ली में हुमाऊँ नन्दन अकबर का राज्य था । और जयपुर में मानसिंह का राज्य था । कवि ने इस त्रेसठ पुण्य पुरुषों को कथा को अज्ञान विनाशक, भव जन्म छेदन करने वाली, पावनी और शुभ करने वाली बतलाया है । या जन्माभवछेद निर्णयकरी या ब्रह्म बावरी । या संसारविभावभावनपरा या धर्मकमापुरी । अज्ञानादयध्वंसिनी शुभकरी या सदा पावनी, यह वेस डिपुराण उत्तमकमा भव्या सदा यापुनः ॥ महा पुराण कलिका कवि की दूसरी कृति 'शान्ति नाथ पुराण' है जो अपभ्रंश कवि ने उनमें शान्तिनाथ का जीवन परिचय अंकित किया है। जो साधारण है। कवि ने सीधे-सादे शब्दों में जीवन-गाथा पंक्ति की है। पंचमी के दिन चकता वंश के जलालुद्दीन अकबर बादशाह के शासन काल में, मानसिंह के राज्य में नुवाणी पुर में समाप्त किया है। उस समय मानसिंह की राजधानी पामेर थी। कवि की अन्य रचनाओं का अन्वेषण करना श्रावश्यक है । कवि का समय १७वीं शताब्दी का मध्यकाल है। भाषा की रचना है, जिसमें पांच सन्धियाँ हैं । वर्ती कामदेव और तीर्थंकर थे। रचना कवि ने यह विक्रम ० १६५२ भाद्र शुक्ला डाहर देश के कच्छप वंशी राजा मट्टारक विश्वसेन काष्ठा संघ के मन्दिर गच्छ रामसेनान्वय के भट्टारक विशालकीर्ति के शिष्य थे। १. देखो, प्राचीन जैन स्मारक मध्यभारत व राजपुताना पृ० १६६ कति लोके भवति मंडलाचा २. नद्याम्नाये सुगच्छे सुभग श्रुतमले भारतीकारमूर्ते सोमे बंद ठकुरीति नाम विशान।।" ३. संवत् चिति आणि जो जगि जाणी सोलसह पंचासइले । घसटी सुदि माह अरु गुरु लाह रेवती नरिवल पण भले ॥ दुबई कि कवि महापुरिस गुण कलिकाइ संबोधार भवि पोहणार णिइ बुषी पइड भुवणि कवि इणें ॥ ३ ४. साबिर दिल्लीमा नंदन JA पुग्वा पच्छिम कूट दुहाइ उत्तर दक्खिण सब्द अपणा । ५. संवत सोलासह सुभग सालि, बावन वरिस ऊपरि विसालि। महापुराण कलिका सन्धि २३ भादव दि पंचम सुभग बाई, दिल्ली मंडलु देहु मारि अकबर जलालदी पाति साहि वारइ तह राजा मानसाहि । कुरभवंति आरिसानि ढाड देह सोभिराम - शान्तिनाम चरित प्रशस्ति भट्टारकीय अजमेर भण्डार Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वीं, १०वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५३६ विशालकीतिश्च विशालकीतिः जम्बू द्रुमांके विमलेश देवः । विभांति विद्यार्णव एव नित्यं वैराग्यपाथोनिधि शुद्धचेताः || staraसेनी मतिवृन्दमुख्यो विराजते वीतभयः सलीलः । स्वतर्क निशित सडिम्भः विख्यातकीर्तिजितमारमूर्तिः ॥ ५५ ॥ कवि की एकमात्र कृति 'षण्णवति क्षेत्रपाल' पूजा है । कवि ने उसमें रचना काल नहीं दिया। श्रतएव यह निश्चित करना कठिन है कि भ० विश्वसेन में इसकी रचना कब की। इन्होंने सं० १५६६ में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। इनके द्वारा रची आराधनासार की टीका मेन गण भंडार नागपुर में उपलब्ध है । भट्टारक श्रीभूषण ने अपने शान्तिनाथ पुराण में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए विशालकीर्ति के शिष्य भ० विश्वसेन का उल्लेख किया है। इनके शिष्य विद्याभूषण थे। अतएव इनका समय विक्रम को १६वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है । भ० विद्याभूषण काष्ठा संघ नन्दी तटगच्छ और विद्यागण के विद्वान भट्टारक विश्वसेन सूरि के शिष्य थे। संस्कृत और गुजराती भाषा के विद्वान थे। इनकी संस्कृत और हिन्दी गुजराती मिश्रित अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं । जम्बूस्वामी चरित्र, वर्द्धमान चरित्र, बारह सौ चौतीस विधान पत्यविधान पूजा, ऋषिमण्डल यंत्र पूजा, वृहत्कलिकुण्ड पूजा, सिद्धयंत्र मंत्रोद्धार स्तवन-पूजन इनमें जम्बूस्वामी चरित्र की रचना सं० १६५३ में को है, और पल्य विधान पूजा की रचना संवत १६१४ में समाप्त की है। इनके उपदेश से बडौदा के वाडी मुहल्ले के दि० जैन मन्दिर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा सं० १६०४ में प्रतिष्ठित कराई थी जिसे इनकी दीक्षित शिष्या हुवड अनंतमती ने की थी । इन्होंने गुजराती में भविष्यदत्तरास की रचना सं० १६०० में को थी। द्वादशानुप्रेक्षा ( द्वादश भावना ) | नेमीश्वर फाग ३१५ पद्यों में रची गई हैं। यह एक साहियक कृति है, इसके २५१ पद्यों में नेमिनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है दशभवान्तरों के साथ। इसके प्रारम्भ के दो पद्य संस्कृत में हैं और कहीं-कहीं मध्य में भी संस्कृत पद्य पाये जाते हैं । इनका समय १६०० से १६५३ तक सुनिश्चित है। यह १७वीं शताब्दी के भट्टारक है । मट्टारक श्रीभूषण यह काष्ठा संघ गन्दितरगच्छ और विद्या गण में प्रसिद्ध होने वाले रामसेन, नेमिसेन, लक्ष्मीसेन, धर्मसेन, विभलसेन, विशालकीति, और विश्वसेन आदि भट्टारकों को परम्परा में होने वाले भट्टारक विद्याभूषण के पट्टवर थे । और साजित्रा (गुजरात) को गद्दी के पट्टधर थे । भट्टारक समुदाय से ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम कृष्णा साह और माता का नाम माकुही था। अच्छे विद्वान थे, परन्तु मूलसंघ से विद्वेष रखते थे । उसके प्रति उनको तो कषाय थी। पं० नाथूराम जामो वे अपने जैन साहित्य और इतिहास के पृष्ठ ३६६ मं उनके प्रतिवाचिन्तामणि' नामक संस्कृत ग्रन्थ का परिचय कराया है। उससे उनकी उस विद्वेष रूप परिणति का सहज ही पर्दाफाश हो जाता है। साजिया में काष्ठा संघ के भट्टारकों की गद्दी थी, जो अब नहीं है। भ० विद्याभूषण स० १६०४ में उक्त पट्ट पर मौजूद थे। उक्त सम्वत् में उनके उपदेश से पार्श्वनाथ की मूर्ति का प्रतिष्ठा हूंदड १. ०१५६६ वर्षे का० बंदि २ सोभे काछा संथे नरसिंहपुरा जातीय नागर मोत्रे भ० रत्नश्री भा० लीला नित्य प्रणमति म० श्री विश्वसेन प्रतिष्ठा । - भ० सम्प्रदाय पृ० २६९ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ज्ञातीय अनन्तमती ने कराई थी। श्रीभूषण उक्त पट्ट पर कब प्रतिष्ठित हुए इसका स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता । किन्तु पाण्डव पुराण के सं० १६५७ को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वे उक्त पट्ट पर प्रतिष्ठित हो चुके थे । सं० १६३४ में इनका श्वेताम्बरों से बाद हुआ था जिससे उन्हें देश त्याग करना पड़ा था। इन्होंने बादिचन्द्र को भी बाद में पराजित किया था । श्रीभूषण के शिष्य भ० चन्द्रकीति ने अपने गुरु श्रीभूषण को सच्चारित्र तपोनिधि, विद्वानों के अभिमान शिखर को तोडने वाला वच्त्र, और स्याद्वादविद्याचरण बतलाया है । यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे । इन्होंने सं० १६३६ में पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। और सं० १६६० में पद्मावती की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी । तत्पट्टाम्बर भूषणंकतरिणः स्याद्वादविद्याचिणो | १| विन्द कुलाभिमान शिखरी प्रध्वंसतीब्राशनिः । सच्चारित्र तपोनिधिधर्मनिवरो विद्वत्सु शिष्यं ब्रजः, श्री श्रीभूषण सूरिराट् बिजयेत् श्री काष्ठा संघाणी ॥७२ आपको निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं पाण्डव पुराण, शान्तिनाथ पुराण, हरिवंश पुराण, अनन्त व्रत पूजा, ज्येष्ठ जिनवर व्रतोद्यापन चतुर्विंशति तीर्थकर पूजा, द्वादशाम पूजा । पाण्डव पुराण - इस में पाण्डदों का चरित अंकित गया है, जिसकी श्लोक संख्या छह हजार सात सौ बतलाई गई है । कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सम्वत १६५७, पूस महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया रविवार के दिन पूर्ण किया है श्री विक्रमार्क समयागत षोडशार्क सत्सुंबराकृति वरे शुभवत्सरे वं । वर्षे कृतं सुखकरं सुपुराणमेतत् पंचाशदुत्तर सुसप्त युते ( १६५७) वरेण्ये || पौस मासे तथा शुक्ले नक्षत्रे तृतियादिने ।