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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ३८८ कथा का निर्माण किया था। और कुछ समय बाद वे मुनि हो गए थे। वे मथुरा के पास यमुना नदी के तट पर बसे हुए महावन में रहते थे। मुनि विनयचन्द्र भी वहां के जिन भवन में रहते थे। मुनि विनयचन्द्र ने महावन नगर के जिन मन्दिर में 'नरग उतारी रास की रचना की थी। उसे स्वर्ग बतलाया है जिससे वह अत्यन्त सुन्दर होगा । जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : प्रमिय सरोसउ जवरर्ग जलु, जयरु महावण सग्गु । तह जिण भर्याणि वसंतद्दण, विरइउ रासु समग्गु ॥ मुनि विनयचन्द्र अच्छे विद्वान और कथि थे। उनकी एक रचना का स्थल उक्त महावन था और दूसरी दो रचनाओं का - णिज्झरपंचमी कहा (रास) और चुनड़ी रास का रचना स्थल तिहुवण गिरि की तलहटी, और अजयपाल नरेन्द्र का विहार था । कवि की इस समय पांच रचनाएं उपलब्ध हैं। गिझर पंचमी कहा ( रास ) नरग उतारी रास, चूनड़ी रास, कल्याणक रास और निदुख सप्तमी कथा । रिगज्रपंचमी कहारास - इस रास में कवि ने निर्झरांचमी व्रत का स्वरूप और उसके पालन का निर्देश किया है और बतलाया है कि पंचमी के दिन जागरण करें, और उपवास करें, तथा कार्तिक के महीने मैं उसका उद्यापन करे । श्रथवा श्रावण मास में प्रारम्भ वारके अगहन महीने में उद्यापन करे। उद्यापन में छत्र चामरादि पांच-पांच वस्तुएँ मन्दिर जी में प्रदान करे। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो व्रत दुगुने दिन करे, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : - धवल पश्वि प्रासादह पंचमि जागरण, सुह उपवास किज्जद्द कार्तिक उज्जवण | ग्रह सावण प्रारंभिय पुज्जइ श्रगहणे, इ इ णिक्कर पंचमि प्रक्षिय भय हरणे ।। कवि ने इस रास की रचना तिहुयणगिरि की तलहटी में बनाकर समाप्त की हैः यथा- तिहयण गिरि तलहट्टी बहू रास रथ । माथुर संघ मुणिवर विषयश्वंवि कहिउ ॥ दूसरी रचना 'नरग उतारी रास' है जिसे कवि ने यमुना नदी के किनारे बसे हुए महावन (नगर) के जिनमन्दिर में रहते हुए की थी । तीसरी रचना 'घूनड़ी रास' है। इस रास में ३२ पद्म हैं। जिसमें चूनड़ी नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर एक गीति काव्य के रूप में रचना की गई है। कोई मुग्धा सुवती हंसती हुई अपने पति से कहती है कि हे सुभग ! जिन मन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चूनड़ी शीघ्र छपवा दीजिए, जिससे में जिनशासन में विचक्षण हो जाऊँ । वह यह भी कहती है कि माप वैसी चुनड़ी छपवा कर नहीं देंगे, तो वह छोपा मुझे तानाकशी करेगा। पति पत्नी की बात सुनकर कहता है कि है मुग्धे ! वह छीपा मुझे जैन सिद्धान्त के रहस्य से परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापकर देने को कहता है । चूनड़ी उत्तरीय वस्त्र है, जिसे राजस्थान की महिलाएं विशेष रूप से प्रोढ़ती थीं । कवि ने भी इसे रूपक बतलाते हुए चुनड़ी रास का निर्माण किया है। जो वस्तु तत्र के विविध वागभूषण रूप प्राभूषणों से भूषित है, और जिसके अध्ययन से जैन सिद्धान्त के मार्मिक रहस्यों का उद्घाटन होता है । वैसे ही वह शरीर को अलंकृत करती हुई शरीर की अद्वितीय शोभा को बनाती है। उससे शरीर को प्रलंकृत करती हुई बालाएं लोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगी पर अपने कण्ठ को भूषित करने के साथ-साथ भेद - विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगी । रचना सरस और चित्ताकर्षक है । इस पर कवि की एक विस्तृत स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ी रास में दिए संद्धान्तिक शब्दों के रहस्य को उद्घाटित किया गया है। ऐसी सुन्दर रचना को स्वोपज्ञ संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिए।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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