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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के माचार्य, विद्वान और कवि ३८९ कवि ने इस रास रचना को 'त्रिभुवनगढ़' में 'अजय नरेन्द्र' अजयपाल राजा के बनवाए हुए विहार में बैठ कर बनाया है । उस समय यह नगर यद | राजामों की राजधानी रहा है, अतः यह तहनगढ़ जन-धन से समृद्ध था। इसी से कवि ने उसे 'सम्ग खंड णं धरियल आय वाक्य द्वारा उसे स्वर्ग खण्ड के तुल्य बतलाया है। कवि की इस रचना से पूर्व इनके विद्यागुरु उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे। इसी से इसकी प्रशस्ति में 'मथुरा संघहं उदय मुणोसरु' रूप से उल्लेखित किया है। चौथी रचना कल्याणक गस है, जिसमें चौबीस तीर्थकरों को गर्भ, जन्म, दोक्षा, केवल ज्ञान प्राप्ति और निर्वाण रूप पंचकल्याणक की तिथियों का निर्देश किया गया है । इस रास की सं० १४४५ की लिखी हुई प्रतिलिपि उपलब्ध है, जो पं० दीपचन्द्र पाण्डया के कड़ी के पास मौजूद है। पांचवीं कथा निर्दूख सप्तमी है। जिसे कवि ने कहाँ बनाया, यह उस प्रति में कोई उल्लेख नहीं है । उसका प्रादि मंगल पद्य इस प्रकार है: ___सति जिणिदह-पय-कमलु, भव-सय-फलुस-कलंक-णिवार । उदयचन्द्र गरु धरे धिमणे, बालइंदू मुणि णधिवि णिरंतरु ।। अन्तिम प्रशस्ति उपलब्ध नहीं है। समय मुनि विनयचन्द ने अपनी किसी भी रचना में उनका रचना काल नहीं दिया। किन्तु दो रचना स्थलों का उल्लेख अवश्य किया है। एक महावन का और दूसरा तिहुवण गिरि (तहनगढ़) की तलहटी तथा उसके अजयपाल नरेन्द्र के विहार का । प्रस्तुत तिहुवण गिरि महावन से दक्षिण-पश्चिम की ओर लगभग साठ मोल राजस्थान के पुराने करोलो राज्य और भरत पुर राज्य में पड़ता है। अतः इनका निवास और विहार क्षेत्र मथुरा जिला पौर भरतपुर राज्य रहा है । तिया गढ़ के अजमाल रेल प्रशस्ति महावन से सन् १०५० (वि० सं० १२०७) की मिली है । और दूसरा लेख अजयपाल के उत्तराधिकारी हरिपाल का उसी महावन से सन् १९७० (दि० सं० १२२७) का मिला है। इससे स्पष्ट है कि बिनयचन्द्र ने अपनी रचना उक्त अजयपाल नरेश के विहार में बैठ कर बनाई है । अतः उसका रचना काल सन् ११५० से ११७० के मध्य रहा है। अर्थात् विनय चन्द्र मुनि विक्रम को १३वों शताब्दी के पूर्वार्थ के विद्वान ठहरते हैं। भरतपुर राज्य के अधपुर स्थान से एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिस पर सन् ११९२ (वि० सं० १२४६) के उत्कीर्ण लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है । सहनपाल के बाद कुमारपाल तिहवण गिरिको गद्दी पर बैठा था। वह वहां ३-४ बर्ष ही राज्य कर पाया था कि उस पर सन् १९९६ में आक्रमण कर दिया गया । मुसलमानी तन्नारीख 'ताजुलमनासिर' में लिखा है कि हिजरी सन् ५७२ सन् ११६६ (वि० सं० १२५३) में मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने कुमारपाल पर हमला कर उसे परास्त कर तिहुवण गिरि का दुर्ग वहारुद्दीन तुघरिल को सौंप दिया। उस समय तिडवण गिरि बुरी तरह तहस-नहस हो गया था। वहां के सब हिन्दू और जैन परिवार इधर उधर भाग गये थे । वह वीरान हो गया था । ऐसो स्थिति में वहां रहकर रचना करने का प्रश्न हो नहीं उठता विनयचन्द्र ने अपना चुनड़ी रास अजयपाल नरेन्द्र के विहार में बैठकर रचा था जिसे अजयपाल ने बनवाया था। मजयपाल की सन १०५० की प्रशस्ति का ऊपर उल्लेख किया गया है। इससे बिनयचन्द्र विक्रम को तेरहवीं शताब्दी के पूर्वाधं के विद्वान निश्चित होते हैं। १. देबो एनिग्राफिका इंडिका जि०१० २८६ २. एपिग्राफिका इरिका खण्ड २ पृ. २७६ तथा A. Cunningham vol xx ! ३. तहिणिवसंते मूणिवरें अजवरणरिदं हो राजविहारहि। वेगे विरइय वनडिय, सोहहु मूणिवर जे सुयधारहिं ।। -चूनडी प्रशस्ति
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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