११० रविवारे शुभेयोगे चरितं निर्मितं मया । १११ शान्तिनाथ पुराण - इसमें भगवान शान्तिनाथ का जीवन परिचय अंकित है जिसकी पद्य संख्या ४०२५ बतलाई गई है । प्रशस्ति में कवि ने अपनी पट्ट परम्परा के भट्टारकों का उल्लेख किया है । कवि ने इस ग्रन्थ को सं० १६५९ में मगशिर के महीने की त्रयोदशी को सौजित्र में नेमिनाथ के समीप पूरा किया है- संवत्सरं षोडशनामध्ये एकोनशत्वष्ठियुते (१६५६) वरेण्ये | श्री मार्ग शीर्ष रचित मयाहि शास्त्रं च वष विमल विशुद्धं ।।४६२ त्रयोदशी सहिवसे विशुद्ध वारे गुरौ शान्ति जिनस्य रम्यं । पुराणयेत द्विपुलं विशालं जीयाश्चिरं पुण्यकरं नराणाम् ॥४६३ ( युग्म ) हरिवंश पुराण - इस ग्रन्थ की प्रति तेरहपंथी बड़ा मन्दिर जयपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जिस का रचना काल सं० १६७५ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी है। (जैन ग्रन्थ सूची भा० २ ० २१८ ) शेष पूजा ग्रन्थ हैं, उनकी प्रतियाँ सामने न होने से उनका परिचय देना शक्य नहीं है। भट्टारक चन्द्रकोति काष्ठासंघ नन्दितरगच्छ विद्यागण के भट्टारक श्रीभूषण के पट्टधर शिष्य थे । अच्छे विद्वान थे। इन्होंने अपने थों के अन्त में जो प्रशस्ति दी है उसमें नन्दितट गच्छ के भट्टारकों की प्रशंसा की गई है। चन्द्रकीति कहां के पट्टधर थे, उसका स्पष्ट निर्देश नहीं मिला। उस समय सोजित्रा के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी काष्ठासंघ के पट्ट रहे १. सं० १६०४ वर्षे वैशाख वदी ११ शुक्र काष्ठा संघे नन्दी तटगच्छे विद्यागणे भट्टारक रामसेनान्वये भ० श्रो विशाल कीर्ति तत्पट्टे भट्टारक श्री विश्वसेन तत्पटे भ० विद्याभूषन प्रतिष्ठित गड जातीय गृहीत दीक्षा बाई अनन्त नित्यं प्रणमति । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वी, १७वीं और १५वी शादी के आकार्ष, भट्टारक और कवि हैं। चन्द्रकीति ने दक्षिण को यात्रा करते हुए कावेरी नदी के तार पर नरसिंह पट्टन में कृष्ण भट्ट को बाद में पराजित किया था। यह १७वों शताब्दी के विद्वान थे। इनकी निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं. पावपुराण, वृषभदेव पुराण, कथाकोश, पद्मपुराण, पंच मरू पूजा, अनंतत्रतपूजा और नन्दीश्वर विधान प्रादि । पार्श्वपुराण-१५ सर्गों में विभक्त है, जिसकी पद्य संख्या २७१५ है। इसमें तेवीस तीर्थकर पाश्वनाथ का चरित वणित है । कवि ने इसकी रचना देवगिरि नामक मनोहर नगर के पार्श्वनाथ जिनालय में वि० सं० १६५४ के वैशाख शुक्ला सप्तमी गुरुवार को समाप्त की है। श्रीमद्देवगिरी मनोहरपरे श्रीपाश्र्थनाथालये, यर्षन्धी पुरसंक मेव (१६५४) इह व श्रीविक्रमांकेश्वर। सप्तम्या गुरुवासरे श्रवण भे वंशाखमासे सिते, पाश्र्वाधीशपुराणमुत्तममिदं पर्याप्तमेवोत्तरम् ।। (पाश्व० प्र०) वृषभदेव पुराण- इसमें प्रादिनाथ वा चरित वणित है। यह २५ सगों में समाप्त हमा है। कवि ने इस ग्रन्थ में रचना काल ह. चिया, अतः या सगन्नीलन किये बिना यह निश्चय करना कठिन है कि इनमें कौन अन्य पहले बना, और कौन बाद में। कथा कोश-में सप्त परमस्थान के व्रतों की कथाएं दी हुई हैं, । ग्रन्थ दो अधिकारों में समाप्त हुआ है। ग्रन्थ में रचना काल दिया हया नहीं है। अन्य ग्रन्थ सामने न होने से उनका परिचय दना सम्भव नहीं है। ग्रन्थकर्ता कवि चन्द्रकीति १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान हैं। भ० सकलभूषण मूलसंघ स्थित नन्दिसंघ और सरस्वती गच्छ के भट्टारक विजय कीर्ति के पशिष्य और भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य एवं भट्टारक सुमति कोति के गुरुभ्राता थे। भ. सुमतिकीर्ति भी शुभचन्द्र के शिष्य थे और उनके शद पट्ट पर बैठे थे। भ० सकलभुपग ने नेमिचन्द्राचार्य आदि यतियों के ग्रामह तथा वर्धमान टोला आदि की प्रार्थना से उपदेश रत्नमाला नाम के भ्रन्थ की रचना वि० सं० १६२७ में धावण शुक्ला पष्ठी के दिन समाप्त की है। 1 इस ग्रन्थ में १८ अध्याय और तीन हजार तीन सौ तेरासी (३३८३) पद्य हैं। इनकी दूसरी कृति 'मल्लिनाथचरित्र' है, जिसकी प्रति बूदी के अभिनन्दन स्वामी के मन्दिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। अन्य रचनाए अन्वेषणीय हैं । कवि का समय १७ वीं पाताब्दी है। म. धर्मकोति मलसंघ सरस्वतीगच्छ ओर बलात्कार गण के विद्वान भटारक ललितकीति के शिष्य थे । ललितकीति मालवा की गद्दी के भट्टारक थे। प्रस्तुत धर्मकीति की दो रचनाएं उपलब्ध हैं पद्मपुराण और हरिवंश पुराण । पन पुराण की रचना कवि ने रविषेण के पद्म चरित को देखकर मालव देश में सं० १६६६ में श्रावण महीने की ततियाशनिवार के दिन पूर्ण की थी । और हरिवंश पुराण भी उसी मालवा में सं० १६७१ के पाश्विन महीने की कृष्णा पंचमी १. सप्तविंशत्यधिके पोडशशतवत्स रेषु (१६२७) विक्रमतः । श्रावणमासे शुक्ल पक्षे षष्ठ्या कृतो ग्रन्थः । २३५ -जंन ग्रन्थ प्र० सं० ११० २० २. जैन ग्रन्थ सूची भा० ५ १० ३६६ ६. "संवत्सरे द्वयष्ट शते मनोनें चैकोन सप्तत्यधिके (१६६६) सुमासे । श्री श्रावणे सूर्यदिने तृतीयातिथौ च देशेषु हि मालवेषु ।। (पा पु०प्र०) Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ रविवार के दिन पूर्ण किया था । धर्मकीर्ति ने इन ग्रन्थों में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेल किया है, वह निम्न प्रकार है- देवेन्द्रकीति, त्रिलोक कीर्ति, सहस्त्रकीति, पद्मनन्त्री, यशः कोति, ललितकीति और धर्मकोति । कवि का समय विक्रमको १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध हैं। कवि की अन्य रचनाए अन्वेषणीय हैं । भ० गुणचन्द्र यह मूल संघ सरस्वतीच्छ बलात्कार गण के विद्वान थे । यह भ० रत्नकीति के द्वारा दीक्षित और यशः कीति के शिष्य थे। इन के पूजा ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। अन्य कोई महत्व की रचनाएं अवलोकन करने में नहीं थाई | यह १७वीं शताब्दी के विद्वान थे। भ० गुणचन्द्र ने वाग्वर (वागड ) देश के सागवाडा के निवासी कुंबड या हूमड वंशी सेठ हरषचन्द दुर्गादास की प्रेरणा से उनके व्रत के उद्यापनार्थ सं० १६३३ में वहां के प्रादिनाथ चैत्यालय में ८०० श्लोकों में 'अनतजिन व्रत पूजा' की रचना की थो संशय फुलके ( १६३३) पक्षेऽवदाते तिथी, पञ्च गुरुवासरे पुरुजिने श्री शाकभागपुरे । श्रीमद्ध ुम्बड वंश पद्म सविताहर्षाख्यदुर्गा वणिक्, सोऽयं कारितवाननंत जिनसपूजांबरे वाग्वरे ॥ जैन ग्रन्थ प्रदा० सं० २०० १० २४ मौनव्रत कथा और अन्य अनेक पूजा ग्रन्थ इनके बनाये हुए कहे जाते हैं, पर सामने न होने से उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । भट्टारक रत्नचन्द्र यह हुंदड जाति के महीपाल वैश्य और चम्पा देवी के पुत्र थे । तथा मूलसंघ सरस्वतिगच्छ के भट्टारक सकलचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा के भट्टारकों का उल्लेख निम्न प्रकार दिया है पद्मनन्दी सकल कीर्ति, भुवनकीति, रत्नकीति, मंडलाचार्य यशः कीर्ति, गुणचन्द्र, जिनचन्द्र, सकलचन्द्र और रत्नचन्द्र । रत्नचन्द्र स्याद्वाद के जानकार थे। इनकी एकमात्र रचना सुभीमचक्रवर्ती चरित्र है, जो सात सगों में समाप्त हुआ है । कवि ने इस ग्रंथ को वि० सं० १६०३ में भाद्रपद शुक्ला पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त किया यह विक्रम की १७वीं (और ईसा की १६२७ सत्रहवीं शताब्दी के विद्वान थे । । भट्टारक रत्न चन्द्र ने यह ग्रन्थ खंडेलवाल वंशोत्पन्न हेमराज पाटनी के लिये बनाया था, जो सम्मेद शिखर की यात्रार्थ भ० रत्नचन्द्र के साथ गये थे । हेमराज की धर्मपत्नी का नाम 'हमोर' था । यह वाग्वर देवसेस्थित सागवाड़ा के निवासी थे । कवि ने ग्रन्थ बुध तेजपाल की सहायता से बनाया था। । I वादि विद्यानन्द विद्यानन्द नन्दि संघ, कुन्दकुन्दान्वय बलात्कारगण और भारतीगच्छ के प्राचार्य थे । यह अपने समय के १. यष्टशते चैकानसप्तत्यधिके (१६७१) रखो । अश्विने कृष्ण पंचां ग्रन्थोऽयं रचितं मया ।।" - हरिवंश पु० प्र० २. संवते पोसापाने व्यशीति वत्सरांकिते । मासि भाद्र पदे श्वेत पंचम्पां गुरुवार के ॥