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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाय २ उदयचन्द कवि उदयचन्द्र ने अपनी रचना में अपना कोई खास परिचय नहीं दिया, किन्तु प्रात्म-निवेदन करते हुए बतलाया है कि वे अपने कूलरूपी माकाश को उद्योतित करने वाले उदयचन्द्र नामधारी गृहस्थ विद्वान थे और उनकी याका नामति सदयतिमा,जो अरपात सुशीला थी।वे मथुरा के पास यमुना नदी के तट पर बसे हुए महावन में रहते थे। उदयचन्द्र मुनि बालचन्द्र के दीक्षित शिष्य विनयचन्द्र के विद्यागुरु थे । विनयचन्द्र भी वहाँ रहते थे। उन्होंने वहां के जिन मन्दिर में नरग उतारी कथा (रास) बनाया था। उसके प्रादि में विद्यागुरु को नमस्कार नहीं किया, क्योंकि मुनि का गहस्थ को नमस्कार करना उचित नहीं है, इसलिये उन्होंने--उदयचंदु गुस गणहर गरवउ, वाक्य द्वारा उनका स्मरण किया है। उन्होंने महावन को "अमिय सरोसा जवणजलु णयह महावन सम्गु । तहि जिण भवणि वसंत इण विरइउ रासु समग्गु ॥" उक्त वाक्य में स्वर्ग बतलाया है। इससे महावन की सुन्दरता का पाभास होता है । कवि विनयचन्द्र ने अपनी उक्त कृति का रचना स्थल महावन का जिन मंदिर बत लाया है। ___ ऋषि उदयचन्द्र ने लिखा है कि शास्त्रकारों ने सुगन्ध दशमो कथा को विस्तार के साथ कहा है। किन्तु मैंने उसे मनोहर रीति से गाकर सुनाया है। जिस तरह उन्होंने जसहर (यशोधर) और नागकुमार चरित्रों को बांचकर मनोहर भाषा में सुनाया था। सुगन्ध दशमी कथा दो सन्धियों की छोटी-सी रचना है, किन्तु रचना प्रसाद गुणयुक्त है, उसको प्रथम सन्धि में १२ और दूसरी संधि में कडवक है । इन कडवकों की रचना प्रायः पद्धड़िया और अलिल्लह छन्दों में हुई है । इसमें दशमी के अत पालन की महत्ता और फल बतलाया गया है। सुगंधदशमी ब्रत का पालन करने से आत्मा जहां पापों से छुटकारा पाता है वहां वह उसके प्रभाव से सुगन्धित शरीर भी पाता है, जैसा कि दुर्गन्धा ने सुगन्ध दशमी का व्रत पालकर प्राप्त किया था। कथा बड़ी रोचक है । कथानक की सुन्दरता ने ग्रन्थ की महत्ता को बढ़ावा दिया है। इसी से इस कथा की रचना प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा में विविध कवियों ने की है। कथा में दुर्गन्धा द्वारा जिनामिषेक करने का कवि ने उल्लेख किया है, जो आम्नाय के प्रतिकूल है। यह कथा संस्कृत भाषा के १६१ पद्यों में ब्रह्मश्रुतसागर में बनाई है और उसी का पद्य रूप अनुवाद कवि खुशालचन्द्र ने दोहा चौपाई में किया है, जो कई बार छप चुका है। कथानक वही है जो उदयचन्द्र की कृति में दिया है। रचना काल कवि ने कथा में रचना का उल्लेख नहीं किया और न रचनास्थल का संकेत किया है। किन्तु विनयचन्द्र मुनि ने अपने रास का रचना स्थल यमुना नदी के तट पर बसा हुआ महावन का मन्दिर बनाया है। मधुरा के अासपास अनेक दनों का उल्लेख मिलता है, उसमें महावन भी एक है। उस महावन से यदुवंशीय राजा अजयपाल को सन ११५० (वि०सं० १२०७) की एक प्रशस्ति' उपलब्ध हुई है और सन् १९७० (वि.सं. १२२७) का एक लख राजा अजयपाल के उत्तराधिकारी हरीपाल के राज्य का उत्कीर्ण किया हुया उसी महावन से मिला है। भरतपुर राज्य के अवपुर नामक स्थान से भी एक मूर्ति उपलब्ध हुई है, जिस पर सन् १९६२ (वि० सं० १२४६) के उत्कीर्ण लेख में सहनशल नरेश का उल्लेख है । सहनपाल के बाद (कुबरपाल) कुमारपाल, तिहुवण गिरी की गद्दी पर बैठा था । वह ३-४ वर्ष ही राज्य कर पाया था। मुसलमानी तबारीख 'ताजलममासिर' में लिखा है कि १.णिय कुलणह-उम्जोइप-चंदई, सज्जण-मण कम-रायणाएददं ।' २. बइ सुसील-देमइयहि कतई।' ३. इय सुअदिक्वहि कहिय सवित्थर, मई गाबित्ति सुरणाश्य मणहर भवियण-कण्णा -मणहर-भासई, जसहर-गायकुमार हो वापई॥ -सुगंध दशमी कथा पृ० २५ ४. देखो एपि आफिका इंडिका, जिल्द १ पृ० २८६ । ५. एपिग्राफिका इंडिका, खण्ड २ पृ० २७६ तथा A Cunningham VOLXx
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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