११ ३. ग्रन्थ का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है :-- इति श्री सुभमचरित्रे सूरि श्रीसकल चन्द्रानुचर भट्टारक श्री रत्नचन्द्र विरचिते विबुधतेजपाल हाय सोप श्रीखण्डेल बालान्वय पण गोत्राम्बरादित्य श्रेष्ठि हेमराजनामकिले सुभीमनरकप्राप्ति वर्णनो नाम सप्तमस (जैन ग्रन्थ प्र० ५० ६२ ) Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं १६, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५४३ 1 अच्छे विद्वान, तार्किक और वादी रूप में प्रसिद्ध थे । इनका उल्लेख शक सं० १४५२ (६० सन् १५३० ) में उत्कीर्ण हुए हुम्बनके नगर ताल्लुक लेख नं० ४६ में हुआ है । वर्द्धमान मुनीन्द्र ने, जो इन्हीं विद्यानन्द के शिष्य और बन्धु थे, उन्होंने शक सं० १४६४ (सन् १५४२ ) में समाप्त हुए दशभक्तयादि महाशास्त्र में उनका खूब स्तवन किया है। यह विद्यानन्द विजय नगर साम्राज्य के समकालीन हैं। इन्होंने मजराज, देवराज, कृष्णराज आदि अनेक राजाधों की सभा में जाकर शास्त्रार्थ किये और उनमें विजय प्राप्त कर यश और प्रतिष्ठा प्राप्त की । इन्होंने गेरुसोडये, कोयण और श्रवण बेलगोल आदि स्थानों में अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न किये। इनके देवेन्द्र कीति, वर्द्धमान मुनीन्द्र आदि अनेक शिष्य थे। इनमें वर्द्धमान मुनीन्द्र ने दशभक्तयादि महाशास्त्र और वरांग चरित की रचना की है'। स्वर्गीय आर० नरसिंहाचार्य का अनुमान है कि ये विद्यानन्द भल्लातकी पुर (गैरसोप्पे ) के निवासी थे । और इन्होंने 'काव्यसार' के अतिरिक्त एक और ग्रन्थ की रचना की थी। स्वर्गवास वाक्य से प्रकट है : क सं ० १४६३ (सन् १५४१ ) में हुआ था जैसा कि दशभक्तयादि महाशास्त्र के निम्न "शोक वेद खराब्धि चन्द्र कलिते संवत्सरे शायरे, शुद्ध श्रावणभाक्कृतान्त मेये घरणोतु मंत्र छौ । afeस्थे समुरौ जिनस्मरणतो वारीन्द्रवृन्दाचितः । विद्यानन्द सुनीश्वरः सगतवान् स्वर्गे चिदानन्दकः ॥ - प्रशस्तिसं० पृ० १२५ ब्रह्म कामराज मूलसंघ बलात्कार गण के भट्टारक पद्मनन्दी के अन्य में हुए हैं। यह भटटारक सकलभूषण के प्रशिष्य और नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य ब्रह्म सहलाद वर्णी के शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक सकलकीर्ति के सादि पुराण को देखकर मेवाड में शक सं० १५५५ फाल्गुन महीने में (सन् १६३३ वि० सं० १६६१ ) में जय पुराण नाम के ग्रन्थ की रचना की है रचना साधारण है। कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है । ब्रह्म रायमल्ल नाम 'मा' और माता का नाम चम्पादेवी था । यह समाश्रित ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभ जिनालय में वर्गीकर्मसी शुक्ला पंचमी बुद्धवार के दिन बनाई थी । भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी हिन्दी हनुमन्त कथा, प्रद्युम्नचरित, सुदर्शनसार, निर्दोषसप्तमी इनका जन्म हुंबड वंश में हुआ था। इनके पिता का जिन चरणों के उपासक थे। इन्होंने महासागर के तट भाग में के वचनों से 'भक्तामर स्तोत्र को वृत्ति सं० १६६७ में आषाढ ब्रह्म रायमल्ल मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे, जो गुजराती मिश्रित ७-८ रचनाएं उपलब्ध हुनेमीश्वररांस, व्रत कथा, श्रीपालरास और भविष्यदत्त कथा | इनका समय १७वीं शताब्दी है । १. देखो, अनेकान्त वर्ष २६ किरण २१० ८२ २. प्रशस्तिसंग्रह पृ० १४४ ३. राष्ट्रस्यैतत्पुराणं शक मनुजवते मेंदपाटस्य पुर्यां 1 पश्चात्संवत्सरस्य प्ररचितपटतः पंच पंचायतो हि । प्रभ्राभ्रक्षैक संवच्धरनिवियुज: ( १५५५) फाल्गुणे मामि पूर्णे | मुख्यायामौदा सुकविनगिनो लालजिष्णोदन वाक्यात् ॥ जेनवन्य प्र० पृ० ३६ ४. सप्तषष्ठ्यं किले वर्षे षोडणाख्ये हि संत्रते (१६६७) । आधा श्वेत पक्षस्य पंचम्यां दुधबारके 11 ग्रीवापुरे महासिंधो स्वभागं समाश्रिते । प्रस्तुंग दुर्गं संयुक्ते श्रीचन्द्रप्रभवति || वर्णिनः कर्मसीनाम्नो वचनात् मयकाऽरचि । भक्तामरस्य सद्वृत्तिः रत्यभल्लेन वणिनाः ॥१० जैन ग्रन्थ प्र० पु० १०० Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भास २ मूल संघ 'कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के भट्टारक वादिभूषण के पट्टधर शिष्य थे, और भट्टारक ज्ञानकीति पद्म कीर्ति के गुरु भाई थे । "श्री मूलसंधे च सरस्वतीति गच्छे बलात्कारगणे प्रसिद्धे । श्री कुन्दकुन्दाचयके यतीश श्रीवादिभूषो जयतीह लोके ॥५६ तदगुर वन्धुर्भुवन समयः पंकजकीतिः सूरि पादतो मदन विमुक्तः सद्गुणरा विजयतु चिरं सः ॥५६ परम पवित्रः । शिष्यस्योमकीर्ति श्री सूरिचाल्प सुशास्त्रवेत्ता" नामा ज्ञानकीर्ति की एकमात्र रचना 'यशोधर चरित' है, जिसमें राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन-परिचय दिया हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ को बंगदेश में स्थित चम्पानगरी के समीप 'कच्छपुर' (अकबरपुर ) नामक नगर के आदिनाथ चैत्यालय में विक्रम सं० १६५६ में माघशुक्ल पंचमी शुक्रवार के दिन बनाकर पूर्ण किया' । भट्टारक ज्ञानकीर्ति ने साह नानू की प्रार्थना और बुध जयचन्द्र के श्राग्रह में इस ग्रन्थ की रचना की थी। साह नानू वैरिकुल को जीतने वाले राजा मानसिंह के महामात्य (प्रधानमंत्री थे ।) खण्डेलवाल वंशभूषण गोवा गोत्रीय साह रूपचन्द्र के सुपुत्र थे । साह रूपचन्द्र जैसे श्रीमन्त थे वैसे ही समुदार, दाता, गुणज्ञ और जिनपूजन में तत्पर रहते थे। भ्रष्टापद शैल पर जिस तरह भरत चक्रवर्ती ने जिनालयों का निर्माण कराया था, उसी तरह साहू नानू ने भी सम्मेदल पर निर्वाण प्राप्त वीस तीर्थकरों के मन्दिर बनवाने थे और उनकी अनेक बार यात्रा भी की थी । ५४४ पंडित रूपचन्द्र यह कुछ नाम के देश में स्थित सलेमपुर के निवासी थे। प्राप अग्रवाल वंश के भूषण और गर्ग गोत्री थे । आपके पितामह का नाम मामट और पिता का नाम भगवानदास था। भगवानदास की दो पत्नियां थीं । जिनमें प्रथम से ब्रह्मदास नाम के पुत्र का जन्म हुआ। और दूसरी 'चाचो' से पांच पुत्र समुत्पन्न हुए थे - हरिराज, भूपति, अभयराज, कोर्तिचन्द्र और रूपचन्द्र । इनमें अन्तिम रूपचन्द्र हो प्रसिद्ध कवि थे और जैन सिद्धान्त के अच्छे मर्मज्ञ विद्वान थे। वे ज्ञान प्राप्ति के लिये बनारस गये थे और वहां से शब्द अर्थ रूप सुधारस का पान कर दरियापुर में लौटकर आये थे । दरियापुर वर्तमान में बाराबंकी और अयोध्य के मध्यवती स्थान में बसा हुआ है, जिसे दरियाबाद भी कहा जाता है । वहाँ धाज भी जैनियों की बस्ती है और जिन मन्दिर बना हुआ है । हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि बनारसी दास जी ने अपने 'अर्धकथानक' में लिखा है कि संवत् १६९२ में १. वाजे षोडशएकोनषष्ठिवत्सरके शुभे । माशुक्लेऽपि पंचमया रचितं भृगुवासरे ॥६१ – यशोधर च० प्र० २. रामराज तथा विभाति श्रीमान् सिहो जित वैरिवर्गः । अनेकराजेन्द्र विनम्यपादः स्वदान संतर्पित विश्वलोकः ॥ प्रतार सूर्यस्तपतीह यस्य द्विषां शिरस्सु प्रविधाय पादं । अन्याय- शुध्यन्ति मयास्य दूरं यथाकरं यः प्रविकाशयेच्च ।। ६३ तथैव राज्ञोऽस्ति महान मात्यो नानूसुनामा विदितो घरिया ।" ३. सम्मेद व च जिवेन्द्र गेहमष्टापदे वादिम चक्रधारी ॥ ६४ यो कारयद्यत्र व तीर्थनाथाः सिद्धि गता विशति मानभुक्ताः ।" - यशोधर ० यशोधर च० प्र० Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११११ और १६ब्दी के प्राचार्य भट्टारक और कवि ૧૪: ग्रागरा में पं० रूपचन्द्र जी गुनो का आगमन हुआ और उन्होंने तिता साहू के मन्दिर में डेरा किया। उस समय घागरा में सब अध्यात्मयों ने मिलकर विचार किया कि उक्त पंडित जी से प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार ग्रन्थ का वाचन कराया जाय। चुनांचे पंडित जी ने गोम्मटसार ग्रन्थ का प्रवचन किया और मागंगा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा कर्मबन्धादि के स्वरूप का विशद विवेचन किया। साथ ही क्रियाकाण्ड और निलय व्यवहार नम की यथार्थ कथनी का रहस्य भी समझाया धौर यह भी बतलाया कि जो नए दृष्टि से विहीन हैं उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती तथा वस्तु स्वभाव से रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकते। पंडित रुपचन्द्र जी के वस्तुविवेचन से पं० बनारसी दास का वह एकान्त अभिनिवेश दूर हो गया जो उन्हें और उनके साथियों को 'नाटक समयसार' की रायमल्लीय टीका के अध्ययन से हो गया था और जिसके कारण वे जप, तप, सामायिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को छोड़कर भगवान को बड़ा हुआ नैवेद्य भी खाने लगे थे। यह दशा केवल बनारसी दास जी की नहीं हुई किन्तु उनके साथी 'चन्द्रभान, उदयकरन और पानमस्ल की भी हो गई थी। ये चारों ही जने नग्न होकर एक कोठरी में फिरते थे और कहते थे कि हम मुनिराज हैं, हमारे पास कुछ भी परिग्रह नहीं है। जैसा कि अर्धकथानक के निम्न दोहे से स्पष्ट है : "जगन होंहि चारों जमे फिरहि कोठरी मांहि । कहि नये मुनिराज हम कछु परिग्रह नाहि ।" यांचे रूप जी के वचनों को सुनकर बनारसी दास जी का परिणमन और रूप ही हो गया। उनकी दृष्टि में सत्यता और पदा में निर्मलता का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने उसे दूर किया। उस समय उनके हृदय में धनुषमज्ञान ज्योति जागृत हो उठी थी, और इससे उन्होंने अपने को स्याद्वाद परिणति' से परिणत बतलाया है। सं० १६९३ में पं० बनारसी दास ने प्राचार्य अमृत चन्द्र के 'नाटक समयसार कलश' का हिन्दी पद्यानुवाद किया और संवत् १६६४ में पंडित रूपचन्द्र जी का स्वर्गवास हो गया । १. सं० १६६० के लगभग रूपचन्द्र का आगरा में आगमन हुआ । अनायास इस हो समय नगर धागरे धान । रूपन्द्र पंडित गुनी प्रयोगमजान ।। ६३० बिना साहू देहरा किया, वहाँ पाय तिन देश जिप अर्धकथानक तिनका यह देहरा ० १६५९ से पहले का बना हुआ है। कविवर भगवती दास १६५१ में निर्मित अर्गलपुर जिनमंदिर के पक्ष में इसका उल्लेख किया है। २. सब मामी कियो विचार, ग्रंथ बंचायो गोम्मटसार । तामे गुनानक परवान कह्यो ज्ञान यह क्रिया विधान ॥ ३. अनायास इसही समय नगर मारे थान, रूपचन्द्र पण्डित गुनी आयो आगमजान | किया आप जिन डेरा नया में गुत यानक गरवान कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान । जो जिये जिसगुनयानक होइ, जैसी किया करें सत्र को ६३२ भिन्न-भिन्न विवरण विस्तार अन्तरनियत र व्यवहार सबकी कथा कहो, मुनिना रही ३३ सम् बरसी ओरहि भयो, स्पाद्वाद परिणति परियो । प िरूपचन्द्र गुरु पास, सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास ॥६३४ फिर तिस समय बरस के बीष, रूपचंद्र को आई मीच । सुन-सुन रूपचन्द्र के चैन, बनारसी भयो दिन ६१५ बारीकियी विचार धन्य बनायो गोम्मट ३१ अक्षं कथानक Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अर्ध कथानक के इस उल्लेख से मालूम होता है कि प्रस्तुत पांडे रूपचन्द्र ही उक्त 'समवसरण पाठ' के रचयिता हैं कि उक्त पाठ भी संवत् १६६२ में रचा म रचा गया है और पं० बनारसो दास जो ने उक्त घटना का समय भी अर्धकथानक में सं० १६१२ दिया है। कि उक्त पाठ प्रागरे को घटना से पूर्व हो रचा गया था, इससे प्रशस्त में उसका कोई उल्लेख नहीं किया गया । पं० बनारसी दास ने नाटक समयसार को रचना सं. १६९३ में समाप्त की है। प्रोर स. १६६४ में रूपचन्द्र की मृत्यु हो गई। अतः नाटक समयसार प्रशस्ति में पांच विद्वानों में पं. रूपचन्द्र प्रयम का उलाख किया है। वे वही रूपचन्द्र हैं जो आगरा में सं० १६६० के लगभग आये थे। इनकी संस्कृत भाषा की एकमात्र कृति 'समवसरण पाठ अमवा केवल ज्ञान कल्याणा है। इसमें जन तीर्थकर के केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर जो अन्तर्वाह्य विभति प्राप्त होता है, अथवा ज्ञानावरण, दर्शनाबरग, मोहनीय और अन्तरायरूप धातिया नर्मों के विनाश से अनन्त चतुष्टय रूप प्रात्म निधि की समुपलब्धि होता है उसका वर्णन है। साथ ही बाह्य में जो समवसरणादि विभूति का प्रदर्शन होता है वह सब उनके गुणातिशय अथवा पुण्यातिशय का महत्व है-वे उस विभूति से सर्वथा अलिप्त अन्तरीक्ष में विराजमान रहते है और बीत मुग विज्ञान रूप आत्म-निधि के द्वारा जगत का कल्याण करते हैं, ससार के दुखी प्राणियों को उससे छुटकारा पाने मोर शाश्वः तुज प्राप्त करने का सुगम मागं बतलाते हैं। कवि ने इस पाठ की रचना आचार्य जिनमेन के आदि पूराण गत 'समवसरण' विषयक कथन को दृष्टि में रखते हए की है। प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्ली के बादशाह जहांगीर के पत्र शाहजहाँ के राज्य काल में गंवन् १६६१ के अाश्विन महीने के कृष्ण पक्ष में नवमी गुरुवार के दिन, सिद्धि योग में और पुनर्वसु नक्षत्र में समान हुमा है जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: श्रीमत्संवत्सरेऽस्मिन्नरपति नुत पविक्रमादित्य राज्येऽतीते दगनंद भद्राशुक्रत परिमिते (१६६२) कृष्णपक्षे च मासे । देवाचार्य प्रचारे शुभनवमतिथी सिद्धयोगे प्रसिद्ध । पौनर्वस्वित्पुङस्थे (?) समवसतिमहं प्राप्त माप्ता समाप्ति । पं. रूपचन्द्र ने केवल ज्ञान कल्याणक पूजा' के बनवाने में प्रेरक भगवानदास के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया है जो इस प्रकार है: मूल संघान्तर्गत नन्दिसंघ, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय में वादी रूपी हस्तियों के मद को भेदन करने वाले सिंहकीति हुए । उनके पट्ट पर धर्मकीर्ति, धर्मकीति के पट्ट पर ज्ञानभूषण, शानभषणा के पट्ट पर भारती भूषण तपस्वी भवारकों द्वारा अभिनन्दनीय विगत दुषण भट्टारक जगतभूषण हुए। इन्हीं भ. जगभूषण की गोलापूर्व' आम्नाय में दिव्यनयन हुए। उनकी पत्नी का नाम दुर्गा था। उसमे दो पुत्र हुए। - - ---- -- १. यह उपजाधि है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नही है। इसका निवास अधिवनर बुंदे नखण्ड में पाया जाता है यह सागर, दमोह जबलपुर, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, अहार, महोत्रा, नाबई, ये ना, हिरी दिल्ली और ग्वालियर के आरा-पास के स्थानों में भी निवास करते हैं। १२वीं और १६वी दादी के मुनि नेगों में इसको समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। इस जाति का निकास 'गोल्लागढ़' (गोनाकोर) को पूर्व दिशा से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा में रहने वाले गोजपूर्व कहलाए। यह जाति किसी समय श्वापु वंशी क्षश्चि श्री। किन्तु व्यापार आदि करने के कारण वणिकों में इनकी गणना होने लगी। ग्वालियर के पास कितने ही गोनापूर्व विद्वानों ने ग्रन्थ रचना और मय प्रतिलिपि करवाई है। ग्वालियर के अन्तर्गत श्योपुर (शिवपुरी) में ऋषि धनराज गोलापर्व ने सं० १६६४ से कुछ ही समय पूर्व भव्यानंद पंचासिका' (भक्तामर का भावा पद्यानुवाद) किया था और उनके पितष्य जिनदास के पुत्र सागसेन (असिसेन) ने पन्द्रह-पन्द्रह पदों की एक संस्कृत जयमाला बनाई थी। इसकी एक जोर्ण-शीएं सचित्र प्रति मूनि कान्तिसागर जी के पास थो। धनराज का हिन्दी पद्यानुवाद पाडे हेमराज Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं, १६वौं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि चक्रसेन और मित्रसेन । चक्रसेन की पत्नी का नाम कृष्णावती था, और उससे केवलसेन तथा धर्म सेन नाम के दो पुत्र हुए। मित्रसेन की धर्मपत्नी का नाम प्रमोश ! जमली को गुगपत्र हुए। इनमें प्रथम पुत्र का नाम भगवानदास था, जो बड़ाही. प्रतापी और गंध का नायक था। और दूसरा पुत्र हरिवंश भी धर्म प्रेमी और गुण सम्पन्न था । भगवान दास की धर्मपत्नी का नाम केशरिदे था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे-महासेन, जिनदास और मुनिसूत्रत । संघाधिप भगवानदास ने जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा कराई थी और संघराज की पदवी को प्राप्त किया था। वह दान में कर्ण के समान था। इन्हीं भगवानदास की प्रेरणा से पंडित रूपचन्द्र जी ने प्रस्तुत पाठ की रचना की थी। पंडित रूपचन्द्र जी ने इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में नेत्रसिंह नाम के अपने एक प्रधान शिष्य का भी उल्लेख किया है, पर वे कौन थे और कहां के निवासी थे, यह कुछ मालूम नहीं हो सका। उक्त सस्कृत पाठ के अतिरिक्त कबि रूपचन्द्र का हिन्दी भाषा की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं, जिनमें रूपचन्द्र दोहाशतक, पंचमंगल पाठ, नेमिनाथ रास, जकड़ी और खटोलना गीत प्रादि हैं। सुमतिकोति मूल संघ स्थित नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर थे। भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र इनके दीक्षा गुरु और भ० वीरनन्द्र शिक्षागुरु थे। साथ में सुमतिकीर्ति ने ज्ञानभूपण को गुरु मानकर नमस्कार किया है। इन्होंने प्राकृत पंचसंग्रह की संस्कृत टीका हसा ब्रह्मचारी के उपदेश से वि० सं० १६२० में भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन ईडर के आदिनाथ मन्दिर में बनाकर समाप्त को है। पंचसंग्रह में जीव समास, प्रकृति समुत्कीर्तन, कर्मस्तव शतक और सप्तति इन पांच प्रकरणों का संग्रह है। प्राकुल संग्रह की यह मूल प्राकृत रचना बहुत पुरानी है। इस पर पपनन्दी की प्राकात वृत्ति भी है। इस पंचसग्रह का १०वी ११वीं शताब्दी में तो संस्कृतकरण श्रीपाल सुत डड्ढा और अमितगति ने किया है। इतना ही नहीं किन्तु पंचसंग्रह की प्राकृत गाथाएं धबला में उद्धृत पाई जाती है। सम्भवत: मूल पंचसंग्रह प्रकलंक देव के सामने भी रहा है। पं० आशाधर जी ने मुलाराधना दर्पण नाम की टीका में इसकी ५ गाथाएं उद्धत को हैं। इसके उत्तर तंत्रकर्ता लोहायरिया भट्टारक प्रय भूदिम मायरिया वाक्य से प्रात्म भूति आचार्य जान पड़ते हैं। इससे इसकी प्रामाणिकता और प्राचीनता झलकती है । भट्टारक सुमतिकीति ने इसकी टीका १७वीं शताब्दी के पूर्वाधं में बनाई है। सुमतिकीति ने धर्मपरीक्षा नाम का एक ग्रन्थ गुजरातो भाषा में १६२५ में बनाया है। ऐ०५० दिन सरस्वता भवन वम्बई की सूची में 'उत्तर छत्तीसो' नामक एक संस्कृत ग्रन्थ है जो गणित विषय पर लिखा गया है, उसके कर्ता भी सम्भवतः यही सुमतिकोति हैं। सं० १६२७ में त्रिलोकसार रास को रचना कोदादा शहर में की। की दीका से पूर्ववर्ती हैं । मूति लेखों और मन्दिरों की विशालता से गोलापून्धिय गौरवान्वित है। वर्तमान में भी उसके पास अनेक शियरवन्द मन्दिर विद्यमान हैं। गोला पूर्वान्वय के संवत् ११६८,१२०२, १२०७.१२१३ भोर १३. आदि के अनेक लेख है। जिनसे इस जाति की सम्पन्नता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । इस उपजाति में भी अक प्रनिरिटन विद्वान, ग्रन्थकार, और श्रीसम्पन्न परिवार रहे हैं। वर्तमान में भी अनेक डाक्टर, आचार्य और विद्वान एवं व्याख्याता आदि हैं। विशेष परिचय के लिए देखें 'शिलालेखों में गोसापूर्वान्वय' भनेकान्त वर्ष २४, f+० ३ पृ. १०२ १. "तत्व गुण गाम माराहणा इदि । कि कारणं ? जेण आराषिजन्ते अशाग्र दसरा-गाए-बरित्तन्तवाणि ति। पातारा निविधा-मूलततक्त्ता, उत्तरतंत कत्ता, उत्तरोसर तंत कत्ता चेदि । तत्व मूलतत कत्ता भयव महावीरो । उत्तरतनकत्ता गोदम भयवदो । उतरोत्तरतंतकत्ता लोहायरिया भट्टारक अप्प भूदिअ आयरिया ।" -पंच सं० ५४३,४४) Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इन्होंने सम्वत् १६२२ वैशाख सुदी ३ सोमवार के दिन एक मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी । इनका समय १७वीं शताब्दी है । ५४६ भट्टाकलंकदेव यह संघ देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के चारुकीति पंडिताचार्य का शिष्य था । इसने अपने गुरु का परिचय निम्न वाक्यों में दिया है-"मूल संघ - देशीयगण पुस्तकगच्छ कु दकुन्दान्वय- विराजमान श्रीमद्रायराज गुरु मण्डलाचार्य महावादि वादीश्वर वादिपिता मह सकल विद्वज्जन चक्रवतिवल्लालराय जीवरकापाल केत्यादि कान्ति farnी विराजमान श्रीमन्ताकति देिवाचार्य शिष्य परम्परापाठ श्री संगीतपुर सिंहासन पट्टाचार्य श्रीमदकलंक देवनु" । कवि की एकमात्र कृति 'कर्णाटक शब्दानुशासन' नाम का व्याकरण है। जिसे कवि ने शक सं० १५२६ ( ई० सन् १६०४ ) में निर्मित किया है । विलेगियातालु के एक शिलालेख से इसको परम्परा विषयक कुछ बातें ज्ञात होती हैं । देवचन्द्र ने अपनी 'राजावली कथे' में लिखा है कि सुधापुर के भट्टाकलंक स्वामी सर्वशास्त्र पढ़कर महा विद्वान हुए । इन्होंने प्राकृत संस्कृत मागधी आदि षट् भाषाकवि हो कर कर्णाटक व्याकरण की रचना की । यह कनड़ी भाषा का व्याकरण है इसमें ४ पाद और ५९२ सूत्र हैं। इन सूत्रों पर भाषा मंजरी नाम की वृत्ति और मंजरीमकरंद नाम का व्याख्यान है । सूत्र, वृत्ति, और व्याख्यान तीनों ही संस्कृत में हैं । प्राचीन कनड़ी कवियों के ग्रन्थों पर से अनेक उदाहरण दिये हैं। कर्णाटक भाषा भूषण की अपेक्षा यह विस्तृत व्याकरण है । यह कनड़ी भाषा का अच्छा व्याकरण है। कवि ने इसमें अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों-पंप, होन्न, रन्न, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, रूद्रभट्ट, भागल, अंडय्य, मधुर का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १७वीं शताब्दी का प्रथम चरण (१६०४ ) है | ( कर्नाटक कवि चरित) कवि भगवतीदास सकलचन्द्र के प्रशिष्य पट्टधर भ० यह काष्ठासंध माथुरगच्छ पुष्कर गण के विद्वान भट्टारक गुणचन्द्र के और भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। महेन्द्र सेन दिल्ली की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे । इनको अभी तक कोई रचना देखने में नहीं प्राई और न कोई प्रतिष्ठित मूर्ति ही प्राप्त हुई है। इससे इनके सम्बन्ध में विशेष विचार करना सम्भव नहीं है । भ० महेन्द्र सेन प्रस्तुत भगवतीदास के गुरु थे, इसीसे उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका मादर के साथ स्मरण किया है। यह बुढ़िया जिला अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनदास था और जाति अग्रवाल और गोत्र वंसल था। इन्होंने चतुर्थ वय में मुनिव्रत धारण कर लिया था। यह संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश भ० श्री विजयकीर्ति देवाः तत्पट्टे भ० श्री शुभचद्र देवाः अनेकान्त वर्ष ४० ५०३ १. संवत् १६२२ वंशास सुदि ३ सोमे श्री कुन्दकुन्दान्वये तत्पट्टे भ० सुमतिकोति गुरूपदेशात् ब्रुवड शातीय गा रामा भार्या वीरा २. बूडिया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो मुगल काल में धन-धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के बस जाने से बुढ़िया की अधिकांश आबादी वहाँ चली गई भ्राजकल वहां खण्डहर अधिक हो गये हैं, जो उसके गत वैभव की स्मृति के सूचक है। ३. गुरुमुनि माहिदसेन भगोती तिस पद पंकज रंन भगती । किसनदास वरिण तनुज भगोती, तुरिये महिउ व्रत मुनि जु भगोती ॥ नगर दुढिये वर्क्स भगोती, जन्मभूमि है श्रासि भगोती । अग्रवाल कुल बंसल गोती, पण्डित पदजन निरख मगोती ||८३ - वृहत्सीता सतु, सलावा प्रति Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वी, १७वी और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान कवि थे। इनको अधिकांश रचनाएं हिन्दी पद्य में लिखी गई हैं, जिनको संख्या ६० के लगभग है। उनमें कई रचनाएं भाषा साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जैसे अनेकार्थ नाममाला (कोष) सीतासत, टंडाणारास, मादित्य व्रतरास, खिचड़ी रास आदि' | इनको सब उपलब्ध रचनाए' संवत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध है, जो चकसा बादशाह अकबर जहांगीर और शाहजहा के राज्य में रची गई है। ज्योतिष मौर वैद्यक की रचनाओं को प्रशस्ति सस्कृत म रची थी, रचना हिन्दा पद्या में है जो कारजा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं। इनके रचे अनेक पद और गीत मादि भा मिलते हैं। रचनाओं में अनक रचना-स्थलों का उल्लेख किया है। उनमें बुढ़िया (प्रम्बाला) दिल्लो, आगरा, हिसार, कपित्थल, सिहरदि आदि । कवि को रचनाए मनपूरो, दिल्ली, अजमेर आदि के शास्त्र भंडारों में उपलब्ध है। कवि की सब रचनाए संबत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध होती हैं । अतएव कवि का कार्य काल ५४ वर्ष है। कवि की अपभ्रश भाषा को तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-मृगांक लेखाचरिउ, सुगंधदसमी कहा और मुकुट सप्तमी कथा। मगांक लेखाचरित में चार संधिया है जिनमें कवि ने चन्द्रलेखा और सागरचन्द के चरित वर्णन करते हुए पका केशीलतः माहात्म्य ख्यापित किया है। चन्द्रलेखा विपदा के समय साहस और धैयं का परिचय देती हई अपने शोलवत से जरा भी विचलित नहीं होतो, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर अपने सतीत्व का जो प्रादर्श उपस्थित किया है, वह अनुकरणीय है । ग्रन्थ की भाषा अपभ्रंश होते हुए भी हिन्दी के अत्यधिक नजदीक है। सा कि उसके दोहों से स्पष्ट है ससिलेहा णियक्रत सम, धारई संजमु सार जम्मणु मरण जलंजली, दाण सुयणु भव-तार ॥ करि तणु तउ सिउपुर गयज, सो वणि सायरचंदु । ससिलेहा सुरवर भई तजि तिय-तणु प्रणिदु ॥ मुकुट सप्तमी कथा में मुकुट सप्तमी व्रत को अनुष्ठान-विधि का कथन किया गया है। सुगंधदसमी कथा में "भाद्रपद शुक्ला दसमी के व्रत का विधान और उसके फल का वर्णन किया गया है। शेष सभी रचनाएं हिन्दी की हैं। कवि का समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और अठारहवीं का पूर्वार्ध है। भ. सिंहनन्दी मूलसंघ पुष्कर मच्छ के भट्टारक शुभचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। इन्होंने 'पंच नमस्कार दीपिका' नाम का ग्रन्थ सं० १६६७ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन समाप्त किया है। अन्चस्तत्व रसतुचंद्र कलिते (१६६७) श्री विक्रमादित्यके । मासे कातिक नामनीह धबले पक्ष शरत्संभवे । वारे भास्वति सिद्ध नामति तथा योगेष पूर्णातियौ, नक्षत्रे ऽश्वनि नामनि तत्वरसिकः पूर्णीकृतो ग्रन्थकः ॥५५ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई की ग्रन्थ सूची में 'प्रततिथि निर्णय' नाम का एक पथ भ सिंहनन्दी के नाम से दर्ज है। यह ग्रन्थ आरा के जैन सिद्धान्त भवन में भी पाया जाता है, पर वह इन्हीं सिंहनन्दी १. देखो, अनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ तथा अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ १०१०४ २. संवत सोलह सइ जु इक्यावन, रविदिनु मास कुमारी हो, जिन वंदनु करिफिरि घरि-आए, विजय दसमि जयारी हो (अर्गलपुर जिनवंदना) मह रचना अकबर के राज्य में रवी गई है। ३. श्री मूल संघे वर पुष्करास्ये गम्छे सुजानः शुभचन्द्र सरि । तस्यात्र पट्ट जनि सिंहनन्दिर्भट्टारकोऽभूद्विषां वरेण्यः ॥५३ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ की कृति है या अन्य की, यह ग्रन्थ के अवलोकन के बिना निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इनके अतिरिक्त कवि की अन्य रचनाए' अन्वेषणीय हैं । कवि का समय १७ वों शताब्दी है। पंडित शिवाभिराम कवि ने अपना परिचय नहीं दिया और न गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। केवल अपने कं। 'पुपद बनिय' का पुत्र बतलाया है । पंडित शिवाभिराम १७वीं शताब्दी के विद्वान थे। इनकी दो कृतियां उपलब्ध हैं पट् चतुर्थ-वर्तमान-जिनार्चन; और चन्द्रप्रभ पुराण सग्रह (अष्टमजिन पुराण संग्रह)। इनमें से प्रथम ग्रन्थ को रचना मालवदेश में स्थित बिजयसार के 'दिविज नगर के दुर्ग में स्थित देवा लय में, जब अरिकुलशत्रु सामन्तसेन हरितनु का पुत्र अनुरुद्ध पृथ्वी का पालन कर रहा था. जिसके राज्य का प्रधान सहायक रघुपति नाम का महात्मा था। उसका पुत्र प-यराज ग्रन्थ कर्ता का परम भक्त था । उसो की सहायता से वि० सं० १६१२ में बनाकर समाप्त किया है नवशि (?) च नयनाख्ये कर्मयुक्तेन चन्द्रे, गतिवति सति जतो विक्रमस्येव काले । निपततितुषारे माघचद्रावतारे जिनवर पदचर्चा सिद्धये सप्रसिद्धा॥१५ दूसरे ग्रन्थ में आठव तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिन का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। उसो २७ सर्ग। प्रशस्ति में बतलाया है कि वहृदगुर्जरवंश का भूषण राजा तारासिंह था, जो कम्भनगर का निवासी था और दिल्ली के बादशाह द्वारा सम्मानित था। उसके पट पर सामंतसिंह हआ जिसे दिगम्बराचार्य के उपदेश से जैन धर्म वा। लाभ हुमा था। उसका पुत्र पसिंह हुमा, जो राजनीति में कुशल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम 'कोणा देवो' था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। उसीके उपदेश एवं अनुरोध से उक्त चरित ग्रन्थ को रचना हुई है। ग्रन्थ में रचना काल दिया हमा नहीं है । अतएव निश्चित रूप से यह बतलाना कठिन है कि शिवाभिराम ने इस ग्रंथ की रचना कब को है । पर प्रथम ग्रन्थ की प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ को रचना १७वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में पंडित अक्षयराम यह भट्टारक विद्यानन्द के शिष्य थे। भट्टारकीय पंडित होने के कारण संस्कृत भाषा के विद्वान थे। इनका सभय विक्रम की १८वीं शताब्दी है। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के प्रधान मन्त्री श्रादक ताराचन्द्र' ने चतुर्दशी का व्रत किया था, उसी का उद्यापन करने के लिये पंडित अक्षयराम ने संवत् १५०० में चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन 'चतुर्दशीव्रतोद्यापन' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। प्रब्वे विशून्याष्टकांके (१८००) चैत्रमासे सिते दले । पंचम्यां च चतुर्दश्यां ब्रतस्योद्योतनं कृतं ॥४॥ कवि नागव इसके पिता का नाम 'सोड् डेसे ट्टि' था, जो कोटिलाभान्वय का था और माता का नाम 'चौडाम्बिका था। कवि ने 'माणिकस्वामिचरित' की रचना की है। यह ग्रन्थ भामिनी षट्पदी में लिखा गया है, इसमें ३ सन्धियां और २९८ पद्य हैं । इसमें माणिक्य जिनेश का चरित अंकित किया गया है। उसमें लिखा है-कि देवेन्द्र ने अपना 'माणिक जिनबिम्ब' रावण की पत्नी मंदोदरी को उसकी प्रार्थना करने पर दे दिया और वह उसकी पूजा करने लगी। राम-रावण युद्ध में रावण का वध हो जाने के बाद मन्दोदरी ने उस मूर्ति को समुद्र के गर्भ में रख दिया। बहुत समय बीतने पर 'शंकरगण्ड' नाम का राजा एक पतिव्रता स्त्री की सहायता से माणिक स्वामी को वह मूर्ति ले प्राया -. -- -- --... -. ...------ १. श्री जयसिंह भूपस्य मंत्रिमुख्योऽग्रएो सतां । धावकस्ताराचंद्रास्थरतेनेदं प्रत समुसतं ।। -जैन अन्य प्र०भा०११०२७ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५५.१ और निजाम स्टेट के 'कुलपाक' नाम के तीर्थस्थान में उसको स्थापित किया। इस मूर्ति के कारण वह एक तीर्थ बन गया । कवि ने ग्रन्थ के शुरू में माणिक जिन की, सिद्ध, सरस्वती, गणधर और यक्षत्यक्षी की स्तुति की है । ग्रन्थ में समय नहीं दिया। संभवतः ग्रन्थ को रचना सन् १७०० के लगभग हुई है ( अनेकारत वर्ष १, किरण ६-७ ) पं० जगन्नाथ इनकी जाति खंडेलवाल थोर गोत्र सोगाणी था। इनके पिता का नाम सोमराज श्रेष्ठी था । जगन्नाथ ज्येष्ठ पुत्र थे और वादिराज लघु पुत्र थे। जगन्नाथ संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। यह दोड़ा नगर के निवासी थे, जिसे 'तक्षकपुर' कहा जाता था । ग्रन्थ प्रशस्तियों में उसका नाम तक्षकपुर लिखा मिलता है । १६वीं १७वीं शताब्दी में टोडा नगर जन-धन से सम्पन्न नगर था। उस समय वहाँ राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहां खंडेलवाल जैनियों की अच्छी बस्ती थी। टोहा में भट्टारकीय गद्दी थी, और वहां एक अच्छा शास्त्र भडार भी था। प्राकृत और संस्कृत भाषा के अच्छे ग्रन्थों का संग्रह था। वहां अनेक सज्जन संस्कृत के विद्वान हुए हैं। संवत् १६२० में वहां की गद्दी पर मंडलाचार्य धर्मचन्द्र विराजमान थे, जिन्होंने संस्कृत में गौतम चरित्र की रचना की है। यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है । पंडित जगन्नाथ भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने 'श्वेताम्बर पराजय की प्रशस्ति में अपने को कवि गमक-बादि और वाग्मि जैसे विशेषणों से उल्लेखित किया है। - कवि गमक- वादिवाग्भित्व गुणालंकृतेन खाडिल्लवं पोमराज श्रेष्ठ सुतेन जगन्नाथ वादिना कृती केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् ।' कर्मस्वरूप नामक ग्रन्थ को प्रशस्ति में कवि ने अपना नाम ग्रभिनव वादिराज सूचित किया हैं । कवि की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं- चतुविशतिसंधान, (स्वोपज्ञटीका सहित) सुख निधान, नेमिनरेन्द्रतांत्र सुषेणचरित्र, कर्म स्वरूप वर्णन । चतुविशति संधान-ग्धरा छन्दात्मक निम्न पद्य को २५ बार लिख कर २५ अर्थ किये हैं। एक-एक प्रकार में २४ तीर्थकरों की अलग-अलग स्तुति की है, और मन्तिम २५वें पद्य में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थंकरों को स्तुति की है। श्रीयान् श्री वासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीब्रुमांकोऽथ व यंक: पुष्पदन्तो मुनिसुव्रत जिनोऽनंतवाक् शान्तिः पद्मप्रभोऽरो विमलविभुरसौ श्री सुपार्श्वः । वर्द्धमानोको | मल्लिनेमिर्न मिर्मा सुमतिश्चतु सच्छ्री जगन्नाथ पोरं ॥१॥ दूसरी रचना 'श्वेताम्बर पराजय' है । कवि ने इस ग्रन्थ को विबुध लाल जी की आज्ञा से बनाया है। इसमें श्वेताम्बरों द्वारा मान्य 'केवलिभुक्ति' का सयुक्तिक खण्डन किया है। ग्रन्थ में 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र स्वोपज्ञ' का एक पद्य उद्धृत किया है : यत तय न भुक्तिर्नष्टः दुःखोदयत्वाद्वसनमपि न चांगे वीतरागत्वतश्च । इति free हेतू न ह्यसिद्धार्थासिद्धो विशद - विशद दृष्टीनां हृदिलः (?) सुयुक्तये ।" कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १७०३ में दीपोत्सव के दिन समाप्त की थी। उसका मन्तिम पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है : इति श्वेताम्बर पराजये कवि गमक- वादि- वाग्मिस्व गुणालंकृतेन खाडिल्स वंशोद्भव पोमराज श्रेष्ठि सुतेन |" जगन्नाथ वादिना कृतौ केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् तीसरी रचना सुखनिधान है— इस ग्रन्थ में विदेह क्षेत्रीय श्रीपाल चक्रवर्ती का कथानक दिया हुआ है । प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ की रचना सरस और प्रसाद गुण से युक्त है । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने राजस्थान में 'मालपुरा' — कर्मस्वरूप वर्णन प्र० १. पंडित जगन्नार्थ परास्याभिनवत्रादिरा में विरचिते कर्मस्वरूप ग्रन्थे । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ (जयपुर) नामक स्थान में की है। कवि ने इस ग्रन्थ में अन्यच्च अस्माभिरुक्तं शृङ्गार समुद्र काव्ये' वाक्य के साथ अपने शृगार समुद्र काव्य नाम के ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इस कृति का अन्वेषण होना चाहिये कि किसी भण्डार में यह ग्रन्थ उपलब्ध है या नहीं। इस ग्रन्थ की ५१ पत्रात्मक एक प्रति पाटौदी भण्डार जयपुर में है जिसमें उसका रचना काल संवत् १७०० असोज सुदी १०मी दिया है। चौथी रचना 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र' है। इसमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का स्तवन किया गया है। रचना सुन्दर है और अभी अप्रकाशित है । इसमें भी केबलिभकिा और कवलाहार का निषेध किया गया है । इस पर स्वोपन टीका भी निहित है। इसे प्रकाश में लाना चाहिये । इसका रचना काल भी ज्ञात नहीं हुआ। पांचधी रचना 'सुषेण चरित्र' है। इस ग्रन्थ की ४६ पत्रात्मक एक प्रति ग्रामेर भण्डार में उपलब्ध है, जो सं० १८४२ को लिखी हुई है। छठवीं रचना 'कर्मस्वरूप वर्णन है, जिसमें ज्ञानावरणादि कर्मों को मल और उत्तर प्रकृतियों के वर्णन के साथ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार बंधों का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। कवि ने इस ग्रन्थ को संवत १७०७ के चैत महीने के शुक्ल पदा की दोइज के दिन समाप्त किया है : वर्षे तत्व नभोश्य परिमिते (१७०७) मासे मधी सून्दरे। तत्पक्षे च सितेतरेहनि तथा नाम्ना द्वितीयाहये । श्री सर्वज्ञ पदांबुजानति गलव ज्ञानावृति प्राभवा स्त्रविद्येश्वरता गता व्यरचयन् श्री वादिराजा इमम ।। कवि का समय १७वीं शताब्दी का अन्तिम अंश और १८वीं शताब्दी का पूर्वाध है। कवि वादिराज यह खंडेलवंशी पोमराज श्रेष्ठी के लघु पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र पंडित जगन्नाथ थे, जो संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित घे । इनका गोत्र 'सौगाणी' था। यह तक्षक नगर (वर्तमान टोडा नगर) के निवासी थे। लघु पुत्र का नाम वादिराज था । जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान, कवि थे और राजनीति में पटु थे । इनके चार पुत्र थे--रामचन्द्र, लाल जी, नेमिदास और विमलदास । विमलदास के समय 'टोडा' में उपद्रव हुअा था जिसमें एक गुच्छक (गटका) भी लूट गया था। बाद में उसे छुड़ा कर लाये, वह फट गया था, और उसे सम्हाल कर रक्खा गया। यादिराज ने अपने को उस समय धनंजय, पाशाधर और वाग्भट का पद पारण करने वाला दूसरा वाग्भट बतलाते हुए लिखा है कि राजा राजसिंह दूसरा जयसिंह हैं और तक्षक नगर दूसरा प्रणहिलपुर है और मैं वादिराज दूसरा वाग्भट हूँ। धनंजयाशापरवाग्भटानां धसे पदं सम्प्रति वादिराजः। खांडिल्ल वंशोब्रुवपोमसजिनोक्ति पीयूष सतप्त गात्रः ॥३ वादिराज तक्षक मगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे। राजसिंह भीमसिंह के पुत्र थे। कवि की इस समय दो रचनायें उपलब्ध हैं। वाग्भटालंकार की टोका 'कविचन्द्रिका' जिसका पूरा नाम 'वाग्भट्टालंकारावरि-कवि चन्द्रिका' है। इस टीका को कवि ने राज्य कार्य से अवकाश निकाल कर बनाई थी। पौर दूसरी रचना 'शानलोचन स्तोत्र' नाम का एक स्तोत्र प्रन्थ । यह स्तोत्र माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्य माला से १. संवत् १७५१ मगसिर वदी तक्षक नगरे खण्डेलवालान्वये सोगानी गोत्रे साह पोमराज तत्पुत्र साह वादिराजस्तपत्र सत्त्वार प्रथम पुत्र रामचन्द्र द्वितीय साल जी तृतीय नेमिदास, चतुर्थ विमलदास, टोडा में विपो हुओ, जब पाइपोषी सुटी, यहां थे खुडाई फटी सुटी संवारि सुधारि पाछी करी, भानावरणी कर्मक्षयार्थ पुत्रादि पठनायं शुभं भवतु । म.प्र. प्रशस्ति सं० भाग १ पृ. ३६ । २. इति मरवा रलवयालंकृत विद्यायित्तो विमल पोम श्रेष्टि कुल भूगो महामात्य पदच्छीमारमट महाकनिस्ताव दिष्ट देवतामभौष्टेति । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वी, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि प्रकाशित सिद्धान्त सारादि संग्रह में मुद्रित हो चुका है। और पहला ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। कवि ने इसकी अन्तिम प्रशस्ति में अपना परिचय भी अंकित कर दिया है । कवि ने इस चन्द्रिका टीका को वि० सं० १७२६ की दीपमालिका के दिन गुरुवार को चित्रा नक्षत्र और बश्चिक लग्न में बनाकर समाप्त किया है। कवि की अन्य रचनाएं अन्वेषणीय हैं । कवि का समय १८ वीं शताब्दी है। अरुणर्माण यह मदारक श्रुतकीति के प्रशिष्य और बुध राघव के शिष्य थे। बुध राघव ने ग्वालियर में जैन मन्दिर बनवाया था। इनके ज्येष्ठ शिष्य बुध रत्नपाल थे, दूसरे बनमाली तथा तीसरे कान्हरसिंह थे। प्रस्तुत अरुणमणि (लालमणि) इन्हीं कान्हरसिंह के पुत्र थे। प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार बतलाई है-काष्ठा संघ में स्थित माथुरगच्छ और पुष्करगण में लोहाचाय के अन्वय में होने वाले भ० घमंसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीति, यशकीति, जिनचन्द्र, श्रुतिकीर्ति के शिष्य धरत्नपाल, वनमाली और कान्हरसिंह। इनमें कान्हरसिंह के पुत्र अरुणमणि ने 'अजित पुराण' की रचना मुगल बादशाह अवरगशाह (औरंगजेब) के राज्य काल में सं० १७१६ में जहानाबाद नगर (वर्तमान न्यू दिल्ली) के पार्श्वनाथ जिनालय में बनाकर समाप्त की है। इनके शिष्य पं० बुलाकीदास थे। इन्होंने दिल्ली में बुलाकीदास को पढ़ाया था। कवि बलाकीदास ने प्रश्नोत्तर श्रावकाचार प्रशस्ति में इनका निम्न पद्यों में उल्लेख किया है "अरुन-रतन पंडित महा, शास्त्र कला परवीन । अलचन्द तिनपं पदयो, ग्यान अंश तहाँ लीन ।।१६ बहुत हेत करि प्ररुन नै, दयो शान को भेव । तव सुबुद्धि घट में जगी, करि बुद्धि तम छेद ॥"२० प्रस्तुत प्रजितपुराण में दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। रचना सरस और सरल है। भट्टारक देवेन्द्र कोति यह मूलसंघ के भट्टारक जगतकीति के पट्टधर थे। जगतकीति भ० सुरेन्द्रकीति के पट्ट पर सं० १७३३ ॥ सवत्सरे निधिदगश्व शशाङ्कयुक्त दीपोत्सवात्य दिवसे सगुरौ सचित्र। . सानेऽलि नाम्नि च समाप गिरः प्रसादात् सदादिराज रचिता कवि चन्द्रिकेयम् ॥ श्री राजसिंह नपतिर्जयसिंह एवं थी तक्षकास्यनगरी अहिल्लतुल्या। श्री वादिराज विबुधोऽपर वाग्भटोऽयं श्री सूत्र वृत्तिरिह नन्दतु चाकं चन्द्रम् ॥२ श्रीमद्भीमनपालजस्य बलिनः श्री राजसिंहस्य मे, सेवायामवकाशमाप्य विहिता टीका शिशूना हिता। होनाधिक्य वनो यदव लिखितं तद्वै बुधः क्षम्यताम् । गाहस्थ्यावनिनायसेवनधियः कः स्वस्थता माप्नुयात् ।। ३ २. देखो, जन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग १, पृ० १७ ॥ ३. रस-वृष-यति-वंदे रुपात संवत्सरे (१७१६) ऽस्मिन, नियमित सितवारे वैजयन्ती दशम्या, अजित जिनचरित्र बोध पात्र बुधानां, रचितममलवाग्मि-रक्त रत्नेन तेन॥४. मुद्गले भूभुजा श्रेष्ठे राज्येऽवरंग साहिके।' जहानाबाद-नगरे पार्श्वनाथ जिनालये Int Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग 2 आमेर में प्रतिष्ठित हुए थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। भ. देवेन्द्र कीति ने 'समयसार' ग्रन्थ की एक टीका 'ईसरदे' ग्राम में संवत् 1758 में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है : वस्वष्टयुक्तसप्तेन्दयुते (1788) वर्षे मनोहरे। शुक्ले भाद्रपदे मासे चतुर्वश्यां शुमे तिथौ // 1 ईसरदेति सद्ग्रामे टोकर पूणितामिता। भट्रारक जगत्कीर्तेः पट्टे देवेन्द्रकीतिना // 2 दुष्कर्महानये शिष्य मनोहर-गिरा कृता। टीका समयसारस्य सुगमा तत्वबोधिनी // 3 इस टीका का नाम कवि ने 'तत्वबोधिनी' दिया है। कवि का समय विक्रम को १८वों ताब्दी का अन्तिम चरण है। म. धर्मचन्द्र मूलसंघ बलात्कार गण भारतीगच्छ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य थे। इन्होंने अपनो.परम्परा निम्न प्रकार बतलाई है-नेमिचन्द्र, यशः कीर्ति, भानुकोति और श्रीभूषण 1 इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र सेठी था। यह संवत् 1712 में पट्ट पर बैठे थे। और उस पर 15 वर्ष तक रहे। इनका पट्ट स्थान महरोठ था। भट्टारक धर्मचन्द्र ने वि० सं० 1726 में ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया शुक्रवार के दिन रघुनाथ नामक राजा के राज्य में महाराष्ट्र ग्राम के आदिनाथ चैत्यालय में मौतम चरित्र' बनाकर समाप्त किया है। कवि का समय 16 वो शताब्दी है। विमलदास यह अनन्तसेन के शिष्य और वीरग्राम के निवासी थे / तर्कशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। इन्होंने प्लवंग संवत्सर की वैशाख शुक्ला अष्टमी बृहस्पतिवार के दिन सप्तभंग तरंगिणी नाम का ग्रंथ तंजोर नगर में पूर्ण किया था। यह ग्रंथ प्रकाशित हो गया है / इनका समय १७वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है। सप्तभंग तरंगिणी ग्रंथ का बिस्तार 800 श्लोक प्रमाण हैं। उसमें समन्तभद्र, अकलक, विद्यानन्द माणिक्यनन्दी और प्रभाचन्द्र प्रादि के ग्रन्थों के उद्धरण देकर सरल भाषा में स्यावाद के अस्ति-नास्ति मादि सप्तभंगों का विवेचन किया है, तथा अनेकान्तबाद में प्रतिपक्षियों द्वारा दिए गए संकर, व्यतिकर, विरोध और असंभव प्रादि दोषों का निरसन किया है। अन्त में लेखक ने बौद्ध, मीमांसक नैयायिक और सांख्यादि मतों में अप्रत्यक्ष रूप से सार पेक्षवादका अवलम्बन किया है, इसको स्पष्ट किया है। -- - - 1. संवत् सत्रास अर तेतीस, सावणबदि पंचमी भणि / पदवी भट्टारक अचल विराजित पण दान धण राजतंत्र॥ -मट्टारक पट्टावली 2. श्रीमरिगणाधिपो विजयतां श्रीभुषणाख्यो मुनिः // 266 पट्टे तदीये मुनि धर्मचन्द्रोभून्छो बलात्कार गरणे प्रधानः / श्री भूलसंधे प्रषिरापमानः श्री भारती गच्छ सुदीप्ति भानुः / / 267 राजधी रधुनाथ नामनुपती ग्रामे महाराष्ट्र के / नाभेयल्प निकेतनं शुभतर भाति प्रसौष्याकरम् / / तस्मिन् विकमया द्विवाद रस मुगाद्रींदु प्रमे वर्षकै / ज्येष्ठे मासे सितद्वितीये दिवसे कांसे हि शुकान्विते // 296 -गौतम चरित्र